Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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UARBAR
HE SCRIPTURI CARICHIQISHLARIGRALIRKSCHAFUAS.
स्वंतत्वादल्पान्तरत्वादल्पविषयत्वाच्च मतिग्रहणमादौ ॥१७॥ है जैनद्रव्याकरणमें 'स्वसाखिपति ।।२।११०। सूत्र है। सखि और पति शब्दके सिवाय जितने है ना
हस्व इकारांत और हस्व उकारांत शब्द हैं उनमें सु संज्ञाका विधान करता है इस इकारांत होनेसे मति
शब्दकी भी समंता है इसलिये एक तो ससंजक होनेसे मति शब्दका सबसे पहिले सत्रमें उल्लेख किया, 5 गया है। दूसरे अवधि आदि शब्दोंकी अपेक्षा मति शब्दमें अक्षर थोडे हैं। जो थोडे अक्षरवाला होता ६ है उसका पहिले प्रयोग होता है इसलिये भी सबसे पहिले मति शब्दका सूत्र में उल्लेख है। तीसरे नेत्र इ आदिकी सहायतासे मतिज्ञान होता है। नेत्र आदिका विषय प्रतिनियत है बहुत कम होनेसे मतिज्ञान हूँ हूँ का विषय बहुत कम है अन्य ज्ञानोंका विषय अधिक है इसलिये विषयकी अल्पतासे भी अन्य ज्ञानोंकी है अपेक्षा मतिज्ञानका सबसे पहिले सूत्रमें उल्लेख है।
. विशेष-सूत्रमें जो मति शब्दका सबसे पहिले उल्लेख किया है वार्तिककारने उसमें तीन कारण
बतलाये हैं। एक तो मति शब्द सुसंज्ञक है, दूसरे अवधि आदि शब्दोंकी अपेक्षा इसमें अक्षर थोडे हैं, । तीसरे और ज्ञानोंकी अपेक्षा इसका विषय कम है । यहांपर श्रुत आदिकी अपेक्षा मति शब्दके पूर्व ६ निपातमें केवल सुसंज्ञकपना कारण नहीं हो सकता क्योंकि इकारांत होनेसे जिसतरह मति शब्दसुसं
SACREASE
१पाणिनीय व्याकरणमें सु संज्ञाकी जगह घि संज्ञाका विधान है। 'शेषो ध्यसखि । १।४।७। यह अष्टाध्यायीका सूत्र ४ है वह नदी संज्ञक शब्द और सखि (पत्ति ) शब्दको छोड जितने भर इदंत उदंत शब्द हैं उनमें घिसंज्ञाका विधान करता है। है । चक्षुरिद्रिय केवल नातिनिकट और नातिदूरवर्ती सम्मुखस्थित पदार्थको ही देखती है, बाकी इन्द्रियां भी स्पर्श हुए पदार्थका ।
बोध कराती हैं इसलिये इसका नियत ही विषय है।