Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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जायगा क्योंकि पहिले ज्ञानको क्षणिक माना जा चुका है और यहां इस वचनसे उसे अनेक क्षणस्थायी
माना गया है तथा सब पदार्थों को क्षणिक माननेपर अनेक क्षण पर्यंत ठहरनेवाले इच्छा द्वेष आदि । || पदार्थोकी भी सिद्धि नहीं हो सकती इसलिये ज्ञानकी संतान और समस्त पदार्थों का क्षणिकपना दोनों || लाही वातें असिद्ध हैं। और भी यह वात है कि
स्वसंवित्तिफलानुपपत्तिश्चाांतरत्वाभावात् ॥ १३ ॥ प्रमाणोपचारानुपपत्तिर्मुख्याभावात् ॥ १४॥ __ संसार में प्रमाण पदार्थ फलवान देखा गया है । बौद्धोंने जो प्रमाण माना है उसका भी कुछ न कुछ फल | होना चाहिये परंतु क्षणिक होनेसे उसका कोई फल नहीं हो सकता इसलिये उसका माना हुआ प्रमाण | पदार्थ ठीक नहीं। यहां पर वादी प्रतिवादीसे भिन्न तटस्थका कहना है कि ज्ञान अपना और घट पट | आदि पदार्थों का निश्चय कराता हुआ ही उत्पन्न होता है इसलिये अपने स्वरूपका और घट पट आदि । | पदार्थों का जानना ही उसका फल होगा इसरीतिसे वह फलवान ही है-फल रहित नहीं कहा जा सकता? | सो भी ठीक नहीं। जिसतरह छेदनेवाला, छेदनके योग्य काष्ठ आदि और छेदनक्रिया इन तीनोंसे भिन्न ||
| काष्ठके टुकडे होनारूप फल दीख पडता है। उसीतरह प्रमाणका फल भी प्रमाणसे भिन्न ही होता है M किंतु अपना और परपदार्थोंका जानना रूप फल प्रमाण स्वरूप ही है प्रमाणसे भिन्न नहीं इसलिये वह ||
प्रमाण नहीं कहा जा सकता। यहांपर वादी बौद्धका कहना है कि-स्वपरका जानना रूप फल प्रमाण का स्वरूप ही है इसलिये वह फल नहीं हो सकता यह वात विलकुल ठीक है इसलिये आधिगम-पदार्थोंका || जाननारूप फलमें व्यापारकी प्रतीति मान उपचारसे प्रमाणकी कल्पना मानी है अर्थात् अधिगमरूप
ही प्रमाणको माना है इसलिये फल और प्रमाण दोनोंकी सिद्धि होनेसे प्रमाण फलरहित नहीं कहा जा
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