Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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5 ज्ञानको कर्ता और उसकी संतानको करण इस रूपसे उपचारसे कर्ता करणका व्यवहार बन सकता है ॐ इसलिये संतानकी अपेक्षा ज्ञान कर्ता हो सकता है कोई दोष नहीं ? सो ठीक नहीं । ज्ञानकी संतान मान 9 भाषा
कर उसमें कर्ता करणका व्यवहार मानना और आत्मा पदार्थका अभाव कहना वास्तविक तत्त्वसे विप
रीत बात है-मिथ्या है इसलिये उस प्रकारके तत्वका मानना मृषावाद कहना पडेगा तथा वहांपर यह हूँ विकल्प भी उठता है कि वह जो संतान है वह संतानीसे भिन्न है कि अभिन्न ? यदि भिन्न मानी जायगी
तब संतानीको आत्मा और संतानको ज्ञान माननेसे आत्मा पदार्थ सिद्ध हो जायगा । यदि अभिन्न * मानी जायगी तब संतानी और संतान दोनों एक ही हो गये संतानीसे भिन्न संतान सिद्ध नहीं हुआ
इस रीतिसे संतानको करणपना न होनेसे ज्ञान कर्ता नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि विना किसी करणके व्यापारकी अपेक्षा कीए ज्ञान कर्ता नहीं हो सकता इसलिये हम मन और इंद्रियोंको करण मान लेंगे ज्ञान कर्ता हो जायगा कोई दोष नहीं ? सो ठीक नहीं। मन किसी पदार्थको नहीं जान ५ सकता है उसमें जाननेकी शक्ति नहीं है क्योंकि बौद्ध सिद्धान्तमें समस्त पदार्थ क्षणभरमें विनश जाने-% वाले हैं। मन पदार्थ भी क्षणविनाशीक है जो क्षणविनाशीक है वह करण नहीं हो सकता किंतु कुछ । क्षण तक ठहरनेवाला ही पदार्थ करण कहा जा सकता है इसलिये क्षण विनाशीक होनेसे मन ज्ञानका है करण नहीं हो सकता । बौद्ध सिद्धान्तमें कहा भी है 'पपणामनंतरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः' अर्थात् छै आयतनोंके पीछे अतीत विज्ञान है वह मन है । इस रीतिसे क्षण विनाशीक होनेसे मन करण नहीं हो सकता । इसी तरह इंद्रियोंको भी क्षणविनाशीक माना है और उन्हें अतीतं विज्ञान , २२० बतलाया है इसलिये इंद्रियां भी करण नहीं हो सकतीं। यदि यह कहा, जायंगा कि जिस समय ज्ञान
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