Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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०रा०
-सामान्यरूपसे ज्ञान एक प्रकारका है विशेष रूपसे प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकार, द्रव्य गुण और पर्याय इन तीन पदार्थोंको विषय करनेके कारण तीन प्रकार, नाम स्थापना आदि भेदोंके कारण चार हा प्रकार, मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि भेदोंसे पांच प्रकार, इस तरह ज्ञेयाकार परिणामके भेदसे अर्थात् | संख्यात असंख्यात, और अनंत पदार्थोंको विषय करनेके कारण उसके संख्यात असंख्यात और अनंत
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जिन कारणोंसे आत्मामें कर्म आते हैं उन कारणोंकी निवृचि होना चारित्र है अथवा चारित्रका || नाम चारित्रको स्थापना,आदि भी चारित्र है यह चारित्रका निर्देश है । चारित्र आत्मामें ही रहता है | इसलिये उसका स्वामी आत्मा है अथवा स्वयं चारित्र भी चारित्रका स्वामी है । चारित्रमोहनीयकर्मके उपशम क्षय आदिक चारित्रके कारण हैं अथवा जिस शक्तिसे चारित्रगुण प्रगट होता है वह शक्ति भी चारित्रका कारण है। चारित्रका स्वामी आत्मा है इसलिये आत्मा ही उसका अधिकरण है । अथवा अपना स्वामी आप ही चारित्र है इसलिये चारित्र भी चारित्रका अधिकरण है । चारित्रकी जघन्य-15 स्थिति अंतर्मुहूर्त हैं। उत्कृष्टस्थिति कुछ घाट पूर्वकोटि हैं। अथवा औपशमिक और क्षायोपशमिककी
स्थिति सादि सांत है क्षायिककी स्थिति सादि अनंत है। आत्माकी जो शुद्धि है उसीका नाम चारित्र माहा है जिससमय शुद्धिकी प्रकटता हो जाती है फिर उसका नाश नहीं होता इसलिये शुद्धिकी प्रकटताकी || द! अपेक्षा क्षायिक चारित्रकी आदि तो है परंतु नाश नहीं वह सादि और अविनाशी है । सामान्यरूपसे || चारित्र एक प्रकारका है । विशेषरूपसे वाह्यनिवृत्चि और अंतरंगनिवृचिके भेदसे वह दो प्रकारका है
अथवा औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशामिकके भेदसे वह तीन प्रकारका है। चार यमोंके भेदसे (१)वह
SABBANANA
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