Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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ही भेद हैं। सो भी ठीक नहीं । घट पट आदिज्ञान आलंबनपदार्थों में जो 'यह घट है यह पट है' इत्यादि अर्पणा यह वितर्क है । उसीमें वार वार चितवन करना विचार है। उस विचारकी नाम-घट पट आदि रूपसे कल्पना करना निरूपण है और पूर्वकालमें अनुभव किए हुए पदार्थोंका विकल्पन-भेदपूर्वक स्मरण | करना अनुस्मरण है । ये धर्म संतानरहित और क्षणिक इंद्रियविषयक विज्ञानमें नहीं उत्पन्न हो सकते | क्योंकि ये धर्म ज्ञानमें क्रमसे उत्पन्न होनेवाले और कुछ क्षण ठहरनेवाले हैं परंतु बौद्ध मतमें इनकी एकसाथ उत्पचि पानी है और क्षणिक माने हैं इसलिए आधिक क्षण तक ठहर नहीं सकते। तथा इन धर्मोंमें पहिला पहिला धर्म ग्राह्य है और उत्तर उचर धर्मको ग्राहक माना है यदि इनकी युगपत् उत्पत्ति मानी जायगी तो जिसतरह बछडेके दायां और बायां दोनों सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं इसलिए है उनमें ग्राह्य ग्राहकपना नहीं होता उसीतरह वितर्क आदिकी भी एकसाथ उत्पत्ति मानी गई है इसलिए
इनमें भी ग्राह्य ग्राहकपना सिद्ध नहीं हो सकता। यदि यह कहा जायगा कि हम (बौद्ध) वितर्क आदि 18 की युगपत् उत्पत्ति न मान क्रमसे उत्पत्ति मानेंगे तब उसमें ग्राह्य ग्राहकपना होसकता है, कोई दोष नहीं? 12 ६ सो भी अयुक्त है । यदि उनकी क्रमसे उत्पचि मानी जायगी तो उनको अनेक क्षणतक ठहरनेवाला हूँ भी मानना पडेगा फिर सब पदार्थ क्षणिक हैं-क्षणभरमें विनष्ट हो जानेवाले हैं, यह बौद्धोंका अभिमत है अर्थ न सिद्ध हो सकेगा इसलिये वितर्क आदिकी क्रमसे उत्पचि नहीं मानी जा सकती। यदि यह कहा हूँ है जायगा कि हम विज्ञानकी संतान मानेगे और वैसा माननेसे वितर्क आदिकी क्रमसे उत्पचि बन सकेगी। 2 कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है । परीक्षाकी कसोटीपर संतानकी जांच करनेपर वह सिद्ध ही नहीं है न हो सकता इस रीतिसे जब किसी प्रकारका भी विकल्प विज्ञानके अंदर सिद्ध नहीं होता तब विज्ञानमें |
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