Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मापा
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उस समय करण अंशमें अज्ञानी है। जिस समय करण माना जायगा उस समय कर्ता अंशमें अज्ञानी
है इसरूपसे जब ज्ञान भी अज्ञानी हो जाता है और ज्ञानसे सर्वथा भिन्न होने के कारण आत्मा अज्ञानी ) है ही, इसलिये जिस तरह जो मनुष्य जन्मसे अंधे हैं उन दोनोंका आपसमें संबंध हो जानेपर भी दोनों * अंधे ही कहे जाते हैं देखनेवाले नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनके देखनेकी शक्तिका अभाव है उसीतरह हूँ जब ज्ञान और आत्मा दोनों जड हैं तब ज्ञान और आत्माका आपसमें संबंध भी हो जाय तो भी वे चेतन टू नहीं कहे जा सकते।जड ही रहेंगे। इसलिये ज्ञानके संबंधसे भी आत्मा चेतन नहीं कहा जा सकता। तथा
यदि ज्ञानके मानने में कुछ विशेषता न मानी जायगी और 'ज्ञायते अनेन तत् ज्ञान' जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है इस रूपसे उसे करणसाधन ही माना जायगा तो इंद्रिय और मनको भी ज्ञान कहना पडेगा क्योंकि इंद्रियां और मनके द्वारा भी पदार्थ जाने जाते हैं। तथा और भी यह बात है किनैयायिक लोग आत्माको व्यापक-सर्वत्र रहनेवाला मानते हैं। जो व्यापक होता है उसमें कोई भी क्रिया नहीं होती इसरीतिसे आत्मा उनके मतमें निष्क्रिय है एवं ज्ञान भी उनके मतमें निष्क्रिय माना गया है क्योंकि " क्रियावत्त्वं द्रव्यस्यैव लक्षणं " अर्थात् क्रिया द्रव्यमें ही रहती है, गुण पदार्थमें नहीं। ६ ज्ञान गुण है इसलिये उसमें क्रिया नहीं रहती इस रीतिसे नैयायिक और वैशेषिक मतमें आत्मा और ज्ञान दोनों निष्क्रिय है। जो क्रियारहित-निष्क्रिय होता है वह कर्ता और करण नहीं हो सकता इस.
लिये ज्ञान न कर्ता हो सकता है और न करण हो सकता है इसप्रकार आत्माके माननेपर भी यदि वह 2 ज्ञानसे सर्वथा भिन्न माना जायगा तो आत्मा जड कहना पडेगा। ज्ञान भी कर्ता और करण न बन
सकेगा। दोनों पदार्थोंका अभाव ही हो जायगा।
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