Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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|| की कल्पना हो सकती है.अर्थात् ज्ञानस्वरूपको प्रमाण और अज्ञान निवृचि आदि आकारोंको फल ||||
इसप्रकार एक ही जाननारूप अधिगमको प्रमाण और फल मानने में कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है। श्री माता वे आकार, आकारवान ज्ञानस्वरूप प्रमाणसे भिन्न हैं वा अभिन्न हैं ? जिससमय यह भेदाभेद विकल्प उठाया जायगा उस समय अनेक दोष आकर उपस्थित होंगे और उनसे जाननारूप अधिगमको प्रमाण और फल न माना जा सकेगा।
जो तत्त्वको निर्विकल्पक माननेवाले हैं। कोई भी भेद नहीं मानते उनके मतमें तो ज्ञानमें किसी ||३|| प्रकारके आकारकी कल्पना ही नहीं हो सकती इसलिये उनके मतमें किसीप्रकारके आकारके न होनेसे ||5|| फलकी कल्पना नहीं हो सकती । फलके विना प्रमाण नहीं माना जा सकता इसलिये उनके मतमें ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । यदि यह कहा जायगा कि वाह्यमें पदार्थों का भेद न होनेसे वाह्य पदार्थों की अपेक्षा ज्ञानमें आकार न हो अंतरंग आकार मान लिया जायगा और उसे फल मान लिया जायगा ? सो भी ठीक नहीं। वाह्य पदार्थोके आकारके बिना अंतरंग आकार नहीं बन सकता इसलिये वह फलस्वरूप नहीं हो सकता इसप्रकार जो मनुष्य एकांती है उनके द्वारा माने गये ज्ञानमें प्रमाण और फल | दोनों नहीं घट सक्ते परंतु जो मनुष्य जिनेंद्र भगवानके आदेशके माननेवाले हैं, परमऋषि भगवान
सर्वज्ञद्वारा प्रणीत नय भंगोंके गूढ विस्तारके जानकार हैं और अनेकांतवादके प्रकाशसे जिनके ज्ञान| रूपी नेत्र प्रकाशमान हैं उनके एक ही पदार्थमें अपेक्षासे अनेक पर्यायोंका संभव होनेसे प्रमाण और
फल एक ही ज्ञानमें घट जाते हैं इसलिये अनेकांत वादकी अपेक्षा एक ही ज्ञान कर्ता करण और भाव | | साधन माना जा सकता है और एक ही ज्ञानमें प्रमाणपना और फलपना सिद्ध हो सकता है इसलिये पदार्थोंका स्वरूप अनेकांतवादकी अपेक्षा ही सुनिश्चित है।
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