Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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रा०रा०
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| है और वह कालद्रव्यसे भिन्न नहीं है कालद्रव्यस्वरूप ही है इस रीतिसे कालद्रव्य और वर्तना जब एक हैं और वर्तनामें कारण अगुरुलघु गुण है तो निश्चयनयसे कालद्रव्यका कारण अगुरुलघु गुण है और व्यवहारनयसे जीव पुद्गल आदि कारण हैं क्योंकि कालद्रव्यका परिणाम जीव आदिके ही आधीन है | निश्चयनयसे कालद्रव्यका कालद्रव्य ही अधिकरण है और व्यवहारनयसे कालद्रव्यका अधिकरण आकाश है । द्रव्यार्थिकन यकी अपेक्षा कालद्रव्य अनादि और अनंत है क्योंकि कालद्रव्यका कभी नाश नहीं होता और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा समय घंटा घडी पल आदि पर्याय नष्ट होते रहते हैं इसलिये जिस पर्यायका जितना ठहरना है वहीं उसकी स्थिति है । निश्चयनयसे कालद्रव्य एक ही है और व्यवहारनयसे वह अनेक संख्यात असंख्यात और अनंते पदार्थों के परिणमनमें कारण है इसलिये परपदाथोकी अपेक्षा अनेक संख्यात असंख्यात और अनंत भी उसके भेद हैं ।
निश्चयन से आकाशद्रव्य इंद्रिय आदि दश प्राणोंसे रहित है और व्यवहारनयसे नाम स्थापना आदि रूप है यह कालका निर्देश है। निश्चयनयसे आकाशका आकाश ही स्वामी है और व्यवहार• नयसे घटाकाश-घटके भीतर रहनेवाले आकाशका घट, मठाकाश, आदि - मठके भीतर रहनेवाले आकाशके मठ आदि स्वामी हैं सब द्रव्योंको अवकाश दान देनेमें जो आकाशका कारणपना है वह अगुरुलघु गुणके द्वारा परिणमनस्वरूप है और वह अवगाह परिणाम आकाशसे भिन्न नहीं, आकाश स्वरूप ही है इस रीति से जब आकाश और अवगाह परिणाम दोनों एक हैं और अवगाह परिणामका कारण अगुरुलघु गुण है तब निश्चयनयसे आकाशद्रव्यका कारण अगुरुलघु गुण है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जीव आदिक द्रव्य कारण हैं क्योंकि उन्हींकी अपेक्षा से अवगाह परिणाम की प्रगटता होती
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