Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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15. भाषा
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है जीवनपर्याय वा सम्यग्दर्शनके शास्त्रका जानकार नहीं उसके शरीर वा कर्म नोकर्मों का ग्रहण है इसलिये है आपसमें अर्थमें विरुद्धता होनेके कारण कर्म और नोकर्मका भावि नोआगम द्रव्यमें समावेश नहीं हो सकता।
विस्तृत व्याख्यान-श्लोक वार्तिकालंकार सर्वार्थसिद्धिकी टिप्पणीका पाठांतर और युक्तिवलसे हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि यद्यपि लक्षण करते समय द्रव्यनिक्षेपका विषय भविष्यत् पर्यायकी अपेक्षा ही ग्रंथकारोंने वर्णन किया है तो भी वह तीनों कालोंकी अपेक्षा ही मानना ठीक है। जिस पदार्थका निक्षेप किया जाय उस पदार्थको वर्णन करनेवाले शास्त्रका जानकार तो हो परन्तु जिस समय उसके चितवन आदिमें उपयोगरहित हो 'आगे जाकर उपयुक्त हो' ऐसा आत्मा आगपद्रव्य है यह सामान्य आगम द्रव्यका लक्षण कहा गया है और यहांपर भविष्यत् पर्यायकी ही प्रधानता रक्खी है। इस रीति से जो पुरुष मनुष्य आदि जीवन पर्याय वा सम्यग्दर्शनके शास्त्रका जानकार हो और जिससमय वह उसके चितवन आदिमें उपयोगरहित हो तो भी इस समय उसे उपयुक्त कह देना यही आगम द्रव्यका विषय कहा जा सकता है किंतु जो पुरुष मनुष्य आदि जीवन पर्याय वा सम्यग्दर्शन के शास्त्रका जान* कार हो, उनके चितवन आदिमें पहिले ही उपयुक्त हो चुका, इस समय अनुपयुक्त है उसे भी उपयुक्त ९ कह देना यह भूतकालकी अपेक्षा अनुपस्थित आगम द्रव्यनिक्षेपका विषय न कहा जा सकेगा तथा है जो पुरुष मनुष्य आदि जीवन पर्याय और सम्यग्दर्शनके शास्त्रका जानकार हो, उनके चितवन आदि * में उपयुक्त हो रहा हो पूर्ण उपयुक्त न हुआ हो उसे भी उपयुक्त कह देना यह वर्तमान कालकी अपेक्षा
अनुपस्थित भी आगमद्रव्य निक्षेपका विषय न कहा जा सकेगा परन्तु व्यवहार तीनों कालोंकी अपेक्षा
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