Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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बाद संशयका उल्लेख नहीं किया है इसरीतिसे जब संशयज्ञानमें किसी पदार्थका आलंबन है. नहीं
और ईहाज्ञानमें पदार्थका आलंबन है इसलिए संशयज्ञानमें ईहाका होना बाधित है तब ईहाज्ञान कभी संशयज्ञान नहीं कहा जा सकता।
अपाय और अवाय दोनों प्रकारके पाठोंके माननेमें कोई दोष नहीं क्योंकि यह पुरुष दक्षिणी नहीं है। जिससमय ऐसा अपाय निषेध किया जाता है उससमय 'उत्तरी है' इस अर्थसे अवायज्ञानसे ग्रहण होता | है और जिस समय 'यह उचरी है' इसरूपसे पदार्थका ग्रहण होता है उस समय 'यह दक्षिणी नहीं हैं। इस पदार्थका निषेध हो जाता है इसलिए अवाय और अपाय यह दोनों प्रकारका पाठ इष्ट है । शंका__'दर्शनकी उत्पतिमें असाधारण कारण'--पदार्थ और इंद्रियोंके संबंधसे दर्शन होता है और उस के बाद अवग्रह ज्ञान होता है यह बात जैनसिद्धांतमें मानी है परंतु यह कहना अयुक्त है । अवग्रह | ज्ञानसे भिन्न दर्शन पदार्थ है ही नहीं ? सो ठीक नहीं । बालक जिससमय जन्म लेता है उससमय वह । घट पट आदि भिन्न भिन्न द्रव्योंको देखता है परंतु उनकी विशेषता नहीं जानता इसलिए उसका देखना जिसतरह दर्शन माना जाता है उसीतरह चक्षुदर्शनावरण और वीयांतराय कर्मके क्षयोपशसे एवं अंगोपांग नामक नामकमेक बलसे जिससमय आत्मामें कुछ विशेष सामर्थ्य उत्पन्न होजाती है उससमय 'यह कुछ हैं इसरूपसे उसमे निराकार वस्तुकी झलक उदित होती है उसीका नाम दर्शन है और केवलज्ञानियोंके सिवा हरएक संसारी जीवके ज्ञानसे पहिले यह दर्शन होता हैं। इस दर्शनके बाद दो तीन आदि समयमें होनेवाला नेत्रजन्य अवग्रह मतिज्ञानावरण और वीयांतराय कर्मके क्षयोपशमसे एवं
१ इनका स्वरूप आगे लिखा जायगा ।
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