Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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त०रा०
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मोटी बुद्धिके ऐसे होते हैं जिनकेलिये विस्तारसे कहा जाता है तब उनकी समझ में आता है । परम | कारुणिक आचार्योंका उद्देश हर एकको तत्त्वोंके स्वरूपके समझानेका होता है इसलिये यहां पर जो पदार्थों के स्वरूपका ज्ञान करानेकेलिये आचार्यने निर्देश आदि भेदों का उल्लेख किया है वह विस्तार से तत्त्वों के स्वरूपको समझानेवाले शिष्यों केलिये किया हुआ समझ लेना चाहिये नहीं तो केवल प्रमाणसे ही समस्त पदार्थों का ज्ञान हो सकता है निर्देश आदिको ज्ञानका कारण मानना व्यर्थ ही है । इसरीति से जब यह बात सिद्ध हो गई कि विस्तार रुचि शिष्योंकेलिये निर्देश स्वामित्व आदिका उल्लेख है तब 'एकका दूसरे में समावेश की कल्पना कर जो ऊपर शंकायें उठाई गईं हैं वे व्यर्थ हैं, क्योंकि समावेश हो भी जाय तो भी निर्देश आदिका कथन स्पष्ट प्रतीतिकेलिये है । इस तरह जिसप्रकार प्रमाण और नय अथवा निर्देश स्वामित्व आदि कारणोंसे जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है उसप्रकार सत् संख्या क्षेत्र आदि | कारणों से भी उनका ज्ञान होता है यह समझ लेना चाहिये ॥ ८ ॥
इस प्रकार श्री तत्त्वार्थराज वार्तिकालंकारकी भाषाटीकाके प्रथमोध्यायमें पांचवां आहिक समाप्त हुआ ॥ ५ ॥
'सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्राणि मोक्षमार्ग :' इस सूत्र में सबसे पहिले सम्यग्दर्शनका उल्लेख किया गया है । उसकी उत्पत्ति स्वामि विषय निक्षेप और अधिगम के उपाय बतला दिये गये । सम्यग्दर्शन के संबंध से जीव अजीव आदिके संज्ञा परिणाम आदि भी बतला दिये गये । अब सम्यग्दर्शन के बाद क्रम प्राप्त सम्यग्ज्ञान है उस पर विचार किया जाता है
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