Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भाषा
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द्रव्यका निर्देश है । निश्चयनयसे धर्मद्रव्यका धर्म द्रव्य ही स्वामी है और व्यवहारनयसे जीव और पुद्गल |
हैं क्योंकि जीव और पुद्गलके आधीन ही गमनमें धर्मद्रव्यका सहकारीपना है। तथा वह सहकारीपना है अगुरुलघु गुणके द्वारा परिणमनस्वरूप है और वह धर्मद्रव्यको छोडकर अन्यत्र नहीं रहता इसलिये
धर्म द्रव्यस्वरूप है इस रीतिसे धर्म द्रव्य और गति परिणाम दोनों जब एक हैं और गतिपरिणाममें कारण अगुरुलघु गुण है तब निश्चयनयसे धर्म द्रव्यका कारण अगुरुलघु गुण है और व्यवहारनयसे |
जीव और पुद्गल उसके कारण हैं क्योंकि धर्म द्रव्यका गमनमें कारणपना जीव और पुद्गलकी ही ॐ अपेक्षा प्रगट है। निश्चयनयसे धर्म द्रव्यका धर्म द्रव्य ही अधिकरण है और व्यवहारनयसे आकाशद्रव्य || % अधिकरण है । निश्चयनयसे तो धर्म द्रव्य एक है और व्यवहारनयसे वह अनेक संख्यात असंख्यात ||६
और अनंत जीव और पुद्गलको गमनमें सहायता पहुंचाता है इसलिये अनेक संख्यात असंख्यात है और अनंत भी उसके भेद हैं । इसप्रकार धर्मद्रव्यकी अपेक्षा यह निर्देश आदि भेदोंके क्रमका निरूपण
है। अधर्म द्रव्यमें भी इसीप्रकार क्रम निरूपण समझ लेना चाहिये, भेद इतना है किधर्म द्रव्य जीव ॐ और पुद्गलके गमनमें सहकारी कारण है और अधर्म द्रव्य उनके ठहरने में कारण है इसलिये गतिकी || 4 जगह स्थिति समझ लेनी चाहिये । शेष सब प्रक्रिया धर्म द्रव्यके समान है।
निश्चयनयसे काल द्रव्य इंद्रिय आदि दश प्राणोंसे रहित है और व्यवहारनयसे नाम स्थापना आदि स्वरूप है यह कालका निर्देश है। निश्चयनयसे कालद्रव्यका कालद्रव्य ही स्वामी है और जीव आदि द्रव्योंके आधीन उसका वर्तना गुण प्रकट होता है इसलिये व्यवहारनयकी अपेक्षा जीव आदि द्रव्य उसके स्वामी हैं। कालद्रव्यका जो वर्तना स्वरूप है वह अगुरुलघु गुणकी अपेक्षा परिणमनस्वरूप
१ अगुरु लघु नामकी एक प्रकारकी शक्ति मानी है उसीसे धर्म आदिमें परिगमन होता है।
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