Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
त०रा० भाषा
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जायगी तो बौद्ध लोग विज्ञानको तो क्षण विनाशीक मानते हैं । क्षण विनाशीक पदार्थोंमें आकारों के क्रमकी कल्पना नहीं हो सकती इसलिये ग्राहक आदि शक्तियोंके आकारोंकी क्रमसे कल्पना नहिं की है। जा सकती। यदि कदाचित् जवरन यह माना जायगा कि क्षणिक भी विज्ञानमें हम आकारोंकी क्रमसे ही कल्पना मानेंगे तो आकारों में ग्राहक-प्रमाण और संविचि-फलका भी उल्लेख किया गया है यदि
प्राहक और संविचिकी क्रमसे उत्पचि मानी जायगी तो उस अधिगमस्वरूप संविचि पदार्थको प्रमाण | भिन्न मानना पडेगा फिर "अधिगम-जानना कोई दूसरा पदार्थ नहीं है प्रमाण स्वरूप है" बौद्धोंके इस ई वचनका व्याघात हो जायगा । इसलिये ज्ञानमें ग्राहक आदि शक्तियोंके आकारोंकी क्रमसे कल्पना, | नहीं कर सकते । और भी यह बात है कि
विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सिवाय विज्ञानके अन्य कोई भी बाह्य पदार्थ स्वीकार नहीं करता तथा || विज्ञानमें ग्राहक आदि शक्तियोंक आकारकी कल्पना करता है उन्हें विज्ञान स्वरूप ही मानता है विज्ञान || B से भिन्न नहीं इस रीतिसे जब उसके मतमें बाह्य कोई पदार्थ नहीं-एक विज्ञानमात्र ही पदार्थ है तब | || तब वह केवल एक विज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभासरूप विरुद्ध धर्मस्वरूप नहीं हो सकता। यदि यहां ६ 8| पर यह कहा जायगा कि मिथ्या पदार्थको सत्य मानना जिस तरह सीपको चांदी वह प्रमाणाभास और र || सत्य पदार्थको सत्य ही समझना जिस तरह सीपको सीप वा चांदीको चांदी वह प्रमाण है इस रीतिसेद || एक भी विज्ञानके स्वीकार करनेपर प्रमाण और प्रमाणाभासका भेद हो जायगा कोई दोष नहीं ? सो भी
कहना अयुक्त है । बौद्ध लोग प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं और उन दोनों प्रमाणोंकी | विशेष और सामान्य इन दो प्रमेयोंके आधीन व्यवस्था मानते हैं क्योंकि बौद्धोंका सिद्धांत है कि प्रत्यक्ष ।
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