Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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नाम ही है स्थापना नहीं कहा जा सकता, यदि नाम ही स्थापना माना जायगा तो वह नाम नहीं कहा जा सकता स्थापना कहना पडेगा परंतु स्थापना नाम हो नहीं सकता इसलिये विरोध के कारण जो नामका अर्थ है वह स्थापना नहीं हो सकता तथा एक ही जीव आदि पदार्थ वा एक ही सम्यग्दर्शनादि अर्थ नाम आदि चारो स्वरूप नहीं हो सकते इसलिये विरोधके कारण जब एक शब्दका अर्थ नाम आदि चारो स्वरूप नहीं हो सकता तब नाम आदि चार निक्षेप नहीं सिद्ध हो सकते ? सो ठीक नहीं । नाम आदि चारो निक्षेपोंकी अपेक्षा लोकमें व्यवहार दीख पडता है जिसतरह किसी पुरुषका नाम इंद्र वा देवदत्त रख देना यह नामकी अपेक्षा व्यवहार है। इंद्रकी प्रतिमामें यह इंद्र हैं ऐसा मानना स्थापना की अपेक्षा व्यवहार है । जो परिणाम आगे होनेवाला है उसको वर्तमान में ही कह डालना यह द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा लोकमें व्यवहार दीख पडता है । जिसतरह - जो द्रव्यस्वरूप बालक आगे जाकर आचार्य सेठ वैयाकरण और राजा होगा उसे वर्तमान में ही आचार्य सेठ वैयाकरण और राजा कह दिया जाता है इसलिये जो काष्ठ इंद्रकी प्रतिमा बनने के लिये आया है उसे इंद्र कह देना क्योंकि "काष्ठके लाने पर; 'मैं इंद्र लाया हूं' ऐसा कहा जाता है” यह द्रव्यकी अपेक्षा व्यवहार है तथा जो शचीपति इंद्र जिससमय परमैश्वर्यका भोग कर रहा है उसममय उसे इंद्र कहना यह भावकी अपेक्षा व्यवहार है इसरीति से जब भिन्न भिन्न रूपसे चारो निक्षेपोंकी अपेक्षा संसारका व्यवहार प्रत्यक्ष सिद्ध है, एक भी निक्षेपकी कमी हो जाने पर व्यवहार की भी कमी दीख पडती है तब चारो निक्षेपोंमें एकका भी अभाव नहीं हो सकता। और भी यह बात है-
- अभिहितान वबोधात् ॥ २१ ॥
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