Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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है चार प्रकारका है । सामायिक छैदोपस्थापना परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातके भेदसे वह
पांच प्रकारका है । इसतरह आत्माके परिणामोंके भेदसे उसके संख्यात असंख्यात और अनंत है भेद है ॥७॥
क्या इतने ही जीव आदि वा सम्यग्दर्शन आदिके जाननेके उपाय हैं अथवा और भी उपाय हैं ? 8 इस प्रश्नके उचरमें सूत्रकार कहते हैं
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालांतरभावाल्पबहुत्वैश्व ॥८॥ ___ इस सूत्रमें भी अधिगम शब्दको अनुवृचि है इसलिये सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अंतर भाव और अल्पबहुत्वसे भी उन जीव आदि वा सम्यग्दर्शन आदि पदार्थों का ज्ञान होता है।
प्रशंसादिषु सच्छवृन्दत्तरिच्छातः सद्भावग्रहणं ॥१॥ ___सत् शब्दके प्रशंसा आदि अनेक अर्थ हैं, जिसतरह-'सत्पुरुषः सदश्वश्वेति' यह पुरुष प्रशस्य है
और यह घोडा प्रशस्य है। यहांपर सत् शब्दका प्रशंसा अर्थ है । 'सद्धटः सत्पट' घडा है कपडा है यहां पर सत् शब्दका अर्थ अस्तित्व है। 'प्रबजितः सन् कथमनृतं ब्रूयात्' यह पुरुष दीक्षित है इसलिये यह ६ झूठ नहीं बोल सकता यहां पर प्रबजितका अर्थ सत् शब्दके योगसे प्रतिज्ञायुक्त है इसलिये यहां सत्
शब्दका अर्थ प्रतिज्ञा है । 'सत्कृत्यातिथीन भोजयतीति' अतिथियोंका आदर कर भोजन करता है यहां पर सत् शब्दका अर्थ आदर है परंतु सूत्रमें जो सत् शब्दका उल्लेख है उसका अर्थ यहां अस्तित्व ग्रहण किया है अर्थात् पदार्थों के अस्तित्वसे उनका ज्ञान हो जाना है । सत्के वाद संख्या उसके वाद क्षेत्र इत्यादि सत् आदि क्रमका निरूपण
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