Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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भाषा
अनुपलब्ध ? यदि भिन्नरूपसे उपलब्ध माने जायगे तब आसूव आदिका भिन्नपना ही सिद्ध होगया। IONICजीव और अजीवमें उनके समावेशकी शंका करना व्यर्थ है। यदि अनुपलब्ध हैं तब समावेशका प्रश्न १०५ हो ही नहीं सकता क्योंकि जो पदार्थ उपलब्ध ही नहीं-आजतक किसीने देखा सुना नहीं उसके विषय
में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तथा यह भी पूछना आवश्यक है कि-जिन आसूव आदि पदार्थों| को जीव और अजीवमें समावेश करनेकी शंका की जाती है वे आसूव आदि पदार्थ जीव और अजीव 5 से भिन्न, सिद्ध हैं कि असिद्ध ? यदि भिन्न सिद्ध हैं तब उनका जीव और अजीवसे भिन्नपना ही सिद्ध
होगया, समावेशकी शंका करना निर्मूल है। यदि असिद्ध हैं तो जिसतरह गधेके सींग असिद्ध-असत् | | होनेके कारण किसी पदार्थमें उनके समावेशकी कल्पना नहीं की जाती, उसीतरह आसूव 'आदि भी असिद्ध होनेके कारण जीव और अजीवमें उनके समावेशकी भी कल्पना नहीं की जा सकती।
विशेष-उपलब्धका अर्थ प्राप्त और अनुपलब्धका अर्थ अप्राप्त है। कार्माण जातिकी वर्गणा वा | परमाणु आदि बहुतसे ऐसे पदार्थ हैं जो अप्राप्त हैं। यदि 'अप्राप्त पदार्थों के विषयमें कुछ भी नहीं कहा।
जा सकेगा तो कार्माण जाति वर्गणा वा परमाणु आदिके विषयमें भी कुछ भी न कहा जा सकेगा। । उनका स्वरूप ही कुछ न हो सकेगा क्योंकि ये भी अप्राप्त हैं इसीलिये वार्तिककारने उपलब्ध और अनु
पलब्ध पक्षको छोडकर सिद्ध और असिद्ध पक्षका उल्लेख किया है । सिद्धका अर्थ सत् और असिद्धका र अर्थ असत् है । असत् कहनेमें कोई दोष नहीं क्योंकि कार्माण जातिकी वर्गणा वा परमाणु आदि अप्राप्त तो हैं पर असर नहीं । तथा
अनेकांताच॥५॥
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