Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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FII भाषा
बुद्धिपूर्वी क्रियां दृष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तहात् ।
. मन्यते बुद्धिसद्भाव सान येषु न तेषु धीः॥१॥ इति | अर्थात्-अपने शरीरमें बुद्धिपूर्वक क्रिया देखकर यदि दूसरेके शरीरमें भी बुद्धिपूर्वक क्रिया दीख
या पडती है तो उससे दूसरेमें बुद्धिका निश्चय कर लिया जाता है किंतु जहाँपर बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं वहां 5| पर ज्ञान भी नहीं रहता। वनस्पति जल तेज आदिमें बुद्धिपूर्वक चेष्टा मालूम नहीं पडती इसलिये ज्ञान MS आदिका अभाव होनेसे वनस्पति आदि भी अजीव कहे जायगे ? सो ठीक नहीं। वनस्पति आदिमें
ज्ञान दर्शन आदि मौजूद ही हैं परन्तु सिवाय सर्वज्ञके उन्हें कोई नहीं जान सकता इसलिये वनस्पति | आदिमें ज्ञान आदिक सर्वज्ञके ज्ञानके गोचर हैं। भगवान सर्वज्ञके द्वारा आगमका प्रतिपादन हुआ है।
और आगममें वनस्पति आदिमें ज्ञान बतलाया है इसलिये आगम प्रमाणकी कृपासे हमें भी उनमें ज्ञान की मालूम पडता है एवं जिप्स कायके अन्दर जीव रहता है आहार करनेपर वह पुष्ट होता है और आहार
के अभावमें कुम्हला जाता है यह युक्तियुक्त वात है । आगम और विज्ञान दोनोंसे यह सिद्ध है कि वन|| स्पति आदि जल पवन आदिका यथायोग्य आहार करते हैं। जिससयय वे आहार करते हैं हरे भरे पुष्ट ६|| होते हैं और जिससमय आहार नहीं मिलता तब कुम्हला जाते हैं। आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसलिये युक्ति । || से भी वनस्पति आदिमें ज्ञान सिद्ध है। तथा जहां बुद्धिपूर्वक क्रिया होती है वहां ज्ञान रहता है यह || शंकाकारकी व्याप्ति है और इस व्याप्तिमें 'बुद्धिपूर्वक क्रिया' हेतु एवं 'ज्ञानका अस्तित्व' साध्य है। जो
जीव अंडेके भीतर रहते हैं वा जो गर्भमें अथवा मूर्छित रहते हैं उनमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं जान पडती | l किंतु ज्ञान अवश्य मौजूद है इसलिये अंडज आदि जीवों में ज्ञानका अस्तित्वरूप साध्य रहनेसे और
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