Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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है अजीवके साथ संबंध रहते ही संसारकी सचा है इसरीतिसे अजीव द्रव्यका भौजुदा उल्लेख करना सार्थक , है। जीव और अजीवके संबंध होनेपर जब संसारका होना निश्चित है तब उसके प्रधान कारण आसूवर , और बंध हैं इसलिये उनका भी पृथक् कहना सार्थक है तथा जीव अजीवके आपसी संबंधके नष्ट हो। ६ जानेपर मोक्ष होती है और उस मोक्षकी प्राप्तिमें संवर और निर्जरा कारण हैं इसलिये उनका मापृथक्
रूपसे उल्लेख करना परमावश्यक है इसप्रकार जीव आदि समस्त तत्त्वोंके भले प्रकार जाननेपर मोक्ष । की प्राप्ति होती है इसलिये सातों तत्त्वोंका जो पृथक् पृथक् रूपसे उल्लेख किया है वह ठीक ही है। यहां पर यह न समझना चाहिये कि सामान्यसे ही जब इष्टसिद्धि हो जाती है तब विशेषको जुदा कहना लाभदायक नहीं क्योंकि सामान्यके कहनेपर विशेषका ग्रहण हो जानेपर भी जो उसका जुदा कथन किया जाता है वह किसी खास प्रयोजनके लिये होता है जिसतरह क्षत्रिया आयाताः शूरवर्मापीति' अर्थात् सब क्षत्री आगए और शरवर्मा भीआ गया इहांपर शूरवर्माको जुदा कहना उसकी प्रधानता प्रगट करनेके लिये है उसीप्रकार यद्यपि आसूव आदिका ग्रहण जीव और अजीवके कहनेसे ही हो जाता है तो भी आसूव और बंध संसारके प्रधान कारण एवं संवर और निर्जरा मोक्षके प्रधान कारण हैं यह खास प्रयोजन प्रगट करनेके लिये उनका पृथक् ग्रहण है। इसलिये आसूव आदिका पृथक्रूपसे उल्लेख करना व्यर्थ नहीं कहा जा सकता। तथा
उभयथापि चोदनानुपपत्तिः॥४॥ . जो मनुष्य जीव और अजीवमें समावेश होनेके कारण आसूव आदिका जुदा कथन करना निरर्थक समझता है उससे यह पूछना है कि-जीव और अजीवसे आसूव आदि भिन्नरूपसे उपलब्ध हैं कि ||
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