Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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ONSIS
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तब ज्ञान भावसापन भी नहीं हो सकता। यदि यहांपर यह कहा जाय कि आत्माके न माने जानेपर
ज्ञान करण वा भाव साधन मत बनो किंतु 'जानातीति ज्ञान' जो जाने वह ज्ञान है इसप्रकार कर्तृसाधन , तो बन सकता है इस रीतिसे ज्ञान; करण और भाव न भी कहा जाय कर्ता तो कहा जा सकता है ? ॐ सो ठीक नहीं । बौद्ध लोग सब पदार्थों को निरीहक-उदासीन मानते हैं। जोउदासीन होता है वह कर्ता छ नहीं कहा जा सकता क्योंकि कार्यके करनेमें जो स्वतंत्र होता है वह कर्ता माना जाता है जिस तरह ६
देवदच घडा बना रहा है यहांपर घट कार्यके करनेमें देवदत्त स्वतंत्र है इसलिये वह घडाका कर्ता माना गया है यदि उदासीन पदार्थको भी कर्ता माना जायगा तो जहाँपर देवदच घडा बना रहा है वहांपर उदासीनरूपसे आकाश आदि पदार्थ भी विद्यमान हैं उनको भी कर्ता कह देना पडेगा परन्तु उनका कर्ता होना प्रमाणबाधित है । जब बौद्ध सब ही पदार्थों को उदासीन मानते हैं तब ज्ञान पदार्थ भी उन-है के मतमें उदासीन ही है इसलिये वह कर्ता नहीं हो सकता।
अथवा-जिस पदार्थको पूर्व और उचरकी अपेक्षा रहती है कुछ काल ठहरता है वही कर्ता कहा जा सकता है। जिस तरह कुंभकार घडा बनाता है। उसको घटकी पहिली पर्याय मिट्टीकी अपेक्षा रहती है और उचर पर्याय-घटका पूर्ण हो जाना या जलधारण आदि क्रियामें घटका समर्थ हो जाना हूँ आदिकी अपेक्षा रहती है इसलिये जबतक घट पूरा नहीं होता तबतक उसका रहना कार्यकारी समझा है जाता है। बौद्ध ज्ञानको जो कर्ता स्वीकार करते हैं वह अयुक्त है। उनके मतमें प्रत्येक पदार्थ एक क्षण में रहकर नष्ट होनेवाला है। जो पदार्थ एक क्षणमें ही नष्ट हो जानेवाला है उसको पूर्व और उत्तरपर्यायों- 3 की अपेक्षाका अवसर नहीं मिल सकता क्योंकि पूर्व और उचर पर्यायोंकी अपेक्षाके लिये अधिक क्षण
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