Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भाषा
७ ठहरनेकी आवश्यकता पडती है। ज्ञान भी बौद्ध मतमें अन्य पदार्थोके समान क्षण भरमें विनष्ट हो | IAS जानेवाला है। उसे भी अपनी पूर्व और उत्तर पर्यायोंकी अपेक्षा करनेका अवसर नहीं मिल सकता 5 २१९ इस रीतिसे जब ज्ञान पदार्थ निरपेक्ष है-क्षणभरमें विनाशीक होनेके कारण जिस कार्यका वह कर्ता | होगा उस कार्यके पूर्व और उत्तर पर्यायोंकी अपेक्षा नहीं रख सकता तब वह कर्ता नहीं हो सकता।।
अथवा-जो पदार्थ करणके व्यापारकी अपेक्षा करनेवाला होता है वही कर्ता कहा जाता है। जिस | तरह देवदत्त परशुसे काष्ठ छेदता है यहांपर कर्ता देवदच है और उसको करण परशुकी अपेक्षा है यदि | | ज्ञानको कर्ता माना जायगा तो उसके भिन्न कोई करण मानना चाहिये । करण दूसरा कोई हे नहीं इस- | | लिये ज्ञानको कर्ता नहीं कहा जा सकता । यदि यह कहा जायगा कि ज्ञानकी जो स्वशाक्ति है वह करणी || मान ली जायगी तब ज्ञान कर्ता हो सकेगा कोई दोष नहीं ? सो अयुक्त है क्योंके वहांपर यह विकल्प || उठता है कि वह जो ज्ञानकी स्वशक्ति है वह ज्ञानसे भिन्न है कि अभिन्न है ? यदि भिन्न मानी जायगी है तब ज्ञानसे भिन्न आत्मा पदार्थकी सिद्धि हो जायगी क्योंकि शक्तिमान पदार्थ आत्मा कहना पडेगा है | और शक्ति पदार्थ ज्ञान मानना पडेगा । ज्ञानको शाक्ति ही माना गया है। यदि शक्ति और ज्ञान है | अभिन्न-दोनों एक माने जायगे तब जो ऊपर दोष दिया गया है कि करणके व्यापारकी अपेक्षा विना ||
कीये ज्ञान कर्ता नहीं कहा जा सकता। वह दोष जैसाका तैसा रहेगा क्योंकि ज्ञान और शक्ति एक ही | पदार्थ हो गये स्वशक्तिरूप करण भिन्न सिद्ध नहीं हुआ। यदि कदाचित् फिर यह कहा जाय कि हम || | एक ज्ञानको नहीं मानते, ज्ञानकी संतान मानते हैं। यद्यपि संतानमें एक ज्ञानके उत्पन्न होनेपर दूसरा पर | ज्ञान नष्ट हो जाता है दो ज्ञान एक साथ नहीं रहते तो भी जिस ज्ञानकी संतान मानी गई है उस संतानी |
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