Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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दीख पडता है कि कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थोंमें कृत्रिमहीका ग्रहण किया जाता है जिसतरह गोपालक शब्दका अकृत्रिम अर्थ गौका पालन करनेवाला है और कृत्रिम अर्थ किसी पुरुषका नाम भी है परन्तु
गोपालक कहनेसे गौका पालन करनेवाला इस अर्थका बोध नहीं होता किंतु गोपालक नामका अमुक ई व्यक्ति है यही बोध होता है तथा कटेजकका अकृत्रिम अर्थ चटाईमें पैदा होनेवाला और कृत्रिम अर्थ र किसी पुरुषका नाम भी है परन्तु कटेजक कहनेसे चटाईमें उत्पन्न होनेवाला इस अर्थका बोध नहीं होता है हूँ 'कटेजक नामका अमुक व्याक्ति है' यही बोध होता है उसीप्रकार जीव आदि शन्दोंका अकृत्रिम अर्थ हूँ
आत्मा भी है और कृत्रिम अर्थ किसी पुरुषका नाम भी हो सकता है । इहांपर भी जीव वा सम्यग्दर्शन है है ऐसा उच्चारण करनेपर जिस पुरुषके ये नाम होंगे उन्हींका बोध होगा आत्माका वा श्रद्धानरूप अर्थ है है का बोध न हो सकेगा इसलिये नाम आदिसे होनेवाले व्यवहारको उपचारसे माननेपर भी किसी प्रकार 7 का दोष नहीं हो सकता ? सो ठीक नहीं। जो पदार्थ जिस नामसे प्रसिद्ध है उसका उसी नामसे व्या. ४ ख्यान करना अर्थ है । इहांपर यह व्याख्यान इस रीतिसे करना चाहिये ऐसा जहां उपदेश हो वह प्रककरण है। कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थों में जहां जहांपर कृत्रिम पदार्थका अर्थ वा प्रकरण होगा वहीं उस
का अहण हो सकेगा किंतु जहाँपर कृत्रिम पदाथका अर्थ वा प्रकरण न होगा वहांपर कृत्रिम और अकृ-हूँ 'त्रिम दोनों ही पदार्थोंका एक साथ ज्ञान होगा। यह वात प्रत्यक्षरूपसे देखी गई है कि जिसके पैर धूलि है
से भदमेले हो रहे हैं, खुरके समान फटे हुए हैं और जो प्रकरणको विलकुल नहीं पहिचानता ऐसे गांव * से आए हुए पुरुषसे यह कहा जाय कि भाई। गोपालक वा कटेजकको ले आओ तो कृत्रिम और अकृ.
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१रक्खा हुमा. नाम।