Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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प्रकारका है। विशेषकी अपेक्षा शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है । द्रव्य भाव और उभयके भेद | पराप से तीन प्रकारका है । प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है। मिथ्यादर्शन १९५॥ अविरति प्रमाद कषाय और योगके भेदसे पांच प्रकारका है। नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव
ई के भेदसे छह प्रकारका है । नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव और भवके भेदसे सात प्रकारका है। ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अंतरायके भेदसे आठ प्रकारका. है | सीतरह कारण और कार्यके भेदसे बंध तत्वक संख्यात असंख्यात और अनंत भेद हैं।
: आसवका स्वरूप ऊपर कह दिया गया है । उस आस्रवका रुक जाना संवर कहा जाता है अथवा | संवरनाम संवरस्थापना भी संवेर है। यह संवरका निर्देश है। संवरका फल जीवको भोगना पडता है। | इसलिए जीव उसका स्वामी है अथवा संवरके हो जानेपर काँका निरोध होता है इसलिए रुकने योग्य
पदार्थ कर्म होनेके कारण वह भी संवरका स्वामी है। तीन गुप्ति पांच समिति. दश धर्म आदि संवरके कारण हैं । जो पदार्थ स्वामिसंबंधके योग्य है वही संवरका अधिकरण है । स्वामिसंबंध के योग्य पदार्थ ) जीव और कर्म हैं इसलिए वे ही अधिकरण हैं । संवर तखकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट स्थिति कुछ घाटि कोटि पूर्व है । संवर तत्वके एकसौ आठ १०८ भेद हैं अथवा निरोध्य निरोधक-रुकनेवाला और रोकनेवालेके भेदसे उसके उत्तर भेद संख्यात असंख्यात और अनंत हैं। ये जो संवर तत्वके एकसौ आठ भेद कहे हैं वे इसप्रकार है-- " .
. मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति ये तीन गुप्ति, ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षपण और आलोकितपान' १- स गुप्तिसमिविधानुमक्षापरीपहजयचारित्रः ॥ २ ॥ अध्याय ९१० सूत्र
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