Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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"जानाति ज्ञायत ज्ञाना -
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भाषा:
। वह ज्ञान है इस तरह कता करण भाव साधन ज्ञान शंन्दका विस्तारसे पहिले व्याख्यान कर दिया। ई गया है।
- इतरेषां तदभावः ॥९॥ यह जो बान शन्दको कर्ता करण और भाव साधन कहा गया है वह अनेकांतवादमें ही बन सकता है एकांतवादमें नहीं बन सकता क्योंकि एकांतवादमें एक ही धर्मकी प्रधानता हो सकती है। जिससमय ज्ञानशब्द कर्तृसाधन कहा जायगा उससमय करणसाधन नहीं कहा जा सकता। जिससमय 8 | कर्मसाधन कहा जायगा उस समय कर्तृसाधन नहीं कहा जा सकता किंतु अनेकांतवादमें कर्तृसाधन | || आदि तीनोंका कथन कथंचित् शब्दकी अपेक्षा रखनके कारण विरुद्ध नहीं माना जा सकता । एकांत| वादियोंके मतमें ज्ञान शन्दमें कर्तृसाधन आदि इसप्रकार नहीं घट सकते क्योंकि
आत्माभावे ज्ञानस्य करणादित्वानुपपत्तिः कर्तुरभावात ॥१०॥ यह नियम है कि कर्ताके रहते ही करण बन सकता है जिस तरह परशुसे देवदच काष्ठका छेदन करता है यहांपर कर्ता देवदचके रहते ही परशुको करण कहा जाता है किंतु विना देवदचके परशु
करण नहीं हो सकता उसी तरह आत्मा कर्ता और ज्ञान करण माना गया है यहांपर भी आत्माके रहते का ही ज्ञानको करणपना आसकता है किंतु आत्माके अभावमें ज्ञान करण नहीं कहा जा सकता । बौद्ध ई लोग ज्ञानके सिवाय आत्मा पदार्थ नहीं मानते इसलिये कर्ता आत्माके अभावमें उनके मतमें ज्ञान | है। करण नहीं कहा जा सकता। तथा कर्ता आत्माके अभावमें ज्ञानको भाव साधन भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ज्ञप्तिान-जाननारूप ज्ञान, भाव कहा जाता है। भावका अधिकरण ही जब आत्मा सिद्ध नहीं
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