Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
भाषा
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दत्त इसप्रकार के शब्द ! भावार्थ- गाय घोडा आदि प्रकारके शब्द जातिवाचक, श्वेत नील प्रकारके गुणवाचक, चरना कूदना आदि प्रकारके क्रियावाचक और देवदत्त जिनदत्त आदि प्रकार के संज्ञावाचक होते हैं । यहाँ पर इति शब्दका अर्थ प्रकार है । 'ज्वलितिकसंताण्णः' ज्वलसे लेकर कस पर्यंत घातुओंसे ण प्रत्यय होता है यहां पर इतिशब्दका अर्थ व्यवस्था है क्योंकि इहां इतिशब्दस ज्वल और कस धातुओं के बीचमें गिनी गईं बल आदि अनेक घातुओंकी व्यवस्था की गई है । 'गौरित्ययमाह' यह गौ कहता है यहाँपर इति शब्दका अर्थ विपर्यास है क्योंकि यहांपर 'जो गौ नहीं है उसे गौ कहता है' इस विपरीत अर्थको इतिशब्दसे सूचित किया है । 'प्रथमाह्निकमिति, द्वितीयाह्निकमिति' प्रथमाह्निक समाप्त हुआ, द्वितीयाह्निक समाप्त हुआ, यहां पर इति शब्दका अर्थ समाप्ति है । श्रीदचमिति, सिद्धसेनमिति, यह श्री का कहना है, यह सिद्धसेनका कहना है यहां पर इति शब्दका शब्दोंका उत्पन्न करना वा |कहना अर्थ है । इत्यादि अनेक इति शब्द के अर्थ हैं परन्तु सूत्रमें जो इति शब्द है उसका आदि अर्थ विवक्षित है इसलिये उसका आदि अर्थ समझना चाहिये । अर्थात् मति स्मृति संज्ञा चिंता और अभिनि बोध आदि सबका एक ही अर्थ है भिन्न नहीं । यहांपर जो इतिशब्दका आदि अर्थ किया गया है उससे प्रतिभा बुद्धि उपलब्धि आदिका ग्रहण है । वे भी अनांतर ही हैं । अथवा इतिशब्दका यहां प्रकार अर्थ है अर्थात् मति आदिकी तरहके शब्द एक ही अर्थके बोधक हैं। मति आदिको एक ही अर्थका बोधक - पना इसप्रकार है
मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तार्थोपलब्धिविषयत्वादनयतरत्वं रूढिवशात् ॥ २ ॥
मति आदिसे जो पदार्थों का ज्ञान होता है उसमें मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम समानरूपसे कारण पडता
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अध्याय
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