Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अंधकार हो जाने के कारण स्पष्टरूपसे नहीं देख सकता किंतु सामान्य (स्थाणु पुरुष दोनों में समानरूपसे रहनेवाला) ऊंचाईको देखता है और टेडापन खोलार घोसले आदि स्थाणुमें रहनेवाले विशेष एवं वस्रका हिलना मस्तकका खुजाना चोटीका बांधना आदि पुरुषों में रहनेवाले विशेष भी स्पष्ट नहीं दीख ६ पड़ते किन्तु उसको यह स्मरण अवश्य उससमय रहता है कि स्थाणुके विशेष ऐसे होते हैं और पुरुषके ६ ऐसे विशेष होते हैं ऐसे पुरुषको उस स्थाणुके अंदर यह स्थाणु है वा पुरुष है ? ऐसा संशय होता है परंतु हूँ अनेकांतवादमें संशयका लक्षण नहीं घट सकता क्योंकि विशेषोंकी उपलब्धि न रहनेपर संशय ज्ञान बतलाया गया है परन्तु अनेकांतवादमें घट आदि स्वस्वरूपकी अपेक्षा है। पररूपकी अपेक्षा नहीं है इस प्रकार हरएक पदार्थमें स्वरूप पररूप आदि विशेषोंकी उपलब्धि है इसलिए अनेकांतवाद संशयका कारण नहीं कहा जासकता। यदि कदाचित् अनेकांतवादको इसरूपसे संशयका कारण कहा जाय कि --घट आदिमें जो
म मान गए हैं उनको नियमित रूपसे सिद्ध करनेवाले नियमित कारण है मौजूद हैं या नहीं ? यदि यह कहा जायगा कि नियमित रूपसे कारण नहीं हैं तो जो पुरुष व्युत्पन्न हैंहै अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्मोको विरोधी बतलाकर एक पदार्थमें उनका रहना असंभव समझनेवाले है
हैं उन्हें समझाना कठिन है क्योंकि इसरूपसे घट आदिमें अस्तित्व है और इसरूपसे नास्तित्व है इसमें
प्रकार नियमित कारणोंके द्वारा घटमें अस्तित्व नास्तित्वका रहना तो वे मान सकते हैं किन्तु कारण ॐ न बतलाकर वचनमात्रसे अस्तित्व नास्तित्व आदिका घटमें होना उन्हें समझाया जायगा तो वे कभी
भी नहीं मान सकते । यदि यह कहा जावगा कि घट आदि पदाथोंमें आस्तित्व नास्तित्वके नियामक
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