Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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यदि प्रमाता और प्रमाणके एवं प्रमाण और प्रमेयके भेद माननेमें दोष आता है तब दोनोंका अभेद ही हूँ
मान लेना चाहिये ? सो भी अयुक्त है। यदि प्रमातासे प्रमाणको सर्वथा अभिन्न माना जायगा तब दोनों में अध्याय भाषा || एक ही कहे जायगे फिर प्रमाता वा प्रमाण दोनोंमेंसे एकके अभाव हो जाने पर दोनों हीका अभाव हो ?
ही जायगा । इसीतरह यदि प्रमाण और प्रमेय इन दोनोंको भी अभिन्न माना जायगा तो यहाँपर भी एकके अभावसे दुसरेका अभाव कहना पडेगा इसलिये प्रमाता और प्रमाण वा प्रमाण और प्रमेय दोनों ||३|| का सर्वथा अभेदसंबंध भी नहीं माना जा सकता । अब प्रमाता प्रमाण वा प्रमाण और प्रमेय इनके भेद || | अभेदकी सिद्धि सिद्धांतमार्गसे आचार्य बतलाते हैं -
अनेकांतात्सिद्धिः॥१३॥ . प्रमाता प्रमाण एवं प्रमाण और प्रमेय इनके लक्षण और नाम आदि भिन्न भिन्न हैं इसलिये उन | में भेद है और प्रमाता-आत्मासे प्रमाण-ज्ञान कभी भिन्न नहीं हो सकता अथवा ज्ञानस्वरूप प्रमेय ना से प्रमाण भी कभी भिन्न नहीं हो सकता इसलिये वे आपसमें अभिन्न भी हैं इसरीतिसे प्रमाता प्रमाण
आदि आपसमें कथंचित् भिन्न भी हैं कथंचित् अभिन्न भी है। यहांपर यह बात भी सिद्ध समझ लेना | 8 चाहिये कि जो घट आदि प्रमेय हैं वे तो नियमसे प्रमेय ही हैं कभी वे प्रमाणस्वरूप नहीं हो सकते |
किंतु प्रमाण जिस समय घट पट आदिका ज्ञान कराता है उस समय प्रमाण माना जाता है और जिस ९| समय स्वयं जाना जाता है उस समय प्रमेय माना जाता है इसलिये प्रमाण कथंचित् प्रमेय भी हो सकता है | | और प्रमाण हो सकता है इसलिये एक ही प्रमाणको प्रमाण और प्रमेय दोनों स्वरूप माननेमें कोई विरोध नहीं आता।
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