Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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किंतु जिसका मत कथंचित् अवक्तव्यवाद है वह यथार्थ है क्योंकि कथंचित् अवक्तव्यको अर्थ कथंचित् वक्तव्य और कथंचित् अवक्तव्य है । जिसतरह जो पुरुष सत्य असत्य दोनों प्रकारके वचनोंका भले प्रकार जानकार है वह जो बोलता है वह सत्य ही बोलता है और उसका वचन यथार्थ समझा जाता है। उसी तरह जो पुरुष कथंचित् वक्तव्य और कथंचित् अवक्तव्य सिद्धांतका माननेवाला है उसका वचन भी | यथार्थ ही माना जाता है क्योंकि कौन पदार्थ किस रूपसे वक्तव्य और किस रूपसे अवक्तव्य है इस बातका उसे यथार्थ ज्ञान है वास्तवमें वक्तव्यत्व अवक्तव्यत्व दो ही भंग हैं। सातों भंगों का इन्हीं दोनों में समावेश है इसरीति से भी कथंचित् वक्तव्यावक्तव्य सिद्धांतका माननेवाला यथार्थ वक्ता है । अनेकांते तदभावादव्याप्तिरिति चेन्न तत्रापि तदुपपत्तेः ॥ ६ ॥
कथंचित् जीव है कथंचित् जीव नहीं है । वा कथंचित् सम्यग्दर्शन है कथंचित् सम्यग्दर्शन नहीं है। इत्यादिरूपसे जीव और सम्यग्दर्शन आदिमें तो विधि निषेधकी कल्पना युक्त है परन्तु अनेकांत पदार्थ में विधि निषेधकी कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि वहाँपर विधि निषेधकी कल्पना करनेपर कथंचित् एकांत है, कथंचित् अनेकांत है इसतरह विभिपक्ष में एकांत मतको भी प्रमाणीक मानना पड़ता है इस लिए एकांत मतके मानने में जो दोष दिये जाते हैं उन सबका यहां भी प्रसंग होगा । यदि इस एकांत में किसीतरहका दोष न माना जायगा तो फिर एकांत सामान्य में भी कोई दोष न मानना होगा फिर जिस ने एकांत रूपसे किसी तत्त्वको माना है उसका वैसा मानना मिथ्या कह दिया जाता है सो अब उसे भी यथार्थ कहना पड़ेगा । तथा अनवस्था दोष भी आवेगा क्योंकि यदि उस एकांतको भी अनेकांत ही १- अनवस्था शब्दका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है ।
भाषां
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