Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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-त०रा०
भाषा
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भी कहते हैं और दूसरा निरुपधिविशेष जिसका कि दूसरा नाम मुक्त है उनमें सोपविविशेष निर्वाण में समस्त पदार्थों का जाननेवाला योगी है-उसका अभाव नहीं कहा जा सकता ? सो भी ठीक नहीं । नैयायिक आदि परमतमें आत्माको निष्क्रिय और व्यापक माना गया है यदि योगिज्ञानमें वाह्य इंद्रियोंकी कारणताका अभाव माना जायगा तो अंतरंग आत्माकी परिणतिका भी अभाव मानना चाहिये क्योंकि निष्क्रिय और नित्य पदार्थ में किसी प्रकारका परिणाम नहीं हो सकता इसरीतिसे जब योगीकी आत्मामें ज्ञानका परिणमन न होगा तब वह पदार्थोंको न जान सकेगा फिर समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष के विना योगीका अभाव ही कहना पडेगा । यदि यहां पर यह कहा जायगा कि योगीमें योग से होनेवाला एक धर्मविशेष रहता है उसकी कृपासे इंद्रियों की अपेक्षा विना ही किये आत्मा समस्त पदार्थोंको जान लेगा योगीका अभाव नहीं हो सकता ? सो भी ठीक नहीं । जो पदार्थ निष्क्रिय और नित्य होता है उसमें किसी प्रकारकी क्रिया अनुग्रह और विकार कुछ भी नहीं हो सकता । परमतमें आत्माको निष्क्रिय और नित्य माना है इसलिये उसमें पदार्थों की जाननरूप क्रिया नहीं हो सकती । जब योगी की आत्मा में पदार्थों की जाननरूप क्रिया न होगी तब वह अतींद्रिय पदार्थोंका साक्षात्कार न कर सकेगा इसलिये जवरन उसका अभाव कहना ही पडेगा । तथा
तल्लक्षणानुपपचिश्च स्ववचनव्याघातात् ॥ ११ ॥
वास्तवमें तो जो ऊपर प्रत्यक्षका लक्षण कहा है वह निर्दोषरूपसे सिद्ध हो ही नहीं सकता क्योंकि जिसतरह 'मेरी मा बांझ है' यह कहना स्ववचनबाधित माना जाता है उसी प्रकार उपर कहे गये। प्रत्यक्ष के लक्षण में भी स्ववचनव्याघात है । यद्यपि कई मतोंके अनुसार ऊपर प्रत्यक्षके लक्षण कहे गये हैं।
अध्याप
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