Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
छ
भाषा
SECHECRECORRECEMEIGHEREMEMBECTION
जुदा उल्लेख होना चाहिये ? सो नहीं । आसूव और बंध पुण्य पाप स्वरूप है अर्थात् शुभ कर्मोंका ॥ आसूव पुण्यासव और अशुभ कर्मोंका आसूव पापासूव स्वरूप माना है इसीतरह शुभ कर्मोंका बंध पुण्य बंध और अशुभ कमौका बंध पाप बंध माना है इसलिये आसूव और बंधमें पुण्य और पापका समावेश होनेके कारण उनके जुदे कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं इसलिये जीव अजीव आदिकी तरह उनका पृथग् उल्लेख नहीं किया गया। यदि कदाचित् यह शंका की जाय कितत्त्वशब्दस्य भाववाचित्वाज्जीवादिभिः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिः ॥२९॥
न वाऽव्यतिरेकात्तावासद्धेः॥३०॥ समानाधिकरणका अर्थ दो आदि पदार्थों का एक जगह रहना है । जीवाजीवेत्यादि सूत्रमें तत्व शब्द भाववाची है यह ऊपर कहा जा चुका है और जीव और अजीव आदि द्रव्यवाचक हैं इसलिये 18 | जीव अजीव आदि ही तत्व हैं यह जो भाववाचक तल शब्दका और द्रव्यवाचक जीव अजीव आदि का समानाधिकरण बतलाया गया है वह बाधित है । सो ठीक नहीं। जिसतरह ज्ञान ही आत्मा है यहांपर ज्ञान गुण और आत्मद्रव्यका सामानाधिकरण्य, यद्यपि गुण और द्रव्यका सामानाधिकरण्य होनेके । कारण विरुद्ध सरीखा जान पडता है तो भी ज्ञान आत्मासे कोई भिन्न पदार्थ नहीं, दोनों एक ही हैं। इसलिये कोई दोष नहीं माना जाता उसीप्रकार भाव भी द्रव्यसे भिन्न पदार्थ नहीं । भावरूपसे ही द्रव्यका अध्यारोपण होता है इसलिये द्रव्य और भाव इस नामसे भिन्नता रहने पर भी वास्तविक दृष्टिसे दोनों का अभेद होनेके कारण सामानाधिकरण्य बाधित नहीं । यदि यहां पर यह शंका की जाय कि जब भावरूप कर ही द्रव्यको स्वीकार किया जाता है, भाव द्रव्यसे भिन्न नहीं हो सकता तब जो लिंग वचन
MBABASAHEBARSABRETOO