Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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' करणात्यये गहणाभाव इति चेन्न दृष्टत्वात्प्रदीपवत ॥४॥ इंद्रियोंकी अपेक्षा विना कीये कहीं भी ज्ञान होता नहीं देखा गया इसलिये जब इंद्रियों के विना है
पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकता तब 'प्रत्यक्ष ज्ञानमें इंद्रिय आदि कारण नहीं होते' यह बात नहीं कही २६३ जा सकती ? सो ठीक नहीं । जिसतरह जो पुरुष काष्ठ कील व सूला आदि उपकरणों के विना रथके
बनानेमें असमर्थ है वह काष्ठ आदि उपकरणोंके रहते ही रथ बना सकता है । विना उपकरणोंकी 4 अपेक्षा कीए वह रथ तयार नहीं कर सकता किंतु जो पुरुष तप विशेषप्ते विना ही उपकरणके रथके ट्री बनानेकी ऋद्धिको प्राप्त कर चुका है। काष्ठ आदि उपकरणोंकी अपेक्षा कीए विना ही रथ बना सकता है , हूँ। उसीतरह जो मनुष्य कर्मोंसे मलिन है वह इंद्रियावरण आदि काँके क्षयोपशम होने पर इंद्रिय पन प्रकाश है
और उपदेश आदिकी सहायतासे पदार्थों को जानता है किंतु जिसके तप आदिकी विशेषतासे ज्ञानाव- है रण आदि ज्ञानके विरोधी कर्मों का क्षयोपशम वा क्षय हो चुका है वह इंद्रिय आदिके बिना ही अपनी सामर्थ्यमात्रसे पदार्थों को जानता है इसलिये तप विशेषकी कृपासे जब आत्माकी यह दिव्य अवस्था ,
प्रगट हो जाती है कि पदार्थोंके जानने में उसे इंद्रिय आदिकी अपेक्षा नहीं करनी पडती तब विना इंद्रि-8 के योंके कोई ज्ञान होता दीख ही नहीं पडता यह कहना प्रलापमात्र है। और भी यह बात है कि
ज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च भास्करादिवत् ॥५॥ जिसतरह सूर्य आदि पदार्थ प्रकाशस्वरूप हैं इसलिये वे दूसरे प्रकाशकी विना अपेक्षा कीए घट है पट आदि प्रकाशन योग्य पदार्थों को प्रकाशित करते हैं उसीप्रकार आत्मा भी ज्ञान दर्शनस्वरूप है इसलिये ज्ञानके विरोधी ज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षय वा विशिष्टक्षयोपशमसे अपनी सामर्थ्यमात्रसे ही वह
HARSALARIRAMISASARAN
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