Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जिसतरह दंड मनुष्यसे सर्वथा भिन्न है तो भी उसके संबंध से मनुष्य दंडी कहा जाता है। जिसके हाथमें
दंड रहता है वही दंडीके नामसे पुकारा जाता है अन्य नहीं उसीतरह ज्ञान भी आत्मासे भिन्न रहे तो २३५ | भी उसके संबंधसे आत्मा चेतनं कहा जा सकता है कोई दोष नहीं । सो भी अयुक्त है। जो पदार्थ |
ज्ञानस्वभाव होगा उसी के साथ ज्ञान का संबंध हो सकता है किंतु जो ज्ञानसे सर्वथा भिन्न है उसके साथ ज्ञानका संबंध नहीं हो सकता । आत्माको ज्ञानसे सर्वथा भिन्न माना गया है इसलिए जिस तरह ज्ञान| स्वभाव न होने के कारण मन और इंद्रियों के साथ ज्ञानका संबंध नहीं हो सकता उसीप्रकार आत्मा भी ||३||
ज्ञानस्वभाव नहीं इसलिए आत्माके साथ भी ज्ञानका संबंध नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञानस्वभावके ||६|| | अभावमें आत्माके साथ ही ज्ञानका संबंध है मन और इंद्रियों के साथ नहीं ऐसा नियम नहीं हो सकता।
तथा दंडके संबंधसे मनुष्य जिसप्रकार दंडी कहा जाता है उसप्रकार ज्ञानके संबंधसे आत्मा भी ज्ञानीहै। चेतन कहा जा सकता है यहां जो दृष्टांत दिया है वह विषम दृष्टांत है क्योंकि आपसमें पृथक् रूपसे सिद्ध ।
डीका संबंध है उसमें अपने स्वरूपसे प्रसिद्ध दंडका केवल विशेषण रूपसे ग्रहण किंत दंडी.॥ दंडरूप वा दंडकी क्रियारूप परिणत नहीं होता आत्मा और ज्ञान के संबंधमें ज्ञानका केवल विशेषणरूप || 5 से ही ग्रहण नहीं है किंतु आत्मा ज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर अहितका विचारना-जाननारूप ज्ञानकी क्रियासे परिणत होता अनुभवमें आता है इसलिए दृष्टांतमें तो विशेष्यका विशेषणकी क्रियारूप परिणत 8/ न होना है और दाष्टांतमें विशेष्यका विशेषणकी क्रियारूप परिणत होना है यह स्पष्ट विषमता होनेसे, हूँ। | दंडी उदाहरण ठीक नहीं। तथा ज्ञानको कर्ता करण और भावसाधनस्वरूप माना है। नैयायिक आदि २२५ के मतमें कर्ता आदि तीनों स्वरूप ज्ञान बन नहीं सकता इसलिये जिस समय ज्ञान कर्ता माना जायगा |
ROCESSIOUSERIEOMA
SARDARASADHANBADARSHRESS
HILORESAROTESgalam
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