Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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निषेध होता है । नामस्थापनेत्यादि इस सूत्रके समीपमें जीव अजीवादिका व्याख्यान हो चुका है। यदि ॐ इहां तत् शन्दका उल्लेख न किया जायगा तो नाम आदि निक्षेपोंसे जीव अजीव आदिका ही व्यवहारमा
होगा सम्यग्दर्शन आदिका न हो सकेगा किंतु होता सम्यग्दर्शन आदिका भी है इसलिये सम्यग्दर्शन ५ आदिका भी नाम आदि निक्षेपोंसे व्यवहार होता है यह बतलानेके लिये सूत्र में तत् शब्दका ग्रहणयुक्त हू ही है ? सो ठीक नहीं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंका तत्त्वार्थसूत्र नामक है शाम्रमें प्रधानतासे उपदेश है क्योंकि इन्हींके स्वरूपके समझानेके लिये शास्त्रका आरंभ हुआ है इसलिये ये तीनों प्रधान हैं तथा जीव अजीव आदि तत्त्व, सम्यग्दर्शन आदिके विषय है इसलिये उनका गौणरूपसे उपदेश होनेसे वे अप्रधान हैं। प्रधान और अप्रधानमें प्रधानका ही ग्रहण है इस नियमके अनुसार यदि सूत्रमें तत् शब्दका ग्रहण न किया जायगा तो नाम आदि निक्षपोंके साथ सम्यग्दर्शन आदि प्रधानोंका ही सम्बन्ध हो जायगा अप्रधान जीव अजीव आदिका संबंध ही न हो सकेगा इस लिये सूत्रमें तत् शब्दके ग्रहण न करनेपर अत्यन्त समीपमें रहनेवाले जीव अजीव आदिका नाम सा- र पना आदिके साथ संबंध होगा, सम्यग्दर्शन आदिका न होगा यह नहीं कहा जा सकता। तथा-. _
विशेषातिदिष्टत्वाच ॥ ३७॥ 'विशेषेणातिदिष्टाः प्रकृतं न बाते' अर्थात् जिनका वर्णन विशेषरूपसे किया जाता है वे प्रकरण से चले आनेवाले पदार्थमें बाधा नहीं पहुंचाते । इहपर सम्यग्दर्शन आदि तीनोंका प्रकरण चला आ 8 रहा है और जीव अजीव आदि सम्यग्दर्शन आदिके विषय हैं यह भी विशेष रूपसे कहा गया है इस
लिये जीव अजीव आदि केस भी असंत समीप क्यों न हों वे सम्यग्दर्शन आदिको बाधा नहीं कर सक्ते
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