Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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१०रा०
प्रकाशक
ORRENERARIES
स्थान शरीर होता है इसलिये व्यवहारसे कर्म वा शरीर आदिआस्वके अधिकरण हैं । वचन और मन:कृत आसूवकी जघन्य स्थिति एक समय है और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्त है कायकृत आसवकी जघन्य
स्थिति अंतर्मुहुर्त है । उत्कृष्ट स्थिति अनंत काल है और उसमें असंख्याते पुद्गल परिवर्तन होते रहते 1 हैं।सत्यवचनकृत आसूव १ असत्यवचनकृत आसूव २ उभयवचनकृत आसूव ३ अनुभयवचनकृत
, आसव ४ इस तरह वचनकृत आसूवके चार भेद हैं। इसीप्रकार सत्यमनःकृत आसूव । असत्यमनःकृत 18 आसूव २ उभयमनःकृत आसूव ३ अनुभयमनाकृत आसूव ४ इसतरह मनःकृत आसूव भी चार प्रकार' का है। कायकृत आसूवके सात भेद है-औदारिक १ औदारिक मिश्र २ वैक्रियिक ३ वैक्रियिकमिश्र है आहारक ५ आहारक मिश्र ६ और कार्माण । “मनुष्य और तियचोंका शरीर स्थूल होता है इसलिये है उनके शरीरका नाम औदारिक शरीर है और उससे होनेवाले योगको औदारिक योग कहते हैं। जब र तक औदारिक शरीर पूर्ण नहीं होता अपूर्ण रहता है तब तक वह औदारिक मिश्र कहा जाता है और
उससे होनेवाले योगको औदारिक मिश्रयोग कहते हैं। देव और नारकियोंका शरीर वैक्रियिक शरीर
कहा जाता है और उससे होनेवाले योगको वैक्रियिक योग कहते हैं। जबतक वैक्रियिक शरीर पूर्णन ||६|| ६ हो तबतक वह वैक्रियिक मिश्र कहा जाता है और उससे होनेवाले योगको वैक्रियिकामश्रयोग कहते हूँ हैं। छठे गुणस्थानवर्ती मुनिको जब किसी तत्त्वमें शंका होती है और सिवाय केवलीके उस शंकाको है
कोई दूर कर नहीं सकता उस समय जिस दिशामें भगवान केवली विराजते हैं उस दिशाकी ओर शुभ
१ कर्म और नोकर्मके भेदसे पुद्गल परिवर्तनके दो भेद हैं। यथावसर भागे इनका स्वरूप लिखा जायगा । २ जीवकांड गोम्मटसार पृ० न० ९२ गाया नं० २२९ से देखो।
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