Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तथा जिसतरह ज्ञानाकार की अपेक्षा घटका होना माना है उस तरह ज्ञानकारसे अत्यंत दूर बाह्य पदार्थ घटाकारकी अपेक्षा भी यदि घटका होना मान लिया जायगा तो ज्ञानाकारसे अत्यन्त दूर बाह्य पदार्थ जैसा घटाकार है वैसे पट आदि भी हैं इसलिये पट आदिको भी घट कह देना होगा फिर समख लोक एक घटमात्र स्वरूप ही मानना पडेगा ।
अथवा चैतन्य शक्तिके दो आकार हैं एक ज्ञानाकार दूसरा ज्ञेयाकार। जिसमें कोई प्रतिविम्व नहीं पड रहा है ऐसे दर्पण के शुद्ध मध्यभागके समान तो ज्ञानाकार है और प्रतिविम्बविशिष्ट दर्पण के मध्यभागके समान ज्ञेयाकार है। यहां ज्ञेयाकार घटका स्वरूप है क्योंकि जिस तरह दर्पण में प्रतिबिंब के पडते ही वह अमुककी प्रतिबिंब है ऐसा व्यवहार होता है उसी तरह ज्ञानस्वरूप घट आदि ज्ञेयाकारके रहते ही घटका व्यवहार हो सकता है । एवं ज्ञानाकार घटका परस्वरूप है क्योंकि वह ज्ञानाकार सबके लिये सामान्य है । जिस समय घटका ज्ञान करना रहता है उस समय भी ज्ञानाकार घटके समीप रहता है और जिस समय पट आदिका ज्ञान करना होता है उस समय भी वह पट आदिके समीप रहता है ऐसा कोई विशेष नहीं कि वह घटके व्यवहार में ही कारण पडे, पट आदिके व्यवहार में कारण न पड सके । ज्ञेयाकारको घटका स्वरूप माननेमें कोई अडचन नहीं। क्योंकि जिस समय घटरूप ज्ञेयाकार | ज्ञानात्मक रहेगा उस समय वह घट व्यवहार हीका कारण होगा । इस रीति से जब ज्ञेयाकार घटका | स्वस्वरूप और ज्ञानाकार घटका पररूप निश्चित है तब स्वस्वरूप ज्ञेयाकार से घट है, परस्वरूप ज्ञानाकार से घट नहीं है । यदि जिस तरह ज्ञानाकारकी अपेक्षा घटका होना नहीं माना जाता उस तरह ज्ञेयाकारकी अपेक्षा भी घटका होना न माना जायगा तो ज्ञेयाकारका आश्रय घट है । उसके बनानेकेलिये
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