Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. २२ तद्वयतिरिक्तलोकोत्तरीयद्रव्यावश्यक निरूपणम् १५३ पाण्डरपटप्रावरणाः पाण्डुराः धौताः मलपरीषहसहनाक्षमत्वात्, पटाः परिधानबस्त्राणि, प्रावरणानि-शरीराच्छादनवस्त्राणि च येषां ते तथा, परिहितनिर्मलघसनाः, जिनानामनाज्ञया स्वच्छदं विहत्य-जिनाज्ञामनादृत्य स्वस्व रुच्या विविधक्रियाः कृत्वा उभयकाल-प्रातःसायम् आवश्यकाय-अतिक्रमणाय उपतिष्ठन्तेउद्युक्ता भवन्ति । ततेषामावश्यकं लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकम् । अत्र द्रव्यायश्यकस्वं भावशून्यत्वात्, तत्फलाभावात्, संसारकारणत्वाच्च अप्रधानतया बोध्यम् । को चिकने रखते हैं. (पंडुरपडेपाउरणा) जो मल परीषह को सहने में असमर्थ होने के कारण अपने पहनने और ओढने के वस्त्रों को धोने में आसक्त रहते है- जिणाणमणाणाए) जिन भगवान् की आज्ञाकी परवाह न करके जो (स छंद विहरिऊणं) अपनी अपनी रूचि के अनुसार विविध क्रियाओं को करके (उभओ कालं) प्रातः सायं दोनों समय (आवस्सयस्स उबटुंति) प्रतिक्रमण करने के लिये उद्युक्त होते हैं (से) सो (तं लोउत्तरियं दव्वावस्सयं) उनका वह आवश्यक प्रतिक्रमण-लेकात्तरिक द्रव्यावश्यक हैं । (से तं जाणयसरीर भविय सरीरवइरित्तं दध्व'वम्सय) इस तरह ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर इन दोनों से जुदा यह द्रव्याव यव-लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है । इन क्रियाओं में भावशून्यता होने के कारण उनका काई वास्तविक फल प्राप्त नहीं होता हैउल्टा उन से संसार का ही वर्धन होता है। इसलिये इन भावशून्य द्रव्यलिङ्गि साधुओं द्वारा किया गया आवश्यक कर्म अप्रधान होने के कारण द्रव्याप्रयत्न ४२ता २९ छ, (पंडुरपडपाउरणा) रेमो मतपरीषने सडन ४२१मा मसમર્થ હોવાને કારણે પિતાના પહેરવા ઓઢવાના વઓને ધવામાં આસકત રહે છે. (जिणाणमणाणाए) निन्द्र लगवाननी माज्ञानी ५२१॥ या विनायो (सछंद विहरिऊणं) पातानी ४२छअनुसारनी विविध जियायो ४शन (उभओकालं) Ad:stu भने साय , मा भन्ने समये (आवस्सथस्स उबटुंति) प्रतिभए ४२मान तयार थाय छ, (से तं लोउत्तरियं दव्वावस्सयं) तो तभनी ते मावश्य
३५ प्रतिभy बत्तरित व्यावश्य४३५ माय छे. (से तं जाणयसरीर भविय सरीरपारित दम्भावस्सय) साय४२ भने १०यशरीर, मा भन्नेथी किन्न એવા દ્રવ્યાવશ્યકના લેકેતરિક દ્રવ્યાવશ્યક નામના ત્રીજા ભેદનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું. આ ક્રિયાઓમાં ભાવશૂન્યતા હોવાને કારણે તેમનું કઈ વાસ્તવિક ફલ પ્રાપ્ત થતું નથી, પરંતુ ઉલ્ટ સંસાર જ વધે છે. તેથી આ પ્રકારના દ્રવ્ય લિગી સાધુઓ દ્વારા કરવામાં આવેલું આવશ્યકમ અપ્રધાન હેવાને કારણે દ્રવ્યા
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