Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मत्यादीनां ज्ञानशब्देन प्रत्येकममिसंबंधो भुजिवत् ॥ १६॥ 'देवदत्तजिनदचगुरुदचा भोज्यंता' देवदत्त जिनदच और गुरुदच तीनोंको भोजन कराओ, यहां पर जिसतरह देवदत्त आदिमें प्रत्येकके साथ भुजि क्रियाका संबंध है जैस देवदचको भोजन कराओ ५ जिनदत्तको भोजन कराओ और गुरुदत्तको भोजन कराओ उसीतरह ‘मतिश्रुतावधि' इत्यादि सूत्रमें ज्ञान शब्दका प्रत्येक मति आदिके साथ संबंध है इसलिये मात के साथ ज्ञान शब्दका संबंध रहने पर टू मतिज्ञान और श्रुत आदिके साथ ज्ञान शब्दका संबंध रहने पर श्रुतज्ञान अवधि मनःपर्यय और केवल है के साथ संबंध होनेसे अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान समझ लेने चाहिये । यद्यपि यहां यह शंका हो सकती है कि मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञान' इस सूत्रमें मति आदि और ज्ञान एक ही अधिकरणमें रहते हैं आत्माके सिवाय अन्य उनका कोई अधिकरण नहीं अथवा मति आदि विशेषण
और ज्ञान विशेष्य है जो विशेष्यका लिंग वा वचन होता है वह ही विशेषणका भी होता है । 'ज्ञान' यहां पर विशेष्यमें जब एक वचन है तो 'केवलानि' यहां पर भी विशेषणमें केवलं' यह एक वचन होना है चाहिये ? सो ठीक नहीं । शब्दकी शक्तिकी अपेक्षा जिस शब्दका जो लिंग वा वचन नियत है यह परिवर्तित नहीं हो सकता। द्वंद्वसमासमें सर्व पद प्रधान होनेसे तीन या तीनसे अधिक शब्दोंका यदि समास होता है तो बहुवचन आता है इसलिये 'केवलानि' यहांपर बहुवचन हीन्याय्य है और वे सब मतिज्ञान आदि एक ज्ञानके ही भेद हैं इसलिये 'ज्ञानं' यहां पर एक वचन ही युक्त है-हेरफार नहीं हो सकता। यह बात 'सम्यग्दर्शनेत्यादि' सूत्रमें वा जीवाजीवत्यादि' सूत्रमें विस्तारके साथ कह दी गई है। मति श्रुत आदिके क्रमसे कथन करनेका कारण यह है
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