Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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समस्त पदार्थोंका लोप ही हो जायगा। इस रीति से कथंचित् एकांत है, कथंचित् अनेकांत है इन दो स्वरूप समझा दिया गया इसीप्रकार आगे के पांच भंग भी समझ लेने चाहिये भर्थात् अनेक धर्मस्वरूप वस्तुमें जहां पर विवक्षित एक धर्मकी अपेक्षा है वहां वस्तु कथंचित एकांत है ॥ १ ॥ जहां अविवक्षित अनेक धर्मोकी अपेक्षा है वहां कथंचित अनेकांत है ॥ २ ॥ जहाँपर विवक्षित एक धर्म और अविवक्षित अनेक धर्मोकी क्रमसे अपेक्षा है वहां कथंचित एकांत भी है और अनेकांत भी है ! ३ ॥ जहाँपर विवक्षित एक धर्मकी और अविवक्षित अनेक धर्मोकी एक साथ अपेक्षा है वहां एक दोनों धर्मों को कहनेवाला कोई शब्द नहीं इसलिये कथंचित अवक्तव्य है ॥ ४ ॥ जहां पर केवल विवक्षित एक धर्म की अपेक्षा और विवक्षित एक धर्म वा अविवक्षित अनेक धर्मों की एक साथ विवक्षा हो वहां कथंचित एकांत और अवक्तव्य भी है ५ । जहां पर केवल अविवक्षित अनेक धर्मों की अपेक्षा हो और विवक्षित एक धर्म की और अविवक्षित अनेक धर्मोकी एकसाथ अपेक्षा हो वहां कथंचित् अनेकांत और अवक्तव्य है ६ । एवं जहां पर विवक्षित एक धर्मकी और अविवक्षित अनेक धर्मोंकी क्रमसे और एकसाथ दोनों प्रकार से अपेक्षा हो वहां कथंचित् एकांत, अनेकांत, अवक्तव्य है ॥ ७ ॥
विशेष- अंतका अर्थ धर्म है। जहां पर अनेक धर्म हों वह अनेकांत कहा जाता है । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मस्वरूप है इसलिये प्रत्येक वस्तुका यथार्थ ज्ञान कथंचित् अनेकांत से हो सकता है । यह अने कांतवाद स्वाभाविक वाद है इसलिये इसका खंडन नहीं हो सकता । यद्यपि वास्तव में, विरुद्ध नहीं किंतु विरुद्ध सरीखा लगनेवाले धर्मोंका अनेकांतवादमें प्रवेश होनेके कारण वह विरुद्धसरीखा जान पडता है परन्तु उन धर्मोका अपेक्षासे समावेश होनेपर कोई दोष नहीं हो सकता। जिस तरह एक ही पुरुष पिता