Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोतास्तत्त्वं ॥४॥ अर्थ-जीव १ अजीव २ आस्रव ३ बंध ४ संवर ५ निर्जरा ६ और मोक्ष ७ ये सात तत हैं।
यदि कोई यहां पर यह शंका करे कि जीव अजीव आदि पदार्थ द्रव्यके ही भेद हैं इसलिये केवल द्रव्यका ही उल्लेख करना चाहिये जीव अजीव आदिका भिन्न भिन्न रूपसे नाम लेनेकी कोई आवश्यकता नहीं उसका वार्तिककार समाधान देते हैं
एकाद्यनंतविकल्पोपपत्तौ विनेयाशयवशान्मध्यमाभिधानं ॥१॥ पदार्थों के एक दो तीन संख्येय असंख्येय और अनंत भेद हैं । उनमें एक पदार्थ द्रव्य है क्योंकि 'एकं द्रव्यमनंतपर्यायमिति' अनंत पर्यायोंका घारक द्रव्य पदार्थ एक है ऐसा वचन है। दो पदार्थ जीव 8 अजीव हैं। तीन, पदार्थ १ शब्द २ और ज्ञान ३ हैं तथा जितने वचनोंके भेद हैं उतने ही पदार्थो के भेद ॐ हैं इसप्रकार वचन भेदोंकी अपेक्षा पदार्थों के असंख्याते भेद हैं एवं ज्ञान और ज्ञेयकी अपेक्षा अनंते भेद
हैं। पदार्थों के भेदोंका जो निरूपण होता है वह शिष्योंकी बुद्धिको लक्ष्यकर होता है। यदि संक्षेषरूपसेहूँ ही उनका वर्णन किया जाय तो जो शिष्य विद्वान हैं वे तो समझ सकते हैं अल्पज्ञानी नहीं समझ सकते।
यदि असंत विस्तारसे वर्णन किया जाय तो बहुत कालके वीत जानेपर भी पदायाँके भेदोंका ज्ञान नहीं हूँ हो सकता क्योंकि पदार्थोंके अनंते भेद हो सकते हैं और उनके समझने में बहुतसा काल लग जासकता है
१ अनन्त पर्यायोंवाला द्रव्य सामान्धरूपसे एक ही है, क्योंकि द्रन्य सामान्यमें सभी द्रव्य मा जाते हैं, पदार्यको यदि दो कोटियों में बांटा जाय तो जीव, अजीव, इन दो में सब पदार्थ पा जाते हैं, यदि उन्हें तीन मेदों में बांटा जाय तो वाय, वाचक और उसका बोध ये तीनों मेद हो जाते हैं।
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