Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
BREPEACOCONSCIENCaCREACLCRIMAR
दोषरूपसे एक पदार्थमें रह सकते हैं कोई विरोध नहीं हो सकता यह बात अच्छी तरह बतला देने पर है भी जो वादी मिथ्यादर्शनके उदयसे अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्मोंका एक जगह रहना विरोध ही है मानते हैं-असली स्वरूप नहीं समझ सकते उन्हें लोकमें प्रसिद्ध हेतुवादका आश्रय कर इसतरह समझाया.जाता है
यह बात सबके अनुभवगोचर और निश्चित है कि संसारमें अनेक सिद्धांत हैं और किसी प्रसिद्ध पदार्थका निरूपण वे एक रूपसे नहीं करते किंतु जितने सिद्धांत हैं उतने ही प्रकारों से उस पदार्थका , निरूपण किया जाता है जिसतरह प्रसिद्ध पदार्थ मोक्षको सभी सिद्धांतकार स्वीकार करते हैं परंतु हर हूँ
एक सिद्धांतकार उसका स्वरूपनिरूपण अपनी अपनी इच्छानुसार करता है परंतु जो स्वरूप हेतुके है बलसे सुनिश्चित हो जाता है वही यथार्थ माना जाता है उससे अन्य सब मिथ्या माने जाते हैं। यदि हेतुको न मान कर वचन मात्रसे ही किसी इष्ट पदार्थकी सिद्धि कर ली जाय तो फिर विना हेतुके सब सिद्धांतकारोंके अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि हो सकती है क्योंकि साधक और बाधक हेतु होता है। वह ५ माना नहिं जाता इसरीतिसे जो एक सिद्धांतकारने मोक्षका स्वरूप विना हेतुके मनसे गढ लिया वह
संसारका स्वरूप भी हो सकता है जिससे लक्ष्यको छोड अलंक्ष्यमें लक्षण चले जानेसे अतिप्रसंग (अति-टू व्याति) दोषका अवसर आजाता है इसलिये जो वादी अपने सिद्धांतकी मर्यादा स्थिर रखनेमें दत्तचित्त है है-उसका उल्लंघन करना नहीं चाहता, मनगढंत बातको ठीक न समझ न्याय धर्मका अनुसरण करनेवाला है और जिस अभीष्ट अर्थकी सिद्धिकी प्रतिज्ञा कर चुका है उसकी सिद्धि करना चाहता है उस 2 बादीको हेतुके विना वचनमात्रसे सब सिद्धांतकारोंके अभीष्ट पदार्थों की सिद्धि न हो अन्यथा अतिव्याप्त
+SCORRECENERelectriSGARMess