Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकर-भूज्य-श्री-घासीलालजी-महाराज विरचितया अनुयोगशिकाख्यया व्याख्यया समवलं
हिन्दी गुर्जर-मापाऽनुवादसहितम्श्री-अनुयोगहारसूत्रम्
(प्रथमो मागः)
संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि-भीकन्हैयालालजी-महाराजा
काशा
साणंदनिवासी-श्रेष्टिश्री-डोसाभाई-गोपालदाससस्मरणार्थ
तपत्रमदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ० मा० . स्वा. जैनशाखोडास्समितिममुखः श्रेष्ठ-श्रीशान्तिलाल-मालदासभाई-महोदयः
मु. राजकोट
इलजीबद्ध
प्रथमा यावृतिःबीर संपन् प्रति १२००
विकम-संबर H०६६
मूल्यम्-२५-००
For Private and Personal Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज. विरचितया अनुयोगचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं
हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् .
श्री अनुयोगद्वारसूत्रम्
YOYOYOYOYOYOYO
(प्रथमो भागः)
नियोजक :
संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
प्रकाशकः
साणंदनिवासी-श्रेष्टिश्री डोसाभाई गोपालदासस्मरणार्थ
तत्पुत्रप्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः धीर-संपत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९३ २०२३
मूल्यम्-रू. २५-०-० RCOTICORRRRRC REFERRORROTECTER
Gvidosda
aroticoatianission
१९६७
For Private and Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Pablished by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥
हरिगीतच्छन्दः
करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्व कुछ फिर यत्त ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १॥
भूयः ३. २५300
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૩ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૩ ઈસવીસન ૧૯૬૭
मुद्र મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ઘીકાંટા રોડ, અમદાવાદ.
For Private and Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री.
अनुयोगद्वारसूत्र भाग पहेले की
विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाङ्क विषय
पृष्ठांक -१ मंगलाचरण
२ विषयों का विवरण .३ पांच प्रकार के ज्ञान के स्वरूप का निरूपण
१३-२९ ४ श्रतज्ञान के स्वरूप का निरूपण
३०-५७ ५ आवश्यक के अनुयोगस्वरूप का निरूपण
५८-६० ६ आवश्यक के निक्षेप का निरूपण.. का निरूपण
६१-६३.. ७ नामावश्यक के स्वरूप का निरूपण
६४-७२ ८ स्थापनावश्यक के स्वरूप का निरूपण
७२-७७. ९ नामावश्यक और स्थापनावश्यक के भेद का कथन ७८-८५ १. द्रव्यावश्यक का निरूपण
८६-१०१ ११ नयभेद से द्रव्यावश्यक के स्वरूप का निरूपण १०२-११५ १२ नो आगम से द्रव्यावश्यक का निरूपण
११६-११९ १३ ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्यक का निरूपण
११९-१२६ १४ भव्यशरीर द्रव्यावश्यक निरूपणम्
१२७१५ ज्ञायक शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का निरूपण १३१-१३२ १६ लौकिक द्रव्यावश्यक का निरूपण
१३२-१४१ १७ कुमावनिक द्रव्यावश्यक का निरूपण
१४२-१५० १८ ज्ञायक शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त लोकोत्तरीय
घ्यावश्यक का निरूपण १५०-१५१ १९ भावावश्यक का निरूपण ..
१५९-१६४ २०. नो आगम भावावश्यक का निरूपण
१६४-१६८
For Private and Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२१ कुप्रावनिक भावावश्यक का निरूपण
१६८-१७० २२ लोकोत्तरीय भावावश्यक का निरूपण
१७१-१७७ १३ भावावश्यक के पर्याय का निरूपण
१७८-१८२ २४ नामश्रुतका निरूपण
१८३-१८४ २५ आगम से द्रव्य श्रुतका निरूपण
१८४-१८६ २६ नो आगम से द्रव्यावश्यक का निरूपण
१८६-१८७ २७ ज्ञायक शरीर द्रव्यश्रुतका निरूपण
१८७-१८८ २८ भव्यशरीर द्रव्यश्रुतका निरूपण
१८९-१९० २९ जायक शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतकानिरूपण १९०-१९९ ३० आगमसे भाषश्रुतका निरूपण
२००-२०१ ३१ लौकिक नो आगम से भावश्रुतका निरूपण
२०२-२०५ ३२ लोकोत्तरीय नो भागमसे भावश्रुतका निरूपण २०६-२१० ३३ भावश्रुत के पर्यायों का निरूपण
२१०-२१२ ३४ स्कन्धाधिकार का निरूपण
२१३-२१५ ३५ द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
२१६-२१८ ३६ द्रव्यस्कन्ध के सचित्तरूप प्रथम भेद का निरूपण २१९-२२१ ३७ अचित्त द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
२२२-२२३ ३८ मिश्र द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
२२४-२२७ ३९ अकृत्स्नस्कन्ध का निरूपण
२२८-२३० ४. अनेक द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
२३१-२३४ ४१ आगमसे भावस्कन्ध का निरूपण
२३५४२ नो आगमसे भावस्कन्ध का निरूपण
२३६-२३८ ४३ स्कन्धों के पर्यायों का निरूपण
२३९-२४१ ४४ आवश्यक के छ अध्ययनों का निरूपण
२४१-२४५ ४५ आवश्यक व्याख्यात हो चुके और आगे पाख्यात
होने वाले विषय का निरूपण २४५-२५१ ४६ लौकिक उपक्रम का निरूपण
२५१-२५३
For Private and Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४७ सचित्त द्रव्योपक्रम का निरूपण .४८ द्विपद संबंधी द्रव्योपक्रम का निरूपण
४९ चतुष्पद विषयक दोनों प्रकार के उपक्रम का निरूपग ५० अपद पियर दोनों प्रकार के उपक्रम का निरूपण ५१ अचित्त द्रव्योपक्रम का निरूपण ५२ मिश्र द्रव्योपक्रम का निरूपण ५३ क्षेत्रोपक्रम का निरूपण .५४ कालोपक्रम का निरूपण
५५ नो आगम से भावोपक्रम का निरूपण .५६ शास्त्रमावोपक्रम का निरूपण ५७ भानुपूर्वी प्रादि के सरूप का निरूपण ५८ नामादि आनुपूर्वी का निरूपण ५९ अनौपनिधिकी द्रव्यानुर्वी का निरूपण ६० नैगमव्यवहारअर्थपदका निरूपण ६१ भङ्गसमुत्कीर्तनता का निरूपण ६२ मङ्गोषदर्शनता का निरूपण ६३ समवतार के स्वरूप का निरूपण .६४ अनुगमके स्वरूा का निरूपण ६५ सत्पदं का निरूपण ६६ द्रव्यप्रमाण का निरूपण ६७ क्षेत्रममाण का निरूपण '६८ स्पर्शनाद्वार का निरूपण ६९ कालद्वार का निरूपण ৩০ অাৰ স্কা নিকা ७१ भागद्वार का निरूपण ७२ भावद्वार का निरूपण
२२४-२५७ २५७-२५९ २६०-२६१ २६१-२६२ २६२-२६३ २६३-२६५ २६६-२६९ २६९-२७१ २७१-२८४ २८४-२८५ २८६ - .. २८७-३०४ .३०५-३१६
३१७-३१९ ३१९-३२७ ३२७-३३४ ३३५-३३९ ३३९-३४३ ३४३-३४४ ३४५-३४७ ३४८-३५५ ३५५-३६० ३३१-३६४ ३६५-३७६ ३७२-३८३ ३८३-३८७
ग
...
For Private and Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
७३ अल्प बहुत्वद्वार का निरूपण ७४ अर्थपद का निरूपण
www.kobatirth.org
७५ भङ्ग समुत्कीर्तनता का निरूपण ७६ भङ्गोपदर्शनता का निरूपण
७७ समवतार के स्वरूप का निरूपण
३८७-३९७
३९९-४०२
४०३-४०५
४०६-४०८
४०८-४१०
७८ अनुगम के स्वरूप का निरूपण
४१०-४२४
७९ पूर्वानुपूर्वी आदि तीन भेदों का निरूपण
४२५-४३१
८० पुद्गलास्तिकायकों अधिकृत करके तीन द्रव्यों का निरूपण ४३१-४३८
४३९-४४२
४४२-४४८
८१ क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण ८२ अर्थपद की प्ररूपणा
८३ अर्थपद प्ररूपणा के प्रयोजन का निरूपण
८४ मङ्गसमुत्कीर्तनता के प्रयोजन का निरूपण
८५ मङ्गोपदर्शनता का निरूपण
८६ समवतार का निरूपण
८७ अनुगम का निरूपण
८८ द्रव्यप्रमाण का निरूपण
८९ क्षेत्रप्रमाणद्वार का निरूपण
९० स्पर्शनाद्वार का निरूपण
९१ कालद्वार का निरूपण ९२ अन्तरद्वार का निरूपण
९३ भागद्वार का निरूपण
९४ भावद्वार का निरूपण
९५ अल्पबहुत्वद्वार का निरूपण
९६ अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण
९७ औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण ९८ अधोलोक गत क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
४४९-४५०
४५१-४५२
४५२-४५६
४५६-४५७
४५८-४५९
४६०-४६४
४६५-४७७
४७७-४७९
४८०-४८४
४८५-४९०
४९१-५००
५०१-५०१
५०३-५१०
५११-५१६
५१६-५२३
५२३-५२६
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पण
९९ तिर्यग्लोक क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण १०० ऊर्बलोक क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण १०१ कालानुपूर्वी आदि का निरूपण १०२ नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपद का निरूपण .. १०३ नैगमव्यवहारनयसंमत भासमुत्कीर्तन का निरूपण १०४ नैगमव्यवहारनयसंमत मनोपदर्शन का निरूपण १०५ समातार के स्वरूप का निरूपण १०६ अनुगम के स्वरूप का निरूपण १०७ क्षेत्रद्वार और स्पर्शनाद्वार का निरूपण १०८ कालद्वार का निरूपण १०९ अन्तरद्वार का निरूपग ११० अनौपनिधिको कालानुपूर्वी का निरूपण १११ अर्थपदमरूपण आदि का निरूपण ११२ औपनिधिकी कालानुपूर्वी का निरूपण ११३ उत्कीर्तनानुपूर्वी का निरूपण ११४ गणनानुपूर्वी का निरूपण ११५ संस्थानानुपूर्वी का निरूपण ११६ सामाचार्यानुपूर्दी का निरूपरूग ११७ भावानुपूर्वी का निरूपण ११८ उपक्रम के दूसरे भेद नाम का निरूपण ११९ एक नाम के स्वरूपका निरूपण १२० द्विनाम आदि के स्वरूपका निरूपण १२१ त्रिनाम के स्वरूपका निरूपण १२२ पर्यवनामका निरूपण १२३ प्रकारान्तरसे त्रिनामका निरूपण १२४ चतुर्नामका निरूपण १२५ पांचनामों का निरूपण १२६ छ नामों का निरूपण १२७ औदयिकादि भावों के स्वरूपका निरूपण १२८ औपशमिक भावका निरूपण
५२७-५३२ ५३३-५३९ ५३९-५४० ५४१-५४७ ५४८-५५० ५५१-५५४ ५५५-५५६ ५५७-५६२ ५६३-५७३ ५७४-५७७ ५७७-१८७ ५८७-५८८ ५८८-५८९ ५९०-६०१ ६०१-६०५ ६८५-६०८ ६०८-६१४
६२३-६२८ ६२८-६३० ६३०-६३२ ६३३-६४४ ६४५-६५५ ६५५-६६६ ६६६-६७१ ६७१-६७७ ६७७-६७९ ६७९-६८२ ६८२-६९१ ६९३-६९६
For Private and Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२९ क्षायिक भावका निरूपण १३० क्षायोपशमिक मावका निरूपण - १३१ पारिणामिक भावका निरूपण १३२ सानिपातिक भावका निरूपण . १३३ द्विकादि संयोगका निरूपण १३४ द्विकादि त्रिकसंयोगज सोनिपातिकमावका निरूपण १३५ चतुष्कसंयोगज सांनिपातिक भावका निरूपण १३६ पंचक संयोगन सांनिपातिक भावका निरूपण १३७ सप्तनामका निरूपण १३८ कारणदर्शनपूर्वक स्वरोका निरूपण १३९ सात स्वरों के लक्षण का निरूपण १४० स्वरों के ग्राम एवं मूर्छना का निरूपण १४१ स्वर के उत्पत्ति आदि का निरूपण १४२ गीत में हेय और उपादेय का निरूपण १४३ अष्ट नाम का निरूपण १४४ नव नाम का निरूपण १४५ लक्षणपूर्वक वीररस का निरूपण १४६ लक्षगपूर्वकशृंगारर का निरूपण १४७ लक्षण सहित अदभुनरस का निरूपण १४८ लक्षग सहित रौद्ररस का निरूपण १४९ लक्षगपहित ब्रीडनकरस का निरूपण
६९७-७१९ ७२०-७३५ ७३५-७४५ ७४५-७४६ ७४७-७५६ ७५७-७७२ ७७२-७८२ ७८२-७८८ ७८९-७९२ ७९२-७९८ ७९८-८०२ ८०३-८०५ ८०६-८०८ ८०८-८२१ ८२१-८२७ ८२८-८३३ ८३३-८३६ ८३६-८३९ ८३९-८४० ८४१-८४४ ८४५-८४८
समाप्त
For Private and Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
પટેલ ડાસાભાઈ ગેાપાલદાસ ૩. સાણંદ (જી. અમદાવાદ )
જન્મ : તા. ૧૭-૧-૧૮૭૦
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
મરણ ઃ તા. ૫-૬-૧૯૬૪
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
For Private and Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સાણંદનિવાસી ધર્માનુરાગી સ્વ. શ્રી ડાસાભાઇ ગાપાળજીભાઇ પટેલનુ સક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
સાણુંદ (જી. અમદાવાદ) નિવાસી પટેલ રાસાભાઈના જન્મ વિક્રમ સંવત ૧૯૨૬ તા. ૧૭-૧-૧૮૭૦ના રાજ થયાં હતા. તેઓ એ ભાઈઆ હતા. માટા હરીભાઈ અને નાના ડોસાભાઈ તેઓ કડવા પાટીદાર જ્ઞાતિના હતા. કડવા પાટીદાર જ્ઞાતિમાં વૈષ્ણવધર્મી અને જૈનધર્મી હોય છે શ્રી ગેાપાલજી લાઈમાં જૈનધર્મના સકારા દેઢ હતા. તેએ સ્થાનકવાસી જૈનધમ ના ચુસ્ત અનુયાયી હતા તેથી તેમના ખને પુત્રામાં જૈનધમના સસ્કારી બાલ્યાવસ્થામાંથી દૃઢ થયા હતા તેમના પૂર્વજો મૂળ અમદાવાદ પાસેનાં નાડા ગામના વતની હતા, પરંતુ સમય જતાં તેઓ સાણુંદમાં આવી વસ્યા ર્હતા.
અને પુત્રાએ ધાર્મિક શિક્ષણ સાથે ગુજરાતી શિક્ષણ લીધું, તે દરમ્યાન અને પુત્રાને બાળ–અવસ્થામાં ડી પિતા ગેાપાળજીભાઈ સ્વગ વાસ પામ્યા. માતા અને પુત્રાને લઈ પાતાના પિયર ગયા ત્યારબાદ ૧૮ વર્ષની ઉમરે ડાસાભાઈને લઈ તેમની માતા પુનઃ સાશુદમાં આવી વસ્યા. ઈ.સ. ૧૯૦૨માં શ્રી ડાસાભાઈનુ શ્રીમંત કન્યા જડાવબાઇ સાથે બીજીવાર લગ્ન થયું' જડાવ. આઈ સરળ, ધ:ર્મિક અને સેવાપરાયણ હતા. પેાતાના ખેતીના ધંધામાં જીવનનિર્વાહ ખરાખર ચાલતા ન હોવાથી ડાસાભાઈએ નાકરી વીકારી ૩૦ વ' સુધી નાકરી કર્યા બાદ અનાજના ધંધામાં પડયા અને પ્રમાણિકતા, મીઠી ભાષા વગેરે સદ્ગુણેાથી તેઓએ ધધામાં ખૂબ પ્રગતિ સાધી સાથે સાથે દ્રવ્ય પ્રાપ્તિ પશુ ઘણી સારી કરી.
શ્રી ડાસાભાઈ ધના ર'ગથી ખરેખરા ર'ગાયેલા હતા સામાયિક, બન્ને વખત પ્રતિક્રમણ, વરસેાનાવરસેા સુધી કધેલી ખ'ને વખતની આય’ખીલની સ'પૂર્ણ ઓળી, ઉપવાસાદિ તપશ્ચર્યા એ જૈનધમ પ્રત્યેની તેમની ભક્તિના અપૂર્વ પ્રતીમ હતાં.
પશુ-પ્રાણીઓ પ્રત્યેની તેમની દયા પ્રશ'સનીય હતી. એકવાર તેએા કાઈ ગામડામાં ઉઘરાણીએ ગયેલા, ત્યાં રસ્તામાં ભૂખતરસથી પીડાતી એવી દુળ ગાયને જોઈ, તેમનુ હૃદય કરુણાથી ભરાઇ આવ્યું. તેમણે ગામલેકે!ને આ દુ:ખી ગાયની વ્યવસ્થા કરવાનું કહ્યું. પશુ કોઇએ ગણુકાયુ નહિ, તેથી ડોસાભાઈ પાતાની ઊઘરાણીના કામને જતુ કરી તરતજ ગામમાંથી એક ગાડું ભાડે લાવી તેમાં ગાયને તેમાં નાખી, સાણંદ લાવ્યા અને પાંજરાપેાળમાં સૂફી પેાતાના તરફથી તેના ઘાસચારાને સંપૂર્ણ દાખસ્ત કર્યાં,
For Private and Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સાધુનિરાજે પ્રત્યે તેમને અનન્ય ભક્તિ હતી ગામમાં સંતસતીજીએ બિરાજતા હોય ત્યારે તેમના દર્શન કર્યા પહેલાં તેઓ કદી અન્નજળ લેતા ન હતા. સંઘના દરેક કાર્યમાં તેમનો તન, મન, ધનને હમેશાં સક્રિય સહકાર રહેતે તેમણે અને તેમના પુત્રએ અમદાવાદ દાણુ બજારમાં (કાળુપુર-ખાબજાર) અનાજની જથ્થાબંધ દુકાન શરૂ કરી તેની સાથે તેમણે પેઢીમાં પિતાનું નામ રાખવાનું બીલકુલ પસંદ કર્યું નહિ તેઓ જૈનધર્મના સૂક્ષમ તને જાણતાં હોઈ, તેમણે “ક્રિયા', પાપની રાયા) આવવાનાં કારણે નામ સ્થાપનાથી મુક્ત થયા છેલ્લા કેટલાયે વરસોથી તેઓ નિવૃત્ત ધાર્મિક જીવન ગાળતા. - તેઓ સાદુ જીવન ગાળતા જીંદગીમાં તેમણે કરી ડાકટરની દવા સુદ્ધાં લીધી ન હતી. તેઓએ ખૂબજ લાંબુ આયુષ્ય ભેગવી, ૫ વર્ષની ઉંમરે સંવત ૨૦૨૦ ના વૈશાખ વદ દશમ તા. ૫-૬-૧૯૬૪ના રોજ ખૂબજ સમતાપૂર્વક સ્વગમન કર્યું. તેમને પિતાના અંતિમ સમયની જાણ થઈ હોય તેમ તેમણે પિતાના જ્યેષ્ઠ પુત્ર મહાસુખભાઈને કહી દીધું કે સમસ્ત કુટુંબને અહિં એકત્ર કરે તે મુજમ આખું કુટુંબ તેમની પાસે હાજર થયું સૌની ક્ષમાયાચના કરી અને પવિત્ર નવકારમંત્રના શાંત જાપપૂર્વક તેઓ આ ફાની દુનિયાને ત્યાગ કરી ગયા અને પિતાના મનુષ્યજીવનને ધન્ય બનાવી ગયા.
શ્રી ડોસાભાઈને એક પુત્રી અને ત્રણ પુત્ર છે. પુત્રી મહાલક્ષમીબેન ધર્મના સંસ્કારાથી ભૂષિત છે. ત્રણ પુત્રે (૧) મહાસુખભાઈ (ર) બલદેવ. ભાઈ (૩) ચમનલાલભાઈ જેએ પિતાના અનાજના વ્યવસાયમાં રોકાયેલ હોવા છતાં જૈનધર્મમાં ઉત્થાન કાર્યમાં સારે ફળ આપે છે, જેને શાસ્ત્રોદ્વાર સમીતીને તેમણે પિતાના સદગત પિતાશ્રી ડોસાભાઈની પુયસ્મૃતિમાં રૂા. પ૦૦૧ આપીને છે અને આ આગમ તેમના સ્મરણાર્થે પ્રગટ કરાવેલ છે. - તેમના જયેષ્ઠ પુત્ર મહાસુખભાઈ વર્ષો સુધી સરકારી સ્કૂલમાં અધ્યાપક કરીકે રહ્યા હતા. હાલ પિતાની અનાજની પેઢીમાં ધીક વ્યવસાય કરી રહ્યા છે બીજા પુત્ર શ્રી બલદેવભાઈ અમદાવાદ ગ્રેન મર્ચ એસોસીએશનના પ્રમુખ પદ પર છે અને ત્રીજા પુત્ર શ્રી ચીમનભાઈ શિક્ષણપ્રિય સજજન છે. ત્રણે ભાઈઓને ફાળે જૈન ધર્મના કાર્યોમાં સહકાર ભરેલ રહેલ છે તે ખરેખર આનંદજનક છે.
રાજકેટ તા૨૫-૬-૧૯૬૭
માનદ્મંત્રીઓ અ, ભાગ છે. સ્થા. જૈન. શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ
For Private and Personal Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
આધમુરબ્બીશ્રીઓ
E
Tra:1:8=s
.
T
S:
,
E
-
-
:
- -
'
'
: - -
T
નામ :
શેઠશ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
(સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ
વીરાણી–રાજકેટ.
316131 hre
(સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર - અમદાવાદ,
.
કિ
===
ફew
મા -:1 TET , " } - 1
- :::
File
.
P
છે
કે
મા
SING SL L એ જarat
E
તે
ન કાર
/ St.
: R તો, તો
.
આ
કરીને
?'
. .
ht= .
. કરત:કાર:+:
.
માં કે જ છે ને કે જીડીસ .કા
ન ન
'તે ગણી
T
, છે
.
1 થી 1, *, * 31 W ન મળવા
vie * YR "
] - એક
:::
, ,
:
છે
શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વિરાણુ-રાજકેટ,
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્દજી સા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દયત્તા ).
For Private and Personal Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
d, S
ક
આ કામ
=
(4) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
ભાણવડ.
(સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ
એ જ
અમદાવાદ
ધિ
:
જા
TALAT I / Ni Entry:
t =
(સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ
અમદાવાદ,
શ્રી વિનોદભાઈ વીરાણી
જ ન કરી શકો
શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ
અમદાવાદ,
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ
For Private and Personal Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
આમુરબ્બીશ્રીઓ
E
જી .
કરાર
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
રાજકોટ, .
કોઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ
રાજકોટ,
શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા - તેથી શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા.
(સ્વ) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ
બારસી.
-
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા.
ભાલિયા પાલી મારવાડ
For Private and Personal Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
આદ્યમુરબ્બીશ્રી
સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાપચ≠ શાહુ स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा
ખંભાત.
મદ્રાસ.
श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा. अजीतवाले ( सपरिवार )
વચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન્ મૂલચંદષ્ટ જવાહીરલાલજી અરડિયા ૨ બાજુમાંબેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી ખરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચંદ્ર અઢિયા
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रीमान सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया
For Private and Personal Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री
॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालबतिविरचितया अनुयोगचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलकृतम्श्री अनुयोगद्वारसूत्रम्
(प्रथमो भागः)
(मालिनी वृत्तम्) शिवसरणिविधानं जीवरक्षकतानं,
सुरनरकृतगानं केवलज्ञानभानम् । प्रशमरसनिदानं ज्ञानदानप्रधानं,
परमसुखनिधानं वर्धमानं नमामि ॥१॥
करणचरणधारं सर्वपूर्वाब्धिपारं,
शुभतरगुणधार प्राप्तसंसारपारम् । कलितसकललब्धि लब्धविज्ञानसिद्धिं,
गणधरमभिरामं गौतमं तं नमामि ॥२॥
अनुयोगद्वार सूत्र का हिन्दी भाषान्तर प्रारम्भ मैं उन अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करता हूँ कि जिन्होंने ४ घातिक कर्मों का अत्यंत बिनाश करके केर लज्ञानरूपी अनन्त प्रकाश प्राप्त कर लिया है। और इसी कारण जो मोक्षमार्ग के विधायक तथा अनन्त अब्यावाध सुख के निधान (निधि) बने हैं। भव्य जीवों को जो प्रधानरूप से ज्ञान का दान देते हैं और जीवों की रक्षा करने में सदा तत्पर रहते हैं। देव और मनुष्य जिनके गुणों का गान करते हैं तथा जो प्रशम (शांत) रस के निदान-आदिकारण हैं ॥१॥
અનુગદ્વાર સૂત્રનું ભાષાન્તર પ્રારંભ– જેમણે ચાર ઘાતિયા કર્મોનો સંપૂર્ણત: ક્ષય કરીને કેવળજ્ઞાનરૂપી અનંત પ્રકાશને પ્રાપ્ત કરી લીધા છે, અને તે કારણે જેઓ મેક્ષમાર્ગના વિધાયક તથા અનંત અવ્યબાધ સુખના નિધાન (નિધિ) બનેલા છે, જેઓ ભવ્ય જીને મુખ્યત્વે જ્ઞાનનું દાન દે છે અને જેની રક્ષા કરવામાં જે સદા તત્પર રહે છે, અને મનુષ્ય જેમના ગુણ ગાય છે, અને જેઓ શાન્તરસના નિદાન આદિકારણ છે એવાં અંતિમ તીર્થકર શ્રી મહાવીર જિનેન્દ્રને હું નમસ્કાર કરૂં છું.૧
For Private and Personal Use Only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे (पृथ्वीच्छन्दः) सगुप्तिसभितिं समां विरतिमादधानं सदा,
क्षमावदखिलक्षम कलितमजुचारित्रकम् । सदोरमुखवस्त्रिका विलसिताननेन्दु गुरु, दुरन्त भववारिधिप्लवमपूर्वबोधं स्तुवे ॥३॥
- (गीतिः ) भव्यानामुपकृतये, प्रवचनसिद्धान्तवोधिनी सरलाम् । घासीलालः कुरुते, व्याख्यामनुयोगचन्द्रिकां शिवदाम् ॥ ४ ॥
__जो करणसत्तरि और चरणसत्तरि के धारण करने वाले हैं। समत्त १४ पूर्वरूप समुद्र के जो पारगामी हैं। अत्यन्त श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनादि गणों के जो धारक हैं। संसार का पार जिन्होंने पा लिया है। समस्त लब्धियों के जो भंडार हैं विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) को सिद्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी हैऐसे उन मुनिश्रेष्ठ गौतम गणधर को मैं नमस्कार करता हूँ। ॥२॥
जो तीन गुप्तियों सहित पांच समितियों को और समस्त विरति को सदा धारण करते हैं । पृथ्वी की तरह जो सर्वसह हैं। निर्मल चारित्र के जो आराधक हैं। वायुकायादिक जीवों की रक्षा के लिये सदोरकमुखवस्त्रिका से जिन का मुखचन्द्र सर्वदा सुशोभित होता रहता है। जो इस दुरन्त संसाररूप समुद्र में प्रवहण-(नौंका) के जैसे हैं। ऐसे अपूर्व बोध विशिष्ट गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूं । ॥३॥
જેઓ કરણસત્તરિ (સત્તર કરણ) અને ચરણસત્તરિ (સત્તર ચરણ)ના ધારક છે, સમસ્ત ૧૪ પૂર્વરૂપ સમુદ્રને પાર જેમણે પામી લીધું છે, અત્યંત શ્રેષ્ઠ સમ્યગ્દર્શનઆદિ ગુણોથી જેઓ વિભૂષિત છે, જેમણે પિતાના સંસારને અન્ત કરી નાખે છે, જેઓ સમસ્ત લબ્ધિના ભંડાર છે, અને વિજ્ઞાન (વિશિષ્ટ જ્ઞાન)ની સિદ્ધિ જેમને થઈ ચુકી છે એવાં મુનિશ્રેષ્ઠ ગૌતમ ગણધરને હું નમસ્કાર કરું છું કે ૨
ત્રણ ગુણિઓ અને પાંચ સમિતિઓ તથા સમસ્ત વિરતિને સદા ધારણ કરનાર, પૃથ્વીના જેવા સહિષ્ણુ, નિર્મલ ચારિત્રના આરાધક, સદે રકમુખવસ્ત્રિકા (મુહપત્તી) વડે જેમનું મુખચન્દ્ર સદા સુશોભિત રહે છે, જેઓ આ દુરન્ત સંસારમાં ભ્રમણ કરતાં છ માટે નૌકા સમાન છે, એવાં અપૂર્વ બેધવિશિષ્ટ ગુરૂદેવને હું નમસ્કાર
छु.॥3॥
For Private and Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका मङ्गलाचरणम् ___इह मनुष्यजन्म दुर्लभं, यथा-केनाऽपि क्रीडापरेण देवेन यदि माणिकधमयं स्तम्भं वज्रेण चूर्णीकृत्य परमाणुतुल्यं तच्चूर्ण नलिकान्तनिधाय मेरुशिखरं समारुह्य फूत्कृतसमीरणैस्तच्चूर्ण सकलं सर्वतः समुड्डायितं भवेत् । तदनन्तरं च यदि विक्षिप्तास्ते परमाणवः प्रचण्डपवनोधुताः सर्वासु दिक्षु दूरं गता एकै कशो विभिन्नाः पतिताः स्यु स्तदा तान् परमाणुरूपान् सर्वतः संचित्य तैः पुनः
__ मैं घासीलाल मुनिव्रति भब्य जीवों के उपकार के निमित्त प्रवचन के सिद्धान्त
को स्पष्ट करनेवाली अनुयोगद्वार सूत्र पर अनुयोगचन्द्रि का नाम की सरल व्याख्या को कि जो भव्य जीवों के लिये आनन्दप्रद है-रचता हूं । ॥४॥ __ इस चतुर्गतिरूप संसार में मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है। इस की दुर्लभता शास्त्रकारोंने इस प्रकार से प्रकट की है-जैसे क्रीडा में तत्पर बना हुआ कोई-देव माणिक्य के स्तम्भ को वज्र से तोडकर चूर २ कर देवें, और फिर उस चूर्ण को एक नली के भीतर भरकर मेरु के शिखर पर खडा २ अपनी फूंक से इधर उधर दिशाओं में उसे सब ओर उडादेवें। इस तरह सर्व दिशाओं में विखरे हुए वे चूर्ण परमाणु फि जिन्हें प्रचंड वायु के वेग ने एक २ करके बहुत अधिक दूरतक तितर बितर कर लिया है अब यदि वह देव-उन बिखरे हुए विभिन्न परमाणुओं को सर्व दिशाओ से एकत्रित
ભવ્ય જીના ઉપકારને માટે, પ્રવચનના સિદ્ધાન્તનું સ્પષ્ટીકરણ કરનારી, અનુયાગદ્વાર સૂત્રની અનુગનિદ્રકા નામની સરળ વ્યાખ્યા, કે જે ભવ્ય જીને માટે આનંદપ્રદ છે, તેની હું ઘાસીલાલજી મુનિ, રચના કરું છું. ૪
ચાર ગતિવાળા આ સંસારમાં મનુષ્ય જન્મની પ્રાપ્તિ થવી ઘણી દુષ્કર છે. તેની દુક્કરતાનું શાસ્ત્રકારોએ નીચેના ઢષ્ટાન્ત દ્વારા પ્રતિપાદન કર્યું છે.
ધારે કે કેઈ એક દેવ ક્રીડામાં તત્પર બનેલ છે. તે વજાની મદદથી માણેકના સ્તંભને તેડી નાખીને તેના ચૂરેચૂરા કરી નાખે છે. ત્યાર બાદ તે ચૂર્ણને એક નળીમાં ભરી લે છે. ત્યારબાદ તે દેવ તે માણેકના ભૂકાથી ભરેલી નળીને લઈને મેરૂ પર્વતના શિખર ઉપર જઈને ઊભું રહે છે અને ફૂંક મારી મારીને તે નળીમાં ભરેલા માણેકના ભૂકાને ચારે દિશાઓમાં ઉડાડી દે છે. ત્યાર બાદ પ્રચંડ વાયુ કુંકાવાને લીધે ચારે દિશાઓમાં વિખરાયેલા તે માણેકના પરમાણુઓ દૂર દૂર સુધી ઉડી જઈને વેર વિખેર થઈ જાય છે. હવે ધારો કે તે દેવ એ વિચાર કરે કે સર્વ દિશાઓમાં વેરવિખેર પડેલા તે માણેકના પરમાણુઓને એકત્ર કરીને ફરીથી
For Private and Personal Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबारसूत्रे स्तम्भनिष्पादनं दुष्कर, तथैव चतुर्गतिसंसारेषु भ्रमतां जीवानां मनुष्यजन्म दुर्लभम् तथा चायं संग्रहश्लोकः"चूर्णी कृत्य पराक्रमान्मणिमयं स्तम्भं सुरेण स्वयं,
मेरौ सन्नलिकासमीरवशतः क्षिप्तं रजो दिक्षु तत् । स्तम्भस्तः परमाणुभिः सुमिलितैलोंके यथा दुष्करः,
संसारे भ्रमतो मनुष्यजननं जन्तोस्तथा दुर्लभम्" ॥ इति।। एवंविधमतिदुर्लभं मानुष जन्म सम्प्राप्य, मिथ्याचतिमिरप्रणाशकं श्रद्धाज्योतिःप्रकाशक तत्त्वातत्वविवेचक पीयूषपानमिव हितावहं चञ्चच्चन्द्रचन्द्रिकामिव हृदयाह्लादक स्वमदृष्टवस्तुनः पुनर्जाग्रदवस्थायां-तल्लाभवत्प्रमोदजनक भूमिगतनिधानप्राप्तिमिव सुखजनकसकलसन्तापहारकं धर्मश्रवणं समुपलभ्य, कर पुनः उनसे मणिमय स्तभ बनाना चाहे तो जिस प्रकार यह स्तंभ निर्माण कार्य उसका दुष्कर है, उसी प्रकार से इस चतुर्गतिरूप संसार में भटकते हुए जीवों को मनुष्य जन्म-मिलना दुर्लभ है । यही बात इस "चूर्णीस्य-इत्यादि श्लोक द्वारा कही गई है । इस तरह से अति दुर्लभ बने हुए मनुष्यजन्म को पाकर के और इसमें भी मिथ्यात्वरूप अन्धकार को नाश करनेवाले श्रद्धारूप ज्योति का प्रकाश करनेवाले एवं तत्त्व और अतत्त्व का स्वरूप कहने वाले, ऐसे धर्म का श्रवण कि जो जीव के लिये अमृतपान के समान हितकारक है-चमकती हुई चन्द्रिका के समान, हृदयानन्दजनक है-जागृत अवस्था में स्वमदृष्ट वस्तुकी प्राप्ति के समान प्रमोदकारक है, भूमिगतनिधान की प्राप्ति के समान सुखदायक और समस्त सन्तानों का नाशक है, प्राप्त करके तथा इसके प्रभाव से
તેમાંથી માણિજ્ય તંભનું નિર્માણ કરૂં. તે તે વેર વિખેર થઈને પડેલા પરમાણુઓને એકત્ર કરીને તેમાંથી માણિજ્ય સ્તંભનું નિર્માણ કરવાનું કામ તે દેવને માટે જેટલું દુષ્કર છે, એટલું જ દુષ્કર ચાર ગતિવાળા આ સંસારમાં ભટકતાં જેને માટે भनुष्य भनी प्राति३५ आय छ. मे पात सूत्र४ारे "चूर्णीकृत्य," त्यादि cals દ્વારા પ્રકટ કરી છે.
આ રીતે અતિ દુર્લભ એવા મનુષ્યજન્મને પ્રાપ્ત કરીને, મિથ્યાત્વરૂપ અંધકારને નાશ કરનાર, શ્રદ્ધારૂપી જ્યોતિને પ્રકાશિત કરનાર, તત્ત્વ અને અતત્વના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનાર, એવા ધર્મનું શ્રવણ કે જે જેને માટે અમૃતપાન સમાન હિતકર છે, જે ચમકતી એવી ચન્દ્રિકાના પ્રકાશસમાન હૃદયને આનંદદાયક છે, જાગૃત અવસ્થામાં જે સ્વપ્નદષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિના સમાન પ્રમદકારક છે, જે ભૂમિની
For Private and Personal Use Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका - विषयविवर्णनम्
स्वर्गापवगसुख चिन्तामर्णि श्रद्धामवाप्य कर्म रजः
संसारसागरतरणतरणि मिथ्यात्वतिमिरहरणधुमर्णि क्षपश्रेणिसरणि कर्म रिपुदमनीं केवलदर्शन जननीं प्रक्षालने जलमिव भोगभुजङ्गनिवारणे मंत्रमिव, कर्म घनाघनविकरणे पवनमिवकेवलज्ञानभास्कर प्रकटने प्राचीदिशभिव साद्यनन्तमुक्तिसाम्राज्याभिलषितप्राप्तौ कल्प मित्र संयम लगा, पादेव तुस्वरूपनिरूप का गवाध
ц
संसारसागर से पार उतारने के लिये, तरणि- नौका - जसी मिथ्यात्वरूपगहन अन्धकार को नाश करने के लिये सूर्य जैसी स्वर्ग और मोक्ष के सुखाँ को देने के लिये चिन्तामणि जैसी और क्षपकश्रेणि पर आरूढ कराने के लिये नसैनी (निसरणी) जैसी ऐसी श्रद्धा को कि जो जीवों के अनादि संचित कर्मरूप रिपुओं को नाश करने वाली होती है एवं केवलज्ञान और केवलदर्शन को जन्म देने वाली होती है प्राप्त करके तथा जल के समान संचित
रूपरज को धोनेवाले मंत्र के समान भोगरूप भृजंग को दूर करनेवाले, पवन के समान भविष्यत् कालीन कर्मरूप मेघों को उड़ा देनेवाले, अर्थात् (विखेरनेवाले) पूर्व दिशा के समान केवलज्ञानरूप सूर्य को प्रकटित करनेवाले, और कल्पवृक्ष के समान सादि अनंत मुक्ति के साम्राज्यरूप इच्छित पदार्थ की प्राप्ति करा देने वाले ऐसे संयम को प्राप्त करके तथा हेय
9
નીચે છુપાયેલા ખજાનાની પ્રાપ્તિસમાન સુખદાયક છે, જે સમસ્ત સંતાપેાનુ નાશક છે, એવા ધાર્મિ`ક પ્રવચનનુ ભાવિક જીવે શ્રવણુ કરવુ જોઇએ.
પાર
આ પ્રકારના ધર્માંશ્રભુને પ્રાપ્ત કરીને, તેના પ્રભાવથી સંસારસાગરને કરવાને માટે શ્રદ્ધાની ખાસ જરૂર રહે છે તે શ્રદ્ધાને અહીં નૌકા સમાન કહી છે, કારણ કે સંસારસાગરને પાર કરવામાં તે નૌકાની અરજ સારે છે. એવી નૌકા સમાન, મિથ્યાત્વરૂપ ગહન અન્ધકારને ભેદવામાં સૂર્યસમાન, સ્વર્ગ અને મોક્ષના સુખ પ્રાપ્ત કરાવવામાં ચિન્તામણિ રત્ન સમાન ક્ષપણુ પર આરાહણુ કરાવવામાં નિસરણી સમાન, એવી શ્રદ્ધા ધર્માંતત્ત્વ પ્રત્યે હાવી જોઈએ. એવી શ્રદ્ધા જીવેના અનાદિ કાળથી સંચિત કર્માંરૂપ શત્રુઓને નાશ કરનારી અને કેવળજ્ઞાન અને કેવળદનની પ્રાપ્તિ કરાવનારી હાય છે.
For Private and Personal Use Only
જળની જેમ સ ંચિત કરૂપ રજને ધાનાર, મંત્રની જેમ ભાગરૂપ ભુજંગને દૂર કરનાર, પવનની જેમ ભવિષ્યકાલિન કૅમરૂપ વાદળાને અસ્તવ્યસ્ત કરી નાખનાર, પ્રાચી દિશા (પૂર્વ દિશા) સમાન કેવળજ્ઞાનરૂપ સૂર્યને પ્રકટ કરનાર, અને કલ્પવૃક્ષ સમાન આદિ અનંત મુકિતના સામ્રાજ્યરૂપ ઇચ્છિત પદાર્થની પ્રાપ્તિ કરાવનાર એવા
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगटारसत्रे सुखनन कानि आचाराङ्गादिसूत्राणि विधिवदधीत्य, संसारवारिधिमहातरणिं शिक् पद-सरलसरणिं सिद्धिपददायकं सकलगुणनायकम् अनादिं भवसंचिताष्टविधकर्मबन्धनोच्छेदकं मिथ्यात्वग्रन्थिभेदक सम्यग्ज्ञानवर्षणे समर्थ सूत्रपरमात्र स्वपरसमयाहस्यं च विज्ञाय, तथाविधकर्मक्षयोपशमसम्भविनी सकलतत्व स्वरूपनिदर्शिनी द्रव्यगुणपर्यायविषयविज्ञां विशदप्रज्ञां समधिगत्य, प्रवचनानुयोगकरणे यतिभिर्यतितव्यम् । और उपादेयरूप वस्तुओं के स्वरूप के निरूपक एवं अव्याबाध सुख के जनक आचागङ्ग आदि-आगम शास्त्रों का सविधि अध्ययन करके, तथा-संसारसमुद्र से पार उतारने में महातरपि जैसे-और शिवपद के सोपान जैसे, सूत्र के परमार्थ को एवं ग्व-पर समय के रहस्य को कि जिसके बल पर जीव को सिद्धि गति की प्राप्ति होती है. और जीवों के अनादि भव परम्परा से संचितअष्टविध कर्मों का समूह बिनाश होता है तथा-मिथ्यात्वरूपी अन्तरंग प्रन्थि (गांठ)का जो भेदक होता है और सम्यग्ज्ञानरूपी वर्षा को जो बरसाने में समर्थ होता है, जान करके, तथा तथाविधकर्म-ज्ञानावरणीय-के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशदप्रज्ञा को कि जो समस्त तत्वों के स्वरूप का यथार्थ दर्शन कराती है, और जिमसे-द्रव्यों के सहबी गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायो का वास्तविक भान होता है इस बात को जान करके मोक्षाभिलाषियों का कर्तव्य है कि वे प्रवचन के व्याख्यान करने में प्रयत्नशील रहें। સંયમને પ્રાપ્ત કરીને તથા હેય અને ઉપાદેયરૂપ વસ્તુઓના સ્વરૂપના નિરૂપક અને અવ્યાબાધ સુખના જનક અચિારાંગ આદિ આગમશાસ્ત્રોનું વિધિપૂર્વક અધ્યયન કરીને તથા સંસાર સાગરને તરી જવામાં મહાતરણિ (નૌકા) જેવા. શિવપદના સોપાન સમાન, સૂત્રના પરમાર્થને પ્રકટ કરનાર, સ્વ અને પર સમયના (જેન સિદ્ધાંત અને અન્ય સિદ્ધાંતના) રહસ્યને પ્રકટ કરનાર, જેના પ્રભાવથી જીવને સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અનાદિ ભવ પરમ્પરાથી સંચિત અછવિધ કર્મોના સમૂહને જેના દ્વારા વિનાશ થઈ જાય છે, તથા મિથ્યાત્વરૂપ અન્તરંગ ગ્રન્થિનું જે ભેદક હોય છે, અને સમ્યક જ્ઞાનરૂપ વર્ષા વરસાવવાને જે સમર્થ હોય છે, એવા પ્રવચનનું શ્રવણ કરવામાં તથા પઠન કરવામાં જીવે તત્પર રહેવું જોઈએ. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થયેલી વિશદ પ્રજ્ઞા કે જે સમસ્ત તના સ્વરૂપનું યથાર્થ દર્શન કરાવે છે, અને જેના દ્વારા દ્રવ્યોના સહવતી ગુણો અને કર્મવતી પર્યાનું વાસ્તવિક ભાન થાય છે, એ વાતને સમજીને મેક્ષાભિલાષી છેએ પ્રવચનનું વ્યાખ્યાન કરવામાં પ્રયત્નશીલ રહેવું જોઈએ.
For Private and Personal Use Only
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. विषयविवर्णनम्
ननु कस्तावदनुयोगः ? उच्यते-युज्यते-संबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योगः कथनलक्षणो व्यापारः, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगः अनुयोगः। भगवब्राषितार्थ तो न्यूनाधिकविपरीतभाववैलक्षण्यमीषदपि गणधरोक्तसूत्रेषु नास्तिइति भगवदुक्तार्थानुरूपः प्रतिपादनलक्षणो व्यापारोऽनुयोग-इति निष्कर्षः।
अयमनुयोगश्चतुर्धा-(१) चरणकरणानुयोगः (२) धर्म कथानुयोगः, (३) गणितानुयोगः, (४) द्रव्यानुयोगश्च ।
शंका- अनुयोग शब्द का का अर्थ है, उत्तर-भगवान् ने अर्थ रूप से जो प्रबचन की प्ररूपणा की है उसी के अनुसार अनुकूल-जो वक्ता द्वाग प्रवचन का कथन किया जाता है-उपका नाम अनुयोग है। ___यहां पर कथन करनेरूप आगरका नाम योग है। भगाद्भाषित अर्थ को गणधरों ने सूत्ररूप से ग्रथित किया है। सो इस ग्रथनकार्य में उन्होंने अपनी तर्क से कुछ भी मिश्रण नहीं किया है-किन्तु जैसा प्रभु का कथन था उसी के अनुपार उन्होंने न्यूनता, अधिकता विपरीतता, एवं भाववैलक्षण्य का परिहार करते हुए ज्यों का त्यों कथन किया है-उसे सुन बद्ध किग है। इसी कारण गणधरोक्त सूत्रों में न्यूनता अधिकता आदि बातें जरासी भी मात्रा में नहीं हैं। इस तरह 'भगवदुक्त अर्थ के अनुरूप प्रतिपादन रूप जोव्यापार है-उपका नाम अनुयोग है" यह इसका निष्कर्षार्थ है।
प्रश्न-"अनुयोग" शण्डन । म थाय छ ?
ઉત્તર-ભગવાને અર્થરૂપ જે પ્રવચનની પ્રરૂપણ કરી છે, તેને અનુકૂળ અથવા તેની અનુસાર વકતા દ્વારા પ્રવચનનું જે કથન કરાય છે તેનું નામ અનુગ છે.
અહીં કથન કરવારૂપ વ્યાપારને વેગ કહેવામાં આવેલ છે. ભગવદુભાષિત અર્થને ગણધરેએ સૂત્રરૂપે ગ્રથિત કર્યો છે. પરંતુ તે ગ્રંથનકાર્યમાં તેમણે પિતાની કલ્પનાથી કોઈ પણ વસ્તુને ઉમેરે કર્યો નથી ભગવાનનું જે પ્રકારનું કથન હતું તેને અનુરૂપ કથન જ તેમણે કર્યું છે. ભગવાનના કથનમાં સહેજ પણ વધારે કે ઘટાડે કર્યા વિના. તથા વિપરીતતા અને ભાવવલક્ષણ્યને પરિહાર કરીને તેમણે તે કથન અનુસારનું જ સ્થન સૂત્રરૂપે ગ્રંથિત કરેલું છે. તે કારણે ગણધર દ્વારા કથિત સત્રમાં ન્યૂનતા. અધિકતા આદિને અલ્પ માત્રામાં પણ સદ્દભાવ નથી. આ પ્રકારે ભગવદુકત (આઈ તે દ્વારા વિથિત) અર્થને અનુરૂપ પ્રતિપાદન રૂપ જે વ્યાપાર છે તેનું નામ જ અનુગ છે. આ પ્રકારને અનુગ પદને અર્થ ફલિત થાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे यथा गणधरेण सुधर्मस्वामिना जम्बूस्वामिनं प्रति भगवदुक्तार्थानुरूपकथनरूपोऽनुयोग उपक्रमादीनि चत्वारि द्वाराणि समाश्रित्य कृतस्तथाऽन्येनाप्याचार्येण शिष्येभ्यः सूत्रार्थकथनरूपोऽनुयोगः कर्तव्यः । यद्यपि सर्वेषामागमानामनुयोगः कर्त्तव्यः, तथाऽप्यत्रसूत्रे आवश्यकस्यानुयोगः प्रस्तुतः । आवश्यकम्यानुयोगकरणे समर्थः खलु सर्वेषामागमानामनुयोगकरणे समर्थों भवति । तस्मादनुयोगविधिजिज्ञासुना मुनिनाऽनुयोगद्वारसूत्रमध्येतव्यम् । इदं च सूत्रं द्रव्यानुयोगान्तर्गतम् ।
यह अनुयोग चार प्रकार का है-(१) चरणकरणानुयोग (1) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग ।
जिस प्रकार से गणधर सुधर्मा स्वामीने जंबूस्वामी के प्रति भगवदुक्त अर्थ के अनुसार कथन करनेरूप अनुयोग का उपक्रम आदि चार द्वारों का आश्रय करके किया है उसी तरह से अन्य आचार्य को भी शिष्यो केप्रति सूत्रार्थ का कथन करनेस्प अनुयोग करना चाहिये । यद्यपि आचार्य को शिष्यों के लिये समस्त आगों का अनुयोग कर्तव्य है, फिर भी इस सूत्र में आवश्यक का अनुयोग प्रस्तुत किया गया है। क्यों कि आवश्यक के अनुयोग करने में समर्थ बना हुआ मुनिजन सम त आगमों के अनुयोग करने में शक्तिशाली हो जाता है। इसलिये अनुयोग की विधि को जानने की इच्छा रखनेवाले मुनिजन को इस अनुयोगद्वारमत्र का अध्ययन अवश्य करता चाहिये । इस सूत्र का अन्त भाव द्रब्रानुयोग में हुआ है। अनुयोग शब्द का अर्थ व्याख्यात है।
सा मनुयो। नीय प्रमाणे या२ ४।२। छ-(१) २२९१४२यानुयो, (२) यम थानुयोग, (3) गणितानुयोग भने (४) द्रव्यानुया.
જે પ્રકારે ગણધર સુધર્માસ્વામીએ પોતાના શિષ્ય જંબૂસ્વામીની સમક્ષ ભગ વકત અર્થને અનુરૂપ કથન કરવા રૂપ અનુયોગનું ઉપકર્મ આદિ ચાર દ્વારને આશ્રય લઈને કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે અન્ય આચાર્યોએ પણ શિષ્યના હિતને માટે સૂત્રાર્થનું કથન કરવા રૂપ અનુગ કરે જોઈએ. જો કે આચાર્યોએ શિવેર માટે સમક્ષ આગમોનો અનુયોગ કર જોઈએ, પરંતુ આ સત્રમાં આવશ્યકને અનુગ પ્રસ્તુત કરવામાં આવે છે, કારણ કે આવશ્યક અનુયાગ કરવાને સમય હોય એવા આચાર્ય અથવા મુનિજન સમસ્ત આગને અનુગ કરવામાં સમર્થ બની જાય છે. તેથી અનુગની વિધિને જાણવાની ઈચ્છાવાળા મુનિઓએ આ અનુ
ગદ્વાર સૂત્રનું અધ્યયન અવશ્ય કરવું જોઈએ. આ શબ્દને અન્તર્ભાવ (સમાવેશ દ્રવ્યાનુયેગમાં થયેલ છે. અનુગ શબ્દનો અર્થ વ્યાખ્યાત સમજ.
For Private and Personal Use Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका. विषयविवर्णनम् - अस्य शब्दार्थस्त्वेवम्-अनुयोगस्य-ब्याख्यानम्य द्वाराणि अनुयोगद्वाराणि, तत्प्रतिपादकं सूत्रम्-अनुयोगद्वारसूत्रम् । अनुयोगस्य चत्वारि द्वाराणि सन्ति । तद्यथा-उपक्रमः, निक्षेपः, अनुगमः, नयश्चेति । तत्र उपक्रमः-उपक्रमणम् उपक्रमः। व्याख्येयवस्तुनो नामनिर्देशः, व्याचिख्यासितशास्त्रस्य तैस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीषीकरणं न्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकरणमित्यर्थः । उपक्रान्तं हि उपक्रमान्तर्गतर्भेदैविचारितं-निक्षिप्यते, नत्वनुपक्रान्तम् १। निक्षेपः-निक्षेपणं निक्षेपः -उपक्रमानीतस्य पाचिख्यासितस्य विशावश्यकादेः शास्त्रस्य नाम स्थापनादि भेदेन निरूपणम् २। अनुगमः-अनुगमनम्-अनुगमः। नामादिना निक्षिप्तस्य शास्त्रस्यानुकूलं ज्ञानम्, अनुकूलार्थकथनं च ३। नयः-नयति-अनेकांशात्मकं वस्तु
इस व्याख्यानरूप अनुयोग के द्वारों का प्रतिपादन करनेवाला जो सूत्र -आगम-है वह अनुयोगद्वार सूत्र है। अनुयोग के चार द्वार हैं । वे इस प्रकार से हैं-[१] उपक्रम (२) निक्षेप, (३) अनुगम और (४) नय। व्याख्येय वस्तु के नाम का कथन करना अर्थात् व्याचिख्यासित-व्याख्या से युक्त करने की इच्छा के विषयभूत बने हुए शास्त्र को उस २ रूपसे प्रतिपादन करने की शैली से न्यासदेश में लाना-निक्षेप की योग्यतावाला उसे बनाना इसका नाम उपक्रम है । उपक्रान्त-उपक्रम के अन्तर्गत भेदों से विचारित-वस्तु का ही तो निक्षेप होता है। अनुपक्रान्त का नहीं । पविध आवश्यक आदि शास्त्र का कि जो उपक्रमित एवं व्याचिख्यासित है, नाम स्थापना आदि के भेद से निरूपण करना इसका नाम निक्षेप हैं। नामादि के भेद से निरूपित शास्त्र का अनुकूल ज्ञान होना और अनुकूल उसके अर्थ का कथन करना इसका नाम अनुगम है। अनेक-धर्मात्मक वस्तु को एकांश के - આ વ્યાખ્યાનરૂપ અનુયેળના દ્વારેનું પ્રતિપાદન કરનાર જે સૂત્ર–આગમ-છે, તેનું નામ અનુગદ્વાર સૂત્ર છે. અનુગના જે ચાર દ્વાર છે, તે નીચે પ્રમાણે છે. (१) भ, (२) निक्षेप, (3) अनुराम अने (४) नय. ०याच्येय १२तुन नामनु કથન કરવું એટલે કે વ્યાચિખ્યાસિત વ્યાખ્યાથી યુકત કરવાની ઇચ્છાના વિષયરૂપ બનેલ શાસ્ત્રને તે તે રૂપે પ્રતિપાદન કરવાની શૈલી વડે ન્યા દેશમાં લાવવું. તેને નિક્ષેપની ગ્યતાવાળું બનાવવું તેનું નામ ઉપક્રમ છે. ઉપકાત ઉપકમના અન્તર્ગત ભેદેની અપેક્ષાએ વિચારાયેલી વસ્તુને જ નિક્ષેપ થાય છે–અનુપક્રાન્તને થતું નથી. જે ઉપક્રમિત અને વ્યાચિખાસિત છે એવા છ પ્રકારના આવશ્યક આદિ શાસ્ત્રનું નામ સ્થાપના આદિ ભેદેથી નિરૂપણ કરવું. તેનું નામ નિક્ષેપ છે નામાદિના ભેદથી નિરુપિત શાસ્ત્રનું અકૂળ જ્ઞાન હોવું અને તેના અર્થનું અનુકૂળ કથન કરવું
For Private and Personal Use Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०
अनुयोगद्वारसूत्रे
एकांश वलम्बनेन प्रतीतिपथं प्रापयतीति नयः, नयनम् = अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियत धर्मात्मतावलम्बनेन प्रतीतौ प्रापणं नयः । अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदो नय इति ४ ।
अत्र नगरदृष्टान्तमाह-
यथा द्वाररहितं नगरं नगरमेव न भवति । यद्येकस्यामेव प्राच्यां दिशि द्वारं भवेत् तर्हि तत्र गजरथतुरगपदातीनां नगरवासिनां तदितरेषामागन्तुकानां जनानां च संघर्षे निर्गमः प्रवेशो वा दुष्करोऽनर्थ करश्च भवति । अवलम्बन से जो प्रतीति कराता है, इसका नाम नय है । नगर के दृष्टान्त से इन चारों द्वारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार से है - जिस नगर कोर नहीं होता है वह वास्तव में नगर ही नहीं माना जाता है । जिस नगर में केवल पूर्वदिशा में ही द्वार हो तो वहां के रहनेवाले गज, तुरंग आदि जानवरों का मनुष्यो का, तथा बाहर से आये हुए प्राणियों का आने जाने में संघर्ष होने पर प्रवेश और निर्गम दुष्कर बन जाता है, तथा वह आना जाना अर्थोत्पादक भी होता हैं । इसी प्रकार से उस नगर में प्रवेश करने के लिये केवल पूर्व और पश्चिम दिशा में एक २ द्वार हो तो ऐसी स्थिति में यद्यपि पूर्व पश्चिम दिग्विभागवत प्राणियों को आने जाने में सरलता भले ही रहे, परन्तु जो और दिशाओं में वहां रहते हैं, उन्हें तथा बाहर से आनेवाले जो प्राणी हैं उन्हें और गज, रथ तुरग, आदि जो जानवर हैं - उन्हें संघर्ष
તેનુ નામ અનુગમ છે. અનેક ધર્માત્મક અર્થાત્ અનેક ધર્માંના સ્વભાવવાળી વસ્તુની જે એકાંશના અવલ ખનથી પ્રતીતિ કરાવે છે તેનુ' નામ નય છે.
નગરના દેષ્ટાન્ત દ્વારા આ ચાર દ્વારાનુ હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે
જે નગરને દરવાજો જ ન હેાય તેને વાસ્તવિક રીતે તેા નગર જ કહી શકાય નહી. કાઇ નગરને માત્ર પૂર્વાદિ કાઇ એક જ દિશામાં એક જ દરવાજો હાય, તે નગરમાં દાખલ થવાનું કે તે નગરમાંથી બહાર જવાનુ` કા` મુશ્કેલ ખની જાય છે, કારણ કે હાથી, ઘેાડા આદિ પ્રાણીઓ તથા મનુષ્ચાની અવરજવરમાં સ`ઘ થવાને કારણે તે નગરમાં પ્રવેશ કરવાનું કે તે નગરમાંથી બહાર નીકળવાનુ` કા` દુષ્કર મની જાય છે, તથા તે અવર-જવર કયારેક અનર્થાત્પાદક પણ બની જતી હાય છે. કાઇ નગરમાં પૂર્વ પશ્ચિમ એ દિશામાં એ દ્વારા હાય તે તે તે દિશામાં રહેલા પ્રાણીઓ અને મનુષ્યાને તે અવર જવર કરવાની અનુકૂળતા રહે છે, પરન્તુ અન્ય દિશાઓમાં જે પ્રાણીઓ અને મનુષ્યા રહેતા હાય છે, તેમને તે અવર-જવરમાં મુશ્કેલી જ પડે છે. અન્ય દિશાઓમાંથી નગરમાં પ્રવશ કરતાં હાથી, રથ ધાડા આદિ પ્રાણીઓ અને નગરની બહાર જતા પ્રાણીઓ વચ્ચે સંઘર્ષ થયા જ કરે છે, તે કારણે તે
For Private and Personal Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. विषयविवर्णनम् प्राच्या पश्चिमायां च दिशि द्वारसद्भावे तत्तद्विग्भागवर्तिनां निर्गमप्रवेशसौ कर्येऽपि तदितरदिग्भागवर्तिनां नगरान्तर्निवासिनां तदितरेषां बाह्य देशादागतान च जनानां गजरथतुरगादीनां च संघर्षे निर्गमः प्रवेशो वा दुष्करोऽनर्थकरश्च भवति, तथैव त्रिषु दिग्भागेषु द्वारत्रयसद्भावेऽपि जनानां निर्गमः प्रवेशो व दुप्करोऽनर्थ करश्च भवति, यत्र तु नगरे चतुसृषु दिशासु चत्वारि मूलद्वाराणि, तथा तदनुगतानेकमार्गसंलग्नरथ्याचाराणि विद्यन्ते, तत्र निर्गमः प्रवेशो वा सुकरो भवति । तथैवावश्यकरूपं नगरमपि उपक्रमादिद्वाररहितं नाधिगन्तुं शक्यते । न च केवल मुपक्रमद्वारेण, नापि वा द्वाभ्यामुपक्रमनिक्षेपाभ्यां, न चापि त्रिभिरुपहोने पर आना जाना बडा मुश्किल हो जाता है। परस्पर में धक्कमधक्का होने से अनेक प्रकार के अनिष्ट भी हो जाते हैं। इसी तरह से यदि उसमें प्रवेश करने के लिये तीन द्वार हों, तो कुछ पहिले की अपेक्षा प्रवेश निर्गम में सरलता होने पर भी सर्वथा सरलता नहीं आती है। परन्तु जब उसमें आने जाने के लिये चारो दिशाओं में चार दरवाजे हों, तथा और भी अनेक मार्ग संलग्न रथ्याद्वार हो, तो फिर आने जाने में किसी प्रकार का संघर्ष न होने से कोई भी प्राणी को रुकावट नही होती है और न किसी प्रकार के अनर्थ होने की संभावना ही रहती है। ठीक इसी प्रकार से आवश्यकरूप नगर भी यदि उपक्रम आदि चार द्वारों से विहीन हो तो वह ज्ञान का विषयभूत नहीं बन सकता अर्थात् उसका वास्तविक रहस्यज्ञात नहीं हो सकता , अतः उसे वास्तविकरूप में जानने के लिये इन चार ही उपक्रम आदि द्वारों की परम નગરમાં પ્રવેશ કરવાનું અને તે નગરમાંથી નિગમન કરવાનું કાર્ય મુશ્કેલ જ થઈ પડે છે. ત્યાં એકબીજા વચ્ચે ધક્કા ધકકી થવાથી અનેક પ્રકારના
અનિષ્ટ પણ ઉદ્દભવે છે. એ જ પ્રમાણે જે તે નગરને ત્રણ દિશાઓમાં ત્રણ દરવાજા રાખ્યા હોય તે પહેલા અને બીજા પ્રકારના નગર કરતાં પ્રવેશ અને નિગમમાં અધિક સરળતા તે રહે છે, પણ સંપૂર્ણ સરળતા તે રહેતી નથી. પણ જે નગરમાં આવવા-જવા માટે ચારે દિશાઓમાં ચાર દરવાજા રાખ્યા હોય, તથા બીજા માર્ગોને જેડતાં બીજાં પણ ઉપારો રાખ્યાં હોય, તે ત્યાં અવરજવરમાં કઈ પણ પ્રકારને સંઘર્ષ થતું નથી-કઈ પણ બે પ્રાણુઓ વચ્ચે ધક્કા ધક્કી ચાલતી નથી અને તે કારણે ત્યાં કોઈ પણ પ્રકારના અનર્થની શકયતા રહેતી નથી. ત્યાં પ્રાણીઓ અને મનુષ્યો સરળતાથી પ્રવેશ પણ કરી શકે છે અને નિર્ગમ પણ કરી શકે છે. એ જ પ્રમાણે આવશ્યકરૂપ નગર પણ જે ઉપક્રમ આદિ ચાર દ્વારથી રહિત હાય, તે જ્ઞાનના વિષયરૂપ બની શકતું નથી–એટલે કે તેનું વાસ્તવિક રહસ્ય જાણી શકાતું નથી. તેથી તેને યથાર્થરૂપે જાણવા માટે ઉપક્રમ આદ આ ચારે
For Private and Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबारसूत्रे क्रमनिक्षेपानुगमैरैिस्तदर्थमधिगन्तुं शक्यते । तदर्थानधिगमे च सति क्लेशो ऽनर्थश्च जायते । भेदप्रभेदसहितोपक्रमादिद्वारचतुष्टयसद्भावे तु स्वल्पेनैव कालेन तत्सुगमं शाश्वतसुखप्रदं च भवति । तस्माद् द्वारचतुष्टयमाश्रित्य पड्विधावश्यकप्रतिपादनार्थमिदं सूत्र प्रस्तुतम् । - इह शास्त्रे प्रवृत्त्यर्थमादावानुबन्धचतुष्टयं विज्ञेयम् । तच्च विषयः, प्रयोजनं संवन्धः, अधिकारी चेति । तत्र विषयोऽभिधेयः-स चेह उपक्रमादीन्यनुयोगआवश्यकता है। केवल एक उपक्रमद्वार से या उपक्रम निक्षेपरूप दो द्वारों से अथवा उपक्रम निक्षेप और अनुगम इन तीन द्वारों से उसका अर्थ नहीं जाना जा सकता । अर्थाधिगम-पदार्थ के ज्ञान हुए विना क्लेश एवं अनर्थ होता है। जब भेद प्रभेद सहित इन उपक्रम आदि चार द्वारों का उसमें सद्भाव होता है, तो उनकी सहायता से स्वल्प काल में ही वास्तविकरूप में शास्त्र के अर्थ का बोध सुगमरीति से हो जाता है और इस से वह शास्त्र शाश्वत सुख . प्रद भी हो जाता है। इसलिये सूत्रकारने इन पूर्वोक्त चार द्वारों को लेकर षड् विध आवश्यकों को प्रतिपादन करने के लिये इस सूत्र का प्रस्तुत किया है।
___ इस शास्त्र में प्रवृत्ति होने के निमित्त चार बातों की आवश्यकता है। उनका नाम अनुबंध चतुष्टय है। और वे "विषय, प्रयोजन, संबन्ध अधिकारी" ये हैं । जो इस शास्त्र का अभिधेय है. वह विषय है। वह विषय उपक्रमादि चार દ્વારની પરમ આવશ્યકતા રહે છે. કેવળ એક ઉપક્રમ દ્વારથી જ, અથવા ઉપક્રમ અને નિક્ષેપરૂપ બે કારોથી અથવા ઉપશમ, નિક્ષેપ અને અનુગમરૂપ ત્રણ હારથી તેને અર્થ જાણી શકતા નથી અર્થાધિગમ (અર્થનું જ્ઞાન) થયા વિના તે કલેશ અને અનર્થને પાત્ર થવું પડે છે. જ્યારે ભેદ પ્રભેદ સહિત આ ઉપક્રમ આદિ ચારે દ્વારેને તેમાં સદ્દભાવ હોય છે, ત્યારે તેની સહાયતાથી ઘણું થોડા સમયમાં જ અને સરળતાથી વાસ્તવિક રૂપે શાસ્ત્રના અર્થને બંધ થઈ જાય છે, અને તેને લીધે તે શાસ્ત્ર શાશ્વત સુખપ્રદ પણ થઈ જાય છે. તેથી સૂત્રકારે પૂર્વોક્ત ઉપક્રમ આદિ ચાર દ્વારને અનુલક્ષીને છ પ્રકારના આવશ્યકોનું પ્રતિ. પાદન કરવાને માટે આ સૂત્રને પ્રસ્તુત કર્યું છે.
આ શાસ્ત્રમાં પ્રવૃત્તિ થવાને નિમિત્તે ચાર બાબતેની આવશ્યકતા રહે છે. જે ચાર બાબતોની આવશ્યકતા રહે છે તે ચાર બાબતોને અનુબંધ ચતુષ્ટય કહે છે. તે ચાર બાબતે નીચે પ્રમાણે છે-વિષય, પ્રજન, સંબંધ અને અધિકારી. આ શાસ્ત્રને જે અભિધેય છે તેનું નામ જ વિષય છે. તે વિષય ઉપક્રમ
For Private and Personal Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका विषयविववर्णनम् द्वाराणि । प्रयोजनं-फलम्, तच्च द्विविधम्-अन्तरफलं परम्पराफले च । तत्राचं शास्त्रकर्तव्यानुग्रहरूपम् । श्रोतुश्च शास्त्रार्थ बोधः। उभयोरपि परम्परा प्रयोजनम -परमपदप्राप्तिः । शास्त्रस्य विषयस्य च सम्बन्धः-प्रतिबोध्य प्रतिबोधकभावः । परमपदप्राप्तिः । अधिकारी तु जिनाज्ञाराधक इति ।
अथ शिष्टाचारपरिपालनार्थ शास्त्रनिर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थ" शास्त्रस्य मंगलस्वरूपत्वेऽपि शिष्यस्य शास्त्रविषयीभूतार्थ ज्ञानप्राप्तिदृढविश्वासार्थ च मंगलरूपं प्रथमं सूत्रमाह___ मूलम्-नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-आभिनिबोहियनाप सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपजवनाणं, केवलनाणं ॥ सू० १॥
अनुयोग द्वाररूप है । प्रयोजन नाम फल का है । वह दो प्रकार का होता है[१] अनन्तर-साक्षात्-फल और दूसरा परम्परा फल । “पढने वाले, सुनने वाले भव्यजीवों का इस से अनुग्रह हो ऐसी भावना जो शास्त्रकार के हृदय में होती है वह ग्रन्थकर्ता की अपेक्षा तथा इसे अध्ययन करनेवाले, सुननेवाले प्राणियों को जो इस के द्वारा बोध प्राप्त होता है वह उनकी अपेक्षा इसका साक्षात् प्रयोजन है। एवं ग्रन्थ-शास्त्र-कर्ता-और अध्येता-श्रोता को जो परमपद (मोक्ष) की प्राप्ति होती है वह इसका परम्परा प्रयोजन है। शास्त्र का और विषय का प्रतिबाध्य प्रतिबोधकभाव संबन्ध है विषय प्रतिबाध्य शास्त्र उसका प्रतिबोधक है जिनाज्ञा का आराधक जीब अधिकारी है।
આદિ ચાર અનુગ દ્વારરૂપ જ છે. પ્રજન એટલે ફળ. તે પ્રોજન બે अनुहाय छे. मनन्तर साक्षात मन (२) ५२२५२॥ ३॥.
વાંચનારા અને શ્રવણ કરનારા ભવ્ય જીવેનું તેના દ્વારા કલ્યાણ થાય, એવી જે ભાવના તે શાસ્ત્રકારના હૃદયમાં હોય છે, તે ગ્રન્થકર્તાની અપેક્ષાએ તેનું સાક્ષાત પ્રયોજન છે. તથા તેનું અધ્યયન કરવાથી કે શ્રવણ કરવાથી અધ્યયન કરનારને કે શ્રોતાને જે બંધ થાય છે, તે તેમની અપેક્ષાએ તેનું સાક્ષાત પ્રયોજન ગણાય છે. ગ્રન્થ (શાસ્ત્ર) કર્તાને, ગ્રન્થનું અધ્યયન કરનારને અને તેનું શ્રવણ કરનારને જે પરમપદની પ્રાપ્તિ થાય છે, એજ તેનું પરમ્પરા પ્રયોજન ગણાય છે. શાસ્ત્રને અને વિષયને પ્રતિબધ્ધ-પ્રતિબોધકભાવ રૂ૫ સંબંધ હોય છે. વિષય પ્રતિબેધ્ય અને શાસ્ત્ર તેનું પ્રતિબંધક હોય છે. જિનાજ્ઞાનું આરાધન કરનાર જીવ તેને અધિકારી ગણાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे छाया--ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम, तद् यथा-आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं, केवलज्ञानम् ॥१॥
टीका--'नाणं' इत्यादि
ज्ञानम्-ज्ञातिर्ज्ञानमिति भावसाधनः, सविदित्यर्थः । ज्ञायतेवाऽनेनास्मावति ज्ञानं, तदावरणस्य क्षयः क्षयोपशमो वा । ज्ञायते वाऽस्मिन्निति
अब सूत्रकार शिष्ट पुरुषों के आचार को पालन करने के लिये शास्त्र की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिये और-शिष्यों को शास्त्र विषयीभूत अर्थज्ञान की प्राप्ति का दृढ विश्वास जमाने के लिये मंगलरूप होने पर भी इस शास्त्र की आदि में सर्व प्रथम मंगल सूत्र का पाठ करते हैं।
"नाणं पंचविहं पण्णत्तं" इत्यादि । ॥ स० १॥
शब्दार्थ-(गाणं) ज्ञान (पंचविहं) पांच प्रकार का-(पण्णत्तं) कहा गया हैं। यहां ज्ञान शब्द भावसाधन-करणसाधन और कर्तु साधन है "ज्ञातिः-ज्ञानम् जानना इसका नाम ज्ञान है यह भावसाधन में ज्ञान की व्युत्पत्ति है-"ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्" यह करणसाचन में व्युत्पत्ति है-आत्मा जिसके द्वारा पदार्थों को जानता है बह ज्ञान है-इस करणसाधन से ज्ञानावरण कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम लक्षित होता है । क्यों कि इस के होने पर ही आत्मा में ज्ञान का प्रादुर्भाव (उत्पत्ति)या ज्ञान में सर्वथा निर्मलता आती है । अतःज्ञानावरण का क्षय और क्षयोपशम ज्ञानरूप होने के कारण अभेद संबन्ध से ज्ञानरूप ही
શાસકારે શિષ્ટ પુરુષોના આચારનું પાલન કરવા માટે, શાસ્ત્રની નિર્વિદને પરિસમાપ્તિ કરવા નિમિત્તે અને શિષ્યમાં શાસ્ત્રવિષયીભૂત અર્થજ્ઞાનની પ્રાપ્તિને દઢ વિશ્વાસ જમાવવાને નિમિત્તે જે કે શાસ્ત્ર પિતે જ મંગળરૂપ હોવા છતાં પણ આ શાસ્ત્રને પ્રારંભ કરતી વખતે સૌથી પહેલાં મંગળ સૂત્રને પાઠ કર્યો છે. "नाणं पंचविहं पण्णत्तं" छत्याहि
॥ सू. १ ॥ शा-(णाणं) ज्ञान (पंचविहं) प्राय प्रा२नु (पण्णत्तं) यु छे. मी “જ્ઞાન” શબ્દ ભાવસાધન, કરણસાધન અને કર્તસાધનરૂપ છે. ભાવસાધનમાં જ્ઞાનની व्युत्पत्ति मा प्रभाव थाय छे. "ज्ञातिः-ज्ञानम्" on तेनु नाम ज्ञान छे. ४२साधनमा ज्ञाननी व्युत्पत्ति l प्रमाणे छ "ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्" આત્મા જેના દ્વારા પદાર્થોને જાણે છે તેનું નામ જ્ઞાન છે. આ કરણસાધન દ્વારા જ્ઞાનાવરણકમને ક્ષય અથવા ક્ષોપશમ લક્ષિત થાય છે, કારણ કે જ્ઞાનાવરણીય કમને ક્ષય અથવા ક્ષપશમ થવાથી જ આત્મામાં જ્ઞાનને પ્રાર્દુભાવ થાય છે અથવા જ્ઞાનમાં સર્વથા નિર્મળતા પ્રકટ થાય છે. તેથી જ્ઞાનાવરણને ક્ષય અને ક્ષાપશમ જ્ઞાન રૂપ જ હેવાને કારણે અભેદ સંબંધની અપેક્ષાએ જ્ઞાનરૂપ જ નિવડે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
=
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १ पंचविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
१५
D
ज्ञानमात्मा—तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणामयुक्ताः । जानातीति वा ज्ञानम् । तत् पञ्चविधं = पञ्चप्रकारं प्रज्ञतं - प्ररूपितम् अर्थतस्तीर्थङ्करैः सुत्रतश्च गणधरैः । अत्र गणधरेण स्वबुद्धया परिकल्पित किंचिदपि नोच्यते । पण्णत्तं' इत्यस्य 'प्राज्ञाप्तम्' इतिच्छायापक्षे - प्राज्ञात् सर्वज्ञात् आप्तं -माप्तं गणधरैरित्यर्थः यद्वा-मज्ञया भव्यजन्तुभिराप्तं - प्राप्तं - प्रज्ञाप्तं तदेव प्राज्ञाप्तम् । नहि प्रज्ञानिकले रिदमाप्तुं शक्यते होता है । इसलिये करणसाधन में पदार्थों के जानने में अत्यन्त साधक जो ज्ञान है वह गृहीत हुआ है। जो कि ज्ञानावरण के क्षय और क्षयोपशमस्वरूप है इसी तरह से पदार्थ जिस से जाना जाय वह ज्ञान है इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर भी ज्ञानावरण का क्षय और क्षयोपशम - ज्ञानरूप ही होता है क्यों कि पदार्थ ज्ञान से जाना जाता है । " ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा" पदार्थ जिस से जाना जावे - उसका नाम ज्ञान है इस प्रकार की व्युत्पत्ति में आत्मा ज्ञान रूप प्रतीत होता हैं। यहां परिणाम और परिणामवाले का अभेद होनेके कारण आत्मा को ज्ञानरूप मान लिया गया हैं। क्योंकि ज्ञानावरणकर्म के क्षय अथवा क्षयापशम से विशिष्ट आत्मा का परिणाम ज्ञान है और आत्मा परिणाम वाला है । " जानाति इति ज्ञानम्" इस व्युत्पत्ति में भी यही अर्थलभ्य है । ज्ञान में पांच प्रकारता अर्थ की अपेक्षा तीर्थ करोंने और सूत्र की अपेक्षा गणने प्ररूषित की है । इस विषय में गणधरों ने अपनी तरफ से कुछ भी कल्पित करके नहीं कहा है "यह बात पण्णत्त" इस शब्द તેથી કરણસાધનમાં પદાર્થને જાણવામાં અત્યન્ત સાધક જે જ્ઞાન છે તેને જ અહીં ગ્રહણુ કરાયુ છે. એવુ જ્ઞાન જ્ઞાનાવરણુના ક્ષય અને ક્ષયાપશમ સ્વરૂપ જ હોય છે. એજ પ્રમાણે “પદાર્થ જેના વડે જાણી શકાય તે જ્ઞાન છે,” આ પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ કરવામાં આવે તે પણ જ્ઞાનાવરણુના ક્ષય અને ક્ષયાપશમ જ્ઞાનરૂપ જ थर्ध पडे छे, आशु है महार्थ ज्ञानद्वारा ४ नगी शाय छे. "ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा" 11 પદાર્થ જેમાં જાણી શકાય તેનું નામ જ્ઞાન છે,” આ પ્રકારની વ્યુત્પત્તિમાં આત્મા જ્ઞાનરૂપ પ્રતિપાદિત થાય છે. અહી` પરિણામ અને પરિણામવાળામાં અભેદ હાવાને કારણે આત્માને જ્ઞાનરૂપ માની લેવામાં આયે છે, કારણ કે જ્ઞાનાવરણુ કમના ક્ષય અથવા ક્ષયાપશવાળા આત્માનું પરિણામ જ્ઞાન છે અને આત્મા તે प्रहारना परिएलाभवाणो छे. “जानाति इति ज्ञानम्" मा व्युत्पत्ति अनुसार पशु એજ અથ પ્રાપ્ત થાય છે. જ્ઞાનમાં અથની અપેક્ષાએ પાંચ પ્રકારતા તીથ"કરાએ પ્રરૂપિત કરી છે અને સૂત્રની અપેક્ષાએ પાંચ પ્રકારતા ગણધરાએ પ્રરૂપિત કરી છે. આ બાબતમાં ગણધરાએ પેાતાના તરફથી કલ્પિત કરીને કંઇ પણ મિશ્રિત यु नथी, न वात सूत्रारे "पाण्णत्तं" यह द्वारा अउट छुरी छे. अथवा
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगबारसूत्रे पञ्चविधत्वं दर्शयति-तं जहा' इत्यादिना 'तं जहा' तद्यथा-तज्ज्ञान यथा पञ्चविधं भवति, तथा प्रोच्यते । तत्र (१) प्रथमं ज्ञानम्-'आभिणिबोहियनाणं' आभिनिबोधिज्ञानम्, 'अभि' इति अभिमुनः-वस्तुयोग्यदेशावस्थानापेक्षी, 'नि' इति नियतः- इन्द्रियमन समाश्रित्य स्व स्व विषयापेक्षीबोधःअभिनिबोधः, स एव आभिनिबोधिकम् तच्च तद् ज्ञानं च आभिनिवाधिकज्ञानम् । अत्र 'ज्ञान' शब्दः सामान्यज्ञान-वाचकः। अभिनिबोधशब्दः इन्द्रिय नो
से सूत्रकारने रकट की है। अथवा, "पण्णत्तं" इस पद की संस्कृत छाया "ज्ञाप्त" ऐसी भी होती है-इस का अर्थ यह है कि ज्ञान में पंच प्रकारता गणधरों ने प्राज्ञ तीर्थ कर सर्वज्ञ भगवान से प्राप्त की है। अथवा इसी छाया के पक्ष में ऐसा अर्थ भी होता है कि ज्ञान में यह पंच प्रकारता भव्य प्राणियों ने अपनी बुद्धि से ही पाई है। विना बुद्धि से तो यह प्राप्त की नहीं जा सकती है । इस तरह जो प्रज्ञाप्त है बही प्राज्ञाप्त हैं। (तं जहा) वह ज्ञान में पंच प्रकारता इस तरह से है।
(आभिणिबोहियनाणं) (१) आभिनिबोधिक ज्ञान-यह ज्ञान वातु को योग्य देश में होने की अपेक्षा रखता है तथा पांच इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है । यह बात “अभि" और "नि' शब्द से प्रकट होती है। इस तरह योग्य देश में स्थित वस्तु को इन्द्रिय और मन की सहायता से जानने वाले ज्ञान का नाम अभिनिबोध ज्ञान है। यह अभि नबोध ही आ भभिबोषिक "पण्णत्त" मा ५४नी सत्कृत छाया "प्राज्ञाप्तं" छ. ॥ प्राज्ञानी अपेक्षा જે વિચાર કરવામાં આવે તે તેને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે જ્ઞાનમાં પંચવિધતાની પ્રાપ્તિ ગણધરોએ પ્રાજ્ઞ તીર્થકર સર્વજ્ઞ ભગવાન પાસેથી કરી છે.
અથવા તેને અર્થ એવો પણ થાય છે કે-જ્ઞાનમાં આ પાંચ પ્રકારના ભવ્ય જીવોએ પિતાની બુદ્ધિથી જ પ્રાપ્ત કરેલ છે. બુદ્ધિ વગર તે તેની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી જ નથી. साशते २ प्रज्ञाप्त छ, से प्राज्ञात छे. (तं जहा) ज्ञानना ते पांय मारे। नीय प्रमाणे छे-(आभिणिबोहियनाणं) (१) मालिनिधि ज्ञान
આ જ્ઞાન વસ્તુ લેગ્ય દેશમાં હોય એવી અપેક્ષા રાખે છે, તથા પાંચ छन्द्रियो भने भननी सहायताथी थाय छे. मे पात "अभि" मने "नि" ઉપસર્ગો દ્વારા પ્રકટ કરી છે. આ રીતે આમિનિબેધિક જ્ઞાનની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે થાય છે-“ગ્ર દેશમાં સ્થિત (રહેલી) વસ્તુને ઈન્દ્રિયે અને મનની સહાયતાથી જાણનારા જ્ઞાનનું નામ અભિનિબંધ છે. તે અભિનિબંધ જ આભિનિધિક
For Private and Personal Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
H....
.
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १ पञ्चविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम् इन्द्रियजन्यविशिष्टज्ञानावकः। अतः सामान्यविशेषयोनियोः सामानाधिकरण्यम् । इदं मतिज्ञानमप्युच्यते ॥१॥
(२) श्रुतज्ञानम्-श्रुतं-श्रुतिः-श्रणं ज्ञानविशेषः। तच्च कीदृशम् ? उच्यते, शादाय श्रवणेन भाषणादिना वा रज्ज्ञान मुरपद्यते तदेव श्रुतम् । अत्र श्रुतशब्देन श्रुतज्ञानं गृह्यते-ज्ञानं प्रभेद: करणान्तःपातित्वात् । न तु श्रूयते' इति ब्युत्पत्त्या शब्दार्थकः श्रुतशब्दः । लव्धिरूपे मतिज्ञाने सति पश्चात् श्रुतज्ञान मुत्पद्यते, न तु मतिज्ञानाभावे। अतो मतिज्ञानं कारणं श्रुतज्ञानस्य । ज्ञान है। यहां ज्ञान शब्द सामान्यज्ञान का वा वक और अभि नवोध शब्द इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विशिष्टज्ञान का वाचक है। अतः" 'आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं च आभिनिबोधिज्ञान" इस तरह से इन दोनों सामान्य विशेष ज्ञानों में समानाधिकरणमा हुई है। इस आभिनिबोधिकज्ञान का दूसरा नाम मतिज्ञान भी है। . श्रुतज्ञान-श-द के श्रवण से अथवा भापण आदि से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह-ज्ञान श्रुतज्ञान है । ज्ञान के प्रभेदों के प्रकरण के आने के कारण यहां श्रुतशब्द से ज्ञान का ग्रहण हुआ। श्रुत से शब्द का नहीं । "श्रूयते" इति श्रुतं इस प्रकार की व्युत्पत्ति से श्रुत शब्दरूप अर्थ का वाचक भी हाता है परन्तु वह शब्दार्थक श्रुत यहाँ गृहीत नहीं हुआ है । कारण वह शन्द पौद्गलिक पर्याय होने से अचेतन है, और ज्ञान आत्मा का निजस्वरूप होने से चेतन है। જ્ઞાન છે.” અહીં જ્ઞાન પદ સામાન્ય જ્ઞાનનું વાચક છે અને અભિનિબે ધ પદ ઈન્દ્રિો અને પાનની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થનાર વિશિષ્ટ જ્ઞાનનું વાચક છે. તેથી "आभिनिवाधिकं च तज्ज्ञानं च आभिनिवाधिक ज्ञान" । प्रारे ते पन्ने સામાન્ય વિશેષ જ્ઞાનમાં સમાનાધિકરણતા થઈ છે. આ આભિનિબધિક જ્ઞાનનું બીજું નામ મતિજ્ઞાન પણ છે. . (૨) શ્રતજ્ઞાન–શબ્દના શ્રવણથી અથવા ભાષણ આદિ વડે જે જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે. જ્ઞાનના પ્રત્યેના પ્રકરણમાં આવી જતું હોવાને લીધે અહીં કૃત શબ્દ વડે જ્ઞાનનું જ ગ્રહણ થયું છે–અહીં કૃત” પદ દ્વારા श६ गडीत यस नथी. 'श्रयते इति श्रत” २0 प्रारनी ०युत्पत्तिने मायारे શ્રત પદ શાદરૂપ અર્થનું વાચક પણ સંભવી શકે છે, પરંતુ તે શબ્દાર્થક શ્રુત અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું નથી. કારણ કે તે શ દ પૌગલિક પર્યાયરૂપ
प.श्री मन्ये.न छ, ज्ञान सामाना नि ९५३५ हावाही येतन छे.
For Private and Personal Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारसूत्रे शंका-- शब्द के श्रवण अथवा भाषण आदि से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है" ऐसा जो श्रुत का लक्षण कहा जा रहा है वह अतिव्याप्ति दोष से युक्त होने के कारण ठीक नहीं है । क्यों कि यह लक्षण मतिज्ञान में भी रहता है। वह श्रोत्रेन्द्रिय और मन से भी होता है ।
उत्त-ऐसा समझना ठीक नहीं है-कारण मतिज्ञान पांचों इन्द्रियों और मन से ही होता है। तब यह ज्ञान केवल मन से ही होता है-अन्य इन्द्रियों से नहीं।" शब्दश्रवण अथवा भाषणआदि से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। ऐसा जो कहा गया है उसका कारण यह है कि शब्द श्रवण और भाषण आदि जन्य जो श्रोत्रेन्द्रिय से उस का ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है-और इस मतिज्ञानपूर्वक उस विषय में जो शब्दश्रवण आदि के संबन्ध से विशेष रितन चालू होता है कि जो केवल मन का ही कार्य है वह श्रुतज्ञान है। उदाहरणाथ-शब्द विषयक श्रोत्र जन्यज्ञान होने पर उसके संबन्ध से मन में" यह किस प्रकार के शब्द को वोल रहा है-उच्चस्वर से शब्द उच्चरित हो रहा है या धीमे स्वर से" इत्यादि विकल्पों का होना श्रुतज्ञान है ।
શંકા–“શબ્દના શ્રવણ અથવા ભાષણ આદિથી જે જ્ઞાન થાય છે, તેને શ્રતજ્ઞાન કહે છે,” આ પ્રકારનું જે શ્રતનું લક્ષણ અહીં બતાવવામાં આવ્યું છે તે અતિવ્યામિ દેષથી યુકત હોવાને કારણે ઉચિત નથી, કારણ કે તે લક્ષણને સદ્દભાવ તે મતિજ્ઞાનમાં પણ હોય છે. તે શ્રોત્રેન્દ્રિય અને મનની સહાયતાથી થાય છે.
ઉત્તર–આ માન્યતા બરાબર નથી. કારણ કે-મતિજ્ઞાન પાંચે ઈન્દ્રિ અને મનની સહાયતાથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ શ્રુતજ્ઞાન તે માત્ર મનની સહાયતાથી જ ઉત્પન છે–અન્ય ઇન્દ્રિયની સહાયતાની તેને જરૂર રહેતી નથી. “શબ્દશ્રવણ અથવા ભાષણદિથી જે જ્ઞાન થાય છે તેને શ્રતજ્ઞાન કહે છે,” આ પ્રમાણે જે કહેવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે શબ્દશ્રવણ અને ભાષણદિ જન્ય જે શ્રોત્રેનિદ્રય થી તેનું જ્ઞાન થાય છે તે મતિજ્ઞાનરૂપ હોય છે. અને તે મતિજ્ઞાનપૂર્વક તે વિષયને અનુલક્ષીને શબ્દશ્રવણ આદિના વિષયમાં વિશેષ ચિન્તન ચાલુ થઈ જાય છે તે તે માત્ર મનનું જ કાર્ય હોવાથી તેને થતજ્ઞાન કહે છે ઉદાહરણ દ્વારા આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–શબ્દવિષયક શ્રોત્રજન્ય જ્ઞાન થવાથી તેને વિષે મનમાં આ પ્રકારના વિકલ્પ ઉદભવે છે. “આ ક્યા પ્રકારના શબ્દનું ઉચ્ચારણ થઈ રહ્યું છે ઊંચે સ્વરે શબ્દનું ઉચ્ચારણ થઈ રહ્યું છે કે ધીમે સ્વરે શબ્દનું ઉચ્ચારણ થઇ રહ્યું છે. આ પ્રકારના વિકપ જે જ્ઞાનમાં ઉદ્ભવે છે તે જ્ઞાનને શ્રતજ્ઞાન કહે છે,
For Private and Personal Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-३. १ पञ्चविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
___ शंका-यद्याप जिस प्रकार मतिज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रियां साक्षात् निमित्त हेती हैं वेसी वे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में साक्षात् निमित्त नहीं होती हैंपन्तु परम्परा से तो होती ही हैं। जैसे-दर्शन आदि इन्द्रियों से मतिज्ञान हो गया और फिर बाद में उनके विषय में श्रुतज्ञान-जो विशेष विवाररूप है वह होता है। अतः इस अपेक्षा से तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में कोई भेद प्रतीत नहीं होता सो ऐसा कथन भी ठीक नहीं है कारण कि यह औपचारिक कथन है । दूसरे मतिज्ञान विद्यमान वस्तु में ही प्रवृत्त होता है, और श्रुज्ञान त्रैकालिक विषयों में प्रवृत्त होता है। तथा मतिज्ञान में शब्दोल्लेखन ही होता है और श्रुतज्ञान में नहीं होता है । अर्थात् जैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेत स्मरण और श्रुतग्रंथ का तात्पर्य अनुसरण अपेक्षित होता है, वैसे वह ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पति में अपेक्षित नहीं है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि लब्धिरूप मतिज्ञान के होने पर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है मतिज्ञान के अभाव में नहीं। इसलिये इस श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान है।
શંકા–જેમ મતિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં ઈદ્રિ સાક્ષાત નિમિત્ત બને છે એમ થતજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં તેઓ સાક્ષાત નિમિત્ત બનતી નથી. પરંતુ પરમ્પરાની અપેક્ષાએ તે તેઓ શ્રુતજ્ઞાનમાં પણ નિમિત્ત રૂપ બને જ છે. જેમ કે સ્પર્શેન્દ્રિય આદિની સહાયતાથી ધારે કે મતિજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ ગઈ છે, ત્યારબાદ તેમને વિષે વિશેષ વિચાર કરવારૂપ શ્રતજ્ઞાન પણ ઉપન્ન થઈ જાય છે. આ રીતે વિચાર કરવામાં આવે તે મતિજ્ઞાન અને કૃતજ્ઞાન વચ્ચે કેઈ ભેદ જ જણાતું નથી. સમાધાન–આ પ્રકારની માન્યતા પણ ખરી નથી. કારણકે આ કથન તે માત્ર
ઔપચારિક કથન જ છે. વળી બીજું કારણ એ છે કે મતિજ્ઞાન તે માત્ર વિદ્યમાન વસ્તુમાં જ પ્રવૃત્ત થાય છે, પરંતુ શ્રતજ્ઞાન તે વૈકાલિક વિયોમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તથા મતિજ્ઞાનમાં શબ્દ લેખન જ થાય છે, જ્યારે શ્રતજ્ઞાનમાં તે સ્મરણ તર્કવિતર્ક આફિ પણ થાય છે એટલે કે જેવી રીતે શ્રુતજ્ઞાનની ઉત્પત્તિને સમયે સંકેત, સ્મરણ અને શ્રતગ્રંથનું અનુસરણ અપેક્ષિત હોય છે, એવી રીતે ઈહા આદરૂ૫ મતિજ્ઞાનમાં તે સંકેત, સ્મરણ આદિની અપેક્ષા રહેતી નથી. આ વાત પરથી એજ વાત નિશ્ચિત થાય છે કે લબ્ધિરૂપ મતિજ્ઞાનના સદૂભાવમાં જ થતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે–મતિજ્ઞાનનો અભાવ હોય તે શ્રતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થતું નથી. તેથી મતિજ્ઞાનને શ્રુતજ્ઞાનમાં २९लत छ.
For Private and Personal Use Only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्रे ननु आभिनिवाधिकाऽपरपर्यायमतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानं सम्पद्यते यथा मृत्तिकै घटः, तन्तुरेव पटः तर्हि श्रुतज्ञानस्य पृथगुपादानं भगवता किमर्थ कृतम् ? उच्यते दृष्टान्तद्वयमिदं विषमम्, यथा घट प्रादुर्भावे-पिण्डाकारा मृत्तिका प्रणश्थति, पटोत्पत्तौ सत्यां तन्तुपुजश्च तथा श्रुतज्ञाने समुत्पन्ने मतिज्ञानं न प्रणश्यति ।
शंका--जब श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान है कि जिसका दूसरा नाम आभिनिबोधिकज्ञान है भी तब जिस प्रकार मिट्टीरूप कोरण घटकार्यरूप से परिणम जाता है उसी प्रकार से मतिज्ञान भी श्रुत ज्ञानरूप से परिणम जावे गा-अथवा जिस प्रकार मिट्टी ही घट बन जाती है, और तन्तु ही पट बन जाया करते हैं इसी तरह से मतिज्ञान भी श्रुतज्ञान हो जावेगा-तो फिर सूत्र कारने श्रुतज्ञान का पृथकूरूप से पाठ सूत्र में क्यों रखा है ? -- उत्तर-ये दोनों दृष्टान्त ही विषम हैं क्यों कि
इस प्रकार की मान्यता में मतिज्ञान का विनाश प्रसक्त होगा-हम देखते हैं कि जब घट को उत्पत्ति होती है, तब पिण्डाकार मृत्तिका का विनाश होता है और पट की उत्पत्ति में तन्तुपुंज का । परन्तु जब श्रुतज्ञान होता है तब मतिज्ञान का अभाव नहीं होता है । क्योंकि एक आत्मा में एक साथ चार ज्ञान तक होना सिद्धान्तकारों ने माना है। यदि श्रुतज्ञान के सझाव में मतिज्ञान का अभाव स्वीकार किया जावे तो यह सिद्धान्त विरुद्ध कथन
શંકા–જે મતિજ્ઞાન અથવા આમિનિબેધિક જ્ઞાનને જ કૃતજ્ઞાનના કારણરૂપ માનવામાં આવે, તે જેમ માટીરૂપ કારણ ઘટકાર્યરૂપે પરિણમી જાય છે, એ જ પ્રમાણે મતિજ્ઞાન પણ શ્રુતજ્ઞાનરૂપે પરિણમી જશે, અથવા જે પ્રકારે માટી જ ઘડારૂપે પરિ. શુમિત થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે મતિજ્ઞાન પણ શ્રતજ્ઞાનરૂપે પરિણમિત થઈ જશે. તે પછી સૂત્રકારે શ્રુતજ્ઞાનને અહીં પૃથરૂપે (એક જુદા જ જ્ઞાનરૂપે) શા માટે प्रतिपाहित यु छ?
ઉત્તર–આ બને દષ્ટાન્ત જ વિષમ છે, કારણ કે આ પ્રકારની માન્યતામાં તે મતિજ્ઞાનને વિનાશ થવાની વાત માનવાને પ્રસંગ ઉદ્ભવશે. આપણે એ વાતને તે પ્રત્યક્ષ દેખી શકીએ છીએ કે જ્યારે ઘટ (ઘડા)ની ઉત્પત્તિ થાય છે ત્યારે માટીના પિંડાને વિનાશ થઈ જાય છે અને જ્યારે પટ (કાપડીની ઉત્પત્તિ.થાય છે ત્યારે તંતુપુજને નાશ થઈ જાય છે. પરંતુ જયારે શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે મતિજ્ઞાનને વિનાશ થઇ જતો નથી, કારણ કે એક આત્મામાં એક સાથે ચાર જ્ઞાનને સદુભાવ હોઈ શકે છે, એવું સિદ્ધાન્તકારેએ સ્વીકારેલું છે. જે કૃતજ્ઞાનને સદભાવ હોય ત્યારે મતિજ્ઞાનને અભાવ હોય છે એવું માનવામાં આવે, તે તે માન્યતા તે
For Private and Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १ ञ्चविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
"जत्थ मई तत्थ सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई" (नन्दी सू० २४) छाया-यत्र मतिस्तत्र श्रुतं, यत्र श्रुतं तत्र मतिः।
श्रतस्य सद्भावे मतेविद्यमानता भगवताऽभिहिता तस्मादपेक्षाकारणमेव मति ज्ञानं श्रुतज्ञानस्येति मन्तव्यम, तथा च मतिज्ञानपूर्वकमिन्द्रियमनोजन्यमाप्तवचनानुसारि ज्ञानं तज्ञानमिति निष्कर्षः।।
__'श्रूयते यत्तच्छुतम्' इति व्युत्पत्था श्रुतशब्देन प्रवचनमपि गृह्यते । तस्मिन्पक्षे-श्रुतस्य-आप्तवचनस्य ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति षष्ठीतत्पुरुषः । आप्तो रागादि ठहरता है । कि “जत्थ मई तत्थ सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई" जहां पर मतिज्ञान है वहां भूतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है वहां मज्ञिान है। इस ताह श्रुत के सद्भाव में मतिज्ञान का सद्भाव-भगवान्ने कहा है। इसलिये ऐसा मानना चाहिये. कि तज्ञान का मतिज्ञान केवल अपेक्षाकारण ही है। अपेक्षाकारण का तात्पर्य निमित्तकारण से है। जो निमित्तकारण होते हैं वे उपादान कारण की तरह स्वयं कार्यरूप नहीं परिणमते हैं केवल उपादान कारण ही कार्यरूप परिणमता है । तथा च-जो मतिज्ञानपूर्वक ही परंपरा से इन्द्रियों से जो जनिा हो और साक्षात्कारण जिसकी उत्पत्ति में मन हो ऐसा आप्तवचनानुसारी जा ज्ञान हैं वही श्रुतज्ञान है। श्रूयते यत् तत् श्रुतम् "इस व्युत्पत्ति के अनुसार श्रुतशब्द से प्रवचन का भी ग्रहण हो जाता है। अतः इस पक्ष में आप्तवचनरूप श्रुत का जो ज्ञान है वह श्रुतज्ञान है ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास करना चाहिये । रागद्वेष आदि से रहित સિદ્ધાન્તની વિરૂદ્ધની માન્યતા પ્રતિપાદિત થાય છે. શાસ્ત્રોમાં એવું કહ્યું છે કે..... "जत्य मई तत्य सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई" यो भतिज्ञान डाय छ, त्यो अत. જ્ઞાન હોય છે જ્યાં શ્રતજ્ઞાન હોય છે ત્યાં મતિજ્ઞાન હોય છે.” આ રીતે શ્રતના સદ્ભાવમાં મતિજ્ઞાનને પણ સદુભાવ ભગવાને કહે છે. તેથી એવું માનવું જોઈએ કે મતિજ્ઞાન એ શ્રતજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં માત્ર અપેક્ષાકાર (નિમિત્તરૂપ કારણ) જ છે. જે નિમિત્તે કારણે હોય છે તે ઉપાદાન કારણની જેમ સ્વયં કાર્યરૂપે પરિણમતા નથી. માત્ર ઉપાદાન કારણ જ કાયપે પરિણમે છે. આ દષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તા તજ્ઞાનને આ પ્રમાણે અથ" ફલિત થાય છે.
જે મતિજ્ઞાનપૂર્વક હોય, પરમ્પરાની અપેક્ષાએ જે જ્ઞાન ઈન્દ્રિયથી જનિત હેય છે પણ જેની ઉત્પત્તિમાં સાક્ષાત્ કારણભૂત મન હેય છે, એવું આપ્તવચનાનુસારી २ ज्ञान छ तने अज्ञान ४छ. "श्रूयते यत् तत् श्रुतम्" मा व्युत्पत्ति मानुसार શ્રત પદ દ્વારા પ્રવચન પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. તેથી આ દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે આમવચન રૂ૫ શ્રતનું જે જ્ઞાન છે તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે, એવો ષષ્ઠી તપુરુષ
For Private and Personal Use Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारपत्रे रहितः सर्वज्ञस्तस्य वचनम्-आप्त वचनम् । तदर्थाध्यवसाय (निर्णय) रूपं ज्ञानं श्रुत ज्ञानमिति । श्रुतज्ञानं प्रति शब्दस्य निमित्तकारणतया शब्देऽपि श्रुतव्यपदेशो भवति । ज्ञानभेदव्यवस्थायां श्रुतशब्दः श्रवणार्थवाचीत्यभिधेयम् ॥२॥
(३) अवधिज्ञानम्-अपधानमवधि-इन्द्रिय नोइन्द्रिय निरपेक्षस्य आत्मनः साक्षादर्थ ग्रहणम्, अवधिरेवज्ञानम् अवधिज्ञानम् । अथवा-'अब' शब्दोऽधःशदार्थः। अव=अधः विस्तृत वस्तु धीयते-ज्ञायतेऽनेनेत्यवधिः । अवधिश्चासौ तज्ज्ञान चेत्यवधिज्ञानम् । विस्तृतविषयकं ज्ञनमित्यर्थः । यथा-अनुत्तरोपपातिका देवा अवधि ज्ञानबलेन, भगवन्तमापृच्छय जीवादितत्वम्वरूपं निर्धारयन्ति । विशिष्ट व्यक्ति का नाम आप्त है। जिसे सर्वज्ञ कहा जाता है। उसके बचन का नाम आप्तवचन है। उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थरूप जो आगम है. उस आगम का निर्णयरूप ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के प्रति शब्द निमित्तकारण होता है एतावता निमित्त कारण की अपेक्षा लेकर शाद में भी श्रुत का व्यवहार होता है । परन्तु ज्ञान भेद की व्यवस्था में श्रुतशब्द श्रवण जन्यज्ञान प अथ का बाची लिया गया है ।
"अवधानमवधिः" अर्थात् इन्द्रियों एवं मनकी सहायता के विना केवल आत्मा से ही द्रव्य क्षेत्रकाल और भाव की मर्यादा लेकररूपी पदार्थों को जो साक्षात्रूप से ग्रहण करनेवाला ज्ञान होना है उसका नाम अवधि है ।
अथवा-अवविज्ञान में जो अपशब्द है वह अधःशब्द के अर्थ को कहने वाला है । इसलिये जिसज्ञान के द्वारा नीचे का विषय विस्ताररूप से "धीयते" जाना जाता है । वह अवधिज्ञान है तात्पर्य इसका यह है कि जब સમાસ અહીં સમજવું જોઇએ. રાગ, દ્વેષ આદિથી રહિત વિશિષ્ટ વ્યક્તિને આપ્ત કહે છે. સર્વને જ એવાં આપ્ત કહી શકાય છે. તે સર્વજ્ઞના વચનને આપ્તવચન કહે છે, તેમના દ્વારા પ્રતિપાદિત અર્થ રૂપ જે આગમ છે, તે આગમના નિર્ણયરૂપ જ્ઞાનને જ શ્રુતજ્ઞાન કહે છે. શ્રત જ્ઞાનની પ્રાપ્તિમાં શબ્દરૂપ નિમિત્ત પરમ્પો કારણ ૩પ હોય છે. તેથી નિમિત્ત કારણની અપેક્ષાએ શબ્દમાં પણ શ્રુત શબ્દને વ્યવહાર થાય છે પરંતુ જ્ઞાનના ભેદોની વ્યવસ્થામાં મૃત શબ્દને શ્રવણુજન્ય જ્ઞાનરૂપ અર્થને વાચક લેવામાં આવેલ છે. __ (3) "अवधानमवधिः" भवधिज्ञान
ઈન્દ્ર અને મનની સહાયતા વિના કેવળ આત્મા દ્વા જ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની મર્યાદાની અપેક્ષાએ રૂપી પદાર્થોને સાક્ષાતરૂપે ગ્રહણ કરનારું જે જ્ઞાન છે, તેને અવધિજ્ઞાન કહે છે. અથવા-અવધિજ્ઞાનમાં જે “અવ ઉપસર્ગ છે તે અધઃ શબ્દના અર્થને વાચક છે. તેથી જે જ્ઞાન દ્વારા નીચેના વિષયનું विस्तृत ३५ "धीयते" ज्ञान थाय छ, ते ज्ञानने अवधिज्ञान । છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-અવધિજ્ઞાનનું ક્ષેત્ર આંગળના અસંખ્યાતમાં
For Private and Personal Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२३
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १ पञ्चविधज्ञानरवरूपनिरूपणम्
यहा-अवधिना ज्ञानम्-इति तृतीया समासः । अवधिर्मर्यादारू पिद्रव्याप्येव विषयीकरोति नेतराणीति व्यवस्थारूपा। तथाचायमर्थः-अरूपि द्रव्यपरिहारेण रूपिद्रव्यमात्र विषयकं ज्ञानमवधिज्ञानमिति ।
यद्वा-अधोऽधोऽधिकं पश्यति येन तदवधिज्ञानम् । तश्चचतुर्गतिवर्तिनां जीवानामिन्द्रियमनोनीरपेक्षं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमनिमित्त र रिद्रव्यसाक्षात्कार जनकं भवति। एतस्य देवमनुष्यतिर्यनारका अधिकारिणः ॥३॥ अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल केअपंख्या 7वें भाग से लेसर सारा लोक हैं-तब उसका विषय भी कतिपय पर्याय सहितरूपी द्रव्य है इसलिये रह ज्ञान विस्तृत विष वाला है । विस्तृत विषयता जो इस में प्रकट की है वह मनः पीय ज्ञान की अपेक्षा जाननी चाहिये । कों कि मनःपाय ज्ञान का क्षेत्र सिर्फ मानुषोत्तर पर्वत पर्यंत ही है और उसका विषय अवधिज्ञान के विषयभूत हुए रूपी द्रा का अनततवां भाग है। अथवा-अवधिशब्द का अर्थ मर्यादा है । इस अर्थ में अवधि और ज्ञान का तृतीया तत्पुरुष समास हो र ऐसा अर्थ होता हैं कि जो ज्ञान म दा लेकर पदार्थों को जानता हैं । इह आधिज्ञान हैं । इस में म दिा रूपी पदार्थों को जानने की अपेक्षा से जाननी चाहिये । क्यों कि रह ज्ञान रूपी पदार्थों को नहीं जानता है। इसलिये इस प्रकार को व्यवस्थाप मर्यादा युक्त होने के कारण इस ज्ञानक नाम अवधिज्ञान रखा है। अथवा-नीचे नीचे की ओर जो ज्ञान अधिक विषय को ભાગથી લઈને આખા લેક પર્યન્તનું છે, અને કતિષય પર્યાય સહિતના રૂપી દ્રવ્યને વિષય કરનારૂં જ્ઞાન છે. આ રીતે તે જ્ઞાન વિસ્તૃત વિષયવાળું છે. તેમાં જે વિસ્તૃત વિષયતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે મનઃ પર્યય જ્ઞાનની અપેક્ષાએ સમજવી, કારણ કે મનઃપર્યય જ્ઞાનનું ક્ષેત્ર માત્ર માનુષેત્તર પર્વત પર્યન્ત જ છે અને અવધિજ્ઞાન દ્વારા જેટલારૂપી દ્રવ્યને જોઈ શકાય છે તેના કરતાં મનપર્યય જ્ઞાન દ્વારા અનંતમાં ભાગના રૂપી દ્રવ્યને જોઈ શકાય છે.
અથવા–અવધિ એટલે મર્યાદા. આ અર્થમાં અવધિ અને જ્ઞાન, આ બે પદોનો તૃતીયા તપુરુષ સમાસ બને છે. આ દૃષ્ટીએ વીચારવામાં આવે તે અવધીજ્ઞાનનો અર્થ આ પ્રમાણે થશે-જે જ્ઞાન મર્યાદિત પદાર્થોને જાણે છે, તે જ્ઞાનનું નામ અવધિજ્ઞાન છે. તે જ્ઞાનરૂપી પદાર્થોને જ જાણે છે-અરૂપી પદાર્થોને જાણતું નથી, આ પ્રકારની રૂપી પદાર્થોને જ જાણવારૂપ આ મર્યાદા સમજવી. તેથી આ પ્રકારની વ્યવસ્થારૂપ મર્યાદાથી યુક્ત હોવાને લીધે આ જ્ઞાનનું નામ અવધિજ્ઞાન પડયું છે. અથવાજે જ્ઞાન નીચેની બાજુએ અધિક વિષયને દેખી શકે છે તે જ્ઞાનને અવધિજ્ઞાન કહે
For Private and Personal Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२४
अनुयोगद्वारसूत्रे देखता है-वह ज्ञान अवधिज्ञान है ऐसा यह अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को इन्द्रियां और मन की सहायता के बिना अधेिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है।
शंकाः-शास्त्रकारों ने मनुष्य और तिर्यचगति के जीवों को जो अवधिज्ञान कहा है वही क्षयोपशम निमित्तक कहा है-फिर यहां चारों गतियों के जीवों को जो अवधिज्ञान होता है वह योपशम निमित्तक होता है ऐसा क्यों कहा-तो इस शंका का समाधान इस प्रकार से है कि अवधिज्ञान की उत्पत्ति नियमतः अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ही होती है-परन्तु इस क्षयोपशम में जहां व्रत, नियम, आदि अनुष्ठान की अपेक्षा रहती है-यह क्षयोपशम निमित्तक कहलाता है ऐसा अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यचों के होता है। जिस अव धज्ञान में इनकी अपेक्षा न हो किन्तु भव जन्म लेना ही कारण हो वहां वह अवधिज्ञान इन गुणों की अपेक्षा बिना ही अवधिज्ञाना बरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हो जाता है। ऐसा अवधिज्ञान देव और नारकियों को होता है । अन्तरंग कारण इन दोनों प्रकार के अवधिज्ञानों
છે. ઈન્દ્રિ અને મનની સહાયતા વિના રૂપી પદાર્થોને જોઈ શકનારૂં આ અવધિજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયથી ચારે ગતિના છોમાં ઉત્પન્ન થતું હોય છે.
શંકા-–શાસ્ત્રકારોએ તે એવું કહ્યું છે કે મનુષ્ય અને તિર્યંચગતિના અને જે અવધિજ્ઞાન થાય છે તે ક્ષપશમ નિમિત્તક હોય છે. છતાં આપ શા કારણે એવું કહે છે કે ચારે ગતિના જેને અવધિજ્ઞા વરણીય કર્મના ક્ષયે પશમથી અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ શકે છે?
સમાધાન-અવધિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ તે નિયમથી જ અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી જ થાય છે, પરંતુ આ ક્ષપશમમાં જ્યાં વ્રત, નિયમ આદિ અનુઠાનની આવશ્યકતા રહે છે, ત્યાં તે અવધિજ્ઞાનને ક્ષયે પશમનિમિત્તક કહેવામાં આવે છે. એવા ક્ષપશમનિમિત્તક અવધિજ્ઞાનને સદભાવ મનુષ્ય અને તિર્યમાં જ હોય જે અવધિજ્ઞાનમાં તેની આવશ્યકતા ન હોય પણ ભવ જ (જન્મ લેવો એજ) કારણ રૂપ હોય, ત્યાં આ ગુણોની અપેક્ષા વિના જ અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એવા અવધિજ્ઞાનને સદૂભાવ દે અને નારકમાં હોય છે. આ રીતે આ બંને પ્રકારના અવધિજ્ઞાનમાં અન્તરંગ કારણ તે સમાન જ છે. અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મને પશમ જ તે બન્નેમાં અને રંગ કારણ છે. તે કારણે “અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયે પશમથી ચારે ગતિના જીવોમાં અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રકારના કથનમાં કઈ દેષ સંભવ નથી.
For Private and Personal Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका. १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम जोशीमदर. चिन-382000 २५
मनःपर्यवज्ञानमिति । अवनम् अवः । 'अव रक्षण गतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमाद्यर्थेषु' पठितोऽस्ति, तत्रावगमार्थमाश्रित्य निष्पन्नः । अव:-अवगमः, बोध इत्यर्थः । परिशब्दः सर्वी भावे, पर्यवः समन्तादववोधः। मनसः पर्यवो मनः पय वः मनोविषयकः समन्तादधबोध इत्यर्थः। मनःपर्यवश्वासौ तज्ज्ञानं चेति मनःपर्यवज्ञानम् । पर्ययः, पर्यायः, एते शब्दा एकार्थवाचः ।
में समान हैं। अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ही अन्तरंग कारण है। अतः ऐसा कहने में कि अवधिज्ञानाव णीय कर्म के क्षयोपशम से अवधि--- ज्ञान की उत्पत्ति चारों गतियों के जीवों को होती है इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है।
___ मनःपर्यवज्ञान- पर्यव यह शब्द परि उप र्ग अव धातु से बना है। अब धातु रक्षण, गति, कान्ति, प्रीति, तृप्ति. अगम आदि अर्थों में पठित हुआ है सो यही पर इन में से अवगम अर्थ लिया गया हैं। अवगम का अर्थ बोध है। "परि" का अर्थ सब प्रकार से है । मन की सब पर्यायों का साक्षात् जानने वाला जो ज्ञान है वह मनः पर्यवज्ञान है। पर्यय पर्याय ये सब शब्द एकार्थवाचक हैं। तात्पर्य इसका यह है कि मनवाले संज्ञी प्राणी-किसी भी वस्तु का चिन्त्वन मनसे करते हैं। चिन्त्वन के समय चिन्तनीयवस्तु के भेद के अनुसार चिन्तनकर्म में प्रवृत्त मन भिन्न २ आकारों को धारण करता रहता है। ये आकृतियां ही मन की पर्याय हैं । इन मन की पर्यायों को साक्षात् आनने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान हैं द्रव्य मन और
(४) मन:पर्यज्ञान-परि+अव्=पर्यव. मा शत 'अव्' धातुने परि' दापायी पियव' ५४ पन्यु छ. 'अव्' धातु २३९. गति, ति, प्रति, तृति, અવગમ આદિ અર્થોમાં વપરાય છે. અહીં તેને અવગમ અર્થ ગૃહીત થયો છે. અવગમ એટલે બે ધ, અને “પરિ એટલે “સર્વ પ્રકારે
મનના સઘળા પર્યાને સાક્ષાત્ જાણનારૂં જે જ્ઞાન છે, તેનું નામ મનઃ પર્યાવજ્ઞાન છે.” પર્યય અને પર્યાય આ બનને શબ્દ સમાનાથી છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-મનવાળા છે (સંજ્ઞી છે) કોઈ પણ વસ્તુનું મનની મદદથી ચિત્તવન કરે છે. આ પ્રકારના ચિન્તનકમમાં પ્રવૃત્ત થયેલું મન ભિન્નભિન્ન આકારેને ધારણ કરતું રહે છે. તે આકૃતિઓ જ મનના પર્યાય છે. મનન એ પર્યાને સાક્ષાત્ જાણનારૂં જે જ્ઞાન છે તે જ્ઞાનનું નામ જ મન:પર્યવજ્ઞાન છે,
For Private and Personal Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
मनोवि
अनुयोगबारसूत्रे मनोद्विविध-द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणाः । संज्ञिना मनोवर्गणा गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते ।
तत्रेह भावमनः परिगृह्यते । भावमनसः पर्यायाश्च परेषाम् अर्द्धतृतीयद्वीपाभ्यन्तरवर्सिसंज्ञिपञ्चेन्द्रिाणां चिन्त्यमा विषाऽध्यवसायरूपाः। यथा-अन्यःकश्चिदेवं चिन्तयेत्-आत्मा कीदृशः ? अरूंपी, चेतनास्वभावः, कर्मणां कर्ता तरफलभोक्त। चेत्यादयो ये ज्ञान विशेषरूपारतस्यात्मनः परिणामविशेषा तेषां यद् ज्ञानं तन्मनःपर्य यज्ञानम् । भाव मन के भेद से मन दो प्रकार का होता है । इनमें मनोवगणारूप तो द्रव्य मन हैं तथा संशी जीव उन मनोवर्गणाओं को ग्रहण करके उनके निमित्त से जो विचार करता है वह भावरन हैं। यहां पर भावरन का रहण हुआ हैं। मनः पर्यवज्ञानी दूसरों के इस भावमन की र्यायों को कि जो अढाई द्वीपवर्ती संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों द्वारा विचारी गई हैं उन्हें साक्षात् जानता है। जैसे कोई यह विचारे कि आत्मो कैसा है ? "अरूपी है चेतना स्वभाववाला है, कर्मों का कर्ता है, और उन कर्मों के फलों का भोक्ता है "इस तरह ये ज्ञानाविशेषरूप जो उस आत्मा के विचारित परिणाम विशेष है उन परिणाम विशेषों का जो ज्ञान है वह मनःपर्य व ज्ञान है। अर्थात् मनःपर्ययज्ञानी इन से कल्पित मन की पर्यायों को साक्षात् जानता है। इससे यह बात ध्वनित होती है कि मनःपर्य यज्ञानी मन को ही प्रत्यक्षरूप से जानता है, चिन्तनीय वस्तुओं को नहीं।
દ્રવ્યમન અને ભાવમનના ભેદથી મન બે પ્રકારનું કહ્યું છે. આ બન્નેમાંનું જે દ્રવ્ય મન છે તે મને વર્ગણારૂપ છે, તે મને વર્ગણાઓને ગ્રહણ કરીને તેમના નિમિત્તથી સંસી જીવ જે વિચાર કરે છે તે ભાવમનરૂપ છે. અહીં ભાવમન ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. અઢી દ્વીપવતી સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવે દ્વારા વિચારવામાં આવેલી ભાવમનના પર્યાયને મનપર્યજ્ઞાની જીવ સાક્ષાતુ જાણે છે. જેમ કે કઈ એવો વિચાર
"मात्मा को छ ? शुते १३पी छ ? शुते येतना स्वभावामा छ ? शु તે કર્મોને કર્તા અને તે કમેનાં ફલોનો ભકતા છે?” આ પ્રકારનું આ જ્ઞાનવિશેષરૂપ ને આત્મા દ્વારા વિચારિત જે પરિણામવિશેષ છે, તે પરિણામવિશેષોને જાણનારૂં જે જ્ઞાન છે, તે જ્ઞાનનું નામ મન:પર્યવજ્ઞાન છે. એટલે કે મનપર્યવજ્ઞાની જીવ આ સંકલ્પિત મનના પર્યાયને સાક્ષાત જાણી શકે છે. આ કથન દ્વારા એ વાત સૂચિત થાય છે કે મનપર્યવજ્ઞાની જવ મનની પર્યાને જ પ્રત્યક્ષરૂપે જાણે છે-ચિન્તનીય વસ્તુઓને જાણતા નથી,
For Private and Personal Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
मन.पर्यज्ञानी च मनःपर्य यानेव प्रत्यक्षी करोति, न तु बाह्यवस्तु । न च मनः पर्ययज्ञानिना बाह्य वस्तु ज्ञायते इति वाच्यम्, अनुमा तस्तस्य बाह्यवस्तुज्ञानसद्भावात् । यथा विशिष्टक्षायोपशामिकप्रतिभाशाली प्रेक्षावान् प्रशान्तःकस्यचि
दाकारेगितादिकं विलोक्य तदीयमनोगतं भावं सामर्थ्य चानुमानतो विजानाति • तथा मनःपर्यः ज्ञानी कस्यचिद् भावरूपं मनःसर्वतोभावेन प्रत्यक्षीकृत्वानुमानेन बाह्य विपरमवबुध्यते-'इदं वस्त्वनेन चिन्त्यते' इति । बाह्यपदार्थ चिन्तनसमये हि बाह्यपदार्थाकारसदृशाकारं मनो भवति ।
इदं मनःपर्ययज्ञानं रूपिविषयत्वप्रत्यक्षायोपशमिकत्वन यात्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानाद् भिन्नं, स्वाम्यादि भेदात् । तथाहि अवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टेरपि
प्रश्न -तो क्या चिन्तनीय वस्तुओं को मनःपय यज्ञानी जान नही सकता ?-- उत्तरः-जान सकता है-६र पीछे से अनुमानद्वारा । जैसे कोई बिशिष्टक्षयोपशमिक प्रतिभाशाली विद्वान् शान्तभाव से किसी दूसरे व्यक्ति के
आकार इंगित आदि को प्र यक्ष देख कर उसके. मनोगत भाव एवं सामर्थ्य .को अनुमान से जान लेता है उसी तरह मयःपर्य यज्ञानी किसी के भावरूप मन को सर्वतोभाव से प्र यक्षा कर अनुमान से तगत चिन्तनीय बाह्य वस्तुओं को जान लिया करता है कि इसने इस वस्तु का चिन्तन वि.या है क्यों कि इसका मन उस वस्तु के चिन्तन के समय अवश्य होनेवाले इसप्रकार के आकारों से युक्त है। मन जब बाह्य पदार्थों का चिन्तन करता है तो उस समय वह उस चिन्तित बाह्यपदार्थ के आकार जैसा आवारवाला हो जाता है।
मनःपर्य ज्ञान और अवधिज्ञान इन दोनों में रूपी पदार्थों को जानने પ્રશ્ન શું મન:પર્યવશાની જીવ ચિત્તનીય વરતુઓને જાણી શકતું નથી ?
ઉત્તર–મન:પર્યવજ્ઞાની જવ ચિન્તનીય વસ્તુઓને પાછળથી અનુમાન દ્વારા જ જાણી શકે છે જેવી રીતે કેઈ વિશિષ્ટ ક્ષપશમિક પ્રતિભાશાળી વિદ્વાન શાન્તભાવે કેઈ અન્ય વ્યકિતની મુખાકૃતિ, તેની ચેષ્ટાઓ આદિને પ્રત્યક્ષ જોઈને તેના મને ગત ભાવેને સામર્થ્યને અનુમાનથી જાણું લે છે, એ જ પ્રમાણે મન:પર્યવજ્ઞાની જીવ કોઈ અન્ય જીવના ભાવરૂપ મનને પિતાના મન:પર્યવજ્ઞાન વડે પ્રત્યક્ષ કરીને અનુમાનથી તદુગત ચિત્તનીય બાહ્ય વરતુઓને પણ જાણી શકે છે. તે મન:પર્યવજ્ઞાની છવ એવું અનુમાન કરે છે કે આ વ્યકિતએ આ વસ્તુનું ચિન્તન કર્યું છે, કારણ કે તેનું મન તે વરતુના ચિન્તન સમયે જેવાં આકારોથી અવશ્ય યુકત હોવું જોઈએ એવા આકારોથી અવશ્ય યુકત છે. મન જ્યારે ખાદ્યપદાર્થોનું ચિન્તન કરે છે, ત્યારે તે (મન) તે ચિન્તિત બાહ્યપદાર્થોના આકાર જેવા આકારવાળું થઈ જાય છે. - મન:પર્યવજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાનમાં રૂપી પદાર્થોને જાણવાની અપેક્ષાએ, ક્ષા
For Private and Personal Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारसूत्रे भवति । द्रव्यतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयम, क्षेत्रतोऽसंख्पातलोकविषयम् । कालतोऽतीतानागतासंख्यातोत्सर्पिण्यवसर्पिणीविषयम् । भावतः सकलरूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसंख्यातपर्याय विषयम् ।
मनःपर्ययज्ञानं तु प्रमादरहितस्वाऽऽमर्षाद्यन्यतमलब्धिधारिणः संयता भवति । द्रात:-संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनाद्र विषयम् । क्षेत्रत:-सम क्षेत्रमात्रविषयम्। कालत:-अतीतानागतपल्योपमासंख्यातभागविषयम् । भावतो-मनोद्र० गतानन्दपर्यायविषयम् ॥४॥ की, क्षायोपशमिकत्व की एवं प्रत्यक्षत्व आदि की अपेक्षा से समानता हैंतो भी स्वाम्यादि की अपेक्षा से भिन्नता है-अवधिज्ञान जो अविरतसम्यक् दृष्टि है, उसको भी हो जाता है, द्रव्य कि अपेक्षा यह समस्तरूपी पदार्थों को विषय करता है, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक इसका विषय माना गया है, काल की अपेक्षा यह अतीत अनागतकाल के असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों को जानता है, तथा भाव की अपेक्षा यह समस्तरूपी द्रव्यों में प्रतिद्रव्य की असंख्यात पर्याों को जानता है। मनःपर्यवहार अविरत अवस्थावाले जीव को नहीं होता है। उसमें भी प्रमत्त संयत का नहीं होता हैं किन्तु जो अप्रमत्त संयत है उसको होता है। उसमें भी आमर्ष आदि किसी एक लब्धिधारी के ही होता हैं । द्रव्य की अपेक्षा संझी पंचेन्द्रियजीव के मनोद्रव्य को विषय करता है। क्षेत्र की પથમિકત્વની અપેક્ષાએ અને પ્રત્યક્ષ આદિની અપેક્ષાએ સમાનતા છે. પરંતુ કેટલીક બાબતમાં તે અવધિજ્ઞાનથી જુદું પડે છે.
અવધિજ્ઞાન અવિરત સમ્યક્દષ્ટિ જીવમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તે સમસ્તરૂપી પદાર્થોને જોઈ શકે છે, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત લેક તેને વિષય મનાય છે, કાળની અપેક્ષાએ તે અતીત અને અનાગતકાળના અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અવસર્પિણી કાળને જાણે છે, તથા ભાવની અપેક્ષાએ તે સમસ્તરૂપી દ્રમાંના પ્રત્યેક દ્રવ્યની અસંખ્યાત પર્યાને જાણે છે. મનઃ૫ર્ષવજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ અવિત અવસ્થાવાળા જીવમાં થતી નથી, પરંતુ જે જીવ સંયત હોય છે તેને જ મન:પર્યવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. વળી પ્રત્યેક સંયત જીવને તે ઉત્પન્ન થાય છે એ કોઈ નિયમ નથી. જેમ કે પ્રમત્ત સંયતને તે ઉત્પન્ન થતું નથી, પણ અપ્રમત્ત સંયતને જ ઉત્પન્ન થાય છે. અપ્રમત્ત સંયતમાં પણ આમર્ષ આદિ કઈ એક લબ્ધિધારીને જ મનપર્યવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવના મને દ્રવ્યને તે વિષય કરે છે–જાણી શકે છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ
For Private and Personal Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ___(५) केवलज्ञानम्-केवलम् एकमसहायं ज्ञानावरणीयकर्मात्यन्तक्षयसमुद्भूतम् अतीतानागतवर्तमान यथावस्थितसकलद्रव्यगुणपर्यायविषयकमप्रतिपातिज्ञानं केवलज्ञानम् ॥५॥
अधिकं जिज्ञासुभिनन्दिसूत्रे मत्कृतज्ञानचन्द्रिकाटीकाशं विलोकनीयम् ।
इत्थं शास्त्रस्यादावेव ज्ञानपञ्चकवर्णनेन मङ्गलं प्रदर्शितं भवति, सक्लक्लेशोच्छित्तिमूलत्वेन ज्ञानस्य परममङ्गलत्वात् ॥सू० १॥ अपेक्षा-इसका विषय समयक्षेत्र मात्र हैं । काल की अपेक्षा-अतीत अनागत काल का-पल्योपम का असंख्यात वां भाग इसका विषय है । भाव की अपेक्षा-इसका विषय मनोद्रब्य संबन्धी अनंत पर्याये हैं। केवलज्ञान-एक असहाय ज्ञान का नाम केवलज्ञान हैं। यह ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के अत्यन्त क्षय से होता है। अन्य ज्ञानों की तरह यह प्रतिपाती नहीं हैं। इसके विषय का अधिक विस्तार नन्दीसूत्र की ज्ञानचन्द्रिका नाम की टीका में मैने लिखा हैं-सो जिज्ञासु महानुभाव वहां से इसे देखलें।
इस प्रकार से सूत्रकार ने शास्त्र की आदि में ही जो पांच प्रकार के ज्ञानों का वर्णन किया हैं उससे मंगल प्रदर्शित होता हैं। क्योंकि ज्ञान सकलक्ले शों की उच्छित्ति का मूलकारण है । अतः उसमें परम मंगलता आती है । ॥ मूत्र. १॥ સમયક્ષેત્ર માત્રને જ તે વિષય કરનારૂં-જાણનારૂં છે. કાળની અપેક્ષાએ અતીત ભૂત) અને અનાગત (ભવિષ્ય) કાળના પલ્યોપમને અસંખ્યાત ભાગ તેને વિષય છે. ભાવની અપેક્ષાએ તેને વિષય મને દ્રવ્ય સંબંધી અનંત પર્યાયે છે.
(૫) કેવળજ્ઞાન–આ જ્ઞાન એવું છે કે જેમાં ઇન્દ્રિયો અને મનની સહાયતાની અપેક્ષા રહેતી નથી, જ્ઞાનાવરણીય કર્મના આત્યન્તિક (સંપૂર્ણતઃ) ક્ષયથી આ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. તેને વિષય, ભૂત, ભવિષ્ય અને વર્તમાન, આ ત્રણે કાળ સંબંધી સમસ્ત દ્રવ્ય અને તેમની સમરત (અનંત) પર્યાય છે. અન્ય જ્ઞાનની જેમ તે પ્રતિપ્રાતિ (એક વખત પ્રાપ્ત થયા બાદ જેને વિનાશ થાય એવું) નથી. કેવળજ્ઞાનનું વિસ્તૃત નિરૂપણ નન્દીસૂત્રની જ્ઞાનચન્દ્રિકા નામની મેં લખેલી ટીકામાં કરવામાં આવ્યું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ ત્યાંથી તે વાંચી લેવું.
આ પ્રકારે સૂત્રકારે શાસ્ત્રને પ્રારંભે જ પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનેનું જે નિરૂપણ કર્યું છે તેનું કારણ એ છે કે જ્ઞાન પિોતે જ મંગલરૂપ છે. સકલ કલેશેના ઉછેદનમાં જ્ઞાન જ કારણભૂત બને છે. આ રીતે જ્ઞાનમાં પરમ મંગળતાને સદભાવ હેવાથી સૂત્રકારે શરૂઆતમાં જ તેની પ્રરૂપણ કરી છે. જે સૂઇ ૧
For Private and Personal Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगदारमत्रे पञ्चविधेषु ज्ञानेषु श्रुतज्ञानस्यैव उद्देशसमुदेशाद्यवसरेऽधिकारो स्ति, नेतरेपामिति बोधयितुमाह
मूलग--तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइं ठवणिजाई गो उद्दिसति, जो समुदिसंति, णो अणुषणविजंति । सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ॥ सू० २ ॥
छा। तत्र चत्वारि ज्ञानानि स्थाप्यानि स्थापनीयानि नो उद्दिश्यन्ते, नो समुद्दिश्यन्ते, नो अनुज्ञाप्यन्ते । श्रुतज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते।सू०२॥
टीका-'तत्थ चत्तारि' इत्यादि- ..
तत्र-तेषु पञ्चविधेषु ज्ञानेषु चत्वारि-चतुःसंख्यकानि ज्ञानानि आमिनिबोविकाऽवधिमनःपर्यवकेवलरूपाणि असंपवहार्याणि-न व्यवहाराहा॑णि 'ठप्पाई' स्थाप्यानि उद्देशसमुद्देशाधवसरे अत एव 'ठवणिज्जाइ' स्थापनी शनि-अनधिकृतानि । न तेषामुद्देशादयः नियन्ते इति भावः ।
___ अव सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पांच प्रकार के जो ये ज्ञान हैंइनमें श्रुज्ञिान का ही उद्देश, समुदेश आदि के अवसर में अधिकार है दूसरे चार ज्ञानो का नहीं-- "तत्थ चत्तारि"-इत्यादि । ॥ २॥
शब्दार्थ:-(तत्य) इन पूर्वोक्त पांच प्रकार के ज्ञानों में (चत्तारि नाणाई) चार प्रकार के ज्ञान-मति-अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान-(ठप्पाइ) उद्देश, समुद्देश आदि के अवसर में व्यवहारयोग्य नहीं हैं । कों कि ये गुरु के उपदेश की अपेक्षावाले नहीं हैं। इसलिये (ठवणिज्जाई) ये स्थापनीय हैंअर्थात् इनके उद्देश आदि नहीं-किये गये हैं । इस विषय में ऐसा जानना चाहिये कि श्रुतज्ञान ही वाचना आदि द्वारा अपने विषः भूत पदार्थों में
હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે પાંચ પ્રકારના જે જ્ઞાન છે તેમાંથી શ્રતજ્ઞાનને જ ઉદ્દેશ, સમુદેશ આદિને અવસરે અધિકાર છે- અન્ય ચાર જ્ઞાનેને નથી.
"तत्थ चारि" त्या
२०४ाय-(तत्थ) हित पांय ४२i शानामांथी (चत्तारि नाणाई) यार પ્રકારનાં જ્ઞાન એટલે કે મતિજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન (ठप्पाई) हेय, समुदेश माहिना भयसरे व्यवहारयोग्य नथी. २६५ ॐ य.रे ज्ञानमा गुरुना उपदेशनी अपेक्षा रडती नथी, तेथी (ठवणिज्जाइ) ते थारे ज्ञान સ્થાપનીય છે. એટલે કે તેમના ઉદ્દેશ આદિ કરવામાં આવેલ નથી આ વિષયને અનુલક્ષીને એવું સમજવું જોઈએ કે શ્રતજ્ઞાન જ વાચન આદિ દ્વારા પિતાના
For Private and Personal Use Only
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका, सू० २ ... इदमत्राबधेयम्-श्रुतज्ञानमेव हि वाचनादिना साक्षात् प्रवर्तकं च । अन्यानि तु यद्यपि पदार्थानों स्वरूपमवबोधयन्ति, तथापि श्रुतज्ञानमनाश्रित्य साक्षात् प्रवर्तयितुं निवर्त्तयितु वा न समर्थानि, तस्मादिह तेषां नाधिकार इति । उक्तमेवार्थ विशदयन्नाह-णो उदिस्संति' इत्यादि । नो उद्दिश्यन्ते शिष्येभ्यो नोपदिश्यन्ते । नो समुद्दि ते-एतानि स्थिरपरिचितानि कुरु इत्येवंरूपेण एतानि चत्वारि ज्ञानानि गुरुभिः शिष्ान् प्रति नोपदिश् न्ते, अत एव एतानि नो अनुज्ञाप्यन्ते-'एतानि सम्म गधारय, अन्य वापि अध्यापय' इत्येवं रूपेण एतानि शिष्यान् प्रति नानुमोद्यन्ते ।
अथः-आभिन्बिोधिकज्ञानम्. अवधादीनि च ज्ञानानि स्थाप्यानि गुर्वनधीनत्वेनी देशाद्यविषयाणि, अतः स्थापनीयानि-अव्याख्येयानि। श्रुतज्ञानं तु साक्षात् प्रवर्तक होता हैं। यद्यपि अन्य ज्ञान भी पदार्थों के स्वरूप का बोध कराते हैं, परन्तु वे श्रुतज्ञान का आश्रय लिये विना अपने विषयभूत हेयोपादेय विषय से न साक्षात् रूप में निवर्तक होते हैं, और न उसमें प्रवर्तक होते हैं । इसलिये उन ज्ञानों का यहां उदेश समुद्देश आदि में विचार नहीं किया गया है। इसी अर्थ को सूत्रमार विशद रूप से विवेचन करने के लिये कहते हैं कि (णो रदिसंति णो समुदिसंति) ये चार ज्ञान गुरुजनों द्वाग शिष्यों के लिये उपदिष्ट नहीं होते हैं और न गुरुजन उसे ऐसा कहते हैं। कि तुम इनका स्थिररूप से परिचय करों (णो अणुण्ण विज्जति) इन्हें अच्छी तरह से निश्चित कर हृदय में धारण करो तथा दूसरों को भी इन्हें पढाओ' अथवा-ये आभिनिवोधिक और अवधि आदि ज्ञान स्थाप्य है-गुरुजनों के ये आधीन नहीं हैं इस कारण उद्देश आदि विषयभूत नहीं हैं इसलिये स्थापनीय વિષયભૂત પદાર્થોમાં સાક્ષાત પ્રવર્તાક અને નિવર્નાક હોય છે. જો કે અન્ય જ્ઞાન પણ પદાર્થોના સ્વરૂપને બોધ કરાવે છે ખરાં, પરંતુ તેઓ થતજ્ઞાનનો આધાર લીધા વિના પિતાના વિષયભૂત પાદેય વિષયથી સાક્ષાત્ રૂપે નિવત્તક પણ હતાં નથી. અને તેમાં પ્રવર્તક પણ હતાં નથી. તેથી તે જ્ઞાનેને અહીં ઉદેશ સમદેશ આદિમાં વિચાર કરવામાં આવ્યો નથી. એજ વિષયનું વિશદરૂપે વિવેચન કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર કહે છે કે
(णो उदिसंति णो समुद्दिसंति) ते यार शान गुरु वा शिष्योन ઉપઢિષ્ટ થતાં નથી, અને ગુરુજન તેમને એવું પણ કહેતા નથી કે તમે તેમને स्थि२ ३५ ५६न्यय ४२।, (णो अणुष्णविज्जति) तेभने सारी रात निश्चय ४शन હૃદયમાં ધારણ કરે તથા અન્યને પણ તેનું અધ્યયન કરાવે. અથવા-આભિનિધિ, અવધિજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન થાય છે, તે ચાર સાને ગુરૂજનોને
For Private and Personal Use Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगबारसत्रे अनेकार्थत्वादतिगम्भीरत्वाद् विविधमन्त्राधतिशयसम्पन्नत्वाच्च गुरूपदेशसापेक्षम्, अत एव गुरोरन्तिके उद्देशादिविधिना परम ल्याणकारि श्रुतमेव गृह्यते । आभिनिबोधिकादीनि तु तत्तदावरणीयकर्मक्षयक्षयोपशमाभ्यां स्वत एव जाय ते, न तु उद्देशादिक्रम मपेक्षन्ते । अत एव-आभिनिबोधिकस्य अवध्यादीनां च उद्देशादो न निरन्ते, किन्तु श्रुतज्ञानस्य उद्देशः उद्दिश्यते इत्युद्देशः इदमध्यनादि त्वया पठितव्र मिति गुरोरु पदेशरूपं वचनम् । समुद्देशः= 'इदमधीतसूत्रादिकं स्थिरपरिचितं कुरु' इति गुरोरुपदेशवचनम् । अनुज्ञा-'इदं धारय अन्यांश्च अध्यापयेति हैं-अव्याख्येय हैं । परन्तु जो श्रुतज्ञान है वह तो अनेक अर्थवाला होने से, अति गंभीरता युक्त होने से, और विविध प्रकार के मंत्रादिकों के अतिशय से समन्वित होने से गुरुजनों के उपदेश की अपेक्षावाला है। इसलिये गुरुजन के समीप उद्देश आदिरूप विधिपूर्वक परम कल्याणकारी श्रुत ही ग्रहण किया जाता है। अवशिष्ट जो आभिनिबोधिक आदिक ज्ञान हैं वे तो अपने २ आवरणीय कर्म के क्षयोपशम और क्षय से स्वतः ही आविर्भूत हो जाया करते हैं। ये उद्देश, समुद्देश आदिरूष क्रम की अपेक्षा अपनी आविर्भूतिउत्पत्ति में नहीं रखते हैं। इसलिये आभिनिबोधिक ज्ञान और अवधिज्ञानों के उद्देश आदि नहीं किये जाते हैं। किन्तु जो (सुयनाणस्स) श्रुतज्ञान हैउसका ही (उद्देसो) उद्देश-इस अध्ययन आदि-को तुम्हें पढना चाहिये इस प्रकार का गुरु का उपदेशरूप वचन, (समुद्देसो) समुदेश-ये पठित सूत्रादिक वि मृत न हो जावे इसलिये इन्हें स्थिररूप से परिचित करो बार २ इनका पाठ करो इस प्रकार का गुरु का उगदेशरूपवचन (अणुण्णा) अनुज्ञा हृदय આધીન નથી, તે કારણે તે ચારે જ્ઞાન ઉદેશ આદિના વિષયભૂત નથી. તેથી તે ચારે જ્ઞાનને સ્થાપનીય–અવ્યાયેય કહેવામાં આવેલ છે. પરંતુ શ્રતજ્ઞાન તે અનેક અર્થવાળું હોવાથી, અતિ ગંભીરતા યુકત હોવાથી, અને વિવિધ પ્રકારના મંત્રાદિકના અતિશથી સમન્વિત (યુકત) હાવ થી ગુરુજનોના ઉપદેશની અપેક્ષાવાળું છે. તે કારણે ગુરુજનેની સમીપે ઉદ્દેશ આદિરૂપ વિધિપૂર્વક પરમ કલ્યાણકારી શ્રત જ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. બાકીના આભિનિબોધક આદિ જે ચાર જ્ઞાને છે તે તો પિત પિતાના આવરણીય કર્મના પશમ અને ક્ષયથી પિતાની જાતે જ અવિર્ભત (પ્રકટ) થઈ જાય છે. તે ચારે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં આ ઉદેશ સમૃદંશ આદિરૂપ કમની અપેક્ષા રહેતી નથી. તેથી આભિનિબંધિક જ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન આદિ ज्ञानाना उद्देश ७२वामा पावतो नथी. ५२'तुरे (सुयनाण स उद्देसो) श्रुतज्ञान छ. तेन ॥ देश, (समुद्देसो) सभुदेश, (अणुण्णा) मनुज्ञा (अणुओगे। य) भने मनुयोग (पवत्तइ) राय छ-न्य ज्ञानाना श, समुश माता थी..
For Private and Personal Use Only
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका - म्र. २ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
३३
शिष्यं प्रति गुरोरुपदेशवचनम् । अनुयोगः - भगवदुक्तानुरूपता च प्रवर्त्तते । श्रुतज्ञानस्यैव उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च भवति नान्येषामितिभावः ॥ ०२ ॥
मूलम् — जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो यं पवत्तइ किं अंगपविटुस्स उद्देसो समुद्दे सो अणुग्णा अणुओगो य पवत्तइ ? किं अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो
में इनका धारणरूप संस्कार जमाओ, और दूसरों के लिये इन्हें पढाओं इस प्रकार का गुरु का उपदेशरूपवचन, (अणुओगो य) और अनुयोग भगवदुक्तानुरूपता (पवत्त) ये सब होते हैं । अन्य ज्ञानों के नहीं ।...
भावार्थ - श्रुतज्ञान के अतिरिक्त अवशिष्ट चार ज्ञानों में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग ये चार बातें नहीं होती हैं । क्यों कि इन ज्ञानों में गुरु के उपदेश से जन्यत्व की अपेक्षा नहीं हैं । ये तो अपने २ आवरणकर्मों के क्षय क्षयोपशम के अनुसार उत्पन्न होते हैं । यद्यपि तज्ञान भी अपने आवरणकर्म के क्षयोपशम से ही उत्पन्न होता है- फिर भी उस में गुरु पदेश की अपेक्षा से जन्यता मानी गई है। अतः उसमें उद्देश आदि होते हैं । ।०२।।
આ અધ્યયન આદિના તમારે અભ્યાસ કરવા જોઇએ, આ પ્રકારના ગુરુના ઉપદેશરૂપ વચનને ઉદ્દેશ કહે છે. આ પતિ સૂત્રાદિ ભૂલી ન જવાય તે મ ટે સ્થિર ચિત્તે તેમને પરિચય કરશ. વારંવાર તેના પાઠ કરે, આ પ્રકા । ગુરુના વચનને સમુદ્દેશ કહે છે.
હૃદયમાં આ સૂત્રને કદી પણ વિસ્મૃત ન થાય એવી રીતે ધારણ કરે। અને અન્યને તેનું અધ્યયન કરાવા, આ પ્રકારના ગુરુના ઉપદેશરૂપ વચનાને અનુજ્ઞા કહેછે. ભગવદુકતાનુરૂપતાને અનુયાગ કહે છે.
ભાવાથ –શ્રુતજ્ઞાન સિવાયના જે ચાર જ્ઞાના છે તેમાં ઉદ્દેશ, સમુદ્દેશ, અનુજ્ઞા અને અનુયાગના-(આ ચાર વાતના) સદૂભાવ હાતા નથી, કારણ કે તે જ્ઞાનાની ઉત્પત્તિ ગુરુના ઉપદેશને લીધે સંભવી શકતી નથી. તે ચાર જ્ઞાનાની ઉત્પત્તિ તા ત્યારે જ થાય છે કે જયારે તે પ્રત્યેક જ્ઞાનના આવારક કર્મોના ક્ષયે પશમ અથવા ક્ષય થઈ જાય છે. કેવળજ્ઞાનની ઊત્પત્તિ ત્યારે જ થાય છે કે જયારે જ્ઞાનવરણીય કમૅના સંપૂર્ણતઃ ક્ષયાપથમ થવાથી જ તે જ્ઞાન ઊત્પન્ન થાય છે. જો કે શ્રુતજ્ઞાન પણ તેનું આવરણ કરનારા કર્મના ક્ષયાપશમથી જ ઊત્પન્ન થતું હાય છે. છતાં પણ તેમાં ગુરુના ઉપદેશની અપેક્ષાએ જન્યતા માનવામાં આવી છે. તેથી જ શ્રુતજ્ઞાનમાં ઉદ્દેશ સમૃદ્દેશ આદિના સદ્ભાવ રહે છે. ા સૂ. ૨,
For Private and Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारसूत्रे य पवत्तइ ? अंगपक्ट्रिस्स वि उद्देसो जाव पवत्तइ, अणंगपक्ट्रिस्स वि उद्देसो जाव पत्तवइ । इमं पुण पटवणं पडुच्च अणंगपविटुस्स अणुओगो ॥ ३ ॥
छाया-यदि श्रुतज्ञानस्य उद्देशः, समुद्देशः, अनुज्ञा, अनुयोगश्च प्रवर्तते . किम् अङ्गप्रविष्टस्य उद्देशः, समुद्देशः, अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते ? किम् अङ्गबाह्यस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा, अनुयोगश्च प्रवर्तते ? अङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो यावत् प्रवर्तते, अनङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो यावत् प्रवर्तते । इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः ॥सू० ३॥
टीका-'जइ सुयनाणस्स' इत्यादि---
यदि श्रतज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते तर्हि स .. उद्देशादिः किम् अङ्गप्रविष्टस्य-द्वादशाङ्गान्तर्गतस्याचाराङ्गादेः प्रवर्तते, किं वा अनङ्गप्रविष्टस्य-अङ्गबाह्यस्य दशवैकालिकादेः प्रवर्तते ? इति शिष्यप्रश्नः। गुरुरुत्तरयति-'अंगप्पविद्वरस वि' इत्यादिना। हे शिष्य ! अङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो _ "जइ सुयनाणस्स" इत्यादि .
· शब्दार्थ-(जइ) यदि (सुयनाणस्स) श्रुतज्ञान में (उद्देसो) उद्देश (समुद्देसो) समुद्देश, (अणुष्णा) अनुज्ञा (य) और (अणुओगो) अनुयोग इन की (पत्तइ) प्रवृत्ति होती है तो (किं) क्या (अंगपविठ्ठग्स) जो अंगप्रविष्ट श्रृंत है उसमें (उद्देसा) इन उद्देश, (समुद्देसा) समुद्देश, (अणुष्णा) अनुज्ञा (य) और (अणुओगो)
अनुयोग की (पवत्तइ) प्रवृत्ति होती है ? क्या अथवा जो (अंगबाहिरग्स) अंग बाह्य श्रुतज्ञान है उसमें (उद्देसो समुहेसा अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ) उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग इनकी प्रवृत्ति होती है क्या ? उनर-(अंगपविट्ठस्स) अंग प्रविष्ट जो आचाराङ्गादि श्रुत है उनमें (वि) भी (उद्देसो य जाव
"जइ सुयनाणस्स" त्या
थार्थ- (जइ) ने (सुयनाणरस) श्रुतज्ञानभा (उद्देसो) ७देश, (समुद्देसो) समुथ, (अणुण्णा) अनुज्ञा (य) भने (अणुभोगो पवतई) मनुयागनी प्रवृत्ति (सहलाय) याय छ, त। (किं अंगपचिट्ठस्त) शुरे भविष्ट श्रुत छ तभा (उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा य अणुओंगो पवत्तइ) मे श, सभुश, मनुशा भने अनुयोगनी प्रवृत्ति थाय छ ? २ (अंगबाहिरस्स) मा श्रुतज्ञान छ तेभा (उद्देसो, समुद्देसो अणुण्णा अनुओगो य पवत्तइ) देश, सभुश, अनुज्ञा અને અનુગની પ્રવૃતિ થાય છે?
Gत२-(अंगपविठ्ठरस वि उसो जाव पवत्तइ) माया मारे ।
For Private and Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ४ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् यावत् प्रवर्तते, अनङ्गप्रविष्टम्यापि च उ शो यावत् प्रवर्तते । अत्र शास्त्रे पुनः इदं प्रस्तुतं प्रस्थापनं-प्रारम्भं प्रतीत्य आश्रित्य अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः प्रवर्तते।सू.३
मूलम्-जइ अणंगपविटुस्स अणुओगो, कि कालियस्सं अणुओगो ? उकालियस्त अणुओगो ? । कालियस्त वि अणुओगो, उक्कालियस्स वि अणुओगो। इमं पुणपट्टवणं पडुच्च उकालियस्स अणुओगो ॥ सू० ४॥ ____ छाया–यदि अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः, किं कालिकस्य अनुयोगः ? उत्कालिकस्यानुयोगः ? कालिकस्यापि अनुयोगः, उत्कालिकस्यापि अनुयोगः । इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य उत्कालिकस्यानुयोगः ॥ सू० ४.।। .. ___टीका-'जइ' इत्यादि
यदि अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः किं कालिकस्यानुयोगः ? किं वा उत्कालिकस्यानुयोगः ? इति शिष्यप्रश्नः । तत्र-कालेन निर्वृत्तं कालिकम् । काले प्रथमपवितइ] इन उद्देश समुद्देश आदि की प्रवृत्ति होती है, तथा "अणंगपविट्टस्स वि जा' * अनंग प्रविष्ट दशवैकालिक आदि सूत्र हैं उनमें भी (उद्देसो जाव पवत्तइ) उद्देस • आदि की प्रवृत्ति होती है। (इमं पुण पट्टवणं पडुच्च) इस शास्त्र में यह प्रारंभ की अपेक्षा लेकर अनंग प्रविष्ट में अनुयोग प्रवर्तित होता है ऐसा कहा गया है। सूत्र३॥
"जइ अणंगपविट्ठस्स इत्यादि ।"
शब्दार्थ-(जइ) यदि (अगंगपविठ्ठस्स अणुअंगो) अनंग प्रविष्ट श्रुत में अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो (कि) क्या (कालियस्स अणुओगो ?) कालिक में अनुयोग प्रवृत्ति होती है क्या ? या (उक्कालियस्स अणुओगो) उत्कालिक પ્રવિષ્ટ શ્રત છે તેમાં ઉદ્દેશ, સમુદેશ, અનુજ્ઞા અને અનુગ પ્રવર્તે છે, તથા (अणंगपविठ्ठःस वि उदेसी जाव पवत्तइ) ४२ ules माहि रे मन प्रविष्ट શ્રત છે તેમાં પણ ઉદ્દેશ, સમુદ્રોશ, અનુજ્ઞા અને અનુયોગ પ્રવર્તે છે. આ રીતે અંગપ્રવિષ્ટ અને અંગબાહ્ય, એ બન્ને પ્રકારના શ્રતમાં ઉદ્દેશ આદિ ચારેને સદભાવ समावा. (इमं पुग पट्टणं पडुच्च) 0 शाम मा प्रा२ मनी अपेक्षाये मे કહેવામાં આવ્યું છે કે અનંગ પ્રવિષ્ટ શ્રતમાં અનુયોગની પ્રવૃતિ થાય છે. સૂ. ૩
"जइ अणंगपविटुरस" त्याह- ॥ सू. ४॥
शा-प्रश्न (जइ अणंगाविट्ठस्स अणुओगो) ले प्रविष्ट श्रुतमा अनुयोनी प्रति थाय छ, a (किं कालियस्स अणुओगो ?) sulas श्रुतमा
For Private and Personal Use Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारसूत्रे चरमपौरुषीलक्षणे अस्वाध्यायकालं विहाय पठ्यते यत् तत्कालिकम् । तच्च उत्तरा घ्ययनादिकं, यदिह दिवसरात्रि प्रथमचरमपौरुषीद्वये एव पठ्यते । उर्ध्व कालात् पठ्यते, इत्युत्कालिकम् । अस्वाध्यायकालं विहाय दिवसे रात्रौ च सर्वस्मिन् यामे यत् पठ्यते तदुत्कालिकमित्यर्थः कालिकसूत्राणि- (१) उत्तराध्ययन-(२) दशाश्रुतस्कन्ध-(३) बृहत्कल्प-(४) व्यवहार-(५) निशीथ-(६) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-(७) चन्द्रप्रज्ञप्ति-(८) निरयावलिका-(९) कल्पावतंसिका-(१०) पुष्पिता (११) पुष्पचूलिका-(१२) वृष्णिदशादीनि अङ्गबाह्यानि, आचाराङ्गादीनि में अनुओग की प्रवृत्ति हाती है ? (कालियस्स वि अणुओगो उक्कालियस्स वि अणुओगा) उत्तरः-कालिकका भी अनुयोग होता है और उत्कालिक का भी अनुयोग होता है । (इमं पुण पठवणं पडुच्च उक्कालियस्स अणुओगो) इस शास्त्र में यह प्रारंभ की अपेक्षा लेकर उत्कालिक का अनुयोग कहा है।
भावार्थ-अनंग प्रविष्ट श्रुत के अनेक भेद कहे गये हैं-उनमें कालिक उत्कालिक श्रुत है। प्रथम पौरुषी और अन्तिम पौरुषीरूप काल में जो अस्वा घ्यायकाल को छोडकर पढा जाता है. वह कालिक श्रुत है। जैसे-उत्तराध्यय १, दशाश्रुतस्कंध २, बृहत्कल्प ३, व्यवहार ४, निशीथ, ५ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति ६, चन्द्रप्रज्ञप्ति ७, निरयावलिका ८, कल्पावतंसिका ९, पुष्पिता १०, पुष्पचूलिका ११, वृष्णिदशा आदि ये सब अंगवाह्य श्रुत है वे कालिक श्रुत हैं । तथा आचारांसनयानी प्रवृति थाय छे, ३ (उक्कालियरस अणुओंगो) Galles श्रम मनु. ગની પ્રવૃતિ થાય છે? ____Gतर-(कालियस्स वि अणुओगो उकालियरस वि अणुओगो) ४ श्रुतमा પણું અનુગની પ્રવૃતિ થાય છે અને ઉત્કાલિક થતમાં પણ અનુયેગની પ્રવૃતિ થાય છે. (इमं पुण पट्टवणं पडुच्च उक्कालियरस अणुओंगो) मा थामा Anा मनी અપેક્ષાએ ઉત્કાલિકને અનુગ કહ્યો છે.
ભાવાર્થ-અનંગ પ્રવિષ્ટ કૃતના અનેક ભેદ કહ્યા છે. તેમાંના બે ભેદે આ प्रभा छ-(१) sulesश्रुत भने (२) Gles श्रुत.
પહેલી પૌરૂષી (પહેલો પ્રહર) અને છેલ્લી પૌરૂષી (છેલો પ્રહર)રૂપ કાળમાં અસ્વાધ્યાયકાળ જે કહ્યો છે તેટલા કાળને છેડીને, જેનું અધ્યયન કરવામાં આવે છે, એવા શ્રુતને કાલિક શ્રુત કહે છે. કાલિક શ્રત નીચે પ્રમાણે કહ્યું છે
(१) Gध्ययन (२) शाश्रुतध, () ४६५, (४) व्यवहार, (५) निशीथ (6) दीपप्र.लि, (७) यन्द्रप्रति, (८) निश्यामि (e) ४८पावत सिंह, (१०) પુષિતા, (૧૧) પુષ્પચૂલિકા (૧૨) વૃષ્ણિદશા વગેરે જે અંગબાહ્ય શ્રત છે તેમને કાલિકશ્રતમાં સમાવેશ થાય છે, તથા આચારાંગાદિ જે ૧૧ અંગ છે તેમને પણ
For Private and Personal Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
55
अनुमोमचन्द्रिका टीका सू० ४ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् एकादशोङ्गानि च। इतोऽतिरिक्तान्यषि कालिकसूत्राणि नन्दिसूत्रे निर्दिष्टानि सन्ति, विच्छिन्नत्वान्नेह तानि निर्दिश्यन्ते । उत्कालिकसूत्राणि-(१) दशवैकालिको(२) पपातिक-[३] राजप्रश्नीय-(४) जीवाभिगम-(५) प्रज्ञपना(६)-नन्दीमत्रा[७] नुयोगद्वारा-(८) वश्यक-(९) सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्राणि । इतोऽन्यान्यप्युत्कालिकसूत्राणि नन्दिसूत्रे निर्दिप्टानि सन्ति, विच्छिन्नत्वान्नेह तानि निर्दिश्यन्ते । उत्तर यति-कालिकस्याऽप्यनुयोगः, उत्कालिकस्याप्यनुयोगः । पुनरत्र शास्त्रे इदं प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्भं प्रतीत्य-आश्रित्य, उत्कालिकस्थानुयोगः ॥ सू० ४ ॥ ___ मूलम्-जइ उकालियस्स अणुओगो, किं ओवस्सगस्त अणुओगो? आवस्सगवइरित्तस्स अणुओगो ? आवस्सगस्स वि अणुओगो, गादि जो ११ अंग हैं ये भी कालिकश्रुत हैं । इन से अतिरिक्त और भी कालिक सूत्र हैं जिनका कथन नंदिसूत्र में किया गया है । विच्छिन्न हो जाने के कारण हम उन्हें यहां निर्दिष्ट नहीं करते हैं । (१) दशवकालिक, (२)
औफ्पातिक, (३) राजप्रश्नीय (४) जीवाभिगम, (५) प्रज्ञापना (६) नंन्दीसूत्र (७) अनुयोगद्वार (८) आवश्यक, (९) सूर्य प्रज्ञप्तिसूत्र, ये सब उकालिकमंत्र हैं। इनसे अतिरिक्त और भी उत्कालिक सूत्र है। जिन्हें नंदिसूत्र में निर्दिष्ट किया गया है, परन्तु वे सब विच्छिन्न हो चुके हैं अतः हम उन्हें यहां प्रकट नहीं करते हैं । उत्कालिक सूत्र अस्वाध्यायकाल को छोडकर दिन में और रात्रि में जब चाहे तब हरएक समय में पढे जाते हैं। इस शास्त्र में उत्कालिक का अनुयोग ही प्रस्तुत होने से प्रकट किया गया है । ॥मूत्र ४॥ કાલિક થતમાં જ સમાવેશ થાય છે. તે સિવાય બીજા કેટલાક કાલિકસૂત્રે પણ છે, જેમનું કથન નન્તિસૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. તે સુત્રો વિછિન્ન થઈ ગયેલા હેવાથી અહીં તેમને નિર્દેશ કરવામાં આવ્યું નથી.
હવે ઉત્કાલિક સૂત્રોનાં નામ આપવામાં આવે છે
(१) शवैलिर, (२) मो५५ति, (3) राप्रश्नीय, (४) लिम, (५) प्रज्ञाना, (6) नन्दसूत्र, (७) अनुयोगद्वा२, (८) सापश्य सूत्र मन (6) सूर्यપ્રજ્ઞપ્તિસત્ર, આ બધાં સૂત્રે ઉલ્કાલિક શ્રુતમાં સમાવેશ થાય છે. આ સિવાય બીજા કેટલાક ઉત્કાલિક સૂત્રે છે, જેમનાં નામ નન્દિસૂત્રમાં આપવામાં આવ્યાં છે. પરંતુ તે સૂત્ર વિચ્છિન્ન થઈ ગયેલાં હોવાથી તેમનાં નામો અહીં પ્રકટ કર્યા નથી. અસ્વાધ્યાય કાળ સિવાયના કોઈ પણ કાળે-દિવસે અથવા રાત્રે, જ્યારે ઈચ્છા થાય ત્યારે ઉત્કાલિકસૂત્રોનું અધ્યયન થઈ શકે છે. આ શાસ્ત્રમાં ઉત્કાલિકને અનુગ જ પ્રસ્તુત હોવાથી પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. જે સુપ્ર ૪ છે
For Private and Personal Use Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
ईट
'अनुयोगद्वार
आवस्वरितस्त व अणुओगो ! इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो ॥ सू० ५ ॥
छाया - यदि उत्कालिकस्य अनुयोग, किमावश्यकस्य अनुयोगः १ आवश्यकव्यतिरिक्तस्य अनुयोगः १ आवश्यकस्यापि अनुयोगः, आवश्यक व्यतिरिक्त'स्थापि अनुयोगः । इदं पुनःप्रस्थानं प्रतीत्य आवश्यकस्य अनुयोगः ॥०५ || टीका- 'जई' इत्यादि -
F
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यदि उत्कालिकस्य अनुयोगः किमावश्यकस्य अनुयोगः ? आवश्यक व्यतिरिक्तस्य वाऽनुयोगः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - 'आवस्सगस्स वि' इत्यादिना । अनुयोग आवश्यकस्यापि भवति, आवश्यकव्यतिरिक्तस्यापि भवति ।
" जइ उक्कालिय स" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (इ) यदि ( उक्कालिय स) उत्कालिक श्रुत का (अणुओगो) अनुयोग होता है तो ( कि) क्या (आवस्सग स अणुओगे ?) आवश्यक का अनुयोग होता है ? या ( आव सगवइरित्तस्स अणुओगा) आवश्यक से व्यतिरिक्त का अनुयोग होता है ? उत्तर - ( आवस्सगस्स वि अणुओगे :) आवश्यक का भी अनुयोग होता है । और ( आब सगवइरित्त स वि अणुओगा) जो आवश्यक से भिन्न है उनका भी अनुयोग होता है । (इमं पुण पडवणं पडुच्च आव सगस्स अणुओगा) इस शास्त्र में यह प्रारंभ की अपेक्षा लेकर आवश्यक का अनुयोग कहा है ।
भावार्थ - शिष्य पूछ रहा है कि हे भदंत ! यदि उत्कालिक श्रुत का अनुयोग होता है तो किस उत्कालिक श्रुत का - आवश्यक का या आवश्यक " जइ उकालियम्स" छत्याहि
शब्दार्थ - प्रश्न – (जइ उक्कालियम्स अणुओगो) ले मासिश्रुनो अनुयोग थाय छे, तो (किं आवरसगस्स अणुओगो) शु आवश्यना अनुयोग थाय छे! (आवरसगस्सगवइरित्तग्स, अणुओगो ?) आवश्य थी लिन्न होय येषां श्रुतनो • अनुयोग थाय छे.
२- (रसगस्स वि अणुओगो) मावश्यानो पशु अनुयोग थाय छे, मने (आवस्सगवइरित्तस्स वि अणुओगो) ने भावश्यम्थी भिन्न छे तेमनेो पशु मनुयोग थाय छे. ( इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवरसगस्स अणुओगो) या शास्त्रभां या મારભની અપેક્ષાએ આવશ્યકના અનુયોગ કહ્યો છે.
ભાવા —શિષ્ય અહી' એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે “હે ભગવન્ ! જે ઉત્કાલિક શ્રુતના અનુયાગ થાય છે, તેા કયા ઉત્કાલિક શ્રુતના અનુયાગ થાય છે ૧ શુ` આવશ્યકના અનુયાગ થાય છે ૧ કે આવશ્યક સિવાયના જે ઉત્કાલિક શ્રુત છે ?તેમના અનુયાગ થાય છે ?’’
For Private and Personal Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. ४ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
३९.
पुनरत्र शास्त्रे इदं - प्रस्तुतं प्रस्थापनं - प्रारम्भं प्रतीत्य- आश्रित्य आवश्यकव्य - श्रमणैः श्रावकैश्वोभय कालमवश्यकरणीयस्य सामायिका दिषडध्ययनात्मकस्य सकलसामाचामूलस्यावश्यक सूत्रस्यानुयोगः प्रवर्त्तते । यद्यप्यावश्कत्रे उद्देशसमुद्देशानुज्ञा वर्त्तन्ते तथाऽप्यत्र सूत्रे उद्देशादिकं त्रयं विहायानुयोग एवाधिक्रियते, तस्यावसरप्राप्त त्वात् । अनुयोगस्य वक्तव्यताचैवम्
9 ว
19
"निक्खेवेग निरुत्ति विही, पवित्तीय केण वा कस्स ? |
१२
८
९. १०
"
तद्दार भेयल खण, तदरिह परिसा थ सुत्तत्थो ॥ छाया - निक्षेप एकार्थी निरुक्तिः विधिः प्रवृत्तिश्व केन वा कस्य । तद्वाराणि भेदा लक्षणं तदह परिषच्च सूत्रार्थः ॥ इति || अग्या व्याख्या - निक्षेपः = नामस्थापनादिकः । एकार्थः पर्यायः - अनुयोगों
"
से अतिरिक्त का - तब उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि इन दोनो का भी अनुयोग होता है। यहां पर उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा का कथन कर के सूत्रकार ने जो आवश्यक में केवल अनुयोग का कथन किया है वह अनुयोग को अवसर प्राप्त होने से किया है । यह आवश्यक साधु साध्वी और भावक श्राविका को प्रात: और सायंकाल दोनों समय अवश्य करने योग्य कहा गया है । सामायिक आदि के भेद से यह आवश्यक छह प्रकार का है। इसके ऊपर षड्ध्ययनात्मक एक स्वतन्त्र सूत्र रचा गया है - जिसका नाम आवश्यक सूत्र हैं । यह सकल सामाचारी का मूल कारण है । अनुयोग के विषय में वक्तव्यता इस प्रकार से है
"निक्खेवेगढ इत्यादि" नाम स्थापना आदिरूप से अनुयोग का कहना यह अनुयोग का निक्षेप है । अनुयोग के पर्यायवाची शब्दों को कहना - जैसे
આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપતાં આચાર્ય કહે છે કે આ બન્નેના અનુયાગ છે ?’ અહીં ઉદ્દેશ, સમુદ્દે શ અને અનુજ્ઞાનું કથન કરીને સૂત્રકારે આવશ્યકમાં કેવળ અનુયાગતુ જ જે કથન કર્યુ છે તે અનુયાગના પ્રાપ્ત અવસરની અપેક્ષાએ કયુ" છે. આ આવશ્યક સાધુ સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકાએ પ્રાતઃ અને સાય કાળ, એ બન્ને સમયે કરવા ચૈાગ્ય કહેલ છે. સામાયિક આદિના ભેદથી આ આવશ્યક છે પ્રકારના કહ્યો છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને છ અધ્યયનવાળુ એક સ્વતંત્ર સૂત્ર રચવામાં આવ્યુ છે. તે સૂત્રનુ` નામ આવશ્યક સૂત્ર” છે. તે સકલ સામાચારીનુ મૂળ કારણ છે. અનુયાગના વિષ્યમાં આ પ્રમાણે વકતવ્યતા છે,
"निक खेवेगट्ठ" त्याहि-नाम, स्थापना माहि३ये अनुयोगनु ं पृथन थवु ं तेनु' નામ અનુયોગના નિક્ષેપ છે. અનુયોગના પર્યાયવાચી શબ્દાનું કથન કરવુ-જેમ કે
For Private and Personal Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४०
अनुयोगबारसूत्रे नियोगो भाषा विभाषा वार्तिकं चैतेऽनुयोग पर्यायाः। निरुक्तः निर्वचनम्. सा चवम्-तीर्थङ्करप्ररू पितार्थस्य गणधरोक्तशब्दसमूहरूपसूत्रेण सह अनु=अनुकूला नियतो वा योगः सम्बन्धोऽनुयोगः । अनुयोगशब्दग्य विस्तृतव्याख्या-उपासकदशाङ्गसूत्रस्य मत्कृतायामगारधर्मसंजीवन्या टीकायां विलोकनीया । विधि:सूत्रार्थव थनविधिः। तत्र-गुरुणा प्रथमं शिष्येभ्यः सूत्रार्थों वक्तव्यः । तदनु सोऽर्थों नियुक्तिमिश्रो वक्तव्यः । सूत्रे नियुक्तानां-निश्चयेन युक्तानामेवार्थानां युक्तिपुररसामर्थः शिष्येभ्यो वक्तव्य इत्यर्थः । तत.पुनरपि प्रसङ्गानुप्रसङ्गागतः सर्वोऽप्यर्थों वाच्यः। तदुक्तम्
"सुत्तत्थो खलु पढमो बीयो निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ ।
तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥" अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा, वार्तिक यह शब्द अनुयोग के पर्यायवाचक हैं। निरुक्तिपूर्वक अनुयोग का अर्थ कहना यह अनुयोग की निरुक्ति हैं। इस में तीर्थ करों द्वारा प्ररूपित अर्थ का गणधरोक्त शब्द समूहरूप सूत्र के साथ अनुकूल अथवा नियत संबन्ध प्रकट करना होता है । सूत्रार्थ कह ने की पद्धति का नाम विधि हैं। इसमें सर्व प्रथम गुरु को शिष्य के लिये सूत्र का अर्थ सिखलाने का विधान है । बाद में उस शिक्षित अर्थ को नियुक्ति से मिश्रित कर शिष्य को सिखलोना चाहिये अर्थात् निश्चययुक्त पदार्थों का ही-अर्थात् वीतराग कथा से जिन पदार्थों का पदों के अर्थों का गुरु के द्वारा शिष्यने निश्चय कर लिया है ऐसे ही पदार्थों का युक्ति प्रदानपूर्वक शिष्य को और अर्थ कहना चाहिये, इसके बाद प्रसङ्ग अनुप्रसंग को लेकर
और भी जो २ अर्थ होता हो- उस सब को प्रकट करना चाहिये-इन संब અનુગ, નિયોગ, ભાષા, વિભાષા વાતિક, આ બધા પદો અનુગના પર્યાયવાચ્છ શબ્દ છે. નિરૂકિતપૂર્વક અનુગને અર્થ કહે તેનું નામ “અનુગ નિરુકિત ઠર્વક અનુયોગને અર્થે કહે તેનું નામ “અનુગની નિરૂકિત” છે. તેમાં તીર્થકરો દ્વારા પ્રરૂપિત અર્થને ગણધરેકત શબ્દસમૂહરૂપ સૂત્રની સાથે અનુકૂળ અથવા નિયત સંબંધ પ્રકટ કરવાનું હોય છે. ત્રાર્થ કહેવાની પદ્ધતિનું નામ વિધિ છે. તેમાં ગુરૂએ સૌથી પહેલાં તે શિષ્યને સૂત્રનો અર્થ શિખવા જોઇએ, એવું વિધાન છે. ત્યારબાદ શિખવવામાં આવેલા તે અર્થને નિયુકિતથી મિશ્રિત કરીને શિષ્યને શિખવ જઈએ. એટલે કે નિશ્ચયયુકત પદાર્થોના જ વીતરાગ દ્વારા પ્રરૂપિત જે પદા
ના પદોના અર્થોના ગુરુની મદદથી શિષ્ય નિશ્ચય કરી લીધું હોય એવાં જ પદાર્થોને) યુક્તિ પ્રદાનપૂર્વક જે કઈ બીજો અર્થ થતો હોય તે પણ શિષ્યને કહે જોઈએ, ત્યારબાદ પ્રસંગ અને અનુપ્રસંગને અનુલક્ષીને તેના બીજા જે જે અર્થ થતાં હોય તે સઘળાં અર્થ પણ પ્રકટ કરવા જોઇએ. આ બધી બાબતેને અનુયેળમાં
For Private and Personal Use Only
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
14.
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् छाया-सूत्रार्थः खलु प्रथमो, द्वितीयो नयुक्तिमिश्रितो भणितः ।
तृतीयश्च निरवशेषः, एष विधिर्भवत्यनुयोगे ॥ इति ॥
विस्तरतस् वन्यन्त्र । तथा-अनुयोगाय प्रतिः अत्र चत्वारो भङ्गाः । तत्र प्रथमो भङ्ग:- उधमी गुरुरुधमी शिष्यः । छितीयो भाः--उद्यमी गुरुरनुघमी शिष्यः। तृतीयो भङ्गः-अनुयमी गुरुरुधमी शिष्यः । चतुर्थो भङ्गः-अनुद्यमी. गुरुग्नुपमी शिष्या अत्र-प्रथमभङ्गे नुयोगाय सर्वथा प्रत्तिर्भवति, चतुर्थभङ्गे तु सर्वथा नैव भवति। द्वितीय तृतीययोस्तु कदाचित् प्रवृत्ति भव त कदाचिन्नापि भवति । तथाऽनुयोगः केन कर्तव्यः ? इति प्रोच्यतेका अनुयोग में समाविष्ट है। यही बात तदुक्तं करके "सुत्तथो" इत्यादि-गाथा द्वारा पुष्ट की है। विधि संबन्धी विस्तार अन्य शास्त्रों में लिखा है। अतः जिज्ञासु जन इस विषय को वहां से जान लेवें अनुयांग की प्रवृत्ति में चार भंग हैं-वे इस प्रकार से हैं___उद्यमी गुरु उद्यमी शिष्य यह प्रथम भंग है । उद्यमी गुरु अनुद्यमी शिष्य यह द्वितीय भंग हैं। अनुधमी गुरु उद्यमी शिष्य यह तीसरा भंग है । अनुद्यमी गुरु अनुगमी शिष्य यह चौथा भंग है। इन में से जो प्रथम भंग है उसमें तो अनुयोग की सर्वथा :वृत्ति होना निश्चित है। चौथे भंग में अनुयोग की प्रत्ति बिलकुल नही होती है। वितीय और तृतीय भंग में अनुयोग की प्रवृत्ति कभी. होती है और कभी नहीं भी होती है। समाषी २४।५ छ 20 पात “सुन्त्यो" त्याहि पायाच्या दारा पुष्ट ४२वामा આવી છે. વિધિ સંબંધી વિસ્તૃત કથન અન્ય શાસ્ત્રોમાં આપવામાં આવેલું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ આ વિદયનું વિશેષ કથન ત્યાંથી વાંચી લેવું જોઈએ. અનુગની પ્રવૃત્તિમાં નીચે પ્રમાણે ચાર ભાગાઓ (વિક) છે' (૧) ઉદ્યમીગુરૂ અને ઉદ્યમી શિષ્ય, આ પહેલે ભાંગો છે. (૨) ઉદ્યમી ગુરૂ અને નિરૂઘમી શિષ્ય, આ બીજો ભાંગે છે. (3) मनुधभी शु३ भने धमी शिष्य, त्रीने लांग छे. (૪) અનુદ્યમી ગુરૂ અને અgધમી શિષ્ય, આ ચેાથે ભાંગે છે.
આ ચાર વિકપમાંથી જે પહેલો વિકલ્પ બત વ્યો છે તે વિકલ્પ પ્રમાણેની પરિસ્થિતિમાં તે અગની પ્રવૃત્તિ થવાનું કાર્ય સર્વથા નિશ્ચિત જ હોય છે. ચોથા વિકલ્પમાં બતાવ્યા પ્રમાણેની જ્યારે પરિસ્થિતિ હોય છે, ત્યારે અનુયાગની પવૃત્તિ બિલકુલ ચાલી શકતી નથી. બીજા અને ત્રીજા વિકલ્પોમાં બતાવેલી પરિ સ્થિતિમાં ક્યારેક અનુગની પ્રવૃત્તિ સંભવી પણું શકે છે અને કયારેક નથી પણ સંભવી શકતી.
For Private and Personal Use Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारले "देस कुल जाई रूधी, संहणणी, घिहजुओ अणार्ससी । अधिकत्थणो अमाई, थिरपरिघाडी गहियवको ॥ १ ॥ जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्थी देसकालभावन्न । भासन्नलपी , मानाविहदेसभासनम् ॥ १ ॥ पंचत्रिी आयारे, जुती सुत्तत्वतदुभयविहिन्न । आहरण हेउ उवणय,-नय निष्णो गाहणाकुसलो ॥३॥ ससमयपरसमयविऊ, गंभीरो दित्तिम सियो सोमो ।
गुणसयकलियो जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं ॥ ४ ॥ छाया-देशकुलजातिरूपी संहननी, धृतियुतः अनाशंसी।
अविकत्थनः आमायी, स्थिरपरिपाटी गृहीतवाक्यः ॥१॥ जितपरिषद् जितनिद्रो मध्यस्थो देशकालभावज्ञः । आसन्नलब्धप्रतिभो नानाविधदेशभाषाज्ञः ॥२॥ पञ्चविधे आचारे, युक्तः सूत्राथेतदुभयविधिज्ञः। आहरणहेतूपनय, नय निपुणो ग्राहणाकुशलः ॥३॥ स्वसमयपरसमयविद्, गम्भीरो दीप्तिमान शिवः सोमः ।
गुणशतकलितो युक्तः, प्रवचनसारं परिकथयितुम् ॥४॥ गाथार्थः-यो मुनिः देशकालकुल जातिरूपी-देशः आर्यदेशः, कुलं-विशुद्धः पितृवंशः, जाति: विशुद्रो मातृवंशः, रूपं शोभनाऽऽकृतिः, एतानि चत्वारि सन्त्यस्येति तथा भवति । अर्थात् यः आर्यदेशोत्पन्नः, विशुद्धपितमातवंशोद्भवः. रूपवांश्च भवति । तथा संहननी-दृढसंहननवान् । दृढसंहननी हि __ अब यह कहा जाता है कि यह अनुयोग किस प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट मुनिजन द्वारा किया जाता है-“देसकुल जाई रूवी" इत्यादि देश-जो मुनि आय देश में उत्पन्न हुआ हो (१) कुल जाति शुद्ध हो जिसका पितृवंश और जिसका मातृ वंश विशुद्ध हो (२) रूप-आकार जिसका शोभन हो (३) संहननी-जो दृढ संहनन वाला हो (४) धृति युक्त-अति गहन भी अर्थ में जिसे किसी भी प्रकार की
હવે એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે કયા કયા ગુણોથી (વિશેષણોથી) સંન વિશિષ્ટ મુનિજને દ્વારા આ અતુગમાં પ્રવૃત્તિ થઈ શકે છે
"देसकुल जाई' Uruilt(૧) જે મુનિ આચદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા હેય, (૨) જે મુનિના કુળજાતિ
डाय-से ना भात अन् ।पत विशु जाय, (3) ३५-२मन। MAR (भाव) सुंदर हाय, (४) सेडनानी- मुनि ६८ सहनना हाय, (५)
रकथयितुम् I
देशकालकुल
MNEजाति
For Private and Personal Use Only
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोपचन्द्रिका टीका-मु. ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् व्याख्यानादौ न श्राम्यतीति भावः । धृतियुतः-धृतिः अतिगहनेष्वप्यर्थेषु निर्धान्तता, परीपहोपसर्गसहने निश्चलता च, तया युतः युक्तः। अनाशंसी-वस्त्रसत्काराधनाकाक्षी। अविकत्थन: आत्मश्लाघा बर्जितो नाति बहुभाषी वा। अमायी -कपटवर्जितः । स्थिरपरिपाटी-स्थिरा-अतिशयेन निरन्तराभ्यासतः स्थैर्यमापन्ना परिपाटी-अनुयोगकरणक्रमो यस्य स तथा । यद्वा-गुरुपरम्पराप्राप्तज्ञाननिरन्तरपाठकः। एतादृशो हि सूत्रमर्थं च न कदाचिदपि विपरीतं करोति । गृहीतवाक्यः-गृहीतं वाक्यं वचनं यस्य स तथा, आदेयवचनवान् इत्यर्थः। तस्य हि अल्पमपि वचनं महार्थ मिव प्रतिभाति । मितपरिषद्-जिता परिषद् येन स ता, महत्यामपि परिषदि यः क्षोभं नोपयाति । जितनिद्रः-जिता निद्रा येन स तथा, रात्रौ सूत्रमर्थं च चिन्तयन् निद्राधीनो न भवतीत्यर्थः । मध्यस्था पक्षपातपर्जितः । देशकालभावज्ञः द्रव्यक्षेत्रकालभावज्ञानसम्पन्नः। आसन्नलब्धप्रतिभःप्रान्त न हो, तथा परीषह और उपसर्ग के सहने में जिसके निश्चिलता हो (५) अनाशंसी-वस्त्र सत्कार आदि की जिसके आकांक्षा न हो (६) अविकत्थन आत्मप्रशंसा से जो रहित हो अा व्यर्थ का जा बहुत भाषण करने वाला न हो (७) अमायी-कपट भाव से जो रहित हो (८) स्थिर परिपाटी-जिसका - अनुयोग करने का क्रम अतिशय निरन्तर अभ्यास के वश से स्थिरता को प्राप्त हो गया हो अथवा-गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञानका जो पाठक हो, (२) गृहीत पाक्य-जिसके वचन आदेय हों (१०) जित परिपत्-बडी भारी सभा में मी जो क्षोभ को प्राप्त न हो, ११, जितनिद्रः-रात्रि में भी जो सूत्र और अर्थ का चिन्तन करता हुआ निद्रा के वशवतीं नहीं होता हो १२, मध्यस्थ-परपात से जो रहित हो १३, देशकाल भावज्ञ-जो देश, काल भाव का शाखा નિયુકત-અતિ ગહન વિષયના અર્થ વિષે પણ જેમના મનમાં કોઈ પણ પ્રકારની જાતિ ન હોય. તથા પરીષહ અને ઉપસર્ગોની નિશ્ચલતાપૂર્વક જે સહન કરનારા હિય, દ, અનાશંસી વસ્ત્ર, સત્કાર આદિની આકાંક્ષાથી જેઓ રહિત હોય, ૭, અવિ. કથનજેઓ આત્મશ્લાઘાથી રહિત હોય અથવા નકામું લાંબું થોડું ભાષણ કરનાણા ન હથ. ૮, અમાથી જેઓ કપટભાવથી-માયાચારીથી રહિત હય, ૯, સ્થિરપરિયા નિરન્તર અભ્યાસને કારણે જેમને અનુગ કરવાને કમ સ્થિરતા યુકર્તા બન્યા હોય, ' અથવા ગુરૂપરમ્પરાથી પ્રાપ્ત જ્ઞાનના જેઓ પાઠક હેય, ૧૦, ગૃહીતવાય-જેમના ધથને આદેય (ગ્રહણ કરવા ગ્યો હોય. ૧૧, જિતપરિષદુ-ઘણું વિશાળ સભામાં પણ જેઓ ક્ષોભ અનુભવતા ન હોય. ૧૨, જિતનિદ્ર:-જેમણે નિદ્રા ઉપર પણ વિજય
પ્ત કર્યો હોય એટલે કે રાત્રે પણ નિદ્રાને અધીન થયા વિના જેઓ સુત્ર અને એનું ચિન્તન કર્યા કરતા હોય. ૧૩, મધ્યસ્થ-જેઓ પક્ષપાતથી રાહત હેય, ૧૪.શાહ
For Private and Personal Use Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारने आसन्न शास्त्रार्थ कर्तुं समीपे समागतं परवादिनं प्रति. ला प्रतिभा येन स तथा परवादिभिराक्षिप्तः शीघ्रमुत्तरदायीत्यर्थः। नानाविधदेशभाषाज्ञःअनेकदेशभाषाज्ञानसम्न्नः । पञ्चविधआचारे युक्तः ज्ञानादिपञ्चाचारे युक्तः । सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः। आहरणहेतूपनयनिपुणः- तत्र-आहरणं दृष्टान्तः, हेतुः= कारको ज्ञापकश्च । तत्र कारक - यथा घटस्य कर्ता कुम्भकारः। ज्ञापको यथा-घटानामभि' जकः प्रदीपः । उपनय:-उपसंहारः, नयाः नैगमादयः, एतेषु निपुणः= कुशलः । ग्राहणाकुशलः ग्राहणाय-शिष्याय सूत्रार्थतदुभग्राहणायां कुशलः । स्व समपरसम पवित्-स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्तज्ञानसंपन्नः। गम्भीरः अतुच्छस्वभावः। हो-अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव या जो जानने वाले हो १४, आसनलब्धप्रतिभः-शास्त्रार्थ करने के लिये निकट आये हुए परवादी को परास्त करने के लिये जिस की प्रतिभा तेज हो-अर्थात् परवादी से आक्षिप्त होने पर जा शीघ्र ही उत्तर दाता हो १५, नानाविध देशभाषाज्ञः-अनेक देशों की भाषाओं का जिसे ज्ञान हो १६, पञ्चविध आचारयुक्तः-ज्ञानाचार आदि पांच प्र ार के आचारों का जा पालन कर्ता हो, १७, मत्रार्थ तदुभय विधिज्ञःसूत्र अर्थ त । तदुभय सूत्रार्य श्री विवि का जानार हो १८, आहारण हेतूपनयननिपुणः-उदाहरण, हेतु, उपनय और य इनमें जो निपुण हो १९, ग्रहण कुशल-जो शिष्य को तत्व ग्रहण कराने में कुशल हो २०, स्वसमय पर समयवित्-जिस स्वसमय का और परसमय का अच्छी तरह से बोध-ज्ञान भाव-माहेश, ४. मन माना जाता हाय, द्रव्य. क्षेत्र, मन माना । २ राय, १५, “आसन्नलब्धप्रति" शाखा ४२वाने માટે પિતાની પાસે આવેલા પરવાદીને પરાસ્ત કરવાને ગ્ય પ્રતિભાથી જેઓ સંપન્ન હૈય-એટલે કે પરમતવાદીની સાથે જ્યારે ચર્ચા ચાલે ત્યારે તેના પ્રશ્નોને યોગ્ય, ઉત્તર આપીને તેને મતનું ખંડન અને પિતાના મતનું (રવ સમયનું) सभयान ४२वाने रे । स य छ, १६, “नानाविध देशभाषज्ञः" भने . भने देशी लापायानु सान डाय, १७, 'पञ्चविधआचारयुक्तः". ज्ञानाया माहि पांय ४२न। मायारानु पाखन ४२१॥२१ ५. १८, त्रार्थनदु भयविधिज्ञः'' --- 20 सूत्र, २१ तथा तदुमय (२५त्र माने अर्थ -न) सूत्रार्थना विपिन ४२ डाय, १८. "आहरणहेतूपनयनयनिपुणः” २५, तु उपनय भने नयमा यो नि हाय, २०, "ग्रहणकुशलः" । शियने तत्व अ५, ४२॥वामा पुश राय, २१, “स्वसमयपरसमयवित्" गो स्वसमय (न.सिद्धांत) 24ने ५२१ मयनुः (14द्धिांतानु. सा३ ज्ञान. ५२।11 साया
-
--
ना.
For Private and Personal Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् दीप्तिमान-परवादिभिरनुषणीयः । शिवः अकोन: यहा- त्र तत्र वा विहरन् लोका ल्याणकारी । सोमः-शान्तदृष्टिः। गुणशतकलित:-गुणाः दा दाक्षिज्यादयः तेषां शतानि, तैः कलित , इह शतशदो बहुत्ववाचकः । एतादृश एव मुनिः प्रवचनसारं- द्वादशाङ्गरूपप्रवचनार्थ परिकरितु रम्यक् प्ररूपयितु युक्तः योग्यः सम में भवती त्यर्थः उन.पञ्चविंशतिगुणयुन स्थ मुनेर्व वनं घृतपरिषिक्तवह्निरिव भाति । उक्तगुण हितसा वचनं तु स्नेहविहीनदीप इव न शोभते । एवं पविंशति गुणयुक्तेन मुनिना कस्य वाऽनुयोगः कसा शास्त्रसाऽनुयं गः वर्तव्य इत्यपि वक्ताम् । ताराणि- तस्य अनुयोगग्य द्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि । वक्ष्यते अग्रे स्वयमेव सूत्रकारः। त -अनुयोगस्य लक्षणं वक्तव्यम् । लक्षणं चैवमुक्तम्- .. हो २१, गंभीरः-जिसका ग्वभाव गहरा हो २२. दीप्तिमान् परवादियों द्वारा जो परास्त न किया जा सके २३, शिव-क्रोध जिसे न आवे, अथवा-इतस्ततः विहार करता हुआ जो लोक का कल्याणकारी हो २४, सोम-जिसकी दृष्टि शांत हो २६. और गुणशत कलित-सैकडों दयादाक्षिण्य आदि गुणों से जो युक हो, ऐसा मुनि द्वादशांगरूप प्रवचन के अर्थ को अच्छी तरह से प्ररूपित करने के लिये समर्थ होता है । इन २५, (पच्चीस) गुणों से युक्त मुनि के वचन घृत से सिंचित अग्नि के जैसे तेजस्वी होते हैं। परन्तु इन गुणों से रहित जो साधु होता है उसके वचन स्नेह से रहित दीपक की तरह शोभित नहीं होते हैं । इस प्रकार इन २५ गुणों से युक्त मुनि को "किस शास्त्र का अनुयोग कर्तव्य है यह भी कहना चाहिये । अनुयोग के जो उपक्रमः आदि द्वार कहे गये हैं-वे भी शिष्य को कहना चाहिये । अनुयोग के मेद" २२, "गंभीर" या स्थावे लार राय, २३, “दीप्तिमान् । सो सिमान साय-परमताही भने ५२ ४२वाने समय नउय, २४, ‘शिवा" જેમનામાં ફોધને અભાવ હોય અથવા અહીં તહીં વિહાર કરતા થકા જેઓ लानु क्या ४२११२॥ हाय, २५, 'साम'' रेमनी ष्टि भुसभुद्री शान्त होय, ''गुणशतकलितः' मने मी या क्षय माहिसे गुथी संपन्न હોય, એવા મુનિ જ ઢ દશાંગરૂપ પ્રવચનના અર્થને સારી રીતે પ્રરૂપિત કરવાને સમર્થ હોય છે, આ ૨૫ ગુણેથી યુકત મુનિનાં વચનો ઘી વડે સિંચિત અગ્નિના સમાન તેજસ્વી હોય છે પરંતુ આ ગુણેથી રહિત જે સાધુ હોય છે તેના વચને તેલથી રહિત દીપકના સમાન તેજ રહિત (પ્રભાવ રહિત) હોય છે.
આ પ્રકારના ર૫ ગુણોથી યુકત મુનિએ ક્યા શાસ્ત્રને અનુયોગ કરો જોઈએ, એ વાત પણ અહીં પ્રકટ કરવા અનુયાગના જે ઉપકમ આદિ દ્વાર
For Private and Personal Use Only
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोमबार ___“संहिता य पयं चेव, पयत्यो पर विगहो।
चालणा य पसीद्धी य छब्बिहं विद्धि लक्षणं । छाया--संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । - चालना च प्रसिद्धिश्च पविध विद्धि लक्षणम् ॥ तत्र-संहिता-अस्खलितपदोच्चारणम् । पदम्-वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहति , सुबन्तं तिङन्तं वा । पदार्थ:-पदस्य अर्थ:-अभिधेयः । पद विग्रहःप्रकतिप्रत्ययविभागरूपा विस्तारः । च-पुनः चालना-प्रश्नः । प्रश्ने सति प्रसिद्धिः =
समाधानं चेति षधिम् अनुयोगस्य लक्षणं विद्ध-जानीहि । व्याख्येयसूत्राय . अलियमुबघायजणयं' इत्यादि द्वात्रिंशद्दोषरहितत्वादिकं लक्षणं , वक्तव्यम् ।
कि जिन्हें सूत्रकार स्वयं ही आगे कहेंगे । अनुयोग का स्का लक्षण है यह भी शिष्य को समझाना चाहिये । अनुयोग का लक्षण इस प्रकार वहा है-"संहिता य" इत्यादि-अस्खलितरूप से पदों का उच्चारण करना इस का नाम संहिता है । उन्यान्यापेक्षावाले वर्षों की निरपेक्ष जो संहिता है उसका नाम अथवा सुबन्त और तिङन्त का नाम पद है। पद के अभिधेय का नाम पद विग्रह है। चालना नाम प्रश्न का है। प्रश्न के समाधान का नाम प्रसिद्धि है । ये छह प्रकार का अनुयोग का लक्षण है। यह लक्षण पहना चाहिये- तथा “अलि मुवघायजणयं" इत्यादि जो ३२, दोष कहे गये है उनसे रहित अनुगग होता है यह भी अनुयोग का लक्षण करना चाहिये । तथा यह भी कहना चाहिये कि अनुयोग को सुनने के लिये છે. તે પણ તેમણે શિષ્યને કહેવા જોઈએ. અનુગના પણ ભેદે શિષ્યને બતાવવા જોઈએ. તે ભેદનું નિરૂપણું સૂત્રકાર પોતે જ આગળ કરવાના છે. તેમણે શિષ્યને અનુગનાં લક્ષણે પણ સમજાવવા જોઈએ. અનુગનાં લક્ષણે નીચે પ્રમાણે છે."
"संहिता य" त्याह-4हानु मलित ३ या ४ तेनु नाम સંહિતા છે. અન્યની અપેક્ષાવાળા વણેથી નિરપેક્ષ જે સંહિતા છે તેનું નામ અથવા સુબત્ત અને તિન્તનું નામ પદ . પદના અભિધેયનું નામ પદાર્થ છે. પ્રકૃતિ પ્રત્યયન વિભાગરૂપ વિસ્તારનું નામ પદવિગ્રહ છે. પ્રશ્નને “ચાલના” કહે છે. પ્રશ્નના સમાધાનરૂપ ઉત્તરને પ્રસિદ્ધિ કહે છે. આ જ પ્રકારનું અનુયેગનું લક્ષણ છે. ગુરુએ मनुयोगना मा ७ सक्षाए। ५९ शिष्यने . तथा "अलियमबधा यजणयं" ઇત્યાદિ જે ૩૨ દોષ છે તે પણ કહેવા જોઈએ. આ ૩૨ દેથી અનુયેગ રહિત હોય છે, અને પણ શિષ્યોને કહેવું જોઈએ. વળી તેમણે શિયેને એ પણ સમજાવવું જોઈએ કે અનુગનું શ્રવણ કરવા માટે કેવા કેવા મુનિને એગ્ય ગણવામાં આવે છે. અનુગનું શ્રવણ કરવા માટે મુનિમાં નીચેની પાગ્યતાઓ હેવી જોઈએ,
For Private and Personal Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् बदहीः तस्य-अनुधागरण अर्हा:-धाग्या मुनयो वताः । तथाहि
पहुस्सुए चिरपनइए, कपिए य अचंचले । भटिए य मेहाची, अपरिभाविभो विक ॥१॥ म य अणुष्णाए, भावओ परिणामगे ।
एपारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहा ॥२॥ छाग-बहुत श्वरप्रवजिता, कल्पिकच अचञ्चलः ।
अवस्थितच मेधावी, अपरिभावितो विद्वान् ॥१॥ पात्रं चानुज्ञातः, भाषतः, परिणामकः । एतादृशो महाभागः, अनुयोगं श्रोतुमर्हति ॥२॥
यो मुनिः बहुश्रुतः शास्त्रज्ञः, चिरप्रवजितः-चिरकालगृहीतदीक्ष', 'कल्पिक: -गीतार्थः, अचञ्चल:चाञ्चल्यवर्जितः, अपस्थितः साधुमर्यादायां स्थितः, मेधावी
धुद्धिमान् , अपरिभावितः परिषहोपसगैरपरिभूतः, परतीर्थिकैरपरिभूतो था, विद्वान् पण्डितः-प्रभूताशेषशास्त्राभ्यासनिर्मलबुद्धिरित्यर्थः, पात्रं योग्यः, अनुशातःगुरुणाऽऽज्ञप्तः, तथा भावतः परिणामक भावपरिणामयुक्तश्च भवति । एतादृशो महाभागो मुनिरनुयोग श्रीतुमर्हति । ऐसा मुनि योग्य होता है-जो बहुस्सुए चिरपच्वइए" इत्यादि बहुतशास्त्रों का ज्ञाता हो, चिरकाल का दीक्षित हो, गीतार्थ हो चञ्चलता से "रहत हो, साधुमर्यादा में स्थर हो, वुद्धिशाली हो, परीषह और उपसगों से • या अन्यतीर्थिकजनों से अपरिभूत हो, विद्वान् हो,-अर्थात् अनेकशास्त्रों के अभ्यास से जिस की बुद्धि निर्मल हो अनुयम का पात्र हो गुरु से अनुग सुनने की जिसे आज्ञा मिल चुकी हो, और जो भावसे परिणामयुक्त हो ऐसा महाभाग मुनि अनुयोग को सुनने के योग्य होता है। गुरु को अनुयोग "सुनने वाली सभा का भी कथन करना चाहिये-उन्हें कहना चाहिये कि (: "बहुम्सुए चिरपव्वइए" त्याने माथ-(शासोना जता) राय, [Are
ને દીક્ષિત હય, ગીતાર્થ હય, ચંચલતાથી રહિત હોય, સાધુની મર્યાદાનું દઢતાપૂર્વક પાલન કરનાર હોય, બુદ્ધિશાળી હોય, પરીષહ, ઉપસર્ગો અને અન્યતીથિકે"પી જે અપરિભૂત (પરાસ્ત ન થાય એ) હેય, વિદ્વાન હેય-એટલે કે અનેકથા ના અભ્યાસથી જેની બુદ્ધિ નિર્મળ થયેલી હય, અનુગને પાત્ર હેયગુરૂએ જેને અનુગનું શ્રવણ કરવાની અનુજ્ઞા આપી હોય, અને જે ભાવની સાપેક્ષાએ રિણામયુકત હેય. એવા મહાભાગ મુનિને જ અનુગનું શ્રવણ કરવાને પાત્ર "માનવામાં આવે છે. ગુરૂએ અાગ શ્રવણ કરનારી પરિષદ કેવી હેવી
For Private and Personal Use Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४८
· अनुयोगद्वारसत्रे ' तथा-परिषद्-अनुयोगस्य ग्या परिषद् वक्तव्या । सा च सामान्यतन विधा भवति । तद्यथा
"जाणतिया अजाणंतिया य, तह दुन्विाया चेव ।
तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणतगं वोच्छं ॥१॥" छाया-जामामा अजानामा च, तथा दुर्विदग्धिका चैत्र । .
त्रिविधा च भव त परमत् स्या. नानास्वं वक्ष्ये ॥१॥
अयं भावः-परिषत् त्रिविधा : भवति,-ज्ञायकपरिपत्, . .अज्ञायकपरिषत्, दुर्विदग्धिका परिषदिति । तत्र-एकैकपरिपत्स्वरूपं लक्षयितुं प्रथमं शायकपरिषस्परूपमाह
"रणदोसबिसेसप्णू अणभिग्गहिया य. कुस्सुइमएसु । सा खलु जामगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवजा ॥१॥ खीरमिय रायहंसा, जे घुटुंति गुणे गुणसमिद्धा । .
द से वि य छड्डित्ता, ते यसहा धीरपुरिसत्ति ॥२॥ छाया-गुणदोपविशेषज्ञा अनभिगृहीता च कुश्रुतिमतेषु ।
सा खलु ज्ञायकपरिषत्, गुणतत्परा अगुणवर्जा ॥१॥ क्षीरमिय राजहंसा, ते पिबन्ति गुणान् गुणसमृद्धाः । दोषानपि च त्यक्त्या, ते वृषभा धीरपुरुषा इति ॥२॥
अयं भावः-या परिषद् गुणदोषान् विशेषतो जानाति । कुतिमतेषु आग्रहवती न भवति । एवंविधा गुणेषु तत्परा अगुणेभ्यो र हता परिषत्ज्ञायक अनुयोग को सुनने के यंग्य ऐसी परिपत् होती हैं-अर्थात् परिषत् सामान्य से ३, प्रकार की होती है-एक ज्ञायक परिषत्, दूसरी अज्ञायक परीपत् और ३ तीसरी दुर्विदग्धिका परिषत् । यही बात "जागतिया” इत्यादि गाथाद्वारा प्रकट की गई है। इनमें से ज्ञायक परिपत् का स्वरूप इस प्रकार से हैं-गुणदोंस विसेसण्णू "इत्यादि-जो परिषद् गुण और दोपां को विशेषरूप से जानती है જોઈએ તે પણ શિષ્યને સમજાવવું જોઈએ. તેમણે તેને એ વાત સમજાવવી જોઈએ કે અજુગતું શ્રવણ કરનારી પરિષદમાં આ પ્રકારની યેગ્યતા હોવી જોઈએ-પરિષદના સામાન્ય રીતે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે, તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે-૧, જ્ઞાયક પરિદ, ૨, અજ્ઞાયક પરિષદ અને ૩. દુર્વિદમ્પિકા પરિષદ या पात "जाणंतिया" त्या था द्वारा ट ४२वामी की छ..
शायपरिवहनु २१३५ 24॥ २ सय छ-. .. ... .. "गुणदोसविसेसम्णू: -२ प२ि५६ गुण भने होपान विशेष३
જાણતી હોય છે, અને બેટાં શાસ્ત્રોની માન્યતાઓને જે માનતી નથી–ટાં શાસ્તોને
For Private and Personal Use Only
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् परिषदुच्यते । अत्र परिषदि ये नरा भवन्ति, ते गुणसमृद्धा भवन्ति ।
यथा गजहंसा सजलदुग्धाद् जलं विहाय दुग्धमेव पिवन्ति, तथैव एते दोषान् विहाय गुणानेव गृह्णन्ति । एते हि धर्मधुराधागणे वृषभः इव उद्युक्ता भवन्ति । अत एव एते धीरपुरुषा उच्यन्ते, इति ज्ञायक-परिषत् ।
अथ-अज्ञायकपरिषत्स्वरूपमाह"जा होइ पगइमुद्धा मिगसावगसीहकुकुडगभूया।
रयणमिव असंठविया, सुहसंणप्पा गुणसमिद्धा ॥१॥ छाया-या भवन्ति प्रकृतिमुग्धा मृगशावकसिंहकुक्कुटकभूता ।
रत्नमिवासंस्थापिता सुखसंज्ञाप्या गुणसमृद्धा ॥१॥
अयं भावः-या परिषत् प्रकृतिमुग्धा-प्रकृत्या-स्वभावेन मुग्धा भद्रभावसंपन्ना, मृगशावकसिंहकुक्कुटकभूताः-तव मृगशावकाः हरिणशिशवः, सिंहाः-सिंहऔर खोटे शास्त्रों को मानने वालों के मत में जिसे आग्रह नहीं होता है वह परिषत् ज्ञायक परिषत् है । ऐसी परिषत् गुणों में तत्पर और अगुणों से रहित होती हैं। इस परिषत् में जो मनुष्य होते हैं वे गुणसमृद्ध होते हैं । जैसे राज हंस जलसहितदुग्ध मेंसे जल का परित्याग कर दूध का ही पान करते हैं
से ही यह परिषत् दोषों को छोड कर गुणो को ही ग्रहण करती है। इस परिषद के सदस्यजन धर्म की धुरा को धारण करने में वृषभ की तरह सदा उद्योगशील रहा करते हैं। इसलिये ये धीर पुरुष कहलाते हैं । अज्ञायक परिषत् का स्वरूप इस प्रकार से है-"जा होइ पगइ मदा" इत्यादि-जो परिषत् स्वसाव से भद्रभावयुक्त होती है । तथा मृगशिशु, सिंहशिशु और कुक्कटशिशु के मान जिसके सदग्य सरल भाव वाले होते हैं-एवं जो खान से निकले हुए મનનારા લોકોના મનમાં જેને બિલકુલ શ્રદ્ધા હોતી નથી એવી પરિષદને ગાયક રિષદ કહે છે. એવી પરિષદ ગુણગ્રાહી અને અગુણોથી રહિત હોય છે. આ પરિ દમાં એકત્ર થયેલા મનુષ્ય ગુણસમૃદ્ધ હોય છે. જેવી રીતે રાજહંસ જલમિશ્રિત ધમાંથી દૂધને જ ગ્રહણ કરે છે અને જળને પરિત્યાગ કરે છે. તેમ આ પરિષદ ણ દેને પરિત્યાગ કરીને ગુણોને ગ્રહણ કરે છે. આ પરિષદના સભ્ય ધર્મની રાને ધારણ કરવામાં વૃષભની જેમ સદા ઉદ્યોગશીલ રહે છે. તે કારણે તેમને રૂ પુરૂષ માનવામાં આવે છે.
અજ્ઞાયક પરિષદનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું હોય છે–
"जा होइ पगइभद्दा" त्याह-२ परिपहना सन्यो स्वलानी अपेक्षा દ્રભાવ (સરલતા)થી યુક્ત હોય છે. જેના સભ્ય મૃગશિશુ સિંહશિશુ અને કુકડાના
For Private and Personal Use Only
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगटारसने शावकाः, कुक्कुटकाः कुक्कुटकशावकाः-तद्भूताः तत्सदृशा । 'सिंहकुक्कुट' शब्दौ अत्र तत्तच्छावकपरौ । तज्जना हरिणशिशुसिंहशिशुकुक्कुटशिशव इव अत्यन्त सरल इत्यर्थः।
तथा-रत्नमिव असंस्थापिता-सहजरत्नमिवासंस्कृता भवति । सा परिषत् सुखसंज्ञाप्या अनायासबोधनीया गुणसमृद्धा-गुणगणयुता च भवति । किं च
"जा खलु अभावियाकुस्सुइहिं न य ससमए गहियसारा ।
अकिले सकरा सा खलु, वहरं छक्कोडिसुद्धं व ॥" छोया-या खलु अभाविता कुश्रुतिभिः, न च स्वसमये गृहीतसारा ।
अक्लेशकारी सा खलु वज्र षट्कोटिशुद्धमिव ॥२॥
अयं भावः-या परिपत् कुश्रुतिभारभाविता भवति, न च स्वसमये गृहीत सारा स्वसिद्धान्ताभिज्ञा च न भवति, अक्लेशकारी-क्लेशोत्पादिका न भवति, या च षटकोटिशुद्धं सर्वथा शुद्ध वज्रमिव हीरक इव विशुद्धा भवति, सा खल्व ज्ञायकपरिषदुच्यते । इति ॥
सम्प्रति दुर्विदग्धपरिषदुच्यते"न य कत्थ वि निम्माओ, न य पुच्छड् परिभवस्स दोसेणं । बत्थिव वायपुष्णो, फुट्टइ गामेल्लग वियत ॥१॥ किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य ।
दुवियटुंगा उ एसा, भणिया तिविहा इमा परिसा" ॥२॥ रत्न के समान असंस्कृत होते हैं। और इसी से जिन्हें समझाना बहुत सरल होता है-अर्थात् जो थोड़े से कहने में ही सन्मार्ग पर आ जाते हैं। ये सव गुणगण से युक्त रहा करते हैं। "जा खलु अभाविता" इत्यादि--यह परिषत् कुतियों के बहकावे में नही आती है और अपने सिद्धान्त के पीछे यह लहना झगडना नहीं जानती है। षट्कोटि शुद्ध हीरे के समान यह परिपत् विशुद्ध होती है। दुर्विदग्ध परिषत् का स्वरूप इस प्रकार से है-"नय कत्थ वि" इत्यादि-जो पुरुष किसी भी विषय में निष्णात न हो और जो पुरुष શિશુ સમાન સરલભાવથી યુકત હોય છે. અને ખાણામાંથી નીકળેલા રત્ન સમાન જે અસંસ્કૃત હોય છે. જે પરિષદાને ધર્મતત્વ સમજાવવાનું કાર્ય ઘણું જ સરલ હોય छ. मेवा शुशथी युत परिवहन अज्ञाय परिषद ४१ छ. "जा खलु अभावित्ता" કુશાસ્ત્રો આ પરિષદને બહેકાવી શકતાં નથી અને તે પરિષદ સ્વ સિદ્ધાંતથી અભિન્ન પણ હોતી નથી. સિદ્ધાન્તને નામે તને ઝગડા કરતા પણ આવડતા નથી. ષટ્રટિ શુદ્ધ હીરા સમાન વિશુદ્ધ આ પરીષદ હોય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् छाया-न च कुत्रापि निर्मातो न च पृच्छति पारभवस्य दोषेण ।
बस्तिरिव वातपूर्णः स्फुटति ग्रामयकोऽविदग्धः ॥१॥ किंचिन्मात्रग्राहिणी, पल्लवग्राहिणी त्वरितग्राहिणी च । दुर्विदग्धा त्वेषा भणिता, त्रिविधेयं परिषत् ॥२॥ यो नरः कुत्रापि विषये निष्णातो न भवति ।
परिभवस्य दोषेण अपमानदंषेण चान्यं जनं वस्तुतत्त्वं न पृच्छति । 'यद्यहमेनं प्रक्ष्यामि तव ममाप्रतिष्ठा स्यादिति हेतो स्तत्त्वज्ञजनकाशात् तत्त्वज्ञानं लब्धं न यतते इति भावः । एतादृशो ग्रामेयको -ग्राम्यः-संस्कारवर्जितः अविदग्धः-अनिपुणः पुरुषः, वातपूर्णी बस्तिरिव स्फुटति -स्थूलो भवति अहंकारी भवतीत्यर्थः किंच-य किञ्चिन्मात्रग्राही भवति, निष्णात हैं उनसे वह इस अभिप्राय से वस्तुतत्त्व को नहीं पूछता हो कि इन से पूछने पर मेरी अप्रतिष्ठा-अवज्ञा-होगी इसी कारण वह तत्त्वज्ञान प्राप्ति में प्रयत्नशाली नहीं होता है ऐसी व्यक्ति सत् ज्ञान के संस्कार से रहित बन कर केवल अविदग्ध-अनिपुण बना रहता है और वायु से पूर्ण धमनी के समान अपने अभिमान में फूला रहता है। इसी तरह जो थोडा बहुत जानता हैं तथा पल्लवग्राही पांडित्र-जिसके पास में है, जो त्वरितग्राही है-कहने पर शीघ्र समझतो लेता है-पर फिर विस्मृत हो जाता है-फिर भी ज्ञानि के अहंकार में तत्पर रहता है ऐसे इन व्यक्तियों की सभा का नाम दुर्विदग्धा .समा है । तात्पर्य इस का यह है कि बोध लव होने पर जो अपने आप * દુવિદગ્ધ પરીષદનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું હોય છે.
'नय कत्थ वि" त्या-1 मे पु३५ २५भु वा५यमा नीति नथी. તે વિષયમાં બીજી કોઈ એક વ્યક્તિ નિષ્ણાત છે, પરંતુ પહેલી વ્યક્તિ બીજી વ્યક્તિને વસ્તુતત્વ વિષે એ કારણે પૂછતી નથી કે તેને પૂછવાથી મારી અપ્રતિષ્ઠા થશે. આ પ્રકારના અભિમાનને કારણે તે તત્ત્વજ્ઞાન-પ્રાપ્તિમાં પ્રયત્નશીલ રહેતું નથી. એ માણસ સાચા જ્ઞાનના સંસ્કારથી રહિત જ રહેવાને કારણે અવિદગ્ધ-અનિપુણ જ રહે છે. એ માણસ હવાથી ભરેલી ધમણ સમાન અભિમાનથી ફૂલાયા જ કરે છે, આ પ્રકારના અધકચરા જ્ઞાનવાળાને અર્ધદગ્ધ કહે છે. આ પ્રકારના અર્ધદગ્ધ, છીછરા જ્ઞાનવાળા, ત્વરિતગ્રાહી (કઈ વાત કહેવામાં આવે તે શીધ્ર સમજી લેનારા પણ પાછળથી તેને ભૂલી જનારા માણસે જ્ઞાનના અભિમાનમાં તત્પર રહેતા હોય છે. એવી વ્યક્તિની સભાને ટુર્વિદગ્ધા પરિષદ કહે છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેઓ પિતાને વિશિષ્ટ તત્તવજ્ઞાની માની રહ્યા છે, અને જે વારંવાર સમજાવવા
For Private and Personal Use Only
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबारसूत्रे पल्लवग्राही त्वरितग्राही भवति । तेषां परिषद् दुर्विदग्धा । इत्येवमुक्तरीत्या त्रिविधा परिषद् विज्ञेया । इहाद्ये उभे अनुयोगाहें, तृतीया तु अनुयोगानीं । एतत्सर्वमुक्त्वा सूत्रार्थों वक्तव्यः । इत्येवमनुयोगस्य द्वादश द्वाराणि वक्तव्यानि भवन्ति । सूत्रकारस्तु शेषाणि द्वाराण्युपलक्षयितुं 'कस्य शास्त्रस्यायमनुयोगः ?' इति सप्तमं द्वारं चेतसि निधाय "जइ सुयनाणरस उद्देसो' इत्यारभ्य 'इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवरसगरस अणुओगो' इति यावदुक्तवान् ॥मू० ५॥ को विशिष्ट तत्त्वज्ञानी मान बैठे हैं और समझाने पर भी जो अपने झूठ आग्रह को छोडते नहीं हैं ऐसे व्यक्ति दर्विदग्ध कहे गये हैं। इन की सभा का नाम दुर्विदग्ध सभा है । इस प्रकार इन तीन सभाओं में से आदि की दो सभाएं तो अनुयोग के योग्य हैं, परन्तु जो तीसरी सभा है वह अनुयोग है वह अनुयोग के योग्य नहीं हैं ।
यह सब अनुयोग से लगता हुआ विषय पहिले कहकर अनुयोगाचार्य को सूत्रार्थ का कथन करना चाहिये । इस प्रकार ये अनुयोग के १२ द्वार हैं। इन बारह द्वारों को अनुयोगाचार्य के विषय कहना चाहिये। सूत्रकारने यद्यपि इन १२ द्वारों का यहां कथन नहीं किया है तो भी उन्होंने शेष द्वारों को उपलक्षित करनेकेलिये “कस्य शास्त्रस्य अयम्-अनुयोगः" इस सप्तमद्वार को चित्त में रखकर-"जइ सुयनाणस्स उदेसो' यहां से प्रारंभ करके "इमं पुण पट्ठवणं पड्डुच्च आवस्सगस्स अणुओगो' यहां तक कहा है। स्थिर परिपाटी
છતાં પણ પિતાના દુરાગ્રહને છેડતા નથી, જેઓ જ્ઞાની પુરુષની વાત સમજવાને પણ તત્પર નથી એવાં પુરુષને દુવિદગ્ધ કહે છે અને એવા પુરુષની સભાને દુર્વિદગ્ધ પરિષદ કહે છે. આ ત્રણ પ્રકારની જે પરિષદે કહી તેમાંની પહેલા બે પ્રકારની પરિષદે તે અનુગને પાત્ર ગણાય છે, પણ ત્રીજા પ્રકારની જે દુવિધ પરિષદ છે, તેને અનુયેગને પાત્ર ગણું નથી, અનુયોગને લગતું આ બધું કથન સૌથી પહેલાં કરવું જોઇએ. ત્યારબાદ જ અનુગાચાર્યું સૂત્રાર્થનું કથન કરવું જોઈએ. આ પ્રકારના તે અનુયેગના ૧૨ દ્વાર છે. તે બાર દ્વારેનું અનુગાચાર્યો શિષ્ય આગળ કથન કરવું જોઈએ. જો કે સૂત્રકારે બે ૧૨ દ્વારેનું કથન અહીં કર્યું
थी, छतi पY मान द्वाराने मक्षित ४२निमित्त "कस्य शास्त्रस्य अयम् अनुयोगः" "४या सूत्रने! ॥ अनुयाय छ,” मा सातमा नेयमा पा२५ ४शने “जइ सुयनाणस्स उद्देसो" मा सुत्रपाथी २३ ४२ "इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो' या सूत्रपाठ ५-तनु ४यन यु छे. "५२ परिपाटी" मा विशेष
For Private and Personal Use Only
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ६ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ___ मूलम्-आवस्सयं णं कि अगं अंगाई ? सुयं सुयाइं ? खंधो खंधा ? अज्झयणं अज्झयणाई ? उदेसो उदेसा? । आवस्सयं णं नो अंग, नो अंगाई, सुयं, नो सुयाई, खंधो, नो खंधा, नो अज्झयणं, अज्झयणाई, नो उदेसो, नो उदेसा ॥ सू०६॥
छाया-आवश्यकं खलु किम् अङ्गम् अङ्गानि ? श्रुतं श्रुतानि ?, स्कन्धः स्कन्धाः ? अध्ययनम् अध्ययनानि ?, उद्देशः उद्देशाः ? । आवश्यकं खलु ना अङ्गं, नो जो विशेषण बतलाया गया है वह यह प्रमाणित करता है कि इस विशेषणवाला मुनि कभी भी सूत्र और अर्थ को विपरीत नही करता है । जो आदेय वचनबाला मुनि होता है-उसके थोडे भी वचन महार्थ से भरे हुए जैसे मालूम होते हैं। आहरण नाम उदाहरण का है। हेतु दो प्रकार का होता है१ एक ज्ञापक हेतु और दूसरा कारक हेतु-घटका-अभिव्यंजक दीप घटका ज्ञापक हेतु है । घटका कर्ता कुंभकार-घटका कारक हेतु है। उपसंहार का नाम उक्नय है। नैगमादि सात नय हैं। सूत्र ५॥ ___ "आवस्सयं णं इत्यादि । ॥सूत्र ६॥
शब्दार्थ--(आवस्मयं णं) आवश्यक सूत्र (किं अंगम्) क्या १ एक अंग रूप है ? (अंगाई) या अनेक अंगरूप है ? (सुयं सुयाई) एक श्रुतरूप है ? या अनेक श्रुतरूप है ? (खंधो खंधाई?) एक स्कंधरूप है ? या अनेकस्कंध रूप है ? (अज्झयणं अज्झयणाई) एक अध्ययनरूप है-या अनेक अध्ययनरूप है ? (उद्देसो उद्देसा) एक उद्देशरूप है या अनेक उद्देशरूप है ?એ વાતનું સમર્થન કરે છે કે આ વિશેષણવાળે મુનિ કદી પણ સૂત્ર અને અર્થનું વિપરીત કથન કરતા નથી. જે મુનિ આદેયવચનથી યુક્ત હોય છે, તેમના દેહાં વચને પણ મહા અર્થથી ભરેલા લાગે છે. “આહરણુ” એટલે ઉદાહરણ અથવા દષ્ટાન્ત હેતુ બે પ્રકાર હોય છે–(૧) જ્ઞાપકહેતુ અને (૨) કારક હેતુ ઘટને અભિવ્યંજક દીપક ઘટના જ્ઞા૫ક હેતુરૂપ છે. ઘટનું નિર્માણ કરનાર કુંભકાર (કુંભાર) ઘટના કારકહેતુરૂપ છે. ઉપસંહારનું નામ ઉપગમ છે. નૈગમ આદિ સાત નય છે. સૂત્ર ૫
"आवस्सयं णं" त्याटि___शहाथ-(आवस्सयं णं अंगम् अंगाई?) यावश्य: सूत्र शु मे ॥३५ छ, है मन म३५ छे ? (सुयं सुयाई) शुते से श्रुत३५ छ, अने श्रुत. ३५ छ १ (खंधो खंधाई ?) शुत मे २४५३५ छ, ३ भने २४५३५ छ ? (अज्झयणं अज्झयणाइ' १) शुत मे अध्ययन३५ छ, , भने अध्यय ३५ छ ? (उद्देसो उद्देसा ?) ते मे हे।३५ छ, भने २३५ छ ?
For Private and Personal Use Only
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारसूत्र अङ्गानि. अतम, नो श्रुतानि, स्कधः नो स्कघाः नो अध्ययनम् अध्ययनानि, नो उदेशो नो उद्देशाः ॥सू० ६॥
टीका-'आवस्सयं णं' इत्यादि
आवश्यकं खलु किं द्वादशान्तर्गतमेकमङ्गमिदम् ? किं वा अङ्गानि-बहून्यगानि। तथा किं श्रुतं श्रुतानि ? आवश्यकं किमेकश्रुतरूपं किंवाऽनेकश्रुतरूपम् ? तथा किं स्कन्धः स्कन्धाः-किमेकः स्कन्धः, बहवो वा स्कन्धाः !। तथा अध्ययनम् अध्ययनानि आवश्यकमिदं किमेकमध्ययनं किं वा बहून्यध्ययनानि। तथा उद्देश-उद्देशा वा-किम्-एक उद्देशा वा बहवो वा उद्देशाः इति दश प्रश्नाः।
उत्तरयति-'आवस्सयं णं' इत्यादि । आवश्यकं खलु नो एकाङ्गरूपं नैवा
उत्तर-(आवस्सयं णं नो अंगं नो अंगाई) अनंग प्रविष्टरुप श्रुत होने के कारण आवश्यक सूत्र-न एक अंगरूप है। और न अनेक अंगरूप है। "सुयं नो सुयाई" यह तो एक श्रुतरूप है । अनेक श्रुतरूप नहीं है। (खंधो नो खंगा) एक स्कंधरूप है, अनेक स्कंधरूप नहीं है। (नो अज्झयणं, अज्झयणाई) षड् अध्ययन स्वरूप होने से यह एक अध्ययनरूप नहीं हैं किन्तु अनेक अध्ययनरूप है । (नो उद्देसो नो उद्देसा) यह न एक उदेशरूप है और न अनेक उद्देशरूप है। इसका तात्पर्य यह है कि यह आवश्यक मत्र एक श्रुत स्कंधात्मक और पडू अध्ययनरूप हैं। यह एक अंगरूप और अनेक अंगरूप नहीं है। अनेक श्रुतस्कंधरूप नहीं है और न एक अध्ययनात्मक है, न एक.और अनेक उद्देशरूप ही है। ___शंका-यहां ये दो प्रश्न हैं कि “यह आवश्यक सूत्र १ अंगरूप है या अनेक अंगरूप है" करने योग्य ही नही प्रतीत होते-क्यों कि यह सूत्र नन्दि
उत्तर-(आवस्सयं णं नो अंग नो अंगाई) मा प्रविष्ट श्रुत३५ पाने કારણે આવશ્યક સૂત્ર અક અંગરૂપ પણ નથી, અને અનેક અંગરૂપ પણ નથી. (सुर्य नो सुयाइ) ते मे श्रुत३५ १ छ. भने श्रुत३५ नथी, (खंधा नो खंधा) त: २४३५ छ, भने २४५३५ नथी, (णो अज्झयणं, अज्झयणाई) ते ६ અધ્યયનેવાળું હોવાને લીધે તેને એક અધ્યયનવાળું કહી શકાય નહીં, પણ અનેક मध्ययनवाणु ४डी शाय. (नो उद्देसो, नो उद्देसा) ते मे ७६५३५ पशु नयी અને અનેક ઉદ્શરૂપ પણ નથી. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-આવશ્યક સૂત્ર એક શ્રુતસ્કંધાત્મક અને છ અધ્યયનવાળું છે, તે એક અંગરૂપ પણ નથી અને અનેક અંગરૂપ પણ નથી, તે અનેક શ્રતસ્કંધરૂપ પણ નથી, તે એક અધ્યયનાત્મક પણ નથી, અને એક અથવા અનેક ઉદ્શરૂપ પણ નથી. : શંકા–“આવશ્યક સૂત્ર એક અંગરૂપ છે? કે અનેક અંગરૂપ છે?” આ બે પ્રશ્નો અહીં પૂછવા જોઈતા ન હતા, કારણ કે આપે જ આગળ એવી વાત કરી
For Private and Personal Use Only
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका ६ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् नेकाङ्गरूपम् अग्यानङ्गप्रविष्टत्वात् । श्रुतम्-इदमेकश्रुतरूपमस्ति नो श्रुतानि-बहुश्रतात्मकं च नास्ति । स्कन्धः-इदमे स्कन्धरूपं नतु स्कन्धाः-बहुस्कन्धात्मकं न भवति । नो अध्ययनम्-नैकाध्ययनरूपम, किन्तु अध्ययनानि-पडध्ययनात्मकतयाऽनेकाध्ययनरूपम् । नो उद्देशः-इदं नैकोद्देशरूपम्, नो उद्देशाः-न बहूद्देशात्मकमित्यर्थः। ____ अयं भावः-इदम् आवश्यकम् एकश्रतात्मकत्वात् श्रुतभएक स्कन्धात्मकत्वात् स्कंधः षडध्ययनात्मकत्वात् अध्ययनानि च, किन्तु नो अङ्गम, नो अङ्गानि, नो श्रुतानि, नो स्कन्धाः, नो अध्ययनम्, नो उद्देशः, नो उद्देशा वा।
नचावश्यकम्-अङ्गम् अङ्गानि वा ? इति प्रश्नद्वयमकरणीयमेव, नन्दिसूत्रेऽस्यानङ्गप्रविष्टत्वेनोक्तत्वात्, अत्र तृतीयसूत्रे-'इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अणंगपविट्टस्स अनुओंगो' इत्यनेनास्य सूत्रस्यानङ्गप्रविष्टत्वेनोक्तत्वात् ? इति चेत्, उच्यते-यत्तावदुक्तम्-नन्दिसूत्रेऽस्यानङ्गप्रनिष्टत्वमुक्तम्, अतोऽत्र सूत्रेऽरयाङ्गत्वविषये प्रश्नोऽयुक्त इति, तदयुक्तम्, यतो नास्ति कोश्चदेवंविधो नियमो यत्प्रथमं नन्दिसूत्र व्याख्यायैवेदं सूत्रं व्याख्येयम, कदाचिदनुयोगद्वारं व्याख्यायैव नन्दिसूत्र' सूत्र में अनंग प्रविष्ट रूप से कहा गया है। तथा इसी सूत्र के तृतीय सूत्र में "इमं पुण पटवणं पडुच्च अणंगपविठ्ठस्स अणुओगो" इस अंशद्वारा भी इसी बात को कहा है कि यह सूत्र अनंग प्रविष्ट श्रुतरूप है । अतः अनंगप्रविष्ट होने के कारण इस मंत्र के प्रति ये पूर्वोक्त दो प्रश्न अकरणीय ही हैं। उत्तर-इस बात को लेकर कि नन्दिसूत्र में इस सूत्र के अनंग प्रविष्ट कहा है। इसलिये सूत्र में अंगत्वविषयक ये दो प्रश्न अयुक्त हैं सो ऐसा कहना ठीक नहीं है क्यों कि इस प्रकार का कोई नियम तो है नहीं कि पहिले नन्दिसूत्र का व्याख्यान करके ही इस मूत्र का व्याख्यान करना चाहिये। कदाचित् ऐसा भी हो सकता है कि पहिले इस अनुयोगद्वार सूत्र का व्याख्यान कर છે કે આવશ્યક સૂત્રને નદિસૂત્રમાં અનંગ પ્રવિઝ (અંગબાહ્ય) સૂત્રરૂપે કહેવામાં मान्यु छ. जो मा अन्यना श्री सूत्रमा ४ "इमं पुण पट्टबणं पडुच्च अगंगपविट्टम्स अणुओगो" २१॥ सूत्रांश द्वारा ५६९ मावश्य४ सूत्रने मन प्रविष्ट श्रुत રૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. આ રીતે તેને અનંગપ્રવિષ્ટ થતરૂપ પ્રકટ કર્યા બાદ ઉપર્યુકત બે પ્રશ્નો શું અસ્થાને નથી? આ પ્રકારના પ્રશ્ન ફરી પૂછવામાં શું પુનરુકિત દેષની સંભાવના રહેતી નથી?
ઉત્તર–નન્તિસૂત્રમાં આવશ્યક સૂત્રને અનંગ પ્રવિષ્ટ કૃતરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે, તેથી આ સૂત્રને અનુલક્ષીને અંગત્વ વિષયક જે બે પ્રશ્નો પૂછવામાં આવ્યા છે, તે પ્રશ્નાને અયુક્ત ગણવા તે ઉચિત નથી, કારણ કે એ કોઈ નિયમ તે નથી
For Private and Personal Use Only
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५६
अनुयोगद्वारसूत्रे
व्याख्येयं भवेत् । किञ्च यदि नन्दिनुत्रेऽस्या बाह्यत्वे निर्णीते पुनरस्याङ्गत्वविषये प्रश्नो निरर्थव स्तर्हि 'जइ सुयनाणरस उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो य पवतह, किं अंगपविहरस... किं अंगवाहिरस्स..' इत्यदि वतीयसूत्रो पन्यास एव निरर्थकः स्यात्, अतो नास्ति नन्दिसत्रा नुयोगद्वारसूत्रयेाः पौर्वापर्यभावः, अतोऽस्याङ्गत्वविषये प्रश्नः समीचीन एव ।
ननु मङ्गलार्थं नन्दिसूत्रमेव प्रथमं व्याख्यातव्यम् ? इति चेदुच्यते तदपि न नन्दित्रेऽपि ज्ञानपठचक कीर्त्तनस्यै व मङ्गलत्वम्, तच्चेहाऽप्यस्तीति मङ्गलस्यापि नन्दित्रस्य प्रथमव्याख्याने प्रयोजनाभावात् । यच्च क्तम्- 'इमं पुण पट्टवणं'
के बाद में व्याख्याता नन्दिसत्र का व्याख्यान करदें । किञ्च - यदि नंदि सूत्र में इसमें अं गवाह्यता का निर्णय होने से अंगत्व विषयक प्रश्न निरर्थक है ऐसा ही मान लिया जावे तो फिर "जइ सुयनाणस" इत्यादि तृतीय सूत्र का उपन्यास ही निरर्थक हो जाये गा । इसलिये नंन्दिसत्र और अनुयोगद्वारसूत्र इनमें पौर्वापर्यभाव नहीं है अतः अंगन्व विषयक प्रश्न इसके ऊपर जो किया गया है वह समीचीन ही है ।
शंका- मंगल के निमित्त नन्दिमुत्र ही प्रथम व्याख्यान करने योग्य हैं अतः इस तरह इन में पौर्वापर्यभाव आ जायगा सो ऐसी भी बात नही है क्यों कि नन्दिसत्र में भी पांच ज्ञानों के कथन से जिस प्रकार मंगलता है उसी प्रकार से वह मंगलता इसमें भी है। क्योंकि यहाँ पर भी पांच ज्ञानों જ કે પહેલાં નન્દિત્રનું વ્યાખ્યાન (કથન) કર્યાં બાદ આ સૂત્રનું વ્યાખ્યાન કરવું ન જોઇએ. કદાચ એવું પણ સાંભવી શકે છે કે પહેલાં આ અનુચેગ દ્વાર સૂત્રનું વ્યાખ્યાન કરીને ત્યારબાદ વ્યાખ્યાતા નન્દિસૂત્રનું વ્યાખ્યાન પણ કરે.
વળી એવુ' જ માની લેવામાં આવે કે નન્દિસૂત્રમાં આ સૂત્ર (આવશ્યક સૂત્ર) ની અંગબાહ્યતાના નિર્ણય થઈ ગયા હૈાવાથી-અગત્વ વિષયક જે પ્રશ્ના પૂછવામાં याव्या छे ते निरर्थं लागे छे, मेवी परिस्थितिमां तो " जइ सुयनाणरस" इत्यादि ત્રીજા સુત્રના ઉપન્યાસ જ નિરર્થીક બની જશે, નન્તિસૂત્ર અને અનુયાગઢારસત્રમાં પાર્વોપ ભાવને સદૂભાવ નથી, તેથી તેને અનુલક્ષીને અગત્વ વિષયક જે પ્રશ્ના પૂછવામાં આવ્યા છે તે ઉચિત જ છે.
શ'કા—મંગળનિમિત્તની અપેક્ષાએ તેા નન્દિત્ર જ પ્રથમ વ્યાખ્યાન કરવા ચેાગ્ય È, તે કારણે તે બન્નેમાં પૌર્વાપ ભાવના સદૂભાવ પણ સંભવી શકે છે. ઉત્તર—એવી વાત પશુ નથી, કૉણુ કે નન્તિસૂત્રમાં પણ પાંચ જ્ઞાનના કથનથી જેવી મ’ગળતાના સદ્ભાવ છે, એવી જ મ"ગળતાના આ સૂત્રમાં પશુ સદૂભાવ છે,
For Private and Personal Use Only
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका ६ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
५७
इत्यादिनाऽस्यानङ्गत्वमुक्तमेव, पुनरस्थ्य। ङ्गत्वविषये प्रश्नोऽसमीचीन एवेति तत्सत्यम्, परन्तु विस्मरणशीलानामल्पबुद्धिमतां शिष्याणामनुग्रहार्थ मेवायं प्रश्नः इत्यस्यासत्त्वविषये प्रश्नो निर्दुष्ट एवेति बोध्यम् ॥ म्र० ६ ॥
"
'इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो' । इत्यनेन 'आवश्यकम् ' इति सूत्रनाम निणीतम्, तथाऽनन्तरोक्तेषु दशसु प्रष्वावश्यकं श्रुतत्वेन स्कंध - त्वेनाध्ययनकलापात्मकत्वेन च निर्णीतम्, तस्मात् प्रकृते किम् ? इत्याह- 'तम्हा' इत्यादिना
का सर्व प्रथम कथन किया गया है । इस लिये इस बात को लेकर मंगल भूतभी नन्दिसत्र का प्रथम व्याख्यान करना चाहिये यह वात नहीं बनती है । क्योंकि इस प्रकार के कथन में कोई खास प्रयोजन की पुष्टि नहीं होती है । तथा यह जो बात यही है कि ' इमं पवणं" इत्यादि पाठ से भी इस अनुयोगद्वार में अनङ्गप्रविष्टता प्रतिपादित होती है अतः इस में यह अंगत्व विषयक प्रश्न असमीचीन ही है सो यह बात ठीक है परन्तु जो शिष्य विस्मरणशील है और अल्पबुद्धिवाले हैं उनके अनुग्रह के लिये ही यह प्रश्न किया गया है । इस तरह इसमें यह अंगत्व विषयक प्रश्न निर्दोष ही है ऐसा जानना चाहिये । ॥ सू० ६ ||
"इमं पुण पट्टणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगे "इस सूत्र पाट से इसका नाम आवश्यक सूत्र है यह निर्णीत हो जाता है, तथा अनन्तरोक्त दश प्रश्नो में यह आवश्यक श्रुतरूप है, कंधरूप है, और षडू अध्ययनात्मक है यह
કારણ કે આ સુત્રમાં પણ સૌથી પહેલાં પાંચ જ્ઞાનેાનું જ કથન કરવામાં આવ્યુ છે. આ દૃષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે મગળભૂત નન્તિસૂત્રનું જ પ્રથમ व्याખ્યાન કરવુ જોઇએ, એવી વાત પ્રતિપાદિત થતી નથી, કારણ કે આ પ્રકારના કથન થી કાઈ ખાસ પ્રયાજનને પુષ્ટિ મળતી નથી.
तथा मेवी ४ हसीस ४२वामां आवी छे “इमं पठवणं" त्याहि सूत्रपाठ દ્વારા પણ આ અનુયાગ દ્વારમાં અનગપ્રવિષ્ટતા પ્રતિપાદિત થાય છે, તેથી અગત્વ વિષયક પ્રશ્નને અનુચિત જ છે, તેા એ દલીલ પણ ખરાખર નથી, કારણ કે જે શિષ્ય વિસ્મરણુશીલ અને અલ્પબુદ્ધિવાળા હાય તેમના ઉપર અનુગ્રહ કરવાને માટે જ આ એ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યા છે. તે કારણે ગત્વ વિષયક જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવેલ છે, તે બધા નિર્દોષ પ્રશ્ન જ સમજવા જોઇએ. ! સૂ. ૬ ॥
"इमं पुण पडवणं पडुच्च आसगस्स अणुओगे" या सूत्रपाठ द्वारा तेनु નામ આવશ્યકત્ર છે, તે નિર્ણી ત થઇ જાય છે, અને ત્યાર પછીના દસ પ્રશ્ના દ્વારા એ નિીત થઈ જાય છે કે આ સૂત્ર શ્રુતરૂપ છે, સ્કન્ધરૂપ છે અને ૭
For Private and Personal Use Only
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
% 3D
अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम--तम्हा आवस्सयं निक्खिविस्सामि, सुयं निविखविस्सामि खधं निक्खिविस्सामि, अज्झयणाई निक्खिविस्सामि ॥ सू० ७॥
छाया-तस्मात् आवश्यकं निक्षेप्स्यामि, श्रुतं निक्षेप्स्यामि स्कंध निक्षेप्स्याम, अध्धयनानि निक्षेप्पयामि ॥ सू० ७ ॥
टीका-'तम्हा' इत्यादि
इह हि आवश्यक सूत्रस्यानुयोगः तच्चाऽऽवश्यकं श्रुतरूपं किंधरूपम्, अध्ययनरूपं च । 'तम्हा' तस्मान् आवश्यकं निक्षेप्स्वामि-आवश्यकम्य निक्षेप करिष्यामि, श्रुतं निक्षेप्स्यामि-श्रुतस्य निक्षेपं करिष्यामि, स्कन्धं निक्षेप्पयामि स्कन्धस्य निक्षेपं करिष्यामि, अध्ययनानि निक्षेप्स्यामि अध्यनानां निक्षेप करिनिर्णीत हो जाता है इससे प्रकृत में क्या बात आती है ? इस शंका के "समाधान निमित्त" सूत्रकार कहते है
"तम्हा आवस्सयं" इत्यादि । ॥ ७॥
शब्दार्थ-यहां आवश्यक सूत्र का अनुयोग प्रस्तुत है और वह आव श्यक श्रुतरूप, स्कंधरूप एवं अध्ययनरूप है। (तम्हा) इसलिये (आवस्सयं) आवश्यक का मैं (निक्खिविस्सामि) निक्षेप करूंगा। (सुयं निखिकविरसामि) श्रुत को निक्षेप करूंगा (अझयणाई निक्विविस्सामि) अध्ययनों का निक्षेप करूंगा। इसका तत्पर्य यह है-कि जब यह शास्त्र आवश्यक आदिरूप से निर्णीत हो चुका है । तब इन आवश्यक आदि शब्दों का अर्थ खुलासारूप से स्पष्ट करने के योग्य हो जाता है। इसके अर्थ का स्पष्टरूप से विवेचन तभी हो सकता है कि जब पदों का निक्षेप किया जावे। विना निक्षेप किये इन અધ્યયનવાળું છે. હવે આ સત્રમાં કયા કયા વિષયને સમાવેશ થાય છે, તે પ્રકટ ४२वा निमित्त सूत्रा२ ४३ छ :-"तम्हा आवम्सयं" त्याह
શબ્દાર્થ—અહીં આવશ્યક સૂત્રને અનુગ પ્રસ્તુત છે, અને તે આવશ્યક श्रुत३५, २४५३५ अने, अध्ययन३५ छ. ती तेथी (आबस्सयं निक्खिविरसामि) सापश्यना नि५ ४ीश, (सुयं निक्खिविस्सामि) इतना नि५ ४२शश, (अज्झयणा निक्विविरसामि) भने अध्ययनाना हु निक्षेप ४रीश.
આ કમનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જયારે આ શાસ્ત્ર આવશ્યક આદિરૂપે નિત થઈ ગયું છે, ત્યારે આ આવશ્યક આદિ શબ્દોના અર્થ ખુલાસા સહિત
સ્પષ્ટ કરવાનું જરૂરી બની જાય છે. તેના અર્થનું સ્પષ્ટરૂપે વિવેચન કરવાનું કાય ત્યારે જ સરળ બની શકે કે જ્યારે પદેને નિક્ષેપ કરવામાં આવે. નિક્ષેપ
For Private and Personal Use Only
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. ७ आवश्यकस्यानुयोगस्वरूपनिरूपणम् ५९ धामि । अयं भावः-इदं शास्त्रमावश्यकादिरूपतया निणीतम्, अत आवश्यकाद शब्दानामों निरूपणीय: ! स च निक्षेपपूर्वक एव स्पष्टतया निरूपितो भवति, अत आवश्यकादीनां निक्षेपः क्रियते । निक्षेपश्च निक्षेपणं आवश्यकादेयथासम्भवं नामादिभेदनिरूपणम् ॥म० ७॥
उत्कृष्टतो जघ यतश्च कियान निक्षेपः कर्तव्यः ? इत्याह -
मूलम् --जत्थ य ज जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेजा चउक्कग निक्खिवे तत्थ ॥सू० ८॥
छाया-यत्र च यं जानीयाद् निक्षेप निक्षिपेत् निरवशेषम् । यत्रापि च न जानी गत्, चतुष्कं निक्षिपेत्तत्र ॥१० ८॥ के अर्थ का विवेचन २पष्टरूप से नहीं हो सकता है। इसलिये इन आवश्यक आदि शब्दों को अब निक्षेप किया जाता है। निक्षेप का अर्थ-आव. इयक आदि शब्दों के यथा संभव नामादि भेदों का निरूपण वरना होता है। सूत्र॥
उत्कृष्टरूप से और जघन्यरूप से कितने निक्षेप कर्तव्य होते हैं इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि- "जत्थ य जं जाणेज्जा" इत्या द । सू० ८॥
शब्दार्थ-(जस्थ य जं जाणेज्जा) जीवादिरूप बग्तु में निक्षेप्ता यदि निक्षेप-न्यास-दो जानता हो तो उस जीवादिरूप वस्तु में वह (निरवसेसं निक्सवं निक्खिवे) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावादि स्वरूप समस्त निक्षेप भेदों का निरूपण करें। (जत्थ वि य न . जाणेज्जा तत्थ चउक्कगं निविखवे) तथा जिस वस्तु में जीवादिरूप पदार्थ मेंકર્યા વિના અર્થનું વિવેચન સ્પષ્ટતાપૂર્વક થઈ શકતું નથી. તેથી આ આવશ્યક આદિ પદેને હવે નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે.
નિક્ષેપનો અર્થ આવશ્યક શબ્દના યથા સંભવ નામાદિ ભેદનું નિરૂપણ કરવું તેનું નામ જ નિક્ષેપ છે. સૂટ ૭
ઉત્કૃષ્ટરૂપે અને જઘન્યરૂપે કેટલા નિક્ષેપ કર્તવ્ય (ચરવા ગ્યો હોય છે, તે પ્રકટ કરવાને માટે સુત્રકાર કહે છે કે
"जत्थ य जं जाणेज्जा" त्य
साथ ----(ज थ य जं जाणेज्जा) ७६३५ १२तुमा निक्षता निक्षेप . (न्यास)ने तो डाय तो (निरवसेस निक्खे निक्लिये) ते पाहि३५ परतुमा નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવાદિરૂપ નિક્ષેપના સમસ્ત ભેદનું नि३५ ४२७ नये. (जत्थ वि य न जाणेज्जा तथ थउक्कगं निक्खिवे) तथा જે વસ્તુમાં જીવારિરૂપ પદાર્થમાં સમસ્ત નિક્ષિપને નિક્ષતા નિક્ષેપ કરનાર ગુ)
For Private and Personal Use Only
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगदारसूत्रे टीका-'जत्थ य' इत्यादि
यत्र च-जीवादि वस्तूनि यं निक्षेप-न्यासं जानीयात्, तत्र जीवादिवस्तूनि निरवशेष-समग्रं-नाम स्थापना द्रव्यक्षेत्रकालभवभावादि स्वरूपं निक्षेपभेदसमूहं निक्षिपेत्-निरूपयेत् । यत्रापि च अपि च-पुनः यत्र-यस्मिन् जीवादिवस्तूनि सर्वान् निक्षेपान् न जानीयात्, तत्र-तस्मिन्नपि जीवादिवस्तूनि चतुष्कं-नामस्थापनाद्रव्यभावरूपं निक्षेपं निक्षिपेत्-न्यस्येत् । अयं भावः-यत्र नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते, तत्र एमिः सर्वैरपि भेदैर्वस्तुनो निक्षेपो भवति । यत्र तु सर्वे भेदा न ज्ञायन्ते, तत्रापि नामादिभिश्चतुर्भिर्वस्तुनिक्षेप्तव्यमेव, नामादीनां सर्वव्यापकत्वात् । न हि किमपि सदृशं वस्तु विद्यते, यत्र नामादिचतुष्टयं नास्तीति ॥सू० ८॥ यदि वह निक्षेप्ता समस्त निक्षेपों को नहीं जानता हो तो भी उस वस्तु में वह नाम स्थापना, द्रव्य, और भावरूप चार निक्षेपों का न्यास करें।
भावार्थ-जहां पर नाम स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भाव आदिरूप निक्षेप भेद जाने जाते हैं वहाँ पर इन समस्त भी भेदों से वस्तु का निक्षेप होता है। परन्तु जहां ये सब भेद नहीं जाने जाते हैं वहां भी नाम आदि चार वस्तु का निक्षेप तो करना ही चाहिये । क्यों कि नामादिक सर्वव्यापक हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं हैं कि जिस में नामादि चतुष्टय नहीं हैं।
लोक में या आगम में जितना भी शब्दव्यवहार होता-हैं-वह कहाँ किस अपेक्षा से किया जा रहा है। इस ग्रन्थी को सुलझाना ही निक्षेपव्यवस्था का काम है। प्रयोजन के अनुसार एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो જાણતા ન હોય, તે વસ્તુમાં પણ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ નિક્ષેપના ચાર ભેદનું નિરૂપણ તે તેમણે કરવું જ જોઈએ.
भावार्थ:-न्यां नाम, स्थापना, द्र०य, क्षेत्र, ११, ११ मने भाव माहि३५ નિક્ષેપ જાણી શકાય એમ હોય ત્યાં આ સમસ્ત ભેદની અપેક્ષાએ વસ્તુને નિક્ષેપ થાય છે. પરંતુ જ્યાં આ બધાં ભેદ જાણી શકાતા ન હોય ત્યાં પણ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવ, આ ચાર વસ્તુને નિક્ષેપ તે કરે જ જોઈએ, કારણ કે નામાદિક ચારે વસ્તુઓ તે સર્વવ્યાપક છે. એવી કઈ પણ વસ્તુ નથી કે જેમાં નામાદિ ચતુષ્ટયને સદ્ભાવ ન હોય.
લેકમાં અથવા આગમમાં જેટલા શબ્દોને વ્યવહાર થાય છે તે ક્યાં કંઈ દષ્ટિએ કરવામાં આવતું હોય છે, આ સમસ્યાને હલ કરવાનું જ નિક્ષેપ-વ્યવસ્થાનું કામ છે. એક જ શબ્દના પ્રયજન અનુસાર અનેક અર્થ થતા હોય છે, તે અર્થ
For Private and Personal Use Only
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ९ आवश्यकस्य निक्षेपनिरूपणम्
आवश्यकं, श्रुतं, स्कन्धम्, अध्ययनानि च निक्षेप्स्यामीति प्रतिज्ञातम् । तत्र प्रतिज्ञानुसारेण प्रथममावश्यकनिक्षेपार्थमाह
मूलम्-से किं तं आवस्सयं ? आवस्सयं चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-नामावस्सयं ठवणावस्सयं दवावस्सयं भावावस्सयं ।सू०९। जाते हैं। ये अर्थ ही उस शब्द के न्यास-निक्षेप-अथवा विभाग हैं। शब्द का अर्थ यदि निक्षेप्ता नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव आदि रूप से जानता है तो उसका कर्तव्य है कि वह इन सब न्यासों का विश्लेपण उस शब्द के अर्थ को समझाने में करें। यदि वह इन सब मेदां से परिचित नहीं है तो कम से कम उस शब्दार्थ कर वह नाम, स्थापना, द्रव्य
और भावरूप से विश्लेषण अवश्य करें। क्यों कि ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो इन चाररूप न हो। हरएक पदार्थ कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य
और भावरूप तो है ही। इन में से वक्ता किस निक्षेपरूप अर्थ का प्रतिपादन कर रहा है यह बात सहज में समझ में आ जाती है। इस से प्रकृत अर्थ का बोध और अप्रकृत अर्थ का निराकरण होनेरूप फल श्रोता को प्राप्त हो जाता है ।सत्र ८॥ ____ अब सूत्रकार प्रतिज्ञा के अनुसार आवश्यक इस शब्द का निक्षेपार्थ क्या है. इस बात को स्पष्ट करते हैं। क्यों कि उन्होंने अभी ऐसी प्रतिज्ञा की है कि में आवश्यक, त, स्कंध और अध्ययनो का निक्षेप करूँगा। જ તે શબ્દના ન્યાસ, નિક્ષેપ અથવા વિભાગરૂપ છે. જે નિક્ષેતા (નિક્ષેપ કરનાર ગુરુ) શબ્દનો અર્થ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવ આદિ રૂપે જાણતું હોય, તે તેનું એ કર્તવ્ય થઈ પડે છે કે તેણે શબ્દનો અર્થ સમજાવતી વખતે આ બધાં ન્યાસ (વિભાગ)નું વિશ્લેષણકરવું જોઈએ. જે નિક્ષેતા એ બધાં ભેદથી પરિચિત ન હોય તે તેણે શબ્દાર્થનું નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપે તે અવશ્ય વિશ્લેષણ કરવું જ જોઈએ, કારણ કે એ કઈ પદાર્થ નથી કે જેમાં નામ આદિ ઉપર્યુકત ચાર નિક્ષને સદભાવ જ ન હોય પ્રત્યેક પદાર્થ ઓછામાં ઓછા નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ તે અવશ્ય હોય જ છે. આ નિક્ષેપમાંથી વક્તા ક્યા નિક્ષેપરૂપ અર્થનું પ્રતિપાદન કરી રહ્યો છે એ વાત સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. તેના દ્વારા પ્રકૃત અર્થને બંધ અને અપ્રકૃત અર્થનું નિરાકરણ થવારૂપ ફળ શ્રેતાને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. એ સ. ૮
હવે સૂત્રકાર પિતાની પ્રતિજ્ઞા અનુસાર “આવશ્યક” આ શબ્દને શે નિક્ષપાર્થ છે, તે પ્રકટ કરે છે, કારણ કે તેમણે હમણું જ (પૂર્વ સૂત્રમા) એવું વચન આપ્યું છે કે “હું આવશ્યક, શ્રત, રકન્ધ અને અધ્યયનેને નિક્ષેપ કરીશ.”
For Private and Personal Use Only
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
RY ॥ .
rancoatiantabeaumentamani
manach...Don
-
अनुयोगबारसूत्रे छाया--अथ किं तदावस्यकम् आवश्यकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम, तद्यथा-नामावश्यक स्थापनावश्यक, द्रव्यावश्यक, भावावश्यकम् ॥सू० ९॥
टीका-से किं तं' इत्यादि
'से' इति 'अथ' शब्दार्थे । स चेह वाक्योपन्यासे । उक्तं च-'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वथो अथ' इति । किं शब्दःप्रश्ने । तदिति पूर्वप्रक्रान्तपरामर्श ततोऽयं निष्कर्षों-अथ तत्=पूर्वप्रक्रान्तम् आवश्यकं किम्-किं स्वरूपम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-'आवस्सयं' इत्यादिना । आवश्यकम्-अवश्यं कर्त्तव्यम्-आवश्यकम्-श्रमणादिमिश्चतुर्विधसंधैरवश्यमुभयकालं क्रियते इति भावः ।
से किं तं आवश्सयं इत्यादि । ॥सूत्र ९॥
शब्दार्थ--(से किं तं आवस्सयं) शिष्य पूछता है कि हे भदंत ! पूर्व प्रक्रान्त आवश्यकका क्या स्वरूप हैं ?
उत्तर--(आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्त) आवश्यक चार प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) उसके वे चार प्रकार ये हैं-(नामावरसय, ठावणावरसयं, दव्वारस्सय भावावस्सय) नाम आवश्यक स्थापना आवश्यक द्रव्य आवश्यक, और भात्र आवश्यक । अथ शब्द का प्रयोग मङ्गल अनन्तर, आरंभ, प्रश्न और काय॑ इन अर्थों में होता है। यहां इसका प्रयोग वाक्य के उपन्यास में हुआ हैं। "किं शब्द प्रश्न में आया है। अश्श्य कर्तव्य जो होता है उसका नाम आवश्यक है। साधुसाध्वी और श्रावक श्राविकारूप चतुर्विध संघ के लिये प्रातःकाल और सायंकाल यह कर्म आवश्यक कर्तव्य कहा गया है ।-अथवा
"से किं तं आवस्सयं" त्याह
शहाथ-(से किं तं आवस्सयं ?) शिष्य गुरुने मेवे प्रश्न छ छ " लगवन् ! पति मावश्यानु २१३५ ३ छ ? ___उत्तर--(आवस्सयं चउविहं पण्णत्तं) मावश्य: यार प्रान! ४ा छ, (तं जहा) मे या२ ४।२। नीय प्रमाणे छ--(नामावस्सयं, ठवणावस्सयं, दबावरसय, भावावस्सय) (१) नाम मावश्य४, (२) स्थापना -मावश्य, (3) ०५ मावश्य भने (४) मा मावश्य. "अथ"शानी प्रयोग मण, मनन्त२, આરંભ, પ્રશ્ન, અને કાર્યું, આટલા અર્થમાં થાય છે. અહીં તેને પ્રાગ વાક્યના उपन्यासमा थयो छ. ("किं") 24॥ ५४ प्रश्न पूछा निमित्त १५२॥युडापाथी प्रश्नाર્થનું વાચક છે. જે અવૃશ્ય કરવા ગ્ય હોય છે તેને આવશ્યક કહે છે. સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘને સવારે અને સાંજે (સાયંકાળે) અવશ્ય કર્તવ્ય (કરવા ગ્ય) અમુક જે કાર્યો છે તેને આવશ્યક કહે છે. અથવા અવશ્ય શબ્દને આ પ્રમાણે પણ અર્થ થાય છે–અચલ, અરુજ, અક્ષય, અવ્યાબાધ
For Private and Personal Use Only
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ९ आवश्यकस्य निक्षेपनिरूपणम् यद्वा-अचलमरुजमक्षयमव्याबाधममन्दानन्दसन्द हरूपं शाश्वतं शिवसुखमवश्यंनिश्चयेन भवति यस्मात्-तदावश्यकम् । यद्वा-आ-समन्ताद्वश्या भवन्ति इन्द्रिय कषायादि भावशत्रवो रस्मात्तदावश्यकम् । यद्वा-ज्ञानादिगुणसमूहो मोक्षो वा आ-समन्ताद्वश्यः क्रियतेऽनेनेति-आवश्यकम् ।
यद्वा-'आवस्सय” इत्यस्य 'आवासक' मितिच्छाया। विंशतिसंख्यकेषु स्थानकेषु आवासयति-तदाराधने तत्परं करोत्यात्मानमित्यावासकं षड्विधावश्यकमेव । यदा-श्रुतचारित्रलक्षणधर्मारामे आवासयति-निवासयात्मान मित्यावासकम् ।
इदं आवश्यकं चतुर्विध-चत्तस्रो विधा भेदा अस्येति चतुर्विध-चतुःप्रकारकं प्रज्ञप्त-प्ररूपितम् । तद्यथा-यथा-तदाव यकं चतुर्विध भवति तथोच्यते-नामावश्यकं, स्थापनावश्यकं, द्रव्यावश्यकं, भावावश्यकम् , इत्येवं चतुर्विधमावश्यकं भवति।९। अवस्यशब्द का अर्थ अचल अरुज अक्षय अव्याबाध अमन्दआनन्द (अत्यन्त आनंद का पुंज) का संदोहरूप जो शाश्वत शिव सुख है वह है । यह शिव सुख निश्चय से जिसके प्रभाव दश जीवों को प्राप्त होता है यह आवश्यक है। अथवा-इन्द्रिय और कपाय आदि भावशत्रु सर्व प्रकार से जिस से वश में हो जाते हैं वह आवश्यक है। अथवा-ज्ञानादिक गुणों का समूह या मक्ष जिसके द्वारा सर्व प्रकार से वन्य किया जाता हैं वह आवश्यक है । अथवा-"आवरसयं" की संस्कृत छाया "आवासक" ऐसी भी है-जो २० स्थानों में-अर्थात् इन स्थानों की आराधना में-आत्मा को तत्पर बनाता हैं उसका नाम आवासक है और वे । छह प्रकार के आवश्यक ही हैं। अथवा-श्रतचारित्ररूप धर्मोद्यान में जा आत्मा का निवास करता है वह आवासक है। यह आवासकरूप आवश्यक चार प्रकार का कथित हुआ है । ॥सत्र ॥ અમન્દ આનંદના સંદેહરૂપ જે શાશ્વત શિવ સુખ છે તેને અવશ્ય કહે છે. જેના પ્રભાવથી જીવને તે શિવ સુખની અવશ્ય પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે, તે વસ્તુનું નામ આવશ્યક છે. અથવા-ઇન્દ્રિય અને કષાય આદિ ભાવશઓ જેના દ્વારા સર્વ પ્રકારે વશ થઈ જાય છે, તેનું નામ આવશ્યક છે. અથવા જ્ઞાનાદિ ગુણેને સમૂહ અથવા મોક્ષ જેના દ્વારા સર્વ પ્રકારે વશ્ય (પિતાને અધીન) કરવામાં આવે છે, તેનું નામ मावश्य: छ. अथवा 'आवस्सय" मा पनी संत छाय! "आवासक" ५५ થાય છે. એ દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે આવશ્યક અર્થ આ પ્રમાણે પણ થાય છે–જે ૨૦ સ્થાનની આરાધના કરવામાં પોતાના આત્માને પ્રવૃત્ત રાખે છે તેનું નામ અવાસક છે, અને એવાં છ પ્રકારના જ આવશ્યક છે. અથવા શ્રત ચારિત્રરૂપ ધમ ધ્યાનમાં જે આત્મા નિવાસ કરે છે તેને આવાસક કહે છે. તે આવાંસકરૂપ આવશ્યક ચાર પ્રકારના કહ્યા છે, જે સુ. ૯
For Private and Personal Use Only
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
६४
अनुयोगद्वारसूत्रे सम्प्रति नमावश्यकस्य स्वरूपं प्रतिपादयितुं सूत्रकार आह
मूलम्-से कि तं नामावस्सये ?, नामावस्मयं जस्स णं जीवस्स वो अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा तदुभयस्स वा तदु. भयाणं वा, आवस्सएत्ति नामं कजइ, से तं नोमावस्सयं ॥सू०१०॥
छाया-अथ किं तद् नामावश्यकम् ? नामावश्यकं-यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा, तदुभयस्य वा, तदुभयेषां वा आवश्यकमिति नाम क्रियते, तदेतन्नामावश्यकम् ॥ सू० १०॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं नामावःसय' इति । अथ किं तन्नामावश्यकम् ? उत्तरयति-नामावश्यकम्-एवं भवति यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा. जीवानां वा अजीवानां वा, तदुभयस्य वा जीवाजीवोभयस्य वा, तदुभयेषां वा-जीवाजीवोभयेषां वा आवश्यकमिति नाम क्रियते तदेतन्नामाव
अब कार नाम आवश्यक का क्या स्वरूप हैं इसे प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कथन करते हैं-"से किं तं नामावरसयं" इत्यादि । ॥ सूत्र १०॥
शब्दार्थ--शिष्य पूछता है कि हे भदंत । (से किं तं नामावस्सयं) पूर्व प्रक्रान्त नाम आवश्यक का क्या स्वरूप है ? उत्तर--(नामावस्सयं) नाम आवशयक का स्वरूप इस प्रकार से है-(जस्स णं जीवस्स वा अजीक्स्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा) जिस किसी जीर का अथवा अजीव का, या अनेकजीवों का या अनेक अजीवों का (तदुभयरस वा तदुभयाणं वा) अथवा जीवअजीब दोनों का, या जीवाजीवों का (आवस्सएत्ति नोमं कज्जइ] आवश्यक ऐसा जो नाम रख लिया जाता है (से तं नामावस्सयं) वह नाम आवशयक है । नाम
હવે સૂત્રકાર નામ આવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન ४२वाने भाट नायना सूत्रनु ४थन रे छ-"से किं तं नामावस्सय" त्याह
__हाथ-शिष्य गुरुने मेवो प्रश्न पूछे छे 3-(से किं तं नामावस्सय १) डे ભગવન | પૂર્વોક્ત નામ આવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नामावस्सय) नाम मावश्य४नु 41 st२नु २१३५ -(जस्स णं जीवास बा अजीवस्स बा, जीवाणं वा अजीवाणं वा) २ । ७१नु मथवा मनु, मया भने ७वानुमने मवानु, (तदुभयरस वा तदुभयाणं वा) અથવા જીવ અજીવ બન્નેનું અથવા જીનું અને અજીનું (છો અને અવે भन्ने) (आवस्सएत्ति नामं कज्जइ) "मा१श्य" मेरे नामपामा यावे छ. (से तं नामावःसयं) तेने 'नाम मा१श्य' ४९ छे. नाम माश्यमा नाम
For Private and Personal Use Only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् श्यकम् । नाम च तदावस्यकं चेति नामावश्यकं नामरूपमावश्यकमित्यर्थः । यद्वा-जीवादिवस्तु नामावश्यकं भवति, नाम्ना-नाममात्रेण आवश्यकं नामारश्यकमिति व्युत्पत्तिसंभवात् । यदि जीवादि-वस्तुन आवश्यकमिति नाम क्रियते तदा जीवादिवस्तु नाममात्रेणावश्यकं भवतीति नामा श्यकशब्दार्थों जीवादवस्तुभवतीति भावः। नाम्नो लक्षणं चेदम्-"यद्वस्तुनोऽभिधानं, स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् "अपर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं तथा।" इति । अयं भाव - 'यस्तुनोऽभिधानम्' वस्तुनः इन्द्रादेः यदभिधानम् इन्द्रेति वर्णपञ्चकानुपूर्वीरूपं आवश्यक में नाम ही आवश्यक हो जाता है। अर्थात् “आवश्यक" ऐसा नाम उस वस्तु का रख लिया जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि किसी भी जीवादिक का "आवश्यक" ऐसा जो व्यवहार में इच्छानुसार गुणनिरपेक्ष नाम रख लिया जाया करता है वह "आवश्यक का नामनिक्षेप है। इस नामनिक्षेप में वस्तु केवल "आवश्यक" इस नाम मात्र से ही उसरूप कही जाती है। इस नामनिक्षेप में तदनुरूप गुणों की आवश्यकता नहीं होती है । केवल व्यवहार चलाने के लिये ही ऐसा किया जाता है। अतः नाम मात्रण आवश्यकं नामाश्वयक" इस व्युत्पत्ति के अनुसार वह आवश्यकरूप वस्तु नाम मात्र से आवश्यक कहा जाता है। आवश्यक जैसेगुण उसमें नहीं होते । इस विषय का खुलासा अर्थ इस प्रकार से है-जब किसी जीवादि वस्तु का "आवश्यक" ऐसा नाम रख लिया जाता है उस समय वह जीवादिक वस्तु नाम मात्र से आवश्यक कहलाती है। इस प्रकार नामरूप आवश्यक इस જ આવશ્યક થઈ જાય છે. એટલે કે તે વસ્તુનું “આવશ્યક એવું નામ રાખવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કઈ પણ જીવાદિકનું "આવશ્યક” એવું જે ગુણનિરપેક્ષ (ગુણની અપેક્ષાથી રહિત) નામ. ઈચ્છાનુસાર વ્યવહાર નક્કી કરવામાં આવે છે તેને “આવશ્યકને નામ-નિક્ષેપ” કહે છે. આ નામનિક્ષેપમાં વસ્તુને કેવળ “આવશ્યક એવા નામ માત્રથી જ તે રૂપે ઓળખવામાં આવે છે. આ નામ નિક્ષેપમાં તેને અનુરૂપ હોય એવા ગુણોની આવશ્યકતા રહેતી નથી. Fan व्यवहार यसापान निमित्त १ मे ४२वाभा मावे छ. तेथी "नाममात्रेण
आवश्यकं नामावश्यक' मा व्युत्पत्ति भनुसार ते. मावश्य४३५ १२तुने नाम માત્રની અપેક્ષાએ જ–એટલે કે નામ પુરતી જ આવશ્યક કહેવામાં આવે છે–જો કે આવશ્યકને અનુરૂપ ગુણોને તે વસ્તુમાં અભાવ હોય છે. આ વિષયનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ હવે કરવામાં આવે છે–જયારે કોઈ જીવેદિક વસ્તુનું આવશ્યક એવું નામ રાખવામાં આવે છે. ત્યારે તે જીવાદિક વરતુને નામમાત્રની અપેક્ષાએ જ આવશ્યક
For Private and Personal Use Only
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे तन्नाम, इति प्रथमः प्रकारः। अथ द्वितीयेन प्रकारेण नाम्नो लक्षणमाह'स्थितमन्यार्थे तदर्थ निरपेक्षं पर्यायानभिधेयं च' इति । अन्यार्थे-गोपालदारकादौ स्थितम-इन्द्रेति नाम तदर्थनिरपेक्षताय प्रसिद्धस्य इन्द्रशब्दस्य परमश्वर्यादिरूपो योऽर्थस्तन्निरपेक्ष भवति, गोपालदारकादौ परमैश्वर्यादेर भावात् । तथा-गोपालदारकादौ स्थितम् इन्द्र इति नाम इन्द्रस्य ये पर्यायाः शक्रादयस्तदनभिधेयंच भवति । शक्रादौ इन्द्रेति प्रसिद्ध नाम वाच्यार्थशून्ये गोपालदारकाशब्द का वह जीवादिरूप वस्तु वाच्यार्थ हो जाता है। नाम का लक्षण इस प्रकार से कहा गया डु
"वस्तुनो यदभिधानं तन्नाम" वस्तु का जा व्यवहार में नाम रहे वह नाम है । जैसे किसी इन्द्रादिरूप वस्तु का इन्द्र इनमें इन्-द्-र-अ-इन पांच अक्षरों की आनुपुर्वीरूप आमिधान यह नाम का प्रथम प्रकार है। नाम के लक्षण का द्वितीय प्रकार इस तरह से है-"स्थितमन्यार्थे निरपेक्षं पर्यायानभिधेयं च" किसी गोपाल के लडके का नाम किसी ने इन्द्र ऐसा रखदिया-उसमें परमैश्वर्य आदिरूप जो इन्द्रशब्द का अर्थ है वह है नहीं--क्यां कि वह तो ग्वाले का लडका है उस में परमैश्वर्य का होना कहां से आ सकता है. उसका तो उसमें अभाव ही है-इसलिये उसका इन्द्र यह नाम अपने अर्थ से निरपेक्ष है। और इन्द्र के जो शक पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द है उन से भी वह अनभिधेय (नहीं कहने योग्य) है। इन पर्यायवाची शब्दों से अभिधेय तो इन्द्र ही हो सकता है। अतः કહેવામાં આવે છે. આ રીતે તે જીવાદરૂપ વરતુ નામરૂપ આવશ્યક આ શબ્દને વાચ્યાર્થી બની જાય છે. નામનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહ્યું છે.
___. “वस्तुनो यदभिधानं तन्नाम" परतुनुले व्यवहारमा नाम २ तेनु । નામ નામ છે. જેમ કે કોઈ ઈન્દ્રાદિરૂપ વસ્તુનું "ઈન્દ્ર” એવું પાંચ અક્ષરોની આનુપૂવરૂપ અભિધાન, આ નામને પ્રથમ પ્રકાર છે. નામના લક્ષણને બીજે પ્રકાર मा प्रमाणे छ-"स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्ष पर्यायानभिधेयं च" गावाणना પુત્રનું નામ કેઈએ ઈન્દ્ર પાડયું “ઈન્દ્ર પદ તે પરમ એશ્વર્યનું વાચક છે. ગોવાળના ઈન્દ્ર' નામના પુત્રમાં આ એશ્વર્ય ક્યાંથી સંભવી શકે? તેમાં તો આ ગુણને અભાવ જ હોય છે. આ રીતે તેનું આ નામ પિતાના અર્થની અપેક્ષાએ તે બરાબર લાગતું નથી. આ રીતે અર્થની અપેક્ષા રાખ્યા વિના પણ કઈ વસ્તુ કે વ્યકિતને અમુક નામે ઓળખવામાં આવતી હોય છે. વળી શક્ર. પુરન્દર આદિ જે શબ્દો ઈન્દ્રના પર્યાયવાચી છે. તેમના દ્વારા પણ તે અનભિધેય છે. આ પર્યાયવાચી શબ્દો દ્વારા અભિધેય તે ઈદ્ર જ હોઈ શકે છે. આ રીતે વાળના બાળકન ઈદ્ર એવું
For Private and Personal Use Only
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
६७
दावारोपितं, तदपि नाम भवतीति बोध्यम् । तृतीयप्रकारेणापि तल्लक्षणमाह'या च्छिकं च तथा' इति । तथा - यदृच्छया कमप्यर्थमनाश्रित्य स्वेच्छया तथाविधव्युत्पत्तिशून्यं “डित्थड वित्थादिरूपं नाम क्रियते, तदपि नाम । इति त्रिविधं नामलक्षणम् । त्रिविधिमपि नाम अवश्यकरणीयत्वाद नामावश्यकमुच्यते । अत्र सूत्रे 'वा' शब्दाः विकल्पार्थकाः ।
ननु जीवस्य 'आवश्यकम् इति नाम कथं संभवति ? उच्यते - यथा कवि के जीवस्य स्वपुत्रादे 'देवदत्त' इत्यादि नाम करोति तथा कश्चित् स्वेगोपालदार (बालक) का इन्द्र ऐसा नाम जो कि शक्र आदि में प्रसिद्ध है वाच्यार्थ से शून्य बने हुए उस गोपालदारक में आरोपित किया गया है । नाम के लक्षण का यह द्वितीय प्रकार है । तथा जो यदृच्छा से नाम रख लिये जाते हैं वे यादृच्छिक नाम हैं जैसे किसी अर्थ की अपेक्षा किये बिना ही डित्थ वित्थ इत्यादि नाम तथाविध व्युत्पत्ति से रहित रखे जाते हैं। इन नामों के रखने में रखनेवाले की इच्छा होती है । इस तरह यह तीन प्रकार नाम के लक्षण हैं। ये तीनों प्रकार के नाम अवश्यकरणीय होने के कारण नाम आवश्यक कहे जाते हैं ।
શક આદિને
शंका- जीवका "आवश्यक" ऐसा नाम कैसे संभवित होता है ? જે નામ રાખવામાં આવ્યું છે. તે વાગ્યા થી રહિત જ લાગે છે. અનુલક્ષીને જયારે ઇન્દ્ર” નામ વપરાય છે. ત્યારે તે તે નામ તેના વાગ્યાથથી યુકત લાગે છે. આ રીતે વાગ્યા સાથે મેળ ન ખાય અથવા જે નામમાં વાચ્યા ના જ અભાવ હાય એવું નામ પણ કાઇ કાઇ વાર રાખવામાં આવતુ હાય છે. નામના લક્ષણને આ બીજો પ્રકાર સમજવે.
તથા જે નામ ઇચ્છા અનુસાર રાખવામાં આવે છે, તે નામને યાદૃચ્છિક નામ કહે छे. भेभडे अध अर्थनी अपेक्षा राज्याविना ४ "डित्थ, डवित्थ" इत्यादि, ते પ્રકારની વ્યુત્પત્તિથી રહિત નામે પણુ રાખવામાં આવે છે. આ પ્રકારના નામેા રાખવામાં તે નામ રાખનારની ઇચ્છા જ મુખ્ય ભાગ ભજવતી હોય છે. नाभनु या त्रीन प्रकार सक्षागु छे. या रीते पडेला अारभां "छन्द्र" નામ સાર્થક લાગે છે, બીજા પ્રકારમાં ગેાવાળના પુત્રનું ‘ઈન્દ્ર” નામ તેના અર્થ પ્રમાણે ગુણથી સપન્ન લાગતું નથી ત્રીજા પ્રકારના "डित्थ, डवित्थ" आदि नाभी अ य अारना अर्थनी अपेक्षा विना मात्र નામ રાખનારની ઇચ્છાનુસાર રાખવામાં આવે છે. આ ત્રણ પ્રકારનાં નામ અવશ્ય કરણીય હાવાથી તેમને આવશ્યક કહેવામાં આવે છે.
શકા—જીવતું ભાવશ્યક” એવુ નામ કેવી રીતે સભવી શકે છે?
For Private and Personal Use Only
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६८
अनुयोगद्वारसूत्रे
च्छावशात् स्वपुत्रादेरावश्यकमिति करोति । भावावश्यक स्वरूपशून्ये गोपालदारकादौ आवश्यकेति नामकरणे नाम्ना नाममात्रेणावश्यकं नामावश्यकं गोपालदारकादि र्भवति
अजीवस्यावश्यकमिति नाम कथं संभवति । उच्यते- 'आवश्यकावासक' शब्दयोरेकार्थता प्रोक्ता । लोके हि - शुष्कोऽचित्तो बहुकोटराकीर्णी वृक्षोऽन्येा उत्तर - जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्र का नाम देवदत्त रख लेता है उसे देवने तो दिया नहीं है - परन्तु लोक व्यवहार चलाने के लिये ऐसा किया जाता है - उसी तरह कोई ग्वाला आदि अपनी इच्छा से अपने का नाम " आवश्यक" ऐसा रखलें तो यह आवश्यक का नाम वास्तव में आवश्यक जैसे गुण उस गोपालदारक में नहीं हैं - वह तो उन से शून्य है- अर्थात् भावावश्यक से वह रहित है - उस में आवश्यक ऐसा जो नामकरण किया गया है वह एक जीव को आश्रित नाम मात्र का आवश्यक है। इस नाम मात्र आवश्यक का वाच्य वह गोपालदारक है । एक अजीव में आवश्यक ऐसा नाम निक्षेप इस प्रकार से घटित करना चाहिये
पुत्र आदि निक्षेप है ।
आवश्यक और आवासक इन दोनों शब्दों में एकार्थता अभी २ कही गई है - सो इस दृष्टि को ध्यान मे रखकर अजीव में " आवश्यक" यह नाम ऐसे घटित हो जाता है कि किसी व्यक्तिने किसी एक शुष्क (सूखे) और
ઉત્તર——જેમ કોઇ વ્યકિત પાતાના પુત્રનુ નામ દેવદત્ત' રાખે છે, જો કે દેવે તેને તે પુત્ર આખ્યેા હતેા નથી, પરન્તુ લેકવ્યવહાર ચલાવવાને એવું કાઇ પશુ નામ રાખવું જ પડે છે, એજ પ્રમાણે જો કેાઈ ગોવાળ આદિ વ્યકિત પેાતાની ઈચ્છાથી પેાતાના પુત્રનું નામ “આવશ્યક' રાખી શકે છે. તે આ પ્રકારનું નામ રાખવું તેનું નામ જ આવશ્યકના નામનિક્ષેપ સમજવા. ખરી રીતે તે તે ગાવાળના પુત્રમાં આવશ્યક જેવા ગુણ્ણા તે। હાતા નથી—એ પ્રકારના ગુણાથી તેા તે રહિત જ ડાય છે. એટલે કે ભાવાવશ્યકથી તે ખાળક રહિત જ છે, છતાં પણ તેમાં આવશ્યક' એવા નામનું જ આરેાપણુ કરવામાં આવ્યુ' છે તે એક જીવને આશ્રિત નામ માત્રનું જ આવશ્યક' છે. આ નામ માત્ર ના આવશ્યકના વાચ્ય તે ગેાવાળપુત્ર છે. લેાક વ્યવહાર ચલાવવા નિમિત્તે જ આવી કોઇ પણ ‘સ’જ્ઞા’તે ખાળકને ઓળખવા માટે ઉપયોગી થઇ પડે છે. એટલે જેમ 'देवदत्त' નામ રાખી શકાય છે, તેમ “આવશ્યક” નામ પણ શા માટે ન રાખી શકાય કેાઈ એક અજીવમાં આવશ્યક એવા નામ નિક્ષેપ આ પ્રકારે ઘટાવી શકાય છે-આ સૂત્રમાં જ આગળ એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે કે આવશ્યક અને આવાસક, આ બન્ને સમનાથી પદો છે. આ દૃષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે અજીવમાં “આવશ્યક' એવુ' નામ આ પ્રમાણે સુસંગત લાગે છે—
For Private and Personal Use Only
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् वा तथाविधः कश्चित् पदार्थ विशेषः सर्पोदेरावासोऽयमिति प्रोच्यते । स वृक्षोऽन्यो वा तथाविधः पदार्थो यद्यप्यनन्तैः परमाणुलक्षणैरजीवद्रव्य निष्पन्नस्तथाऽप्येकसन्धपरिणतिमाश्रित्य एकाजीवत्वेन विवक्षितः। स्वार्थिक क प्रत्यये कृते आवास एव आवासकमिति नाम एकस्याजीवस्य सिद्धम् ।
___ बहूनामपि जीवानामावासकमिति नाम समाति । यथा इष्टकापाकाद्यग्निमूषिकावास इत्युच्यते । इष्टकापाकाद्यग्नौ हि मूषिकाः संमूर्च्छिन्ति । अतस्तेषामसंख्येयानामग्निजीवानां पूर्वदारासमिति नाम सिद्धम् । बहूनामजीवानामपि आवास कमिति नाम भवति । दृश्यते हि बहुभिरचित्तै स्तृणैनी डं अनेक कोटरों से युक्त वृक्ष को अथवा इसी प्रकार के किसी दूसरे पदार्थ को कि जिस में सादिक का निवास स्थान है देखकर कह दिया कि यह वृक्षादिशुष्क पदार्थ सर्पादिक का निवासस्थान है-आवासभूत है। लोक में ऐसा व्यवहार चलता है इसलिये उस अजीव एक वृक्षादि पदार्थ का "आवासक या आवश्यक ऐसा नाम रखना यह एक अजीव के आश्रित नाम निक्षेप का विषय है। यद्यपि वह वृक्षादि पदार्थ अनंत परमाणुरूप अजीव द्रव्यों से निष्पन्न हुआ है तो भी एक स्कंधरूप परिणति को आश्रित करके वह एक अजीवरूप विवक्षित किया गया है। तात्पर्य कहने का यह है कि यदि कोई यहाँ पर ऐसी आशंका करें कि यहां पर एक अजीव पदार्थ को लेकर आवश्यक ऐसा नाम निक्षेप का विषय प्रस्तुत है-शुष्क-वृक्ष में आपने इसे घटित किया है सो वह शुष्क वृक्ष एक अजीव पदार्थ नहीं है-वह तो अनेक परमाणु
કેઈ એક શુષ્ક (સૂકા) અને અનેક બખેલોથી યુક્ત વૃક્ષમાં સપદિક જીને વાસ જોઈને એમ કહી દેવામાં આવે છે કે આ વૃક્ષ તે સર્પાદિકનું નિવાસસ્થાન છે અથવા સર્પાદિકના આવાસરૂપ છે. લોકમાં આ પ્રકારનો વ્યવહાર ચાલે છે. તેથી તે વૃક્ષાદિ અજીવ પદાર્થનું “આવાસક અથવા આવશ્યક એવું નામ રાખવું તે એક અછવમાં “આવાસક અથવા આવશ્યક” એવા નામ નિક્ષેપરૂપ સમજવું. જો કે તે વૃક્ષાદિ પદાર્થ અનંત પરમાણુ રૂ૫ અજીવ દ્રવ્ય વડે નિષ્પન્ન થયેલ હોય છે, છતાં પણ એક સ્કલ્પરૂપ પરિણતિને આશ્રય લઈને તેને એક અછવરૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. અહીં કેઈ એવી શંકા કરે કે અહીં તે એક અજીવ પદાર્થની અપેક્ષાએ આવશ્યક એવા નામનિક્ષેપની વાત ચાલી રહી છે, આપે તે શુષ્ક વૃક્ષમાં આવશ્યક એ નામનિક્ષેપ કર્યો છે, પરંતુ તે શુષ્ક વૃક્ષ એક અજીવ પદાર્થરૂપ નથી. તે તે અનેક પરમાણુ પંજમાંથી નિષ્પન્ન થયેલું હોવાથી અનેક અજીવ દ્રવ રૂપ પદાર્થ જ છે, તે આ શંકાનું સમાધાન આ કથન દ્વારા કરવામાં આવ્યું છે. અહીં એમ બતાવવામાં આવ્યું છે કે શુષ્ક વૃક્ષ છે કે અનેક પૌદ્દગલિક પરમાણુ
For Private and Personal Use Only
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
$5
अनुयोगद्वारसूत्रे
सम्पद्यते । तद्धि पक्षिणामावासव मित्युच्यते । इत्थं बहूनामजीवानामपि 'आधासमिति नाम सिद्धम् ।
पुंज से निष्पन्न होने के कारण अनेक अतीव द्रव्यरूप पदार्थ हैं - सो इस शंका का समाधान इस वथन में किया गया है। कहा गया है कि वह शुष्क पदार्थ यद्यपि अनेक पौद्गलिक परमाणुओं के पुंज से निष्पन्न हुआ हैपरन्तु उसरूप की यहां विवक्षा नहीं है- यहाँ तो उन सबके संबन्ध से एक परिणतिरूप हुए एक स्कंधद्रव्य की विवक्षा है - इससे वह एक अजीव द्रव्य की वित्रा है - इससे वह एक अजीव द्रव्य हैं। अनेक अजीव द्रव्य नहीं । अनेक जी में आवासक ऐसा नाम इस प्रकार से घटित करना चाहियेइष्टका ( इंट) पाक आदि की जो अग्नि होती है उसमें अनेक मूषिकाएँ संमूर्च्छन जन्म धारण करती हैं । इस अपेक्षा वह इष्टपाक आदि की अग्नि मूषिकावासरूप से कह दी जाती है । इस तरह उन असंख्यात अग्नि जीवों वा आवासक ऐसा नाम सिद्ध हो जाता है । अनेक अजीवों का आसक ऐसा नाम इस प्रकार से हता है कि अनेक अचित्त तिनकों से नीड - घोंसला बनता है । और उसमें पक्षी रहते हैं - इसलिये वह" पक्षियों का आवासक हैं - इस नाम से कहा जाता है। अतः अनेक अजीव में आवासक ऐसा आवासका नामनिक्षेप
એના પુજથી નિષ્પન્ન થયેલું છે, પરન્તુ અહીં તે પ્રકારની વિવક્ષા કરવામાં આવી નથી. અહીં તેા તે અધાના સબંધથી એક પરિણતિરૂપ થયેલા એક સ્કેન્ચ દ્રવ્યની જ વિવક્ષા ચાલી રહી છે. તેથી તેને અહીં એક અજીવ દ્રવ્ય રૂપે જ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે, અનેક અજીવ દ્રવ્ય રૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ નથી.
અનેક જીવામાં આવશ્યક” એવું નામ આ પ્રમાણે ઘટિત કરવુ જોઇએઇંટા પકવવાના ભઠ્ઠા આદિની જે અગ્નિહાય છે તેમાં અનેક મૂષિકાએ (ઉંદરડીએ) સમૂન જન્મ ધારણ કરે છે. તેથી તે ભઠ્ઠા આદિની અગ્નિને કૃષિકાવાસરૂપે પશુ ઓળખવામાં આવે છે. આ રીતે તે અસખ્યાત અગ્નિજવાનુ “भावास” येवु नाम सिद्ध यह लय छे.
અનેક અજીવાનુ આવાસક એવુ' નામ આ પ્રમાણે સિદ્ધ કહી શકાય છે. અનેક અચિત્ત તણુખલાંએની મદદથી માળા બને છે, અને તેમાં પક્ષીઓ રહે છે, તે કારણે તેને પક્ષીએના આવાસરૂપ ગણીને એવું કહેવામાં આવે છે કે મા પક્ષીઓને આવાસક છે.” મા રીતે અનેક જીવામાં આવાસકર એવા
For Private and Personal Use Only
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. १० नामावश्यक स्वरूपनिरूपणम्
७१
जीवाजीवभयश्यापि 'आवासक' मिति नाम संभवति । दृश्यते हि-जलाशयोद्यानजलयन्त्रादिसहितः प्रासादादिप्रदेशो राजादेरावास उच्यते । अ* चजलाशयद्यानादयः सचेतन रत्नादयश्च जीवाः सन्ति । इष्टका काष्यदयेोऽचेतनरत्नादयश्चाजीवाः सन्ति । एतदुभयनिष्पन्नस्य राजप्रासादादि- प्रदेशस्य आवा सकं नाम सिध्यति ।
उभयेषां जीवानामजीवानां चापि 'आवासक' मिति नाम संभवति । दृश्यते हि - राजप्रासादयुक्तं सम्पूर्ण नगरं राजादीनामात्रास उच्यते । सवलः सौधर्मादिल्प इन्द्रादीनामानास उच्यते । इत्थं बहूनां जी नामजीवनां च सम्मिलितानाम् 'आवास कम्' इति नाम सिद्धम् । राजप्रासादस्य लघुत्वादेकमेर जीवासिद्ध हो जाता है । जीव और अभी इन दोनों में आ सक यह नाम निक्षेप इस प्रकार से बनता है कि जो राजमहल का प्रदेश जलाशय, उद्यान एवं जल यन्त्र - नल - आदि से युक्त होता है वह राजा आदिका आवासस्थान हैइस नाम से कहा जाता हैं। वहां जो जलाशय, उद्यान एवं सचेतन रत्नादिक हैं- वे तो सचित द्रव्य हैं और इष्टका (ईंट) का वाष्ठ, अचेतन रत्नादिक हैं वे सब अजीव हैं । इन दोनों से निष्पन्न हुए उस राजमहल आदि के प्रदेश का नाम आवासरूप होने के कारण " आवासक" का निक्षेप बनता है । इसी प्रकार से जीव अजीव इन दोनों का भी आवासक यह नाम इस प्रकार से घटित होता है कि राजप्रासाद से युक्त समस्त नगर राजादिक का आवास है इस रूप से व्यवहार में कह दिया जाता है । तथा सौधर्म आदि समस्त कल्प इन्द्रादिकों के आवासरूप से व्यवहृत होते हैं । इस तरह संमिfea अनेक अजीब और जीवों का " आवासक" ऐसा नाम सिद्ध हो जाता આવાસના નામનિક્ષેપ સિદ્ધ થઈ જાય છે. જીવ અજીવ, એ બન્નેમાં “આવાસક” આ નામનિક્ષેપ આ પ્રમાણે સિદ્ધ કરી શકાય છે.
જે રાજમહેલના પ્રદેશ જળાશય, ઉદ્યાન અને જળયંત્ર (નળ) આદિથી યુકત होय छे, तेने "राम माहितुं यावासस्थान छ,” मे ३ये हेवामां आवे छे, त्यां જે ઉદ્યાન, જળાશય અને સચેતન રત્નાદિક વસ્તુઓ છે, તે તે સચિત્ત દ્રવ્યરૂપ જ છે, અને ઈંટની દીવાલા, અને અચેતન રત્નાદિકા વગેરે જે વસ્તુ છે, તે અચિત્તદ્રન્યરૂપ હાવાથી અજીવ છે, એ બન્નેથી જેનું નિર્માણ થયું છે. એવા તે મહેલ આદિના પ્રદેશનું નામ આવાસરૂપ હાવાને કારણે આવાસક’તુ નિક્ષેપ બનેછે. એજ પ્રમાણે જીવાજીવમાં પણુ ‘આવાસક’ આ નામનિક્ષેપ આ પ્રમાણે ઘટાવી શકાય છે. રાજપ્રાસાદથી યુકત સમસ્ત નગર “રાજાદિકના આવાસ છે.” આ રૂપે વ્યવહારમાં કહેવામાં આવે છે. તથા સૌધર્મ આદિ સમસ્ત કલ્પને ઇન્દ્રાદિકેના આવાસ રૂપ કહેવામાં આવે છે. એ રીતે સ ંમિલિત અનેક અજીવે અને જીવાનુ... “આવાસક
For Private and Personal Use Only
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२
अनुयोगद्वार
जीवोभयं विवक्षितम् । नगरादीनां सौधर्मादिकल्पानां च महच्छाद् बहूनि जीवाजीवोभयानि विवक्षितानि । इत्थं जीवाजीवोभयैकत्वबहुत्वविषये एकत्वं बहुत्वं च विवक्षाधीनं द्रष्टव्यम् । एवमन्यत्रापि जीवादीनामावासकनाम यथासंभवं भावनीयम् । इदं हि दिङ्मात्रप्रदर्शनार्थमुक्तम् इति नामावश्यक प्ररूपणा | सू० १० ।। अथ स्थापनाssवश्यकं निरूपयितुं सूत्रकार आह
मूलम् - से किं तं ठेवणावस्सयं ? ठवणावस्सयं जपणं कटुकम्मे है । राजप्रासाद नगर एवं सौधर्म आदि की अपेक्षा लघु होने के कारण जीव और अजीव इन दोनों रूप से एक वहा गया है । तथा राजप्रासाद की अपेक्षा नगरादिक एवं सौधर्मकल्प महान - विशाल होने के कारण अनेक जीव और अजीव रूप से विवक्षित हुए हैं। इस प्रकार जी, अजी, और उभय में अनेकत्व का यह विचार विवक्षा के आधीन हुआ जानना चाहिये । इस प्रकार से अन्यत्र भी जीवादि वों का आवासक नाम यथा संभव समझ लेना चाहिये । यह जो यहाँ समझाया गया है वह तो बहुत ही संक्षेप से समझाया गया है ।
w
इस प्रकार यह नाम आवश्यक की प्ररूपणा जाननी चाहिये ।
भावार्थ - - सूत्रकार ने यहां नाम आवश्यक का स्वरूप जीव अजीव आदि पदार्थों के एकत्व अनेकत्त्व को लेकर समझाया हैं । इसे व्यवहार में पहिले यों समझ लेना चाहिये कि प्रत्येक शब्द का अर्थ चार प्रकार का होता है(१) नामरूप ( २ ) स्थापनारूप, (३) द्रव्यरूप और चौथा भावरूप | शास्त्रीय परिभाषा में इन्हें निक्षेप कहा गया है । निक्षेप नाम रखने या न्यास का है ।
For Private and Personal Use Only
એવુ નામ સિદ્ધ થઈ જાય છે. રાજપ્રાસાદ,નગર એને સૌધ કલ્પ આદ્ધિની અપેક્ષાએ જીવ અને અજીવા નાના હૈાવાને કારણે તે બન્નેને અહીં અછવરૂપ એક શબ્દથી જ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. તથા રાજમહેલ કરતાં નગર સાધર્દિ કા વિશાળ હાવાને કારણે અનેક જીવ અને જીવરૂપે વિવક્ષિત થયેલ છે. આ રીતે જીવ. અજીવ અને ઉભયમાં એકત્વ અનેકત્વના આ વિચાર વવક્ષાને અધીન રહીને થયેલા સમજવા. એજ પ્રકારે અન્યત્ર પણ જીવાદિકનુ ‘આવાસક' નામ યથા સ ંભવ સમજી લેવુ જોઇએ. અહીં આ જે સમજૂતી આપવામાં આવી છે. તે તે મહૂજ સક્ષિપ્તમાં આપવામાં આવી છે. આ પ્રકારની આ નામ આવશ્યકની પ્રરૂપણા સમજવી. સૂત્રકારે અહીં નામ આવશ્યકનું સ્વરૂપ જીવ અજીવ આદિ પદાર્થાના એકત્વ અનેકવની અપેક્ષાએ સમાવ્યુ' છે. આ બાબતમાં પહેલાં તે એ સમજી લેવું જોઇએ કે પ્રત્યેક શબ્દના અર્થ ચાર પ્રકારના હાય છે, તે ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે.
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७३
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् वा पोत्थकम्मे वा, चित्तकम्मे वा, लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सब्भावठवणा वा असब्भावठवणा वा आवस्सए ति ठवणा ठविजइ, से तं ठवणावस्सयं ॥सू० ११ ॥ जिसमें व्युत्पत्ति की प्रधानता नहीं है किन्तु जो मातापिता या इतरलोगों के संकेत बल से जाना जाता हैं वह नामनिक्षेप का विषय है। जैसे किसी व्यक्ति में "महावीर" जैसे गुण नहीं होने पर भी व्यवहार चलाने के निमित्त उसके माता पिता आदि जन उस का नाम महावीर रख लेते हैं । जो वस्तु असली वस्तु के सदृश आकार वाली है वह स्थापना निक्षेप का विषय है । जैसे जंबूद्वीप का नकशा अढाइद्वीप का नकशा तथा वृक्ष महेल आदि का चित्र । जा पदार्थ भाव का पूर्वरूप या उत्तररूप हो वह द्रव्यनिक्षेप का विषय है-जैसे जो वर्तमान में श्रावकपुत्र है वह आगे श्रावक बनेगा उसे श्रावक कहना । जिस शब्द के अर्थ में शब्द का व्युत्पत्ति या प्रति निमित्त वर्तमान में बराबर घटित हो रहा हो वह भावनिक्षेत्र का विषय है। जैसे वर्तमान में महान् वीरता के कार्य करने वालेको महावीर कहना । इसी तरह से जिस जीवादि
(१) नाम३५ (२) स्थापना३५, (3) द्रव्य३५ मन (४) मा१३५ शास्त्री પરિભાષામાં તેને નામનિક્ષેપ કહેવામાં આવે છે. નિક્ષેપ એટલે નામ રાખવું અથવા न्यास (विना) ४२वो तेनु नाम निक्षे५ छ.
જેમાં વ્યુત્પત્તિની પ્રધાનતા હોતી નથી પણ જે માતા, પિતા અથવા અન્ય લેના સંકેતને આધાર લઈને જાણી શકાય છે, એવું નામનિક્ષેપનું સ્વરૂપ અથવા એ નામનિક્ષેપને વિષય છે. જેમકે કોઈ વ્યક્તિમાં મહાવીર જેવા ગુણોને અભાવ હોવા છતાં પણ વ્યવહાર ચલાવવાને નિમિત્તે તેના માતા, પિતા આદિ લેક તેનું નામ મહાવીર રાખી લે છે જે વસ્તુ અસલી વસ્તુના સમાન આકારવાળી છે, તે થાપના નિક્ષેપને વિષય છે. જેમકે જંબુદ્વીપને નકશે, અઢીદ્વિીપને નકશે, વૃક્ષ મહેલ આદિના ચિત્ર, આ બધા સ્થાપના નિક્ષેપના ઉદાહરણ છે.
જે પદાર્થ ભાવને પૂર્વરૂપ કે ઉત્તરરૂપ હય, તે દ્રવ્યનિક્ષ અને વિષય છે. જેમકે જે અત્યારે શ્રાવપુત્ર છે તે ભવિષ્યમાં શ્રાવક બનશે માટે તેને શ્રાવક કહે જોઈએ. આનું નામ દ્રવ્ય નિક્ષેપ છે.
જે શબ્દના અર્થમાં શબ્દની વ્યુત્પત્તિ અથવા પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત વર્તમાનમાં બરાબર ઘટાવી શકાતાં હેય. તે ભાવનિક્ષેપને વિષય છે જેમકે વર્તમાન સમયે મહાવીરતાનું કાર્ય કરનારને મહાવીર કહે, તે ભાવરૂપ નિક્ષેપ થયો ગણાય.
For Private and Personal Use Only
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारमझे पदार्थ में आवश्यक जैसा एक भी गुण नहीं है और उसे आवश्यक इस नाम से व्यवहार करना सो नाम आवश्यक है। नाम का तीन प्रकार के लक्षण से व्यवहार होता है-जहां नाम का व्युत्पत्ति या प्रत्ति का निमित्त घटित होता है वह नाम-नामनिक्षेप का विषय न हो कर भावनिक्षेप का विषय बनता है। जैसे परमैश्वर्य को भोगते हुए इन्द्र नामधारी व्यक्ति को इन्द्र इस नाम से पुकारना । यह नाम का प्रथम प्रकार है। द्वितीय प्रकार में जैसा नाम हो उसकी प्रत्ति का निमित्त व्युत्पत्ति का निमित्त उस में हो किन्तु संकेत आदि हो तो यह नामनिक्षेप में परिणमित किया गया है जैसे गोपालदार:गोपाल बालक । तृतीय प्रकार में डिस्थ, डवित्त आदिरूढ शब्द कि जो व्युत्पत्ति रहित ही स्वेच्छानुसार प्रचलित होते है-लिये गये है। इन में भी प्रवृत्ति का निमित्त व्युत्पत्ति का निमित्त नहीं होता है किन्तु रूढि होती है। इस तरह केवल द्वितीय प्रकार ही नामनिक्षेप का विषय पडता है। अतः जिस में आवश्यक जैसे गुण नहीं हैं उस में आवश्यक इस नाम का न्यास (रखना)करना यह आवश्यक का नामनिक्षेप है। जीवआदिक पदार्थों में यह निक्षेप किस
એજ પ્રમાણે જે જીવાદિ પદાર્થમાં આવશ્યક એવો એક પણ ગુણ નથી, તે જીવાદિ પદાર્થમાં “આવશ્યક એવા નામને વ્યવહાર કરે, તેને નામ આવશ્યક કહે છે. નામને ત્રણ પ્રકારના લક્ષણેથી વ્યવહાર થાય છે-જ્યાં નામનું વ્યુત્પત્તિ અથવા પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત ઘટિત થતું હોય છે, તેનામ-નામનિક્ષેપને વિષય બનવાને બદલે ભાવનિક્ષેપનો વિષય બની જાય છે. જેમકે પરમ અશ્વર્યથી સંપન્ન એવી કઈ વ્યક્તિને “ઈન્દ્રએવા નામે ઓળખવી. આ નામનો પહેલો પ્રકાર છે.
નામને બીજો પ્રકાર–જેનું નામ હોય એવી પ્રવૃત્તિના નિમિત્તને અથવા વ્યુત્પત્તિના નિમિત્તને જેમાં સદૂભાવ ન હોય, પરન્ત સંકેત આદિને સદૂભાવ હોય તે તેને નામનિક્ષેપમાં પરિણમિત કરવામાં આવ્યું છે. જેમકે શેવાળના પુત્રનું “ઈન્દ્રનામ.
ત્રીજા પ્રકારમાં “રિા વરશ આદિ રૂઢ શબ્દો કે જે વ્યુત્પત્તિથી રહિત છે અને બેલનારની ઈચ્છાનુસાર પ્રચલિત (ઉચારિત) થયેલ છે, તેમને ગણાવી શકાય છે. તેમાં પણ પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત અથવા વ્યુત્પત્તિનું નિમિત્ત હેતું નથી પણ ઢિને જ સદ્દભાવ હોય છે. આ રીતે કેવળ બીજો પ્રકાર જ નામનિક્ષેપના વિષયરૂપ ગણી શકાય છે. તેથી જેમાં આવશ્યક જેવાં ગુણ નથી, તેમાં આવશ્યક આ નામનો ન્યાસ કરે તેને આવશ્યકને નામનિક્ષેપ કહે છે. જીવાદિક પદાર્થોમાં આ નિક્ષેપ કેવા પ્રકારે ઘટિત કરવામાં આવે છે, તે વિષયનું ટીકાકારે સત્રની
For Private and Personal Use Only
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-मु. ११ स्थापनावश्यकस्वरूपनिरूपणम् ___ छायाः-अथ किं तत् स्थापनावश्यकम् ? स्थापनावश्यकं - यत्वलु काष्टकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा लेप्यकर्मणि वा ग्रन्थिमे वा वेष्टिमे वा पूरिमे वा सङ्घातिमे वा अक्षे वा वराटके वा एको वा अनेको वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया वा आवश्यकेति स्थाप्यते, तदेतत् स्थापनावश्यकम् ।।मु० ११॥
टीका-से किं तं' इत्यादि
'से किं तं ठवणावस्सयं' अथ किं तत् स्थापनावश्यकम् ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाह-'ठवणावस्सयं इत्यादि। स्थापनावश्यकम्-स्थाप्यते-क्रियते इति स्थापना । यथा-जम्बूद्वीप य मानचित्रम्, 'नक्शा' इति भाषाप्रसिद्धम् । आवश्यक मित्यनेन आवश्यकक्रियावान् श्रावकादिरिह गृह्यते । आवश्यक तद्वतो रभेदोपचारात् । काष्ठपाषाणादौ कृतं त य चित्रं-ज्ञानादिगुणरहिताऽऽकृतिःस्थापना । प्रकार से घटित किया गया है यह विषय सूत्र की टीका में टीकाकारने स्पष्ट किया है। उसे भावार्थ में स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। सूत्र १०॥
अब सत्रकार स्थापना आर-यक का निरूपण करते हैं“से किं तं ठवणावस्सयं" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं ठवणावस्सयं) शिष्: प्रश्न करता है भदंत । स्थापना आवयक का क्या स्वरूप है ?
उत्तरः-(ठवणावासयं) स्थापना आवश्यक का सरूप इस प्रकार से हैजो की जावे उसका नाम स्थापना हैं । जैसे जंबूढीप का नशा, अढाई द्वीप का नर शा है । आवश्यक शब्द से यह आवश्यक क्रियावाला श्रावक आदि गृहीत हुआ है। क्यों कि आवश्यक क्रिया और आवश्यक क्रियावाले में अभेद का उपचार किया गया है। बाष्ठपाषाण आदि में किया गया-उकेरा गयाટીકામાં જ સ્પષ્ટીકરણ કરેલું છે. તેથી ભાવાર્થમાં તેનું સ્પષ્ટીકરણ કરવાની જરૂર રહેતી નથી. એ સૂત્ર ૧૦ |
હવે સૂત્રકાર સ્થાપના આવશ્યકનું નિરૂપણ કરે છે– "से कि तं ठपणावस्स" त्याहशा-शि भु३ने का प्रश्न पूछे छे 3-(से किं तं ठवणावस्मयं ?) लगवन् ! स्थापना यावश्यतु २१३५ छ ?
उत्त२.-(ठाणावस्सयं) २थापना मावश्यनु २१३५ प्रानु छ.. કરવામાં આવે તેનું નામ સ્થાપના છે. જેમકે જમ્બુદ્વીપને નકશે, અઢીદ્વીપને નક, વગેરે સ્થાપના આવશ્યકરૂપ છે. આવશ્યક પદના પ્રાગદ્વારા અહીં આવશ્યક ક્રિયાવાળા શ્રાવક વગેરે ગૃહીત થયા છે, કારણ કે આવશ્યક ક્રિયા અને આવશ્યક ક્રિયાવાળામાં અભેદને ઉપચાર કરવામાં આવ્યો છે. કાષ્ઠ પાષાણ આદિમાં આલેખવામાં
For Private and Personal Use Only
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबारसूत्रे तत्र श्रावकाद्यभेदोपचारात् स्थापनारूपमावश्यकमित्यर्थः । काष्ठकर्मादिषु आवश्यक क्रियां कुर्वन्तो यत् स्थापनारूपाः श्रावकादयः स्थाप्यन्ते चित्ररूपेण तत् :स्थापनावश्यकमिति
तात्पर्यम् ! तदाह-जणं' इत्यादि । पत्खलु काष्टकर्मणि वा-काष्ठे समुत्कीर्णे रूपके वा पुस्तकर्मणि वा । पुस्तं वस्त्रं तम्य कर्म-तन्निर्मिता पुत्तलिका तस्मिन् वा। अथवा-पोत्यकर्मणि' इतिच्छाया, पोत्थं-पुस्तक, तच्चेह संपुटकरूपम्, तत्र कर्म-तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकं तन्मिन् वा । यद्वा-पोत्थं-पुस्त-ताडपत्रं, तत्र कर्म-तच्छेदनिष्पन्न रूपकं तस्मिन् वा ।चित्रकर्मणि वा-चित्रलिखिते रूपके वा लेप्यकर्मणि-लेप्यरूपके वा, ग्रन्थिमे वा-ग्रन्थेन निवृत्तं ग्रन्थिम-नैपुण्यातिशयात् ग्रन्थिसमुदाय निष्पादितं रूपकं तस्मिन् वा । वेष्टिमे वा-वेष्टनेन-पुष्पवेप्टनक्रमेण निष्पन्नं रूपकं वेष्टिमं उसका चित्र जो कि ज्ञानादि गुणों से सर्वथा शून्य (रहिन) होता है. वह स्थापनानिक्षेप है उसमें आवश्यक क्रिया को संपादन करने की आकृतिरूप में श्रावक आदि को का फोटो-पत्थर या काष्ठ के पटिये पर बनाया जाता हैं, सो चित्र यही स्थापनारूप आवश्यक है। इसी विषय को सूत्रकार "जण्णं" इत्यादि पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-(जण्णं कठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा) जो आकृति काष्ठ में उकेरी जावे उसमें अथवा पुस्त-वस्त्र-कपडे पर चित्रित की जावे उसमें अथवा वस्त्र से पुत्तलिका के रूप में बनाई जावे उस में या पोत्यकर्मणि" पुस्तक के बीच में कुची से रंग आदि भर कर बनाई जावे उसमें अथवा ताड पत्र पर छेद करके बनाई जावे उसमें अथवा (चित्तकम्मे वा) चित्र रूप में बनाई जावे इसमें (लेप्पकम्मे वा) अथवा मृत्तिका को गिली करके बनाई जावे उसमें (गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संधाइमे वा) अथवा वस्त्र की गांठों के समुदाय से કોતરવામાં આવેલું તેનું ચિત્ર કે જે જ્ઞાનાદિ ગુણોથી સર્વથા વિહીન હોય છે. તે સ્થાપનાનિક્ષેપ છે. જેમાં આવશ્યક ક્રિયાને સંપાદન કરષાની આકૃતિરૂપે શ્રાવક આદિકનાં ચિત્રો પથ્થર પર અથવા લાકડાનાં પાટિયાં વગેરે પર બનાવવામાં આવે છે, તેને જ સ્થાપના રૂપ આવશ્યક કહે છે. એ જ વિષયને સૂત્રકાર “નuoઈત્યાદિ પદે દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે–
(जण्णं कढकम्मे वा पोत्यकम्मे 1) रे भाति । ५२ तरी यामा આવે તેમાં અથવા પુસ્ત પર (વસ્ત્ર પર) ચિત્રિત કરવામાં આવે તેમાં, અથવા વસ્ત્રभांथी दली३पे मनावमा मावतमा अथवा-पोत्थकर्मणि" पुस्तनी हर पछी ५७ २॥ पूरीने मनापामा मा तभी, अथवा (चित्तकम्मे वा) यत्र३५ रनु सन ४२वामां मावे , (लेप्पकम्गे वा)लानी माटीमाथी मनापाममा तभी, (गंथिमे वा, वेढिमे वा, पुरिमे वा, संधाइमे वा) 424 vl distrl समुदायका
For Private and Personal Use Only
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका ११ स्थापनावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
७ तस्मिन् वा । यद्वा-एकस्य द्वयोर्वहूनां वा वस्त्राणां वेष्टनेन निष्पन्नं यद्रूपं तत् वेष्टिमं तस्मिन् वा । पूरिमे वा-पूरणेन भरणेन निष्पन्न परिमं-ताम्रपित्तलादिमयं तस्मिन् वा । सङ्घातिमे वा-सङ्घातेन-बहुवस्त्रादिखण्डसमुदायेन निष्पन्न रूपकं सङ्घातिम तस्मिन् वा । अक्षे वा-अक्षश्चन्दनकस्तस्मिन् वा वराटके कपईके वा सद्भावस्थापनया वा काष्ठकर्मादिषु आकारवती या स्थापना सा सद्भावस्थापना श्रावकाद्याकारस्य तत्र सद्भावात् । तया सद्भावस्थापनया, असद्भावस्थापनया वा अक्षादिषु अनाकारवती असम्यगरूपेण स्थापना भवति सा असद्भावस्थापना, प्रावकाद्याकारस्य तत्रासद्भावात् । तया वा स्थाप्यमानः एको वा अनेको वा
आवश्यकेति-आवश्यक्रियायुक्तश्नावकादिः स्थापना स्थाप्यते-क्रियते । तदेतत् स्थापनाऽऽवश्यकम् ।,११॥ जो बनाई जावे उसमें, अथवा एक या दो अथवा अनेक वस्त्रों कों वेष्टित करके जो बनाई जावे उसमें, अथवा पुष्पों को आकृति के रूप मे सजा सजा करके जो आकार बनाया जावे उसमें अथवा पित्तलादि द्रव्यों को सांचे मै ढार कर जो आकृति बनाई जावे उसमें अथवा अनेक वस्त्रों के खण्डों से-धज्जियों से-जो रूप बनाया जावे उसमें (अक्खेका) अथवा पाशे में (वराडएका) अथवा कोडी में (एगो ग अणेगो वा) एक अथवा अनेक आवश्यक क्रिया युक्त एक अनेक श्रावक आदि की (सब्भावठवणा असम्भावठवणा) की गई जो सद्भावस्थापना. अथवा असद्भावस्थापना है (आवस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ) वह आवश्यक की स्थापना है। (से ते ठवणावस्सयं) यह स्थापना आवश्यक का स्वरूपहै । ॥भूत्र ११॥ બનાવવામાં આવે તેમાં, અથવા એક, બે અથવા અનેક વસ્ત્રોને વેeત કરીને બનાવવામાં આવે તેમાં, અથવા પુપિની આકૃતિરૂપે સજાવટ કરી કરીને જે આકાર બનાવવામાં આવે તેમાં, અથવા પિત્તળાદિ દ્રવ્યને બીબામાં ઢાળીને જે આકાર બનાવવામાં આવે તેમાં અથવા આવે તેમાં, અથવા અનેક વસ્ત્રના લીરાંઓ (ચિંદર.
मी)माथी रे माइति मनापामा मावे तमा (अक्खे वा) १२ पाशायामा मया (वराडए बा) Mभा (एगो वा अणेगो वा) थे अथवा भने आवश्य४ ठिया युत मे -मने श्रा१४ मा६५ (सब्भावठवणा असम्भावठवणा) ४२पामा मावशी २ समावस्थापन! म असमा स्थापना छ. (आवस्सएत्ति ठवण। ठविज्जइ) तेनु नाम मा१श्यनी स्थापना छ. (से तं ठवणावस्सयं) मा प्रार આ સ્થાપનાઆવશ્યકનું સ્વરૂપ છે. તે સૂ૦ ૧૧ છે
For Private and Personal Use Only
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्रे . नामग्थापनयोर्भेदमाह--
मूलम्-नामटवणाणं को पइविसेसो ? णामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होजा आवकहिया वा ।सू० १२॥
छाया-नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ? नाम यावत्कथिकम्, स्थापना इत्वरिका वा भवेत्, यावत्कथिका वा । ॥सू० १२॥
टीका-'नामट्ठवणाणं' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-नामध्यापनयोः कः प्रतिविशेषः ? नामस्थापन यो को विशेषः ? न कोऽपि विशेषो दृष्यते । यथा भावावश्यकस्वरूपशून्ये गोपालदारकादौ आवश्यकेति नाम क्रियते, तथैव स्थापनाऽपि भावावश्यकस्वरूपशून्ये काष्ठपुस्तकादौ आवश्यकशास्त्रस्य तदाकाररूपतया अतदाकाररूपतया वा स्थापना स्थाप्यते अतो भावशून्ये द्रव्यमाने क्रियमाणत्वादनयो नास्ति कश्चिद् विशेष इति प्रष्टुरा___ अब सूत्रकार नाम और स्थापना निक्षेप में क्या अन्तर है-इस बात को प्रकट करते हैं-"नामट्ठवणाणं" इत्यादि । ॥मूत्र १२॥ ___शब्दार्थ-(हे भदंत ! नाम और स्थापना का क्या भेद हैं ? इस पूर्वोक्त कथन से तो इन दोनों में काइ अन्तर नहीं ज्ञात होता है ? कारण
जिस प्रकार भावावश्यक के स्वरूप से शून्य गोपालदारक आदि में आव श्यक ऐसा नामनिक्षेप किया जाता है-उसी प्रकार से भागावश्यक के स्वरूप से शून्य काष्ठ पुस्तक आदि में आवश्यकशास्त्र की तदाकाररूप से या अतदाकाररूप से स्थापनानिक्षेप किया जाता है। अतः भाव से शून्य द्रव्यमात्र में क्रियमाण होने के कारण इन दोनों में कोई विशेषता लक्षित नहीं होती हैइस प्रकार का अभिप्राय पूछनेवाले शिष्य का है।
હવે સૂત્રકાર નામ નિક્ષેપ અને સ્થાપના નિક્ષેપ વચ્ચે તફાવત છે, તે પ્રકટ કરે છે.
"नामढवणाणं" छत्याह
શબ્દાર્થ_શિષ્ય ગુરૂને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે “હે ભગવન ! નામ અને સ્થા૫ના વચ્ચે તફાવત છે? પૂર્વેત કથન પ્રમાણે તે તે બનને વચ્ચે કઈ ભેદ જે દેખાતું નથી, કારણ કે જેમ ભાવાવશ્યકના સ્વરૂપથી રહિત શેવાળપુત્ર આદિમાં “આવશ્યક” એ નામ નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે ભાવાવાના સ્વરૂપથી વિહીન, કાષ્ઠ, પુસ્તક આદિમાં આવશ્યકશાસ્ત્રની તદાકારરૂપે અથવા અદાકાર રૂપે સ્થાપના રૂપ નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે. તેથી ભાવથી વિહીન દ્રવ્ય માત્રમાં ક્રિયમાણ હોવાને કારણે એ બન્ને વચ્ચે કોઈ પણ પ્રકારનો ભેદ દેખાતે નથી. આ પ્રકારની પ્રશ્ન કરનાર શિષ્યની માન્યતા અહીં પ્રકટ કરી છે.
For Private and Personal Use Only
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अमुयोगकन्द्रिका टीका. ११ स्थापनावश्यकस्वरूपनिरूपणम् शयः उत्तरयति-'णामं आवर हियं' इत्यादि । नाम यावत्व थिकम्-स्वाश्रयद्रव्य स्य अस्तित्वकथां यावद् नाम अवतिष्ठते, नाम्न आश्रा द्रव्यं यावत्तिष्टति तावन्नामापि तिष्ठतीति भावः । स्थापना तु इत्वरिका::स्वल्पकालावस्थायिनी वा भवेत् यावत्कथिका वा भवेत् । काष्टकर्मादौ आवश्यकशास्त्रस्य तदाकाररूपा अतदाकारसपा स्थापना यावस्कथिका भवति, अक्षादौ तु सा इत्वरिका भवतीत्यर्थः अयं भावः-काचित् स्थापना स्वाश्रयद्रव्यम्य सद्भावेऽपि मल्यकाल एव निव
उत्तर-(णामं आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा) नाम यावता थिक होता है और स्थापना इरिक तथा यावतथिक दोनों प्रकार का होता है।
स्वाश्रय द्रव्य के अतित्व काल तक नाम रहता है-अर्थात् जिसका वह नाम है वह जब तक मौजूद रहता है तब तक उसका वह नाम विद्यमान रहता है-इसका नाम याक्कथिक है परन्तु स्थापना जो है वह स्वल्प कालतक मी रहती है और यावत्कथिक भी होती है-काष्ठ कर्म आदि में आवश्यकशास्त्र की तदाकाररूप अथवा अतदाकाररूपकृत स्थापना यावत्कथिक होती है-स्वाश्रयद्रव्य की स्थिति तक रहती है। तथा अक्ष-(चौकोर पाशा) आदि में कृत अतदाकार स्थापना स्वल्प काल तक रहती हैं । तात्पर्य यह है कि कोई स्थापना स्वाश्रय द्रव्य के सद्भाव में भी बीच ही में समाप्त हो जाया करती है और कोई स्थापना ऐसी होती है जो अपने आश्रयभूत द्रव्य की
उत्त२-(णाम आवहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा, आवकहिया वा) નામ યાવસ્કથિત હોય છે, પરંતુ સ્થાપના ઈવરિક (સ્વલ્પકાળ સુધી જ રહેનાર) અને યાવત્કાથત, એ બંને પ્રકારની હોય છે. સ્વાશ્રયભૂત દ્રવ્યના અસ્તિત્વકાળ સુધી નામ રહે છે. એટલે કે જેનું તે નામ રાખવામાં આવ્યું છે તે વસ્તુ અથવા વ્યકિતનું અસ્તિત્વ જ્યાં સુધી રહે છે. ત્યાં સુધી જ તે નામનું અસ્તિત્વ રહે છે. આ રીતે નામને યાવત્કથિત કહેવામાં આવ્યું છે. પરંતુ સ્થાપના તે સ્વ૫કાળ સુધી પણ રહે છે અને યાત્કથિત (વસ્તુનું અસ્તિત્વ રહે એટલા માટે કાળ સુધી ટકનારી) પણ હોઈ શકે છે.
જેમકે કાષ્ઠ કર્મ આદિમાં આવશ્યકશાસ્ત્રની તદાકારરૂપ અથવા અતદાકારરૂપ કરેલી સ્થાપના યાવસ્કથિત હોય છે–સ્વાશ્રયયભૂત દ્રવ્યનું જ્યાં સુધી અસ્તિત્વ રહે ત્યાં સુધી જ તે સ્થાપનાનું અસ્તિત્વ રહે છે, તથા અક્ષ (પાશા) આદિમાં કરેલી અતદાકાર સ્થાપના બહુ જ ઓછા કાળ સુધી રહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે—કેઈ સ્થાપનના સ્વાશ્રયભૂત દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ રહેવા છતાં પણ વચ્ચેથી જ
For Private and Personal Use Only
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे तं ते, काचित्तु तत्सत्तां यावदव तिष्ठते, इति एवं च-नामस्थापनयोर्भावशून्यत्वे. नाधारसाम्येऽपि भेदःस्व स्वावस्थानकाल कृत एव भगवता प्रदर्शितः यद्यपि गोपाल दारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेफनामपरिवर्तनं लोके क्वचीदृश्यते, तथाच कालकृतोऽपि भेदो नास्ति, तथापि-बहुशः स्थले नाम्नो यावत्काथिस् त्वमेव दृश्यते, नाम्नः परावर्तनं तु क्वचिद्विरलतयोपलभ्यते । अतोऽल्पस्थलव्यापित्वेन नाम्न इत्वरिकता भगवता न विवक्षिता। नाम्नोऽल्पकालिकताकल्पने तूमूत्रप्ररूपणापत्तिरिति बोध्यम् । सत्तो काल तक रहती है। इस प्रकार नाम और स्थापना निक्षेप में भावशून्यता की अपेक्षा आधार की समानता होने पर भी अपने २ अवस्थान काल की अपेक्षा कृत ही भेद है ऐसा भगवान ने प्रदर्शित किया है । यद्यपि गोपालदारक आदि में उनकी विद्यमानता रहने पर भी कभी २ अनेक नामों का परिवर्तन होता हुआ लोक में कहीं २ देखा जाता है-इस अपेक्षा कालकृत भेद सर्वथा नहीं आता है तो भी अनेक स्थलों में नाम में यात्कथिकता देखी जाती है । इत्वरिकता नहीं। यह तो केवल विरलतारूप में ही कहीं २ देखी जाती है। इसलिये नाम की इत्वरिकता अल्पस्थल व्यापी होने के कारण उस में भगवान् ने विवक्षित नहीं की है। यदि नाम में अल्पकालिकतारूप इत्वरिकता कल्पित की जावे तो उत्सूत्र प्ररूपणा की आपत्ति आती है ऐसा जानना चाहिये। ગમે ત્યારે સમાપ્ત થઈ જતી હોય છે, ત્યારે કોઈ સ્થાપના એવી હોય છે કે જે પિતાના આયભૂત દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ જ્યાં સુધી રહે ત્યાં મોજૂદ રહે છે.
આ પ્રમાણે નામ અને સ્થાપના નિક્ષેપમાં ભાવશૂન્યતાની અપેક્ષાએ આધારની સમાનતા હોવા છતાં પણ પોતપોતાના અવરથાનકાળની અપેક્ષાએ જ ભેદ રહેલે છે, એવું ભગવાને કહ્યું છે.
જે કે ગોવાળપુત્ર આદિનું અસ્તિત્વ રહેવા છતાં પણ કોઈ કોઈ વાર તેમના નામાં પરિવર્તન થયા કરતું હોય છે, એવું પણ જોવામાં આવે છે ખરૂં. આ દષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે નામમાં યાવત્રુથિકતા રહેતી નથી, પરન્તુ આવું ભાગ્યે જ બને છે. અનેક વસ્તુઓ અથવા પદાર્થોમાં તે નામની યાવસ્કથિતા જ જોવા મળે છે-ઇત્વરિતા (અલ્પ રથાયિત્વ) દેખાતી નથી. નામની અપેક્ષાએ ઈવરિક્તા તે કેવળ વિરલતા રૂપે જ કઈ કઈ વસ્તુમાં જોવામાં આવે છે. આ રીતે નામની ઈવરિકતા અ૯૫ સ્થલવ્યાપી હોવાથી ભગવાને અહીં તેની વિવક્ષા કરી નથી. જે નામમાં અલ્પકાલિકતા રૂપ આ ઈરિકતાને સ્વીકારવામાં
For Private and Personal Use Only
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका, सू० १२ नामस्थापनयार्मेदनिरूपणम्
यत्तु-उपलक्षणमात्र चेदं कालभेदेनैतयोंमें दकथनम्-अपरस्यापि बहुप्रकारभेदस्य सम्भवात्, इत्युक्तं, . . . .
तदुत्सूत्रप्ररूपणम्-यथोत्सूत्रप्ररूपणभिया-नामनिक्षेपे इत्वरिकतायाः क्वचित् संभवेऽपि भगवताऽनुक्तत्वादुपलक्षणमिति न स्वीकृतं, तथैव स्थापनायो कालातिरिक्तस्य भेदहेतोः कल्पनेऽप्युत्सूत्रप्ररूपणं प्रसज्येत कालान्यकृतभेदस्य भगवताऽनुक्तत्वात् । एतेन-यत् केश्चिदुक्तं यथा-प्रतिमारूपस्थापना-दर्शनात् भावः समुल्ल
जो कोई ऐसा कहते हैं कि" इस प्रकार के काल भेद से नामनिक्षेप और स्थापनानिक्षेप में जो भेद का कथन किया गया है वह उपलक्षण मात्र है क्योंकि इससे और भी अनेक प्रकारों को लेकर इन दोनों में भेद संभवित होता हैं “सो उनका ऐसा कथन करना उत्सूत्र प्ररूपणा है-आगम से विरुद्ध है। देखो जैसे नाम निक्षेप में कचित् इत्वरिकता का संभव होने पर भी भगवान ने इसे उत्मत्रप्ररूपणा के भय से उस में नहीं कहा है-वहां तो यावत्त थिकता ही वही है और इसी कारण से इत्वरिकताको उपलक्षणरूप से स्वीकार नहीं किया है-उसी तरह स्थापना में काल से अतिरिक्त और किसी बात को भेद का हेतु ग्वीकार किया जायगा तो उसमें भी उसूत्र प्ररूपणा की प्रसक्तिमाननी पडेगी। क्योंकि काल के सिवाय अन्य कृत भेद भगवान् ने उसमें कहा नहीं है। इसी तरह से जो कोई और भी ऐसा कहते हैं कि" प्रतिमारूप આવે તે ઉસૂત્રપ્રરૂપણાને દોષ લાગે છે એટલે કે એ પ્રકારની પ્રરૂપણ કરવી એ સંત્ર વિરૂદ્ધની સિદ્ધાન્તોથી વિરૂદ્ધની પ્રરૂપણ કરી ગણાય, એમ સમજવું.
અહીં કેઈ એવી દલીલ કરે કે આ પ્રકારના કાળભેદની અપેક્ષાએ નામનિક્ષેપ અને સ્થાપનાનક્ષેપ વચ્ચે જે ભેદ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, તે તે ઉપલક્ષણ માત્ર જ છે. કારણ કે આ સિવાય બીજી અનેક રીતે પણ તે બન્ને વચ્ચે ભેદ સંભવી શકે છે. તે આ પ્રકારનું તેનું જે કથન છે તેને ઉસૂત્ર પ્રરૂવણા રૂપ જ ગણી શકાય, કારણ કે તે પ્રકારની માન્યતા આગમની વિરૂદ્ધ જાય છે. જેમ નામનિક્ષેપમાં કઈ કઈ પ્રસંગે ઈરિકતા (અલ્પકાલિનતા)ને સંભવ હોવા છતાં પણ ભગવાને ઉસૂત્ર પ્રરૂપણાના ભયથી તેનો ઉલ્લેખ કર્યો નથી ત્યાં તો માત્ર યાવકથિકતા જ પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે અને એ જ કારણે ઇરિકતાને ઉપલક્ષણરૂપે સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો નથી, એ જ પ્રમાણે સ્થાપનામાં પણ કાળ સિવાયની કેઈ પણ બાબતને ભેદ કારણરૂપે સ્વીકારવામાં આવે તે એ પ્રકારની પ્રરૂપણામાં પણ ઉસૂત્રપ્રરુપણાને જે પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે, કારણ કે સ્થાપના નિક્ષેપમાં કાળકૃત ભેદ સિવાયને કેઈ પણ ભેદ્ર ભગવાને કહ્યો નથી.
For Private and Personal Use Only
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे सति नैवं नामश्रणमात्रादिति नाम थापन यो दः, यथा चन्द्रादेः प्रतिमारूप स्थापनायाँ लोकस्योपयाचितेच्छा पूजाप्रवृत्तिसमीहितलामादयो दृश्यन्ते, नैव नामेन्द्रादौ, इत्यपि तयो दः । एवमन्यदपि वाच्य" मिति तदुत्सूत्रप्ररूपणाजनितानन्तसंसारजनक म् । आगमे दिदमुपलभ्यते-"तहारूवाणं अरहंताणं नामगोयसवणयाए महाफलं'। इति । तत्र नास्ति नामनिक्षेपस्य विषयः । “अरहंताण भगवंताणं" इत्युत्तया तस्मिन्नर्थे प्रयुक्तस्य नाम्न एव श्रवणेन महाफलसंभवात् स्थापना के देखने से जैसे भाों में उल्लास होता है-जैसा भाव उत्।न्न होते हैं वैसा भावो में उल्लास-उस तरह का परिणाम- उस नाम मात्र के श्रमण से नहीं होता है-यही नाम और स्थापनानिक्षेप में भेद है।- देखो-जब इन्द्रकी प्रतिमा रूप से स्थापना की जाती है तो लोग उसके समक्ष विविध प्रकार की याचना करते है, उसकी पूजा करते हैं, और अपने समीहित की प्राप्ति करलेते हैं. इत्यादि सब बाते देखी जाती हैं-नाम इन्द्र आदि में इस प्रार की बाते नहीं देखी जाती-अतः इस तरह से भी इन दोनों निक्षेपों में भेद हैतथा और भी इसी तरह से भेद के हेतु वाच्य हैं" सो ऐसा यह वक्तव्य भा आगम के विरुद्ध है और 'स तरह की प्ररूपणा करना अनन्त संसार बाबढाने वालाहै । कि "तारूपवाले अरहंत भगवंत्तों के नाम और गोत्र के सुनने से महाफल होता है" सों यह कथन नामनिक्षेप यो विषय नहीं है । "अरहंता णं भगवंताणं" क्योंकि इस उक्ति से तथारूप भावअर्हत में प्रयुक्त नाम के
વળી કઈ કઈ માણસે એવું પણ કહે છે કે.“પ્રતિમારૂપ સ્થાપના નિહાળવાથી ભાવેને જે ઉલ્લાસ અનુભવવામાં આવે છે-જે દિલાસ ઉત્પન્ન થાય છે, એ ભાનોનો ઉલલાસ (એ પ્રકારનું મન:પરિણામ)-તે નામ માત્રના શ્રવણથી ઉત્પન્ન થતું નથી. નામનિક્ષેપ અને સ્થાપનાનિક્ષેપ વચ્ચે આ પ્રકારને જ તફાવત છે. જેમકે ઈન્દ્રની પ્રતિમાની સ્થાપના કરવામાં આવી હોય તે લોકો તેની સમક્ષ વિવિધ પ્રકારની યાચના કરે છે, તેની પૂજા કરે છે અને પોતાની ઇચ્છિત વસ્તુઓની પ્રાપ્તિ કરી લે છે, પરંતુ નામ ઈન્દ્ર આદિમાં એવું જોવામાં આવતું નથી. આ રીતે તે બન્ને પ્રકારના નિક્ષેપોમાં આ પ્રકારે ભેદ પણ રહે છે. એટલું જ નહીં પણ તે અને નિક્ષેપો વચ્ચે રહેલે ભેદ દર્શાવતા બીજા કેટલાક કારણોને પણ સદુભાવછે.
તે આ પ્રકારનું કથન પણ આગમ વિરૂદ્ધનું કથન હોવાથી ઉસૂત્રકથન જ ગણાય છે. આ પ્રકારની આગમ વિરૂદ્ધની પ્રરૂપણું કરનાર વ્યકિત અનન્ત સંસારની જનક બને છે. આગમમાં આ પ્રકારનું જે કથન આવે છે કે ...
તથારૂપ અહત ભગવંતેના નામ અને એનું શ્રવણ કરવાથી મહાફલની प्राति थाय छ,” २0 ४थन नामनिक्षपना विषय३५ नथी. २ "अरहताणं भग
For Private and Personal Use Only
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२ नामस्थापनयोर्मेदनिरूपणम् गोपालदारकादौ प्रयुक्तस्य नाम्नः श्रवणेन तु गोशालदारकार्थस्यैव बोधादात्मपरिणामशुद्धिहेतुत्वं तस्य नास्तीति । नामनिक्षेपस्थले भगवतोऽर्हतः स्मरणासंभवः, तस्य भावशून्यावात, अत्र तु नामगोत्रा भगवदर्हतः सम्बन्धं षष्ठयन्तपदप्रयोगादेव दर्शयता भगवता नामनिक्षेपो न विवक्षितः। भावजिनबोधही श्रवण से महाफल होना बतलाया गया है। केवल नाम श्रवण से नहीं। नहीं तो गोपालदारक में प्रयुक्त अहंत नाम के श्रवण से भी महाफल की प्राप्ति हो जानी चाहिये। वहां तो ऐसा होता नहीं है। केवल उस नाम से गोपालदारकरूप अर्थ की हि प्रतीति होती है। आत्मपरिणामों की शुद्विरूप महाफल उसे प्राप्त नहीं होता है। अतः यह मानना चाहिये कि भावरूप अहंत नाम के ही श्रवण से जीवों को आत्मपरिणामों की शुद्धिरूप फल प्राप्त होता है। क्यों कि वही उसका हेतु है। साधारण नामनिक्षेप में यह हेतुता नहीं आती है। यदि कोई ऐसा कहेकि अहंत नामनिक्षेप भले ही आत्मपरिणामों की शुद्धि का हेतु न हो तो न सही परन्तु उसके श्रमण से भगवान् अर्हत का तो स्मरण हो जाता है सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्यों कि नामनिक्षेप स्थल में भगवान् अर्हत का, उससे भावनिक्षेप से शून्य होने के कारण स्मरण हो आना असंवंताणं" त्या ४थन वारा ये मामा माव्यु छ है तथा३५ ना१३५ -18 તમાં પ્રયુકત નામના જ શ્રવણથી મહાફળની પ્રાપ્તિ થાય છે-કેવળ નામ નામના જ શ્રવણથી મહાફળની પ્રાપ્તિ થતી નથી. નહીં તે કઈ પણ વ્યકિતને માટે (દાખલા તરીકે વાળના પુત્રને માટે) “અહત આ નામને ઉપગ કરવામાં આવે, તે તેના નામનું શ્રવણ કરવાથી પણ મહાકુલની પ્રાપ્તિ થઈ જવી જોઈએ ! પણ અહીં તે એવું બનતું નથી. તે નામદ્વારા માત્ર તે ગવાળપુત્ર રૂ૫ અર્થની જ પ્રતીતિ થાય છે. આત્મપરિણામેની શુદ્ધિ રૂપ મહાકળની પ્રાપ્તિ તેના નામ શ્રવણથી થતી નથી. તેથી એવું માનવું જોઈએ કે ભાવરૂપ અહત નામના જ શ્રવણથી જીવને આત્મપારમોની શુદ્ધિરૂપ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, કારણ કે એજ તેને હેતુ છે. સાધારણ નામનિક્ષેપમાં આ હેતુતા સંભવી શકતી નથી.
' વળી કોઈ માણસ અહીં એવી દલીલ કરે કે અહંત નામનિક્ષેપ ભલે આત્મ પરિણામેની શુદ્ધિમાં કારણભૂત ન થત કેય, પણ તેનાથવણથી ભગવાન મહંતના નામનું સ્મરણ તે થઈ જાય છે, એટલું તો આપે માનવું જ પડશે
તે આ પ્રમાણે કહેવું તે પણ ઉચિત નથી, કારણ કે ભાવનિક્ષેપથી રહિત એવા નામનિક્ષેપથી અહંત ભગવાનનું સ્મરણ થવાની વાત અસંભવિત છે.
For Private and Personal Use Only
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
अनुयोगदारस कस्य नाम्न एव भवणेन महाफलसंभवः। एवं स्थापनापि भावरूपार्थशून्या, स्थापनया भावरूपार्थस्य नास्ति कोऽपि सम्बन्धः। भावजिनशरीरवर्तिनी या ऽऽकृतिरासीद् तस्या आश्रयानयिभावरूपसम्बन्धो भावजिनेन सह तदानीं भावोल्लासोऽपि कस्यचित् संजातः, तथा भक्त्या तामाकृति स्मरतो जनस्य भावोल्लासः संभवतु, तदाऽऽकृतेर्भावजिनेन संबन्धात्, परंतु--स्थापनाया आश्रयायिभावसम्बन्धो नास्तिभावजिनेन सह । भावजिनात्मनस्तत्रावाहनं स्थापनं तु जिनाज्ञाबाह्य
भव है। इसलिये "तहारूवाणं अरहंताणं" इत्यादि पाठ में नाम और गोत्र इन दोनों के साथ भगवान् अर्हत के संबन्ध को पष्ठयन्तपद के प्रयोग से प्रकट करनेवाले सूत्रकार ने नामनिक्षेप की विवक्षा नहीं की है। किन्तु भावनिक्षेप जिनके बोधक नाम की विवक्षा की है। क्योंकि उसी नाम के श्रवण से श्रोता को महाफल की प्राप्ति होना संभवित है। इसी तरह से स्थापनामी भावरूप अर्थ से शून्य होती है। क्यों कि उसका भावनिक्षेपरूप अर्थ के साथ कोई संबन्ध ही नहीं है। यदि कहा जावे कि पहिले भाव जिनके अस्तित्व काल में जो उनके शरीर की आकृति थी-वह आकृति ही स्थापना निक्षेप में विद्यमान रहती है-इसलिये उससे आश्रयाश्रयी भावरूप संबन्ध का बोध हो जाता है-सो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि स्थापनानिक्षेप में आश्रयी ही नहीं हैं तब उससे भावजिन के साथ आश्रयाश्रयी भावरूप संबन्ध ज्ञात कैसे हो सकता है ? यह तो भावजिनके साथ वे जब थे तब
तथी "तहारूवाणं अरहंताणं" त्या म नाम अने गोत्र मे मन्ननी સાથે ભગવાન અહંતના સંબંધને છઠ્ઠી વિભક્તિના પદના પ્રયોગ દ્વારા પ્રકટ કરનાર સૂત્રકારે નામનિક્ષેપની વિવક્ષા કરી નથી, પરંતુ ભાવનિક્ષેપ જિનના બેધક એવા નામની વિવક્ષા કરી છે. કારણ કે એજ નામના શ્રવણથી શ્રોતાને મહાફળની પ્રાપ્તિ થવાનું સંભવી શકે છે. એ જ પ્રમાણે સ્થાપના પણ ભાવરૂપ અર્થથી વિહીન જ હોય છે, કારણ કે ભાવનિક્ષેપરૂપ અર્થની સાથે તેને કેઈ સંબંધ જ હોતું નથી.
જે અહીં એવી દલીલ કરવામાં આવે કે પહેલાં ભાવજિનના અસ્તિત્વકાળમાં જે તેમના શરીરની આકૃતિ હતી, એ આકૃતિ જ સ્થાપના નિક્ષેપમાં વિદ્યમાન રહે છે, તેથી તેના દ્વારા આવાશ્રયી ભાવરૂપ સંબંધને બંધ થઈ જાય છે, તે એ પ્રકારની માન્યતા પણ ઉચિત નથી, કારણ કે વર્તમાન કાળે સ્થાપના નિક્ષેપમાં જે આશ્રયીને જ સદભાવ ન હોય તો તેના દ્વારા ભાવજિનની સાથે આશ્રયાશ્રયી ભાવરૂપ સંબંધને બંધ જ કેવી રીતે થઈ શકે ! ભાવજિનની સાથે જ્યારે તે
-
For Private and Personal Use Only
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका १२ नामस्थापनयों दनि रूपग प्रवचनविरुद्धं कर्तुमशक्यं, कथं तर्हि-भावजिनसम्बन्धाभावे प्रतिमा भावजिनं तद्गु
णं वा स्मारयितुं शक्ता भवेत् । सर्वथा कुप्रावचनिकद्रव्यावश्यकवत् प्रतिमापूजनं कुर्वन्तःकारयन्तश्च मिथ्यात्वं प्राप्नुवन्ति न तु सभ्यक्त्वमिति । इति स्थापना वश्यकम् ॥सू० १२॥
था-। हां यह हो सकता है कि जिस प्रकार भावजिन का दर्शन करनेवाले किसी व्यक्ति को भागेल्लास हो आता है, उसी तरह भक्ति से उनकी उस आकृति का स्मरण करनेवाले जन को भावोल्लास हो आवे-क्यों कि उस आकृति का भावजिन के साथ संबन्ध है यदि भावजिनके साथ उस आकृति को संबन्ध नहीं होवे तो फिर प्रतिमा भावजन और उनके गुणों का स्मरण कराने में समर्थ कैसे हो सकती है ? परन्तु स्थापना का भावजिन के साथ आश्रया श्रयी भावरूप संबंध तो कोई है नहीं-कि जिस से उससे इसका बोध हो जावे । भावजिन की आत्मा का उसमें आह्वान करना, स्थापन करना यह सब तो जिनाज्ञा से बिलकुल बाहिर की बात है। ऐसी प्रवचन विरुद्ध बात को करना अशक्य है इसलिये सर्वथा कुप्रावचनि: द्रव्यावश्यक की तरह प्रतिमा पूजन करने और करानेवाले मिथ्यादृष्टिपने को प्राप्त होते हैं-सम्यक्त्व को नहीं। इस तरह स्थापनावश्यक का यह स्वरूप है । भावार्थ इसका स्पष्ट है । ॥सूत्र १२॥
આકૃતિ વિદ્યમાન હતી ત્યારે જ આ પ્રકારને સંબંધ અસ્તિત્વ ધરાવતા હતા. હા, એવું સંભવી શકે છે કે જે પ્રકારે ભાવજિનના દર્શન કરનાર કે વ્યક્તિમાં ભાલવાસને ઉમળકે આવી જાય છે, એજ પ્રમાણે ભકિતભાવપૂર્વક તે આકૃતિનું સ્મરણ કરનાર વ્યકિતમાં પણ ભાલ્લાસને ઉમળકે આવી જાય ખરો, કારણ કે આકૃતિને ભાવજિનની સાથે સંબંધ છે. જે ભાવજિનની સાથે તે આકૃતિને સંબંધ ન હોય, તે તે પ્રતિમા ભાવજનક અને અનેક ગુણોનું સ્મરણ કરાવવાને સમર્થ કેવી રીતે બની શકે ! પરંતુ સ્થાપનાને ભાવજિનની સાથે આશ્રપાશ્રયી ભાવરૂપ કોઈ સંબંધ તે છે જ નહી. કે જેના દ્વારા તેને બંધ થઈ જાય, ભાવજિનના આત્માનું તેમાં આવાહન કરવું-સ્થાપન કરવું, એ તે જિનાજ્ઞાની વિરૂદ્ધનું કૃત્ય ગણાય. એવી પ્રવચનવિરૂદ્ધની વાત કરવી જોઈએ નહીં. તેથી સર્વથા કુપ્રવચનિક દ્વવ્યાવશ્યકની જેમ પ્રતિમાપૂજન કરનાર અને કરાવનાર મિયાદષ્ટિયુકત બની જાય છે અને સમ્યકત્વથી રહિત જ રહે છે, સ્થાપનાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. તેને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ હોવાથી વિશેષ સ્પષ્ટીકરણની જરૂર રહેતી નથી. સ૧રા
For Private and Personal Use Only
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
अनुयोगद्वारसूत्रे इदानीं द्रव्यावश्यक निरूपयति___मूलम्-से कि तं दव्वावस्सय ? दव्वावस्सयं दुविहं पण्णत्तं तं जहा-आगमओ य नो आगमओ य ॥ सू० १३ ॥
छाया-अथ किं तद् द्रव्यावश्यकम् ? व्यावश्यकं द्विविध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च ॥ सू०. १३ ॥
टीका-से किं तं' इत्यादि.., शिष्यःपृच्छति-अथ क तद् द्रव्यावश्यकम् ? उत्तरयति-'दव्वावस्सयं' इत्यादि । द्रव्यावश्यकम्-द्रवति-गच्छति तांस्तान पर्यायानिति द्रव्यम्-विवक्षितयोरतीतभविष्यद् भावयोःकारणम्, अनुभूत विवक्षितभावमनुभविष्यद्विवक्षितभावं वा वस्त्वित्यर्थः । द्रव्पलक्षणं च सामान्यत इदं बोध्यम्।
अब मत्रकार द्रव्यावश्यक का निरूपण करते हैं“से किं तदव्वावस्सयं" इत्यादि। ॥सूत्र १३॥
शब्दार्थ-(अथ) शिष्य पूछता है कि हे भदंत ! (किं त दव्यावस्सयं) पूर्व प्रक्रान्त (पूर्व प्रस्तुत विषय) द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(दव्वावस्सयं दुविहं पण्णत्त) द्रव्यावश्यक दो प्रकार का है जो उन २ पर्यायों को प्राप्त करता है उसका नाम द्रव्य है अर्थात् जो विवक्षित अतीत अनागत भाव का कारण हो वह द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजगद्दी से पृथक् किये हुए राजा को नरेश कहना। तथा जो आगे राजा होनेवाला है वर्तमानमें वह राजा की पर्याय में नहीं है उसे अभी से राजा कहना यह भविष्यत् कालीन पर्याय की अपेक्षा द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजा का पुत्र
હવે સૂત્રકાર દ્રવ્યાવશ્યકનું નિરૂપણ કરે છે– - "से किं तं दमास्सयं" छत्याहशहाथ-शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न पूछे छे ....
"से किं तं दवावस्सयं ?" उ मान्! पूर्व l-1 ( प्रस्तुत विषय) દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्त२-(दव्वावस्सयं दुविहं पण्णत्तं) द्रव्या१२५४ मे ४२ ४il छे. ते તે પર્યાને જે પ્રાપ્ત કરતું રહે છે તેનું નામ દ્રવ્ય છે. એટલે કે જે વિવક્ષિત मतीत (भूत सिन), अनागत (विष्यासिन) भावनु ४२५ डाय छ, ते द्रव्य. નિક્ષેપ છે. જેમકે રાજગાદીને જેની પાસે ભાગ કરાવવામાં આવે છે તેને નરેશ કહે તે ભૂતકાલિન પર્યાયની અપેક્ષાએ દ્રવ્યનિક્ષેપ છે, તથા વર્તમાન કાળે જે રાજા નથી. પણ ભવિષ્યમાં રાજા બનવાને છે તેને અત્યારથી જ રાજા કહે તે ભવિષ્યકાલિન પર્યાયની અપેક્ષાએ દ્રવ્યનિક્ષેપ છે. જેમ કે રાજાના પુત્રને રાજા કહે
-
-
-
For Private and Personal Use Only
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १३ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् । इति ।
व्याख्या-लोके हि भूतस्य-अतीतम्य भाविनः भविष्यतो वा भावस्य तुं यत्कारणं भवति, तत् तत्त्वज्ञैः द्रव्य-कथितम् । तद्रव्यं सचेतनाचेतनं-सचेतनं-पुरुषादिकम्, अचेतनं-काष्ठादिकं च भवति । अयं भावः-य: पूर्व स्वर्गादिविन्द्रादिर्भूत्वा इदानीं मनुष्यादित्वेन परिणतः स जीवो तीतस्य इन्द्रादिपर्यायस्य कारण यात साम्प्रतमपि द्रव्यत इन्द्रादिरुच्यते । यथा- अमात्यादि पदात् प्रच्युतोऽपि अमात्मदिरुच्यते । अपि च अग्रेऽपि य इन्द्रादित्वेनोत्पत् यते, स इदानीमपि भविष्यदिन्द्रादिपदपर्यायकारणराजा कहा जाता है द्रव्य निक्षेप में विवक्षितपर्याय को जा अनुभवित कर चुकी है ऐसी वातु तथा विवक्षित पर्याय को जो भविष्यत्काल में अनुभव करेगा ऐसी वस्तु के विषयरूप से परिगणित हुई है यही बात सामान्यरूप से कथित इस द्रव्य के लक्षण में इस प्रकार से जानने के लिये वही गई है-लोक में तत्वज्ञों ने भूतपर्याय का अथवा भविष्यत् पर्याय का जो कारण होता है वह द्रव्य है। ऐसा कहा हैं। वह द्रव्य सचेतन भी है और अचेतन भी हैं । इस का भाव इस प्रकार से जानना चाहिये-जैसे कोई जी पहिले स्वर्ग आदि में इन्द्र आदि की पर्याय में था और वहां से चव कर मनुष्य पर्याय में आगया । फिर भी उसे अतीत इन्द्रादि पर्याय का कारण होने से मनुष्य पर्याय में भी आमात्यपद से रहित हुए व्यक्तिको अमात्य कहने की तरह इन्द्र कहना यह द्रव्य निक्षेप है। इसी तरह जो जीव भविष्य में વામાં આવે છે. દ્રવ્યનિક્ષેપમાં વિવક્ષિત (અમુક) પર્યાયને જે અનુભવિત કરી ચુકી છે એવી વસ્તુ તથા વિવક્ષિત પર્યાયનો જે ભવિષ્યકાળમાં અનુભવ કરશે. એવી વસ્તુ તેના વિષયરૂપે પગિણિત થઈ છે. એજ વાત સામાન્યરૂપે કથિત દ્રવ્યના લક્ષણમાં આ પ્રકારે જાણવાને માટે બતાવવામાં આવી છે-તત્ત્વજ્ઞોએ એવું કહ્યું છે કે લેકમાં ભૂતપર્યાયનું અથવા ભવિષ્યની પર્યાયનું જે કારણે છે, તેનું નામ દ્રવ્ય છે. તે દ્રવ્ય સચેતન પણ છે અને અચેતન પણ છે. તેને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે સમજ.
- જેમકે કોઈ એક જીવ પહેલાં સ્વર્ગમાં ઈદ્રની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયો હતે. ત્યારબાદ તે ભવનું આયુષ્ય પૂરું થતાં, ત્યાંથી ચ્યવીને તે મનુષ્યલોકમાં મનુષ્યની પર્યાયે ઉત્પન થઈ ગયે. જેમ અમાત્યના પદથી ચુત થયેલી વ્યકિતને અમાત્ય કહેવામાં આવે છે. એમ મનુષ્યની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયેલા તે મનુષ્યને તેની ભૂતકાલિન ઈન્દ્રરૂપ પર્યાયને કારણે ઈન્દ્ર કહે, તેનું નામ જ દ્રવ્યનિક્ષેપ છે. જેમ
For Private and Personal Use Only
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबारसूत्रे त्वाद् द्रव्यत इन्द्रादिरभिधीयते, यथा-राजकुमारोऽपि राजा प्रोच्यते भाविराज पर्यायप्राप्तिहेतुत्वात् । एवमचेतनस्य काष्ठादेरपि भूतभविष्यत्पर्यायकारणत्वेन द्रव्यता भावनीयेत्यर्थः। . एवं द्रव्यरूप मावश्यकम् । तद् द्रव्यावश्यकं हि विधं प्रज्ञप्तम् ? तद्यथाआगमतश्च-आगममाश्रित्य, नो आगमतश्च-नो आगममादित्य । च शब्दौढयोरपि स्वस्वविपये प्राधान्यख्यापनाौँ ॥सू० १३॥ -- तत्र-आगमतो द्रव्यावश्यकं निरूपयति
मूलम्--से कि तं आगमओ दव्वावस्सयं ? आगमओ दव्वावस्सयं जस्स णं आवस्सएत्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलिय अभिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कठेट्रिविप्पइन्द्र की पर्याय से उत्पन्न होनेवाला हो उसे भविष्यकालीन इन्द्र पर्याय का कारण होने के कारण राजकुमार को राजा कहने की तरह इन्द्र पहना यह भी द्रव्य निक्षेप का विषय है। यद्यपि राजकुमार वर्तमान में राजा नहीं है आगे राजा होगा-परन्तु जो उस अवस्था में भी वह राजा कहा जाता है वह भाविराज पर्याय की प्राप्ति का हेतु होने से ही कहा जाता है। इसी तरह से अचेतनकाष्ठ आदि में भी भूत. भविष्यत् पर्याय की कारणतालेकर द्रव्यता घटित कर लेनी चाहिये। इस तरह द्रव्यरूप आवश्यक का नाम द्रव्यावश्यक है। यह द्रव्यावश्यक आगम को आश्रित करके और नो आगम को आश्रित करके दो प्रकार का होता हैं । भावार्थ स्पष्ट है-सूत्र १३॥ ભવિષ્યકાળમાં રાજા બનવાને હેય એવા રાજકુમારને “રાજા કહેવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે જે જીવ ભવિષ્યમાં ઈન્દ્રની પર્યાયે ઉત્પન્ન થવાનું હોય તેને ભવિષ્યકાલિન ઈન્દ્ર પર્યાયનું કારણ હોવાને લીધે ઉદ્ર કહે તે પણ દ્રવ્યનિક્ષેપને વિષય છે જે કે રાજકુમાર અત્યારે રાજા નથી, પરંતુ ભવિષ્યમાં રાજા થવાને છે, છતાં પણ તેને રાજકુમારની અવસ્થામાં પણ જે રાજ કહેવામાં આવે છે તે ભાવિ રાજપર્યાયની પ્રાપ્તિરૂપ કારણની અપેક્ષાએ જ કહેવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે અચેતન કાષ્ઠ આદિમાં પણ ભૂત-ભવિષ્ય પર્યાયની કારણુતાની અપેક્ષાએ દ્રવ્યતા ઘટિત કરી લેવી જોઈએ. આ પ્રકારે દ્રવ્યરૂપ આવશ્યકનું નામ દ્રવ્યોશ્યક છે તે દ્રવ્યાશ્યક બે પ્રકારનો છે-(૧) આગમની અપેક્ષાએ અને તે આગમની અપેક્ષાથી બે પ્રકારના સમજવા. ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે. સૂત્ર ૧૩ છે
For Private and Personal Use Only
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम् मुकं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाएनोअणुप्पेहोए, कम्हा? 'अणुवओगोदव्व' मिति कासू.१४
छाया--अथ किं तद् आगमतो द्रव्याश्यकम् ? आगमतो द्रव्यावश्यक यस्थ खलु आवश्यकेति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं नामसम घोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमिलितम् अब्दत्यानेडितं परिपूर्ण परिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतम् । स खलु तत्रं वाचनया प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया नो अनुप्रेक्षया, कस्मात् ? अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा ॥१० १४॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं आगमओ दवावम्सयं' इति । अथ किं तद् आगमतो द्रव्यावश्यकम् ? आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकं किम् ? इति प्रष्दुराशयः उत्तरयति-'आगमओ व्वावस्सयं' इत्यादि। आगमतो द्रव्यावश्यकम्-एवं विशेषम्-याय खलु साधो.-आवश्यकमिति पदम्-सर्वज्ञप्रणीतमावश्यकाभिधेय शास्त्रं शिक्षितम्-विनयपूर्वकं गुरुमुखाद् गृहीतम् । स्थितं स्मृतिपथे
आगम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक का स्वरूप सूत्रकार निरूपित करते हैं"से किं तं" इत्यादि ॥सूत्र: १४॥ .
शब्दार्थ-(से) शिष्य पूछता हे कि हे भदंत ! (किं तं आगमओ दव्वावस्सयं) आगम की अपेक्षा करके द्रत्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? अर्थात् द्रध्यावश्यक के जो दो भेद कहे गये हैं उनमें से पहिले भेद का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(आगमओ दवावस्सयं) आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार से है-(जस्स णं आवस्सएत्ति पदं सिक्खिय) जिस साधुने आवश्यक शास्त्र को विनयपूर्वक गुरुके मुख्न से सीखा है (ठियं) उसे अच्छी
હવે સૂત્રકાર આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાશ્યકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે.
"से किंत" त्याहि
शाय-(से) शिष्य गुरुने मेयो प्रश्न पूछे छे 3- (कि त आगमओ दवावस्सय?) मागभनी अपेक्षा २ द्र०या१२५४ ४ह्यो छ तेनु यु २१३५ है ? એટલે કે દ્રવ્યાવશ્યકના જે બે ભેદ બતાવવામાં આવે છે, તેમાંથી જે પહેલા ભેદ બતાવે છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर--(आगमओ दवावस्सय) मागमनी अपेक्षाये द्र०यावश्यतुं २१३५ I Rनुछे-(जस्सणं आवस्सएत्ति पदं सिक्खियं) रे साधु-मे मावश्यानु ગુરુની સમક્ષ વિનયપૂર્વક અધ્યયન કર્યું છે, (હિ) તેને સારામાં સારી રીતે પિતાના
For Private and Personal Use Only
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारमत्रे विद्यमानम्, जितं-शब्दतोऽर्थतश्च परिचितम्-परिज्ञातम् । मितं-विज्ञातश्लोकपदर : वर्णादि संख्यामानम्, परिजितं-परि-समन्तात् सर्वप्रकारैर्जितं-परिजितम, आनु, पूर्व्या, अनानुपूर्या च परा तितम, नामसमम्-नाम्ना समं यथा नामं न विस्मृतं भवति, तथा र त् वदापि विस्मृतं न भवति, तन्नामसमम, घोषसमं घोषा उदात्तादयस्तैः समम, यथा गुरुणा घोषा उक्तास्तथा यत्र शिष्येणापि समुच्चार्यन्ते तद् घोषसमम् । अहीनाक्षरम् एकेनाप्यक्षरेण अहीनम् । अनत्यक्षरम्-एकद्रयादिभिरक्षरैरधिक मत्यक्षरम्, न अत्यक्षरं यत्र तदनत्यक्षरम-अधिकाक्षररहितमित्यर्थः, अव्याविद्धाक्षरम-विद्धानि-विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव विपर्यस्तानि अक्षराणि यस्मिस्तद् व्याविद्धाक्षरम्, न तथा अव्याविद्याक्षरम च्याविद्धाक्षरत्वदोषतरह से अपने स्मृति पथ में उतारा है, (जियं) शब्द और अर्थ की अपेक्षा लेकर जिसने उसे अच्छी तरह से जान लिया है (मियं) जिसके श्लोकों की पदों की और वों की संख्या का प्रमाण जिसे भली प्रकार अभ्यास किया हुआ है (परिजियं) आनुपूर्वी एवं अनानुपूर्वी से जिसने उसे सब तरफ से और सब प्रकार से आवर्तित किया है, (नामसमं) अपने नाम के समान जो कभी भी उसे अपने स्मृतिपथ से दूर नहीं करता है (घोससमं) जिस प्रकार से गुरु महाराज उदात्त आदि घोष स्वरों का उच्चारण किया है, उसी प्रकार से जो उसके घोषादि स्वरों का चारुरूप से उच्चारण करता है, तथा-(अही णवखरं) एकभी अक्षर की हीनता से रहित उसे जिसने सीखा है (अणचवखरं) बोलते समय-पाठ करते समय जो अपनी तरफ से बोलता है-अर्थात् जैसा उसमें लिखा है वैसा ही उसे उच्चारण करता है (अ-वाइद्धवस्त्रं) जिसे स्मृतिपटमा तायु छ, (जिय) श६ भने अनी अपेक्षाय ने त साश शत onell eीधेद छ, (मिथ) ॥ योनी, पहोनी मने वोनिी सध्यान प्रमाणु ये सारी रीते सम सीधु छे, (परिजियं) मानुषी भने मनानुपूर्वी पूर्व ) तेने यी १२३थी भने मधा रे ५२पर्तित ४२ सीधु छ, (नामसम) પિતાના નામની જેમ જે તેને કદી પણ પિતાના સ્મૃતિપટમાંથી દૂર કરતું નથી, (घोससम) २ रीते शु३ भडारा Sad मा पस्पशन स्या२९ ४यु डाय, मे प्रारे तेना धापा २१२नुरे सुशत या२९४२तो छाय, (अहीणक्खरं) એક પણ અક્ષરની હીનતા ન રહે એવી રીતે જેણે તેનું અધ્યયન કર્યું છે, (अणच्चकखा) मोसती मत-पाठ ४२ता मते २ पाताना त२थी मे पशु सक्ष२ તેમાં ઉમેરીને બેલ નથી-એટલે કે તેમાં જે પ્રમાણે લખ્યું હોય એ પમાણે જ તેનું ઉચ્ચારણ કરે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
र
अनुयोगचन्द्रिका टीका-मृ. १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम् रहितम्, अक्षरव्यतिक्रमरहितमित्यर्थः, अस्खलितम् - शास्त्रपाठसमये मध्ये मध्ये विरम्यं विरम्य तदुच्चारणम् तत्स्खलितरूपोच्चारणदोषस्तेन रहितमित्यर्थः । अभिलितं मिलितदोपरहितम्, तू शास्त्रान्तरवर्तिभिः पदैरमिश्रितं यथा - सामायिकसूत्रे दशवैकालिको तराध्यय दिपदानि न क्षिपति । अथवा - परार्तमानस्य यंत्र पदादि विच्छेदो न प्रतीयते तम्मिलितं न तथा, अमिलितम् । अव्यया डितम् - एकस्मिन्नेव शास्त्रेऽन्यान्यस्थाननिबद्धानि एकार्थानि सूत्राणि एकत्र स्थाने समानीय यत्पठितं तद् स्याम्रेडितम् अथवा - भाचाराङ्गादिसत्रमध्ये स्वबुद्धिउसने इस तरह से सीखा है कि जिस से उसके उच्चारण में अक्षरों का व्यतिक्रम नहीं हो सकता हो, (अक्त्रलिंगं) पाठ करते समय जो बीच २ में ठहर कर उसका उच्चारण नहीं करना है किन्तु धाराप्रवाह के समान सावधि जो उसे बोलता चला जाता है, (अमिलियं ) शास्त्रान्तरवर्ती पदों को मिलाकर जो उसे नहीं बोलता है - जैसे सामायिक सूत्र में दशवैकालिक, उत्तराभ्ययन के सूत्रों को बोलना - यह मिश्रित दोष हैं- इस दोष से रहितकर सामायिक पाठ का बोलना यह अमिश्रित दोष हैं । अथवा पाठ करते समय जहाँ पदादि का विच्छेद प्रती नहीं होता है, उसका नाम मिलिन है, इसरूप से नहीं बोलना इस का नाम अमिलित है - अर्थात् इस तरह से आवश्यक सूत्र का उच्चारण करता हैं कि जिसके उच्चारण में पदादिका विच्छेद अच्छी तरह से लक्षित होल रहना है । ( अवच्चामेलियं) एक ही शास्त्र में अन्य २ स्थानों पर लिखे गये
सूत्रों को एक स्थान में लेकर उस शास्त्र वा पढना इसका नाम (अन्वाइदुक्खरं) नेनु ते। खेत्री रीते अध्ययन युद्ध छे ! तेनाभ्यारण वर्णते अक्षरोनो व्यतिभ था तो नथी, (अक्खलियं ) ना पाठ उरती वणते વચ્ચે વચ્ચે અટકીને તેનુ” ઉચ્ચારણ કરતે નથી પણ પાણીના પ્રવાહની જેમ मस्थलित३ये ? तेनु' (भ्यार ये लय छे, (अमीलिय ) अन्य शास्त्रवत पाने તેની સાથે સેળભેળ કરીને જે તેનું ઉચ્ચારણ કરતા નથી-જેમકે સામાયિક સૂત્રમાં દશવૈકાલિક કે ઉત્તરાધ્યયનના સૂત્રાત્તુ' ઉચ્ચારણ કરવું તેનું નામ મિશ્રિત દોષ છે, આ દાષા ન થાય એવી રીતે સામયિક પાઠનું ઉચ્ચારણ થવું જોઇએ. અથવા પઠ કરતી વખતે જયાં પાદના વિચ્છેદ થતા નથી, તેનુ નામ મિલિત છે અને તે સંકારે ઉચ્ચારણ ન કરવું તેનું નામ અમિલિત છે. એટલે કે તે આવશ્યકસૂત્રના પાહતુ એવી રીતે ઉચ્ચારણ કરે છે કે જેના ઉચ્ચારણમાં પાદના વિચ્છેદ સારી बीते दक्षित थंतो रहेछ, (अवचामलिंग ) is शास्त्रम बुढा लुहा स्थानों पर લખવામાં આવેલા એકાક સૂત્રને એક જે સ્થાનમાં લર્ષને તે શાસ્ત્રના પાઠ કરવાં
For Private and Personal Use Only
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नापरिपूर्णघोषमिति
उच्यते, घोषसमम
रणध पम्' इति
अनुयोमद्वारसूत्रे कल्पितानि तत्सदृशानि सत्राणि कृत्वा प्रक्षिप्य पठित व्यत्यानेडितम् । यश अस्थानविरतिकं व्यत्यानेडितम्, न तथा, अव्यत्यानेडितदोषरहितमित्यर्थः । परिपूर्णम्-सूत्रतो विन्दुमात्रादिभिरननम्, अर्थतोऽध्याहागकाक्षादिरहित च । परिपूर्णघोषम् उदात्तादिघोषयुक्तम् ननु 'घोषसमम्' इत्युक्त्वा पुनःपरिपूर्णघोषमिति कथनं पुनरुक्तिदोषग्रस्तम्, इति चेदुच्यते, घोषसमम्' इति शिक्षाकालमाश्रित्योक्तम्, 'परिपूर्णघोषम्' इति तु परावर्त्तनाकालमाश्रित्यक्तम्, अतो नास्ति पुनरुव्यत्यानेडिन है अथवा आचारांग आदि सूत्र के बीच में अपनी बुद्धि से बनाकर उसके जैसे सूत्रों को प्रक्षिप्त करके पढना इसका नाम भी व्यत्याप्रेडित है, अथवा बोलते समय जहां बिराम लेना चाहिये वहां विगम नही लेना और नहीं लेना चाहिये वहां विम लेना इसका नाम भी व्यत्यानेडित है। इस प्रकार का व्यत्यानेडित देष जिसके द्वारा उस आवश्यक शास्त्र के अध्ययन करने में नहीं लगा गया. है अर्थात् इस दोष को वर्जित करके जिसने आवश्यकशास्त्र को सीखा है, (पडिपुण्णं) सूत्र की अपेक्षा विन्दु मात्र आदि से अन्यून एवं अर्थ की अपेक्षा अध्याहार एवं आकांक्षा आदि से रहितरूप से उस आवश्यकशास्त्र का जिसने भली प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर लिया है(पंडिपुण्णघोस) उदात अनुद्यत्तस्वरिस घोषो का यथास्थान ज्ञान प्राप्तकर जिसने उस शास्त्र का अच्छी रीति से परावर्तन किया है। “घोषसमं और परिपूर्णपोष" इन, दोनों विशेषणों में पुनरुक्तिदोषइस लिये नही मानना चाहिये कि पहिला विशेषणशिक्षा काल को आश्रित करके कहा गया है और यह दूसरा विशेषण परावर्तन તેનું નામ “ ત્યાઍડિત છે. અથવા આચારાંગ આદિ સૂત્રને પાઠ કરતી વખતે વચ્ચે વચ્ચે પિતાની બુદ્ધિથી રચેલાં તેના જેવાં જ સૂત્રોનું ઉચ્ચારણ કરવું તેનું નામ પણ વ્યત્યાગ્રેડિત છે અથવા બોલતી વખતે જયાં વિરામ લે અને વિરામ ન લેવાનું હોય ત્યાં વિરામ લે તેનું નામ પણ વ્યત્યાગ્રેડિત છે. આ પ્રકારના વ્યત્યાગ્રંડિત દેષનું જેના દ્વારા તે આવશ્યક શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરતી વખતે સેવન કરાયું નથી, એટલે કે આ દોષના ત્યાગપૂર્વક જેણે આવશ્યકશાસ્ત્ર અધ્યયન કર્યું છે: (पडिपुण्णं) सूत्रनी अपेक्षा आन्दु, मात्र माहिथी भन्यून मन मथनी अपेक्षा અધ્યાહાર અને આકાંક્ષા આદિથી રહિતરૂપે તે આવશ્યકશાસ્ત્રનું જેણે સારી રીતે ज्ञान प्रात सीधु छ.. ..:. . (पडिपुण्णघोस) हात्त या घोषानु यथास्थान ज्ञान प्रासरीन से ते शानुसारीरीत परावर्तन युछ, 'घोससमं' भने “पडिपुण्णघोस" मा भन्ने વિશેષમાં પુનરુક્તિ દોષ એ કારણે માનવું જોઈએ નહીં કે પહેલું વિશેષણ શિક્ષા કાળને આશ્રિત કરીને વપરાયું છે અને બીજું વિશેષણ પરાવર્તન કાળને
For Private and Personal Use Only
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १४ द्रव्यावश्यक रूपनिरूपणम् क्तिदोषः । कण्ठोष्ठविप्रमुक्तम्-कण्ठश्च-ओष्ठंच-कण्ठोष्ठम्-तेन विप्रमुक्तम्-सुस्पष्ट मित्यर्थः न तु बालमूकादिभाषितवदस्पष्टम् । तथा-गुरुवाचनोपगत-गुरोःसकाशादधिगता या वाचना, सूत्रस्यार्थस्य च ग्रहणं तथा उपगत प्राप्तम, तदेवं यस्य साधोरावरपकपदं शिक्षितादिगुणोपेतमधिगतं भवति, स खलु साधुः तत्र आवश्यकपदे वाचनया-शिष्याध्यापनरूपया प्रच्छनया-प्रच्छना-पूर्वाधीतसूत्रादौ संशये सति गुरुसमीपे प्रच्छनम्, यद्वा-प्रच्छना-विशोषितस्य सूत्रस्य माभूद् विम्मरणमिति गुरोः प्रश्नरूपा, तया, परिवर्तनया अधीतस्य सूत्रादेः पुनःपुनरावृत्ति करणं गुगनं परिवर्त ना, तया, धर्मकथया=दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्चसंघात सुगतौ धारय(पुनरावर्तन) कालको आश्रित करके कहा गया है। (कंठोडविप्पमुक्क) बाल आदि के भाषित की तरह जिस का उसशास्त्र का अस्पष्ट उच्चारण नहीं है किन्तु बिलकुल स्पष्ट स्वर से जो उसका उच्चारण करता है, तथा (गुरुवायणोवगय) गुरुके पास रहकर जिसने इस आवश्यकशास्त्र की वाचना पाई है-सूत्र और अर्थ का अध्ययन किया है-जिस से उसे उस-आवश्यक शास्त्र का ज्ञान प्रात हुआ है-इस तरह इन पूर्वोक्त श्रुतगुणरूपविशेषणों के अनुसार जिस साधुने आवश्यकशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करलिया है-अतः (से) वह साधु (तत्थ) उस आवश्यक शास्त्र मे (वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए) शिष्य अध्ययनरूप वाचना से, पूर्वाधीत सूत्रादि में संशय होने पर गुरु के समीप पूछनेरूप अथवा विशोधित सूत्र का विस्म, रण न हो जावे इस ख्याल से गुरु से प्रश्नकरनेरूप पृच्छना से, अधीत पढा हुआ सूत्रादिक कि पुनः पुनः आवृत्ति करनेरूप परिवर्तना से और दुर्गति में पडते माश्रित ४ीने १५रा छ. (कंठाहविप्पमुक) uts मा 'भू't भासन જેવું અસ્પષ્ટ ઉચ્ચારણ જે કરતો નથી–પરન્ત બિલકુલ સ્પષ્ટ સ્વરથી જે તેનું ઉચ્ચારણ अरे छ, (गुरुवारणोधगयं) शु३नी पासे २हीन २ मा मावश्य: - वायना કરી છે-એટલે કે ગુરૂની સમક્ષ જેણે સૂત્ર અને અર્થનું અધ્યયન કર્યું છે અને આ રીતે જેને આવશ્યક સૂત્રનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું છે, આ રીતે પૂર્વોકત શ્રત ગુણ રૂપ વિશેષણોના અનુસાર જે સાધુએ આવશ્યશાસ્ત્રનું જ્ઞાને પ્રાપ્ત કરી લીધું છે. અને सथी (से) ते साधु (तत्थ) ते मावश्यशास्त्रमा (वायणाए 'पुच्छणाएं परियट्टणाएं धम्मरहाए) शिष्य मध्ययन३५ पायन 43 पूर्वाधात (पमा रेनु भययन ४२पामा આવ્યું છે તેને પૂર્વાધીત કહે છે) સૂત્રાદિમાં સંશય થાય ત્યારે ગુરૂને તે વિષે પ્રશ્ન કરવારૂપ પૃચ્છાવડે અથવા વિશે ધિત સૂત્રનું વિસ્મરણ ન થઈ જાય તે ખ્યાલથી ગુરૂને પ્રશ્ન કરવારૂપ પૃચ્છનો વડે અધીત સૂત્રને ફરી ફરીને પાઠ કરવારૂપ પરિવર્તના વહે અને દુર્ગતિમાં પડતાં એને સમતિમાં ધારણ કરાવનાર ધમકથાવ એટલે
For Private and Personal Use Only
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारसूत्रे तीति धर्मः तस्य कथनं धर्मकथा अहिंसादि धर्मप्ररूपणरूपा, तया, वर्तमानोऽस्तीति आगमतो द्रव्यावश्यकमुच्यते। ननु वाचनादिभितत्रावश्यक शास्त्रे वर्तमानः साधुः कथमागमतो द्रव्यावर के भवतीति शिष्यशहां निराकर्तुमाह-'नो अणुप्पेहाए' नो अनुप्रेक्षया-वाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि शास्त्रार्थानुचिन्तनरूपयाऽनुप्रेक्षया नो वर्तमानो भवति अनुप्रेक्षया युक्तो न भवतीत्यर्थः, अनः स आगमतो द्रव्यावश्यकं भवति । अनुप्रेक्षयाचाऽवमानः कथमागमतो द्रव्यावश्यक भवतीति स्वयमाह सूत्रकार:-'कम्हा' इत्यादिना । कस्मात् आगमतो द्रव्यावश्यकं भवति ? उनरयति-'अणुवओगो द मिति व?' अनुपयोगी द्रव्यमिति कृत्वा-उपयुज्यते -वस्तुपरिच्छेदं करोति जीवोऽनेनेत्युपयोगः। करणे घञ् प्रत्ययः। उपयोगःहुए जीवों को सुगति में धारणकराने वाले (पहोंचाने वाले) धर्म की कथा से-अर्थात् अहिंसादि धर्म की प्ररूपणा से-तमान है-इस तरह आगम की अपेक्षा छह साधु द्रच्यावश्यक कहा गया है। यहां ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, कि वाचनादिरूप क्रियाओं से उस आवश्यक शास्त्र में वर्तमान वह साधु आगम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक कैसे है क्योंकि (नो अणुप्पेहाए) इस पद से सूत्रकार ने इस शंका का समाधान किया है-वे कहते हैं कि वाचनादिरूप क्रियाओं से आवश्याशास्त्र में वर्तमान रहा हुआ भी वह साधु शास्त्र के अर्थ का अनुचिन्सन करने रूप अनुप्रेक्षा चिन्तन से उसमें वर्तमान नहीं है । इसलिये वह आगम से द्रव्यावश्यक है। (कम्हा अगुपयोगो दामिति) क्योंकि "अनुपयोगो द्रव्यं" ऐसा शास्त्र का वचन है। इस का तात्पर्य यह हैं कि-जीव जिस के द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है उस का नाम उपयोग है । उप उपसर्ग पूर्वक युजू કે અહિંસાદિ ધર્મની પ્રરૂપણા વડે વર્તમાન વિદ્યમાન છે. આ રીતે આગમની અપેક્ષાએ તે સાધુને દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. તે
અહી એવી શંકા ન કરવી જોઈએ કે વાચનાદિ ક્રિયાઓ વડે તે આવશ્યક સૂત્રમાં વર્તમાન તે સાધુ આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક કેવી રીતે સંભવી શકે છે? સૂત્રકારે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા તે શંકાનું સમાધાન કર્યું છે . . . (नो अणुप्पेहाए) पायना३ि५ या 43 २१।११५४ मा वर्तमान । એ તે સાધુ શાસ્ત્રને અર્થનું અનુચિન્તન કરવારૂપ અનુપ્રેક્ષાની અપેક્ષાએ તેમાં नभान डात नथी ते ॥२0 ते मनी अपेक्षा द्रव्या१३५४ छ. (क.म्हा अणुपयोगों दामिति) २९ , शास्त्रनु मे क्यन छ है "अनुपयोगो द्रव्य" આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે
છવ જેના દ્વારા વસ્તુને પરિચ્છેદ કરે છે (વસ્તુનું જ્ઞાન મેળવે છે, તેનું
For Private and Personal Use Only
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
९५
जीवस्य बोधरूपा व्यापारः । न विद्यते उपयोग छत्रासौ - अनुपयोगः । इति कृत्वा = अस्मात् कारणात् स साधुरागमतो द्रव्यावश्यकं भ-ति । यस्य वस्यचित् साधोरावश्यकशास्त्र शिक्षितं स्थितं जितं यावद् वाचनोपगतं भवति, स खलु साधुस्तत्रावःयकशास्त्रे वाचनाप्रच्छना परिवर्तना धर्मकाभितं मानोऽपि आवश्यक - पयोगरहित्वादागमतो द्रव्यावश्यकं भवतीति स्मुदितार्थः । अभेद बोध्यम्वाचना प्रच्छनादय उपयेागपूर्वका अनुपयेोगपूर्वकाञ्च भवन्ति । परमिह द्रव्यावर कपरतावाद नुपयेोगपूर्वका वाचनाप्रच्छनादयो बोद्धव्यः । अनुप योगस्तु भाव
-
धातु से करण में धञ् प्रत्यय करने से उपयोग शब्द निष्पन्न हुआ है । जीव के बोधरूप व्यापार का नाम उपयोग है । यह उपयोग जहां पर नहीं है उसका नाम अनुपयोग है । इस अनुपयोग से उस आवश्यकशास्त्र में युक्त होने के कारण वह आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता आगम से द्रव्यावश्यक माना जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि जिस साधुने आवश्यक शास्त्र को अच्छी तरह से जान लिया है. सीख लिया है-उसका वह पूर्णरूप से ज्ञाता हो चुका है - अतः वह साधु उस आवश्यकशास्त्र में वाचना पृच्छना, परिवर्तना एवं धर्मकथा के रूप से वर्तमान मान लिया जाता है- फिर भी आवश्यक के उपयोग से रहित होने के कारण वह आगम से द्रावश्यक कहलाता है उसे यों समझना चाहिये कि वाचना पृच्छना आदि उपयोगपूर्वक भी होते हैं और अनुपयोगपूर्वक भी । परन्तु यहां क का प्रकरण होने से वे
તે
नाम ‘उपयोग’ छ. ‘युज्' धातुने उप उपसर्गपूर्व ४२ अर्थ धन् प्रत्यय सभाડવાથી ઉપયાગ શબ્દ બને છે. જીવના બેધરૂપ વ્યાપાનુ નામ ઉપયાગ છે, તે ઉપયાગના જ્યાં સદ્ભાવ નથી તેને અનુપયોગ કહે છે. તે અનુપયેગપૂર્વક તે આવશ્યકશાસ્ત્રમાં યુકત હાવાને કારણે તે આવશ્યકશાસ્ત્રના જ્ઞાતાને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આવશ્યક (દ્રશ્યાવશ્યક) માનવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સાધુએ આવશ્યક શાસ્ત્રને સારી રીતે જાણી લીધુ છે–સારી રીતે તેનું અધ્યયન કરી લીધું છે. તેના પૂર્ણરૂપે જાણકાર થઇ ગયા છે, એવા સાધુને તે આવશ્યકશાસ્ત્રમાં વાચના, પૃચ્છના, પરિવર્તીના અને ધમકથા રૂપે વમાન માની લેવામાં આવે છે, છતાં પણ આવશ્યકના ઉપયોગથી રહિત હાવાને કારણે તેને આગમની અપેક્ષાએ દ્ભવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. આ વાતના વધુ ખુલાસા આ પ્રમાણે સમજવાવાચના, પૃચ્છના, આદિ ઉપયેગપૂર્ણાંક પણ થાય છે અને અનુયાગપૂર્ણાંક પણ થાય છે પરન્તુ અહી દ્રવ્યાવશ્યકનું પ્રકરણ ચાલતુ હાવાથી તેમને અનુયાગ જ
For Private and Personal Use Only
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसत्र 'शून्यता, तच्छ्न्यं च वस्तु द्रव्यमेव भक्तीति वाचनादिभिरतत्र वर्तमानाऽपि
साधु व्यावश्यकम् । अनुप्रेक्षा तूपयोगपूर्विकैव रं.भवति, उतरतंत्र वर्तमाना · द्रणवश्यकं न भवति ।
. .. :: . ननु आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरू पमिदं द्रव्यायवश्यकमित्युक्तं भवति, एतच्च युक्तं न प्रतिभाति, यत् आगमो ज्ञानं, ज्ञानं च : भार एवेति कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते ? इतिचेत् उच्यते-आगमस्य कारणमात्मा, तदधिष्ठितो देहः, - शब्दश्वोपयोगशून्यसूत्रोच्चारणरूप इहास्ति, न तु साक्षादागमः। एतच्च त्रितयमागम कारणात् कारणे कार्योपचारादार म उच्यते, कारणं च विवक्षित भावस्य द्रव्यमेव भवतीत्यदोषः । अनुपयोगपूर्वक गृहीत किये गये हैं। भावशून्यता का नाम अनुपयोग है। उपयोग से शून्य द्रव्य ही होता है। इसलिये वह आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता साधु उसमें वाचनादिक से वर्तमान होता हुआ भी उपयोग से शून्य होने के कारण द्रव्यावश्यक है। अनुप्रेक्षा जो होती है वह उपयोगपूर्वक ही हती है इसलिये उसमें वर्तमान साधु द्रव्यावश्यक नहीं है वह तो भावावश्यक हैं।शंका-जब आप आगम को आश्रित करके द्रव्यावश्यक की प्ररूपणा करते हो तो वह द्रव्यावश्यक आगमरुप वहा गरा है मान्ने में आता है। परन्तु यह बात युक्त प्रतीत नहीं होती है क्योंकि आगम जो होता है वह तो ज्ञानरूप होता है। और ज्ञान भावरूप होता है । अतः आगम में द्रव्यता कैसे बन सकती है ?
उत्तर-आगम के कारण आत्मा, आत्माधिष्ठित देह, और उपयोगशून्य सूत्र का उच्चारणरूप शब्द ये तीन माने गये हैं। साक्षात आगम नहीं। ये तीन आगम के कारण होने से कारण में आगमम्प कार्य का उपचार किया गया है। इसलिये इन्हें आगमरूप से वहा है। विवक्षित भाव का जो कारण
ગૃહીત કરવામાં આવેલ છે. ભાવશૂન્યતાનું નામ અનુપગ છે દ્રવ્ય જ ઉપગથી રહિત હોય છે. તેથી તે આવશ્યક શાસ્ત્રને જ્ઞાતા સાધુ તેમાં વાંચના આદિરૂપે વર્તમાન હોવા છતાં પણ ઉપયોગથી રહિત હોવાને કારણે દ્રવ્યાવશ્યક જ કહેવાય છે. અનુપ્રેક્ષા તે ઉપગપૂર્વક જ થાય છે. તેથી તેમાં (અનુપ્રેક્ષામાં) વર્તમાન સાધુ દ્રવ્યાવશ્યક નથી, પણ ભાવાવશ્યક છે.
- શંકા–જ્યારે આપ આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણ કરે છે. ત્યારે એવું લાગે છે કે દ્રવ્યાવશ્યકને આગમરૂપ કહેવાથાં આવ્યું છે, એવું આપ પ્રતિપાદન કરી રહ્યા છે, પરંતુ એ વાત યુકત લાગતી નથી કારણ કે આગમ
For Private and Personal Use Only
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम् __ननु-आगमतोऽनुपयुक्तो द्रव्यावश्यकम, इत्येतावतैवेष्टसिद्धः शिक्षितादिश्रुतगुणाभिधानं व्यर्थमितिचेत्, उच्यते-शिक्षितादिश्रुतगुणाभिधानेन सूत्रकार इदं सूचयति-एवंविधं निर्दोषमपि श्रुतमुच्चारयतोऽनुपयुक्तस्य द्रव्यश्रुतं द्रव्यावश्यकमेव भवति, किं पुनः सदोषम् । उपयुक्तत्य स्खलितादिदोपदुष्टमुच्चारय तोऽपि होता है वह द्रव्य ही होता है। इसलिये आक्षक में उपयोगरहित आत्मा का आगम से द्रव्यावश्यक कहना निर्दोष है।
शंका-ठीक है- आवश्यक में अनुपयुक्त आत्मा को आप आगम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक कहिये-इसमें कोई विरोध नहीं है-परन्तु सूत्रकार ने जो शिक्षितादि श्रुतगुणों का वर्णन किया है सो उनके कहने की क्या आवश्यकता थी? वह श्रुतगुण कथन तो व्यर्थ है। क्यों कि इस श्रुतगुण कथन से आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक की सिद्धि में कोई संगति प्रतीत नहीं होती ? सो इस प्रकार का आक्षेप भी संगत प्रतीत नहीं होताकारण सूत्रकार इस श्रुतगुणवर्णन से यह सूचित करते है कि इस प्रकार निर्दोष भी शास्त्र का उच्चारण करने वाले साधुका कि जो उस में अनुपयुक्त (विना उपयोग के) તે જ્ઞાનરૂપ હોય છે અને જ્ઞાન ભાવરૂપ હોય છે. તેથી આગમમાં દ્રવ્યતા કેવી રીતે ઘટાવી શકાય છે?
61२-~-मामना 241 ३५ ॥२॥ मानवामा मा०यां छ-(१) मामा, (२) આત્માધિષ્ઠિત દેહ અને (૩) ઉપગ રહિત સૂત્રના ઉચ્ચારણરૂપ શબ્દ-સાક્ષાત આગમ નહીં. આગમના આ ત્રણ કારણે હોવાથી કારણમાં આગમરૂપ કાર્યને ઉપચાર કરવામાં આવે છે. તે કારણે તેમને આગમરૂપ કહેવામાં આવેલ છે. વિવક્ષિત ભાવનું છે કારણ હોય છે તે દ્રવ્ય જ હોય છે. તેથી આવશ્યકમાં ઉપગ રહિત આત્માને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક કહે એમાં કોઈ દેષ નથી, એ તે નિર્દોષ કથન જ ગણી શકાય.
શંકા–આવશ્યકમાં અનુપમુકત આત્માને આ૫ આગમની અપેક્ષાએ ભલે દ્રભાવશ્યક કહે, એમાં અમને કંઈ વાંધો નથી, પરંતુ સૂત્રકારે જે શિક્ષિત આદિ શ્રતગુણોનું વર્ણન કર્યું છે. તે વર્ણન કરવાની અહીં શી આવશ્યકતા હતી? તે શ્રુતગુણકથન તે વ્યર્થ જ લાગે છે, કારણ કે આ શ્રતગુણ કથન વડે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકની સિદ્ધિમાં કેઈ સંગતિ દેખાતી નથી.
ઉત્તર–આ પ્રકારનો આક્ષેપ પણ સંગત લાગતું નથી, કારણ કે સૂત્રકાર આ થતગુણ વર્ણન વડે એ સૂચિત કરવા માગે છે કે-આ પ્રકારે નિર્દોષરૂપે પણ શાસનું ઉચ્ચારણ કરનાર સાધુ કે જે તેમાં અનુયુકત જ રહે છે, તેનું તે દ્રવ્ય ત
For Private and Personal Use Only
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
९८
अनुयोगद्वारसूत्रे भावश्रुतमेव भवति । एवं प्रत्युपेक्षादि क्रिया निर्दोषा अपि अनुपयुक्तस्य न तथाविषफलदायिन्यो भवन्ति । उपयुक्तस्य तु मतिवेकल्यादितः स शेषा अपि प्रत्युपेक्षादि क्रियाः कर्ममलापनयनाय समर्था भवन्तीति ।
ननु भवत्वनुपयुक्तो द्रव्यादइय कम्, किन्तु हीनाक्षरंसूत्रं समुच्चारिते को देोषः ? कथमुक्तमहीनाक्षर ? मिति, उच्यते-लौतिकविद्यामन्त्रा अपि अक्षरहीनाः समुच्चार्यमाणास्तत्फलं दातुम मर्था अनविहाश्च भवन्ति, किं तर्हि परममन्त्ररूपे हो रहा है-वह द्रवर श्रुत द्रःयावश्यक ही है। तो फिर सदोष शास्त्र को उच्चारण करने वाले की तो बात ही क्या है ? जो उस शास्त्र में उपयोग युक्त है ऐसा प्राणी यदि स्खलित आदि दोष से भी दृषित शास्त्र का उच्चारण करता है तो उसका वह द्रब्य त भावश्रत ही है। इसी तरह अनुपयुक्त साधु रूप प्राणी की प्रत्युपेक्षणा द क्रिया निर्दोष भी हों तो भी वे तथाविध फल की प्रदाता नहीं होती हैं। परन्तु जो साधु उन प्रत्युपेक्षणादि-पडिलेहणा क्रियाओं को उनमें उपयुक्त बन कर करता है और यदि वे मति बिकलता आदि के वश से सदोष भी कर्ममलको दूर करने के लिये समर्थ होती हैं। - शंका-अनुपयुक्त साधु द्रव्यावश्यक भले हो परन्तु हीनाक्षररूप से सूत्र के उच्चारित होने पर क्या दोष है कि जिस से "अहीणवखरं" यह श्रुत का कथित गुणरूप स्वरूप विशेषण सफल माना जा सके ?
उत्तर-लौकिक विद्या, मंत्र, भी जब अक्षर न्यून बोले जाते है तो वे अपने वास्तविक फल को देने में असमर्थ हो जाते हैं और अनर्थकारक बन जाते हैं तब फिर परममंत्र रूप सूत्र के विषय में क्या कहना । हीनाक्षर सूत्र के દ્રવ્યાવશ્યક જ છે, તે સદોષ શાસ્ત્રનું ઉચ્ચારણ કરનારની તે વાત જ શી કરવી ! જે તે શાસ્ત્રમાં ઉપયોગયુકત છે એ સાધુ પણ જે ખલિત આદિ દેષથી દકિતા થયેલા શાસ્ત્રનું ઉચ્ચારણ કરે છે, તે તેનું તે દ્રવ્યથત ભાવથત જ છે. એ જ પ્રમાણે અનુપયુકત સાદુરૂપ જીવન પ્રત્યુપ્રેક્ષણાદિ કિયા નિર્દોષ હોય તે પણ તથાવિધ તે પ્રકારના) ફલની પ્રદાતા સંભવી શકતી નથી. પરંતુ જે સાધુ તે પ્રત્યુપ્રેક્ષણાદિ કિયા ઓને તેમાં ઉપયુક્ત બનીને કરે છે, એ સાધુ કદાચ મતિ વિકલતા આદિને કારણે સદેષ હોય તે પણ તેની તે કિયાએ કર્મમળને દૂર કરવાને સમર્થ જ હોય છે.
શંકા-અનુપયુકત સાધુને દ્રવ્યાવશ્યક માની લઈએ, પરતુ હીનાક્ષરરૂપે सूत्रनु स्या२९१ ४२वामा मेवो तो ध्यो हो५ छ ॐ थी "अहीण वनरं" । કૃતના કથિત ગુણરૂપ વિશેષણને સફળ માની શકાય ?
ઉત્તર–વિૌકિક વિદ્યારૂપ મંત્રનું ઉચ્ચારણ કરવામાં પણ જે એકાદ અક્ષરને ઉડાડી દેવામાં આવે છે, તે તે મંત્ર પણ વાસ્તવિક ફળ આપવાને અસમર્થ
For Private and Personal Use Only
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम् सूत्रे वक्तव्यम् ? हीनाक्षरे सूत्रे उच्चारिते तत्फल परमकल्याणरूपमोक्षानवाप्तिरनन्तसं का वा प्तश्च भवतीति सुधीभिर्विभाव्यम् ।
अत्रायं दृष्टान्तः--एकदा राजगृहनगरोद्याने समरसृतस्य भगवतो महावीरस्य चरणौ वन्दितु देवासुरविद्याधरनरसमुदायः समागतः । स्वपुत्रेणाभयकुमारेण सह राजा णिकोऽपि समागतः। भगवता परिषदि धर्मदेशना दत्ता । धर्मदेशनानन्तरं सर्वेऽपि भगवन्तमभिवन्द्य स्वस्वस्थानं गताः। सपुत्रः श्रेणिको भगवन्तं पर्युपासीनः । भगवत्समीप एव थितः। अस्मिन् समये कश्चिद् विद्याधरो विस्मृतविद्यकाक्षरो नभसा गन्तुमुत्पतितः, किंचिद् गत्वा उच्चरित होने पर उसका फल जो परम कल्याणरूप मोक्ष की प्राप्ति होना वह नहीं होती है और अनन्त संसार की प्राप्तिरूप अनर्थ प्रगट होते हैं, इस विषय में यह दृष्टांत हैं-एक समय रामगृह नगर के उद्यान में भगवान् महावीर या समवसरण हुआ। प्रभु को वंदना करने के लिये देव, असुर, विद्याधर. एवं मनुष्य इन सबका समुदाय आ पहुंचा। अपने पुत्र अभयकुमार के साथ राजा श्रेणिक भी आये। भगवान् ने परिषदा में धर्म की देशना दी। देशना सुनकर सब भगन् को बंदना करके अपने २ स्थान पर चले गये। पर राजा श्रेणिक नहीं गये । सपुत्र वे भगवान की पर्युपासना में लवलीन हो कर भगान् के समीप में ही बैठ गये । इतने में कोई एक विद्याधर जिसको अपनी विद्या का एक अक्षर विस्मृत हो गया था । आकाशमार्ग से जाने के लिये उडा। वह બની જાય છે અને અનર્થકારક પણ બની શકે છે, તે પછી પરમ મંત્રરૂપ સત્રની તો વાત જ શી કરવી? હીનાક્ષર સૂત્રના ઉચ્ચારણને લીધે પરમ કલ્યાણકારક મોક્ષ રૂપ ફળની પ્રાપ્તિ પણ થતી નથી એટલું જ નહીં પણ અનંત સંસારની પ્રાપ્તિરૂપ અનર્થ પણ પ્રગટ થાય છે આ વિષયને અનુલક્ષીને નીચેનું દષ્ટાંત આપવામાં આવ્યું છે.
- કોઈ એક સમયે રાજગૃહ નગરના ઉદ્યાનમાં મહાવીર પ્રભુનું સમવસરણ થયું પ્રભુને વંદણ કરવા નિમિત્તે દેવ, અસુર, વિદ્યાધર અને મનુષ્યને સમુદાય આવી પહોંચે. પોતાના પુત્ર અભયકુમારને સાથે લઈને મહારાજા શ્રેણિક પણ આવી પહેઓ ભગવાને ત્યાં એકત્ર થયેલી પરિષદાને ધર્મની દેશના દીધી. ભગવાનની દેશના સાંભળીને અને ભગવાનને વંદણા કરીને સૌ પિતાપિતાને સ્થાને પાછા ફર્યા. પરંતુ રાજા શ્રેણિક ત્યાંથી ખસ્યા નહીં. તે પોતાના પુત્રની સાથે ભગવાનની પર્યું પાસનામાં તલ્લીન થઈને ત્યાંજ બેસી રહ્યો. હવે આ વખતે નીચેને બનાવ બન્યો. સમવસરણમાંથી પાછા ફરતે કઈ એક વિદ્યાધર આકાશમાગે ઉડવા માંગતે હતે પણ આકાશમાં ઉડવા માટે જે મંત્રને ઉચ્ચાર કર જોઈએ તે મંત્રને એક અક્ષર તે ભૂલી
For Private and Personal Use Only
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे निपतितः, पुनरुत्पतितो निपतितश्च । एवं पुनः पुनरुत्पतन्तं निपनन्तं तं विद्याधरं वीक्ष्य अभयकुमारो भगवन्तं प्रणम्यैवमब्रवीत्-भदन्त । कथमयं महाभागो विद्याधरो विच्छिन्नपक्षः पक्षीव पुनः पुनर्नभसि उत्पतति निपतति च ? ततो भगवता प्रोक्तम्-अयं विद्याधरो विस्मृतविद्येकाक्षरो नभसि गन्तुं प्रयतते. परन्तु सफला न भवति । भगवचनं श्रुत्वा अभ कुमारस्तस्य विद्याधरस्य समीपे समागत्यैवमब्रवीत-महाभाग ! यदि वं मह्यमपि विद्यासाधनोपायं कथयेस्तदा त्वद्विस्मृतविद्यैकाक्षरं तुभ्यं निवेदयामि । विद्याररेणाभयकुमारवचनं प्रतिपन्नम् । अभयकुछ दूर गया. ही था कि नीचे गिर पडा । वहां से फिर उडा और फिर आगे जाकर गिर पड़ा। इस तरह बारबार उडते और गिरते हुए उस विद्याधर को अभयकुमारने देख लिया। देखकर उसने भगवान् से नमस्कार कर पूछाहे भदन्त ! कटे हुए पक्षवाले पक्षी की तरह यह विद्याधर बार २ आकाश में उडता है और गिर पडता है सो इसका क्या कारण है ? तब भगवान ने कहा-यह विद्याधर अपनी आकाश गामिनी विद्या का एक अक्षर भूल गया है-अतः उडने का प्रयत्न करता हुआ भी यह उसमें सफल नहीं हो पा रहा है। भगवान् के इस प्रकार वचन सुनकर अभयकुमार शीघ्र ही उस विद्यावर के पास गया और बोला-महाभाग ! यदि तुम मुझे विद्या सिखा देंगे तो मैं तुम्हारे लिये विद्या के विस्मृत हुए एक अक्षर को कह दंगा । अभयकुमार की इस बात को उस विद्याधर ने मान लिया-तब अभयગયે હતો. તે આકાશમાં ઉડે તે ખરો પણ છેડે દૂર જઈને નીચે પડી ગયે. વળી ફરીથી ઉડશે, પરંતુ થોડે દૂર જઈને ફરી નીચે પડી ગયે. આ પ્રમાણે વારંવાર ઉડતાં અને પડતાં તે વિદ્યાધરને અભયકુમારે છે. તેનું કારણ જાણવાની તેને ઈચ્છા થઈ તેણે મહાવીર પ્રભુને વંદણુ નમસ્કાર કરીને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછ–“હે ભગવન ! તુટેલી પાંખવાળા પક્ષીની જેમ આ વિદ્યાધર વારંવાર આકાશમાં ઉડે છે અને નીચે પડી જાય છે. તેનું કારણ શું હશે ?
ત્યારે મહાવીર પ્રભુએ અભયકુમારને આ પ્રમાણે જવાબ આપે-હે અભયકુમાર ! તે વિદ્યાધર પિતાની આકાશગામિની વિદ્યાને એક અક્ષર ભૂલી ગયો છે. તે કારણે ઉડવાને પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ તે તેમાં સફળ થતા નથી.
ભગવાનનાં એવાં વચન સાંભળીને અભયકુમાર તુરત જ તે વિદ્યાધરની પાસે પહોંચી ગયો. તેણે તે વિદ્યાધરને કહ્યું-“હે મહાભાગ ! જે તમે મને વિદ્યા સાધવાને ઉપાય બતાવે, તે હું તમને આકાશગામિની વિઘાના મંત્રને વિસ્મૃત થઈ ગયેલે એક અક્ષર બતાવી દ8 વિઘાધરે અભયકુમારની તે વાતને રવીકાર કર્યો.
For Private and Personal Use Only
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका - . १४ द्रव्यावरूपनिरूपणम्
१०१
कुमारस्य एकस्मादपि पदादनेक पदाभ्यहन शक्तिरासीत् । स विद्याचरकथितमन्त्रं श्रुत्वा विस्मृतमक्षरं तस्मै निवेदितवान् । स विद्याधरोऽपि ता विधासाधनो पायमकथयत् । ततो विद्याधरो विस्मृतमक्षरमुपलभ्य स्वसमीहितप्रदेशं गतः । अनेन दृष्टान्तेनेदं बोध्यम्-यथा तस्य विद्याधरस्यैकाक्षरविस्मरणेन हीनाक्षरतादोवान्नभोगतिरुपरता, विद्या च व्यर्थतां याता तथैव हीनाक्षरे सूत्रे उच्चारितेभेद तदात् क्रियाभेदः, क्रियाभेदे च मोक्षानवाप्तिः । ततो दीक्षाग्रहणादिकमपि वैयर्थ्य मापद्येतेति । एवमधिकाक्षरादिष्वपि दोषा बोध्याः । विस्तरभिया दृष्टान्ताभियानाद् विरम्यते । ॥ सू० १४ ॥
कुमार ने कि जिसे 'सर्वाक्षर सन्निपाती' विद्या में निपुणता थीं जिससे उनको एक भी पद से अनेक पदों को विचार करने की शक्ति प्राप्त थी उस विद्यार के कथित मंत्र को सुनकर विस्मृत अक्षर उसे कह दिया । विद्याधरने भी अभयकुमार को विद्यासाधन के उपाय कह दिये । इस प्रकार अपनी विद्या के विस्मृत अक्षर को प्राप्त कर वह विद्यावर अपने यथेष्ट स्थान पर चला गया । अतः इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार उस विद्यावर की एक अक्षर विस्मृत हो जाने के कारण विद्या हीनाक्षरता के दो से दूषित होने से नभोगति करने में असमर्थ हुई और व्यर्थ हुई उसी तरह हीताक्षर करके सूत्र का उच्चारण से अर्थ में भेद हो जाता है, उस से क्रिया में भेद आने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो पाती है । इस से दीक्षा ग्रहण आदि कार्य भी सब व्यर्थ हो जाते हैं । इसी तरह વિદ્યા હાવાથી તેમાં
अलयकुमार पासे 'सर्वाक्षरसन्निपाती'
મત્રને
એવી શકિત હતી કે તે એકાદ પદને શ્રવણ કરીને પશુ અનેક પદ્માના વિચાર કરી શકતા હતા. આ શક્તિના પ્રભાવથી વિદ્યાધર કથિત સાંભળીને વિસ્તૃત અક્ષર તેણે તે વિદ્યાધરને બતાવી દીધા. વિદ્યાધરે પણ અભયકુમારને વિદ્યા સાધવાના ઉપાય બતાવી દીધા. આ પ્રકારે મત્રના વિસ્તૃત અક્ષરને જાણી લઈને તે વિદ્યાધર પોતાને યથેષ્ઠ સ્થાને ચાલ્યા ગયે.
આ દૃષ્ટાન્ત દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે-જેમ તે વિદ્યાધર પોતાની આકાશગામિની વિદ્યાના એક અક્ષર ભૂલી જવાને કારણે તેની વિદ્યા હીનાક્ષરતાના રાષથી દૂષિત થવાને લીધે તેને નભાગિત કરાવવાને અસમર્થ મની ગઇ, એજ પ્રમાણે હીનાક્ષર કરીને સુત્રનું ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે તે અથ માં ભેદ પડી જાય છે, અર્થાંમાં ભેદ પડી જવાને કારણે ક્રિયામાં પણ ભેદ પડી જાય છે અને ક્રિયામાં ભેદ પડી જવાને લીધે મેક્ષની પ્રાપ્તિ પણ થઇ શકતી નથી. તે કારણે દીક્ષાગ્રહણુ આદિ કા પણ વ્યર્થ ખની જાય છે. એજ પ્રમાણે સૂત્રમાં અક્ષરાને ઉમેરીને સત્રનુ
For Private and Personal Use Only
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारमत्रे सम्प्रति नयभेदेन द्रव्यावश्यकभेदा उच्यन्ते
मूलम् - नेगमस्स गं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दवाव स्सयं, दोग्णि अणुवउत्ता आगमओ दोषिण दव्वावस्सयाई, तिषिण अणुवउत्ता आगमओ तिणि दव्यावस्सयाई, एवं जावइया अणुव उत्ता आगमओ तावइयाई दवावस्तयाई । एवमेव ववहारस्सवि संगहस्स णं एगो वा अणेगे वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा दवावस्मयं दव्यावस्त्याणि वा, से एगे दवावस्सए । उज्जसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्यावस्सयं, पुहुत्तं नेच्छइ । तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हो ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ, जइ अणुवउत्ते जागए ण भवइ तम्हा णत्थि आगमओ दवावस्तयं । से तं आगमओ दच्यावस्तयं ॥सू० १५॥ अधिक अक्षर आदि करके सूत्र के उच्चारण में दोष आते हैं। इनके ऊपर भी दृष्टान्त है जिन्हें यहां शास्त्र के विस्तार के भय से नहीं लिखा है ।
भावार्थ-संक्षेप में आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावर पक का स्वरूप सूत्रकार के अभिप्रायानुसार इस प्रकार जानना चाहिये जिस साधुने आवयश्क पत्र को सविधि अच्छी तरह से सीख लिया है-श्रुत गुण के अनुसार उसका अध्ययन कर लिया है-परन्तु उसमें उपयोग से वह रहित है-ऐसी स्थिति में वह साधु का आगम द्रव्यावश्यकरूप है। सूत्र १४॥ ઉચ્ચારણ કરવામાં પણ દેષ રહે છે. તેનું પ્રતિપાદન કરતુ એક દષ્ટાન્ડ આપી શકાય એમ છે, પણ શાસ્ત્રને વિસ્તાર થઈ જવાના ભયથી અહી તે દૃષ્ટાન્ત આપ્યું નથી.
ભાવાર્થ-આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ સૂત્રકારના અભિપ્રાય અનરાર કેવું છે તે હવે સંક્ષિપ્તમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે
જે સાધુએ આવશ્યકસૂત્રને વિધિપૂર્વક સારી રીતે શીખી લીધું છે–તગુણનું સાર તેનું અધ્યયન કરી લીધું છે પરંતુ તેમાં તે ઉપયોગથી વિહીન છે, એવી પરિસ્થિતિમાં તે સાધુ આગમની અપેક્ષાએ દ્રશ્યાવશ્યક કહેવાને યોગ્ય ગણાય છે. શાસ્ત્રી
V
For Private and Personal Use Only
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोमचन्द्रिका टीका सू० १४ द्रव्या३श्यकस्वरूपनिरूपणम्
छाया-नेगमस्य खलु एकः अनुयुक्त आगमत एक द्रव्यावश्यकम्, हावनुपयुक्ती आगमतो दे द्रव्यावश्यके, त्रयःअनुपयुक्ता आगमतः त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । एवं यावन्तः अनुपयुक्ता आगमतः तावन्ति द्रव्यावररकानि । एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य खलु एका वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुपयुक्तां वा द्रव्यावश्यकं शव कानि वा, स एकं व्यावश्यकम् । ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्त
अब सूत्रकार नयों के भेद से द्रव्यावश्यक के भेद कहते हैं:-- __ "नेगमस्स णं एगो" इत्यादि। ॥सू० १५॥
शब्दार्थ-(नेगमस्स णं) नैगमनय की विवक्षा से (एगो) एक (अणुवउत्तो) अनुपयुक्त आत्मा (आगमओ) आगम को आश्रित करके (एगं दवावासयं) एक द्रव्यावश्यक है। (दोणि अणुवउत्ता आगमओ दोष्णि दवावस्सायाई) दो अनुपयुक्त आत्माएं आगम की अपेक्षा लेकर दो द्रव्यावश्यक हैं। (तिष्णि अणुवउत्ता आगमओ तिष्णि दव्यावस्सयाई) तीन अनुपयुक्त आत्माएं आगम की अपेक्षा लेकर तीन द्रावश्यक हैं। (एवं जावझ्या अगुवउता आगममो तारइयाई दवावस्सयाई) इसी तरह जितनी और भी आत्माएं अनुपयुक्त हैं उतने · ही आगम की अपेक्षा लेकर सावरक हैं। (८वमेव ववहाररस वि) इसी ताह से व्यवहा नयकी विवक्षा से जानना चाहिये । (संगहस्स णं ए गोवा अणेगो वा अणुवउत्तो वा अगुवउत्ता वा दब्धावस्सयं द वावग्सयाणि वा से एगे दवावस्सए) संग्रहनय को विवक्षा से एक, अनुपयुक्त आत्मा एक द्रव्यावश्यक तथा अनेक द्रव्यावश्यक हैं' ऐसा जो कथन नैगमनय और व्यवहार
હવે સૂત્રકાર નાના ભેદની અપેક્ષ એ દ્રવ્યાવશ્યકના ભેદનું કથન કરે છે,
“नेगमस्स णं एगा" त्यादि---
५ - (नेगमस्स णं) गम नयनी दृष्टिणे (.२ ४२वामा यावे तो (एगा) मे (अणुवउनो) मनुफ्युत मारमा (आगम श्रो) सामने माश्रित
शन (एगं दवावस्सयं) द्रव्यावश्य४ छ. (दोष्णि अणुवउत्ता आगमभो दोणि दबावरसयाई) मे अनुपयुत मामासी मानी अपेक्षाये मे द्रव्यावश्य छे. (तिणि अणुवउत्ता आगमओ तिण्णि दब्बावस्सयाइ) १ अनुपयु४१ सामान्य सामनी अपेक्षा र द्र०या१२५४ छ, (एवं जावइया अणुवउत्ता आगमओ तावइयाई दवावस्सयाई) मे प्रमाणे
मीसा भायो अनुपयुन छे. मेटा मामानी अपेक्षा द्रव्या१५५ छे. (एवमेव ववहारस्स वि) ०यवडा२ नयनी દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તો પણ આ વિષયને અનુલક્ષીને ઉપર મુજબનું જ કથન समा. (संगहस्स णं एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा दव्यावस्सय दवाव याण वा से एगे दवावस्सए) सख नयने साधारे विया२ ४२० વામાં આવે તે “એક અનુપયુકત આત્મા અડગમની અપેક્ષાએ એક દ્રવ્યાવશ્યક
For Private and Personal Use Only
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारस्त्रे आगमत एक द्रव्यावश्यकम्, पृथक्तवं नेच्छति । त्रयणां शब्दनयानां ज्ञायक अनुपयुक्तः अवस्तु, कस्मात् ? यदि ज्ञायकोऽनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो ज्ञायको न भवति तरमाद् नास्ति आग्मतो द्रव्यावश्यक म् । तदेतदागमतो त्यावश्रकम् ॥ ०१५॥
टीका-'नेगमस्सणं' इत्यादि
जिनशासने हि सर्वमपि सूत्रमर्थश्च न विचार्यते । तत्र नयाः सप्तविधाः। नय की दृष्टी से किया जाता है वह सब एक द्रव्यावश्यक है। क्योंकि संग्रहनय भिन्न २ प्रकार की वस्तुओं को तथा उनेक व्यक्तियों को किसी भी सामान्य तत्त्व के आधार पर एक रूप में संकलित करता है। (उज्जु सुयरस एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दावा सयं पुहुत्तं नेच्छइ) ऋजु सूत्र नयी दृष्टी में एक अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा लेकर एक द्रव्यावश्यक है। र ह नय भेदवाद को नही चाहता है। (तिष्णं सद्दनपाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भइ, जइ अणुवउत्ते, जागए न भवइ) तीन शब्दनयों की दृष्टि में जो ज्ञायक होता है वह यदि तो . अनुपयुक्त है, तो यह अवन्तुस्वरूप है । क्यों कि ज्ञायक अनुपयुक्त नहीं होता । यदि वह अनुपयुक्त है तो वह ज्ञायक नहीं है । इसलिये आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक जो कहा गया है वह नहीं है। (से तं आगमभो दवावस्सयं) इस तरह आगम को आश्रित करके प्रक्रान्त द्रव्यावश्यक છે, તથા અનેક અનુપયુકત આત્માઓ અનેક દ્રવ્યાવશ્યક છે.” આ પ્રકારનું જે જે કથન નેગમ નય અને વ્યવહાર નયની અપેએ કરવામાં આવ્યું છે, તેને બદલે અહીં બધાને એક દ્રવ્યાવશ્યક જ કહેવા જોઈએ, કારણ કે સંગ્રહનય જુદા જુદા પ્રકારની વસ્તુઓને તથા અનેક વ્યકિતઓને કેઈ પણ સામાન્ય તત્વને આધાર साधने मे ३५मा सात रे छे. (उज्जुसुयस्स एगो अणु व उत्तो आगमओ एगं दव्वावर सयं पृहुत्त नेच्छइ) *१२ नयनी हाये ये मनुफ्युत मारमा मारामना सापेक्षा द्रव्या५४ छ. 24 नय मेहमापने या तो नथी. (तिण्णं सदनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हा ? जइ जाणए अणुवउते, न भवइ, जइ अणुवउत्ते, जाणए न भवइ) त्रय श६ नयानी दृष्टि से भानपामा मार છે કે જે જ્ઞાયક હોય છે તે જે અનુપયુકત હોય તે તે વસ્તુ સ્વરૂપ છે, કારણ કે જ્ઞાયક અનુપયુકત સંભવી શકે જ નહીં જે તે અનુપયુક્ત હોય, તો તે જ્ઞાયક જ હોઈ શકે નહીં. તે કારણે આગમને આશ્રય લઈને જે દ્રવ્યાયશ્યક બતાવવામાં मावेस , तेन। सहमा १ नथी. (से तं आगमओ दम्यावरसर्थ) । प्रानु આગમને આશ્રિત કરીને પ્રક્રાન્ત (પ્રસ્તુત વિષયરૂ૫) વ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् .. १०५.. उक्तं च
नेगम संगहववहार, उज्जुसुए चेव होइ बोद्धव्वे ।
सद्दे य । समभिरूढे, एवंभूए य मूलनया ॥१॥ छाया--नेगमः संग्रहो व्यवहार जुसूत्रश्चैव भवति बोद्धव्यः । शब्दश्च समभिरूढ एवंभूतश्च मूलनयाः ॥इति॥
तत्र-नैगमनयमाश्रित्य आगमतो द्रव्यावश्यकभेदमाहका स्वरूप है।
जिनशासन में समस्त सूत्र और अर्थों का विचार नयों को छेकर किया गया है। ये नय मूल में सात हैं कहाभी है (१) नैगम (२) . संग्रह (३) व्यवहार (४) ऋजु सू (५) शब्द (६) समभिरूढ (७) एवंभूत । इनमें से नैगमनय को लेकर सूत्रकार आगम की अपेक्षा से द्रव्यावश्यक के मेदों को कहते हैं-नैगमनय का तात्पर्य उन विचारों से है कि जिनके बलपर पदार्थ का बोध विविध प्रकार से होता है । "नैको गमो बोधमार्गः यस्त्र सः नैगमः" बोधका अनेक उपाय है वे नैगम हैं इस. व्युत्पत्ति के अनुसार . यही अर्थ लभ्य होता है। ..... .. इस नैगम नयकी अपेक्षा से. उपयोग वर्जित एकदेवदत्त आदि व्यक्ति एक आगम द्रव्यावश्यक है। दो अनुपयुक्त देयदत्त और यज्ञदत्त नाम के व्यक्ति दो आगम द्रव्यावश्यक हैं । अनुपयुक्त देवदत्त, यज्ञदत्त और विष्णुदत नाम के व्यक्ति ३ आगमव्यावश्यक हैं। इसी तरह जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं वे सब उतने ही आगमद्रव्यावश्यक इस नय की दृष्टि
જિન શાસનમાં સમસ્ત સૂત્ર અને અને જુદા જુદા નયનો આધાર લઈને વિચાર કરવામાં આવ્યું છે. એ નય મુખ્યત્વે સાત કહ્યા છે. (૧) નેગમ નય, (२) सह नय, (3) ०यवाडा२ नय, (४) नुसत्र नय, (५) श६ नय, (६) સમભિરૂઢ નય અને (૭) એવંભૂત નય.
પહેલાં તે નૈગમ નયની માન્યતા અનુસાર સૂત્રકાર આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકના ભેદનું નિરૂપણ કરે છે. નૈગમ નયને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–જે વિચારોને આધારે પદાર્થને બેધ વિવિધ થાય છે, તે વિચારધારાનું નામ જ नाम नय छ. नैको गमा बोधमार्गः यस्य सः नैगमः" 20 व्युत्पत्ति अनुसार ઉપર્યુક્ત અર્થ જ પ્રાપ્ત થાય છે,
આ નૈગમનયની અપેક્ષાએ ઉપગ વર્જિત એક દેવદત્ત આદિ વ્યકિત એક આગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે. ઉપગરહિત (અનુપયુક્ત) દેવદત્ત અને યજ્ઞદત્ત નામની બે વ્યકિત બે આગમઢાવ્યાવશ્યક છે. દેવદત્ત, યજ્ઞદત્ત અને વિશુદત્ત નામની ત્રણ અનુપયુક્ત વ્યકિતએ ત્રણ આગમવ્યાવશ્યક છે. એ જ પ્રમાણે જેટલી અનુપયુકત વ્ય
For Private and Personal Use Only
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्रे नेगमस्स गं' इत्यादिना' नको गमोऽर्थमार्गों पस्य स नैगमः । पृषोदरादित्वात् ककारस्य लोपः बहुविधवस्त्ववबोधक इत्यर्थः । तस्य नैगमस्य खलु एको देवदत्तादिः अनुपयुक्तः उपयोगवर्जितः, आगमत एक द्रव्यावश्यकम् । द्वौ देवदत्तयज्ञदत्तावनुपयुक्तो आगमतो हे द्रव्यावश्यके। त्रयो देवदत्तयज्ञेदत्तविष्णुमित्रा अनुपयुक्ता आगमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । 'एवं' अनेन प्रकारेग रविन्तः अनुपयुत्ताः, आगमतः तावन्ति द्रव्याव' कानि अयं भावः-नैगमनयः सामान्यरूपं विशेषरूपं च रस्तु अधिगमयति बोधयति । न तु संग्रह सामान्यमेव । तत्र-विशेषरूपं भेदमाश्रित्य देवदत्तादि प्रत्येक पनि भेदेन यावकोऽनुपयुक्ताः भवन्ति सर्वाण्य प्यस्य द्रव्यावश्यकानि । न पुन:संग्रहवत्सामान्यवादित्वादेव मेव द्रव्यावश्यकम् इति।।
में हैं। तात्पर्य इसका यह है कि-नैगमनय सामान्य और विशेषरूप अर्थ को कहता है-जिस प्रकार संग्रहनय सामान्यरूप ही अर्थ है ऐसा कहता है, उस प्रकार से यह नय नहीं कहता। यह तो विशेष को भी विषय करता है। इसकी मान्यतानुसार पदार्थ सामान्य और विशेष उभयरूप है वह न सामान्य रूप है और न केवल विशेषरूप ही । इस तरह विशेषरूप भेद का आश्रय करके देवदत्त आदि जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगम द्रव्य वश्यक इस नय की दृष्टि से हैं सामान्यवादी होने के कारण संग्रहनय की तरह एक ही द्रव्यावश्यक नहीं हैं। संग्रहनय से गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वकविभाग जिस अभिप्राय के द्वारा किया है उस अभिप्राय का नाम व्यवहार नय है। इस नय की मान्यतानुसार सामान्य कोई वस्तु नहीं है। क्योंकि यह सामान्य का निरावरण करता है। इसके प्रतिपादन का विषय विशेष है। કિતઓ હોય છે તેઓ આ નયની માન્યતા અનુસાર એટલા જ આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે. ગામ નય સામાન્ય અને વિશેષરૂપ અર્થને બતાવે છે. જેવી રીતે સંગ્રહનય “સામાન્યરૂપ જ અર્થ છે,” એવું કહે છે, એ પ્રકારે આ નય કહેતું નથી. એ તે વિશેષરૂપે પણ અર્થને બતાવે છે. નગમ નિયની માન્યતા અનુસાર તે પદાર્થ કેવળ સામાન્યરૂપ પણ નથી, કેવળ વિશેષરૂપ પણ નથી, પરંતુ સામાન્ય અને વિશેષરૂપ એટલે કે ઉભયરૂપ છે. આ રીતે વિશેષ રૂપ ભેદની અપેક્ષાએ દેવદત્ત આદિ જેટલા અનુપયુક્ત પુરૂષે છે, એટલાં જ આ નયની દષ્ટિએ આગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે-સામાન્યવાદી હોવાને કારણે સંગ્રહનયની જેમ એક જ દ્રવ્યાવશ્યક નથી, સંગ્રહનયથી ગૃહીત પદાર્થોને જે અભિપ્રાયદ્વારા વિધિપૂર્વક વિભાગ કરવામાં આવે છે, તે અભિપ્રાયનું નામ વ્યવહાર નય છે. આ નયની માન્યતા અનુસાર કઈ વસ્તુ સામાન્ય નથી, કારણ કે તે સામાન્યનું નિરા
For Private and Personal Use Only
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.. अनुयोगचन्द्रिका टीका १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् नयमदन द्रत्यावश्यकनिरूपणम्
१०७ एवं व्यवहारस्यापि-संग्रहनयेन गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः । अर्थात् विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय इत्यर्थः । परसंग्रहनयेनं गृहीतार्थ पये व्यवहारोदाहरणं यथा-यत् सत्, तद् द्रव्यं पर्यायो वेति । अपरसंग्रहगृहीतार्थविषये व्यवहारोदाहरणं यथा-८द् द्रव्यं तन्जीवादिपविधम्। स पयिः द्विविधः-क्रमभावी सहभावी चेति । एवं यो जीवः स मुक्तः संसारी-. अतः यह उसके प्रतिपादन करने में ही तत्पर रहता है । संग्रहनय के दो भेद हैं-१, पर संग्रहनय और दूसरा अपर संग्रहनय-। जड चेतनरूप अनेकव्यक्तियो में जो सद्रूप एक सामान्यतत्व है उसी पर दृष्टि र नकर दूसरे विशेषों को ध्यान में न रखते हुए सभी व्यक्तियों को एक रूप मानकर ऐसा जो विचार होता है कि संपूर्ण जगत् सद्रूप हैं क्यों कि सत्ता से रहित कोई वस्तु है ही नहीं। इसी का नाम परसंग्रहनय है। इस पर संग्रहनय से गृहीत विषय के विषय में व्यवहार ऐसा विचार करता है कि जो सदृप हैं वह द्रव्य है या पर्याय है। यदि द्रव्य सत् है जो कि परसंग्रह नयके विषय की अपेक्षा ऊपर संग्रहनय का विषय पडता है तो क्या जीव द्रव्य है, या अजी द्रव्य है। क्य कि द्रव्य के जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकार से ६ भेद हैं। इन में जीव को छोड़कर पुद्गल आदि सब अजीव दर के भेद हैं। यदि पर्याय सत है-तो वह दो प्रकार की है (१) क्रमभावी और दूसरी सहभावी । यदि जीवद्रव्य सत् है तो કરણ કરે છે. તેને પ્રતિપાદન કરવાને વિષય વિશેષ છે, તેથી તે તેનું પ્રતિપાદન કરવાને જ તત્પર રહે છે. સંગ્રહનયના બે ભેદ છે-(૧) પર સંગ્રહનય અને (૨) અપરસંગ્રહનય જડ ચેતનરૂપ અનેક વસ્તુઓમાં જે સપ એક સામાન્ય તત્વ છે. એના પર જ નજર રાખીને બીજી વિશિષ્ટતાઓને ધ્યાનમાં લીધા વિના સઘળી વસ્તુઓને એકરૂપ માનીને એ જે વિચાર કરવામાં આવે છે કે સંપૂર્ણ જગત સપ છે, કારણ કે સત્તા (અસ્તિત્વ)થી રહિત કે પદાર્થ છે જ નહીં, તેનું જ નામ પર સંગ્રહનય દ્વારા ગૃહીત પદાર્થના વિષયમાં ૦૧વહાર એ વિચાર કરે છે કે જે રદ્રપ છે તે દ્રવ્ય છે કે પર્યાય છે ? જે તે દ્રવ્યસત્ રૂપ હોય તે તે પરમસંગ્રહનયને વિષય હેવાને બદલે અપસંગ્રહનયને વિષય ગણી શકાય છે. જે તે દ્રવ્યસત રૂપ હોય તે શું તે છવદ્રવ્યરૂપ છે કે અછવદ્રવ્યરૂપ છે? કારણ કે દ્રવ્યના પુદગલ, ધર્મ, અધર્મ, આકાશ અને કાળ, આ પ્રકારે ૬ ભેદ પડે છે. તેમાંથી જીવ સિવાયની જે પાંચ ભેદ કહ્યા છે તે અછવદ્રવ્યના ભેદો છે. જે પર્યાયસત્ હેય તે તે પર્યાય બે પ્રકારની હોય છે. (૧) ક્રમભાવી અને (૨) સહભાવી,
For Private and Personal Use Only
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०८
अनुयोगदारसूत्रे च," इत्यादि । तस्य एवमेव-नैगमवदेव एको देवदत्तादिरनुपयुक्त आगमत एकं द्रव्यावश्यकम, दावनुपयुक्तौ आगमतो द्वे द्रव्यावश्यके, त्रयाऽनुपयुक्ता अगमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । एवं यावन्तोऽनुपयुक्तास्तावन्ति आगमतो द्रव्यावश्यकानि विज्ञातव्यानि । विशेषार्थप्रतिपादकतया नैगमव्यवहारयोः साम्यम्, अतःक्रमप्राप्त संग्रहमतिक्रम्य ग्रन्थलाघवार्थ व्यवहारं पन्यासो नैगममनुकृतः । सम्प्रति कौन सा जीवद्रव्य संसारी जीव या मुक्त जीव ? इस तरह यह ०५वहार नय वहाँ तक भेद करता चला जाता है कि फिर जिस से और भेद नहीं हो सके । जिस विधि से संग्रह किया जाता है उसी विधि से उनका विभाग किया जाता है । इस प्रकार नैगमन्य की तरह ही अनुपयुक्त. एक देवदत्त आदि व्यक्ति आगम द्रव्यावश्यक है। अनुपयुक्त दो व्यक्ति दो आगम द्रच्यावश्यक हैं। अनुपयुक्त तीन व्यक्ति तीन आगम द्रव्या इयक हैं। इस तरह जितने भी आगम में अनुपयुक्त व्यक्ति हैं वे सब उतने ही आगम द्रव्यावश्यक हैं। जिस प्रकार विशेषरूप अर्थ की प्ररूपणा नैगमनय करता है उसी प्रकार से उसकी प्ररूपणा व्यवहारनय भी करता है-एता ता इन दोनों में समानता है। इसीलिये सूत्रकारने क्रमप्राप्त संग्रहनय को छोडकर शास्त्र की लघुता निमित्त व्यवहारनय का उपन्यास संग्रहनय से पहिले और नैगमनय के पीछे किया है। संग्रहनय की विचारधारा के अनुसार आगम द्रव्यावश्यक एक ही है-वह इस प्रकार से सामान्य मात्र को विषय करनेवाला जो पराજે જીવદ્રવ્ય સત્ હોય તે કયું છવદ્રવ્ય એવું છે-સંસારી જીવદ્રવ્ય એવું છે કે મુકત જીવદ્રવ્ય એવું છે ? આ પ્રકારે આ વ્યવહારનય ત્યાં સુધી ભેદ કરતે જ જાય છે કે છેવટે એમાંથી અન્ય કોઈ ભેદ પાડી શકાય જ નહીં. જે વિધિથી સંગ્રહ કરવામાં આવે છે, એજ વિધિથી તેમને વિભાગ કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે ગમનયની જેમજ અનુપયુકત એક દેવદત્ત આદિ વ્યકિત એક આગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે. અનુપયુકત બે વ્યકિત બે આગમવ્યાવશ્યક છે. અનુપયુકત ત્રણ
વ્યકિત ત્રણ આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે. એ જ પ્રમાણે જેટલી આગમમાં અનુપયુકત વ્યકિતઓ હોય, એટલાં જ આગમદ્રવ્યાવેશ્યક સમજવા. જે પ્રકારે ગમન વિશેષ ૩૫ અર્થની પ્રરૂપણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે તેની પ્રરૂપણું વ્યવહારનય પણ કરે છે. એટલા પુરતી એ બનેમાં સમાનતા છે. તે કારણે સૂત્રકારે ક્રમ પ્રાપ્ત સંગ્રહનયને છેડીને શાસ્ત્રની લઘુતાને નિમિત્તે નૈગમનયની પછી અને સંગ્રહના પહેલાં વ્યવહારનયને ઉપન્યાસ કર્યો છે.
સંગ્રહાયની માન્યતા અનુસાર આગમકવ્યાવશ્યક એક જ છે. તે આ પ્રમાણે . સમજવું-સામાન્ય માત્રને વિષય કરનારે જે પરામર્શ (અભિપ્રાય-માન્યતા) છે, તેને
For Private and Personal Use Only
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५ नयभेदेन द्रव्यावसानिरूपणम् १०९ संग्रहनयमतेन प्राह- 'संगहस्स' इत्यादिना। संग्रहस्य, सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः। स द्विविधः-परोऽपरश्च । सर्व वस्तु एकं, सद्रूपत्वेनाविशेषात् । अयमर्थःसर्वस्मिन् वस्तुनि सत्ता विद्यते, सा चैकैव, अतस्तां सत्तामाश्रित्य सर्व वस्तु एकं सदित्युच्यते । सत्ताख्यं महासामान्यमाश्रित्य परसंग्रहः प्रोक्तः। अपरसंग्रहस्तु अवान्तरसामान्य द्रव्य पर्यायवादिकमाश्रित्य भवति । यथा-'धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाभेदात्' इत्यादि । अयमर्थःमर्श है उसका नाम संग्रहनय है। यह संग्रहनय पर सामान्य और अपरसामान्य को विषय करने की दृष्टि से दो प्रकार का है-परसामान्य को विषय करनेवाला-परसंग्रहन य और अपरसामान्य को विषय करनेवाला अपरसग्रहनय है । सत्ता नाम का महा सामान्य पर सामान्य है। द्रव्यत्व, पर्यायत्व आदि जो अवान्तर सामान्य है वह अपरसामान्य की अविशेषता से एक हैअर्थात् ऐसी कोई वस्तु नहीं है कि जिस में सत्ता नहीं हो अतःअब सब में सत्ता विद्यमान है और वह सत्ता एक ही है-तब इस सत्ता को लेकर सब वस्तुएँ एक सद्रूप हैं। यह परसंग्रहनय की विचार धाग है । अपरसंग्रहनय की विचारधारा अवान्तर सामान्य को लेकर चलती है-जैसे धर्म, अधर्म आकाश काल, पुद्गल और जीव इन द्रव्यों में द्रव्यत्वजाति की अपेक्षा अभेद होने से एकता है। क्यों कि इनमें इसी से द्रव्य द्रव्य ऐसा નામ સંગ્રહનય છે. તે સંગ્રહનય પરસામાન્ય અને અપરસામાન્યને વિષય કર. વાની દષ્ટએ બે પ્રકારનું છે. પર સામાન્યને વિષય કરનારે પરસંગ્રહનય છે અને અપરસામાન્યને વિલય કરનારે અપરસ ગ્રહનય છે સત્તા નામના મહાસામાજેને પરસામાન્ય કહે છે. દ્રવ્યત્વ, પર્યાયત્વ, આદિ જે અવાન્તર સામાન્ય છે, તેને અપર સામાન્ય કહે છે. જયારે એ વિચાર કરવામાં આવે છે કે સમસ્ત વસ્તુ સત્તા સામાન્યની અવિશેષતાની અપેક્ષાએ એક જ છે-એટલે કે એવી કઈ વત જ નથી કે જેમાં સત્તા જ (અસ્તિત્વજ) ન હોય. આ રીતે સઘળી વસ્તુઓમાં સત્તા વિદ્યમાન છે અને તે સત્તા એક જ છે, જે એ સત્તાની દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે સઘળી વસ્તુઓ એક સર્પ જ છે. આ પ્રકારની પરસંગ્રહ नयनी विचारधारा (मान्यता) छ.
અપરસંગ્રહનયની વિચારધારા અવાન્તર સામાન્યની અપેક્ષાએ ચાલે છે– જેમકે ધર્મ, અધમ, આકાશ. કાળ. પુદ્ગલ અને જીવ, આ દ્રવ્યમાં દ્રવ્યત્વજાતિની અપેક્ષાએ અભેદ હોવાથી એકતા છે. કારણ કે તેમનામાં તેના દ્વારા જ દ્રવ્યદ્રવ્ય એવું જ્ઞાન અને દ્વવ્યાદ્રવ્ય એવી વચનપ્રવૃત્તિ થાય છે. એજ વાતને
For Private and Personal Use Only
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसत्रे लोके हि धर्मों द्रम् अधर्मों द्रव्यम्,आशो द्रव्यं, वालो द्रव्यं, पुद्गलो द्रव्यंजीवो द्रव्यम्, इत्येवमुच्यते, अतो ज्ञायते-धर्मादौ द्रव्यत्वं वर्तत इति । एकमेव द्रव् त्वं धर्मादिषु पसु विद्यते । द्रव्यत्वेन धर्मादीनामेकत्वं संगृह्यते । एवं चेतनाचेतनपर्यायाणां सर्वेषामेकत्वं संगृह्यते, पर्यायत्वाविशेषादिति । एवंभूतो यः संग्रहो यस्तस्यापेक्षया खलु एको वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुपयुक्ता वा यद् आगमतो द्रव्यावश्यकं द्रव्याश्यकानि वा ।तत किमि याह-'से एगे' इति । तदेकं द्रव्यावश्यकम। उस्या माशय:-संग्रहनयो हि.सामान्यस्यैव ग्राहकः न तु विशेषाणाम्, तस्मात् सामान्यव्यतिरेकेण विशेषसिद्धेर्यानि कानिचिद् द्रव्याज्ञान और द्रव्य, द्रव्ध ऐसीवचन प्रवृत्ति होती है । इसी बात को “धर्मो द्रव्यं अधर्मो द्रव्यं, आकाशो द्रव्यं, कालो द्रव्यं पुद्गलो द्रव्यं, जीवा द्रव्यं" इन पदोंद्वार। प्रगट किया है, इस तरह अनुवृत्ति प्रत्यय होने से यह प्रतीत हे ता है कि इनमें द्रव्यत्व है। और यह द्रव्यत्व धर्मादिक ६ वयच्यातियों में एक ही है । इसलिये इस द्रव्यत्व की अपेक्षा धर्मादिकं द्रव्यों में एकता का संग्रह हो जाता है। इसी तरह से सचेतन और अचेतन द्रव्यां की जितनी भी पर्यायें हैं उन सब में भा पर्यायत्वरूप सामान्य की अपेक्षा से एकता का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार का जो यह संग्रहनय है। उस की अपेक्षासे चाहे तो एक आगम में अनुपयुक्त देवदत्तादि शक्ति हो चाहे अनेक देवदत्तादि व्यक्ति हो वे सब एक ही आगम द्रव्यावश्यक हैं। तात्प। इसका यह है-कि संग्रहनय एक सामान्यमात्र का ही ग्राहक है, विशेषों का नहीं। इसलिये विशेष की अपेक्षा जो अनेक आगम द्रव्यावश्यक हैं वे सब जब सामान्य के अतिरिक्त "धर्मो द्रव्य अधर्मो द्रव्यं, आकाशो द्रव्य, पुद्गलो द्रव्य जीवो द्रव्य" l पह। દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ રીતે અનુત્તિ પ્રત્યય હોવાથી એવું લાગે છે કે તેમનામાં દ્રવ્ય છે. અને તે દ્રવ્યત્વ ધર્માદિક ૬ દ્રયયકિતઓમાં (પદાર્થોમાં) એક જ છે. તેથી આ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ધર્માદિક દ્રવ્યમાં એકતાને સંગ્રહ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે સચેતન અને અચેતન દ્રવ્યોની જેટલી પર્યા છે, તે સઘળી પર્યામાં પણ પર્યાયવરૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ એકતાને સંગ્રહ થઈ જાય છે. આ પ્રકારને સંગ્રહનય છે તેની અપેક્ષાએ એક આગમમાં અનુપયુકત દેવદત્ત આદિ વ્યકિત પણ એક જ આગમદ્રષાવશ્યક છે. અને અનુપયુકત દેવદત્ત આદિ અનેક વ્યકિતઓ પણ એકજ આગમદ્રભાવશ્યક છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સંગ્રહનય એક સામાન્ય માત્રને જ ગ્રાહક છે. વિશેને ગ્રાહક નથી. તેથી વિશેષની અપેક્ષાએ જે અનેક આગમેદ્રભાવશ્યક છે, તે બધાં જ જે સામાન્ય છે-વિશેષરૂપ
For Private and Personal Use Only
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्दिका टीका १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् वश्यक ानि तानि सर्वाणि सामान्यापेक्षया सत्ताया एकत्वादेव मेव, अत संग्रहनयमते एकमेव द्रव्यावश्पकम् । इति ।
अथ ऋजुसूत्रमते आह-'उज्जुसुयस्स' इत्यादि । ऋजुसूत्रस्य ऋजु-वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमानं प्राधान्यतः सूत्रयति-सूचर तीति ऋजुसूत्रः । यथा विशेष हैं ही नहीं तो उसकी अपेक्षा जायमान ये अनेक आग्:म द्रावक सत्ता की एकता के कारण एक ही हैं। इसलिये संग्रहनय के मत में एक ही द्रव्यावश्यक है। अब सूत्रकार ऋजु सूत्रनय की अपेक्षा आगम द्रा यक का विचार करते हैं- वर्तमानक्षण स्थायि पर्याय मात्र को जो प्रधा ता से विषय करता है उसका नाम ऋजु सूत्रनय है। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय पदार्थों की विविध अवस्थाओं की ओर ध्यान नहीं देते हैं। इसलिये उन्हें क्या पता कि वर्तमान में पदार्थ वा का रूप है। इसीलिये इन तीन नयों को द्रव्यार्थिकनय माना गया है। क्यों कि इनमें द्रव्य को ही विषय करने की मुख्यता है । पर्यायां की तरफ इनका लक्ष्य नहीं है क्योंकि इन की दृष्टि में अविवक्षित है-गौण- हैं.। परन्तु ऐसा तो हो ही नहीं स ता कि विचारक का ध्यान केवल दून्य पर ही रहे, पर्याय पर न जावे । विचारक के विचार जिस प्रकार विविध पदार्थों का उनकी विविध अवस्थाओं . श्री विक्षा किये विना वर्गीकरण और विभाग करते हैं उसी प्रकार वे उन
पदार्थों की विविध अवस्थाओं को भी अपने लक्ष्य में रखते हैं। कि तु જ નથી, તે તેની અપેક્ષાએ જાયમાન તે અનેક આગ દ્રવ્યાવશ્યક સત્તાની એક્તાને કારણે એક જ છે. તેથી સંગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર તે એકજ દ્રવ્યાવશ્યક છે
હવે સૂત્રકાર ત્રાજુસૂત્રનયની અપેક્ષાએ આગમદ્રવ્યાવશ્યકનો વિચાર કરે છે વર્તમાન ક્ષણરથાયી પર્યાયમાત્રને જ જે મુખ્યત્વે વિચાર કરે છે, તે નયનું નામ રાજુસૂત્રનય છે. નગમ, સંગ્રહ અને વ્યવહાર, આ ત્રણ પ્રકારના નય, પદાર્થની વિવિધ અવરથાઓ તરફ ધ્યાન દેતાં નથી, તેથી તે નયને આધારે એવું કેવી રીતે જાણી શકાય કે વર્તમાનમાં પદાર્થનું કેવું સ્વરૂપ છે? તે કારણે તે ત્રણ નયને દ્રવ્યાર્થિક નય માનવામાં આવેલ છે. કારણ કે તેમાં દ્રવ્યને જ વિય કરવાની દ્રવ્યનો જ વિચાર કરવાની પ્રધાનતા હોય છે. પરંતુ પર્યાની તરફ તેમનું લક્ષ્ય હેતું નથી, કારણ કે તે તે તેમની દરિએ અવિવક્ષિત અથવા ગૌણ છે. પણ વિચારકનું ધ્યાન કેવળ દ્રવ્ય પર જ રહે અને પર્યાય પર ન જાય એવું તે સંભવી શકતું નથી. વિચારકના વિચારો જે પ્રમાણે વિવિધ પદાર્થોનું તેમની વિવિધ અવસ્થાઓની લિરિક્ષા કર્યા વિના-ધ્યાનમાં લીધા વિના જેમ વર્ગીકરણ અને વિભાગીકરણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ વિવિધ પદાર્થોની વિવિધ અવસ્થાઓને પણ
For Private and Personal Use Only
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११२
अनुयोगद्वारसत्रे 'संप्रति सुखविवर्तोऽस्ति' इत्यादि । अनेन वाक्येन हि वर्तमानक्षणवति सुखाख्यं पर्यायमात्र प्रदर्श्यते । तस्य मते-एको देवदत्तादिः अनुपयुक्तः, आगमत एकं द्रव्यावश्यकम् । अयं भावः-ऋजुसूत्रनयो हि वर्तमानकालिकमेव पर्यायवस्तुं बोध' ति, नातीतं विन्ष्टत्वात्, नाप्यनागतमनुत्पन्नत्वात् । वर्तमानकालिकमपि विविध अवस्थाओं का सम्मेलन व्य कोटि में आता है पर्याप कोटि मे आता है क्योंकि पर्याय एक क्षणवर्ती होती है। उसमें भी वर्तमान का नाम ही पर्याय है। क्योंकि अतीत विनष्ट और अनागत अनुत्पन्न होने के कारण उनमें पर्याय का व्यवहार नहीं हो सकता । इसी से ऋजु त्रनय का विषय वर्तमान पर्यायमात्र कहा गया है। आशय यह है कि यह नय विद्यमान अवस्थारूप से ही वस्तु को स्वीकार करता है। द्रव्य उम्मे सर्वथा अविवक्षित रहता है। अतः पर्याय संबन्धी जितने भी विचार होते हैं वे सब ऋजु सूत्रनय की श्रेणि में आते हैं । जैसे "संप्रति सुखविवर्तो रित" इस समय सुखयुक्त हैं इस वाक्य से वर्तमानण- ती सुख नाम की पर्याय मात्र दिनलाई गई है। इसके मत में एक अनुपयुक्त देवदत्तादि एक आगम द्रव्यावश्यक है। यह अभी २ स्पष्ट किया गया है कि वर्तमानकालीन पर्याय वस्तु को ही रह नय विषय करता है अतीत अनागत पर्यायों को नहीं-क्योकि अतीत पर्याय निष्ट है और अनागत पर्याये अनुत्पान हैं। वर्तमान कालीन पर्याय में भी जो લયમાં રાખે છે. પરંતુ વિવિધ અવસ્થાઓનું સંમેલન દ્રવ્યકેટિમાં આવે છેપર્યાયકેટમાં આવતું નથી. વાસ્તવમાં તે એક પર્યાય જ પર્યાયકોટિમાં આવે છે, કારણ કે પર્યાય એક ક્ષણવતી હોય છે. તેમાં પણ વર્તમાનનું નામ જ પર્યાય છે. કારણ કે અતીત (ભૂતકાલિન) વિનષ્ટ હોય છે અને અનાગત (ભવિષ્ય કાલિન) અનુત્પન્ન હોય છે. તે કારણે તેમનામાં પર્યાયને વહેવાર થઈ શકતો નથી. તે કારણે જુસૂત્ર નયને વિષય વર્તમાન પર્યાય માત્ર જ કહ્યો છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આ નય વિદ્યમાન અવરથા રૂપે જ વસ્તુને સ્વીકાર કરે છે. દ્રવ્ય તેમાં સર્વથા અવિક્ષિત રહે છે. તેથી પર્યાય સંબંધો જેટલાં વિચારો હોય છે, તે मां सूत्रनयनी शिमा मावी तय छे. भले "संप्रति सुखवितोऽस्ति" આ વાક્યથી વર્તમાન ક્ષણવત સુખ નામની પર્યાય માત્ર જ બતાવવામાં આવી છે. ઋજુત્રનયની માન્યતા અનુસાર એક અનુપયુકત દેવદત્તાદિ એક આગદ્રવ્યાવશ્યક છે. એ વાત તે આગળ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી ચૂકી છે કે આ નય વર્તમાન કાલિન પર્યાયવરતુને જ વિષય કરે છે–અતીત અનાગત પર્યાને વિલય કરતો નથી કારણ કે અતીત (ભૂતકાલિન) પર્યાયે વિનષ્ટ હોય છે અને અનાગત (ભવિષ્ય
For Private and Personal Use Only
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् स्वकीयमेव बोधयति. स्वकार्यसाधव त्वात् स्वधनरत्, न तु परकीयं, स्वकार्यासाधकत्वात् परधनवत्, तस्मादेको देवदनादिरनुपयुक्तोऽस्य मते आगमत एकं.द्रयावश्यकम, इति । अयं नयः-पृथक्त्वं नेच्छति-अतीतानागतभेदतः परकीयभेदतश्च . पार्थक्यं नामिलपति, किंतु वर्तमानकालिकं स्वगतमेव वस्तु, तच्चैकमेव । तस्मादेकमेव द्रव्यावश्यक मेतन्नयमते । . ___ शब्दादींस्त्रीन् नयान् समाश्रित्य कथयति-'तिण्हं सद्दनगणं' इत्यादि। त्रयाणां शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः-शब्दसमभिरूढैवम्भूता, एते हि अर्थादगसकारणत्वात् शब्दस्यैव प्राधान्य मिच्छन्ति, न ,थम्य । शब्दादेवार्थप्रतीतेः, तेषां अपनी पर्याय है उसे ही कहता है क्योंकि वही स्वधन की तरह अपने कार्य की साधक होती है। परकीय पर्याय को वह विषय नहीं करती है कारण वह अपने कार्य की साधक नहीं होती है जैसे परका धन । इस नयकी दृष्टि में इसी कारण से पृथक्त्व-नानात्व नहीं है-अर्थात् अतीत अनागत के मेद से और परकीय भेद से यह पर्यायों में भिन्नता नहीं मानता है। किन्तु वर्तमान कालिक स्वगत पर्याय को ही वास्तविक मानता है और एक ही है ऐसा प्रतिपादन करता है। इसलिये इस नक्की मान्यतानुसार आगमद्रव्यावश्यक एक ही है-अनेक नहीं ।-अब मृत्रकार शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय को लेकर आगमन्यावश्यक का विचार करते हैं ।-शब्दप्रधाननयों का नाम शब्दनय है और ऐसे ये तीन नय हैं । अर्थावगम अर्थ का ज्ञान होने का कारण होने से शब्द की ही ये प्रधानता मानते हैं-अर्थ की नहीं । इन नयों की सी કાલિન) પર્યાયે અનુત્પન્ન હોય છે. વર્તમાનકાલિન પર્યાયમાં પણ જે પિતાની પર્યાય છે તેને જ તે બતાવે છે, કારણ કે એજ પિતાના ધનની જેમ પોતાના કાર્યની સાધક હોય છે. કારણ કે એજ પિતા ને ધનની જેમ પિતાના કાર્યની સાધક હોય છે. પરકીય પર્યાયને તે વિષય કરતું નથી. કારણ કે અન્યના ધનની જેમ તે પિતાના કાર્યની સાધક હોતી નથી. આ નયની દષ્ટિએ એ જ કારણે પ્રથકવૈવિધ્ય નથી કારણ કે અતીત અનાગતના ભેદથી અને પરકીય ભેદથી આ નય પર્યાયોમાં ભિન્નતા માનતા નથી. પરંતુ વર્તમાનકાલિક સ્વગત પર્યાયને જ તે વાસ્ત વિક માને છે અને એક જ છે એવું પ્રતિપાદન કરે છે. તેથી આ નયની માન્યતા અનુસાર આગમ પ્રત્યાવશ્યક એક જ છે અનેક નથી.
હવે સૂત્રકાર શબ્દનય, સમભિરૂઢ નય અને એવંભૂત નયની દષ્ટિએ આગમ દ્રવ્યાવશ્યક વિચાર કરે છે–શબ્દ પ્રધાન નનું નામ શબ્દનાય છે. અને એવાં આ ત્રણ નય છે. અર્થાવગમ (અર્થને બોધ)નું કારણ હેવાથી શી જ પ્રધાનતા
For Private and Personal Use Only
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११४
अनुयोगद्वार
,
ज्ञाय क:- ज्ञाता, अथ च अनुपयुक्तः, इत्येतत् अवस्तु = असत्, न संभवतीत्यर्थः । कस्मात् एवमुच्यते ? इत्याह- ' जह' इत्यादि - यदि ज्ञायको भवति अथ अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो भवति तर्हि ज्ञार को न भवति । अयं भात्रःआवश्यक शास्त्रज्ञस्तत्र चानुपयुक्त आगमतो द्रव्यावश्यकमिति पूर्वं प्ररूपितम् । एतच्च शब्दादिनया न स्वीकुर्वन्ति । एतेषां मते यो हि - आवश्यक शास्त्रज्ञः सोअनुपयुक्तो न भवितुमर्हति यो हि-अनुपयुक्तः स आवश्यकशास्त्रज्ञो न भवितुमर्हति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वात् । एते हि शुद्धन माश्रित्य वस्त्वभ्युपगच्छन्ति, मान्यता है कि द्रव्य और पर्याय के संबन्ध में जितने विचार होते हैं उनका वर्गीकरण उपर्युक्त चार नयों में ही हो जाता है। जिनका वर्गीकरण स्वतंत्र नय द्वारा किया जाय ऐसे विचार ही शेष नहीं रहते । तथापि विचारों को प्रकट करने और इष्ट पदार्थ का ज्ञान कराने का प्रधान साधन शब्द है । इसलिये इसकी मुख्यता से जितना भी विचार किया जाता है वह सब तीन नयों की ही कोटि में आता है। ये नय यह कहते हैं कि अबतक शब्द प्रयोग की विविधता होने पर भी अर्थ में भेद स्वीकार नहीं किया गया है परन्तु जहाँ शब्दनिष्ठ तारतम्य है उसके अनुसार अवश्य अर्थभेद है । इसीलिये ये कहते हैं कि यह बात कैसे बन सकती है कि जो आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता है वह उसमें अनुपयुक्त है । क्यों कि ज्ञाता होने पर अनुपयुक्त - और अनुपयुक्त होने पर ज्ञाता यह असत् है - संभावित नहीं होता है ।
આ ત્રણે ના માને છે—અર્થની પ્રધાનતા માનતા નથી. આ નચેાની એવી માન્યતા છે કે દ્રવ્ય અને પર્યાયના સંબધમાં જેટલા વિચારા હૈાય છે. તે વિચારાનુ વગી - કરણુ ઉપર્યુકત ચાર નયમાં જ થઈ જાય છે.
જેમન્તુ વગી કરણુ સ્વતંત્ર નય દ્વારા કરી શકાય એવા કે!ઇ વિચાર જ ખાકી રહેતા નથી. છતાં પણ વિચારાને પ્રકટ કરનાર અને ઇષ્ટ પદાર્થાનું જ્ઞાન કરાવનાર મુખ્ય સાધન શબ્દ છે. તેથી તેની (શબ્દની) પ્રધાનતાની અપેક્ષાએ જેટલા વિચારા કરવામાં આવે છે તેટલા વિચારાને આ ત્રણ નયાની કૅટિમાં જ મૂકી શકાય છે. તે નયા એ ખતાવે છે કે હજી સુધી શબ્દ પ્રયાગની વિવિધતા હૈાવા છતાં પણ અમાં ભેદના સ્વીકાર કરવામાં આા નથી પરંતુ જયાં શબ્દ નઠ તારતમ્ય છે. તેના અનુસાર અથભેદ પણ અવશ્ય છે જ. તેથી તેઓ કહે છે કે- એવી વાત કેવી રીતે સંભવી શકે કે જે આવશ્યકશાસ્ત્રના જ્ઞાતા છે. તે તેમાં અનુપયુકત છે, કારણકે જ્ઞાતા હ।વા છતાં પણ અનુપયુકત હોય અને અનુપયુકત હાવા છતાં પણુ જ્ઞાતા હાય એ વાત જ અસંભવિત હૈાય છે. જ્ઞાતા હાય તા તે તેમાં ઉપયુકત
For Private and Personal Use Only
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
%
D
:
:
अनुयोगचन्द्रिका टीका. १६ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् अतो य, प्यागमकारणत्वादात्मदेहादिकमागमत्वेनोक्त तदप्यौपचारिकप, अत
तदागमत्वेन न प्रतिपद्यन्ते । तस्मादेतन्मते द्रव्यावश्य काय असंभवएवेति । उक्ताईमुपसंहरन्नाह–से तं आगमओ दव्यावस्सयं' इति । तदेतदागमतो द्रव्यावश्यकम् ॥ मू० १५॥ ज्ञाता है तो वह उस में उपयुक्त है । अनुपयुक्त है तो वह उस का ज्ञाता नह है। अतः आश्यक शास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता को लेकर जो आगमद्रव्याव यक की प्ररूपणा को ये शब्दादिनय स्वीकार नहीं करते हैं। क्योंकि ज्ञाता और अनुपयुक्तता का समन्वय बैठता नहीं है। अनुपयुक्तता की स्थिति में वह आवश्य। शास्त्र का ज्ञाता ही नहीं हो सकता है। ज्ञाता शब्द का . अर्थ "उस संबन्धी ज्ञानवाला" ऐसा होता है । जब तत्संबन्धी ज्ञानवाला वह है तो इ-का तात्पर्य यही है कि वह ज्ञान के उपयोगवाला है। क्योंकि ज्ञान स्वयं उपयोगरूप है। ये तीनों नय शुद्वनय को आश्रित करके वस्तु को स्वीकार करते हैं। इसलिये जो "आगम के कारण होने से आत्मा तदधिष्ठित देह, और शब्द ये आगमरूप है" ऐसा कहा है। क्योकि ये आगमरूप से नही माने जाते हैं। इसलिये इन नयों के मन्तव्यानुसार आगम द्रव्या वश्यक असंभव ही है। इस तरह पूर्व प्रक्रान्त आगमद्रव्यावश्यक का स्वरूप . इस प्रकार का कहा है।
(ઉપગ સંપન્ન) હોય, અને અનુપયુક્ત હોય તે તેને જ્ઞાતા જ ન હોય એ વાત જ સંભવી શકે છે. તેથી આવશ્યકશાસ્ત્રના અનુપયુકત જ્ઞાતાની અપક્ષાએ જે આગમ વ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણું કરી છે. એ પ્રરૂવણને આ શબ્દાદિ ત્રણ પ્રકારના જે સ્વીકાર કરતા નથી. કારણ કે જ્ઞાતા અને અનુપયુક્તતાને સમન્વય જ સંભવી શકતું નથી. અનુપયુકતતાની સ્થિતિમાં તે આવશ્યકશાસ્ત્રને જ્ઞાતા જ સંભવી શકતું નથી. ( તા” એટલે તેના સંબંધી જ્ઞાન ધરાવનારો.” આ પ્રકારને અર્થ સમજ) જે તે જ્ઞાતા હોય એટલે કે તે વિષયના જ્ઞાનથી સંપન હેય. તે તેનું તાત્પર્ય એજ છે કે તે જ્ઞાનના ઉપગવાળો (ઉપયુક્ત) છે. કારણ કે જ્ઞાન પિતે જે ઉપયોગરૂપ હોય છેઆ ત્રણે નય શુદ્ધ નયને આધારે વસ્તુને સ્વીકાર કરે છે. તેથી એવું જે કહેવામાં આવ્યું છે કે “આગમનાં કારણરૂપ હેવાથી આત્મા તદધિષ્ઠિત દેહ અને શબ્દ એ આગમરૂપ છે.” આ કથન પણ ઔપચારિક કથન જ છે. કારણ કે તેમને આગમરૂપ માનવામાં આવતા નથી. તેથી આ ત્રણે નયેની માન્યતા અનુસાર આગમવ્યાવશ્યક સંભવિત જ નથી. આ રીતે પૂર્વ પ્રકાન્ત આગમવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું કહ્યું છે.
For Private and Personal Use Only
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११६.
अनुयोगबारसूत्रे सम्प्रति नोआगमता द्रव्यावश्यकं प्राह
मूलम्--से किं तं नो आगमओ दव्वावस्सयं ? नो आगमओ दव्वावस्तयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-जाणयसरीरदव्वावस्सयं, भवियसरीरदव्वावस्सयं, जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्यावस्सयं ।सू०१६ . छाया-अथ किं तद् नोआगमतो द्रव्यावश्यकम् , नो आगमतो द्रव्या... अयं भावः--सूत्रकार ने नैगमादि सात नयों की मान्यता को आश्रित करके आगमद्रव्यावश्यक में एकत्व अनेकत्व आदि का प्रतिपादन किया है। नैगमनय की अपेक्षा से आगमद्रव्यावश्यक में एकत्व और अनेक त्व है। संग्रहनय की अपेक्षा से उर.में केवल एकत्व है । व्यवहारनय की अपेक्षा से एक और अनेक आगम द्रव्यावश्यक हैं। ऋजुमूत्रनय की अपेक्षा से आगमद्रव्यावश्यक एक ही हैं । शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीन नयों की अपेक्षासे आगमट्यावश्क है ही नहीं। इन सब नयों की मान्यताओं का स्पष्टीकरण टीका के अर्थ में करदिया गया है । ॥ मूत्र १५॥
अब सूत्रकार नोआगमद्रव्यावश्यक का प्रतिपादन करते हैं“से किं तं नो आगमओ" इत्यादि । ॥ सूत्र १६ ॥ शब्दार्थ-(से किं तं नोआगमगे दव्वावस्सयं) हे भदंत ! नोआगम
સંક્ષિપ્ત ભાવાર્થ–સૂત્રકારે નૈગમ આદિ સાત નની માન્યતાને આધાર લઈને આગમ વ્યાવશ્યકમાં એકત્વ. અનેકત્વ આદિનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. નગમનયની માન્યતા અનુસાર આગમદ્રવ્યાવશ્યકમાં એકત્વ અને અનેકત્વ છે. સંગ્રહનય. ની માન્યતા અનુસાર તેમાં માત્ર એકત્વ જ છે, વ્યવહારનયની માન્યતા અનુસાર એક આગમદ્રવ્યાશ્યક પણ છે અને અનેક દ્રવ્યાવશ્યક પણ છે. જુસૂત્રનયની માન્યતા પ્રમાણે આગમદ્રવ્યાવશ્યક એક જ છે. શબ્દનય. સમભિરૂઢનય અને એવું ભૂતનય. આ ત્રણે નાની માન્યતા અનુસાર આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે જ નહીં. આ સઘળે નયેની માન્યતાનું સ્પષ્ટીકરણ ટીકાર્થમાં કરવામાં આવ્યું છે. સ. ૧પ
હવે સૂત્રકાર અને આગમદ્રભાવશ્યકનું પ્રતિપાદન કરે છે– "से किं तं नोआगमओ" त्या~ि
Awar-(से किं तं नो आगमओ द्रव्वावस्सय १) बगवन्! न माराम ને આશ્રિત કરીને પ્રભાવશ્યકનું કેવું સ્વરૂપ છે ?
For Private and Personal Use Only
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका-पू. १६ नोआगमतो द्रव्यावश्यनिरूपणम् ११७ वश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकम्, भव्यशरीरद्रव्यावश्याम्, ज्ञायकशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् ॥सू० १६॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि--
अथ किं तद् नो आगमतो द्रव्यावश्यकम् ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति'नोआगमओ दवावस्सयं तिविहं पणतं' इत्यादि । नो आगमतो द्रव्यावश्यक त्रिविध प्रज्ञप्तम् । अत्र नो शब्दः सर्वथा प्रतिषेधे देशतः प्रतिषेवेऽपि च वर्तते। तथा च सर्वथा आगमाभावमाश्रित्य द्रःयावश्यकं, तथा देशतः आगमाभावमानित्य द्रव्यावश्यकं च नोआगमतो द्रव्यावश्यकमिति । तत् त्रिविधं प्रज्ञप्तं-तीर्थ करैः प्ररूपितमित्यर्थः। (१) ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकं, (२) भव्यशरीरदव्यावश्यकम्.(३) ज्ञायकशरीरभ यशरीरन्यतिरिक्तद्रव्यावश्यकंचेति । तत्र-ज्ञानवानिति ज्ञायकः, शीर्य ते को आश्रित कर के द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(नोआगमओ दव्यावस्सयं तिविहं पण्णत्त)नोआगम की अपेक्षा करके द्रव्यावश्यक तीन प्रकार का प्रज्ञाप्त हुआ है। (तंजहा) उसके वे तीन प्रकार ये हैं-(जाणयसरीरदव्यावस्सयं, भवियसरीरदव्यावरसय, जाणयसरीरभवियसरीरवरित दव्वावग्सयं) (१)ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्यक (२)भन्या शरीरद्रव्यावश्य:, और ज्ञाय के शरीरभव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक । नो शब्द सर्वथा प्रतिषेध में और किञ्चित् प्रतिषेध में भी आता है। नो आगमद्रव्यावश्यक में नी शब्द इन्हीं दोनों अर्थों में व्यवहृत हुआ है। इस तरह आगम के सर्वथा अभाव की और आगम के एकदेश अभाव को लेकर द्रव्यावश्यक वनता है। यह नो आगम द्रव्यावश्यक ज्ञायक शरीर आदि के मेद से ३ प्रकार का है। जो. आगमशास्त्र को जान चुना है ऐसे ज्ञायक का निर्जीव शरीर नोआगम
उत्तर-(नोआगमओ दवावस्सय तिविहं पण्णत) ना मानी अपेक्षाद्र०यावश्यना न २ 3 छे. (तंजहा) a प्र नीय प्रभारी समाया....
(जाणयसरीरदब्वावस्सयं, भवियसरीरदबावरसयं, जाणयसरीरमवियसरीरवइरित दावस्सय) (१) शायरी द्र०यावश्य४. (२) १०यशद्र०या) વશ્યક અને જ્ઞાયક શરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્યાવશ્યક. , , , , - -"नो" श६ सय निवेध या निधना अभी:५५AVE . छ. "नोमागम, द्रव्यापश्यमा" रे नी' २५६ मा०यो छ । उपर्यु तमन्न' અર્થમાં વપરાય છે. આ રીતે આગમન સર્વથા અભાવને અને આગમના એક દેશતઃ અભાવને લઈને દ્રવ્યાવશ્યક બને છે. આ આગમવ્યાવશ્યક જ્ઞાચ્છ શરીર આદિના ભેદથી ત્રણ પ્રકારને કહો. છે, જે આગમનું જાણી ચુકી છે એવા સાયકનું નિર્જીવ શરીર ને આગમદ્રવ્યવાશ્યક છે. આગામી કાળમાં જે જીવ વિવક્ષિત
For Private and Personal Use Only
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
就
अनुयोगद्वारar
प्रतिक्षणं क्षीयते इति शरीरं ज्ञास्यशरीरं ज्ञायकशरीरं तदेव द्रव्या ३ यकमिति विग्रहः जीवपरित्यत मावश्यकशास्त्रज्ञानवतः शरीरं ज्ञायकशरीरद्रश्या श्यकम् । विवक्षितपर्यायेण भविष्यतीति भाव्यस्तस्य शरीरं भाविभावावश्यक कारणत्वात् द्रव्या
यावश्यक हैं । विवक्षित पर्याय से युक्त जो आगामी काल में होगा उसका नामभव्य है । भावि भाररूप आवाक का कारण होने से उसका शरीर भव्य शरीर द्रव्यावश्यक है ज्ञायक शरीर और भव्यशरीर इन दोनों से भिन्न जो द्रव्यावश्यक है वह ज्ञायक शरीर - भ० शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक है । इस प्रकार यह तीन प्रकार का नो आगमद्रव्यावश्यक है ।
भावार्थ - नो आगमुद्रव्यावश्यक का स्वरूप प्रकट करने के लिये सूत्र - कार ने इसके तीन भेद किये है- (१) ज्ञायकशरीर द्रव्याश्यक, (२) भव्य शरीर द्रव्याश्यक और (३) तद्वयतिरिक्त द्रव्यावश्यक । नोआगम द्रव्यावश्यक में नो शब्द आगम के सर्वथा निषेत्र करने में प्रयुक्त हुआ है - तथा च- जीव पहिले आकशास्त्र का ज्ञाता था वह जब मर जाता हैं - पर्यायन्तरित हो जाता है तब उस समय का निर्जीव शरीर है वह आगमाभाव से विशिष्ट होने के कारण ज्ञायक शरीरावश्यक है । इसी तरह जो आगामी काल में आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता होगा ऐसे उसका जो शरीर है वह भयशरीर પર્યાયથી યુકત થવાના છે, તેને ભવ્યજીવ કહે છે. ભાવિ સ્વભાવરૂપ આવસ્યકનું કારણુ હાવાથી તેનુ શરીર ભયશરીર દ્રવ્ય:વશ્યક ગણાય છે. જ્ઞાયક શરીર ૬૦ાવશ્યક અને ભયશરીર દ્રશ્યાવશ્યકથી ભિન્ન જે બ્યાવશ્યક છે તેને નાયકશરીર—ભવ્યશરીર યતિરિકત નાઆગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે.
C
બનાવશ્યક કહે છે. આ પ્રમાણે આ
ત્રણુ પ્રકારના
For Private and Personal Use Only
આ
ભાવાય —નાઆગમ દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવા નિમિત્તે સૂત્રકારે તેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ કહ્યા છે–
(१) ज्ञाय शरीरद्रव्यावश्यन (२) भव्यशरीर द्रव्यावश्य, (3) तद्वयव्यतिरिक्त (जन्नेथी लिन्न इव्यावश्य
નાઆગમ દ્રવ્યાવશ્ર્વકમાં “ના” પદું આગમના સર્વથા નિષેધ કરવામાં प्रयुक्त थयो छे म
જે જીવ પહેલાં આવશ્યકશાસ્ત્રના સાંતા હતા, તે જયારે મરણ પામે છે-અન્ય પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ ન્તય છે, તે સમયનુ તેનુ જે નિર્જીવ શરીર હોય છે તે આગમના અભાવવાળુ હાવાને કારણે જ્ઞાયકશરીરદ્રવ્યાવશ્યક રૂપ ગણાય છે. એજ પ્રમાણે જે જીવ ભવિષ્યમાં આવશ્યકંશાઅનેા જ્ઞાતા થવાના છે; તે જીવના શરીરને ભવ્ય
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७ ज्ञाथ कशरीर द्रव्यावश्यकनिरूपणम् ११९ ३६कं भव्यशरीरद्रव्याश्यकम् । ज्ञाया शरीरभन्यशरीगम्या व्यतिरिन-भिन्न द्रव्यावश्यकं इत्येवं त्रिविधं नोआगमता द्रव्यावश्यक बोध्यम् ॥ सू० १६ ॥
तत्र प्रथमभेदं निरूपयितुमाह
मूलम्--मे किं ते जाणयसरीरदव्वावस्सय ?. जाणयसरीरदत्वावस्सयं आवस्सएत्ति पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचवियचत्तदेहं जीवविष्पजढं सिज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता गं कोई भणेजा अहो! इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिदिट्रेणं भावेणं आवस्सएत्तिपयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं । जहा को दिट्रंतो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी से तं जाणयसरीरदवावस्सयं ॥ सू० १७ ॥
छाया-अथ किं तद् ज्ञायकशरीरद्रव्या श्ययम् ? ज्ञायव शरीरद्रत्यावश्ययम् आ:इपति पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्याक्तित्यक्तदेहं जीत दृष्यावश्यक है। तथा इन दोनों से व्यतिरिक्त जो द्रव्यावश्यक है वह तद्वयतिरिक्त द्रव्यावश्यक है। ॥ सूत्र १६॥
अब सूत्रकार नोआगम द्रा याव यक का जो प्रथम भेद ज्ञायक शरीर द्रव्यावशयक है उसे विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं--
“से किं तं जाणयसरीग्दव्यावरसय' इत्यादि । ।। सू० १७॥
शब्दार्थ-प्रश्न-(से किं तं जाणयसरीरदवावस्सयं) हे भदंत ! ज्ञापक शरीर द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप हैं ?
શરીર દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ માનવામાં આવે છે. તથા આ બન્ને કરતાં ભિન એ જે દ્રવ્યાવશ્યક છે તેને તદ્રયવ્યતિરિત (ઉભયથી ભિન) દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે. સ્ર ૧દા
“આગમ દ્રવ્યાવશ્યક” ને, ઝાયશરીરદ્રવ્યાવશ્યક નામને જે પહેલે ભેદ છે તેનું સૂત્રકાર હવે વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે–
से किं तं जाणयसरीरदब्धावस्य" त्या
शा-प्रश्न-(से किं तं जाणयसरीरदध्वावस्सथ) 3 मपन् ! शायर શરીર દ્વવ્યાવશ્યકનું કેવું સ્વરૂપ કહ્યું છે?
For Private and Personal Use Only
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'अनुयोगद्वारपत्रे पिहीणं शम्यागतं वा संस्तारगतं वा नेषेधिकीगतं वा सिद्धशिलातलगतं था : दृष्ट्वा खलु वाऽपि भणेत्-अहो ! अनेन शरीरसमुच्छ्ये ण जिनदृष्टेन भावेन आइयकेतिपदम् आपवितं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निदर्शितम् उ दर्शितम् ।
उत्तर-(आवस्सएसि पयस्थाहिगारंजाणयरस जं सरीरं) आवश्यक पदाच्य आगम के अर्थरुप अधिकार के ज्ञाता का-अर्थात् आवश्यकमन्त्र के अर्थ को जाननेवाले साधु आदि का-ऐसा शरीर कि जो (वयगय चुयचवियचत्तदेहं) ध्यपगत चैतन्यपर्याय से रहित है, च्युत-बलिष्ठ आयुक्षय के कारणों से प्राण रहित है रक्तदेह-आहारपरिणति जनित वृद्धि जिससे सर्वथा निकलचुकी है (जाणयसरीरदम्वावरसय) ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्यक है। इसी अर्थ का स्पष्ट ज्ञान होने के लिये सूत्रकार शदातर से इसका वर्णन करते है (जीवविप्प। जई सिज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्ध सिलातलगय वा पासित्ता णं कोई भष्णेज्जा) वे कहते हैं कि जब इस प्रकार के प्राण रहित शरीर को शय्या पर देखकरके, संस्तारगत देखर रके स्वाध्यायभूमि अथवा स्मशानभूमि गत देखकरके या सिद्ध शिलालगत देखक रके वे कहते हैं कि (अहो) अहो ! (इमेणं) इस (सरीरसमुस्सएणं) शरीररूप पुद्गल संघात ने (जिनदिटेणं भावेणं) तीर्थंकरों द्वारा मान्य हुए कर्म निर्जरण के अभिप्राय से अथवा तदावरण के क्षय, क्षयोपशमरूप भाव से अर्थात ज्ञानावरणीयकम के क्षय
उत्त२-(आवस्सएत्ति पयत्याहिगारं जाणयस्स जं सरीर) मावश्य: ५४ाશ્ય આગમના અર્થરૂપ અધિકારના જ્ઞાતાનું એટલે કે આવશ્યકસૂત્રના અર્થને જાણુना। साधु मारिनु मे शरी२ रे (ववगयचुयचावियचत्तदेह) ०५५11ચૈતન્ય પર્યાયથી રહિત છે, ચુત દસ પ્રકારના પ્રાણથી પરિવર્જિત (રહિત) છે, त्यति माडा२परिणति नित वृद्धि भांशी संपू नीती यु४ी छ, (जाणय सरीरदब्यावस्सयं) मे शरीरने "ज्ञाय शरीर द्र०यावश्य” छ, २॥ अथ ना વધુ સ્પષ્ટ ખ્યાલ આપવાના હેતુથી સૂત્રકાર અન્ય શબ્દો દ્વારા તેનું વર્ણન કરે છે___(जीविष्पजलं सिज्जागयं वा, संथारगयं वा, निपीहियाग यंग, सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ताणं कोइ भणेज्ना) An 4t२॥ प्रा२हित २०१२ने शय्या પર દેખીને, સસ્તારગત દેખીને, સ્વાધ્યાયભૂમિ અથવા સ્મશાનભૂમિગત દેખીને मया सिद्धशिलात भीन तम्मा ४४ -(अहो) म ! (इमेणं सरीरसमुस्सएणं) मा १२ ३५ सघात (जिनदिष्टेणं भावेणं) ती ४२ पाना દ્વારા માન્ય ચેલા કર્મનિર્જ રણના અભિપ્રાયથી અથવા તદાવરણના ક્ષય, પમ ३५ माथी मेरो ज्ञाना१२९१य इभाना क्षय क्षय।५२२म अनुसार .(आवरसए त्तपयं)
For Private and Personal Use Only
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १७ ज्ञायक शरीरद्रव्यावर कनिरूपणम्
१२१
- यथा का दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भ आसीत्, अयं घृतकुम्भ आसीत् । तदेतत् ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकम् ॥ सू० १७ ॥
टीका- शिष्यः पृच्छति -- 'से किं तं' इत्यादि । हे भदन्त ! अथ कि तत् ज्ञायक शरीरद्रव्यावश्यकम् ? उत्तरमाह - ' जाणयसरीरदव्वावस्सयं' इत्यादि । ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकं वर्ण्यते इत्यर्थः । आवश्यकेति पदार्थाधिकारज्ञायक स्रआवश्यके तिपदस्य आवश्यक पदवाच्यस्य आगमस्य यः अर्थाधिकारः = अर्थ एव अर्थाधि, कारः तस्य ज्ञायकः=ज्ञाता, तस्य आवश्यक मूत्रार्थं ज्ञातवतः साध्वादे येत् शरीरम् |
क्षयोपशम के अनुसार (आवरसएत्तिपर्य) आवश्यक सूत्र वा विशेषरूप से (आध(वि) गुरु से ज्ञान प्राप्त किया था ( पष्णवियं) सामान्यरूप से उसे शिष्यों को समझाया था । (परूवियं) सूत्रार्थ वनपूर्वक फिर उसे शिष्यजनों को . 'पढाया था ( दंसिय) प्रतिलेखनादि क्रियारूप मे उसे स्वयं ने अपनी आत्मा में उतारा था । और बाद में इसी रूप में दूसरों को दिखला था - अर्थात् प्रतिलेखनादि क्रिया के प्रदर्शन से यह प्रकट किया था कि दोनों समय समस्त भेंड पकरणों की प्रतिलेखना करनी आवश्यक हैं। अंगुल मात्र वस्त्र खण्ड मी विना प्रतिलेखना के नहीं रहना चाहिये । ( निदं सियं) आवश्यकशास्त्र के ग्रहण करने में जो शिष्यजन अक्षम थे उनके लिये इसने करुणावश होकर बार २ आवश्यत्र शास्त्रग्रहण करवाया था । ( उवदं सियं) सर्वनय और युक्तियों द्वारा शिष्यजनों के हृदयस्थान में इसे बिना किसी संदेह के इसने जमाया - था अतः वह शरीरज्ञायक शरीरद्रव्यावश्यक हैं ।
For Private and Personal Use Only
आवश्यक सूत्र विशेष३ये ( आघत्रियं) गुरु पासे अध्ययन यु भ्यु" तु. (ष्णरिथं) सामान्यइये तेषु शिष्याने ते सगल सूत्रार्थना प्रथन पूर्व तेथे इरीथी शिष्याने तेनुं अध्ययन पुराव्य तु (दंसियं) પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયારૂપે તેમણે પાતે પેાતાના આત્મામાં ઉતાર્યું હતુ, અને ત્યાર બાદ એજ રૂપે શિષ્યેને ખતાવ્યુ હતું, એટલે કે પ્રતિલેખના આદિ ક્રિયાના પ્રદનથી એ પ્રકટ કર્યું હતુ કે બન્ને સમય સમસ્ત પાત્ર વજ્રાદિ ઉપકરણાની પ્રતિલેખના કરવી આવશ્યક છે. વસ્ત્રના એક ઈંચ જૈટલે! ભાગ પણ પ્રતિલેખના विनानो रहे वो हमे नहीं (निदंसियं) भावश्याशांस्त्रने हुए खाने में शिष्यो અક્ષમ હતા, તેમના પ્રત્યે કરુણાભાવ રાખીને તેણે તેમને વારવાર આવશ્યક સૂત્ર ग्रह उशववानो प्रयत्न ये हतो. ( उवदंसियं) गधा नय भने युक्तियो द्वारा તેણે શિષ્યજાના હૃદયસ્થાનમાં ન્ડિન્શરૂપે તેને અધાણ કરાવ્યુ હતુ તેથી તેનું આ શરીર નાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે.
तु-ज्ञान प्राप्त हेतु (परू विघं )
}
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२२ . .
अनुयोगद्वारस कीदृशं ज्ञायव शरीर द्रव्यावश्यकं भवतीत्याह-वगय' इत्यादि । व्यए गतातच्यावितत्यत्तदेहं-वर पगतं दैतन्य पर्याय हितम्. उत एक-युतं- दशविधााणे : परिवर्जितम, स्याक्तिम् बलकताऽ युःक्षरेण प्राणेश्यः परि शितम्, त्यक्तदेहंत्यक्तो देहः आहारपरिणतिजनित उपचयो रेन तत्तथा, व्यपगतादीनां चतुर्णा कर्मधारयः । अमुमेवार्थ स्पष्टप्रतिपत्तये शब्दान्तरेणाह-'जीवविप्पजस्' इति, जीयविप्रहीण जीवात्मना सर्वथा परित्यक्तं तत् शय्यागतं वा-शरण शरीरप्रमाणा तत्र गतस्थितं दृष्ट्वा संस्तारगतं वा रस्तारेऽईतीयहरतप्रमाणरतत्र गतं दृष्ट्वा नषेधिकीगतं वा-नैधिकी स्वाध्या भूमिः श्मशानभूमिश्च तत्र गतं दृष्ट्वा. सिद्धशिलातलगतं वा-अनेकविधतपःपरिशोषितश्रीराः साध्वो यत्र स्वर मेवगत्वा भक्तप्रत्याख्यानरूपमनशनं कृतवन्तः, कुर्दन्ति, करिन्ति च, तत् सिद्ध शिलातलम्, यद्वा यत्र कश्चिद् महर्षिः सिद्धरतत् सिद्धशिलातलम, तत्र गतं स्थित दृष्टा 'खलु कोऽपि श्रावकादिः, भगति-कथयति-'अहो !' अहो इति दैन्ये, विस्मय, आमन्त्रणे च 'अनित्यं शरीरम्' देयम् । 'आवश्यकं इतम' इति विस्मयः । पार्श्वस्थं प्रति आमन्त्रणम् । त्रितयोऽप्यर्थोऽत्र संगच्छते। खलु अनेन प्रर क्षतथा परिदृश्यमानेन शरीरसमुच्र्येण शरीर मेव समुच्छ्यः - पुद्गलसंघातस्तेन जिनदृष्टेन तिर्थङ्कराभिमतेन भावेन कर्मनिर्जरणाभिप्रायेण, यहा-तदावरणक्षणक्षयोपशमलक्षणेन आवश्य तिपदम-आवश्यक शास्त्रम, आगृहीतम्-गुरोः सकाशादधिगतम, प्रज्ञापितम्-सामान्यरूपेण शिष्येभ्यः कथितम, प्ररूपितम् सूत्रार्थकथनपूर्वकं शिष्येभ्योऽध्यापितम्, दर्शितम् प्रतिलेखनादिक्रियायाः प्रतिलेखनीयम् अर्जुलमात्रं वस्त्रखण्डमपि अप्रतिलेखनेन न स्थापनीयम्, इति । निदर्शितम्.....शंका--अचेतन होने से शरीररूप पुद्गल स्कंध जब आवश्या शास्त्र का ज्ञाता ही नहीं हो सकता है तब सूत्रकार का "आवस्सएत्तिपद आधवियं" आदि कहना संगत तीन नहीं होता है। क्योंकि ग्रहण करना प्ररूपणाआदि करना ये सब क्रियाऐ जीब के साथ संबन्धित होती हैं। अतः जीव के धर्म होने के कारण इनकी घटना शरीर के साथ नहीं हो सकती है ? सो इस आशंका का उत्तर इस प्रकार
શંકા–અચેતન હોવાને કારણે શરીરરૂપ પુદ્ગલ સ્કંધ જે આવશ્યકશાસ્ત્રને साता an is ext नथी. तो सूत्रानु “आवस्सएत्ति पदं आधविय) मा ut. રનું કથન સંગત લાગતું નથી. કારણ કે ગ્રહણ કરવાની અને પ્રરૂપણા આદિ કરવાની ક્રિયાઓ તે જીવની સાથે સંબંધ ધરાવનારી હોય છે. આ ક્રિયાઓ જીવના ધર્મ રૂપ હોવાને કારણે મૃત શરીરમાં તેને કેવી રીતે ઘટાવી શકાય? રૌતન્ય યુકત શરીરમાં જ આ ક્રિયાઓને સદભાવ હોય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अयोगचन्द्रिका टीका १७ ज्ञापकशरी द्रव्यावश्यकनिरूपगम् आवश्यकशास्त्रग्रहणाक्षमेभ्यः शिष्येभ्यः करुणावशात् पुनः पुनर्दर्शितप, उपदर्शितम् सर्वनययुक्तिभिश्च प्रदर्शितम् । अत इदं शरीरं ज्ञायकशरीरावइपकम् !
नन्वनेन शरीरसमुच्छ्रयेणाऽऽवश्य मागृहीतमि यादि नोपपद्यते, ग्रहणप्ररूपणादीनां जीवधर्मत्वेन शरीरस्याघटमोनत्वात्, इति चेदुच्यते-भूतपूर्वमाश्रित्य तत्कथितम, अतो नास्ति दोषः। ननु शय्यादिगतं साधुशरीरं दृष्ट्वा कश्चित् पूर्वोक्तप्रकारेण वदति, परन्तु तस्य द्रव्यावश्यकत्वं न संभवति, “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्यं तत्वज्ञैः सचेननाचेतनं कथितम्" इति पूर्णोक्त चनात् आवश्यकपर्यायस्य कारणमे। द्रव्यावश्यक भवितुमर्हति । ..
आवश्यकपर्यायस्य कारणं तु चेतनाधिष्ठितमेव शरीरम्, नत्वचेतनम्, अतो निर्जीव से है कि शायक शरीर को जो द्रव्यावश्यक कहा है वह भूतपूर्व को (अर्थात् भूतकाल की अपेक्षा को ) लेकर कहा है । अर्थात् जब र ह शरीर चेतनाधिष्ठित था-तंब उस के संबन्ध से यह उस शास्त्र कीप्ररूपणा आदि करता था । अतः इसमें कोई दोष नहीं हैं। - शंका-शय्यादिगत साधु के शरीर को देख करके यदि कोई पूर्वोक्त प्रकार से वहता है तो भले कहो। परन्तु उस शरीर में द्रव्यावश्यकता संभवित नहीं है ती है क्यों कि भूत अथवा भावी पर्याय का जो कारण हैचाहे वह सचेतन हो चाहे अचेतन हा वही तत्वज्ञों की दृष्टि में द्रव्य-व्य निक्षेप का विषय माना गया है। अतः इस कथन से आवश्पकार्याय का कारण ही द्रव्यावश्यक होने के योग्य हो सकता है । सो ऐसे द्रव्याश्यक का ऐसा कारण तो चेतनाधिष्ठित शरीर ही होता है, अचेतन शरीर नहीं। इसलिये निर्जीव शरवादिगत साधु शरीर द्रव्यावश्यक नहीं हो सकता है।
આ શંકાનું સમાધાન નીચે પ્રમાણે સમજવું– - જ્ઞાયક શરીરને જે દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવ્યું છે, તે ભૂતપૂર્વની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યું છે. એટલે કે જ્યારે તે શરીર તન્યથી યુકત હતું ત્યારે તે આ શાસ્ત્રની પ્રરૂપણા આદિ કરતું હતું. તેથી આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ દોષ નથી. ' શંકા–શય્યાદિગત સાધુના શરીરને જોઈને કોઈ પૂર્વત પ્રકારે કહેતા હોય તે ભલે કહે, પરંતુ એ શરીરમાં દ્રવ્યાવશ્યકતા તે સંભવી જ શકતી નથી ! કારણ કે ભૂત કે ભાવી પર્યાયનું જે કારણ -લે તે ચેતન હેય અડ્યા લે તે અચેતન હોય. પણ એને જ તત્ત્વજ્ઞ દ્રવ્ય-દ્રવ્યનિક્ષેપનો વિષય માને છે. તેથી આ કથન અનુસાર તે આવશ્યક પર્યાયનું કારણ જ દ્રવ્યાવશ્યક ગણવાને યોગ્ય હોઈ શકે છે. અને એવા દ્રવ્યાવશ્યકનું એવું કારણ તે ચેતનાયુકત શરીર જ હોઈ શકે છે, અચેતન શરીર એવાં કારણરૂપ બની શકતું નથી. તે કારણે શય્યાદિગત નવ સાધુનું શરીર દ્વવ્યાવશ્યક હોઈ શકતું નથી.
For Private and Personal Use Only
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२४
'अनुयोगदारसूत्रे शय्यादिगतं साधुशरीर द्रव्यावश्यकं भवितुं नाहतीति चेदुच्यते-यद्यपि तस्मिनु काले चैतन्याभावात् शरीरस्य द्रव्यावश्यकत्वं नास्ति, तथापि अतीतपर्यायानुवृत्याभ्युपगमपरनयानुवृत्याऽतीतमावश्यकपर्यायकारण वमपेक्षास्य द्रव्यावश्यकत्वं बोध्यमिति नास्ति काचिद् विप्रतिपत्तिः । अत्रार्थे शिष्यो दृष्टान्तं पृच्छति-'जहा कंदिढतो' इति । यथा को दृष्टान्तः अत्र यथा कश्चिद् दष्टान्तो भवेत्, तथा कथयतु ? इति शिष्यपृच्छायां दृष्टान्तमाह-'अयं महुकुंभे आसी, अयं घरकुंभे आसी' इति । अयं मधुकुम्भ आसीत्, अयं घृतकुम्भ आसीत् इति । अयं भावः-यथा कोऽपि कस्मिंश्चिद् घटे घृतं वा मधु वा भृत्वा समानीतवान्, पुनस्ततस्तदपसारितवान्, अपसारिते तस्मिन्-अयं घृतकुम्भ आसीत, अयं मधुकुम्भ आसीदिति सो इस शंका का उत्तर इस प्रकार से है कि यद्यपि उस काल में चेतना नहीं होने से उस शरीर में द्रव्यावश्यकरूपता नहीं है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से अतीत आपक पर्याय के प्रति कारणता उसमे भी ऐसा मानकर उसमें द्रव्यावश्याता जाननी चाहिये । इस तरह इस कथन में कोई दोष नहीं है। शिष्यजनों को समझाने के लिये इसी विषय में सूत्रकार दृष्टान्त कहते हैं क्योंकि (जहा कोदिटुंतो) उन्होंने इन पदोंद्वारा यही पूछा हैं कि हे गुरु महाराज ! इस विषय में जैसा कोई दृष्टान्त हो वैसा आप कहिये । (अयं महुकुंभे आसी अयं घयकुंभे आसी) तब वे शिष्य को दृष्टान्त कहते हैं कि जिस प्रकार . कोई पक्ति घडे में मधु या घृत भरकर लाया
और फिर उसमें से उस मधु या घृतको निकाल लिया भी वह उसे यह मधुकुंभ था या यह घृतकुंभ था इस प्रकार से कहता है। और ऐसा व्यवहार भी लोक में उसमें भूतकालिक मधु या घृत का आधार- આ શંકાનું હવે સમાધાન કરવામાં આવે છે–
જો કે તે કાળે તે સાધુશરીરમાં ચેતનાને સદ્ભાવ નથી અને તે કારણે તે શરીરમાં દ્રવ્યાવશ્યકરૂપતાને સદ્ભાવ નથી, પરંતુ ભૂતપૂર્વ પ્રજ્ઞાપનનયની અપેક્ષાએ અતીત (ભૂતકાલિન) આવશ્યકપર્યાયના કારણને તે તેમાં સદભાવ હતા જ, એમ માનીને તેમાં દ્રવ્યાવશ્યકતા જાણવી જોઈએ. આ રીતે વિચારવામાં આવે તે આ કથનમાં કેઈ દોષ નથી, આ વિષય શિષ્યજનેને સારી રીતે સમજાવવા માટે સૂત્રકાર એક दृष्टान्त मापे छ, (जहा को दिलुतो) ४।२७ शिव्या द्वा२मा प्रानु સૂચન કરવામાં આવ્યું છે “હે ગુરુમહારાજ! આ વિષયનો અમને સચોટ ખ્યાલ આવે તે માટે એવું કંઈ દૃષ્ટાન્ન હોય, તે આપ અમને કહી સંભળાવવાની કૃપા કરે”
(अयं महुकूमे आसी अयं धयकुंभे आसी) शयनानी २५ (नतिने ध्यानमा લઈને ગુરુ નીચેનું દૃષ્ટાન્ત આપે છે કોઈ એક વ્યકિત એક ઘડામાં મધ અથવા ઘી ભરીને લાવે છે. ત્યાર બાદ તે તેમાંથી મધ અથવા ઘી કાઢી નાખે છે અથવા વાપરી નાખે છે. છતાં પણ તે એવું કહે છે કે “આ મધને ઘડે છે અથવા આ ઘીને ઘડો છે.” ભૂતકાળમાં તે કુંભ મધ અથવા ઘીને ભરવા
For Private and Personal Use Only
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १७ ज्ञायकशरीरद्रव्यावकनिरूपणम्
१२५ भूतकालिक घृतमध्वाधारत्वेन लोके व्यपदिव्यते । तथैव भूतकालिकावः यकपर्याय कारणत्वाधारत्वेन निर्जीवं शय्यागतं शरीरमपि द्रव्यावश्यकमुच्यते इति ।
इत्थं पूर्वोक्तं जीव विप्रमुक्तं शय्यादिगतं साधुशरीरं नोआगमतो द्रव्यावश्यकं भवति । आवश्यत्रार्थज्ञानलक्षणस्य आगमस्य तदानीं तच्छरीरे सर्वथाऽभावात् । 'चुय' इत्युक्त्वा ' चाविय' इति पुनरभिधानं स्वभाववादिनो मतनिराकरणार्थन् । स्वभाववादि ॥ हि स्वभावत एव मरणं मन्यन्ते, परन्तु स्वभावस्य सर्वदा वर्तमानत्वेन सर्वदा तत्प्रसङ्गात्, अतः आयुः क्षयेणैव प्राणिनां प्राणाः शरीशन्निर्गच्छन्तीति सूचयितुं 'चाविय' इत्युक्तम् ।
▾
वाला होने से व्यपदिष्ट होता है । उसी प्रकार भूतकालीन आवश्यक पर्याय का कारणरूप आगरवाला होने से निर्जीव शय्यादिगत शरीर भी द्रव्यावश्यक कहा जाता है। इस तरह पूर्वोक्त जीवविमुक्त शध्यादिगत साधु आदि का शरीर नोआगमकी अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक होता है । कयोंकि उन अवस्था में आवश्यक का अर्थज्ञानरूप आगम का उस शरीर में सर्वथा अभाव हैं "य" ऐसा कह करके भी जो सूत्रकार ने "चावि" ऐसा कहा हैं वह स्वभाववादी मत को निराकरण करने के लिये कहा है, क्योंकि स्वभाववादियों की ऐसी मान्यता है कि मरण स्वभाव से ही होता है । परन्तु यह उनकी मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि मग स्वभाव तो सर्वदा वर्तमान ही रहता - अतः सर्वदा मरण होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिये इस पद से यह बतलाया गया हैं कि जब आयु का क्षय होता है तभी प्राणियों के प्राण शरीर से निकलते માટે વપરાતા હતા. તે કારણે લેાકેામાં તેને મધના ઘડા અથવા ઘીના ઘડા કહેવાના વ્યવહાર થતા જોવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે ભૂતકાલિન આવશ્યક પર્યાયનાં કારણ રૂપ આધારવાળું હાવાથી નિર્જીવ શય્યાઢિગત શીર પણ દ્રશ્યાવશ્યક જ કહેવાય છે. આ પ્રકારે પૂર્વોકત જીવવિપ્રમુકત (પ્રાણાથી રહિત) શય્યાદિગત સાધુ આદિનું શરીર નાઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક હાય છે. કારણ કે તે અવસ્થામાં આવશ્યકના અજ્ઞાનરૂપ આગમના તે શરીરમાં બિલકુલ અભાવ હોય છે.
"चुय" 'भ्युत' या पहना प्रयोग ऊर्जा यह "चाविय" स्यावित' मा પદ્મના જે પ્રયાગ કરવામાં આન્યા છે તે સ્વભાવવાદીઓના મતનું નિરાકરણ કરવા માટે કરવામાં આવેલ છે. સ્વભાવવાદીઓની એવી માન્યતા છે કે મરણુ તે સ્વાભા ત્રિક રીતે જ થાય છે. તેમની તે માન્યતા બરાબર નથી. કારણ કે મરણવભાવ તો સદા વિદ્યમાન રહે છે. અને તેમની માન્યતા સ્વીકારવામાં આવે તે સદા મરણું थवानी प्रसंग आत थशे. तेथी तेभनी ते मान्यता मोटी छे. “चाविय" पहने
For Private and Personal Use Only
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Mondanbi
१२६
अनुयोगद्वारसूत्रे ' सम्प्रत्युपसंहरन्नाह-'से तं जाणयसरीरदव्यावस.य' इति । तदेतत् ज्ञा' क शरीरद्रव्यारश्यकं वर्णितम् । इति ॥ मू० १७॥ हैं । इतना वथन कर अब सूत्रकार इसका उपसंहार व रते हुए कहते हैं वि.(से तं जाणयसरी दव्या स्सयं) इस प्रकार पूर्वोक्त · ज्ञार कशरीरद्रध्यावश्यक का यह वर्णन है।
. ' भार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा ज्ञायकशरीर द्रव्यावश्यक का स्वर प वर्णन किया है। यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी हैं कि भूत या भवियतका कारण ही द्रा होता है। अतः जो साधु आदि आश्यत्र शास्त्र को जान रहा है परन्तु उसका उसमें उपयोग नहीं है ऐसा वह साधु आदि का जीव. द्रव्यावश्यक है। इस द्रव्यावश्यक वा भेद ही नोआगम द्रव्या ३५व है। जिस साधुने पहिले आवश्यक सूत्र का सविधिज्ञान प्राप्तकर लिया था और जब वह पर्यापान्तरित हो है तो उसका वह निजी व शरीर आवश्यक मूत्र के ज्ञान से सर्वथा अभावविशिष्ट होने के कारण ही नोआगमज्ञायकशरीरद्रपादक है । आगमज्ञान जिस में बिलकुल नहीं है ऐसा वह इ.रीर उस आगम के ज्ञाता का है कि जिसने उस आगम को जाना तो था परन्तु वह उसमें उपयोग से विही। था। इस तरह नोआगमनाय .रीर द्रव्यावश्यक पदों के अर्थ से वह निर्जीव शय्यादिगत साधु का शरीर नोआगमज्ञायक પ્રયોગ કરીને એ વાતનું પ્રતિમાદન કરવામાં આવયું છે કે જયારે આયુકર્મને ક્ષય થાય છે ત્યારે જ પ્રાણીઓનાં પ્રાણ શરીરમાંથી નીકળી જાય છે. "
वे सूत्रा२ मा सुत्र ५सार ४२di | प्रमाणे ४ छे-(से तं जाणय सरीरदब्वावस्सयं) मा २ पूर्वाहत ज्ञाय: शरी२ २८य.१२यनु २१३५ छे.
આ ભાવાર્થ સૂત્રકારે આ સુત્રદ્વારા જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યકના રવરૂપનું વર્ણન કર્યું છે. એ વાત તે પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે ભૂત અથવા ભવિષ્ય પર્યાયનું કારણું જ દ્રય હોય છે તેથી જે સાધુ આદિ આવશ્યકશાસ્ત્રને જાણી ગયાં છે પણ તેમાં તેને ઉપયોગ નથી એટલે કે જે અનુપયુક્તતા સં૫-ન છે, એવાં તે સાધુ આદિને જીવ પ્રભાવશ્યક કહેવાય છે.
"नाद्रमावश्या" मा दयावनी समेह .
જે સાધુએ પહેલાં આવશ્યક સૂત્રનું સવિધિ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી લીધું હતું. એવા સાધુને જીવ જયારે. મનુષ્યપર્યાયમાંથી નીકળીને અન્ય પર્યાયમાં ચાલ્યા જાય છે. ત્યારે તેનું તે નિર્જીવ શરીર આવક સૂત્રના જ્ઞાનથી સર્વથા અભાવવિશિષ્ટ સહિત) થઈ જાય છે. તે કારણે તેનાતે નિર્જીવ શરીરને અને આગમજ્ઞાયક શરીર દ્વવ્યાવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવે છે. આગમજ્ઞાન જેના બિલકુલ નથી. એવું તે શરીર તે આગમજ્ઞાતાનું છે કે જેણે તે આગમને જાણે તે હતું પણ તે તેમાં ઉપયાગથી વિહીન (અનુપયુકત) હતું. આ રીતે આગમ જ્ઞાયક શરીર
For Private and Personal Use Only
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्किा टीका १८ भायशरीर द्रव्यावश्यक निरूपणम्
अथ द्वितीय भेदं निरूपयितुमाह
मूलम्--से किं तं भवियसरीरदव्वावस्मयं ? भवियसरीरदव्वावस्तयं जे जीवे जोणि म्मणनिक्खते इमेणं चे व आत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिवोदिटेणं भावेणं आवस्सएत्तिपयं सेगकाले सिविखस्सइ न ताव सिक्खाइ । जहा को दिट्ठतो ? अय. महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभेभविस्सइ । सेत्तं भवियसरीरदव्यावस्सयं।सू०१८॥
... छाया- अथ किं तद् भव्यशरीद्रव्यावश्यकम ? भव्यशरीर द्रध्यावश्यक यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेनैव आत्तकेन शरीरसमुच्छ्येण जिनोपदिष्टेन शरीर द्रव्यावश्यक है। अनेव विध तपस्याओं से जिनका इ.रीर परिशोषित हो रहा है ऐसे साधुजनो ने जहाँ सयमेव जाकर भक्त प्रत्याख्यानरूप अनशन को किया है करते है और आगे भी करेंगे उस स्थानका नाम सिद्धशिलातल है । अथवा जहाँपर जो कोई महर्पि संस्तारक करके माणधर्मको प्राप्त किया हो उस स्थान का नाम सिद्ध शिलातल हैं। ॥ मू० १७॥
.. अब सूत्रमार नोआगम द्रव्यावश्यक का जो दूसरा भेद भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है-उसकि प्ररूपणा करते हैं
"से कि तं भवियसरीरदव्वावस्मयं इत्यादि-॥ मु०१८॥ .
शब्दार्थ-(अथ) विष्य पूछता है कि हे भदन्त ! (त भवियसरीरदव्वावम्सयं किं) पूर्वप्रक्रान्त भव्यशरीरद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? ...
દ્રભાવશ્યકે” આ પદોના અર્થની અપેક્ષાએ તે નિર્જીવ શય્યાદિગત સાધુનું શરીરને मागम शायशरीर द्र०या१२४ छ.
અનેક પ્રકારની તપસ્યાઓ વડે જેનું શરીર પરિષિત થઈ રહ્યું છે. એવાં સાધુઓ જ્યાં જાતે જ જઈને આહાર પાણીના પ્રત્યાખ્યાનરૂપ અનશન ધારણ કરે છે. ધારણ કરતા હતા અને ધારણ કરશે. તે સ્થાનનું નામ સિદ્ધશિલાતલ છે. અથવા જે સ્થાને કોઈ મહથિઈ ગયા હોય તે સ્થાનને સિદ્ધશિલાતલ કહે છે. સ ૧૭
હવે સૂત્રકાર ભવ્ય શરીર દ્રાવશ્યક નામનો નો આગમદ્રવ્યાવશ્યકને જે બીજો ले छेतेनी ५३५९! छ- “से किं तं भवियसरीरदव्यावस्सयं kulk
शम्दार्थ-(अथ) वे शिष्य गुरुने मेवे प्रश्न पूछे छे । (त भवियसरीरदव्वावस्सयं किं ?). मगवन ! पर्वात०य द्रव्यापश्यानु. २१३५ २१
For Private and Personal Use Only
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११८
अनुयोगद्वारसत्रे भावेन आवश्यकेति पदम् एकाले शिक्षिप्यते, न तावत् शिक्षते। यथा को दृष्टा तः १ . अयं मधुकुम्भो भविष्यति, अयं घृतकुम्भो भविष्यति। तदेतत् भव्यशरीरद्रव्यावश्यकम ॥ सू० १८ ॥
दीका-शिष्यः पृच्छति-से कि तं भवियसरीरदयावरसय' इति अर्थ किं तद् भव्यशरीरद्रयावश्यकम् ? उत्तरम्ह-विर सीरदच्चाररसयं' इति भव्यशरीरद्रव्यावश्यक भविष्यतीति भं-विवक्षितपर्याय योग्य इत्यर्थः, तस्य शरीरं तदेव भविभावावश्यककार णत्वाद् द्रव्यावश्यकं-भर यशरी द्रव्यावस्यक वर्ण्य ते इत्यर्थः । यो जीव-योनिजन्मनिष्कान्तः-योन्या: योनिमध्यात्-उन्म काले निक्रान्तःनिर्गतो न तु पूर्णसमयात् पूर्वमेव गर्भात् पतितो अनेक आत्तकेन गृहीतेन शरीर समु छ्येण जिनोपदिष्टेन भावेन आवश्यकेति पदम् आवश्यकशास्त्र भविष्यत्काले शिक्षिः ते अध्येष्यते, न तावत्-संप्रति शिक्षते ? एवं विधं शरीरं भव्यद्रव्यावर यकं भवति । अत्रापि आगमावमाश्रित्य नोडगमरवं बोध्यम्, तस्मिन् समये तत्र शरीरे सर्वथाऽऽगमस्या भावात् । नो शन्देऽत्र आगमस्य सर्वथा निषेधं सूचयति।
उत्तर-(जे जीवे जोणिजम्मणनिवखते इमेणं चेव आत्तएणं सरी समुरसएणं जिणोर दिढेणं आवम्सएत्ति पयं सेयकाले सिविखस्सइ न तावसिक्खाइ भवियसरीरदव्वावरसयं) जो जीव उत्पत्तिस्थानरूप योनि से अपना समयपूर्ण करके ही निकला है-समय के पहिले बीच में उत्पन्न नहीं हुआ है-ऐसा वह जीव उस प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भावके अनुसार आ श्यकशास्त्र को भविष्यतकाल में सीखेगा-वर्तमान कालमें सीख नहीं रहा है ऐसा वह शरीर भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है। इस भव्गशरीर द्रव्यावश्यक में भी आगम के अभाव को लेकर नो आगमता जाननी चाहिये । क्यों कि उस समय उस
उत्तर-(जे जीवे जो णजम्मणनिरखते इमेणं चेव आत्तएणं सरी समु-सएणं जिणोवदिट्ठणं भावेणं आवस्सए ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सइ न तावसिक्खाइ भवियसरीरदव्यावस) २७१ रुत्पत्तिस्थान३५ योनिमाथी पातानो समय। કરીને જ બહાર નીકળે છે સમય પૂરો થયા પહેલા બહાર નીકળ્યાનથી એટલે કે ગર્ભમાંથી પૂરો સમય વ્યતીત થયા પહેલાં પતિત થયો નથી. એ તે જવ તે પ્રાપ્ત શરીર વડે જ જિનપદિષ્ટ ભાવ અનુસાર આવશ્યકશાસ્ત્રને ભવિષ્યમાં શિખશે–વર્તમાન કાળમાં તે તેને શીખી રહ્યો નથી, એવાં તે ભવ્ય જીવનું શરીર ‘ભચશરીર દ્રવ્યા. વશ્યક. કહેવાય છે. આ ભવ્ય શરીરકવ્યાવશ્યકમાં પણ આગમના અભાવને લીધે ને આગમતા (આવશ્યકશાસ્ત્રના જ્ઞાનને સર્વથા અભાવ) જાણવી, કારણ કે તે સમયે
For Private and Personal Use Only
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका मू० १८ भव्यशरी रद्रव्यायिक निरूपणम् - ननु-आवश्कपर्यायस्य वारणं द्रव्यावश्यक मुच्यते-दानीं त्रशी आगमाभावात् तस्य नाति तं प्रति कारण त्वम्, अतोऽय शरीरे नारित यं वश्यक त्वम् ? इति चेत्, उच्यते-तदानीमपि स्त्र द्रश्यावश्यकरदमुपचर्यते ६ नास्ति कोऽपि दोषः । अत्र दृष्टान्त जिज्ञासया शिष्यः पृच्छति-'उहा को दिढतो इति । य को दृष्टान्तः हे भदन्त । अत्र य था के पिदृष्टान्तो भवेत्, रथा द्रवीत उत्तरमाह-'अयं महुईं मे भविस्सइ, अय घय कुंभे मदिरसइ' इति । अयं मधुकुम्भ भविष्यति, अयं घृतकुम्भो भविष् ति । अयं भावः-घृतरक्षणाय मधुरक्षणाय च कुम्भ शरीर में आगम या सर्वथा अभाव हैं। नो शब्द इस समय के शरीर । आगम का सर्वथा निषेध सूचित करता है।
शंका-आवश्यक पर्याय का जो कारण होता है । ह द्रव्या इयक वह जाता है। इस समय के शरीर में तो आगम का सर्वथा अभाव है, इसलिरे उस शरीर को द्रव्यावश्यक के प्रति कारणता नहीं हं ने से उसमें द्रध्यायक ता कैसे आसकती है ?
उतर-उस सम। भी उसमें द्रव्यावश्याता उपचार किया जाता है। क्योंकि यह शरीर आगे चलकर इसी पर्याय में आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता बनेगा-परन्तु वर्तमान में नहीं है। इसलिये आश्य शास्त्र वा भाविकाल संबन्धी अनुपयुक्त ज्ञातृच का उसमें उपचार क के इस सर्वथा निषेध किया गया है। इस विषय में दृष्टान्न जानने की इच्छा से शिष्य पृछतः है कि हे भदंत ! (जहा को दितो) यहां पर जैसा दृष्टान्त हो ईसा आप कहिये તે શરીરમાં આગમને સર્વથા અભાવ જ હોય છે, “ન પદ તે સમયે શરીરમાં સર્વથા નિષેધ સૂતિ કરે છે. . શંકા–આવશ્યકપર્યાયનું જે કારણ હોય છે, તેને દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. અત્યારે તે તેના શરીરમાં આગમને સર્વથા ચભાવ જ છે. આ રીતે શરીરમાં દ્વવ્યાવશ્યકના કારણને જ સદૂભાવ ન હેવા છતાં પણ તેમાં દ્રવ્યાવશ્યકતા કેવી રીતે સંભવી શકે છે? - ઉત્તર–આ સમયે તે તેમાં દ્રવ્યાવશ્યકતાને ઉપચાર કરવામાં આવે છે એટલે કે આ કથનને પચારિક કથન જ સમજવું જોઈએ કારણ કે આ શરીર આગળ જતાં આ મનુય ચયમાં જ આવશ્યક શારદને રાતા બનવા -૧માન તે તે તેને શાતા નથી. તેથી આવશ્યશાસ્ત્રના વિકાળ સંબંધી કત જ્ઞાતૃવને તેમાં ઉપચાર કરીને તેને રથા નિષેધ કરવામાં આવે છે.'
આ વિષયને દષ્ટાતથી સમજવા માટે શિષ્ય ગુરુને આ પ્રમાણે કહે છે– (जहा को दितो महत ! २३ वियनु प्रतिपादन ४२तु शान्त पानी કૃપા કરો. ગુરૂ મહારાજ આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવા નિમિત્તે નીચેનું દઇન્ડ આપે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगहारमो कारेण हौ घटौ निमितौ । ततःकोऽपि तं पृष्टवान्-किमों एतौ घटौ ? कुम्भकारः कथयति अयं घृतकुम्भो भविष्यति, अयं तु मधुकुम्भो भविष्यति, इति । यथा भविष्यद्धृताधा-त्वपर्यायं मध्वाधारत्वपर्यायं तदानीमप्याश्रित्य घृतकुम्भो मधुकुम्भश्चेति व्यपदिष्यते, तत्रापि भाविन व्यावश्यकपर्यायकारणत्व(अयं महुकुभे भविरसइ, अयं घरकुभे भविरसइ) सुनो दृष्टान्त इस विषय में इस प्रकार है-घत रखने के लिये, और मधु रखने के लिये, किसी कुमार मे दो घडे बनाये । उन्हें देखार किसीने उससे पूछा कि ये किसलिये तुमने बनाये हैं-तब उसने उससे कहा कि यह घृत कुभ होगा और रह मधुकुंभ होगा। तो जिस प्रकार उस समय भविष्यत् घृताधारस्वरूप पर्याय और मध्याधारत्वरूप पर्याय या उन दोनों में आश्रर कर उन्हें वह घृत कुंभ और मधुकुंभ इसरूप के कह देता है, उसी तरह इस समय के शरीर में भी भावि
आवश्यकरूप पोय के प्रति कारणता को लेकर उसे द्रव्यावश्यकरूप से मान लिया जाता है। इस द्रव्यावश्यक रूप भव्यशरीर में वर्तमान में आवश्यक के अर्थज्ञान का सर्वथा अभाव है इसलिये उसमें नोआगमता जाननी चाहिये । इस तरह यह प्रक्रान्त (पूर्वप्रस्तुत) भव्यशरीर द्रब्यावश्यक का वर्णन किया ।
तात्पर्य इसका यह है कि-सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा भव्यशरीर द्रव्या वश्यक का स्वरूप प्राट किया है। मनुष्य प्राप्त शरीर से जा आगे आवश्यक
(अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविरसइ) मे मारे मध ભરવાને માટે તથા ઘી ભરવાને માટે બે ઘડા બનાવ્યા. તે બન્ને ઘડાને જોઈને. કેઈએ તેને એવો પ્રશ્ન પૂછો કે “આ બે ઘડા તમે શા માટે બનાવ્યા છે ?” ત્યારે કુંભારે એક ઘડો બતાવીને કહ્યું કે “આ મધુકુંભ છે અને બીજે ઘડે. બતાવીને કહ્યું કે “આ તકુંભ છે જે પ્રકારે ભવિષ્યકાલિન વૃતાધા રવરૂપ પર્યાય અને મધુ આધારસ્વરૂપ પર્યાયને તે બન્ને ઘડામાં આશ્રય લઈને અત્યારે પણ તેમને ઘાકુંભ અને મધુકુંભ રૂપે ઓળખવામાં આવે છે (જો કે વર્તમાનકાળે તો તેમાં ચૂત પણ નથી અને મધ પણ નથી) એજ પ્રમાણે આ સમયના શરીરમાં પણ ભવિષ્યકાલિન આવશ્યકરૂપ પર્યાયના કારણને સદૂભાવ હોવાને કારણે તેને દ્રવ્યાવશ્યક રૂપે માની લેવામાં આવે છે. આ દ્રવ્યાવઠ્યકરૂપ ભવ્ય શરીરમાં વર્તમાન કાળે તે આવશ્યકના અર્થજ્ઞાનને સર્વથા અભાવ જ છે. તે કારણે તેમાં “નો આગમતા” સમજવી. પૂર્વ પ્રક્રાન્ત (પૂર્વ પ્રસ્તુત) ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ પ્રકટ, કર્યું છે. જે મનુષ્ય પ્રાપ્ત શરીર દ્વારા જ ભવિષ્યમાં આવશ્યકસૂત્રને અનુપયુકત જ્ઞાતા
For Private and Personal Use Only
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयागचन्द्रिका टीका. १९ ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १३१ माश्रित्य द्रव्यावश्यकत्वं विज्ञेयमिति । भव्यशरीरे आवश्यकर्थिज्ञानाभावान्नोआगम वं बोध्यम् । तदेतद् भव्यशारिद्रव्यावश्यकं वर्णितम् ॥सू० १८॥ ____ अथ तृतीय भेदं निरूपयितुमाह-- .. मूलम्-से किं तं जाणयसरीरभवि सरीरवइरित्तं दव्यावस्सये जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दवावस्सयं तिविह पण्णत्तं । तं जहा-लोइयं, कुप्पावणियं, लोउत्तरिय ॥ सू० १९ ॥
छाया-अथ किं तद् ज्ञाः कशरीरभ-यशीव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यकम् । ज्ञायकशीस. शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा लौकिकं, कुप्रावचनिकं, लोकोत्तरिकम् ॥सू० १९॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं' इत्यादि । अथ किं तद् ज्ञाय शरी:भः शरीर व्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् ? उत्तरमाह-'जाणयसरीरभवियसीरवरित्तं'. शास्त्र या अनुपयुक्त ज्ञाता बनेगा उस का वह शरीर द्रव्यावश्यक है। वर्तमान में वह ऐसा नहीं है, अतः उसका उसमें उपचार करलिया जाता है। इस द्रव्य व क में आवश्यक का अर्थज्ञान बिलकुल नहीं है। इसलिये इसे नोआगम की अपेक्षा वह भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है। ॥ सूत्र १८ ॥
अब सूत्रकार तृतीय भेद के स्वरूप का निरूपण करते हैंसे कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित इत्यादि । ।। सू० १९॥
शब्दार्थ-(से) शिष्य पूछा है कि हे भदंत ! (त जाणयसरीर भवियं सरीर वइरित्त दवायरसय किं) पूर्व प्रक्रान्त (पूर्वप्र तुत) ज्ञायक शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(जाणयसरीरभवियसरीरબનવાને છે, તેના તે શરીરને દ્રવ્યાવશ્યરૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. વર્તમાનકાળે તે એવું નથી, તેથી તેને તેમાં ઉપચાર કરી લેવામાં આવે છે. આ અપેક્ષાએ તેને દ્રવ્યાવશ્યક બનાવી લેવામાં આવે છે. આ દ્રવ્યાવશ્યકમાં અવશ્યકનું અર્થજ્ઞાન બિલકુલ નથી, તેથી તે આગમની અપેક્ષાએ તેને ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવ્યું છે. સૂ૦ ૧૮ - હવે સૂત્રકાર ઉપયુંકત બનેથી ભિન્ન એવા ને આગમદ્રભાઇ યકના ત્રીજા मे २०३५ समग जे-“से किं तं जाणयसरीरभवियसी वइरित" त्याfer
शा-शिय गुरुने मेयो प्रश्न पूछे छे । (से तं जाणयसरीर भक्यिसरी:वइरितं दवावस्सय किं) भगवन् ! पूर्व प्रश्तुत शायरी२ मव्यशरी२. व्यतिરિકત દ્રવ્યાવયકનું સ્વરૂપ કેવું છે? એટલે કે જ્ઞાયકશરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવા દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
For Private and Personal Use Only
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र इत्यादि । ज्ञायाशी भव्यशरीव्यतिरिक्तं ज्ञायक शी भव्यशीराभ्यां व्यतिरिक्तं =मिन्नं द्रव्यावर, कं त्रिविधं प्राप्तम् । तद्यथा-लौकिकं, कुमार चनिकं च ॥सू०६९।
तत्रज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तलौकिक द्रव्याश्यकरूपं प्रथमं भेदं निरूपयितुमाह... मूलम्-से किं तं लोइयं दव्वावस्सयं लोइयं दव्वावरसयं जे इमे राईसरतलवर माडंबियकोडुंबियइब्भसेट्टि सेणावइ सत्थवाहप्पभिइओ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए सुविमलाए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रक्तासोगप्पगामकिसुयसुयमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरनलिणिसंडबोहए उट्रियम्मि सूरे सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते मुहधोयणदंतपक्खालण-तेह-हाणफणिहसिद्धत्थय-हरि आलिय-अदागधृवपुप्फमल्लगंधतंबोलवत्थाइ याई दवावस्सयाई क रेति । तओ पच्छा रायकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उजाणं वा सभं वा पर्व वा गच्छंति से तं लोइयं दव्वावस्तय ॥ सू० २०॥
छाय--अथ किं तद् लौकिकं द्रव्यावर यकम् ? लौकिकं द्रव्यावश्यकं-य वइरित्तं दव्व वरसयं तिविहं पप्णत्तं) ज्ञायव शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्या तीन प्रकार का वहा है-(तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(लोइयं कुप्पावयणियं लोउत्तरिय) लौकिक कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । ॥ मृ० १९॥ ... अब सूत्रकार तद्रयतिरिक्त लौकिक द्रव्यावश्यरूप प्रथम भेद का १. कथन करते है-से किं त लोइयं दध्वावस्सयं" इत्यादि। ॥ सूत्र २० ॥ - शब्दार्थ-से किं तं शिष्य पूछता है कि है भदंत ! (त लोइयं दमावस्सय
उत्त२-(जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दवावस्सय तिविहं पण्णतं) शाय शरीर सव्यशरीर व्यतित द्र०यापश्यना न २ हा छ. (तंजहा) ते ४॥२॥ नीचे प्रमाणे छ-(लोइयं कुप्पावणियं लोउत्तरिय) (१) alls, (२) शुप्रावयनि मन (3) सत्त२४ ॥ सु. १८॥ . ' હવે સૂત્રકાર તયતિરિકત લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ પહેલા ભેદનું સ્વરૂપ સમજાવે છે.
“से कि त लोइयं दव्वावस्सयं" त्यादिशाय--(से) शिष्य २३ने मे प्रश्न छ हे लगवन् ! (तलोइयं
For Private and Personal Use Only
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-यू. २० लौ ककद्रव्यावश्य निरूपणम् १३३ इमे राजेश्वरतलबरमाडम्बिककौटुबिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतयः कल्पे प्रादुष्प्रभातायां रजन्यों सुविमलायाँ फुल्लोत्पलकमल कोमलोन्मीलिते यथापाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुखगुजार्द्धरागसदृशे कमलाकरनलिनीषण्डबोधके उत्थिते सूर्ये सहस्ररम्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति मुखधावनदन्तप्रक्षालन र्कि) लौकिक द्रव्यावश्यकरुप प्रथम भेद का का स्वरूप है ? (लो.यं दवावस्मयं) उत्तर-लौकिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार से है-(जे इमे राईसर, तलवरमाडंबिय, कोडुबिय, इभ, सेट्टि, सेणावइ, सत्यवाहप्पभिइओ) जो ये राजेश्वर-मांडलिकनगपति, ऐश्वर्य संप नव्यक्ति, तलन्दर, माडंबिक कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि मनुष्य (कल्लं) सामान्य प्रभात के होने पर (पाउ'पभाषाए रमणीए) प्रारंभिक अवस्था प्राप्त है प्रभात जिस में ऐसी रात्रि के होने पर (सुविमलाए, फुल्लुप्पल कमल कोमलुम्मिलियम्भि) तथा पूर्व की अपेक्षा स्फुटतर प्रकाश संपन्न गत्रि के होने पर विकसित कमल के पत्रों के और मृगविशेष के नयनों के सुकुमार उन्मीलनवाले (अहापंडुरे) यथा योग्य पीतमिश्रित शुक्ल (पभाए) प्रभात के होने पर (रत्तासोगप्पगापकि सुयसुयमुहगुजद्धरागसरिसे) तथा रक्त अशोकवृक्ष की कांति के तथा पलाश पुष्प; और शुक मुख एवं गुंजा के राग के सदृश (कमलागरण लिणिसंडबोहए) यमलों की उन्पत्ति भू मरूप हुदादिजलाशयों में पद्मवनों के विकाशक (सहस्सरसिमि दध्वापस्सयं किं ?) सी. द्र०या११५४ ३५ ते प्रथम मेनु २१३५ छ?
उत्तर--(लाइयं दवावास) alls४ द्रव्यापश्यनु २१३५ २१प्रानु
(जे इमे राईसर, तलवर, माडंविय, काडु बिय, इन्भ, सेहि, सेणावइ, सत्थवाहप्पभिडओ) रे । २०५२ (भांउसि नरपति- वयसपन्न व्यति), तस५२, मांस, पोटु मि४, ४क्ष्य, cिal, सेनापति, साथ पाई म मनुष्या (कल्लं) सामान्य मातtun ci, (पाउप्पभायाए रयणीए) त्रि व्यतीत ने हिवरना प्रालि मरथा३५ लातन प्रारम Nai (मुनिमल.ए, फुल्लुपलकमलकोमलुम्मिलियग्मि) तथा पिसार ६७ने पहेलi ता २५टत२ પ્રકાશથી સંપન્ન, વિકસિત કમલપત્રથી સંપન અને મૃગવિશેષના નયનના સુકુમાર
भीसनथी युत, (अहापंडरे) यथायोग्य पातमिश्रित शुरु (माछपी) पभाए) प्रभाव थता, (रत्तासोगपगास किंसुय सुयमुहगुंबद्धगगसरिसे) तथा माल वृक्षना સમાન, પલાશપુષ્પ સમાન તથા શુકના મુખ સમાન અને શું જાઉં (ચણોઠીને અર્ધ मा) समान ale, (कमलागरनलिणिसंडबोहए) मोना उत्पत्ति स्थान३५ all ाशयामा पवनाने विसित ४२ना२, (सहस्सास्सिम्मि दिणयरे तेयसा
For Private and Personal Use Only
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे तैलस्नानफणिहसिद्धार्थकहरितालिकाऽऽदर्शधूपपु-पमाल्यगन्धताम्बूलवस्त्रादिवानि । वश्यकानि कुर्वन्ति । ततःपश्चात् राजकुलं वा देवकुलं वा आगमं वा उद्यानं वा सभां वा प्रपो वा गच्छन्ति । तदेतत् लौकिकं द्रव्य, वश्यकम् ॥सू० ६०॥
टी-शिष्यःपृच्छति-से तिं इदि । अथ किं तद् लौकिक द्रव्यावशकम् इति । उनमाह-लौकिकं-लोके भवं लौकिकं द्रव्य व ६ ते दिणयरे तेयसा जलंते) सहस्रकिरणों से युक्त, दिवस विधायक और तेज से देदीप्यमान ऐसे ।सरे उट्टियम्मि) रर्य के उदित होने पर (मुहयोयण-दंतपय खासण-तेल्ल--हाणफणिह-सि हत्थय-हरि-अद्दागः पुष्फमलगंधतंबोल.८ त्या याई दयावयाई वरेंति) मुँह का धोना दन्तों का प्रक्षालन करना फणिह -कंची से बालों का ऊंछना, मङ्गलनिमित्त सरसों का और दूर्वा का प्रक्षेपण करना, दर्पण में मुंह का अवलोकन करना, धृप से वस्त्रों को सुरभित करना, फूलों को लेना, पुप्पों की माला पहिरना पान खाना, और शुद्ध वस्त्रों का पहिरना इत्यादिरूप द्रावश्यक करते हैं। (तओ प छा) इसके बाद वे रायकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उज्माणं वा समं वा, पवं वा गच्छंति) राजकुठ में, या देवकुल में अथवा आराम में या उद्यान में. या सभा में अथवा पानीयशाला में जाते हैं। तात्पर्य इसके वहने का यह है कि राजेश्वरादि संबन्धी जो मुखधानादि वार्य है वह सब लोकिक द्रवःया हैं। राजा जिन्हें जलंते। स४२५ (४ थी युत, हिवस विधाय: भने ती होय। मे। (सूरे उद्वियम्मि) सूर्यने ५ यतi (मुहोयण, दंतवखालणं, तेल्ल, पहाण. फणिह, सिद्धत्थ्य, हरि, अद्दागधून, पुफमल्लगंध तंबाला याई दवाव सयाई कति) भुप धारा३५. iत सा ३६॥ ३५ शरीर ५२ तेलनु માલિશ કરવારૂપ, રનાન કરવારૂપ, દાંતિયા કે કાંસકી વડે વાળ ઓળવારૂપ, મંગળ નિમિત્ત સરસવ અને દુર્વાનું પ્રક્ષેપણ કરવારૂપ, દર્પણમાં પોતાના મોઢ નું અવલકન કરવારૂપ, સુગંધયુક્ત ધૂપથી વરત્રોને સુગ ધિદાર કરવારૂપ, ફૂલે ગ્રહણ કરવા રૂપ, ફૂલની માળા પહેરાવારૂપ, પાન ખાવારૂપ, વચ્છ એને પરિધાન કરવારૂપ ઈત્યાદિ. ३५ द्र०या५३५७ ४३ छ. (तओ पच्छा) त्या२००४ ते (गयकुलं वा. देवकुलं , आरामं वा, उजाणं वा, समं वा, पवं वा, गच्छंति) २०४६२००२मां, मया हे સ્થાનમાં, અથવા આરામગૃહમાં અથવા બાગમાં, અથવા સભામાં અથવા જળાશય त२३ 04 छे.
આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે બજેશ્વર આદિ ઉપર્યુંકત માણસના જે મુખપાવન આદિ કાર્યો છે તે સોને લોકિક વ્યાવશ્યકરૂપ ગણવામાં આવ્યા છે.
For Private and Personal Use Only
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० २० लौकिकद्रव्यावर कनिरूपणम् १३५ इत्यर्थः । ये इमे मनुष्याः राजेश्वरतलरमाण्ड विककौटुम्बिकेभ्यश्रेप्टिसेनापति सार्थवाहप्रभृतः, तत्र-राजानःमाण्ड लिका नरपतयः, ईश्वराः ऐश्वर्य सम्पन्नाः, तलवराः भूपालदत्तपट्टपरिभूपितराजबलप्पः कोट्टपाला इत्यथः छिन्नभिन्नजनाश्रयविशेषो मडम्बस्तत्राधिकृताः माडग्विाः ग्रामपञ्चश्तीपय इत्यर्थः, यद्वासार्द्धक्रोशद्वर परिमितप्रान्तरैर्विच्छिद्यविहिद्यथितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिकाः कुटुम्बभरणे तत्पराः, यहा-बहुकुटुम्बप्रतिपालकाः, इभ्याः इभो-हरती तस्मम.णं द्रव्यमर्हन्तीति तथा, ते च जघन्यम मोत्कृष्टभेदात् त्रिपकाराः, तत्र हस्तिपरिमितमणिमुक्ताप्रवाल सुवर्णरजतादिद्रव्यराशि मिनो जघन्याः, हरि परिमित . वज्रमणिमाणिक्यराशिस्वामिनो मध्यमाः, हस्तिपरिमितकेवलवनस्वामिन पट्टबन्ध प्रदान करता है उनका नाम तलवर है अर्थात् कटवाल। ये राजा जैसे ही होते हैं। छिन्नभिन्न जनाथप विशेष का नाम मडंब है। इन मांगों में जो अधिकृत होते हैं उ का नाम माडंबिक है । ये ५०० गांवों के अधिपति होते हैं। ढाई २ कोस के अन्तर को छोड छोड कर जो गांव वसते हैं उनका नाम भी मडब है। इनके जो अधिपति होते हैं वे माडविक हैं। कुटुंब के भरणपोषण कार्य में जोरत रहते हैं अथवा अनेक कुटुम्बो का जो प्रति लन करते हैं वे कौटुम्बक हैं। इभ नाम हाथी का है। हाथी प्रमाण द्रव्य जिनके पास है ता है वे इभ्य है। ये जघन्य. मध्यम और उत्कृष्ट इस त ह ३ प्रकार के होते हैं। इनमें से जो हस्त परिमित मणि, मुत्ता, प्रवाल सुवर्ण और रजत आदि द्रव्यगशि के स्वामी होते हैं वे जघन्य इस्प हैं। हस्तिरिभित वज्र-हीरा, मणि, और माणिक्य राशि के जो सामी होते हैं
હવે આ સૂત્રમાં વપરાયેલા તલવર આદિ પદેને અર્થ સમજાવવામાં આવે છે-“તલવ' સંતુષ્ટ થાય ત્યારે રાજા જેમને જ પોષાક પ્રદાન કરે છે તેમનું નામ તલવર છે. તેઓ રાજા જેવાં જ હોય છે. છિન્નભિન્ન જનાશ્રયવિશેષને મોંએ કહે છે. આ પ્રકારના મડબાના અધિપતિને માડંબિક કહે છે. તેઓ પ૦૦-૫૦૦ ગામોના અધિપતિ હોય છે. અથવા અઢી અઢી ગાઉને અંતરે જે ગામ વસે છે તે ગામોનું નામ મર્ડબ છે અને તેના અધિપતિને માડ બિક કહે છે. કુટુંબના ભરણ પણ ના કાર્યમાં જેઓ રત રહે છે તેમને. અથવા અનેક કુટુંબનું પરિપાલન કરનારને કૌટુંબિક કહે છે. ઇભ્ય એટલે હાથી હાથી પ્રમાણ ધન જેની પાસે હોય છે. તેને ઇભ્ય કહે છે ઈભ્યના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે. જઘન્ય, મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટ हस्तियविभित (हाथी प्रभार) मा. मोती. प्रवास. सु. २०त (याही) मा દ્રવ્યરાશિને જે હવામી હોય છે તેને જઘન્ય ઇભ્ય' કહે છે. હસ્તિ પરિમિત જ
For Private and Personal Use Only
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे उत्कृष्टाः, .. श्रेष्ठिन: लक्ष्मीकृपाकटाक्षप्रत्यक्षलक्ष्यमाणद्रविणलक्षलक्षणविलक्षण हिरप्यपट्टर मलकृतमूर्धानो नगरप्रधानव्यवहारः, सेना तपः
चतुरङ्गसेनानायकाः, सार्थवाहा:-गणिम-धरिम-मेय-परिच्छेद्यरूपयविक्रेय वातुजातमादाय लाभेछ । देशान्तराणि जतां सार्थ वाहयन्ति योगक्षेमेभ्यो परिपालयन्ति, दीनजनोपय राय मूलधनं दत्वा तान् संवर्द्ध' न्तीति तथा, तत्रगणिमम् एकहि त्रिचतुरादि संखर प्रमेण गण यिदा यही ते रथा-नालिकर-पूगीवे मःम इभ्य हैं। जो हस्ति परिमित वज्र के ही अकेले स्वामी होते हैं वे उत्कृष्टइभ्य हैं। जिन के पास लक्ष्मी देवी के कृपाकटाक्ष से लाखों का द्रव्य होता है और इसी कारण जो नगर सेठ की उपाधि से विभूपित रहा करते हैं। इसके उपलक्ष्य में राजा इ.हे सुवर्ण वा पट्टबंध प्रदान करता है जिस से 'उन का मस्तक सदा विभूषित रहा करता हैं। ऐसे मनुष्य श्रेष्ठी कहलाते हैं। चतुरंग सेना के जो नायक होते हैं उनका नाम सेनापति है। गणिम, धरिम, मेय, और परिच्छेद्यरूप क्रय विक्रय योग्य द्रव्यसमूह को लेकर जो लाम की इच्छा से देशान्तर का जाते हुए मनुष्यो के साथ को दीनजनों के निमित्त प्रदान कर उनका संवर्द्धन वरते हैं उनका नाम सार्थवाह है । अलब्ध वस्तु का लाभ होना इसका नाम योग और लाध का परिरक्षण होना इसका नाम क्षेम है। नारिकेल-नारियल, पूगीफल-सुपारी, कदलीफल-केलाआदि ये सब गणिम द्रव्य हैं। क्योंकि ये एक, दो, तीन, चार, आदिरूप से -હીરા. મણિ અને માણેકની રાશિને જે રવાની હોય છે તેને મધ્ય ઇભ્ય' કહે છે. હસ્તિપરિમિત વજને જ જે સ્વામી હોય છે તેને ઉત્કૃષ્ટ ઈભ્ય’ કહે છે..
જેમની પાસે લહમીદેવીની કૃપાને લીધે લાખોનું દ્રવ્ય હોય છે. અને તે કારણે જેને નગરશેઠની પદવી મળી હોય છે. એવા મનુષ્યને છેદી (શેઠ) કહે છે. આ પદવીના ઉપલક્ષ્યમાં રાજા તેમને સુવર્ણન પ્રબંધ પ્રદાન કરે છે તે પટ્ટબંધથી તે શ્રદિઠીનું મસ્તક સદા વિભૂષિત રહે છે. ચતુર ગ સેનાના નાયકને સેનાપતિ કહે છે. - હવે સાર્થ વાહ' આ પદને અર્થ સમજાવવામાં આવે છે–
ગણિમ. ધરિમ. મેય. અને પ દ્યરૂપ ક્રયવિકોગ્ય વ્યસમૂહને લઇને લાભ પ્રાપ્તિની ઈચ્છાથી અન્ય દેશ તરફ પ્રયાણ કરતાં મનુષ્યના સાર્થ (સમૂહ)ને જે મેંગ ક્ષેમપૂર્વક પાળે છે. અથવા તેમને જવાનું હોય તે સ્થાને સલામત રીતે પહોંચાડે છે, જે પિતાના મૂળ ધનનું ગરીબ લોકોને માટે દાન કરીને તેમનું સંવધન કરે છે, એવા પુરૂષને સાર્થવાહ કહે છે,
R. અલબ્ધ વરતુને લાભ પ્રાપ્તિરૂપ લાભ) કે તેનું નામ ગ” છે. અને લબ્ધ (પ્રાપ્ત થયેલી વસ્તુ)નું પરિક્ષણ થવું તેનું નામ ક્ષેમ છેન ળિયેર. સેપારી
For Private and Personal Use Only
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
33D
अनुयोगचन्द्रिका टीम २० लौकिकद्रावश्यकनिरूपणम् १३७ फलं-कदलीफलादिकम् । धरिमं-तुलासूत्रेणोतोल्य यद्दीयते. यथा ब्रीहि-यालक्षण-सितादि। मेयं-शरावलघुभाण्डादिनोत्तोल्य यहीयते, यथा-दुग्ध-घृततैलप्रभृति । परिच्छेधं च प्रत्यक्षतो निकषादिपरीक्षया यद्दीयते, यथा-मणिमुक्ता-प्रवालाभरणादि । एतेषां राजेश्वरादीनामितरेतरयोगद्वन्द्वः, ते प्रभृतयःआधा मुख्या येषां ते तथा, कल्पे-सामान्येन प्रभाते, प्रभातस्यैव विशेषावस्था प्राह-'पाउप्पभायाए' इत्यादिना । पाउप्पभायाए प्रादुभातायां प्रादुर्भूतः प्रार म्भिकावस्था प्राप्तः प्रभातो यस्यों सा तथा तस्म, जयरात्रौ इति प्रभातस्य प्रथमावस्था १। तदनन्तरम् सुविमलायां पूर्वापेक्षया-फुटतरपकामयाँ गिनकर बेचे या दिये जाते हैं। जो तराजू से तोलकर बेचे या दिये जाने हैं-उनका नाम धरिम है जैसे व्रीहि, यव-जौं, लवण, शक्कर आदि । पीतल आदि के बनाये गये बाँटों से जो नापार बेचे या दिये जाते हैंउनका नाम मेय है-जैसे घृत, तेल दुग्ध वगैरह । जो कसौटी आदि पर कसकर प्रत्यक्ष में परीक्षित करके दिये जाते हैं वे परिछेद्य हैं। जैसे मणि, मुक्ता प्रयाल आदि। “पाउप्पभायाए" इत्यादि पदों द्वारा सूत्रकारने प्रभात की विशेष अवस्थाओं का प्रतिपादन दिया है । वे अवस्थाएँ यहां ३ तीन प्रकट की गई है ''पाउप्पभायाए" इस पद से प्रभात की प्रथम अवस्था बतलाई गई है-इस अवस्था में रात्रि प्रभातप्राय हो जाती है। यह समय प्रभात की आभा प्रारम्भिक अवस्था में आ जाती है । इसके बाद प्रभात कीद्वितीકેળાં આદિને ગણિભદ્રવ્ય કહે છે. કારણ કે આ વસ્તુઓ એક છે. ત્રણ આદરૂપ ગણીને વેચાય છે અથવા ખરીદ કરાય છે. ત્રાજવાની મદદથી વજન કરીને જે વસ્તુ એને વેચાય અથવા ખરીદાય છે તે વસ્તુઓને ધરમ કહે છે. જેમકે ચેખા, જવ, મીઠું. સાકર આદિ દ્રવ્ય પિતળ આદિમાંથી બનાવેલા પાવળાં આદિ સાધનો વડે માપીને જે દ્રવ્યે વેચાય છે તે દ્રોને મેય' કહે છે. જેમકે ઘી, તેલદૂધ. જે દ્રવ્યને કસોટી પથ્થર આદિ પર કટી કરીને તેમની પ્રત્યક્ષ પરીક્ષા કરીને કરીને વેચવા કે ખરીદવામાં આવે છે. એવાં દ્રવ્યને પરિચ્છેદ્ય કહે છે. જેમકે. भलि. भौति. प्रवास माह द्र०या.
“पाउप्पभायाए" प्रत्याहि । २। सारे प्रभातनी व५ म१रयामा प्रतिपादन छ. ते १२था। मी ४ ॥२नी वाम मावी छ-"पाउ .. प्पभायाए' मा ५४ २। प्रभातनी प्रथम २०१२॥ ५४८ ४२वामा भावी छ. या અવસ્થામાં રાત્રિ પ્રભાતપ્રાય થઈ જાય છે. લગભગ રાત્રિના ચાર વાગ્યાના સમયને આ પ્રભાતની પ્રથમ અવસ્થારૂપ સમય સમજ. તે સમયે પ્રભાતની આભા
For Private and Personal Use Only
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
:
अनुयोगद्वारने तस्यामेव रात्रौ. अनन्तरम् फुल्लोत्पलकमलको लान्मीलिते-फुल्लं च तदुत्पलं च फुल्लोत्पलम्, कमलो मृगविशेषः, तयोः कोमलं स्माम् दलान र नयोश्च उमीलितम्-उन्मीलनं यस्मिन् प्रभाते स ता तस्मिन् 'अहापंडुरे' यथापाण्डुरे न्यथायोग्यपीतसंकलितशुले प्रभाते सति इति-प्रभातस्थ द्वितीयावस्था । तदनन्तरंरक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुखगुजार्द्धरागसदृशे रक्ताशोकस्य प्रकाश:-कान्तिः, किंचुकं
पलाशपुष्पं च, गुजार्द्ध च, तेषां रागेण सदृशो यः स तथा तस्मिन्, श्रमलाकरनलिनीषण्डबोध के-कमलानाम् आकरा: उत्पत्तिभूमयो हुदादि जलाशय विशेषास्तेषु यानि नलिनीषण्डानि पद्मवनानि तेषां बोधकस्वस्मिन्, सहस्ररश्मीसहस्रकिरणे · दिनकरे-दिवसविधायिनि तेनसा ज्वलति सूयें उत्यिते च सति इति प्रभातस्य तृतीयावस्था ३। तदा मुखधावनदन्तप्रक्षालनतैलस्नानफणिहसिद्धार्थकहरितालिकाऽऽदर्शधूपपुष्पमाल्यगन्धताम्बूलवस्त्रादिकानि द्रव्यावश्य कानि कुर्वन्ति । तत्र-मुखधावनं जलेन मुखप्रक्षालनम्, दत्तप्रक्षालनम् दन्तकाष्ठाय अवस्था होती है-इसमें पहिले की अपेक्षा प्रकाश स्फुटतर हो जाता हैजिसे पौ फटना कहते हैं। धीरे २ प्रकाश बढते २ कमलो के ईपत् विकाश
और मृगों के उन्निद्र-निद्रारहित नयनों के सुकुमार उन्मीलन से युक्त होकर कुछ २ पीत वर्ण से मिश्रित भ्रता से समन्वित बन जाता है । इस द्वितीय अवस्था को पार कर जब प्रभात अपनी तृतीय अवस्था में पहुंचता है तब इस समय सूर्य उदित होकर अपने प्रकाश-ऊषा से उसे प्रकाशित कर देता हैं। इसे तृतीय अवस्था .संपन्न प्रभात के समय जो राजेश्वरादि मनुष्य मुखधावनादि आवश्क कृत्यों का संपादन करते हैं वे सब कार्य लौकिक द्रव्यावश्यक हैं।
પ્રારંભિક અવસ્થામાં આવી જાય છે. ત્યારબાદ પ્રભાતની દ્વિતીય અવસ્થાને પ્રાભ થવા માંડે છે. ત્યારે પહેલાં કરતાં પ્રકાશ સ્કૂટતર થતું જાય છે. આ સમયનો બપિ ફાટવો” અથવા ભળભાંખળાને સમય કહે છે ધીરેધીરે પ્રકાશ વધતે વધતે કમળને ઈષત્ (સામાન્ય અલ્પ) વિકાસથી અને તેને ઉન્નિક નયનોના સુકુમાર ઉન્સીલનથી (ઉઘડવાથી) યુકત થઈને સહેજ સહે છે પીતવર્ણથી મિશ્રિત એવી શુક્રતાથી સમન્વિત બની જાય છે આ બીજી અવસ્થા પસાર કરીને જ્યારે પ્રભાત પિતાની ત્રીજી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, ત્યારે સૂર્યોદય થઈ જવાને કારણે, સૂર્યના હજારે કિરણે વડે-ઊષા વડે પ્રભાત પ્રકાશિત થઈ જાય છે. આ તૃતીય અવસ્થાસંપન્ન પ્રભાતને સમયે રાજેશ્વર આદિ મનુષ્યો જે મુખધાવન આદિ આવશ્યક કૃત્ય કરે છે, તે સઘળાં કૃત્યોને લકિક દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २० लौकिकद्रव्यावश्पकनिरूपणम् १३९ दिना दन्तानां धावनं, तैलं तैलाभ्यङ्गः, स्नानं, तथा फणिहः-कङ्कतिका-कङ्कतिकया केशेषु व्यापारणमित्यर्थः, सिद्धार्थकाः सर्प पाः, हरितालिका-दुर्वा, मस्तके मङ्गलार्थ सिद्धार्थकानां दूर्वायाश्च प्रक्षेपणम्, आदर्शः-दर्पणः-मुखाद्यवलोकनम् , धूपः-धूपेन वस्त्राणां सुरभीकरणम्, पुष्पाणि, माल्यम=पुष्पमाला, पुष्पमाल्यानां मस्तका देषुपयोगः, ताम्बूलम्, वस्त्राणि च आदिर्येषां तानि तथाभूतानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति । ततःपश्चात्-मुखधावनादि-द्रव्यावश्यककरणानन्तरं राजकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उद्यानं वा तथा सभां वा, प्रपा-पानीयशालां वा गच्छन्ति । राजेश्वरादिसम्बन्धिकं मुखधावनादिकं द्रव्यावश्यकं विज्ञेयम् ।
ननु राजेश्वरादिभिरवश्यं क्रियमाणत्वाद् मुखशावनादीनां भवत्वावश्यकत्वम परन्तु द्रव्यत्वं तु तेषां नास्ति, विवक्षितपर्यायस्य यत् कारणं तस्यैव द्रव्यत्वात्, उक्तं चापि
. "भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । __ तद्दव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम्" ॥ इति ॥
अस्य पद्यस्य व्याख्या प्रागेव ‘से किं तं दव्वावस्सयं' इति त्रयोदशसूत्रस्य टीकायां कृता।
इत्थं राजेश्वरादि संबन्धिनां मुखधावनादीनामावश्यकपर्यायकारणत्वाभावाद्
शंका--राजेश्वर आदि मनुष्य द्वारा संपादित मुखधावनादि कृत्यों में अब इयकरणीयता होने के कारण आवश्य त्व भले रहे. इस में हमें कोई विवाद नही है-परन्तु उनमें विवक्षित पर्याय के प्रतिकारणत्वरूप द्रव्यत्व नहीं आता है। क्योंकि विवक्षित यहां आवश्यक पर्याय है, उस पर्याय के प्रति मुख धावनादि क्रियाओं का क्या संवन्ध ? । द्रव्य का लक्षण .१३ वें सूत्र को टी। में "भूतस्य भाविनो वा" इत्यादि पद्यद्वारा स्पष्ट ही कर दिया गया है। अतः इस प्रकार की द्रव्यता राजेश्वर आदि के मुख धावनादि लौकिक * શંકા–રાજેશ્વર આદિ મનુષ્યતા સંપાદિત મુખધાવન આદિ ક્રિયાઓમાં અવશ્ય કરણીયતા હોવાને કારણે આવશ્યકત્વ ભલે રહે. એ વાત સંબંધમાં અમે કે વિવાદમાં ઉતારવા માગતા નથી. પરંતુ તે ક્રિયાઓમાં વિવક્ષિત પર્યાયના કારણરૂપ દ્રવ્યત્વ સંભવી શકતું નથી, કારણ કે વિવક્ષિત પર્યાયરૂપ જે આવશ્યક પર્યાય અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તે પર્યાયની સાથે મુખધાવન આદિ ક્રિયાઓને શે સંબંધ छ १ तेरभां सूत्री मां माप द्रव्यनु मा प्रमाणे सक्ष मुछे-"भृतस्य भाविनो वा" त्यादि. मापे प्रतिपाहत ४२सा मे सक्ष प्रभाल्नी द्रव्यता - ધર આદિના મુખધાવન આદિ લૌકિક કાર્યોમાં નહીં આવી શકવાથી (અસંભવિત
For Private and Personal Use Only
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
१४०
अनुयोगद्वारसूत्रे नास्ति द्रव्यावः। यकत्वमिति चेदुच्यते-'भूतस्य भाविन का' इत्याद्येव द्रव्यलक्षणं नास्ति, किन्तु-'अप्पाहण्णे वि दव्वसद्दोस्थि' अप्राधान्ये पि द्रव्यशब्दोऽस्ति-इति वचनात् अप्रधानरूपेऽर्थेऽपि द्र० शब्दो वर्तते । मुखबावनादौ मोक्षप्राप्तेरप्राधान्यं च मोक्षकारणभूतभावावश्यकापेक्षया बोध्यम् । यतो मोक्षस्य कारणं तु भावा वश्यकमेव नतु द्रव्यावश्यकम् अतोऽत्र मुखधावनादेरप्राधान्यमिति । ततश्च-द्रव्यभूतानि
प्रधानभूतानि-आवश्यकानि द्रव्यावश्यकानीत्यर्थः, एवं च संसारकारणानां राजेश्वरादि मुखधारनादीनामस्त्येव द्रव्यावश्यकत्वम्, इति नास्ति दोषावसरः। मुखकार्यों में नहीं. आसकने से उनमें आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता नहीं बन सकती है । इस कारणता के अभाव में उनमें द्रव्यावश्या ता नहीं आसकती है ?
उत्तर-शंकाकार को जो इस प्रकार की शंका उत्पन्न हुई है। उसका कारण "भूतस्य भाविनो बा" इत्यादि पद्योक्त द्रव्य का लक्षण है कि इसपर यह कहना है कि द्रव्य का लक्षण इतना ही नहीं है किन्तु "अप्पहाणे वि दव्वसदोत्थि" अप्राधान्य अर्थ में भी द्रव्य शब्द है "इसकथन के अनुसार अप्रधान अर्थ में भी द्रव्य शब्द का प्रयोग हुआ है। इन मुखधानादि लौकिक कृत्यों में मोक्षप्राप्ति की अप्रधानता मोक्ष के कारण भूत भावावश्पक की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि मोक्ष का कारण तो भावाश्यकही होता है, नहि कि द्रव्यावश्क इसलिए यहाँ मुखशवनादि की अप्रधानता है । इसारण द्रव्यभूत-अप्रघानभूत जो आवश्यक हैं वे द्रव्यावश्यक हैं ऐसा अर्थ द्रव्यावश्यक वा लम्य हो जाता है। इस तरह राजेश्वर आदि के संसारवारणभूत मुखधावनादि कार्यों में द्रव्यावश्यकता घटित हो जाती हैं। इन मुखधावनादि कृत्यों में लोकप्रसिद्धिं से भी आगमरूपता नहीं हैं-अतः उनमें आर.म का अभाव होने से नो હોવાથી તે ક્રિયાઓ આવશ્યક પર્યાયના કારણરૂપ બની શકતી નથી. આ કારણુતાના અભાવને લીધે તે ક્રિયાઓમાં દ્રવ્યાવશ્યકતાને સદૂભાવ સંભવી શકતું નથી,
उत्तर-21 ४२नारे मा २नी रे शारी छ तेतु ४।२९ “भूतस्य भाविनो वा" त्याहि सुत्रपा द्वारा द्रव्य तक्षय ४८ ४२वामा साव्यु छ, તે લક્ષણવાળા પદાર્થને જ દ્રવ્ય માનવું જોઈએ, એવી જ તેની માન્યતા છે. આ પ્રકારની માન્યતાને કા૨ણે જ આ શંકા ઉદ્ભવી છે. તે તેની શંકાના જવાબરૂપે
भारे मेटयु ४९वानु द्र०यनुरक्षा मेटयु नथी, परन्तु "अप्पहाणे वि दासदोरिय" "मप्रधान्यमा १] द्र०य थ६ छ,” २५0 ४थन अनुसार प्रधान અર્થમાં પણ દ્રવ્ય શબ્દનો પ્રયોગ થયો છે. તે મુખધાવન આદિ લૌકિક કૃત્યોમાં જે અપ્રધાનતા (પ્રધાનતાથી રહિતપણું) કહી છે તે મેક્ષના કારણભૂત ભાવાવશ્યકની પેલાએ કહેવામાં આવી છે, તેથી દ્રવ્યભુત-અપ્રધાનરૂપ જે આવશ્યક છે તેમને
For Private and Personal Use Only
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २० लौकिकद्रव्यावश्यक निरूपणम् १४१ ધારના રોજ સિદ્યાપિ ગામામાવાવ હર્વથા નોગામત્વ, નોશાત્ર सर्वथा आगमनिषेधे वर्तते । तदेतत् लौकिकं द्रव्यावश्यकं वर्णितम् ॥६० २०॥ आगमता आजाती है । इस प्रक र सर्वथा आगम के अभावजन्य द्रव्याव याता इनमें होने से लौकिक द्रध्यावश्यकता इनमें बन जाती है। इस तरह से लौकिक द्रव्याः श्यफ का स्वरूप वर्णन है।
भावार्थ---इस मूत्रद्वारा सूत्रकार ने तद्वयतिरिक्त लौकिकद्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। उसमें संसारीजनोंद्वारा जो भी मांगलिक कृत्य हैं कि जिन्हें करना आवश्यक होता है वे सब लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। मंगल निमित्त सर्पयो का क्षेप करना दूर्वा का संसार कार्यों में उपयोग करना. दहीं आदि का किसी शुभ कार्य के निमित्त भक्षण करना आदि सब द्रव्यावश्यक हैं । र द्यपि इन लौकिक आषश्यक पर्याय के प्रति कोई संबंध नहीं है फिर भी इन्हें द्र २३ क का अर्थ अधानभूत आवश्यक मानकर द्रव्यावश्यकरूप माना गया है। इन लौकिक कार्यो में आगम का सर्वथा अभाव रहता है। अतः ये नोआगमरूप हैं ।सूत्र२०॥
વ્યાવશ્યકરૂપ કહે છે આ પ્રકારને કથાવશ્યકનો અર્થ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ પ્રકારે રાજેશ્વરાદિના સંસાર કારણભૂત મુખધાવન આદિ કાર્યોમાં પ્રભાવશ્યકતા ઘટિત થઈ જાય છે. આ મુખધાવનાદ કૃત્યમાં પ્રસિદ્ધિની અપેક્ષાએ પણ આગમરૂપતા નથી. તે કારણે તે ક્રિયાઓમાં આગમનો અભાવ હોવાને લીધે નો આગમતા સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારે આગમના સર્વથા અભાવ જન્ય દૂ૦થાવશ્યકતા તેમનામાં હોવાથી તેમનામાં લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યકતા હોવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે દ્વવ્યાવશ્યકતાના - સ્વરૂપતું આ પ્રકારનું વર્ણન અહીં કરવામાં આવ્યું છે.
ભાવાર્થ–આગલા બે સત્રમાં (૧૭ અને ૧૮ મા સૂત્રમાં જ્ઞાયક શરીર કળા વશ્યક અને ભવ્ય શરીરદ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું. હવે તે બનેલી ભિન્ન એવા દ્રવ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સત્ર દ્વારા તેના પ્રથમ ભેદરૂપ લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યકનું વરૂપ બતાવવામાં આવ્યું છે. સંસારી જીવે દ્વારા જે જે માંગલિક ક્રિયાઓ કરવાનું આવશ્યક માનવામાં આવે છે. તે સઘળી ક્રિયાઓ ને લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. મંગળ નિમિત્તે સરસવ આદિને પ્રક્ષેપ કરે, દૂર્વા (દર્ભ)ને માંગલિક કાર્યોમાં ઉપગ કરે. કોઈ શુભકાર્યને નિમિત્તે દહીં આદિનું ભક્ષણ કરવું. વગેરે ક્રિયાઓને લૌકિક વ્યાવશ્યક કહે છે. જો કે આ લૌકિક આવશ્યક કૃત્યોને આવશ્યકપર્યાયની સાથે કેઈ સંબંધ નથી. છતાં પણ દ્રવ્યાવશ્યકને અર્થ અપ્રધાનભૂત આવશ્યક માનીને તેને દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ માનવામાં આવેલ છે. આ લૌકિક કાર્યોમાં આગમને સર્વથા અભાવ રહે છે. તેથી તેઓ એ આગમરૂપ છે. સૂ૦ ૨૦
For Private and Personal Use Only
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१४३
www.kobatirth.org
अनुयोगसूत्रे
अथ ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त - कुप्रावचनिकद्रव्यावश्यक रूपं द्वितीयभेदं निरूपयति
मूलम् - से कि तं कुप्पावयणियं दव्वावस्तयं ? कुप्पावयणियं देव्वावस्यं जे इमे चरगचीरिंगचम्मखंडियभिक्खो डपंडुरंग गोयम गोव्वतिय गिहिधम्मधम्मचिंतगअविरुद्धविरुद्ध वुड सावगप्पभितओ पाडत्था कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते इंदस्स वा खंदस्स वा रुस्स वा सिवस्स वावेसमणस्स वा देवस्स घा नागस्स वा जक्खस्स वा भूयस्स वा मुगुंदस्स वा अज्जाए वा दुग्गाए वा कोकिरियाप वा उवलेवणसंमज्जणआवरिसणधूवपुष्पगंधमलाइयाई दव्वावस्सयाइ करेंति से तं कुप्पावयणियं
3
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दवावस्यं ॥ सू० २१ ॥
छाया - अथ किं तत् कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकम् ? कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकं यः इ चरकचीरिक चर्मखण्डिकरण्डपाण्डुराङ्ग गोतमगोत्रतिक
अब सूत्रकारद्वयतिरिक्त का जो दूसरा भेद कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है उसका वर्णन करते हैं -- "से कि तं कुप्पाव । णिये" इत्यादि । ॥सूत्र २१ ॥
शब्दार्थ - (से) हे भदंत ! (तं) पूर्वप्रक्रान्त (पूर्व प्रस्तुत विषय) कुप्पावयणियं दव्यावरस्यं किं) कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है। ( कुष्पावयणियं दव्वावस्सयं) उत्तर - कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार है-सुनो(जे चरगचीरिंगचम्मखंडि भिक्खों डपंडरं गगोयम गोव्यतियगिहिधम्म
इमे
તદ્ભવ્યતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યકના જે કુપ્રાથચનિક દ્રશ્યાવશ્યક નામના બીજો ભેદ છે 'तेनु' इथे सूत्रार वायुन उरे छे - " से किं तं कुप्पाश्यणियं" इत्याहि
C
शब्दार्थ - (से) शिष्य गु३ने येवा प्रश्न पूछे छे ! हे भगवन् ! (तं) पूर्व अन्त (पूर्व प्रस्तुत विषय) (कुप्पावयणियं दव्यावरस्यं किं) आवथनि द्रव्याવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर- (कुष्पावयणियं दव्वरस ) आवयनिक द्रव्यावश्यउनु स्व३५ या अारनुं छे – (जे इमे चरगचीरिगचम्मखंडिय भिक्खोंड पंडुरंगगाय मगोव्वतिगि
For Private and Personal Use Only
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका.२०२१ कुप्राः चनिः द्रव्यावश्यकस्वरूपं द्वितीयनिरूपणम् १४३ गृहिधर्म धर्मचिन्तकाविरुद्ध विरुद्ध वृद्ध श्रावकप्रभृतयः पापण्डस्थाः कल्पे प्रादुभातायां रजन्यां यावत् तेजसा जालति इन्द्रस्य वा स्कन्दस्य वा रुद्रस्य बा शिवस्य वा वैश्रवणस्य वा देवस्य वा नागस्य वा यक्षस्य वा भूतस्य वा मुकुन्दस्य श आर्याया वा दुर्गाया वा कोइक्रियाया वा उपलेपनसम्मार्ज नावर्षणधूपपूष्पगन्धमाल्य दिकानि द्रव्यावः कानि कुर्वन्ति । तदेतत् कुप्रावनिक द्रव्यावश्यकम् || सू० २१ ॥
धम्मर्चितगं अनिरुद्धविरुद्ध सावगप्प भितओ पासंडत्था) जो ये चरक, चीरिक, चर्मखंडिक, भिक्षोण्ड, पाण्डुराह, गोनम, गोत्रतिक, गृहि, धर्माधर्म चिंतक, अविरुद्ध, विरुद्ध, और वृद्ध श्रावक आदि हैं कि जो पाषण्डस्थ अपने आप को व्रती मानते हैं (कल्लं पाउप्पभायाए स्यणीए जाव तेयसा जलते) सामान्य प्रभात होने पर प्रभातप्राय रजनी के होने पर यावत् तेज से ज्वलित सूर्य के उदय होने पर (इंदरसवा ) इन्द्र की (खंदस्स वा) अथवा स्कंद - कार्ति क स्वामी की (रुहस्स वा ) अथवा रुद्र की (सिवस्स वा ) अथवा शिव की (वेसमणस्स वा) अथवा वै श्रमण की (देवस्स वा) अथवा सामान्य देव की (नागरस वा ) अथवा नाग की ( जक्रखस्स वा) अथवा यक्ष की (भूयस्स वा ) अथवा भूत की (मुकुंद सवा) अथवा मुकुंद की (अज्जाए वा ) अथवा आर्यादेवी की ( दुग्गाए वा ) अथवा दुर्गा कि ( को किरियाए वा) अथवा कोट्टक्रिया की (उवलेक्ष्ण संमज्जणआवरिसण- घूवपुण्फगंध मल्लाइया वया वरेति - से तं कुप्पावयणियं हिधम्मम्मचितगअवरुद्ध विरुद्ध बुढे सावगप्पमित ऑ पाखंड था) सीरिङ, सर्भभडिङ, लिक्षोड पांडुरंग गौतम, गोप्रति गृद्धिधर्मा, धर्मचिन्तः, અવિરૂદ્ધ અને વૃદ્ધ શ્રાવક આદિ છે કે જે પાષડસ્થ છે-જે પાતાની જાતને વ્રતી માને છે (આ બધાં પદોના અર્થ શબ્દાર્થને અન્તે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે છે) (कल्लं पाउपभायाए रमणीए जाव तेयसा जलते) तेथे सांभान्य प्रभात थांલગભગ રાત્રિના અન્તકાળ સમીપ આવે ત્યારે ભળભાંખળું થાય ત્યારે અને સૂ पोताना सहस्रठिरशोथी अथवा मागे त्यारे (इंदरस वा ) -द्रनी अथवा. (खंदस्स ना २४४नी - अति स्वाभिनी, (रुदस्स वा) अथवा रुद्रनी (सिस्स वा) अथवा शिवनी (समणम्स वा ) अथवा वैश्रभथुनी डुमेरनी (देवरस वा) गथवा सामान्य हेवनी ( नागस्स वा) अथवा नागनी ( जक्रखरस वा ) अथवा पक्षी. (भूयस्स वा) अथवा भूतनी (मुकुंदस्स वा) अथवा भुठुन्हनी (अज्जाए वा ) अथवा मार्याहेवीनी ( दुग्गाए वा) अथवा दुर्गानी (को किरियाए वा) अथवा अट्ट (यानी (उवले वण, संमज्जणआव रिसण-धूव पुण्फ गंध मल्लाइवाइ दव्वावस्सयाई करेंति से तं कुष्पाणि
For Private and Personal Use Only
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगबारसो ... टी -शिष्यःपृच्छति-'से किं ,तं' इत्यादि । अथ किं तन कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकम् ? उत्तरमाह-कुप्रावचनिक-कुस्सितं प्रवचनं येषां ते कुम पचनाः, कुत्सितत्वं चाय प्रवचनस्य मोक्षानुषयोगित्वाल, तेपाभिदं कुप्राबचनिपम् द्रव्यापक्ष्यकमेवं विज्ञेयम-य इमे चरकाचीरिकचर्मस्खण्डिक-मिक्षीप्ड-पाण्डुराङ्गगीतमगोप्रतिकगृहिधर्मधर्मचिन्तकाविरुद्धविरूद्धवृद्धभावकप्रभृतयः... पाप
स्थाः, तत्र-चरकाः घाटिवाहकाः-पृथबद्धाः सन्तो ये मिक्षां चरन्ति ते चरकार, अथवा-भुजाना ये चरन्ति ते चरकाः । चीरिकारध्यापतितवस्त्रखण्डधारकाः, चर्मस्खण्डिका-चर्मक्सना, यहा-चर्ममा सर्वोपकरणा', भिक्षोष्डा ये मिक्षालब्धमेवान्नादिकं भुञ्जते न तु स्वपालितगवादीनां दुग्धादिकं, ते मिक्षोपडा दवावस्सयं) उपलेपन क्रिया करते हैं, संमार्जन क्रिया करते हैं, दुग्ध एव गन्धों दक आदि से ग्नान क्रिया करते हैं, पुष्पपूजा करते हैं, धूपपूजा करते है, चन्दन से उनका उपलेपन करते हैं उन पर माला चढाते हैं, इत्यादिरूप जो द्रध्यावश्यक करते हैं वह सव कुप्रायचनिक द्रव्यावश्यक है। इस प्रकार पूर्व प्रक्रान्त द्रव्याश्यक का यह स्वरूप है।
जो समुदायरूप में एकत्रित होकर भिक्षा मांगते हैं घे चरक हैं । अथवा खाते २ जो चलते हैं वे चाक हैं मार्ग में पड़े हुए दखखंडों को जो पहना करते हैं वे चीरिक हैं। चमडे को यस्वरूप में पहनते हैं अथवा चमडे के ही समस्त उपारण जिनके होते हैं उनका नाम चर्मखंडिक है। भिक्षा में प्राप्त हुए अन्न से ही जो अपनाउदर पूर्ण करते हैं-अपने घर में पालित गाय आदि के दुग्धादिक से नहींदवावस्सयं) [या ४२ छ, समान या ४२ छ, ६५, आधी माह વડે સ્નાન કરાવવાની ક્રિયા કરે છે, લે વડે પૂજા કરે છે, ધૂપપૂજા કરે છે, ચદન વડ તેનું ઉપલેપન કરે છે, તેમના પર માળાઓ ચડાવે છે, ઈત્યાદિ પ્રકારના જે દ્વવ્યાવશ્યક કરે છે તે સઘળા દ્રવ્યવશ્યકને કુપ્રવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે. પૂર્વ પ્રસ્તુત કુપ્રવચનિક દ્રવ્યાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે હવે ચરક આદિ પદને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–જેઓ સમુદાયરૂપે એકત્ર થઈને ભિક્ષા માગે છે તેમનું નામ ચરક છે. અથવા ખાતાં ખાતાં જેઓ ચાલે છે. તેમને “ચરક' કહે છે. માર્ગ પર પડેલા વસ્ત્રખંડોને એકત્ર કરીને જેઓ તે વખંડોને ધારણ કરે છે પહેરે છે–તેમને “ચીરક કહે છે, ચામડાને જ વરૂપે પહેરનાર અથવા ચામડાનાં જ ઉપકરણે રાખનારને ચર્મખંડિત કહે છે.
ભિક્ષામાં પ્રાપ્ત થયેલા અન્નથી જ જેઓ પિતાનું પેટ ભરે છે-પિતાને ઘેર પામેલી ગાય આદિના દૂધ આદિથી જે પિતાનું પેટ ભરતે નથી તેને ભિક્ષેડ
For Private and Personal Use Only
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० २१ कुप्रावनिकद्रव्यावश्यकनिरूपणम् उच्यन्ते, यद्वा-भिक्षोण्डाः-सुगतशासनस्थाः, पाण्डुराङ्गाः-पाण्डुराणि भस्मलेपनात् शुभ्राणि अङ्गानि गात्राणि येषां ते तथा, भस्मलेपितशरीरा इत्यर्थः गोतमाः-ये हि विस्मयकारकपादपतनादिशिक्षाभिषभं शिक्षयित्वा घराटव मालाभिस्तं विभूष्य तस्य वृषभस्य विविधमभिनयं दर्शयित्वा भिक्षन्ते ते गोतमाः गोप्रतिका:-गोव्रतं येषां ते गोप्रतिका: गोनर्यानुकारिणः, ते हि गर्वा मध्ये वस्तुमिच्छया तद्भवना भावितान्तःकरणा पुरान्निर्गच्छन्तीभिर्गोभिःसह निर्गच्छन्ति, तिष्ठन्तीभिः सह तिष्ठन्ति, उपविशन्तीभिः सहोपविशन्ति, भुजानामिःसह तद्वदेव तृणपुष्पफलादिकं भुजते, जलं पिबन्तीभिः सह दनुव रणेनैव जलं पिबन्ति । उक्तं च- "गावीहिं समं निग्गमश्वेसठाणासणाइ पकरंति ।
___ मुंजति जहा गावी तिरिक्खवासं विभावंता ।" उनका नाम भिक्षोण्ड है। अथवा सुगत-(बुद्ध) के शासन को मानने वालों का नाम भी भिक्षोण्ड है। भस्म के लेपन से जिनका शरीर शुभ्र हो जाता है उन का नाम शुभ्राङ्ग है। जो वैल को विस्मयकारक चाल सिखा करके और उसे कौडियों की मालाओं से विभूषित करके उसका अभिनय दिखा २ कर भिक्षावृत्ति करते हैं उनका नाम गोतम है। राजा दिलीप की तरह गोव्रत का जो पालन करते हैं उनका नाम गोव्रतिक है । गोव्रत को पालन करने वाले मनुष्य गायों के मध्य में रहने की इच्छा से गायें जब पुर से नीय लती हैं तब उनके साथ ही निकलते हैं, जब वे बैठती हैं-तव बैठते हैं जब वे खडी होती हैं-तब वे खडे होते हैं, जब ये चरती हैं तब वे भोजन करते हैं फलादि का, और जब वे जल पीती हैं, तब वे जल पीते हैं। " કહે છે અથવા સુગતના (બુદ્ધના) શાસનને માનનારનું નામ ભિાંડ છે. ભસ્મના લેપથી જેમનું શરીર શુન્ન થઈ જાય છે, તેમને “શુભ્રાંગ” કહે છે. જેઓ બળદને આશ્ચર્યજનક ચાલ શિખવીને અને તેને કેડીઓની માળાઓથી વિભૂષિત કરીને, તેને અભિનય લોકોને બતાવી બતાવીને ભિક્ષાવૃત્તિ કરે છે તેમને ગોતમ કહે છે. રાજા દિલીપની જેમ ગ વ્રતનું પાલન કરનારને ગવતિક' કહે છે. ગોવ્રતનું પાલન કરનાર પુરુષ ગાની પાસે રહીને તેમની સેવા કર્યા કરે છે. જ્યારે ગાયે ગામમાંથી બહાર નીકળે છે ત્યારે ગત્રાતક પણ તેમની સાથે જ ગામની બહાર ચાલી નીકળે છે, જ્યારે તે ગયે નીચે બેસે છે ત્યારે તે ગવતિક પણ નીચે બેસે છે. જ્યારે તેઓ ઊભી થાય છે ત્યારે તે પણ ઊભું થાય છે, જ્યારે તેઓ ચરતી હોય છે, ત્યારે તે પણ ફલાદિરૂપ ભજન કરે છે, જ્યારે તેઓ પાણી પીવે છે, ત્યારે તે પણ પાણી પીવે છે. કહ્યું પણ છે, એમ કહીને સૂત્રકારે જે ગાથા આપી છે તે
For Private and Personal Use Only
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद रसत्रे .. छाया-गोभिः समं निर्गममवेशस्थानासनादि प्रकर्वन्ति ।
भुजते यथा गौः, तिर्यग्वासं विमाषयन्तः ॥इति।। गृहिधर्माणः-गृहिणां धर्मों. येषां ते गृहिधर्माणः='गृहस्थ-धर्म एव श्रेयान्' इति मत्वा तदुचितधर्माचारिणः, । उक्तं च तदनुसारिभिः___. "गृहाश्रमसमो धर्मों, न भूतो न भविष्यति ।
तं पालयन्ति ते धीराः; स्लीवाः पाषण्डमा ताः ॥ इति । धर्मचिन्तकाः-याज्ञवल्क्यादि प्रणीतधर्मसंहितादिमिःसह में धर्म चिन्तयन्ति तानि
र्व्यवहरन्ति ये ते धर्मचितिका उच्यन्ते, अविरुद्धाः-देवनृपमातापितृतिर्यगादीनामविरोधेन विनयकारिणो ये भवन्ति तेऽविरुद्धाः वैनयिका इत्यर्थः, विरुद्धाः= __ उक्तं च-करके जो गाथ लिखी है उस का अर्थ मी यही है । गृहस्थ धर्म ही श्रेयस्कर है ऐसी जिन की मान्यता होती हैं। और उसी के उचित जो धर्म का आचरण करते हैं वे गृहिधर्मा है। इन लोगो का ऐसा कहना है कि गृहस्थाश्रम जैसा धर्म न हुआ है और न होगा। जो धीर होते है वे ही इसका पालन करते हैं और जो क्लीब-कमजोर हैं ये व्रतों को लेते हैं। याज्ञवल्पय आदि के द्वारा रचित धर्मसंहिता आदि को लेकर जो धर्म का विचार करते हैं- उनके अनुसार अपनी दैनिक प्रवृत्ति चलाते हैं वे धर्मचिन्तक हैं। देव नृप, मातापिता और तिर्यञ्च आदि का विना किसी भेदभाव के जो एकसा विनय करते हैं वे अविरूद्ध-वैनयिक मिथ्यादृष्टि हैं। ગાથાને ઉપર મુજબને જ અર્થ થાય છે. તે ગાથામાં ગોત્રતિકનાં લક્ષણે બતાવવામાં આવ્યા છે,
“ગૃહસ્થધમ જ , યસ્કર છે.” આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનાર અને તેને અનુરૂપ જ ધર્મનું આચરણ કરનાર જે પુરુષ હોય છે તેમને ગૃહિધમ” કેડ છે. તે લોકોની એવી માન્યતા છે કે “ગૃહસ્થાશ્રમ જેઓ કે ધમ થયે પણ નથી. અને થવાને પણ નથી. જે લોકો ધીર હોય છે તેઓ જ તેનું પાલન કરી શકે છે અને જે લેકે કલીબ (કમર) હોય છે તેઓ જ વ્રતોની આરાધના કરે છે. યાજ્ઞવલ્કય આદિ તત્વચિન્તકે દ્વારા રચિત ધર્મસંહિતા આદને આધારે જેઓ ધર્મને વિચાર કરે છે, અને તેને અનુસાર જ પિતાની દેનિક પ્રવૃત્તિ ચલાવે છે तेभने “धमयिन्त:" छ.
જેઓ દેવ. નૃપ, માતા. પિતા. અને તિર્યંચાદિને કોઈપણ પ્રકારને ભેદભાવ રાખ્યા વિના એક સરખો વિનય કરે છે, તેમને “અવિરૂદ્ધ (નયિક મિથ્યાષ્ટિ)
For Private and Personal Use Only
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. २१ कुप्रावचनिकद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १४७ अक्रियावादिनः, एते हि पुण्यपापपरलोकादिकं न मन्यन्ते, अतः सर्वपापण्डिविरुवाचारत्वादेते विरुद्धा उच्यन्ते ।
· नन्वेतेषामक्रियागदीनां पुण्यपापाद्यस्वीकरणात् इन्द्राथुपलेपनकर्तृ त्वं न संभबतीति चेत, उच्यते, पुण्यप्राप्तीच्छया यद्यपि तेषाम् ईन्द्राद्यपलेपनकर्तृत्वं न संभवति तथापि जीविकोदेशेन तु तत्संभवत्येवेति न कश्चिद् दोषः।
वृद्धश्रावकाः=वृद्धाः प्राचीनकालमपेक्ष्य वृद्धाः, तएव श्रावयन्तीति श्रावका:ब्राह्मणाः-ऋषभदेवज्येष्ठपुत्रभरतशासनकाले ये देवगुरुधर्मस्वरूपं श्रावयितार पुण्य, पाप और परलोक आदि की मान्यता से जो बहिर्भूत होते हैं ऐसे अक्रियावादी विरुद्ध हैं । इनका आचारविचार सर्व पाखण्डियों सर्व धर्मवाले की अपेक्षा विरुद्ध होता है। इसलिये ये विरुद्ध कहे जाते हैं।
शंका-ये अक्रियावादी जब पुण्यपाप आदि कुछ भी नहीं मानते हैं। -तब इन्द्र आदि का ये उपलेपन आदि क्यों करेंगे-अर्थात् नहीं करेंगे, ऐसी स्थिति में इन्हें इन्द्रादि के उपलेपन आदि के कर्तृत्व में क्यों गिनाया गया है-सो इस शंका का उत्तर इस प्रकार से हैं कि इन में भले ही पुण्य प्राप्ति की इच्छा से इन्द्रादिक का उपलेपन कर्तृत्व संभवन हो-तोभी आजिविका के उद्देश से उनमें इन्द्रादिक का उपलेपनादि करना संभवित होता ही हैं। अतः सूत्रकार की कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक में इनकी परिगणना निर्दुष्ट है। वृद्धश्रावक का अर्थ यहां ब्राह्मण से है। क्योंकि प्राचीन કહે છે. જેઓ પાપ, પુષ્ય, પરલેક આદિને માનતા જ નથી એવાં અકિયાવાદને ‘વિરૂદ્ધ કહે છે. તેમના આચારવિચાર બધાં ધર્મવાળા કરતાં વિરૂદ્ધના જ હોય છે.
- શંકા–તે અકિયાવાદીઓ જે પાપ પુણ્ય આદિમાં માનતા જ નથી. તે તેઓ ઈન્દ્ર આદિનું ઉપલેપન. પૂજન આદિ શા માટે કરે ? કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે સત્રમાં ઇદ્રાદિતું ઉપલેપન, પૂજન આદિ કરનારમાં આ અક્રિયાવાદીઓને પણ ગણાવવામાં આવેલ છે. અક્રિયાવાદીઓ આ પ્રકારની ક્રિયાઓ કરે તે કેવી રીતે માની શકાય? - ઉત્તર–ભલે તેઓમાં પુણ્યપ્રાપ્તિની ઇચ્છાથી ઈન્દ્રાદિનું ઉપલેપન, પૂજન આદિ ક્રિયાઓ કરવાની વાત અસંભવિત હેય પરંતુ આજીવિકા ચલાવવાના હેતુથી તેઓમાં પણ ઈન્દ્રાદિકનું ઉપલેપન પૂજન આદિ ક્રિયાઓને સદૂભાવ હોઈ શકે છે. તેથી સત્રકારે પ્રવચનિક દ્વવ્યાવશ્યકમાં તેમની જે પરિગણના કરી છે તે નિર્દોષ કથનરૂપ જ સમજવી જોઈએ.
આ સૂત્રમાં “વૃદ્ધશ્રાવક આ પદ બ્રાહ્મણના અર્થમાં વપરાયું છે, કારણ કે અહીં પ્રાચીન કાળની અપેક્ષાએ તેમનામાં વૃદ્ધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ
For Private and Personal Use Only
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૮
अनुयोगद्वार
C
C
आसन् अतएवदृद्धाः, त एव पश्चाद् ब्राह्मणा जाताः । एतेषामितरेतरये । गद्वन्द्वः, ते प्रभृतयः = आद्या :- मुख्या येषां ते तथा प्रभृतिग्रहणात् परिव्राजकादीनां संग्रहः, पाषण्डस्था: - पाषण्डं = व्रतं तत्र तिष्ठन्तीति पाषण्डस्था: - व्रतिनः कल्ये प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावतेजसा ज्वलति एतेषां पदानां व्याख्या पूर्वसूत्रे कृता तत एवावगन्तव्या, इन्द्रस्य वा स्कन्दस्य = कार्तिकेयस्य वा, रुद्रस्य = हरस्य वा, शिवग्य =व्यःतरविशेषस्य वा, वैश्रवणस्य वा देवस्य = सामान्यदेव-य वा, नागस्य = काल की अपेक्षा लेकर इनमें वृद्धता कही गई है, और वह इस प्रकार से है कि- जब ऋषभदेव भगवान् यहां विराजमान थे, तब उनके ज्येष्ठपुत्र भरनचक्रवर्ती ने अपने शासनकाल में देव गुरु धर्म के स्वरूप को सुनाने के लिये इनकी स्थापना की थी । अतः स्थापना का काल बहुत ही अधिक प्राचीन इस तरह से प्रमाणित होती हैं ! वाद में ये वैदिकधर्म के उपासक बन गये अतः ये ब्राह्मण कहलाने लगे। यहां प्रभृति शब्द से परिव्राजक आदि कों का ग्रहण हुआ है । पाषण्ड शब्द का अर्थ व्रत है । व्रतका पालन करने वाले पापण्डस्थ है | यहाँ यावत् शब्द से २१, वें सूत्र में कथित प्रातःकाल की ३ अवस्थाओं का और सूर्य के सहखरश्मि - दिनकर आदि विशेषण का ग्रहण किया गया हैं । स्कंद नाम कार्तिकेय का है । रुद्रनाम महादेव का है । शिव - व्यन्तरदेव विशेष का नाम है । वैश्रवण કથનનું નીચે પ્રમાણે સ્પષ્ટીકરણ સમજવુ -જ્યારે ઋષભદેવ ભગવાન અહીં વિરાજમાન હતા, ત્યારે તેમના જયેષ્ઠ પુત્ર ભરત ચક્રવતી એ પેાતાના શાસનકાળમાં દેવ, ગુરુ અને ધર્મનું સ્વરૂપ સંભળાવવાના કાળ ધણા જ પ્રાચીન હેાવાની વાત પ્રમાણિત (સિદ્ધ) થઇ જાય છે. ત્યાર બાદ તે લેાકેા વૈદિક ધર્મના ઉપાસક બની ગયા, અને તે કારણે બ્રાહ્મણ તરીકે ઓળખાવા લાગ્યા. આ રીતે પ્રાચીન કાળમાં જેએ જિને ન્દ્રના ઉપાસકે હતા, પણ પાછળથી વૈદિક ધર્મના ઉપાસક બની ગયા. એવા घीठाने सही “वृद्धश्राव" ह्या छे. अहीं' 'अमृत' पहनो प्रयोग पुरीने सूत्रारे અહી' પરિવ્રાજક આદિ અન્ય પન્થના લોકોને ગ્રહણ કરવાનું સૂચન કર્યું છે.
“भाष३” मा यह “व्रत" ना अर्थभां वपशयु छे. व्रतने पालन २नारने 'भाषउस्थ' उडे छे. "कल्ले पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते" या सूत्रपाठमां ने 'जाव ( यावत् ) ' यह भाव्यु छे. तेना द्वारा २१ मां सूत्रमां थित प्रातःाजनी ત્રણ અવસ્થાઓને તથા સૂર્યના સહસ્રરશ્મિ, દિનકર આદિ વિશેષણાને ગ્રહણુ
કરવામાં આવેલ છે.
સ્કેપ એટલે કાર્તિકેય. રુદ્ર એટલે મહાદેવ. શિવ' આ શબ્દ યન્તરદેવ
For Private and Personal Use Only
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
"
"
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० २१ कुप्रावचनिकडन्यावर कनिरूपणम् १४९ भवनपतिविशेषस्य वा यक्षस्य वा भूतस्य वा यक्षोभूतौ चन्तरविशेषौ मुक*दस्य नारायणस्या, आर्यायाः आर्या देवी विशेषः, तस्या वा दुर्गा:सिंहारूढामहिषासुरं हतुं तदुपरिनिहितैकचरणा दुर्गा तरया वा कोड क्रियायाः = महिषकुट्टनपरा को क्रिया तया बा, उपलेपन संमार्जनावर्ष णधूपपुष्पगन्धमाल्यादिकानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति । तत्र उपलेपनम् = नवनीताद्युपलेपः, सम्मार्जनं= बनखण्डेन संशोधनम्, आवर्षणम् = दुग्ध - गन्धोदकादिना रूपतम्, पुष्पं = पुष्पैः पूजनम्, धूपः = धूपदानए, गन्ध : = चन्दनाद्यनुलेपनम्, माल्य = मालापरिधापनम्, एतान्यादौ येषां तानि तथा द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति । अयं भावः य इमे चरकचीरिकादयः पापण्डस्थाः कल्ये प्रादुष्प्रभा तर जन्यादिक्रमेण समुत्थाय इन्द्राकुबेर का नाम है । भवनपति विशेष नागकुमार का नाम नाग है । यक्ष और भूत ये व्यन्तरदेवविशेष हैं । नारायण का नाम मुकुंद है । दुर्गा नाम की एक देवी है। जिसकी सवारी सिंह पर है । महिषासुर को मारने के लिये इसका एक चरण सिंह पर रखा रहता है - इसरूप में इसकी मूर्ति बनी हुई होती है। कोट्टक्रिया नाम की भी एक देवी होती है। जिसने महिषासुर का नाश किया है। नवनीत - मक्खन आदि का इन पर उपटन करना इसका नाम उपलेपन है । वस्त्रखंड से इनको झाडना पंछना इसका नाम सम्मार्जन है । दुग्ध एवं गन्धोदक से इन्हें नहलाना इसका नाम स्नपन हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि जो चरक चीरक आदि पाषण्डस्थ प्रातःकाल आदि के વિશેષને માટે વપરાયા છે. વૈશ્રણવ એટલે કુબેર નામના લેપાલ- દસ પ્રકારના ભવનપતિ દેવામાં જે નાગકુમાર દેવા છે તેમને અહીં “નાગ” કહેવામાં આવેલ छे. यक्ष मने भूत. या जन्ने व्यन्तर नियना हेवा छे. "भुङ्कुह" मेरो नारायशु (विषणु लगवान), 'दुर्गा” या नामनी हेवी है. ते सिड पर सवारी रे छे. મહિષાસુરને મારનારી આ દેવીની એવી મૂર્તિ બનાવવામાં આવે છે કે જેના એક ચરણુ મહિષાસુર પર અને ખીન્ને સિંહ પર રહેલા ડાય છે. ‘“કેટક્રિયા’ આ નામની પણ એક દેવી હાય છે, જેણે મહિષાસુરના ત્રÖસ કર્યાં હતા.
હવે ઉપલેપન આદિ પદ્માના અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે-ઉપર્યુકત દેવદેવીએની સ્મૃતિ પર માખણ આદિત્તુ ઉપરન (લેપન) કરવુ તેનું નામ ઉપલેપન છે. વસ્ત્રના કકડા વડે તેમની કૃતિઓને લૂછવી અથવા આપટવી તેનું નામ સ’માજન છે. દૂધ અને ગન્ધાદક (સુગન્ધયુકત જળ) આદિ વડે તેમની સ્મૃતિ ને નવરાવવી તેનું નામ ‘રૂપન’ છે.
આ સઘળા કથનનેા ભાવાર્થ એ છે કે ચરક. ચીરિક આદિ ઉપર્યું કત પાષઙસ્થા (પાખડીએ) પ્રાત:કાળ આદિ સમયે ઇન્દ્રાદિકાની પ્રતિમાએનુ' ઉપલેપન આફ્રિ
For Private and Personal Use Only
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे दीनामुपलेपनादीनि द्रव्यावश्यमानि कुर्वन्ति, तैः कृतमुपलेपनादिकं कुप्रावचनिकं द्रव्शवश्यकमिति । अत्रापि अप्राधान्याद् द्रव्यम्, अप्राधान्यं चोपलेपनादौ मोक्षकारणभावावश्यकापेक्षया बोध्यम,
मोक्षकारणं तु भाववि यक मेव न तु द्रव्यावश्यकम्,
अतोऽ थोपलेपनादि द्रव्यावश्य: स्यामाधान्यं भवतीति ।
सर्वथा-आगमत्वाभावात् नोआगमत्वं च ज्ञेयम् । तदेतत्कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकं वर्णितमिति ॥सू० २१॥
ज्ञायकशरीर-भव्यशरीर व्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकीय लोकोत्तरिकरूपं तृतीयभेदमाह--
मूलम्-से किं तं लोगुत्तरिय दव्वोवस्सयं ? लोयुत्तरियं दव्वावस्सयं जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छकायनिरणुकंपा हय इव उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घटा मटा तुप्पोट्टा पंडुरपडपाउरगा जिणाणां मणाणाए सछंद विहरिऊणं ऊभओ कालं आवस्सयस्स उवटुति । से तं लोगुत्तरियं दवावस्स । से त जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दवावस्सयं । से तं नोआगमओ दव्वावस्मयं ॥सू० २२॥ हो जाने पर इन्द्रादिकों की प्रतिमाओं का उपलेपन आदि आवश्यक कृत्य करते हैं वे सब कृत्य कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक हैं। इन उपलेपनादि क्रियाओं में मोक्ष के कारणभूत भावावश्यक की अपेक्षा अप्रधानता होने से द्रव्यत्व जानना चाहिये और सर्वथा आगम के अभाव को अपेक्षा नोआगमता जाननी चाहिये । इस प्रकार कुप्रावच निक द्रव्यावश्यक का यह स्वरूपवर्णित किया है। भावार्थ स्पष्ट है-सूत्र २१॥
- अब सूत्रकार तद्वयतिरिक्त द्रव्यावश्यक का तीसरा भेद जो लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है-उसका कथन करते हैंઆવશ્યક કૃત્ય કરે છે. તે બધાં કૃત્યને કુમાવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. તે ઉપલેપન આદિ ક્રિયાઓમાં મોક્ષના કારણભૂત ભાવાવશ્યકની અપેક્ષાએ અપ્રધાનતા હોવાથી દ્રવ્યત્વને સદુભાવ સમજેવો જોઈએ. અને આગમના સર્વથા અભાવની અપેક્ષાએ અને આગમતા” સમજવી જોઈએ. આ પ્રકારે કુકાવચનિક વ્યાવશ્યકનું આ સ્વરૂપ અહીં પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે. સૂ.૨૧
તયતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યકના લેકેતરિક દ્રવ્યાવશ્યક નામના ત્રીજા ભેદનું સ્વ३५. वे सूत्रा२ ४८ छ- "से किं तं लोगुत्तरियं" त्याह
-
For Private and Personal Use Only
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका--पृ.२२ तद्वयतिरिक्तलोकोत्तरीयद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १५१
___ छायग-अथ किं तद् लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकम् ? लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यक-य इमे मण् गुणमुक्तयोगिनः षट्कायनिरनुकम्पाः हया इव उद्दामानः, गजा इव निरकुंशाः, घृष्टाः मृष्टाः, तुप्रोष्ठाः पाण्डुरपटप्रावरणाः जिनानामनाया स्वच्छन्दं विहृत्य उभयकालम् आवश्यकाय उपतिष्ठन्ते । तदेतद् लोकोत्तरिकं द्रव्या. वश्यकम् । तदेतद् ज्ञायकशरीर-भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रध्यावश्यकम् । तदेतत् नो आगमतो द्रव्यावश्यकम् ॥सू० २२॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि तं' इत्यादि । अथ किं तद् लोक तरिकं द्रव्यावश्यम् ? उत्त-माह-लोोत्सरिक लोकेषु भुवनत्रये उनराः उत्कृष्टतराः साधवः, यहा-लोकेषु भुवनत्रये उत्तरम-उत्कृष्टतरं जिनप्रवचनं, तेषां तस्य वा इदम्-लोको नरिकं साधुसम्बन्धिजिनशासनसम्बन्धि वा, द्रव्यावश्यकम् एवं विज्ञेयम् य इमे श्रम ग गुणमुक्तयोगिनः-श्रमणा: साधवस्तेषां गुणाः मूलोत्तरगुणरूपाः, तत्र-मातिपातविरमणादको मूलगुणाः, पिण्डविशुद्धयादयस्तूत्तरगुणाः-तेषु मुक्तः परित्यक्तो योगो-व्यापारो येस्ते श्रमणगुणमुक्त
“से कि त लोगुरियं" इत्यादि। ॥सूत्र २२॥
शब्दार्थ-(से) हे भदंत । (त लोगुत्तरियं दव्वावः सयं कि) लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(गोगुत्तरिय दव्यावस्सयं) लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार है-(जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्काय निरणुकंपा हया इव उद्दामा) श्रमण के मूल गुणों और उत्तर गुणों में जिनका व्यापार परित्यक्त हो चुका है-अर्थात्-मूलोत्तर गुणों में जिनकी बिलकुल आस्था नहीं उपेक्षाहै अर्थात् उनसे जो रहित है तथा छह काय के जीवों के प्रति जिन के अन्तःकरण में दया नहीं है, अतएव उद्दण्ड घोडों की तरह जिनकी प्रवृत्ति बिलकुल हो रही है
Awar-(सं) शियि गुरुने मेवे। प्रश्न पूछे छ -(तं लोगुत्तरिय दव्वावस्सयं किं ?) ३ महन्त ! प्रस्तुत सोत्तर द्र०यापश्यनु २१३५ छ ? .
उत्त२-(तं लोगुत्तरियं दव्वावरसयं) त२ि४ द्र०यावश्यनु । नु
(जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्काय निरणुकंपा हयाइव उद्दामा) श्रभाना મુળગુણે અને ઉત્તરગુણમાંથી જેમને વ્યાપાર (પ્રવૃત્તિ) પરિત્યકત થઈ ચૂકી છે- એટલે કે મુલત્તરગુણેમાં જેમને બિલકુલ આસ્થા નથી પણ ઉપેક્ષા જ છે-એટલે. કે જેઓ શ્રમણના મૂળગુણેથી અને ઉત્તરગુણોથી રહિત છે. તથા છકાયના જીવે પ્રત્યે જેમના અંતઃકરણમાં દયા નથી. અને તે કારણે ઉદૃમ અશ્વની જેમ જેમની
For Private and Personal Use Only
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५२
अनुयोगद्वारस्त्रे योगिनः, मूलोत्तरगुणरहिता इत्यर्थः । एते कदाचित् सानुकम्पा अपि : रयुरित्याह-'छक्काय निरणुकंपा' इति। पढ़ायनिरनुकम्पाः-पकायेषुपृथिव्यादिषु निर्गता अनुकम्पा दया येषां ते तथा, षड्जीवनिकायदयावर्जिताः अव एव-ते हया इच उहामानवल्गारहिता अश्वा इव, चरणनिपातजीयोपमर्द निरपेक्षत्वात् द्रुतचारिणः, गजा इव निरकुंशा:-आचार्याज्ञोलनशीलत्वात् तथा-घृष्टाः फेनादिना श्लक्ष्णीकृतजाधवयवा अवयवावयविनारभेदोपचारात् घृष्टाः । तथा-मृष्टा तैलोदवादिना मृष्टाः चिकणीकृताः केशाःशरीरं वा येषां ते मृश्यः, तथा- तुप्रोष्ठाः-तुप्राः-शीतकालिक रूक्षत्वापनय नार्थ नवनीतादिग्निग्धपदाथे' प्रक्षिता अष्ठा येषां ते तथा, नवनीतादिमिः चिक्कणितीष्ठा इत्यर्थः, तथाअर्थात् जिस प्रकार विनालगाम के अश्व चरण निपात में जीवोपमर्द निरपेक्ष होने से द्रुतगति किया करते हैं उसी तरह जो ईर्यासमिति से रहित होने के कारण दवदक्वारी (द्रुतचारी) होते है (गयाइव निरंकुसा) मदोन्मत हाथी की तरह जो निरङ्कुश होते हैं-जिस प्रकार मदोन्मत्त गज अपने महावत की आज्ञा से बहिभूत बन जाया करता है-उसी प्रकार जो आज्ञा को नहीं मानते हैं(घट्टा) जिन्होंने फेन आदिसे जंघा आदि अवयों का चिक्काण-मुलायम) बनाया है (महा) तैल आदिस्निग्ध पदार्थों से केशों का जो संस्कार करते हैं, जल से बार २ जो शरीर को धोते रहते हैं (तुप्पोट्ठा) शीतकाल जन्य ओष्ठों की रूक्षता हटाने के लिये जो नवनीत-मक्खन-आदि स्निग्ध पदार्थों की उनमें मालिश करते हैं-अर्थात् नवनीतादिक की मालिश से जो अपने ओष्ट युगल પ્રવૃત્તિ ચાલી રહી છે. એટલે કે જેવી રીતે અશ્વ જમીન પર ચરણ મુકતી વખતે જીપમર્દનની પરવા કર્યા વિના તગતિથી ચાલ્યા કરે છે. એ જ પ્રમાણે જેઓ ઈર્યાસમિતિથી વિહીન હોવાને કારણે જીવોપમનની પરવા કર્યા વિના શીઘ્રગતિથી यादया ४२त उय छ (तायी जाय छे). (गयाइव निरं सा) मा महोन्मत्त હાથીના જેવાં નિરંકુશ હેય છે-જેમ મન્મત્ત હાથી તેના મહાવતની આજ્ઞા પ્રમાણે ચાલતું નથી એ જ પ્રમાણે જેઓ ગુરુની આજ્ઞાને માનતા નથી. (ર) ફેન (એક પ્રકારને નિગ્ધ પદાર્થ) આદિ વડે જેમણે જાંઘ આદિ અવયને મુલાयम मनाच्या छ. (मट्ठा ते ६ स्नि५ पहा १७ । पाताना पाना સંસ્કાર કરે છે. અને જેઓ જળથી શરીરને વારંવાર જોયા કરે છે. घायां ४३ छ, (तुष्पोट्ठा) 30ने ४।२६ ट गये। 818नी ३क्षता ६२ ४२पाने मारे જેઓ માખણ. સને, વેસેલીન આદિ સિનગ્ધ પદાર્થોનું તેના પર માલિશ કરે છે, એટલે કે જેઓ ને આદિના માલિશ વડે પિતાના હેઠેને મુલાયમ રાખવાને
-
-
-
For Private and Personal Use Only
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. २२ तद्वयतिरिक्तलोकोत्तरीयद्रव्यावश्यक निरूपणम् १५३ पाण्डरपटप्रावरणाः पाण्डुराः धौताः मलपरीषहसहनाक्षमत्वात्, पटाः परिधानबस्त्राणि, प्रावरणानि-शरीराच्छादनवस्त्राणि च येषां ते तथा, परिहितनिर्मलघसनाः, जिनानामनाज्ञया स्वच्छदं विहत्य-जिनाज्ञामनादृत्य स्वस्व रुच्या विविधक्रियाः कृत्वा उभयकाल-प्रातःसायम् आवश्यकाय-अतिक्रमणाय उपतिष्ठन्तेउद्युक्ता भवन्ति । ततेषामावश्यकं लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकम् । अत्र द्रव्यायश्यकस्वं भावशून्यत्वात्, तत्फलाभावात्, संसारकारणत्वाच्च अप्रधानतया बोध्यम् । को चिकने रखते हैं. (पंडुरपडेपाउरणा) जो मल परीषह को सहने में असमर्थ होने के कारण अपने पहनने और ओढने के वस्त्रों को धोने में आसक्त रहते है- जिणाणमणाणाए) जिन भगवान् की आज्ञाकी परवाह न करके जो (स छंद विहरिऊणं) अपनी अपनी रूचि के अनुसार विविध क्रियाओं को करके (उभओ कालं) प्रातः सायं दोनों समय (आवस्सयस्स उबटुंति) प्रतिक्रमण करने के लिये उद्युक्त होते हैं (से) सो (तं लोउत्तरियं दव्वावस्सयं) उनका वह आवश्यक प्रतिक्रमण-लेकात्तरिक द्रव्यावश्यक हैं । (से तं जाणयसरीर भविय सरीरवइरित्तं दध्व'वम्सय) इस तरह ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर इन दोनों से जुदा यह द्रव्याव यव-लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक है । इन क्रियाओं में भावशून्यता होने के कारण उनका काई वास्तविक फल प्राप्त नहीं होता हैउल्टा उन से संसार का ही वर्धन होता है। इसलिये इन भावशून्य द्रव्यलिङ्गि साधुओं द्वारा किया गया आवश्यक कर्म अप्रधान होने के कारण द्रव्याप्रयत्न ४२ता २९ छ, (पंडुरपडपाउरणा) रेमो मतपरीषने सडन ४२१मा मसમર્થ હોવાને કારણે પિતાના પહેરવા ઓઢવાના વઓને ધવામાં આસકત રહે છે. (जिणाणमणाणाए) निन्द्र लगवाननी माज्ञानी ५२१॥ या विनायो (सछंद विहरिऊणं) पातानी ४२छअनुसारनी विविध जियायो ४शन (उभओकालं) Ad:stu भने साय , मा भन्ने समये (आवस्सथस्स उबटुंति) प्रतिभए ४२मान तयार थाय छ, (से तं लोउत्तरियं दव्वावस्सयं) तो तभनी ते मावश्य
३५ प्रतिभy बत्तरित व्यावश्य४३५ माय छे. (से तं जाणयसरीर भविय सरीरपारित दम्भावस्सय) साय४२ भने १०यशरीर, मा भन्नेथी किन्न એવા દ્રવ્યાવશ્યકના લેકેતરિક દ્રવ્યાવશ્યક નામના ત્રીજા ભેદનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું. આ ક્રિયાઓમાં ભાવશૂન્યતા હોવાને કારણે તેમનું કઈ વાસ્તવિક ફલ પ્રાપ્ત થતું નથી, પરંતુ ઉલ્ટ સંસાર જ વધે છે. તેથી આ પ્રકારના દ્રવ્ય લિગી સાધુઓ દ્વારા કરવામાં આવેલું આવશ્યકમ અપ્રધાન હેવાને કારણે દ્રવ્યા
For Private and Personal Use Only
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५४
अनुयोगद्वारसत्रे
नोआगमत्वं च देशे क्रियालक्षणे आगमाभावात् । 'नो' शब्दस्यात्र देशप्रतिषेधवचनत्वं बोध्यम् । आवश्यक ज्ञान सद्भावादागमोऽपि देशतो बतते इति ।
अत्र छेत्तिरिकद्रव्यावश्यके दृष्टान्तः प्रदशर्यते-- पुरा बसन्तपुरे नगरे गीतार्थ एकः संघ विहरतिग्म । तत्र संघे साधुगुणरहितः कश्चित्संविग्नाभासः साधुः प्रतिदिनं पुरःकर्मादिदोषदुष्टमनेषणीयं भक्तादि गृहीत्वा महता संवेगेन प्रतिक्रमणकाले सर्वमाछे । चयति । अगीतार्थी मच्छाचार्य तस्मै अगीतार्थत्वाद ases माना गया है ऐसा जानना चाहिये। यहां पर 'भी' शब्द एक देश प्रतिषेध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अर्थात् परिक्रमण क्रियारूप एक देश में आगम रूपता नहीं है । परन्तु प्रतिक्रमणरूप आवश्यक के ज्ञान का सद्भाव होने से हां आगम भी इस तरह एकदेशरूप आवश्यक क्रिया में आगम का प्रतिबेध यह 'नो' शब्द करता है । और यह प्रकट करता है कि यहां केवल आगम एक देश में वर्तमान है। इस तरह "नो" शब्द में देश प्रतिषेधवचनता जाननी चाहिये । लेोकेोत्तरिक द्रव्यावश्यक के ऊपर दृष्टान्त इस प्रकार से हैं -- प्राचीनकाल में बसन्तपुर नाम के नगर में एक अगीतार्थ संघविहार करता हुआ आया । उसमें साधुगुणों से रहित एक साधु था । जो संविग्न्धभास (ऊपर से वैराग्य देखानेवाला ) था । वह प्रतिदिन पुरः कर्मादि दोषों से युक्त अनेषणीय आहार ले करके आता और बडे ही संवेग भाव से वश्य४३५ भानवाभां भाव्यु छे, शेभ सभब्वु सही "नो आगम" पहां वचरा "नो" शण्ड मे देश प्रतिषेध (निषेध) ना अर्थमा प्रयुक्त थयो छे, भेटले પ્રતિક્રમણ ક્રિયારૂપ એક દેશમાં આગમરૂપતા હોતી નથી, પરન્તુ પ્રતિક્રમણુરૂપ આવશ્યના જ્ઞાનને સદ્ભાવ હાવાથી ત્યાં આગમના પણ એકદેશની અપેક્ષાએ સદ્દભાવ હાય છે. આ રીતે ‘ને!” પદ અહીં એક દેશરૂપ આવશ્યક ક્રિયામાં આગમન ના પ્રતિષેધ (નિષેધ) કરે છે, અને એ વાત પ્રકટ કરે છે, કે ત્યાં આગમ કેવળ એક દેશતઃ વમાન છે. આ પ્રમાણે “ને'' શબ્દમાં દેશ પ્રતિષેધ વચનતા સમજવી જોઇએ. લેાકેાન્તરિક દ્રવ્ય ક્ષકનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે હવે નીચેનુ દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે
પ્રાચીન કાળમાં વસંતપુર નામના નગરમાં અગીતા વિહાર કરતા કરતા આવી પહેાંચ્યા. તે સંઘમાં સાધુએના सौंविभालासी (७५२ उपस्थी वैराग्य लाव हेमाउनारी) येथे હંમેશા પુરઃકાંદિ દોષોથી યુકત અનેષણીય (અકલ્પ્ય) આહાર વહારી લાવતા હતા, અને પ્રતિક્રમણ કરતી વખતે ઘણા જ સવેગભાવ પૂર્વક પેાતાના દાષાની
For Private and Personal Use Only
સાધુએકના એક સંધ ગુણેાથી રહિત, પણ ४ साधु हतो, ते
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-मू.२२ तद्व्यतिरिक्तलाकोत्तरीयद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १५५ . प्रायश्चित्तं प्रयच्छन् एवं वदति-पश्यत साधवः । कथमय स्वदुष्कृतमगोपयन अशठतया प्रकाशयति, दोषासेवनै सुकरम्, आलोचना तु दुष्करा, अतोऽशटतयैव शुध्यतेऽसौ । इत्थं तस्य प्रशंसां लान्येऽपि अमीतार्थश्रमणास्तं प्रशंसन्ति, चिन्तयन्ति च गुरुसमीपआलोचन । चेत् शुद्धस्तर्हि असकृदोषासेवनायां कृतायामपि न कश्चिद् दोपः । इत्थं गच्छति कियतिकाले तत्रैकः संविग्नगीतार्थ:कश्चित् साधुः समायातः। स प्रतिदिनमेवंविधं व्यतिकरं विलोक्य तं गच्छाप्रतिक्रमण करने के समय में अपने दोषों की आलोचना करता । गच्छाचार्य जो कि स्वयं अगीतार्थ थे वे अगीतार्थ जान करके उसके लिये प्रायश्चित्त दे ते समय ऐसा कहते कि है साधुओं-देखो-यह साधु कितना भला है कि जो अपने एक भी दोष का नहीं छिपाता है, और सबका सरल भावसे प्रकटकर देता है । दोषों का सेवन तो हो जाता है, परन्तु उनकी आलोचना करना बड़ा कठिन काम है । इसलिये यह किसी भी मायाचार के विना जो अपने दोों की आलोचना करता है उसी से यह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य कृत प्रशंसा को सुनवर के संघस्थ अन्य अगीतार्थं श्रमणजन भी उसकी प्रशंसा करने लगजाते। और विचारने लगते कि गुरु के समीप में यदि आलोचना करने मात्र से ही दोनों की शुद्धि हो जाता है तो बार २ दोषों के सेवन करने में भी कई हानि नहीं है। इस प्रकार परते २ जब कितनाक समय निकल गया-तब उस संघ में एक संविग्न क्रियापात्र) गीता थ कोई साधु विहार करता हुआ बाहर से आया । जब उसने संघ की इस આચના કરતે હતે. તે ગચ્છના આચાર્ય કે જેઓ અગીતાર્થ હતા, તેઓ આ સંવિગ્નાભાસી સાધુને પ્રાયશ્ચિત દેતી વખતે સાધુઓની પાસે તેની આ પ્રમાણે પ્રશંસા કર્યા કરતાં હતાં- “હે સાધુઓ ! જુઓ, આ સાધુ કેટલે ભલો છે કે તેને એક પણ દેષ છુપાવત નથી, અને પિતાના સઘળા દેને સરલભાવે પ્રકટ કરી દે છે. તેનું સેવન તે થઈ જાય છે, પરન્તુ તેમની આચના કરવાનું કામ ઘણું જ કઠણું છે. કોઈ પણ પ્રકારના માયાચાર વિના પિતાના દેની આચના કરવાને લીધે તે શુદ્ધ થઈ જાય છે.” આચાર્ય દ્વારા તેની આ પ્રમાણે પ્રશંસા થતી જોઈને સિંધના અંગીતાર્થ અન્ય શ્રમણે પણ તેની પ્રશંસા કરવા મંડી જતા. તે સંઘના સાધુઓમાં આ પ્રકારની ખેાટી માન્યતા વ્યાપી ગઈ કે ગુરુની સમીપે માત્ર આલેથના કરવાથી જ દેની શુદ્ધિ થઈ જતી હોય, તે વારંવાર દેષોનું સેવન કરવામાં પણ કેઈ હાનિ નથી. આ પ્રકારની તેમની પ્રવૃત્તિ કેટલાક સમય સુધી ચાલ જ રહી. એવામાં કઈ એક સંવિગ્ન (કિયાપાત્ર) ગીતાર્થ સાધુ ગામ નગર આદિને વિહાર કરતે કરતે તે વસન્તપુર નગરમાં આવી પહોંચ્યા. જ્યારે તેણે તે અગી
For Private and Personal Use Only
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५६
अनुयोगदारसूत्र चार्यमुक्तवान् त्वमस्य शठसाधा: प्रशंसां कुर्वन् अग्निभक्तप्रशंसको नृप इन रइयसे । गच्छाचार्येण तत्कथां कथयितु प्रेरितः स संविग्नगीतार्थों मुनिरेवं प्रोक्तवान् ।
आसीद् गिरिनगरवासी कश्चिदग्निभक्तो वणिके। स प्रतिवर्ष पद्मरागरत्नैः गृहं भृत्वा वह्निना तत् प्रदीपयति । अग्नौ तस्यैवं. विधं श्रद्धातिशयं, विलोक्य, तन्न गरवासिनो जना नरपतिथाविवेक्तिया तं प्रशंसन्त एवंवदन्ति-भन्योऽयंवणिक, यः प्रतिवर्ष पद्मरागैवहिं सन्तर्पयति । अथान्यदा प्रबलपवनवेगेन प्रकार की प्रतिदिन की व्यवस्था देखी-तब उससे नहीं रहा गया और गच्छाचार्य के पास जाकर उसने उनसे कहा आप इस शंठ साधु की जो प्रशंसा करते हैं-वह कार्य आपका अग्निभक्त की प्रशंसा करनेवाले ए राजा की तरह है। यह कथा कैसी है इस प्रकार गम्छाचार्य के पूछने पर उस संविग्न गीतार्थ साधुने उन्हें यह कथा इस तरह से सुनाई-गिरिनगर में ए अग्निभक्त वणिक रहता था। यह प्रतिवर्ष पद्मरागरत्नों को घर में भरकर उसमें आग लगा देता था। उसके अविवेक पूर्ण कार्य की वहां का राजा और पुरवासिजन सबही प्रशंसा करते । कहते-देखा इसके श्रद्धातिशय को-जो प्रति वर्ष पद्मरागमणियों से अग्निदेव को संतर्पित रता है । एकदिन की बात है कि जब उसने पद्मरागमणियों को भरकर घरमें आग लगाई-तब उस समय आंधी के वेग से अग्निज्वाला इतनी अधिक प्रदीप्त हुई कि उसका संभालना मुश्किल हो गया। देखते २ उस प्रदीप्त अग्निने राजमहल सहित उस समस्त नगर તાર્થ સંઘના તે સંવિસાભાસી સાધુની તે પ્રકારની દરાજની પ્રવૃત્તિ દેખી, ત્યારે તેનાથી તે સહન થઈ શકી નહીં. તેણે તે અગીતાર્થ સંઘાચાર્યની પાસે જઈને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું – આપ આ શઠ સાધુની જે પ્રશંસા કરે છે તે અગ્નિભકતની પ્રશંસા કરનારા એક રાજાના કાર્ય જેવું કાર્ય છે. ત્યારે તે સદાચાર્ય તેમને પૂછયું-"અગ્નિભકતની શી કથા છે?
ત્યારે તે સંવિગ્ન ગીતાર્થ સાધુએ તેમને નીચે પ્રમાણે કથા કહી-ગિરિનગરમાં એક અગ્નિભકત વણિક રહેતું હતું. તે અગ્નિદેવને ખુશ કરવા માટે પ્રતિવર્ષ પધરાગ રત્નને ઘરમાં ભરીને તેને આગ લગાડતું હતું. તેને આ અવિવેકપૂર્ણ કાર્યની ત્યાંને રાજા અને નગરવાસીઓ ખૂબ પ્રશંસા કરતા હતા. તેઓ એકબીજાને કહેતાં–જુઓ તેને અગ્નિદેવ પ્રત્યે કેટલી બધી શ્રદ્ધા છે ! તે શ્રદ્ધાને કારણે તે તે પ્રતિવર્ષ પધરાગ મણિઓથી અગ્નિને સંતૃપ્ત કરે છે.” હવે એક દિવસે એવું બન્યું કે જ્યારે તે વણિકે ઘરમાં પધરાગમણિએ ભરીને ઘરને આગ લગાડી ત્યાર અચાનક આંધી ચડવાને કારણે તે આગ ચોમેર પ્રસરી ગઈ અને તેને કાબુમાં
For Private and Personal Use Only
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू०२२ तद्वयतिरिक्तलोकोत्तरिगद्रव्यावसकनिरूपणम् १५७ प्रद्वितस्तत्प्रदीपितवह्वीराजप्रासादसहित समस्तमपि तन्नगरं ददाह । ततो राज्ञा स वणिग्दण्डितो नगराद् निष्कासितश्च । : तथा त्वमपि अविधिप्रवृत्तस्य अस्य प्रशंसां कुर्वन् आत्मानं संघ च विना शयसि । यदि पुनस्तपमेनं शिक्षयसि, तदाऽपर नृप इव स्वपरकल गणकारको भविष्यसि । तथाहि- .
. आसीत्कश्चिद् राजा, यो हि तथाविधकर्मकारिणं कंचीदेकं वणिज समाहूब प्रोक्तवान्–दि तव पद्मरागमणिमिरनेस्तर्पणमावश्यकं, तर्हि वने गत्वा को भी स्वाहा करदिया । राजा ने जब परिस्थिति का विचार किया तो अपने भज्ञानना पर उसे बडा पश्चात्ताप हुआ । अन्तमें उसने उस वणिक् को दण्डित करअपने नगर स बाहिर निकाल दिया। इसी प्रकार आप भी अविधि में प्रवृत्त हुर इस साधु की जो प्रशंसा करते हैं-वह आप का आर संघ का विनाशक है। यदि इस संघ में आप किसी एक को भी शिक्षित करदे तो आपका यह कार्य एक दूसरे राजा की तरह स्व और पर का कल्याणकारक होगा-सुनिये-एक राना था। उसके राज्य में भी इसी अग्निभक्त वणिक की तरह एक वणिक रहता था। वह भी प्रतिवर्ष पद्मरागमणियों को घर में भरकर उसमें आग लगा देता था और इस तरह से अग्नि का संतर्पित किया करता था । जब राजा को उसकी इस बात का पता लगा-व उसे बुलाकर उसने कहा कि यदि पद्मरागमणियों से अग्नि को संतर्पित करना तुम्हारे लिये आवश्यक है-तो तुम यह कार्य नगर में रह લેવાનું કાર્ય મુશ્કેલ બની ગયું. તે આગની જવાળાઓમાં રાજમહેલ સહિત આખું નગર ભસ્મીભૂત થઈ ગયું. જ્યારે રાજાએ આ પરિસ્થિતિના કારણને શાંત ચિત્ત વિચાર કર્યો ત્યારે તેને પિતાની અજ્ઞાનતાને માટે પશ્ચાત્તાપ થયે. તેણે તે વણિકને સજા ફરમાવીને પિતાના નગરમાંથી હાંકી કાઢયે. તે રાજાની જેમ આપ અવિધિમાં-પાપાચારમાં પ્રવૃત્ત થયેલા આ શઠ સાધુની જે પ્રશંસા કરી છે, તે આપને અને સંઘને વિનાશ કરનારી નિવડશે. જે આપ આ સંઘમાંથી એવા એક સાધુને પણ શિક્ષા કરીને હાંકી કાઢશે. તે આપનું તે કાર્ય એક બીજા રાજાના કાર્યની જેમ વ અને પરનું કલ્યાણ કરનારું થઈ પડશે. હવે તે સંવિગ્ન ગીતાર્થ સાધુ તે રાજાની કથા તે આચાર્યને કહી સંભળાવે છે , - કોઈ એક રાજાના નગરમાં ઉપર્યુક્ત અગ્નિભક્ત વણિક જે એક વણિક રહેતું હતું. તે પણ અગ્નિદેવને તૃપ્ત કરવા નિમિત્તે પ્રતિવર્ષ પિતાના ઘરમાં પધરાગમણિઓ ભરીને ઘરને આગ લગાડી દેતા હતા જ્યારે રાજાને તેની આ વાતની ખબર પડી ત્યારે તેણે તે વણિકને પોતાની પાસે બોલાવીને આ પ્રમાણે ચેતવણી આપી-જે પધરાગ મણિઓ ઘરમાં ભરીને તેને આગ લગાડીને તમે અગ્નિદેવને
For Private and Personal Use Only
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१५८
अनुयोगहर
कथं नैव करोषि ? तवैवंविधया क्रियण कदाचित्सम तो पि ग्रामो विनश्येत् ।
·
इत्येवं तं निर्भत्स्यै दण्डयित्वा नगराद् निष्कासितवान् । तथा त्वमपि कुरु ।
+
एवं तेन संविग्नगीतार्थेन बहुशः प्रतिबोधितोऽपि स गच्छाचार्यो यदा स्वव्यापारान्न निवृत्तस्तदा स साधुः अन्यान् गच्छस्थितान् साधून् एवमुक्तवान - " यद्येषोऽसंविग्नोऽगीतार्थो गच्छाधिपो भवद्भिर्न परित्यज्यते, तदा भवतां महान् अनर्थो भविष्यती 'ति । एवंविधं साध्वाभासावश कप्रकारं सर्व लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकम् । एतत्सर्वं निगमयन्नाह - ' से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं' कर क्यों करते हो - क्यों नहीं जंगल में जाकर इसे किया करते हो। क्यों. कि इस तुम्हारी प्रवृत्ति से कभी न कभी समस्त ग्राम के नष्ट होने की संभावना हैं । अतः तुम इस दुष्प्रवृत्ति वाया तो त्याग करो नहीं तो गांव से बाहिर निवल जाओ। इस प्रकार डाट डपट कर उस राजाने उसे दण्डित करके अपने नगर से बाहिर निकाल दिया । अतः आप भी संघ की कल्याण कामना से ऐसा ही की जिये । इस प्रकार उस संविग्नगीतार्थ साधुने उन गच्छाचार्य को बहुत प्रकार से समझाया । परन्तु जब वे समझाने पर नहीं समझे तब उस आगतसाधुने संघस्थित अन्य साधुओं से इस प्रकार कहा- देखो यह गच्छाधिपति असंविग्न (क्रियाहीन) और अगीतार्थ है, यदि आपलोग इससे अलग नहीं होते हैं तो इसमें आप सब का बडा भारी अनर्थ होगा । इस प्रकार का साध्वाभासों (वेषधारियों) का जो भी आवश्यक प्रकार हैं वह સંતૃપ્ત કરવાનું આવશ્યક માનતા હા. તે તમારે નગરમાં રહીને એવુ કાર્ય કરવુ જોઈએ નહી. જંગલમાં જઈને તમે તે કામ કરી શકેા છે. નગરમાં રહીને તમે ત્તમારી આ પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખશેા તા તમારી આ દુષ્પ્રવૃત્તિને કારણે કોઇ વાર આખા નગરને ભસ્મીભૂત કરી નાખશેા. માટે કાં તેા તમારી આ દુષ્પ્રવૃત્તિ બંધ કરી નહી તેા ગામ છેડીને જતા રહે।” આ પ્રમાણે ધમકાવીને રાજાએ તેને પોતાના નગરમાંથી હાંકી કાઢયા. આપે પશુ સધના કલ્યાણને ખાતર તે શઠ સાધુને સંઘમાંથી હાંકી કાઢવા જોઇએ. આ પ્રમાણે તે સંવગ્નગીતા સાધુએ તે ગચ્છાચાય ને ખૂબખૂબ સમજાવ્યા, છતાં પણ જ્યારે તેમણે તેની વાતને ન સ્વીકારી ત્યારે તે અવિગ્નગીતા સાધુએ તે સંઘના અન્ય સાધુએને આ પ્રમાણે કહ્યું- આ ગચ્છधिपति अस विश्न (डियाहीन) भने संगीतार्थ है. ले आप तेमनाथी लुहा नहीं પડે તા આપનું અકલ્યાણ થશે.આપના સ`સાર અલ્પ થવાને બદલે દીઘ થતા જશે.” આ પ્રકારના દ્રવ્યલિંગી સાધુઓની (માત્ર વેષની અપેક્ષાએ જ સાધુ દેખાતા હાય પણ સાધુના આચારાથી રહિત હૈાય એવા સાધુને દ્રવ્યલિંગી કહે છે). જે
M
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुगोगच न्द्रका टीका सू० २३ भावावश्यकनिरूपणम् इति तदेत- लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकं वर्णितम् । नोआगमतो द्रव्यावश्यकमपि. सर्व निरू पेतमिति प्रकटयितुमाह-तदेतद् न आगमतो द्रव्यावश्यकं वर्णितम् । तदेतत् द्र यावश्यकं वर्णितम्, इति ॥५० २२॥ ..
अथावसरमाप्तं भाशवश्यकं निरूपयितुमाह
मूलम्-से कि तं भावावस्सयं ? भावावस्तयं दुविहं पपणत्तं तं जहा आगमओ य, नो आगमओ य ॥ सू० २३ ॥
छाय--अथ किं तद् भावावश्यकम् ? भावावश्यकं द्विविधं प्रज्ञप्तम. . तथ।।-आगमतश्च, नोभागमतश्च ।।मू० २३॥ .
टीमा-शिष्यःपृच्छति--से किं तं भावा-स्सयं' इति । हे भदन्त ! अथ किं तद् भावावश्यकम् ? उत्तरमाह-'भावारसयं' इति । भावावश्यकसभ लोकात्तरिक द्रव्यावश्यक है। इस तरह. यहां तक (से ते नोआगमओ दावस्स) पूर्व प्रक्रान्त नोआगम द्रव्यावस्यक का कथन किया गया है कि -नोआमम को लेकर द्रव्यावश्यक के भेद प्रभेदों का पूर्वोत्तरूप से वर्णन हो चुका है । ॥ सूत्र २२॥
अब सूत्रकार भावावश्यक का वर्णन करते हैं-- से किं तं भावावस्सयं इत्यादि ॥सूत्र २३॥ . शब्दार्थ--(से) हे भदंत ! भागवश्यक का क्या स्वरूप है ? ..
उत्तर--(भावावस्मयं दुविहं पण्णत्तं) भावोवश्यक दो प्रकार का है। (तंजहा) वे प्रकार ये हैं-(आगमओ य नोआगमआय) एक आगम को लेकर -भावावश्यक और दूस । नोआग को लेकर भावावश्यक । विवक्षित क्रिया के - अनुभव से युक्त जो साध्वादिरूपपदार्थ है उसका नाम भाव है । यहां भाव કેઈ આવશ્યક ક્રિયાઓ હોય છે. તે લકત્તરિક દ્રવ્યાવશ્યક રૂપજ ગણાય છે. (से तं नो आगमओ दवावस्सयं) मा शत ही सुधीमा प्रस्तुत ना मागम દ્રવ્યાવશ્યકનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એમ સમજવું. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકના જે ભેદ-પ્રભેદે પડે છે. તેમનું વર્ણન म १६ थाय छे. ॥९० २२॥ હવે સૂત્રકાર ભાવાવશ્યકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે,
“से किं तं भावावस्सयं" त्याहशहाथ-(से) शिष्य गुरुने यो प्रश्न पूछ छ -भावावस्मयं किं) भगवन् ! भावापश्यनु २१३५ ३ ४ छ १ .
-
-
-
-
-
-
--
For Private and Personal Use Only
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारमत्रे इह-विवक्षितक्रियानुभवयुक्तीयोऽर्थः साध्यादिरूपः स भावः। भाव तद्वतो' भेदोपचाराद भावः । यथा-ऐश्वर्यरूपायाः इन्दनक्रियायाः अनुभवाद् इन्द्रो भाव उच्यते । भावश्वासौ ओवश्यकं च भावावश्यकम् । यद्वा-विवक्षितक्रियानुभवरूपं भावमाश्रित्य
आवश्यकं भावावश्यकम् । .. तद् द्विविधं प्रज्ञतम् । तद् यथा-आगमतश्व-आगममाश्रित्य, नोआगमतश्व-आगमाभावमाश्रित्य ॥ सू० २३ ॥
मूलम्-से कि तं आगमओ भावावस्सय ? आगमओ भावावस्सयं जाणय उवउत्ते । से तं आगमओ भावावस्सयं ॥ सू० २४॥ : छाया-अथ किं तद् आगमतो भावावा यकम् ? आगमतो भावावश्यक ज्ञायक उपयुक्तः। तदेतदागमतो भावावश्यकम् । मू० २४॥ .. और भाववान में अभेदोपचार किया गया है। इसलिये विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त अर्थ को भाव कह दिया है । जैसे ऐश्वर्यरूप इन्दन क्रिया के अनुभव से इन्द्र भाव कहा जाता है। भावरूप आवश्यक का नाम भागवशयक है। अथवा विवक्षित क्रिया के अनुभवरूप भाव को लेकर जो आवश्यक होता है उसका नाम भावावश्यक है । ॥सूत्र २३॥
भावावश्यक का स्वरूप आगम की अपेक्षा लेकर सूत्रवार इस प्रकार से प्रकट करते हैं-से किं तं आगमओ भावावस्सयं इत्यादि सूत्र २४॥
शब्दार्थ--हे भदंत ! आगम को आश्रित करके भाव आवश्यक का क्या स्वरूप है ? : . .
उत्त२-(भावावस्सयं दुविहं पण्णत्तं) मावावश्यना मे ४५२ (तंजहा) ते । नीय प्रमाणे ४ा छ (आगमो य नोआगमो य) (१) मागभनी अपेक्षा ભાવાવશ્યક અને (૨) ને આગમની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક.
વિવક્ષિત ક્રિયાના અનુભવથી યુક્ત જે સાધુ આદિ રૂપ પદાર્થ છે, તેનું નામ ભાવ છે. અહીં ભાવ અને ભાવવાનમાં અભેદપચારની અપેક્ષાએ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. તેથી વિવક્ષિત ક્રિયાના અનુભવથી યુકત અર્થને “ભાવ” કહેવામાં આવ્યો છે. જેમ કે અશ્રર્ય રૂપ ઈદન ક્રિયાના અનુભવથી ઈન્દ્રને ભાવરૂપ કહેવામાં આવે છે. ભાવરૂપ આવશ્યકનું નામ ભાવાવશ્યક છે. અથવા વિવક્ષિત ક્રિયાનો અનુભવન અપેક્ષાએ જે આવશ્યક હોય છે, તેનું નામ ભાવાવશ્યક છે. જે સુલ ૨૩ .
હવે સૂત્રકાર ભાવાવશ્યકના પ્રથમ ભેદ રૂપ જે “આગમનની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક” છે, તેના સ્વરૂપનું કથન કરે છે
For Private and Personal Use Only
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २४ भावावर यकस्वरूपनिरूपणम् ___टीका--शिष्यः पृच्छति—'से किं तं आगमओ भावावस्सय' इति । अथ किं तद् आगमतो भावावश्यकम् ? उत्तरमाह-'आगमओ भावावस्सय' इत्यादि। आगमतो भावा श्यक ज्ञारक उपयुक्तः । अयमर्थः-आवयक आ .३२क पदार्थज्ञरत जनित-संवेगेन विशुध्यमानपरिणाम तत्र चोपयुक्तः साध्वादिरागमतो भावावश्यकम् । आवश्यकार्थज्ञानरूपस्यागमस्यात्र सत्त्वात् । भावेश्चात्रावश्यकार्थज्ञानजनितोपयोगवत्त्वात्, भावमाश्रित्यावश्यकमिति व्युत्पत्तेः । इदमुक्तं भवति-आव
___ उत्तर--(आगमओ भावा स्सयं जाणयउवउत्ते) आवश्यकसूत्र के अर्थ को जानने वाला ऐसा उसमें उपयोगयुक्त बना हुआ साध्यादि कि जिसके परिणाम संवेग से विशुद्ध बन रहे हैं आगमतः भावाकक है। क्योंकि इसमे आवश्यक सूत्र के अर्थज्ञानरूप आगमका सद्भाव हो रहा है। यद्यपि आइया के अर्थज्ञान से जनित जो उपयोग है. उसका नाम भाव है। और इस भाव को आश्रित करके जो आवश्यक है वह मावावश्यक है, इस प्रार की व्युत्पत्ति से आवश्यक अर्थ के ज्ञाता का आवश्यक में उपयोगरूप बना हुआ परिणाम, आगम से भावावश्यकरू! ठहरता है फिर भी जो साध्वादि को भावा एकरूप में कहा जाता है वह इस प्रकार के परिणाम से युक्त हने के का ण उपचार से कहा जाता हैं ऐसा जानना चाहिये । आश्यक में जो यह उपयोग परिणाम
से किं तं आगमओ भावावस्सयं" त्या:
શબ્દાર્થ–હે ભગવન આગમને આશ્રિત કરીને (આગમની અપેક્ષાએ) ભાવ આવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(आगमओ भावावरसयं जाणय उवउत्ते) मा१श्य सूत्रना अथ ने જાણનારો અને તેમાં ઉપયોગ યુકત બનેલે સાધુ કે જેના પરિણામે સંગને લીધે વિશુદ્ધ બની રહ્યા હોય છે, તે આગમની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક હોય છે, કારણ કે એવા સાધુમાં આવશ્યક સૂત્રના અર્થજ્ઞાન રૂપ આગમનો સદૂભાવ થઈ રહ્યો હોય છે. જો કે આવશ્યકના અર્થજ્ઞાનથી જનિત જે ઉપયોગ છે તેનું નામ ભાવ છે, અને તે ભાવને આશ્રિત કરીને જે આવશ્યક છે, તેનું નામ ભાવાવશ્યક છે, આ પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ અનુસાર આ શ્વક અર્થના જ્ઞાતાનું આવશ્યકમાં ઉપયોગયુકત બનેલું પરિ. ણામ (વૃત્ત) આગમની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક રૂપ પ્રતિપાદિત થાય છે, છતાં પણ જે સાધુ આદિને ભાવાવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવેલ છે તે આ પ્રારના પરિ. ણામથી યુદત હોવાને કારણે ઔપચારિક રીતે કહેવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું.
For Private and Personal Use Only
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
.१६३
अनुयोगबारसूत्रे रूप भावावश्यक है वह धर्म पदाच्य है कयों कि यह श्रुत धर्म के अन्तर्गत है इसी की मान्यता के विषय में जिन भगवान् की आज्ञा का सद्भाव है।. तात्पर्य कहनेका यह है कि यहां पर शंकाकार की ऐसी शंका हो सकती है कि नाम आवश्यक, स्थापना आवश्यक और द्रव्य आवश्यक ये आराधना करने योग्य हैं ऐसी जिन भगवान् की आज्ञा ही नहीं हैं यह बात तो निश्चत है-क्योंकि इनमें उपयोग का अभाव हैं और चारित्र गुण विहीनता है। अतः ये कमों कि निर्जरा के साधक नहीं होते हैं। और इसी पारण ये धर्मपद वाच्य भी नहीं होते हैं। परन्तु जो सामायिक आदि रूप लोकात्तरिक द्रव्यावश्यक है कि जो प्रवचनोक्त है-आगम संमत है-वह तो धर्मपदवाच्य होना चाहिये-सो इस शंका का समाधान इस प्रकार से है-कि सामायिक आदि क्रियाएँ प्रवचनोक्त अवश्यक है तो भी वे जिनाज्ञा से वहि भूत बने हुए साध्वाभासों (वेषधारियों) द्वारा कि जो स्वच्छंद विहारी होते हैं, मूलगुण और उत्तर गुणों में जिन्हें आस्था नहीं होती है, छहकाय के जीवों की रक्षा करनेरूप अनुकंपा का भाव जिनके अंतःकरण में शून्यरूप से रहता है अनुपयोगपूर्वक अपनी रुचि के अनुसार यद्वा तदा क्रिया की આવશ્યકમાં જે આ ઉપગ પરિણામ રૂ૫ ભાવાવશ્યક છે તે ધર્મો પદવાય છે, કારણ કે તે શ્રતધર્મની અંદર સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. તેની જ માન્યતાના વિષયમાં જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને સદૂભાવ છે આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે- કદાચ કોઈને એવી શંકા થાય કે નામ આવશ્યક સ્થાપના આવશ્યક અને દ્વવ્યાવશ્યક, તે ત્રણે આવશ્યક આરાધના કરવા યોગ્ય છે, એવી જિનેદ્ર ભગવાનની આજ્ઞા જ નથી. કારણ કે તેમનામાં ઉપગનો અભાવ છે, અને ચારિત્રગુણ વિહીનતા રહેલી છે તેથી તેઓ કર્મની નિજાના સાધક થતા નથી. અને એજ કારણે તેઓ ધર્મ પદવાઓ પણ હોતા નથી. પરંતુ સામાયિક આદિ રૂપ લેકોત્તર દ્રવ્યાવશ્યક, કે જે પ્રવચકત છે-આગમ સંમત છે, તે તે ધર્મ પરવાચ્ય હોવા જ જોઈએ.
તે તે પ્રકારની શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે સમજવું સામાયિક આદિ ક્રિયાઓ આગમસંમત અવશ્ય છે. પરંતુ જિનાજ્ઞાના પરિપાલનથી જેઓ વિહીન બનેલા છે એવા દ્રશ્યલિંગી (સાધુ વેષ ધારી) સાધુઓ દ્વારા કરવામાં આવતી તે સામાયિક આદિ ક્રિયાઓ ધર્મ પરવા હોઈ શકતી નથી. કારણ કે એવા સાધુઓ તે સ્વછંદ વિહારી હોય છે, મૂલગુણ અને ઉત્તર ગુણોથી તેઓ રહિત હોય છે, છકાયના જીવોની રક્ષા કરવા રૂપ અનુકંપા ભાવને તેમનામાં સદંતર અભાવ હોય છે, એવા સાધુઓ તે અનુપગ પૂર્વક, પિતાની રુચિ પ્રમાણે ફાવે એવી રીતે તે સામાયિક આદિ
For Private and Personal Use Only
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका २४ भाषावश्यकस्वरूपनिरूपणम् श्यकार्थज्ञस्य आवश्यकोपयोगपरिणाम आगमता भावावश्यकम् । साध्वादिस्तु तादृशपरिणामवस्वादुपचारादागमतो भावावश्यकमुच्यते। ___इदमावश्यकोपयोगपरिणामरूपं भावावश्यकं धर्मपदवाच्यं भवति, श्रुत धर्मान्तर्गतत्वादत्र जिनाज्ञायाः सत्त्वात् । जाती है। अतः वे भी धर्मपदवाच्य नहीं हो सकती है। इसलिये उस लोकातरिक द्रत्यावश्पक में भी निर्जराजनकत्व का अभाव होने से जिन भगवान की आज्ञा उसे मान्यता प्रदान करने की-वह आराधना करने योग्य है इस प्रकार की नहीं हैं। इस प्रकार यह आग्.म भावावश्यक, का वर्णन किया। ____ भावार्थ--यह सूत्रकारने पहिले ही अट करदिया है कि विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त अर्थ का नाम भाव है। अर्थात् जो आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता है और उसमें उपयोग से युक्त है-ऐसा साध्वादिरूप अर्थ भावावश्यक है। इस भावावश्यक के दो भेद हैं–? एक आगम भावावश्यक और दूसरे नोआगम भावावश्यक । आगम भावावश्यक में ज्ञाता का उपयोग रूप परिणाम आगमरूप माना गया है। अतः वह परिणाम आगम की अपेक्षा भावावश्यक होने से आगम भावविश्यक है। साध्वादिको कि जो आवश्यकशास्त्र के ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त बने हुए हैं जो आगमभावावश्यक वहा जाता है वह उस परिणाम की अभेद विवक्षा से कहा जाता है। जिन भगवान् ने इस आगमभावावश्यक को ही धर्मपदवाच्य होने के कारण उपादेय ક્રિયાઓ કરતા હોય છે. તે કારણે તેમની તે ક્રિયાઓ ધ પદવાણ્ય (ધર્મ કહી શકાય એવી) હેતી નથી. તેથી એ લેકેરરિક દ્રવ્યાવશ્યકમાં પણ નિજ રાજકત્વનો અભાવ હોવાથી જિન ભગવાને તેમને આરાધના કરવા ગ્ય કહી નથી. આ પ્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા આગમ ભાવાવશ્યકનું સ્વરૂપે પ્રગટ કરવામાં આવ્યું છે. ' ,
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે એ વાત તે આગળ પ્રકટ કરી દીધી જ છે કે. વિવક્ષિત ક્રિયાના અનુભવથી યુકત અર્થનું નામ ભાવ છે. એટલે કે જે સાધુ આવશ્યક શાશાને જ્ઞાતા છે અને તેમાં ઉપયુક્ત (ઉપગ પરિણામથી યુક્ત) છે, એવા સાધુ આદિ રૂપ અર્થને ભાવાવશ્યક કહે છે. આ ભાવાવશ્યકના બે ભેદ બતાવ્યા છે (૧) આગમ ભાવાવશ્યક અને (૨) આગમ ભાવાવશ્યક.
આગમ ભાવાવશ્યકમાં જ્ઞાતાના ઉપગ રૂપ પરિણામને આગમ રૂપ માનવામાં આવેલ છે. તેથી તે પરિણામ આગમની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક રૂપ હેવાથી તેને આગમ ભાવાવશ્યક કહેવામાં આવ્યું છે. સાધ્વાદિકે કે જેઓ આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા હોવાની સાથે સાથે તેમાં ઉપયુકત બનેલા તેમને જ જે આગમ ભાવાવશ્યક કહેવામાં આવે
-
For Private and Personal Use Only
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१६४.
अनुयोगद्वारसूत्रे
"
नामावश्यकम् - आवश्यक नामको गोपालदारकादिः, स्थापनावश्यकम् आवश्यकक्रियातः कस्यचित् काष्ठकर्मादिषु चित्रम् शच आवश्यकोषयोगशून्या देहागमक्रियाः । एष्ट विश्वेषु उपयोगाभावेन चरणगुणरहितत्वेन च कर्मनिर्जराजनकत्वाभावदाराध्यत्वेन जिनाज्ञा नान्ति, तस्मादेतत् त्रिविध-मावश्यकं धर्मपदवाच्यं न भवतीति निश्चयः । लेोकेोत्तरिकद्रव्यकं प्रवचनातं सदपि जिनाज्ञाचाद्यैः रूच्छन्द विहारिभिर्मूला नरगुणरहितैः षट्काय नि.नुकम्पैरनुयेागपूर्वकं क्रियमाणं सामायिकादिकम्। तदपि धर्मपदवाच्यं न भवितुमर्हति तत्रापि निर्जराजनकत्वाभावेन विधेयतया दिनाज्ञाश अभावात् ।
उक्तमर्थमुपसंहरन् प्राह - ' से तं आगमओ भावा रस्स' इति । तदेतत् आगमता भावावश्यकं वर्णितम् ॥ मू० २४ ॥
or itaretara द्वितीयभेदमाह -
मूलम् - से किं तं नो आगमओ भावावस्स्यं ? नो आगमओ भावावस्त्रयं तिविहं पण्णत्तं तं जहा - लोइयं, कुप्पात्रयणिय, लोन्तरियं ॥ सू० २५ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
स्वीकार्य कहा है- नाम स्थापना और द्रव्य आवश्यक को नहीं । क्योंकि आवश्यक नाम के धारी गोपालबालों में आवश्यक की स्थापनावाले किसी श्रावक आदि के आवश्यक क्रिया संपन्न चित्र में तथा आवश्यक क्रिया में उपयोग शून्य बने हुए नोआगम द्रव्यावश्यकरूप देह में एवं आगमोक्त भी लोकोत्तरिक व्यावश्यकरूप सामायिक आदि में उपयोग की शून्यता से और चारित्र गुण की रहितता से कर्म निर्जरा करने की सामर्थ्य नही हैं । अतः ये धर्मपदवाच्च नहीं हुए हैं। और इसी कारण इन्हें उपादेय नहीं वहा गया है | || सूत्र २४॥ છે તે આ પરિણામની અભેદ્ય વિવક્ષાની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવે છે. આ આગમ ભાષાવશ્યક જ ધમ પદવાચ્ય હાવાથી જિનેશ્વર ભગવાને તેને ઉપાદેય કહેલ છે
ૐ નામાવશ્યક સ્થાપના આવશ્યક અને દ્રવ્યાવશ્યકને ઉપાદેય કહ્યા નથી. કારણ કે આવશ્યક નામધારી ગોપાલમાળામાં,. આવશ્યકની સ્થાપનાવાળા કોઇ શ્રાવક આદિના આવશ્યક ક્રિયા સંપન્ન ચિત્રમાં, તથા આવશ્યક ક્રિયામાં ઉપયોગ શૂન્ય (અનુપયુકત) ખનેલા આગમ દ્રાશ્યક રૂપ સામાયિક આદિમાં ઉપયેગની શૂન્યતા અને ચારિત્રગુણની રહિતતાને લીધે કર્મીની નિર્જરા કરવાનુ` સમથ્ય હાતુ' નથી. તેથી તેમને ધમ પદ્મવાચ્ય કહી શકાય નહીં, અને એજ કારણે તેમને ઉપાहेग यांशु मली शाय नहीं ।। सू० २४ ॥
For Private and Personal Use Only
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५ नोआगम नावावर कनिरूपणम्
འ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१६५
छाया -- अथ किं तद् नोआगमता भावावश्यकम् ? नो आगनतो भावावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - लौकिकं कुप्रवचनिकं लोकोत्तरिकम् ।। ० २५ ।। टीका -- 'से किं तं इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा | | ० २५ || लौकिक भावाश्यत्र माह-
मूलम् - से किं तं लोइयं भावावस्तयं ? लोइयं भावावस्तयं good भार अवरहे रामायणं । मे तं लोइयं भावावस्सयं । सू०२६ ।
अब सूत्रकार भावावश्यक का द्वितीय भेद जो नोआगमभावावश्यक है। उसका निरूपण करते हैं - " से किं तं नोआगमओ" इत्यादि । ॥सूत्र २५ ।। शब्दार्थ - ( से) शिष्य पूछता है कि हे भदंत । नोआगम की अपेक्षा लेकर भावाश्क का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (नाआगमओ भावावरसयं तिविहं पण्णत्त ) ना आगम को आश्रित करके भाव तीन प्रकार का कहा हुआ है । ( त जहा ) जैसे - ( लोइयं) लौकिक ( कुप्पावणि) कुप्रावचनिक और (लोगुत्तरियं ) लोकोत्तरिक । इस प्रकार जानना चाहिये । उस व्याख्या में द्रव्यावश्यक की जगह भारावश्यक शब्द का प्रयोग करना चाहिये | ॥ २५॥
अब सूत्रकार लौकिक भावावश्यक का वर्णन करते हैं"से कि त लोइयं" इत्यादि || मूत्र २६ ॥
(
ભાવાવણ્યકને જે ના આગમ ભાષાવશ્યક’ નામના બીજો ભેદ છે તેનુ સૂત્ર २ हवे नि३ रे छे - " से किं तं नो आगाओ" इत्याहि
शब्दार्थ - (से) शिष्य गुरुते येवो प्रश्न पूछे ! डे लगवन् ! नो भागમની અપેક્ષાએ જે ભાવાવશ્યક કહ્યો છે તે ભાવાવણ્યકતુ એટલે કે ના ભાવાવણ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
આગમ
उत्तर- (नागमओ भावावस्तयं तिविहं पण्णत्त) नायागमने माश्रित उरीने लावावश्यता त्र प्रहार छे. (तंजहा) ते ऋणु प्रहारो नीचे प्रमाणे छे(लाइयं) (१) सौ8ि ( कुप्पावयणियं) (२) कुप्रावयनि गने ( 3 ) लोगु-) तरियं ) बोअत्तरिया पहोनी व्याच्या द्रव्यावश्यउनी नेवी ४ समभवी लेहो, પરન્તુ તે વ્યાખ્યામાં દ્રાવણ્યકની જગ્યાએ ‘ભાવાવણ્યક' પદના ઉપયાગ કરવા हाये ॥ सू. २५ ॥
હવે સૂત્રકાર લૌકિક ભાવાવણ્યકનું નિરૂપણ કરે છે— " से किं तं लाइयं" इत्यादि
For Private and Personal Use Only
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे छाया--अथ fi तद् लौकिक भावावश्यकम् ? लौकि भावाव । एक पूर्वाह्न भारतम्, अपराह्ने रामायणम् । तदेतत् लौकिक भावावश्यम् ।सू०२६।
टीका--शिष्यः पृन्छ त-से कि तं लाइयं भावावस्स' अथ किं तद् लौकिक भाषावश्यकम् ? उत्तरमाह-'लोइयं भावावस्सयं' इत्यादि । लौकिक भावावश्यक पूर्वाण्हे भ रत भारतस्थ वाचनं श्रवणं वा. आरहे रामायणम, अपराह्ने रामायणम् रामायणस्य वाचनं श्रवणं वा । लोके हि-भारतस्य वाचनं श्रवणं पूर्वाहे क्रियमाणं दृश्यते तथा-रामायणस्य वाचनं श्राणम् अपराहे क्रियामाणं दृश्यते, वैपरीत्ये दोषदर्शनात् । ततश्चेत्थं लोकेऽवश्यकरणीयतयाऽऽवश्यकत्वं तद्वाचक य श्रोतुश्च तदर्थोपयोगपरिणामसत्त्वाद् भावत्वम्, तद्वाचकः भारणक्रियया पुस्तकपत्रादिपरावर्तनरूपया हाताभिनयरूपया च क्रिया युक्ता
शदार्थ-(से) शिप पूछता है कि हे भदंत ! पूर्वप्रक्रान्त (पूर्वप्रस्तुत) लौकिक भावावशयक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(लाइयं भावावस्सयं पुचण्हे भारहं अवरण्हें रामायणं) लौकिक भावावश्यक का स्वरूप ऐसा है कि पूर्वाह में महाभारत का वाचना अथवा श्रवण करना, अमराह में रामाण का वाचन अथवा श्रवण करना । लोकमें • महाभारत का वाचन अथवा उसका श्रवण करना यह काम पूर्वाह्न में देखा जाता है, तथा रामायण का वाचना अपराल में (दूपेर पीछे)। इसके विपरीत करने से दोष का पात्र हेाना पडता है। इस तरह यह काम आवश्यक क ने योग्य होने के कारण अवशयकरूप है, तथा उसके श्रीता और वाचनकर्ता का उसके अर्थ में उपयोगरूप परिणाम के सद्भाव से उनमें भावरूपता है। वाचने वाला
શબ્દાર્થ-શિષ્ય ગુરુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન્! પૂવપ્રસ્તુત લૌકિક ભાવાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે? .. उत्तर-(लाइयं भावास्सयं पुचण्हे भारहं अवरण्हे रामायणं) all भाषाવશ્યકનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-પૂવાહ્ન (દિવસના આગલા ભાગમાં) મહાભારતને વાંચવું અથવા શ્રવણ કરવું અને અપરાહુને (દિવસના પાછલા ભાગમાં) રામાયણને વાંચવું અથવા શ્રવણ કરવું, તે અવશ્ય કરવા એગ્ય હોવાથી આવશ્યક રૂપ ગણાય છે. લેકમાં મહાભારતનું વાંચન અથવા શ્રવણ કરવાનું કાર્ય પૂર્વાદ્ધમાં કરવા યોગ્ય ગણાય છે અને રામાયણનું વાંચન અથવા શ્રવણું કરવાનું કાર્ય અપરાહમાં કરવા
ગ્ય મનાય છે. તેના કરતાં વિપરીત કેમે તે કરવાથી દેષને પાત્ર થવું પડે છે. આ રીતે આ કાર્ય અવશ્ય કરવા યોગ્ય હોવાથી આવશ્યક રૂપ છે, તથા તેના શ્રોતા અને વાચનકર્તાના તેના અર્થમાં ઉપગ રૂપ પરિણામના સદભાવને લીધે તેમાં ભાવરૂપતા પણ હોય છે. વાચનકર્તા તે વખતે ભાષણ કરવાની કિયાથી, પુસ્તકના
For Private and Personal Use Only
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू०२६ लौकिक भावावश्यकनिरूपणम् भवति, श्रोताऽपि च श्रवण-गात्र संयतत्व-करसंपुटीकरणादिनियावान् भवति । एवं तयोः क्रियावत्वेन नो भागमत्वम्, 'किरियाऽऽगमो न होइ" इति वचनात् । क्रियारूपे देशे आगमत्वाभावाद् नोआगमत्वमपि । अत्र ना शब्दस्य देशनिषेधव धकत्वात । लोके भारतादावागमत्वं व्यवहियते, तस्माद्देशत आगमोऽत्यपि । तस्मात् पूवालऽपराह्ने यथानिर्दिष्टकाले भारताधुपयुक्तो यदवश्यं भारतादिकं वाचति शृणं ति वा, तसाचनं श्रवणं च लौकिकं भावावश्यक मिति बाचते समय भाषण क्रिया से, पुस्तक के पन्नों को पलटने आदिरूप क्रिया से, और निज हाथ से इशारा करने रूप अभिनय क्रिया से युक्त होता है। तथा जो श्रोता होते हैं। वे भी श्रवण क्रिया से शरीर को संयत करनेरूप क्रिया से और दोनों हाथों को जोडे रहनेरूप क्रिया से युक्त होते हैं। इस तरह की इन दोनों की इन क्रियाओं में आगमता नहीं है-क्यों कि "किरिया- आगमो न होइ" प्रिया आगम नहीं होती है ऐसा सिद्धात का वचन है। इसलिये क्रियारूप देश में आगमता का अभाव होने से नोआगमता भी हैं । यहां नो शब्द देशनिषेधका बोधक है। परन्तु लोक में महाभारत आदि ग्रन्थों में आगमता का व्यवहार होता है-इसलिये इनमें आगमता भी है। इस तरह क्रिया में आगमता का सद्भाव होने से वहीं आगमता का सद्भाव और कहीं आगमता का अभाव बन जाने से नो एकदेश से आगमता बन जाती है। इस प्राार यथा निर्दिष्ट पूर्वाह्न और आराध काल में भारतादि में उायुक्त हुए व्यक्ति आदि का जा उनका वाचना और सुननारूप आरપાનાંઓ ફેરવવાની ક્રિયાથી યુકત હોય છે, તથા શ્રોતાઓ તે શ્રવણ કરવા રૂપ ક્રિયાથી, શરીરને સંયત કરવા રૂપ ક્રિયાથી અને બંને હાથને જોડી રાખવા રૂપ ક્રિયાથી યુકત હોય છે. આ પ્રકારની વકતા અને ઘાતાની તે ક્રિયાઓમાં આગમतान। सहमा डात नथी ४।२९५ "किरिया आगम न हाइ" " [340 આગમરૂપ હોતી નથી,” આ પ્રકારનું સિદ્ધાન્તનું કથન છે. આ પ્રકારે ક્રિયા રૂપ દેશમાં આગમતાનો અભાવ હોવાથી તેમાં નૈ આગમતાને પણ સહભાવ હોય છે. અહીં “ના” શબ્દ દેશ નિષેધન (અંશત નિષેધન) બોધક છે. પરંતુ લેકમાં મહાભારત આદિ ગ્રંથોમાં આગમતાને વ્યવહાર થાય છે, તે કારણે તેમનામાં આગમતાને સદૂભાવ પણ રહે છે. આ રીતે ક્રિયામાં આગમતાને અભાવ અને મહાભારત આદિમાં આગમતાને સદભાવ હોવાથી એટલે કે એક પ્રકારે આગમતાને સદુભાવ હોવાથી તેમાં નોઆગમતા (એક દેશની અપેક્ષાએ આગમતા) સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારે યથા નિર્દિષ્ટ પૂર્વાહન કાળમાં મહાભારત આદિમાં ઉપયુક્ત (ઉપગ પરિણુમથી યુકત) થયેલ વ્યકિતનું જે તેમના વાચન અને શ્રવણ રૂપ
For Private and Personal Use Only
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१६८
अनुयोगवारसूत्रे
बोध्यम् । तदेतत् निगमयन्नाह - ' से तं लोइयं भावावस्सयं इति । तदेतत् लौकिकं भावावश्यकं वर्णितम् || सू० २६||
कुप्राश्चनिकं भावावश्यकमाह
मूलम् - से किं तं कुप्पावयणियं भावावस्तयं ? कुप्पावयणियं भावावस्यं जे इमे चरगचीरिंग जाव पासंडत्था इज्जंजलि होमजपों दुरुक्कनमोक्कारमाइयाई भावावस्सयाई करें ति । से तं कुष्पावयणियं भावावस्सयं सू० २७॥
छापा - अथ किं तत् कुमावचनिकं भावावश्यकम् ? कुप्रावचनिकं भावावश्यकं य इमे चरकचीरिक या त् पाषण्ड थाः इज्याज्ञ्जलिहोमजपोन्दुरुक्कन मस्कारादिकान भावावश्यकानि कुर्वन्ति । तदेतत कुप्रावचनिकं भाव | वश्यकम् ॥ ० २७॥
शयक कर्म है वह वाचन और श्रवण लौकिक भावावश्यक है । इस तरह एकदेश में आगमता की अपेक्षा लेकर ( से तं लोइयं भावावस्तयं ) यह पूर्व प्रक्रान्त लौकिक भावावश्यक वा वर्णन किया । || मूत्र २६ ॥
अब सूत्रकार कुप्रावनिक भावावश्यक श वर्णन करते हैं । " से किं तं कुप्पावयणिगं" इत्यादि । || सू० २७||
शःदार्थ – (से) शिष्य पूछा हैं कि हे भदंत ! तं (तत्) पूर्व प्रक्रान्त (पूर्वप्रस्तुत ) ( कुप्पावयणियं भावावस्तयं किं) कुप्रावचनिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (कुष्पाणियं भावावस्सयं) कुपाञ्चनिक भागाश्यक का स्वरूप
આવશ્યક કર્મ છે, તે વાંચન અને શ્રવણ લૌકિક ( से तंलाई भावावस) या प्रास्तु नो भागम સદૂભાવવાળા) લૌકિક ભાવાવણ્યનું સ્વરૂપ સમજવુ,
રૂપ કૅપ્રવચનિક ભાષાत्याहि
હવે સૂત્રકાર ને! આગમ ભાવાવણ્યકના બીજા ભેદ वश्यउनु नि३ ४२ छ - " से किं तं कुष्ाव णियं ' शम्हार्थ – (से) शिष्य गुरुने । प्रश्न स्तुत (कुप्पास्यणिय भावावः सयं किं ) प्रावयनिः - ( कुप्पावणियं भावावस्त्रयं ) आवय नि४.
(त) पूर्व प्रान्त-पूर्वलावावश्यम्नु २१३५ ठेवु छे? लावारस्यानु स्व३५ मा प्रा
उत्तर
२ - (जे इमे चरगचीरिंग जाव पासंड था ) ? र, यदि यहि पुत्रे
For Private and Personal Use Only
ભાષાવશ્યક રૂપ હોય છે. (उद्देश३५ आगमताना
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-पृ. २७ कुप्रावचनि कभावावश् यक निरूपणम्
शिष्यः पृच्छति - से किं तं कुप्पावयणिये भाषावस्तयं १' इति । अथः किं तत् कुप्राचचनिक भाषावश्यकम् ? उत्तरमाह- कुमावश्चनिक भाषावश्यक मे विज्ञेयम्य इमे चरकचीरिक याषत् पाषण्डस्था | उपयुक्ताः सन्तो यथावसरं पदमध्यम, इंज्याज लिहोमजपो दुरुक्क नमस्कारादिकानि, भाषावश्यकानि कुर्वन्तीत्यन्वयः । तत्र चरकादयः प्राग्व्याख्याताः । तत्र - इज्या= यज्ञः अञ्जलिः - जलाञ्जलिः सूर्याय दीयते, होम:- नित्यहवनम् जय: = गायन्याः, उन्दुरुकम् - धूपः, धूपदान मित्यर्थः, अयं देशीयः शब्दो धूपार्थकः । नमस्कारः = वन्दनम्, एतान्यादौ येषां तानि भावावश् यकानि कुर्वन्ति । एतानि हि नरकची रिकादिभिः पाषण्डस्थैरवश्यं क्रियमाणत्वादावश्यकानि । तदर्थोपयोग द्धादिपरिणामसद्भावाद भावत्वम् । चरकाfiti तदर्थज्ञानरूपी देशत आगमः, करशिरः संयोगादिक्रियारूपो देशस्तु नोआगमः इस प्रकार से हैं । ( जे इमे चरग चीरिंग जाव पापडत्था) जो ये चरक चीरिक आदि पाषंडस्थ मनुष्य उपयुक्त होकर अवसर के अनुसार (इज्जजलिहो मजपोंदुरुक्कन मोक्कार माइयाई) यज्ञ करते हैं, सूर्य के लिये जलांजलि देते हैं, नित्य हवन करते हैं, गायत्री का जाप करते हैं, अभि में धूप जलाते हैं, तथा वंदना आदिरूप भावावश्यक करते हैं, सो ये सब क्रिम उन are चीरकादिको द्वारा आवश्यककरणीय होने के कारण आवश्यकरूप हैं । तथा इनके अर्थ में जो उनका उपयोग परिणाम लगा रहता है तथा श्रद्धा आदि का भाव जाग्रत रहता हैं- सो इस बारक ये क्रियाएं भावावश्यक रूप
। इस तरह चरक आदि को का जो उन क्रियाओं संबन्धीज्ञान है वह एक देश आगमरूप है । तथा उनका कर और शिर का संयोजनादिरूप जो व्यवहार है कि - क्रियाएं हैं-वह क्रियारूप व्यवहार आगमरूप नहीं हैं-नोપાષડસ્થી (પાખ’ડી) મનુષ્યા ઉપયુકત (ઉપયોગ રૂપ પરિણામ સંપન્ન) थाने अवसरने अनु३५ ( इज्जजलि होमजपों दुरुक्क नमोवका रमाइयाई) यज्ञ रे છે, સુને જલાંજલિ અર્પણ કરે છે, નિત્ય હામદ્ગવન કરે છે, ગાયત્રીના જાપ કર છે, અગ્નિમાં ધૂપ નાખીને તેને મળે છે, તથા વંદના આર્ત્તિ ક્રિયાઓ કરે છે, તે બધી ક્રિયાઓ ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે. આ સઘળી ક્રિયાઓ તે ચર, ચીરિક આદિ પૂકિત લેાકા દ્વારા અવશ્ય કરવા યાગ્ય હોવાને કારણે આવશ્યક રૂપ ગણાય છે. વળી તે ક્રિયાઓમાં તેમના ઉપયાગ પરિણામના પણ સદ્ભાવ રહે છે. અને શ્રદ્ધાદિ લાવા પણ જાગૃત રહે છે. આ કારણે તે ૮ યાઓને ભાવાવશ્યક રૂપ કહે. વામાં આવી છે. તથા તે વખતે તેમના કર અને શિરના યેાજન આદિ રૂપ જે વ્યવહાર અથવા ક્રિયાઓ થાય છે, તે ક્રિયારૂપ વ્યવહાર આગમ રૂપ નથી પણ ના
For Private and Personal Use Only
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगबारको तथा च देशिकागमाभावमाश्रित्य मोआगमस्थमपि । नो शब्दस्यात्रापि देशनिषेध परस्यात् । घरकचीरिकादिभिः पाषण्डस्पैरवश्यं क्रियमाणम् इज्याञ्जलि होमादिक कुमावनिकं भावावश्यकमितिभावः । तदेतत् कु. विचमिकं भावावश्यकं वर्णितमामुः२७॥
आगम है। इस तरह दैशिक आगमके अभाव को लेकर उन क्रियाओं में नोआगमता है । नोआगम का तात्पर्य एकदेश में आगमता का सद्भाव है। अतःचरक, पीरिक आदि पाषंडस्थ पुरुषों द्वारा की गई इज्या (यज्ञ) अंजलि होमादिकरूप एक देश क्रियाओं के ज्ञान में तो आगमता है। इस प्रकार कुप्रावचनिक-भावक का यह स्वरूप है। - भाषार्थ-यहां नोआगम का तात्पर्य सर्वथा आगमाभाव से नहीं है। .. किन्तु एदेशमें आगम के अस्तित्व से है। चरक चीरिकादि पाखण्डी जनों को यज्ञादि क्रियाएँ उनके सिदान्तानुसार अवश् यारणीय होती हैं, वे उन्हे उपयोगपूर्वक करते हैं । उनमें उनकी अटूट श्रद्धा हेती है । इस तरह ये क्रियाएँ भावाव यकसैंप में पडती है और ये सब क्रियाएं उनकी ज्ञान मूलक ही होती हैं । इसलिये इन क्रियाओं के ज्ञानमें तो आगम रहता ही हैं। परन्तु जो और उनकी हस्त शिर की संयोजन आदिरूप क्रियाएं हैं उनमें
-
આગમ રૂપ જ છે, કારણ કે આ ક્રિયાઓ આગમમાન્ય ક્રિયાઓ જ છે. આ રીતે શિક આગમના અભાવની અપેક્ષાએ છે ક્રિયાઓમાં નો આગમતાને સદભાવ હોય છે એમ સમજવું. “ને આગમતા” એટલે એકદેશની અપેક્ષાએ આગમતા. તેથી ચરક, ચીરિક આદિ પૂર્વોકત પાખંડસ્થ પુરુષો દ્વારા કરવામાં આવેલી યજ્ઞ, અંજલિ દ્વારા અભિષેક, હમ આદિ રૂપ એકદેશરૂપ ક્રિયાઓના જ્ઞાનમાં તે આગમતાને સદભાવ છે. તે દૃષ્ટિએ વિચારતા તે ક્રિયાઓ કુપ્રવચનિક ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે. કુપાવચનિક ભાવાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું.
ભાવાર્થ-ને આગમ” આ પદ સર્વથા આગમાભાવતા દર્શાવતું નથી, પણ એકદેશ આગમને સદૂભાવ બતાવે છે. ચરક, ચીરિક આદિ પાખંડી લેકેને માટે યાદિ ક્રિયાઓ તેમના સિદ્ધાન્તાનુસાર અવશ્ય કરણીય ગણાય છે. તેઓ તે ક્રિયાઓ પિગપૂર્વક કરે છે. તેમાં તેમને અતૂટ શ્રદ્ધા હોય છે. આ રીતે આ ક્રિયાઓ
ભાવાવથક રૂપ છીણાય છે, અને તેમની આ બધી ( યાઓ જ્ઞાનમૂલક જ હાથ છે. તેથી તે ક્રિયાઓના જ્ઞાનમાં તે આગમને સદભાવ રહે છે જ પરંતુ એ સિવાયની હસ્તશિરના સજન આદિ રૂપ જ ક્રિયાઓ છે તેમાં આગમરૂપતા હોતી
For Private and Personal Use Only
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. २८ लोकोत्तरिकभाववशयकनिरूपणम्
लोकोत्तरिकं भावावश्यकमाह____ मूलम्-से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं? लोगुत्तरियं भावावस्सयं जपणं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविआ वा तञ्चित्ते तम्मणे लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्रोचउत्ते तदप्पियकरणे त भावणाभाविए अण्णत्थकत्थइमणं अकारेमाणे उभओकालं आवस्स करेंति, तं लोगुत्तरिय भावावस्सयं । से तं नो आगमओ भावावस्सर, से तं भावावस्सय ॥ सू २० ॥
छाया-अथ किं तद् लोकोत्तरिकं भावावश्यकम् ? लोकोत्तरिकं भावावश्यकयत्खलु इमे वणा वा भनण्यो वा श्रावका वा विका या तच्चित्तास्तन्ममसस्तम्लेश्यास्तद्ध्यवसितास्ततीव्राध्यवसानास्तदर्थोपयुक्तास्तदपितकरणास्तद्भानाआगमरूपता नहीं हैं। इस तरह आगम का एकदेश में अस्तित्व लेकर चरकचीरिमदि संबंधी होम आदि क्रियाएं कुप्रावचनिक भावावश्यक हैं ।सू०२७।
अब सूत्रकार लोकोत्तरिक भावावश्यक का कथन करते हैं.. “से कि त लोगुनरियं” इत्यादि । ॥ मू० २८॥ ......
शब्दार्थ-(से) शिष्य पूछना है कि हे भदंत ! लोकाचरिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है? ___उत्तर-(लोगुत्तरियं भावायरसयं) लाकोत्तरिक भागवश्यक का म्वरूप इस प्रकार से है-(जगं इमे समणे वा समणी या सावओ वा साविआ वा) जो ये मण मणी, श्रावक अथवा श्राविका जन (तच्चित्ते) आवश्यक में चित्त लगाकर (तम्मणे) मन लगाकर (तल्लेरसे) નથી. આ રીતે આગમના એકદેશતઃ અસ્તિત્વની અપેક્ષાએ ચરક, ચીરિક આદિ દ્વારા કૃત હેમ, હવન, યજ્ઞ આદિ ક્રિયાઓ કુઝાવચનિક ભાવાવશ્યક રૂપ હોય છે. સુરા - હવે સૂત્રકાર લકત્તરિક ભાવાવશ્યક નામના બે આગમ ભાવાવણ્યકના ત્રીજા सेनु नि३५५४२ छ.' से कि तं लोगुत्तरियं" त्याle- .:...:.
શબ્દાર્થ-(P) શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે પૂર્વ પ્રસ્તુત લેશિક ભાવાવસ્થાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(लागुत्तरिय भावावस्सयं) त२ि४ लावा१श्यनु - प्रार સ્વરૂપ હોય છે
" (जण्ण इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविभा वा) मा श्रम, अभी. Kaibal), श्राप ने श्राविमा (तच्चित्ते) मावश्यमायित्त मीनतम्रणे)
For Private and Personal Use Only
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७३
अनुयोगद्वासन भाविता अन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन्त उभयतः कालम् आवश्कं कुर्वन्ति । तदेतद्
लोकोत्तरिकं भावावश्यकम् । तदेतन्नो आगमता भावादश्यकम् तदेतद् भावाव... क्याम् ॥सू० २८॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं' अथ किं तद् लोकोत्तरिकं भावावश्यकम् ? इति । उत्तरमाह-'लागुत्तरिय' भावावस्सयं' इत्यादि। लोकोत्तरिकं भावावश्यकमेवं विज्ञेयम्, यस्खलु इमे श्नमणा ग श्रमण्यो वा श्राम्गन्तिमुक्त्यर्थ तपन्तीति-श्रमणाः स्त्रियश्चेत् श्रमण्यः-साधवा वा साध्व्यावेत्यर्थः श्रावका वा श्राविका वा, शृण्वन्ति-साधुसमीपे जिनप्रणीता सामाचारीमिति श्रारका श्रमणोपोसकाः, स्त्रियश्चेत् श्राविका श्रमणापासिकाः, वा शब्दाः समुच्चयार्थाः,. तञ्चित्ताः तस्मिन्नेव आवश्यके चित्त सामान्योपयोगरूप येषां ते तथा, आवश्यक सामान्योपयोगवन्तः, तथा तन्मनसः तस्मिन्नेव मनो विशेषा शुभपरिणामरूप लेश्यासंपन्न होकर (तदज्झवसिए) क्रिया संपादन विषयक अध्यघसाययुक्त होकर (तत्ति ज्झरसाणे) तीव्र आत्मपरिणाम विशिष्ट होकर (तट्टोवउत्त) तदर्थ में उपयुक्त होकर (तदप्पियकरणे) तदर्पितकरणबाळे होकर) (तम्भावणाभाविए) तद्भावना से भावित होकर (अण्णत्थकत्थइ मणं अकरेमाणे) अन्य और कहीं पर भी मनको नहीं लगाकर (उभओ कोलं) दोनों समय (आवस्सयं करेंति) आवश्यक करते हैं (से त लोगुत्तरिय भावासयं) वह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। मुक्ति प्राप्ति के निमित्त जो तप तपते हैं उन का नाम "श्राम्यन्तीति श्रमणाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार श्रमण हैं जो साधुओं के समीप जिन प्रणीत सामाचारी का श्रवण करते हैं उनका नाम श्रावक है। ये श्रमणोपासक होते हैं। आवश्यक क्रिया में जिनका सामान्यरूप से उपयोग है, वे श्रमण आदिजन यहाँ "तच्चित्ते" पद के वाच्यार्थ हुए भनवीन (तल्लेस) शुभ परिणाम३५ वेश्या स५.नयन (तदज्झसिए
या पान विषय अध्यवसायथी युति यधने, (तत्तिवज्झवसाणे) तीन मारमा परिणाम युरत थईन, (तदट्ठोवउत्ते) माश्य अर्थमा उपयुत (७५या ३५ पभियुत) ने (तदप्पियकरणे) तपित ४२युत धन (तब्भावणा भाविए) ते प्रा२नी भावनाथी सावित (५-न) धन (अण्णत्थकत्थइ मण अक रेमाणे भने मन्य ७ ५५ स्तुभां मनन सभा हीथा विना, (उभओ कालं) भन्ने समये (आवस्सयं करेंति) 2 मावश्य४ (प्रतिभा माहि अवश्य ४२वा योग्य मिया) ४रे छ, तर सत्तर लावावश्य: ४३ छ. .
હવે આ સૂત્રમાં શ્રમણ આદિ પદેને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે..., .."श्राम्यन्ति इति श्रमणाः' या व्युत्पत्ति प्रमाणे “ भुति भास ४२१॥ નિમિત્ત જેઓ તપ તપે છે તેમને શ્રમણ કહે છે જેઓ સાધુઓની સમીપે જિનપ્રણીત સામાચારીનું શ્રવણ કરે છે તેમને શ્રાવક કહે છે. તેઓ શ્રમણોપાસક હોય છે. આવથફ ક્રિયામાં સામાન્ય રૂપે ઉપગ યુકત હોય એવા શ્રમણ આદિને અહીં "तच्चित्ते" मा पहना वा-या ३२ प्रयुत थयेा समा . रेमो विशेष ३२
For Private and Personal Use Only
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० २८ लोकोत्तरिकभावावश्यक निरूपणम्
पयोगरूपं येषां ते तथा आवश्यके विशेषोपयोगवन्तः, तल्लेश्याः तस्मिन् - आबश्यके एव देवया= शुभपरिणामरूपा येषां ते तथा आश्यके शुभपरिणामवन्तः, तथा - तदध्यवसिताः - तस्मिन्=आवश्यके एव तच्चित्तादिना मध्यवसितम्= अध्यवसायः क्रियासम्पादन विषयेो येषां ते तथा, आक क्रियासंपादनविषयक विचारयुक्ताः, तथा ततीव्राध्यवसानाः - तस्मिन् = आवश्यके एवं बीजं = प्रारम्भकालादेव प्रतिक्षणं प्रवर्धमानम् अध्यवसानम् इदं सकलकर्मनिर्जराजनकं तस्मादवश्यमाश्रयणीय' - मित्माकारक आत्मपरिणामो येषां ते तथा तदर्थोपयुक्ताः - आवश्यक ार्थोपयुक्ताः - 'आवश्यक सामायिक - चनुर्विशतिस्तद-वन्दन-प्रतित्र मणकायोत्सर्ग - प्रत्याख्यानरूपं यदवश्यं शाश्वतमचलमरुजमक्ष यमाबाधममन्दानन्दसन्दोहरूपं शिवसुखं प्रापयति, तस्मादवश्यं सोपयोगं प्रशस्तत र संवेगनिवें द जानना चाहिये। जिनका उपयोग विशेषरूप से आवश्यक क्रिया में लगा हुआ हैं ऐसा श्रमण आदि जन " तम्मणे" इस पद के बर्थ हुए जानना चाहिये । आवश्यक क्रियाओं के संपादन विषयक विचारों से जो युक्त हैं. ऐसे श्रमण आदिजन " तदज्झ सिए" इस पद के वाच्यार्थ हुए जानना चाहिये । तथा जिनका आत्मपरिणाम प्रारम्भकाल से ही इस प्रकार के बिचार से कि यह आश्यक सकलकमों की निर्जरा का जनक है इसलिये अवश्य आश्रयणीय है, प्रतिक्षण वृद्धिंगत होता रहता है वे श्रमण आदिजन ' तत्तिच्वज्झमाणे" इस पद के वाच्यार्थ हुए हैं । आवश्यक में जिन के परिणाम शुभ हैं वे ' तल्लेस्से" पद के वाच्यार्थ - जानना चाहिये । आवश्यक - सामा यिक चतुर्वि ंशतिस्तव, वंदन प्रतिक्रमण, कार्योत्सर्ग इनरूप हैं, सो यह अवश्य, शाश्वत, अचल, अरुन, अक्षय, अव्याबाध और अनन्द आमन्द के सन्दाहरूपशि आवश्यक हियायामां उपयोय युक्त थमेसा छ भेवां श्रमशोने गडी " तम्मणे" આ પદના વાચ્યા રૂપે પ્રયુકત થયેલા સમજવા,
"
આ આવશ્યક આશ્રયણીય છે,' આ પ્રકારની વિચાર ધારાથી જેમનુ આત્મ પરિણામ આરંભકાળથી જ ચુત રહે છે, અને ક્રમે ક્રમે જૈમનુ' આ પ્રકારનું आत्मपरिक्षाम वृद्धि पातु रहेछ, मेषां श्रमवाहिने सही "तत्तिव्वज्झवसाये"
આ પદના વાધ્યાય રૂપ સમજવા. આવશ્યક ક્રિયામાં જેમના પરિણામ શુભ છે એવાં श्रमण महिने अडी “तल्ले से" या पहना वाय्यार्थ ३५ समन्वा
य
“सामायिक, २४ तिर्थ शैनी स्तुति, वन, प्रतिभायु, अर्योत्सर्ग इत्याहि ३५ ने आवश्यक छे, तेथे शार्श्वत, अभ्यास, अरुन, अक्षय, अव्याणाध भने अन् આનંદના સન્દેહરૂપ (સમુદાયરૂપ) શિવ સુખની પ્રાપ્તિ અવશ્ય કરાવી દેનાર છે, અને
For Private and Personal Use Only
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७४
अनुयोगद्वारसूत्रे पूर्वकमाराधनीय-' मित्यात्मपरिणामयुक्ताः इयर्थ । : तथा-तदप्तिकरणा:-- तस्मिन्-आय के अर्पितानि-याथातथ्येन नियुक्तानि करणानि-तत्साधकभूतानि देहरजोहरणसदोरकमुखवत्रिकादीनि यै ते तथा, आवश्यककर्मणि सम्यग्यथा स्थानन्यस्तोपकरणा इत्यर्थः, तथा-तद्भावनामाविताः-तस्य आवश्यकस्य भावनाआवश्यक-सर्वकल्याण-कारणम, अनन्तभवोपार्जित कमरजोऽपहारक-मिति प्रतिक्षण-मनुस्मरणरूपा, तया भाविताः प्रमादपरिहारपूर्वक परमोत्साहेन आवश्यक क्रियाकरणपरायणाः, अन्यत्र कुत्रा · मनः अकुर्वन्तः, उपलक्षण त्गद् वाचं कावं यात्रा कुर्वन्तः उभयकाले यत् विश्यकं कुर्वन्ति तदेतल्लोकोत्तरिकं भावावसुन को प्राप्त करा देता है अतः यह अश्य उपयोगपूर्वक प्रशस्ततर संवेग के साथ निवेदपूर्वक आराधनीय है इस प्रकार के आत्मपरिणामों से जो युक्त हैं ऐसे श्रमण आदिजन "तदट्ठस्वउत्ते' इस पद के वाच्यार्थ हुए हैं । तथा-जिन्हों ने आवश्यक में यथास्थान तत्साधाभूत देह, रजेहरिण, सदारक मुखवस्त्रिका आदिकों को नियुक्त कर रखा है अर्थात् आवश्य क्रया में अच्छी तरह से उ होने यथा स्थान उपकरणों को रखा है ऐसे वे श्रमण आदि जन "तदः पियकरणे" पद के वाच्यार्थ हुए हैं। आवश्यक समस्त कल्याणां । कारण है तथा. अनंत भवेोपार्जित कर्म रज का नाशक है इस प्रकार की प्रतिक्षण में अनुस्मरणरूप भावना से जो प्रमाद परित्यागपूर्वक परमात्साह से आवश्यक किया के करने में परायण बने हुए हैं ऐसे श्रमण आदिजन "तम्भावणाभा-, पिए" पद के वाच्यार्थ हुए हैं। मन यह पद बचन और कायका उपलक्षण.. તે કારણે તે અવશ્ય ઉપગ પૂર્વક પ્રશસ્તતર સંવેગની સાથે, નિવેદપૂર્વક આગ ધનીય છે,” આ પ્રકારના આત્મપરિણામથી જેઓ યુક્ત હોય છે એવાં શ્રમણ awra "तदहोवउत्ते, Ant ! १२ ३३ अ २ नये
આવશ્યક ક્રિયા કરતી વખતે તે ક્રિયાના સાધનભૂત દેહ, રજોહરણ, સરક અહપતી આદિ ઉપકરણોને જેમ થેગ્ય સ્થાને રાખેલાં છે એટલે કે આવશ્યક ક્રિયામાં જેમ ઉપકરણને બરાબર વિચાર પૂર્વક ઉચિક સ્થાને સ્થાપિત કરેલાં છે, તે ANY ने सही "तदपियकरणे' मा पहना पाश्या ३५ समान... - - “આવશ્યક ક્રિયાઓ સમસ્ત કલ્યાણની જનક છે, તથા અનંત ભાજિત કર્મને નાશ કરનારી છે.” આ પ્રકારની પ્રતિક્ષણે અનુસ્મરણ રૂપ ભાવનાથી પ્રેસને જેઓ પ્રમાદના ત્યાગ પૂર્વક અને પરમત્સાહ પૂર્વક આવશ્યક ક્રિયાઓ श्वाने राय मानला छे मेव अभय माहिन "तन्माणाभ विए" ना. पारया ३५ समान. .. .
For Private and Personal Use Only
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २८ लोकोत्तरिकभावावश्यकनिरूपणम् १७५
यकम् मूले समणे या' इत्यादौ बहुत्वे वाच्ये एकवचन निर्देश आर्षत्वात यदि अमणादयस्तच्चित्तादि विशेषग-विशिष्टा उभयकाले प्रतिक्रमणाघावश्यकं कुर्वन्ति तल्लोकोत्तरिफ भारावश्यकम्, शंत संक्षेपार्थः । अत्रापि अवश्य करणात् आप. पथकम् तदुपयोगपरिणामस्य सनावाद् भावरवम्, आवश्यक प्रयोलक्षण देशस्थानोगमन्बाद नोआगमत्वं च बोध्यम् । तदेतल्लोकोसरिक भाषावश्यक पाणितम् एवं विधं नोआगमतो भावावश्यकं निरूपितमिति सूचयितुमाह-'
से को भागमतो भाषावस्सयं' इति । तदेतन्नो आगमतोः भाषावग्यक पणितम् । एवं सर्वथा भावावर यकं निरूपितमिति सूचयितुमाह- से तं भावावस्सयं' इति । हरेहैं। तात्पर्य कहने का यह है कि जे। श्रमण आदिजन तच्चिस आदि विशेपणों से युक्त बनकर दोनों काल प्रतिक्रमग आदि आवयकों को करते है भावाश्यक है। ये क्रियाएँ श्रमण आदि जनोंका अवश्य करने योग्य है पसलिये तो ये आवश्यक है। तथा उनमें इनके करनेपालेका उपयोग परिणाम वर्तमान रहता है इसलिये उसमें भावरूपता है । तथा आवश्यक क्रियाएँ सय आगम रूप नहीं है अन: आवश्यक क्रिया रूप एकदेशमें अनागमता और इनके ज्ञानरूप एक देश में आगमताका सद्भाव होनेसे ना अगमकी अपेक्षा पे आवश्यक क्रियाएँ लोकोतरिकभावावश्यक जाननी चाहिये । इस तरह नामामानका आश्रित करके लोकोत्तरिकभावावश्यकका यहां तकका वर्णन किया। इस प्रकार नागम भावावश्यकका पूर्ण रूपसे वर्णन हो चुका है इस पानकोबतलाने के लिये सूत्रकारने " से तं भावावस्सयं" पदका प्रयोग किया है।
' “મન” આ પદ વચન અને કાયનું ઉપલક્ષક છે. આ સઘળા, કથનનું તાત્પર્ય ॐ छ । २ श्रम, अभी, श्राप भने श्रीविता "तच्चित्त' माति विशेषलायी યુકત બનીને બને કાળે પ્રતિક્રમણ આદિ જે આવશ્યક કરે છે, તે આવશ્ય આગમની અપેક્ષાએ લેકોત્તરિક ભાવાવશ્યક ગણાય છે. આ ક્રિયાએ મણ શ્રમણી શ્રાવક અને જૈવિકેને માટે અવશ્ય કરવા ગ્ય મનાતી હોવાથી તેમને આવશ્યક રૂપ કહી છે. તે આવશ્યક ક્રિયાઓ કરી ના શ્રમણ આદિનું ઉપગ પરિણામ તેમાં વિદ્યમાન રહે છે, તે કારણે તેમાં ભાવરૂપતાને સદૂભાવ હોય છે. તથા આવશ્યક ક્રિયાઓ સ્વયં આગમરૂપ નથી, તેથી આવશ્યક ક્રિયા રૂપ એકદેશમાં અનાગમતા અને તેમના જ્ઞાનરૂપ એક દેશમાં આગમતાને સદ્ભાવ હોવાથી આ આવશ્યક ક્રિયાઓને નેઆગમની અપેક્ષા લેકેતરિક ભાવાવશ્યક રૂપ સમજવી આ રીતે આગમને આશ્રિત કરીને કેસરિય ભાવાવશ્યકતું આ સૂત્રમાં પ્રતિપાદક કરવામાં આવ્યું છે. એજ વાતને સૂત્રકારે “રે तभावावस्स" मा सूत्रपा द्वारा प्रगट छ.. मा सूत्र५४ ये बात सबनी
For Private and Personal Use Only
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१९७६
अनुयोग
तद् भावावश्यक सर्वथा वर्णिनम् । भावावश्यकमेव चतुर्विधसंरुदेयं न तु नामस्थापना द्रव्यावकानि तेषां कर्म निर्जराजनकत्वाभावात् संसारकारण स्वाच्च । तथा भावावश्यकेऽपि आगमतो भावाश्यकं लोकोत्तरिकरूप नोआगमता narar as चेति द्वयमेवापादेयं, न तु - लौकिकं कुप्रावच निकच भागवश्यक मिति सर्वतीर्थंकर राणामभिप्रायः ||४० २८||
भावावयक ही चतुर्विध संघ उपादेय है । नाम स्थापना और द्रव्यरूप आवश्यक उपादेय नहीं है। क्योंकि इनमें कर्म निर्जरा की जनकताका सर्वा -अभाव है अर्थात इनका निमित्त या इनका सेवन करके यदि कोइ प्राणी अपने कर्मो की निर्जरा करना चाहे तो वह नही कर सत्ता है । इसलिये इन्हें संसार वर्ष के कारणोंमें परिगणित किया गया है। भावावश्य में भी आगम भावावश्यक और नोआगमत्रा तृतीय भेद रूप लोक अत्तरिक भागवश्यक ये दोही उपादेय हैं। लौकिक और कुप्रावचनिक भावावश्यक नहीं ऐसा समस्त ate करोंका कथन है ।
भावार्थ: - नोआगम भावावश्यक आवश्यक रूप आगमका सर्वथा अभाव विवक्षित नहीं हुआ है । किन्तु आगमका एकदेशविवक्षित हुआ है । इस नोआगम भावावश्वकके लौकिक कुमावचनिक और लेाकेातरिक ये ३ तीन भेद किये गये हैं । पूर्वाह्न में महाभारतका अपराह्न में रामायणका वाचना ઉપસ'હાર રૂપે પ્રકટ કરે છે કે આ રીતે નાઆગમ લેાકારિક ભાવાવણ્યકનું ''निइपशु गड़ी चु३ थाय छे.
ભાવાવશ્યક જ ચતુર્વિધ સંઘને માટે ઉપાદેય ગણાય છે. નામ, સ્થાપના અને વ્યાવશ્યક ઉપાદેય ગણાતાં નથી, કારણ કે તે ત્રણે આવશ્યકામાં કનિજ રાની જનકતાના સર્વથા અભાવ જ છે. કારણ કે તેમનું સેવન કરવાથી જે કેાઈ જીવ ક્રાંતી નિશ કરવાનું ઇચ્છતા હાય, તે તે રીતે ફર્મીની નિર્જરા કરી શકતા નથી. તે કારણે તે ત્રણે આવશ્યકાને સંસારવન કરનારાં કારણેા રૂપે ગણાવવામાં આવેલ છે. ભાવાવશ્યકમાંથી પણ આગમ ભાવાવશ્યક અને નાઆગમના ત્રીજા ભેદ રૂપ લેાકાન્તરિક ભાવાવશ્યક આ એને જ ઉપાદેય કહી શકાય તેમ છે. લૌકિક અને પ્રાવનિક ભાવાવણ્યકને ઉપાદેય રૂપ ગણી શકાય નહીં, એવુ` સમસ્ત તીથંકરાનુ
मंथन
ભાવાથ–નામાગમ ભાષાવશ્યકમાં આવશ્યક રૂપ આગમના સર્વથા અભાવ નિમિત થતા નથી, પરન્તુ આગમના એક દેશ વવક્ષિત થયા છે. આ નાઆગમ ભાષાવશ્યકના નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ પડે છે (૧) લૌકિક, (૨) કુપ્રાવનિક અને (૩) ઢાકાન્તરિક પૂર્ણાહૂમાં મહાભારતનુ' અને અપરાહ્ણુમાં રામાયણુ' વાંચન
For Private and Personal Use Only
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू०२८ लोकोत्तरिकभावावश्यक निरूपणम्
賣
एवं श्रवण करना ये निर्दिष्ट समय पर क्रियमाण होनेसे आवश्यक रूप इनमें बाचक और श्रोताका जो अर्थोपयोग परिणाम है वह भावरूप हैं । इसलिये वाचक और भाता, कि जिनका ग्रन्थों में उपयोग रूप परिणाम लग रहा हैं वे लौकिक भाषावश्यक हैं। तथा लोकको अपेक्षा भारतादिक आगम मी हैं । इन आगमों में उपयुक्त घने हुए वक्ता और ताजन में उस समय विविध प्रकारकी जो क्रिया होती रह हैं वे आगमरूप नहीं हैं क्योंकि श्रुतज्ञान ही आगमरूप माना गया है । इ तरह एकदेश में आगमकी विद्यमानता हे। नेसे भारतादिकका वाचन aण लौकिक भावावश्यक है । चरक चीरिक आदि पाखंडीजनों द्वारा जो होम यज्ञ आदि क्रियाएं की जाती हैं ये सब उनके लिये उनके मान्य सिद्धान्तानुसार अवश्य पर्तव्य हैं इसलिये ये सब क्रियाएँ आवश्यक हैं । इन आवश्यक क्रियाओं के संपादन करते समय उन संपादन कर्ताओं का उपयोग आदि रूप परिणाम उनमें संलग्न रहता है इसलिये ये भाव हैं । इस तरह ये क्रियाएँ भावावश्यक मान ली जाती है । इनका ज्ञान आगम, और संपादन कर्ताओं की करशिर संयोजनादिरूप क्रियाएँ अनागम हैं । इस प्रकार एकदेशमें आ मताका सद्भाव होनेसे आगम के एकदेशकेा आत करके ये क्रियाएँ कुप्रावचनिक भावावश्यक हैं ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
..
For Private and Personal Use Only
دی
1
અને શ્રવણુ કરવા રૂપ કાર્ય નિર્દિષ્ટ સમયે ક્રિયમાણુ હાવાથી આવશ્યકરૂપ છે. તેમાં વાચક અને શ્રેતાનુ' જે અર્થપયોગ યુકત પરિણામ છે, તે ભાવરૂપ છે. આ કારણે તે ગ્રંથામાં ઉપયેાગ યુકત પરિણામથી યુકત એવાં તે વાચક અને શ્રોતાજના લૌકિક ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે તથા લેાકની અપેક્ષાએ મહાભારત આદિને આગમ પણ ગણુવામાં આવે છે. તે આગમામાં ઉપયુક્ત બનેલા વકતા અને ત્રાતાઓમાં તે સમયે વિવિધ પ્રકારની ક્રિયાઓ થતી રહે છે, તે ક્રિયાએ આગમરૂપ નથી, કારણ કે શ્રુતજ્ઞાનને જ આગમ રૂપ માનવામાં આવ્યુ છે. આ રીતે એકદેશની અપેક્ષાએ માગમની વિદ્યમાનતા હૈાવાના કારણે મહાભારત આદિનું વાંચન અને શ્રમણ નાઆગમ લૌકિક ભાવાવણ્યક' રૂપ છે. ચરક, ચીરિક આદિ પાખડીઓ દ્વારા જે યજ્ઞ, હામ, હવન આદિ ક્રિયાએ કરવામાં આવે છે તે તેમના માન્ય સિદ્ધાન્તાનુસાર તેમને માટે અવસ્ય કરવા ચેાગ્ય મનાય છે. તેથી તે બધી ક્રિયાઓને આવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવે છે. આ આવશ્યક ક્રિયાએ કરતી વખતે તે ક્રિયાએ કરનાર લેાકાના ઉપયાગ આદિ રૂપ પરિણામ તે આવશ્યક ક્રિયાઓમાં સલગ્ન રહે છે, તેથી મા પ્રકારના ભાવથી યુકત તે ક્રિયાઓને ભાવાવશ્યક રૂપ માનવામાં આવે છે. તે ક્રિયાઆનું જ્ઞાન આગમ રૂપ ગણાય છે. અને તે ક્રિયાઓ કરનારની કર શિર સમૈગ આફ્રિ રૂપ એ અનાગમ રૂપ ગણાય છે. આ પ્રકારે એક દેશમાં આગમતાના
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७०
अनुयोगद्वारखो अथ-भावावश्यकस्य पर्यायानाह
मूलम्-तस्स णं इमे एगट्रिया जाणाघोसा णाणावंजणा णामधेजा भवंति, तं जहा
आवस्सयं १, अवस्सकरणिज्जं २, धुवनिग्गहो ३, विसोहीश्य । अज्झयणरक्वग्गो ५, नाओ, आराहणा ७ मग्गो ८॥१॥ समणेणं सावएण य अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा ।
अंते अहो निसस्सय तम्हा आवस्त्यं नाम ॥२॥ से तं आवस्सयं ॥सू० २९॥
चतुविध संघ द्वारा उपयुक्त होकर जो दोनों समय-सुबह और सायङ्काल-प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाए की जाती है वे नाआगमकी अपेक्षा लोकोत्तरिक भावावश्यक हैं संघको ये अवश्य ही उभयकाल में क्रियमाण होनेसे आवश्यक रूप है। कर्त्ता इनमें उपयोग पूर्वक तल्लीन होता है इसलिये इनमें भावरूपता है। इनका ज्ञान उपयोगरूपमें उसे होता है अतः ये आगम रूप है तथा और अवशिष्ट कर शिर संयोजनादि क्रियाएँ आगम रूप नहीं हैं। इस तरह नोआगमको आश्रित करके प्रतिक्रमण आदि यिएँ लोकोत्तरिक भावावश्यक हैं। सूत्र ॥ २८ ॥ સદૂભાવ હોવાથી આગમના એક દેશને આશ્રિત કરીને તે ક્રિયાઓને ને આગમ કુપ્રાવચનિક ભાવાવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવે છે.
ચતુર્વિધ સંઘ ઉપયુક્ત થઈને બને સમય પ્રાતઃકાળે અને સાયંકાળે પ્રતિ ક્રમણ આદિ જે આવશ્યક ક્રિયાઓ કરે છે, તે ક્રિયાઓ નેઆગમની અપેક્ષાએ લેકોરિક ભાવાવશ્યક રૂપ છે. બન્ને કાળે શ્રમણાદિ દ્વારા તે અવશ્ય કરવા ગ્ય હોવાથી આવશ્યક રૂપ છે. કર્તા તેમાં ઉપગ પૂર્વક તહલીન થઈ જાય છે, તેથી તેમાં ભાવરૂપતા છે. તે ક્રિયાઓના જ્ઞાનને ઉપગ રૂપે તેનામાં સદ્દભાવ હોય છે, તેથી તે ક્રિયાઓ આગમરૂપ છે, તથા બીજી કર શિર સંજન આદિ ક્રિયાઓ આગમરૂપ નથી. આ રીતે ન આગમને આશ્રિત કરીને પ્રતિક્રમણ આદિ ક્રિયાઓ લેકેતરિક ભાવાવશ્યક રૂપ છે, એટલે કે તે પ્રતિક્રમણ આદિ આવશ્યક ક્રિયાઓ નોઆગમ લકત્તરિક ભાવાવશ્યક રૂપ છે, એમ સમજવું. એ સૂ. ૨૮ છે
For Private and Personal Use Only
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू०२९ भावावश्यकपर्यायनिरूपणम्
१७९ ___ छाया-तस्य खलु इमानि एकाथिकानि नानाघोषाणि नानाव्यजनानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा--
आवश्यकम् १ अवश्यकरणीयम् २ ध्रुवनिग्रहो ३ विशोधिश्च ४।
अध्ययनपङ्कवर्गः ५ न्यायः ६ आराधना ७ मार्गः ८ ॥१॥ श्रमणेन श्रावकेण च अवश्यकर्त्तव्यकं भवति यस्मात् ।
अन्तेऽहनि शस्य तस्मादावश्यकं नाम ॥२॥ तदेतदावश्यकम् ॥ सू० २९॥
अब सूत्रकार भावावश्यकका पर्यायों को कहते हैं"तस्सणं इमे" इत्यादि ! सूत्र ॥ २९॥
शब्दार्थ:-(तस्स गं) उस आवश्यक के (इमे) ये वक्ष्यमाण (एगडिया) एक अर्थवाले (नामधेज्जा) नाम हैं। ये नाम (णाणा घोसा णाणा वंजणा) भिन्न २ उदात्त आदि स्वरों एवं कार आदि अनेक व्यजनोंसे सहित हैं। (तंजहा) वे इस प्रकारसे है।-(आवरसयं) १ आव.यक (अवस्स करणिज्ज५) अवश्यकरणीय, (धुवनिग्गहो) ध्रुवनिग्रह ३, (विसाही य) विशोधि ४ अज्झयण छक्कवग्गो)अध्ययनषट्कवर्ग ५, (नाओ) न्याय ६, (आराहणा) आराधना ७, (मग्गो) मार्ग इनमें आवश्यक शब्दका अर्थ (से किं तं आवस्सयं) इसके पहिले नावेसूत्र में स्पष्ट कर दिया गया है। अवश्यकरणीय-मोक्षार्थी जनों द्वारा यह नियमसे अनुष्टेय (करने योग्य) होता है इसलिये इसका नाम अवश्यकरणीय है। ध्रुव હવે સૂત્રકાર ભાવાવશ્યકના પર્યાયવાચી શબ્દોનું નિરૂપણ કરે—
"तस्सणं इमे" त्याहि
(तस्सणं इमे एगढिया नामधेज्जा) ते मापश्यना नीय प्रमाणे : नामा छ
(णाणा घोसा णाणा वंजणा) ते नाभो ॥ त माह २५२। भने ४४२ मा भने व्यनाथी युइत छ. (तंजहा) ते नाम नाथे प्रभा छ(आवस्सयं) (१) आवश्य४, (अवस्सकरणिज्ज) (२) मा१२५ ४२७॥य, (धुवनिग्गहो)पनिड, (विसाहोय) (४) विधि, (अज्झयणछक्कवग्गो) (५) अध्ययषट् , (नाओ) (६) न्याय, (आराहणा) (७) माराधना मने (मग्गो) भाग (१) 'मा११५४' 20 पहने। म “से किं तं आवस्सयं" - प्रभसूत्रथा १३ यता નવમાં સૂત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. (૨) “અવશ્યકરણીય-મેક્ષાથી જને દ્વારા તે અવશ્ય અનુદ્ધેય (અનુષ્ઠાન કરવા ગ્ય, આચરણય) હોય છે, તેથી તેનું અવશ્વકરણીય નામ પડ્યું છે.
For Private and Personal Use Only
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८०
अनुयोगद्वारसूत्रे टीका-'तस्स गं' इत्यादि
तस्य आवश्यकस्य खलु इमानि वक्ष्यमाणानि नानाघोषाणि-नाना=अनेक विधाः भिन्ना भिन्ना इति यावत्, घोषाः-उदात्तादिस्वराः येषां तानि तथाभिन्नाभिन्नोदात्तादिस्वरयुक्तानि, तथा-नानाव्यञ्जनानि-नाना अनेकविधानि व्यञ्जनानिककारादीनि येषां तानि तथा-कारादिभिन्नभिन्नव्यञ्जनसहितानि एकाथिकानि-परमार्थत एकार्थविषयाणि नामधेयाणि-नामानि-पर्यायाः भवन्ति । तद्यथा-आवश्यकम् १ अवश्यकरणीयम२ ध्रुवनिग्रहो३ विशाधिश्व४ अध्ययनषकवर्गों५ न्यायः६ आराधना७ मार्गः८ । इति । अयमर्थः-आवश्यकम्, अस्य शब्दार्थ:'से किं तं आवस्सयं' इत्यत्र प्राग् वर्णितः ॥१॥ अवश्यकरणीयम-मोक्षार्थिमिनियमेनानुष्ठेयत्वात्-अवश्य करणीयम् ॥२॥ ध्रुवनिग्रहः-अनादित्वात् चिदपर्यवलितत्वाद् ध्रुवं-कर्म तत्फलभूतः संसारो वा, तस्य निग्रहः-निग्रहहेतुत्वात निग्रहः, ध्रुवनिग्रहः-चतुर्गतिकसंसारनिवारकः ॥३॥ विशोधिः-विशोधनं विशोधिस्तद्हेतुत्वाद् आवश्यकं विशोधिः तस्य कर्ममलापहारकत्वात् ॥४॥अध्ययनषकवर्गः-अध्ययनापर्कम् अध्ययनषट्कम् तद्रूपा वर्गः अध्ययनषट्कर्वगः-सामायिकादिषडध्ययनसमूहरूपः ॥५॥ न्याय अभीष्टार्थसिद्धेः सम्पगुपायत्वाद् न्यायः यद्वानिग्रह-अनादि होने के एवं नाना जीवों की अपेक्षा पर्यवसानसे रहित होने के कारण ध्रुवनामकर्म या कर्म के फलभूत संसार है। इस कर्मका या उसके फलभूत संसारका निग्रह इससे होता है, इसलिये इसका नाम ध्रुवनिग्रह है। विशोधि- कर्मरूप मल की अपइति (निवृत्ति) इससे होती है- इसलिये इसका माम विशोधि है। यह सामायिक आदि छह अध्ययन समूह रूप है-इसलिये इसका नाम अध्ययनषट्क दर्ग है। अभीष्ट अर्थ की सिद्धिका यह सबसे भला उपाय हैं इसलिये इसका नाम न्याय है-अथवा जीव और कर्म के अनादिका| (૩)મવનિગ્રહ-કર્મ અથવા કમના ફલસ્વરૂપ સંસારનું નામ ધ્રુવ છે, કારણ કે કર્મ અને સંસાર, આ બને અનાદિ અને વિવિધ જીની અપેક્ષાએ પર્યવસાનથી રહિત (અનંત) છે. એવા અનાદિ અનંત કર્મને અથવા કર્મના ફલસૂત સંસારને નિગ્રહ આ આવશ્યક ક્રિયાઓ વડે થાય છે, તેથી તેનું ત્રીજુ નામ 'ध्रुपनि छ.
() વિધિ–તેના દ્વારા કર્મરૂપી મળની નિવૃત્તિ અથવા વિશુદ્ધિ થાય છે, तथी त याथु नाम "विशाधि" छे.
(૫) “અધ્યયનષક વર્ગ-તે સામાયિક આદિ ૬ અધ્યયનના સમૂહપ હેવાથી તેવું પાંચમું નામ “અધ્યયનષક વર્ગ છે.
(૬) “ન્યાય—અભીષ્ટ અર્થની સિદ્ધિના સૌથી સારો ઉપાય રૂપ હોવાને કારણે
For Private and Personal Use Only
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका २९ भावावश्यकपर्यायनिरूपणम् जीवकर्मसंबन्धापनयनानायः-यथाथि प्रत्यार्थिनोयोरपि क्षेत्रधनादिसम्बन्धिकं चिरकालिकमपि विवादं न्यायाध्यक्षदृष्टो यायो रुपनयति, तथैवावश्यकमपि जीतकर्मणारनादिकालिगमायाश्रयि भाव सम्बन्धमपनयतीति-आश्श्य मपि न्याय इत्युच्यते ॥६॥ आराधना-मेक्षिाराधना हेतुत्वाद। श्यकम् आराधना ॥७॥ मार्ग:-तथा मार्गों नगरं प्रापयति, तथैवावश्यकमपि मेक्षिं प्रापयतीति मोक्षरूपपुरप्रापकत्वात् आवश्यकं मार्गः इति ॥८॥
सम्प्रति-प्रावश्यकपदस्य शब्दार्थः सूत्रकारः म्वयमेव प्रदर्शयति-'समणेणं' इत्यादि । श्रमणेन-साधुना नाकेग, चकारस्योपलक्षणत्वात् -श्रमण्या श्राविकया च यस्म त् अहर्निशस्य अहोरात्रस्य अन्ते अरसाने दिवसान्ते राज्यन्ते चे लीन संबन्धको यह दूर कर देता है-जिस प्रकार वादि प्रतिवादी के बहुत समय का भी क्षेत्र, धन आदि संबन्धी विवादको न्यायाध्यक्ष न्याय के बल पर दूर कर देता है-उसी प्रकार आवश्यक भी जीव और कर्म के अनादिकालीन आश्रयाश्रयिभावरूप संबन्धको दूर कर देता है-इसलिये इसका नाम भी न्याय है। मोक्षकी आराधना व रनेका यह हेतु है । इसलिये इसका नाम आराधना है। जिस प्रकार मार्ग पथिकका नगर में पहुँचा देता है उसी प्रकार आवश्यक भी मोक्ष रूप नगर में अपने पथिकका पहुंचा देता है-इसलिये इसका नाम-मार्ग है। आवश्यक शब्दका क्या अर्थ है-इस बातको अब मुत्रकार प्रकट करते हैं (रामणेणं सावएणं य) श्रमण, श्रावक के द्वारा यह (जम्हा) जिस कारणसे (अहोनिसस्स अंते) दिवसान्त और निशान्त में (अस्सकाप होइ) अपश्य करणीय होता है (तम्हा) इसकारण से (आवस्सयं नाम) इसका તેનું છઠું નામ “ન્યાય અથવા-જેવી રીતે ન્યાયાધીશ વાદી અને પ્રતિવાદીના જર, જમીન આદિ વિવાદને ન્યાયને આધારે દૂર કરી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે આવશ્યક પણ જીવ અને કર્મના અનાદિ કાલિન આશ્રયાશ્રયી ભાવરૂપ સંબંધને દૂર કરી નાખે છે. તેથી આવશ્યકનું છઠ્ઠું નામ “ન્યાય છે.
(७) 'माराधना-मोक्षनी माराधना ४२वामां आवश्य हेतु३५ (साधन३५) થઈ પડે છે, તેથી તેનું સાતમું નામ “આરાધના” છે.
(૮) “માર્ગ–જેવી રીતે માર્ગ પથિકને ગરમાં પહોંચાડી દે છે, એ જ પ્રમાણે આવશ્યક પણ તેને આરાધક જીવને મિક્ષ રૂપ નગરમાં પહોંચાડી દે છે, તેથી તેનું આઠમું નામ માર્ગ છે. આવશ્યક શબ્દને શો અર્થ છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે छ(सवणेणं सायएणं य) श्रमाय भने श्रा१४ ॥ ते (जम्हा) रे ॥२९ (अहो निसरस अंते) पिसने मन्ते भने त्रिने मन्ते (अवस्स कायव्वं हाइ) म१श्य
For Private and Personal Use Only
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारमत्रे त्यर्थः, अवश्यकर्त्तव्यकम अवश्यं करणीयं भवति, तस्मात् अस्य आवश्यकं नाम भवति । तदेतदावश्यकम्-'आवस्सथं निक्खिविस्सामि' इति यत्प्रतिज्ञातं तदेवं नामादिभेदैरावश्यक निक्षिप्य वर्णितम् । इस्थमनुयोगद्वारसूत्रे आवश्यकाधिकारः संपूर्ण ॥ सू० २९ ॥
'सुयं निक्विविस्सामि' इति प्रतिज्ञानुसारेण श्रताधिकारइ प्रारभ्यते-तत्र प्रथमं श्रुतस्वरूपं निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं सुयं ? सुयं चउव्यिहं पण्णत्तं, तं जहा-नामसुयं, ठवणासुयं, दव्वसुय, भावसुयं ॥सू० ३०॥
छाया--अथ किं तत् श्रुमम् ? शृंत चतुर्विधं प्रज्ञप्तम, तद्यथा- नामश्रुतम्, स्थापनाश्रुतम्, द्रव्यश्रुत, भावश्रुतम् ॥ सू० ३०॥
टीका--'से कि त सुर्य' इत्यादि-व्याख्या निगदसिद्धा ॥सू० ३०॥ नामआवश्यक है । (से तं आवम्सय) "आवस्सयं निक्खिविस्सामि" इसप्रकार की जो सूत्रकार ने पहिले कहा है उसी के अनुसार नाम, स्थापना आदि भेदों द्वारा आवश्यका न्यास करके वर्णन किया हैं । इस प्रकार से अनुयोगद्वार सूत्र में आय का धिकार समाप्त हुआ। सूत्र० २९ ॥
अब सूत्रकार " सुयं निक्खिविस्समि'' इस कथन के अनुसार श्रुताधिकार प्रारंभ करते हैं-इसके पहिले वे श्रुत के स्वरूपको निरूपण करने के लिये “से किं तं सुय, इत्यादि। सूत्र कहते है
"से किं तं सुयं ?' इत्यादि । ॥ सूत्र ३० ॥ शब्दार्थः-(से) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त ! श्रुतका क्या स्वरूप है?
उत्तर-(सुयं चउविहं पण्णत्तं) श्रुत चार प्रकारका कहा गया है ४२९णीय डाय छ, (तम्हा)ते ४२ (आवरसय नाम) तेनु नाम मावश्य छे. (से तं "आवस्सयं 'आवस्सयं निविखवि सामि' मा प्रारे सूत्रारे पडेसांघुछ ते અનુસાર નામ ઉથાપના આદિ ભેદે દ્વારા આવશ્યકને ન્યાસ (વિભાગ) કરીને વણ ન કર્યું છે આ પ્રકારે અનુગદ્વાર સૂત્રને આવશ્યક અધિકાર અહીં સમાપ્ત થાય છે. જે ૨૯ છે
हवे सूत्रा२ "सुयं निक्विविस्सामि" l ४थन अनुसार श्रुताधिरना પ્રારંભ કરે છે સૌથી પહેલાં તેઓ શ્રતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવા નિમિત્તે “ किं तं सुयं" त्या सूत्र ४ छ– “से किं तं सुथं?" त्या - - शार्थ-(से किं तं सुयं ?) शिष्य गुरुने यो प्रश्न पूछे छ है '3 Herd! इतनु २१३५ 3 छ?
For Private and Personal Use Only
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका दीका सूत्र ३१ जामश्रुतनिरूपणम्
तत्र नाम। निरूपयति -
मूलम-से किं तं नामसुय ? नामसुयं जस्स णं जीवस्स वा जाव सुएत्ति नाम कज्जइ, ॥सू०३१॥
___ छाया-प्रथ किं तद् नामश्रुतम् ? नामश्रुत यस्य खलु जीवस्य वा यावत् श्रुतेति नाम क्रियते, तदेतत् नामश्रतम् ॥सू० ३१॥
टीका-से कि ' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा ॥ मु० ३१॥ अथ स्थापनाश्रुतं निरूपयति
मूलम्-से कि तं ठवणासुयं ? ठवणासुयं जपणं कटकम्मे वा जाव ठवणा ठविज्जइ, से तं ठवणासु । नामठवणाणं को पइविसेसो? नाम आवकहियं,ठवणा इत्तरिय होजा आवकहिया वा ।सू०३२॥ (तं जहा) उसके वे चार प्रकार ये हैं-(नामसुयं ठवणासुयं-दव्वसुयं भावसुयं) नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, द्रव्य त और भाव त ।॥ मूत्र ३० ॥
नाम श्रनका क्या स्वरूप है इस बातको सूत्रकार प्रकट करते हैं'से कि तं नान सुय' इत्यादि । ॥ सूत्र ३१ ॥
शब्दार्थ:- हे अदंत ! नाम त का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(नामसुय) नाम श्रुतका स्वरूप इस प्रकार से है (जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जाव सुएत्ति नाम कज्जइ) जिस किसी जीव अथवा अजाव आदि का त ऐसा जो नाम रख लिया जाता है। इसकी व्यारा न मापक की तरह जाननी चाहिये ।। सूत्र ३१॥
उत्तर-(सुयं चउबिहं पण्णतं) श्रुत या२ ५२नु ज्यु छ (तंजहा) ते यार ५४२॥ नाथे प्रमाणे छ-(नाम सुयं, ठवणासुर्य, दब्बसुयं, भावसुयं, (१) नाम श्रुत (२) २थापनाश्रुत, (3) द्रव्यश्रुत, अने (४) भापत. ॥ सू० ३० ॥
હવે સૂત્રકાર મિશ્રતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
"से किं तं नामसुय?" त्याह
શબ્દાર્થ-શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન ! નામકૃતનું કેવું २१३५ छ ?
उत्तर-(नामसुय)नामश्रुतनु २१३५ । प्रानु छ-(जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जाव सुरा ति नाम कज्जा) २ ४१२१८ २००१ माहनु “ ત” એવું જે નામ રાખવામાં આવે છે તેને નામ તે કહે છે. આ નામથતની વ્યાખ્યા મ આવશ્યકની વ્યાખ્યા અનુસાર જ સમજી લેવી. | સૂ૦ ૩૧ છે
For Private and Personal Use Only
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
१८४
अनुयोगदारसत्रे छाया-थ किं तत् स्थापनाश्रुतम् ? स्थापनाश्रुतं यत्खलु काष्ठकर्मणि घा यावत् स्थापना स्थाप्यते, तदेतत् स्थापनाश्रुतम् । नामस्थापनयोः काप्रति विशेषः १ नाम यावत्कथिकम. स्थापना इल्वरिका वा भवेत् , यावत्कथिका वा ॥१०३१
टोका-से कि तं ठपणासु ' इत्यादि-व्याख्या प्राग्वत् ॥ सू०३२॥ दृष्यश्रत निरूपयितुमाह--
मूलम्-से कि तं दव्वसुयं ? दव्वसुयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा -आगमओ य नो आगमओ य ॥सू० ३३॥
छाया--अथ किं तद् द्रव्यश्रुतम १ द्रव्यश्रतं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाआगमतश्च नो आगमतश्च ॥ सू० ३३॥
स्थापना श्रुत का स्वरूप क्या है इस बातका सूत्रधार निरूपण करते हैं"से कि तं" इत्यादि ।। मूत्र ३२ ॥
शब्दार्थ:-से( क तं )हे भदन्त ! स्थापना श्रुत का क्या स्वरूप हैं ? उत्तरः-(ठवणासुय) स्थापनाश्रत का स्वरूप इस प्रकार से है (जण्णं) जो (कट्टकम्मे वा जाव ठरणाठविजइ) काष्ठ आदि में " यह त है" इस प्रकार की जो कल्पना या आरोप किया जाता है (से तं ठवणासुयं) वह स्थापना श्रुत है। गाम ठवणाणं को पइविसेसो) नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? . ___ उत्तरः-(नाम आवकहियं या ठवणा इत्तरिया वा होज्जा) नाम यावत्कथिक होता है और स्थापना यावत्कथिक/और इत्वरिक दोनों प्रकार की होती है। इसकी व्याख्या बारहवें मत्र की तरह जाननी चाहिये । ॥ सूत्र ३२ ॥
હવે સત્રકાર સ્થાપના શ્રતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે - "से किंत ठपणासुयं?" त्याहि
शाय-(से किं तं) त्या-शिष्य शुरुने मेवे। प्रश्न पूछे छे । समपन्! स्थापनातनु २१३५ छ ? (कटकम्मे वा जाव ठवणा उविज्जइ) 03 આદિમા “આ શ્રવ છે” આ પ્રકારની જે કલ્પના અથવા આરોપ કરવામાં આવે छ (से तं ठवणासुयं तेने स्थापनावत' ४७ छ (णाम ठवणाणं को पइविसेसा) હે ભગવન્! નામ અને સ્થાપના વચ્ચે તફાવત છે?
उत्तर-(नाम आवक हियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा) नाम याथि હોય છે. અને સ્થાપના યાવસ્કથિક અને ઈરિક, આ બંને પ્રકારની હોય છે. આ સત્રનું વિશેષ વિવેચન તથા આ સૂત્રને ભાયાથે બારમાં સૂત્રમાં (સ્થાપના આવશ્યક સૂત્રમાં) કહ્યા અનુસાર સમજે. | સુર ૩૨ છે
For Private and Personal Use Only
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रपोगचन्द्रिका टीका सूत्र ३४ आगमतो द्रव्य श्रुतनिरूपणम्
टीका-'से कि ते दव्वयं' इत्यादि। व्याख्या प्राग्वत् ॥ सू० ३३॥
-आगमतो द्रव्यभुतं निरूपयति
मूलम्-से कि तं आगमओ दडवसुयं ? आगमओ दठवसुयं जस्सणं सुएत्ति पयं सिक्खियं ठियं जिय जाव णो अणुप्पेहाए का? अणुवओगो दवमिति कटु, नेगमस्स गं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वसुयं जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ । से तं आगमओ दव्वसुय ।सू० ३४॥ . ... छाया-अथ किं तदागमतो द्रव्यश्रुतम्, आगमतो द्रव्यभुतं-यस्य खलु भतेति पदं शिक्षितं स्थितं जितं यावत् नो अनुप्रेक्षया, कस्मात् ? अनुपयोगो
शब्दार्थ-(से कि त) हे भदन्त ! द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ?
उत्तर:-(दध्वसुयं दुविहं पण्णत्त) द्रव्यश्रुत दो प्रकारका कहा गया है। (तंजहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(आगमओ य नोआगमओ य) १ आगम को अश्रित कर के द्रव्यश्रुत होता है और दूसरा नोआगम को आश्रित करके द्राश्रुत होता है । इसकी व्याख्या पहिले की तरह जाननी चाहिये । ॥सूत्र ३३॥
अब सूत्रकार आगम की अपेक्षा कर के द्रव्यश्रुतका निरूपण करते हैं• “से किं तं आगमओ दव्वसुयं" इत्यादि।॥ मुत्र ३४ ॥
शब्दार्थ:-से किं तं) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त । आगम का आश्रय करके जो द्रव्यश्रुत होता है उसका क्या स्वरूप है ? હવે સૂત્રકાર વ્યકૃતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે"से किं तं दब्वसुयं ?" त्याह
हाथ-(से किं तं दरसुयं?) सावन् ! द्रव्यश्रुत -१३५ ४ छ? . उत्तर-(दव्वसुयं दुरिहं पण्णत्त) द्रव्यश्रुतना मे १२ ४॥ छ. (तंजहा) ते मे । नीय प्रमाणे छ (आगमओ य नोआगमओय) (१) आमने माश्रित કરીને દ્રવ્યથત હોય છે, અને (૨) આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યશ્રત હોય છે. તેની વ્યાખ્યા આવશ્યક સૂત્રમાં આગળ કહ્યા પ્રમાણે સમજવી. | સૂ૦ ૩૩ - હવે સત્રકાર આગમને આશ્રિત જે વ્યથત છે તેનું નીચે પ્રમાણે નિરૂપણ ४३ -"से कि त आगमओ दव्वसुय" त्या
Avat-(से कि त आगमओ दब्वसुय?) शिष्य गुरुने मे पूछ છે કે હે ભગવન્! આગમને આશ્રય કરીને જે દ્રવ્યશ્રત હોય છે, તે દ્રવ્યથુતનું કેવું વરૂપ છે?
For Private and Personal Use Only
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगहारले द्रव्यमिति कृत्वा, नैगमस्य खलु एकोऽनुपयुक्त आगमत एकं दुष्र श्रुतं यावत् कस्मात् ? यदि ज्ञायकः अनुपयुक्तो न भवति । तदेतदागमतो द्रव्य श्रुतम् ।सू०३४॥
टीका--से किं तं आगमओ दव्यसुर्य' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ॥स०३४॥ उनमागमयो द्रष्यभुतम् । अथ नो आगमतो द्रव्यश्रुतमाह
मूलम्-से कि त नो आगमओ दध्वसुयं ? नो आगमको दषसुयः तिविह पक्षणसं, त जहा-जाणयसरीरदव्वसुय', भविषसरीरदासुयं, जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्तं दव्यसुयं ।सू०३।।
उत्तर:-(आजमओ दव्वसुर्य) आगमका आश्रय कर के द्रव्यश्रुत का स्मरण इस प्रकार से है-(जस्स णं सुएति पय सिविखयं ठियं जियं जाब णो अणुप्पेहाए) जिस साधु आदि को श्रुनपद शिक्षित है स्थित है जित है। यात्पद से मित है, परिजित है नामसम है, धेषसम है, अहीनाक्षर है, अनरक्षर है,अव्याविद्धाक्षर (उलट पुलट पनेसे रहित) है, अस्खलित है, अमिलित है, अव्यत्यानेडित है, परिपूर्ण घोषवाला है. व ण्ठो ठविप्रमुक्त है, और गुरुवाचनोपगत है । इसतरह वह साधु आदि वाचना से पृच्छनासे परिवर्तना (आवृत्ति)से और धर्मकथा से उसमें वर्तमान हैं परन्तु उपयोग से वर्तमान नहीं हैं, अतः उपयोग से रहित हं ने के कारण वह साधु आगम को आश्रित कर के द्रव्यश्रुत माना गया है । (कम्हा) क्योंकि (अणुवओगो दवमिति कटु) ऐसा आगम का बचन हैं कि जो उपयोग से रहित होता है वह द्रव्य माना जाता है। इसकी व्याख्या १४ व सूत्र के समान जाननी चाहिये। सूत्र ॥ ३४ ॥
उत्तर-(आगमओ दव्वसुय) मागभने। पाश्रय शेने द्रव्यवतनु । પ્રકારનું સ્વરૂપ છે –
(जस्स णं सुएत्ति पय सिक्खियं ठिय जिय जाव णो अणुप्पेहाए) २ સાધુ અદિને થતપદ શિક્ષિત છે, સ્થિત છે, જિત છે, મિત છે, પરિજિત છે, નામસમ છે, ઘોષસમ છે, અહીનાક્ષર છે, અનત્યક્ષર છે, અન્યાવિદ્ધાક્ષર અખલિત छ, भिसित छ, भव्यत्याडित छ, परिवाषयुत छ, ४ 818 विप्रभुत छ, અને ગુરુવાચનપગત છે, આ રીતે તે સાધુ આદિ વાચનાથી, પરિવર્તનાથી પૃચ્છ નથી, પરિવર્તનથી અને ધર્મકથાથી તેમાં વર્તમાન છે, પરંતુ ઉપગ પરિણભથી તેમાં વર્તમાન પ્રવૃત્ત) નથી, અને તેથી ઉપગથી રહિત હેવાને કારણે તે સાધુને भागभनी अपेक्षाये द्रव्यश्रुत मानपामा माने छ; (फम्हा) २५३ (अणुवओगो दव्वमिति कई) मारमनु मे ययन छ ३२ ५५यायी २हित य छઅનુપચુકત પરિણામવાળો હોય છે તેને દ્રવ્યરૂપ માનવો જોઈએ. આ રાત્રમાં વપરાયેલાં પદોને ભાવાર્થ ૧૪માં સૂત્રમાં આપ્યા પ્રમાણે સમજવે. સૂ૦ ૩૪
-
For Private and Personal Use Only
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ३५ नोआगमनो द्रव्यश्रुतनिरूपणंं
૮૭
हाथ -- अथ किं तद् नो आगमतो द्रव्यश्रुतम् ? नो आगमतो द्रव्य भुतं त्रिविधं प्रज्ञप्तम् तद्यथा - ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतम् भव्य शरीरद्रव्यश्रुतम् ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्य तम् ||सू० ३५||
टीका - - 'से किं त' नोआगमओ दव्वसुर्य' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् । ४०३५| अथ ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतमाह-
मूलम् - से किं तं जाणयसरीरदव्वसुयं ? जाणयसरीरदव्वसुयं सुयत्तिपयत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचतदेहं तं चैव पुरुवभणियं भाणियव्वं जाव से तं जाणयसरीरदव्वसु ॥ सू० ३६ ॥
હવે ત્રકાર નાઆગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યમ્રુતનું નિરૂપણ કરે " से किं तं नोआगमओ दव्वसुय?" छाय
"
अब सूत्रकार नोआगम को आश्रित करके द्रव्यश्रुत का कथन करते हैं"से कि तं नोआगमओ दव्वसुयं" इत्यादि । सूत्र ३५ ॥
शब्दार्थ : - (सेति) हे भदन्त ! नोआगम को आश्रित करके द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है ? (नोआगमओ दव्वसुर्य) नोआगम को आश्रित करके द्रव्यश्रुत (तिविहं पण्णत्तं ) ३ तीन प्रकार का कहा है । ( तं जहा ) वे प्रकार ये हैं - ( जाणयसरीरदव्यसुयं भविय सरीरदन्यसुर्य, जाणयसरीर - भवियसरीरखइरिनं दव्वसुर्य) ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत, भव्यशरीरः व्यश्रुत, और ज्ञायकशरीरभव्यशरीर इन दोनों से व्यतिरितद्रव्यश्रुत | इस सूत्र की व्याख्या पहिले कहे हुए १६ वे सूत्र की व्याख्या के अनुसार जाननी चाहिये । ॥ सू ३५ ॥
For Private and Personal Use Only
છે.
--
शब्दार्थ - ( से किं तं) धत्याहि शिष्य गुरुने थे। प्रश्न पूछे ! हे लढत ! નાઆગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યશ્રુતનુ સ્વરૂપ કેવુ' છે?
उत्तर- (आगमओ दव्वसुय तिहि पण्णत्तं) नाभागभने आश्रित उरीने द्रव्यश्रुतना नाशु अमर उद्या ते. (तं जहा) ते प्रमाणे छे
अनी
"
दव्वसुय)
( जाण सरीरदध्वसुर्य भवियसरीरदध्वसुर्य जाणयसरीरवइरित्तं (१) ज्ञाय शरीर द्रव्यश्रुत, (२) लव्यशरीर द्रव्यश्रत्र, मने ( 3 ) ज्ञाय शरीर अने ભયશરીરથી ભિન્ન એવુ' દ્રવ્યશ્રત આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગળ ૧૬ માં સૂત્રની જે વ્યાખ્યા આપવામા આવી છે, તે વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી. ।। સુ૦ ૩૫ ॥
-
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८४
अनुयोगबारसने - छाया--अथ किं तद् ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतम् ? ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतंश्रुतेति पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं तदेव पूर्वभणित भणितव्यं यावत, तदेतत् ज्ञायकश्रीरद्रव्यश्रुतम् ॥सू० ३६॥ टीका-से कि त जाणयसरीरदकसुयं' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ।।सू० ३६॥
ज्ञायकशरीर द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है-इस बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-"से किं तं जाणयसरीरदब्बसुयं” इत्यादि ॥१० ३६॥ . शब्दार्थ-(से कि तं जाणयसरीरव्वसुय) हे भदन्त (ज्ञायाशरीर द्रव्य श्रत का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(सुयत्तिपयत्थाहिगारजाणयस्स) श्रुत शब्द वाच्य आगम के अर्थ रूप अधिकार के ज्ञाता का ऐसा (सरीरय) शरीर (जं) जो (ववगयचुय चावियचत्तदेह) व्यपगत-चैतन्य पर्याय से रहित हो चुका है, च्युत-दश प्रकार के प्राणों से परिवर्जित हा गया है, च्यावित-बलिष्ठ आयुक्षय के कारणों से प्राण रहित हो गया है। त्यक्तदेह आहार परिणत जनित वृद्धि जिससे सर्वथा निकल चुकी है (जाणयसरीरदव्वसुयं) ज्ञायकशरीर द्रव्यश्रुत है। (तं घेव पुन्चभणियं) यहां पर १७ में मृत्र कथित इस विषय संबन्धी इस व्यपगत आदि पाठ से आगे (जाव से त जाण सरीरदव्वसुय) ज्ञायकशरीर द्रत्यश्रुत का पाठ (भाणियध्वं) ग्रहग करलेना चाहिये। इसकी (व्याख्या १७ वे सूत्र में कही गई हैं। ॥ सूत्र ३६ ॥
હવે સૂત્રકાર જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યકૃતના સ્વરૂપનું નિરૂ પણ કરે છે–.
"से किं तं जाणयसरीरद सुय" त्या
शा-(से किं तं जाणयसरीरदव्वसुय?) शिष्य गुरुने मेवो न પૂછે છે કે હે ભગવન ! જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યશ્રતનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(सुयत्ति पयत्थाहिगारजाणयस्स) श्रत २०४ना वाय: मेवा मारभना अथ३५ मधिना . ज्ञातानु (सरीत्य) शरी२ (ज) ३ रे (वरगयचुय चावियचत्तदेह) व्यपात थ युयु छ थैतन्य पर्यायथी सहित ५४ युयु छ, ચુત થઈ ચુક્યું છે દસ પ્રકારના પ્રાણથી રહિત થઈ ચુકયું છે, યાવિત થઈ ચુકયું છે, બલિષ્ઠ આયુક્ષયના કારણેથી પ્રાણરહિત થઈ ચુક્યું છે, ત્યકતદેહ થઈ ચુકયું છે આહાર પરિણતિ જનિત વૃદ્ધિ જેમાંથી સર્વથા નીકળી ચુકી છે (जाणयसरीरदध्वसुर्थ) i शरी२ने 'शाय शरीर द्रव्यश्रुत' ३५ अपामा भावे छ. (त चेव पुवं भणिय) मही १७भा सत्रमा थित मा विषय समधी मा ०५५nd All vथी २३ ४रीने (जाव से त जाणयसरीरदध्वसुर्य) शाय. शरीर द्रव्यात पर्यन्तन पार (भाणियबं) अY ४२वे नये. तेनी ०याच्या ૧૭માં સુત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. સ. ૩૬ છે
For Private and Personal Use Only
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
3D
अनुयोगचन्द्रिका टीका-म.३७ भव्यश्रुतनिरूपणम् अथ भव्य श्रुतौं निरूपयितुमाह--
मूलम्--से कि तं भवियसरीरदबसुयं ? भवियसरीरदव्वसुय जे जीवे जोणी जम्मण निक्खते जहा दव्वावस्सए तहाभाणियव्वं जाव, से तं भवियसरीरदव्वसुयं ॥सू० ३७॥
छाया--अथ किं तद् भव्यशरीरद्रव्यश्रुतम् १ भव्यसरीरद्र श्रुतं यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तो यथा द्रव्यावश्यके तथा भणितव्यं यावत तदेतद् भव्य-.. शरीरद्रव्यश्रुतम् ॥सू० ३७॥
अब सूत्रकार भव्यशरीर द्रव्यश्चत का निरूपण करते हैं-- “से कि तं भवियसरीरदव्वसुयं" इत्यादि ।॥ सूत्र ३७ ॥
शब्दार्थः-(से) हे भदन्त ! (त) पूर्वप्रकान्त (भवियसरीरदव्यसुय) भव्य. शरीरद्रव्यश्रुत का (किं) क्या स्वरूप है ?
उत्तरः-(जे जीवे जो णीनम्मणनिक्वते) जो जीव उत्पत्तिस्थानमः योनि से अपना समय पूर्ण करके निकला है-गर्भपात से उत्पन्न नहीं हुआ है किन्तु जन्मा है ऐसा वह जीव उस प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्टभाव के अनुसार श्रुत शब्द वाच्य आगम के अर्थ को भविष्य में सीखेगा-वर्तमानकाल में सीख नहीं रहा है ऐसा शरीर भन्यशरीर द्रव्यश्रुत है। (जहा दास्सए तहा भाणियव्यं जाव से तं भवियसरीरदब्वसुर्य) इस विषय से लगता हुआ वर्णन जिस प्रकार से द्रव्यावश्यक के वर्णन में किया गया है उसी प्रकारका वर्णन यहाँ भी समझना चाहिये । और यह वर्णन यह "भध्यशरीर द्रव्यश्चत है।
હવે સત્રકાર ભવ્ય શરીર દ્રવ્યતનું નિરૂપણ કરે છે
“से किं तं भवियसरीरदव्वसुयं" त्या શબ્દાર્થ (સે) શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે (1) પૂર્વ પ્રસ્તુત વિષય ३५ (भविश्सरीरदध्वसुयं) H०यशरी२द्रव्यश्रुतनु (f) : २१३५ छ ? ..
उत्तर (जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते) २७१ उत्पत्ति स्थान३५ योनि. માંથી પિતાને સમય (ગર્ભમાં રહેવાને સમય) પૂરે કરીને નીકળે છે ગર્ભપા. તથી ઉત્પન્ન થયા નથી એ તે જીવ તે પ્રાપ્ત શરીર વડે વર્તમાનકાળે મૃત શબ્દવા આગમના અર્થને શીખી રહ્યો નથી પણ ભવિષ્યમાં આગમના અર્થને શીખવાને છે. એવા છે જીવના શરીરને ભવ્ય શરીર દ્રવ્યશ્રત રૂ૫ ગણવામાં આવે छे. (जहा दवावस्सए तहा भाणियब्वं जाव से त भविरासरीर दवसुथ) १८मां સૂત્રમાં દ્રવ્યાવશ્યકના વિધ્યને અનુલક્ષીને જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. એવું વર્ણન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. તેને ભવશરીર દ્રવ્યશ્રત કહે છે આ
For Private and Personal Use Only
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१९.
अनुयोगद्वारसूत्रे
टीका--'से किं तं भविय सरीरदच्वसुय" इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् । ०३७ अथ - ज्ञापकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतमाह-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूलम् - से किं तं जाणय सरीरभवियसरीरवइरितं दव्वसुयं ? जाणयसरीरभवियसरीरखइरितं दव्वज्यं पत्तय पोत्थयलिहिय ।.. अहवा जाणयसरीरभवियसरीरखइरित्तं दव्वसुयं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा- अंडय १ बोंडय २ कीडय ३ बोलव ४ वागयं ५ । (तत्थ ) अंडय हंसगभादि बोंडय कप्पासमाइ । कीडय पंचविह पण्णत, तजहा - पट्टे मलए असुए चीणंसुए, किमिरागे । वालय पंचविह पण्णत्तं तं जहाँ - उणिए, उट्टिए, मियलोमिए, कोतवे, किटिसे । वागयं समाइ । से तं जाणयसरीर भविय सरीरवइरित्तं दज्वसु । से तं नो आगमओ दव्वण्यं । से तं दव्वसुयं ॥ सू० ३८ ॥ छाया - अथ किं तद् ज्ञा. कशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यभुतम् ? ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य श्रुतं पत्रकपुस्तक लिखिनम् ।
"
यहाँ तक जानना चाहिये । इसकी व्याख्या १४ वें सूत्र के अनुसार ही जाननी चाहिये । ॥ मूत्र ३७ ॥
अब सूत्रकार ज्ञायकशरीरभज्यशरीर इन दोनों से भिन्न जो तद्वयतिरिक्त द्रव्यश्रुत हैं इसका स्वरूप कहते हैं
"से किं तं जाणयसरीरभवियसरीर वहरित दव्वसुयं" इन्यादि ॥ सत्र ३८ ॥ शब्दार्थ : - ( से किं तं जःणयसरीरभवियसरीरखइरिस दव्यसुयं ) शिष्य સુત્રપઠે પર્યન્તનુ ભવ્યશરીર દ્રાવણ્યક' સૂત્રનું સમસ્ત કથન અહીં પણુ ગ્રહણુ કરવુ જોઇએ તેની વ્યાખ્યા પણ ૧૮માં સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. પ્રસૂ૦૩ા જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્યશરીર આ ખન્નેથી ભિન્ન એવું જે તદ્રયતિરિકત દ્રવ્યમ્રુત” છે તેના સ્વરૂપનું હવે સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે
"से किं तं जाणयसरीरभवियसरीवइरित दव्वसुयं" त्याहिशब्दार्थ - (से किं तं जाण सरीरभवियसरी वहरित दव्वसुयं ?) शिष्य
For Private and Personal Use Only
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
क, कृमिरागम, पालासम् । बाल्कले यनतम्। तदेत
वयसरीर वारि
अनुयोगचन्द्रिकाटी १.३८ ज्ञाय . शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्नतनिरूपणम्१९१ - अथवा -ज्ञाक.शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसूत्रं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथाअण्डज, बोण्डजं, कीटजं. बालजं, पालालम् । (सत्र) अण्ड हंसग दि. बोण्डज कर्यासादि, कीट पञ्चविध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-पटुं, मलयम्, अंशुकं, चीनाशुर्फ, कृमिरागम, पालजं पञ्चविध प्रज्ञप्तम्-तथथा औणिकम् औष्ट्रिकम्, मृगलो. मित्रम्, कोतवम्, किट्टिसम् । गल्कलं शणादि । तदेन ज्ञायक शरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य नुतम् । तदेतद् नोआगमतो द्रव्यश्रतम्। तदेतत् द्रव्यश्चतम् ॥सू०३८॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि त जाणयसरीरभवियसरीर वहरितं दष्वसुयं' इति । अथ किं तद् ज्ञाय शरीरभ यशरीरध्यतिरिक्त द्रध्यश्रुतम् ? इति। उत्तरमाह-'जाणयसरीरभत्यिसरीरवहरित दव्वसुयं इत्यादि हायक शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रष्यभुतम्, पत्रकपुस्तकलिखितम्-त्रकागिताल'पत्रादीनिच पुस्तकानि-पत्रसवानरूपाणि च तेषु लिखितम् । यहा-पत्तयपोतयलिहिय' इतिपाठम्य 'पत्रकपोतकलिखितम' इतिच्छाया। स्त्र-पोतकानि वस्त्राणि । पत्र देषु पुस्तषेषु सकेषु च लिखितं ज्ञायकशरीर भव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्यवतम्। पूछता है कि हे भदन्त ! ज्ञाय शरीर और भव्यशरीर इन दोनों से भिन्न जो द्रव्यश्रुत है उसका क्या स्वरूप है ?
उत्तर:- पत्तयपोत्थयलिहियं जाणयसरीरभवियसरीरबारित दबसुयं) ताडपत्री और पत्रों के संघातरूप पुस्तकों में लिखा हुआ जो श्रुत हैं वह ज्ञायक शरीर और भव्यशरीव्यसिरिक्त द्रव्पश्रुत हैं ऐसा जानना चाहिये। सूत्रकार (अहवा) अथा-पद से कहते हैं “पत्तयपोतयलिहियं" इस पाठकी संस्कृत छाया पत्रकपोतक लिखित', ऐसी भी होती है इस पक्ष में पोतकसद का अर्थ वस्त्र है, और पत्रक शब्द का अर्थ पुस्तक । इस प्रकार वस्त्रों के ऊपर
और पुस्तकरूप कागजों के ऊपर लिखा गया श्रुत ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर અને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભદન્ત! સાયકશરીર અને ભવ્ય શરીર. આ બનેલી બિન એવું જે દ્રવ્યદ્ભુત છે તેનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्त:-(पत्तयपोत्थयलिहिय जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दव्वसुयं) લાડપત્રો અને પત્રોના સમૂહરૂપ પુસ્તકમાં લખેલું જે શ્રત છે તેને જ્ઞાયકશરીર અને MAAN२ ०यतिरित द्रव्यश्रुत ४ छ. (अहवा) 0241 “पत्तयपोत्थयलिहिय" આ સૂત્રાશની સંસ્કૃત છાયાની દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે આ સુત્રપાન. નીચે પ્રમાણે અર્થ થશે ?
પિતક” એટલે વસ, અને “પત્રક એટલે પુસ્તક આ રીતે શબ્દને અર્થ કરતી દ્રવ્યશ્રતને નીચે પ્રમાણે અર્થ પણ થઈ શકે છે વસ્ત્રો ઉપર અને પુસ્તક રૂપ કાગળ પર લખેલા થુનને જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવું દ્રવ્ય
For Private and Personal Use Only
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१९२
अनुयोगद्वारसत्रे
पत्रकादिलिखितय तस्य उपयोगरहितत्वात् द्रव्यत्वं बोध्यम् । आगमो हि ज्ञानं तस्य कारणम् - आत्मा - देहः शब्दश्चैतत्प्रयं तः भाषात् तस्य मोआगमस्वं विज्ञेयम्, अपि च- पत्रक पुस्तक लिखितस्य अचेतनत्वाद् ज्ञानरूपाभावाच्च नोभागम स्वम् । इह 'सुयं इत्यस्यार्षत्वात् सूत्रमिति छायापक्षे प्राह- 'अहया' इत्यादि । अथवा ज्ञायव शरीरभः यशरीरव्यतिरिक्त ६० सूत्र पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथाअण्डजम् ?, बोण्डजम२, कीटजम३, बालजम्४, बाल्कल५५,
तत्र पठचविधद्रव्यसूत्रमध्ये प्रथमं भेदं प्ररूपयति- 'अंडयं हंसगम्भादि' इति। अण्डज सगर्भादि, इह सशब्देन चतुरिन्द्रियो जीवविशेषो गृह्यते, तस्य से ध्यतिरिक्त द्रत है। पत्रक आदि पर लिखे हुए भुत में उपयोग से रहित होने के कारण है । आगम नाम ज्ञान का है। इस के कारण आत्मा, देह और शब्द कारणभूत होते हैं । इनका अभाव होने पर उसमे नोआगमता
। अपि च-पत्रक पुस्तक आदि में लिखित भुत में अचेतनता होने के · कारण ज्ञानरूपता का अभाव है इसलिये भी उसमें नोआगमता है । तथा जब "सुय" पद की छाया 'सूत्र' ऐसी होती है तब उस पक्ष में क्या इस का अर्थ होता है इसे ( जाण सरीरभबिग सरीरखइरित्तं दव्वसुयं पंचविहं पण्णत्त) वे कहते हैं कि ज्ञायक शरीर और भयशरीर इन से भिन्न जो द्रव्य है वह पांच प्रकार का है - ( त जहा ) वे प्रकार ये है (अंडयं, १ ater २, कीडय ३, बालयं ४, वागय ५) अण्डज बोण्डज, कीटज, गलज और 'बाल ।' (तत्थ) इन में (अण्डय) अंडज का तात्पर्य इस प्रकार से हैं ( हंस શ્રુત કહે છે.” કાગળ આદિ પર લખાયેલા શ્રુતમાં ઉપયોગથી રહિતતા હોવાને કારણે દ્રવ્યત્વ છે. જ્ઞાનને આગમ કહે છે તે આગમરૂપ જ્ઞાનમાં આત્મા; દેહ અને શબ્દ કારણભૂત બને છે. તેમને જયાં અભાવ ડાય ત્યાં આગમતાને સદ્ભાવ હાતા નથી પણ નાઆગમતાના સદ્દભાવ રહે છે. તાડપત્ર પુસ્તક આદિમાં લખેલા શ્રુતમાં અચેતનતા હાવાથી જ્ઞાનરૂપતાને અભાવ હોય છે, તે કારણે તે શ્રુતમાં નાચ્યાગમતા રહેલી છે.
नयारे "सुयं" मा पहनी संस्कृत छाया "मुत्र" 'सूत्र' थाय छे, त्या तेन । यथ थाय छे ते हवे सूत्र अट ४२ छे - ( जाणयसरीरभवियसरीरपहरितं दव्वसुयं पंचविहं पण्णत्त) तेथे हे छे है ज्ञाय शरीर द्रव्यश्रुत भने लविय शरीर द्रव्यश्रुतशी भिन्न मेवु ने द्रव्यसूत्र ('दव्वसुय' ) नी संस्कृत छाया "द्रहसूत्र "ने आधारे या यह मन्युं छे छे ते पथि प्रहार धुंछे- (तंजहा) नीचे प्रभा छ - ( अंडयं बांडयं कीडयं वागयं) (१) मंड०४, (२) मांडन, (3) डीटर, (४) मासन भने (4) पाउस ( तत्थ अण्डयं हंसग०भादि)
For Private and Personal Use Only
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
4
.
Hit
M..
.
-
16
अनुमानिका टीका.०३८ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरष्यतिरिक्तद्रव्यश्रुतनिरूपणा९३
REगर्भ तनिर्मिता कोशिका कोथली' इति प्रसिद्धा तदुत्पन्न सूत्रमण्डजमुक्त शिमी' इति भाषाप्रसिद्धम् । आदिशब्दभरिन्द्रियमेदै प्रदर्शयति । ननु बार
सगर्भोत्पन्नं सूत्रमण्डजमुज्यते तहि 'अंडयं हंसगम्भादि" इति सामानाधिकरय नापयते इति दुख्यते, कारण कार्योपचारात् सगौत्पन्न क्षेत्रमर्पि-हंसगर्भ हापुर ते इति नास्ति कोऽपि दोषः ॥१॥
अथ द्वितीयभेदं प्ररूपयति-'चोय कप्पासमाइ' इति । योण्डज, कापीसादि' कापीसनिष्पन्ने सन बोण्डज-बोण्डं कापसिनोशः फलविशेषरूपरतज्जत -ग्रन्मादि) 'हंस' एक चतुरिन्द्रिय जीव विशेष होता है । यह एक कोषली
बनाता है। इससे उत्पन्न जो मुत्र होता है उसका नाम अंडज है। इसे भाषा 'में रेशमी वस्त्र कहते हैं। हंसगर्भ में जो आदि शब्द है वह चौइन्द्रियों के भेद का प्रदर्शक है।
का:- यदि सगर्भ से उत्पन्न भूत्र अंडज कहलाता है तो "अंडये ईस गम्भोदि" में समानाधिकरणता नहीं बन सकती है, सो उसका उत्तर इस प्रकार से हैं कि यहां पर कारण में कार्यका उपचार किया गया है। इसलिये 'हँस के गर्भ कोथली से उत्पन्न हुए सूत्रको भी हंसगर्म के नाम से कह दिया है। इसतरह के कथन में कोई दोष नहीं है। (बोडयं कपासमाई)
पास से बने हुए प्रत्रका नाम बोण्डन हैं। बोण्ड नाम कपास के कोशकी है। कपास का कोश एक प्रकारका फल होता है। जिसमें से कपास निकलती પહેલાં તે અંડજને ભાવાર્થ બતાવવામાં આવે છે. “સ” એક ચતુરહિત વિશેષનું નામ છે. (અહીં હંસ નામનું પક્ષી ગૃહીત થયું નથી પણ પતંગીય જેવું કંઈ ચતુરિન્દ્રિય જતુ ગૃહીત થયું છે.) તે એક કેથળી (કોશ) બનાવે છે તેમાંથી જે સૂત્ર ઉત્પન થાય છે તેને “અંડજ' કહે છે. તેને ગુજરાતી ભાષામાં શમી વસ્ત્ર કહે છે. “હંસગર્ભ” આ પદની પાછળ જે “આદિ પર મૂકવામાં આવ્યું છે તે ચૌઈન્દ્રિયેના ભેદનું પ્રદર્શક છે - શંકા- હંસગર્ભમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા સૂત્રને અંડજ સૂત્ર કહેવામાં આવે
"अंडयं हंसगम्भादिमा समानापिता परित यती बी. . : ઉS અહીં કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવામાં આવ્યો છે. તે કારણે હસનાં ગાબાણી (કેશમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા સુત્રને પણ અહીં હસોભના નામે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. આ કારણે આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ દેષ નથી" (
(बोडयं कपासमाइ) ४पास ३मांधी मान wiser D. "sis" मा પ્ત કપાસના. કેશરૂપ કાલાને માટે વપરાય છે. આ કપાસમાંથી જે સત્ર બને છે २ मांड: छ. (लिहीम ने बोडिया' छे) मी . साल
For Private and Personal Use Only
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
.
अनुयोगदारो पोखरमुरते । इहाप्पादि शब्दः प्रकारवाची। फलस्य प्रकारो भेदः कति अनि बोधयितुमादिः शब्दः प्रयुक्त इति । अत्रापि काणे कार्योपचारात कांस
मिति सामानाधिकरण्याम ।
अब. वृतीय भेदमाह-कीडय पंचषि पण्णत' इति । कीटज पम्वविध प्रज्ञतम्-कीटज-कीटास् चतुरिन्टिग जीवविशेषाजातं स पञ्चप्रकारकं प्रशसं-प्रहपित्त । पचप्रकारस्वमेष स्पष्टयति-त जहा' इत्यादि । तपथा-पई पसनम, पसमोर तिविषये एवं पदसम्माय:-अरण्ये निकुञ्जमध्ये मांसचीडादिरूपामिपपुत्राः स्थाप्यन्ते । तेषां पुजानां पार्थता निम्ना उन्नताथ सान्तस बहवः है। इस कपास के बने हुए सत्र को योण्डज कहा जाता है। यहां आदि शब्द प्रकारवाची है। कपास से फलका भेद है। यह भेद पास है। इस पातको समझाने के लिये यहाँ आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है। यहां भी कारण में कार्य के उपचार से बोण्डज सत्र को कपास वह दिया है। इसलिये समानाधिकरणता बनने में कोई दोष नहीं है। (कीडयं पंचविहं पण्यत्त) कीटज मा पांच प्रकारका कहा गया है। चौइन्द्रिय जीव विशेष
नाम कीट है। उस से उत्पन्न जो सूत्र होता है वह पांच प्रकार का होता है। (तंजहा) जैसे-“पढे मलए अंसुए पीपल किमिरागे" पह, मलय, अंशुक चीनांशुक और मिराग । पट्ट से यहां पर सूत्र लिया गया है। इस पत्र की उत्सत्ति के विषय में युद्ध परम्परा से ऐसी बात सुनने में आती है-जंगल में एक निकुंज लतापिहित प्रदेश होता. है । इस में मांसचीडादि रूप अमिषपुंज रख दिये जाते हैंપ્રકારવાચક છે. કપાસ અને કાલા વચ્ચે ભેદ છે. કાલું એક પ્રકારના ફલ રૂપ છે. જ્યારે કપાસ તેમાંથી નીકળતી વસ્તુરૂપ છે. આ વાતને સમજાવવાને માટે અહીં આદિ શબ્દ વપરાયેલ છે. અહીં પણ કહેવામાં આવેલ છે. તેથી સમાનાધિકરણતા ઘટિત થવામાં કેઈ દેષ રહેતું નથી. .. (कीडयं पंचविहं पण्णत्त') 12 सूत्र पांय ५२ ४६i छ. यतुन्द्रय છવિશેષ (રેશમના કીડા આદિ છો)ને કીટ (કી કહે છે, તેની લાળ આદ્ધિ
यी बनने सूत्र डाय छे ते 20 सूत्र ४ छ (तंजहा) डीट सत्रना पाय | नीय प्रभा छ (पढे, मलए, अंसुर, चीणंसुए, किमि (१) Yar (२) मन (3) संY, (४) यीनांशु भने (५) भि.
.. “ આ પદથી અહીં પટ્ટસત્ર ગ્રહણ થયું છે. આ પટ્ટ સવાલ ઉત્પત્તિના સિયમાં વૃદ્ધ પરમ્પરાની અપેક્ષાએ આ પ્રકારની વાત પ્રચલિત છે–જંગલમાં કઈ એક નજમાં (વૃક્ષ અને લતાઓના સમૂહથી યુકત સ્થાનને નિકુંજ કહે છે)
For Private and Personal Use Only
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका ३८ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुतनिरूपणम् १९५ कीलका निखन्यन्ते । मांसलोलुपाः पतङ्गकीटाः मांसचीडादिकमभित: समायाधि। ते हि कीलकान्तरेषु इतस्ततः परिभ्रमन्तो लालाः प्रमुञ्चन्ति । ताभ कीलकर लग्नाः परिगृह्यन्ते । ततस्ताभिः पट्टसूत्र निर्मीयते ॥१॥ मलय मलयदेशोत्पन्न सचम् ॥२॥ अंशुकम-चीनदेशबहिर्भागे समुत्पन्नं मूत्रम् ॥३॥चीनांशुक्म् चीनदेशाभ्यन्तरमागे समु-पन्नं सूत्रम् ॥४॥ कृमिरागं-कृमिरागं कृमिरागसत्रम । अत्र विषये एवं श्रयते-कस्मिंश्चिदेशे मनुष्यादिशोणितं गृहीत्वा केनापि योगेन योजकिस्था पात्रे स्थाप्यते । तच्च सच्छिद्रपात्रेणाच्छाद्यते। तत्र-पुनः प्रभूनाः कुमवः समुत्पद्यन्ते । ते पवनसेवनाभिलाषिणः पात्रच्छिदान्निगच्छन्ति आसन्नप्रदेशे पर्यट
उन आमिष पुंजों को आजूबाजू में नीचीऊंची कुछ अन्तर से अनेक कीलें गाढ दी जाती हैं। वहां मांस के लोभी अनेक पतंग कीडे उस मांस चीडादिक की चारों ओर आते हैं। और उन कीलों के आसपास घूम कर पानी लारको छोडते हैं। उनकी लो पर लगी हुई उनकी लागेको फिर लोग एकत्रित कर के उनसे पट्टमत्र बनाते हैं। मलयदेश में उत्पन्न हुए सूत्रका नाम मलय है। चीनदेश के बाहर उत्पन्न हुए सूत्रका नाम अंशुक हैं। चीनदेश के भीतर बने हुए सत्रका नाम चीनांशुक है। कृमिराग : सूत्र के विषय में ऐसी बात सुनी जाती है कि किसी देश में मनुष्य आदिका रक लेकर लोग उसे पात्र में किसी भी तरह जमाते हैं। और फिर उस पात्र के मुँहको छिद्रोषाले ढकने से ढक देते हैं। उसमें धीरे कीडे उत्पन्न हो जाते हैं। वह जब वायुसेवन की इच्छा से सच्छिद्रनक्कन से होकर
માંસ આહિરૂપ આમિષપુંજ પાથરી દેવામાં આવે છે. ત્યાં તે માંસજેની આસ” પાસ ચડે છેડે અંતરે નીચી ઊંચી અનેક ખીલીઓ એડી દેવામાં આવે છે અનેક પતંગીયા (કીડાઓ) માંસથી આકર્ષિત થઈને તે ખાવાની ઈચ્છાથી તે માંસપુજેની ચારે તરફ આવે છે. અને માંસનું ભક્ષણ કરીને તે ખીલાની આસપાસ ભમી ભમીને પિતાની લાળ તે ખીલાઓ પર છોડે છે. તે ખીલાઓ પર એકત્ર થયેલી લાળને એકત્ર કરી લઈને લેક તેમાંથી પટ્ટસૂત્ર બનાવે છે. ,
| માયદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા સૂત્રને મલયસૂત્ર કહે છે. ચીન દેશની બહારના પ્રદેશમાં બનેલા સુત્રને અંશુક કહે છે. ચીન દેશની અંદરના ભાગમાં બનેલા. સત્રને ચીનાશક કહે છે. કૃમિરાગસૂત્ર વિષે આ પ્રકારની માન્યતા પ્રચલિત છે કે મનુષ્ય આદિના રકતને એકત્ર કરીને કોઈ એક પાત્રમાં જમાવી દે છે. ત્યાર બાદ, તે પાત્ર પર છિદ્રાળું આચ્છાદન ઢાંકી દે છે. તેમાં ધીરે ધીરે કીટરાશિ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે હવા ખાવાની ઈચ્છાથી તે સછિદ્ર આચ્છાનમાંથી બહાર નીકળીને
For Private and Personal Use Only
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तस्ते लालजालं मुञ्चन्ति। तेन निष्पन्न सूत्रं कृमिगगमुच्यते। तच्च रक्तवर्णहामिसमुरम्मत्वात स्वाभाधिकरक्तवर्ण भवति। ...... Friety वालजसुत्ररूप चतुर्थभेदं प्ररूपयति-'बालय' स्यादि । वारज-वाला सिमाणि बालेन्याउरणिकादि लोमभ्या जातम् तत् पञ्चविध प्रज्ञतम प्ररूपितम, स्था-औणिकम्-ऊर्णायण इदमौणि कम् मेष रोमनिष्पन्नम् ॥१॥ ओष्ट्रिकम्-उष्ट्राजामिदम्, औष्ट्रिकम् उष्ट्ररोमनिप्पन्न सूत्रम् ॥२॥ मृगलौमिकम्-मृगराममिनिषावं, मृगलामिकाम् । मृगसघशा मृगेग्यो हत्वाकाग आरण्यजीव विशेषा इह मृग शादेन विवक्षिताः, तेषां रोमभिनिष्पानं सूत्रं मृगलौमिकम् ॥३॥ कोतवम-उम्दु स्रोमनिष्पन्न -सूत्रम् ॥ ४॥ किट्टिसम-औरणिकादिसूत्रनिर्माणानन्तरं यदवशिष्ट' .
काहर निकलते हैं तो वह आसपास के प्रदेश में घूमते हुए वहां अपनी लार छोडते हैं । इस लार से जो मूत्र बनता है वह कृमिराग सूतो कहलाता है। इसकी रक्तवर्णवाले कृमियों से उत्पन्न होने के कारण वर्ण स्वभावतः लाल रहना है। (बालयं पंचविहं पण्णत्त) भेड आदि के बालों से उत्पन्न हुवा मूगका नाम बालन सूत्र है। यह भी पांच प्रकारका है- (तजहा) जैसे+(उण्णिए) मेष आदि के रोम से उत्पन्न हुआ सूत्र और्णिकः (उडिए) अटू के सेम से उत्पन्न हुआ मूत्र औष्ट्रिक (मियलोमिए) मृग के रोम से उत्पना हुभा' मंत्र मुगलोमिक (कोतवे) चूहे के रोम से उत्पन्न हुआ सत्र कौतक (विष्टि से) औणिक आदि सूत्रों के निर्माण करते समय जो बाल इधरउधर निजामाते हैं उसका नाम किट्टिस. है । इस किट्टिस से जो सूत्र बनाया તે પત્રની આસપાસ ભમવા માંડે છે અને તે પાત્ર પર પિતાની લાળ છોડ્યા કરે છે. તે લાળને લેકે એકત્ર કરી લે છે, અને તેમાંથી જે સૂત્ર બનાવવામાં આવે છે. તેને કમિરાગસૂત્ર કહે છે. લાલ વર્ણવાળા કૃમીઓમાંથી ઉત્પન થવાને કારણે તેના રગ સવાભાવિક રતાશને સદૂભાવ હોય છે.
(पालयं पंचविहं पण्णत) बेटा माहिना पाणमांधी पन्न थये। सूत्रनु: नाम '
म सूत्र' छ. तेना पण पाय २ छ (तंजहा) म उणिए) (1) કિ –ઘેટાં આદિના વાળમાંથી બનેલા સત્રને ઔણિક (ઉનનું બનેલું) સુત્ર કહે छ: (उद्विए) (२) मौष्ट्रिय जना माथी 'पन्न येसा सूत्रने गोष्ट्रि'
छ (मियलोमिए) भृगना माथी मनापेक्षा सूत्रने 'भृगसमिसूत्र' हे छ. (कोतवे) (४) २नी २ वाटीमाथी मनावा स्त्रने औत संत्र छे. (किट्टिए) (૫) આરણિક આદિ સૂત્રનું નિર્માણ કરતી વખતે જે વાળ ઉડીને આમતેમ જઈ પડયાં હોય છે તે વાળને “કિદિસ” કહે છે. કિટ્ટિસમાંથી (વેસ્ટમાંથી જે સૂત્ર બના
.
''
For Private and Personal Use Only
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प
अमुधोगधन्द्रिका टीका.सू०३८ज्ञाय के शरीर भव्यशरीर तिरिक्तद्रव्यश्रुतनिरूपणम्१९७ तत् किट्टिसं तनिष्पन्न सूत्रमपि किट्टिसमुच्यते : यद्वा-औणिकादीनां मूत्राणां द्वादिसंयोगेन निष्पन्नं सूत्रं किट्टिसम् । अथवा-पूर्वोक्तातिरिक्ता येऽश्वादयो जीवास्तल्लोमनिष्प नं मूत्र किट्टिसम् । ५॥
3. अथ पञ्चमं भेदमाह='वागय सणमाइ' इति । बारलं शणादि-शणादि निष्पन्न मूत्र वाल्कलम् ।
"ननु श्रुतप्रकरणे प्रस्तुते किमर्थ सूत्रप्ररूपणम् इति चेदुच्यते, प्राकृते-'सुय' शन्हैन श्रुतस्य, आर्ष त्वात्सूत्रस्य च ग्रहणात् समानशब्दप्रतिपाद्यत्वरूपसाम्यादि- --- कमपि प्रापयतीति नास्ति कश्चिद्दोषः, प्रसंगतः शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थ मूत्रस्वरूपं जातां से वह कि दृस सूत्र से । अथवा औणिक आदि सूत्रो के। अब दुहरा तिहरा- दो तारवाला ती तारगला आदि रूपमें करके जो भूत्र बनाया जाता है
उसग नाम किट्टित है। अपना इन मेष आदि जीवों से अतिरिक्त जो अर्थ . आदि जीव हैं, उनके रोम से निन्न डुका मूत्र किट्टिस है ।(वागयं सणमाइ) बन अदि है जो सूत्र बनता है उसका नाम बाल्कल वल्वन ने हैं।
" शंका-यहां तो श्रत को प्रकरण प्रस्तुत है फिर 'किन कारण यहाँ सूत्र की प्ररूपणा मुत्रेकार ने की ? . ..
उत्तर-आप होने के कारण प्राकृत में "मुय" शब्द से श्रुत और सूत्र इन दोनों का बोध होता है क्योंकि इन दोनों अर्थों का प्रतिपादक यह "सूत्र" शब्द है । अ.: इन दोनों में समान शब्दद्वारा प्रतिपाद्यस्वरूप, વામાં આવે છે તેને “કિસિસૂત્ર” કહે છે. અથવા ઓર્ષક આદિ સૂરોને જ્યારે હત્રિપટું, ચોપર, આદિ રૂપે વણીને તેમાંથી જે સૂત્ર બનાવવામાં આવે છે તેને છિદસ કહે છે. અથવા ઉપણુંકત ઘેટાં, ઊંટ આદિ જી સિવાયના અન્ય
AL IMin म... सूत्रने. ससूत्र 3 छे. (वागय सणमाई) )५) શાણ આદિની છાલમાંથી જે સૂત્ર બને છે તેને વકજ સૂત્ર કહે છે. | શકા–અહીં શ્રુતનો અધિકાર ચાલી રહ્યો છે. છતાં અહીં સૂત્રકારે સુત્રની પ્રારકણ શા માટે કરી છે ? .: उत्त२- "सुय" मा प्राकृत पहनो मय शु1 थाय छ, भने 'सुय' ना સંસ્કૃત છાયા “સૂત્ર' થાય છેઆ વાત તે આગળ પ્રકટ થઈ ચુકી છે. આ રીતે "सुर्य" ५४ श्रत मने सूत्र, स॥ भन्नेना मथनु मेध छ, २६५ "सुय" શબ્દ આ બન્ને અર્થોનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેથી તે બનેમા સમાન શબ્દ દ્વારા પ્રતિપાદરૂપ સમાનતા હોવાને કારણે સૂત્રકારે અહીં સૂત્રની પણ પ્રરૂપણા કરી
iii
For Private and Personal Use Only
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
A
अनुयोगधारमने प्ररूपितम् अनेन–'भावश्रुते प्रकान्ते, कथं नामश्रुतादि प्ररूपण ?' मितिसन्देशसरोऽपि निरस्तः, तस्यापि शियबुद्धिवैशधफलत्वात्। किंच नामस्थापनद्रव्या श्रुताना प्ररूपणमन्तरेण भावश्रुतस्य विशिष्टज्ञानं न भवतीत्यपि बोध्यम्। ___उक्तमथै निगमयानाह-से तनाणयसरी भवियसरीरवइरित दव्वसुय' इति । तदेतद् ज्ञायकशरीरभव्यशरीररूतिरिक्तं द्रव्यश्रुतम् । नो आगमतो द्रव्य
तमपि सर्व निरूपितमिति प्रकट ितुमाह-'से तनोआगमओ दव्वसुयं' इति । तदे. समाना होने के कारण मृत्रकारने इसकी भी रपणा कर दी है। अथवा प्रसंग टेकर शिष्पबुद्धि की विशददा के निमित्त सूत्रकारने सूत्रे का स्वरूप यहां प्रकट किया है। इस वर्णन से इस संदेह को भी कि "यहां पर तो भावशुन का प्रकरण चल रहा हैफिर इस प्रकरण में नामश्रुत नाम आदि का प्ररूपण क्यों किया' अवसर नहीं मिलता है। क्योंकि यह वर्णन भी शिष्यजनों की बुद्धि की विशदना करने रूप फल से सफल हैं। किंच-नाम स्थापना और द्रव्यशुत की प्ररूपिया के बिना भावभुत का विशिष्टज्ञान नहीं होता है इसलिये यह नाम
श्रत आदि की प्ररूपणा की गई है ऐसा भी जानना चाहिये । अब सूत्रकार इस अर्थ का उपसंहार करते हुए कहते हैं किं (मे तं जागयसरीरभविय
सरीरबहरितं दध्वसुयं) इस प्रकार यह पूर्व प्रक्रान्त ज्ञाय कशरीर और भव्यહિરે તે કારણે આ પ્રકારની પ્રરૂપણા વિદેષ મજવી જોઇએ. અથવા પ્રસંગ પ્રાપ્ત આ સત્ર પદની પ્રરૂપણા કરવા પાછળ સૂત્રકારને આ પ્રકારને હેતુ પણ સંભવી
-"भुय" पहनी संत छाया "सूत्र'बाय. मा 'सपनीR સિંખ્યબુદ્ધિની વિશદતાને નિમિત્ત પણ સૂત્રકાર અહીં સૂત્રના સવરૂપની પ્રરૂપણ કરી છે. વળી અહીં એવી શંકા પણ અસ્થાને છે કે અહીં તે દ્રવ્યતની પ્રરૂપણ ચાલી રહી છે, છતાં આ પ્રકરણ નામ*ત આદિની પ્રરૂપણ શા માટે કરવામાં આવી છે?” આ શંકા ઉચિત ન ગણી શકાય, કારણ કે આ વર્ણન પણ શિષ્ય જનની બુદ્ધિની વિશદતાને નિમિત્તે જ કરવામાં આવ્યું છે અને તે પ્રકારની વિશદતા કરવા રૂપ ફલથી સંપન્ન છે. વળી નામથ્થત, સ્થાપનામત આદિની પ્રાપણા ર્યા વિના દ્રવ્યકૃતનું વિશિષ્ટજ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી. તે કારણે આ નામથુત આદિની પ્રરૂપણ અહીં કરવામાં આવી છે, એમ સમજવું જોઈએ
હવે સૂત્રકાર આ વિષયને ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે. (से तं जाणयसरीरभवियसरीयरित्तं दध्वसुयं) शायशरीर भने लयशरीरथी भिन्न सेवा द्र०यश्रुतनु २L HERनु २१३५ छ. (से तं नोआगमयी
For Private and Personal Use Only
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुमोगपत्रिका दीका बत्र ३९ भावश्रुतनिरूपणम् सानो आगमतो द्रध्यक्षुतम् । द्रव्यश्रुतमपि सर्व निरूपितमिति चयितुमाह'सेत दख्खमुइति । तदेतद् द्रव्यश्रत वर्णित ॥मू० ३८॥
- अप.मावत निरूपयति- . ..मूलम्--से कि तं भावसुयं ? भावसुयं दुविहं पपणतं, तं जह
आगमओ य, नोआगमओय ॥सू० ३९॥ T: छायां-अयः किं तद् भावभुतम् ? भावभक्त विविध प्रज्ञा. तद्यथा-आगमसब नोभागमतय १०.३॥
१ टीका-शिष्य पृच्छति-से कि त भावसूय' इति । अ किं तद् भावश्रुतम् ? इति, उत्तरमाह-मावसुय" इत्यादि । भावभुतम्-इह श्रुतपदार्थोमीर से व्यतिरिकाद्रव्यभुत है । ( नोलापमयी दम्वसुर्य) इस तरह नेमागम के अधिकारके समस्तव्यथुन का निरूपण हो चुका । (सेतं खसुर्य) यही सब द्रव्यश्रुत का स्वरूप है। ॥मत्र ३८॥ ...
अब मूत्रकार-भावश्रुत का वर्णन करते है"से किं तं भावसुयं" इत्यादि । सूत्र ॥ ३९ ॥ . ......
शब्दार्थ:-(से कि त) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त भावश्रुन का क्या स्वरूप है?
उत्तर-(भावसुमं) भावश्रुत (दुयिह' पणत) दो प्रकार का कहा गया है। श्रुत रूप पदार्थ के अनुभव से युक्त जो साधु आदि जीव है वह भार पद का वाच्यार्थ है । भाव और श्रुत इन दोनों में अभेद के उपचार से भावश्रुत साध्वादि को कहा गया है । इसतरह भाव जो है वही श्रुत बन जाता है। इम्बम)मा शत नामागम द्र०यश्रुतना ये हा नि३५ मी समास
(से तं दमयं) भने २०५श्रुतना म नु नि३५७ ५९ मही' हे सार , ॥२० ३८ ॥... .... "से कितं भावमयं"त्याlk-..
शा-(से कि त भावसुयं?) शिष्य शुरुमे वो 4 छ । ભાવન પર્વ પ્રસ્તુત ભાઈશ્રુતનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(भावमुयं दुविहं पण्णत्त) भापश्रुत मे ॥२नु छे. श्रुत३५ ५४।2 અgવાવથી યુક્ત જે સાધુ આદિ જ હોય છે તેઓ ભાવ શબ્દના વાવ્યર્થ જ ભાવ અને શ્રત આ બન્નેમાં અભેદના ઉપચારની અપેક્ષાએ સાધુ આદિને છે તેવામાં આવેલ છે. આ રીતે જે ભાવ છે એજ શ્રત બની જાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुमानयत्र
-
नुभवयुक्तो यः साध्वादिः स भाः, श्रुतं च गृह्यते। भाषश्रुतयोम्तवतोश्व अभेदीपचारात् भावश्चासौ श्रुतं च भावश्रुतम् । यहा-अर्थानुभवरूपं भाव. माश्रित्य श्रुत भावभुतम् । यद्वा-भावप्रधान. भूत-भाषश्रुतम्, तत् द्विविध खासमा तनहा तद्यथा-भागमयो य नोआगमय आगमतच नोआगमतथेति॥३९॥
तस् प्रथमं मेदं निरूपयितुमाह---
म्लम्-से कि तं आगमओ भावसुयं ? आगमओ. भावसुयं जाणए उववत्त । मे त आगमओ भावसुयं सू०४०॥
छाया-अथ किं तद् आगमतो भावश्रुतम् ? आपमतो मारभुत ज्ञायक उपयुक्तः। तदेतत् आगमतो भावश्रुतम । स०. ४० । ..
'टीका-शिष्य पृच्छति-से किं त आगमओ भावमुय' इति । अथ...... किं वर आगमतो भान उत्तर माह-'आगमको माइस्मादि । आग
या भावरूप अत को बाधित घरके जो श्रुत होता है यह भावश्रुत है। अथवा भाव प्रधान जो श्रुत है उसका नाम भावश्रुत है (संजहा) उस भावश्चत के वे दो प्रकार ये हैं-(आगमओ य, नोआगमओ य) १ एक आगम भावश्रुत और दूसरा नोआगम भावश्रुत । इममें जो आगम को आश्रित करके भाव त होता है। उसका नाम आगम मावश्रुत और जो नोआगम आश्रित करके भावश्रुत होता है वह नाभागम भावश्रुत है। ॥ मत्र ३९ ॥
अब सत्रकार आगम भावधुत का स्वरूप कहते हैं.."से कितं आममओ भावसुयं" इत्यादि । ॥ मुत्रः४० ॥
शब्दाथ:- (से कि त आगमओ भावसुयं) हे भदन्त ! आगम को आश्रित करके जो भावश्रुत होता है उसका क्या स्वरूप हैं ? . ......... અથવા ભાવરૂપ શ્રતને આશ્રિત કરીને જે શ્રત હોય છે તેને ભાવકૃત કહે છે. PAAL HIRAधान ने श्रुत छ तेनु नाम मापश्रुत छ. (तं जहा) ते श्रुतना नीय प्रमाणे में प्रारो sal छ-(आगमओ य, नोआगमओ य) (१) माम ભાવશ્રત અને (૨) ને આગમ ભાવશ્રત આગમને આશ્રિત કરીને જે ભાવક્શન હાથ છે તેને આગમ ભાવકૃત કહે છે અને આગમને આશ્રિત કરીને જે ભાવકૃત सीय छ तेरे नाम श्रुत ४९ छ. ॥ २.३८ ॥ હવે સૂત્રકાર આગમ ભાવકૃતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે–
: "से किंत आगमआ भावमयं" त्याह. शहाथ-(से) शिष्य गुरुने मेवा प्रश्न ४३ छ । सन् ! (किं :
आगमओ. भावसुयं?) सामने माश्रित ४शन रे मापश्रुत आय देव २१३५ ३ छ ?
A
For Private and Personal Use Only
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ४० आगमनो भावश्रुतनिरूपणम्
२०१
मतो भारभूतं ज्ञायक उपयुक्तः - श्रुतपदार्थज्ञः भतपदार्थे उपयोगवथि यः साध्वादिः स आगमतः = आगममाश्रित्य भावश्रुतं भवति । अयं श्रतोपयोगरूपपरिणामस्य सद्भावात् भावस्वम् । सार्थज्ञानस्य सदावादागमस्वं बोध्यम् । तदेतन्निगमयन्नाह से त आगमओ भावसुय' इति । तदेतदागमतो भावभूव वर्णितम् इति ॥०४०॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अथ द्वितीयभेदमाह-
मूलम् - से किं तं नो आगमओ भावसूयं ? नोआगमओ भावसुयं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - लोइ यं, लोगुत्तरिय च ॥सू० ४१॥ छाया -- अथकिं तद् नाआगमता भावश्रुतम् ? नोआगमतो भावभुतं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - लौकिकम्, लोकोत्तरिकं च ० ४१||
उत्तर - (आगमओ भावसुयं जाणए उवउत्ते) आगम को आश्रित करके भात का स्वरूप इस प्रकार से है - जो साध्वादि श्रत का ज्ञाता है और उसमें उपयोग युक्त है । वह आगम के आश्रित करके भावश्रुत होता है। श्रुत में उपयोगरूप परिणाम के सद्भाव से उस साध्वादि में भावता है, और श्रुत के अर्थज्ञान के सद्भाव से आगमता है । इसतरह ( से तं' आगमओ भावसुर्य) यह आगम को लेकर भावश्रुत का स्वरूप है | ॥ सूत्र ४० ॥ Prannat अपेक्षा लेकर भावत का स्वरूप इस प्रकार से है" से किं तं" इत्यादि । ।। सूत्र ४१ ॥
शब्दार्थ : - (से) हे भदन्त ! नोआगम की अपेक्षा लेकर भावश्रुत का क्या स्वरूप हैं ? ( आगमओ भावसुयं दुविहं पण्णत्त ) नोआगम की अपेक्षा लेकर
शुभ ॥ ० ४० ॥
उत्तर- (आगमओ भावसुयं जाणए उवउत्ते) भागभने आधारे भावश्रुतनुं मा પ્રકારનું સ્વરૂપ કહ્યુ છે, જે સાધુ આદિ જીવ શ્રુતના જ્ઞાતા હોય છે અને તેમાં ઉપયોગ પિામથી યુકત હોય છે, તે સાધુ આદિન આગમની અપેક્ષાએ ભાવશ્રુત કહે છે. શ્રુતમાં ઉપયોગ રૂપ પરિણામના સદૂભાવને લીધે તે સાધુ આદિમાં ભાવતા હાય છે શ્રુતના અથ જ્ઞાનના સદૂભાવને લીધે તે સાધુ આદિમાં આગમતાનેા પણ સદ્ભાવ હોય છે. આ પ્રકારનું (सेतं आगमओ भावसुर्य) भागमने आश्रित उरीने लावनतनुं स्व३५ छे, भ
હવે સુત્રકાર નાઆગમ ભાવભૈતના સ્વરૂપનુ નિરૂપણ કરે છે, "ते किं तं नोआगमओ भावसुय" छत्याहि
શબ્દાર્થ (સે) શિષ્ય ગુરુને એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન્ ! નેઆગમને આશ્રય લઈને ભાવશ્રુતનું કેવું સ્વરૂપ કહ્યું છે
२६
For Private and Personal Use Only
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगद्वारसत्रे टीका- से किं तं नाओगमओभावसुर्य' इत्यादि। , व्याख्या निगदसिद्धा मु० ४१
त्राद्यभेदं निरूपयति-- . । मूलम्--से कि त लोइय नोआगमओ भावसुयं ? लोइयं नोआगमओभावसुयं ज इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्रिएहि सच्छंद बुद्धिमइविगप्पियं, तं जहा-भारहं रामायणं भीमासुरुक कोडिलयं घोडयमुहं सगडभदियाओ कप्पासिय गागसुहयं कणगसत्तरी वेसियं वइसेसिय बुद्धसासणं काविलं लोगायइय सट्रिततं माहरं पुराणं वागरणं नाडंगाई, अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि वेया सगोवंगा। से त लोइयं नो आगमओ भावसुयं ॥ सू० ४२॥ ....छाया-अथ किं तद् लौकिकं नाआगमता भावः तम् ? लौकिक नोआगमता भावतं यदिदमज्ञानिकैः मिथ्यादृष्टकैः स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितम् तद्यथा-भारत, रामायणं, भीमासुरोक्तं, कोटिल्यकम् , घोटकमुखम् शकटभ'द्रका कार्यासिकम्, नागलक्ष्मम, कनकसप्ततिः, वैशेशिकम, बुद्धशासना, कपिलं, लोकायतिय म, षष्ठितन्त्रम्, माठरं पुराणं व्याकर नाटकानि । अथवा द्वासप्ततिबलाः, चत्वारो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः । तदेतद् लौकिकं नोआगमतो भावश्रुतम् ॥१०४२।। भावश्रुत दो प्रकार का कहा गया है । (तंजहा) वे पकार ये हैं (लोइयं लोगुत्तरियं) १ एक लौकिक दूसरा लोकोत्तरिक । इस सत्र की व्याख्या पहिले कही गई व्याख्या के अनुसार जाननी चाहिये । ॥ सू ४१ ।। अब सूत्रकार नोआगम को आश्रित करके लौकिक भावत का कथन करते हैं
“से किं त' इत्यादि । सूत्र ४२ ॥ शब्दार्थ:-(से) हे भदन्त ! (नोआगमओ) नाआगम को आश्नित करके (तं)
उत्तर-(नाआगमआ भावमुयं दुविह पण्णत्तं) मनी अपेक्षाये लावश्रुतना मे ५४.२ ४ छ (तजहा), ते ४२। नीय प्रमाणे छ-(लेाइयं, लोगुत्तरिय) (१) alls मने (२) दत्त(२४ मा सूत्रनी व्याच्या पडद याद. શ્યક સૂત્રમાં કહ્યા અનુસાર સમજવી. છે સૂ. ૪૧ છે
હવે સૂત્રકાર આગમ લૌકિક ભાવBતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે___"से कि त" त्या:
शहाथ-(से) [शष्य शुरुन येवो प्रश्न पूछ छ है सपन! (नोभाग
For Private and Personal Use Only
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका.४२ लौकिकं नोआगमतो भावभूतनिरूपणम्... २०३
टीका-शिष्यःपृच्छति-से कि तं लाइयं नाआगमओ भावसुयं' इति । अथ किं तद् लौकिकं नोआगमता भावश्रुतम् ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'लाइय नो आगमओ भावसुयं' इत्यादि । लौकिक नोगमतो भावश्श्रुतम्, यदिदं-वक्ष्यमाण भारतादिकम्, अज्ञानिकैः अल्पज्ञानिभिः-अत्राल्पार्थको नञ् शब्द:, सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिका भयन्ति इत्यत आह-'मिच्छादिट्ठीहिं' इति । मिथ्या दृष्टिभिः स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितम्-स्वच्छन्देन सर्वज्ञोक्ताथविरुद्धन स्वाभिप्रायेण बुद्धिमतिभ्यां बुद्धिः ईहावग्रहरूषा, मतिः अवायधाग्णारूपा, ताभ्यो विकल्पितम्-सर्वज्ञोक्तार्थान नुसारिबुद्धिमतिभ्यां विरचितमित्यर्थः । तद् लौकिकं नोआगमतो भावत्रुतं विज्ञेयम् । तदेव नामतो निर्दिति 'तं जहा' इत्यादिनातद्यथा-भारत, रामायणं, भीमासुरोक्तं-भीमासुरेण रचितं शास्त्रम्, कौटिल्यकम् पूर्वप्रक्रान्न (लाइयं भावसुर्य) लौकिक भावश्रुत (किं) क्या है ?
उत्तर:-(नाआगमओ) नोआगम को आश्रित करके (लाइयं भावसुर्य) लौकिक भावश्रुत इस प्रकार से है-(ज हमें अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्टिएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं) जो यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वाग अपनी स्वच्छंद बुद्धि और मति से रचा गया है। वह लौकिकमावश्रुत है एसा जानना चाहिये । ईहा और अवग्रहरूंप विचारधारा का नाम बुद्धि है। तथा अवाय और धारणरूप विचारधारा का नाम मति है। सर्वज्ञ उक्त अर्थ से विरुद्ध अभिप्रायवाली बुद्धि और मति से जिन शास्त्रोंका ग्रथन किया गया है वे सब लौकिक भावथत है । (तंजहा) जैसे-(भारह रामायणं भीमासुरुकं मआ) नासामने माश्रित ४शन (त) पूर्व प्रस्तुत विषय३५ (लोइयं भावसुयं?) ans श्रुतनु (कि) १३५ छ? .
उत्तर-(नाआगमआ) नामाभने माश्रित ४ीन (लाइथं भावसुय) els ભાવતશ્રનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ કહ્યું છે.
(जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्टिएहिं सच्छदबुद्धिमइ विगप्पियं) मज्ञानी મિથ્યાષ્ટિએ વડે પિતાની સ્વછંદ બુદ્ધિ અને મતિથી રચેલા શ્રતને અલૌકિક ભાવબત” કહે છે ઈહા અને અવગ્રહરૂપ વિચારધારાનું નામ બુદ્ધિ છે, તથા અવાય અને ધારણારૂપ વિચારધારાનું નામ મતિ છે. સર્વજ્ઞ કેવળી ભગવાન દ્વારા કથિત અર્થથી વિરૂદ્ધ અભિપ્રાયવાળી બુદ્ધિ અને મતિથી જે શાસ્ત્રોનું ગ્રથન (રચનારૂપ अयन) रायुडाय छ, ते शास्त्रीने allis मावश्रुत ४३ छे (तंजहा) aai alls ભાવશુતોનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે.
(भारह रायायणं, भीमासुरुक्कं काडिल्लयं घोडयमुह) महामारत, रामाયણ ભીમાસુર રચિત શાસ્ત્ર, કૌટિલ્ય (ચાણકય) રચિત અર્થશાસ્ત્ર, ઘેટકમુખ
For Private and Personal Use Only
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२०४
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
कौटिल्येन = चाणक्येन निर्मितम् - अर्थशास्त्रम (घोटक मुखम् ) घोट+मुखनामकं शास्त्रम्, शकटभद्रिकाः = एतन्नामकशास्त्राणि, कार्पासिकम् कार्पासिक नामकं शास्त्रम्, नागसूक्ष्मम्, एतन्नामकं शास्त्रम, कनकसप्ततिः कनकप्रतिनामकं शास्त्रम्, वैशिकम्-कामशास्त्रप्रकरणविशेषः, वैशेषिकम-काणाददर्शनम्, बुद्धशासनं - त्रिपिटकरूपम्, कपिलम्सांख्यशास्त्रम्, लोकायतिकं = चार्वाकदर्शनम् - सांख्यशास्त्रग्रन्थविशेषः, माठरं पुराणं व्याकरणं नाटकानि-माठरं = माठरनिर्मितशास्त्रविशेषः, पुराणं व्याकरणं, नाटकानि=
काव्यानि बहुवचनान्तपदात् श्रव्यकाव्यानि च । एतानि पूर्वोक्तानि भारतादीनि लौकिकं नो भागमा भावश्रुतम् । प्रकारान्तरेण तदाह - ' अहवा' इत्यादि । अथवा - द्वासप्ततिकलाः- कलनानि = लौकिकः स्तुस्वरूपपरिज्ञानानि वलाः, द्वासप्तति संख्यकाः कलाः- द्वासप्ततिकलाः, एताश्च समवायाङ्गादिसूत्रेषु प्रोक्ताः, तथा चत्वारो वेद: साङ्गोपाङ्गाः - अङ्गानि - शिक्षाक ल्पव्य । कर णनिरुक्तछन्दोज्यौ तिषरूपाणि काडिल्लयं घोडयमुह ) महाभारत रामायण, भीम सुररचित शास्त्र, चाणक्य रचित अथ शास्त्र. घोट मुखनामकशास्त्र, (सगडभद्दियाओ) शकटभद्रिका नामकशास्त्र (कप्पासियं) कार्पासिक नामकशास्त्र (गाग सहुमं) नाग सूक्ष्म नामक शास्त्र (कणगसत्तरी) कनकसप्तति नामक शास्त्र (वेसियं) कामशास्त्र प्रकरण विशेष ( वेइसेसियं) वैशेषिकशास्त्र, ( बुद्धसासणं) त्रिपिटकरूप बुद्धशास्त्र, (कविलं) सांख्यशास्त्र, (लो गायइयं ) चार्वाक दर्शन (सट्टितंतं) पष्टि तंत्र सांख्यशास्त्र ग्रन्थ विशेष, (माठर) माठरनिर्मितशास्त्र विशेष, (पुणं ) पुराण) (वागरण) व्याकरण ( नाडगाई) दृश्य काव्य और श्राव्य काव्य । ( अहवा ) अथवा (बावत्तरिकलाओ ) ७२ कलाएँ (संगोवंगा चत्तारिवेया) सांगोपांग चारों वेद । ७२ कलाओं का वर्णन समवायाङ्ग आदि सूत्रो में है । शिक्षा, कल्प, नामनुं शीख, (सगडभद्दियाओ) शउट अद्रिअ नामतु शास्त्र, (कप्पासिक) अर्था सिङ्क नाभनु शास्त्र, (णागमुहुम) नागसूक्ष्म नामनु शास्त्र, (वणगसत्तरी) उन सप्तति नामनु शास्त्र, (वेसियं) अमशास्त्रनु प्र२५ विशेष, ( वेइ सेसियं) वैशेषि शा, (बुद्धसासणं) त्रिपिटङ ३५ मौद्धोनु धर्मशास्त्र, (कविल) पिसतु सांय्यदर्शन नामनु शास्त्र, (लोगासुइयं) यार्वा दर्शन, (सद्विर्ततं) षष्टितंत्र सांख्य शास्त्रने। अथविशेष, (माठर) भाहर निर्मित शास्त्र विशेष, (पुराणं) पुराणु (बागरणं) व्या०२५, (नाडगाईं) दृश्य अव्य भने श्राव्याव्य, ( अहवा) अथवा (बावत्तरि कलाओ ७२ उसा, (संगोवगा चत्तारि वेदा) अंग भने उयांगयुक्त यारे वह भा બધાને લોકિકભાવશ્રુત કહે છે. ૭૨ કલાઓનુ વર્ણન સમવાયાંગ આદિત્રામાં કરवामां आव्यु छे. वेहोना छ मग नीचे प्रमाणे हे शिक्षा, उप, व्या४२, निरु કત છન્દ અને જ્યોતિષ અને તમની વ્યાખ્યા રૂપ જે ગ્રંથા છે તેમને ઉપાંગ કહે
For Private and Personal Use Only
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-मु. ४२ लौकिकं नोआगमभावश्रतनिरूपणम् २०५ षट्, उपाङ्गानि तद्वयाख्यारूपाणि. तैः सहिता ऋग्यजुःसाम थर्वणलक्षणाश्चत्वारो वेदाः, लौकिकं नोभागमता भावश्रुतम् । भारतराम यणादीनां लेके आगमत्वेन प्रसिद्धत्वादागमत्वेऽपि तदुक्तक्रियाया अनागमत्वात् नोआगमत्वम्, लोकप्रसिद्धथैव तत्वमपि तेषां । तदुपयोग एव भवितुमर्हति, उपयोगी भावनिक्षेप इतिवचनात् । तदेतत् लौकिकं नोभागमतो भावथतं वर्णितम् । इति ॥ सू०४२॥ व्याकरण निरुक्त, छद. ज्यौतिष, ये छह वेदों के अंग हैं । और उनकी व्याख्या रूप जो ग्रन्थ हैं वे उपांग हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। ये सब लौकिक भारश्रत हैं। लोक में भारत रामायण आदि आगम शास्त्ररूप से माने जाते हैं, इसलिये इनमें आगमता है और इनमें जो क्रियाएँ वर्णित हैं, वे आचाररूप नहीं होने से अनागमरूप हैं। इसप्रकार भारत आदिकां में तदुक्त क्रियाओंकी अपेक्षा नोआगमता आ जाति है। टेक प्रसिद्धि से ही इनमें श्रुतता है । इसलिये ये नाआगम को आश्रित करके लौकिक भावश्रत है। इनमें जो सूत्रकारने भाक्त ता प्रकट की है वह इनके संलग्न उपयोग की अपेक्षा से ही प्रकट की गई जाननी चाहिये। शब्दात्मक जो भारत, रामायण आदिक हैं वे तो भावश्रुत हो ही नहीं सकते हैं कयोंकि "उपयोगा भाः निक्षेपः" उपयोग को ही भावनिक्षेप कहा है ऐसा आप्तवचन है। (से तं लोइयं नाआगमओ भावसुयं) इस प्रकार नोआगमकी अपेक्षा यह लौकिक भावतका वर्णन किया।છે. ચાર વેદના નામ આ પ્રમાણે છે વેદ, સામવેદ, યજુર્વેદ અને અથર્વવેદ લેકમાં મહાભારત, રામાયણ આદિને આગમ-શાસ્ત્ર રૂપે માનવામાં આવે છે, તેથી તેમાં આગમતાનો સદૂભાવ છે, અને તે શાસ્ત્રમાં જે ક્રિયાઓનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે ક્રિયાઓ આચાર૩૫ નહીં હોવાથી અનાગમરૂપ છે. આ રીતે મહાભારત આદિ ગ્રન્થોમાં તદુકત ક્રિયાઓની અપેક્ષાએ આગમતા આવી જાય છે. લોકષ્ટસિદ્ધિની અપેક્ષાએ તે ગ્રન્થોમાં શ્રતતાને સદૂભાવ છે. તેથી તે શાસ્ત્રોને
આગમ લૌકિક ભાવકૃત રૂપ કહેવામાં આવ્યાં છે તે શાસ્ત્રગ્રન્થમાં સૂત્રકારે જે ભાવકૃતતા પ્રકટ કરી છે તે તેમના તે શ્રુતામાં ઉપયાગદેપ પરિણામની યુકત્તતા (સંલગ્નતા)ને કારણે જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, એમ સમજવું. શબ્દાત્મક જે મહાભારત, રામાયણ આદિ છે, તેમને તે ભાવશ્રત ગણી શકાય જ નહીં કારણ કે "उपयोगो भावनिक्षेपः" उपयोगने भावनिक्षेप ४३ . भा २ सिद्धा तानु वयन छ. (सेत लोइयं नोआगमओ भावम्य) 4. प्रा२नु नाम all ભાવથુનનું સ્વરૂપ સમજવું.
'अज्ञानिक' मज्ञानी ५४मारे "" ५स छ, ते पायॐ नया
For Private and Personal Use Only
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२०६
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वार
अथ लोकोत्तरिकं नोआ मतो भावश्रुतमाहमूलम-से कि तं लोउत्तरिय नोआगमओ सावसुय : लोउत्तरियं नोआगमओ भावाय जं इमं अरहंतेहि भयवंतेहि उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयपञ्चुप्पण्णमणामय जाप एहि सव्वष्णूहि सब्व दरिसीहि तिलक हियमहिइर्हि अप्पडियवरनाणदंसणधरे हिं पणीय दुवाल संगं गणिपिडणं, तं जहा - प्रायारो सूर्यगडो ठाणं सम. बाऊ विवाहपणती नायाधन्तकहाओ उवसगदसाओ अंतगडदमाओ अणुत्तववाइयदसाओ, पण्हावागरणाई विवागसूर्य दिट्टि वाओ। से तं लोउत्तरियं नोआगमओ भावसुयं । सेतं आगमओं भवसुयं । से तं भावसुयं ॥ सू०४३ ॥
अथ किं तद् तरिकं नोआगमतो भाव ? लोकोत्तरिकं नोआमतो भावश्रुतं यदिदं अत्रि भगवद्भिरुवन्दनरैः भतीतत्पुत्पन्ना नागतज्ञायः सर्वज्ञः सर्वदर्शिभिः चैलाक्यात महितपूजितैः अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनवरैः प्रणीत द्वादशङ्ग गणिपिटकं, तद्यथा - आचारः सूत्रकृत, स्थानं, समवायः, विवाहप्रज्ञप्तिः, ज्ञाताधर्मःथाः, उपासवदशाः, अन्तकृतद्दशाः, अनुतरोपपातिकदशाः प्रश्नव्याकरणानि, विपाकश्रुतम् दृष्टिवादश्व | तदेतत् लेाकेातरिकं नोआगमनो भावश्रतम् । तदेतद् नोगागयतो भावयुतम् । तदेतत् आगमतो भावश्रुतम् ।। सू० ४३ ॥
अज्ञानिक पद में जो नज् समास हुआ है वहू अल्पार्थ में हुआ है । अतः अज्ञानिक का तात्पर्य 'अल्पज्ञान वाले" ऐसे होता है । ऐसे अल्पज्ञानी तो सम्यक दृष्टि भी होते हैं - अतः इनकी निवृति के लिये मिथ्यादृष्टि पद सूत्रकार ने प्रयुक्त किया है | || सू० ४२ ॥
For Private and Personal Use Only
अब सूत्रकार नोआगम की अपेक्षा करके लोकोचरिक सातका वर्णन પણ અલ્પાક છે. તેથી અજ્ઞાની એટલે અલ્પજ્ઞાનવાળા, આ પ્રકારનો અર્થ અહી સમજવા એવા અલ્પજ્ઞાની તેા સમ્યક્ ષ્ટિ જીવ પણ હાઈ શકે છે, તેથી અહીં સભ્યષ્ટિ અલ્પજ્ઞાનવાળાની નિવૃત્તિને નિમિત્તે સૂત્રકારે મિથ્યદૃષ્ટિ વિશેષણના પ प्रयोग ये छे. ॥ स्त्र. ४२ ॥
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र४३ लोकोत्तरिकनोआगमतो भावश्रुतनिरूपणम् २०७
'से कि " इत्यादि
अथ किं तद् लेोकोत्तरिक नाआगमता भाबश्रुतम ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरमाह-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः, उत्पन्ने ज्ञानावरणक्षपणादिप्रकारेण संजाते न तु सहजे ये ज्ञानदर्शने तयाधापास्तः, हादिकेवलज्ञान् दशनोपयोगयुक्त रित्यर्थः तथा-अतीतप्रत्युत्प-नानागतज्ञायकः तत्र अतीताः भूतकालिकाः, प्रत्युत्पन्नाःवर्तमानमालिकाः, अनागा भविष्यत्कालिका अस्तेिषां ज्ञायकास्तैः, तथासर्वज्ञः सर्वद्रव्यर्याय जानन्तीति सज्ञास्तैः. सर्वदर्शिभिः केवलदर्शनेन एकेन्द्रियादि सर्व सस्थावरं जगद् द्रष्टुं शीलं येषो ते सवदर्शिनातैः, तथा नौलेोक्याकरते हैं-"से किं तं लोउत्तरिय” इत्यादि । ॥ मूत्र ४३ ॥
शब्दार्थः-(से) शिष्य पूछता हैं ! हे भदन्त ! (नाआगमओ) नाआगमको आश्रित व रके (त) पूर्वप्रक्रान्त (लोउत्तरियं भावसुयं “किं) लोकोत्तरिक भावनत क्या है ? ____ उत्तर-(नागमओ) नोआग की अपेक्षा करके (लोउत्तरिय भावसुर्य) लोकोत्तरिकमा श्रुत इस प्रणा से है- (उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं) ज्ञाना वरणकर्म के क्षय से उत्पन्न हुए केव ज्ञान और दर्शनावरण कर्म के क्षय केवल दर्शनका उपयोग को धारण करनेवाले, (तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं) अतीत-भूतकालिए प्रत्युत्पन्न-वर्तमान कालिक अनागत-भविष्यवालिक पदार्थो को जाननेवाले (सवण्णू हिं) समस्त द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों के ज्ञाता (सव्वदरिसीहिं) केवलदर्शन से एकेन्द्रियादि समस्त त्रसस्थावर रूप जगत् देखने के
હવે સૂત્રકાર ને આગ લકત્તરિક ભાવતનું નિરૂપણ કરે છે
"से तं लोउत्तरियं" त्यादि
शहाथ-(से) शिय शुरुने यो प्रश्न पूछे छेउ लगवन् ! (नोआगमओ) नाम नापश्रुतना on ले३'! (लोउत्तरिय भावमुयं कि) पूर्व प्रस्तुत લોકેાકિ ભાવકૃતનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- नागमओ) नोसामना माश्रय दईन (लोउत्तरियं भावसुय) લેકેન્તરિક ભાવBતનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે. . "उप्पण्ण णाणदंसणधरेहिं" ज्ञानगुना क्षयथी -न ये जान मन शन३५ उपयोगने पा२] ४२नारा, 'तीयपचुप्पणमणागयजाणएहि" अतीत (भुतलि), प्रत्युत्पन्न (तभान les), मने मनात (मविष्यsiels) पहानि नारा, (सव्वष्णूहि) अस्त द्रव्यो भने तेमनी निती ' पर्यायाना ज्ञाता (सम्पदरिसीहि) ॐ शनया मेन्द्रिया समस्त स भने स्था१२३५
For Private and Personal Use Only
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०८
अनुयोगदारले वलोकितमहितपूजितैः-ौले क्येन-त्रिलोकीस्थितेन भानपतिथ्यतरनर विद्याधर
वैमानिकादिसमूहेन सन्ने 'पहिय' इति देशी शब्दः अवलोकितार्थ पाचक स्ततः-अवलोकिता:-अमन्दानन्दापरि लु लोचनेनिरीक्षिताः महि। यथावस्थिताऽसदृशगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भाषम्त पेन अमिष्टुताः पूजिता:पन्दनादिलक्षणया कायिकक्रियया सत्कृतास्तैः. तथा अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः अप्रतिहते-समस्तावरणक्षयसम्भूतत्वाद् मूर्तामूर्तेषु सम तवस्तुषु कटकुडयादिमिरस्खलिते अविसंवादके वा अतएव क्षायिकत्वाद्वा वरे श्रेष्ठे ये ज्ञानदर्शने केवल ज्ञानकेवलदर्शनरूपे, तयोधरा:-धारका ये ते तथा तैः, एवंभूतैरई निर्भगवद्भिः, यदिदं द्वादशाङ्गतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानीव अङ्गानि, द्वादशअङ्गानि-आचारादीनि यत तद् द्वादशाङ्गगणिपिटकम् गणोऽस्यास्तीति गणी आचार्य स्तम्य पिटकमिघ-सर्वस्वाधारमञ्जूषेव प्रणीत अरूपित, तद् लोकोत्तरिक लोकोत्तर:स्वभाववाले (तिलुक्कवहियमहियपूइएहिं) . तीन लोकवर्ती भवनपति, ध्वन्तर, नर, किन्नर, विद्याधर ज्योतिषिक वैमानिक आदि के समूह से अवलोकित अमन्द आनन्द के अश्रुओं से परिष्लुत लोचनों द्वारा निरीक्षित-हुए, महित-यथावस्थित गुणों के कीर्तनरूप भावस्तवसे संस्तुत हुए, पूजित-वन्दनादिरूप कायिक क्रिया से सत्कृत हुए (अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेहिं) तथा अप्रतिहत समस्त आवरण के क्षय से उत्पन्न होने के कारण मूर्त और अमूर्त सालवस्तुओं में कटकुडय (कटचटाई कुडय-भित्ति) आदि से भी अस्स्वलित अथवा अविसंवादी ऐसे श्रेष्ठ के लज्ञान और केवलदर्शन के धारक (अरिहंतेहिं भगवंतेहिं) अर्हन्त भगवन्तों द्वारा (दुवालसंग) आचारंगादि द्वादश अंगवाला (जं इम) जो यह
तन न पाना स्वलापपणा, (तिलुक्कवहियमहियपूइएहिं) त्र पती ભવનપતિ, વન્તર, નર, કિન્નર, વિદ્યાધર, તિષિક, વૈમાનિક આદિના સમૂહથી અવલંકિત, અમંદ આનંદા શુઓથી પરિસ્તુત લેચ દ્વારા નિરીક્ષિત થતી મહિત– યથાવસ્થિત ગુણેના કીર્તનરૂપ ભાવસ્તવનથી સંતુતિ (સ્તવિત) uni, yondi-
q l६३५ यि लिया43 सारित यतi, (अप्पडियवरनाणदंसण ) તથા અપ્રતિહત સમસ્ત આવરણના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલું હોવાને કારણે મૂર્વ અને અમૂર્ત સકળ વસ્તુઓ કટકુડય (કટ એટલે ચટ્ટાઇ અને કુડય એટલે
ત) આદિથી પણ અખલિત અથવા અવિસંવાદી એવા શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને BANनना था२४ (अरिहंतेहिं भगवंतेहिं) मत मत २ (दुबालसंग) माया माहि मा२ वाणु (ज इय) २ २ (गणिपिडगं पणीय) ग५ि८४ પિત થયું છે, તે લોકેત્તર તીર્થંકરે દ્વારા પ્રણીત હેવાને કારણે લકત્તરિક
For Private and Personal Use Only
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ४३ लोकोत्तरिकनोआगमतो भावश्रतनिरूपणम् २०९ तीर्थ कृद्धिः प्रणीतत्वाद् लोकोत्तरि भावनतम् । तत्स्वरूपमाह-'त जहा' इत्या दिना-तद्यथा-आचारः, सूत्रकृत, थान, समवायो विवाहप्रज्ञप्तिः, ज्ञाताधर्मकथाः, उपासकदशाः, अन्तकृत शाः. अनुत्तरापपातिकदशाः, प्रश्नव्याकरणानि विपाकश्रुत, दृष्टिवादश्च । सर्वज्ञप्रणीतं द्वादशाङ्गरूपं यद् गणिपिटक. तदर्थों पयागो भावश्रुतं उपयोगो भावनिक्षेप इति वचनात् । स चोपयोगश्चरणगुणसमन्वितश्चेत् तर्हि नो आगमतो भावत' भवति. चरणगुणस्य क्रियारूपत्वेन आनागमत्वात्. नो शब्दस्य च देशपतिषेधकत्वेना यणात् । उपयोगचारित्रवान् (गणिपिडगं पणीय) गणिपिटक प्ररूपित हुआ है लोकोत्तर तीर्थकरों द्वारा प्रणीत होने के कारण लोकोत्तरिक भावभत है। 'तं जहा' द्वादश अंगों के नाम इस प्रकार है ।-(आयारो) आचारांग (सूयगडो सत्रकृतांग (डाणं) स्थानांग (समवाओ) समवायांग (विवाह एण्णसी) विवाह प्राप्ति'भगवती सत्र' (नायाधम्मकहाओ ज्ञाता धर्मकथा ( उवासगदसाओ) उपासक दशांग (अंतगडदसा) अन्तकृतशाग (अणुत्तराववाइयदसाआ) अनुत्तरापपातिक दशंग (पण्हावागरणाई) प्रश्नव्याकरण, (विवागसुय) विपाकश्रुत (दिहिवाओ य) आर दृष्टिवाद । इन बारह अंगों के अर्थ में जा उपयोगरूप परिणाम है वह भाव श्रुत है "उपयोगा भावनिक्षेप" है, ऐसा सिद्धान्त का वचन है। यह उपयोगरूप परिणाम यदि चरणगुण-चारित्र गुण से युक्त है तो वह नोआगम से भावश्रुत है क्यों कि चरण गुण क्रियारूप है और क्रिया आगम नहीं होती है। इस प्रकार यहां नोशब्द में आगम: एकदेश में निषेधक हाने से देश प्रतिषेधकता बन जाती है । यद्यपि उपयोग आर चारित्र गुण से भावत३५ छ. ( जहा) ते ६A (भार) मनाना नाम नीय प्रभाव छ--(आयारो) (१) मायासंग, ( यगडा) (२) सुतin. (ठाणं) (3) स्थानां, (समवाओ) (४) सभायां (विवाह पण्णत्ती) (५) विचार प्रज्ञप्ति (मरावती सूत्र) (नाया धम्मकहाओ) (6) ज्ञाता था. (उवासगदसाओ) (७) SIRBin. (अंतगडदसाओं) (८) सन्तत. (अणुत्तरोववाइयदसाओ) (6) अनुत्तरापातिin. (पण्हावागरणाई) (१०) प्रश्न०या४२४. (विवागसुर्य) (११) विश्रुत मने 'दिडिवाओ य' (१२) दृष्टिपा. मा मारे मनाना अर्थमा ७५या।३५ परिणाम छ तेनु नाम मावश्रुत छ. २५ , "उपयोगा भावनिक्षेपः" मा प्रानु સિદ્ધાન્તનું વચન છે. આ ઉપયોગ રૂપ પરિણામ જે ચરણગુણ-ચરિત્રગુણથી યુક્ત હેય તે તે આગમની અપેક્ષાએ ભાવથત છે, કારણ કે ચરણગુણ ક્રિયારૂપ હોય છે, અને ક્રિયા આગમરૂપ હોતી નથી. આ પ્રકારે અહીં ને ૫૦ એકદેશની અપેક્ષાએ આગમનું નિષેધક હેવાથી દેશપ્રતિષેધકતા ઘટિત થઈ જાય છે. જો કે ઉપ
For Private and Personal Use Only
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारो साध्यादि प्यभेदोपचाराद् भावश्रुत भवितुमर्ह ति । इह तु चारित्रसमन्वितो द्वादशाङ्गोपयोगो नोआगमतो भावनुतमित्याशयेन द्वादशाङ्गो गणिपिटकमित्युक्तम् । अन्यथा शब्दात्मकस्य द्वादशाङ्गस्योपयोगरूपत्वाभावाद् भावश्रुतत्वं नोपपद्यते । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-'से तं' इति । तदेतद् लोकोत्तरिकं नो आगमको भा श्रुतम् । सर्व नो आगमता भावश्रुतं निरूपितमिति सचयितुमाह- से तं' इति । देतानी आगमतो भावश्रुतम् । इत्थं सभेदं भावभुत प्ररूपितमिति सूचयितुमाह- ‘से तं भावसुयं' इति । तदेतद् भावश्रुतम् इति । सू० ४३॥
इत्थं भावभुतस्वरूपमुक्त्वा सम्प्रति तत्पर्यायानाह
मूलम्-तस्स गं इमे एगट्रिया गाणाघोसा जाणावंजणा नामधेजा भवंति, तं जहा
सुयसुत्तगंथसिद्धं,-तसासणे आणावयग उवएसे।
पन्नत्रण आगमे वि य, एगट्ठा पजवा सुत्ते ॥ से तं सुयं ॥स० ४४॥ युक्त हुआ साधु आदि भी अभेदोपचार से भाश्रुत हो सकता है, परन्तु यहाँ जो द्वादशाङ्गगणिपिटकको नोआगम से भा श्रुत कहा है वह द्वादशांग के चारित्रमुणसमन्वित उपयोग को लेकर ही कहा है ऐसा जानना चाहिये। क्योंकि शब्दात्मक जो द्वादशांग है वह उपयोगरूप नहीं होता है । अत: उसमें उपयोगरूपता का अभाव होने के कारण भानश्रुतता नहीं रनती है। (से तं नोआगमओ भावसुयं) इस तरह नोआगम को आश्रित करके यह लोकोत्तरिक भाषश्रुत का स्वरूप है । (से तं भावसुय) इस प्रकार से सूत्रकारने सभेद भावश्रुत की प्ररूपणा यहाँ तक की है। सूत्र ४३॥ યોગ અને ચારિત્રગુણથી ચુકત થયેલા સાધુ આદિ પણ અભેદપચારથી ભાવત હે ઈ શકે છે, પરન્તુ અહીં જે દ્વાદશાંગરૂપ ગણિપિટકને આગમની અપેક્ષાએ ભાવશ્રત કહ્યું છે તે દ્વાદશાંગના ચારિત્રગુણ સમન્વત ઉપગની અપેક્ષાએ જ કહેવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું જોઈએ, કારણ કે શબ્દાત્મક જે દ્વાદશાંગ છે તે ઉપગ રૂપ હેતું નથી. તેથી તેમાં ઉપયોગ રૂપતાને અભાવ હેવાને કારણે सावdat संभवी शती नथी. (से तं नाआगमओ भावसुयं) मा प्ररनु સામને આશ્રિત કરીને લકત્તરિક ભાવત નામના આગમ ભાવશ્રતના બીજા सहनु -१३५ सभा (से तं भावसुयं) मा प्रारे सूत्रधारे मापश्रुतना बहानी અહીં સુધીમાં પ્રરૂપણા કરી છે. આ રીતે ભાવકૃતનું વર્ણન અહીં સમાપ્ત થાય છે. સૂ૦૪વા
-
-
For Private and Personal Use Only
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका ४४ भावश्रुतपर्यायनिरूपर्णम
छाया-तस्य खलु इमानि एकाधिकानि नानाघोषाणि नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा
श्रुतसूत्रग्रन्थसिद्धान्त शासनमाज्ञावचनमुपदेशः।
प्रज्ञापना आगमोऽपि च एकार्थाः पर्यायाः सूत्रे ॥ तदेतत् श्रुतम् ॥ सू० ४४॥
टीका-'तस्स णं' इत्यादि
तस्य=भावश्रुतस्य खलु इमानि वक्ष्यमाणानि एकाथिकानि-एकाविषयाणि नानाघोषाणि-उदात्तानुदात्तादि नानास्वरयुक्तानि, नानाव्यञ्जनानि-ककारा घनेकव्यञ्जनात्मकानि नामधेयनि-नामानि भवन्ति, तद्यथा-श्रुतसूत्र सिद्धान्त' ग्रन्थशासनम्-तत्र- श्रुतम्-श्रूयते गुरुसमीपे यत्ततश्रुतम १, सूत्रम्-अथानां सूचकं सूत्रम् २, ग्रन्थः-तीर्थ करकल्पपादवचनप्रसूनानो ग्रन्थनाद् ग्रन्थः ३, सिद्धान्तः
अब मत्रकार भावश्रुत के पर्यायवाची शब्दों को कहते हैं। "तस्स ण इमे" इत्यादि ॥ सू० ४४ ॥
शब्दार्थ-(तस्स णं इमे णाणाघोसा णाणावंजणा एगठिया नामधेज्जा भवंति) उस भावश्रुत के ये उदात्त अनुदात्त आदि नाना स्वरों से युक्त, और ककारआदि अनेक व्यञ्जनोंवाले एकार्थविषयक नाम हैं। (त जहा) जो इस प्रकार से ह___(सुयसुत्तगंथसिद्धंतसासणे आणवयणउवएसे पन्नवणआगमे वि य एगट्ठापज्जवा सुत्ते) गुरु के समीप सुना जाने के कारण भावश्रुत का नाम श्रुत है अर्थों की सूचना इससे होती है इसलिये इसका नाम मूत्र है। तीर्थ कर रूप कल्पवृक्ष के वचन रूप पुष्पों का इसमें प्रथन रहता है इसलिये इसका
હવે સૂત્રકાર ભાવકૃતના પર્યાયવાચી શબ્દોનું કથન કર છે– .. "तस्सणं इमे" त्या:
शम्वार्थ-(तस्सणं इमे णाणाघोसा णाणापंजणा एगट्टियां नामधेज्जा भवंति) ते श्रुतना, हात्त -मनुहात्त माह विविध २१२।थी युत भने ४४२ 2016 भनयनाथी युत अार्थ वायॐ नाम। . (तंजहा) ते नाभी नीचे प्रमाणे - .. (सुयसुत्तगंथसिद्धंतसासणे आणवयण उवएसे पनवण आगमे वि य एगहा पज्जवा सुत्ते) (१) 01-गुरुना सभीये तेनु श्रवण ४२वामां मावे छ त કારણે તેનું નામકૃત છે. (૨) સુત્ર-અર્થોની સૂચના તેના દ્વારા મળે છે તેથી તેનું भी नाम सूत्र छ. ... (3) अ-य-तीय ४२। ३५ ४६५वृक्षना क्यन३५ १०पोनु तेभा अथन येर
-
-
For Private and Personal Use Only
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२१२
अनुयोगद्वारमत्रे सिद्ध-प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थम् अन्त नयति-प्रमाणकोटिमारोहयतीति सिद्धान्तः४, शासनम्-मिथ्यात्वाविरतिकषायादिप्रवृत्तजीवानां शासनात-शिक्षणाद्-शासनम् ५, एषां समाहारः । तथा-आज्ञा-आज्ञाप्यन्ते मोक्षार्थिनः प्राणिनोऽनयेति-आज्ञा६, वचनम्-उक्तिः वाग्योग इत्यर्थः७, उपदेशः-हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्युपदेशनात्उपदेश:८, प्रज्ञापना-प्रज्ञाप्यन्ते यथावस्थितजीवादिपदार्थों अनयेति प्रज्ञापना९, अपि च आगमःआचार्य पारम्पयेणागच्छतीति-आगमः, आप्तवचनं वा आगम१०, एते सर्वेऽपि सूत्रविषये एकार्थाः पयार्याः बोद्धव्याः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतत् श्रुतम्-श्रुतादिनामभेदैर्यदुक्तं तत् श्रुतं विज्ञयमिति ॥सू० ४४॥ नाम ग्रन्थ है । प्रमाण प्रतिष्ठित अर्थ को यह प्रमाण कोटिमें स्थापित कर देता है इसलिये इसका नाम सिद्धान्त है, मिथ्यात्व अविरति, और कषाय आदि में प्रवृत्त हुए व्यक्तियों को उनसे दूर होनेकी शिक्षा देता है इसलिये इसका नाम शासन है। मोक्षामिलाषी प्राणी जन इससे आज्ञापित किये जाते है, इसलिये इसका नाम आज्ञा है । वाणी के द्वारा यह स्पष्ट किया जाता है इसलिये इसका नाम वचन है । जीवों को इससे हित में प्रवृत्त होने की शिक्षा (उपदेश) मिलता है इसलिये इसका नाम उपदेश है। इसके द्वार। जावादिक समस्त पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसी रूप से प्रज्ञापित किये जाते हैं इसलिये इसका नाम 'प्रज्ञापना' है। आचार्य परंपरा से यह चला आ रहा है इसलिये इसका नाम 'आगम' है । अथवा यह आप्त का वचन है इसलिये भी 'आगम' है। ये सब मूत्र के पर्यायवाची शब्द है ऐसा जानना હેવાથી તેનું નામ ગ્રન્થ છે. (૪) સિદ્ધાંત પ્રમાણપ્રતિષ્ઠિત અને તે પ્રમાણભૂત તની કેટિમાં સ્થાપિત કરી દે છે તેથી તેનું નામ સિદ્ધાંત છે. (૫) શાસન મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય આદિમાં પ્રવૃત્ત થયેલી વ્યકિતઓને તેનાથી દૂર રહેવાની શિક્ષા તે આપે છે, તેથી તેનું પાંચમું નામ શાસન છે (૬) આજ્ઞા-તેના દ્વારા મનુષ્ય આદિને અમુક આજ્ઞાઓ આપવામાં આવે છે, તેથી તેનું છઠ્ઠું નામ આજ્ઞા છે. (૭) વચનવાણી દ્વારા તેને સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે, તેથી તેનું નામ વચન છે. (૯) ઉપદેશ-તેના દ્વારા એને ઉપાદેયમાં પ્રવૃત્ત થવાની અને અનુપાદેય (હેય પદાર્થો)થી નિવૃત્ત થવાની શિક્ષા (ઉપદેશ) મળે છે, તેથી તેનું આઠમું નામ ઉપદેશ છે. (૯) પ્રજ્ઞાપના-તેના દ્વારા, જીવાદિક પદાર્થો જે રૂપે વર્તમાનમાં છે એજ રૂપે પ્રજ્ઞા પિત કરવામાં આવે છે એટલે કે જીવાદિક સમસ્ત પદાર્થોને યથાર્થ સ્વરૂપને પ્રજ્ઞાપિત કરવામાં આવે છે, તેથી તેનું કામ પ્રજ્ઞાપના છે. (૧૦) આગમ-આચાર્ય પરમ્પરાથી તે ચાલ્યું આવે છે, તેથી તેનું નામ “આગમ” છે. આ બધા શ્રતના
For Private and Personal Use Only
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू० ४५ स्कन्धाधिकारनिरूपणम्
इत्थं श्रुताधिकारमुक्त्वा सम्पति-'खधं निक्खिविस्सामि' इति कथनानुसारेण स्कन्धाधिकार उच्यते
मूलम्--से कि तं खंधे ? खंधे चउठिवहे पण्णत्ते, त जहानामखंघे ठवणाखंधे दव्वखंधे भावखंधे ॥ सू० ४५॥
छाया-अथ कोऽसौ स्कन्धः ? स्कन्धश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामस्कन्धः, स्थापनास्कन्धः द्रव्यस्कन्धः, भावस्कन्धः ॥ सू० ४५ ॥
टीका-से किं त' इत्यादि-- अस्य व्याख्या स्पष्टा, नवरं-कन्धःपरमाण्वादि समुदायः ॥४५॥
-
चाहिये । (से तं सुयं) इस तरह इन श्रुतादि नामों से यह श्रुत कहा गया है।सूत्र४४॥
अब सूत्रकार (खंधं निक्खिविस्सामि) इस कथन के अनुसार सन्धाधिकार प्रारंभ करते हैं
शब्दार्थ:-(से किं तं खधे) हे भदन्त ! स्कंधका क्या स्वरूप है ? (खधेचउबिहे पण्णते)
उत्तरः-स्कंधका स्वरूप प्रकट करने के लिये उस के चार प्रकार प्राप्त हुए हैं-(तं जहा) वे इस तरह से हैं-(नामखधे) नाम संध (ठवणा खधे) स्थापना कध (दव्वस्कंधे) द्रव्यस्कंध (भावख धे) और भावस्क ध। स्कंध शब्द का अर्थ है पुद्गल परमाणुओं का संश्लेष । इसकी व्याख्या पहिले की गई व्याख्या की तरह ही जाननी चाहिये। पर्यायवाची शो है, सेभ समानये. (से तं सुयं) प्रारे मही શ્રતનું નિરૂપણ સમાપ્ત થાય છે. એ સૂત્ર ૪૪ છે.
७३ "खंध निविखविस्सामि' मा ४थन अनुसार १४पाधियाना भाR 3रे -से किं तं खधे" त्याह
शा-(से कि खंधे ?) शिष्य गुरुने मेवो प्रश्न पूछे छे मापन! કન્વનું કેવું સ્વરૂપ હોય છે?
उत्तर-(खंधे चउविहे पण्णत्ते) २४-धना २१३५नु नि३५ ४२वा निमित्त तेना या२ २ ४ा छे. (तंजहा) ते प्रा। नीय प्रमाणे छ-(नामखधे, ठवणाखंधे, दन्वखधे, भावखंधे) (१) नाभ२४५, (२) स्थापना४५, (3) द्र०य३४५ અને (૪) ભાવસ્કન્ધ સ્કન્ધ શબ્દને અર્થ “પુદગલ પરમાણુઓના સંશ્લેષ” સમજ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગળ કહેલી વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી.
For Private and Personal Use Only
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२१४
अनुयोगद्वारसत्रे . . भावार्थ:-रूप, गंध, रस, और स्पर्श जिसमें पाये जाते हैं उसका नाम पुद्गल है। यह पुद्गल अणु और स्कंध के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। कितने ही प्रकार के पुद्गल क्यों न हों, वे सब इन दो भागों में समा जाते हैं। जो पुद्गलद्रव्य अतिसूक्ष्म है-जिस का भेद नहीं हो सकता है इसी कारण से जो स्वयं अपना ही आदि अथवा अपना ही अंत और अपना ही मध्य है, दो स्पर्श एक रस, एक गंध, और एक वर्ण से युक्त है वह परमाणु है। यद्यपि पुद्गल स्कंध में स्निग्ध रूक्ष में से एक, शीत उष्ण में एक मृदु कठोर में से एक, और लधु गुरु में से एक, ये चार स्पर्श होते हैं, किन्तु परमाणु के अतिसूक्ष्म होने के कारण उसमें मृदु कठोर लधु और गुरु, इन चार स्पर्शो का प्रश्न ही नहीं उठला है। इसलिये इसमें केवल दो स्पर्श माने गये हैं। इससे अन्य द्वयणुक आदि स्कंध बनते हैं। इसलिये यह उनका कारण है। कार्य नहीं। यद्यपि द्वयणुक आदि स्कंधों का भेद होने से परमाणु की उत्पत्ति देखी जाती है इसलिये यह भी कथञ्चित् कार्य ठहरता है परन्तु मौलिक रूप में यह पुद्गलकी स्वाभाविक दशा है इसलिये वस्तुतः यह किसी का कार्य नहीं हैं। इसका ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता-किन्तु कार्य लिङ्ग द्वारा इसका अनुमान ज्ञान
ભાવાર્થ-જેમાં રૂપ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શને સદ્ભાવ હોય છે, તેનું નામ पसल छ. ते पुगताना मे लेह छ- (१) मा भने (२) २४.५ लो में તેટલા પ્રકારના પગલે હોય પણ તે બધાંને આ બે ભેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે
' જે પુદગલ દ્રવ્ય અતિ સૂક્ષ્મ હોય છે, જેના વિભાગ થઈ શકતા નથી, અને તે કારણે જે પોતે જ પોતાના આદિ રૂપ, પિતાના અન્તરૂપ અને પિતાના મધ્યરૂપ હોય છે, જે બે સ્પર્શ, એક રસ, એક ગંધ અને એક વર્ણથી યુક્ત હોય છે, એવાં પુદ્ગલ દ્રવ્યને પરમાણુ કહે છે. જો કે પુગલ સ્કન્દમાં સ્નિગ્ધ અને કઠોર આ બે સ્પર્શીમાને એક સ્પર્શ, શીત અને ઉષ્ણુ, આ બેમાંથી એક, મૃદુ અને કઠોર આ બે સ્પર્શમાંથી એક લઘુ અને ગુરુ, આ બેમાંથી એક, એમ ચાર સ્પર્શીને સદૂભાવ હોય છે, પરંતુ પરમાણુ અતિ સૂક્ષમ હોવાને લીધે તેમાં મૃદુ, કઠોર, લઘુ અને ગુરુ, આ ચાર સ્પર્શીના સદભાવને તે પ્રશ્ન જ ઉદ્ભવતે નથી. તેથી તેમાં માત્ર બે સ્પર્શોને જ સદ્ભાવ માનવામાં આવ્યું છે. તે પરમાગુમાંથી અન્ય દ્વયાક (બે અણુવાળા) આદિ સ્કન્ધ બને છે. તેથી સ્કન્ધ બનાવવામાં તે કારણભૂત બને છે–કાર્યભૂત બનતું નથી. જો કે હયારુક આદિ અને વિભાગ થવાથી પરમાણુની ઉત્પત્તિ થતી જોવામાં આવે છે, તેથી તે પણ કયારેક કાર્યરૂપ બને છે. પરંતુ મૌલિક રૂપે પુદગલની તે સ્વાભાવિક દશા છે, તેથી વસ્તુતઃ તે કેઈન કાર્યરૂપ નથી. તે પરમાણુનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયોથી થતું નથી, પરંતુ કાર્યલિંગ
For Private and Personal Use Only
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका.५० ४६ स्का याधिकारनिरूपणम्
२१५ मूलम्- नामवणाओ पुव्वभणियाणुकमेण भाणियवाओ।सू०४६॥
छाया-नामस्थापने पूर्वभणितानुक्रमेण भणितये ॥ सू० ४६ ॥
टीका-'नामढवणाओं' इत्यादि... नामस्कन्धः स्थापनास्कन्धश्च : नावश्यक थानाऽऽवश्यक-पतिपादन सत्राऽनुमारेग वक्तव्यो । इति ॥सू० ४६॥ से बोध होता है। स्कंध दो या दो से अधिक परमाणुओं के संश्लेष से बनता है । द्वयणुक तो परमाणुओं के संश्लेष से ही बनता है-परन्तु व्यणुक: आदि स्कंध परमाणुओं के संश्लेष से भी बनते है तथा परमाणु और कंध के संश्लेष से या विविध स्कंधों के संश्लेष से भी बनते हैं। इसलिये..अ न्यस्कंध के सिवा शेष सब स्कंघ परस्पर कार्य भी हैं और कारण भी। जिन स्कंधों से बनते हैं उनके कार्य हैं और जिन्हें बनाते हैं उनके कारण भी सत्र४५।
"नाम टुवणाओ पुब्वभाणियाणुककमेण भाणिय व्याओ" इत्यादि ॥ सूत्र ४६॥ ___ शब्दार्थ-(नाम मवणाओं पुठवभणियाणुक्कमेण भाणियब्वामओ) नाम संध और स्थापनास्कंध का स्वरूप नाम आवश्यक और स्थापना आवश्यक के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले सूत्रों के अनुसार जानना चाहिये। विशेषता केवल इननी ही है । कि नाम आवश्यक की जगह नामस्कंध और स्थापना आवश्यक कि जगह स्थापना स्कंध लगाकर मृत्रों का अनुगम करना चाहिये। ॥सत्र ४६॥
દ્વારા તેને અનુમાન જ્ઞાનથી બંધ થાય છે. બે અથવા બેથી વધારે પરમાણુઓના સંશ્લેષથી સ્કન્ધ બને છે, કયણુક સ્કન્ધ તે પરમાણુઓના સંલેષથી જ બને છે, પણ વ્યક (ત્રણ અણુવાળો) આદિ સ્કન્ધ પરમાણુઓના સંશ્લેષથી પણ બને છે અથવા વિવિધ સ્કન્ધના સંલેષથી પણ બને છે. તેથી પ્રયાણુક કન્ય સિવાયના બાકીના બધાં સ્કન્ધ પરસ્પર કાર્ય પણ છે અને કારણ પણ છે–જે સ્કધામાંથી તેઓ બને છે તે સ્કન્ધના કાર્યરૂપ અને જે સ્કન્ધોને તેઓ બનાવે છે તેમના કણનુરૂપ છે, એમ સમજવું. એ સૂત્ર ૪૫ છે
"नामट्ठवणाओ पुव्वभणियाणुक्कमेण भाणियच्याओ" त्या
शा-(नामढवणाओ पुव्वभणियाणुस मेण भाणियध्वाओ) नाम અને સ્થાપનાસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ નામ આવશ્યક અને સ્થાપના આવશ્યકના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારાં સૂત્રો પ્રમાણે જ સમજવું નહીં. એટલી જ વિશેષતા સમજવાની છે કે નામ આવશ્યકને બદલે નામસ્કલ્પ અને સ્થાપના સ્કન્ધ સૂત્રોનું કથન થવું જોઈએ. એ સૂત્ર ૪૬ છે
For Private and Personal Use Only
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२१६
-
-
-
अनुयोगद्वारने अथ द्रव्यस्कन्धं निरूपयतिमूलम् --प्ले कि त दवखधे? दनखधे दुविहे पण्णत्ते, तजहा आगमओ य नोआगमओ य । से क त आगमओ दव्यख धे?
आ मओ दव्वखधे-जस्स पंख धेत्ति प सिक्खियं, सेसं जहा दवावस्सए तहा भाषियव्वं । नवर ख धाभिलावा जाव से कि तं जाणयसरीरभवियसरीर इरित्ते दरखंध ! जाणयतरीरवइरिने दव्यखंध तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्त अचि मीसए सू० ४७॥ ' छाया-अथ कोऽसौ द्रव्य कन्धः १ द्रव्यस्कन्धो विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । अथ कोऽसौ आगमतो द्रव्यस्वन्धः ? आगमतो द्रव्यस्कन्धः-यस्य खलु स्कन्धेति पदं शिक्षितम, शेष यथा द्रव्यावश्यके तथा
अब सत्रकार द्रव्यस्कंध का निरूपण करते हैं"से किं तं दध्वख धे' इत्यादि ॥ सूत्र ४७॥
शब्दार्थः-(से) हे भदन्त ! (त) पूर्वप्रक्रान्त (दव्यखंबे) द्रव्यस्कंध (किं) कथा है?
उत्तर-(दव्वखंधे दुविहे पण से) द्रव्यस्कंध दो प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) जसे (आगमओ य नोआगमओ य) १ एक आगम को लेकर और दसरा नोआगम को लेकर। (से किं तआगमओ दव्यखधे) आगम से द्रव्य स्कंधका पा स्वरूप है ? (आगमओ दव्वखधे जस्स णं खंधेत्ति पयं
હવે સરકાર દ્રવ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ કરે છે
"से किं तं दव्वखधे" त्या
शार्थ - (से) शिष्य गुइने यो प्रश्न पूछे छे ? (त) व प्रस्तुत (दब्बखंधे) द्र०यः४-धनु (किं) ३ १३५ छ?
उत्तर-(दव्यवधे दुविहे पण्णत्ते) द्र०५६४.५ मे २॥ ४॥ छ (जहा) ते मे प्रा। नीय प्रभा छ-(१) (आगमओ य, नेआगमओय) (१) मा. મની અપેક્ષાએ વ્યસ્કન્ધ અને (૨) આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યકષ.
(से कितं आगमओ दध्वखंघे?) 8 सपन! मागभने माश्रित ४शन દ્રવ્યસ્કન્ધનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्त२-(आगमआ दध्वस्त्र धे जस्सणं खधे ति पयं सिक्खियं सेसं जहा दव्यावस्सए तहा भाणियब्वं) ममी अपेक्षा मामने माश्रित शन
For Private and Personal Use Only
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- मालकागाना
-
-
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका.५० ४७ द्रव्यस्कन्ध निरूपणम् भणितम् । नवरं स्कन्धाभिलामो यावत्-अथ कोऽसौ नायकशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः ? ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यम्कन्धविविधा प्राप्ता, तद्यथा-सचित्तः अचित्तो मिश्रकः ॥४७॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि । व्याख्या निगढसिद्धा ॥० ४ा" विक्वियं सेसं जहा दव्वावस्सए तहा भाणियब्ब) उत्तर-आगम से-आगम को आश्रित करके- द्रव्यस्कंध का स्वरूप इस प्रकार से है, जिस साधु आदि ने. कंध इस पदके अर्थ को गुरु के मुख से सीख लिया है यहां से लेकर "ठियजिय" आदि शेष पदों को यहां कहना चाहिये और उनका अर्थ जिस प्रकार से द्रव्यावश्यक के वर्णन में कहा गया है वैसा ही अर्थ यहाँ पर उस पाठ का लगा लेना चाहिये। इस तरह स्कंध संघन्धी आलाप "अथ कोsil मायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कंधः" यहां तक समझलेना चाहिये। (जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण्णत्ते) ज्ञायकशरीर भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कंध तीन प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) वे प्रकार ये हैं (सचिन अचित्ते भीसए) सचित्त, अचित्त और मिश्र। ..
भावार्थ:-शिष्य ने गुरुमहाराज से पूछा है कि है भदन्त ! द्रव्य स्कंध का स्या स्वरूप है ? तब गुरु महाराज ने उसे समझाने के लिये ऐसा कहा कि हे शिष्य । द्रव्य स्कंध को स्वरूप दो प्रकार से निर्धारित किया गया है-१ દ્રવ્યસ્કન્વનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-“જે સાધુએ “રક, આ પદના અર્થને ગુરુની सभी शीभी सीधे। छ,' महीथी २३ ४शन "ठियं जिय" माहिद्र०यावश्य। સુત્રમાં આવેલા પદેને અહીં પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. તે પદોને જે પ્રકારને અર્થે દ્રવ્યાવશ્યક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યો છે, તે પ્રકારને અર્થ અહીં પણ As थो नये. या रे २४.५ मी. "अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः" मी सुधीनु अ य नय.
(जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण्णत्ते) शायरी અને ભવ્ય શરીર ૦૧તિરિત (થી ભિન્ન) દ્રવ્યકન્ય ત્રણ પ્રકારને કહ્યો છે. (तं जहा) ते मारे। मा प्रभाछ
(सचिते अचित्त मीसए) (१) सथित्त (२) अयित्त भने (3) मिश्र..
ભાવાર્થ-શિષ્ય ગુરુ મહારાજને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન ! દ્રવ્યસ્ક શ્વનું સ્વરૂપ કેવું છે?” ત્યારે ગુરુ તેને તે સમજાવવા માટે ભેદ પ્રભેદપૂર્વક તેના સ્વરૂપનું નીચે પ્રમાણે નિરૂપણ કરે છે.
તેઓ તેને કહે છે કે દ્રવ્યકત્વનું સ્વરૂપ બે પ્રકારે નિર્ધારિત કરી શકાય છે २८ .
16
For Private and Personal Use Only
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
va
अनुयोगद्वारसूत्रे
आगम को आश्रित करके और दूसरा नाआगम को अश्रित करके । इनमें
१४ वे सूत्र में गया है - वैसा ही
आदि ने स्कंध के
से
जान तो लिया है
आगम को आश्रित करके द्रव्यस्कंध का स्वरूप जैसा पीछे आगम को आति करके द्रव्यावश्यक का स्वरूप कहा जानना चाहिये। जिसका तात्पर्य यह है कि जिस साधु स्वरूप को प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र को अच्छी तरह परन्तु वह उसमें उपयोग से वर्जित है ऐसा वह साधु rotest ज्ञायकशरीर द्रव्यस्sध, भव्यशरीर द्रव्यस्क ध, व्यतिरिक्त द्रव्यtra इसतरह से ३ तीन प्रकार का है। इनमें पहिले पदबा स्वरूप १६, १७, १८, इन तीन सूत्रो द्वारा पीछे स्पष्ट किया गया है । वहाँ आवश्यक पद की जगह स्कंध पद लगाकर इसे समझलेना चाहिये । इसका सारांश ह है कि स्कंधशास्त्र के ज्ञाता का जो निर्जिव शरीर हैं वह नोआगम की अपेक्षा ज्ञायकशरीर है। तथा आगे जिस शरीर से स्कंधशास्त्र को वह
1
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
(૧) માગમને આશ્રિત કરીને અને (૨) ના આગમને આશ્રિત કરીને.
આગમના આધાર લઇને દ્રવ્યસ્કન્ધનુ કેવુ' સ્વરૂપ છે તે હવે સમજાવવામાં આવે છે. ૧૪માં સૂત્રમાં આગમના આધાર લઇને દ્રાવક્ષકનું જેવું સ્વરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે. એવુ' જ આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યસ્કન્ધનું સ્વરૂપ સમ જવું. આ કથનના સ'ક્ષિપ્ત સારાંશ નીચે પ્રમાણે સમજવા.
आगम की अपेक्षा
और इन दोनों से
જે સાધુ આદિએ સ્કન્ધના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારા શાસ્ત્રને સારી રીતે જાણી લીધું' છે, પરન્તુ તે તેમાં ઉપયાગ પરિણામથી રહિત છે, એવા તે સાધુ આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યસ્ક ધ રૂપ છે. નાઆગમની અપેક્ષાએ દ્રશ્યસ્કન્ધના ત્રણ પ્રકાર કહ્યા કે (૧) નાયકશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ, (૨) ભયશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ અને (૩) ઉપર્યુકત બન્નેથી યતિરિકત (ભિન્ન એવે!) દ્રવ્યસ્કન્ધ આ ત્રણ પ્રકાશમાંના પહેલા એ પ્રકારનું સ્વરૂપ ત્ર ૧૭ ૧૮ અને ૧૯માં સૂત્રમાં કહ્યા અનુસાર જ સમજવું જોઈએ. ત્યાં ‘આવશ્યક' શબ્દની જગ્યાએ સ્કન્ધ' શબ્દ મૂકવાથી સ્કન્ધ વિષયક કથન ખની જશે. તે સુત્રાના સારાંશ નીચે પ્રમાણે છે અન્ધશાસ્ત્રના જ્ઞાતાનું જે નિજીવ શરીર છે. તે નાઆગમની અપેક્ષાએ નાયકશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ રૂપ છે, તથા જે જીવ ગૃહીત શરીર દ્વારા ભવિષ્યમાં સ્કધશાસ્ત્રના જ્ઞાતા બનવાના છે, તેના શરીરને નાઆગમ ભવ્યશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ રૂપ સમજવુ.
હવે આ બન્નેથી વ્યતિરિક્ત (ભિન્ન) જે દ્રશ્યસ્કન્ધ છે, તેનુ સ્વરૂપ સમજા
For Private and Personal Use Only
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ४८ सचित्तरूपं प्रथममेदनिरूपणम्
तत्र सचितरूपं प्रथमं भेद प्ररूपयितुमाह - मूलम् - से किं तं सचित्ते दव्वखधे ? सचित्त दव्वख धे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - हयख धे गयख किंनरखंधे किंपुरिसख घे महोरगखं गंधव्वखधे उसभखंधे । से तं सचित्ते दव्वख घे ॥ सू० ४८ ॥
छाया - अथ कोऽसौ सचित्तो द्रव्यस्कन्धः १ सचित्तो द्रव्यस्कन्धोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः, तथा - हयस्कन्धो गजस्कन्धः किन्नर स्कन्ध- किम्पुरुषस्कन्धो महोरगस्कन्धो गन्धर्षस्कन्ध वृषभस्कन्धः । स एष सचित्तो द्रव्यस्कन्धः || सू० २४८ ||
२१.९
J
टीका - शिष्यः पृच्छति - ' से किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ सचित्तो द्रव्यस्कन्धः ? इति । उत्तरमाह - 'सचित्ते दच्चखंघे' इत्यादि । चित्तं चेतना - संज्ञानमुपयोगोऽववानं मनोविज्ञानमिति पर्याय, चित्तेन सह वर्तते सचित्तः, द्रव्यस्कन्धः अनेकविधः = व्यक्तिभेदात् अनेकप्रकारकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - हयस्कन्धः हय: =अश्वः स एव विशिष्टैक परिणामपरिणतत्वात् स्कन्धो इयस्कन्धः, एवं गजस्कन्धः, किन्नरादयो गन्धर्वान्ताः व्यन्तरविशेषाः । वृषभस्कन्धः -- वृषभःसीखेगा वह भव्यशरीर द्रव्यस्क ध है। अब इन दोनों से व्यतिरिक्त जो द्रव्यस्कंध है वह सचित्त, अचित और मित्र के भेद से ३ तीन प्रकार काहै || सूत्र ४७ ॥ अब सूत्रकार सचित्त रूप प्रथम भेद की प्ररूपणा करते हैं" से किं तं सचित्ते दध्वख धे" इत्यादि । ॥ सूत्र ४८ ॥ शब्दार्थः - (से किं त' सचित्ते दव्वखं धे) हे (प्रारंभ किया हुआ) सचित्त द्रव्यस्कध का क्या स्वरूप है ?
भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त
उत्तरः- (सचित्ते दव्वख धे अणेगविहे पण्णत्ते) सचित्त द्रव्यस्कंध अनेक प्रकार का कहा गया है । ( तजहा) जैसे - ( हयखंधे, गयखंधे किन्नर
बवासां आवे छे तेना नीचे प्रभारी त्रशु से उद्या हे (१) सथित्त, (3) अथित्त ाने (3) मिश्र ॥ सू० ४७ ॥
હવે સુત્રકાર સચિત્ત રૂપ પહેલા ભેદની પ્રરૂપણા કરે છે. "से किं तं सचित्ते दध्वख घे" इत्यिाहि
शब्दार्थ - (से किं तं स चित्ते दवयव घे?)
શિષ્ય ગુરુ મહારાજને એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે હું ભાન્ત ! નાગમ સા શરીર અને ભળ્યશરીર અતિરિક્ત દ્રવ્યન્યના પ્રથમ ભેદરા સચિતવ્યક કેવુ સ્વરૂપ કહ્યું છે.
For Private and Personal Use Only
त्तर- (सचित्त दव्यखध अनहि गते)
अहारना ४ह्यो छ. (तंजहा) नेम ४ (हयख चै, "गुयख घे, किन्नरबंध, किंपुलिस
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे बलीवर्दः स एव स्कन्धः वृषभसन्धः । जीवानो शरीरैः सह कथंचिदभेदे सत्यपि सचित्तकस्सन्धाधिकारात् जीवानामेव च परमार्थतः सचेतनत्वादिह हयादिसम्बन्धिनो जीवा एव विवक्षिता नतु तदधिष्ठितशरीराणीति बोध्यम् । ननु जीवानां स्कन्धत्वं नोपपद्यते, पुद्गलप्रचयस्यैव स्कन्धत्वादिति चेन, जीवानां प्रत्येकमसंख्येयखेधे, किंपुरिसखंधे, महोरगखंधे, गंधव्वखंधे, उसभखधे) हयस्कंध, गजस्कंध, किन्नरस्कंध, किंपुरुष स्कंध, महोरगस्कंध, गंधर्वस्कंध, वृषमस्कंध । चेतना, संज्ञान, उपयोग, अवधान, मन और विज्ञान ये सब चित्त के पर्यायवाची शब्द हैं। .... इस चित्त से जो युक्त होता है, उसका नाम सचित्त है । यह सचित संध व्यक्तिभेद की अपेक्षा अनेक प्रकार का है। हय नाम अश्व घोडा-का यह पुद्गल परमाणुओं की एक विशिष्ट पर्याय है। अतः यह स्कंध रूप है । इसी तरह से गजादि के विषय में मि जानना चाहिये। किन्नर से लेकर गंधर्व तक के संध पन्तरदेव के भेद है। वृषभ नाम बैल का है जीवों का गृहीत शरीर के साथ कथंचित् अभेद हैं तो भी सूचित्तस्कंध का अधिकार होने से यहां उन २ पर्यायों में रहे हुए जीवों में ही परमार्थतः सचेतनता होने के कारण वे हयादि संबन्धी जीव ही विवक्षित हुए हैं। तदधिष्ठित शरीर नहीं।
शंका:-यहां आप जीवों में स्कन्धता को कथन कर रहे है-सो यह
खधे, महोरगख धे, गंधव्वख धे, उसभख धे,) य२४५, १६४-५, [5-न२२४-4.
Y२५२४५, भा२।३४.५, ४-५, भने वृषम३४-५. .. ચેતના, સંજ્ઞાન, ઉપયોગ, અવધાન, મન, અને વિજ્ઞાન આ બધા ચિત્તના પર્યાયવાચી શબ્દ છે. આ ચિત્તથી જે યુક્ત હોય છે તેને સચિત્ત કહે છે. આ સચિરસ્ક વ્યકિતભેદની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારના છે. હય એટલે ઘેડે તે મુદ્દલ પરમાણુઓની એક વિશિષ્ટ પર્યાય રૂપ છે. તેથી તે સ્કલ્પરૂપ છે. એ જ પ્રમાણે ગજાદિ સ્કન્ધના વિષયમાં સમજવું. 3} : કિન્નરથી લઈને વ્યન્તર પર્યન્તના સ્કલ્પો વ્યક્તર દેવના ભેદરૂપ છે. વૃષભ
એટલે બળદ. જેને ગુહીત શરીરની સાથે અમુક રૂપે અભેદ છે, છતાં પણ સચિત્ત દ્રવ્યસ્ક ને અધિકાર ચાલતો હોવાથી અહીં તે તે પર્યાયામાં રહેલા જીવોમાં - જ પરમાર્થ (રવભાવત) સચેનતા હોવાને લીધે તે હયાદિ સંબંધી છે જ - વિવણિત થયા છે તેમાં અધિષ્ઠિત (તદધિષ્ઠિત) શરીરની વિવક્ષા અહીં થઈ નથી.
શંકા-આપ અહીં છમાં જે સ્કતાનું પ્રતિપાદન કરતું કથન કરી રહ્યા
For Private and Personal Use Only
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र ४८ सचित्तरूपं प्रथमभेदनिरूपणम् प्रदेशात्मकत्वेन तेषां सन्धत्वस्य सुप्रतीतत्वात्। ननु हयस्कन्धादीनामन्यतरेण केनाप्युदाहरणेन सिद्धं किमेतैर्बहुभिरुदाहरणैरितिचेत्, उच्च ते-आत्माऽद्वतवाद - निराकर्तुं भिन्नस्वरूपविनातीयस्कन्धबहु-वमाश्रित्य उदाहरणं प्रदर्शितम् । अ . तवादाहीकारे सिद्धसंसारिव्यवहारोच्छेप्रसंगात् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह -स एष सचित्तो द्रव्यस्कन्ध इति ॥स० ४८॥ कथन जचता नहीं है। क्योंकि जो पुद्गल प्रवयरूप होता है उसमें ही स्फन्यता घटित होती है । जीव में नहीं क्योंकि यह पुद्गल प्रचयरूप नहीं हैं। . उत्तरः-ठीक है परन्तु यह ऐकान्तिक बात नहीं है, कि पुद्गलप्रय में ही स्कंधता घटित होती है। हरएक जीव असंख्यात प्रदेश है । इस अपेक्षा उनमें स्कन्धता सुप्रतीत है। अतः पुद्गलप्रचय रूप नहीं होने परभी असंज्यात प्रदेशात्मकता रूप प्रचयवाला होने से जीव में स्कंधता मुघटित है।
शंकाः-सचित द्रव्यस्क धकी सिद्धि हयवन्ध आदि में से किसी एक भी उदाहरण से जब हो जाती है । तब फिर इन अनेक उदाहरणों को यहाँ प्रस्ट करने की क्या आवश्यकता हुई ? उत्तरः- आत्मा द्वैतवाद को निराकरण करने के लिये भिन्न २ स्वरूपगाले विजातीय स्कों की अनेकता लेकर सूत्रकारने इन उदाहरणों को दिखलाया है। .... यदि केवल अद्वैतवाद को अंगीकार किया जावे तो सिद्ध और संसारी આ તે કથન ઉચિત લાગતું નથી, કારણ કે જે પુદ્ગલપ્રચય રૂ૫ હેય તેમાં જ કતા ઘટાવી શકાય છે જીવમાં સ્કન્ધતા ઘટાડી શકાતી નથી કારણ કે તે પુદગલપ્રપંચ રૂપ નથી,
ઉત્તર “પુદગલપ્રચયમાં જ સ્કન્ધતા ઘટિત થાય છે, એવી કોઇ એકાસ્તિક વાત જ અહીં પ્રતિપાદિત થઈ નથી. પ્રત્યેક જીવ અસંખ્યાત પ્રદેશયુકત હોય છે. તે દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે છે તેમાં સ્કન્ધતા સુપ્રતીત થાય છે. તેથી પુગલપ્રચય રૂ૫ નહીં હોવા છતાં પણ અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મકતા રૂપ પ્રચયવાળે હોવાને કારણે જીવમાં અધતા સુઘટિત જ છે?
શંકા–હયક આદિ અધોમાંથી કઈ પણ એક સ્કલ્પના ઉદાહરણ દ્વારા સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધનું પ્રતિપાદન કરી શકાય એમ છે. છતાં અહીં અનેક ઉદાહરણ આપવા પાછળ સૂત્રકારને શે હેતુ રહેલે છે.
ઉત્તર-આત્માદ્વૈતવાદનું નિરાકરણ કરવાને માટે ભિન્ન ભિન્ન સ્વરૂપવાળા વિજાતીયસ્કની અનેકતાની અપેક્ષાએ સૂત્રકારે આ ઉદાહરણે બતાવ્યા છે. જે માત્ર અદ્વૈતવાદને જ સ્વીકાર કરવામાં આવે, તે સિદ્ધ અને સંસારીને જે વ્યવહાર છે તેના ઉછેદને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે.
For Private and Personal Use Only
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२२
... अनुयोगद्वारखने अचित्तद्रव्यस्कन्धं निरूपयति
मूलम्--से किं तं अचित्ते दव्वखंधे ? अचित्त द वखधे अणेगविहे पण्णत्त, तं जहा-दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए सं. खिज्जपएसिए असंखिजपएसिए अणंतपएसिए । से तं अचित्ते. दव्वखधे ॥ सू० ४९ ॥
छाया-अथ कोऽसावचित्तो द्रव्यस्कन्धः ? अचित्तो द्रव्यस्कन्धः-अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्विप्रदेशिः त्रिप्रदेशिको यावत् दशप्रदेशिकः संख्येय प्रदेशिकः असंख्येयप्रदेशकः अनन्तप्रदेशिकः । स एषः अचित्ती द्रव्यस्कन्धः।४९। का जो व्यवहार है उसके उच्छेद का प्रसंग प्राप्त होगा। (से त सचिो दव्वखंधे) इस प्रकार से यह सवित्त द्रव्यस्कन्ध है । ।। सूत्र ४८ ॥ अब सूत्रकार अचित्त द्रव्यस्कन्धों का निरूपण श्रते हैं
"से किं तं अचित्ते दव्वखंधे' इत्यादि । ॥ सूत्र ४९ ॥
शब्दार्थः-(से किं तं अचित्ते दखंधे) हे भदन्त ! अचित्त द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है ? (अचिरे दव्यवखंधे अणेगविहे पण्ण) उत्तर-अवित्त द्रव्याकंध अनेक प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे- (दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए संखेज्जपसिए असंखेज्जपएसिए अणंतपससिए) दो प्रदेशवाला अचित्त द्रव्यस्कध, तीन प्रदेशवाला अचित्तद्रव्यस्कंध, यावत् दश प्रदेशवाला अचित्तद्रव्यस्कंध, संख्यात प्रदेशवाला अचिनद्रव्यस्कन्ध, असंख्यात प्रदेशवाला अचित्त द्रव्यस्कंध, और अनन्तप्रदेश
(से तं दख घे) मा प्ररे सथित द्र०५२४-धना २१३५ वन मही सभात थाय छ ॥ ९० ४८ ॥
હવે સુત્રકાર અચિત્ત વ્યસ્કન્ધના સ્વરેપનું નિરૂપણ કરે છે– "से कि त अचित्त दवख धे” त्याह
था-(से किं तं अचित्त दव्वखधे?) शिष्य गुरुने मेवो न ४२ छ । है मगवन् ! पूर्व प्रस्तुत गयित्त द्र०५२४.धनु २१३५ ३छ ? ........
उत्त२-(अचित्त दवखधे अणेगविहे पण्णत्तो) मशित०४मने . URL हो.. (तंजहा) है...
(दुपएसिए, तिपएसिए जाव दसपाएसिए, संखेजपएसिए, असंखेजपएसिए, अणंतपएसिए) में प्रदेशकाण अयित्त द्रव्य२४न्ध, त्र प्रदेशकाणे। मयित्त દ્રવ્યસ્કન્ધ. એજ પ્રમાણે દસ સુધીના પ્રદેશવાળે અચિત્ત દ્રવ્યકન્ય, સંખ્યાત
For Private and Personal Use Only
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटी... ४९ अचित्तद्रव्यस्कन्धनिरूपणम्
टीका-"से कि " इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसावचित्तो द्रव्यसन्धः १ उत्तरमाह-अचिसो द्रव्यस्कन्धः-अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्विप्रदेशिक:-प्रकृष्टः पुद्गलास्तिकायदेशःप्रदेशः प्रदेशः परमाणुरित्यर्थः, हौ प्रदेशौ सत्र स द्विप्रदेशिक:-सन्धः । एवं यावत्-अनन्तप्रदेशिकः स्वन्धः। स एषोऽचित्तो द्रव्यस्कन्धः ॥ सू०४९।।
-
-
बाला अचित द्रव्यस्कन्ध । यह "प्रकृष्टः देशः प्रदेशः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सब से अल्प परिमाणवाला पुद्गास्तिकाय का जो देश है उसका नाम प्रदेश-परमाणु-है । संख्यात. असंख्यात और अन्त प्रदेशवाला पुद्गलास्तिकाय का देश स्थान मूलरूप में परमाणु है।
से अनेक परमाणुओं के मेल से यादि प्रदेशो स्कंध बनते है । १ पुद्गल परमाणु मी अस्तिकाय इसीलिए है कि वह नाना स्कंधों का उत्पादक है
भावार्थ-यहां पर सूत्रकारने अचित्त द्रव्यस्कन्ध का स्वरूप कहा है। उसमें दो प्रदेशी स्कंधे से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कंध तक के जितने पुद्गलस्कंध हैं घे सव अचित्त द्रव्यस्कन्ध में परिगणित हुए हैं । दो परमाणु मिलकर द्विपदेशी स्कन्ध, तीन परमाणु मिलकर तीन प्रदेशी स्कंध यावत् अनन्त परमाणु मिलकर अनन्त प्रदेशी स्कंध बने हैं। ये सब अचिन द्रव्यस्कंध हैं। ॥ मूत्र ४९ ॥
પ્રદેશવાળ અચિત્ત દ્રવ્યકન્ય, અસંખ્યાત પ્રદેશવાળો અચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધ, અને मनात प्रशवाणी अयित्त द्र०५३४५ 'प्रकृष्टः देशःप्रदेशः" ०युत्पत्ति मनुસાર સૌથી અ૫ પરિમાણવાળો પુદગલાસ્તિકાયને જે દેશ છે તેનું નામ પ્રદેશ પરમાણું છે સંખ્યાત. અસંખ્યાત અને અનન પ્રદેશવાળા પુદ્ગલાસ્તિકાયને દેશ () भूण३५२भा छे.
અનેક પરમાણુઓના મેળથી (સંગથી) દ્વયાદિ પ્રદેશી સ્કન્ધ બને છે. એક પુદગલ પરમાણુ પણ વિવિધ સ્કન્ધનું ઉત્પાદક હેવાને કારણે અસ્તિકાય રૂપ જ છે.
ભાવાર્થ—અહીં સૂત્રકારે અચિત્ત દ્રવ્યકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે. બે પ્રદેશી સ્કલ્પથી લઈને અનંત પ્રદેશી સ્કન્ધ પર્વતના જેટલા પુદગલ આપે છેતે બધાને અહીં અચિત દ્રવ્યક રૂપે ગણવવામાં આવ્યાં છે. બે પરમાણુ મળીને દ્ધિપ્રદેશી કન્ય, ત્રણ પરમાણુ મળીને ત્રિપ્રદેશી સ્કન્ધ, અને એજ પ્રમાણે ચાર, પાંચ આદિ અનન્ત પર્યન્તના પરમાણુ મળીને ચાર પ્રદેશી, પાંચ પ્રદેશી આદિ અનન્ત પ્રદેશી પર્યન્તના સ્કન્ધ બને છે. તે બધાં સ્કન્ધ અચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધ છે.સૂલા
For Private and Personal Use Only
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२२४
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवारसूत्रे
अथ मिद्रव्यस्कन्धं निरूपयति-
मूलम् -- से किं तं मीसए दव्वखधे ? मीसए दत्वख घे अणेगविहे पण्णत्त, तं जहा - मेणाए अग्गिमे खधे, सेणाए मज्झिमे खने, सेणाए पच्छिमे खंधे, से तं मीतए दुव्वखंधे ॥सू० ५०
छाया -- अथ कोऽसौ मिश्रको द्रव्यस्कन्धः १ मिश्रको द्रव्यस्कन्धः - अनेक विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सेनाया अग्रिमःस्कन्धः सेनाया मध्यमः स्कन्धः, सेनायाः पश्चिमः स्कन्धः । स एष मिश्रको द्रव्यस्कन्धः ||सू० ५० ॥
टीका 'से किं तं' इत्यादि --
अथ कोऽसौ मिश्रको द्रव्यस्कन्धः १ इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरमाह - मिश्रकःसचेतनाचेतन संकीर्णो मिश्रः स एव मिश्रकः एवंचित्रो द्रव्यस्कन्धः अनेक
"
-
अब सूत्रकार मिश्रद्रव्यस्कंध का वर्णन करते हैं, " से किं तं मीसए" इत्यादि । || सूत्र ५० ॥
शब्दार्थ - (सेतं मीसा दव्वख घे) हे भदन्त । मिश्र द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (मीसए दम्बख घे अणेगविहे पण्णस) मिश्रद्रव्यस्कंध अनेक प्रकार का कहा गया है। (तं जहा ) जैसे - ( सेणार अगिमेखधे, सेणाए मज्झिमेव वै सेणाए पच्छिमे खधे, से तं मीसए दव्वखं धे) सेना का अग्रिम स्कंध, सेना का मध्यमस्कंध, सेना का पश्चिमस्कंध ) इस प्रकार से यह मिश्र द्रव्यस्कंध है सचेतन और अचेतन इन दोनों का मिश्रण जहाँ होता है उसका नाम मिश्र
હવે સૂત્રકાર મિશ્ર દ્રશ્યસ્કન્ધનું' નિરૂપણ કરે છે— "से किं तं मीसए" धत्याहि
शब्दार्थ - ( से किं तं मीसए दव्वखधे) हे महन्त ! मिश्र द्रव्यसन्ध स्व३५ ठेवु छे.
२ - ( मीस दव्वखंधे अणेग विहे पण्णत्त) मिश्र द्रव्यसन्धना भने अर उद्या छे. (तंजहा) भ .........
For Private and Personal Use Only
1
सेणार अनिमे खधे, सेणाए मज्झिमे खधे, सेणाए पच्छिमे खंधे से तं मीस दव्वखं धे) (1) सेनानो अग्रिम २४न्ध, (२) सेनानी मध्यमस्म्न्ध अने (3) સેનાના પશ્ચિમ (અન્તિમ) સ્કન્ધ આ પ્રકારનું આ મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ધનું સ્વરૂપ છે.
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका-म. ५० मिश्रद्रव्यस्कन्धनिरूपणम् प्रकारकः प्ररूपितः, तद्यथा-सेनाया अग्रिमः स्कन्धः-हस्त्यश्वस्थपदातिकवचखगकुन्तधनुर्बाणा दसमुदायरूपासेना तस्या अग्रिमः स्कन्धः अग्रभागो मिश्रक: स्कन्धः । तथा-सेनाया मध्यमः स्कन्धःप.श्चमः पृष्ठवर्ती स्कन्धश्च मिश्रकारकन्धः। हस्त्यादयश्चात्र सचेतनाः, कवचादयश्चाचेतनाः । इत्थं सचेतनाचेतनवत्वादन मिश्रकत्वं बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष मिश्रको द्रव्यम्कन्ध इति मू० ५०॥ अथ प्रकारान्तरेण ज्ञायकशरीर भव शरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमान्य निरूपयति
मूलम्-अहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-कसिणखधे, अकसिणखधे अणेगदवियखधे।सू०५१
छाया-अथवा ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ती द्रव्यस्कन्ध विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-कृत्स्नस्कन्धः, अकृरनाकन्ध', अनेकद्रव्यस्कन्धः ॥५१॥
टीका-'अहवा' इत्यादि-व्याख्यानिगदमिद्धा । ५१॥ है। सेना इन दोनों की संमिश्रणरूप अवस्था है। इसमें हस्ती, अश्व, रथ, प्यादे, कवच, तलवार, भाला, धनुष, और वाण आदि का संबन्ध रहता है। इनका समुदाय ही तो सेना है इसमें हस्ती आदि सघेतन पदार्थ हैं। इन दोनों का संमिश्रण इसमें रहता हैं। इसलिये इसे मिश्र द्रव्यस्कन्ध कहा हैं ।सू.५०॥
अब दूसरी तरह सूत्रकार ज्ञायकशरीर भगशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कंध का निरूपण करते हैं-"अहवा जाणयसरीग्भवियसरीर" इत्यादि । ।मूत्र ५१॥
शब्दार्थ-(अथवा ज्ञायक शरीर भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध तीन प्रकार कहा गया है। (तं जहा) जैसे कृत्स्नस्कंध, अकृत्स्नस्कंध और अनेक द्रव्याकंध । इसकी व्याख्या पहिले जैसी जाननी चाहिये ।। सूत्र ५१॥
સચેતન અને અચેતન, આ બંનેનું મિશ્રણ જેમાં થયેલું હોય છે તેને મિશ્ર કહે છે. સેના આ બન્નેના સંમિશ્રણરૂપ અવરથાથી સંપન્ન હોય છે. તેમાં હાથી, ઘોડા રથ, પાયદળ, કવચ, તલવાર, ભાલા, ધનુષ અને બાણ આદિ સચિત્ત અચિત્ત પદાર્થોને સદ્ભાવ રહે છે, તેના સમુદાયને જ સેના કહે છે. તેમાં હાથી, ઘોડા, સેનિક આદિ સચેતન પદાર્થો હોય છે, અને તલવાર, કવચ, ભાલા આદિ અચે. તન પદાર્થો પણ હોય છે. તેમાં સચેતન અને અચેતન, બન્નેનું સંમિશ્રણ રહે છે. તે કારણે તેને મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ય રૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. સૂ. ૫૦
હવે સૂત્રકાર જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવા તદ્વયતિરિક્ત દ્રવ્યन्ध नि३५५५ मील ते ४२ छ- 'अहवा जाण सरीरभवियसरीर" त्याह| શબ્દાર્થ—અથવા જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવા દ્રવ્યસ્કલ્પના
प्रा२ ह्या छे. (तंजहा) ते त्र प्रा। नीचे प्रमाणे छे-(१) २४, અકૃત્નસ્કંધ અને અનેક દ્રવ્યસ્કન્ધ તે ત્રણના સ્વરૂપનું નિરૂપણ હવે પછીના સૂત્રોમાં કરવામાં આવશે. જે સૂ૫૧ | २९
For Private and Personal Use Only
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२६
अनुयोगद्वारसत्रे तत्रायभेदं निरूपयति
मूलम्-से कि तं कसिणखंधे ? कसिणखधे से चेव हयख', गयखधे । से त कसिणखधे सू० ५२ . छाया--अथ कोऽसौ कृत्स्नस्कन्धः ? कृत्स्नस्वन्धः स एव हयस्कन्धा गजस्कन्धे यावद् वृषभरकन्धः। स एष कृत्स्नस्कन्धः ॥५२॥
टीका--शिष्यःपृच्छति-से कि तं' इत्यादि ।
अथ कोऽसौ कृत नस्कन्धः ? उत्तरमाह-कृत्स्नस्वन्धः-जीवापेक्षया प्रदेशानां परिपूर्णत्वात् कृत्स्नः परिपूर्णः, स चासौ स्कन्धः, अयं तु स एव पूर्वोक्त एव हयस्कन्धो-गजस्व न्धो यावद् वृषभस्कन्धा विज्ञेयः।
ननु-हयस्कन्धादीनामे त्रापि उदाहरणत्वेन निर्दिष्टत्वात् सचित्तस्कन्धस्यैव संज्ञान्तरेण प्रकारान्तरत्वमुक्तम्, नत्वत्र ज्ञायक शरीग्भपशरीरव्यतिरिक्त
“से किं तं कसिणखधे इत्यादि ॥सत्र ५२॥ शब्दार्थ--(से किं तं कसिणख घे) हे भदन्त कृत्स्नद्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है ? (कसिणखधे से चेव हयख'घे गयखधे जाव उसभख धे) उत्त-हस्कंध गजस्कंध से लेकर वृषभस्कंध तक जो सचित्तस्कंध ४८ वे सूत्र में प्रकट किया गया है-वही करनस्कन्ध है। परिपूर्णस्कंध का नाम कृतनाकंध है । इस कंध में जीब की अपेक्षा प्रदेशों की परिपूर्णता रहती है।
शंका--सूत्रकारने इस कृत्रनस्कंध में भी हयादिकों को ही उदाहरणरूप से निर्दिष्ट किया हैं। और सचित्त द्रव्यस्कंध में भी उन्हें ही उदाहरण रूप से कहा है तो इनके इस कथन से यही ज्ञात होता है कि सचित्त द्रव्यस्कंध ही
-
"से कि तं कसिणख धे" ध्याle
Avथ-(से किं कसिणखधे?) शिष्य गुरुने मेरो प्रश्न पूछ छ ભગવન્! કૃત્ન દ્રવ્યસ્કન્ધનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्त२-(कसिणख घे से चेव हयखधे गयरबंधे जाव उसभखंधे) य२४न्ध, ગજસ્કન્ધ આદિ વૃષભસ્કન્ધ પર્યનના જે સચિત્ર ૪૮માં સૂત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, એ સચિત અધે જ કૃત્ન દ્રવ્યસ્કન્ધ રૂપ છે પરિપૂર્ણ સ્કધનું નામ કૃત્ન સ્કન્ધ છે. આ સ્કન્દમાં જીવની અપેક્ષાએ પ્રદેશની પરિપૂર્ણતા રહે છે.
શંકા-સૂત્રકારે આ કૃત્નસ્કધમાં પણ અવ વિગેરેના ઉદાહરણરૂપથી બતાવેલ છે, અને અચિત્ત દ્રવ્યમાં પણ તેમને જ ઉદાહરણરૂપે પ્રકટ કર્યા છે. તેમના આ કથનથી એજ વાત જાણવા મળે છે કે સચિત્ત દ્રવ્યસ્કને જ અહીં
For Private and Personal Use Only
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ५२ कृत्स्नस्कन्धनिरूपणं
३३७
द्रव्यस्कन्धस्य भेदा तरत्वम् अतः कृत्स्नस्कन्धा दना पुनरभिधानमनर्थकमिति चे दुच्यते - पूर्व सचित्त द्रव्यसन्याधिवात् तथाऽसम्भविनोऽपि बुद्धया निष्कृष्य उक्ता, इह तु जीवतदधिष्ठित शरीरावयवलक्षणः समुदायः कृत्स्नस्न्धत्वेन विवक्षित इत्यतोऽभिधेयभेदात् सिद्धं भेदान्तरत्वम् । अस्त्येवं, तथापि हयस्कन्धस्य कृत्स्नत्वं नोपपद्यते, तदपेक्षया गजस्कन्धस्य बृहत्तरत्वादिति चे मैवम, असंख्येय प्रदेशात्मको जीवस्तदधिष्ठिताश्वशरीरावयवा इत्येवं रूपः समुदाय हयादिस्कःधत्वेन विक्षित इति जीवस्यासंख्येयम देशात्मक त्वेन सर्वत्र तुल्यतया गजादि स्वन्त्र स्य बृहत्तरत्वासिद्धेः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - ' से तं' इति । स एष कुल्नस्कन्ध इति ॥ ५२ ॥ नामान्तर से प्रकारान्तररूप में वहे गये हैं । अतः इस तरह से कृत्स्नस्कंध आदि रूप से - पुनः कथन करना - सचित्त द्रव्य कन्ध का विवेचन करना ठीक नहीं हैं ? उत्तर सचित्तद्रव्यस्कन्ध में हयादि संबधी जीवों की ही उनके शरीर से उन्हें अपनी बुद्धि द्वारा पृथक् निकालकर विवक्षा हुई हैं उनके शरीर की नहीं परन्तु इस कृत्स्नस्कंध में जीव और जीवाधिष्ठित शरीरावयव इन दोनों रूप जो समुदाय है उसकि विवक्षा हुई है। इस तरह अभिधेय के भेद से सचित्त दoutकंध में और इस कृत्स्नस्कंध में परस्तर में भेद है ।
शंका- इस तरह भेद भले रहो - तो भी हम स्कन्ध में कृत्स्नता नहीं बनती है । क्यों कि हयस्कन्ध की अपेक्षा गजस्कंध बहुत बडा होता है । उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि हयादिस्कंधों में असंख्यातप्रदेश जीव और इस जीव से अधिष्ठित शरीरावयव इन दोनों रूप समुदाय विवक्षित है-एक
નામાન્તર દ્વારા (કૃનસ્કન્ધ રૂપ અન્ય નામ દ્વારા) પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તે સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધનું અહીં ફરીથી કૃત્સ્વદ્રવ્યસ્કન્ધને નામે વિવેચન કરવુ' તે ચેાગ્ય ગણાય નહીં.
ઉત્તર--સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધમાં અવાદિ સબધી જીવાની જ તેમના શરીરથી तेभने पोतानी ( सूत्रारनी) बुद्धि द्वारा पृथा (अस) उरी नाभीने विवक्षा थां છે-તેમનાં શરીરની વિવક્ષા થઇ નથી. પરન્તુ આ કૃત્સ્નસ્કન્ધમાં જીવ અને જીવાધિષ્ઠિત શરીરાવયવ આ મને રૂપ જે સમુદાય છે. તેની વિવક્ષા થઈ છે. આ રીતે અભિધેયના ભેદની અપેક્ષાએ સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધ અને અ! કૃત્સ્ન દ્રવ્યસ્કન્ધમાં પર२५२ ले छे.
શકા—આ પ્રકારને ભેદ ભલે હાય, છતાં પણ હુયરકધમાં કૃષ્નતા ઘટિત થતી થી, કારણુ હયસ્કન્ધ (અન્ધકન્ધ) કરતાં ગજકન્ધ ઘણા મોટા હોય છે. ઉત્તર—એવું કથન યોગ્ય નથી, કારણ કે હયાદિસ્કન્ધામાં અસખ્યાંત જીવ પ્રદેશે અને તે જીવ વડે અધિષ્ઠિત શરીરાચવા અને રૂપ સમુદાય વિક્ષિત છે.
For Private and Personal Use Only
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२८
अनुयोगद्वारसूत्रे अथ-अकृस्त्नस्कन्धं निरूपयति. मूलम्-से कि त अकसिणखधे ? अकसिणखधे सो चेव दुपए. सियाइखधे जाव अणंतपएसिए खंधे।से तं अकसिणख धे ।सू०५३॥
जीव में असंख्यात प्रदेश होता है। इस प्रकार असंख्यात प्रदेशरूप से जीव की सर्वत्र तुलाता है । अतः गजो दम्बंधों में बृहत्तरता की असिद्धि है। (से त' कसिणख धे) इस तरह यह कृत्स्नग्कंध का स्वरूप है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस स्त्र द्वारा दूसरी तरह से तद्वयतिरिक्त द्रव्याकंध के भेदों का यथन किया है । इन में जो कृतम्नस्कंध है उस में तत् १ जीव और तत्र जीगधिष्ठितशरीरावयवरूपसमुदाय विवक्षित हुआ है। इस तरह हयस्कंध अपने रूप से गजादिस्कंध अपने रूप से अपने २ में पूर्ण हैं। इसलिये ये स्कंध कृतनस्कंध हैं। आत्मा को शास्त्रकारोंने असंख्यात प्रदेशी कहा है। ये प्रदेश चाहे हयाक ध हो चाहे गजस्कंध हो सब में पूर्ण रहते हैं। यही इनकी अपने-अपने स्कंध में पूर्णता हैं। सचिनद्व्यस्कंध में तत्तत् जीवाधिष्ठितशरीर विवक्षित नहीं है वहाँ तो केवल उस शरीर में वर्तमान जीव ही विवक्षित है। इस प्रकार कृत्स्नस्कंध में और-सचित्त द्रव्यस्कंध में अन्तर जानना चाहिये । ॥ सू० ५२ ॥
એક જીવમાં અસંખ્યાત પ્રદેશ હોય છે. આ પ્રકારે અસંખ્યાત પ્રદેશીરૂપે જીવની સર્વત્ર તુલ્યતા (સમાનતા) છે. તેથી ગજાદિ સ્કોમાં અશ્વાદિ સ્કન્ધ કરતાં मपिता सिद्ध थती नथी. (से तं कसिणस्न धे) मा प्रा२नु २४न्धनु २१३५छ. | ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા તયતિરિકત દ્રવ્યસ્કાન ભેદનું બીજી રીતે કથન કર્યું છે. તેમાંથી જે કૃમ્નસ્કન્ધ છે તેમાં તે તે જીવ અને તે તે (હય, ગજાદિ જવાધિષ્ઠિત શરીરવયવ રૂ૫ સમુદાય વિવક્ષિત થયે છે. આવી રીતે હયસ્ક અને ગજાદિ સ્કન્ધ પિતાપિતાને રૂપે પરિપૂર્ણ છે. તેથી તે સ્કન્ધને કૃકલ્પ કહેવામાં આવેલ છે. આત્માને શાસ્ત્રકારોએ અસંખ્યાત પ્રદેશી કહ્યો છે. તે પ્રદેશ ભલે હયસ્કન્ધ હોય અથવા ભલે ગજઔધ હોય બધામાં પૂર્ણ રહે છે એજ તેમની પિતાપિતાના સ્કર્ષમાં પૂર્ણતા છે. સચિત્તદ્રવ્યસ્કન્ધમાં તે તે (અધ, ગજ આદિ પ્રત્યેક જીવાધિષ્ઠિ શરીર વિવક્ષિત થયું નથી, ત્યાં તો કેવળ તે તે શરીરમાં રહેલા જીવની જ વિવિક્ષા થઈ છે. આ પ્રકારનું કૃત્નસ્કન્ધ અને સચિત્ત દ્રવ્યસ્ક ધ વચ્ચેનું અંતર ( a) सभा .. ॥ सू. ५२ ।।
For Private and Personal Use Only
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टा
अनुयोगचन्द्रिकाटीका. ५३ अकृत्स्नस्कन्धनिरूपणम्
२२९ छाया-अथ कोऽयो अकृत्स्नस्कन्धः ? अकृत्प्न कन्धः स एव द्विप्रदेशिकादिस्कन्धो यावत् अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः । स एष अकृत्स्नस्कन्धः ।।५३॥
टीमा--शिष्यः पृच्छति-से किं त' इत्यादि
अथ कोऽसावकृत्स्नस्सन्यः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरमाह-अकृत्स्नस्कन्धः -न कृत्स्नः-ॐ कृत्स्नः, स चासौ स्कन्धश्चेति, अकृस्नस्कन्धः-य मादन्योऽपि बृहत्तरः स्कन्धोऽस्ति सोऽपरिपूर्णत्वादकृत्स्नस्सन्ध इत्यर्थः, स तु स एव पूर्वोक्त द्विप्रदेशिकादि सान्धे यावत् अनन्तप्रदेशिक: ससन्धाः। द्विप्रदेशिकः स्कन्धस्त्रिप्रदशि पेक्षया कृ स्नः, त्रिपदेशि चतुः प्रदेशिकापेक्षयाऽकृत न इ युत्तरोत्तरापेक्षया
अब सूत्रकार और नस्कंध का कथन करते हैं“से किं तं अकसिणखधे ?" इत्यादि । ॥सूत्र ५३॥
शद्वार्थ-से कि त अकिसणखधे सो चेव दुपएसियाइख धे जाव अणंतपएसिए खधे) अकृतस्नस्कंध का स्वरूप इस प्रकार से है-कि जो द्वि प्रदेशिक आदि रकौंध से लेकर अनन्तप्रदेशिक तक के स्कंध हैं वे सब अकृत्स्नकध हैं। जिस स्कंध से और भी कोई दूसरा बहुत बड़ा स्कंध होता है-वह अपरिपूर्ण होने के कारण अकृतनस्कध है। ऐसे अपरिपूर्ण ये सब द्विप्रदेशवाले स्कंध से लेकर अनन्त प्रदेश तक के स्कंध हैं। इनमें अपरिपूर्ण ता इस प्रकार से है कि जो द्विप्रदेशिक स्कंध होता है वह त्रिप्रदेशिकस्कंध की अपेक्षा न्यून होने से अपरिपूर्ण हाता है, त्रिप्रदेशिकस्कंध चतुः प्रदेशिक स्कंध की अपेक्षा न्यून होने से अपरिपूर्ण होता है। इस तरह उत्तरोत्तर की
હવે સત્રકાર અકૃત્નસ્કન્ધનું નિરૂપણ કરે છે– “से किं तं अकसिणखंधे" त्याह
सम्हा-(से किं तं अकसिणख धे?) शिष्य गुरुने मेयो प्रश्न पूछे छे । હે ગુરુમહારાજ ! અકૃત્ન સ્કલ્પનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अकिसिणखंधे सो चेत्र दुपएसियाइखधे जाव अगत्तपएसिए खंधे) अनन्तु २१३५ मा २२ द्विप्रशि४ाहन्धाथी सन અનંતપ્રદેશિક પર્યન્તના અધે છે, તે બધાં અકૃત્નસ્ક છે. જે સ્કન્ધ કરતાં વધારે માટે કોઈ બીજે અબ્ધ હોઈ શકે છે, તે સ્કઃ ધ અપરિપૂર્ણ હોવાને કારણે અકૃત્ન સ્કન્ધ ગણાય છે. ક્રિપ્રદેશથી લઈને અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના સમસ્ત સ્ક આ રીતે અપરિપૂર્ણ જ હોય છે. તેમાં અપરિપૂર્ણતા આ પ્રકારે સમજવી જોઈએ જે દ્વિદેશિક અન્ય હોય છે તે ત્રિપ્રદેશિક સ્કન્ધ કરતાં ન્યૂન હોવાથી અપરિપૂર્ણ હોય છે, ત્રિપ્રદેશિક સ્કન્ધ ચતુઃપ્રદેશિક સ્કન્ય કરતાં ન્યૂન હેવાથી અપરિપૂર્ણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે ઉત્તરોત્તર સ્કન્ધ કરતાં પ્રત્યેક પૂર્વના (આગળના) સ્કન્દમાં ન્યૂન
For Private and Personal Use Only
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारखेत्र पूर्वपूर्वोऽकृत्स्नो बोध्यो यावत्कृत्स्नता नायाति ! पूर्व विप्रदेशिकादिः सर्वोकृष्टप्रदेशश्च स्कन्धः सामान्येनाचित्ततया प्रोक्तः, इह तु सर्वोत्कृष्टस् कन्धादधोवर्ति एवाचित्तस्कमा उत्तरोत्तरोत्तरापेक्षया पूर्वपूर्वतरा अकृत्स्नस्कस्वत्वेनोक्ता इयुभो दः॥५३॥ अपेक्षा से पूर्व २ का स्कंध अकृत नर कंध जानना चाहिये । यह अकृस्नता तबतक चलती है कि जब तक कृत्रनता नहीं आती है।- द्विप्रदेशिक आदि स्कंध और समस्त और समस्त उकृष्ट प्रदेशवाले ध पहिले सामान्य रूप से अचित्त व हे गये हैं। पर तु इस अकृत्स्न्द्र य कंध के प्रकरण में सर्वोस्कृष्ट कंध से पहिले के ही कंध उत्तरोत्तर की अपेक्षा से अकृत्स्नस्कधरूप से कहे गये हैं। यही इन दोनों में भेद है
भावार्थ--स्त्रकारने इस सूत्रद्वारा अकृत नस्कन्ध का वरूप और अकु(सर कंध में तथा अचित्तस्कंध में क्या अन्तर है यह प्रकट किया है । आपेक्षिक अचित्त स्कन्धों की आरिपूर्णता का नाम अकृत् ता है । यह अकृत्स नता द्विप्रदेशी आदि कथा में त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों की अपेक्षा आती है। और यह आपेक्षिक अकृतनता तबतक मानी जाती है कि जबतक अन्त में करस्नता नहीं आ जाती है। इसके आते ही अन्त का स्कंध कृस्न होने से फिर आगे के लिये अकृत्स्नता की द्वारा रु जाता हैं। इस प्रकार कृस्मता તાની અપેક્ષાએ તેમાં અપરિપૂર્ણતા સમજવી આ અપરિપૂર્ણતાને કારણે જ તેમને અકૃસ્કન્ધ કહેવામાં આવ્યા છે. આ અકૃત્નતા ત્યાં સુધી ચાલુ રહે છે કે જ્યાં सुधी अन्नता (परिपूर्णता) भापती नथी.
દ્વિદેશિક આદિ સ્કન્ધ અને સમસ્ત ઉત્કૃષ્ટ પ્રદેશવાળા સ્કને પહેલાં સામાન્યરૂપે અચિત્ત કહેવામાં આવ્યા છે. પરંતુ આ અકૃત્ન દ્રવ્યસ્કઘના પ્રકરણમાં સર્વોત્કૃષ્ટ સ્કલ્પથી આગળના સ્કન્ધોને ઉત્તરોત્તરની અપેક્ષાએ અકસ્મસ્કલ્પરૂપે કહેવામાં આવ્યા છે. એટલે જ અચિત્તસ્કન્ય અને અકૃતસકલ્પ વચ્ચે તફાવત છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સત્ર દ્વારા અન્નકધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે, તથા અકૃત્યનસ્કન્ધ અને અચિત્ત કન્ય વચ્ચે શું તફાવત છે તે પણ પ્રકટ કર્યું છે. આપેક્ષિક અચિત્તકની અપરિપૂર્ણતાનું નામ જ અકૃસ્નતા છે. દ્વિદેશિક આદિ કમાં વિદેશી આદિ અધ કરતાં અસ્નતા (અપરિપૂર્ણતા) રહેલી હોય છે. આ આપેક્ષિક અકૃસ્નતાને સદુભાવ રહે છે કે જયાં સુધી અને કુનતા (પરિપૂર્ણતા) આવી જતી નથી. આ પ્રકારે જ્યારે કૃનતા આવી જાય છે ત્યાર અન્તિમ ઔધ (ઉત્કૃષ્ટ પ્રદેશેવાળે સ્કલ્પ)કૃતન સ્કન્ધ થઈ જવાને કારણે ત્યારબાદ અનતાની ધારા અટકી જાય છે. આ રીતે પૂરન કરતાં પહેલાંના રક
For Private and Personal Use Only
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२३१
अनुयोगचन्द्रिका टीका ५४ द्रव्य कन्धनिरूपणम् ___ मूलम-से कि तं अगदवियखधे ? अणेगदवियखधे-तस्स चेव देसे अवचिए तस्स चेव देस उवचिए, से तं अणेगदवियखध से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्त दबखधे, से तं नी आगमओ दव्वखधे, से तं दव्वखधे ॥ सू० ५४ ॥
छाया-अथ कोऽसौ अनेकद्रव्यस्कन्धः १ अनेकद्रव्यसक धः-तस्थैव देशोऽपचितः त येव देशउपचितः । स एषः अनेव द्र स्वाधः स एष ज्ञाय फशरीरभ शरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्वन्धः, स एष ने आगमतो द्रव्यस्कन्धः । स एष द्रव्यस्कन्धः । ५४॥
टीका--'से कि तं' इत्यादि
अथ कामो अनेकद्रव्यस्कन्धः ? इति शिष्णप्रश्नः। उत्तरमाह अनेकद्रव्यस्कन्धः-अनेक द्रव्यश्चासौ स्कन्धश्चेति कर्मधारयः, स तु य पस्तथोच्यते 'तस्स से पहिले २ के स्कन्धों में पूर्व २ की अपेक्षा कृत्स्नता और उत्तर २ की अपेक्षा अकृत्स्नता सापेक्षिक सध जाती है। अन्त के कृत्स्नक ध में कृत्स्नता सापेक्षिक नहीं है किन्तु स्वाभाविक होती है। अचित्त द्रव्यस्मन्ध में द्विप्रदेशी आदि समस्त अचित्त स्कंधों में सामान्य रूप से अचित्तता प्रकट की गई है और अकृतरनस्कंध में सर्वोत्कृष्ट स्कंध से पहिले पहिले के स्कंधों में अपरिपूर्णता । इस प्रकार इन दोनों में अन्तर वहा गया है ॥ सूत्र ५३ ॥
अब सूत्रकार अनेक द्रव्यस्कंध को कहते हैं“से किं तं" इत्यादि । ॥मत्र ५४॥
માં તેમના પૂર્વ પૂર્વના (આગળ-આગળના) સ્કની કરતાં કૃનતા અને ઉત્તરોત્તર (પાછળ-પાછળના) સ્કન્ધની અપેક્ષા અસ્નતા સાપેક્ષિક રીતે ઘટિત થઈ જાય છે. અન્તિમ કૃમ્નસ્કધમાં કરનતા સાપેક્ષિક હોતી નથી, પણ સ્વાભાવિક હોય છે, કારણ કે તેના કરતાં મેટે કઈ સ્કન્ધ જ હેતે નથી, પણ તેના કરતાં નાના તેની આગળના સ્કન્ધ હોય છે.
અચિત્ત દ્રવ્યસ્ક માં-દ્ધિપ્રદેશી આદિ સમસ્ત અચિત્ત માં સામાન્યરૂપે અચિત્તતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. અને અકૃસ્નારકન્ડમાં સર્વોત્કૃષ્ટ કલ્પથી આગળના (પહેલાંના) માં અપરિપૂર્ણતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ પ્રકારનું તે બને વચ્ચેનું અંતર (તફાવત) કહેવામાં આવ્યું છે. એ સૂત્ર ૫૩ છે
હવે સૂત્રકાર અને દ્રવ્યસકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. 'से किं तं अणेगदवियरन घे" त्याह
For Private and Personal Use Only
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
-
૨૨
अनुयोगद्वारसत्र
येव' इत्यादिना । तयैव = स्कन्धग्यैव यो देश : = नखदन्तकेशादिलक्षणो भागः अपचितः = जीवप्रदेशे र्विरहितो भवति तथा तस्यैवरकन्धस्यैव यो देश := पृष्ठोदरकरचरणादिलक्षणो भाग उपचितः = जीवा दशैव्यप्तो भवति, सोऽनेकद्रव्यस्वन्धी बोध्यः । अयं भावः तयोर्यथोक्त देशयो विशि टैंकर रिणामपरिण तयो य देहाख्यः समुदायः सोऽनेकद्रव्य स्कन्धः, सचेतनाचेतनानेकद्रव्यात्मकत्वादिति । अयमनेक द्रव्यस्कन्धः सामर्थ्यात्तुरगादिस्कन्ध एव प्रतीयते ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ननु तर्हि कृत्स्नस्त्रन्धादस्य को विशेषः ? इति चे दुच्यते - कृत्स्नसकन्धस्तु शब्दार्थ - ( से किं तं अगद दियख धे) हे मदत ! अनेक द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है । ( अणे गदवियखंधे) उत्तर - अनेक द्रव्य कंध को स्वरूप जैसा है - वैसा - हम कहते हैं ( तस्स चैत्र देसे अवचिए तरस चेव देसे उवचिए) स्कंध का जो नख केश दन्त, आदिरूप भाग है, वह अपनित - जी प्रदेशों से रहित - होता है, तथा उसी स्कंध का जो पृष्ठ, उदर, कर, चरण आदिरूप भाग है, वह उपचित-जी प्रदेशों से व्याप्त रहता है ( से तं अणेगदवियखधे) वह अनेक द्रव्य कंध है । इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों भागों का कि जो एक विशिष्ट आकार में परिणत रहते हैं. देहरूप समुदाय अनेक द्रव्यस्क है ।
क्योंकि यह समुदाय सचेतन और अचेतनरूप अनेक द्रव्यात्मक है | यह अनेक द्रव्यद्रस्कध सामर्थ्य से तुरगादिकध - हयादिस्कंध ही प्रतीत होता है। शंका- जब यह अनेक द्रव्यस्कंध हयादिकधरूप प्रतीत होता है तो शब्दार्थ (से किं तं अणेगद वियख दे ?) शिष्य गुउने सेवा प्रश्न रे
છે કે હે ગુરૂ મહારાજ! અનેક દ્રવ્યન્કન્ધનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर---(अोगदवियख घे) अनंत द्रव्यस्न्धतु स्व३ मा प्रा ह्युं छे(ate चेव देसे अवचिए तस्स चेव देसे उवचिए) अन्धो ? नम, श, हांत આદિરૂપ ભાગ હાય છે તે અપચિત-જીવપ્રદેશેામાંથી રહિત-હાય છે, તથા એજ સ્કન્ધના જે પૃષ્ઠ, ઉદર, હાથ, પગ આદિરૂપ ભાગા છે તેએ ઉપચિત-જીવ પ્રદેશેાથી व्यास-रडे छे. (से तं अगदवियख धे) मा अारनु मनेय द्रव्यसन्धेनु' स्व३५ છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે તે બન્ને ભાગા (અપચિત અને ઉપચિત ભાગે) કે જે એક વિશિષ્ટ આકારે પરિણત થઇને તેમના જે દેહુંરૂપ સમુદાય બને છે તેને અનેકદ્રવ્યસ્કન્ધ કહેવામાં આવે છે કારણ કે તે સમુદાય સંચેતનરૂપ અને અચેતન રૂપ અનેક દ્રવ્યાત્મક હાય છે. આ અનેક દ્રશ્યસ્કન્ધ તુરગાદિકધ (અશ્વાદિસ્ક ધ)
સમાન જ લાગે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ५४ अनेकद्रव्यस्कन्धनिरूपणम् जीवप्रदेशानुगतो यावान् देशस्तावानेव विवक्षितो न तु जीवप्रदेशाव्याप्तनखादि स हितः, अत्र तु नखादि सहितोऽपि अनेकद्रव्यस्कन्धत्वेन विवक्षितः।
ननु पूर्वोक्तमिश्रस्कन्धादस्य को विशेषः १ इति चेदुच्यते-पूर्वत्र पृथगपृथगवस्थिताना सचेतनाना हस्त्यादीनामचेतनानां कवचादीनां च समूहत्वेन परिकल्पनया मिश्रस्क धत्वम्, अत्र तु विशिष्ट परिणाम परिणतानां सचेतनाचेतनद्रव्याणामनेकद्रव्यस्कन्धत्वम्, इत्यनयोविशेषः । मूले 'तस्स' शब्देनात्र प्रकरणस्वारस्यात् सन्धमानं विवक्षितम् । सम्प्रति प्रकृतमुपसंहर्तुमाह-से ते' इत्यादि । स एषः फिर कृत्स्नग्कंध से इसमें अंतर क्या है ?
उत्तर-कृत्स्नस्कंध में तो जीव के प्रदेशों से व्याप्त जितना शरीरावयवरूप देश है वही विवक्षित हुआ है, जीवप्रदेशों से अव्याप्त नखादि सहित प्रदेश नहीं । परन्तु इस अनेक द्रव्यस्कंध में नखादि सहित भी देश अनेकद्रव्यस्कंधरूप से विवक्षित हुआ है।
शंका-तो फिर मिश्रद्रव्यस्कण्ध से इसमें क्या विशेषता आई ? उत्तरमिश्रद्रव्यस्कन्ध में पृथक् और अपृथकूप से व्यवस्थित हुए हस्ती आदिको के समुदाय को मिश्रस्कंधरूप से कहा गया है, परन्तु उस अनेक द्रव्यस्कंध में विशिष्ट परिणामरूप से परिणत हुए सचेतन अचेतन द्रव्यों को अनेक द्रव्याकंधरूप से कथित किया गया है। यही इन दोनों में विशेषता है। मूलमें "तस्स" शब्द यहाँ पर प्रकरण की स्वरसता से स्कंध मात्र विवक्षित हुआ है। अब इस प्रकरण का उपसंहार करने के निमित्त सूत्रकार कहते हैं
શંકા–જે આ અનેક દ્રવ્યસ્કન્ધ હયાદિસ્કલ્પરૂપ જ પ્રતીત થાય છે, તે તેમાં કૃમ્નસ્કન્ધ કરતાં શી વિશિષ્ટતા છે?
ઉત્તર–કન્ઝસ્કન્દમાં તે જીવના પ્રદેશથી વ્યાસ જેટલો શરીરવયવરૂપ દેશ (અંશભાગ) છે; તેની જ વિવક્ષા થઈ છે, જીવપ્રદેશથી અવ્યાપ્ત નખાદિ સહિત ના પ્રદેશની વિવક્ષા થઈ નથી. પરંતુ આ અનેક દ્રવ્યરકલ્પમાં તે નખાદિ સહિત જીવપ્રદેશથી વ્યાપ્ત શરીરવયવરૂપ દેશની અનેક દ્રવ્યસ્કલ્પરૂપે વિવક્ષા થઈ છે,
શંકા–મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ય કરતાં અનેક દ્રવ્યસ્કન્દમાં શી વિશિષ્ટતા છે?
ઉત્તર–મિથ દ્રવ્યસ્કધમાં પૃથફ અને અપૃથફરૂપે વ્યવસ્થિત થયેલા હાથી આદિ સચેતન પદાર્થોના અને કવચ, તલવાર આદિ અચેતન પદાર્થોના સમુદાયને મિશ્રઅન્વરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે. પરંતુ આ અનેક દ્રવ્યસ્કધમાં વિશિષ્ટ પરિણામ રૂપે પરિણત થયેલા સચેતન અચેતન દ્રવ્યને અનેકદ્રવ્યસ્ક ધરૂપ કહેવામાં આવેલ छ. मे ४ मन्ने १२ये तापत छ. भूगमा "तस्स" ५०४ 43 मही . ૨ણની સ્વસતાની અપેક્ષાએ રકમ ધ માત્ર વિવક્ષિત થયેલ છે. હવે આ પ્રકરણને
For Private and Personal Use Only
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
Masom
-
अनुयोगधारसूत्रे भनेकविधो न्यस्कन्ध इति । ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसन्धो निरुपित इति सूचयितुमाह-से तं' इत्यादि । स एष ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिको द्रव्यस्कन्ध होत । नो आगमतो द्रव्यस्कन्धो निरूपित इति सूचवितुमाह-'से तं' इत्यादि । स एष नोआगमतो द्रव्यस्कन्ध इति । द्रव्यस्कन्धोऽपि निरूपित इति सूचयितुमाह-'से तं' इत्यादि। स एष द्रव्यस्कन्ध इति।५४।
अथ भावसन्धं निस्पयितुमाह
बलम्-से किं तं भावखधे ? भावखंधे दुविहे पण्णते, तं जहा आगमओ य नोआगमओ य ॥ सू० ५५ ॥
हाया-अथ कोऽसौ भावरकन्धः १ भावस्कन्धेो विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा आगमनब मोजानतश्च ॥ ५५ ॥ कि (सै त अणेगदवियखधे) इस प्रकार यह अनेकविध द्रव्य कंध है । (से त जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दरखधे-से तनो आगमओ दध्वखंधे, से त दव्वबंधे) इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यस्कंधका निरूपर समाप्त हुआ-और इसकी समाप्ति से नोआगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यस्कंध का कथन भी पूर्ण हुआ इसकी पूर्णता से द्रव्यस्कंध निक्षेप का स्वरूप विषयक वर्णन भी पूर्ण हो चुका । ॥सूत्र ५४॥ . अब सूत्रकार भाव:कध का निरूपण करते हैं
से किं तं भावखधे" । इत्यादि ॥मूत्र ५५॥ मन्दार्थ-(से किं तं भावख धे) हे भदन्त । भावस्कंध का क्या स्वरूप है ? G५सार ३२ निमित्त सुत्र४२ ४ छ ?-(से तं अणेगदवियख धे) मा ४. २ अने०३२४-4 स्व३५ छ (से तं जाणयसरीर, भवियसरीरवइरित्ते दव्वखधेसे त' नोआगमओ दव्वखधे, से तं दध्वखंधे) Al tरे शाय४०१२ भने ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. તેના નિરૂપણની સમાપ્તિ થવાથી આગમદ્રવ્યરકલ્પના બધા ભેદના નિરૂપણની પણ અહીં સમાપ્તિ થઈ જાય છે, આ રીતે આગમવ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ સમાપ્ત થઈ જવાથી દ્રવ્યસ્ક નિક્ષેપના સ્વરૂપ વિષયક કથન પણ અહીં પૂરું થઈ જાય છે. મારુ૫૪
હવે સરકાર ભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– से किं तं मावलंधे ?" त्याह
श -( किं तं भावनधे १) शिष्य गुरुने यो प्रश्न पछे छे । હે શહારાજ ! ભાવસ્કનું સ્વરૂપ કેવું છે?
-
For Private and Personal Use Only
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका ५६ आगमतो भावस्कन्धनिरूपणम्
टीका-'से किं तं' इत्यादि-व्यास्या निगदसिद्धा ॥५५॥ अथ-आगमतो भावस्कन्धमाह--
मूलम्--से कि तं आगमओ भाषखंधे ? आगमओ भावखंधे जाणए उवउत्ते । से तं आगमओ भावखंधे ।सू०५६॥
छाया--अथ कोऽसौ आगमतो भावस्कन्धः १ आगमतो भावस्कन्धो ज्ञायक उपयुक्तः। स एष आगमतो भावस्कन्धः ॥५६॥
टीका--'से किं तं' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धाः ॥५६॥
उत्तर--(भावख धे दुविहे पण्णत्ते) भावस्कंध दो प्रकार का है (तं. जहा), वे प्रकार ये हैं-(आगमओ य नोभागमओ य) एक आमम भावस्कंग और दूसरा नोआगम भावस्कंध । इसकी व्याख्या आमम भावाश्यक की व्याख्या जैसी ही जाननी चाहिये । ॥सू० ५५॥
अब सूत्रकार आगमभावस्कंध का कथन करते हैं"से कि त आगमओ" इत्यादि । ॥ सूत्र ५६ ॥
शब्दार्थ-(से कि त आगमओ भावखधे १) हे भदंत ! आगम को आश्रित करके जायमान आगमभावस्कंध का कया स्वरूप है ? (आगमो भावखंधे जाणए उवउत्ते) उत्तर-आगम नो आश्रित करके स्कंध पदार्थ का उपयुक्त ज्ञाता आगम भावस्कंध है। (सेत आगमओ भावरख धे) यह आगम को
.. त्त२-(भावखंधे दुविहे पण्णत्ते) मा१२३ मे २.हा- छ. (तं. जहा। ते प्रा। नीय प्रभारी छे-(आगमओ य नोभागमओ य) (१) माम8-4અને (૨) આગમભાવસ્ક ભાવસ્કન્દની વ્યાખ્યા ભાવ આવશ્યકની વ્યાખ્યા જેવી જ સમજવી છે સૂ૦ ૫૫ છે
હવે સૂત્રકાર આગમભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે ?
“से कि तं आगमओ भावखधे?" त्या:
शहा-(से कि तं आगमओ भावनधे १) शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न पूछे છે કે ગુરુ મહારાજ ! આગમને આશ્રિત કરીને જાયમાન એવા આગમભાવકત્વનું ३२१३५ छे ?
उत्त२ (आगमओ भावख धे जाणए उपउत्ते) मागभने आधारे २४५५४ायना उपयुत (उपयोग परिणाम युत) ज्ञाताने मागम भा५५४५ ४३ छ. (से त आगमओ भाषख) मा २ भागभने माxिa रीने भागमा२४4
For Private and Personal Use Only
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२३६
अनुयोगद्वारसत्रे अथ नो आगमतो भावस्कन्धमाह-- - मूलम्-से किं तं नोआगमओ भावबंध ? नोआगमओ भावखंधे एएसिं चेव सामाइयमाइयाणं छण्हं अज्झयणाणं समुदयसमिइसमागमेणं आवस्सयसुयखधे भावख धेत्ति लठभइ । से तं नोआगमओ भोवखधे, से तं भावख घे ॥सू० ५७॥
छाया--अथ कोऽसौ नोआगमतो भावस्कन्धः १ नोआगमतो भावस्कन्धः एतेषामेव सामायिकादीनां षण्णामध्ययनानां समुदयसमितिसमागमेन आवश्यकश्रुतस्कन्धो भावस्कन्ध इति लभ्यते । स एष नोआगमतो भावस्कन्धः । स एष भाव'कन्धः ॥५७॥
टीका-शिष्यःपृच्छति-से किं ते' इत्यादि-अथ कोऽसौ नोआगमतो भावस्कन्धः । इति । उत्तरमाह-नो आगमतो भावस्कन्ध एवं विज्ञेयः-एतेषांप्रस्तुतानामेव सामायिकादीनां षणाम् अध्ययनानां समुदयसमितिसमागमेन
आश्रित करके आगम भावस्कंध का स्वरूप है। इसकी व्याख्या आगमभावावश्यक प्रतिपादक सूत्र की व्याख्या जैसी जाननी चाहिये । ॥सत्र ५५॥ ... अब सत्रकार नोआगम को आश्रित करके भावस्कंध का स्वरूप कहते हैं-- .“से किं तं नोआगमओ इत्यादि । ॥सूत्र ५७॥
शब्दार्थ--(से किं तं नोआंगमओ भावबंधे) हे भदन्त । नोआगम से भावस्कंध क्या है। (नो आगमओ भावख धे) नो आगम से भावस्कंध ऐसा है-(एएसिं चेव सामाइयमाइयाणं छण्डं अज्झयणाणं समुदयसमिई समागमेणं સ્વરૂપ છે. આ સત્રની વ્યાખ્યા આગમભાવાવસ્થાનું પ્રતિપાદન કરનારા સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. સૂ૦ પદા
હવે સૂત્રકાર ને આગમ ભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
“से कि त नोआगमओ भावखंधे" त्या
शम्दार्थ--(से कि त नोआगमओ भावन घे?) शिष्य गु३ने मेवो प्रश्न પૂછે છે કે હે ગુરુ મહારાજ ! આગમને આશ્રિત કરીને જે ભાવકન્ય કહ્યું છે " તે આગમભાવસ્કલ્પનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नोआगमआ भावन धे) नामागममा१९४-५ १३५ मा २ छ.
(एएसिं चेव सामाइयमाझ्याणं छण्ह अज्झयणाणं समुदयसमिई समागमेणं अवस्सयसुयखंधे भावनध त्ति लब्भइ) ५२२५२ प्रस्तुत थये। साभा
For Private and Personal Use Only
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका. ५७ नोआगमतो भावस्कन्धनिरूपणम् समुदयस्य आवश्यकादि षडध्ययनसमुदायस्य या समितिः नैर-तर्येण भीलनं तम्याः समागमः परस्परं संबद्धतया एकोपयोगस्तेन निष्पन्नो य आवश्यकश्रुतस्कन्धः स भावस्कन्ध इति लभ्यते भवति । अयं भावः-परस्परसम्बद्धसामायिकादिषडध्ययनसमूहनिष्पन्नआवश्यकश्रुतस्कन्धः सदोरकमुखवस्त्रिका रजोहरणादिव्यापारलक्षण क्रियायुक्ततया विवक्षितो नोआगमतो भावस्कन्धः। स्कन्धपदार्थ ज्ञानत्वागमः । तदुपयोगो भावः, क्रिया नोआगमः। क्रियालक्षणस्य देश या. नागमत्वाद् नो शब्दोऽत्र देशनिषेधपरो बोद्धव्य इति । पृथगूभूतानामपि सामायि कादि षडध्ययनानां स्कन्धः स्यादत उक्तम्-'समुदयसमिई' इति । समुदयसमिअवस्सय सुयखधे भावखधे तिलब्भड) आत्मा में परस्पर प्रस्तुत हुए सामायिक ओदि छह अध्ययनों के निरन्तर सेवन से जो आत्मा में एक उपयोगरूप परिणाम उत्पन्न होता है, उस परिणाम से निष्पन्न आवश्यक श्रुतस्कंधभावस्कंध है। तात्पर्य इसका यह है-परस्पर में संबद्ध हुए सामायिक आदि छह अध्ययनों के समूह से निष्पन्न हुआ आवश्यक श्रुतरकध, सदोरकसुखवत्रिका रजोहरण आदि व्यापाररूप क्रिया से सहित जब विवक्षित होता हैतब वह नोआगमस्कंध है। स्कंध पदार्थ का ज्ञान आगम है । और उस आगम में हुआ ज्ञाता का उपयोग भाव है । तथा रजोहरण आदिरूप जो क्रिया है. वह नोआगम है । इस तरह क्रियारूप एक देश में अनागमता होने से नो शब्द यहां देशनिषेध परक जानना चाहिये । सूत्रकार "समुदयसमिइ" पद का "आवश्यक आदि छह अध्ययनों के समूह का निरन्तर मिलना" यह अर्थ है तथा "समागम" का पटप्रदेशीस्कंध की तरह आवश्यकश्रुतस्कंध का યિક આદિ છ અધ્યયનના નિરંતર સેવનથી આત્મામાં જે એક ઉપગરૂપ પરિણામ નિષ્પન્ન (ઉત્પન્ન) થાય છે, તે પરિણામથી નિષ્પન્ન (જાયમાન) આવશ્યક શ્રતઅંધનું નામ ભાવસ્કન્ધ છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-પરસ્પરની સાથે સંબદ્ધ થયેલા એવા સામાયિક આદિ છ અધ્યયનેના સમૂહથી નિષ્પક્ષ થયેલે આવયક શ્રુતસ્કન્ધ, સદેરક મુહપત્તી રજોહરણ આદિ વ્યાપારરૂપ ક્રિયા સહિત જ્યારે વિવક્ષિત થાય છે, ત્યારે તે આગમભાવસ્કલ્પરૂપ બની જાય છે. સ્કન્ધ પદાર્થના જ્ઞાનને આગમરૂપે, તથા તે આગમમાં જ્ઞાતાના ઉપગરૂપ પરિણામને ભાવરૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તથા રજોહરણ આદિરૂપ જે ક્રિયા છે તેને નોઆ ગમ કહી છે. આ રીતે ક્રિયારૂપ એક દેશમાં અનાગમતા હોવાથી “” શબ્દ અહીં देशनिषेधनु सुयन रे छ, मेम सभा मा सुत्रमा “समुदय समीइ" । પદને “સામાયિક આદિ છ અધ્યયનનું નિરન્તર મળવું” એ અર્થ થાય છે, तथा "समागम" मा पहना ७ प्रदेशी धनी म मावश्या तस-यनु
For Private and Personal Use Only
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसत्रे तिस्तु नैरन्तय विस्थापितलोहशलाकानामिव परस्परनिरपेक्षाणामपि स्यादत आह'समागम' इति । षट्प्रदेशिकस्कन्धवत् एकीभूतोयमावश्यक श्रुतस्वन्धः। प्रकृतमुंपसंहरन्नाह-सोऽसौ नोआगमतो भावस्कन्धः, इति । भावस्कन्धः सर्वतोऽपि निरूपित इहि सुचयितुमाह-सोऽसौ भावस्कन्धः, इति ॥सू० ५७ आत्मा में एकरूप होना" यह है। इस तरह सूत्रकारने इस समागमपद से यह स्पष्ट किया है कि नैरन्त र्य रूप में अवस्थापित लोह शलावाओ के समान पास्पर निरपेक्ष सामायिक आदि पड आवश्षकों की समुदयसमिति नोआगम से भावस्कंध नहीं है । (से तं नोआगमओ भारखधे) इस तरह यह नोआगम से भावस्कंध है । (से तंभारख'धे) इस प्रकार भावसकंध का वर्णन किया। . भावार्थ---सूत्रकारने इस सूत्र द्वाग नोआगम को आलित करके भावस्कंध का रूरूप प्रकट किया है। इसमें उन्होंने यह कहा है कि परसर संश्लिष्ट सामायिक आदि छह अध्ययनों के निरन्तर सेवन करने से जो आन्मा में तल्लीनता होनेरूप उपयोग परिणाम होता है और उस परिणाम से जो आवश्यकश्रुतस्कंध निष्पन्न होता है उसका नाम भावस्कंध है। यही भावस्कंध जब सदोरकमुखरस्त्रिका आदि व्यापाररूप क्रिया से विवक्षित किया जाता है। तब वह नोमागम भावस्कंध हैं। स्कंध पदार्थ का ज्ञान आगम उसमें ज्ञाता का उपयोग भाव और जो रजोहरण आदि द्वारा किं, આત્મામાં એકરૂપ થવું", એ અર્થ થાય છે. આ રીતે સૂત્રકારે આ સમાગમ પદના પ્રયોગ દ્વારા એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે નરન્તર્ય રૂપે અવસ્થાપિત લેહંશલાકાઓની લેઢાની સળીઓની) જેમ પરસ્પર નિરપેક્ષ સામાયિક આદિ છ આવશ્યआनी समुध्यसमिति न भनी अपेक्षा माप२४-५ नथी. (से तं नोआगमओ भावन धे) नमाजमनी अपेक्षा मा .धनु मा ४२नु २१३५ छ. (से तं भावख धे) मा रीते मा१२४धना मन्ने हो - RI समास थाय छे.
ભાવાર્થ--સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આગમને આશ્રિત કરીને ભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં તેઓએ એ વાત પ્રતિપાદિત કરી છે કે પરસ્પર સંશ્લીઝ (સંબદ્ધ) સામાયિક આદિ ૬ અધ્યના નિરતર સેવનથી આત્મામાં જે તલ્લીન. તા થવા રૂપ ઉપગ પરિણામ થાય છે અને તે પરિણામથી જે આવશ્યકશ્રુત કન્ય નિષ્પન્ન થાય છે, તેનું નામ ભાવકન્ય છે. એજ ભાવકલ્પને જયારે સદેરક મુહત્તી રજોહરણ આદિ વ્યાપારરૂપ ક્રિયાથી વિવક્ષિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તે આગમભાવસ્ક ધ કહેવાય છે. સ્વધ પદાર્થના જ્ઞાનનું નામ આગમ છે, તેમાં જ્ઞાતાના ઉપયોગ પરિણામનું નામ ભાવ છે, અને જે રજોહરણ આદિવડે થતી ક્રિયા
For Private and Personal Use Only
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगपन्द्रिका टीका.सू० ५८ स्कन्धपर्याय निरूपणम्
इदानीं स्कन्धस्य पीयान् विवक्षुराह___ मूलमू-तस्स णं इमे एगट्रिया णाणाघोसा णाणावंजणा एमट्रिया नामघेजा भवंति, तं जहा-गणकाए य निकाए, खघे वग्गे तहेव रासी य । पुंजे पिंडे निगरे, संघाए ओउलसमूह ॥१॥ से त खंघे ॥ सू० ५८ ॥
छ.या-तस्य खलु इमानि एपार्थिानि नाना पाणि नानाव्यञ्जनानि एकाथि कानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा-गणःकायश्च निकायः स्कन्धे। वर्गस्तथैव राशिश्च । पुनःपिण्डो निकरः संघात आकुलः समूहः ॥१॥ स एष स्कन्धः ॥५८॥ जानेवाली प्रमार्जना आदि क्रियाएँ हैं वे नोआगम हैं। यहां नो शब्द सर्वथा आगमाभाव का निषेधक नहीं हैं किन्तु एकदेश आगम का निषेधक है ? स्कंध पदार्थ का ज्ञान आगम और क्रिया अनागम नोआगम है। यह नोआगम को लेकर भावस्कंध का स्वरूप है।सूत्र५७।
अब सूत्रमार स्कंध की पर्यायों का कथन करते हैंतरसणं इमे एगढिया इत्यादि ! ॥सूत्र ५८॥
शब्दार्थ--(तस्स) इस स्कंध के (इमे) ये (गाणाघोसा) उदान आदि नाना घोषवाले (गाणावंजणा) ककार आदि अनेक व्यंजनांवाले (एगहिया)-- एकाकि पर्यायवाची (नामधेज्जा भवंति) नाम हैं । (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं-(गणकाए य निकाए खंधे, वग्गे तहेव गसी य पुंजे पिंडे निगरे संधाए आउलसमूहे ॥१॥ से त खंघे) गणकाय, निकाय, स्कंध, वर्ग, राशि, पुंज, ઓ છે તે આગમ છે. અહીં બને” શબ્દ સર્વથા આગમભાવને નિષેધક નથી, પરતુ એક દેશતઃ આગમને નિષેધક કે. સ્કન્ધ પદાર્થનું જ્ઞાન આગમરૂપ છે અને કિયા અનાગમ–ને આગમરૂપ છે. આગમભાવસ્કન્ધનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. સૂપા
હવે સૂત્રકાર સ્કલ્પના પર્યાયવાચી શબ્દનું કથન કરે છે– "तस्स णं इमे एगडिया" त्या
शा---(तस) ते २४.धना (इमे) ॥ (गाणी घोमा) Grd 6 विविध घोषवाणi (णाणावंजणा) ४४२ PALE अने: ०२tui (एगट्टिया) 3114 पर्यायवाची (नामधेज्जा भवंति नामी ४i छ. (तं जहा) नाभानीय प्रमाणे छ(गणकाए य निकाए खंधे, वग्गे तहेव रासीय पुंजे पिंडे निगरे, खंधाए आउल समूहे ॥॥ से तं खंधे) , आय, निय, २४.५, 40, राशि, , पि3,
For Private and Personal Use Only
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२४०
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
टीका- 'तस्स णं' इत्यादि
नानाय पाण
"
तस्य= स्कन्धस्य खलु इमानि = वक्ष्यमाणानि एकार्थिकानि नानाव्यञ्जनानि नाम घेयानि भवन्ति । तद्यथा - गणः = मल्लादिगणवद् गणः, कायः= पृथिवीकायादिवत्कायः, निकायः = षड्जीवनिकायवन्निकायः स्कन्धः = द्विप्रदेशिका दिस्कन्धवत् स्कन्धः, वर्गः = गोवर्गवद् वर्गः, राशि:- शालिधान्यादिवाशिः, पुज्ज:विप्रकीर्णपुञ्जीकृतधान्यादिवत् पु०जः, पिण्डः = गुडादि पिण्डवत् पिण्डः, हिरण्यद्रव्यादिनिकरवद् निकरः, सङ्घातः = महोत्सवादि सम्मिलित जनसङ्घातवत् सङ्घातः, दिण्ड, निकर, संघात, आकुल और समूह ! ये जो गण से लेकर समूह तक के शब्द है, वे भावस्कघ के वाचक पर्याय हैं। ऐसा जानना चाहिये । एकार्थिक आदि पदों की व्याख्या पहिले की तरह जाननी चाहिये । इस प्रकार से यहां तक स्कंध के स्वरूप का वर्णन सूत्रकारने किया है ।
जिस प्रकार मल्ल आदिकों का गण होता है उसी प्रकार से स्कंध भी अनेक परमाणुओं का संश्लिष्टरूप एक परिणाम होता है इसलिये इस का नाम गण हैं । पृथिवीकाय आदि के समान यह स्कंध काय है । षट्जीव निका की तरह यह स्कंध निकाय है । द्विप्रदेशिक आदिस्कंध के जैसा यहस्कंध 1 है। गोवरी की तरह यह वर्गरूप है। शालिधान्य आदि की तरह यह राशि - खा है । - फैलाकर इकट्ठे किये गये धान्यादी की तरह यह पुंजरूप है । गुड आदि के पिण्ड की तरह यह पिंडरूप है | चांदी आदि के समूह की तरह
For Private and Personal Use Only
-
નિકર, સંઘાત, આકુલ અને સમૂહ. આ જે ગણુથી લઇને સમૂહ પન્તના શબ્દો છે તે ભાવસ્કન્ધના વાચક છે, એમ સમજવુ'. એકાર્થિક આદિ પદોની વ્યાખ્યા આગળ કહ્યા અનુસાર સમજવી આ પ્રકારે સુત્રકારે અહીં સુધી સ્કન્ધના સ્વરૂપનું વન કર્યું છે. અહીં સ્કન્ધનું વર્ણન પૂરૂ થાય છે.
હવે આ ગણુ આદિ પદોના અર્થ સમજાવવામાં આવે છે—
“ગણ”-જેમ મલ્લ આદિનું ગણુ હાય છે એજ પ્રમાણે સ્કન્ધ પણ અનેક પરમાણુઓના એક સશ્લિષ્ટ પરિણામરૂપ હાય છે, તેથી તેનુ નામ ગણુ પડયુ છે. “काय”– पृथ्वीःय माहिती प्रेम मा सुन्ध प्रय३५ छे. “નિકાય”—ટજીવનિકાયની જેમ આ સ્કન્ધ નિકાયરૂપ છે. “સ્કધ’–દ્ધિપ્રદેશિક આદિ સ્કંધની જેમ તે સ્કન્ધરૂપ છે, "वर्ग" - जो वर्गांनी प्रेम ते २४६३५ छे. "शशि” शाविधान्य (योमा) माहिती प्रेम ते राशि३५ छे. “પુંજ” એકત્ર કરેલા ધાન્યપુ ંજની જેમ તે પુજરૂપ છે. પિડ' ગાળ આદિના પિંડની જેમ તે પિંડરૂપ હોય છે.
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका ५९ आवश्यकस्य षडध्ययननिरूपणम् २४१ . आकुल: राजगृहाङ्गणजनाकुलवदाकुलः, समूहः-पुरादिजनसमूहबत् समूहः। एते
गणादि समूहान्ताः शब्दा भावस्कन्धस्य वाचका बोध्याः। एकाथिकादिपदानां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । सम्प्रति स्कन्धमुपसंहरन्नाह-स एष स्कन्ध इति।।सू५८॥ इत्थं सान्धाधिकार उक्तः, सम्प्रति आवश्यकस्य षडयनानि वित्रिपन्तेमूलम्--आवस्सगस्स णं इमे अत्थाहिगारा भवंति, तं जहा
साव जजोगविरई, उकित्तण गुणवओ य पडिवत्ती। खलियस्त निंदणावणचिगिच्छा गुणधारणा चेव ।१।।सू०५९। छाया-ओवश्यकस्य खलु इमे अर्थाधिकारा भवन्ति, तद्यथा
सावद्ययोगविरतिः उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः।
स्खलितस्य निन्दना व्रणचिकित्सा गुणधारणा चैव । सू० ५९॥ यह निकररूप है। महोत्सव आदि में सम्मिलित जनसमुदाय के समान यह संघातरूप है। राजगृह के आंगन मे हुए व्याप्त जनसमूहरूप यह आकुल है । पुर आदि के जन-मूह की ताह यह समूहरूप है ॥त्र ५८॥
. संधाधिकार का कथनकर अब सूत्रकार आवश्क के छह अध्ययनों का विवेचन करते है--'आवरसगास” इत्यादि । ॥मत्र ५९॥
शब्दार्थ-हे भदन्त ! आवश्यक संबन्धी छह अध्ययन कौन २ से हैं ?
इस प्रकार से पूछे जाने पर सूत्रार अर्थाधिकार को आश्रित करके उन अध्ययनों को कहते हैं-(आवसगरस इत्यादि) (आवस्सगरस णं इमे
“નિકર” ચાંદી આદિના સમૂહની જેમ તે નિકરરૂપ છે. “સંઘાત, મહેસવ આદિમાં એકત્ર થયેલા જનસમુદાયની જેમ તે સંઘાતરૂપ છે.
“આકુલ” રાગૃહ આદિના આંગણામાં જમા થયેલા વ્યાપ્ત જનસમૂહની જેમ તે આકુલરૂપ છે.
રામ” પુર આદિના જનસમૂહની જેમ તે સમૂહરૂપ છે. સૂઇ ૫૮ છે.
ધાધિકારનું વર્ણન પૂરું થયું, હવે સૂત્રકાર આવશ્યકના ૬ અધ્યયનેનું विवेयन रे छ- आवस्सग" त्या| શબ્દાર્થ–શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ગુરુ મહારાજ આવશ્યકના ક્યા ક્યા છે અધ્યયન છે?
ઉત્તર–આ પ્રકારના પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે સૂત્રકાર અર્થાધિકારનો આશ્રય લઈને ते मध्ययन। ४९ छ-(आवरसगस्स णं इमे अस्थाहिगारा भवंति) मथाधि४।२ने
For Private and Personal Use Only
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
D
अनुयोगबारसत्रे टीका-'आवम्सगस्त ण' इत्यादि
आवश्यकसम्बन्धी नि षडध्ययनानि कानि ? इति तान्याधिकारमाश्रित्योच्यन्ते-आवरसगस्स' इत्यादिना । आवश्यक य खलु इमे-वक्ष्यमाणा अर्थाधिपग:-अर्थेन अधिकारा:-अर्थमाश्रित्य प्रऽताश भवन्ति, तद्यथा-सावधयोग विरतिः सामायिकलक्षणो प्रथमेऽध्ययने प्राणातिपातादि सर्वसावधयोगविरतिर
र्थाधिकारः ? उत्कीर्तनम-द्वितीये चतुर्दिशतिस्तवाध्ययने कर्मक्षर प्रधान कारणस्वात् लब्धबोधिविशुद्धिहेतुत्वात् पुनर्बोक्लिामफलत्वात् साद्ययोगविरत्युपदेशकत्वेनोपकारित्वाच्च तीर्थ कृतां गुणोत्तीर्तनरूपोऽर्थाधिकारः २ । तृतीये वन्दनाध्ययने गुणवतश्च प्रतिपत्तिः-गुणा: मूलोत्तरगुणरूपा व्रतपिण्ड विशुद्ध यादयो विद्यन्ते अत्याहिगारा भवंति) आवश्यक के ये वक्ष्यमाण अर्थाधिकार-अर्थ को आश्रित करके कथन हैं । (त जहा) जो इस प्रकार से हैं--
__ (सावज्जजोगविरई उक्कित्तणं गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निंदणा वणतिमिच्छा गुणधारणा चेव) सामारिकरुप प्रथम अध्ययन में, प्राणातिपात आदिरूप सर्व सावद्ययोग से विरति हेना यह अर्थाधिकार है । द्वितीय चतु. विशतिस्तवरूप अध्ययन में कर्मों के क्षय वरने में प्रधानकारण होने से लब्धबोधिती विशुद्ध से हेतु होने से, तथा पुनर्बोधि के लाभरूप फल की प्राप्ति में कारणभूत हे ने से और सावद्ययोग से विरति के उपदेशक होने के कारण अत्यंत उपकारी होने से, तीर्थंकरों के गुणों का उत्तीत नरूप अर्थाधिकार है, तृतीय वन्दनाध्ययन में मूलगुण और उत्तर गुणरूप व्रत, पिण्डविशुद्धि भने माश्रित ४शन मावश्यानुनीय प्रभाले ४थन छ. (तंजहा) ते ७ ५६ययનોમાં આ પ્રકારના અર્થની (વિષયની) પ્રરૂપણ કરી છે– . (सावज्जजोगविरई उक्कित्तणगुणवओ य पडिवत्ती। स्खलियस्स निंदणावणतिगिच्छा गुणधारणा चेव) सामायि४३५ पडता अध्ययनमा मा३५ सावध
ગેની વિરતિનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. બીજા ચતવિ શતિસ્તવરૂપ (૨૪ તીર્થકરના કીર્તનસ્તવનરૂપ) જે અધ્યયન છે તેમાં તીર્થકરોની સ્તુતિ ગુણના ઉત્કીર્તનરૂપ અર્થાધિકાર છે તે તીર્થકરોની રતુતિ કરવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છેકર્મોને ક્ષય કરવામાં પ્રધાન કારણભૂત હેવાથી, લખ્યાધિની વિશુદ્ધિમાં કારણભૂત હોવાથી અને પુનર્બોધિના લાભારૂપ ફળની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત હોવાથી, સાયધ
ગેમાંથી વિરતિના ઉપદેશક હેવાને કારણે અત્યન્ત ઉપકારી હોવાથી તીર્થકરોના પુણેની રતુતિ થવી જ જોઈએ. ૨૪ તીર્થંકરના ગુણેના ઉત્કીર્તનરૂપ અર્થથી સંપન્ન આ બીજું અધ્યયન છે. ત્રીજા વદ ચયમાં મારુણ અને ઉ ૨ગુરૂપ વ્રત
For Private and Personal Use Only
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૪૩
अनुयोग चन्द्रिकाटीका. ५९ आवश्यकस्य षडध्ययननिरूपणंम्
,
यस्य स गुणवांस्तस्य प्रतिपत्तिः = बन्दनादिका वर्त्तध्या - एवंरूपोऽधिकारः । च शब्दः पुनरर्थे ३ तथा - चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने - स्खलितस्य = साधुकृत्याच्चलितस्य निन्दना = निन्दा कर्त्तव्या । अयं भावः - मृलोत्तरगुणेषु प्रमादाचीर्णस्य प्रत्यागत संवेगस्य जन्तोर्विशुध्यमानाध्यवसायस्य अकार्यमिद- मित्येवं रूपेण निन्दारूपisuffer: ४ | तथा पञ्चमे कार्योत्सर्गाध्ययने - व्रणचिकित्सा - व्रणस्य चिकित्सा = भैषज्यम् । अयं भावः - चारित्ररूपपुरुषस्य योऽयमतिचाररूपो भावव्रणस्तस्य दशविधप्रायश्चित्तरूपा चिकित्सा कर्त्तव्येति, एवंरूपोर्थाधिकारः प्रोच्यते ५ तथा पष्ठे प्रत्याख्यानाध्ययने - गुणधारणां-गुणानां मूलोत्तरगुणानां आदि गुण जिसमें है ऐसे गुणवान् साधुको वन्दना आदि करनेरूप अर्थाधिकार है। चौथे प्रतिक्रमण अध्ययन में साधुकृत्य से स्खलित हुए की निन्दाकारने - अर्थात् अतिचारों की निग्रहणा करने आदिरूप अर्थाधिकार है । इसका भाव यह है कि जो साधु मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में प्रमाद पतिततो हो रहा है, परन्तु बैराग्यभाव उसका नष्ट नहीं हुआ है, और परिणामां में जिसको विशुद्धि बढती रहती है - ऐसे उस साधु को "यह काम करने योग्य नहीं हैं" इस प्रकार का निंदारूप अर्थाधिकार है ।
---
पांचवां जो कायोत्सर्ग नामका अध्ययन हैं उसमें व्रण ( फाडा) चिकिForex अर्थाधिकार है ता पर्य इसका यह है कि चारित्ररूप पुरुष का जो अतिचाररूप भावत्रण है उसकी दश प्रकार प्रायश्चित्तरूप चिकित्साकरनी चाहिये ऐसा उसमें अर्थाधिकार है । तथा छठा प्रत्याख्यान नाम का जो પિંડ વિશુદ્ધિ આદિથી સંપન્ન હેાય એવા ગુણવાન સાધુને વાંદણા આદિ કરવારૂપ અધિકાર છે. ચાથા પ્રતિક્રમણ અધ્યયનમાં સાધુષ્કૃત્યથી સ્ખલિત થયેલાની નિન્દા કરવાના એટલે કે પેાતાના દ્વારા જે આતચારાનું સેવન થઈ ગયુ. હાય તેની નિગ્રહણા આદિ કરવારૂપ અર્થાધિકાર છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે જે સાધુ મૂળગુણા અને ઉત્તરગુણેાની આરાધના કરવામાં પ્રમાદને કારણે દોષો કરતા ડાય છે, પરન્તુ તેના વૈરાગ્યભાવ નષ્ટ થયે। નથી અને જેના પરિણામામાં વિશુદ્ધિની વૃદ્ધિ જ થતી રહે છે, એવા સાધુ દ્વારા પોતાના દોષની આ પ્રકારે નિંદા કરાય છે. “આ કામ કરવા ચગ્ય નથી, છતાં પ્રમાદને કારણે મારાથી એવુ થઈ ગયું.” આ પ્રકારની નિંદારૂપ અધિકાથી યુકત ચેાથું અધ્યયન છે. (૫) પાંચમુ કાયાત્સગ નામનું અધ્યયન છે, તેમાં ત્રણચિકિત્સારૂપ અર્થાધિકારનું પ્રતિપાદન કર્યું" છે. એટલે કે ચારિત્રરૂપ પુરુષના અતિચારરૂપ જે ભાવત્રણ છે તેની દસ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્ત રૂપ ઇલાને વડે ચિકિત્સા કરવી જોઇએ, એ વિષયનુ તેમાં પ્રતિપાદન કર્યુ” છે. છઠ્ઠું. પ્રત્યાખ્યાન નામનુ અધ્યાય છે, તેમાં મૂળગુણા અને ઉત્તરગૃણાને ધારણ કરવા
For Private and Personal Use Only
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगारसत्रे । धारणा-प्रतिपत्तिः, एवं रूपोऽर्थाधिकारः प्ररूप यिष्यते । मूलोत्तर गुणानां निरति
चारं. सन्धारणं यथा भवति तथा प्रत्याख्यानाध्ययने प्ररूपयिष्यते इत्यर्थः । . 'चैत्र' इति 'च' शब्दादन्येऽप्यवान्तरार्थाधिकारा विज्ञ याः। एव' शब्दाऽवधारणे वोध्यः। अध्ययन है। उसमें मूलण और उत्तर गुणों को धारण करनेरूप अर्थाधिकार है। मूलगुण उतरगुणों को अतिचार रहित अच्छी तरह धारण करता है वेसी प्ररूपणा सूत्रकार प्रयाख्यान अध्ययन में करेंगे। "च" शब्द से सूत्रकारने यह प्रकट किया है कि आवश्यक के और अवान्तर अर्थाधिकार हैं। "एव' शब्द अवधारण अर्थ में आया हैं।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा आवश्यक के छ अर्थाधिकारों को वर्णन किया हैं।(१) सामायिक (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) वंदना, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । इन सर्व सावययोगों से विरक्त होना सामायिक अध्ययन में, चौवीस तीर्थ करों की स्तुति करना द्वितीय चतुर्विशतिस्तव अध्ययन में, गुणवान साधु को दन्दना आदि करना बदनाध्ययन में साधुकृत्य से स्खलित हुए साधु को अपनी निंदा करना प्रतिक्रमग अध्ययन में, चारित्र में लगे हुए अतिचारों की दशविध प्रायश्चित से शुद्धि करना हार्योत्सर्ग अध्ययन में, मूलगुण और उत्तरगुणों को धारण करना प्रत्याख्यान अध्ययन में अर्थाधिकार हैं।। ૩૫ અર્થાધિકાર છે. પ્રત્યાખ્યાન દ્વારા તે મૂળગુણ અને ઉત્તરગુણેને અતિચાર રહિત સમ્યફરૂપે ધારણ કરે છે, એવી પ્રરૂપણા સૂત્રકાર આગળ જતાં પ્રત્યાખ્યાન અધ્યયનમાં કરશે. “ શબ્દ દ્વારા સૂત્રકારે એ પ્રકટ કર્યું છે કે આવશ્યકના આ सिवायना मी पण मवान्तर माधि।छ. "एवं" । ५४ अवधारण અર્થમાં વપરાયું છે. - ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આવશ્યકના છ અર્થાધિકારોનું વર્ણન કર્યું छ-(१) सामायि४ (२) तुविशतिरत (२४ तीथ शनी २तुति), (3) ना, (४). प्रतिभ, (५) योस भने (६) प्रत्याभ्यान.
પહેલા અધ્યયનમાં સમસ્ત સાવધ યોગોથી વિરકત થવાને, બીજા અધ્યયનમાં ૨૪ તીર્થકરોની સ્તુતિ કરવાને, ત્રીજા વંદના અધ્યયનમાં ગુણવાન સાધુને વંદણા આદિ કરવાનો, ચોથા પ્રતિક્રમણ અધ્યયનમાં સાધુકૃત્યથી ખલિત થયેલા સાધુએ. પિતાની નિન્દા કરવાને, પાંચમાં કાર્યોત્સર્ગ અધ્યયનમાં ચારિત્રમાં લાગેલા અતિચારેની દસ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તોથી શુદ્ધિ કરવા અને છઠ્ઠા પ્રતિક્રમણ અધ્યયનમાં મૂળગુ અને ઉત્તરગુણેને ધારણ કરવાને અર્વાધિકાર છે. આગળ સૂત્રકારે આ * प्रभाये ४थन ज्यु डतु
For Private and Personal Use Only
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका.मू० ५९ आवश्यकस्य पंडध्ययननिरूपणम् २४६
पूर्वम 'अवस्सयं निविखविस्सामि, सुयं निक्खिविरसामि, खंध निक्खिविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि' इत्युक्तम् । तत्र-आवश्यकादीनि त्रीणि पदानि निक्षिप्तानि । अध्ययनस्य निक्षेपः सम्प्रति क्रमप्राप्तोऽपि न वियते । यतस्तस्य निक्षेपः वक्ष्यमाणनिक्षेपानुयोगद्वारे ओघनिष्पन्ननिक्षेपे करिष्यते।सू०५९। ___ आधुनावश्यकस्य यद् व्याख्यातं, यच्च व्याख्येयं तदुभयमुपदर्शयन्नाह.. मूलम्-आवस्सयस्स एसो पिंडत्थो वणिओ समासेणं ।
एत्तो एकेक पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥१॥ तं जहा-सोमाइयं, चउवीसत्थओ वन्दणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं । तत्थ पढमं अज्झयण सामाइयं, तस्स ण इमे
पूर्व में आवस्पर्ष निक्खि वेस्मामि, सुयं निक्खिविस्सामि, खंध निक्खिविस्सामि अज्झयणं निक्खिविस्सामि" ऐसा सूत्रकारने कहा है : सो इनमें से आवश्क आदि तीन पद तो सूत्रकार द्वारा निक्षिप्त किये जा चुके । अब अध्ययन का निक्षेप क्रम प्राप्त है-सो क्रम प्राप्त होने पर भी उसका निक्षेप सूत्रकार यहां नहीं कर रहे हैं क्यों कि वक्ष्यमाण निक्षेपअनुयोगद्वार में आवनिष्पन्न निक्षेप में वे उपका निक्षेप करेंगे। ।। सूत्र ५९॥
अब सूत्रकार आवश्यक का जो विषय-व्याख्यात हो चुका है तथा आगे जो विषय व्याख्यात हो चुका है यह दिखलाते है:... आवस्सयस्स एसो इत्यादि । ॥ सूत्र ६०॥
शब्दार्थ-(आवस्सयस्स) आवश्यक इसनाम से प्रसिद्ध शास्त्र का (एसा) यह पूर्वोक्तरूप (पिण्डत्थो) पिण्डार्थ (समासेणं) संक्षेपसे (वण्णिओ) कहा है।
"आबस्सय निक्निविस्तामि, सुयं निक्खिविरसामि, . नध निवित्र विस्सामि, अज्झयणं निक्खि विस्सामि"
આ કથન અનુસાર આવશ્યક, શ્રત અને સ્કન્ધ આ ત્રણને નિક્ષેપ તે થઈ ચુ છે હવે અનુક્રમ પ્રમાણે અધ્યયનને નિક્ષેપ થ જોઈએ. છતાં પણ સૂત્રકાર અહીં ક્રમ પ્રાપ્ત અધ્યયનનો નિક્ષેપ કરતા નથી, કારણ કે આ વિષયને નિક્ષેપ અનુયોગ દ્વારમાં-ઘનિષ્પન્ન નિક્ષેપમાં તેઓ તેને નિક્ષેપ કરશે. સ ૫૯ છે - હવે સૂત્રકાર આવશ્યકને જે વિષય વ્યાખ્યાત થઈ ચુકી છે અને આગળ જે प्रिय व्याभ्यात यवान, मताव छ. "आवस्सयस एसो" त्या
For Private and Personal Use Only
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्रे चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तं जहा-उवक्कमे १, निक्खेवे २, अणुगमे ३, नए ४ ॥६॥ छाया-आवश्कर य एष पिण्डार्थी वर्णितः समासेन ।
अत एकैकं पुनरव्ययनं कीर्तयिष्यामि ॥१॥ तद्यथा-सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो बन्दनकं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानम् । तत्र प्रथममध्ययनं सामायिकम् । तस्य खलु इमानि चत्वारि अनुयागद्वाराणि भवन्ति, तद्यथा-उपक्रमो निक्षेपः अनुगमो नयः ॥६॥ तात्पर्य कहने का यह है-इस शाख का आवश्यकश्रुतस्कंध ऐसा नाम सार्थक है। अतः सार्थक नाम होने से अवश्य करणीय सावद्ययोगविरति आदि का प्रतिपादन सूत्रकार आगे करेंगे। (एत्तो) इसलिये आवश्यक का संक्षेप से समुदाय अर्थ वर्णन करने के बाद (पुण) पुनः (ऐकेकं अज्झयण) एक एक अध्ययन का (कित्तइस्सामि) कथन में करूंगा। (त' जहा) वे अध्ययन इस प्रकार से हैं-(सामाइयं चउवीसत्थओव-दणयं पडिक्कमणं, काउ'सग्गो पच्चक्खाणं) १ सामायिक, २ चतुर्वि शतिस्तव, ३ वन्दनक, ४ प्रतिक्रमण ५ कायोत्सर्ग ६, प्रत्यारूपान। (तस्थ पढमं अज्झरणं सामाइयं) इन ६ अध्ययनो में से १ पहिला अध्ययन सामायिक है। समः आय:-समायः समायः प्रयोजनमस्येति सामायिकम् इस व्युत्पत्ति के अनुसार रागद्वेष से रहित ऐसा आत्मा का____हाथ-(आवस्सयस्स) या१२५ २॥ नामे प्रसद्धि सेवा शाला (एसो) मा पूर्वात २ने। (पिंडत्थो) ािर्थ (समासे गं) संक्षिHमा (वण्णिओ) ४ामा આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે-આ શાસ્ત્રનું આવશ્યક શ્રુત સ્કિન્ધ” એવું નામ સાર્થક છે. આ રીતે આ શાસ્ત્રનું નામ સાર્થક હોવાથી, અવશ્ય કરણીય સાવદ્યાગ વિરતિ આદિનું પ્રતિપાદન સૂત્રકાર આગળ કરવાના છે. (૪) तेथी २१श्यना समुदाय मर्थनु सक्षितभा व रीने (पुण) वे (एकेकं अज्झयणं) मे में अध्ययन (कित्त:स्सामि) पन हुरीश, मे सूत्र पयन मापे छ. (तंजहा) मा१९५४ना ते मध्ययनाना नाम 20 प्रमाणे छे (सामाइयं, चउवीसस्थओ वन्दणय पडिक्कमणं, काउस्सग्गो पञ्चवस्त्राणं) (१) सामायि४, (२) *तु. विशतिस्त१ (२४ तीरानी २तुति). (3) ५.४४, (४) प्रात.83, (५) प्रयोग भने (१) प्रत्याभ्यान, (तत्य पढमं अज्झयणं सामाइप) मा अध्ययनामा ५७ સામાયિક નામનું અધ્યયન છે. જેના દ્વારા બોધ આદિકના અધિક અધિક પ્રાપ્તિ यती २४ तेनु नाम अध्ययन छे. "समः आयः समायः समायः प्रयोजनमस्पति
For Private and Personal Use Only
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यामचन्द्रिका टीकास्त्र६० आवशका व्याख्यान पाख्येयस्य च निरूपणम् २४७
टीका-'आवस्सयस्स' इत्यादि____ आवश्यकःय-आवश्य के ति नाम्ना प्रसिद्धस्य शास्त्रस्य एष:पूर्वोक्तरूपः पिण्डार्थः समुदायार्थः समासेन=संक्षेपेण वर्णितः व थितः । अस्य शास्त्रस्यावश्यक श्रुतस्कन्ध इति-अन्वर्थनाम । नाम्नो न्वर्थत्वात् अवश्यं करणीयं सावद्ययोगविरत्यादिकं प्रतिपादयिते, इति-अभिप्रायः । उत्तरार्ध गाथाऽर्थमाह-अतः=आवश्यक य संक्षेपेण समुदायार्थ वर्णनानन्तर पुन: भूयः एकैकम् अध्ययनं कीतयिष्यामि कथयिष्यामीति ।
एकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामीति प्रतिज्ञानुसारेण तन्निरूपयितुमाह'त जहा' इत्यादि । तद्यथा-सामायिक चतुर्विशतिस्तवो वन्दनक प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानम् । तत्र-तेषु षट्सु अध्ययनेषु प्रथमम् आद्यम् अध्ययनम्अधिःअधिकम् अयनं प्रापणं बोधादेर्येन तदध्ययनम्, सामायिकम-समागद्वेषवियुक्तः स्वात्मवस्सर्वभूतेषु दृष्टिसम्पन्नस्तस्य आयः प्रतिक्षणं ज्ञ नादि-गुणोत्यसमभाव रूप परिगाम कि जो सर्व मूतों में स्वामवत् दृष्टे से संपन्न होताहै उसग नाम सम है। इस सम की जो आय प्राप्ति है-ज्ञानादिगुणोत्कर्ष के साथ लाभ है- उसका नाम समाय है। यह सम प्रतिक्षण अपूर्व भवाटवी में भ्रमण कराने के कारणभूत संक्लेश भाव के विच्छेदक और निरूपम सुख के हेतु ए से ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप पर्यायों से जो संयुक्त हो जाता है उसका नाम समाय हैं यह समायशब्द का निष्कर्षार्थ है। यह समाय ही जिस ज्ञान क्रियारूप अध्ययन का प्रयोजन है उसका नाम सामायिक है । अथवा समाय एव सामायिकम्" समाय ही सामायिक है। इसका जो सबसे पहिले कथन किया है-उसका कारण यह है कि यह सामायिक समस्त चारित्रादि गुणांका आधार होने के का ण मुक्ति का प्रधान हेतु है। कहा है-जैसे सर्व सामायिकम्" । व्युत्पत्ति देषथी हित मे आत्मानुसमभाव३५ परिणाम કે જે સર્વભૂતેમાં સ્વાત્મવત દૃષ્ટિથી સંપન હોય છે, તેનું નામ “સમ છે. તે સમની જે આય (પ્રાઈસ) છે-જ્ઞાનાદિ ગુણત્કર્ષ રૂપ જે લાભ છે, તેનું નામ સમાય છે પ્રતિક્ષણ અપૂર્વ ભવાટવીમાં ભ્રમણ કરાવવાને કારણભૂત સંકલેશભાવના વિચ્છેદક અને અનુપમ સુખના હેતુ એવાં જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ પર્યાયોથી જે સંયુ. કત (સંપન્ન થઈ જાય છે તેનું નામ સમાય છે. આ પ્રકારને “સમાય” પદને નિષ્કર્ષાર્થ થાય છે. આ સમાય જ જે જ્ઞાન ક્રિયારૂપ અધ્યયનનું પ્રયોજન છે, तनु नाम सामायि: छ. 1241-"समाय एव सामायिकम्" समाय । सामायि४३५ છે આ સામાયિકનું સાથી પ્રથમ કથન કરવાનું કારણ એ છે કે આ સામાયિક સમસ્ત ચારિત્રાદિ ગુણેના આધારરૂપ હોવાથી મુકિતપ્રાપ્તિના પ્રધાને કારણરૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२४८
जनुयेोगद्वार
1
पं प्राप्तिः - समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्वे : ज्ञानदर्शनचरणपर्याय वाटवी भ्रमणहेतुसंक्लेश विच्छेद के र्निरुपमसुखहेतुभिः संयुज्यते इति भावः समायः प्रयोजनमध्य ज्ञानक्रिया०मुदायरूपस्वाध्ययमस्येति सामायिकम् । यद्वा समाय एव सामायि कम् । समस्तचरणादिगुणाधारत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वादस्य प्रथममुपन्यासः। उक्तं च " सामायिक गुणानामाधारः, स्वमिव सर्व भावानाम् । aft सामायिक हीनाश्वगणादि गुणान्विता येन ॥ १ ॥ तन्माज्जगाद भगवान् सामायिकमेव निरूपमापाय | शारीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य ||२||" इति ॥
तस्यैवंभूतस्य सामायिकस्य खलु इमानि वक्ष्यमाणानि च वारि अनुयोगद्वाराणि - अनुयोग :=अध्ययनार्थकथनविधिस्तस्य द्वाराणीव द्वाराणि - महापुरस्येव सामायिकस्यानुयोगार्थ = व्याख्यानार्थ द्वाराणि = मवेशमार्गा भवन्ति । महानगरदृष्टान्तः पूर्व सप्तपञ्च उपदर्शितस्तत एव विज्ञेयः ।
भावों का आधार आत्मा होता है उसी तरह समस्त गुणों का आधार सामायिक है - सामायिक रहित पुरुष चरित्रादिगुणों से युक्त नही हो सकते हैं। इसलिये भगवान् ने शारीरिक मानसिक अनेक दुःखो के न शवाले मोक्ष का निरूपम उपाय सामायिकको ही कहा है । (तरस णं इमे चत्तारि अणुओगदाग हवं ति) उस सामायिक के वे चार अनुयोगद्वार हैं । जिस प्रकार प्रवेश के चार प्रधान द्वार होते हैं । उसी प्रकार प्रवेश के चार प्रधान द्वार होते हैं। उन्हीं का नाम अनुयोग द्वार अध्ययन के अर्थ के हने की विधि का नाम अनुयोग है । महानगर का दृष्टान्त प्रथम सूत्र की व्याख्या करने के पहिले कहदिया हैअतः वहां से उसे जान लेना चाहिये |
કહ્યું છે કે-જેમ સત્તસ્ત ભાવાના આધાર આત્મા હોય છે, તેમ સમસ્ત ગુણાના આધાર સામાયિક છે.” સામાયિકરહિત પુરુષ ચારિત્ર આદિ ગુણાથી સપન્ન હાઈ શકતા નથી. તેથી જ ભગવાને શારીરિક અને માનસિક દુઃખાને નાશકર્તા માક્ષ थासिनो श्रेष्ठ उपाय सामायिक उद्योछे (त.सणं इमे चत्तारि अणुओगदारा हवंति ) ते सामायिना सा यार अनुयोग द्वार छे म अ महानगरमा प्रवेश કરવાને માટે ચારે દિશામાં ચાર મુખ્ય દરવાજા હૈાય છે, એજ પ્રમાણે આ મહાનગરરૂપ સામાયિકના એનુયાગને (વ્યાખ્યાનને) માટે ચાર દ્વાર કહે છે. અધ્યયનના અર્થને (વિષયને) કહેવાની વિધિનું નામ અનુયાગ છે મહાનગરના દ્વારાનુ’ દૃષ્ટાન્ત પ્રથમ સૂત્રની વ્યાખ્યા કરતાં, પહેલાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છેતે તે દૃષ્ટાન્ત પહેલા સૂત્રમાંથી વાંચી લેવુ જોઇએ.
For Private and Personal Use Only
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोग चन्द्रिकाठी ग.म.६० आवश्कय व्याख्यानं व्याख्येयस्य च निरूपणम् २४९
तानि अनुयोगद्वाराणि दर्शयति- 'स' जहा' इत्यादि । तद्यथा उपक्रमःउपक्रमणम् - उपक्रमः- दुरस्थस्य वस्तुनस्तस्तैः प्रतिपादन प्रकारैः समीपमानीय निक्षेप योग्यता करणमित्यर्थः । उपक्रान्तं हि उपक्रमान्तर्गत मे देविचारितं स निक्षिप्यते नाम्यथेति भावः । यत्रा - उपक्रम्यते निक्षेपयोग्यं पितेऽनेन गुरुबाम्योगेनेत्युपक्रमः । अथवा उपक्रम्यतेऽस्मिन् शिष्य श्रवणभावे सति पुरुषेत्युपक्रमः, किंवा उपक्रम्यतेऽस्माद् विनीतवि मेयविनयादियुपक्रमः । एवं मित्रक्ष मेट्रेन करणाधिकरणा पादानकारकै रुवायोगादयोऽथ उक्ताः । यदित्वेोऽप्यन्यन्तरीऽर्थः करणादिकारकवाच्यत्वेन विवक्ष्यते तथापि न दोषः ।
( त जहां ) सूत्रकार उन्हीं अनुयोगद्वारों को कहते हैं- ( उबक्कमे, निवखेवे, अणुगमे, नए) १ उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, और नय । दुरस्थवस्तु को उन २ प्रतिपादन प्रकारों से समीप में लाकरके निक्षेप की योग्यतावाली बनाना इसका नाम उपक्रम है। उपक्रान्त वस्तु ही उपक्रमान्तर्गत मेदों से विचारित होती हुई निक्षिप्त योग्य होती है । अन्यथा नहीं । अथवा - जिस गुरु के बचन
व्यापार से वस्तु निक्षेप योग्य की जाती हैं उसका नाम उपक्रम है । शिष्यजनों को सुनने का भाव होने पर वस्तु जिसमें निक्षेपयोग्य की जाती
उसका नाम उपक्रम है। जिस विनीत- विनयशील शिष्य के विनयादि गुणों से वस्तु निक्षेप योग्य की जाती है उसका नाम उपक्रम है। इस प्रकार विवक्षा के भेद से इन पूर्वोक्त करण अधिकरण अपादान आदि श गुरुवायोंग आदि अर्थ उपक्रम का कोई एक भी अर्थकरण आदि द्वारा वाच्यत्वेन विवक्षित हुआ लिया जाय तो भी उसमें कोई दोष नहीं हैं। (तंजा) ते अनुयोगद्वारा नीचे प्रमाणे छे
-
( उवक्क मे, निक्खेवे, अणुगमे, नए) (१) ७५३५, (२) निक्षेप, (3) अनुगम मने (४) नय.
દૂરની વસ્તુઓને આ પ્રતિપાદન પ્રકારની સમીપમાં લાવીને નિક્ષેપને ચેાગ્ય ખનાવવી તેનુ નામ ઉપક્રમ છે. ઉપદ્માન્ત વસ્તુ જ ઉપક્રમાન્ત તિલૈદેૌથી વિચારાતાં વિચારાતાં નક્ષિપ્તયાગ્ય થાય છે-અન્ય પ્રકારે નિક્ષેાગ્ય થતી નથી.
અથવા જે ગુરુના વચનના વ્યાપારથી વસ્તુને નિ પર્યેાગ્ય કરાય છે, તેનુ નામ ઉપક્રમ છે. શિષ્યાને સાંભળવાના ભાવ થાય ત્યારે વસ્તુ જેમાં નિક્ષ પામ્ય કરાય છે તેનુ નામ ઉપક્રમ છે. જે વિનીત શિષ્યના વિનયાદિ ાથી વસ્તુને નિક્ષેપયાગ્ય કરાય છે તેનુ' નામ ઉપક્રમ છે. આ પ્રમાણે વિવક્ષાના ભેથી આ
કિત કરશું, અધિકરણ, અપાદાન આદિદ્વારા ગુરુવાગ્યેાગ આદિ ઉપક્રમના અથ કહેવામાં આવ્યા છે. જો આ બધામાંથી ઉપક્રમના કોઈ એક પણ અસકરણ આદિ દ્વારા બા પ્રત્યરૂપે જે વીક્ષિત થયા છે. તે લેવામાં આવે, તે પણ તેમાં કાર્યોષ નથી,
For Private and Personal Use Only
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगबारसूत्रे निक्षेप: निक्षेप निक्षेपः-नामस्थापनाविभेदैः शास्त्रादेर्यसनं व्यवस्थापनमिति यावत् । निक्षिप्यतेऽनेनास्मिन अस्मादिति वा निक्षेपः । गुरुवायोगार्थी अत्रापि पचवद्वोध्याः ।
अनुगम:--अनुगमनम, अनुगमः-प्रानुकूलार्थकथनम् । अनुगम्यते-प्यासंयायते पत्रमनेनालिन् यस्मा ति-अगमः। बार विवा पूर्व पोया। 4. नया-नयचं नयः, नीयते-परिचिएच ते निीयते परतुस्वरूपम्-ॐ नेनाग्मिन् अस्माबेति नयः। अनन्तधर्माध्यासिते व तुनि एकांसाहको बोध इत्यर्थः। अर मेवार्थों भावसाने धरणादि साधने चापि बोध्यः । इदमत्र बोध्यम्-उप
रखने का नाम निक्षेप है-नाम स्थापना आदि के भेद से शास्त्र आदि का न्या:-व्यवस्थापन करना इसका नाम निक्षेत्र है। जिसके द्वारा अथवा जिसमें अथवा जिससे वस्तु निक्षेपकी जाती-समझाइ जाती हैं इसका नाम निक्षेप हैं। गुरुवाग्योग आदि अर्थ यहां पर भी पहिले की तरह करण आदि साधनोंडारा किये गये जानना चाहिये । सत्र के अनुकूल अर्थ कहना इसका नाम अनुगम है। जिसके द्वारों सत्रका व्याख्यान किया जावे अथवा जिसमें सूत्रका व्याख्यान किया जाय अथवा जिससे सूत्रका व्याख्यान किया जावे उसका नाम अनुगम है। यहां पर भी करणादिकार कों द्वारा वाच्य अर्थ की विवक्षा पहिले की तरह जान लेनी चाहिये। जिसके द्वारा, अथवा जिसमें, जथवा जिससे बस्तु का रूप जाना जावे उसका नाम नय है। इसका तात्पर्य यह कि वस्तु में अनंत धर्म हैउनमें से किसी एक अंश का ग्रहण करनेवा जो बोध है उसका नाम नप
રાખવું અથવા સ્થાપન કરવું તેનું નામ નિ ૫ છે. એટલે કે નામ, સ્થાપના આદિના ભેદે ારા શાસ્ત્ર ન્યાસ (વ્યવસ્થાપન) કરે તેનું નામ નિ ૫ છે. જેના દ્વારા અથવા જેમાં અથવા જેના વડે વસ્તુ નિ ૫ કરાય છે-વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરાય છે--વસ્તુનું સ્વરૂપ સમજાવવામાં આવે છે તેનું નામ વ ાં. ગુરુવાગ આદિ અર્થ પણ અહીં પહેલાંના જેવાં જ કરણ આદિ સાધને દ્વારા કરવામાં આવ્યા છે, એમ સમજવું. સૂત્રને અનુકૂળ એ અર્થ કહે તેનું નામ ખનુગમ છે. જેના દ્વારા ત્રનું વ્યાખ્યાન કરવામાં આવે, અથવા જેમાં ત્રનું વ્યાખ્યાન કર વામાં આવે, અથવા જે વડે સત્રનું વ્યાખ્યાન કરવામાં આવે, તેનું નામ અનુગમ છે. અહીં પણ કરણ આદિ સાધને દ્વારા વાચ્ય અર્થની વિવક્ષા પહેલાની જેમ જ સમજવી. છે. જેના દ્વારા અવા જેનાથી વસ્તુનું સ્વરૂપ જાણવામાં આવે છે તેનું નામ नयता नाय प्रभार छ-वस्तुमा मत छे. माथी । એક અંશને ગ્રહણ કરનારે જે બેધ હોય છે તેનું નામ નય છે. નયને આ
For Private and Personal Use Only
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२५१
अनुयोगचन्द्रिकाटीका सू. ६१ लौकिकमुपक्रमनिरूपणम् क्रान्तमेव-निक्षेपयोग्यतामानीतमेव वस्तु निक्षिप्यते, अत आदावुपक्रममभिधाय पश्चाद् निक्षेप उक्तः नामादिभेदैनिक्षिप्तमेव अनुगमविषयं भवति, अतो निक्षेपानन्तरमनुगम उच्यते । अनुगम्बमानमेव च नयैविचार्यते नान्र थोत तदनन्तर नय उक्तः ॥५० ६०॥
तत्र-उपक्रमो द्विविधः शास्त्रीयो लौकिकश्च । तत्र लौ कमुपक्रममाह--
मूलम-से किं तं उवक मे ? उक्कमे छविहे पण्णत्ते, तं जहा णामोवकमे ठवणोक्कमे दवोवक्कमे खेत्तोवकमे कालोवक्कमे भावोवकमे । नामठवणाधो गयाओ। से कि तं दव्वोवकमे ? दव्योवक मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमओ य नो आगमो य जोव जाणयसरीरभवियसरीर इरित्ते दव्वोवक्कमे तिविहे पण्णत्ते त जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए ॥२० ६१॥
है। नय का यही अर्थ भावनापन में और करण आदि साधनों में भी जानना चाहिये । यहां इस प्रकार समझना चाहिये उपक्रान्त ही-निक्षेप की योग्यता में आई हुई ही वस्तु निक्षेप्त होती है, इसलिये सब से पहिले उप क्रम को कह करके पश्चात् सूत्रकारने निक्षेप का पाठ किया है । नाम आदि भेदों से निक्षेप हुई वस्तु ही अनुगम की विषयभूत बनती है-इसलिये निक्षेप के अनन्तर अनुगम कहा है। अनुगम से युक्त हुई ही वस्तु नयों द्वारा विचार कोटि में आती है, अन्यथा नहीं इमलिये अनुगम के बाद नय का पाठ किया है। सूत्र ६०॥ અર્થ જ ભાવસાધનમાં અને કરણ આદિ સાધનોમાં પણ સમજી જઈએ. અહીં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. ઉપક્રાન્ત જ-નિક્ષેપની ગ્યતામાં આવેલી વસ્તુ જ નિક્ષિત થાય છે, તેથી સૂત્રકારે સૌથી પહેલાં ઉપક્રમનું કથન કરીને ત્યારબાદ निक्षेपनु ४थन ४यु छे.
નામ આદિ લેથી જેને નિક્ષેપ કરવામાં આવ્યું હોય એવી વસ્તુ જ અનુગમ કરવાને યોગ્ય બને છે. તેથી નિક્ષેપનું કથન કર્યા બાદ સૂત્રકારે અાગમનું કથન કર્યું છે. અનુગમથી યુકત એવી વસ્તુ જ ન દ્વારા વિચારણીય બને છે, તેથી અનુગામના સ્વરૂપનું કથન કર્યાબાદ સૂત્રકારે નયના સ્વરૂપનું કથન કર્યું છે. દવે
For Private and Personal Use Only
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२५२
अनुयोगद्वारस्त्रे छाया-अथ कोऽसौ उपक्रमः ? उपक्रमः पविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामोपक्रमः स्थापनोपक्रमः द्रव्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः कालोपक्रमो भाबोपक्रमः नामस्थापने गते । अथ कोऽसौ द्रव्पोपक्रमः ? द्रव्योपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगमतश्च नोआगमतश्च भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-सचित्तः, अविशः मिश्रकः ॥६॥
उपक्रम शास्त्रीय उपक्रम और लौकिक उपक्रम के भेद से दो प्रकार का है-इनमें लौकिक उपक्रम का .या स्वरूप है यह सूत्रकार प्रकट करते हैं
“से कि त उवक्कमे" इत्र. दि ॥सत्र ६१॥
शब्दार्थ--(से कि तं उबक मे) हे भदन्त ! उपक्रम का क्या तात्पर्य है ? उत्तर--(उपक्कमे छविहे पण्ण ) उपक्रम छ प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) जैसे (णामोवक्कमे, ठवणोरक्कमे, दव्बोवक्कमे, खेत्तोवक्कमे, कालोवक्कमे, भावोवक्कमे) नाम उपक्रम, स्थापना उपक्रम द्रव्य उपक्रम, क्षेत्रउपक्रम, कालउपक्रम और भावउप म । (नामठवणाओ गयाओ) नाम उपक्रम और स्थापना उपक्रम का स्वरूप नाम आवश्यक और स्थान आवश्यक के समान जानना चाहिये । (से किं तं दव्योवक्कमे) हे भदन्त । द्रव्योपक्रमे का क्या स्वरूप है ? (दबोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्योप म दो प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जसे (आगमओ य नोआगमओ य जाव जाणयसरीर भवियसरीर
ઉપક્રમના શાસ્ત્રીય ઉપક્રમ અને લૌકિક ઉપક્રમ નામના બે ભેદ કહ્યા છે. તેમાંથી લૌકિકઉપ મનું સૂત્રકાર હવે નિરૂપણ કરે છે –
"से किं तं उवक्कमे" त्या
हाथ-(से कि त उवक्कमे ?) शिप्य शुरुने मेवो प्रश्न पूछे छे है ગુરુમહારાજ ! ઉપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
१२- (उवक्कमें छविहे पण्णत्ते) 63 ६ ॥२॥ ४ो छ-(तंजहा) તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે. (णामोवक्कमे, ठवणोवक्कमे, दव्योवक्कमे, खेत्तोवकामे, कालोवक्कमे, भाओवक्कमे) (१) नाम ५४भ, स्थापना उपभ, (3) ६०५५31, (४) क्षेत्रउपम (५) - ७५४म अने (६). HIS५४भ. (नामउवणाओ गयाओ) नाम भने स्थापना ઉપક્રમનું સ્વરૂપ નામ આવશ્યક અને સ્થાપના આવશ્યક જેવું સમજવું. (से किं तदव्योवक्कमे ?) प्रश्न-डे गुरुमहा। ! द्र०ये।५४मनु २१३५ छ ? ___उत्तर-(दव्योवक्कमे दुविहे पण्णत्ते) द्र०या५म में प्रा२ने यो छ. (तनहा) न....(आगमओ य, नोआगमओ य जाव जाणयसरीरभवियसरीवइरित्ते दब्यो
For Private and Personal Use Only
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ६१ लौकिकमुपक्रमनिरूपणम्
टीका-शिष्या छति-'से किं तं' इत्यादि-अथ कोऽसौ उपक्रमः ? इति । उत्तरमाह-उपक्रमः षधिः प्रज्ञप्तः-नामोपक्रःथापनोपक्रमादिरूपः । तत्र नामोपक्रमस्थापनोपक्रमौ नामावश्यकाथापनावश्यकवद् विज्ञेयौ। सम्प्रति द्रव्योपक्रम प्रश्नपूर्वकं प्रस्तौति-अथ कोऽसौ द्रव्योपक्रमः ? द्रव्योपक्रमो द्विविधः प्रज्ञधः, तद् यथा-आगमतश्व नो आगमतश्च, यावत् ज्ञायक शरीर भव्यशरीश्व्यतिरिक्तो
गोपक्रमः । इह यावच्छन्दे न द्रव्यावश्यकवद् द्रव्योपक्रमव्याख्या बोध्या । तत्र ज्ञायकशरीरभगशरीव्यतिरिक्तो द्रव्योपत्र म त्रिविधः ज्ञप्तः। तद् यथा-सचित्तः, अचित्तः, मिथकः । तत्र सचित्त द्रव्यविषयः सचित्तः, अचित्तद्रव्यविषयोऽचित्त, मिश्रद्रव्यविषयो मिश्रकः ।।मू० ६शा ... वइरित्त दव्योवक्कमे तिविहे पण्णत्ते-तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए) आगम द्रव्योपक्रम-नोआगम द्रव्योपक्रम । नोआगम द्रव्योपक्रम ३ तीन प्रकार काहैज्ञायकशरीर द्रव्योपक्रम, भव्यशरीर द्रव्योपक्रम और ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम । इनमें ज्ञायक शरीर, भवियशरीर से व्यतिरिक्त जोद्रव्योरक्रम है वह तीन प्रकार का है। सचित्त, अचित्त और मिश्र । जिस उपक्रम का विषय सवित्त द्रव्य है वह तद्वयतिरिक्त सचिनद्रव्योपक्रम है । जिस उपक्रम का विषय अचित्त द्रव्य है वह तद्वयतिरिक्त अचित्तद्रव्योपक्रम है। और जिसका विषय सचित्त अचित्त दोनों प्रकार का द्रव्य है। वह तद्वयतिरिक्त मिश्र द्रव्योपक्रम है। इस द्रव्योपक्रम की व्याख्या द्रव्यावश्यक की तरह जाननी चाहिये । - भागर्थ--सूत्रकारने यहां पर उपक्रप के ६भेदों को प्रकट करते हुए वक्कमे तिविहे पणत्ते-तं जहा-सचित्ते, अचित्ते भीसए)
. (1) ज्ञाय४२२ ०यो भने. (२) नामासमद्रव्यो५४म. नामागभद्रव्या५४ नीय प्रमाणे त्रए ४२ छ-(१) शायशरीर द्रव्योपभ, (२) भव्यશરીર દ્રવ્યો ક્રમ અને (૩) જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી તિરિકત (ભિન) દ્રપકમ તેમને જે જ્ઞાયકશરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિકત દ્રપક્રમ છે તેને નીચે प्रमाणे त्राण प्रा२ छ. (१) सथित्त, (२) अयित्त भने (3) मिश्रले भने। વિષય સચિત્ત દ્રવ્ય છે, તેને તદ્રયતિરિકત સચિત્તદ્રવ્યાપક્રમ કહે છે. જે ઉપક્રમને - વિષવ અચિત્તદ્રવ્ય છે તે ઉપકમને તયતિરિક્ત અચિત્ત દ્રપક્રમ કહે છે. અને
જેને વિષય સચિત્ત અચિત્ત બન્ને પ્રકારનું દ્રવ્ય છે. તે ઉપક્રમને તદ્રયતિરિકત મિશ્ર કપમ કહે છે. આ દ્રપકમની વ્યાખ્યા દ્રવ્યવસ્થાના જેવી જ સમજવી.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં ઉપકમના ૬ ભેદને પ્રકટ કર્યા છે. તેમાંથી
For Private and Personal Use Only
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
.
.
-
-
अनुयोगदारपत्रे अथ सचित्तं द्रव्योपक्रम निरूपयति-- १. मूलम्-से कि तं सचि । दव्योवकमे? सचि दव्योवक्कमे ति. बिहे पण्णत, तं जहा-दुपए चउपए अपए । एकि पुण दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिकमे य वत्थुविणासे य ॥ सू० ६२ ॥ नाम स्थापना और द्रव्य का उपक्रम का स्वरूप प्रकट किया है। इसमें किसी चेतन अचेतन पदार्थ का उपक्रम ऐसा नाम रख लेना यह नाम उपक्रम है। किसी पदार्थ में उपक्रम का आरोप करना यह स्थापना उपक्रम है। भूत में हुई अथवा भविष्यत् काल में होनेवाली उपक्रम की पर्याय को वर्तमान में उपक्रमरूप से हना यह द्रव्य उपक्रम है । इसके आगम और नो आगम को आश्रित करके दो भेद हैं। उपक्रमशास्त्र का अनुपयुक्त ज्ञाता आगमकी अपेक्षा से द्रव्योपनाम है। नोआगम को आश्रित करके द्रव्योपक्रम के ३ मेद हैं-ज्ञायक शरीर, भव्यशरीर और इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम। इनमें उपक्रम शास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता का निर्जीव शरीर नोआगम से ज्ञायक शरीर द्रन्योपक्रम है। जिस प्राप्त शरीर मे जीव आगे उपक्रम शास्त्र को सीखेगा वह भव्यशरीर द्रव्योपक्रम है। इन दोनों से व्यरिरिक्त जो नो. आगमद्रव्योरक्रम है वह सचित्त, अचित्त और मिश्रद्रव्योपकम के भेद से तीन ३ प्रकार का है। ॥मत्र ६१॥ નામ. સ્થાપના અને દ્રવ્યપક્રમનું નિરૂપણ આ સત્રમાં કર્યું છે. કેઈ ચેતન–અચેતન પદાર્થનું “ઉપક્રમ” એવું નામ રાખવું તે “નામઉપક્રમ છે. કેઈ પદાર્થમાં ઉપક્રમને આરેપ કરે તેનું નામ સ્થાપના ઉપકમ છે. ભૂતકાળમાં પ્રાપ્ત થયેલી અથવા ભવિષ્યમાં થનારી ઉપક્રમની પર્યાયને વર્તમાનમાં ઉપક્રમરૂપે કહેવી તે નામ દ્રવ્યઉપક્રમ છે. તેના આગમ અને આગમને આશ્રિત કરીને “ ભેદ છે. ઉપક્રમશાસ્ત્રને અનુપયુક્ત જ્ઞાતા આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યપક્રમ છે, ને આગમને આશ્રિત કરીને દ્ર પકમના ત્રણ ભેદ પડે છે. (૧) જ્ઞાયકશરીર, (૨) ભવ્ય શરીર અને (૩) તે બનેથી ભિન્ન એ તદ્રયતિરિત કાપક્રમ.
ઉપક્રમશાસ્ત્રના અનુપયુક્ત જ્ઞાતાના નિર્જીવ શરીરને નેઆગમની અપેક્ષાએ નાયકશરીરદ્રવ્યપઠન કહે છે. જે પ્રાણ શરીરથી જીવ આગળ જતાં ઉપક્રમશાસ્ત્ર શીખશે, તેનું નામ ભવ્ય શરીર કપક્રમ છે. આ બન્નેથી ભિન્ન એ જે ને. આગમ દ્રપક્રમ છે, તે સચિત્ત, અચિત્ત, અને મિશ્ર દ્રપકમના ભેદથી ત્રણે પ્રકારને કહ્યો છે. જે સ. ૬૧ છે
For Private and Personal Use Only
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगवन्द्रिका टीका. सू० ६२ सचित्तव्योपक्रमनिरूपणम्
छाया--अथ कोऽसौ सचित्तो गोप कमः १ सचित्तो द्रव्योपक्रमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तपथा-द्विपदचतुष्पदो पदः । एकैकः पुनहि विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथापरिकर्मणि प व तुविनाशे च ॥त्र ६२॥
अब सत्रकार सचित द्रव्योपक्रम का स्वरूप प्रकट करते हैं
से किं तं सचित्ते दमोरक्कमे" इत्यादि । ।सत्र ६२॥
शब्दार्थ--(से कि तं सचित्ते दयोवकमे) हे भदन्त ! सचित्त द्रव्यो. पक्रम का क्या स्वरूप है?
(सचित्त दन्दोवस्कमे तिविहे पणत्त) उत्तर-सचित्त द्रव्योपक्रम ३तीन प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे (दुपए चउपपए अपए) द्विपद, चतुष् द और आद। इन में से नट नर्तक आदिरूप द्विपद सचित्त द्रव्यो पक्रम है। हस्ती अश्व आदिरूप चतुष्पद सचिन द्रव्योपक्रम है। तथा आम्रादिकृवरूप अद सचित्त द्रन्योरक्रम है। (पकिके पुण दुविहे पण्णत्ते) इनमे भी एक एक दो २ प्रकारका कहा गया है। (तजहा) जैसे-(परिक्कमे य यत्युविणासे य) पकिर्म में और व तु विनाश में अवस्थित वस्तु में गुण विशेष का आधन व रमा परिकर्म है। इस परिकर्म में परिकर्म विषयवाला द्रव्यो. पकार होता है। द्विपदवाले नट-नतंक आदि जन घृत आदि द्रव्य के उपयोग से जो अपने बल आदि की वृद्धि करते हैं अथवा और अनेक साधनों से कर्ण एवं स्कन्धों को बढाते हैं वह रिकर्म को आश्रित करके सचित्त द्रव्यो
હવે સત્રકાર સચિન દ્રપકમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે— - "से कि त सचित दव्वोत्रक्कमें" त्याह
Ava'-(से कि त सचित्ते दबोवकमे ?) शिष्य गुरुने वो प्रश्न पूछे છે કે હે ભગવન્! સચિત્ત દ્રવ્યપકમનું કેવું સ્વરૂપ છે? . उत्तर-(सचित्ते दव्वोवक्कमे तिविहे पण्णत्त) सथित्त ०.५भत्र र हो 2. (तंजहा) ते प्रा। नीय प्रमाणे छ..
(दुपए, चउपए, अपए) (१) ६५६, (२) यतु.५६ अने (3) 446 12, नत: આદિરૂપ દ્વિપદ સચિત્ત દ્રવ્ય પક્રમ છે, ગજ, અશ્વ આદિરૂપ ચતુષ્પદ સચિત્ત દ્રપક્રમ છે, તથા આઝાદિ વૃક્ષરૂપ અપદ સચિત્ત દ્રવ્યપક્રમ છે.
एकिके पुग दुविहे पण्णत्ते) से प्रत्ये:ना ५५ २ ४ा छे. (तंजहा) म (परिकमे य वत्थुविणासे य) (१) पश्मिना माश्रितरीन शुविशेष माधान કરવું તેનું નામ પરિકમ છે. આ પરિકર્મમાં પરિકર્મવિષયવાળે પમ છે. દ્વિપદવાળા (બે પગવાળા) નટ, નર્તક આદિજન ધી આદિ દ્રવ્યના ઉપયોગથી પિતાના બળ આદિની જે વૃદ્ધિ કરે છે, અથવા બીજા અનેક સાધનથી કર્યું અને જેને
-
For Private and Personal Use Only
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
.
___अनुयोगद्वार टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि त' इत्यादि-- . .
अथ कोऽसौ सचित्ती दव्योपक्रमः ? इति । उनरमाह-सचित्तो द्रमो पक्रमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा-द्विपदः, चतुष्पदः, अपद इति । सत्र-द्विपदःनटनर्त कादिरूपः, - चतुष्पदः-हस्त्यश्चादिरूपः, अपदः आम्रादिक्षरूपः। तत्र द्विपदादिषु पुनरेकैको विविध:-परिकर्मणि च घस्तु बनाशे च । तत्रापस्थितस्यष वस्तुनो गुणविशेषाधान परिकम, सत्र परिकमणि-परिकम विषयो द्रव्योपनमः। पक्रम है। कहा भी है कि क्रिया से वस्तुओं का जा गुण विशेषरूप परिणाम हैउसका नाम परिकर्म है। वस्तु के विनाश की विषय करनेवाला द्रव्योपक्रम तब होता है, कि जब उपाय विशेषों से वस्तु के विनाश का ही उपक्रम होताहै
भावार्थ--सूत्रकारने इस मूत्रद्वारा सचित्त द्रव्योपक्रम को ३ रूप में विभक्त किया है । १ द्विपद २ चतुप्पद और तीसरा अपद । द्विपद् दो चरणवाले प्राणी चतुष्पद-चार चरणवाले जानवर, अपद-जिनके चरण नहीं ऐसे एकेन्द्रिय : वृक्ष आदि अपद हैं। इन सब में जी। होने से ये सब सचिन है। इन तीनों प्रकार के सचित्तों के विषय में परिकर्म और विनाश को लेकर द्विपदादि द्रव्योपक्रम दो २-२ प्रकार का और होता है। घृत आदि शक्तिवर्धक पदार्थों के सेवन से जो ये द्विपद आदि अपने में बल आदि की वृद्धि करते हैं वह परिकम विषयवाला, और उपाय विशेषों से वस्तु को विनाश करनेवाला जो उपक्रम किया जाता हैं बह विनाश विषयवाला द्रव्यो (ખભાઓને) વૃદ્ધિયુકત કરે છે, તે પરીકને આશ્રિત કરીને જે ઉપકમ છે તેનું નામ સચિત્તદ્રવ્યપક્રમ છે. કહ્યું પણ છે કે ક્રિયાની અપેક્ષાએ વસ્તુઓનું જે ગુણવિશેષરૂપ પરિણામ છે તેનું નામ પરિક છે. વસ્તુના વિનાશને વિષય કરનારે ચાક્રમ ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે ઉપાય વિશે દ્વારા વસ્તુના વિનાશને જ ઉપકમ થાય છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર પર સચિત્ત દ્રવ્યાપકરના ત્રણ ભેદ બતાવ્યા છે. (१) द्वि५६, (२) यतुपा) अने (3) सपदि.५६ पेट मे
पायो , यतु०५४ એટલે ચાર પગવાળા જાનવરો અને અપદ એટલે જેને પગ નથી એવા એકેન્દ્રિય વૃક્ષાદિને ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ બધામાં જીવ હોવાથી તેઓ સચિત્ત છે. આ ત્રણે પ્રકારના સચિત્તોના વિષયમાં પરિકર્મ અને વિનાશની અપેક્ષાએ દ્વિપદાદિ પ્રત્યેક દ્વપક્રમના બબ્બે પ્રકાર પડે છે. ઘી આદિ શક્તિવર્ધક પદાર્થોના સેવનથી જે
આ દ્વિપદ આદિ સચિત્ત છે પિતાના બળ આદિની વૃદ્ધિ કરે છે, તે પરિકમ વિષયવાળ પકેમ છે, અને ઉપાય વિશે દ્વારા વરતુને વિનાશ કરનારે જે 'ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે તે વિનાશ વિષયવાળો કપક્રમ છે. આ કથનને
For Private and Personal Use Only
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयागचंदिका टीका सूत्र ६३ द्विपद उपक्रमनिरूपणम्
द्विपदानां नटनर्त्तकादीनां घृताद्युपयोगेन यद् बलवर्णादिवरण कर्णकन्धवर्धनादिक्रिया वा स सचितद्रव्योपक्रमः । उक्तं च-
For Private and Personal Use Only
२५७
" परिकम्मं किरिया छाया -- परिकर्म
.
वत्थूणं गुणविसेस परिणामो" । या वस्तूनां गुणविशेषपरिणामः ॥ इति ॥ वस्तुविनाशविषया द्रव्योपक्रमच - यदा उपाय विशेषैर्वर तुनो विनाश एवो पक्रम्यते तदा भवति ॥ पू० ६२ ||
द्विविधमप्येतमुपक्रमं वक्तुमुपक्रमते --
मूलम् - से किं तं दुपए उनक्कमे ? दुपए उवक मे नडाणं नच्च गाणं जाणं महाणं मुट्ठियाणं वेलंबगाणं वहगाणं पवगाणं लास गाणं आइक्खगाणं खाणं मं खाणं तृणइलाणं तुंबवीणियाणं का वडियाणं मागहाणं । से तं दुपए उक्कमे ॥ सू० ६३ ॥
छाया -- अथ कोऽसौ द्विपद उपक्रमः १ द्विपद उपक्रमो नटानां नर्त्तकानां जल्ल्लानां मल्लान मौष्टिकानी विडम्बकानां कथकानां प्लवकानां लासकानाम् पक्रम हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि सचित्त द्विपदों चतुष्पदों और अपदों को परिकर्म और विनाश को लेकर जो घृतादिद्रव्यों का उपक्रम आयोजन सेवन किया जाता हैं वह परिकर्म और विनाशविला सचित द्विपदादि द्रव्योपक्रम हैं | | | ० ६२ ॥
इसी
को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं" से किं तं दुपए उक्कमे " इत्यादि ॥
६३॥ शब्दार्थ - - (से किं तं दुपए उवक्कमे ) हे भदन्त ! द्विपद सबन्धी द्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है । ? ( दुपए उवक्कमे नडाणं नचचगाणं जल्लाणं
પે
ભાવાર્થ એ છે કે દ્વિપદે, ચતુષ્પદો અને અપદાના પકિ અને વિનાશની ક્ષાએ જે ઘી આદિ દ્રવ્યેાના ઉપક્રમ (આયાજન-સેવન) કરવામાં આવે છે, તે પરિ ક અને વિનાશરૂપ વિષયવાળા સચિત્ત દ્વિપદાદિ દ્રવ્યપક્રમ છે. ૫ સ્૦ ૬૨૫ આ દ્વિપદ સાંખ"ધી દ્રવ્યેપક્રમના વિષયમાં સૂત્રકાર વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે"से कि त दुपए उवकमे" त्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं दुए उक्कमे १) शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न छे छे ભગવન્ ! દ્વિપદ સ ંબંધી દ્રવ્યેાપક્રમનુ સ્વરૂપ કેવું છે ?
125
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
____ अनुयोगबारसूत्रे आख्यायकानां लढानां मङ्खानां तूणिकानां तुम्बवीणि कानां कावडिकानां मागधानाम् । स एष पिद उपक्रमः ॥१० ६३॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि त' इत्यादि। अथ कोऽसौ द्विपदउपक्रमः ? उत्तरमाह--यद् नटाना-नाटयकर्तृणां, नर्त वाणां नृत्य विधायिनां, जल्लानां-जल्लाः-वस्त्रमादाय क्रीडापारकाः, बिरुदपाठका वा, तेषाम्, मल्लागं मल्लाः प्रसिद्धास्तेषां, मौष्टिकानां मुष्टिभिर्योद्धारो महविशेषा मौष्टिकारतेषाम्, विडम्बकाना म्नानादेपधारिणां विदृपकानाम्. कथकानाम्-कथवा यथावारकारतेषाम्, प्लवकाग-रू.वन्ते ये ते 'लबका गर्ता हरि तारो नद्यादितारका वा तेषाम्, लासकानाम् - रास्कान् गायन्ति ये ते लासकाः, उ.यशब्द प्रयोक्तारे भण्डारा, तेषाम्, आख्यायकानाम्-आख्यायका- शुभाशुभाख्यायिनस्तेषाम् ललानाम्-महतो व शरयाग्रभागं ये घिरं हन्ति ते लह्वाग्तेषाम्, मङ्खानाम् ये चित्रपटादिहस्ता भिक्षा चरन्ति ते मङ्खारतेषाम् , तूणिकानाम्-तूणवाद्यवादिनाम्, .मल्लाणं मुट्ठियाणं बेलंबगाणं व हगःणं पवगाणं लासगाणं आइदखगाणं लंखाणं
मंखाणं तूणइल्लाणं तुंबवीणियाणं कापडियाणं मागहाणं) नाटय करनेवाले नटों • का नृत्यकरनेवालों का, वस्त्र को पकडकर क्रीडा करनेवाले जल्लों का, अथवा विरुदावली पढनेवालों का पहलवानों का, मुष्टियों से युद्ध करनेवाले मल्लविशेषों का, अनेक मेषों का धारण करनेवाले विदूषकों का, कथाओं को कहनेवालों का, गर्त आदि को लांघने की अथवा नदी से पार उतारने की क्रिया में अभ्यस्त बने हुए प्लवकों का रासलीय करने शलों का अथवा जयशब्द का प्रयोग करनेवाले भांडों का शुभ और अशुभ को कहनेवाले अख्यायकों का, वडे भारी वांस के अग्रभाग पर आरोहण करनेवाले लंखों का, चित्रपट आदि को हाथ में लेकर भीख मांगनेवाले मंखों का, तूणवाद्य को बजानेवाले तूणिको
उत्त२-(दुपए उवक्कमे नडाणं नचगाणं जल्लाणं मल्लागं, मुट्टियाणं बेलंबगाणं कहगाणं पवगाणं लासगाणं आइवखगाणं, लंखाणं मखाणं, तूणइल्लाणं तुंबवीणियाणं कावडियाण मागहाणं) नाट। ४२ना२ नटाना, नृत्य ४२ना। नत ना, त्रने પકડીને કીડા કરનારા જલેને અથવા બિરુદાવલી બેલનારાઓને પહેલવાનેને, સુષ્ટિકને (મુઠ્ઠીઓ વડે લડનારા મતવિશેષને), અનેક વે ધારણ કરનાર વિષકને, કથાકારોને, ગત્ત આદિને પાર કરવાની અથવા નદીને પાર કરાવવાની ક્રિયામાં અભ્યસ્ત રહેતા એવા લવકેને, રાસલીલા કરનારાને અથવા જય શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરનારા ભાંડેને, શુભ અને અશુભને કહેનારા અખ્યાયકોને, ઘણું મોટા વાંસ પર આરોહણ કરનારા લખને (બજાણીયાઓને), ચિત્રપટ આદિને હાથમાં લઈને તેની મદદથી ભીખ માગતા મને, તંતુવાદ્યોને બજાવનારા વણિકને,
For Private and Personal Use Only
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोग चंद्रिका टीका पुत्र ६३ द्विषद उपकमने पम्
२५९
,
तुम्बवीणिकानाम् तुम्बनिर्मिता या वीणा सा तुम्बवीणा, तद्वादनं शिल्पं येषा तुम्वरीणिकास्तेषाम् कावडिकानाम् - 'कावडि' इति भाषाप्रसिद्ध भारवाहकानाम् मागधानाम् — मागधाः = मङ्गल ठस्तेिपाम, एषां सर्वेषामपि घृताद्युपयोगेन बलवर्णादिकरणं कर्णसन्धादिवर्द्धनं वा स द्विपद उपक्रमः । एप परिकर्मविषयः सचित्तो द्विपद उपक्रमः यस्तु नटादीनां खङ्गादिभिर्नाश एवोपक्रम्यते - सम्पाते स वस्तु विनाशविषयः सचित्तो द्विपदो द्रव्योपक्रमः इति वाक्यमपि प्रकरण-वशादप्तम् । स एष द्विपद उपक्रमः ||मू० ६३॥
का, तूंबडी की वीणा बनाकर उसे बजानेवाले तुंबवीणियों का कावड से भार ढोनेवालों कावडिकों का, और मंगल पाठकों का जो अपने शरीर में घृतादिक द्रव्य के सेवन से शक्ति आदि के संबर्द्धन करने का उपक्रम किया जाता हैं, अथवा जिन २ और साधनों से कानों कों और स्कंधों को बढाया एवं बलिष्ट किया जाता है वह सब प्रयत्न द्विपद संबन्धी उपक्रम है । यह जो द्विपदों का उपक्रम है वह परिकर्म को विषय करनेवाला है इसलिये यह सचित्त द्विपद उपक्रम है । तथा उन्हीं नट आदिकों का जो खङ्गआदि से विनाश करने का उपक्रम किया जाता हैं वह वस्तु के विनाश से संबन्धित होने के कारण वस्तु विनाश विषयवाला सचित्त द्विपद द्रव्योपक्रम है । इस तरह का वस्तु विनाश विषयक सचित्त द्विपद द्रव्योपक्रम का पाठ सूत्र में नहीं आया हैं तो भी प्रकरण के वश से उसे यहां समझ लेना चाहिये । इस प्रकार से यह द्विपद उपक्रम संबन्धी कथन है ।
તુંબડીની વીણા ખનાવીને તેને વગાડનારા તુંબવીણકાના, કાવડની મદદથી ભાર વહન કરનાર કાવડીયાઓના અને મ’ગળપાઠકાના જે પેાતાના શરીરમાં શ્રી આદિના સેવન વડે શકિત આદિના સવર્ધનના જે ઉપમ કરવામાં આવે છે. અથવા જે જે બીજા સાધના ારા કનેિ અને ખન્નાને વૃદ્ધિયુકત અને બલિષ્ઠ કરવામાં આવે છે, તે બધાં પ્રયત્નને દ્વિપદ્મ વિષયક ઉપક્રમ કહે છે. આ જે દ્વિપદાના ઉપક્રમ છે તે પરિક`ને વિષય કરનારા છે, તેથી તે સચિત્ત દ્વિપદ ઉપક્રમ છે. તથા એજ નટ આક્રિકેાના તલવાર આદિથી જે વિનાશ કસ્બાના ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે, તે વસ્તુના વિનાશરૂપ વિષયવાળા સચિત્ત દ્વિપદ દ્રયૈાપક્રમ છે. આ પ્રકારના વસ્તુ વિનાશ વિષયક સચિત્ત દ્વિપદ દ્રવ્યપક્રમને પાઠ સૂત્રમાં આવ્યો નથી, તે પણુ આ પ્રકરણમાં તેને સમાવેશ કરવાનુ... જરૂરી લાગવાથી, તેનુ સ્થન અહીં થવું જોઇએ. આ પ્રકારનું દ્વિપદ સચિત્ત ઉપક્રમનું સ્વરૂપ સમજવુ,
For Private and Personal Use Only
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३६०
अनुयोगद्वारम अथ चतुष्पदविषयं द्विविधमप्युपक्रमं वर्णयति
मूलम्--से कि तं चउप्पए उवकमे ? चउप्पए उनकमे चउत्पयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ । से त चउप्पए उवक्कमे ॥सू० ६४॥
छाया--अथ कोऽसौ चतुष्पद उपक्रमः ? चतुष्पद उपक्रमश्चतुष्पदानाम् अश्वानां हस्तिनाम, इत्यादि । स एष चतुष्पद उपक्रमः ॥ ॥१० ६४॥
भावार्थ--भूत्रकारने जो सचित्त के भेदरूप द्विपद आदि का परिकम और विनाश विषयक द्रव्योपक्रम कहा है-उसी के द्विपदरूप आधभेद के बरूप का वर्णन संक्षेप में इस सूत्रद्वारा किया गया है-नट, नर्तक आदिजनों का जो अपने में शक्ति बढाने वाले घृत आदि पदार्थ हैं उन पदार्थों के सेयन आदि करने का जो उनका उपक्रम प्रयत्न-है वह परिकर्म विषयक द्विपद उपक्रम है। तथा विनाश के साधनभूत तलवार आदि से जो इनके विनाशकर दिये जाने का उपक्रम होता है, वह विनाश विषयक द्विपद उपक्रम है । ॥सू० ६३॥
अब चतुष्पद विषयक दोनों प्रकार के उपक्रम का वर्णन मूत्रकार करते हैं"से कि तं च उपए" इत्यादि। ॥सूत्र ६४॥
शब्दार्थ-(से किं तं चउरए उवक्कमे) हे भदन्त ! चतुष्पद उपक्रम का क्या स्वरूप हैं-(चउप्पए उवक्कमे चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ) : चतुष्पद अश्व, गज आदि जानवरों को अच्छी चालचलने आदि की शिक्षा
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે જે સચિત્તના ભેદરૂપ દ્વિપદ આદિના પરિકર્મ અને વિનાશ વિષયક દ્રષકમ કહ્યો છે, તેના જ દ્વિપદરૂપ પ્રથમ ભેદના સ્વરૂપનું વર્ણન અહીં સંક્ષિપ્તમાં કરવામાં આવ્યું છે.--
નટ, નર્તક આદિજને પિતાની શકિત વધારવાને ઘી આદિ પદાર્થોનું સેવન કરવાનો જે ઉપકમ-પ્રયત્ન કરે છે તેને પરિકર્મ વિષયક દ્વિપદ ઉપક્રમ કહે છે. તથા તલવાર આદિ સાધન વડે તે નટ, નર્તક આદિજનોને વિનાશ કરી નાખવાને જે ઉપક્રમ (પ્રયત્ન) થાય છે તેને વિનાશ વિષયક દ્વિપદ ઉપકમ કહે છે. સૂત્ર ૬૩ છે
હવે સૂત્રકાર ચતુષ્પદ વિષયક બન્ને પ્રકારતા ઉપકમનું વિષયકનું નિરૂપણ કરે છે..... "किं तं चउप्पए" त्याह
शाय - (से किं तं चउप्पए उपक्कमे १) शिष्य शुरु मेवे प्रश्न पूछ छ । 'હે ભગવન! ચતુષ્પદ ઉપમનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्तर-(चउप्पए उधकमे चउप्पयाणं आसाणं हत्थी गं इचाइ) २५ सय, ગજ આદિ જાનવરોને સારી ચાલ ચલાવવા આદિ શિક્ષા દેવારૂપ જે ઉપ મ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुये द्रिका टीका सूत्र ६५ अपदविषयमुपक्रमनिरूपणम्
टीका-शिष्यःपृच्छति-से कि त' इत्यादि । अथ कोऽसौ चतुष्पदानाम् अश्वान हस्तनामित्यादि-अश्वगजप्रभृति चतुष्पदजीवानां शिक्षागुणविशेषकरणपरिक मणि-सचित्तद्रव्यो क्रमः, खङ्गादिभिस्त्वेषां विनाश करण च, वस्तुविनाशे सचिनद्रव्योपक्रमः, इति वाक्यशेषः । एतन्निगमयन्नाह-स एप उपक्रम इति ॥५.६४।
अथापद विपयं द्विविधमप्युपक्रममाह
म्--से कि त अपए उवक्रमे ? अपए उणकमे अपयाणं अंबागं अ-बाडगाणं इच्चाइ। से त अपओक्कमे । से तं सचित्तदव्योवा ॥सू०६५॥
छाया-अथ काऽसौ अपद उपक्रमः ? अपद उपक्रमः-अपदानाम् आम्राणाम आम्रातकानाम इत्यादि । स एष अपदोपक्रमः । स एष सचित्त द्रव्योपक्रमः॥६४॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं त" इत्यादि । अथ कोऽसौ अपद उपक्रमः ? इति। उत्तरमाह-अपद उपक्रमो हि-अपदानां स्थावरनामकर्मोंदयात् चलनक्रियावर्जितानाम आम्राणाम् आम्रवृक्षाणाम्, तत्फलानी च, तथादेना यह परिकम की अपेक्षा सवित्त द्रव्योपक्रम है । तथा इन्हीं जानवरों को तलवार आदि स मार डालना यह विश की अपेक्षा सचित्त द्रव्योपक्रम है। इस प्रकार यह सचित के भेदरूप चतुष्पद का दोनों प्रकार के द्रव्योपक्रम का कथन है । ॥सूत्र ६४॥ ___अब सत्रकार अपद विषयक दोनों प्रकार के उपक्रम का थन करते हैं- "से किं तं अपए" इत्यादि । ।सूत्र ६५॥
शब्दार्थ-(से किं तं अपए उबक्कमे) हे भदन्त ! अपद-जो आम्र एवं आम्रातक आदि वृक्ष और उन के फल हैं कि जिनमें स्थावर नामकर्म के
તે પરિક્રમની અપેક્ષાએ સચિત્ત દ્રપક્રમ છે. તથા એજ જાનવરને તલવાર આદિ વડે મારી નાખવાને જે ઉપકમ છે, તેને વિનાશની અપેક્ષાએ સચિત્ત દ્રવ્યપક્રમ કહે છે. આ પ્રકારે સચિત્તના ભેદરૂપ ચતુષ્પદના બંને પ્રકારના દ્રવ્યાપકમતું અહીં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. જે સૂ૦ ૬૪
હવે સૂત્રકાર અપદ (ચરણ વિહીન છે) વિષયક બને પ્રકારના ઉપક્રમનું नि३५ ४२ छ. “से कि तं अपए उवक मे" त्याह____ शहाथ-(से किं त अपए उवक्कमे ?) शिष्य गुरुने यो प्रश्न पूछे छ કે હે ભગવન્ ! અપદ ઉપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
For Private and Personal Use Only
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे आम्रातकानाम्-आम्रातकक्षाणां तत्फलानां च, इ.यादि । अयं भावः-आम्रादिवृक्षाणां वृक्षायुर्वेदोक्तपद्धत्या वृद्धिकरणं, तत्फलानां च गर्ने पलालादौ स्थापनादिना झटिति पक्वावस्थापादनं तत् परिकम विषयः अपद उपक्रमः । शस्त्रादिना च यदेषां विनाश करणं तद् वस्तु विनाशविषयः अपद उपक्रम इति । स एषः अपदोपक्रमः । स एष सचित्तद्रव्योपक्रम इति ॥१० ६५॥ ____ अथ-अचित्तद्रव्योपक्रम निरूपयति
मूलम्--से कि त अचित्तदव्योवक्कमे ? अचित्तदव्योवस्कमे खंडाईणं गुडाईणं मच्छंडीणं । से तं अचित्तदन्वोक्क्कमे ॥ सू०६६॥
छाया-अथ कोऽसौ अचित्तद्रव्योपक्रमः ? अचित्तद्रव्योपक्रमः खण्डादीनां गुडादीनां मत्स्यण्डीनाम् । स एषः अचित्त द्रव्योपक्रमः ॥६६॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि त' इत्यादि-अथ कोऽसौ अचित्तद्रव्यो क्रमः ? इति। उत्तरमाह-अचित्तद्रव्योपक्रमः-खण्डादीनां 'खांड' इति
उदय से स्वयं चलन क्रिया नहीं होती हैं उनकी वृक्षायुर्वेदोक्त पद्धति से वृद्धि करना-खात आ दे डालकर उन्हें बढाने का उपक्रम करना उनके फलों को खड्डा आदि में भरकर पलाल आदि से उन्हें दवाकर के जल्दी पका लेना यह सब परिकर्म का विषय करनेवाला अपद उपक्रम है । तथा शस्त्र आदि से इनका विनाश करना यह व तु विनाश विषयक अपद उपक्रम है। इसप्रकार यह दोनों प्रकारका उपक्रम अपद का द्रव्यापक्रम है। इस तरह यहां तक यह सचित्त द्रव्य संबन्धी उपक्रम का कथन है। मू० ६५॥
ઉત્તર–આમ્ર (બ) આદિ જે વૃક્ષે અને તેમનાં જે જે ફળે છે, જેમના સ્થાવર નામ કર્મના ઉદયને લીધે જેઓ ચલન ક્રિયાથી રહિત હોય છે, તેમની વૃક્ષયુકત પદ્ધતિથી વૃદ્ધિ કરવી-ખાતર અદિ નાખીને તેમની સારી રીતે વૃદ્ધિ થાય એ પ્રયત્ન કરે, તેમના ફળોને ખાડા આદિમાં ભરીને તેના પર પરાળ આદિ દબાવીને તેમને જલ્દી પકાવવાનો પ્રયત્ન કરે, તેને પરિકમની અપેક્ષાએ અપદ ઉપક્રમ કહેવાય છે. તથા શસ્ત્ર આદિ વડે તે વૃક્ષાદિને વિનાશ કરે તેને વસ્તુ વિનાશવિષયક અપદ ઊપક્રમ કહે છે. આ પ્રકારે બન્ને પ્રકારના અપદ ઊપ. ક્રમનું નિરૂપણ અહીં પૂરું થાય છે, અને સચિત્ત દ્રવ્યપક્રમના બધાં ભેદેનું વર્ણન પણું અહીં સમાપ્ત થાય છે. સુ. ૬પા
For Private and Personal Use Only
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२६३
अनुयोगचंद्रिका टीका सूत्र ६६ अचित्तद्रव्योपकमनिरूपणम् भाषाप्रसिद्ध प्रभृतीनां, गुडादीनां गुडप्रभृतीनां, मत्स्याङीनाम्-प्रतलगुडादीना, 'राब' इति भाषाप्रसिद्धानां विज्ञेयः। अयं भावः-अचित्तानां खप्डगुड मत्यण्डीनां द्रव्याणामुपाय-विशेषेण यन्माधुर्याधिकयकरणं तत परिकर्म विषयः अचित्तद्रव्योपक्रमः । एषामेव यासर्वथा विनाशकरण तद् वस्तुविनाश विषयः अचित्त द्रव्योपत्र मः । एतन्निगमरम्नाह-'से तं' इत्यादि । स एष अचित्त द्रव्योपक्रम इति ॥सू० ६६॥ . अ. मिश्रद्रव्योपक्रममाह
मूलम्--से किं तं मीसए दव्वोवकमे ? मीसए दव्वोक्कमे से चेव थासग आयंसगाइमंडिए आसाई । से तं मीसए दव्वोवकले। से तं जाणयसरीर भवियसरीर वइरित्ते दव्योवकम। स तं नोआगमओ दव्योवक्कमे । से किं तं दव्योवक्कमे सू०६७॥
अब सूत्रकार अचित्त द्रव्योपक्रम का कथन करते हैं“से किं तं अचित्त दवावक्कमे” इत्यादि ।सूत्र ६६।।
शब्दार्थ-(से किं तं अचित्तदव्यो कमे) हे भद त ! अचिन द्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है? . उत्तर-(खंडादीनां गुडादीनां मच्छंडीणं, अचित्तदवाबक्कमें) खांड, गुड
और राब इन पदार्थों में उपाय विशेष से जो मधुरता की अधिकता करदी जाती है वह परिकर्म विषयवाला अचित्त द्रव्योपक्रम है तथा इन्हीं पदार्थों का जो सर्वथा विनाश करदिया जाता है, वह विनाश विषयक अचित्त द्रव्योर म है । (सेतं अचित्तदव्वेविक्कमै) इस तरह से अचित्त द्रव्योपक्रम का यह स्वरूप है। ॥मूत्र ६६॥
હવે સૂત્રકાર અચિત્ત દ્રવ્યાપક્રમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે –
" से किं तं अचित्तव्योवक्कमे" त्या:
थार्थ-(से हितं अचित्तद्रव्योवक्कमे?) शिष्य शुरुने मेवे। प्रश्न छ । હે ભગવન્ ! અચિત્ત દ્રવ્યપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खंडादीनां गुडादीनां मच्छंडीणां अचितदवोवक्कमे) Mis, गोण, ઈત્યાદિ પદાર્થોમાં ઉપાય વિશે દ્વારા મધુરતાની વૃદ્ધિ કરવા રૂપ જે ઉપક્રમ થાય છે, તેને પરિકમ વિષયને અચિત દ્રવ્યપક્રમ કહે છે. તથા એજ પદાર્થોને જે સર્વથા વિનાશ કરી નાખવા રૂપ ઉપકમ થાય છે તેને વિનાશ વિયક અચિત્ત द्रव्यो५४म ४९ छे. (से तं अचित्ते दव्वे वक्कमे) मा प्रा२नु मयित्त द्रव्योपईमनु २१३५ छ. ॥ सं. १६ ॥
-
For Private and Personal Use Only
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारस्ते छाया-अथ कोऽसौ मिश्रको द्रव्योपक्रमः स एव स्थासकादर्शकादिमप्डितः अश्वादिः । स एष मित्रको द्रव्योपक्रमः । स एष ज्ञायकशरीरभव्यशरीरध्यतिरिक्तोद्रव्योपक्रमः । स एष आगमतो द्रव्योपक्रमः। स एष द्रव्यापक्रम ॥०६७।।
टीका--शिष्य पृच्छति-से किं तं' इत्यादि । अथ कामो मिश्रको द्रव्योपक्रमः ? इति । उत्तरमाह मिश्रक :सचित्ताचित्तात्मका द्रव्योपत्रमः-स्थासकादर्शकादि मण्डितः-स्थासका अश्वाभरण विशेषः, आदर्श:-पग्रीवाम रण विशेषः, आदि शन्दात् बुङ्कमादयः, एषां समासः, तेर्मण्डितः भूषितः अश्वा
अब सूत्रकार मिश्र द्रव्योपक्रम का कथन करते है“से किं तं मीसए दवावको" इत्यादि । ॥० ६७॥
शब्दार्थ---(से किं तं मीसए दवाव कमे) हे भदन्त ! मिश्र द्रव्योपक्रम क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(मीलए दवावकमे से चेव थासगआयंसगाइमंडिए आसाई-से त मी ए दव्योवक्कमे) सचिनात्मक-मिश्र-द्रव्योपक्रम का स्वरूप इस प्रकार से है-कि अचित्त स्थासक और आदर्श आदि से विभूषित हुए घोडे से लेकर बैल तक के जानवरों में जो शिक्षा आदि गुण की विशेषता करने का उपक्रम किया जाता है वह परिवम विषयक मिश्रद्रव्योपक्रम हे । शासक यह घाडे का आभरण विशेष है । आदर्श यह बैल या आभरण विशेष है । एडक शब्द का अर्थ मेष हैं। स्थासक-आदर्श और आदि पद से गृहीत कुंकुम का लेप હવે સૂત્રકાર મિશ્ર પ્રક્રિમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
“से किं तं मीसए दवावक्कमे" त्याla
शहाथ-(से कि त' मीसए दव्योवक्कमे?) शिष्य गुरुने मेरे प्रश्न पूछे छ - सगवान् ! मिश्र द्रव्योभनु ५१३५ यु छ ?
उत्तर-(मीसए दव्यावकमे से चेव थासगआयंसगाईमंडिए आसाइ-से तमीपए दवावकमे)
સચિત્તાત્મક મિશ્ર દ્રપક્રમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે- અચિત્ત થાસક, દર્પણ આદિથી વિભૂષિત થયેલા ઘેડાથી લઈને બળદ પર્યન્તના જાનવરોમાં જે શિક્ષા આદિ ગુણની વિશેષતા કરવાનો ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે, તેને પરિકર્મ વિષયક મિશ્ર કપક્રમ કહે છે. સ્થાસક” આ ઘડાનું એક ખાસ આભરણ છે भने पनी मा हर्नु माम२९ विशेष छ. 'एडक' PAL A६ मेष (..) ને વાચક છે. થાસ, દર્પણ, કુકમને લેપ આદિ અચિત્ત દ્રવ્યો છે તથા અશ્વ,
For Private and Personal Use Only
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ६७ मिश्रद्रव्योपक्रमनिरूपणम् २६५ दिः अश्वप्रभृत्येऽकान्तो विज्ञेयः। अयं भावः-स्थासकादर्शकादि भूषितानां कृत हमानों तेषामश्वाघेडकान्तानां यच्छिक्षादि गुणविशेषकरण परिवर्म विषयः मिश्रद्रव्योपक्रमः । तेषां खङ्गादिभिर्विनाशस्तु वस्तुविनाशविषयो मिश्रद्रव्योंपक्रम इति । अत्र-अश्वादी । सचेतनत्वात् स्थासकादीनाम् अचेतनत्वात् मिश्र द्रव्यत्व बोध्यम् । एतदुपसंहरन्नाह-से त' इत्यादि । स एष मिश्रका द्रव्योपक्रम इति । ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रमः सकलोऽपि निरूपित इति प्रचयितुमाह-'से तं' इत्यादि । स एष ज्ञा चकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रम इति । नोआगमतः सर्वोऽपि द्रव्योपक्रमो निरूपित इति सूचयितुमाह'से त' इत्यादि। स एष नोआगमतो द्रव्योपक्रम इति । द्रव्योपक्रमः सर्वो निरूपित इति सूचयितुमाह-'से त' इत्यादि । स एष द्रव्योपक्रम इति ।मु०६७॥ ये सब अचित्त द्रव्य है। तथा अश्व वगैरह सचित्त द्रव्य है। इन से जब इन सचित्त पदार्थों को विभूषित किया जाता है-तब ये मिश्र द्रव्य कहलाते हैं । इन में जो शिक्षा गुण से विशेषता का आपादन होता है यही मिश्र द्रव्योपक्रम का स्वरूप परिकर्म की अपेक्षा लेकर कहा गयो है। तथा जब इनका खङ्ग आदि विनाशक कारणों से विनःश हो जाता है तब वह विनाश को लेकर मिश्र द्रव्योपक्रम का स्वरूप कहा जाता है। यही मिश्रद्रव्योपक्रम है । (से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्योवकमे) इस प्रकार ज्ञायकशरीर द्रव्योपक्रम और भव्यशरीर द्रव्योपक्रम से व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम का स्वरूप कहा है। (से तनोआगमओ दव्योवक्कमे-से तं दबोवपक्कमे) नोआगम की अपेक्षा लेकर यह द्रव्योपक्रम का स्वरूप पूर्णरूप से निरूपित બળદ, ઘેટાં આદિ સચિત્ત દ્રવ્યું છે. આ સચિન અ આદિ જાનવરને જ્યારે ઉપર્યુંકત સ્થાસક, દર્પણ આદિ અચિત્ત દ્ર વડે વિભૂષિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ મિશ્ર દ્રવ્ય રૂપ બની જાય છે. એવાં મિશ્ર દ્રવ્ય રૂપ સ્થાસકથી વિભૂષિત અવાદિમાં જે શિક્ષા આદિ ગુણની વિશેષતા કરવાને ઉપકમ થાય છે તેનું નામ જ પરિક વિષયક મિશ્ર દ્રપકમ છે. અને તેમને તલવાર આદિ
શો વડે વિનાશ કરવાને જે ઉપક્રમ થાય છે, તે ઉપક્રમને વિનાશ વિષયક મિશ્ર દ્વપકમ કહે છે. આ પ્રકારનું મિશ્ર દ્રપક્રમનું સ્વરૂપ છે.
(से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दवावक्कमे)
આ પ્રકારે જ્ઞાયકશરીર દ્રપક્રમ અને ભવ્ય શરીર દ્રપક્રમથી તિરિકત (लिन्न) सेवा द्र०या५४म। २१३५नु नि३५ मी पू३ थाय छ. ( से तं नो आगमआ दव्योवकमे से तदवोरक्कमे) 20 शत नाम द्रव्या५मन मया
For Private and Personal Use Only
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
अनुयोगदारसत्रे अथ क्षेत्रोक्रम निरूपति... मूलमू-से किं तं खेत्तोकमे ? खेत्तोक्क्कम जपणं हलकुलियाईहि खेत्ताइं उवक्कमिजति । स तं खेत्तोक्क्कम ॥सू० ६८॥ - छाया-अथ कोऽसौ क्षेत्रोपक्रमः ? क्षेत्रोपक्रमा यत्खलु हलकुलिकादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते । स एप क्षेत्र पक्रमः ॥६८॥ . टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं त' इत्यादि । अथ केाऽसौ क्षेत्रोपक्रमः ? इति।
उत्तरमाह-क्षेत्रोपत्र म:-क्षेत्राणामुपक्रम:-क्षेत्रसम्बन्ध्युएक्रमः यस्खलु हलहो चुका। इसके निरूपण होने से द्रव्योपक्रम का समस्त स्वरूप भी निरूपित हो गया ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ-सचित्तादित्त द्रव्य में जो विशेषता का आषादन किया जाता है वह परिवम विषय वाला मिश्र द्रव्योपक्रम हैं और सचित्ताचित्तरूप मिश्न द्रव्य पाजो खड़ादि विनाशक कारणों से विनाश किया जाता है, वह विनाश विषयक सचित्ताचित्त द्रव्योपक्रम है-इस प्रकार यहां तक द्रव्योपत्र म से संबन्वित जितना मा वर्णन है वह सब सूत्रकार ने कर दिया है । ॥त्र ६७॥
अब सत्रकार सोनम का स्वरूप प्रकट करते है"से किं त खेत्तोवक्कमे” इत्यादि। सूत्र ॥६८॥
शब्दार्थ-(से किं तं खेत्तोवक्कमे) हे भदन्त ! क्षेत्रोपक्रम का क्या स्वरूप है?
उत्तर-(खेत्तोवक्कमे जणं हलकुलियाईहिं खेत्ताइ उवक्कमिति-से
ભેદેના સ્વરૂપનું નિરૂપણ અહિં સંપૂર્ણ થાય છે, અને તેનું નિરૂપણ થઈ જવાને લીધે દ્રવ્યપક્રમના બધા ભેદે અને પ્રભેદનું નિરૂપણ પણ સંપૂર્ણ થઈ જાય છે એમ સમજવું.
ભાવાર્થ-સચિત્તાચિત્ત દ્રવ્યમાં (મિશ્ર દ્રવ્યમાં) જે વિશેષતાનું આપાદન કરવામાં આવે છે, તે પરિકમ વિષયક મિશ્ર દ્રવ્યોપક્રમ છે. અને સચિત્તાચિત્ત રૂ૫ મિશ્ર દ્રવ્યને જે શસ્ત્રાદિ રૂપ વિનાશક કારણે વડે વિનાશ કરવામાં આવે છે, તેને વિનાશ વિષયક મિ દ્રપક્રમ કહેવાય છે. આ રીતે અહીં સુધીમાં દ્રપક્રમ સાથે સંબંધ રાખનારૂં એવું સમસ્ત વર્ણન સૂત્રકારે સમાપ્ત કર્યું છે. છે સૂ૦ ૬૭
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રો પર્કમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે–
"(से कि त खत्तोवक्कमे)" छत्याह.. हाथ-"से किं तं खेत्तोवक्कमे" है वन क्षेत्रमनु शु. २१३५
छ १ (खेत्तोवक्कमे जणं हलकुलिय ईहि खेतो उक्क मिज्जति से त
For Private and Personal Use Only
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिक टीका. म. ६८ क्षेत्रोपक्रमनिरूपणम् कुलिकादिभिः-हलं प्रसिद्वम्, कुलिकं हलविशेषः तत् लघुतरं काष्ठं खलु तृणादिच्छेदनार्थमुपयुज्यते । तादिभिः क्षेत्राणि उपक्रम्यन्ते-चीजवपनयोग्यानि क्रियन्ते। अयं भावः-हलकुलिका दिभिः क्षेत्राणां यद्वीजवपनयोग्यता रणं तत्परिकर्मविषयः क्षेत्रोपक्रमः । तथा-गजबन्धनादिभिर्यत् क्षेत्राणि उपक्रम्यन्ते-विनाश्यन्ते, तद् वस्तु विनाशविषयः क्षेत्रोपक्रमः । गजमू पुरिस दिना क्षेत्रगतबीजप्ररोहणशक्ति विनाश्यते, इति विनष्टानि क्षेत्राण्युच्यन्ते । इस द्विविधः क्षेत्रोपक्रमो वाध्य इति ।।
ननु क्षेत्रगत पृथिव्यादि द्रव्याणामेव एतौ परिकर्मविनाशौ। इत्यं च तं खेत्तोवक कमे) क्षेत्रोपक्रम का स्वाप इस प्रकार से है कि जो हल एवं कुलिसतृणादिको खेत में से दूर करने के लिये काम में लिये गये एक प्रकार का हल जैसा लघुता काष्ठ-आदि से जोतकर खेबीज पन (बोने) के योग्य बनाये जाते. हैं वह क्षेत्रोरम का स्वरूप है। यह क्षेत्रोपक्रम परिपर्म और विनाश को लेकर दो प्रकार का है-इनमें जो हल आदे से जोतकर क्षेत्र को बीजोतारन की योग्यतावाला बनाना यह परिकम विषयक क्षेत्रोपक्रम है तथा खेतों में हाथी आदि को को बांधकर उन्हें बीजवपन (बोने) के अयोग्य बना देना यह वस्तु विनाश विस क्षेत्रोक्रम है। हाथी की मूत्र और लिंडों से खे। में वीडोयाइन क ने की शके का नाश हे। जाता है। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का क्षेगपरुम जानना चाहिये ।
- शंका-परिकर्म और विना। जो होते हैं वे क्षेत्रगत पृथिवी आदि द्रयों के ही होते हैंखेत्तोक्कमे) क्षेत्रापर्नु २१३५ मा प्ररनु छ भने अलि (मेतमाथी તૃણદિકેને દૂર કરવાને માટે એક પ્રકારનું હળ જેવું લઘુતર કાષ્ઠ વિશેષ વપરાય છે તેનું નામ કુલિક છે) આ વડે ખેડીને ખેતરને બીજ વાવવાને ગ્ય બનાવવાનું કાર્ય થાય છે તેને ક્ષેત્રેપકમ કહે છે. તે ક્ષેત્રેપકમના પરિકર્મ અને વિનાશની અપેક્ષાએ બે ભેદ પડે છે. હળ આદિ વડે ખેડીને ખેતરને જે બીજે પાદનની ગ્યતાવાળું બનાવવાને ઉપકમ (પ્રયત્ન) થાય છે, તેને પરિકમ વિષયક ક્ષેત્રપક્રમ કહે છે. તથા ખેતરમાં હાથી આદિને બાંધીને તેને બીજોત્પાદનને માટે અગ્ય બનાવવાને જે ઉપકમ થાય છે તેને વિનાશ વિષક ક્ષેત્રે પક એ કહે છે. એવું માનવામાં આવે છે કે હાથીને મૂત્ર, મળ આદિ જે ખેતરમાં પડવું હોય તે ખેતરની બીજેત્પાદન શકિતનો નાશ થઈ જાય છે આ પ્રકારે અહીં બન્ને પ્રકારના ક્ષેત્રપરિકમનું સ્વરૂપ પ્રક્ટ કરવામાં આવ્યું છે.
શંકા– પરિકર્મ અને વિનાશ જે થાય છે તે તે ક્ષેત્રગત પૃથ્વી આદિ દૂને જ થાય છે. તેથી તેને ક્ષેત્રોમાં કહેવાને બદલે દ્રોપકમ જ કહે
For Private and Personal Use Only
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२६८
अनुयोगद्वारसत्रे द्रव्योपक्रम एवायं न तु क्षेत्रापक्रमः, तहि कथं क्षेत्रोपक्रमः ? इति चेत्, उच्यतेक्षेत्रं हि आकाशमुच्यते, तस्य चामूर्त्तत्वात्तदुपत्रमा न संभवति, तथापि तदाधेयत्वेन स्थितानां पृथिव्यादि द्रव्याणां य उपक्रमः स क्षेत्रोऽप्युपर्यते । लोकेऽपि यथा 'मञ्चाः क्रोशन्ती'-त्यादौ आधेयतधर्माणामाधारे उपचारो भवति । उक्तंचापि
खेत्तमरूत्रं निचं. न तस्स परिकम्मणं न य विणा।।। आहेयगयवसेण उ, करणविणासेवियारो उ" ॥ १ ॥
इसलिये यह क्षेत्रोपक्रम न होपर द्रव्योपक्रम ही हुआ फिर इसे क्षेत्रोपक्रम कैसे कहा
उत्तर-क्षेत्र शब्द का अर्थ आकाश है। और यह आकाशरूप क्षेत्र अमूर्त है-अतः इसका उपक्रम नहीं होसकता है। फिर भी इस में आधेय रूप से वर्तमान जो पृथिविच्यादि द्रव्य है, उनका तो उपक्रम होता है इसलिये उनका उपक्रम आधाररूप आकाश में उपचरितकर लिया जाता है। इसलिये क्षेत्रापक्रम बन जाता है। लोक में भी जैसे "मञ्चा:क्रोशन्ति" मंचबोलते हैं । खेत रक्षा के लिये खेत के लिये खेत के पाली पर जो घरविशेष बनाते हैं उसको मंच कहते हैं, मंच बोलते हैं ऐसा जो कह दिया जाता है-यह आधेय रूष पुरुषादिकों के धर्मों का आधार में उपचरित करके ही कहा जाता है- कहा भी है-'खेत्तमरूवे' इत्यादि-उस का अर्थ यही है-कि क्षेत्र तो अरूपी और नित्य है। उसका न परिकर्म हो सकता है और न विनाश,
જોઈએ. છતાં અહીં તેને ક્ષેત્રપક્રમ રૂપે શા માટે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે?
ઉત્તર-ક્ષેત્રા શબ્દનો અર્થ આકાશ થાય છે, અને આ આકાશરૂપ ક્ષેત્ર અમૂર્ત છે તેથી તેને ઉપક્રમ થઈ શકતું નથી. છતાં પણ તેમાં આધેય રૂપે વર્તમાન જે પૃથ્વી આદિ દ્રવ્ય છે તેમને તો ઉપક્રમ થાય છે. તેથી તેમને ઉપક્રમ આધાર રૂપ આકાશમાં ઉપચરિત કરી લેવામાં આવે છે. તેથી ક્ષેત્રોપકમ ઘટિત થઈ orनय . होमी ५५ " मञ्चाः क्रोशन्ति" "भय माले छ," मे ४वामा આવતું હોય છે. ખેતરની રક્ષા માટે એક માંચડો બનાવ્યો હોય છે. ત્યાં બેઠો બેઠે કે પુરુષ ખેતરની રખવાળી કરે છે મંચ પર બેઠેલે પુરુષ બોલતે હોય ત્યારે કેટલીક વખત “મંચ બેલે છે,” આ પ્રકારને પણ વ્યવહાર થતે જોવામાં આવે છે. આધેય રૂપ પુરૂષના ધર્મોને આધાર રૂપ મંચમાં ઉપચરિત કરીને આ प्रमाणे वामां आवे छे. ४थु ५६ छ "खेतमरुवे" त्याह-मा सत्रमा કેને પણ એવો જ અર્થ છે કે ક્ષેત્ર તે અરૂપી અને નિત્ય છે. તેનું પરિકમ
For Private and Personal Use Only
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिकाटीका सू. ६९ कालोपक्रमनिरूपणम्
२६९ छ.या--क्षेत्रमरूपं नित्यं न तस्य परिकम न च विनाशः । ___ आघेयगतवशेनेव करणविनाशोपचारोत्र ॥ इति ।
इत्थं चे 'क्षेत्रोपक्रमः' उत्तावपि न दोषः। सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नाह'से तं' इत्यादि । स एष क्षेत्रोपक्रम इति ॥मू० ६८॥
अथ कालोपक्रम निरूपयति
मूलम्-से कि कालोवक्कमे ? कालोवक्कमे जपणं नालियाईहिं कालस्सोवक्कमणं कीरइ । से तं कालोवक्कमे ॥ सू०६९ ॥
छाया-अथ काऽसौ कालोपक्रमः ? कालोपक्रमा यत्खलु नालिकादिभिः कालस्यापक्रमणं वियते । स एष कोलोपक्रमः ॥६९॥
टीका--शिष्यः पृच्छति--से किं त' इत्यादि ? इति । उत्तरमाहकालोपक्रमो हि स भवति, यत्खलु नालिकादिभिः-नालिया-ताम्रादिमय घटिका, परन्तु क्षेत्र में जो करण और विनाश का व्यवहार होता है वह आधेयगतवस्तु के वरण और विनाश के उपचार से होता है। इस प्रकार क्षेत्रोपक्रम कहने में वाई दोष नहीं हैं। इस तरह यह क्षेत्रोपक्रम का स्वरूप है ।मु०६८॥
अब सूत्रकार वालेोपक्रम को स्वरूप प्रकट करते हैं“से कि तं कालावकमे" इत्यादि । ॥सूत्र ६९॥ शब्दार्थ-(से कि तं कालोवक्कमे) हे भदन्त ! कालोपक्रम का क्या स्वरूप है ?
(कालावक्कमे जणं नालियाई हिं कालस्सोवक्कमणं कीरइ । से तं कोला कम) कालोपक्रम का स्वरूप इस प्रकार से है-जो नालिका तथा घटी आदि से कालका यथावत् स्वरूप परिज्ञात हो जाता है-वह कालोपक्रम है। ताम्रआदि का एक छोटी सी घटी પણ થઈ શકતું નથી અને તેને વિનાશ પણ થઈ શકતું નથી. પરંતુ ક્ષેત્રમાં જે કરણ અને વિનાશને વ્યવહાર થાય છે. તે આધેયગત વસ્તુના કરણ અને વિનાશના ઉપચારની અપેક્ષાએ થાય છે. આ પ્રકારે તેને ક્ષેત્રેપક્રમ કહેવામાં કોઈ દેષ નથી. આ પ્રકારનું ક્ષેત્રપક્રમનું સ્વરૂપ છે સુ ૬૮ છે
"से किं तं कालोवक्कमे" याl:
शहाथ-(से किंतकालोवक्कमे?) शिष्य गुरुने मेयो प्रश्न पूछे छ है के ભગવદ્ ! કાલપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
.. उत्तरे—(कालोवक्कमे जणं नालियाहिं कालस्सोवकमगं कीरह-से तं कालोवक्कमे) ५भ २१३५ मा प्रारे ४युं छ- नाlast मा 43 Ima યથાવત સ્વરૂપનું જે પરિજ્ઞાન થાય છે તેનું નામ કાલેપક્રમ છે. તામ્ર આદિની
For Private and Personal Use Only
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७
अनुयोगदारसूत्रे इयं हि दाडिमपुष्पाकाराऽधच्छिया भवति। अधश्छिद्रेण नालिका मध्ये जलं प्रविशति । जलेन भृतायां ना.लकायां कालमानो निधीयते । आदि पदात् शङ्कुच्छाया नक्षत्रचारादयोऽपि वोध्याः । एभिरपि कालो मीयते । एतैः-कालमापकसाधनैः कालस्योपक्रमगं क्रियते । अयं भावः-नालिकाशर्कुच्छायानक्षत्रचारादिभिर्यत् 'एतावान् पौरुष्यादिकालोऽतिक्रान्त.' इति परिज्ञायते स परिकर्मविपयः कालोपक्रमः । अत्र कालस्य यथावत्सरिज्ञानमेव परिकम बोध्यम् । तथा-नक्षत्रादि चारैः कालस्य यद् विनाशनं स वस्तुविनाशविषयः कालोपक्रमः । श्रूयते हि लोके बनाई जाती है। उसका आकार दाडिम-भना के पुष्प जैसा होता है ? इसके नीवे एक छे। होता है ? नीचे के छे। से इसमें जल विष्ट होता है ।जब यह जल से भी जाती है ते। इससे काल का मान निश्चित किया जाता है। यहां पर आदिपा से शंकुच्छागा और नक्षत्रों की चाल
आदि ग्रहण हुई है । इन से भी काल का मान जाना जाता है । इस त ह इन कालमापक साधनों स काल का उपक्रम किया जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि इन नालिका-शंकुच्छाया और नत्रचाल आदि से जो "इतना पौरुषी आदि माल व्यतीः हो चुका' सा जाना जाता है बह परिकर्म विषयवाला कालोप कम है । काल का यथावत् परिज्ञान होना ही यहाँ परिर्म जानना चाहिये । तया नक्षत्र आदिकों की चाल से जो काल का विनाश होता है वह व तु वेनाश विक कालोका है। लोक में ऐसा
એક નાની સરખી ઘડિયાળ બનાવવામાં આવે છે. તેને આકાર દાડમના પુષ્પ જે હોય છે. તેની નીચે એક છિદ્ર હોય છે. આ સાધનને પાણીથી ભરેલા કે પાત્રમાં મૂકવામાં આવે છે. તે છિદ્ર દ્વારા તેમાં પાણી દાખલ થવા માંડે છે. જ્યારે તે સાધન (નાલિકા) જળઘડી પાણીથી ભરાઈ જાય છે ત્યારે તેની મદદથી કાળનું માપ નિશ્ચિત કરવામાં આવે છે. અહીં “આદિ પદ વડે શંકુછાયા અને નક્ષત્રની ચાલ આદિ ગ્રહણ થયેલ છે. તેમની મદદથી પણ કાળનું માપ નીકળી શકે છે. આ પ્રકારે આદિ કાલમાપક સાધન વડે કાળને ઉપક્રમ કરવામાં આવેલ છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે આ નાલિકા (જળઘડી) શંકુ છાયા (સૂર્ય ઘડી) અને નક્ષત્રની ચાલ આદિ દ્વારા “આટલા પર આટલી ઘડી આદિ વ્યતીત થઈ ગયા આ પ્રકારનું કાળવિષયક જે જ્ઞાન થાય છે તેને પરિકર્મ કાલેપકમ કહે છે. કાળનું યથાવત્ પરિજ્ઞાન થવું તેનું નામ અહીં પરિકમ સમજવું. તથા નક્ષત્ર આદિની ચાલથી કાળને જે વિનાશ થાય છે, તે વસ્તુવિનાશવિષયક કાલપકમ સમજે. કેમાં એવી વાત થતી સાંભળ
For Private and Personal Use Only
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७१
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ६२ सचित्तद्रव्योपक्रमनिरूपणम् 'अनेन ग्रहनक्षत्रादिचारेण कालो विनाशितः, न भविष्यन्त्यधुना धान्यानि'इति । उक्तं च__ "छायाए नालियाए, व परिकम्म से जहत्थं बिन्नाणे ।
रिक्खाइयचारे हि य, तस्स विणासो विवज्जासो ॥१॥ छाया-छाया नालिकया वा परिकर्म तस्य यथार्थ विज्ञानम् ।
ऋक्षादिकचारैश्च, तस्य विनाशो विपर्यासः ॥१॥
इत्थं वरतु विनाशविषयः कालोपक्रमो बोध्यः। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-'से तं' इति । स एषकालोपक्रम इति ॥६९॥ - अथ भावोपक्रम निरूपयति--
म्लम्-से किं तं भावोवक्रमे ? भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्त, तं जहा आगमओ य नोआगमओ य । आगमओ भावोवक्कमो नोणए उववत्ते । नोआगमओ भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पसत्थे, य अपसत्थे य । तत्थ अपसत्थे डोडिणिगणिया अमच्चाईणं । पसत्थे गुरुमाइणं । से तं नोआगमओ भावोनक्कमे । से तं भोवोवक्कम । से तं उवक्कम ॥सू०७०॥
सुना जाता है कि इस ग्रह नक्षत्र आदि की चाल से काल नष्ट हो गयाअब अनाज पैदा नहीं होगा । वहा भी है-'छायया' इत्यादि उसका अर्थ इस प्रकार से हैं कि छाया से अथवा नालिका से जो काल का यथार्थ परिज्ञान है वह परिकर्म है। तथा नक्षत्रादिकों की गति से उसमें जो विपरीत ता है वह काल का यह वस्तु विनाश विषयक कालोपक्रम है। इस तरह से यह कालोपक्रम का स्वरूप वर्णन है। ।।मु० ६९॥
વામાં આવે છે કે આ નક્ષત્રનચાલ આદિથી કાળ નષ્ટ થઈ ગયે-હવે અનાજ
ही नहीं थाय. ४ह्यु ५५ छ ।- "छाया" त्याहि-मा सूत्रपाना सावाय नीये પ્રમાણે છે છાયાથી અથવા નાલિકા આદિથી જે કાળનું યથાર્થ પરિજ્ઞાન થાય છે તેનું નામ પરિકર્મ છે, તથા નક્ષત્રાદિકની ગતિથી તેમાં જે વિપરીતતા આવે છે, તે કાળના વિનાશરૂપ છે. આ પ્રકારના કાળના વસ્તુવિનાશ વિષયક આ કાળપક્રમ છે. આ પ્રકારે કલપક્રમના વિષયનું નિરૂપણ અહીં સંપૂર્ણ થાય છે, જે સ૬૯
For Private and Personal Use Only
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७२
अनुयोगद्वारस्त्रे छाया--अथ कोऽसौ भावोपक्रमः ? भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । आगमतो भावोपक्रमो ज्ञायक उपयुक्तः । नोआगमता भावोपक्रमो विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रशस्तश्चाप्रशस्तश्च । तत्र-अप्रशस्तो डोडिणि गणिकाऽमात्यादीनाम् । प्रशस्तो गुर्वादीनाम् । स एष नोआगमतो भावोपक्रमः। स एष भावोपक्रमः । स एष उपक्रमः ॥७०॥ ____टीका--शिष्यः पृच्छति-से किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ भाव पक्रमः १ इति । उत्तरमाह-भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-आगमतश्च नोआगमतश्च । तत्र-आगमतः। आगममाश्रित्य उपक्रमो हि ज्ञायक: उपक्रम शब्दार्थज्ञः उपयुक्त =उपक्रमे उपयोगवांश्च बोध्यः । अयं भावः-उपक्रम
अब सूत्रकार भावोपक्रम का निरूपण करते हैं"से किं तं भावोवकमे इत्यादि । ॥१० ७०॥
शब्दार्थ-(से कि तं भावोवकमे) हे भदन्त ! भावोपक्रम का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(भावविक्कमे दुविहे पण्णत्ते) भावोपकम दो प्रकार का हा गग है । (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(आगमओ य नोआगमओ य) १ आगम को आश्रित करके भावोपक्रम होता है और दूसरा नोआगका आश्रित करके भावोपकम होता है. (जाणए उवउत्ते आगमओ भावोवस्कमे) जो उपम शब्द के अर्थ को जानता है और उसमें उपयोग से युक्त है वह आगम से भावोपक्रम है।
હવે સૂત્રકાર ભાવપક્રમનું નિરૂપણ કહે છે–
"से किं तं भावोवकमे" त्या
शहाथ-(से तिं भावोवक मे?) शिष्य शुरुने प्रश्न पूछे छ । હે ભગવન્! ભાવપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर--(भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते) माया५मनाने प्रा२४ा छ. (तं जहा) તે બે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે.
(आगमओ य. ने।आगमओ य) (१) सामने माश्रित शन २ मावाप થાય છે તેને “આગમ ભાપક” કહે છે. (૨) નોઆગમને આશ્રિત કરીને થતા भावपमने-"नाम लावा५४" ४ छे. (जाणए उवउत्ते सामओ मावविक्कमे) જે ઉપક્રમ શબ્દના અર્થને જાણે છે અને તેમાં ઉપયોગથી છે, તે આગમની અપેક્ષાએ ભાવપક્રમ છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–ઉપક્રમ અને ઉપાય, આ બનને એકાઈંક શબ્દ છે. ભગવાન તીર્થકર દ્વારા કથિત અનુશાસનના જ્ઞાનના
For Private and Personal Use Only
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७० नोआगमतो भावोपक्रममनिरूपणम् २७३ उपायः, स चेह-भगवदनुशासनज्ञानसाधनरूपो ग्राह्यः । उक्तं च--
"सोचा भगवाणुसासणं, सचे तत्थ करेज्जुवकम ॥” छाया-श्रुत्वा भगवदनुशासनं सत्यं तत्र कुर्यादुपक्रमम्-इति
व्याख्या-सत्यं यथार्थ भगवता तीर्थ करेण प्रोक्तमनुशासनं श्रुत्वा तत्रअनुशासने उपक्रम-तत्प्राप्युपायं कुर्यात्-इत्यर्थः ।
इत्थं च भगवदुक्तानुशासनप्राप्त्युपायज्ञस्तत्रोपक्रमे उपयुक्तश्च आगमतो मावोपक्रम इति ।
नोआगमतो भावोपक्रमोऽपि द्विविधः प्रज्ञप्तः । तद् यथा प्रशस्तश्च, अपशस्तश्च । इह भावशब्द:-अभिप्रायाख्यो जीवद्रव्यपर्यायोऽभिमतः। उक्त' च-भावाभिख्याः पञ्च स्वभावसत्साऽऽत्मयोन्यभिमाया इति । ततश्च-भावस्य
इसका भाव यह है कि उपक्रम और उपाय ये एकार्थक शब्द हैंभगवान् तीर्थंकर द्वारा कथित अनुशासन के ज्ञान का साधनरूप वह उपक्रम यहां ग्राह्य हुआ है। अन्यत्र ऐसा ही कहा है-(साच्चा) इत्यादि । कि भगवान् के द्वारा कथित अनुशासन बिलकुल सत्य है-उसे श्रवणकर श्रोता का कर्तव्य है कि वह उसकी प्राप्ति का उपाय करें। इस प्रकार भगवदुक्त अनुशासन की प्राप्ति का उपाय जानने वाला ज्ञाता उस उपक्रम में उपयुक्त होता हुआ आगम से भावोपक्रम है। (नोआगमओ भावावक्कमे दुविहे पण्णत्ते-त जहा) नो आगमको आश्रित करके भावोपक्रम दो प्रकारका कहा गया है। जैसे (पसत्थे य अपसत्थे य) एक प्रशस्त और दूसरा अप्रशस्त । यहां पर भाव शब्द का अर्थ अभिप्राय है और यह जीव द्रव्य का पर्यायरूप से माना गया है। कहा भी है (भावाभिख्याः ) भावके पांच नाम हैं स्वभाव १, सत्ता २, आत्मा३, योनि ४, और अभिप्राय ५ । इस तरह साधन३५ ते 8 मही ग्राह्य थयो छ. अन्यत्र १ मे १ ४ह्यु छ ? "सोचा" ઇત્યાદિ–તીર્થકર ભગવાન દ્વારા કથિત અનુશાસન સર્વથા સત્ય છે. તેને શ્રવણ કરનાર શ્રાવકનું તેની પ્રાપ્તિને ઉપાય કરવાનું કર્તવ્ય થઈ પડે છે. આ પ્રકારે ભગવદુત અનુશાસનની પ્રાપ્તિનો ઉપાય જાણનાર જ્ઞાતા તે ઉપક્રમમાં ઉપયુક્ત (ઉપયાગ પરિણામથી યુક્ત) હોવાને કારણે આગમની અપેક્ષાએ ભાપક્રમરૂપ હોય છે.
. (नोआगमओ भावविक्कमे दुविहे पण्णत्ते) नामागम ५४म में प्रश्न sat छ. (तं जहा) मे रे नीचे प्रमाणे छ- (पसत्थे य अपसत्थेय) (१) પ્રશસ્ત અને (૨) અપ્રશસ્ત અહીં ભાઈ શબ્દને અર્થ અભિપ્રાય છે, અને તે જીવન द्रव्यना पर्याय३५ भानपामा माया छ. ह्यु ५५ छ "भावाभिख्या:" सावना पाय नाम नीय प्रभा छ-(१) २१, (२) सत्ता, (3) मामा, (४) योनि
For Private and Personal Use Only
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
.
२७४
अनुयोगद्वारसत्रे परकीयाभिप्रायस्य उपक्रमण यथावत्परिज्ञान भावोपक्रम इति । तत्र-द्विविधे नोआगमतो भावोपक्रमे, अप्रशस्ता भावोपक्रमः-डोडिणि गणिकाऽमात्यादीनां बोधः । अयमाशयः-डोडिणिनाम्न्या ब्राह्मण्या गणिकया अमात्येन च यत् पराभिप्रायरूपस्य भावस्य यथावत् उपक्रमः-परिज्ञान कृत तद् नोआगमतोऽप्रशस्त भापक्रमः। अप्रसस्तत्वं चास्य संसारफलत्वात्, इति । डाडिण्यादि भियथा पराभिप्रायः परिज्ञातः प्रसङ्ग शात्तदुच्यते
____ आसीत्काऽपि डोडिणि नाम्नी ब्राह्मणी। तस्या आसंस्तित्रो दुहितरः । साताः परिणाय्यैवं चिन्तितवती-जामाणामभिप्रायं परिज्ञाय दुहितरः शिक्षणीयोः परकीय भाव अभिप्रायका , यथावत् परिज्ञ न होना इस का नाम भावोपक्रम है । (तत्थ) नोआगम की अपेक्षा से द्विविध हुए भावापक्रम में जो अप्रशस्त भावोपक्रम है-वह डोडिणि ब्राह्मणी गणिका, और अमात्य आदि कों में जानना चाहिये । डोडिणि नाम की ब्राह्मणी एक बेश्या और एक अमात्य था सब पर के अभिप्राय का जो यथावत् परिज्ञात कर लिया करते थे वह उनका नाआगम से अप्रशस्त भावोपक्रम था । अप्रशस्तता इस में इसलिये है कि यह संसाररूप फल का जनक होता है।-डोडिणि आदि ने जिस प्रकार से पर का अभिप्राय जाना-प्रसंगवश उसे यहां दर्शाया जाताहै
एक कोई डोडिणी नामकी ब्राह्मणी थी। उसकी ३ तीन लडकिया थीं। उनका उसने विवाह करदियो ! विवाह करने के बाद उसने सोचा कि में जामाताओं के अभिपाय को ज्ञात कर अपनी इन पुत्रियों को शिक्षित कर भने (५) भलिभाय. पाशते ५२४ीय भानु (मलप्रायनु) यथार्थ परिज्ञान वु तनु नाम वापस छे. (तत्थ) नामागमभावामना २ मे । वाम આવ્યા તેમને જે અપ્રશસ્ત ભાવપકમ કહ્યો છે તેને સદૂભાવ ડેડિણિ બ્રણી, ગણિકા અને અમાત્ય વગેરેમાં જાણવે. હવે આ ડેડિણિ બ્રાહ્મણ આદિના અપ્રશસ્ત ભાવપકમને સમજાવવાને માટે અહીં તેમની કથા આપવામાં આવી છે. તે ત્રણે બધાંના અભિપ્રાયને પરિજ્ઞાત કરવાને સમર્થ હતા. તેમને તે ભાવપક્રમ નેઆગમની અપેક્ષાએ અપ્રશસ્ત ભાવપક્રમરૂપ હતું. તેમને ભાવપક્રમ અપ્રશસ્ત તે કારણે હતું કે તે સંસારરૂપ ફલને જનક હતે. ડોડિણિ આદિએ જે પ્રકારે અન્યને અભિપ્રાય જાર્યો હતો તે પ્રકારનું અહીં પ્રસંગવશ કથન કરવામાં આવે છે–કેાઈ એક ગામમાં ડેડિણી નામની એક બ્રાહ્મણ રહેતી હતી. તેને ત્રણ પુત્રીઓ હતી. તેણે તે ત્રણેના વિવાહ કરી નાખ્યા. પુત્રીઓને વિવાહ કર્યા બાદ તેને એ વિચાર આવ્યો કે ત્રણે જમાઈઓને અભિપ્રાય (સ્વભાવ) જાણી લઈને મારે મારી પુત્રીઓને એવા પ્રકારની શિક્ષા આપવી જોઈએ કે તે શિક્ષાને અનુરૂપ જીવન
For Private and Personal Use Only
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू. ७० नोआगमतो भावोपक्रमनिरूपणम् २७५ यथैताः सुखिताः स्युः इति विचिन्त्य तया सर्वा दुहितर एवमुक्ताः-युष्माकं पतयो यदा स्व स्व शयनागारे समागच्छेयुस्तदा युष्माभिः-कंचि दोष मुद्भाव्य स्व स्वपतिः शिरसि पादप्रहारेण ताडनीयः। तदा युष्मत्पतयो यत्कुयुस्तन्मह्य निवेदयत । एवं जनन्या प्रोक्ते सति ताः सर्वाः पुत्रिकाः स्व शयनागारे स्वीय स्वीय पति प्रतीक्षमाणाःस्थिताः ।
अथ ज्येष्ठायाः पतिः शयनागारे समागतः ततः सा कमपि दोषमुद्भाव्य तच्छिरसि चरणेन प्रहृतवती। प्रहारसमनन्तरमेव तस्याः पतिस्तदीयं चरणं हस्तेन गृहीत्वा सस्नेहमिदमब्रवीत्-अयि प्रिये ! पाषाणादपि कठोरे मम शिरसि त्वया चरणः पातितः । मन्ये केतकीकुसुमादपि कोमलतरस्त्वदीयश्चरणः पीडितो दूं कि जिससे इन का जीवन सुखी बन सके । इस प्रकार विचार करके उसने अपनी ३ तीनों पुत्रियों से कहा कि देखों जब तुम्हारे पति अपने २ शयन भवन में आवे तब तुम लोग किसी दोष को कल्पित कर उन्हें लातें मारना । जब वे तुम लोगों से इसके प्रतिकार स्वरूप में जो कुछ करे वह हम से कहना । इस प्रकार माता के कहने पर उन सब पुत्रियों ने वैसा ही किया। वे सब अपने २ शयनागार में चली गई और वहां अपने २ पतिओं की प्रतीक्षा करती हुई बैठ गई। इतने में बडी लडकी का पति आगया । पति के आने पर उसने उसे दोष दिखाकर एक लात शिर में जमा दी। लात के लगते ही उसने उसके उसी पग को पकडकर बडे भारी स्नेह के साथ कहा अयि प्रिये ! पाषाण से भी कठोरतर मेरे शिर पर तुमने अपने चरण को रखा है-सो मैं समझता हूं कि केतकी के कुसुम से भी જીવીને તેઓ પિતાના જીવનને સુખી બનાવી શકે. આ પ્રકારને વિચાર કરીને તેણે પિતાની ત્રણે પુત્રીઓને બોલાવીને આ પ્રમાણે સલાહ આપી- “આજે જ્યારે તમારા પતિ તમારા શયનખંડમાં આવે ત્યારે તમારે કઈ કલ્પિત દેવ બતાવીને તેમના મસ્તક પર લાત મારવી. ત્યારે પ્રતિકારરૂપે તેઓ તમને જે કંઈ કહે અથવા જે કંઈ કરે તે સવારમાં મને કહેવાનું છે.' તે ત્રણે પુત્રીઓએ માતાની સલાહ પ્રમાણે જ કર્યું–તેઓ પોતપોતાના શયનખંડમાં ચાલી ગઈ અને પિતાના પતિની પ્રતીક્ષા કરવા લાગી. સૌથી મોટી પુત્રીને પતિ જયારે શયનખંડમાં આવ્યું, ત્યારે તેણે તેના પર કેઈદેષનું આરેપણ કરીને તેના મસ્તક પર એક લાત લગાવી દીધી. લાત ખાતાની સાથે જ તેના પતિએ તેને પગ પકડીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું-“પ્રિયે! પથ્થરથી પણ કઠોર એવાં મારા મસ્તકપર તમે કેતકીના પુષ્પસમાન કમળ પગ વડે જે લાત મારી છે.
For Private and Personal Use Only
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
२७६
अनुयोगद्वारखो जातः। एवं ब्रुवाणः स तस्यावरणसंवाहनमकरोत् । प्रभाते सा सर्व वृत्त मा निवेदितवती। सहर्ष या मात्रा सा भोक्ता-वत्से ! त्वया स्वगृहे यथेच्छ कत्तव्यम् । तव पति रत्वदाज्ञावर्ती भविष्यति । अथ द्वितीययाऽपि तथैव स्वपत्युःशिरसि चरणप्रहारः कृतः। त याः पतिः किंचिद्रोषमुपदर्श यन्नुवाच-कुलवधूनामनुचितोऽयं व्यवहारः। इत्युक्त्वा कोपान्निवृत्तः। प्रभाते साऽपि माने सर्व वृत्त निवेदितवती । ततः सा मात्रा सहर्ष प्रोक्ता-वत्से ! त्वमपि स्वगृहे यथेच्छअधिक सुकुमार यह तुम्हारा चरण दुखने लगा होगा । इस प्रकार कहने के साथ ही उसने उसके उस चरण को दाबना प्रारंभ कर दिया। प्रातःकाल उस लडकी ने यह सब कृत्य अपनी माता से कह दिया। माता को इसे सुनकर बडा हर्ष हुआ। उसने पुत्री से कहा-वत्से । तुम अपने घर में जो कुछ करना चाहो सो कर सकती हो-क्यांकि पति के इस व्यवहार से यह पता पडता हैं कि वह तुम्हारा आज्ञावशवर्ती रहेगा।
दूसरी पुत्री ने भी अपने पति के साथ ऐसा ही व्यवहार किया-उसके शयनागार में पति के आने पर उसने उसके मस्तक पर ज्यों ही चरण प्रहार किया कि उसे कुछ रोष आ गया। अपना रेष प्रकट करते हुए उसने उससे कहा यह व्यवहार कुलवधुओं के योग्य नहीं है-जो तुमने मेरे साथ किया है। ऐसा कहकर वह फिर शांत हो गया। प्रातःकाल उस पुत्री ने रात्रि के पति के इस व्यवहार को माता से प्रकट किया। तब उसकी माताने हर्षित તેને લીધે તમારા નાજુક ચરણ દુખવા માંડયા હશે.” આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેના તે પગને દાબવા માંડે, બીજે દિવસે તે મોટી પુત્રીએ આ સમસ્ત વાત તેની માતાને કહી સંભળાવી. તે વાત સાંભળીને માતાને (ડાડિણ બ્રાહ્મણને) ઘણે જ આનંદ થશે. જમાઈના આ પ્રકારના વર્તનથી તેના સ્વભાવને તે સમજી ગઈ. તેણે તેની મોટી પુત્રીને આ પ્રમાણે સલાહ આપી. “તું તારા ઘરમાં જે કરવા ધારે તે કરી શકીશ, કારણ કે તારા પતિને આ વ્યવહારથી એવું લાગે છે કે તે તારી આજ્ઞાને અધીન રહેશે.”
બીજી પુત્રીએ પણ પિતાના પતિ સાથે જ એ જ વર્તાવ બતાવે-જે તે શયનખંડમાં પ્રવેશ્યો કે તુરત જ કેઈ દેષનું આરોપણ કરીને તેણે તેના મસ્તક પર એક લાત લગાવી દીધી. ત્યારે તેના પતિને છેડે રેષ ઉપજે. તેણે પિતાને રાષ માત્ર આ શબ્દો દ્વારા જ પ્રકટ કર્યો-“મારી સાથે તે જે વર્તાવ કર્યો છે, તે કુળવધુઓને ચાગ્ય વર્તાવ ન ગણાય તારે આવું કરવું જોઈએ નહીં.” આ પ્રમાણે કહીને તે શાન્ત થઈ ગયે. પ્રાતઃકાળે બીજી પુત્રીએ પણ આ બધી વાત સંભળાવી
For Private and Personal Use Only
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
अनुयोगचन्द्रिकाटीका सू. ७० नोआगमतोमावोपक्रमनिरूपणम् २७७ कुरु रुष्टोऽपि पतिः क्षणमात्रेण तुष्टो भविष्यति ! अथ तृतीययाऽपि स्वपति स्तथैव प्रहतः ततः स क्रोधाध्मातचित्तो रोषारुणलोचन उच्चैः स्वरेण तां निर्भर्त्स यन्नेवमुवाच-अयि दुष्टे ! कुलकन्यकानुचितमिदं कृत्यं कथं त्वया कृतम् ? इत्युक्त्वा मुष्टयादिभिरतां ताडयित्वा गृहान्निष्कासितवान् । ततः सा मातुः समीपे गत्वा सर्व वृत्तं निवेदितवती । जामातुः स्वभावमवगत्य सा ब्राह्मणी तत्समीपे गत्वा तत्क्रोधमुपसान्स्वयितुं मधुरया गिरा प्रोवाच-वत्स । अस्मत्कुलाचारोऽयं यत् प्रथमसमागमे वध्वा वरस्य शिरसि चरणप्रहारः कर्तव्य इति, अतो मम होर उसे कहा कि हे बेटी ! तुमभी अपने घर में अपनी इच्छानुसार सब कुछ करो! तुम्हारे व्यवहार से रुष्ट भी तुम्हारापति क्षणमात्र में तुष्ट हो जावेगा। जब तीसरी लडकी का पति अपने शयनागार में आया तो उसने भी अपनी माता के कहे अनुसार वैसा ही व्यवहार अपने पति के साथ किया। तब वह क्रोध से भर गया और रोष से लाल २ आँखें करके बडे जोर से उससे डाटकर कहने लगा-अयि दुष्टे ! कुलकन्या के अयोग्य यह कृत्य तूने मेरे साथ क्यों किया? ऐसा कहकर उसने उसे खूब मुक्कों से मारा पीटा और मार पीट कर फिर उसे घर से बाहिर निकाल दिया। तब वह अपने माता के पास गई और सब वृत्तान्त कहने लगी। पुत्री के कथनानुसार वह अपने जामाता के सभाव का जानकर उसके पास गई-और जाकरके मीठी २वाणी से उसके क्रोध को शांत करती हुई कहने लगी-बत्स ! यह हमारे कुल का आचार है कि मुहागरात में प्रथम समागम के समय वधू अपने पति ત્યારે તેની માતાએ સતેષ પામીને તેને આ પ્રમાણે કઈ–બેટી! તું પણ તારા ઘરમાં તારી ઈચ્છા પ્રમાણે વર્તાવ કરી શકે છે. તારા પતિને સ્વભાવ એવે છે કે તે ગમે તેટલે રૂણ થયો હોય તે પણ ક્ષણમાત્રમાં તુષ્ટ થઈ જાય એવે છે.”
- ત્રીજી પુત્રીએ પણ કઈ દોષતું આપણું કરીને તેના પતિને મસ્તક પર લાત લગાવી દીધી. ત્યારે તેના ક્રોધને પાર ઘણે ઉચે ચડી ગયે, તેની આંખો ક્રોધથી લાલ થઈ ગઈ અને તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું, “અરે નીચ! કુલકન્યાએ ન કરવા યોગ્ય આ પ્રકારનું કાર્ય તે શા માટે કર્યું ” આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેને ગડદા, પાટુ આદિ મારી મારીને ઘરમાંથી ધકો મારીને બહાર કાઢી મૂકી. ત્યારે તે પુત્રી તેની માતા પાસે ગઈ અને તેમને સર્વ હકીક્ત કહી સંભળાવી. પુત્રીની આ વાત દ્વારા ડોડિણી બ્રાહ્મણીને તેની ત્રીજી પુત્રીના પતિના સ્વભાવને પણ ખ્યાલ આવી ગયે. તુરત જ તે તેની (ત્રીજી પુત્રીના પતિની) પાસે પહોંચી ગઈ અને મીઠી વાણી દ્વારા તેના ક્રોધને શાન્ત પાડવાને પ્રયત્ન કરવા લાગી. તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું-“જમાઈરાજ! અમારા કુળમાં સુહાગરાતે પ્રથમ સમાગમ વખતે પતિના
For Private and Personal Use Only
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
२७८
___ अनुयोगद्वारसूत्रे पुच्या भवांस्ताडितो न तु दौर्न न्येन । अतो भवान् स्वरोष निवर्तयतु । श्वश्नू वचनं निशम्य स रोपान्निवृत्तः । सा स्वपुत्रीमुक्त शन-रले ! दुराराध्यस्ते पति अतोऽयं त्वया परमसावधानतया महता प्रयत्नेन समाराधनीयः । इत्थं डोडिणि ब्राह्मण्या स्व जामामामभिप्रायो ज्ञातः ॥१)
अथ गणिकया यथा पराभिप्रायो ज्ञातस्तथोच्यते
आसीत् कमिश्चिन्नगरे चतुष्पष्टिकलाचतुरा विलासिनी नाम गणिका । तया हि पराभिप्रायपरिज्ञानार्थ रतिभवनभित्तौ स्व स्व क्रियां कुर्वन्तो राजपुत्रा दयश्चित्रिताः। तस्या गृहे यजातीयो जनः समायाति स स्वजातीयोचितचित्रके मस्तकपर चरण प्रहार करे। इसी बात से मेरी पुत्री ने तुम्हें ताडित किया है-दुर्जनता से नहीं । इसलिये आप अपने रोष की शांति कग्लें। इस प्रकार से साम के वचन को सुनकर उसने क्रोध छोड दिया । तब डोडिणि ने अपनी पुत्री से कहा-वत्से । तेरा पति दुराराध्य है। इसलिये । तूं इसकी बड़ी सावधानी के साथ बहुत ही यत्न पूर्वक सेवा करना। इस प्रकार डोडिणि ब्राह्मणी ने अपने जामाताओं का अभिप्राय जान लिया।
अब गणिका ने जिस प्रकार से पर का अभिप्रय जाना वह कहा जाता है-किसी नगर में ६४ कलाओं में निपुण विलासवती नाम की एक गणिका रहती थी। उसने दूसरों के जभिपाय को जानने के निमित्त अपने रतिभवन की दीवाल पर अपनी २ क्रियाओं को करते हुए राजपुत्र आदिकों મસ્તક પર ચરણપ્રહાર કરવાને ચાર ચાલ્યા આવે છે. તે કારણે મારી પુત્રીએ તમારી સાથે એ વ્યવહાર કર્યો છે, દુષ્ટતાને કારણે એવું કરવામાં આવ્યું નથી. માટે આપે ક્રોધ છેડીને તેના વર્તન માટે તેને માફી આપવી જોઈએ.” સાસૂના આ પ્રકારના વચને સાંભળીને તેને ગુસ્સો ઉતરી ગયો. ત્યારબાદ તે ડેડિણી બ્રાહ્મણીએ તેની ત્રીજી પુત્રીને આ પ્રમાણે સલાહ આપી “બેટી ! તારા પતિ દુરા રાધ્ય છે. માટે તારે તેમની આજ્ઞાનું બરાબર પાલન કરવું અને ખૂબ જ સાવધાની પૂર્વક તેમની સેવા કરવી.
આ પ્રકારે ડેડિણી બ્રાહ્મણીએ પિતાના જમાઈઓના અભિપ્રાયને ઉપર દર્શાવેલી યુક્તિ વડે જાણી લીધો.
હવે પરને અભિપ્રાય જાણવાને સમર્થ એવી એક વિલાસવતી નામની ગુણિકાનું દષ્ટાંત આપવામાં આવે છે. કેઈ એક નગરમાં કેઇ એક ગણિકા રહેતી હતી. તે ૬૪ કલાઓમાં નિપુણ હતી. તેણે પરને અભિપ્રાય જાણવાને માટે આ પ્રકારની પદ્ધતિ અપનાવી હતી. તેણે પોતાના રતિભવનની ભીંતે પર જુદા જુદા પ્રકારની ક્રિયાઓ કરતાં વિવિધ જાતિના પુરૂષેનાં ચિત્રો દોરાવ્યાં હતાં. જે પુરૂષ .
-
For Private and Personal Use Only
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७० नोआगमतो भावोपत्र मनिरूपणम् २७९ दर्शने समासजते । ततः सा तं परिचित्त दुचितब्र बहारेण तं सत्कुरुते । तस्या व्यवहारेण सन्तुष्टा- जनास्तस्यै यथेष्टमय जातं प्रयच्छन्ति । इत्थं गणिकया पराभिप्रायो ज्ञातः ॥२)
अथाऽमात्येन यथा पराभिप्रायो ज्ञातस्तयोच्यते-- ... आसीत् कस्मिंश्चिन्नगरे भद्रबाहु म राजाः। तस्यासीन्नीति-शास्त्रचतुरो झटिति पराभिप्रायसवादनशीलः सुशीलो नोमाऽमात्यः। अथैकदा स राजाऽ मात्येन सहाश्ववाहनिकायां गतः। पथि गच्छता राजतुरङ्गमेण काऽपि स्त्रिलप्रदेशे (विनजोता-पडतल प्रदेश) स्थित्वा मूत्रितम्। तच्च मूत्र बहुतरकालपर्यन्तं तत्र के चित्रों को अंकित कर दिया। उसके घरमें जिस जाति का मनुष्य आता वह अपने जातीयोचित चित्र के देखने में तल्लीन हो जाता। इस तरह उसे पहिचान कर उसके योग्य व्यवहार से उसका सत्कार करने लगती । इस प्रकार उसके व्यवहार से संतुष्ट हुए मनुष्य उसे इच्छानुकूल पैसा दे दिया करते। .. अमात्य जिस पद्धति से पर का अभिप्राय जान लेता वह बात यहाँ प्रकट की जाती है
विसी नगर में भद्रबाहु नामक राजा था। उसके अमात्य का नाम सुशील था। वह नीतिशास्त्र में बडा चतुर था, पर के अभिप्राय को जल्दी से जल्दी जान लेता था । एक दिन की बात हैं कि राजा अमात्यके साथ अश्वक्रीडा करने के लिये बाहर निकला-मार्ग में चलते हुए राजा के घोडे ने किसी पडतल प्रदेश में खडे होकर पेशाबकर दिया पेशाब बहीं पर ત્યાં આવતે, તે પિતાના જાતીચિત ચિત્રનું નિરીક્ષણ કરવામાં તન્મય થઈ જતે તેના આ પ્રકારના વર્તનથી તેની જાતિ, સ્વભાવ, રુચિ આદિને તે વિલાસવતી સમજી જતી હતી અને તે પુરુષની સાથે તેની જાતિ રૂચિ આદિને વર્તાવ બતાવીને તેને સત્કાર આદિ દ્વારા ખુશખુશ કરી નાખતી. તેના વર્તત આદિથી ખુશ થઈને તેને ત્યાં જનારા પુરૂષે ખૂબ ધન આપીને પિતાને સંતોષ પ્રકટ કરતા હતા.
- હવે અમાત્યનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે અને એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે તે અમાત્ય કેવી રીતે અન્યના અભિપ્રાયને જાણી લેતે હતે–
કોઈ એક નગરમાં ભદ્રબાહુ નામે રાજા રાજ્ય કરતે હતો. તેને સુઈલ નામે એક અમાત્ય હતું. તે નીતિશાસ્ત્રમાં ઘણે જ નિપુણ હતું. પરના અભિપ્રાયને ઘણી જ ઝડપથી જાણી લેવાને તે સમર્થ હતો. હવે એક દિવસ તે રાજા તે અમાત્યને સાથે લઈને અશ્વક્રિીડા કરવા નિમિત્તે નગરની બહાર નીકળી પડયે. ચાલતાં ચાલતાં માર્ગના કેઈ એક પડતર (ખેતી ન થતી હોય એ પ્રદેશ) પર ઊભા રહીને ઘડાએ પેશાબ કર્યો. તે પેશાબ સુકાઈ ગયે નહીં પણ ત્યાં તે જમીનમાં
For Private and Personal Use Only
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
• २८०
अनुयेागद्वारसूत्रे
स्थितमेवासीत् । निवर्त्तमानेन राज्ञाऽश्वमृनं तथैवावस्थित दृष्टम् । ततो राज्ञा चिन्तितम् यद्यत्र सरो भवेत्तर्हि तदगाधजलं भवेत्, न कदापि परिशुष्येत् । इत्थ चिन्तयन् राजा तं भूभागं चिरं निरीक्षित वान् । ततोऽमा त्येन सह राजा स्वभवनं समागतः । राज्ञो मनोगतभावं परिज्ञाय तेनामात्येन तदनु तत्र महत्सरः कारितम्, परितः सरोवरपालिषु च सर्वर्तुकुसुमकला विविध जातीया वृक्षाः समारोपिताः । ततोऽन्यथाऽमात्येन सह तत्र प्रदेशे गच्छता तेन राज्ञा तरुराजिशोभितं तत् सरोवरं विलोकय पृष्टम् अहो ! केनेदमति रमणीयं सरः कारितम् ? आमात्येनोक्तम् - भवद्भिरेव ततो विस्मितमना राजा भरा रहा - सुखा नहीं जब अश्वक्रीडा करके राजा वापिस लौटा तो उसने उस घोडे के पेशाब को वहीं पर भरा हुआ देखा तब राजाने मन में विचार किया कि यदि यहां पर तालाब खुदवाया जावे तो वह अगाध जल से भरा रहेगा । कभी भी सुखेंगा नहीं । इस प्रकार विचार करते २ उस राजा ने वहुत समय तक उस भूभाग को देखा इसके बाद वह राजा अमात्य के साथ राजमहल में आगया । राजा के मनोगत भाव को जानने वाले उस अमात्यने कुछ समय बाद वहां एक बडा भारी तालाब खुदवा दिया । उसके चारों ओर उसने तट पर सर्व ऋतुओं के कुसुम और फलवाले अनेक जाति के वृक्ष लगा दिये । किसी समय अमात्य के साथ राजा उसी मार्ग से होकर निकले । वृक्ष के झुण्डों से शोभित उस सरोवर को देखकर उन्होंने मंत्री से पूछा आहे । ! यह अति रमणीय तालाव यहाँ किसने बनवाया है ? એમને એમ પડયા રહ્યા. થોડીવાર પછી રાજા અને અમાત્ય એજ રસ્તેથી પાછાં ફર્યાં. તે પડતર જગ્યામાં ઘેાડાના પેશાબને હજી પણ વિના સૂકાયેલા જોઈને રાજાના મનમાં આ પ્રકારના વિચાર આન્ગે-“ો આ જગ્યાએ તળાવ ખાદાવવામાં આવે, તેા તે તળાવ કાયમ અગાધ જળથી ભરપૂર રહેશે. તેનુ પાણી સુકાશે નહીં આ પ્રકારને વિચાર કરતા કરતા તે રાજા તે ભૂમિભાગ સામે ઘણીવાર સુધી તાકી રહ્યી. ત્યારખાદ તે રાજા તે અમાત્યની સાથે રાજમહેલ તરફ રવાના થઈ ગયા. તે ચતુર અમાત્ય તે રાજાના મનેાગત ભાવને બરાબર સમજી ગયે. તેણે રાજાને પૂછ્યા વિના જ તે જગ્યાએ એક વિશાળ તળાવ ખાદાવ્યુ. અને તેના કિનારે વિવિધ પ્રકારના અને વિવિધ ઋતુઓનાં કુલ-ફૂલથી સ*પન્ન વૃક્ષા ર।પાવી દીધાં. ત્યારબાદ ફરી કોઇ દિવસે તે રાજા તે અમાત્યની સાથે એજ રસ્તે થઈને ફરવા નીકન્યા પેલી જગ્યાએ વૃક્ષાના ઝુડાથી સુાભિત તે જળાશયને જોઇને રાજાએ તે અમાત્યને પુછ્યુ અરે ! આ અતિશય રમણીય જળાશય અહીં કેણે બધાવ્યું છે?
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ७० नोआगमतो भावोपक्रमनिरूपणम् २८२ पृष्टवान्-मया कदा कारितम् ? इति नो स्मरामि । एवं नृपेणोक्तोऽमात्यः सर्व वृत्तं कथितवान् । राजाऽपि सचिवस्य परचित्ताभिप्रायज्ञानशक्तिं विलोक्य त प्रशस्य तज्जीविकां वर्द्धयामास । इस्थममात्येन पराभिप्रायो ज्ञातः ।।
एतेषां सर्वेषां भावोपक्रमाणां संसारफलत्वाइप्रशस्तत्वम् । नो आगमतः प्रसस्तो भावोपक्रमश्च गुर्वादीनाम् । श्रुतादिपरिज्ञानार्थ यद् गुर्वादीनां भावोपतब अमात्य ने कहा महाराज ! आपने ही बनवाया है, तब राजा के मन में वडा आश्चर्य हुआ और उसने मंत्री से पूछा मैंने यह करवाया हैं ? इस बात की तो मुझे याद ही नहीं है। इस प्रकार राजा से कहे गये अमात्य ने सब यथा स्थितवृत्तान्त उनसे कह दिया ! राजा ने तब मंत्रा की परके चित्त के अभिप्राय को जानने की शक्ति देखकर उसकी बडी प्रशंसा की और उसके वेतनकी वृद्धि करदी और उनका पद बढ़ा दिया इस प्रकार यह परचित के अभिप्राय को जाननेवाले अमात्य की कथा है । कि जिसमें इस प्रकार से अमात्य ने परचित्ताभिप्राय को जाना यह कहा गया है। इन सब भावोपक्रमणों में संसाररूप फल जनकता होने के कारण अप्रशस्तता है । .(पसत्थे गुरुमाईणं) गुरु आदिकों के अभिप्राय को यथावत् जानना यह नोआगम को आश्रित करके प्रशस्त भावोपक्रम है। अर्थात् श्रुत आदिकों के परिज्ञान के ત્યારે અમાત્યે જવાબ આપ્ય-"હે મહારાજા આપે પિતે જ આ જળાશય બંધાથયું છે. ત્યારે રાજાના આશ્ચર્ય પાર ન રહ્યો. તેણે અમાત્યને કહ્યું. “આ જળાશય શું મેં બંધાયું છે? આ જળાશય બંધાવવાને કેઈ આદેશ કર્યાનું મને યાદ નથી!” ત્યારે અમાત્યે આ પ્રમાણે ખુલાસો કર્યો-“હે મહારાજ ઘણા સમય સુધી આ જગ્યાએ ઘોડાના મૂત્રને વિના-સુકાયે પડયું રહેલું જોઈને આપે આ જગ્યાએ જળાશય બંધાવવાનો વિચાર કરે. આપે માનેલું કે આ જગ્યાએ જળાશય ખોદાવવાથી તેમાં પાણી કદી સુકાશે નહીં. આપના આ મને ગત વિચારનેઆપ અકડા કરીને પાછા ફરતી વખતે જે દષ્ટિથી તે અશ્વમત્રની સામે નિરખી રહ્યા હતા તે દૃષ્ટિ દ્વારા જાણી જોઈને મેં આ જળાશય અહીં બંધાવ્યું છે. ” પરનાં ચિત્તને સમજવાની પિતાના અમાત્યની તે શક્તિ જોઈને રાજાને ઘણે હર્ષ થયે તેણે તેની ખૂબ પ્રશંસા કરી અને તેનું વેતન અને તે વધારી દઈને તેની કદર કરી. આ પ્રકારની અન્યના મને ગત ભાવને જાણનાર તે અમાત્યની કથા છે. આ ત્રણે ભાવપક્રમણનાં દૃષ્ટાન્ત છે. આ ભાવપક્રમણમાં સંસારરૂપ ફલજન તાને સદ્ભાવ હોવાથી તેમને અપ્રશસ્ત કહેવામાં આવેલ છે.
(पसत्थे गुरुमाईणं) २३ मानो मालिप्रायने यथार्थ३५.४ ते प्रशस्त ભાપક્રમ છે. એટલે કે મૃત આદિનું પરિજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા ઈચ્છતા શિષ્યાદિને
For Private and Personal Use Only
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
अनुयोगद्वारसूत्रे क्रमणं स प्रशस्तभावोपत्र म हत्यर्थः। नन्वत्रानुयोगद्वारविचारः प्रकृतः, अनुयोगश्च व्याख्यानम्, एवं च यदेवानुयोगद्वारव्याख्य नोपयोगि तदेवात्र वक्तच्यम् । गुरुभावोपक्रमस्तु व्याख्यानानुपयोगित्वादवक्तव्य एवेति चे दुच्यते व्याख्यान हि गुर्वायत्तं भवति । अतो व्याख्यानापलब्धये शिष्याणां गुरे।रभिप्रायज्ञानं परमावश्यकम् । गुबभिप्रायज्ञो हि तदनुकूलाचरणेन गुर प्रसादयति, प्रसादितो गुरुरु तस्मै सरहस्यं शास्त्र प्ररूपयति । एवं गुरुभावो. पक्रमोऽपि व्याख्यानस्याङ्गमेव, अतो गुरुभावापक्रम उचित एव । उक्तं च
"गुर्वायत्ता यस्माच्छोस्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि ।
तस्माद् गुरोधनपरेण हितकाक्षिणा भाव्यम् ॥१॥ लिये जो शिष्यादिको गुरु आदि कों के भाव का यथावत् परिज्ञान होता है-वह प्रशस्त भावोपक्रम हैं।
शंका-यहाँ तो अनुयोगद्वारका विचार चल रहा है। अनुयोग का अर्थ व्याख्यान हैं। इसलिये जो अनुयोगद्वार के व्याख्यान करने में उपयोगी हो वही यहां कहना चाहिये । गुरु भावोपक्रम तो व्याख्यान में अनुपयोगी है। इसलिये उसे यहाँ नही कहना चाहिये ।. उत्तर-व्याख्यान गुरु के आधीन होता है। अतः उस व्याख्यान की प्राप्ति के लिये गुरु के अभिप्राय का ज्ञान करना शिष्यों को परम आवश्यक है। गुरु के अभिप्राय को जानने वाला शिष्य उनको अपने ऊपर अनुकूल आचरण से प्रसन्न करता हैं और प्रसादित हुए वे गुरुजन उसके लिये रहस्य युक्त शास्त्र की प्ररूपणा करते हैं। इस प्रकार गुरुके भावका शिष्य को यथावत् परिज्ञान होना यह भी व्याख्यान का अंग ही है। इसलिये उसका कथन यहां उचित ही है। कहा भी है (गुर्वायत्ता) इत्यादि । शास्त्रों का पढनादिગુઆદિકના ભાવનું જે યથાર્થ પરિસ્સાન થાય છે, તેનું નામ ને આગમની અપેક્ષાએ પ્રશસ્ત ભાવોપકમ છે.
શંકા- અહીં તે અગદ્વારની પ્રરૂપણ ચાલી રહી છે. અનુગને અર્થ વ્યાખ્યાન થાય છે. તેથી અનુગદ્વારનું વ્યાખ્યાન કરવામાં ઉપયુકત હોય તેમનું જ કથન અહીં થવું જોઈએ. ગુરૂભાપક્રમ તે વ્યાખ્યાનમાં અનુપયોગી છે, તેથી અહીં તેનું કથન થવું જોઈએ નહીં. .. उत्तर–व्याभ्यान शुरुने माधीन डाय छ. तथा ते व्याभ्याननी प्रालिन માટે ગુરૂના અભિપ્રાયને જાણી લેવાનું જ્ઞાન શિવેને માટે પરમ આવશ્યક ગણાય છે. ગુરુના અભિપ્રાયને જાણનારે શિષ્ય તેમને અનુકૂળ થઈ પડે એવા પિતાના આચરણથી તેમને ખુશ કરે છે, અને તેના વર્તનથી સંતુષ્ટ થયેલા તે ગુરુ તેની સમક્ષ રહસ્યયુકત શાસ્ત્રની પ્રરૂપણું કરે છે. આ રીતે ગુરૂના ભાવતું શિષ્યને યથાવત પરિજ્ઞાન થવું એ પણ વ્યાખ્યાનના એક અંગરૂપ જ છે. તે કારણે સૂત્રકારનું 6s ४थन थित छे. ४युं ५५ :-(गुर्वायत्ताइत्यादि) शासोनु पनि
For Private and Personal Use Only
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोग वन्द्रिका टीका सूत्र ७० नोआगमतो भावोपक्रमनिरूपणम् अन्यच्च-"जुत्तं गुरुमगगहणं नाऊण तयं जहट्ठियं तत्तो।
जह होइ सुष्पसन्नं, तह जइयत्वं गुणत्थीहिं" ॥१॥ छाया-युक्त गुरुमनोग्रहणं, बात्वा तदा यथास्थितं ततः ।
यथा भवति सुप्रसन्नं, तथा यतितव्यं गुणार्थिभिः ॥१॥ पुनः "गुरुचितायत्ताई, वक्खाणंगाइ जेण सव्वाई।
तेण सह सुप्पसन्नं, होइ तयं तं सहा कुज्ना" ॥२॥ छाया-गुरुचितायत्तानि, व्याख्यानाङ्गानि येन सर्वाणि ।
तेन यथा सुप्रसन्न, भवति तदा तत् तथा कुर्यात् ॥या रूप समस्त अध्ययन गुरु महाराज के समीप में ही होता है इसलिये समस्त शास्त्रारम्भ गुरुमहाराज के आधीन है। अतः अपने हित की अभिलाषा रखने वाले शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु महाराज की आराधना करने में . प्रत्पर रहे।
१॥ और भी गुरुमहाराज के मनका-अभिप्राय -शिष्य को जानना उचित है। तब ही वह उनसे यथार्थ में शास्त्र का रहस्य ज्ञात कर सकता है। इसलिये गुणाथी-विनीत शिष्य को चाहिये कि जिस प्रकार से गुरु महाराज सुप्रसन्न रहें ऐसा यत्न उसे करते रहना चाहिये ।
२॥-फिर भी कहा है 'गुरु चित्ताई इत्यादि । व्याख्यान के समस्त अंग गुरु महाराज के चित्ताधीन रहा करते हैं। इसलिये जिस प्रकार से वे सुप्रसन्न रहें वैसा सब काम शिष्य को अवश्य कर्तव्य है। ३॥ और भी આદિરૂપ સમસ્ત અધ્યયન ગુરૂ મહારાજની સમીપે જ થાય છે, તેથી સમસ્ત શાસ્ત્રારંભ ગુરૂને આધીન છે. તેથી પોતાના હિતની ખેવના રાખનાર શિષનું એ કર્તવ્ય થઈ પડે છે કે તેણે ગુરૂમહારાજની આરાધના કરવાના કાર્યમાં તત્પર રહેવું જોઈએ. ' (૧) ગુરૂમહારાજના મનભાવને (અભિપ્રાયને, જાણી લે તે શિષ્યને માટે અતિ આવશ્યક છે. ત્યારબાદ જ તે તેમની પાસેથી શાસ્ત્રના યથાર્થ રહસ્યને જાણી શકે છે. તેથી જે પ્રકારે ગુરૂ રાજી રહે એ પ્રકારને પ્રયત્ન ગુણથી વિનીત શિષ્ય કરે જઈએ.
(२) छ -"गुरुचित्ताई" त्याह-व्यायानना समरत को गु મહારાજના ચિત્તાધીન રહે છે. તેથી જે પ્રકારે તેઓ પ્રસન્ન રહે તે પ્રકારના કામે શિષ્યએ અવશ્ય કરવા જોઈએ.
For Private and Personal Use Only
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८४
.
.
अनुयोगदारसले
.
-
पुनः .
"आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा । ... तहवि य से नवि कूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे" ॥३॥ छाया--आकारेङ्गितकुशलं (शिष्यं) यदि श्वेत वायसं वदेयुः पूज्याः
तथापि च तेषां (वचनं) नापि कूटयेत्, विरहे च कारणं पृच्छे।।३॥ तेषां पूज्यानां वचनं नापि कूटयेत्-असत्यं न कुर्यात्, तथेति कुर्यादित्यर्थः विरहे-विजने एकान्ते इत्यर्थः, कारणं श्वेतवायसकथनप्रयोजनं पृच्छेत् शेष सुगमम्॥
स एष नोआगमतो भावोपक्रमः । स एष भावोपक्रमः। स एष उपक्रमः ॥मू० ७०॥
'गुरुनाइणं' इत्यत्रादिशब्देन सूचितं शास्त्रभावोपक्रमं निरूपयितुमाह
मूलम्-अहवा-उक्कमे छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा-आणुपुत्वी१, नाम२, पणामं३ वत्तव्वया४ अत्थाहिगारे५ समोयारे६ ॥सू०७१॥ कहा है 'आगारिंगियकुसलं, इत्यादि आकार और इंगित (अभिप्राय) के जानने में कुशल शिष्य यदि पूज्य गुरुमहाराज काले कौवे को यदि सफेद कौवा भी कह दें, तो भी गुरुजन के वचन को उसे विना किसी तर्क के स्वीकार कर लेना चाहिये । बाद में एकान्त में काले कौवे को सफेद कहने के प्रयोजनका कारण पूछना चाहिये । (से तं नोआगमओ भावोवक्कमे-से तं भावोवक्मे-से तं उवक्कमे) वह यह नोआगमको आश्रित करके भावोपक्रम है । इसतरह आगम और नोआगमको आश्रित करके भावोपक्रम का यहाँ तक स्वरूप वर्णन किया । इस स्वरूप से उपक्रम का स्वरूप ज्ञात हो जाता है ।सत्र७०।
(3) ४थुपए छ है "आगारिंगियकुसलं" त्याह-२ भने तिने જાણવામાં નિપુણ એ શિષ્ય ગુરૂનાં વચનોને તક અથવા દલીલ કર્યા વિના સ્વીકારી લે છે. ધારો કે ગુરૂ કહે કે “કાગડાને વર્ણ ધળો હોય છે, તે તેમના તે કથનને પણ તે શિષ્ય દલીલ કર્યા વિના સ્વીકારી લે છે. ત્યારબાદ એકાન્તમાં તેણે ગુરૂને પૂછવું જોઈએ કે “આપ કાગડાને વર્ણ ધેળે કહે છે તેનું કારણ ११॥ ४॥२ समग."
(से तं नोआगमओ भावोवक्कमे) मा नासामने माश्रित शने भावा५४मनु १३५ सभा (से त भावोवक्कमे) माराम नाम भने ना. આગમ ભાવપક્રમરૂપ ભાવપક્રમના બને ભેદનું નિરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. (से त उवक्कमे) मा शत, 68भना समस्त बेहोर्नु पर्युन मी समास થાય છે. પ૦ ૭૦
For Private and Personal Use Only
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२०५
-
+
अध। गवन्द्रिका टीका सूत्र ७१ शाखभावोपक्रमनिरूपणम्
छाया--अथवा-उपक्रमः पविधः प्रज्ञप्तः, तथया-आनुपूर्वी १, नामर, प्रमाणं३, वक्तव्यता४, अर्थाधिकार:५ समवतारः ६ ॥० ७१॥
टीका-अहवा इत्यादि
पूर्व गुरुभावोपक्रमः प्रदर्शितः संप्रति शास्त्रभावोक्रमः प्ररूप्यते-'अथवे -ति, अथवा-अनन्तरं-गुरुभावोपक्रमवर्णनानन्तरम् उपक्रमः-शास्त्रभावोपक्रमः षड्विधः प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' इत्यादि, तद्यथा-पथा तस्य भावोपक्रमस्य पवियों तदुच्यते 'आणुपुव्वी' इत्यादिना । तत्र प्रथम उपक्रम आनुपूर्वी१, द्वितीयो नाम २, तृतीयः प्रमाणम्३, चतुर्थों वक्तव्यता४, पञ्चमः-अर्थाधिकार:६, षष्ठः समवतारः ६ इति । ।मु० ७१॥
अब सूत्रकार "गुरुमाईणं" इस पद में आदि पद से सूचित शास्त्रभावोपक्रम का निरूपण करने के लिये "अहवा" इत्यादि सूत्र कहते हैं: - ___ "अहवा उवकमे छबिहे" इत्यादि । ॥सूत्र ७१॥
शब्दार्थ--(अहवा) अथवा (उवक्कमे) उपक्रम (छविहे) छह प्रकार का (षण्णत्ते) कहा गया है । (तंजहा) वे प्रकार ये हैं-(आणुपुची १, नामं २, पणाम ३, वत्तब्वया ४, अत्थाहिगारे ५, समोयारे ६,) आनुपूर्वी १, नाम २, प्रमाण ३, वक्तव्यता ४, अर्थाधिकार ५, और समवतार ६, पहिले गुरुभावोपक्रम का कथन सूत्रकारने करदिया है। अब वे आदिपद से सूचित शास्त्र भावोपक्रम का निरूपण करते हैं-यहां उपक्रम पद से शास्त्रभावोपक्रम लिया गया है। अतःशास्त्रोक्त भावोपक्रम पूर्वोक्तरूप से ६ प्रकार का है ऐसा सूत्र का संक्षिप्तार्थ है। ॥मत्र ७१॥
स्व सूत्रा२ "गुरुमाईणं" AL. ५मा आदि पायी सथित शालामतु ३५ ४२वाने भारे "अहवा" त्यादि सूत्र ४यन ४२ - ..
"अहवा उवक्कमे छबिहे"-त्याह
AurQ-(अहवा) भयका (उपक्कमे छविहे पणते) 6484 ७ रनो ४ो छ. (तंजहा) ते ७ । नीय प्रभाएं छ-(आनुपुव्वी, नाम, पणाम, वनव्वया, अत्याहिगारे, समोयारे) (१) माली , (२) नाम, (3) प्रमा, (४) १४०यता (५) अधि२ अने समवतार.
પહેલાં ગુરૂભાવપક્રમનું પ્રતિપાદન સરકારે કરી લીધું. હવે તેઓ આદિપદથી सथित शास्त्रमावा५४भनु नि३५ ४३ छ- मा पात "अहवा" मय पथा સુચિત થાય છે. અહીં ઉપક્રમ પહથી શાસ્ત્રભાવપક્રમ ગૃહીત થયેલ છે. તેથી શાસ્ત્રોકતમામ પૂતરૂપે આ પ્રકારને હેાય છે એમ સત્રને સંક્ષિપ્તાથ છે. મસાલા
For Private and Personal Use Only
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२८६
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वार
अथानुपूर्यादीनां स्वरूपं निरूपयितुमाह, मूलम् - से किं सं आणुपुथ्वी, आणुपुव्वी दसविहा, पण्णत्ता, तंजह | नामाणुपुव्वी १, ठवणाणुपुव्वीर, दव्वाणुपुव्वी३, खेत्ताणुपुव्वी४, कालापुत्री५, उक्कित्तणाणुपुव्वी६, गणणाणुपुव्वी७, संठाणाणुपुच्वीट, सामायारी आणुपुव्वी९, भावाणुपु०वी १० ॥सू० ७२॥
छाया - अथ काऽसौ आनुपूर्वी ? आनुपूर्वी दशविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथानामानुपूर्वी १, स्थापनानुपूर्वी २, द्रव्यानुपूर्वी ३, क्षेत्रानुपूर्वी ४, कालानुपूर्वी ५, उत्कीर्त्त नानुपूर्वी ६, गणनानुपूर्वी ७, संस्थानानुपूर्वी ८, सामाचार्यानुपूर्वी ९, भावानुपूर्वी १० सू० ७२ ॥
टीका - शिष्यः पृच्छति - 'से किं तं' इत्यादि । अथ कौऽसौ आनुपूर्वी ? इति । उत्तरमाह - आनुपूर्वी - इह हि पूर्व प्रथमम् आदिः इति पर्यायाः । पूर्वस्य - अनु
अब सूत्रकार आनुपूर्वी आदि को के स्वरूप का कथन प्रारंभ करते हैं:इस में सब से प्रथम वे आनुपूर्वी कितने प्रकार की है यह स्पष्ट करते हैं
" से कि " इत्यादि । ॥ ७२ ॥
शब्दार्थ - - ( से कि त आणुपुब्बी) हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त आनुपूर्वी क्या है- ( आणुपुत्री दलविहा पण्णत्ता) उत्तर -- आनुपूर्वी दस प्रकार की वही गई है। (तं जहा ) जो इस प्रकार से है - ( णामाणुपुवी ) एक नामानुपूर्वी (वाणुपुत्री) दुसरी स्थापानानुपूर्वी (दव्वाणुपुथ्वी) तीसरी द्रव्यानुपूवी' (खेत्ता'णुपुब्वी) चौथी क्षेत्रानुपूर्वी (कालाणुपुत्री) पांचवी कालानुपूर्वी (उक्तिणाणुपुब्बी) छठी उत्कीर्तनानुपुर्वी ( गणणाणुपुथ्वी) सातवीं गणनानुपूर्वी (संठाणाणुपृथ्वी) आठवी संस्थानामुपूर्वी (सामायारी आ०) नवत्रीं समाचार्यानुपूर्वी (भावाणुपुव्वी) और दशमी भावानुपूवीं । पूर्व, प्रथम और आदि ये सब पर्याय
હવે સૂત્રકાર આનુપૂર્વી આદિના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવાના પ્રારંભ કરે છે. તેમાં સૌથી પહેલાં તે એ વાત પ્રકટ કરે છે કે આનુપૂર્વી કેટલા પ્રકારની છે?
For Private and Personal Use Only
"से किं तं आणुपुत्री" इत्याहि
शहाथ - (से कि त आणुपुत्री) शिष्य जुइने येवो अश्न पूछे छे ! डे હે ભગવન્ ! પૂર્વપ્રકાન્ત (પૂર્વ પ્રસ્તુત) આનુપૂર્ણીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- आणुपुवी दसबिहा पष्णचा - तं जहा ) भालुपूर्वी ना नीचे प्रमाणे दृश પ્રકાર કથા છે
(terrygeeft (1) angyal", (autrygaft) (2) zeng yall, (eff orgott) (3) qoniy yal', (Amyyat) (3) Bangyall', (ogy (1)
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वी निरूपणम्
२८७ पश्चात्-अनुपूर्व, तस्य भावः आनुपूर्वी-ज्यादिव तु संहतिः, आनुपूर्वी-अनुक्रमः परिपाटीत्येते शब्दाः समानार्थकाः। ज्यादिवस्तु संहतिरूपा एमाऽनुपी नामानुपूर्व्यादिभेदैर्दशविघा विज्ञेयेति ।।सू० ७२॥ - सम्प्रति नामाधानुपूर्वी निरूपयितुमाह। मूलम् -नाम ठवणाओ गयाओ।
से कि तं दवाणुपुव्वी ? दव्वाणुपुठवी दुविहा पण्णत्ता, त. जहा-आगमओ य नोआगमओ य। ___ से कि त आगमओ दवाणुपुष्वी जस्स गं आणूपुचित्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव नो अणुप्पेहाए, कहा? अणुवओगो दध्वमिति कटु । णेगमस्स गं. एगो अणुवउसो आगमओ एगा दव्वाणुपुठवी जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुवउसे न भवइ जइ अणुवउत्ते जाणए न भवइ तम्हा णथिआगमओ दव्वाणुपुव्वी। से त आगमओ दव्वाणुपुठवी। वाची शब्द हैं। पूर्वस्य अनु अनुपूर्व-पूर्व के पीछे ऐसा अनुपूर्व शब्द का अर्थ होता है। अनुपूर्व का जो भाव है वह आनुपूर्वी हैं। अर्थात् तीन आदि वस्तुओं का जो समुदाय हैं वह आनुपूर्वी है। आनुपूर्वी अनुक्रम, परिपाटी ये सब आनुपूर्वी के पर्यायवाची शब्द हैं । तीन आदि वस्तुओं की संहति रूप यह आनुपूर्वी पूर्वोक्त प्रकार से दश भेदवाली है ऐसा जानना चाहिये । ॥७२॥ सानुपूवा, (उकित्तणाणुपुव्वी) (६) नानुली, (गणणाणुपुब्धी) (७) मनानुभूती', (संठाणानुपुवी) (८) सथानानुभूती (सामायारी आणुपुव्वी) (द) समायार्यानुषी माने (भावाणुपुच्ची) (१०) झापानुपूी.
पू', प्रथम म मा मात्र पर्यायवाची शो छ. "पूर्वस्य अनु अनुपूर्व" "पू (प्रथम)नी पा७॥", अव! मनुपूर्व Awt A4 पाय छ. मा અનુપૂર્વને જે ભાવ છે તેનું નામ અનુપૂવી છે. એટલે કે આદિ વસ્તુઓને જે સમુદાય છે તેનું નામ આનુપૂવી છે. આનુપૂવી, અનુક્રમ અને પરિપાટી, આ ત્રણે આપવના પર્યાયવાચી શબ્દો છે. ત્રણ આદિ વસ્તુઓના સમૂહરૂપ આ આપવી પકત દસ ભેટવાળી કહી છે, એમ સમજવું. પાસ કરા
For Private and Personal Use Only
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८८
अनुयोगद्वारचे - से कि तं नो आगमओ दवाणुपुवी ? नो आगमओ दवाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जाणयसरीरदव्वाणुपुठवी, भक्यिसरीरदवाणुपुब्बी, जाणयसरीरभवियसरीरवारिता दवाणुपुथ्वी। से कि तं जाणयसरीरदवाणुपुवी ? जाण्यसरीरदवाणुपुवी आणुपुच्ची पयस्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दवावस्सए जाव से तं जाणयसरीरदवाणुपुवी। से कि तं भवियसरीरदन्वानुपूवी? भवियसरीरदवाणुपुष्वी जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खंते मेसं जहा दवावस्सए जाव से त. भषियसरीरदब्वाणुपूथ्वी।
" से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवाणुपुत्री ? जाणवसरीरभवियसरीरवइरिता दवाणुपुवी दुविहा पण्णत्ता, संजहा-ओवणिहिया य अणोवणिहिया य। तत्थ णं जा सा
ओवणिहिया सो ठ'पा । तस्थ गंजा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णता, त' जहा-नेगमववहाराणं, संगहस्स य ॥सू०७३॥
छाया-नामस्थापने गते। अथ काऽसौ द्रव्यानुपूर्वी १ द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञमा, तद्यथा-आगमतश्च नोआगमतश्च ।
...अब सूत्रकार नामानुषी को निरूपण करते हैं
"नाम ठवणाओ गयाओ" इत्यादि । ।सूत्र ७२॥
शब्दार्थ-(नामठवणाओ गयाओ) नामानुपूर्वी और स्थापनानुपूर्वी का स्वरूप नामावश्यक और स्थापनावश्यक के जैसा जानना चाहिये। (से किं
હવે સૂત્રકાર નામાનુપૂર્વ નિરૂપણ કરે છે..... "नामठवणाो गयाओ' त्या
हाथ-(नामठवणाभो गयाओ) नाभानु पूर्वा भने स्थापनानुषी २१३५ नाभापश्य भने स्थापना मायना हित २१३५ मनुसार १ Ar(से किं त दव्वाणुपुच्ची ?) 8 सन ! सानुकान १३५ ३'? .
For Private and Personal Use Only
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिकारीका सूत्र ७३ नामाधानुपूर्वी निरूपणम्
अथ काऽसौ आगमतो द्रव्यानुपूर्वी ? आगमतो द्रव्यानुपूर्वी यस्य खछु भानुपूर्वीति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं यावद् नोअनुप्रेक्षया, कस्मात् ! अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । नैगमस्य खलु एकोऽनुपयुक्तः आगमत एका द्रव्यावपूर्वी यावत् , कस्मात् ? यदि ज्ञायकः अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो शाक्यको न भवति, तस्माद् नास्ति आगमतो द्रव्यानुपूर्वी । सैषा आगमतो द्रव्यानुपर्यो।
अथ काऽसौ नोभागमतो द्रव्यानुपूर्वी ? नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा ममता, तद्यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी, भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी, ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी । अथ काऽसौ ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? शासकर शरीरद्रव्यानुपूर्वी-आनुपूर्वीपदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतल्या वितत्यक्तदेह शेषं यथा द्रव्यावश्यं के तथा भणितव्यम् , यावत् सैषाशा शरीरद्रव्यानुपूर्वी। ___ अथ का सा भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी-यो जीयो योनि जन्मनिष्क्रान्तः शेषं यथा द्रव्यावश्यके० यावत् सैषा भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी । अप काऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता, द्रव्यानुपूर्वी? शायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता, द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-औपनिधिकी च अनौपनिविकी च। तत्र खलु या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या। तत्र खलु या सा अनौपषिकी सा द्विविधा प्रज्ञता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः, संग्रहस्य च ॥०७३॥
टीका-'नाम ठवणाओ' इत्यादिनामस्थापने नामानुपूर्वी-स्थापनानुपूव्यौ गते-गत-गतमाये उक्तमाये इत्यर्थः। अयं भावः-नामानुपूर्वी स्थापनानुपूर्वी चैतद्वयं नामावश्यकवत् स्थापनावश्यकवद् विज्ञेयमिति।
अथ द्रव्यानुपूर्वी निरूपयितुमाह-से किं तं' इत्यादि ।
अथ काऽसौ द्रव्यानुपूर्वी ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरमाह-दव्याणपूची' इत्यादि । द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता। तद् यथा-आगमतश्च, नोआगमतथ। तं दव्याणुपुव्वी) हे भदन्त ! द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (दव्याणु. पुब्धी दुविहा पण्णत्ता) उत्तर-द्रव्यानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है (तंजहा) वे. प्रकार ये हैं (आगमओय नोआगमओय) एक आगम से
उत्तर-(दव्वाणुपुव्वो दुविहा पण्णत्ता-तंजहा) यानुभूती ना ना प्रमाणे मे १२ । छे. (आगमओ य नोआगम ओ य) (१) भागमनी अपेक्षा અને (૨) આગમની અપેક્ષાએ આગમને આશ્રિત કરીને જે દ્રવ્યાનુપૂવી
भ० ३७
For Private and Personal Use Only
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारस तत्र-आगमतो द्रव्यानुपूर्वी यस्य साधोः खलु आनुपूर्वीति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं यावत्-इह यावच्छन्दात्-नामसमं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमिलितम् अव्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण पति
और दूसरी नोआगम से । आगम को आश्रित करके जो द्रव्य आनुपूर्वी होती है वह आगम द्रव्यानुपूर्वी है। (से किं तं आगमओ व्वाणुपुठधी) हे भदन्त । आगम को आश्रित करके जो द्रव्यानुपूर्वी होती है ? उसका क्या स्वरूप है ? (आगमओ दवाणुपूव्वी) आगम को आश्रित करके जो द्रव्यानुपूर्वी होती है उसका स्वरूप इस प्रकार से है-(जस्स णं आणुपुग्वित्ति पय सिक्खिय) जिस साधु आदिने आनुपूर्वी इस पद वाच्य अर्थ को विनयपूर्वक गुरुमुख से सीख लिया है (ठिय) उसे अच्छी तरह से अपने स्मृति पथ में उतार लिया है (जिय) शन्द और अर्थ की अपेक्षा से जिसने उसे भलि भांति जान लिया है (मिय) उसके पदादिकों की संख्या का परिमाण जिसने भली प्रकार से अभ्यास कर लिया है। (परिजियं) जिसने उसे सब तरफ से और सब प्रकार से परावर्तित करलिया है। वह आगम को आश्रित करके द्रव्यानुपूर्वी है। यहां यावत् शब्द से " नामसम, घोषसम अहीनाक्षर अत्यक्षर अव्या. विद्धाक्षर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानेडित, प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष થાય છે તેનું નામ આગમદ્રવ્યાનુપૂર્વી છે અને તે આગમને આશ્રિત કરીને २ भानुपूवी थाय छ तेनु नाम नामागभद्रव्यानुपूवी छ. (से कि त आगमओ दव्वाणुपुव्वी) १ ३ मावन् ! आमने। माश्रित प्रशन अनुपूी छे તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
(आगमओ व्वाणुपुत्वो) सामने आश्रित शन २ द्रव्यानुपूवी थाय છે તેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે
(जस्स णं आणुपुल्वीति पय सिक्खियं) ने साधु माहिये “ भानुभूती" . આ પદના વાચ્યાર્થને વિનયપૂર્વક ગુરૂને મુખેથી સારી રીતે શીખી લીધું છે, (ठिय) तर सारी शत पाताना स्मृति५८ ५२ SIN सीधे। छ, (जिय) AM भने अनी अपेक्षा न त सारी शत angleी छ, (मिय) તેના પદાદિકની સંખ્યાનું પરિણામ જેણે સારી રીતે સમજી લીધું છે, (परिजिय) २0 ते मधी तरथी भने सपा सरे पतित ४॥ बाधु છે, તે આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે. અહીં યાવત' પદથી " नामसभ, घोषसम, मीनाक्षर, सत्यक्ष२, अन्याविदाक्षर, अमलित,
For Private and Personal Use Only
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वी निरूपणम् पूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतं भवति । स खलु तत्र-आनुपूर्वीतिपर्व वाचनया प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया च वर्तमानो भवति, न तु अनुप्रेक्षय वर्तमानो भवति । एवंविधः स साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी पदेऽनुप्रेक्षयाऽवर्तमान साधुः आगमतो द्रव्यानुपूर्वी कथं भवतीत्याह-'कम्हा' इत्यादिना-कस्मात कंठोष्ठविप्रमुक्तः गुरुवावचनोपगतः" इन पदों का संग्रह किया गया है। इन पदों का अर्थ १४ वें सूत्र में स्पष्ट कर दिया है। ऐसा वह व्यक्ति "आनुपूर्वी" इस पद में वाचना पृच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा इन से वर्तमान माना जाता है । परन्तु अनुप्रेक्षा से वर्तमान-नहीं माना जाता है। इस प्रकार का वह साधु व्यक्ति आगम से द्रव्यानुपूर्वी जानना चाहिये। - शंका-(कम्हा) आनुपूर्वी पद में अनुप्रेक्षा से अवर्तमान साधु आगम से द्रव्यानुपूर्वी कैसे माना जाता है ? . ___ उत्तर-" अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा" अनुपयोग-जीव जिसके द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है उसका नाम उपयोग है। इस उपयोगका अभाव अनुपयोग है । इस से युक्त होने के कारण आनुपूर्वी का वह ज्ञाता आगम से द्रव्यानुपूर्वी माना जाता है। ऐसा शास्त्र का वचन है। तात्पर्य कहने का यह है कि जिस साधुने आनुपूर्वी को અમિલિત, અવ્યત્યાગ્રંડિત, પ્રતિપૂર્ણ, પ્રતિપૂર્ણઘેષ, કંઠેવિપ્રમુક્ત. ગુરુવાચને પગત આ પદોને ગૃહણ કરવામાં આવ્યાં છે. તે પદને અર્થ ૧૪માં સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. આ બધાં વિશેષણેથી યુક્ત સાધુ આદિને આનુપૂર્વી” આ પદમાં વાચના, પૃચ્છના, પરિવર્તન અને ધર્મકથા દ્વારા વર્તમાન માનવામાં આવે છે, પરંતુ અનુપ્રેક્ષા દ્વારા વર્તમાન માનતું નથી. આ પ્રકારના તે સાધુને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વી સમજ.
श-(कम्हा) भानुका ५४मा अनुप्रेक्षा द्वारा मतमान साधु मास. મની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂવી કેવી રીતે મનાય છે?
उत्तर-“ अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा " ना द्वारा परतुनी परि. છેદ (ધ) કરે છે તેનું નામ ઉપગ છે. તે ઉપગના અભાવનું નામ અનુપગ છે. આ અનુપગથી યુક્ત હોવાને કારણે અનુપૂવીને તે જ્ઞાતા આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વી મનાય છે, એવું શાસ્ત્રનું વચન છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-જે સાધુએ આનુપૂવને સારી રીતે જાણી લીધી છે-શીખી લીધી છે–એટલે કે તે તેને પરિપૂર્ણરૂપે જ્ઞાતા થઈ ગયા છે, તે
For Private and Personal Use Only
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वार अनुपेक्षया वर्तमानः साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी भवति? उत्तरयति-अणुवओगो दवमितिकटु' अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । अनुपयोगो हि द्रव्यं भवति, अतोऽनु. पेक्षयाऽवर्तमानः साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी भवति ।
नेगमादि भेदेन द्रव्यानुपूर्वी भेदास्त्वेवं विज्ञेयाः नैगमस्य खलु एकोऽनुपयुक्त भागमत एका द्रव्यानुपूर्वी, यावत् यावच्छन्दात् द्वावनुपयुक्तौ आगमतो द्वे आनु. पूज्यौं । त्रयोऽनुपयुक्ता आगमतस्तिस्रो द्रव्यानुपूर्व्यः । एवमेव व्यवहारस्यापि । सम्यक् प्रकार से जान लिया है-सीख लिया है-वह उसका पूर्णरूप से ज्ञाता बन चुका है, अतः वह साधु उस आनुपूर्वी में वाचना पृच्छना आदि से वर्तमान होने पर भी उसमें उपयोग से रहित होने के कारण वह आगम से द्रव्यानुपूर्वी कहलाता है। (णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एमा दवाणुपुव्वी, जाव कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवह, जइ अणुवउत्ते जाणए न भवइ, तम्हा णस्थि आगमओ दव्वाणुपुत्वी से तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी)
अब सूत्रकार नैगमनय आदि के भेद से द्रव्यानुपूर्वी के भेदों को कहते है-इन में नैगमनय की दृष्टि से एक अनुपयुक्त आत्मा-साधु आगम से एक द्रव्यानुपूर्वी है। यहां यावत् शब्द से ऐसा जानना चाहिये-कि दो अनुपयुक्त साधु आगम से दो द्रव्यानुपूर्वी हैं। तीन अनुपयुक्त साधु, आगम से तीन द्रव्यापूर्वी हैं। इस प्रकार जितने अनु. पयुक्त साधु हैं आगम से उतनी ही द्रव्यानुपूर्वीयां हैं। इसी प्रकार से व्यवहारनय की दृष्टि से द्रव्यानुपूर्वी में एकत्व अनेकत्व का कथन સાધુ આનુપૂરમાં વાચન, પૃચ્છના, આદિ વડે વર્તમાન હોવા છતાં પણ તેમાં ઉપયોગથી રહિત હોવાને કારણે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂરી કહેવાય છે.
(णेगमस्स ण एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दवाणुपुवी जाव कम्हा ? जइ जाणए अनुवउत्ते न भवइ, जइ अनुवउत्ते जाणए न भवइ, तम्हा गस्थि भागमो दव्वानुपुवी-सेतं आगमओ दव्वानुपुव्वी)
હવે સૂત્રકાર નૈગમનય આદિના ભેદથી દ્રવ્યાનુપૂવીના ભેદનું કથન કરે છે–નગમ નયની દષ્ટિએ એક અનુપયુક્ત આત્મા (સાધુ) આગમની અપેક્ષાએ એક દ્રવ્યાનુપૂવી છે. અહીં “યાવત્ ” પહથી નીચેને પૂર્વોત સૂત્રપાઠ ગ્રહણ કરે.
નૈગમનયની દૃષ્ટિએ બે અનુપમયુકત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ બે દ્રવ્યાનુપૂવી છે, ત્રણ અનુપયુકત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ ત્રણ દ્રવ્યાનવી છે. એજ પ્રમાણે જેટલા અનુપયુક્ત સાધુ છે એટલાં જ આગમની અપેક્ષાએ ભાનુપૂવી છે. એ જ પ્રમાણે વ્યવહારનયની અપેક્ષાએ પણ દ્રવ્યાનુપૂવીમાં
For Private and Personal Use Only
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
योन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाचानुपूर्वीनिरूपणम्
२९३
संग्रहस्य खलु एकोऽनुपयुक्तः, अनेके वाऽनुपयुक्ता आगमतो द्रव्यानुपूर्वी द्रव्यानुपूर्व्यो वा एकैव द्रव्यानुपूर्वी बोध्या । ऋजुमूत्रस्य एकोऽनुपयुक्त आगमत एका द्रव्यानुपूर्वी, पृथक्त्व' नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञायकोऽनुपयुक्तोऽवस्तु, कस्मात् ? यदि ज्ञायकः, अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तः, ज्ञायको म भवति तस्माद् नास्ति तन्मते आगमतो द्रव्यानुपूर्वी । अत्रोक्तानां शिक्षितादि पदानां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । एतदुपसंहरन्नाह - सैषाऽऽगमतो द्रव्यानुपूर्वीति । जानना चाहिये संग्रहनय की ऐसी मान्यता है कि एक द्रव्यानुपूर्वी है। नैगम और व्यवहार नय की मान्यता के अनुसार द्रव्यानुपूर्वी जो एक और अनेकरूप है - सो यह नय ऐसा कथन करता है कि सामान्यतत्व के आधार पर समस्त द्रव्यानुपूर्वियां एक ही हैं-भिन्न २ अनेक नहीं । ऋजु सूत्रनय की मान्यतानुसार वर्तमान क्षण में एक अनुपयुक्त साधु आगम की अपेक्षा एक आनुपूर्वी है। यह नय आनुपूर्वी में भिन्नताअनेकता नहीं मानता है। तीन शब्दनय की मान्यतानुसारशायक होकर भी जो अनुपयुक्त होता है वह अवस्तु स्वरूप है। क्यों कि जो ज्ञायक होगा वह अनुपयुक्त नहीं होगा, जो अनुपयुक्त होगा वह ज्ञायक नहीं होगा । इसलिये आगम की अपेक्षा लेकर जो द्रव्यानुपूर्वी बनती है वह नहीं है। यहां पर जो शिक्षित आदि पद आये हैं उनकी व्याख्या पहिले की व्याख्या के समान समझनी એકત્વ અનેકત્વનું કથન સમજવું જોઇએ. સ ́ગ્રહનયની એવી માન્યતા છે કે એક જ દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે. મૈગમનય અને વ્યવહાર નયની માન્યતા અનુસાર દ્રવ્યાનુપૂર્વી જે એક અને અનેકરૂપ છે તેનું કારણ એ છે કે આ નય એવુ' કથન કરે છે કે સામાન્ય તત્ત્વના આધાર પર સમસ્ત દ્રવ્યાનુપૂર્વી એ એક જ છે–ભિન્ન ભિન્ન અનેક-નથી. ઋજીસૂત્ર નયની માન્યતા અનુસાર વર્તમાન ક્ષણે એક અનુપયુક્ત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ એક આનુપૂર્વી છે. આ નય આનુપૂર્વી માં ભિન્નતા (અનેકતા)ને માનતા નથી. ત્રણે શબ્દનયાની માન્યતા અનુસાર સાયક હાવા છતાં પણ જે અનુપયુક્ત હાય છે તે અવસ્તુસ્વરૂપ છે. કારણ કે જે જ્ઞાયક હુશે તે અનુપયુક્ત અહી... હાય અને જે અનુપયુક્ત હો તે જ્ઞાયક નહી. હાય, આ પ્રકારની તે ત્રણે શખ્સ નયાની માન્યતા છે. તેથી માગમની અપેક્ષાએ જે દ્રવ્યાનુપૂત્રી અને છે તેના મા ત્રણે શખ્તનયાની માન્યતા અનુસાર સદ્ભાવ જ હતેા નથી. અહી જે શિક્ષિત સ્માદિ પદ્મ આવ્યાં છે તેમની વ્યાખ્યા આગળ આપ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. આ પ્રકારનું આગમ દ્રવ્યાનુપૂર્વી સ્વરૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र ___ अथ नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वीविजिज्ञासया शिष्यः पृच्छति-से कि तं' इत्यादि । अथ काऽसौ नोभागमतो द्रव्यानुपूर्वी ? इति । उत्तरयति-नोआगमओ दवानुपुग्धी' इत्यादि । नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता-ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी १ भव्यशरीर-द्रव्यानुपूर्वी २ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्या. नुपूर्वी ३ । ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी जिज्ञासमानः शिष्यः पृच्छति-अथ काऽसौ ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? उत्तरयति-'जाणयसरीर' इत्यादि । ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी हि-आनुपूर्वी पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं जीवविषमुक्त शय्यागतं वा संस्तारगतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा खलु चाहिये । इस प्रकार यह आगम से द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है । (से कि तं नोआगमओ दव्वानुपुव्वी) हे भदन्त ! नो आगम को आश्रित करके द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (नोआगमओ दव्यानुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता) नोआगम को आश्रित करके होनेवाली द्रव्यानुपुर्वी तीन प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे-(जाणयसरीरदव्यानुपुव्वी, भषियसरीरदव्वानुपुल्वी,जाणयसरीरभवियसरीरवहरित्ता दव्वानुपुग्धी) ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी, भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी और ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी। (से किं तं जाणयसरीरदव्वानुपुठवी) हे भदन्त ! पूर्वप्रकान्त ज्ञायशरीर द्रव्यानुपूर्वी क्या है ?
(जाणयसरीरदव्यानुपुव्वी) ज्ञायकशरीर द्रव्यानुपूर्वी इस प्रकार से है। (आनुपुव्वीपयत्याहिगारजाणयस्स जं सरीरं ववगयचुयचावियचत्त
(से कि त नोआगमओ दवाणुपुवी ?) 3 मान! नामामाने पाश्रित કરીને દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नोआगमओ दव्यानुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) नासामने माश्रित शन नयभान यानुनी प्रा२नी 3डी छ-(तंजहा) ते अy प्रा। नीचे प्रभारी -
(जाणयसरीरदव्वानुपुव्वी, भवियसरीर व्वानुपुब्वी जाणयसरीरभवियसरीरपरिचा दव्वानुपुव्वी) (1) शायरी२ द्रव्यापी, (२) म०यशरीर द्र०यानुभूती અને (૩) જ્ઞાયક શરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્યાનુપૂરી.
-से कि त जाणयसरीरवानुपुव्वो ?) 8 लापान ! पूर्व प्रान्त (પૂર્વ પ્રસ્તુત) જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાનુપૂવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(जाणयसरीरदव्वानुपुव्वी) शायशरीर द्रव्यानुती नु ११३५ २३॥ मा छ-( आनुपुवी पयत्थाहिगारजाणयस्स जसरीर' ववगयचुयचाविय पत्तदेह) 'मानवी ' मा ५४ना मारिने ना२ सानु से प्राथी
For Private and Personal Use Only
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
--
-
मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र ७३ मामाघानुपूर्वीमिकपणम्
२९५ कोऽपि भणेत् अहो! खल्लु अनेन शरीरसमूच्छयेण जिनदृष्टेन भावेन आनुपूर्वीति पदम् आगृहीतं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निदर्शितम् । यथा कोऽत्र दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भ आसीदिति । 'जीव विषमुक्तम्' इत्यारभ्य एतत्पर्यन्तः पाठः 'शेष यथा द्रव्यावश्यके तथा भणितव्यं यावत् ' इत्यनेन संग्राह्यः एषां पदानां व्याख्या द्रव्यावश्यके द्रष्टव्या। एतन्निगमयन्नाह-सैषा ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वीति । देह) आनुपूर्वी इस पद के अधिकार को जानने वाले साधु का जो व्यपगत च्युत, च्यावित और त्यक्त देहवाला शरीर अर्थात् आहार परिणति जनित वृद्धि से रहित शरीर है वह ज्ञायकशरीर द्रव्यानुपूर्वी है। (सेसं जहा दव्यावस्सए जाव से तं जाणयसरीरदव्वानुपुथ्वी) यहां पर" जीवविप्रमुक्तं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा नैषेधिकीगतं वा, सिद्धं शिलातलगतं वा दृष्ट्वा खल कोऽपि भणेत् अहो। खलु अनेन शरीरसमुच्छ्येण जिनदृष्टेन भावेन आनुपूर्वीति पदं आगृहीतं, प्रज्ञापितं, प्ररूपितं, दर्शितं, निदर्शितं । यथा कोऽत्र दृष्टान्तः? अयं मधुकुम्भआसीत् अयं घृतकुम्भ आसीत्" यह (सेस) अवशिष्ट पाठ (जहा दव्वावस्सए जाव) जैसा द्रव्यावश्यक में कहा है वैसा लगा लेना चाहिये । इन समस्त पदों की व्याख्या द्रव्यावश्यक के प्रकरण में कह दी गई है-अतः वहां से जान लेनी चाहिये । इस प्रकार नोआगम की अपेक्षा से द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है। રહિત ચુત, ચ્યાવિત અને ત્યકત દેહવાળું જે નિર્જીવ શરીર છે– એટલે કે આહાર પરિણતિ જનિત વૃદ્ધિથી રહિત જે શરીર છે તે જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાપૂવી છે. (વ્યપગત, ચુત, ચાવિત આદિ પદને ભાવથ આગળ આવી ગયો છે.)
(सेस' जहा दवावस्सए जाव से त जाणयसरीरदव्वानुपुव्वी) मही "जीवविप्रमुक्त शय्यागत वा, नैषेधिकीगत वा, सिद्धशिलातलगत वा दृष्य खलु कोऽपि भणेत् अहो ! बलु अनेन शरीरसमुच्छ्ये ण जिनदृष्टेन भावेन आनुपूर्वी ति पदं आगृहीत', प्रज्ञापित, प्ररूपित, दर्शित, निदर्शितं यथा कोऽत्र दृष्टान्तः? अय' मधुकुम्भ आसीत, अय घृतकुम्भ आसीत् ॥ ॥ (सेस) माडीमा सूत्र (जहा दवावस्सए जाव) द्र०यावश्यमा ४ असार ९ કરવું જોઈએ. આ સઘળાં પદેની વ્યાખ્યા દ્રવ્યાવશ્યકના પ્રકરણમાં આપવામાં આવી છે. તેથી જિજ્ઞાસુ પાઠકે તે ત્યાંથી વાંચી લેવી. આ પ્રકારનું આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगमारले शिष्यः पृच्छति-से कित' इत्यादि । अथ काऽमो भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? भन्यवरोरद्रव्यानुपूर्ण हि-यो जीवो योनि जन्मनिष्क्रान्तोऽनेनैव आत्तकेन शरीरसमुच्छ्येण जिनोपदिष्टेन भावेन आनुपूर्वी ति पदम् आगामिकाले शिक्षिष्यते, न तावत् शिक्षते । यथा को दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भो भविष्यति, अयं घृतकुम्भो भविष्यतीति अनेनैव आत्तकेन' इत्यारभ्य एतत्पर्यन्तः पाठः शेषं यथा द्रव्यावश्यके यावत्' इत्यनेन संग्राह्यः । व्याख्या च द्रव्यावश्यके द्रष्टव्या । सम्प्रत्येतदुपसंहरन्नाह-सैषा भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी ति ।
(से किं तं भवियसरीरदव्वानुपुव्वी) हे भदन्त !पूर्वप्रक्रान्त भव्यशारीर द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? ___उत्सर-(भवियसरीरदव्वानुपुग्वी) भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है-(जे जीधे जोणीजम्मणणिक्खंते सेसं जहा दग्बावस्सए जाव-से तं भवियसरीरव्वानुपुव्वी) जो जीव जन्मकाल में अपना पूर्ण नौमास का समय समाप्तकर उत्पन्न हुआ-बीच में नहीं, ऐसा मनुष्य उस प्राप्त शरीर से जो भविष्यत्कालमें आनुपूर्वी का अनुपयुक्त ज्ञाना बनेगा उसका वह प्राप्त शरीर नोमागमसे भव्यशरीर द्रानुपूर्वी है। यहां पर “ अनेनैव आत्तकेन" इस पाठ से लेकर "शरीरसमुच्छ्रयेण जिनोपदिष्टेन भावेन आनुपूर्वी तिपदं आगामिकाले शिक्षिष्यते न तावत् शिक्षते। यथा को दृष्टान्तः अयं मधुकुम्भो भविष्यति अयं घृतकुम्भो भविष्यति" यहां तक का पाठ "शेष यथा द्रव्यावश्यके यावत्" इस पाठ से ग्रहण करलेना चाहिये। इस
प्रश्न-से कि त भवियसरीरव्वानुपुव्वी ? 3 अन् ! भव्यशरीर द्र०याપૂર્વનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्तर-(जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खंते से जहा दव्यावस्सए जाब से त भबियसरीरदव्वानुपुव्वी) २ ७१ भाताना मा ५i नव भास २२ એટલે કે પૂર્ણકાળ વ્યતીત કરીને ઉત્પન્ન થાય છે–અપૂર્ણ કાળ વ્યતીત ઉત્પન્ન થયું નથી. એ જીવ ભવિષ્યકાળમાં અનુપૂવને અનુભવયુક્ત બનશે-વતમાનકાળે તે અનુપૂર્વીને શાતા નથી, તે એ જીવને તે પ્રાપ્ત શરીર नामासमनी अपेक्षा १०यशरी२ द्रव्यानुषी छ. सही " अनेनैव आत्तकेन" मा सूत्रपाथी धन “शरीरसमुच्छ्रयेण जिनोपदिष्टेन भावेन आनुपूर्वीतिपदं आगामि काले शिक्षिष्यते न तावत् शिक्षते। यथा को दृष्टान्तः १ अयं मधुकुम्भी भविष्यति अयं घृतकुम्भो भविष्यति" मही સુધીનો સૂત્રપાઠ દ્રવ્યાવશ્યક સત્રમાં કહ્યા અનુસાર ગ્રહણ કરવાનું સૂત્રકારે
For Private and Personal Use Only
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम्
२९७ शिष्यः पृच्छति-से कि तं' इत्यादि । अथ काऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी ? इति। उत्तरमाह-'जाणयसरीर' इत्यादि। ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी हि द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-औपनिधिको च अनौपनिधिकी च । तत्र भेदद्वयमध्ये या सा औपनिधिकी इह निधिशब्दस्य निक्षेपोऽर्थः, निधानं, निधिः निक्षेपः, न्यासः, स्थापनेति शब्दाः पर्यायाः। उपसामीप्येन निधिः-उपनिधिः-एकस्मिन् विविक्षितेऽर्थे पूर्व व्यवस्थापिते तत्समीपे पाठ की शंकासमाधान पूर्वक जैसी व्याख्या द्रव्यावश्यक के स्वरूपको निरूपण करते समय की है वैसी ही व्याख्या इसकी जाननी चाहिये। इस प्रकार यह नोआगम को लेकर द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है। (से कि तं जाणयसरीरभावियसरीरबारित्ता दव्वाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वोक्त ज्ञायक शरीर भव्य शरीर इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
उत्तर-( जाणयसरीरभवियसरीरवहरित्ता दवाणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता) ज्ञायकशरीर भव्यशरीर इन दोनों से भिन्न द्रव्यानुपूर्वी दो प्रकार की कही है (तंजहा) जैसे (ओवणिहिया, य अणोवणिहिया य)
औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी और अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । (तस्य गं जासा ओवणिहिया सा ठप्पा) इनमें जो औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी है वह स्थाप्य है। क्योंकि अल्प विषयवाली होने से वह इस समय व्याख्या करने योग्य नहीं है। निधिशब्द का अर्थ यहां निक्षेप है। સૂચન કર્યું છે દ્રવ્યાવશ્યકના પ્રકરણમાં શંકાઓના સમાધાન પૂર્વક ભવ્યશારીર દ્રવ્યાવશ્યકના સ્વરૂપનું જેવું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે એવું જ અહીં ભચશરીર દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ થવું જોઈએ આ પ્રકારનું આગમની અપેક્ષાએ ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ સમજવું.
प्रश्न-(से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी) ભગવન્! પૂર્વપ્રક્રાન્ત જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીર આ બનેથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનુવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
अत्तर-(जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुवी दुविहा पण्णत्ता) સાયકશિરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનુપૂવી બે પ્રકારની કહી છે. (जहा) ते । नीये प्रभार छ-ओवणिहियो य अणोवणिहिया य) (1)
औपनिधी द्रव्यानुषी अने. (२) मनोपनिधिही द्रव्यानुपूवी (तत्थणं जा मा ओवणिहिया सा उप्पा) तभा २ मोपनिवि भानुभूती छ त स्याय
भ० ३८
For Private and Personal Use Only
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
-
. . अनुयोगद्वारसूत्रे एवापरापरस्य वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण यन्निक्षेपणं स उपनिधिरित्यर्थः उपनिधिः प्रयोजनं यस्या आनुपूर्व्याः सा-औपनिधिकी । सामायिकादि-षडध्यपनानां पूर्वा पूर्व्यादिना निक्षेप एव उपनिधिः स प्रयोजनं यस्याः आनुपूर्व्याः सा, औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी स्थाप्या संप्रति न व्याख्यातव्या-अल्पविषयत्वेनात्र नोच्यते, किश्वग्रे वक्ष्यते इति भावः । सम्पति बहुवक्तव्यत्वेन पश्चान्निर्दिष्टाऽपि अनौपनिधि की द्रव्यानुपूर्येव व्याख्यायते । तत्र खलु या सा अनौपनिधिकी निधान, निधि निक्षेप, न्यास स्थापना ये सब निधिशब्द के पर्याय वाची शब्द हैं। उपशब्दका अर्थ समीप है और निधि शब्दका अर्थ रखना है। एक कोई विवक्षित पदार्थ पहिले व्यवस्थापित कर देने पर फिर उसके पास ही और २ दूसरे पदार्थों के वक्ष्यमाण पूर्वानुपूर्वी के क्रम से जो रखा जाता है उसका नाम उपनिधि है। यह उपनिधि जिस आनुपूर्वी का प्रयोजन हो वह औपनिधिकी आनुपूर्वी है। इसमें सामाः यिक आदि छह अध्ययनों का पूर्वानुपूर्वी से निक्षेप किया जोता है। इनका यह निक्षेप ही उपनिधि है । औपनिधिकी आनुपूर्वी में यह उपनिधि ही प्रयोजनभूत होती है । अल्प विषय वाली होने से जो यहां उसे व्याख्यातव्य नहीं कहा गया है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस सूत्र में सूत्रकार उसका कथन नहीं करेंगे । किन्तु आगे वे उसे कहेंगे-अभी यहां नहीं। अनौपनिधिकी आनुपूर्वी का जो सूत्रकार છે, કારણકે અલપ વિષયવાળી હોવાના કારણે અત્યારે અહીં તેનું પ્રતિપાદન કરવાની જરૂર નથી “નિધિ' પદને અર્થ અહીં “નિક્ષેપ” સમજે નિધાન, નિધિ, નિક્ષેપ, ન્યાસ અને સ્થાપના આ બધા નિધિશબ્દના પર્યાયવાચી सन्हा छ. 64' A७४ने। अय' 'सभी५' थाय छे. अने निधि' २४ રાખવાના અર્થને સૂચક છે હવે ઉપનિધિ શબ્દને આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-કોઈ એક વિવક્ષિત પદાર્થને પહેલાં વ્યવસ્થાપિત કરી દીધાં પછી તેની પાસે જ અન્ય પદાર્થોને પૂર્વાનુપૂવના કમથી જે શખવામાં સ્થાપિત કરવામાં આવે છે તેનું નામ ઉપનિધિ છે. ” આ ઉપનિધિ જે અપૂવીનું પ્રજન છે તે આનુપૂવીને ઔપનિધિમકી આનુપૂર્વી કહે છે તેમાં સામાયિક
આ જ અધ્યયનેને પૂર્વાનુપૂવથી નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે. તેમને આ નિપ જ ઉપનિધિ રૂપ છે. ઓપનિપિકી આનુપૂર્વમાં આ ઉપનિધિ જ પ્રજાનત હોય છે. અપવિષયવાળી હવાને કારણે તેને અહીં વ્યાખ્યાત કરવા એગ્ય નહીં કહેવાનું તાત્પર્ય એવું નથી કે આ સત્રમાં સૂત્રકાર
For Private and Personal Use Only
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र:७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम्
२९९ द्रव्यानुपूर्वी सा द्विविधा प्राप्ता । 'अनौपनिधिकी' इत्यस्यायमर्थः अनुपनिधिःवक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्णादिक्रमेण अनिक्षेपः-अव्यवस्थापन, स प्रयोजनं यस्याः सा अनौपनिधिका । पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण व्यवस्थापनं न क्रियते सा व्यादि परमाणुनिष्पन्नस्कन्धविषया आनुपूर्वी अनौपनिधिकीत्युच्यते इति भावः।
औपनिधिकी आनुपूर्वी के पहिले यहीं विवेचन कर रहे हैं ! उसका कारण यह है कि उस आनुपूर्वी के विषय में वक्तव्यता बहुत है। (तस्थ ण जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा) इन औपनिधिको अनौपनिधिकी आनुपूर्वी में जो यह दूसरी अनोपनिधिकी आनुपूर्वी है वह दो प्रकार की है। (तंजहा) जैसे (नेगमववहाराण संगहस्सय) एक नैगम व्यवहार नय संमत और दूसरी संग्रह नय संमत । " अनौपनिधिकी" इसका अर्थ इस प्रकार से है कि वक्ष्यमाण पूर्वानुपूर्वी क्रम से जहां पदार्थों की स्थापना नहीं होती है-उसका नाम अनुपनिधि है यह अनुपनिधि जिस आनुपूर्वी का विषय है उसका नाम अनोपनिधिकी आनुपूर्वी है। जिस आनुपूर्वी में पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से पदार्थों की स्थापना व्यवस्था न हो और जो व्यादिपरमाणु से निष्पन्न हुए स्कंध को विषय करती हो ऐसी आनुपूर्वी अनोपनिधिकी आनुपूर्वी है। તેનું નિરૂપણ કરવા માગતા નથી તેઓ અહીં તેનું નિરૂપણ કરવાના નથી પણ આ ગ્રન્થમાં (સૂત્રમાં) જ તેનું નિરૂપણ આગળ કરવામાં આવશે.
અનૌપનિધિક આનુપૂર્વનું અહીં સૂત્રકારે ઔપનિધિની આનુપૂવી પહેલાં જે વિવેચન કર્યું છે તેનું કારણ એ છે કે અનૌપનિધિકી આનુપૂવી विषनी तव्यता घी on aisी छ. (तत्थणं जा सा अणोव णिहिया मा दविहा) मा भन्ने प्रा२नी भानु मामानी रे मनोपनियती माली छ त में प्रारनी ४ी छे. (तंजहा) ते मे । नीय प्रमाणे छ-(नेगमववहाराणं संगहस्स य) (१) नशम भने ०५१२ नय सभत मन (२) સંગ્રહનય સંમત “અનૌપનિધિ કી ” આ પદને અર્થે આ પ્રમાણે થાય છે વસ્થમાણ પૂર્વીપૂર્વીના ઉમે જ્યાં પદાર્થોની સ્થાપના થતી નથી તેનું નામ અનુપનિધિ છે. આ અનુપનિધિ જે આનુપૂર્વીને વિષય છે તે આનુપૂવીનું નામ અનૌપનિધિકી આનુપૂર્વી છે. આનુપૂર્વી માં પૂર્વાનુ પૂવ આદિના ક્રમવક પદાર્થોની સ્થાપના વ્યવસ્થા ન હોય અને જે ત્રણ આદિ પરમાણુશી નિષ્પન્ન થયેલા (ઉત્પન્ન થયેલા) સ્કન્ધને વિષય કરતી હોય (કંધનું પ્રતિપાદન કરતી હોય એવી આનુપૂર્વીનું નામ અનૌપનિધિકી આનુપૂર્વી છે.
For Private and Personal Use Only
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
३००
अनुयोगद्वारसूत्रे
नच स्कन्धविषये ऽनपनिधि कीत्वं नोपपद्यते, यतः कश्चित् स्कन्धस्त्रिमदेशिकः, कचिचतुःप्रदेशिकः कचित् पञ्चमदेशिकः इत्युत्तरोत्तर सर्वे स्कन्धाः क्रमपूर्वकमेव भवन्ति ततश्च पूर्वानुपूर्व्या व्यवस्थापनस्य सद्भावादनौपनिधिकीत्वमेव तत्रास्ति, नवनौषनिधिकीत्वं तत्र संभवतीति चेत्.
1
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अत्रोच्यते तत्र कस्यचित् स्कन्धस्य पूर्वानुपूर्व्यादि क्रमेण व्यवस्थापनं नान्येन केनचित् क्रियते, सर्वेषां स्कन्धानां विस्रसापरिणामपरिणतस्यात् अतः स्कन्धविषयेनौ निधिकीत्वमुपपद्यते । यत्र तु तीर्थेकरादिना पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण वस्तुन
शंका- स्कंध में अनौपनिधि की पना नहीं बनता है। क्योंकि कोई स्कंध तीन प्रदेश वाला होता है, कोई चार प्रदेशवाला होता है, कोई पाँच प्रदेशवाला होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर समस्त स्कंध क्रम पूर्वक ही होते हैं इस प्रकार इनमें पूर्वानुपूर्वी के क्रम से स्थापना की स्था का सद्भाव आने से औपनिधि की पना ही आता है, अनोपनिधिकीपना नहीं ।
उत्तर- स्कंधो में जो त्रिप्रवेशिकता आदि है वह किसी के द्वारा वहाँ की हुई नहीं है- अर्थात् ऐसा नहीं है कि त्रिप्रदेशी स्कंध है उसे किसी ने तीन परमाणु पूर्वानुपूर्वी क्रम से रखकर बनाया हो। उसमें त्रिप्रदेशिकता तो स्वभाव से ही है। क्योंकि जितने भी स्कंध हैं वे सब स्वाभाविक परिणाम से परिणत होते रहते हैं। इसलिये स्कंध में ratपनिधिकीपना ही आता है। जहां पर तीर्थ कर आदिकों द्वारा पूर्वा
શકા-સ્કન્ધમાં અનૌપનિધિકીપણું' સ'ભવી શકતુ' નથી, કારણ કે કેાઈ સ્કંધ ત્રણ પ્રદેશવાળા હાય છે, કૈાઈ ચાર પ્રદેશવાળા હોય છે, કાઈ પાંચ પ્રદેશવાળા હાય છે. આ પ્રકારે ઉત્તરોત્તર સમસ્ત સ્કન્ધ ક્રમપૂર્વક જ હોય છે. તેથી તેમાં પૂર્વાનુપૂર્વીના ક્રમપૂર્વક સ્થાપનાની વ્યવસ્થાને સદ્દભાવ હાવાથી ઔપનિધિકી પણ હેાઈ શકતુ નથી.
ઉત્તર-ધામાં જે ત્રિપ્રદેશિકતા આદિ છે તે કાઇના દ્વારા ત્યાં કરાયેલ નથી એટલે કે એવી કેઈ વાત નથી કે ત્રિપ્રદેશી જે સ્કધ છે તેને કેાઈએ ત્રણ પરમાણુ પૂર્વાનુપૂર્વી ક્રમપૂર્વક રાખીને બનાવ્યેા છે. તેમાં તે સ્વભાવથી જ ત્રિપ્રદેશિકતા હાય છે, કારણ કે જેટલાં સ્કન્ધ છે તે બધાં સ્વાભાવિક પશ્વિમ દ્વારા જ પિરત થતા રહે છે. તેથી સ્કંધમાં અનૌનિધિપણુ ઘટાવી શકાય છે જ્યાં તીર્થંકર આદિકા દ્વારા પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમથી વસ્તુ
of
For Private and Personal Use Only
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम्
susस्थापनं भवति, तत्रोपनिधिकी आनुपूर्वी, यथा-धर्माधर्मादिषद्रव्येषु, सामायिकादि पडध्ययनेषु च ।
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
•
नन्वेवं पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण व्यवस्थापनं यत्र नास्ति तत्रानौपधिकीति स्वीकारे आनुपूर्वोत्वमेव नोपपद्यते, पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमस्येवानुपूर्वी रूपत्वात् पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण व्यवस्थापनस्याभावे आनुपूर्व्या एव नास्ति संभवः ? इति चेत्अत्रोच्यते - यद्यपि स्कन्धगतत्र्यादि परमाणूनां स्कन्धरूपेण विशिष्टौ कपरिणामपरिणतत्वात् तथापि योग्यतामाश्रित्यानुपूर्वीत्व संभवति । तथाहि त्र्यादिपरमाणुनामादिमध्यावसानभावेन नियतक्रमेण व्यवस्थापन योग्यताऽस्तीत्यतस्तां योग्यतामाश्रित्यात्राप्यानुपूर्वी त्वं न विरम्यते ।
"
३०१
नुपूर्वी आदि के क्रम से वस्तुओं की व्यवस्था होती है वहां पर औपनि घिकी आनुपूर्वी होती है। जैसे धर्म अधर्म आदि ६ द्रव्यों में और सामायिक आदि ६ अध्ययनों में है । -
शंका- यदि ऐसा ही स्वीकार किया जावे कि जहां पर पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से व्यवस्थापन नहीं है वहां अनौपनिधिकी आनुपूर्वी है सो इस कथन में ऐसी मान्यता में आनुपूर्वीपना ही नहीं आता है । क्यों कि पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम मेंही आनुपूर्वी रूपता है। जहां पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से व्यवस्थापन का अभाव है वहां आनुपूर्वी का ही संभव नहीं होता है।
उत्तर - यद्यपि स्कंधगत तीन आदि परमाणुओं का नियतक्रम नहीं है क्यों कि वे परमाणुओं स्कंधरूपसे विशिष्टैक परिणाम में परिणत रहा करते हैं। तो भी योग्यता को आश्रित करके उनमें आनुपूर्वीपना એની વ્યવસ્થા થાય છે, ત્યાં ઔપનિષિકી આનુપૂર્વી થાય છે. જેમ કે ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય આદિ ૬ દ્રબ્યામાં અને સામાયિક આદિ ૬ અધ્યયનામાં शा-ले गोवु ४ માની લેવામાં આવે કે જયાં પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમથી વ્યવસ્થાપન નથી પણ અનૌપનિધિકી આનુપૂર્વીના ક્રમથી વ્યવસ્થાપન છે, તેા એ પ્રકારની માન્યતામાં તે આનુપૂર્વીતા જ સંભવી શકતી નથી, કારણ કે પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમમાં જ આનુપૂર્વીરૂપતા છે. જ્યાં પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમપૂર્ણાંક વ્યવસ્થાપનના અભાવ છે, ત્યાં આનુપૂ ીંના સ’ભવ જ હાતા નથી.
For Private and Personal Use Only
ઉત્તર--જો કે સ્કન્ધગત ત્રણુ આદિ પરમાણુઓના નિયતક્રમ હાતા નથી, કારણ કે તે પરમાણુએ કન્ધરૂપે એક વિશિષ્ટ પરિણામમાં પરિણત થયા કરે છે. છતાં પણ ચૈશ્યતાને આશ્રિત કરીને આનુપૂર્વીતા આ પ્રકારે
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे ___ सम्पति अस्या द्वैविध्यमाह-तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः, संग्रहस्य च । नैगमव्यवहारसंमता संग्रहसंमता चेति द्विविधाऽनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्यर्थः । इदमत्र बोध्यम् -ओघनो हि नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरुदैवंभूताः सप्त नया भवन्ति एतेषां हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकरक्षणे नयद्वयेऽन्तर्भावो भवति । 'द्रव्यमेव परमार्थतोऽस्ति न पर्यायाः' इत्यभ्युपगमपरो नयो द्रव्याथिकनयः, 'पर्याया एवं वस्तुतः सन्ति न द्रव्य'-मित्यभ्युपगमपरो नयः पर्यायाथिकनयः । तत्र नयेषु-नैगमसंग्रहव्यवहारा द्रव्याथिकनयाः, ऋजुमूत्रशब्दसममिमाना गया है । और वहां इस प्रकार से-कि-तीन आदि परमाणुओं में आदि मध्य और अवसानभावरूप जो नियतक्रम है उस क्रम से व्यवस्थापनकी योग्यता है। इसलिये उस योग्यता को आश्रित करके उन तीन आदि परमाणुओं में भी आनुपूर्वीपन विरुद्ध नहीं होता। ___ अनोपनिधिकी आनुपूर्वी में जो विविधता कही गई है उसका अभिप्राय यह है कि सामान्य से नय सात हैं, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । इन सातों का द्रव्यार्थिक
और पर्यायार्थिक, इन दो नयो में अन्तर्भाव हो जाता है । द्रव्य ही परमार्थतः-वास्तविक रूप से हैं पर्यायें नहीं-इस प्रकार द्रव्य कोही स्वीकार करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय है । और पर्यायें ही वास्तविक सत् है द्रव्य नहीं इस प्रकार पर्यायों को ही वास्तविक रूप में मानने वाला नय पर्यायार्थिक नय है । नैगम, संग्रह, और व्यवहार ये तीन द्रव्य को ही માનવામાં આવી છે-ત્રણ આદિ પરમાણુઓમાં આદિ, મધ્ય અને અવસાન (અન્ત) ભાવરૂપ જે નિયતક્રમ છે તે ક્રમની અપેક્ષાએ વ્યવસ્થાપનની યોગ્યતા છે. તેથી તે રેગ્યતાની અપેક્ષાએ તે ત્રણ આદિ પરમાણુઓમાં આનુપૂવી. તેને સદૂભાવ માનવામાં કઈ વાંધ રહેતું નથી.
અનૌપનિધિશ્રી અનુપૂવીમાં જે દ્વિવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે–સામાન્ય રીતે તે આ સાત નય છે-નગમ, સંગ્રહ, વ્યવહાર, જુસૂવ, શબ્દ, સમભિરૂઢ અને એવંભૂત તે સાતે નયને भुज्य मे २मा यी ७५ -(१) द्रव्यापि सर (२) पर्यायाथि દ્રવ્ય જ પરમાતઃ (વાસ્તવિક રૂપે) છે-પર્યાયો નથી, આ રીતે દ્રવ્યને જ સ્વીકાર કરનારા નયેને વ્યાર્થિક નય કહે છે.
પર્યાયે જ વારતવિક સત્ છે-દ્રવ્ય વાસ્તવિક સત (વિદ્યમાન વસ્તુ) નથી, આ રીતે પર્યાને જ વાસ્તવિક રૂપે સ્વીકારનારા નયને પર્યાયાર્થિક નય કહેવામાં આવે છે. નગમ નય, સંગ્રહ નય અને વ્યવહાર નય, આ ત્રણે
For Private and Personal Use Only
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०३
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम् हडेवंभूताश्चत्वारः पर्यायाथिकनयाः। तत्र द्रव्यार्थिको हि सामान्यतो द्विविधो भवति-विशुद्धोऽविशुद्धश्च । तत्र नैगमव्यवहाररूपः-अविशुद्धः । संग्रहरूपस्तु विशुद्धः। नैगमव्यवहारौ हि अनन्तपरमाण्वनन्तद्वयणुकाधनेक व्यक्त्यात्मकं कृष्णाधनेकगुणाधारं त्रिकालविषयं वा अविशुद्धं द्रव्यं विषयीकुरुतः, इति हेतोरनयोरविशुद्धत्वम् । संग्रहश्च परमायादिकं परमाण्वादि साम्यादेकं तिरोभूतगुणकलापमविद्यमानपूर्वापरविभागं नित्यं सामान्यमेव द्रव्यं विषयीकुरुते । सामान्यं च-अनेकत्वादि दोष. वर्जितत्वात् शुद्धम् । ततश्च सामान्यरूपशुद्धद्रव्याभ्युपगमपरत्वाइयं संग्रहनयः शुद्धः। विषय करने वाले होने से द्रव्यार्थिक नय हैं । ऋजु सूत्र, शब्द, समभिः रूढ और एवंभूत ये चार नय पर्यायों को ही विषय करने वाले होने से पर्यायाथिक नय हैं । सामान्य से द्रव्यार्थिक नय दो प्रकार का होता है एक विशुद्ध और दूसरा अविशुद्ध । नैगम और व्यवहार ये दो नय अविशुद्ध हैं। संग्रह नय विशुद्ध है। नैगम और व्यवहार ये दो नय अनन्त परमाणु, अनन्त व्यणुक आदि अनेक व्यक्तिस्वरूप, और कृष्ण
आदि अनेक गुणों के आधारभूत अथवा त्रिकालवर्ती ऐसे अविरुद्ध द्रव्य को विषय करते हैं। इसलिये ये अविशुद्ध हैं। तथा संग्रह नय जातिको अपेक्षा से परमाणु आदि एक सामान्य रूप द्रव्य को ही विषय करता है उसकी दृष्टि में अनेक भिन्न २ परमाणु भी परमाणु आदि रूप से समानता वाले होने के कारण एक हैं । गुण समूह पर उसकी ન દ્રવ્યનું જ પ્રતિપાદન કરનારા હેવાથી દ્રવ્યાર્થિક નયમાં તેમને સમાવી લેવામાં આવ્યા છે જુસૂત્રનય, શબ્દનય, સમધિરૂઢ નય અને એવભૂત નય, આ ચારે નયે પર્યાનું જ પ્રતિપાદન કરનારા હેવાથી તેમને પર્યાયાર્થિક નયમાં સમાવી શકાય છે. સામાન્ય રૂપે દ્રવ્યાર્થિક નય બે પ્રકારે છે-(૧) વિશુદ્ધ અને (૨) અવિશુદ્ધ નિગમ અને વ્યવહાર, આ બને નય અવિશુદ્ધ છે અને સંગ્રહનય વિશુદ્ધ છે. નિગમ અને વ્યવહાર નય અનંત પરમાણુ, અનંતદ્વયણુક આદિ અનેક વ્યક્તિ સ્વરૂપ (વસ્તુસ્વરૂ૫) અને કૃષ્ણ આદિ અનેક ગુણેના આધારભૂત અથવા ત્રિકાલવતી એવા અવિશુદ્ધ દ્રવ્યને વિષય કરે છે (પ્રતિપાદન કરે છે, તેથી તે બને નયને અવિશુદ્ધ કહ્યા છે. સંગ્રહનયને વિશદ્ધ કહેવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે સંગ્રહનય જાતિની અપેક્ષાએ પરમારુ આદિ એક સામાન્ય રૂપ દ્રવ્યને જ વિષય કરે છે તે નયની માન્યતા અનુસાર તે અનેક ભિન્ન ભિન્ન પરમાણુ પણ પરમાણુ આદિ રૂપ સમાન નતાવાળા હેવાને લીધે એક જ છે. ગુણસમૂહ તરફ તેની દૃષ્ટિ જતી નથી,
For Private and Personal Use Only
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०४
___ अनुयोगद्वारसूत्र अत्र च द्रव्यानुपाः प्रक्रान्तत्वात् द्रव्यार्थिकमतेनैव तस्याः शुद्धाऽशुद्धस्वरूप दर्शयिष्यते, न तु पर्यायाथिकम तेन, पर्यायविचारस्यापक्रान्तत्वादिति ॥सू०७३॥ सम्पति नैगमव्यवहारसम्मतामनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी दर्शयति
मूलम्-ले किं तं नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दवाणुपुवी ? नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दवाणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-अपयपरूवणया१, भंगसमुक्त्तिणया२, भंगो. वदंसणया३, समोयारे४, अणुगमे५ ॥सू०७४॥ दृष्टि नहीं जाती है। क्योंकि गुण भी एक प्रकार की पर्याय है। और यह वस्तु की सहभावी पर्याय है द्रव्यगत पूर्वापरविभाग को भी यह नहीं मानता है। अतः इन सवधातों को गौण करके वह नय सिर्फ एक नित्य सामान्य धर्मात्मक विशुद्ध द्रव्य को ही विषय करनेवाला होने से विशुद्ध माना गया है। क्योंकि इस नय का विषय अनेकत्वआदि नहीं है । सामान्य रूप द्रव्यत्व में अनेकत्वादि तो उसकी दृष्टि में दक्षण है। अतः अनेकत्वआदि दोषों से वर्जित सामान्यरूप शुद्ध द्रव्य को विषय करने के कारण यह नय विशुद्ध है। यहां पर द्रव्यानुपूर्वी का प्रकरण चल रहा है इसलिये द्रव्याधिकनय के मत से ही उस द्रव्यानुपूर्वी का शुद्ध अशुद्ध स्वरूप सूत्रकार दिखलावेंगे पर्यायार्थिकनय के मत से नहीं । ।मु०७३॥ કારણ કે ગુણ પણ એક પ્રકારની પર્યાય જ છે. દ્રવ્યગત પૂર્વાપર વિભાગને પણ તે માનતું નથી તેથી આ બધી બાબતને ગૌણરૂપ ગણીને તે નય માત્ર નિત્ય સામાન્ય ધર્માત્મક વિશુદ્ધ દ્રવ્યનું જ પ્રતિપાદન કરનારે હેવાથી તેને વિશુદ્ધન્ય માનવામાં આવ્યો છે, કારણ કે આ નયનો વિષય અનેકત્વ આદિ નથી સામાન્યરૂપ દ્રવ્યત્વમાં અનેકત્વ આદિ તે તે નયની માન્યતા પ્રમાણે દૂષણરૂપ છે. તેથી અનેકવ આદિ દોષથી વિહીન સામાન્યરૂપ શુદ્ધ દ્રવ્ય પ્રતિપાદન કરનાર હોવાને કારણે સંગ્રહનયને વિશુદ્ધ નય કહેવામાં આવ્યા છે અહીં દ્રવ્યાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી સૂત્રકાર અહીં દ્રવ્યાર્થિક નયની માન્યતા અનુસાર જ દ્રવ્યાનુપૂવીના શુદ્ધ અશુદ્ધ સ્વરૂપનું નિરૂપણ ક–પર્યાયાર્થિક નયના મત અનુસાર અહીં તેનું નિરૂપણ १२ नही ।।सू०७३॥
For Private and Personal Use Only
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७४ अनौपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वीनिरूपणम् ३०५.
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ? नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पश्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा अर्थपदमरूपः णता१, भङ्गसमुत्कीर्तनता२, भङ्गोपदर्शनता३, समवतारा४, अनुगम: ॥सू०७४॥
टीका-' से किं तं' इत्यादि
अथ का सा नैगमन्यवहारसम्मता अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाह-'नैगमववहाराणं' इत्यादि। नैगमव्यवहारयोरनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पश्चविधा प्राप्ता । तद् यथा-अर्थपदमरूपणता-अर्थ:-ज्यणुकस्कन्धादिरूपस्तयुक्तं तद्विषयं वा पदम् आनुपूर्व्यादिकम्-अर्थपदम् , तस्य प्ररूपणं कथनं
अब सूत्र का नैगम-व्यवहार नय संमत अनौपनिधिकी द्रव्यानुनुपूर्वी को प्रकट करते हैं-से किं तं इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्वी ?) हे भदन्त ! नैगम और व्यवहार इन दो नयों को संमत जो अनौपनि. घिकी द्रव्यानुपूर्वी है उसका क्या स्वरूप है ?
उत्तरः-(नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुषी पंचविहा पण्णता) नैगम व्यवहारनय संमत अनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पांच प्रकारकी कही हुई है । (तंजहा) वे प्रकार ये हैं-(अट्ठ पयपरूवणया, भंगसमुचित्तणया, भंगोवदंसणया, समोयारे अणुगमे) अर्थपदप्ररूपणता१, भंगसमुत्कीर्तनतार, भंगोपदर्शनता३, समवतार४, और अनुगम५, । अर्थपदप्ररूपणता-पणुकस्कंध आदिरूप अर्थ से युक्त अथवा-पणुकस्कंध तीन परमाणुवाला स्कंध आदिरूप अर्थ को विषय करनेवाला जो पद है
હવે સૂત્રકાર નિગમ અને વ્યવહારનય સંમત અનૌપનિધિકી દ્રવ્યાન पूवीj १३५ ५४८ ४२ छ-" से किं त" त्याह
साथ-(से कि त नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्वी) શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવાન! ગમ અને વ્યવહાર, આ બે નયને સંમત જે અનૌપનિધિ કી દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
त्तर-(नेगमववहाराण भणोवणिहिया दवाणुपुव्वी पंचविहा पण्या ता) નગમ અને વ્યવહારનય સંમત અનોપનિધિ કી દ્રવ્યાનુપૂવી પાંચ પ્રકારની
ही छ. (तंजहा) ते रे। नीचे प्रमाणे छे-(अटुपयपरूवणया, भंग समुक्तितणया, भंगोवदसणया, समोयारे अणुगमे) (१) अ५४ ५३५५।(२) सी. सभुडीतनता, (3) गायनता, (४) सभवता२ मन (५) अनुगम અર્થપપ્રરૂપણતા-વ્યગ્રુક (ત્રણ પરમાણવાળા) સ્કન્ધ આદિ રૂપ અર્થથી યુક્ત અથવા આયુકચ્છન્ય આદિરૂપ અર્થને વિષય કરવાવાળું જે પદ છે તેનું નામ
म० ३१
For Private and Personal Use Only
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०६
अनुयोगद्वारसूत्रे तदेव, अर्थपदप्ररूपणता। भानुपूयादिका संज्ञा, तद्वाच्यस्यणुकादिरथः संज्ञी। संज्ञासंशिसम्बन्धकथनमात्रं प्रथमं कर्तव्यमिति भावः। इति प्रथमो भेदः १। अत्र स्वार्थे तलू पत्ययो बोध्यः। तथा-भङ्गसमुत्कीर्तनता-भज्यन्ते विकल्प्यन्ते इति भङ्गाः तेषामेव आनुपूर्यादिपदानां समुदितानां वक्ष्यमाणन्यायेन संभविनो विकल्पाः, तेषां समुत्कीर्तनं समुच्चारेणं, तदेव, भङ्गसमुत्कीर्तनता, आनुपूयादिपदनिष्पन्नानां प्रत्येकभङ्गानां द्वयादिसंयोगभङ्गानां च समुच्चारणमित्यर्थः। इति द्वितीय भेदः २। तथा-भङ्गोपदर्शनता-तेषामेव सूत्रमात्रतयाऽनन्तरसमुत्की. नितानां भङ्गानां प्रत्येकं साभिधेयेन व्यणुकाद्यर्थेन सह उपदर्शनम्-भङ्गोपदर्शनं, तदेव भङ्गोपदर्शनता । इति तृतीयोमे ३। उसका नाम अर्थपद है। इस अर्थपद की प्ररूपणा करना यही अर्थपद प्ररूपणता है। आनुपूर्वी आदि यह संज्ञा है-नाम है। इन नाम का वाच्यार्थ जो व्यणुक आदि है वह संज्ञी है। संज्ञा संज्ञी के संबन्धका कथन मात्र सब से प्रथम करना यही अर्थपद प्ररूपणता है। तथा-भंग समुत्कीर्तनता-जो भेदरूप हो उसका नाम भंग है। समुदित उन्हीं आनुपूर्वी आदि पदों के संभवित विकल्पों-भेदों-का अच्छी प्रकार से उच्चारण करना अर्थात् आनुपूर्वी आदि के पदों से निष्पन्न हुए प्रत्येक भंगों का और संयोगज दो आदि भंगों का बोलना यही भंग समुत्कोतनता है। भंगोपदर्शनता-सूत्र मात्र होने के कारण अनन्तरूप से उच्चरित हुए उन्ही-भंगों में से प्रत्येक भंग का अपने अभिधेयरूप कथन ज्यणुकादि अर्थ के साथ जो उपदर्शन-घोलना है-वही भंगोपदर्शनता है। અર્થપદ છે. આ અર્થપદની પ્રરૂપણ કરવી તેનું નામ જ “અર્થપદ પ્રરૂપ થતા” છે. આનુપવી આદિ આ સંજ્ઞા (નામ) છે. આ નામને જે આિથક આઠ વાગ્યાર્થ છે સંશી છે. સંજ્ઞા સંજ્ઞીના સંબંધનું કથન જ સૌથી પહેલાં કરવું એજ અર્થપદપ્રરૂપણુતા છે.
ભંગસમુત્કીર્તનતા-જે ભેદ રૂપ હોય તેનું નામ ભંગ છે. રામુદિત એજ આનુપૂવ આદિ પદેના સંભવિત ભેદેનું (વિકપનું) સારી રીતે ઉચ્ચારણ કરવું એટલે કે આનુપૂર્વી આદિના પદે વડે નિપન્ન (ઉત્પન્ન) થયેલા પ્રત્યેક ભાગોનું અને સગજનિત છે આ િસંગોનું કથ કરવું તેનું નામ જ ભંગસમુત્કીર્તનતા છે.
ભંગેપદર્શનતા-સૂત્રમાત્ર હેવાને કારણે અનન્તરરૂપે ઉચ્ચરિત થયેલા એજ ભંગોમાંથી પ્રત્યેક ભંગનું પિતાના અભિય રૂપ ત્રિઅચુક આદિ અર્થની સાથે જે ઉપદર્શન (ઉચ્ચારણ) કરવું તેનું નામ જ ભેગેપદનતા છે,
For Private and Personal Use Only
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र ७४ अपोपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वी निरूपणम् ३०७
ननु मङ्गसमुत्कीर्तनभोपदर्शनयोः को भेदः ? इति चेत् उच्यते-भङ्गसाकीर्तने भङ्गविषयकं सूत्रमेवोच्चारणीयम् । भङ्गोपदशेने तु तदेव स्वविषयभूतेना. र्थेन सहोच्चारयितव्यमिति। तथा-समवतारः तेषामेवानुपूर्त्यादि द्रव्याणा स्वस्थानपरस्थानान्तर्भावचिन्तनप्रकारः । इति चतुर्थों भेदः ४। तथा अनुगमःअनुगमनम् , अनुगमा नेषामेवानुपूर्व्यादिद्रव्याणां सत्पदप्ररूपणादिभिरनुयोगद्वारैविचारणम् । इति पञ्चमोभेदः ५। एभिः पञ्चभिप्रकारे नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिक्याः द्रव्यानुपूर्व्याः स्वख्यं निरूप्यत इति भावः ॥०७४॥
तत्र प्रथमं भेदमाह
मूलम्-से किं तं नेगमववहाराणं अट्रपयपरूवणया ? नेगमववहाराणं अपयपरूवणया-तिपएसिए आणुपुवी, चउप्पएसिए आणुपुवी जाव दसपएसिए आणुपुत्री, संखेजपएसिए
शंकाः-भंगसमुत्कीर्तन और भगोपदर्शन इन दोनों में क्या भेद है ? भंगसमुत्कीर्तन में भंग विषयक सूत्र का ही केवल उच्चारण करना होता है और भंगोपदर्शन में वही सूत्र अपने विषयभूत अर्थ के साथ घोला जाता है। उन्हीं आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का स्वस्थान और परस्थान में अन्तर्भाव होने के विचारों का जो प्रकार है उसका नाम समवतार है। उन्हीं आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का जो सत्पदकी प्ररूपणा आदि वाले अनुयोगद्वारों से विचार करना होता है वह अनुगम है। इन पांच प्रकारों से नैगमव्यवहार नय के मत से मान्य अनौगनिधिको द्रव्यानु. पूर्वी का स्वरूप निरूपित होता है। ।सू०७४॥
શંકા-ભગ સમુત્કીર્તન અને ભોપદર્શન વચ્ચે શું ભેદ છે?
ઉત્તર-ભંગ સમુકીર્તનમાં સંગવિષયક સૂત્રનું જ કેવળ ઉચ્ચારણ કરવાનું હોય છે. પરંતુ ભગદર્શનમાં એજ સૂત્ર પિતાના વિષયભૂત અર્થની साथै प्यारित थाय छे.
સમવતાર-એજ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યને સ્વસ્થાન અને પરસ્થાનમાં અન્તર્ભાવ થવાના વિચારોને જે પ્રકાર છે તેનું નામ “સમવતાર છે.
અનુગમ-એજ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યો જેને સત્પદની પ્રરૂપણા આદિવાળા અનુગ દ્વારથી વિચાર કરાય છે તેનું નામ અનુગમ છે.
આ પાંચ પ્રકારે નૈગમ અને વ્યવહાર નયના મતસંમત અનોપનિષિક દ્રવ્યાનુપૂવીનું સ્વરૂપ નિરૂપિત થાય છે, સૂ૦૭૪
For Private and Personal Use Only
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३०८
अनुयोगद्वारसूत्रे आणुपुवी, असंखिजपएसिए आणुपुत्री, अणंतपएसिए आणुपुवी, परमाणुपोग्गले अणाणुपुत्री, दुपएसिए अवत्तवए, तिपएसिया आणुपुवीओ जाव अणंतपएसियाओ आणुपुबीओ, परमाणुपोग्गला अणाणुपुत्वीओ, दुपएसियाई अवत्तवयाई। से तं गमववहाराणं अटुपयपरूवणया ॥सू०७९॥
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अष्टपदप्ररूपणता ? नैगमव्यवहारयोः अष्टपदप्ररूपणता-त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी, चतुष्पदेशिक आनुपूर्वी, यावद् दशमदेशिक आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, असंख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, अनन्तमदेशिक आनुपूर्वी, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी, द्विपदेशिकः अबक्तव्यकः। त्रिप्रदेशिका आनुपूव्र्यों यावत् अनन्तप्रदेशिका आनुपूर्व्यः । परमाणुपुद्गलाः अनानुपूर्व्यः। द्विपदेशिकादीनि अवक्तव्यकानि । सैषा नैगमव्यवहारयो अर्थपदप्ररूपणामू०७५॥
टीका-शिष्य : पृच्छति-अथ का सा नैगमव्यवहारसम्रता अर्थपदप्ररूपणतारूपाऽऽनुपूर्वी ? इति। उत्तरमाइ-नैगमव्यवहारसम्मताऽर्थादमरूपणतारूपाऽऽनुपूर्वी एवं विज्ञेया, तथाहि-त्रिप्रदेशिक:-त्रयापदेशाः परमाणुलक्षणा विभागा यस्मिन् स त्रिप्रदेशिका प्रदेशत्रयात्मकः स्कन्धः आनुपूर्वी बोध्या । एवं चतुष्पदे.. अब सूत्रकार प्रथम भेदका वर्णन करते हैं
'से किं तं नेगमववहाराणं इत्यादि'। शब्दार्थ:-(से किं तं नेगमयवहाराणं अट्ठपयपरूवणया) हे भदन्त! पूर्वकथित नैगम व्यवहारनयसंमत अर्थपद प्ररूपणतारूप आनुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? ____उत्तरः-(नेगमववहाराणं अठ्ठपयपरूवणया) नैगम व्यवहारनय संमत अर्थपद प्ररूपणतारूप आनुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है (ति. पएसिए आणुपुब्बी, चउप्पएसिए आणुपुब्धी, जाव दसपएसिए आणु
હવે સૂત્રકાર પ્રથમ ભેદનું વર્ણન કરે છે" से कि त नेगमववहाराण'" त्याह
शहाथ-(से कि त नेगमववहाराण अपयपरूपवणया ?) भगवन् ! પૂર્વ કથિત નૈગમવ્યવહાર નિયમિત અર્થ પદ પ્રરૂપણતા રૂપ આનુપૂવીનું ११३५ ३तु छ १ .
उत्तर-(तिपएसिए आणुपुधी, चउप्पएसिए आणुपुप्वी, जाब दसपएसिए
For Private and Personal Use Only
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
% 3D
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७५ अनौपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वी निरूपणम् ३०९ शिकास्कन्धो यावत् दशपदेशिकः आनुपूर्वी बोध्या यावत् संख्यातप्रदेशिक आनु पूर्वी, असंख्यातप्रदेशिकः आनुपूर्वी, अनन्तप्रदेशिकः आनुपूर्वी बोध्या।
परमाणुपुद्गलः एकः परमाणुस्तु अनानुपूर्वी बोध्या । परमाण्वन्तरा-संस्पृष्टत्वात् , द्विपदेशिका परमाणुद्वयविभागवान् स्कन्धस्तु आनुपूर्वितया अनानुपर्वित या वा वक्तुमशक्यः, अतः सोऽवक्तव्यकः । यस्मादेवं तस्मात्-त्रिपदेशिकाः सर्वेऽपि स्कन्धा आनुपूर्णं भवन्ति, यावत् अनन्तमदेशिकाः सर्वेऽपि स्कन्धा आनुपूयॊ भवन्ति । पुष्वी संखेज्ज पएसिए आणुपुच्ची, असंखिजपएसिए आणुपुव्वी, अणंतपएसिए आणुपुव्वी) तीन प्रदेशोंवाला व्यणुक स्कंध आनुपूर्वी है चार प्रदेशोंवाला चतुष्प्रदेशिक स्कंध आनुपूर्वी है। यावत् दश प्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है यावत् संख्यातप्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है, असंख्य प्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है। ऐसा जानना चाहिये। ___ (परमाणुपोग्गले आणाणुपुच्ची, दुपएसिए अवत्तब्बए) परन्तु जो एक परमाणु है वह आनुपूर्वी नहीं है। क्योंकि वह और किसी दूसरे परमाणु से संस्पृष्ट नहीं है। द्विप्रदेशवाला जो स्कंध है वह आनुपूर्वी रूप से और अनानुपूर्वी रूप से वक्तुं अशक्य है इसलिये वह अवक्तव्य है। जब ऐसी बात है तो (तिपएसिया आणुपुव्वीओ जाव अणंतपएसि. याओ आणुपुल्वीओ) तीन प्रदेशवाले समस्तस्कंध आनुपूर्वी हैं-यावत् अनन्त प्रदेशवाले जितने भी स्कंध हैं वे सब आनुपूर्वियां है। (परमाणु आणुपुव्वी, संखेज्जपएसिए आणुपुत्री, असंखिज्जपएसिए आणुपुव्वी, अणंत पएसिए आणुपुव्वी) १५ प्रशावाणे या २४५ भानुभूती छ, या२ प्र. શેવાળ ચતુષ્પદેશિક સ્કધ આનુપૂવી છે, દસ પર્વતના પ્રદેશેવાળે સ્કંધ આનુપૂર્ણ છે, સંખ્યાત પ્રદેશેવાળો સકંધ આનુપૂર્વી છે, અસંખ્યાત પ્રદેશેવાળ સ્કંધ આનુપૂર્વ છે અને અનંત પ્રદેશવાળો સ્કંધ આનુપૂર્વી છે, એમ સમજવું
(परमाणुपोग्गले अणाणुपुव्वी, दुपएसिए अवत्तव्वए) परन्तु २ ३१॥ એક પરમાણુ છે તે આનુપૂર્વી રૂપ નથી, કારણ કે તે કઈ બીજા પરમાણુ વડે સંસ્કૃષ્ટ હેતું નથી બે પ્રદેશવાળો જે સ્કંધ છે તે આનુપૂર્વી રૂપે અને અનાનુપવી” રૂપે વ્યક્ત થ અશક્ય છે તેથી તે અવકતવ્ય છે. જે એવી વાત छ तः (तिपएसिया आणुपुव्वीओ जाव अणंतपएसियाओ आणुपुत्रीओ) ay પ્રદેશોવાળા સમસ્ત ક આનુપવીએ રૂપ છે, અને અનંત પર્યન્તના પ્રદેશેવાળા જેટલા સકંધ છે તેઓ પણ આનુપૂર્વીએ રૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे परमाणुपुद्गलास्तु अनानुपूज्यों भवन्ति । द्विप्रदेशिकानि-द्वयणुकस्कन्धद्रव्याणि आनुपूर्वितयाऽनानुपूर्वितया वा अवक्तव्यकानि भवन्ति । ___ अत्रेदं बोध्यम्-आनुपूर्वी परिपाटीत्युच्यते । सा च यत्रैवादि मध्यान्तलक्षणः सम्पूर्णो गणनानुक्रमोऽस्ति तत्रैवोपपद्यते, नान्यत्र । एवं च यत्र स्कन्ध आदिमध्यो. ऽन्तश्च भवति स स्कन्ध आनुपूर्वीत्युच्यते । आदिश्च यस्मात्परमस्ति पूर्व नास्ति स बोध्यः । मध्यश्च यस्मात् पूर्वमस्ति परमप्यस्ति स बोध्यः। अन्तश्च यस्मात्पूर्वमस्ति पर नास्ति स बोध्यः। एतत्त्रितयं तु त्रिपदेशिकायनन्तप्रेदेशिकान्तेषु पोग्गला अणाणुपुव्वीओ, दुपएसियाइंअवत्तव्ययाई) जो भिन्न २ असंबद्ध अवस्थावाले-पुद्गल परमाणु हैं वे आनुपूर्वियां नहीं हैं । (दुपएसियाई अवत्तव्ययाई) और जो दो प्रदेशवाले पुद्गल स्कंध हैं वे आनुपूर्वी रूप से और अनानुपूर्वी रूप से वक्तव्य नहीं होने के कारण अवक्तव्य हैं। ___ यहां यह समझना चाहिये-कि आनुपूर्वी नाम परिपाटी का है। यह परिपाटीरूप आनुपूर्वी वहीं पर होती है कि जहां पर आदि मध्य
और अन्त रूप गणना का संपूर्ण अनुक्रम होता है । अन्यत्र नहीं होती। इस प्रकार जहां स्कंध में आदि, मध्य और अंत होता है। वह स्कंध आनुपूर्वी ऐसा कहलाता है। जिससे पर है और पूर्व नहीं है वह आदि शब्दकाबाच्यार्थ-पदका अर्थ है । जिससे पूर्व है और पर भी है वह मध्य शब्द का वाच्यार्थ है । और जिससे पूर्व है परन्तु पर नहीं है-वह अन्त
(परमाणुगोग्गला अणाणुपुब्बीओ, दुपएसियाई अक्त्तव्वयाइ) 2 मिन्न ભિન્ન–અસંબદ્ધ અવસ્થાવાળા પુલ પરમાણુઓ છે તેઓ આનુપૂર્વીઓ રૂપ નથી, અને જે બે પ્રદેશેવાળા પુલસ્ક છે તેમને આનુપૂર્વી રૂપ અને અનાનુપૂર રૂપે વ્યક્ત કરી શકાય એવાં ન હોવાથી અવકતવ્ય છે.
અહીં આનુપૂર્વાને અર્થ પરિપાટી સમજે તે પરિપાટી રૂપ આનુપૂવીને ત્યાં જ સદૂભાવ હોય છે કે જ્યાં આદિ, મધ્ય અને અન્ત રૂપ ગણનાનો સંપૂર્ણ અનુક્રમ શકય હોય છે-જ્યાં આ અનુક્રમ સંભવિત હોતો નથી ત્યાં આનુપૂવી પણ સંભવી શકતી નથી આ પ્રકારે જે કંધમાં આદિ, મધ્ય અને અન્ત હોય છે, તે સ્કન્ધને આનુપૂવરૂપ કહી શકાય છે. જેની પ કંઈ ન હોય પણ પછી કંઈક હેય, એ “આદિ' પદને વાચાર્ય છે. જેની પૂર્વે કંઈક હોય અને પછી પણ કંઈક હોય, એ મધ્ય' પદને વાગ્યાર્થ છે. જેની પૂર્વે કઈક હોય પણ પછી કઈ પણ ન હય, એ
For Private and Personal Use Only
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोग चन्द्रिका सूत्र ७५ अनौपनि धिकी द्रव्यानुपूर्वी निरूपणम् ३११ स्वस्ति, अतस्तेषु प्रत्येकं स्कन्धः अनुपूर्वी भवति । परमाणुपुद्गले तु एतस्त्रितयं नास्ति, अतः सोऽनानुपूर्वी बोध्यः । द्विपदेशिकस्तु अवक्तव्यको भत्रति । यद्यपि तत्र परमाणुद्रयस्य सद्भावादन्योऽन्यापेक्षया पूर्वपञ्चाद्भावोऽस्ति, अतस्तत्र पूर्वस्य अनु-अनुपूर्वे तस्य भाव आनुपूर्वी इत्येवंरूपाऽऽनुपूर्वी सुतरां सिध्यति, तथापि मध्याभावात् सम्पूर्णगणनानुक्रमो नास्ति, अतः स आनुपूर्वीत्वेन वक्तुमशक्यः ।
ननु माऽस्तु सम्पूर्णगणनानुक्रमस्तथापि पूर्वपश्वाद्गादरूपाया आनुपूर्व्या विद्यमानत्वादयमानुपूर्वी भवितुमर्हति ? इति चेदुच्यते, यथा मेरुपर्वतादौ कचित्
शब्द का वाच्यार्थ है । ये तीनों आदि मध्य और अन्त त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध से लेकर अनन्त प्रदेशतक के स्कंधों में होते हैं। इसलिये इनमें प्रत्येक स्कंध आनुपूर्वी रूप होता है । परन्तु जो एक परमाणु है उसमें ये तीनों नहीं होते हैं। इसलिये वह आनुपूर्वी नहीं होता है। विप्रदेशिक पुद्गलस्कंध अवक्तव्य होता है। यद्यपि द्विप्रेशिक स्कंध में दो परमाणु संश्लिष्ट रहते हैं इसलिये वहां अन्योन्यापेक्षा से पूर्व पश्चाद्भाव है । अतः पवस्य अनु-पूर्व के पीछे अनुपूर्व है और इस अनुपूर्व का जो भाव है वह आनुपूर्वी है । इत्येवं रूपा आनुपूर्वी सुतरां वहां सिद्ध हो जाती है, तो भी मध्य का अभाव होने से सम्पूर्ण गणनानुक्रम वहां नहीं बनता है। इसलिये वह गणनानुक्रम आनुपूर्वी रूप से वक्तं अशक्य है।
-
'अन्त' पहनो वास्यार्थ हे मात्रा (आदि, मध्य मने मन्तनो) સદ્ભાવ ત્રિપ્રદેશિક આદિ સ્મુધથી લઇને અતત પ્રદેશિક ન્તના સ્કર્ધામાં ઢાય છે. તેથી તે પ્રત્યેક 'ધ આનુપૂર્વી રૂપ હોય છે. પરન્તુ જે એક પરમાણુ
છે તેમાં સ્માદિ, મધ્ય અને અન્ત, આ ત્રણેને અભાવ હોય છે, તેથી એક પરમાણુ આનુપૂર્વી રૂપ હાતુ નથી દ્વિદેશિક કધને આનુપૂર્વી રૂપે અથવા તેા અનાનુપૂર્વી રૂપે વ્યકત કરી શકતા નથી તેથી તેને અવકતવ્ય કહ્યો છે ને કે દ્વિપ્રદેશિક સ્કુલમાં એ પરમાણુ સુશ્લિષ્ટ રહે છે, કારણે તેમાં અન્યન્યની અપેક્ષાએ પૂર્વ પશ્ચાદ્ભાવના (આદિ અને અન્તના) સદૂભાવ હાય છે, પરન્તુ ત્યાં મધ્યને સદ્ભાવ હાતા નથી અનુપૂર્વની व्युत्पत्ति या अभाये थाय छे - " पूर्वस्य अनु अनुपूर्वः પૂર્વેની પાછળનુ એટલે અનુપૂર્વ'' આ અનુપૂર્વના જે ભાવ છે તેનુ' નામ આનુપૂર્વી' છે. આ પ્રકારની આનુપૂર્વી તે અહીં (દ્વિદેશી ધમાં) સરળતાથી સિદ્ધ થઈ જાય છે, છતાં પણ મધ્યના અભાવ હાવાથી ત્યાં સંપૂર્ણ' ગણનાનુક્રમ સ’ભવી શકતા નથી તેથી તે ગણનાનુક્રમ આનુપૂર્વી રૂપેવ્યકત થવા અશકય છે.
79 66
For Private and Personal Use Only
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३१२
अनुयोगद्वारसूत्रे कमपि पदार्थ मध्यत्वेनावधीकृत्य पूर्वादिविभागो लोकैः क्रियते, तथैवाऽत्रापि यदि स्यात्तर्हि स्यादेवम् । नचैवमस्ति । अत्र तु मध्ये कोऽपि नास्ति, यमवधीकृत्याऽसाङ्कर्येण पूर्वपश्चाद्भावः परस्परानपेक्षया संभवेत् । अर्थात्- यत्रायचरमपरमायोमध्येऽन्यः परमाणुर्विद्यते, तत्र-मध्यगतं परमाणुमाश्रित्य यः पूर्वपश्चाद्भावो भवति स एवानुपूर्वी भवति, नान्यः अतोऽयमानुपूर्वीत्वेन वक्तुमशक्यः ।
शंकाः-संपूर्ण गणनाक्रम भले न हो-परन्तु पूर्व पश्चाद्भावरूप आनुपूर्वी के विद्यमान होने से यह विप्रदेशी स्कंध आनुपूर्वी हो सकता है। - उत्तरः-जिस प्रकार मेरु पर्वत आदि में किसी स्थल पर किसी भी पदार्थ को मध्यरूप से मर्यादित करके लोग उससे पूर्व पश्चिमपर का विभाग करते हैं, उसी प्रकार यहां पर भी-द्विप्रदेशिक स्कंध में भी यदि ऐसा होता तो ऐसा हो सकता अर्थात् आनुपूर्वित्व आ सकता। परन्तु ऐसा तो है नहीं। क्योंकि यहां द्विप्रदेशिक स्कंध में मध्य में कोई भी नहीं है कि जिसे मर्यादित करके उस स्कंध में पूर्व पर भाव परस्पर की अनपेक्षा के समग्र भाव से बन जावे । तात्पर्य कहनेका यह है कि जहाँ पर आदि अंतके दो परमाणुओं के बीच में एक तीसरा परमाणु मौजूद रहता है वहां पर मध्य गत परमाणु को अवधिभूत मान कर जो पूर्व पश्चाद्भाव होता है वही आनुपूर्वी होता है। अन्य दूसरा नहीं। इसलिये दिप्रदेशी स्कंध आनुपूर्वी रूप से वक्तुं अशक्य है।
શંકા–સંપૂર્ણ ગણનાનુક્રમ ભલે ન હોય પણ આદિ અને અન્તરૂપપૂર્વપશ્ચાદુમાવ રૂપ આનુપૂર્વી વિદ્યમાન હોવાથી આ દ્વિદેશી આંધ આનુPવી રૂપ સંભવી શકે છે તે તેને આનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં શું વાંધો નડે છે?
ઉત્તર-જે રીતે મેરુ પર્વત આદિ સ્થળની મધ્યમાં આવેલા કોઈ પહાથને મધ્યભાગ રૂપે મર્યાદિત કરીને કે તેના પૂર્વ પશ્ચિમ રૂપ વિભાગ પાડે છે અને મધ્યસ્થ સ્થળની પૂર્વે આવેલા ભાગને પૂર્વના ભાગ રૂપે અને પશ્ચિમે આવેલા સ્થળાને પશ્ચિમના ભાગ રૂપે ઓળખે છે, એજ પ્રમાણે ડિપ્રદેશી સ્કન્દમાં પણ મધ્યભાગને સદૂભાવ હોત એવું થઈ શકત બનત-તેના પૂર્વ-પશ્ચિમરૂપ વિભાગ પડી શકત-અને તે તેમાં આનુપૂર્વીત્વ સંભવી શકત, પરંતુ એવું તે તેમાં શક્ય નથી, કારણ કે દ્વિદેશિક સ્કન્યમાં મધ્યમાં એવું કંઈ પણ નથી કે જેને મર્યાદિત કરીને તે સેકન્ડમાં પૂર્વ પર ભાવ પરસ્પરની અપેક્ષા પૂર્વક સમગ્રરૂપે શક્ય બને આ કથનને ભાવાર્થ એ છે જ્યાં આદિ અને અન્તના બે પરમાણુઓની વચ્ચે એક ત્રીજું પરમાણુ મજૂર હોય છે, ત્યાં મધ્યના પરમાણુને અવધિભૂત (મર્યાદારૂપ) માનીને પૂર્વપશ્ચાદભાવ શકય બને છે અને ત્યારે જ અનુપૂવી સંભવી શકે છે–તે સિવાય આપવીત્વ શક્ય બનતું નથી. તે કારણે દ્વિદેશી સ્કંધને આપવરૂપે વ્યક્ત કરી શકતો નથી,
For Private and Personal Use Only
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७५ अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीनिरूपणम्
३१६:
ननु तर्हि परमाणुपुल बनानुपूर्वीत्वेन कथं नोच्यते ? इति चेदाह - परस्परापेक्षया पूर्वपश्चाद्भावमात्रस्य सद्भावादयमनानुपूर्वीत्वेनापि वक्तुं न शक्यते । इत्थमानुपूर्वीत्वेन अनानुपूर्वीत्वेन च वक्तुमशक्यत्वाद वक्तव्यक एव द्वचणुक स्कन्धः । अनेन चेदमायातं यत् त्रिपदेशिकादौ भादिमध्यान्तभावस्य विद्यमानतयाऽसीकूर्येण पूर्वपचाद्भावस्य सच्चात् त्रिपदेशिकादिः स्कन्ध एवानुपूर्वी, परमाणुपुखनानुपूर्वी, द्वेणुस्त्ववक्तव्यक इति । एवं चात्र संज्ञासंज्ञिसम्बन्धकथनरूपाऽपदरूपणा कृता भवति ।
शंका- जब यह डिप्रदेशिकस्कंध आनुपूर्वीरूप से नहीं कहा जा सकता है तो फिर इसे पुद्गन्द्रपरमाणु की तरह अनानुपूर्वी रूप से क्यों नहीं कह देते हैं ?
उत्तर - परस्पर की अपेक्षा से इसमें पूर्वपश्चाद्भाव मात्र का जब सद्भाव है तो फिर इसे अनानुपूर्वी रूप से भी कैसे कहा जा सकता है?। इस प्रकार आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी रूप से यह द्विप्रदेशिकस्कंध वक्तुं अश क्य होने से अवक्तव्य कोटि में मानलिया गया है। इस कथन से यह बात आई कि त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध में आदि, मध्य और अन्त-भाव की विद्यमानता होने से समग्र रूपमें पूर्वपचाद्भाव मौजुद है। यह त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध ही आनुपूर्वी है। और परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वी है तथा इणुकरकंध अवक्तव्य है । इस प्रकार यहां पर संज्ञासंज्ञि सम्बन्धरूप अर्थ पद की प्ररूपणा हो जाती है।
1
સદ્
શંકા-જો દ્વિપ્રદેશી કંધ આનુપૂર્વી રૂપ કહી શકાતા નથી, તે તેને પુદ્ગલ પરમાણુની જેમ અનાનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં શે। વાંધા છે? ઉત્તર–પરસ્પરની અપેક્ષાએ તેમાં પૂર્વ પશ્ચાદૂભાવ માત્રના જ જો ભાવ છે તે તેને અનાનુપૂર્વી રૂપ પણુ કેવી રીતે કહી શકાય ? આ રીતે શ્રા દ્વિદેશી કધ ભાનુપૂર્વી રૂપ પણ કહી શકાય તેમ નથી અને અનાડુ પૂર્વી રૂપ પણ કહી શકાય તેમ નથી, તે કારણે તેને અવક્તવ્ય કાટિમાં ગુણાવવામાં આવ્યે છે. આ ક્શન દ્વારા એજ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ત્રિશ્ન દેશિક આદિ, સ્કંધમાં આદિ મધ્ય અને અન્ત ભાવની વિદ્યમાનતા હોવાથી તેમાં સમગ્રરૂપે પૂર્વ પશ્ચાદ્ભાવ મેજૂદ છે. તેથી આ ત્રિપ્રદેશિક આદિ કોષ્ટ સાતુપૂર્વી રૂપ છે, અને પરમાણુ પુદ્ગલ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે તથા દ્વિદેશી પ वतव्य टिना हे या अरे यही संज्ञा संज्ञी समध १५ અથ પદ્મની પ્રરૂપણા થઈ જાય છે,
अ० ४०
For Private and Personal Use Only
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ मनुयोगद्वारी _ ननु 'त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी' इत्यायेकवचनमदर्शनेनैव संशासनिसम्बन्ध कथनं सिद्धम् , कथं पुनखिमदेशिका आनुपूर्व्यः इत्यादि बहुवचनान्तनिर्देश: कृतः ? इति चेदुच्यते-आनुपूादि द्रव्याणां प्रति मेदमनन्तव्यक्तिख्यापनार्य नेगमव्यवहारयोरित्यंभूताऽभ्युपगमप्रदर्शनार्थ च बहुवचनान्तत्वेन निर्देशः कत इति नास्ति कश्चिद् दोषः। __ शंका-"त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी" इत्यादि एकवचन के कथन से ही संज्ञा संज्ञी सम्बन्धका कथन जव सिद्ध हो जाता है तब फिर क्यों सूत्रकार ने "त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्यः" तीन इत्यादि बहुवचनान्त पद का निर्देश किया? ___ उत्तर-आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का हरएक भेद अनन्त व्यक्तिरूप है इस बात को ख्यापनकरने के लिये और नैगम एवं व्यवहार नय का ऐसा सिद्धान्त है इस बात को प्रदर्शित करने के लिये बहुवचनका प्रयोग किया है । तात्पर्य कहने का यह है कि "त्रिप्रदेशा आनुपूर्व्यः" ऐसा जो सूत्रकारने कथन किया है उससे वे यह कहना चाहते हैं कि त्रिप्रदेशिक एक द्रव्यरूप एक ही आनुपूर्वी नहीं है किन्तु त्रिप्रदेशिक द्रव्य अनन्त हैं-अतः अनन्त आनुपूर्वियां हैं। इसलिये त्रिप्रदेशिकरूप भिन्न २ अनन्त आनुपूर्वियों की सत्ता सूचित करनेके लिये "त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्यः" ऐसा बहुवचनान्त पद का प्रयोग किया गया है।
શકા– ત્રિપ્રદેશિક ઈત્યાદિ એક વચનના કથન દ્વારા જ સંજ્ઞા સી पर्नु जयन ने सिद्ध य य छ त। सूत्रारे "त्रिप्रदेशिका भानुपूर्वः" વિપ્રદેશિક આનુપૂર્વીએ ઈત્યાદિ બહુવચનાન્ત પને નિશ શા २२ व्या छ ? 1 ઉત્તર-આનુપૂર્વી આદિ ને પ્રત્યક લે અનંત વ્યક્તિરપ (પાથરૂપ) છે,” એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે અને નૌગમ તથા વ્યવહાર નયને એ સિદ્ધાંત છે એ વાતને પ્રદર્શિત કરવા માટે બહાચनना प्रयोग ५५ ४२पामा भाये। छ मायननु तामे " त्रिदेशाः आनुपूय:" I t२नु सूत्रारे २ यन तना बा तसा એ વાત પ્રકટ કરવા માગે છે કે ત્રિપ્રદેશિક એક દ્રવ્યરૂપ એક જ આનુપૂવી નથી પરંતુ ત્રિપ્રદેશિક દ્રવ્ય અનંત હોવાને લીધે અનન્ત આવી છે. તેથી ત્રિાદેશિક રૂપ જુદી જુય અનંત આનુપવાની સત્તા (અસ્તિત્વ) थित ४२वाने मारे "त्रिप्रदेशिका जानुपूर्व्यः" " निशि मानु " એવાં બહુવચનાન્ત પદને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે. એ જ પ્રમાણે ચાર
For Private and Personal Use Only
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोग बन्द्रिका टीका सूत्र ७५ ममोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीनिरूपणम्
ननु अनानुपूर्वीद्रव्यमेकेन परमाणुना निष्पद्यते, अवक्तव्यक द्रव्यं तु परमाणुद्वयेन, आनुपूर्वीद्रव्यं तु जघन्यतोऽपि परमाणुत्रयेण एवं द्रव्यवृद्धया पूर्वानुपूर्वीक्रममाश्रित्य प्रथममनानुपूर्वीद्रव्यं वक्तव्यम्, ततोऽवक्तव्यकद्रव्यम्, ततचानुपूर्वीद्रव्यम् । पश्चानुपूर्वीक्रममाश्रित्य तु प्रथममानुपूर्वी द्रव्यं वक्तव्यम्, ततोऽवक्तव्यकद्रव्यम्, ततचानुपूर्वीद्रव्यम् । अत्र पुनः क्रमद्वयमुल्लङ्घय निर्देशः कथं कृत ? इति चेदुच्यते
इसी प्रकार से चार प्रदेशोंवाला एक स्कंध एक आनुपूर्वी है-इस प्रकार से चार प्रदेशोंवाले स्कंध भी अनन्त हैं अतः वे अनन्तानुपूर्वियां हैं। अन्यत्र भी इसी प्रकार से उद्भावित कर लेना चाहिये ।
शंका- अनानुपूर्वी जो द्रव्य है वह एक परमाणु से निष्पन्न होता है अर्थात् एक परमाणु अनानुपूर्वी है, और अवक्तव्य द्रव्य परमाणुइय के सम्बन्ध से निष्पन्न होता है। अर्थात् संश्लिष्ट परमाणुद्रयस्कंत्र अवक्तव्य है, तथा कम से कम भी आनुपूर्वी द्रव्य परमाणुत्रय से निष्पन्न होता है, अर्थात् परमाणुत्रय के संश्लेष से सब से जघन्य आनुपूर्वी freeन्न होती है इस प्रकार द्रव्य की वृद्धि से पूर्वानुपूर्वी क्रम को लेकर सूत्रकार को चाहिये था कि वे पहिले अनानुपूर्वी द्रव्य का कथन करते, इसके बाद अवक्तव्य द्रव्यका कथन करते और इसके बाद आनुपूर्वी द्रव्य का कथन करते हैं। यदि पश्चानुपूर्वी के क्रम को लेकर उन्हें कथन करना
પ્રદેશાવાળા એક કધ એક આનુપૂર્વી રૂપ છે અને ચાર પ્રદેશેાવાળા જે અનત ધા છે તેએ અનંત આનુપૂર્વી રૂપ છે એજ પ્રમાણે અનંત પ્રદેશી પન્તના સ્પધા વિષે પણ સમજી લેવુ..
શકા-અનાનુપૂર્વા જે દ્રવ્ય છે તે એક પરમાણુમાંથી નિષ્પન્ન થાય છે એટલે કે એક પરમાણુ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે, અને અવકતવ્ય દ્રવ્ય એ પરમાહ્યુના સંબંધથી નિષ્પન્ન થાય છે-એટલે કે સશ્લિષ્ટ પરમાણુ હ્રયસ્ક ધ વ તન્ય છે-એટલે કે દ્વિપ્રદેશી કધ આનુપૂર્વી રૂપ પણ નથી અને અનાનુ પૂર્વી રૂપ પણું નથી આનુપૂર્વીદ્રવ્ય એછામાં ઓછા ત્રણ પરમાણુ વી નિષ્પન્ન થાય છે એટલે કે ત્રણ પરમાણુના સશ્ર્લેષથી જઘન્યમાં જધન્ય રૂપ આનુપૂર્વી નિષ્પન્ન થાય છે. આ રીતે દ્રવ્યની વૃદ્ધિ દ્વારા પૂર્વાનુપૂર્વી મની અપેક્ષાએ સૂત્રકારે પહેલાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઈતું હતું. ત્યાર પછી અવક્તવ્ય દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઇતુ` હતુ` અને ત્યાર બાદ આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું કથન કરવુ. જોઇતુ હતુ. જે પશ્ચાતુપૂર્વીના ક્રમથી ક્રશ્ન કરવુ ડાય
For Private and Personal Use Only
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
HINDIMAR
A
croanmireonan
e sung
___ अनुयोगमारस्ते ___ आनुपूर्वीद्रव्यापेक्षयाऽनानुपूर्वीद्रव्याणि अल्पानि, अनानुपूर्वीद्रव्यापेक्षयाऽ. बक्तव्यकद्रव्याणि अल्पेतराणि, इत्येव' व्यहान्या पूर्वानुपूर्वीक्रमनिर्देश एवात्र वर्तते, इति नास्ति कश्चिदोषः । सम्पति प्रकृतमुपसंहरन्नाह-सैषा नैगमव्यवहारसम्मताऽर्थपदमरूपणतारूपानोपनिधिकी आनुपूर्वी ॥सू०७५॥ थ तो-पहिले आनुपूर्वी द्रव्य का कथन करते बाद में अवक्तव्य द्रव्य का कथन करते और फिर बाद में अनानुपूर्वी द्रव्य का कथन करते। परन्तु उन्होंने इन दोनों क्रमों का उल्लंघन कर निर्देश किया है सो इसका क्या कारण?
उत्तर-सूत्रकार को इस प्रकार के निर्देश से यह बतलाना इष्ट है कि आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य थोडे हैं, और अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्य और भी कम हैं। इस प्रकार दम्य को हानि से सूत्रकारने यहां पूर्वानुपूविक्रम को लेकर उसी का निर्देश वक्तव्यरूप से इष्ट किया है। अतः इस प्रकार निर्देश में कोई दोष नहीं है । (से तं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया) इस प्रकार से नेगम व्यवहारनय संमत यह पूर्वप्रकान्त अर्थ पदप्ररूपणतारूप का अनोपनिधिकी आनुपूर्वी है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा अर्थपद प्ररूपणा का क्या स्वरूप है यह विषय स्पष्ट किया है। व्यणुकस्कंध से लेकर अनन्त प्रदेशपाले તે પહેલાં આનુપૂર્વાદ્રથનું, ત્યાર બાદ અવ્યક્ત દ્રવ્યનું અને ત્યાર બાદ અનાનુપૂર્વ દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઈતું હતું. પરંતુ આ બે ક્રમમાંથી એક પણુ ક્રમને અનુસરવાને બદલે તેમણે પહેલાં આનુપૂવદ્રવ્યનું, ત્યાર બાદ અનાનુપૂવનુ દ્રવ્યનું અને છેલ્લે અવકતવ્ય દ્રવ્યનું કથન કર્યું છે. તે આમ કરવાનું શું કારણ હશે?
ઉત્તર-સૂત્રકાર આ પ્રકારના ક્રમ દ્વારા એ બતાવવા માગે છે આનુપૂ. વિદ્રવ્ય કરતાં અનાનુપૂવી દ્રવ્ય થોડું છે, અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં
વક્તવ્ય. થોડું છે આ રીતે સૂત્રકારે અહીં દ્રવ્યની હાનિનો અપેક્ષાએ પૂર્વાનવીર ક્રમને આધાર લઈને ઉપયુક્ત ક્રમે તે પ્રરૂપણું કરી છે. તેથી આ પ્રકારના નિદેશમાં કોઈ દોષ નથી. . . (से. त' नेगमववहाराणं अटुपयपखवणया ) मा १२नु नराम भने યવહારનય સંમત પૂર્વ પ્રસ્તુત અર્થપદ પ્રરૂપણુતા રૂપ અનૌપયિકી मानुषी नु ११३५ छे.
. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અર્થ પદ પ્રરૂપણાનું કેવું સ્વરૂપ છે તે વિષયને સ્પષ્ટ કર્યા છે. ત્રણ અણુવાળા (ત્રપ્રદેશી) સ્કંધથી લઈને અનંત
.
.
.
For Private and Personal Use Only
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
-
-
h
अनुयोगबन्द्रिका टीका सूत्र ७६ नैगमव्यवहारार्थपदमरूपणा अस्याः प्रयोजनं किम् ? ति दयितुमाह
मूलम्-पसाए गं नेगमडवहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओयणं? एयाए णं नेगमववहाराणं अटुपयपरूवणयाए भंगसमुक्त्तिणया कजई ॥सू८७६॥ जितने भी स्कंध हैं वे सब यहां "अर्थ" शब्द से गृहीत हुए हैं। इस अर्थ से युक्त अथवा इस अर्थ को विषय करनेवाला जो पद है उसका नाम अर्थपद है। इसकी प्ररूपणा का नाम अर्थ पद प्ररूपणा है। इस प्ररूपणा में पुद्गल परमाणु और विप्रदेशी स्कंध वर्जित हो जाते हैं। क्यों कि-एकपुद्गलपरमाणु आनुपूर्वी रूप नहीं है और द्विप्रदेशी स्कंध अवक्तव्य है । सब से जघन्य आनुपूर्वी का प्रारंभ त्रिप्रदेशी स्कंध से होता है। क्योंकि यहीं से क्रम की सम्पूर्ण गणना चलती है । गणना का तात्पर्य गिनती से हैं। आदि मध्य और अंत इस प्रकार से गणना जहां होती है वहीं पर आनुपूर्वी रूप परिपाटी मौजूद रहती है। यह अर्थ पद प्ररूपणारूप आनुपूर्वी नैगमनय और व्यवहारनय इन दोनों नयों को संमत है। ये अर्थ पद प्ररूपणारूप आनुपूर्वियां एक से लेकर अनन्त हैं। इसका कारण यह है कि धिप्रदेशी आदिस्कंध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कंध तक के जितने भी स्कंध हैं वे सब अनन्त हैं। ॥मू० ७५॥ પર્યન્તના પ્રદેશવાળા જેટલા જ છે, તે બધાને લઈને અહીં “અર્થ”: પદેથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ અર્થથી ચુકત અથવા આ અર્થનું પ્રતિપાદન કરનારૂં જે પદ છે તેનું નામ “અર્થપદ છે. તેની પ્રરૂપણાનું નામ “ અર્થે પદ પ્રરૂપણ' છે, આ પ્રરૂપણામાં મુદ્દલ પરમાણુ અને દ્વિપ્રદેશી સ્કંધ વજિત થઈ જાય છે–એટલે કે તેમની પ્રરૂપણ થતી નથી, કારણ કે એક પુદ્ગલ પરમાણુ આનુપૂર્વી રૂપ નથી અને દ્વિપદેશી કપ અવકતવ્ય છે. જઘન્યમાં જઘન્ય આનુપૂરીને પ્રારંભ ત્રિપ્રદેશી સ્કધથી થાય છે, કારણ કે ત્યાંથી જ કમની સંપૂર્ણ ગણના ચાલુ થાય છે. (ગણના એટલે ગણતરી આદિ, મધ્ય અને અન્ત, આ પ્રકારની ગણના જયાં સંભવિત હોય છે, ત્યાં જે આનુપૂર્વી રૂપ પરિપાટી મોજુદ રહે છે. આ અર્થપદ પ્રરૂપણા રૂપ આનपूवी ममनय भने "व्यवहारमय, मान्ने नया द्वारा समत (मान्य) છે. આ અર્થપદ પ્રરૂપણારૂપ આનુપૂર્વીઓ એકથી લઈને અનંત પર્યન્તની છે, કારણ કે વિપ્રદેશથી લઈને અને પ્રદેશ સુધીના જેટલા કેધ છે, તે બધાં અનંત છે. સૂ૦૭૫ “
For Private and Personal Use Only
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
----
-
३१८
अनुयोगद्वारस्त छाया-एतया खलु नेगमव्यवहारयोरर्यपदमरूपणतया किं पोजनम् ? एतया खलु नैगमव्यवहारयोरर्थपदमरूपणतया मासमुत्कीनता क्रियते॥०७६।।
टीका-'एयाए ' इत्यादि
एतया नैगमव्यवहारसम्मतया अर्थपदमरूपणतया कि प्रयोजनम् किं फलम् । इति शिष्यः पृच्छति । अथ-उत्तरयति-एतया नेगमव्यवहारसम्मतयाऽर्थपदपक पणतया भङ्गसमुत्कोर्सनता क्रियते। अयं भाषा-अर्यपदप्ररूपणतायां संज्ञासहित ध्यवहारो निरूपितः । संज्ञासंशिव्यवहारे सत्येव माकाः समुत्कीर्तयितुं शक्यन्ते, मान्यया, संज्ञामन्तरेण निर्विषयाणां भङ्गानां प्ररूपणाया असंभवात् । तस्माद्
इसका प्रयोजन क्या है ? इस बात को सत्रकार अब प्रदर्शित करते हैं-'एयाएणं' इत्यादि। - शब्दार्थ-हे भदन्त ! (एयारणं नेगमयवहाराणं अहुपयपरूवणयाए कि पओयणं) नैगम व्यवहारनय संमत इस अर्थ पद प्ररूपणता रूप आनुपूर्वी से क्या प्रयोजन सघता-निकलता है।
उत्सर-(एयारणं नेगमयवहाराणं अहुपयपरूवणयाए भंगसमु. कित्तणया कज्जा) इस नैगमव्यवहारनय संमत अर्थ पद प्ररूपणतारूप आनुपूर्वी से भंग समुत्कीर्तनता की जाती है। तात्पर्य यह कि पहिले जो यह कहा गया है कि अर्थ पद प्ररूपणता में संज्ञा संजिवहार निहित है । क्यों कि उसी से संज्ञा संज्ञि व्यवहार चलता है। और इस व्यवहार के होने पर ही भंगों का समुस्कीतन (उत्पत्ति) हो सकता है। अन्यथा नहीं हो सकता है। कारण-संज्ञा-नाम-के विना निर्विषय हुए
હવે આ અર્થપદ પ્રરૂપણ રૂપ આનુપૂર્વનું પ્રજન પ્રકટ કરવા मिते सार -" एयाएणं" त्या
हाथ-48-3 सप! (एयाएण नेगमवबहागण अदुपयपलवण. याए कि पओयण १) गम भने यहारनय समता ५६ प्र३५रता ૨૫ આનુપૂવી દ્વારા કયું પ્રયોજન સિદ્ધ થાય છે?
उत्तर-(एयाएणं नेगमववहाराणं अटुपयपरवणयाए भेगसमुक्तिणया કાદ) આ નગમનય અને વ્યવહારનય સંમત અર્થપદ પ્રરૂપતા રૂપ આપવી વડે ભગસમુત્કીર્તનતા કરાય છે આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છેઆ પહેલાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે અર્થપદ પ્રરૂપણુતામાં સંજ્ઞા સંસી વ્યવહાર ચાલે છે, અને તે વ્યવહારને અભાવ હોય તે જ ભગેનું સરકીર્તન (ભંગની ઉત્પતિ) થઈ શકે છે–તેને અભાવ હોય તે થઈ શકતું નથી. કારણ કે સંજ્ઞા (નામ) વિના નિર્વિષય થયેલા અંગે (વિક,
For Private and Personal Use Only
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
gauriefgarrier सूत्र ७३ भङ्गसमुत्कीर्तनतानिरूपणम्
३१९
भकुसमुकीर्त्तनतैव एतस्या नैगमव्यवहारसम्मताया अर्थपदप्ररूपणतायाः फलं बोध्यमिति ॥०७६ ॥
अधानौपनिधिक्या द्वितीय भेदरूपामर्थपदमरूपणतायाः फलभूतां मङ्गसमुत्कीमतां निरूपयति
मूलम् - से किं तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? नेगमववहाराणं भंगसमुसमुक्किन्त्तणया अस्थि आणुपुवी १, अस्थि अणाणुपुव्वीर, अस्थि अवसव्वए३, अस्थि आणुपुव्वीओ४, अस्थि अणाणुपुव्वीओ५, अस्थि अवसव्वयाई ६, । अहवा-अस्थि आणुपुत्री य अणाणुपुब्वी य १| अहवा-अस्थि आणुपुवीय अणाणुपुवीओ अहवा अस्थि आणुपुवीओ य अणाणुपुवीओ वंश अहवा - अस्थि आणुपुर्बाओ य अणाणुपुत्रीओ य४ अहवाअस्थि अणाणुपुव्वी य अवन्तव्वय य । ५॥ अहवा - अस्थि आणुपुवीओ य अवत्तव्वयाइं य ६ अहवा-अस्थि आणुपुव्वीओ य अवतव्वए य ७। अहवा-अस्थि आणुपुवीओ य अवन्तव्वयाई ८ | अहवा - अस्थि जगाणुपुवीय अवन्तव्त्रए य ९ । अहवा अस्थि अणाणूपुव्वी य अवसव्वयाई य १० | अहवा - अस्थि अणाणुपुवीओ य अवसव्व य ११ | अहवा - अथि अणाणु
संगों की प्ररूपणा का होना असंभव है। इसलिये भंग समुत्कीर्तनता ही इस नेगम व्यवहार संमत अर्थपदप्ररूपणता का फल है। ऐसा जनना चाहिये | |सू• ७६ ॥
ભાંગાએ)ની પ્રરૂપણા કરવાનું થાય જ ૠસભવિત ખની જાય છે તેથી ભંગસસુત્કીનતા જ ગા નેગમવ્યવહારનય સમત અર્થ પત્ર પ્રરૂષણતાનું લ
स. २०७१।
For Private and Personal Use Only
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मलयोगद्वारा पुवीओ य अवत्तव्वयाई यं १२॥ अहवा-अस्थि आणुपुत्वी य अणाणुपुत्री य अवत्तव्वए य १। अहवा-अस्थि आणुपुवी य अणाणुपुत्री य अवत्तयाइं य२। अहवा-अस्थि आणुपुवी य अणाणुपुवीओय अवसव्वए य ३। अहवा-अस्थि आणुपुष्वीय अणाणुपुठवीओ य अवत्तव्ययाई य ४। अहवा-अस्थि आणुपुवीओ य अणाणुपुत्वी य अवत्तवए य ५। अहवा-अस्थि आणुपुवीओय अणाणुपुत्री य अवत्तवयाई य ६। अहवा-अस्थि आणुपुच्चीओ य अणाणुषुचीओ व अवक्तवए य-७। अहवा-अस्थि आणुपुवीओ य अणाणुपुबीओय अवसव्वयाई य८ एए अड भंगा। एवं सव्वे वि छन्वीसं भंगा। से तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया।सू०७७॥ . छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोगसमुत्कीर्तनता? नैगमव्यवहारयो. भङ्गसमुत्कीर्त्तनता-अस्ति आनुपूर्वी १, अस्ति अनानुपूर्वी २, अस्ति अवक्तव्यकम् ३, सन्ति आनुपूर्यः४, सन्ति अनानुपूर्व्य:५, सन्ति अबतष्यकानि ।
अथवा-स्तः आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च१, अक्षा सन्ति भानुपूर्वी च अनानु पूर्यधर, अथवा सन्ति आनुपूय॑श्च अनानुपूर्वी च३, अथवा. सन्ति आनुपूर्वीच अनानुपूर्व्यव४, अथवा स्तः आनुपूर्ती च अवक्तव्यकं च ५, मथवा सन्ति आने पूर्फ च भवक्तव्यकानि च६, अथवा सन्ति आनुपूर्यच अवक्तव्यकं १७, अथर सन्ति आनुपूर्व्यश्व अवक्तव्यकानि च८, अथवा स्तः अन्नानुपूर्वी व अक्तव्यकंच अथवा सन्ति अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च १०, अक्षा सम्ति अनानुपूर्य। अबक्तव्यकं च ११, अथवा सन्ति अनानुपर्यश्च अबकव्यकानि च १२। ___ अथवा-सन्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्वीच अवतव्यकं ११,, अथवा की आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि चर, अथवा सन्ति आनुपूर्वी च अनानु पूज्यश्च अवक्तव्यकं च३, अथवा सन्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्यश्च भवक्तव्यकाति च, अथवा सन्ति आनुपूय॑श्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यक च५, अथवा सन्ति आर्नु पूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च६, अथवा सन्ति आनुपूज्यश्च अनानुपया
For Private and Personal Use Only
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७७ भङ्गसमुत्कीर्तनतानिरूपणम् ३२१ बास्तव्यकं च७, अथवा सन्ति आनुपूर्गश्च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च८, एतेष्टौ भङ्गाः । एवं सर्वेऽपि षविंशतिर्भङ्गाः । सैषा नैगमव्यवहारयोर्भमा स्कीनता ॥ सू०७७॥
टीका-से कि तं' इत्यादि
भय का सा नैगमव्यवहारसम्मता भासमुत्कीर्तनता? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-नैगमव्यवहारसम्मता भङ्गसमुत्कीर्तनता एवं विज्ञेया, तद्यथा-अस्ति भानपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकमित्यादि । अस्य सूत्रस्य व्याख्या सश। अत्रदं बोध्यम्-एपचनान्तेन आनुयादिपदत्रयेण त्रयो भडा, बहुवच. __ अब सूत्रकार इमी भंग समुत्कीर्तनता का कि जो अनोपनिधिकी अर्थपद्मरूपणताही फलभूत है निरूपग करते हैं
“से कि तं नेगमवयहाराणं भंग समुक्त्तिणया" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से कितं नेगमववहाराणं भंगममुकित्तणया) हे भदन्त ! नैगम व्यवहारनय संमत ऐसी वह भंगसमुत्कीर्तनता क्या है?
उत्सर-(नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया) नैगम व्यवहारनय संमत वह भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है (अस्थि भाणुपुवी) आनुपूर्वी है (अस्थि अणाणुपुव्वी) अनानुपूर्वी है (अस्थि अब तब्बए) अवक्तव्य है (भस्थि आणुपुत्वीओ) आनुपूर्वियां हैं। (अत्थि भणाणुपुत्वीओ) अनानुपूर्वियां हैं (अस्थि अवत्तव्ययाई) अवक्तव्यको इत्यादि। इस सत्र की व्यख्या स्पष्ट है। यहां इस प्रकार से जानना चाहिये-कि जो ये आनुपूर्वी आदि तीन पद एकवचनान्त हैं एनसे. - હવે સૂત્રકાર અનોપનિષિકી અર્થપદ પ્રરૂપણુતાના જે ફલરૂપ છે એવી ભંગ સમુકતનતાનું નિરૂપણ કરે છે
__“से कि त नेगमववहाराण' भंगसमुक्त्तिणया ?" त्याल- .. . साथ-से किं त' नेगमयवहाराण भंगसमुक्त्तिणया)शन्। -ગમવ્યવહારનય સંમત એવી તે ભંગસમુત્કીનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
त्ति२-(नेगमववहाराण भंगसमुकिरणया) नेगमनय भने व्यहारनप भत समुदतनता मा Rनी (भत्यिमाणुपुव्वी) मानुषी ), (भत्थि अणाणुपुटवी) मानानुभवी, (भत्यि भवत्तव्वए) भात , (अपि आणुपुबीओ) भानुपूवीमा, (अत्यि भणाणुपुत्वीओ) मनानु. वीछे, (अस्थि अवत्तव्वयाई) भने मत०), त्या ३५ गाना Myीतनता (पत्ति) समावी.
આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે. અહીં ભાંગાઓની રચના આ પ્રમાણે સમજવી. આનપૂવ આદિના જે ત્રણ પર એકવચનાન્ત છે તેમના ત્રણ
म० ४१
For Private and Personal Use Only
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२२
अनुयोगद्वारसूत्र नाग्वेन च प्रयो भनाः, इत्येवमसंयोगपक्षे षड् भङ्गा भवन्ति । संयोगपक्षे तु पदअयस्यास्य त्रयो द्विकसंयोगाः। एकैकस्मिंस्तु द्विकसंयोगे एकवचन-बहुवचनाभ्यां चतुर्भयाः सद्भावाद् विष्वपि द्विकयोगेषु द्वादश्च भङ्गाः सम्पयन्ते।१२। विकयोगस्त्वत्र एक एच। तत्र च एकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गा भवन्ति । सर्वेऽप्यमी पडविंशतिः। २६ । भङ्गानां स्थापना चैवम् -
। षड्विंशतिभङ्गानां कोष्ठकमिदम् । असंयोगे भा:६) द्विकसंयोगे प्रथमा चतुभङ्गी | त्रिकसंयोगे भङ्गाः ८ *आनुपूर्वी १ | आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी १ |आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवतव्यका १ 'अनानुपूर्वी२ | आनुपूर्वी-अनानुद्यः२ |आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यकाः२
अवक्तव्यकः३/ आनुपूर्व्यः-अनानुपूर्वी ३ । आनुपूर्वी-अनानुपूर्व्यः-अवक्तव्यकः३ तीन भंग बनते हैं और जो आनुपूर्वी आदि तीन पद बहुवचनान्त हैं उनसे भी ३ भंग बनते हैं। इस प्रकार असंयोग पक्षमें ये छह ६ भंग हो जाते हैं ६ । और संयोग पक्ष में इन तीन पदों के दिसंयोगी भंग ३ होते हैं । इन में एक एक भंग में दो दो का संयोग होने पर एकवचन
और बहुवचन को लेकर चार २ भंग हो जाते हैं इस प्रकार तीन भंग के द्विक संयोगी भंग चार २ होने से ये १२ भंग बन जाते हैं। तथा त्रिक संयोग में एक वचन और बहुवचन को लेकर ८ भंग बनते है। इस प्रकार सबभंग मिलकर २६ भंग होते हैं। इन भंगोका क्रम इस प्रकार से है
भानुपूर्वी १, अनानुपूर्वी २, अबक्तव्यक३, ये तीन भंग एक बचनान्त हैं। आनुपूर्षियां १, अनानुपूर्षियार, भौर भनेक भवक्तग्यकर, ये ३ भंग बहुवचनान्त है, ऐसे असंयोगी भंग हुए ६ । दो के संयोग से तीनचतुर्भगियां बनती हैं, उनमें प्रथम चतुर्भगी इस प्रकार से बनती है-भानुपूर्वी अनानुपूर्षी १, भानुपूर्वी अनानुर्षिया २, ભાંગા બને છે અને જે આનુપૂર્વી આદિના ત્રણ પદે બહુવચનાત છે. તેમના પણ ત્રણ ભાંગાએ બને છે. આ રીતે કુલ ૬ અ ગી ભાંગાએ બને છે. આ ત્રણ પાના (આનુપૂર્વી, અનાનપણી અને અવકતવાના) વિસાગી લાંગા ત્રણ થાય છે. પ્રત્યેક ભાંગામાં બબ્બેને સોગ થવાથી એ વચન અને બહુવચનની અપેક્ષાએ પ્રત્યેક પરની સાથે ચાર-ચાર બાંગા બને છે. આ રીતે ત્રણે પની સાથે કુલ ૧૨ ટિકસંગી ભાંગા બને છે. ત્રિપગી १०८ सामने है. भाशते अधा भणी +12+८=२६ min ..
२६ जानी म मा प्रभाले समस्या-(1) भानुवा', (२) અનાનુપવી, () અવક્તવ્યક, આ ત્રણ ભાંગે એવચનાન્ત છે.
(१) मानु५वी की, (२) मनानुभूती (७) भने: Amith, am ત્ર ગગા મહુવચનાન્ત છે. એવી રીતે અસંથાગી : માંના થયા ૬ * एकषचनामयः,
For Private and Personal Use Only
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७७ भासमुत्कीर्तनतानिरूपणम् ३३३ बहुवचनान्ता- | आनुपूष्य :-अनानुपूर्व्यः ४ आनुपूर्वी-अनानुपूर्ण:-अवकम्यकः ४
लयः द्विकसंयोगे द्वितीया चतुर्भणी२ आनुपूज्य :-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यकः ५ आनुपूयः १ | आनुपूर्वी- अवक्तव्यकः१ । |आनुपूष्य:-अनानुपूवी-अवतव्यकाः अनानुपूव्यः२ | आनुपूर्वी- अवक्तव्यकाः२ |आनुपर्यः-अनानुपर्यः-अवकध्यकः७ अवक्तव्यका-३ | आनुपूष्य:- अवक्तध्यका३ आनुपूय॑:-अनानुपूर्व्य:-अबक्तव्यकाः८ असंयोगे षड् । आनुपूष्य:-अवक्तव्यकाः४. |एते त्रिकसंयोगे अष्टौ महाः ८ भनाः६ विकसंयोगे तृतीया चतुभङ्गी३
अनानुपूर्वी-अवक्तव्यकः१ अनानुपूर्वी-अवक्तव्यकाः२ अनानुपय॑: अवक्तव्यका३ अनानुपूर्व्यः-अवक्तव्यकाः४
| पतेहिकसयोगेद्वादशभकाः१२। आनुपूर्षियां अनानुपूर्वी३, आनुपूर्वियां अनानुपूर्षियां४ । वित्तीय चतुर्भगी इस प्रकार से है
आनुपूर्षी, अवक्तव्यक१, एकानुपूर्वी बहु अवक्तव्यकर, भानुपूपि एक अवक्तव्यक,३, आनुपूर्वियां चहुअवक्तव्यक ४ तृतीय चतुर्भगी इस प्रकार से है-अनानुपूर्वी अवक्तव्यक १, अनानुपूर्वी बहु अवक्तव्यक .२, अनानुपूर्षियां एक अवक्तव्यक ३ अनेक आनुपूर्वियां अनेक अवक्त. व्यक ४।इन तीन चतुर्भगियोंको मिलानेसे दिकसंयोगी बारह भंग होते है १२। तीन तीनके संयोग से जो आठभंग बनते है-धे इस प्रकार से है-एक आनुपूर्वी एकअनानुपर्वी एक प्रवक्तव्यक १, एक आनुपूर्वी एक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक २, एक भानुपूर्वी अनेक अनानु. - બે પદેના સાગથી ત્રણ ચતુર્ભગીઓ બને છે, તેમાં પ્રથમ ચતુર્ભાગી मा प्रभाव मानेछ-(१) मानुनी-मनानुयूवी, (२) मानु५वी-मानानुभूतीमा, (3) भानुभू -मनानुषी (४) मानुषी को मनानुषीमा.
બીજી વિકસંગી ચતુગી આ પ્રમાણે ત્રણ ચતુર્ભાગી બને છે. તેમાં मन छ-(१) मानु५॥ -, अपत०५४, (२) मानुषा-Aqxn०11, (3) भानुभूतीमा-४ मत०५:, (४) मानुषी मा म भन्यो ।
श्री तुमी मा प्रमाणे मन छ- (१) मनानुभूती - manव्य, (२) मनानु¥ा - मई अपातव्य। (3) भानुभूपी-3 Azत. વ્યક અને (૪) અનાનુપૂવઓ- અનેક અવકતવ્યકે. આ ત્રણ ચતુગીઓને મેળવવાથી દ્ધિકસોગી બાર ભંગ બને છે. ૧૨ - ત્રણ પદના સાગથી નીચે પ્રમાણે આઠ લાંગા બને -(૧) એક આનુપૂર્વી, એક અનાનુપૂર્વી એક અવક્તવ્યક (૨) એક આનુપૂર્વી, એક અનાનુપૂર્વી, અનેક અવક્તક (૩) એક આપવી, અનેક અનાનુપૂર્વી,
For Private and Personal Use Only
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारसूत्रे . एवमेते पहाविंशतिर्भदा विज्ञेयाः। ननु किमर्थ भङ्ग कसमुत्कीर्तनं क्रियते? इति चेदुन्यते-रहेकांचनान्तबहुवचनान्तरानुपूर्वादिभित्रिभिः पदैरसंयोगपक्षे संयोगपः
मिलिताः परविंशति भाः संगवन्ति । तेषु च मध्ये येन के नचिद् भड्रेन वक्ता पूर्वियां एक अवक्तव्यक ३, एक आनुपूर्वी अनेक अनानुपूर्विया, अनेक अवक्तव्यक ४, अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक ५, अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक ६, अनेक आनु. पूर्विया अनेक अनानुपूर्वियां एक अवक्तव्यक ७, अनेक आनुपूर्वियाँ अनेक अनानुर्वियां अनेक अवक्तव्यक, ८, ऐसे त्रिकसंयोगी आठ भंग होते हैं ८ इस प्रकार ये स्वतन्त्र रूप से बिना संयोग के एक बचन
और बहुवचन, को लेकर ६, तथा इन छहों के दो दो के संयोग से .१२, और तीन २ के संयोग से ८ भंग हो जाते हैं। ऐसे सब मिलकर इल छाईम भंग होते हैं।
शंका- भंगों का समुत्कीर्तन वर्णन किस लिए किया गया है?
उत्तर-यहां पर एकवचनान्त और बहुवचनान्त जो आनुपूर्वी मादि तीन २ पद है कि जिनके असंयोग पक्ष से ६ और संयोग पक्षमें २० इस तरह २६ भंग बन जाते हैं
मे १६७०५४. (४) मे भानुपूर्ता', भने मनानु , मन४ म. કતવ્ય કે (૫) અનેક આનુપૂર્વી એ, એક અનાનુપૂર્વી, એક અવકતવ્યક (6) भने मानुयू मे, मे मनानु, भने सातव्य है।. (७) અનેક આનુપૂર્વીએ, અનેક અનાનુપૂર્વીએ, એક અવકતવ્યક. (૮) અનેક આનુપૂર્વી એ, અનેક અનાનુપૂવઓ, અનેક અવકતવ્યને આ રીતે ત્રિક સગી આઠ ભંગ બને છે. આ રીતે સ્વતંત્ર રૂપે–વિના સંયોગવાળા ૬ ભાંગે એક વચન અને બહુવચનવાળાં પદેથી બને છે. તથા તે છએના વિકાસયોગથી ૧૨ ભાંગા બને છે, અને ત્રણ ત્રણના સંયોગથી ત્રિકસંગી ૮ ભાગ બને છે. આ રીતે કુલ ભાંગા ૬૮૧૨૮૮૨૬ થઈ જાય છે. ___ -alik (Minात) स भुडीत न (उत्पत्ति) २२ मारे ४२१॥मा माल्यु?
ઉત્તર-અહીં જે એકવચનાત અને બહુવચનાન્ત જે આનુપૂર્વી, અનાતુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક, આ ત્રણ ત્રણ પદે છે તેમના અસંયોગ પક્ષે ૬, અને સગપક્ષે (દ્ધિકસોગ અને ત્રિકસંગની અપેક્ષાએ) ૨૦ ભાંગા બને છે. આ રીતે કુલ ૨૬ ભગા બને છે, આ સઘળા ભંગાઓમાંથી વકતા
For Private and Personal Use Only
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७८ भङ्गसमुत्कीर्तनतायाःकारणनिरूपणम् ३२५ द्रव्यं विवक्षते, तेन भङ्गेन वक्ता विवक्षितद्रव्यं वदतु इति हेतो नँगमव्यवहारनयाभ्युसंगमेन सर्वानपि भङ्गान् प्रतिपादयितुं भङ्गसमुत्कीर्तनं कृतमिति। सम्पति मतमुहरन्नाह-सैषा भङ्गसमुत्कीर्तनतेति सू०७॥
अस्याः प्रयोजनं किम् ? इति प्रश्नपूर्वकं कारणं प्रतिपादयितुमाह
मूलम्-एयाए णं नेगमववहाराणं भंगसमुकित्तगयाए किं पयोयणं? एयाए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए भंगोवदंसणया कीरइ ॥सू०७८॥ ___ छाया-एतया खलु नैगमव्यवहारयो भङ्गसमुत्कीर्तनतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु नैगमम्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्चनतया भङ्गोपदर्शनता क्रियते ॥मू०७८॥
टोका-शिष्यः पृच्छति-'एयाए णं' इत्यादि-एतया नैगमव्यवहारसम्मतया भासमुत्कीर्तनतया कि प्रयोजनं-फलं किम् ? इति । उत्तरयति-पतया नैगमव्यव
उनके बीच में वक्ता जिस किसी भंग से द्रव्य की विवक्षा करना चाहता है, वह उस भंग से विवक्षित द्रव्य को कहे इस कारण नैगम और व्यवहारनय संमत समस्त भी भंगों को कहने के लिये सूत्रकार ने इन भंगो का समुत्कीर्तन किया है। (से तं नेगमववहाराणं भंग समुक्कित्तणया) इस प्रकार यह पूर्व प्रक्रान्त नैगम व्यवहारनय संमत भंग समुत्कीर्तनता है। सू०७७॥
इसका क्या प्रयोजन है इस बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं "एयाएणं नेगमववहाराणं भगसमुक्कित्तगयाए किं पयोयणं" इत्यादि।
शब्दार्थ- हे भदन्त ! नैगम व्यहारनय संमत इस भंग समुत्की मता का क्या प्रयोजन है ? જે કંઈ ભાંગા (વિક૫)ની અપેક્ષાએ દ્રવ્યની વિવક્ષા (પ્રતિપાદન) કરવા માગતા હોય, તે ભાંગાની અપેક્ષાએ વિવક્ષિત દ્રવ્યનું પ્રતિપાદન કરે, તે હિતને ધ્યાનમાં લઈને નૈગમ અને વ્યવહારનય સંમત સમસ્ત ભાગાઓનું કથન કરવાને માટે સૂત્રકારે આ ભાંગાઓનું સમુત્કીર્તન (રચના) કર્યું છે. (से त नेगमयवहाराण भंगसमुकित्तणया) AL ARD नाम भने व्यवहाનય સંમત પૂર્વોકત ભંગ સમુત્કીર્તનતાનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૭૭માં
હવે સૂત્રકાર નિગમવ્યવહાર નયસંમત ભંગસમુત્કીર્તનતાનું શું પ્રજન ते ५५ रे छ-"एयाएण नेगमववहाराण भंगसमुक्त्तियाए किं पयायण" त्या
શબ્દાર્થ–પ્રશ્ન-હે ભગવાન્ ! ગમવ્યવહાર નયસંમત આ ભંગસમુત્કીતનતાનું શું પ્રજન છે?
For Private and Personal Use Only
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
____ अनुयोगद्वारसूत्रे हारसम्मतया भङ्गसमुत्कीर्तनतया मङ्गोपदर्शनता क्रियते इति मङ्गोपदर्शनतेव भा. समुत्कीर्तनतायाः प्रयोजनमिति । अयं भावः-भङ्गसमुत्कीर्तनवायां मन मुत्रमुक्तम्, भगोपर्शिनवाया तस्यैव वाच्यं व्यणु कस्कन्धादिकं वक्ष्यते, तच्च भरकमूत्रे समु. कीर्तिते सत्येव वक्तुं शक्यते । वाचककथनमन्तरेण वाच्याथनस्य सर्वथैवाऽसम्भवात् , अतो भङ्गोपदर्शनतैव भङ्ग पमुत्कीर्तनतायाः फलं बोध्यम् । . उत्तर-(एयाए ण नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए भंगोवदंसणया कीरइ) नैगम व्यहारनय संपत इस भंग समुरकीर्तनता से भंगों को दिखाया जाता है उनकी प्ररूपणा की जाती है। इसलिये भंगसमुस्कीर्तनता का भंगो को दिखलाना प्रयोजन है। इसका तात्पर्य यह है भंगो की समुत्कीर्तनता में भंगों को कहने वाला उनको प्ररूणता करने वाला मूत्र कहा गया है और भंगोरदर्शनता में उसी के वाच्य ज्यणुक स्कन्धआदि प्रदर्शित किये जायेंगे कहे-जावेंगे। ___ सो व्यणुक स्कन्ध आदिकों का यह प्रदर्शनरूप कथन जप तक भंगों कोदिखाने वाला सूत्र नहीं कहा जावेगा-तब तक नहीं हो सकता है उसी प्रदर्शक सूत्र के समुत्कीतन होनेपर ही वरवक्तुं शक्य हो सकता है। क्यों कि यह नियम है कि वाचक सूत्र-के कथन के विना याच्यरूप अर्थ का कथन करना सर्वथा अमंभव है। इसलिये भंगोदपर्शनता ही भंगसमुत्कीर्तनता का फल है-ऐसा जानना चाहिये।
6त्तर-(एयाएण नेगमववहाराण भंगसमुक्त्तिणयाए भंगोवदसणया कीरइ) નગમવ્યવહાર નયસંમત આ ભંગસમુત્કીર્તનતા વડે ભેગો (ભાંગાએ) બતાવવામાં આવે છે તેમની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે તેથી ભાંગાને બતાવવાનું જ ભંગસમુત્કીર્તનતાનું પ્રજન છે આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છેભંગની સમુત્કીર્તનતામાં ભંગોને કહેનારા તેમની પ્રરૂપણા કરનારા-ભગોને પ્રકટ કરનારાં સૂત્રે નું કથન કરવામાં આવ્યું છે, અને ભંગાપદર્શનતામાં તેના જ વાચ્ય એવાં ઘણુક (ત્રિપ્રદેશી-ત્રણ અણુવાળા) સકંધ આદિ પ્રદર્શિત કરવામાં આવશે.
જ્યાં સુધી ભગને પ્રકટ કરનારૂં સૂત્ર કહેવામાં ન આવે, ત્યાં સુધી બ્રિઆણક સકંધ અદિકના પ્રદર્શન ૨૫ કથન થઈ શકતું નથી એજ પ્રદર્શક સૂત્રનું સમુત્કીર્તન થતાં જ તે કથન કરવું શકય બને છે, કારણ કે એ નિયમ છે કે વાચક સૂત્રનું કથન કર્યા વિના વાગ્યરૂપ અર્થનું કથન કરવાનું કાર્ય સર્વથા અસંભવિત હોય છે. તેથી ભંગાપદર્શનતા (ભગોને પ્રગટ કરવા તે) જ ભગ સમુકીનતાના ફલસ્વરૂપ છે એમ સમજવું જોઈએ.
For Private and Personal Use Only
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७८ भङ्गसमुत्कीर्तनताया:कारणनिरूपणम् ३२७
ननु मङ्गोपदर्शनतायां वाच्यस्य व्यणुकस्कन्धादे: कथनकाले भानुपादिसूत्रं पुनरप्युत्कीर्तयिष्यते, तत्कथं पुनर्भसमुत्कीर्तनं क्रियते ? इति चेदुच्यतेयथा हि
संहिया प पयं चेव, पयस्थो पयविग्गहो।
चालणा य पसिदीय छविहं विद्धि लक्खणं ॥१॥ छाया-संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदसंग्रहः।
चालना च प्रसिद्धिश्च, पइविधं विद्धि लक्षणम् ॥१॥ इति व्याख्याक्रमे संहिताया ठाण्यानकाले सूत्रसमुच्चारितमपि पदार्थकथनकाले पुनरप्यर्थकथनार्थ तदुच्चार्यते, तद्वदत्राऽपि भङ्गसमुत्कीर्तनतासिद्धस्यैव सूत्रस्य भङ्गोपदर्शनतायां वाच्यवाचकभावमुखप्रविपत्यथै प्रसङ्गतः पुनरपि समुत्कीर्तनं करिष्यते न मुख्यतयेति न कश्चिद् दोष इति ।मु०७८।।
शंका-भगोपदर्शनतामें वाच्य जो व्यणुक स्कन्ध आदि है उनके . कथन काल में आनुपूर्वी-आदि प्रदर्शक सत्र सूत्रकार-फीर कहेंगे-तो फिर यह कथन कैसे संगत हो सकता कि पहिले भंगसमुत्कीर्तन किया जाता है बाद मे भगो पदर्शन ! .
उत्सर-"संहिया य पयं चेव पयत्यो पयविग्गहो, चालणा य पसिद्धी य विहं विदि लक्खणं" इस प्रकार व्याख्यान के समय में सूत्र समुच्चारित होता हुआ भी पदार्थ कथन के अवसर पर उसका पुनः भी अर्थप्रतिपादन के लिये उच्चारण किया जाता है । उसी प्रकार से यहां पर भी भंगसमुत्कीर्तनता से सिद्ध हुए ही सूत्र का भंगोपदशंनता में वाच्यवाचक भाष की सुखपूर्वक प्रतिपत्ति के निमित्त
શંકા-ગેપદનતામાં વાય જે ત્રિઅચુક આદિ અંધ છે તેમના કથનાળે (તેમનું કથન કરતી વખતે) આનુપૂર્વી આદિ પ્રદર્શક સૂત્ર સૂત્રકાર ફરી કહેશે તે આ કથન કેવી રીતે સંગત બની શકશે કે પહેલાં ભંગસમુત્કીર્તન કરાય છે અને ત્યાર બાદ અંગે દર્શન કરાય છે?
उत्तर-“ संहिया व पय व पयत्यो पयविग्गहो । चाळणा य पसिद्धी य कवि विधि लक्षण" मा सूत्रमा Bal प्रभायन। व्याभ्यान म छे. જેમ સંહિતાના વ્યાખ્યાનકાળે સૂત્ર સમુચ્ચારિત થયેલું હોવા છતાં પણ પદાર્થથનને અવસરે અર્થનું પ્રતિપાદન કરવા નિમિત્તે ફરીથી પણ તેને ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે અહી પણ ભંગસમસ્કીનતાથી સિત થયેલા જ ગોપદનતામાં વાયવાચક ભાવની સુખપૂર્વક પ્રતિ
For Private and Personal Use Only
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२८
अनुयोगधारक .. अथ भङ्गोपदर्शनता प्रतिपादयितुमाह
मूलम्-से किं तं नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया? नेगम. ववहाराणं भंगोवदंसणया-तिपएसिए आणुपुत्वीर, परमाणु. पोग्गले अणाणुपुवी २, दुप्पएसिए अवत्तव्वए ३। अहवा तिपसिया आणुपुत्वीओ १, परमाणुपोग्गला अगाणुपुत्वीओर, दुप्पएसिया अवत्तव्वयाइं ३। ___अहवा तिपएसिए१य परमाणुपुग्गलेश्य आणुपुब्बी३य अणाणुपुत्वीय चउभंगो। अहवा-तिप्पएसिए१य दुप्पएसिए य आणुपुठवी य अवत्तवए य चउभंगोदा अहवा परमाणुपोग्गले प्रसंगवश फिर से भी समुत्कीर्तन किया जावेगा मुख्य रूप से नहीं। अतः उस में कोई दोष नहीं है। ____ भावार्थ-भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है यह बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा स्पष्ट की है। वे कह रहे हैं कि भंगसमुत्कीर्तनता का फल भंगोपदर्शनता है । भंगसमुत्कीर्तनता में भंगों का नाम निर्देश किया जाता है। तथा भंग कितने होते हैं, यह प्रकट किया जाता है। भंगोपदर्शनतामें जो भंग कहे गये हैं उनका वाच्यार्थ 'यह है' यह प्रकट किया जाता है। इस प्रकर भंगसमुत्कीर्तनता में कथित भंगों का भंगोप. दर्शनता-भंगों का दिखाने का वाच्यार्थ यह है यह प्रकट किया गया होने से भंगसमुत्कीर्तनता का फल भंगोपदर्शनता है यह बात बन जाती है।मू०७४। પતિ (ગ્રહણ-બેધ) કરાવવાને માટે પ્રસંગવશ ફરીથી પણ સમુત્કીર્તન કરવામાં આવશે-મુખ્ય રૂપે નહીં તેથી તેમાં કોઈ દેષની સંભાવના નથી.
ભાવાર્થભંગસમુત્કીતનતાનું શું પ્રયેાજન છે, એ વાતનું સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારે સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે–તેમણે એ વાત અહીં સમજાવી છે કે ભંગસમુર્તિનતાનું ફલ અંગે પદર્શનતા છે. મંગસમુકીર્તનતામાં ભંગાને વાચ્યાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે મંગસમુત્કીર્તનતામાં જે જે અંગે કહેવામાં આવ્યા છે, તે તે ભંગોને વાચ્યાર્થ પ્રકટ કરવાનું કાર્ય સંગપર્શનતામાં કરવામાં આવે છે તે કારણે ભંગસમુત્કીર્તનતાનું ફલ અંગેપદાશનતા છે, એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. (૭૮
For Private and Personal Use Only
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७९ भङ्गोपदर्शननिरूपणम्
३२९
यदुपए लिए य अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य चउभंगो१२॥ अहवा तिप्पए लिए य परमाणुपोग्गले य दुप्पएसिए य आणुपुव्वी य अणाणुपुवीय अवतव्वए य१ | अहवा तिप्पएसिए य परमाणुपोग्गले य दुप्पएसिया य आणुपुव्वीय अणाणुपुव्त्री य अवत्तव्याई चर | अहवा तिप्पए सिए य परमाणुपुग्गला य दुप्पएसिए य आणुपुत्रीय अणःणुपुत्रीओ य अवत्तत्वए य ३ | अहवा तिप्पएसिए य परमाणुषोग्गला य दुष्पएसिया य आणुपुत्री य अणाणुपुत्रीओ य अवसव्वयाई च४ | अहवा तिप्पएसिया य परमाणुपोग्गले यदुपए लिए य आणुपुवीओ य अणाणुपुवी य अवतए ५ | अहवा तिप्पएसिया य परमाणुपोग्गले य दुप्पएसिया आणुपुत्रीओ य अणाणुपुवीय अवत्तवयाई व ६ । अह्वातिप्पएसिया य परमाणुपोगला यदुपए सिए य आणुपुव्वीओ य अणाणुपुवीओ य अवत्तव्वए य | अहवा-तिप्पएसिया य परमापोग्गला र दुप्पएसिया य आणुपुवीओ य अणाणुपुत्रीओ य अवत्तवयाई घटा से तं नेगमवत्रहाराणं भंगोवदंसणया ।। सू०७९ ॥ - छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता ? नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता - त्रिप्रादेशिक आनुपूर्वी १ परमाणुपुद् गलः अनानुपूर्वी २ द्विपदेशिकः अवक्तव्यम् ३, अथवा त्रिपदेशिका आनुपूर्व्यः परमाणुपुद्गला अनानुपूर्व्यः द्विमदेशिकाः अवक्तव्यकानि ३। अथवा त्रिपदेशिकच परमाणुपुद्गलच आनुपूर्वीच अनानुपूर्वी च४ चत्वारो भङ्गाः, अथवा त्रिप्रदेशिकच द्विपदेशिकच आनुपूर्वीच अवक्तव्यकं च४, चत्वारो भङ्गाः, अथवा परमाणुपुद्गलव, द्विपदेशिकच अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च४ चत्वारो भङ्गाः १२ । अथवा त्रिप्रदेशिकच परमाणुराश्च द्विपदेशिकच आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीश्च य अवक्तव्यकं च १, अथवा त्रिपदेशिकश्च परमाणुपुद्गलश्च द्विपदेशिकाश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्वीच अवक्तव्यका निच२, अथवा त्रिमदेशिकच परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदे
MA 4D
For Private and Personal Use Only
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३३०
अनुयोगशारसूत्र शिकश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्च अक्तव्यकं च 3, अथा त्रिगदेशिकश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदेशिकाच आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्च अपक्तव्यकानि च४, अथवा त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलश्च द्विपदेशिकश्च आनुपूर्वच अमानुपूर्वीच अवक्तव्यकं च, अथग त्रिपदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलश्च हिप्रदेशियाच आनुपूर्व्यश्च अनानु. पूर्वी च अवतव्यकानि च ६। अथवा त्रिपदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदेशिकश्च आनुपूर्यश्च अनानुपूर्व्यश्च अक्तव्यकं च ७, अथवा त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदेशिकाच आनुपूय॑श्च अनानुपूर्यश्च अवक्तव्यकानि च ८ सपा नैगमव्यवहास्योः भगोपदर्शनता ॥०७९।। । ____टीशा-शिष्यः पृच्छति-' से किं तं ' इत्यादि । अथ का सा नेगमव्यवहासम्मता भङ्गोपदर्शनता ? इति। उत्तरयति-नैगमव्याहारसम्मता भङ्गोपदर्शनता एवं विज्ञेया, तथाहि त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी-त्रिप्रदेशिकोऽथ आनुपूर्वीत्युच्यतेत्रिप्रदेशिकस्कन्धलक्षणेनार्थनानुपूर्वीति प्रथमो भाको निष्पयते इत्यर्थः१। पर
अब सूत्रकार उसी भंगोपदशनता का प्रतिपादन करते है“से कि तं नेगमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ- (से किं तं नेगमववहाराण भंगोवदंसणया?) हे भदन्त नैगम व्यवहारनय संमत यह भंगोपदर्शनता क्या है ? (नेगमयवहा. राण भंगोवदसणया)
उत्तर- नैगमव्ययहारनय संमत वह भंगोपदर्शनता इस प्रकार से हैं । (तिप्पएसिए आणुपुत्वी १ परमाणुपुग्गले अणाणुपुथ्वी २, दुप्पएसिये अवत्तव्बए ३) त्रिपदेशिकरकंघरूप पदार्थ आनुपूर्वी इस शब्द का वाच्यार्थ है-अर्थात् तीन प्रदेश वाला पदार्थ आनुपूर्वी इस नाम से कहा जाता है इसलिए त्रिदेशिा स्कंध रूप अर्थ से आनुपूर्वी
હવે સૂત્રકાર એજ ગેપદર્શનતાનું પ્રતિપાદન કરે છે" से किं त नेगमववहाराण" त्याल
साथ-प्रश-(से कि त नेगमववहाराण भंगोदसणया!) मग! નગમ અને વ્યવહાર નયસંમત તે અંગેપદનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-( नेगमववहागण मंगोवदमणया) नाम०५4हा२ नयस मत ते भी५४ नतानु 240 41२- २५३५ छ-(तिप्प एसिए आणुपुव्वी १, परमाणुपुग्गले अणणुपुव्वी २, दुप्पएलिए अवत्तव्यए ३,) हिश ४ ३५ પદાર્થ આનુપૂર્વી શબ્દનો વાર્થ છે. એટલે કે ત્રણ પ્રદેશવાળ રકંધ રૂપ પદાર્થને “આનુપૂર્વ ' આ નામે ઓળખાય છે. તેથી ત્રિપ્રદેશિક સ્કંધ ૨૫ અર્થ (પદાર્થ) વડે “ અનુપૂવી? આ પ્રથમ ભંગ બને છે. પરમાણુ યુદ્દલ
For Private and Personal Use Only
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगच द्रका टीका सूत्र ७९ भङ्गोपदर्शननिरूपणम्
३३१
माणुपुद्गलः अनानुपूर्वी परमाणुपुद्गललक्षणोऽर्थः अनानुपूर्वीत्युच्यते इति द्वितीयो भङ्गः । द्विप्रदेशिकः अवक्तव्यकम् - द्विप्रदेशिक स्कन्धलक्षणोऽर्थोऽवक्तव्यकमुच्यते । इति तृतीयो भङ्गः ३ । एकत्र पनपक्षे त्रयो भङ्गा उक्ताः । एवं बहवखिप्रदेशिकस्कन्धलक्षणा अर्थ आनुपूर्व्यः, बहवः परमाणुपुद्गरूपा अर्थ अनानुपूर्व्यः बहवो द्विप्रदेशिकस्कन्धरूपा अर्थ अवक्तव्यकानि । इति बहुवचनपक्षे त्रयो भङ्गाः ६ । इत्यमसंयोगपक्षे षण्णां भङ्गानार्थकथनं बोध्यम् । एवं संयोगपक्षे प्रथमद्विकयह प्रथम भंग बनता है । परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी अर्थात् परमाणु पुद्गल रूप अर्थ अनानुपूर्वी कहलाता है— इसलिये पुद्गल परमाणु अर्थ से अनानुपूर्वी यह द्वितीय अंग बनता है । द्विप्रदेशिक स्कंध अवक्तव्यक इस शब्द का वाच्यार्थ है-अर्थात् द्विप्रदेशवाला पदार्थ अवक्तव्यक इस नाम से कहा जाता है इसलिये वह अवक्तव्यक कहलाता है । यह तीसराभंग है ये अभंग एक वचन पक्ष मे कहे हैं । ( अहवा तिप्पएसिया आगुपुदीओ १, परमाणुयोगाला अणाणुपुच्ची ओ२, दुष्पएसिया अवसव्वयाई ३) इसी प्रकार बहुत त्रिप्रादेशिक स्कंधरूप पदार्थ आनुपूर्वीयां हैं। बहुत १ परमाणु पुल रूप पदार्थ अनानुपूर्वीयां हैं। बहुत द्विप्रदेशक स्कन्ध रूप पदार्थ बहुत अवक्तव्यक है। इस प्रकार बहुवचन पक्षमें ये ३ तीन भंग हैं । इस प्रकार से असंयोग पक्ष में उक्त ६ भंगो का यह अर्थ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે-એટલે કે પરમ!ણુ પુદ્ગલ રૂપ અર્થ (પદાર્થ) ને અન!નુપૂર્વી કહે છે. તેથી પુદ્ગલપરમાણુ રૂપ પદથી અનાનુપૂર્વી નામના ખીજો ભ`ગ (ભાંગા) અને છે પ્રિદેશિક સ્કધ શબ્દના વાચ્યા છે. (દ્વિપ્રદેશિક સ્ક ંધ આનુપૂર્વી શકતા નથી અને અનાનુપૂર્વી રૂપે પણ વ્યકત થઈ
"L
આ
6 અવકતવ્યક , રૂપ રૂપે પણ કત થઈ શકતા નથી, તે કારણે
તેને અવકતવ્યક કહ્યો છે) એટલે કે દ્વિપ્રદેશિક સ્મુધને “ અવકતવ્યક ,, આ નામે ઓળખવામાં ખાવે છે, તે કારણે ત્રીજા ભ ́ગરૂપ ગણાવ્યા છે. આ ત્રણે ભંગ મનાવવામાં આવ્યા છે.
તેને
ܙܐ
यवतव्यः' આ નામના એકવચનાત પદની અપેક્ષાએ
For Private and Personal Use Only
( अहवा - तिप्पएसिया आणुपुब्बीओ १, परमाणुपोगाला अणाणुपुब्बीओ २. दुपएसिया अवत्तव्वयाइ ३) से प्रभा धा त्रिपदेशिष्ठ सन्ध ३५ पहाथ આનુપૂર્વી એ રૂપ છે, અને ઘણા પરમાણુ પુદ્ગલ રૂપ પદાર્થો અનાનુપૂ વી આ રૂપ છે, અને ઘણા દ્વિદેપ્રશિક સ્કધ પદાર્થો ઘણા અવકતવ્યક રૂપ છે. આ રીતે મહુવચન પક્ષમાં આ ત્રણ ભાંગા બને છે. આ પ્રકારનુ અસંચાગ પક્ષમાં, ભાંગામાનુ' થત સમજવુ' એટલે કે અસ'ચેાગી કુલ ૬ ભાંગા અને
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३३२
-
अनुयोगद्वारसूत्रे संयोगेऽपि त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः परमाणुपुद्गलश्चानुपूय॑नानुपूर्वीत्वेनोच्यते । एत. देव दर्शयति-अथवा त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलश्च आनुपूर्वी व अनानुपूर्वी च चत्वारो भङ्गाः ४ । अयं भावः-यदा त्रिप्रदेशिकस्कन्धः परमाणुपुद्गलश्च पतिपादयितुममीष्टो भवति, तदा 'अत्थि आणुपुवी य अणाणुपुब्बी य' इत्येवं भङ्गो निष्पद्यते । एवमन्येऽपि त्रयो भङ्गा अर्थकथनपुरस्सरा वक्तव्याः । इत्थं प्रथमकथन जनना चाहिये । संयोग पक्षमें-एकवचन और बहुवचन संबन्धी प्रथम और द्वितीय भंग को संयुक्त करने पर त्रिप्रदेशिक- एक स्कंध एक आनुपूर्वी और एक परमाणुपुद्गल एक अनानुपूर्वी का पाच्यार्थ जानना चाहिये । यही बात (अहवा तिप्पसिए य परमाणुपुग्गले य आणुपुव्वी य अणाणुपुत्वी य च उभंगो ) इन पदों छाग स्पष्ट की गई है । यह प्रथम चतुर्भगी का प्रथम भंग है। "आनुपूर्वी अनानुपूर्व्यः" इस द्वितीय भंग में त्रिप्रदेश वाला १, एक स्कंध और एक प्रदेश वाले अनेक पुद्गलपरमाणु वाच्यार्थरूप से विवक्षित हुए हैं। "आनुपूर्व्यः अनानुपूर्वी, इस तृतीय भंग में तीन आदि प्रदेश वाले बहुत स्कंध और १ एक प्रदेशवाला? एक पुद्गलपरमाणु विवक्षित हुआ है। "आनुपूर्व्यः अनानुपूर्व्यः" इस चतुर्थ भंग में अनेक ज्यादि प्रदेश वाले स्कंध और अनेक एक प्रदेश वाले पुद्गल परमाणु वाच्यार्थरूप से विवक्षित हुए हैं। इस प्रकार से यह दो भगों के संयोग से उत्पन्न हुई છે, એમ સમજવું સંગપક્ષમાં એકવચન અને બહુવચન સંબંધી પહેલા અને બીજા ભાંગાને સંયુક્ત કરવાથી ત્રિપદેશિક એક કંધ એક આનુપૂવી રૂપ અને એક પરમ સુપુતૂગલ એક અનાનુપૂર્વાના વાર્થ રૂપ સમજ नये से पात " अहवा तिप्पएसिए य परम णुपुगाले य आणुपुव्वी य अणाणुपुठ्वी य च उभंगो" । सूत्रा द्वा२॥ २५८ ४२६ मावी छ. मा ५७ यतुमान ५ मांगी छ. "आनुपूर्वी अनानुपूर्व्यः " मा मीना ભાંગામાં ત્રિપ્રદેશવાળો એક સ્કંધ અને એક પ્રદેશવાળા અનેક પુદ્ગલપરभा पाच्याथ ३ विवक्षित थय। छे. “ आनुपूर्व्यः अनानुपूर्वी" मा श्रीन ભાંગામાં ત્રણ આદિ પ્રદેશવાળા ઘણા કંધે અને એક પ્રદેશવાળું એક पुर। ५२मा विक्षित येत छ. " आनुपूर्व्यः अमानुपूर्व्यः " मा यथा ભાંગામાં અનેક ત્રિપદેશી આદિ રફ અને અનેક એક પ્રદેશવાળા પુદ્ગલપરમાણુ વાચ્યાર્થ રૂપે વિવક્ષિત થયા છે. આ પ્રકારની બે અંગે (ભાંગાઓના) ના સગથી ઉત્પન્ન થયેલી આ પહેલી ચતુર્ભગી છે. તેમાં
For Private and Personal Use Only
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
RUP
RUP
RUP
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७९ भङ्गोपदर्शननिरूपण द्विकयोगे चत्वारो भङ्गा बोद्धव्याः ४। एवमेव द्वितीयद्विकयोगे तृतीयद्विकयोगेच चत्वारश्वत्वारो भगा विज्ञयाः। एवं द्वादश भङ्गाः१२। चउभंगो' इत्यत्रार्षत्वादेक वचनम् । त्रिकयोगे तु-अथवा त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलश्च द्विप्रदेशिवश्व आनु. पूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं चेत्यादयोऽष्टौ भङ्गा बोध्याः। सर्वेऽपि भङ्गा अर्थकथनपुरस्सरा भावनीयाः। प्रथम चतुर्भगी है । इसमें चार भंगों का वाच्यार्थ प्रकट किया गया है। इसी प्रकार से द्वितीय द्विक के योग में चारभंग और तृतीय द्विक के योग में चार भंग जानना चाहिये। इनके योग में वाच्यार्थ इन भंगों का क्या २ होता है यह बात प्रथम द्विक के योग से जायमान चतुभंगी में स्पष्ट कर दी है तो उसी के अनुसार उन उन भंगों का वाच्यार्थ समझना चाहिये । इस प्रकार १२ भंगों का वाच्यार्थ यहां तक प्रकट किया । "चउभंगों" में जो एकवचन का प्रयोग हुआ है वह आर्ष होने से हुआ है। त्रिक-तीन-के योग में तीन प्रदेश वाला पुद्गलस्कंध "आनुपूर्वी" इस शब्द का वाच्यार्थ एक प्रदेश याला पुद्गल "अणुअनानुपूर्वी" इस शब्द का वाच्यार्थ और दो प्रदेश वाला स्कंध "अव. क्तव्यक" इस शब्द का वाच्यार्थ पडता है इसी प्रकार से द्वितीय तृतीय आदि आठ भंगों में भी भिन्न भिन्न भंगों के वाच्यार्थ जान लेना चाहिये। ચાર ભાંગાઓને વાચ્યાર્થ પ્રકટ કરવામાં આવ્યો છે. એ જ પ્રમાણે બીજા બ્રિકસંગમાં પણ ચાર ભાંગા, અને ત્રીજા ક્રિકસંયોગમાં પણ ચાર ભાંગા સમજવા જોઈએ આ દરેક ભાગાને વાગ્યાથે પહેલી દ્વિસંગી ચતુર્ભ". ગીના ભાંગાનું સ્પષ્ટીકરણ કરતી વખતે સ્પષ્ટ કરવામાં આજે છે. તે તેની મદદથી આ બે ચતુર્ભાગાને વાચ્યાર્થ પણ સમજી લેવો જોઈએ આ રીતે ક્રિકસંગી બાર (૧૨) ભાંગાઓને વાચ્યાર્થ અહીં સુધીમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. - હવે ત્રણના યોગથી જે ભાંગાએ બને છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–પહેલે ભાંગે-ત્રણપ્રદેશવાળે પુદ્ગલરકંધ “આનુપૂર્વા” શબ્દના વાચ્યાર્થ રૂપ, એક પ્રદેશવાળું એક પુદ્ગલપરમાણુ “અનાનુપૂર્વી” શબ્દના વધ્યાર્થ રૂપ અને બે પ્રદેશવાળા સ્કંધ “ અવક્તવ્યક” શબ્દના વાગ્યે થે રૂપ સમજ.
એજ પ્રમાણે બેથી લઈને આઠ પર્યન્તના ભાંગને વાગ્યાથે પણ સમજી લે.
For Private and Personal Use Only
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
ह
अनुयोगद्वारसूत्रे ननु-अनुपूर्वादिपदानां .णु मरकन्धादियोऽर्थः अर्थमः प्ररूपाता रक्षणे प्रथमद्वारे उक्त एव तत्किमनेन पुनरूतन इति३, उदातर पदा मात्रप्लुतम् , इह तु तेषामेवानुसूर्यादिश्दानां भङ्ग करवा समाद नाम: मोच्यते इति नास्ति कश्चिद् दोषः। यद्वा-नयमतचिच्यमदर्शनार्थ या पुनरापदर्शनं कृतमिति नास्ति कश्चिद् दोष इत्पलमधिकोक्या। प्रतरकारमाह -' से तं' इत्यादि । सैमा नैगमव्यवहार सम्मता भङ्गोपदर्शनोति ।।१०७२।। ___ शंका- इन आनुपूर्ण आदि पदों का डणुक आदि रूप बाच्या अर्थ पद प्ररूपमता रूप प्रथम द्वार में कह ही दिया गया है। फिर इस पुनरुक्त कधन से क्या लाभ?
उत्तर- अपवरूपगना में पदार्थ मात्र कहा गया है-तपकि यहां पर उन्ही भानुपूर्वी आदि पदोंका की जो भंगरचना द्वारा स्पष्ट किये गये हैं अर्थ कहा गया है। अत:-यहां पुनशक्ति दोष नहीं है । अथवा नय नत की विचित्रता दिखलाने के लिये पुनःअर्थ कपन किया गया है। इस प्रकार यह कथन सर्वथा निर्दोष है । इस विषय में अघ अधिक क्या कहें। ( से तं गमयवहाराणं भगोबदमागमा ) इस प्रकार से नैगम व्यवहार नग संमत यह भंगोपदर्शनता है
भावार्थ-भंगसनुस्कीनता द्वारा निष्टि हुए भगो का इस भंगोपदशेनता में अर्थ का कथन किया जाता है । इनका कौन २वाच्याध है यह यात
શંકા- આ આનુપૂર્વી આદિ પદોને ત્રિઅણુક આદિ રૂપ વાગ્યાર્થ અર્થ પદ પ્રરૂપણતા રૂપ પહેલ દ્વારમાં કહી દેવામાં આવે છે. છતાં અહીં તેનું ફરીથી કથન શા માટે કરવામાં આવ્યું છે?
ઉત્તર-અર્થ પદપ્રરૂપણુતામાં માત્ર પદાર્થનું જ પ્રતિપાદન કરાયું છે. પરતુ અડું તે અંગરચના દ્વારા પણ કરાયેલા એજ આનુ પૂવ આદિ પદોનો અર્થ કહેવામાં આવે છે તેથી એક પુનરુકિતનો રબવ ૨ઠેલા નથી અથવા નયમતની વિચિત્રતા બતાવવાને માટે અનું ફરીથી કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ રીતે આ કથન બિલકુલ નિર્દોષ જ છે આ વિષयन वे यि ४वानी ०४३२ २२ती ना. ( त नेगमयवहाराण भंगोबदसण या ) मा ५२नी नैगम भने ०५५७२ नयस मत मागे. ५नता है.
ભાવાર્થભંગસમુત્કીર્તનતા દ્વારા નિર્દિષ્ટ થયેલા ભંગના અર્થનું કથન આ ભગપદર્શનતામાં કરવામાં આવ્યું છે તેમને કહે કે વાચ્યાર્થ થાય છે એ વાત યાખ્યામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. અર્થપપ્રરૂપણુતામાં
For Private and Personal Use Only
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सून ८० रामवतारस्वरूपनिरूपणम्
३३५ अब क्रमप्राप्त सगवतार प्ररूपयति
मूलम् -से कि तं समोयारे? समोयारे-नेगमबवहाराणं आणुपचीदवाई काहिं समोयरांत? किं आणुपुचीदव्बेहिं समोयरांत? अगाणुपुत्वीदवहिं समोधरंति? अवत्त वयद वेहिं समायरंति ? नेगमश्वहाराणं आणुपुत्वीदवाई अणाणुपुबीदव्वेहिं सनोयरति नो आणुपुब्बोदव्वेहिं समोयरंति णो अवत्तवयदवेहि समोयरंति। नेगमयवहाराणं अणाणुपुबीदवाइं कहिं समोयरंति? किं आणुपुबीदवहिं समोयरांति ? अणाणुपुत्वी दवहिं समोयरति ? अवत्तवय दवहिं समोयरंति ?, नो आणु. पुादवेहि समोयरति अणाणुपुत्वोदवे हैं समोयरति, नो अवतवयदवाहें समोयरंति । नेगमववहाराणं अवत्तव्यदवाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुबीदवेहिं समोयरंति? अगाणुपुचीदवहिं समोयति ? अव त्तत्व यदवेहि समोयरंति ? नो आणुपुबीदरोहिं समोयरंति,णो अणाणुपुत्रीदोहिं लमोयरंति अवनव्वरदव्वेहि समोयरंति। से तं समोवारे ॥सू०८०॥
छाया-अथ कोऽसौ समतारः ? समवतार:-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ?, किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अबक्तव्य कद्रव्येषु समस्तरन्ति ? नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समबतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अबक्तव्यक द्रव्येषु सपरतरन्ति । नैरव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि कुत्र समत्रतरन्ति ? व्याख्या में स्पष्ट की गई है। अर्थाद प्ररूपणता में केवल अर्थपदरूप पदार्थ का कथन है-तब कि इसमें भिन्न २ रूपसे कथित भंगोका अर्थ है। इसलिए पुनरुक्ति दोष के लिये यहां स्थान नहीं है । सू० ७९॥ તે કેવળ અર્થ પદ રૂપ પદાર્થનું જ કથન થયું છે, પરતું ભગદર્શનતામાં તે ભિન્ન ભિન્ન રૂપે કથિત ભંગે.ના અર્થનું કથન થયું છે તેથી અહીં પુનરુકિત દેષને સંભવ નથી. છે સૂ૦૭
For Private and Personal Use Only
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३३६
अनुयोगद्वारसूत्रे किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वी द्रव्येषु समर तरन्ति ? अवक्तव्यक द्रव्येषु समवतरन्ति? नो आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, अनानुपूर्वी द्रव्येषु समवतरन्ति, नो अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । नैगमव्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किम् आनुपूर्वी द्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वी द्रव्येषु समवतरन्ति ? अवत्त व्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? नो आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्ण द्रव्येषु समत्रतरन्ति, अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । स एष समवतारः ।।मू०८०॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ समवतारः? इति शिज्य प्रश्नः। उत्तरयति-समवतारः-समयतरणं समवतार:समावेशः तेषामेवानुदिद्रव्याणां स्वस्थानपरस्थानान्तर्भावचिन्तनपकारः, स एवं विज्ञेया-तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समक्तरन्ति ? नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समाविशन्ति ? किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? किमनानुपूर्वीद्रव्येषु ? किंवाऽवक्तव्यक द्रव्येषु ?
अब मत्रकार समवतार की प्ररूपणा करते हैं
"से कि तं समोयारे" इत्यादि । (से किंतं समोयारे) हे भदंत पूर्व प्रकान्त समवतार का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (समोयारे ) पूर्व प्रक्रान्त समवतार का स्वरूप इस प्रकार से है- समवतार का तात्पर्य समावेश है-अर्थात् अनेक आनुपूर्वी आदि जो द्रव्य हैं इनका अन्तर्भाव स्वस्थान में होता है या परस्थान में होता है इस प्रकार के चिन्तन प्रकार का - विचार का जो उत्तर है वही समावेश- या समवतार है । यह विचार इस प्रकार से होता है कि-( नेगमववहाराणं आणुपुधी दवाई-कहिं समोयरंति, किं आणु: पुधी दव्वेहि समोयरंति अणाणुपुव्वी दव्वेहि समोयरंति ? )
હવે સૂત્રકાર સમવતારની પ્રરૂપણ કરે છે– “से किं त समोयारे "त्याह
शा-(से किं त' समोयारे ) 3 मान्! पूरी प्रस्तुत समवतार સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(समोयारे) समतानुं २१३५नीय प्रभा छ - समवतार मेटले समावेश એટલે કે અનેક આનુપૂર્વી આદિ જે દ્રવ્ય છે તેમને અંતર્ભાવ સ્વસ્થાનમાં થાય છે કે પરસ્થાનમાં થાય છે, આ પ્રકારના ચિતનને-વિચારને જે ઉત્તર છે તેને જ સમવતાર અથવા સમાવેશ કહે છે તે વિચાર આ પ્રમાણે થાય छ-(नेगमववहाराण आणुपुव्वी दबाइ कहि समोयरंति ? किं आणुपुवी
For Private and Personal Use Only
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८० समवतारस्वरूपनिरूपणम् . ३३७ इति त्रिविधः प्रश्नः। उत्तरमाइ-नेगमववहाराणं' इत्यादि। नेगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु, न वाऽवक्तव्यकद्रव्येषु । अयं भावा-आनुपूर्वी द्रव्याणि आनुपूर्वी द्रव्यलक्षणायां स्वजातावेव वर्तन्ते, न ततोऽन्यत्र । यतः समवतारः-सम्यगविरोधेन अवतरणवर्तनम्-अविरोधत्तिता पोच्यते । अविरोधवृत्तिता च स्वजातावेव स्यात् , न त परजातौ । तस्याः परजातित्तित्वे विरोधात् । ततश्च नानादेशवृत्तीनि सर्वाण्यनैगम और व्यवहारनय-संमत जो आनुपूर्वी द्रव्य है वे कहां समाविष्ट होते हैं ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं या अनानुपूर्वी द्रव्यों में ? या ( अवत्तव्यदव्वेहि समोयरंति) अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? (नेगम ववहारणं आणुपुत्वी दवाई अणाणुपुव्वी व्वेहि समोयरंति )
उत्तर- नैगम व्यवहारनय संमत जो आनुपूर्वी द्रव्य हैं वे आनुपूर्षी द्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं (नो अणाणुपुषीदव्वेहिं समोय. रंति नो अवत्तव्वयव्वेहि समोयरंति) अनानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट नहीं है और न अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं। इसका भाष यह है-कि समस्त आनुपूर्वी द्रव्य, विना किसी विरोध के अपनी जाति में ही रहते हैं।दूसरी जाति में नहीं । विना विरोध के अपनी जाति में रहना इसी का नाम समवतार समावेश, अविरोधवृत्तिता है। यह
व्वेहिं समोयरंति, अणाणुपुव्वी व्वेहिं समोयरंति) नैगम भने •५६ નયસંમત જે આનુપૂવ દ્રવ્ય છે તેમને કયાં સમાવેશ થાય છે? શું આનુપૂર્વી દ્રમાં સમાવેશ થાય છે, કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાં સમાવેશ याय 2 १ मया (अवत्तव्वयव्वेहि समोयरंति) १४त०५४ द्रव्योमi "मा. वेश याय १ (नेगमयवहाराण आणुपुत्वीदवाई आणुपुत्वीदयहि समोयरंति) उत्त२-नाम सन व्य१६२ नयभत २ भानु द्रव्यो , तमना भानुभवी द्रव्यामा समावेश थाय छ, (नो अणाणुपुल्वी दम्ने समोयरंति, नो अवत्तव्वयव्वेहिं समोयरंति) मनानुर्वा द्रव्यमा समावेश પણ થતું નથી અને અવકતવ્ય દ્રવ્યમાં પણ સમાવેશ થતો નથી આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે–
સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રા કઈ પણ જાતના વિરોધ (અવરોધ) વિના પિતાની જાતિમાં રહે છે–બીજી જાતિમાં રહેતા નથી કેઈ પણ પ્રકારના વિરોધ વિના પિતાની જાતિમાં રહેવું તેનું જ નામ સમવતાર અથવા સમા
म० ४३
For Private and Personal Use Only
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे अविरोध वृत्तिता अपनी जाति में ही हो सकती है दूसरी जाति में नहीं । आनुपूर्वी द्रव्योंका समवतार यदि पर जाति में भी माना जावेगा तो इस प्रकार परजाति में रहने पर उनमें स्वजाति में रहने को अविरोध वृत्तिता नहीं बन सकेगी । इसलिये यह निश्चित सिद्धान्त है-कि नाना देशवर्ती समस्त आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यरूप अपनी जाति में ही रहते हैं । परजाति में नहीं। ( नेगमववहाराणं अणाणुपुव्वाई कहि समोयरंनि किं आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुत्वी दवे. हिं समोरंति ? अवत्तन्वयवेहिं समोयरंति ) नैगम व्यहारनय संमत समस्न अनानुपूर्वी द्रव्य कहां प्रविष्ट होते हैं ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं, या अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ?
उत्तर- (नो आणुपुब्बीदव्वेहिं समोयरंति, अणाणुपुव्वीदव्वेहि समोयरंति, नो अवत्तव्वयव्वेहिं समोयरंति ) जितने भी अनानुपूर्वी द्रव्य है- वे सब न तो आनुपूर्वी द्रव्यों में रहते हैं, और न अवक्तव्यक द्रव्यों में रहते हैं, किन्तु अपनी जाति रूप जो अनानुपूर्वी द्रव्य है उनमें ही रहते हैं । इसी प्रकार से जितने भी नैगमव्यवहार नय संमत अवक्तવિશ અથવા અવિરધવૃત્તિતા છે. આ અવિરધવૃત્તિતાનો સદુભાવ પિતાની જાતિમાં જ હોઈ શકે છે-અન્ય જાતિમાં હોઈ શક નથી આનુપૂવી દ્રવ્યોનો સમવતાર (સમાવેશ) જે પર જાતિમાં પણ માનવામાં આવે તે આ રીતે પર જાતિમાં રહેવાથી તેમનામાં સ્વજાતિમાં રહેવાની અવિરધવૃત્તિતા સંભવી નહીં શકે તેથી એ નિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે કે વિવિધ દેશવર્તી સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય આનું ર્વી દ્રવ્ય રૂપ પિતાની જાતિમાં જ રહે છેપરજાતિમાં રહેતું નથી.
(नेगमववहाराण' अणाणुपुवाइ कहिं समोयरंति किं आणुपुव्वी दव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुव्वी दव्वेहिं समोयरंति ? अवत्तव्ययव्वेहिं समोयरंति?) નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત સમસ્ત અનાનુપૂવી દ્રવ્ય કયાં પ્રવિષ્ટ થાય છે? શું તેઓ આનુપૂવી દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થાય છે કે અનાનુપૂવી દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થાય છે, કે અવકતવ્યક દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થાય છે?
उत्तर-(नो आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति, अणाणुपुव्वीदव्वेहिं समोय. रंति, नो अवत्तव्वयव्वेहि समोयरंति ) २ai मानानुपूर्वा द्रव्यो छ, तमा આનુપૂવી દ્રવ્યોમાં પણ રહેતાં નથી, અવક્તવ્યક દ્રવ્યોમાં પણ રહેતાં નથી, પણ તેમની જાતિ રૂપ જે અનાનુપૂવી દ્રવ્યો હોય છે તેમાં જ રહે છે. એ જ પ્રમાણે નિગમવ્યવહારનય સંમત જેટલાં અવકતવ્યક દ્રવ્ય છે તેઓ
For Private and Personal Use Only
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र ८१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
1
ध्यानुपूर्वी द्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते नान्यत्रेति । एवं नैगमव्यवहारसम्पतानि अनानुपूर्वी द्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्येष्वेव वर्तन्ते, नैगमव्यवहारसम्मतानि अवक्तव्यकद्रव्याणि च अवक्तव्यकद्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते इत्यपि भावनीयम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - स एष समवतार इति ॥ ८० ॥
अथानुगमं निरूपयितुमाह-
मूळम् - से किं तं अणुग मे ? अणुगमे नवविहे पण्णत्ते ? तं जहा संतपयपरूवणया दव्वप्यमाणंश्च खित्त३ फुसणा य४ । कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पा बहुं ९ चैत्र ॥१॥ से तं अणुगमे ॥ सू०८१॥
छाया - अथ कोऽसौ अनुगमः ? अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पदप्ररूपणता १ द्रव्यप्रमाणं च २ क्षेत्रं ३ स्पर्शना च ४ । कालश्च ५ अन्तर ६ भागो भावः ८ अल्पबहुत्वं चैत्र ||१|| स एषोऽनुगमः ॥०८१ ॥
३३८
ore द्रव्य हैं वे सब अपनी जातिरूप अवक्तव्यक द्रव्यों में ही रहते हैं। ऐसा अर्थ अवशिष्ट पाठ को लगा लेना चाहिये । इस प्रकार यह समवतार का स्वरूप है ?
For Private and Personal Use Only
भावार्थ - आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक जितने भी द्रव्य हैं उनके विषय में ये तीन मइन हो सकते हैं कि आनुपूर्वी आदि समस्त " द्रव्य कहां रहते हैं ? | अपनी जानिवालों में ही रहते हैं-या भिन्न जाति बोलों में रहते हैं। इनका ही समाधान सूत्रकार ने इस मूत्रद्वारा किया है। उसमें यह कहा गया है कि नैगमव्यहारसंमत समस्त आनुपूर्वी आदि द्रव्य अपनी २ जाति में ही रहते हैं-भिन्न जाति में नहीं | || सृ० ८०॥ પણ પાતાની જાતિ રૂપ અવકતવ્યક દ્રêામાં જ રહે છે; એવા અથ બાકીના પાઠના વિષયમાં સમજી લેવે જોઇએ આ પ્રકારનું સમવતારનું સ્વરૂપ છે. ભાવાર્થ-આનુપૂત્રી, અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક રૂપ જેટલાં દ્રન્યા: છે, તેમને વિષે આ ત્રણ પ્રશ્ન સભવી શકે છે-આનુપૂર્વી આદિ સમસ્ત દ્રવ્ય કયાં રહે છે ? શુ તે પેતાની જાતિવાળામાં જ રહે છે, કે ભિન્ન જાતિવાળામાં રહે છે? સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં આ પ્રશ્નોનું જ સમાધાન કર્યુ" છે. તેમણે થ્યા સૂત્રમાં એ વાતનુ પ્રતિપાદન કર્યું છે કે નૈગમવ્યવહારનય સમત સમસ્ત આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય પાતપાતાની જાતિમાં જ રહે છે-ભિન્ન જાતિમાં રહેતાં નથી. પ્રસ્૦૮૦ના
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
___ अनुयोगद्वारसूत्र . टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि तं' इत्यादि। अथ कोऽसौ अनुगम ? इति । अनुगमः-सूत्रार्थस्य अनुकूलम् अनुरूपं वा गमनं व्याख्यानम्-अनुगमः । स नवविधानवप्रकारकः प्रज्ञप्ता प्ररूपितः, तद्यथा-सत्पदमरूपणता-सन् विधमानो योऽर्थ:-भावस्तद्विषयं पदं सत्पदं तस्य प्ररूपणं प्रज्ञापनं तदेव सत्पदमरू. पणता प्रथम कर्तव्या। अयं भाव:-स्तम्भकुम्मादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते, शशशगगनकुसुमादीनि पदानि स्वसदर्थविषयाणि दृश्यन्ते । तत्रानु.
अब सूत्रकार अनुगम का निरूपण करते हैं"से किं तं अणुगमे ?"। इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से कितं अणुगमे ?) हे भदन्त ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(अणुगमे नवविहे पण्णत्ते) अनुगम नौ प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(संतपयपरूवणया) १ सत्पद-प्ररूपणता (दव्यप्पमाणं च) २ द्रव्यप्रमाण (खित्त ३ फुसणाय ४) ३ क्षेत्र४ स्पर्शन (कालोय, अंतर, भाग भाव अप्पापहुचेव ) ५ काल ६ अन्तर , ७ भाग ८ भाव और ९ अल्पबहुत्व । (से तं अणुगमे ) इस प्रकार यह अनुगम का स्वरूप है। सूत्र के अनुकूल अथवा अनुरूप व्याख्यान करना इसका नाम अनुगम है। यह पूर्वोक्त रूप से नो प्रकार का कहा गया है। सत्पदप्ररूपणतारूप १ प्रथम अनुगम के भेद में यह प्ररूपित किया जाता है कि जिस प्रकार से शशशृङ्ग आदि पद असदर्थ को विषय करने वाले
હવે સૂત્રકાર અનુગામનું નિરૂપણ કરે છે–
" से किं त अणुगमे ?" त्याहि.... Atथ-(से किं त अणुगमे ? ) 3 लावन् ! पूप्रस्तुत मनुगमनु સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणुगमे नवविहे पण्णत्ते-तौं जहा) मनुगमना नीय प्रभाएं नव २ ४ा छ-(संतपयपरूवणया) (१) सत्५६ ५३५९ता, (दव्य पमाण च) (२) द्र०यमा ], (खित्त ३ फुस्रणा य४ (3) क्षेत्र, (४) २५शन, (कालो य, अंतर, भाग, भाव, अप्पाबहुंचेव) (५) ण, (६) मन्त२, (७) माग, (८) भाव, भने () ममत्व.
(सेत अणुगमे ) मा प्रा२नु अनुगमनु ५१३५ छे सूत्रन अनुज અથવા અનુરૂપ વ્યાખ્યાન કરવું તેનું નામ અનુગામ છે તેના ઉપર મુજબ નવ પ્રકાર કહ્યા છે. સત્પદપ્રરૂપણુતા રૂપ અનુગામના પ્રથમ ભેદમાં વિદ્યમાન પદાર્થવિષયક પદની પ્રરૂપણું કરવામાં આવે છે સસલાને શિંગડાં હોવાની
For Private and Personal Use Only
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् पूदिपदानि स्तम्भादि पदानीव सदर्थविषयाणि, किंवा शशशृङ्गादिपदानीव अमदर्थविषयाणि ? इति पर्यालोचनीयमिति ।१। तथा-द्रव्यप्रमाणम्-आनुपूर्यादि. पदवाच्यानां द्रव्याणां प्रमाणं-संख्यास्वरूपं पोलोचनीयम् ।२! च पुनः क्षेत्रम्= आनुपूर्यादिपदवाच्यद्रव्याणाम् आधारस्वरूपं वक्तव्यम् । कियति क्षेत्रे तानि भवन्तीति चिन्तनीयमिति भावः ।३। तथा-स्पर्शना च पर्यालोचनीया। तानि द्रव्याणि कियत् क्षेत्रं स्पृशन्तीति चिन्तनीयमिति भावः।४। तथा-कालश्च वक्तव्यःहोते हैं, उस प्रकार से ये आनुपूर्वी आदि पद असदर्थ विषयक नहीं हैं किन्तु जिस प्रकार स्तम्भ आदि पद स्तम्भ आदिरूप अपने वास्तविक अर्थ को विषय करने वाले होते हैं उसी प्रकार से आनुपूर्वी आदि पद यथार्थरूपसे अपने सदर्थ को विषय करने वाले हैं । इस प्रकार विद्यमान पदार्थ विषयकपद की प्ररूपणा का नाम सत्पदप्ररूपणता है । यह सत्पदप्ररूपणा अनुगम करते समय प्रथम कर्तव्य होती है। इसलिये उसे अनुगम के भेदों में प्रथम स्थान दिया गया है । द्रव्य प्रमाण में आनुपूत्रों आदि पदों के द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या कितनी है इसका विचार होता है ? क्षेत्र में-आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा कथित द्रव्यों का आधाररूप क्षेत्र विचारित होता है-अर्थात् ये आनुपूर्वी आदि द्रव्य कितने प्रमाण क्षेत्र में होते हैं ऐसा विचार किया जाता है। स्पर्शन में ये आनुपूर्वी आदि द्रव्य कितने क्षेत्र को स्पर्श करते हैं પ્રરૂપણ કરવી તે અસદર્થ પ્રરૂપણ છે, કારણ કે તેને શિંગડાં જ હતાં નથી પરંતુ આનુપૂર્વી આદિ પદ અસદર્થ વિષયક લેતા નથી પણ સદર્થ વિષયક હોય છે. જેવી રીતે સ્તન્મ આદિ પદ સ્તન્મ આદિ રૂપ પિતાના વાસ્તવિક અર્થને વિષય કરનારા (પ્રતિપાદન કરનારા) હોય છે, એ જ પ્રમાણે આનુપૂર્વી આદિ પદ યથાર્થ રૂપે પિતાના સંદર્થને વિષય કરનારા હોય છે. આ રીતે વિદ્યમાન પદાર્થવિષયક પદની પ્રરૂપણાનું નામ “સત્પદપ્રરૂપણુતા” છે, આ સત્પદપ્રરૂપણા અનુગામ કરતી વખતે પહેલાં કરવા ચોગ્ય હોય છે. તેથી તેને અનુગામના ભેદોમાં પહેલું સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે. ૧
દ્રવ્ય પ્રમાણમાં એ વિચાર કરવામાં આવે છે કે આનુપૂર્વી આદિ પદે દ્વારા જે દ્રવ્યનું કથન કરવામાં આવે છે તેમની સંખ્યા કેટલી છે. ૨
ક્ષેત્રમાં-આનુપૂવી અદિ પદે દ્વારા કથિત દ્રવ્યના આધારરૂપ ક્ષેત્રને વિચાર કરવામાં આવે છે–એટલે કે એ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય કેટલા પ્રમવાળા ક્ષેત્રમાં હોય છે, એવો વિચાર કરવામાં આવે છે. ૩
For Private and Personal Use Only
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र तेषां द्रव्याणां स्थितिलक्षणः कालश्च प्ररूपणीयः ॥२॥ तथा अन्तरं वक्तव्यम् । विवक्षितस्वभावपरित्यागे सति पुनस्तद्भावपातिविरहलक्षणमन्तर प्ररूपणीयमिति भावः। द्रव्यस्य विवक्षितस्वभावपरित्यागे सति पुनस्तद्भावप्राप्तौ च मध्ये या कालः सोऽन्तरमुच्यते, इति बोध्यम् । ६।। तथा-भागश्च वक्तव्यः। आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषदव्याणां कस्मिन् भागे वर्तन्ते, इत्येवं भागः प्ररूपगीय इति भावः ॥७॥ तथा भावः प्ररूपणीयः। आनुपूर्वीद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्तन्ते इत्येवं रूपो भावो वक्तव्य इत्यर्थः ।।८| तथा-अल्पबहुत्वं चैव-चापि वक्तव्यम् । आनुपूर्व्यादिद्रव्याणां ऐसी पर्यालोचना होती है। क्षेत्र में केवल आधारभूत आकाश ही लिया जाता है और स्पर्शनता में आधार क्षेत्र के चारों तरफ के आकाश प्रदेश जो आधेय के द्वारा छुये गये हों वेभी लिये जाते हैं। आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की स्थिति का विचार यह काल है। अनुगम में आनुपूर्वी आदि द्रव्यों कि स्थिति कितनी है इस बात की पर्यालोचना की जाती है अन्तर नाम विरह काल का है। विवक्षित पर्याय के परित्याग हो जाने पर पुन: उसी पर्याय की प्राप्ति होने में जो बीच में अन्तर पडता है उसका नाम विरह काल है । अनुगम में इस अन्तर की प्ररूपणा करना आवश्यकीय माना गया है। आनुपूर्वी द्रव्यशेष द्रव्यों के किस भाग में रहते हैं इस प्रकार के भाग की भी प्ररूपणा अनुगम में कर्तव्य होती है आनुपूर्वी आदि द्रव्य किस भाव में रहते हैं इस प्रकार की प्ररूपणा का नाम भाव है। न्यूनाधिकता
સ્પર્શન અનુગમમાં એ વિચાર કરવામાં આવે છે કે તે આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય કેટલા ક્ષેત્રને પશ કરે છે ક્ષેત્રમાં કેવળ આધારભૂત આકાશ જ લેવામાં આવે છે અને સ્પર્શનામાં આધાર ક્ષેત્રની ચારે તરફના જે આકાશ પ્રદેશો આધેય દ્વારા પૃષ્ટ થયા હોય, તેમને પણ લેવામાં આવે છે આનુપૂવ આદિ દ્રવ્યોની સ્થિતિનો વિચાર કરે તેનું નામ કાળઅનુગમ” છે. કાળાનું બમમાં આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યની સ્થિતિ કેટલી છે, એ વાતની પર્યાલચના (વિચારણા) કરવામાં આવે છે વિરહકાળને અન્તર કહે છે. વિવક્ષિત (અમુક) પર્યાય પરિત્યાગ થઈ ગયા બાદ ફરીથી એજ પર્યાયની પ્રાપ્તિ થવામાં વચ્ચે જેટલું અન્ડર પડે છે તેટલા અન્તરને વિરહકાળ કહે છે. અનુગમમાં આ અખ્તરની પણ પ્રરૂપણું કરવાનું આવશ્યક ગણાય છે.
આનુપૂર્વી દ્રવ્યો શેષ (બાકીના) દ્રવ્યના કયા ભાગમાં રહે છે, તે પ્રકારના ભાગની પણ પ્રરૂપણું અનુગમમાં કરવી પડે છે. ૭ આનુપૂર્વ આદિ દ્રવ્ય ક્યા ભાવમાં રહે છે, તે પ્રકારની પ્રરૂપણાનું નામ ભાવઅનુગમ છે. જૂનાધિકતાનું નામ અ૫મહત્વ છે દ્રવ્યાધિક નયને આધારે, પ્રદેશાર્થતાને
For Private and Personal Use Only
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८२ सत्पदप्ररूपणानिरूपणम् ३४३ द्रव्यार्थताऽऽश्रयणेन प्रदेशार्थताऽऽश्रयणेन तदुभयार्थताऽऽश्रयणेन च परस्पर स्तोकबहुत्वचिन्तालक्षणम् अल्पबहुत्वं चाऽपि प्ररूपणीयमिति भावः । ९॥ प्रकृतसुपसंहरभाह-'से तं' इत्यादि । स एष अनुगम इति ॥५० ८१॥
इत्थं संक्षेपतोऽर्थमभिधाय विस्तरेणार्थमभिधातुकामः सूत्रकारोऽनुगमस्य नवसु मेदेषु सस्पदमरूपणारूपं प्रथमं भेदमाह
___ मूलम्-नेगमववहाराणं आणुपुवीदवाई किं अस्थि नत्थि? णियमा अस्थि, नेगमववहाराणं अणाणुपुत्वीदव्वाइं कि अस्थि णत्थि?, णियमा अस्थि, नेगमववहाराणं अवत्तव्यगदव्वाइं कि अस्थि णस्थि ? णियमा अस्थि सू०८२॥ का नाम अल्पबहुत्व है। द्रव्यार्थिकनय के आश्रय से प्रदेशार्थता के आश्रय से और तदुभय-द्रव्यार्थिक प्रदेशार्थिक इन दोनों के आश्रय से इन आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में जो स्तोक बहुत का विचार है वही अल्पबहुत्व है । अनुगम में इस अल्पच हुत्व की भी प्ररूपणा कर्तव्य होती है । (से तं अणुगमे) इस प्रकार यह अनुगम का स्वरूप है।
भावार्थ-सूत्रार्थ के अनुकूल अथवा अनुरूप व्याख्यान का नाम अनुगम है । इस अनुगम में इन नौ ९.विषयों का विचार किया जाता है । इसलिये वह अनुगम सत्पद प्ररूपणा आदि के भेद से नौ प्रकार का कहा गया है। इन सस्पद प्ररूपणता आदि का क्या स्वरूप है इसे स्वयं सूत्रकार विस्तार से आगे सूत्रों द्वारा स्पष्ट करते हैं । ॥ सू० ८१॥ આધારે અને તદુભય (તે બને-દ્રવ્યાર્થિક અને પ્રદેશાર્થિક એ બનેને આધારે આ આનુપૂર્વ આદિ દ્રવ્યમાં જે અ૫વ અને બહુવને વિચાર કરવામાં આવે છે તેનું નામ જ અપમહત્વ છે અનુગામમાં આ અલ બહपनी ५३५ ५५५ ४२१॥ योज्य गाय छे (से त अणुगमे ) 24. प्रा२नु अनुगमन २५३५ छे.
ભાવાર્થ-સૂત્રાર્થને અનુકૂળ અથવા અનુરૂપ વ્યાખ્યાનનું નામ અનુગમ છે. તે અનુગમમાં ઉપયુંકત નવ વિષયને વિચાર કરવામાં આવે છે, તેથી તે અનુગમમાં સત્પદ પ્રરૂપણ અદિ નવ ભેદ કહ્યા છે આ પદ પ્રરૂપણ આદિના સ્વરૂપનું વિસ્તાર પૂર્વકનું નિરૂપણ સૂત્રકાર પોતે જ આગળના સૂત્રમાં કરવાના છે, તેથી અહીં તેને ભાવાર્થ સક્ષિસમાં આપવામાં આવે છે. સૂ૦૮૧
For Private and Personal Use Only
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे ___ छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वोद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति। नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वी द्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति। नेगमव्यवहारयोः अबक्तव्यकद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति।सू०८२॥
टीका-' नेगमववहाराणं' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा ॥सू०८२॥
इस प्रकार संक्षेप से सत्पदनरूपणा आदि का अर्थ कहकर अप सूत्रकार विस्तार से उनका अर्थ कहने की इच्छा से अनुगम के नौ भेदों का कथन करते हैं-'नेगमववहारा' इत्यादि।
शब्दार्थ-(नेगमववहाराणं आणुपुव्धीदव्याई कि अस्थि नस्थि ?) नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य क्या है या नहीं हैं ?
(णियमा अस्थि ) उत्तर-अवश्य हैं। (नेगमववहाराणं अणाणुपुठवी दवाई कि अस्थि णस्थि? ) नेगम व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं हैं ? उत्तर-(णियमाथि ) नियम से हैं-अवश्य २ हैं(नेगमयवहाराणं अवत्तव्वागवई कि अस्थि ? णस्थि ?-णियमा अस्थि ) नैगम व्यवहारानय संमत अवक्तव्यक द्रव्य हैं या नहीं हैं ?
उत्सर-नियमतः हैं।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा नैगम व्यवहारनय संमत आनुपूर्वी आदि द्रव्य हैं ? यह बात नियमपद से जोर के साथ प्रकट की है
આ પ્રમાણે અનુગામના સત્પદપ્રરૂપણું આદિ ભેદને અર્થ સંક્ષિપ્તમાં સમજાવીને હવે સૂત્રકાર તે ન ભેદોનો અર્થ વિસ્તારપૂર્વક સમજાવવા માગે છે. તેથી તેઓ સત્પદપ્રરૂપણુતા રૂપ તેના પ્રથમ ભેદનું નીચેના સૂત્ર દ્વારા नि३५ ४रे - " नेगमववहाराण" याह
शाय--(नेगमववहाराण आणुपुव्वी दवाई विभत्थि नस्थि) નિગમ અને વ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે કે નથી ?
उत्तर-(णियमा अस्थि) अवश्य छ १.
प्रश्न-(नेगमववहाराण अणाणुपुब्धी दवाई कि अस्थि णभि) नग. મવ્યવહારનયસંમત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય શું છે કે નથી ?
उत्तर-(णियमा अस्थि) नियमयी ४ भेटवे हैं मनानुका यार्नु અસ્તિત્વ પણ અવશ્ય છે જ.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા તૈમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂવી આદિ દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ હેવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. તેમનું અસ્તિત્વ નિયમથી જ છે,” આ પ્રકારના કથન દ્વારા તેમણે આ વાતને ભારપૂર્વક
For Private and Personal Use Only
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मन्द्रिका टीका सूत्र ८३ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम्
अथ द्रव्यमाणरूपं द्वितीय भेदमाह----
मूलम् - नेगमत्रवहाराणं आणुपुत्वीदन्वाई किं संखिज्वाई असंखिजाई अनंताई ?, नो संखिजाई नो असंखिजाई अणंताई। एवं अणाणुपुत्रीदवाई अवत्तवगदवाई च अणंताई भाणि यवाई ॥सू०८३||
छाया - नैगमपारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्येयानि असंख्येयानि नवानि ? नो संख्येयानि नो असंख्येयानि अनन्तानि । एवम् अनानुपूर्वी द्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि च अनन्तानि भणितव्यानि ।। ०८३||
'टीका'ने गमहाराणं ' इत्यादि ।
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वोद्रव्याणि कि संख्येयानि सन्ति ? किम संख्यानि सन्ति ? किंवाऽनन्तानि सन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - आनुपूर्वीद्रव्याणि नो संख्येयानि सन्ति, नो असंख्येयानि सन्ति । अपि तु अनन्तानि सन्ति अर्थात् वे जोर देकर यह कह रहे हैं कि ये आनुपूर्वी आदि द्रव्य सत्ता विशिष्ट हैं। ऐसे नहीं हैं, कि ये नहीं हैं । ॥ सूत्र० ८२ ॥
T
'नेगमववहाराणं' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( नेगम व बहाराणं आणुपुव्वी दव्वाई किं संविज्जाई असं खिज्जाई अणताई ? ) नैगमव्यवहारनय संमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्यसंख्यात हैं ? या असंख्यात हैं ? या अनन्त हैं ?
उत्तर- (नो संखिज्जाई नो असंखिज्जाई) नैगमव्यवहारनय संमतः आनुपूर्वी द्रव्य न संख्यात हैं और न असंख्यात हैं किन्तु (अणताई ) પ્રકટ કરી છે એટલે કે તે ભારપૂર્વક એવુ કહે છે કે આનુપૂર્વી' આદિ મુન્ચે સત્તાવિશિષ્ટ છે-તે દ્રવ્યેાનું અસ્તિત્વ અવસ્ય છે. ४. ते भवि ધમાન નથી એમ સમજવું ॥ સૂ૦૮૨ ॥
" नेगमववहाराण' आणुपुन्नी " इत्यादि -
शब्दार्थ - ( नेगमववहाराण आणुपुव्वी दव्वाइ किं संखेज्जाइ, असिं जाई अर्णताइ ? ) नैगमव्यवहार नय संभत भले मानुपूर्वी द्रव्य बात है, असभ्यात छे, हे अनंत हे ?.
उत्त२-(नो संखिज्जाइ नो असंखिज्जाई, अणताई ) नैगम-मने व्यवस તારસમત આનુપૂર્વી દ્રષ્યે સખ્યાત પશુ નથી, અસ`ખ્યાત પણ નથી,
अ० ४४
For Private and Personal Use Only
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
E
अनुयोगद्वारस्त्रे एवम् मनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि च अनन्तानि विज्ञेयानि । इदमत्र बोध्यम्-इहानुपूय॑नानुपूर्व्यवक्तव्यद्रव्येषु प्रत्येकमनन्तान्यनन्तानि एकैकस्मि
प्याकाशप्रदेशे लभ्यन्ते, किं पुनः सर्वलोके । अतः संख्येयासंख्येयमकारद्वयं निषिध्य त्रिष्वपि स्थानेष्वानन्त्यमेवोच्यते । असंख्येये लोके कथमनन्तानि द्रव्याणि तिष्ठन्तीति न शङ्कनीयम् ? पुद्गल परिणामस्य अचिन्त्यत्वाइ, दृश्यते हि-एक प्रदीपप्रभा परमाणुव्याप्तेषु एकगृहातवांकाशमदेशेषु अनेकापरप्रदीपप्रभा. अनन्त हैं । (एवं अणाणुपुब्धी दवाई अवत्सम्यगदवाई च अणंताई भाणि. यव्वाइं) इसी प्रकार से यह भी जानना चाहिये कि अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्यकद्रव्य भी अनंत हैं। संख्यात-असंख्यात नहीं हैं। इस कथन का यह भाव है कि आनुपूर्वी और अवक्तव्यक इन द्रव्यों में प्रत्येक आनु. पूर्वी आदि द्रव्य अनन्त २ हैं। और प्रत्येक ये एक २ भी आकाश के प्रदेश में अनन्त अनन्त पाये जाते हैं । सर्वलोक की तो बात ही क्या है। इसलिये ये न संख्यात हैं और न असंख्यात हैं इसलिये इन तीनो में दोनों प्रकारता का निषेध कर अनन्तता की स्थापना की गई है। यहां ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि असंख्यात प्रदेशीभाकाश रूप क्षेत्र में अनंत आनुपूर्ण आदिद्रव्य कैसे ठहर सकते है क्यों कि पुद्गल का परिणमन अचिन्त्य होता है। यह तो हम अपनी आखों से देखते हैं कि एक प्रदीप की प्रभा से व्याप्त एक गृहान्तवर्ती-आकाश के प्रदेशों में ५२.तु मनात छ. (एवं अणाणुपुबीदव्बाई अवतव्वगदव्याई । भणंताई भाणियब्वाई) मे प्रभारी मनानुपूर्वी द्रव्ये ५५ मनात छे भने - વ્યક દ્રવ્યો પણ અનંત છે, એમ સમજવું જોઈએ તે બન્ને પ્રકારના દ્રવ્ય સંવાત પણ નથી અને અસંખ્યાત પણ નથી આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે આનુપૂર્વ અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક આ દ્રામાંના આનુપૂર્વી આદિ દ્વ અનંતઅનંત છે. તે પ્રત્યેકને એક એક આકાશપ્રદેશમાં પy અનંત અનંત રૂપે સદૂભાવ હોય છે. તે પછી સર્વકની તે વાત જ શી કરવી ! તે કારણે તેને સંખ્યાત પણ કહ્યા નથી અને આખ્યાત પણ કલા નથી આ રીતે ત્રણેમાં બંને પ્રકારતાને નિષેધ કરીને અનંતતાનું જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે.
અરે એવી શંકા કરવી ન જોઈએ કે અસંખ્યાત પ્રદેશી આકાશ રૂપ શેત્રમાં અનંત આનુવી આદિ દ્રવ્ય કેવી રીતે રહી શકે છે, કારવું કે પુગલનું પરિણમન અચિંત્ય હોય છે. એ તે આપણે આપણી આંખે ૧૮ ઇ શકીએ છીએ કે એક પ્રદીપ (દીપક) ની પ્રજાથી વ્યાસ એક ગૃહાન્તર્વતી-(વરની અંદર)
For Private and Personal Use Only
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८३ द्रव्यप्रमाणनिरूपणंस्
S
परमाणूनामव्यवस्थानम् । न चाक्षिष्टेऽप्यर्थेऽनुपपत्तिः, अतिप्रसङ्गात् । अत आनुपूर्व्यादि द्रव्याणामानन्त्ये न कचिद् दोष इति ॥०८३ ||
दूसरे ओर भी अनेक मदीपों की प्रभा के परूमाणुओं का अवस्थान हो जाता है। आंखों देखे हुये अर्थ में शंका करने जैसी कोई पात ही नहीं होती है । नहीं तो, अतिप्रसंग नाम का दोष आता है । इसलिये आनुपूर्वी आदि अनन्त द्रव्यों को असंख्यात प्रदेशी आकाश में अबस्थित होने में कोई बाधा नहीं आती है। और न आनुपूर्वी आदि द्रव्यों को अनंत मानने में कोई आपत्ति आती है ।
भावार्थ- सूत्रकार ने अनुगम का द्वितीय भेद जो द्रव्य प्रमाण हैं उसके विषय में यह निर्णय किया है उसमें आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का प्रमाण अनन्त है ऐसा निर्देश कर ऐसा स्पष्ट किया है कि असंख्यात प्रदेशी आकाश लोकाकाश में इनका अवगाहन बाधित नहीं हो सकता है क्योंकि पौलिक परिणाम अचिन्त्य होता है। एकही घर के भीतर में रहे हुये आकाश में हम देखते हैं कि अनेक प्रदीप प्रभा के परमाणु समा जाते हैं । इसी प्रकार से अवगाहन शक्ति के योग से और परिणमन की विचित्रता से एक भी आकाश के प्रदेश में अनन्त आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का अवगाहन वाधित नहीं होता है | || सू० ८३ ॥
રહેલ આકાશના પ્રદેશેમાં ખીજા પણ અનેક પ્રશ્નીપેાની પ્રભાના પરમાણુઓનું અવસ્થાન (નિવાસ) થઈ જાય છે. આંખા વડે જોયેલા વિષયમાં શકાનો કાય
અવકાશ જ રહેતા નથી નહી તા, અતિપ્રસ’ગ નામના દોષ આવે છે. તેથી આનુપૂર્વી આદિ અનંત દ્રષ્ચાનું, અસંખ્યાત પ્રદેશી આકાશમાં અવસ્થાન થવામાં કાઈ ખાધા (મુશ્કેલી, અવરોધ) રહેતી નથી અને આનુપૂર્વી આદિ દ્રયૈાને અનત માનવામાં પણ કાઈ વાંધા સ‘ભવતા નથી.
ભાવાથ-સૂત્રકારે અનુગમના દ્રવ્યપ્રમાણુ નામના ખીજા ભેદનુ' આ સૂત્ર દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં એવુ કહેવામાં આવ્યુ છે કે આનુપૂર્વી િ ક્રૂર્બ્સે અને'ત છે. આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરીને એવી સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે કે અસખ્યાતપ્રદેશી આકાશમાં-લેાકાકાશમાં તેમની અવગાહના હાવાની વાત સ્વીકારવામાં કઇ પણ પ્રકારના વાંધા સભવી શકત્તા નથી, કારણ કે પૌદ્ગલિક પરિણામ અચિત્ત્વ હોય છે. એક જ ઘરની અંદર રહેલા આકાશમાં (અવકાશમાં) અનેક પ્રીપોની પ્રભાના પરમાણુઓના સમાવેશ થઇ જાય છે, એ વાત તે આપણે આપણી આંખેા વડે જોઈ શકીએ છીએ. એજ પ્રમાણે અવગાહનશક્તિના યાગથી અને પરિણમનની વિચિત્રતાથી આકાશનાં એક પ્રદેશમાં પણ અનંત આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યાનુ અવગાહન ( समावेश) मानवामां आपत्ति सभवी शती नथी । सू०८ ॥
For Private and Personal Use Only
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५
अनुयोगसारख . सम्पति क्षेत्ररूपं तृतीयभेदमाह
मूलम्-नेगमववहाराणं आणुपुवी दवाई लोगस्त किं संखि. आइभागे होज्जा, असंखिज्जइभागे होज्जा, संखेजेसु भागेसु होजा, असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए होज्जा? एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेन्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखिज्जेसु भागेसुवा होज्जा, सव्वलोए का होज्जा। णाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्यलोए होज्जा। नेगमववहाराणं अणाणुपुत्वीदव्वाइं किं लोयस्स संखिज्जइभागे होज्जा जाव सव्वलोए वा होज्जा ? एगं दच्वं पहुच्च नो संखेन्जइ भागे होज्जा असंखिज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो सव्वलोए होजा। एवं अवत्तव्वगव्वाइं भाणियव्वाइं॥सू०८४॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संपेयतममाने भवन्ति, असंख्येयतममागे भवन्ति, संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, सर्वलोके भवन्ति ! एक द्रव्यं प्रतीत्य संख्येयेषु भागेषु वा भवन्ति, असंख्येयतमभागे वा भवन्ति, संध्येयेषु भागेषु वा भवन्ति, असंख्ये येषु वा भवन्ति, सर्वलोके वा भवन्ति । नाना. द्राचाणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीप्रमाणि कि लोकस्य संख्येयतमभागे भवन्ति यावत् सर्वलोके वा भवन्ति ? एक द्रव्य पतीत्य नों संख्येयतमभागे. भवन्ति असंख्येयेषु भागेषु भान्ति, नो असंखोये। मागेषु भवन्ति, नो सर्वलोके भवन्ति, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सेवेशीके भवन्ति । एवमवक्तव्यंकद्रव्याणि भणितव्यानि ।।मु०८४॥
टीका-नेगमववहाराणं' इत्यादि- अब सूत्रकार-तृतीय भेद के विषय मे कहते हैं
"नेगम बवहाराणं" इत्यादि। . - હવે સૂત્રકાર અનુગામના ત્રીજા ભેદ રૂપ ક્ષેત્રના વિષયમાં નીચે 'प्रभा यन थे- नेगमववहाराण १.य.8
For Private and Personal Use Only
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
----
---
-
-
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र ८४ क्षेत्रनिरूपणम्
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वी द्रव्याणि किं लोकस्य एकस्मिन् संख्येय. तमे भागे भवन्ति-अवगाहन्ते ११ किंवा एकस्मिन् असंख्येयतमे भागेऽनगाइन्ते १२ अथवा-किं संख्येयभागेषु भवन्ति अवगाहन्ते ?३ किमसंख्येयभागेषु भान्तिअवगाहन्ते ? ४ अथवा-किं सर्वलोके मन्ति ? ५ इति पश्चप्रश्नाः। उत्तरमाहबानुपूर्वीद्रव्याणिज्यणुकस्कन्धादीनि अनन्ताणुकस्कन्धान्तानि, तत्र-एक द्रव्यं “मतीत्य-सामान्यत एक द्रव्यमाश्रित्य किमपि लोकस्य संख्येयतमभागे भवति,
शद्वार्थ-(नेगमववहाराणं आणुपुब्धी दवाई) नैगम व्यवहार नय संमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य (लोगस्स ) लोक के (कि.) क्या ( संखि.
जहभागे ) १ संख्यातवें भाग में ( होज्जा) अवगाहित हैं ? या (असंखिज्जइभागे होज्जा २) असंख्यातवें भाग में अवगाहिन है ? (संखे उजेसु भागेसु होज्जा ) या ३ संख्यात भागों में अवगाहित हैं। या ४ ( असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ) असंख्यात भागों में अवगाहित हैं ? या ( सव्वलोए होज्जा?) ५ सम्पूर्ण लोकमें अवगाहित हैं ? ____ उत्तर-(एग दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जा भागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होना; असंखेज्जेसु भागेतु पा होज्जा सव्वलोए वा होजा) व्यणुःकादि अनन्ताणु स्कंधों में से सामान्य रूप से किसी एक द्रव्य की अपेक्षा करके कोई एक आनुपूर्भ लोक के संख्यातवे भाग में तथा कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य लोक के 'असंख्यातवें भाग में रहता है तथा कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य लोकके
शहाय-( नेगमववहाराण आणुपुठवीदबाई) नेगम सने न्या . नयमत भन भानुपूका द्रव्य (लोगस्स किं संखिज्जइ भागे होउजा) ४ લોકના સંખ્યાતમાં ભાગમાં અવગાહિત છે ? કે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં अहित छ, (असंखिज्जइ भागे होज्जा २) योन। मसभ्यातमा सामi मालित छ, 3 ( संखेजेसु भागेसु होज्जा ३) अध्यात मi Aquisa छ, है (सबलोए होज्जा १) संपूर्ण माहित डाय छे ?
उत्तर-(एग दव्य पडुनच संखेज्जइ भागे वा होज्जा, असंखेजइ भागे पा होज्जा, संखे जेसु भागेसु वा होजा, असंखिज्जेसु भागेसु वा होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा) ३५ ५२भाव।(
निशी) थी मनत पयतन मायामा ધ (અનંત પ્રદેશ )માંથી સામાન્ય રૂપે કેઈ એક દ્રવ્યની અપે. કક્ષાએ કઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાતમાં ભાગમાં અવગાહિત થઈને રહે છે, કોઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહે
For Private and Personal Use Only
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
__अनुयोगद्वारसत्रे लोकस्य संख्याततमभागमवगाय तिष्ठतीत्यर्थः १ । सथा-किमपि लोकस्य असं. ख्येयतमे भागे भवति-तिष्ठति २ । तथा-किमपि तु लोकस्य संख्येयेपु भागेषु भवति ३ । तथा-लोकस्याऽसंख्येयेषु भागेषु भवति ४ । तथा किमपि सर्वलोके भवति-सर्वलोकमवगाद्य तिष्ठति ।
अयं भावः-अनन्तानन्तपरमाणुपचयनिष्पन्नमचित्तमहास्कन्धलक्षणम् आनु. पूर्वी द्रव्यमेकं समयं सकललोकमवगाहते। ननु कथमयमचिचमहारकन्धः सकललोकमबगाहते ? इति चेदाह-यथा-समुद्घातवत्ति केवली सकललोकमरगाहते तथैवाचित्तमहास्कन्धोऽपि। तथाहि-लोकमध्यव्यवस्थितः समुद्घातवतिकेवली प्रयमसमये तिर्यग्संख्यातयोजनविस्तरं संख्यातविस्तरं वा ऊर्वाधस्तु चतुर्दशरसंख्यात भागों में तथा कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य, लोक के असंख्यात भागों में और कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में अवगाहित होकर रहता है । जैसे कि अनंतानंत पुद्गल परमाणुओं के समूह से निष्पन्न हुआ अषिस महास्कंध । यह अचित्त महा स्कंधरूप आनु. पूर्वी द्रव्य एक समय में सकल लोक को अषगाहित करता रहता है।
शंका- यह अचित्त महारकंध सकललोक में कैसे अथगाहित हो जाता है ? ___ उत्तर-जैसे समुद्घातवर्ती केवली सकल लोक में समा जाते हैंउसी प्रकार से अचित्त महास्कंध भी सकल लोक में अवगाहित होजाता है- समा जाना है। अर्थात् लोक के मध्य में व्यवस्थित हुआ केवली जय समुद्धात करता है तो वह प्रथम समय में आत्मा के प्रदेशों को दण्डाकार रूप में परिणमाता है । यह दण्डाकार रूप परिणमन છે, તથા કેઈ એક આનુપૂર્વ દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કે ઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગોમાં રહે છે, અને કોઈ એક આવી દ્રવ્ય સમસ્ત લોકમાં અવગાહિત થઈને રહે છે જેમ કે અનંતાનંત પુદ્ગલ પરમાણુઓના સમૂહમાંથી નિપન્ન થયેલ અચિત્ત મહાત્કંધ તે અચિત્ત મહાસકધ રૂપ આનુપૂ દ્રવ્ય એક સમયમાં સકળ લોકને અવગાહિત કરી શકે છે.
પ્રશ્ન-તે અચિત્ત મહાસકંધ સકલ લેકમાં કેવી રીતે આગાહિત થઈ જાય છે.
ઉત્તર જેવી રીતે સમુદ્રઘાતવતી કેવલી સકળ લોકમાં સમાઈ જાય છેઅવગાહિત થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે અચિત્ત મહાધ પણ સકલ લેકમાં અવગાહિત થઈ જાય છે–સમાઈ જાય છે એટલે કે લેકની મધ્યમાં રહેલા કેવળી જ્યારે સમુદુવાત કરે છે, ત્યારે પ્રથમ સમયે આત્મપ્રદેશે ને દંડાકાર
For Private and Personal Use Only
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
मनुयोगचन्द्रिकाटीका सूप ४ क्षेत्रनिरूपणम् ज्जायतं विश्रसापरिणामेन वृत्तं दण्डं करोति, द्वितीये कपाटं करोति, तृतीये मन्थानं करोति, चतुर्थेऽन्तरालपूरणेन सकललोकव्याप्तिं करोति, पञ्चमेऽन्तराणि संहरति, षष्ठे मन्थानं, सप्तमे कपाटम् , अष्टमे पुनर्दण्डं संहरति । ततः स्वावस्या पतिपद्यते । एवमचित्तमहास्कन्धोऽपि समयमेकं सकललोकमवगाहने इति ।
. तथा-नानाद्रव्याणि आनुपूर्वीपरिणामयुक्तानि अनन्तानि द्रव्याणि प्रतीत्य: आश्रित्य द्रव्याणि नियमाव-नियमतः सर्वलोके भवन्ति-सकललोकमवगाइन्ते । उनका तिर्यक में संख्यात योजन नक अधा असंख्यात योजन तक विस्तृत होता है। तथा ऊर्ध्व और नीचे में १४राजु प्रमाण लंया होता है। आत्मप्रदेशों का यह दण्डाकार रूप परिणमन स्वाभाविक होता है नितीय समय में उनके वे आत्मप्रदेश कपाट के आकार में परिणम जाते हैं। तृतीय समय में मंथान रूप हो जाते हैं । और चौथे समय में अन्तराल की पूर्ति कर वे सकल लोक में व्याप्त होगाते हैं पांचवें समय में अंतरालों को संकुचित कर छठवें समय में मन्थान का सातवें समय में कपाट का आठवें समय में दण्ड का संकोच कर अपने आप में समाजाते हैं- पूर्वावस्थापन्न हो जाते हैं । इसी प्रकार अचित्त महा. स्कन्ध भी एक समय में सकल लोक को व्याप्त कर लेता है । (गाणा. दवाई पडुच्च नियमा सबलोए होज्जा) तथा आनुपूर्वी परिणाम युक्त अनंतद्रव्यों को आश्रित करके वे द्रव्य नियम से सर्वलोक में રૂપે પરિણુમાવે છે. તેમનું આ દંડાકાર રૂપ પરિણમન તિર્થગ્ન લેકમાં સંથાત જન સુધી અથવા અસંખ્યાત જન સુધી વિસ્તૃત થયેલું હોય છે, તથા ઉદર્વ અને અધભાગમાં ૧૪ ચૌદ રાજુપ્રમાણુ લાંબુ હોય છે. આત્મપ્રદેશનું આ દંડાકા૨ ૫ પરિમન સ્વાભાવિક હોય છે. બીજા સમયમાં તેમના તે આત્મપ્રદેશે કપાટના આકારમાં પરિણમન પામે છે ત્રીજા સમયમાં મંથાનરૂપ થઈ જાય છે, અને એથા સમયમાં અન્તરાલની પૂર્તિ કરીને સકળ લેકમાં વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. પાંચમા સમયમાં અંતરાલને સંકુચિત કરીને છા સમયમાં મંથાનને સંકુચિત કરીને, સાતમાં સમયમાં કપાટને અને આઠમાં સમયમાં દંડને સંકુચિત કરીને પિતાના શરીરમાં જ સમાઈ જાય છે એટલે કે પૂર્વાવસ્થામાં આવી જાય છે એ જ પ્રમાણે અચિત્ત મહાઅંધ ५५ समयमi awadisa या 1 . (णामादबाई पदुच्च नियमा सम्बोए होना) त। मानुषा परिणाम त मानत यानी अपेक्षा पियार કરવામાં આવે છે તે દ્રવ્ય સમસ્ત લાકમાં અવગાહિત છે. આ કથનનું
For Private and Personal Use Only
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३५२
अनुयोगद्वार
-
अयं भावः सर्वलोकाकाशस्य नास्ति कोऽपि प्रदेशो यत्र सूक्ष्मपरिणामपरिणतानि अनन्तानि आनुपूर्वीद्रव्याणि न सन्ति किन्तु सर्वत्र सन्ति । नस्वेवानि. नानाद्रव्याणि संख्येयतमादिप्रदेशेषु सन्तीति । एवं नैगमव्यवहारसम्म तानानुपूवक्तव्य द्रव्यविषयेऽपि पञ्च पञ्च प्रश्नाः । उत्तरस्त्वेवं विज्ञेयः - एकं द्रव्य माश्रित्यानानुपूर्वीद्रव्यम् अवक्तव्यकद्रव्यं च लोकस्य असंख्येयतमभागे भवति, अवगाहित हैं । तात्पर्य इसका यह है कि समस्त लोकाकाश का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहां पर सूक्ष्म परिणाम से परिणत हुए अनंत आनुपूर्वी द्रव्य न हो । अर्थात् लोक में सर्वत्र आनुपूर्वी द्रव्य है ये आनुपूर्वी अनेक लोक के संख्यातवें अथवा असंख्यातवे :: भाग में नहीं हैं। इसी प्रकार से नैगम और व्यवहारनय संमत अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी पांच २ प्रश्न होते हैं जो ( नेगमववहाराणं अणाणुपुत्री दव्बाई कि लोयस्स संखिज्जइ भागे, होज्जा जाव सव्वलोए वा होज्जा ?) इन पर्दों द्वारा व्यक्त किये गये हैं। इन प्रश्नों का उत्तर भी ( एगं दव्वं पडुच्च नो संखेज्जह भागे, होता, असंग्विज्जइ भागे होजा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा. नों असंखेज्जेसु भागेषु होज्जा नो मव्वलोए होज्जा ) इनसूत्रांशों द्वारा: इसप्रकार दिया गया है कि एक द्रव्य को आश्रित करके अनानुपूर्वी द्रव्य और ranars द्रव्य लोक के अमख्यातवें भाग में अवगाहित
તાપ એ છે કે સમસ્ત લેાકાકાશનો કોઈ પણ પ્રદેશ એવા નથી કે જ્યાં સૂક્ષ્મ પિરણામથી પિરણત થયેલાં અન ંત આનુપૂર્વી દ્રવ્યે ન હેાય એટલે કે લેાકમાં સર્વત્ર આનુપૂર્વા દ્રબ્યાનુ' અસ્તિત્વ છે તે અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્યે લેકના સખ્યાતમાં અથવા અસંખ્યાતમાં ભાગમાં નથી પણ સમસ્ત લેકમાં છે, એમ સમજવુ એજ પ્રમાણે નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય મને અવકતવ્યક દ્રવ્યે.ના વિષયમાં પશુ પાંચ-પાંચ પ્રશ્નો પૂછી शाय हे ने प्रश्नो नीयेना सूत्र ६२ पूछत्राभां अव्या . ( नेगमववहा राण अणाणुपुत्री दव्वाइ' किं खोयरस संखिज्जइभागे होज्जा, जाबः सव्वलोए वा होज्जा ? ) नैगम गमने व्यवहार नय संभत मनानुपूर्वी द्रव्यो शुभ લાકના સખ્યાતમાં ભાગમાં, કે સખ્યાત નાગામાં કે અસખ્યાત ભાગેામાં કે સમસ્ત લેકમાં અવગાહિત થઈને રહે છે ?
मह
उत्तर-"एर्गं दव्ब ं पहुच्च नो संखेज्जइ भागे, होज्जा, असंखेज्जइ मागे दोजा नो मुंखेज्जेसु भागेसु होजा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सोए होता " ले द्रव्यनी अपेक्षा वियार કરવામા આવે તા અના નુપૂર્વી દ્રવ્ય અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય લાકના અસખ્યાતમાં ભાગમાં જ ५५ગાહિત થઇને રહે છે, સખ્યાતમાં ભાગમાં, સખ્યાત ભાગામાં, અસંખ્યાત
For Private and Personal Use Only
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८४ क्षेत्रनिरूपणम् न तु संख्येयतमभागे । अनानुपूर्वीद्रव्यं हि परमाणुरुध्यते स चैकैकाकाशमदेशा. बगाढ एव भवति, अाक्तव्याद्रव्यं च द्वयणुकस्कन्धः, स चैकपदेशावगाढो द्विप्रदेशावगाडो वा स्यादित्यनयोरसंख्येयभागवृत्तित्वमेव । नानाद्रव्याणि मतीत्य नियमात्सर्वलोकावगाहना पूर्ववद् बोध्या ॥ सू० ८४॥ होकर रहते हैं । संख्यातवें भाग में नहीं । परमाणु अनानुपूर्वी द्रव्य है। वह आकाश के एकप्रदेश में ही अवगाहित- होकर रहता है। क्यों कि वह स्वयं एकादेशी है । घणुक जो स्कंध है। वह अवक्त. व्यक द्रव्य है । वह लोकाकाश के एक प्रदेश में भी रहता है और दो प्रदेश में भी रहता है । इस प्रकार इन दोनों की पुत्ति लोक के असं. ख्यात भाग में ही है, नाना अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को आश्रित करके नाना अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्यक नियम से समस्त लोकाकाश में रहते हैं । क्यों कि आकाश का कोई प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहां पर इनका सद्भाव न हो।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा आनुपूर्वी आदि द्रव्यों के रहने के विषय में किये गये पांच प्रश्नों का उत्तर एक और नाना द्रव्यों को लेकर दिया गया है-ये पांच प्रश्न इस प्रकार से हैं-१ अनानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं ? २ या असंख्यातवें भाग में रहते हैं ३ या लोक के संख्यात भागों में रहते हैं ? या ४ असंख्यात ભાગોમાં કે સર્વલેકમાં અવગાહિત થઈને રહેતા નથી પરમાણ અનાનુપૂવી દ્રવ્યરૂપ છે. તે આકાશના એક પ્રદેશમાં જ અવગાહિત થઈને રહે છે કે અણુવાળે જે સ્કંધ છે તે અવકતવ્યક દ્રરૂપ છે. તે કાકાશના એક પ્રદેશમાં પણ રહે છે અને બે પ્રદેશમાં પણ રહે છેઆ રીતે તે બનેની અવગાહના લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ છે. વિવિધ અનાનુપૂવી છે અને અવકતવ્યક દ્રની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેઓ સમસ્ત
કાકારામાં રહે છે, એમ સમવું જોઈએ, કારણ કે આકાશને કોઈ પણ પ્રદેશ એ નથી કે જ્યાં તેમને સદભાવ ન હોય,
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આનુપૂવ આદિ દ્રવ્યની અવગાહના વિષે પૂછવામાં આવેલા પાંચ પ્રશ્નનો ઉત્તર એક દ્રવ્ય અને અનેક દ્રવ્યોને અનુલક્ષીને આપે છે. તે પાંચ પીને નીચે પ્રમાણે છે-(૧) આપવી દ્રવ્ય શું લેકના સંખ્યામાં ભાગમાં રહે છે? અથવા (૨) અસંખ્યાતમાં
भ० ४५
For Private and Personal Use Only
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे भागों में रहते हैं ४ या समस्त लोक में रहते हैं १५ उत्तर- पुदल द्रव्य का आधार यद्यपि सामान्य रूप से लोकाकाश ही नियत है तथापि-विशेष रूप से भिन्न २ पुद्गल द्रव्य के आधार क्षेत्र के परिमाण में अन्तर होता है, वही अन्तर इस उत्तर में प्रकट किया गया है- क्योंकि भिन्न २ व्यक्ति होते हुए भी पुद्गलों के परिमाण में विविधता है एक रूपता नहीं है । इसलिये यहां उनके आधार का परिमाण अनेक रूप से कहा गया है-सारांश यह है कि आधार भूत क्षेत्र के प्रदेशों की संख्या आधेयभूत पुगदल द्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है अधिक नहीं। इसलिये एक परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्य आकाश के एकही प्रदेश में स्थित रहता है। पर द्वयणुक एक प्रदेश में भी ठहर सकता है और दो प्रदेश में भी । इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढते बढते पणुक, चतुरणुक, यावत् संख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश यावत् संख्यात प्रदेश क्षेत्र में ठहर सकते हैं । संख्याताणु द्रव्य की स्थिति के लिये असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं पड़ती। ભાગમાં રહે છે? (૩) અથવા શું લેકના સંખ્યાત ભાગોમાં રહે છે ? (૪) અથવા શું લોકના અસંખ્યાત ભાગોમાં રહે છે? (૫) અથવા શું સમસ્ત લેકમાં રહે છે.
ઉત્તર-પુદ્ગલ દ્રવ્યોને આધાર જે કે સામાન્ય રૂપે કાકાશ જ નિયત છે, છતાં પણ વિશેષ રૂપે ભિન્ન ભિન્ન પુતદ્રવ્યના આધારક્ષેત્રના પરિમાણમાં અન્તર હોય છે, એજ અન્તર આ ઉત્તરમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે-કારણ કે ભિન્ન ભિન્ન પદાર્થ હોવા છતાં પણ પુલના પરિમાશુમાં વિવિધતા છે, એકરૂપતા નથી તેથી અહીં તેમના આધારનું પરિમાણુ (પ્રમાણ) અનેક રૂપે કહેવામાં આવ્યું છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે આધારભૂત ક્ષેત્રના પ્રદેશોની સંખ્યા આધેયભૂત પુદ્ગલદ્રવ્યના પરમાણુઓની સંખ્યા કરતાં ન્યૂન અથવા તેના જેટલી જ હોઈ શકે છે, પણ અધિક હોઈ શકતી નથી તેથી એક પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય આકાશના એક જ પ્રદેશમાં રહે છે, પણ બે અણુવાળું અવક્તવ્યક દ્રવ્ય આકાશના એક પ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે અને બે પ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે. આ રીતે ઉત્તરોત્તર પરમાણુઓની અથવા પ્રદેશની વૃદ્ધિ થતાં થતાં ત્રણઆવુવાળા, ચારે અણુવાળા યાવત્ સંખ્યાતાથુક સ્કંધ એક પ્રદેશમાં, બે પ્રદેશમાં, ત્રણ પ્રદેશમાં યાવત્ સંખ્યાત પ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે. સંખ્યાત અણુવાળા
For Private and Personal Use Only
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८५ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् सम्पति स्पर्शनाद्वाररूपं चतुर्थ भेदमाह
मूलम्-नेगमववहाराणं आणुपुवीदव्वाइं लोगस्स किं संखे. ज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति ? संखेज्जे भागे फुसंति ? असंखेग्जे भागे फुसंति ? सव्वलोगं फुसंति?। एगं दव्वं पडुच्च लोगस्त संखेजहभागं वा फुसइ जाव सबलोगं वा फुसइ। णाणादनाई पडुच्च नियमा सव्वलोग फुसंति। णेगमववहाराणं अणाणुपुवीदवाई लोयस्स कि संखिजइभागं फुसंति असंख्याताणुक स्कंध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने घरा. घर की असंख्यात संख्यावाले प्रदेशों के क्षेत्र में ठहर सकता है। अनंताणुक और अनंतानंताणुक स्कंध भी एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रम से षढते २ संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं उनकी स्थिति के लिये अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र की जरूरत नहीं है । पुगद्ल द्रव्य का सबसे बड़ा स्कंध जिसे अचित्त महास्कंध कहते हैं और जो अनंतानंत अणुओं का बना हुआ होता है वह भी . असंख्यात प्रदेश लोकाकाश में ही ठहर जाता है । इस प्रकार आनु: पूर्वी आदि एक द्रव्य की अपेक्षा इस कथन को हृदय में धारण करके इस सूत्र को लगाना चहिये । नाना द्रव्य की अपेक्षा इन समस्त द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में है ॥ सू० ८४॥ દ્રવ્યને રહેવા માટે અસંખ્યાત પ્રદેશાવાળા ક્ષેત્રની જરૂર પડતી નથી અસં. ખ્યાત અણુવાળે અંધ એક પ્રદેશથી લઈને વધારેમાં વધારે પિતાના જેટલી જ અસંખ્યાત સંખ્યાવાળા પ્રદેશના ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે અનંત આજીવાળો અથવા અનંતાનંત અણુવાળે સ્કય પણ એકથી લઈને સંખ્યાત પર્યાના પ્રદેશવાળા અને અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે, તેને રહેવાને માટે અનંત પ્રદેશોવાળા ક્ષેત્રની આવશ્યકતા રહેતી નથી પુદ્ગલ દ્રવ્યને સૌથી મોઢે ઠંધ કે જેને અચિત્ત મહાધ કહે છે અને જે અનંતાનંત અણુઓને બનેલું હોય છે, તે પણ લેકાકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં જ રહી શકે છે. આ પ્રમાણે અનાનુપૂર્વી આદિ સ્કન્ધદ્રવ્યની અપેક્ષાએ આ કથનને હૃદયમાં ધારણ કરીને આ સૂત્રને અર્થ સમજ જોઈએ વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ આ સમસ્ત દ્રવ્યોનું અવગાહન સમરતકાકાશમાં છે. સૂ૦૮૪ના
For Private and Personal Use Only
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे जाव सवलोगं फुसंति ? एगं दव्वं पडुञ्च नो संखिज्जइ भागं फुसइ, असंखिज्जइ भागं फुसइ नो संखिजे भागे फुसइ, नो असंखिजे भागे फुसइ, नो सव्वलोयं फुसइ । नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोयं फुसंति। एवं अवत्तव्यगदव्वाई भाणियन्वाइं ॥सू०८५॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वी द्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभाग स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? संख्येयान् भागान स्पृशन्ति ? असंख्येया भागान् स्पृशन्ति ? सर्वलोक स्पृशन्ति ? । एक द्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्ये
अब सूत्रकार स्पर्शनाद्वार नामक चतुर्थ भेद का कथन करते हैं"नेगमववहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ- ( नेगमववहाराणं आणुपुब्बी दयाई लोगरस कि संखे. उजहभागं फुसंति ? ) नैगमव्यवहारनय संमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ( असंखेन्जहभागं फुसंति) या असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ( संखेज्जे भागे फुसंति ) या संख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? ( असंखेज्जे भागे फुसति ) या असंख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? (सत्यलोग फुसंति) समस्त लोक का स्पर्श करते हैं- ?
उत्तर- ( एग दव्वं पडुच्च लोगस्त संखेज्जहभागं वा फुसइ जाव सच लोग वा फुसइ ) व्यणुक स्कंध से लेकर अनन्नाणु स्कंध
હવે સૂત્રકાર અનુગામના સ્પર્શના નામના ચોથા દ્વરનું નિરૂપણ કરે છે" नेगमयवहाराण" त्या
शाय-(नेगमववहाराण आणुपुयी दबाइ लोगस्स किं संखेज्जइ भाग कुसंति ) नाम सन व्यवहार नयस मत भने भानुपूर्वी द्रव्य शुसोना सयतमा नागना १५० ४२ छ ? ( असंखेजइ भाग फुसंति ?) मसभ्यातमा भागना २५ रे छ १ (संखेज्जे भागे फुति ?) सन्यात भागानी २५ रे छ ? ( असंखेज्जे भागे फुसंति ?) ३ सयात नागेन। ५५ ४२ छ ? { सव्वळोगं फुसंति ?) समस्त सेना २५ ४३ छ ?
उत्तर-(एग दव पडुच्च लोगस्त संखेज्जइभाग वा फुसइ जाव सबलोग वा फुसइ) निमा २४ थी सन मनन्तY १४५ ५-तना भानु
For Private and Personal Use Only
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८५ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ३५७.. यतमभाग वा स्पृशति यावत् सर्वलोकं या स्पृशति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । नैगमव्यवहारयोरनानुपूर्वी द्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभागं स्पृशन्ति । यावत् सर्वलोकं स्पृशन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य नो संख्येपतमभागं स्पृशति, असंख्येयतमभागं स्पृशति, नो संख्येयान् भागान् स्पृशति, नो असंख्येयान् भागान् स्पृशति, नो सर्वलोकं स्पृशति। नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोक स्पृशन्ति । एवम् अवक्तव्यक द्रव्याणि भणितव्यानि ॥२०८५॥ तक के आनुपूर्वी द्रव्यों में से सामान्यतः कोई एक आनुपूर्वी द्रव्यलोक के संख्यातवें भाग की कोई एक लोक के असंख्यातवें भाग की कोई एक संख्यात भागों की कोई एक असंख्यात भागों की और कोई एक सर्व लोक की स्पर्शना करते हैं (णाणा दवाई पडुच्च नियमा सव्वलोगं फुसंति) तथा नना आनुपूर्वी द्रव्य-अनन्त आनुपूर्वी परिणामयुक्त द्रव्य नियम से सर्वलोक की स्पर्शना करते हैं । (णेगमववहाराणं अणाणुव्वी दवाई लोयस्स कि संखेज्जा भागं फुसति, जाव सव्वलोगं फुसति? ) नैगम व्यवहार नय संमत समस्त अनानुपूर्वी द्रव्यों में कोई एक अनानुपूर्वी द्रव्य क्यालोक के संख्यातवें भाग की स्पर्शना करते हैं?
उत्तर- ( एगं दव्वं पडुच्च नो संखिज्जहभागं फुसइ, असंखि उजइ. भागं फुसह नो संखिज्जे भागे फुसह, नो असखिज्जे भागे फुसह, नो सबलोगं फुसह) एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर अनानुपूर्वी પૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગને સપર્શ કરે છે, કોઈ એક અનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શ કરે છે, કોઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યત ભાગોને, કેઈ એક આનુપૂરી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગને અને કેઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સમસ્ત લેકને સ્પર્શ કરે છે. (णाणा दवाई पहुच्च नियमा सव्वलोग फुसंति ) तथा विविध सानु દ્રવ્ય-અનંત આનુપૂવી પરિણામયુકત દ્રવ્ય નિયમથી સર્વલેટની સ્પર્શના કરે છે.
(णेगमववहाराण आणाणुपुत्वी दवाई लोगस्स कि संखेज्जइभाग फुसंति, जाव सव्वलोग फुसंति ?) नैगम भने ०५४२ नयभत समस्त અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાંનું કેઈ એક અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય શું લેકના સખાતમાં ભાગની કે અસંખ્યાતમાં ભાગની, કે સંધ્યાત ભાગેની, કે અસંખ્યાત ભાગેની કે સમસ્ત લેકની સ્પર્શના કરે છે?
6त्तर-(एग दब पडुच्च नो संखिज्जहभागं फुसह, असंखिजा भाग फुसइ, नो संखिज्जे भागे फुसइ, नो असंखिज्जे भागे फुसइ, नो सब्व.
For Private and Personal Use Only
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
-
www.kobatirth.org
1
टीका- 'नेगमववहाराणं ' इत्यादि । क्षेत्रद्वारवत् अत्रापि प्रश्नोत्तरप्रकारो बोध्यः । क्षेत्रस्पर्शनयो स्त्वयं विशेषः । परमाणुदव्यस्यावगाहना एकस्मिन्नाकाशप्रदेशे भवति तत् क्षेत्रम्, स्पर्शना तु परमाणुद्रव्यस्य सप्तमुपदेशेषु षड् दिव्यवस्थितान् षट्पदेशान् यत्र च स्वाव गाहना तमपि प्रदेशं स्पृशति परमाणुद्रव्यम् ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
द्रव्य लोक के संख्यात भाग की स्पर्शनता नहीं करता है । किन्तु अस रूपात भाग की ही स्पर्शना करता है। लोक के संख्यान भागों की यह स्पर्शना नहीं करता है, असंख्यात भागों की वह स्पर्शना नहीं करता है और न वह सर्वलोक की स्पर्शना करता है । ( नाणा दव्बाई पहुंच्च नियमा सम्बलोयं फुसंति ) नाना द्रव्यों की अपेक्षा वे अनानुपूर्वी द्रव्य नियमतः समस्त लोक की स्पर्शना करते हैं । ( एवं अवन्तsaiदव्बाई माणियन्वाइं ) इसी प्रकार से नाना अवक्तव्यक द्रव्यों के . विषय में भी जानना चाहिये ।
For Private and Personal Use Only
-
भावार्थ - क्षेत्रद्वार की तरह यहां पर भी प्रश्नोत्तर का प्रकार जानना चाहिये। क्षेत्र के स्पर्शन में यह भेद है कि परमाणु की जो अवगाहना एक आकाश प्रदेश में होती है वह क्षेत्र है, तथा परमाणु की जो निवासस्थान रूप आकाश के चारों ओर के प्रदेशों को छूना होता है वह स्पर्शना है यह उत्कृष्ट स्पर्श छूना परमाणु का आकाश छोग फुसइ) शेड नानुपूर्वी द्रव्यनी अपेक्षा वियार उरवामां आवे तो આ પ્રમાણે કથન સમજવુ’-એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સખ્યાતમાં ભાગની સ્પના કરતું નથી, સખ્યાત ભાગાની સ્પના પણ કરતું નથી, અસંખ્યાત ભાગેાની સ્પર્શના પણ કરતુ નથી, અને સમસ્ત લેાકની પશુ પના કરતું નથી, પણ અસખ્યાતમા ભાગની જ સ્પર્શના કરે છે. (नाणादवाई पडुच्च नियमा सम्बलोय फुसंति) विविध द्रव्योनी अपेक्षाओ વિચાર કરવામાં આવે તે તે અનાતુપૂર્વી દ્રવ્યેા નિયમથી જ સમસ્ત લેાકની स्पर्शनारे छे. ( एवं अवतन्त्र गदव्बाई भाणियव्वाई ) खेन प्रभा भव તન્યક દ્રવ્યાની પના વિષે પણ સમજવું.
સમજવા
ભાવાથ –ક્ષેત્રદ્વારના જેવા જ અહીં પણ પ્રશ્નનેાત્તરના પ્રકાર ક્ષેત્ર અને સ્પશનમાં એ ભેદ છે કે પરમાણુદ્રવ્યની અવગાહના જે એક આકાશપ્રદેશમાં થાય છે તે ક્ષેત્રરૂપ છે, તથા પરમાણુ વડે તેના નિવાસ્થાન રૂપ આકાશના ચારે તરફના પ્રદેશાના જે સ્પશ થાય છે તેનું નામ સ્પના છે. પરમાણુના તે ઉત્કૃષ્ટ સ્પર્શ આકાશના સાત પ્રદેશામાં થાય છે. તે સાત
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका ठीका सूत्र ८५ स्पर्शनास्वरूपनिरूपणम् ___यत्तु सौगता:-परमाणुद्रव्यमादिमध्यान्त्यादिविभागरहितं निरंशमेकस्वरूप मिष्यते तस्य परमाणुद्रव्यस्य पहदिकस्पर्शनाऽभ्युपगमे तदेकत्वसिदान्तो नोपपद्यते-यदि येनैव स्वरूपेण परमाणुः पूर्वाधन्यतरदिशया सम्बद्धस्तेनैवान्य दिग्भिरित्युच्यते, तर्हि-अयं पूर्वदिक्सम्बद्धः, अयं चापरदिक्सम्बद्ध इत्यादि विभागो न स्यात् , एकस्वरूपत्वात् , यदि विभागाभाव एक इष्ट इत्युच्यते, तर्हि के सात प्रदेशों में होता है चारों दिशाओं के चार प्रदेश और ऊपर नीचे के दो एवं जहां उसकी अपनी अवगाहना है एक वह प्रदेश इस प्रकार ये सात प्रदेश हैं। "इस स्पर्शना के विषय में जो बौद्धों का ऐसा कहना है कि परमाणु द्रव्य तो आदि मध्य, और अन्त आदि के विभाग से निरंश एक रूप है । फिर वह छह दिशाओं को स्पर्श करता है, ऐसा स्वीकार कैसे किया जा सकता है ? यदि ऐसा स्वीकार किया जाये तो उसमें एकत्व का सिद्धान्त घटित नहीं हो सकता है क्यों कि जिसस्वरूप से परमाणु पूर्वआदि किसी एक दिशा से सम्बध है यदि वह उसी स्वरूप से अन्य दिशाओं से भी सम्बद्ध है तो इस मान्यता में फिर ऐसा विभाग नहीं बन सकता कि यह परमाणु का पूर्व दिग सबद्ध प्रदेश है यह अपर दिक्सबद्ध प्रदेश है। क्यों कि वह एकरूप स्वीकार किया गया है । अतः यह मानना चाहिये कि परमाणु जब सप्त प्रदेशों को छूता है तो उसमें विविध रूपता होने से वह एक रूप नहीं हो પ્રદેશ નીચે પ્રમાણે છે–ચારે દિશાઓના ચાર પ્રદેશ, ઉપરને એક પ્રદેશ, અને નીચેને એક પ્રદેશ અને જ્યાં તેની પિતાની અવગાહના છે તે એક પ્રદેશઆ રીતે તે વધારેમાં વધારે સાત આકાશપ્રદેશને સ્પર્શ કરે છે. આ સ્પર્શના વિષયમાં બૌદુધની એવી જે માન્યતા છે કે પરમાણુ દ્રવ્ય તે આદિ, મધ્ય અને અન્ન આદિના વિભાગથી રહિત નિરંશ (અંશ રહિ)-એકરૂપ જ છે તે પછી એ સ્વીકાર કેવી રીતે કરી શકાય કે તે છ દિશાઓને સ્પર્શ કરે છે? જે એ સિદ્ધાંત સ્વીકારવામાં આવે તે તેમાં એકત્વને સિદ્ધાંત ઘટિત થઈ શકતું નથી, કારણ કે સ્વરૂપે પરમાણુ પૂર્વાદિ કઈ એક દિશામાં સંબદ્ધ છે, એવાં જ સ્વરૂપે જે તે અન્ય દિશાઓ સાથે પણ સંબંધ હોય, તે આ માન્યતામાં એ વિભાગ સંભવી શકતું નથી કે પરમાણુને આ પ્રદેશ પૂર્વદિભાગ સાથે સંબદ્ધ છે અને આ પ્રદેશ પશ્ચિમ દિભાગ સાથે સંબદ્ધ છે, કારણ કે તેને તે નિરંશ રૂપે (એક રૂપે) સ્વીકા૨વામાં આવ્યું છે. તેથી એવું માનવું જોઈએ કે પરમાણુ સાત પ્રદેશને સ્પર્શ કરતું હોવાથી તેમાં વિવિધ રૂપતા હોવાથી તે એકરૂપ હોઈ શકતું
For Private and Personal Use Only
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगद्वारसूत्रे पहादिक्सम्बन्धकथनं विरुध्यते, यदि येन स्वरूपेण परमाणुः पूर्वाधन्यतरदिशया सम्बद्धस्तद्भिनभिन्नतरूपेणापरदिग्भिः संबध्यते इत्युच्यते तर्हि परमाणोः षट् स्वरूपापच्या एकत्वं हीयते, इति वदन्ति तन सम्यक् । .. परमाणुव्यतया निरंश एव, एक एव, तथापि परमाणोः परिणामशक्ति रचिन्त्याऽस्तीति तथाविधपरिणामसद्भावाद् दिक्षट्केन सह नन्तर्येणावस्थान संभवतीति तस्य सप्तमु प्रदेशेषु स्पर्शना कथनं नानुपपन्नमिति ।। सू० ८५॥ . सकता है। यदि एक रूपता मानने के लिये विविध रूपतारूप विभागका अभाव ही इष्ट रखा जावे तो फिर उसमें षदिक छ दिशा मोका संबंध कथन विरुद्ध पड़ता है। तात्पर्य इसका यह है कि परमाणु जिस स्वरूप से पूर्व आदि किसी एक दिशा के साथ संबद्ध है उसका वह निजरूप भिन्न है और अपर आदि दिशाओं के साथ संबद्ध स्वरूप भिन्न है तो फिर इस प्रकार स्वरूप में भिन्नता आने के कारण-छह स्वरूपता की आपत्ति का प्रसंग हो जाने के कारण- उसमें एकत्व की हीनता ही आती है।
अतः बौद्धों का ऐसा कथन ठीक नहीं है- क्यों कि परमाणु द्रव्य रूप होने के कारण निरंश ही है एक ही है फिर भी परमाणु की परिमाण शक्ति अचिन्त्य है इसका कारण उस प्रकार के परिणाम के सद्भाव से छह दिशाओं के साथ उसका निरन्तर रूप अवस्थान संभवित है। इसलिये सात प्रदेशों में स्पर्श ना कथन अघटित नहीं है। मृ०८५॥ નથી જે એકરૂપતા માનવાને માટે વિવિધ રૂપતા રૂપ વિભાગને અભાવ જ ઈષ્ઠ માનવામાં આવે, તે તેમાં છ દિશાઓ સાથે સંબદ્ધ હોવાનું કથન વિરુદ્ધ પડે છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમાણુ જે સ્વરૂપે પવરિ કોઈ એક દિશાની સાથે સંબદ્ધ છે, તેનું તે નિજરૂપ ભિન્ન છે અને પશ્ચિમ આદિ દિશાઓની સાથે સંબદ્ધ સ્વરૂપ પણ ભિન્ન હોય તે આ રીતે સ્વ. પમાં ભિન્નતા આવવાને કારણે છ પ્રકારના સ્વરૂપે માનવાને પ્રસંગે પ્રાપ્ત થશે અને તે કારણે તેમાં એકત્વને અભાવ આવવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે.
તેથી બદ્ધોની એ પ્રકારની માન્યતા સાચી નથી, કારણ કે પરમાણુ દ્રવ્ય રૂપ હોવાને કારણે નિરંશ જ છે–એક જ છે, છતાં પણ પરમાણુની પરિણામશકિત અચિંત્ય છે. તે કારણે તે પ્રકારના પરિણામના સદભાવમાં છે દિશાઓની સાથે તેનું નિરંતર રૂપ અવસ્થાન સંભવિત છે. તેથી સાત જિલ્લાઓમાં તેને સ્પર્શનું કથન અઘટિત (અનુચિત) નથી. સૂ૦૮પા
For Private and Personal Use Only
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिकटी का सूत्र ८६ कालद्वारनिरूपणम्
उक्तं स्पर्शनाद्वारम् इदानीं पश्चमं कालद्वारमाह
1
मूलम् - गमववहाराणं आणुपुव्वी दव्वाई कालओ केवचिरं होई ? एगं दव्वं पहुच्च जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादव्वाइं पडुच्ष णियमा सव्वद्धा । अणामुवी दवाई अवसव्वग दव्वाई व एवंवेव भाणियव्वाई। सू.८६।
छाया - नेगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एवं समयम् उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नाना द्रव्याणि मकीय नियमात् सर्वादा। अनानुपूर्वीद्रव्याणिभवक्तव्यक द्रव्याणि च एवमेव मणितव्यानि ॥ ०८६ ॥
३६१
स्पर्श द्वार को कह कर अब सूत्रकार पाँचवें कालद्वार का कथन करते हैं- " नेगमववहाराणं आणुपुब्बी दव्वाई" इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( नेगमववहाराणं आणुवुन्धी दव्वाई ) नैगम और व्यथहार इन दो नय संमत आनुपूर्वी द्रव्य ( कालभो ) काल की अपेक्षा से (tapaai) कितने काल तक (होई) आनुपूर्वी रूप से रहते हैं ? ( एगं दबं पडुच्च जहण्जेणं एगं समयं )
उत्तर- आनुपूर्वी द्रव्य एक आनुपूर्वी की अपेक्षा को लेकर कम से कम एक समय और ( उक्कोसेणं असंखेज कालं ) अधिक से अधिक असंख्यात काल तक आनुपूर्वी रूप से रहता है । ( णाणादवाई पडुच्च णियमा सव्वद्धा ) तथा नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेસ્પર્શનાદ્વારનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર અનુગમના પાંચમાં ભેદ રૂપ કાળદ્વારનું અન કર્યું છે—
" नेगमवबहा राण' आणुपुव्वी दव्वाई " त्याहि-
शब्दार्थ' - ( नेगमववहाराणं अणुपुत्री दुव्बाइ) नेगम भने व्यवहार, या मे नमसंभित पानुपूर्वी द्रव्यो ( काळभो ) अणनी अपेक्षाओ (केवच्चिर') बेटा आज सुधी (होई) मानुपूर्वी ३ये २३ छे !
For Private and Personal Use Only
उत्तर- ( एग व पडुच्च जहणेण एग समय ) को आनुपूर्वी द्रव्यनी અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે તે એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય ઓછામાં ઓછા એક सभयं सुधी मने (उक्को सेण असंखेज्ज' काळ) वधारेमा वधारे असण्यात मज सुषी मानुपूर्वी ३ये रहे छे, (णाणादव्वाई' पहुच्च नियमा सम्बद्धा) तथा विविध આનુપૂવી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે અનેક આનુપૂર્વી ન્યાની સ્થિતિ સર્વકાળની હાય છે આ યનના ભાવાય નીચે પ્રમાણે છે.
अ० ४६
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१६२.
___ अनुयोगद्वारसूत्रे टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कालमाश्रित्य कियश्चिरंकियन्तं कालं भवन्ति ? । आनुपूर्वीत्वपर्यायेण कियकालम् अवतिष्ठन्ते ? इति. प्रष्टुराशयः। सूत्रे 'होई' इत्येकवचनमार्णत्वात् उत्तरमाह-आनुपूर्वीद्रव्यम् एकं द्रव्यं प्रतीत्य-आश्रित्य जघन्यत एक समयमवतिष्ठते, उत्कर्षत: असंख्येय काय. मवतिष्ठते । नानाद्रव्याणि-बहूनि आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रतीत्य आश्रित्य तु नियमत एषां सर्वाद्धा-सार्वकालिकी स्थितिर्भवति । अयं भावः-परमाणुद्वयादौ अपरेका दिपरमाणुमीलने सति अपूर्व किंचिदानुपूर्वीद्रव्यमुत्पद्यते, ततः समयावं पुनरप्ये: क्षा लेकर अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों की स्थिति सार्वकालिकी है तात्पर्य इसका यह है कि आनुपूर्वी द्रव्य का आनुपूर्वी द्रव्य रूप में रहने का जो एक समय रूप काल कहा गया है, वह इस प्रकार से है कि-परमाणुद्वय आदि में दूसरे एक आदि परमाणुओं के मिलने पर एक कोई अपूर्व आनुपूर्वी द्रव्य उत्पन्न हो जाता है बाद में एक समय के अनन्तर उसमें से एक आदि परमाणु के छूट जाने पर वह भानु: पूर्वी द्रव्य उस रूप से अपगत ( नष्ट ) हो जाता है। इसलिये एक आनुपूर्वी द्रव्य की, अपेक्षा से आनुपूर्वी रूप में रहने का काल जघन्य से एक समय कहा गया है। और जब वही एक आनुपूर्वीद्रव्य असंख्यात काल तक आनुपूर्वी द्रव्य रूप में रहकर एक आदि परमाणु से वियुक्त होता है तब उसकी अवस्थितिका कृरष्ट समय असंख्यात का कहा गया है। अवस्थिति वाल किसी भी एक
આનપૂવી દ્રવ્યને આનુવી” દ્રવ્યરૂપે રહેવાને જે એક સમય રૂપ કાળ કહે છે તે આ પ્રકારે કહા છે–
પરમાણુ યણુઆતિમાં (બે પરમાણુ માં) કોઈ એક આદિ અન્ય પરમાણ મળવાથી કોઈ એક અપૂર્વ દ્રવ્ય ઉત્પન્ન થઈ જાય છે ત્યાર બાદ એક સમય પછી તેમાંથી એક આદિ પરમાણુ વિયુક્ત (અલગ) થઈ જવાથી તે આનુપૂર્વ દ્રવ્ય તે રૂપમાંથી અપગત (નષ્ટ) થઈ જાય છે એટલે કે તે રૂપે રહેતું નથી તે કારણે એક આનુપૂવ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આનુપૂવ રૂપે રહેવાને કાળ એાછામાં ઓછો એક સમયને કહ્યો છે. અને જ્યારે એજ એ આનપૂ બ અસંખ્યાત કાળ સુધી આનુપૂર્વ દ્રવ્યરૂપે રહીને એક આદિ પરમાણુ રૂપે વિયુક્ત (અલગ) થઈ જાય છે ત્યારે તેની અવસ્થિતિને ઉત્કૃષ્ટ સમય અસંખ્યાત કાળને કહ્યું છે. કેઈ પણ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યને અવ
For Private and Personal Use Only
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगका टीका सूत्र ८६ कालद्वारनिरूपणम्
कायणौ वियुक्ते सति तदानुपूर्वीद्रव्यमपगतं भवति, अत एकमानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य जघन्यत एकः समयोऽवस्थितिकालः । यदा तु तदेवैकमानुपूर्वीद्रव्यमसङ्'ख्यातकालं तद्भावेन स्थित्वाऽनन्तरोक्तस्त्ररूपेण वियुज्यते, तदा तस्य उत्कृष्टतो
संख्येयोऽवस्थितिकाळ, नत्वनन्तोऽवस्थितिकालः, उत्कृष्टायां अपि पुद्गलसंयोगस्थितेरसंख्ये यकालत्वात्। बहूनि आनुपूर्वीद्रव्याणि आश्रित्य तु एषामानुपूर्वीद्रव्याणां नियमतः सर्वाद्धा स्थिति बोध्या । यतो नास्ति कवितादृशः काळो यत्रकालेऽयं लोक आनुपूर्वीद्रव्यरहितो भवेदिति ।
३६३
आनुपूर्वी द्रव्य का आनुपूर्वीरूप में रहने का काल अनन्त नहीं होता है । क्योंकि उत्कृष्ट भी पुद्गल संयोगस्थिति असंख्यात काल की ही होती है । अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा तो इन आनुपूर्वीद्रव्यों की स्थिति नियमतः सर्व कालंकी है। क्योंकि लोक में ऐसा कोई काल नहीं है कि जिसमें ये आनुपूर्वी द्रव्य नहीं हों। (अणाणुपुन्वी दव्बाई अवसव्यगदव्वा च एवं चैव भाणि वाई ) अनानुपूर्वी roat में और अवक्तयक द्रव्यों में भी जघन्य और उत्कृष्ट रूप काल एक द्रव्य और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा लेकर पूर्वोक्त रूपसे ही जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि कोई एक परमाणु एक समय तक अकेला रहकर बाद में किसी दूसरे परमाणु से संश्लिष्ट हो जाता है। इस लिये एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से उस अनानुपूर्वी रूप एक द्रव्य का अवस्थिति काल जघन्य से एक समय का और जब वही एक परमाणु
સ્થિતિકાળ (આનુપૂર્વી રૂપે રહેવાના કાળ) અનંત હાતા નથી, કારણ કે ઉત્કૃષ્ટ પુદ્ગલસચેાગસ્થિતિ પણ અમ્રખ્યાત કાળની જ હોય છે. અને આનુપૂર્વી દ્રચૈાની અપેક્ષાએ તે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્યેાની સ્થિતિ નિયમથી જ સકાલીન હૈાય છે, કારણ કે લેકમાં એવા કોઇ કાળ નથી કે જ્યારે આનુપૂર્વી દ્રગૈાનું અસ્તિત્વ જ ન હોય.
For Private and Personal Use Only
(अणाणुपुव्वी दव्वाई' अवत्तव्वगव्वाई' च एव चेव भाणियव्व) मनानुપૂર્વી દ્રબ્યમાં અને અવક્તવ્યક દ્રષ્યમાં પણ એક દ્રવ્ય અને અનેક દ્રવ્યેાની અપેક્ષાએ પૂર્વોક્ત જઘન્ય કાળ અને ઉત્કૃષ્ટ કાળ સમજી લેવા આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે. કેઇ એક પરમાણુ એક સમય સુધી એકહ્યુ` રહીને ત્યાર બાદ કાઈ ખીજા પરમાણુ સાથે સશ્લિષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યને અવસ્થિતિકાળ (અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે રહેવાના કાળ) આછામાં ઓછે. એક સમયના કહ્યો છે, અને જ્યારે એજ એક પરમાણુ
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
३६४
www.kobatirth.org
अनुयोगद्वारसूत्रे
एवमेव अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि च वक्तव्यानि । धनुपूर्वीद्रव्येषु अवक्तव्यद्रव्येषु च जघन्यत उत्कृष्टतचापि पूर्वोक्त एवावस्थानकाळः ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अयं भावः - कश्चित्परमाणुरेकं समयमेकाकी स्थित्वा ततोऽन्येन परमाणुना संश्लिष्टो भवति । अत एकमनानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य जघन्यत एकः समयोऽवस्थितिकालः । स एवैकः परमाणु र्यदा असंख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वाऽन्येन परमाणुना संश्लिष्यति, तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽवस्थितिकालो भवति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु पूर्ववदेव सर्वाद्वा स्थितिर्बोध्या ।
परमाणुद्रयलक्षणमवतव्यकद्रव्यमपि यदा समयमेकं संयुक्त स्थित्वा ततो वियुज्यते, तदवस्थमेत्र वा पुनरन्येन परमाणुना संयुज्यते, तदा तस्यावक्तव्यक द्रव्यतया, एकसमयलक्षणः कालस्तस्य जघन्यतोऽवस्थितिकालो बोध्यः । यदा तु असंख्यात काल तक अकेले रहने की स्थिति में रहकर याद में किसी दूसरे परमाणु से संश्लिष्ट हो जाता है तब उसका अवस्थितिकाल उत्कृष्ट से असंख्यात काल माना जाता है नाना द्वारों की अपेक्षा से इन अनानु पूर्वी द्रव्यों की अवस्थिति का समय सर्वकाल माना गया है क्योंकि लोक में ऐसा कोईसाभी समय नहीं है कि जिसमें ये अनानुपूर्वी द्रव्य न हों। एक परमाणुरूप द्रवरूप अवक्तव्यक भी जब एक समय तक संयुक्त रह कर फिर त्रियुक्त हो जाता है तब उसका अवस्थिति काल जघन्य से एक समय माना गया है, अथवा जब वह उसी स्थिति में एक समय तक रहते हुए किसी और दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाता है तब उसका अवस्थितिकाल जघन्य से एक समय का माना गया है। और जब वही अवक्तव्वक द्रव्य असंख्यात
અસખ્યાત કાળ સુધી એકલું રહીને ત્યાર ખાદ કાઇ જા પરમાણુની સાથે સશ્લિષ્ટ થઈ જાય છે, ત્યારે તેને અસ્થિતિ કાળ અધિકમાં અધિક અસ ખ્યાત કાળના મનાય છે. વિવિધ દ્રબ્યાની અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે તે તે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેના અવસ્થિતિકાળ સવકાલીન માનવામાં આવ્યે છે, કારણ કે લેકમાં એવે! કઈ સમય નથી કે જ્યારે આ અનાનુપૂર્વી દ્રબ્યાનું અસ્તિત્વ જ ન હાય,
એ પરમાણુ રૂપ એક વક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ જ્યારે એક સમય સુધી સયુક્ત રહીને ત્યાર બાદ વિભક્ત થઇ જાય છે, ત્યારે તેના જઘન્ય અવસ્થિતિ કાળ એક સમયને માનવામાં આવે છે. અથવા જ્યારે તે એજ સ્થિતિમાં એક સમય સુધી રહીને ત્યાર બાદ કોઇ એક બીજા પરમાણુ સાથે સથ્લિ
For Private and Personal Use Only
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम्
३६५
देवा वक्तव्यकद्रव्यं असंख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वा विघटते, तवस्थमेव वा पुनरन्येन परमाणुना संश्लिष्यति, तदा उत्कृष्टतो अवक्तव्यकद्रव्यतया असंख्यातकालस्तदवस्थितिकालो बोध्यः । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु पूर्ववत् सर्वाद्धावस्थितिकालो बोध्यः ॥ भू०८६ ॥
सम्प्रति षष्ठमन्तरद्वारमाह
मूलम् - गमववहाराणं आणुपुवीदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दव्त्रं पडुच्च जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अणतं कालं, नाणादव्वाई पडुच्च णत्थि अंतरं । णेगमववहाराणं अणाणुपुवदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई? एगं दव्वं पडुच्ध जपणेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, पडुच्च णत्थि अंतरं । णेगमववहाराणं अवत्तग
काल तक तद्भाव से स्थित रहकर फिर विघटित हो जाता है, अथवा जब वह उसी स्थिति में असंख्यात काल तक रहता हुआ बाद में किसी दूसरे परमाणु से संश्लिष्ट हो जाता है तब उत्कृष्ट से उसका अवक्तव्यक द्रव्य रूप से अवस्थिति काल असंख्यात काल प्रमाण माना जाता है । नाना अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा इन अवक्तव्यक द्रव्यों का अवस्थिति काल सर्वकालिक माना गया है। क्योंकि लोक में ऐसा कोई भी समय नहीं है कि जिसमें इनकी अवस्थिति न हो । ० ८६ ॥
થઈ જાય છે ત્યારે તેના અવસ્થિતિ કાળ જધન્યની અપેક્ષાએ એક સમયના ગણાય છે, અને જ્યારે તે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય અસખ્યાત કાળ સુધો એજ સ્થિતિમાં રહીને ત્યાર બાદ વિધતિ (વિભક્ત) થઇ જાય છે, એટલે કે જ્યારે તે એજ સ્થિતિમાં અસખ્યાત કાળ સુધી રહે છે અને ત્યાર બાદ કાઈ ખીજા પરમાણુ સાથે સશ્લિષ્ટ (સયુક્ત) થઇ જાય છે, ત્યારે તેના વયિક દ્રવ્યરૂપે રહેવાના કાળ (અવસ્થિતિ કાળ) અધિકમાં અધિક અસખ્યાત કાળન પ્રમાણુ માનવામાં આવ્યે છે.
વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રબ્યાની અપેક્ષાએ તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યેના અવ સ્થિતિ કાળ (અવક્તવ્યક દ્રવ્યરૂપે રહેવાના સત્ય સ`કાલીન કહ્યો છે. એટલે કે એવા કોઈ પશુ સમય નથી કે જ્યારે તેમની અવસ્થિતિ (અસ્તિત્વ) જ न होय ॥ सू० ८६ ॥
For Private and Personal Use Only
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे दव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दव्वं पडुच्चे जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं अणंतं कालं, नाणादवाइं पडुञ्च णस्थि अंतरं ॥सू०८७॥ . छाया-नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण अनन्तं कालम् , नानाद्रपाणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहायोरनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अन्तरं कालतः किया चिरं भवति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण असंख्येय
अब सूत्रकार अन्तरद्वारकी प्ररूपणा करते हैं । “णेगमयवहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ-प्रश्न-(णेगमववहाराणं आणुपुग्धीदवाणं अंतरं कालो केवच्चिरं होई )
प्रश्न-नैगम व्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्यों का व्यवधान काल की अपेक्षा कितने काल का होता है ? अर्थात् आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी स्वरूप का परित्याग करके पुनः उस आनुपूर्वी स्वरूप को जितने काल के व्यवधान से प्राप्त करते हैं उस काल व्यवधान का नाम अर्थात् विरह काल का नाम अंतर है। यहां अंतर यह काल की अपेक्षा से शिष्य ने पूछा है । क्योंकि अंतर क्षेत्र की अपेक्षा से भी होता है। इसीलिये यहां उस क्षेत्र गत अंतर के परिहारार्थ काल पद का प्रयोग चत्रकार ने किया है।
वे सूत्रा२ अन्तरवानी प्र३५! ४२ छ-"णेगमववहाराणं" त्याह
शहाथ-प्रश्न-(णेगमववहाराणं आणुपुथ्वीवाणं अंतर कालो केवच्चिर' होई ?) नैगम भने व्यवहार, मा भन्ने नयभत मानुकीद्रयनु વ્યવધાન (અંતરવિરહડાળ) કાળની અપેક્ષાએ કેટલા કાળનું હોય છે? આનુપૂર્વ દ્રવ્ય આનુપૂવ સ્વરૂપને ત્યાગ કર્યા બાદ ફરીથી તે આનું મૂવી દ્રવ્યરૂપ થવરૂપને જેટલા કાળના વ્યવધાન (આંતર) બાદ પ્રાપ્ત કરે છે, તે વ્યવધાન કાળનું નામ અથવા વિરહકાળનું નામ અંતર છે. અહીં શિષ્ય કાળની અપેક્ષાએ તે અંતરના વિષયમાં પ્રશ્ન પૂછ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ અંતર હોઈ શકે છે, પણ અહીં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અંતર પૂછયું નથી नही त णनी अपेक्षा आत२ ५७ छे. तेथी or डी"कालभो केवञ्चिर" सूत्र भूया.
-
For Private and Personal Use Only
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भडयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम् काम, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहारयोरवक्तव्यकद्रव्या. णाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एक समयम् , उत्कर्षेण अनन्तं काळम् , नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् ॥मू० ८७॥
टीका-'णेगमववहाराणं' इण्यादि- नैगमव्यवहारसम्मतानाम् आनुपूर्वीद्रव्याणाम् अन्तरं व्यवधानं काढतः= काळमाश्रित्य कियच्चिरं-क्रियत्कालावधि भवति । क्षेत्रतोऽप्यन्तरं भवत्यतस्त
व्यवच्छेदाय पाह-'कालो केचिरं' इति । आनुपूर्वीद्रव्याणाम् आनुपूर्वी स्वरूपता परित्यज्य पुनस्तत्माप्ति त्रिता कालेन भवति स किं परिमाणः कालो भवतीति प्रश्नः। उत्तरमाह-एकं द्रव्यं प्रतीत्य-आश्रित्य जघन्यत एक समयमन्तरम् , उत्कर्षतस्तु अनन्तं कालमन्तरम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु अन्तरं नास्ति । अयं भावः-ज्यणुकचतुरणुकादीनां मध्ये किमप्यानुपूद्रिव्यं विश्रसापरिणामात् प्रयोगपरिणामाद् वा खण्डशो वियुज्य परित्यक्त नुपूर्णभावं संजातम् । पुनस्तत् एकसमयाचे विश्रसादिपरिणामात् पुनस्तैरेव परमाणुभिस्तथैव निष्पन्नम् । इत्थं
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अणंतं. कालं ) एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अंतर एक समय का और उत्कृष्ट अंतर अनंत काल का है ( नाणा व्वाइं पडुच्च गस्थि अंतरं ) तथा नाना द्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है। इस कथन का भाव यह है कि व्यणुक, चतुरणुक आदि आनुपूर्वी द्रव्य में से कोई एक आनुपूर्वो द्रव्य स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक परिणमन से खंड खंड होकर आनुपूर्वी पर्याय से रहित हो गया अब पुनः वही द्रव्य एक समय के बाद स्वाभाविक आदि परिणाम के निमित्त से उन्हीं
उत्तर-(एगं दव पडुच्च जहण्णेण एग समय उक्कोसेणं अणंतं काळं), એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઓછામાં ઓછું અંતર (વિરહકાળ) એક समयनु भने पधारेमा धारे तर अनत नुय छे. (नाणा दवाई पदुच्च णत्थि अंतर') तथा विविध द्रव्योनी अपेक्षा वियारवामां आवेत એવા અંતરને સદૂભાવ જ નથી. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેત્રણ અણુવાળું, ચાર આશુવાળું આદિ આનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાંથી કઈ એક આનપૂવી દ્રવ્ય સ્વાભાવિક અથવા પ્રાયોગિક પરિણમન વડે ખંડ ખંડ થઈ જઈને આપવ પર્યાયથી રહિત થઈ ગયેલું હવે એજ દ્રવ્ય એક સમય બાદ ફરીથી સવાભાવિક આદિ પરિણમન દ્વારા એજ પરમાણુઓના સંગથી એજ આપવી
For Private and Personal Use Only
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारा च एक द्रव्यमाश्रित्यानुपूर्वीत्वस्य परित्यागे पुनर्लाभे च सति मध्ये योऽन्तः सः जघन्यत एकसमयात्मको बोध्या, उत्कृष्टतस्तु अन्तरमनन्तकालं भवति । तथाहित तदेव विवक्षितं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं पूर्ववदेव भित्रम् , ततस्ते परमाणवोऽन्येषु परमाणुद्वयणुकत्र्यणुकप्रभृतिषु अनन्ताणु कस्कन्धपर्यन्तेषु प्रतिस्थानमुस्कृष्टां स्थिति मनुमवन्तः पर्यटन्ति । इत्थं पर्यटनं कृत्वा कालस्थानन्तवाद विश्रसादिपरिणामतः पुनयदा तैरेव परमाणुभिस्तदेव विवक्षितमानुपूर्वीद्रव्यं जायते तदा उत्कृष्टतोऽनन्त परमाणुओं के संयोग से निष्पन्न हो गया-विवक्षित आनुपूर्वी रूप बन गया। इस प्रकार एक आनुपूर्वः द्रव्य को आश्रित करके आनुपूर्वी स्वरूप के परित्याग हो जाने पर और पुनः उसी स्वरूप में आने पर बीच में जो अन्तर पडा वह जघन्य से एक समय का पडा-इस प्रकार यह एक समय का अन्तर जानना चाहिये । तथा उत्कृष्ट से अन्तर अनंत काल का, इस प्रकार से अजाता है कि कोई एक विवक्षित आनुपूर्वी द्रव्य पूर्वोक्त रूप से आनुपूर्वी पर्याय से रहित हो गया। इस प्रकार निर्गत वे परमाणु अन्य व्यणुक व्यणुक आदि से लेकर अनन्त स्कंध पर्यन्त रूप अनन्त स्थानों में प्रत्येक उत्कृष्ट काल की स्थि. ति का अनुभव करते हुए संश्लिष्ट रहे । इस प्रकार प्रत्येक व्यणुक आदि अनन्त स्थानो में अनंत काल तक संश्लिष्ट होते २ अनन्त काल: समाप्त होने पर जब उन्हीं परमाणुओं द्वारा वही विवक्षित आनुपूर्वी द्रव्य पुनः निष्पन्न हो जावे तब यह अनंत काल का उत्कृष्ट अंतर
રૂપ બની જાય છે. આ રીતે એક આનુવ દ્રવ્યના આનુપૂવ સ્વરૂપને. પરિત્યાગ થઈ ગયા બાદ ફરીથી એજ સ્વરૂપમાં આવી જવામાં જે કાળને આંતરે પડે છે તે કાળના આંતરા રૂપ જઘન્ય અંતર એક સમયનું સમજવું ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ જે અનંત કાળનું અંતર કહ્યું છે તેનું ષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-ધારો કે કઈ એક વિવક્ષિત આનુપૂવી દ્રવ્ય પૂર્વોક્ત રૂપે આનુપૂવી પર્યાયથી રહિત થઈ ગયું છે. આ રીતે વિભક્ત થયેલાં તે પરમાણુઓ અન્ય બે અણુવાળા, ત્રણ અણુવાળા વગેરેથી લઈને અનંત પર્યન્તના અણુવાળા કન્ય રૂપ અનંત સ્થાનેમાંની પ્રત્યેક સ્થાનમાં ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિને અનુભવ કરતાં થકા સંલિષ્ટ રહા. આ પ્રમાણે પ્રત્યેક કવણુક આદિ અનંત સ્થાનમાં અનંત કાળ સુધી સંશ્લિષ્ટ રહ્યા બાદ એટલે કે એ સ્વરૂપમાં રહેતાં હતાં અનંત કાળ વ્યતીત થઈ ગયા બાદ એજ પરમાણુઓ દ્વારા ત્યારે વિવક્ષિત આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું ફરીથી નિર્માણ થઈ જાય છે, ત્યારે એમ
For Private and Personal Use Only
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वार निरूपणम् कालमन्तरं भवति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य वन्तरं न भवति । यतो नास्ति कश्चित् स कालो यत्र सर्वाण्यानुपूर्वीद्रव्याणि युगपदानुपूर्वीभाव परित्यजन्ति, लोकेऽनन्ता. नन्तानुपूर्वीद्रव्याणां सर्वदा विद्यमानत्वात् , अतो नानाद्रव्यापेक्षयाऽन्तरं नास्तीति।
तथा-जैगमव्यवहारसम्मतानामनानुपूर्वीद्रव्याणां कालतः कियच्चिरमन्तर भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह-'एग दन' इत्यादि । एकं द्रव्यमाश्रित्य जघन्यत एकं समयमनानुपूर्वीद्रव्याणानन्तरं भवति, उत्कर्पतोऽसंख्येयं कालमन्तरं भवति । नानाहोता है। नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा जो काल का अन्तर नहीं कहा गया है, सो इसका कारण यह है कि लोक में ऐसा कोई सा भी काल नहीं कि जिन में समस्त आनुपूर्वी द्रव्य अपने आनुपूर्वी स्वभाव का एक हाथ परित्याग कर देते हो । क्यों कि लोक में अनंतानंत आनुपू द्रव्य सदा विद्यमान रहते हैं। इसलिये नाना आनुपूर्वी द्रव्यों को अपेक्षा से अगर नहीं आ सकता है। (गमववहारण अणा णुपुब्बीदव्वाण अन्तरं कालो केवच्चिरं होई ? ) ।
प्रश्न- नैगम व्यवहारनय संमत अनानुपूर्वी द्रव्यों का व्यवधान काल की अपेक्षा कितने काल का होता है ?
उत्तर-(एगं दव्यं पडच्च जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं असंखेचं कालं नाणाच्या पडुच्च गस्थि अंतरं) अनानुपूर्वी द्रव्यों का विरह काल एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य एक समय का और થવામાં અનંત કાળનું ઉત્કૃષ્ટ અંતર પડી જાય છે. એટલે કે આપવી પર્યાયને પરિત્યાગ કર્યા બાદ ફરી આનુપૂર્વી પર્યાયમાં આવી જવામાં અનત કાળનું વ્યવધાન (આંતર) પડી જાય છે. “વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ કાળનું અંતર છે જ નહી,” આ પ્રકારના કથનનું કારણ એ છે કે લેકમાં એ કોઈ પણ સમય નથી કે જ્યારે સમસ્ત આનુપૂવ દ્રવ્ય પિતાના આનુપૂવી સ્વભાવને એક સાથે પરિત્યાગ કરી દેતાં હોય, કારણ કે લેકમાં અનંતાનંત આનુપૂવી દ્રવ્ય સર્વદા વિદ્યમાન રહે છે, તેથી વિવિધ આનુપૂર્વી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ કાળનો અંતરો જ પડી શકતું નથી.
-(णेगमववहाराणं भणाणुपुठवी दव्वाणं अंतर कालओ केवच्चिर होई) નિગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનાનુપૂવી દ્રવ્યનું વ્યવધાન (અંતર-વિરહ. કાળ) કાળની અપેક્ષાએ કેટલા કાળનું હોય છે ?
उत्तर-(एगं व पडुच्च बहण्णेण एग समय उकोसेण असंखेज्ज काळ नाणाव्वाइं पडुच्च णस्थि अंतर') अनानुदा द्रव्य वि२६ मे
भ०४७
For Private and Personal Use Only
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नुयोगद्वारसूत्रे द्रव्याण्याश्रित्य तु नास्ति अन्तरमिति । अयमाशयः-यदा परमाणुस्वरूपं किमप्यनानुपूर्वीद्रव्यम् , अन्येन परमाणुना द्वयणुकपणुकादिना वा एकं समयं संश्लिष्य समयावं पुनर्विश्लिष्टं भवति, तदैक द्रव्यापेक्षया जघन्यत एकं समयमन्तरं भवति । यदा तु तदेवानानुपूर्वीद्रव्यं परमाणुद्वयणुकत्र्यणुकादिना केनचिद् द्रव्येण सह संयुज्यते, संयुक्तं चासंख्येयं कालं स्थित्वा ततो वियुज्य पुनः पूर्ववदनानुपूर्वीत्वं लमते । इत्थमेकं द्रव्यमाश्रित्य उत्कृष्टतोऽसंख्येयकालमन्तरं भवतीति। उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल का होता है। नाना अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं हैं । तात्पर्य इसका इस प्रकार से है कि जब कोई भी परमाणुरूप अनानुपूर्वी द्रव्य अन्य किसी दूसरे परमाणु के साथ अथवा व्यणुक त्र्यणुक आदि के साथ एक समय तक संश्लिष्ट होकर बाद में उससे वियुक्त विश्लिष्ट-हो जाता है तब एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय का अन्तर होता है । और जब वही अनानुपूर्वी द्रव्य रूप परमाणु किसी द्वयणुक त्र्यणुक आदि के साथ संयुक्त हो जाता है और असंख्यात काल तक संयुक्त रह कर फिर उससे वियुक्त होता है, तो इस प्रकार पुनः उसे अनानुपूर्वी रूप में आने पर यह द्रव्य की अपेक्षा उष्कृट असंख्यात काल का अन्तर होता है।
અનાનુપૂવી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઓછામાં ઓછા એક સમયને અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળને હેય છે વિવિધ અનાનુપૂર્વ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તો વ્યવધાન (વિરહકાળ-અંતર)ને સદ્ભાવ જ નથી. આ કથનનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-જ્યારે કેઈ પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય કોઈ બીજા પરમાણુની સાથે અથવા દ્વથાણુક, ત્રિઅણુક આદિ
ધની સાથે એક સમય સુધી સંકિલન્ટ (સંયુક્ત) રહીને તેનાથી વિયુક્ત (અલગ) થઈ જાય છે ત્યારે એક અનાનુપૂવી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઓછામાં ઓછા સમયનું અંતર (વ્યવધાન) પડી જાય છે. અને એજ અનનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ પરમાણુ જ્યારે કેઈ દ્વયણુક, ત્રિઅણુક આદિ ધની સાથે સંશ્લિષ્ટ થઈને અસંખ્યાત કાળ સુધી એજ સ્થિતિમાં રહીને ફરીથી તેમાંથી વિયુક્ત (વિભક્ત) થઈ જાય છે, અને ફરીથી અનાનુપૂ રૂપે નિષ્પન્ન થઈ જાય છે, તે આ પ્રકારે અનાનુપૂવના પરિત્યાગથી લઈને અનાનુપૂર્વીના પુનઃ નિમ.
માં વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળનું અંતર પડે છે. આ ઉત્કૃષ્ટ અંતર એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ કહ્યું છે, એમ સમજવું.
For Private and Personal Use Only
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम् .. ३७१ - ननु अनानुपूर्वीद्रव्यं यदाऽनन्तानन्तपरमाणुपचितस्कन्धेन सह संयुज्यते, तत्संयुक्तं चासंख्येयं कालमवतिष्ठते, ततोऽसौ स्कन्धोभिद्यते । भिन्ने च तस्मिन् स्कन्धे यस्तस्माल्लघुःस्कन्धो भवति, तेनापि सह संयुक्तमसंख्यातं कालमवतिष्ठते, पुनस्तस्मिन्नपि स्कन्धे भिद्यमाने यस्तस्माल्लघुतरः स्कन्धो भवति तेनापि लघुतरेण स्कन्धेन सह संयुक्तमसंख्येयं कालमवतिष्ठते, इत्येवं क्रमेण पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने स्कन्धे यस्तस्माल्लघुतमः स्कन्धो भवति, तेनापि संयुक्तमसंख्येयं कालमवतिष्ठते, इत्येवं तत्र भिद्यमाने क्रमेण कदाचिदनन्ता अपि स्कन्धा संभ
शंका-जब एक अनानुपूर्वी द्रव्य अनंतानंत परमाणुओं के प्रचय रूप से संयुक्त होता है और वह उसके साथ संयुक्त अवस्था में असंख्यात काल तक रहता है और बाद में जब यह स्कंध भेद को प्राप्त होता है-अर्थात् टूटता है-तब उससे जो लघुस्कंध उत्पन्न होता है, उसके साथ भी यह परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्य असंख्योत काल तक संयुक्त रहता है । बाद में जब वह भी स्कंध भेद को प्राप्त होता हैतब उससे भी एक लघुतर स्कंध उत्पन्न हो जाता है । और उस लघुतर स्कंध के साथ भी यह असंख्यात काल तक संयुक्त रहता है। इस प्रकार के क्रम से जब वह लघुनर स्कंध भी भेद प्राप्त हो जाता है-तब उससे भी एक लघुतम स्कंध उत्पन्न हो जाता है। और यह परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्य उस लधुलर स्कंध के साथ भी असंख्यात काल
શંકા-જ્યારે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનંતાનંત પરમાણુઓના પ્રચય રૂપ સ્કંધ સાથે સંયુકત થાય છે અને તે તેની સાથે સંયુક્ત અવસ્થામાં અસંખ્યાત કાળ સુધી રહ્યા બાદ જ્યારે તે સ્કંધ વિભકત થઇ જાય છે ત્યારે તેમાંથી કઈ લઘુસ્કંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે લઘુસ્કંધની સાથે પણ તે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી સંયુક્ત રહે છે. ત્યારબાદ જયારે તે કઇ પણ વિભકત થઈ જાય છે ત્યારે તેમાંથી કે લઘુકંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તે લઘુસ્કંધની સાથે પણ તે પરમાણુ રૂપ અનાનું પૂર્વા દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી સંયુકત રહે છે. ત્યાર બાદ જ્યારે તે સ્કધ પણું વિભકત થઈ જાય છે ત્યારે તેમાંથી પણ એક લઘુતર સ્કંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, અને તે લઘુતર સ્કંધ સાથે પણ તે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી સંયુકત રહે છે ત્યાર બાદ તે લઘુતર સ્કંધ પણ વિભકત થઈ જાય છે અને તેમાંથી પણ એક લઘુતમ અંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ પરમાણુ રૂ૫ અનાનુપૂર્વ દ્રવ્ય તે લઘુતમ સ્કંધની સાથે પણ અસંખ્યાત કાળ સુધી સંકિટ (સંયુક્ત) રહે
For Private and Personal Use Only
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ अनुयोगद्वारसूत्रे वेयुः, तत्र प्रत्येकस्मिन् स्कन्धे संयुक्तमनानुपूर्वीद्रव्यं यदा यथोक्तामसंख्येयकालं स्थितिमनुभूय एकाकि भवति, तदा तस्य यथोक्तानन्तस्कन्धस्थित्यपेक्षयाऽन्तमपि कालमन्तरं भवति ! ततः कथमुक्तमसंख्येयं कालमेवान्तरम् ? इति चेत्, उच्यते____ यदि संयुक्तः परमाणुरनन्तं कालं तिष्ठेत्तदा भवदुक्तमुचित स्यात्, परन्त्वेवं नास्ति, एतत्सूत्रपामाण्यात व्याख्यामज्ञप्त्यादि मूत्रमामाण्याच्च परमाणुसंयोगतक संश्लिष्ट रहता है । इस प्रकार क्रम २ से उन २स्कंधों के टूटने पर कदाचित अनंत भी स्कंध संभवित होते हैं-इस प्रकार अनंत स्कन्धों में से प्रत्येक स्कंध के साथ संयुक्त वह अनानुपूर्वी द्रश्य, जब असंख्यात काल की अपनी स्थिति को समाप्त कर एकाकी रूप में आनाता है-अर्थात् पूर्व की अनानुपूर्वी रूप एक परमाणु अवस्था को प्राप्त कर लेता हैतब उसका इन पूर्वोक्त अनन्त स्कंधों में रहने रूप स्थिति की अपेक्षा से अनन्त काल का भी अन्तर हो जाता है। तब फिर सूत्रकार ने यहां पर एक अनानुपूर्वी द्रव्यका काल की अपेक्षा लेकर असंख्यान काल का ही अन्तरक्यों कहा है ?
उत्तर-यह शकाकार के द्वारा प्रदर्शित अनन्त काल का अन्तर तब संगत बैठ सकता है कि जब परमाणु संयुक्त होकर अमन काल तक व्यणुकादि अनंत स्कंधों के साथ रहता हो । परन्तु इस सत्र की श्रमाછે આ રીતે કરે કેમ તે તે બે વિભકત થતા રહે છે. આ પ્રકારે તે કયારેક અનંત સ્કંધ પણ સંભવી શકે છે આ અનંત અંબેમાંના પ્રત્યેક સ્કૂધની સાથે અસંખ્યાત–અસંખ્યાત કાળ સુધી સંયુકત રહીને જ્યારે તે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય પૂર્વી પિતાની સ્થિતિમાં આવી જાય છેએટલે કે અનાનુપૂર્વી રૂપ પરમાણુ અવરથાને ફરી કામ કરે છે, ત્યારે તે પૂર્વોકત અનંત ધમાં રહેવા રૂપ સ્થિતિની અપેક્ષાએ તે અનંત કાળનું અંતર પણ પડી જાય છે છતાં સૂત્રકારે અહીં શા માટે એવું કથન કર્યું છે કે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યને વિરહકાળ અસખ્યાત કાળને પાય છે? એટલે કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ અવરથાને ત્યાગ કર્યા બાદ ફરી એજ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરવામાં અસંખ્યાત કાળનું, અંતર પડે છે એમ શા માટે કહ્યું છે ? અનંત सानु मत२ ५3 छ, म छु नथी ?
- ઉત્તર–શંકાકત દ્વારા પ્રદર્શિત અનંત કાળનું અંતર ત્યારે જ સંગત બની શકે કે જ્યારે તે પરમાણુ યશુક આદિ અનંત અંબેની સાથે સંયુકત થઈને અનંત કાળ સુધી રહેતું હોય, પરંતુ આ સૂત્રની પ્રમાણતાથી અને
For Private and Personal Use Only
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरबारनिरूपणम् स्थितेरुत्कृष्टतोऽसंख्येयकालत्वावगमात् , अतोऽसंख्येयं कालमन्तरं बोध्यम् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अन्तरं न भवतीति ।
3. तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानां द्विपदेशिकस्कन्धरूपाणामवक्तव्यकद्रव्याणां कालतः किच्चिरमन्तरं भवतीति प्रश्नः । __उत्तरमाह-एगं दम' इत्यादि। एकं द्रव्यमाश्रित्य जघन्यत एकं समयमन्ताम् , उत्कृष्टतोऽनन्त कालमन्तर भवति। नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अन्तरं नास्तीति। णता से और व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि सूत्रों की प्रमाणता से परमाणु की संयुक्त अवस्था की स्थिति उत्कृष्ट रूप से असंख्यात काल तक की ही कही गई है । अतः सूत्र कथित असंख्यात काल का ही उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये । तथा नाना अनानुपूरी द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है । क्यों कि लोक मे ऐसा कोई भी काल नहीं है कि जिस काल में कोई न कोई अमानुपूर्वी द्रव्य न रहे । 'नेगनयवहाराणं अवत्तगदवाणं अंतरं कालओ केवच्चिरै होई ? '
प्रश्न- नैगमव्यवहारनयस मत अवक्तव्यक द्रव्यों अपनी अवक्तव्यक अवस्था का परित्याग कर देनेपर और पुनः उसी स्थिति में आने पर कालको अपेक्षा कितना विरह काल है। ?
' उत्तर-(एगं दवं पडच्च जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं વ્યાખ્યા પ્રાપ્તિ આદિ સૂત્રોની પ્રમાણતાથી પરમાણુની સંયુકત અવસ્થામાં રહેવાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળ પર્વતની જ કહી છે તેથી સૂત્રક થિત અસંખ્યાત કાળનું જ ઉત્કૃષ્ટ અંતર સમજવું જોઈએ.
“વિવિધ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અંતર હેતું નથી, આ પ્રકારના કથનનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે–
લે કમાં એ કઈ પણ કાળ નથી કે જે કાળે કઈને કઈ અનાનુમુવી દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ જ ન હોય એટલે કે કઈને કઈ અનાનુપૂવી દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ તે લેકમાં સદા કાળ રહે છે જ.
प्रश्न-( नेगमववहाराण अवत्तगदवाण अंतर कालओ केवच्चिर होई) નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અવકતવ્યક દ્રવ્યને પિતાની તે અવકતવ્યક અવસ્થાને પરિત્યાગ કર્યા બાદ ફરીથી અવકતવ્યક અવસ્થામાં આવી જવામાં કેટલા કાળનું અંતર પડે છે? એટલે કે પ્રયાણુક સ્કંધ રૂ૫ અવકતવ્યક દ્રને વિરહકળ કાળની અપેક્ષાએ કેટલે કહ્યો છે?
उत्तर-( एग दव पडुच्च जहन्नेग एग समय, उक्को णं अतं कालं,
For Private and Personal Use Only
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૩૭૪
अनुयोगद्वारसूत्रे
अयं भावः - द्विप्रदेशिक स्कन्ध रूपमव व्यकद्रव्यं विघटितं स्वतन्त्रं परमाणुद्वयं जातम् । समयमेकं विघटितमेव स्थित्वा पुनः एतदेव परमाणुइयं परस्परं मिलित्वा द्विपदेशिकः स्कन्धो जातः । यद्वा - विघटित एत्र द्विपदेशिकः स्कन्धः स्वतन्त्र परमाणुरूपतां माध्य, अन्येन परमाण्वादिना समयमेकं संयुज्य- समयादध्वं तथो त्रियुज्य पुनस्तदेव परमाणुद्वयं परस्परं मिलित्वा द्विपदेशिकः स्कन्धो निष्पन्नः, इत्यमवक्तव्यकद्रव्याणां जघन्यत एकं समयमन्तरं बोध्यम्,
नाणादन्वाई पडुच्च णत्थि अंतरं) एक अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा जधन्य अंतर एक समय का, और उत्कृष्ट अंतर अनंत काल का है। तथा नाना अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है । इस कथन का तात्पर्य इस प्रकार से है कि एक द्विप्रदेशी स्कंध द्रव्य विघटित हो गया और वह स्वतंत्र रूप से दो परमाणु रूप बन गया। अब वे दो परमाणु एक समय तक परस्पर जूदे २ रहे। फिर एक समय बाद आपस में संश्लिष्ट हो गये और उनके श्लेष से वही द्विप्रदेशी स्कंध पुनः उत्पन्न हो गया । अथवा - द्विप्रदेशि स्कंध विघटित हो गया और उससे दो परमाणु उत्पन्न हो गये । वे परमाणु अन्य परमाणु आदि के साथ एक समय तक संयुक्त रहे और बाद में उससे विघटित होकर वे ही परमाणु परस्पर मिलकर उसी द्विपदेशिक स्कंध रूप में परिणत हो
नाणादव्वाइ' पडुन्च णत्थि अंतरं ) मे वयनी अपेक्षा धन्य (मे छमां मोछु) मंतर थे! समय भने छुट ( वधारेभा वधारे) અતર અનંત કાળનુ છે, તથા વિવિધ અવકતવ્યક દ્રવ્યેની અપેક્ષાએ અત
ને સદ્ભાવ જ નથી આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-કોઇ એક દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધ રૂપ અવકતવ્યક દ્રવ્ય ધારા કે વિઘટિત (વિભકત) થઇને એ સ્વતંત્ર પરમાણુ રૂપ અસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. ત્યાર બાદ આછામાં ઓછા એક સમય સુધી તે તે અને પરમાણુ એક ખીજાથી અલગ જ રહે છે, પણ ત્યાર બાદ તેઓ એક બીજાની સાથે સશ્લિષ્ટ (સયુકત) થઈ જઈને ફરીથી દ્વિદેશી કન્ય રૂપ બની જાય છે. અથવા-દ્વિપ્રદેશી સ્કંધ વિઘટિત થઈ જઈને તેમાંથી એ પરમાણુ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે પરમાણુંએ અન્ય પરમાણુ આાહિની સાથે એક સમય સુધી સ`શ્લિષ્ટ રહે છે, પશુ ત્યાર બાદ તેઓ તેનાથી વિયુકત થઈને પરપરની સાથે સયુકત થઈ થઇને ફરીથી દ્વિપદેશિક ક રૂપે પરિણત થઈ જાય છે. આ રીતે એજ દ્વિદેશી સ્કંધનું તેમના દ્વારા નિર્માણુ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે દ્વિદેશી કધ રૂપ અવસ્થાના
For Private and Personal Use Only
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम्
३७५
यदा च तदेव विघटितं स्त्रतन्त्रं परमाणुभिरनन्तेद्वर्यणुकभ्यणुक यावदनन्तास्कन्धैः सह क्रमेण संयोगमासाद्य प्रत्येकस्मिन् स्कन्धेऽसकृदुत्कृष्टां स्थितिमनुभूय कालस्यानन्त्यात्पुनरपि तथैव द्व्यणु करुन्धतया परिणतं भवति, तदाऽवक्तयकद्रव्यत्वं प्रतिपद्यते । इत्थं वियोगानन्तरं पूर्वस्वरूपप्राप्तौ अनन्तकालः प्राप्यते, गये - इस प्रकार वही प्रथम स्कंध बन गया । इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध अवस्था विघटित होने से पुनः वही द्विप्रदेशी स्कंध बनने के -बीच में यह अवक्तव्यक द्रव्य का एक समय का अन्तर जघन्य जनना चाहिये । तथा जब वही विप्रदेशी स्कंध विघटित होते ही दों परमंशु रूप में आजाता है और वे परमाणु स्वतंत्र रूप से अनंत परमाणुओं के साथ अनंतवणुक, त्र्यणुकों यावत् अनन्ताणुक स्कंधों के साथ क्रम २ से संयोग को प्राप्त करके, जब प्रत्येक स्कंध में बार २ अपनी उत्कृष्ट स्थिति को समाप्त कर देते हैं तो इस प्रकार काल की अनंतता के बाद जब वे अपनी उसी पूर्व अवस्था रूप द्विप्रदेशिक स्कंध रूप में परिणत हो जाते हैं, तो इसके बीच में यह अनंत काल का उत्कृष्ट समय निकल आता है । नाना अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा काल का अंतर नहीं है ऐसा जो कहा गया है उसका भाव यह है कि लोक में ऐसा
પરિત્યાગ કરીને-દ્વિપ્રદેશી કાઁધ રૂપ અવસ્થામાંથી વિધટિત થઈને ફરીથી એજ દ્વિપ્રદેશી કંધ રૂપ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરવામાં એક સમયપ્રમાણુ કાળ જઘન્ય અંતર પડે છે. તેથી જ અવકતવ્યક દ્રવ્ય રૂપ અવસ્થા પુનઃ પ્રાપ્ત કરવામાં તેને ઓછામાં ઓછે. એક સમય લાગતા હૈાવાથી જઘન્ય અંતર समयनु मृह्युं छे.
ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ તે 'તર અન'તકાળનું' કેવી રીતે થાય છે? તે હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે
એજ સ્ક્રિપ્રદેશી કધ વિઘટિત થઈને એ પરમાણુ રૂપ બની જાય છે તે બન્ને પરમાણુ સ્વતંત્ર રૂપે અનંત પરમાણુઓની સાથે અન'ત દ્વયચ્છુક રકા, ત્રિઅણુક રા આદિ અનંત અણુક પન્તના સ્કંધા સાથે ક્રમે ક્રમે સચાંગ પ્રાપ્ત કરીને જ્યારે પ્રત્યેક સ્મુધમાં વારવાર પેાતાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સમાસ કરી નાખે છે, અને આ રીતે અનંત કાળ બાદ જ્યારે તે પેાતાની એજ પૂ અવસ્થા રૂપ દ્વિપ્રદેશિક કધ રૂપે પરિણત થઇ જાય છે, તે આમ થવામાં અનંત કાળના ઉત્કૃષ્ટ સમય વ્યતીત થઈ જાય છે આ રીતે ઉત્કૃષ્ટ તર (विराज) अनंत अणनो थाय है,
For Private and Personal Use Only
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
। अनुयोगद्वारस्ते मत उत्कृष्टतोऽनन्त कालमन्तरं भवति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य पूर्वोक्तवदेवान्तरं व भवतीति ।मु०८७॥ अथ सप्तमं भागद्वारमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुवीदवाई सेसदवाणं कइभागे होजा? किं संखिज्जइभागे होज्जा? असंखिज्जहभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? अखेज्जेसु भागेसु होज्जा? मो संखिज्जइभागे होज्जा, नो असंखिज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा। णेगमववहाराणं अणाणुपुत्री दवाई सेसदवाणं कइभागे होज्जा ? किं संखिज्जइभागे होज्जा? असंखिज्जइभागे होज्जा? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा। एवं अवत्त
वगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि ॥सू०८८॥ _छाया-नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कियद्भागे भवन्ति ? कोई साभी समय नहीं है कि जिसमें कोई न कोई अवक्तव्यक द्रव्य की सत्ता न बनी रहती हो । ॥ ० ८७ ॥
अव सप्तम भाग नामक द्वार का सूत्रकार कथन करते हैं"जेगमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(नेगमववहाराणं) नैगमव्यवहानय संमत समस्त आनु. - “ વિવિધ અવકતવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ કાળનું અંતર નથી,” આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે લેકમાં એ કોઈ પણ સમય હેતું નથી કે
જ્યારે લેકમાં કોઈને કોઈ અવકતવ્યક દ્રવ્ય વિદ્યમાન ન હોય એટલે કે કઈને કઈ અવક્તવ્યદ્રથ તે લેકમાં સર્વદા વિદ્યમાન હોય છે જ. સૂ૦૮૭છે.
હવે સૂત્રકાર અનગમના ભાગદ્વાર નામના સાતમાં જેનું નિરૂપણ કરે છે. "णेगमववहाराणं " त्याहसहाय-(णेगमबवहाराण) नाम भने व्यवहार नयभत समस्त
For Private and Personal Use Only
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८८ भागद्वारनिरूपणम्
किं संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवः न्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, नो असंख्येयसमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नियमात् असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति । नैगमव्यवहारयोरनानुपूर्वी द्रव्याणि शेषद्रव्याणां कियद्भागे भवन्ति ? किं संख्ये यतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु पूर्वी द्रव्य (सेसदत्राणं ) शेष द्रव्यों में ( कहभागे ) कितने भाग में (होज्जा) है। (किं) क्या (संखेज्जह भागे होज्जा) संख्यातवें भोग में
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
? ( संखेज्जेसु भागेषु होज्जा) अथवा संख्यात भागो में हैं ?अथवा (असंखिज्जइ भागे होजा ) या असंख्यातवें भाग में ( असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ) या संख्यात भागो में हैं ? (नो संखिज्जहभागे होज्जा तो असखिउजड़भागे होज्जा ) न संख्यातवें भाग में हैं न असंख्यातवें भाग में हैं (नो संखेज्जेसु भागे.सु होज्जा ) और न संख्यात भागों में हैं, किन्तु (नियमा) नियम से वे (अस खेज्जेसु भागेसु होज्जा) असंख्यात भागों में हैं। (णेगमबव हाराणं अणाणुपुत्री दव्वाइं) नैगम व्यवहारनय संमत समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य ( सेसदव्वाणं कहभागे होज्जा ) शेष द्रव्यों की कितने भाग में हैं? (किं) क्या (संखिज्जह भागे होज्जा) संख्यातवें भाग में हैं ?
नुपूर्वी द्रव्य ( से सव्वाण ) माडीना द्रश्यना ( कइभागे होज्जा ?) डेटसा भागमा ? ( किं संखेज्जइभागे होज्जा ? ) शु सम्यातमां भागभां है ? ( असंखेज्जइ भागे होज्जा ) है असभ्यातमा लागभां छे ? ( संखेज्जेसु भागेसु होज्जा) है सभ्यात लागोभ छे ? ( असंखेज्जेसु भागेषु होज्जा १) ४ असण्यात ભાગામાં છે?
४८
उत्तर - (नो संखिज्जइभागे होज्जा, नो असंखिज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ) समस्त मनुपूर्वी द्रव्य महीना द्रव्योना संख्याતમાં ભાગમાં પણ હેતુ નથી, અસખ્યાતમાં ભાગમાં પણ હાતુ નથી, सज्यात लागेोभां पायु होर्तु नथी, परन्तु ( नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ) નિયમથી જ તે સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રબ્યા બાકીના દ્રચાના અસંખ્યાત ભાગમાં હોય છે. (गमववहाराणं अणाणुपुव्वी दव्वाइ ) नैगम भने व्यवहार नयस भत समस्त अनानुपूर्वा द्रव्य ( सेसदव्वाणं कइभागे होज्जा ? ) બાકીના द्रव्योना लाभां भागनु होय छे ? ( कि संखिज्जइभागे हान्जा) शु सभ्यातमां लागभां होय छे ? (असंखिज्जइभागे होज्जा ) हे असण्यातमां
For Private and Personal Use Only
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवार भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, असंख्येयसमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति। एवमवक्तव्यकद्रव्याण्यपि भणितव्यानि ||मू०८८॥
टीका-'नेगमववहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणिज्यणुकस्कन्धप्रभृत्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि सर्वाण्यपि आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यलक्षणानां कियति भागे भवन्ति ? कि संख्येयतमभागे भवन्ति, यथा-असपा( असंखिज्जहभागे होज्जा )असंख्यातवें भाग में हैं ? या (संखेज्जेसु भागेसु होज्जा) संख्यात भागों में हैं ? या (असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ) असंख्यात भागों में हैं !
उत्तर- ( नोखेज्जाभागे होज्जा) संख्यातवें भाग में नहीं है-(असंखेज्जहभागे होज्जा) किन्तु असंख्यातवें भाग में हैं। (नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जो) संख्यात भागों में नहीं हैं और न असंख्यात भागों में हैं । (एवं भवत्तन्वगदव्याणि वि भाणियव्वाई) इसी प्रकार से अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी ऐसा ही कथन जानना चाहिये
भावार्थ -ज्यणुक स्कंध आदि से लेकर अनन्त परमाणु स्कंध पर्य. न्त जितने भी स्कंध हैं वे सब आनुपूर्वी द्रव्य हैं । अनंत एक २ परमाणु और अनंत इयणुक स्कंध क्रमशः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य है। पूछने वाले का यह अभिप्राय है कि आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी और मासमा डाय छ १ (संखिज्जेसु भागेसु होज्जा) सयात भागमा डाय छ? (असंखिज्जेसु भागेसु होज्जा) असभ्यात मागीमा डाय छ ?
उत्तर-(नो संखिज्जइ भागे होज्जा, असंखेज्जइ भागे होज्जा) सध्यातHinमा नथी, ५ भासण्यातमा मा छ, (नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा) सध्यात मागीमा ५५ नथी भने असण्यात मागोमा ५ नथी. .( एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि भाणियब्वाइ') अपातव्य દ્રના વિષયમાં પણ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના જેવું જ કથન मडी ए ४२७ न .
ભાવાર્થ–ત્રણથી લઈને અનંત પરમાણુવાળા જેટલા સ્કંધે છે, તેમને આનુપૂર્વી દ્રવ્ય કહે છે જે અનંત એક એક સ્વતંત્ર પરમાણુ છે તેમને અનાનવી દ્રવ્ય કહે છે. બે પરમાણુવાળા જે અનંત કહે છે તેમને અનાનુપવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કહે છે આ સૂત્રમાં પ્રશ્નકર્તા એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે આનુપૂર્વી
For Private and Personal Use Only
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८ भागद्वारनिरूपण कल्पनया शतस्य विंशतिमिताः?, किमसंख्याततमे भागे भवन्ति, यथा शतस्यैव दश ?, कि संख्येयेषु भागेषु भवन्नि, यथा शतस्यैव चत्वारिंशत् षष्टिा ?, किमसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति, यथा शतस्यैव अशीतिः १, इति प्रश्नः। उत्तरमाहआनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया हीनानि न भवन्ति, प्रत्युत अधिकान्येव भवन्ति, अधिकत्वं चाप्येषां नो संख्येयतमभागेन, नो असंख्येयतसमागेन, नापि संख्येयैर्भागः, अपि तु असंख्येयै गैरधिकानि भवन्तीति बोध्यम्, अवक्तव्यक द्रव्यों से अधिक हैं या कम ? तब सिद्धान्तकारों ने इसका उत्तर अधिक रूप में दिया है । तब पुनः शंकाकार ने पूछा कि यदि शेष द्रव्यों की अपेक्षा अधिक हैं, तो उनके किस भाग से अधिक है। क्या संख्यातवें भाग से अधिक हैं ? या असंख्यातवें भाग.से अधिक हैं ? या संख्यात असंख्यात भागों से अधिक हैं ? तब सूत्रकार ने उसे समझाया कि ये शेष द्रव्यों के असंख्यात भागों से ही अधिक हैं इतर तीन भागों से नहीं । क्योंकि ये आनुपूर्वीद्रव्य अनानुपूर्वी और अव. क्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा हीन नहीं हैं । किन्तु अधिक ही है। यह अधिकता इनमें शेष द्रव्यों के संख्यातवें असंख्यातवें एवं संख्यात भागों से मानी गई है। इसका तात्पर्य यह है कि सब आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात દ્રવ્ય, અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અધિક પ્રમાણમાં છે કે અહ૫પ્રમાણમાં છે? ત્યારે તેના ઉત્તર રૂપે સિદ્ધાંતકારોએ કહ્યું છે કે આવી દ્રવ્ય, અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અધિક પ્રમાણમાં છે.
વળી પ્રશ્નકર્તા એ પ્રશ્ન કરે છે કે જે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાકીના દ્રવ્ય કરતાં અધિક છે, તે કેટલામાં ભાગ જેટલું અષિક છે? શું સંખ્યાતેમાં ભાગ જેટલું અધિક છે ? કે સંખ્યાત ભાગો જેટલું અધિક છે ?' અસંખ્યાત ભાગો જેટલું અધિક છે?
ત્યારે સરકારે તેને એ ઉત્તર આપે છે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાકીના દ્રના અસંખ્યાત ભાગે પ્રમાણુ જ અધિક છે, સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ
અધિક નથી, કારણ કે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય, અનાનુપૂવી દ્રવ્યું અને ખવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં ન્યૂન પ્રમાણમાં હોતાં નથી–પણ અધિક પ્રમાણમાં જ હોય છે તે આનુપૂર્વી માં આ અધિકતા બાકીના દ્રવ્યોના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ પણ કહી નથી, અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ પણ કહી નથી, સંખ્યાત ભાગો પ્રમાણ પણ કહી નથી, પરંતુ અસંખ્યાત ભાગે પ્રમાણ જ
For Private and Personal Use Only
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
ચૂંટ
अनुयोगद्वार
अयं भात्रः - आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्यापेक्षया असंख्येयगुणानि सन्ति, यथा शतस्याऽशीतिः । आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि, एतत्त्रयमसत्कल्पनया शतस्वरूपं तत्राऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि अशीतिसंख्यातुल्यानि, शेषद्रव्याणि = अनानुपूर्व्यवक्तव्यकरूपाणि प्रत्येकं दश दश गणनया विंशतिसंख्यातुल्यानीति ।
9
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शेषद्रव्यपेक्षयाऽनुपूर्वीद्रव्याणि स्तोकान्यपि भवन्तु का हानिः ? इति चेदुच्यते - अनानुपूर्वीद्रव्याणि परमाणुरूपाण्येव, अवक्तव्यकद्रव्याणि तु द्वयणुकपुणे-अधिक है। जैसे मान लिया जावे कि ये तीनों १०० संख्या के स्थानापन्न हैं । इनमें अस्सी संख्या के तुल्य आनुपूर्वी द्रव्य हैं। और शेष संख्या २०, बीस के तुल्य अर्थात् १०-१० दस संख्या के बराबरअनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य हैं। शेष द्रव्यों के संख्यातवें अस ख्यातवें भाग से अथवा संख्यात भागों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्यों को अधिक मानने पर उनमें अखंख्यात गुणी अधिकता नहीं आसकने से हीनता आती है ।
शंका- यदि शेष द्रव्यों की अपेक्षा समस्त आनुपूर्वी द्रव्यस्तोकअल्प कम भी मान लिये जावें तो इसमे क्या हानि है ?
કહી છે એટલે કે સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રબ્યા અને અવકતવ્યક દ્રબ્યાં કરતાં અસખ્યાત ગણાં વધારે છે. ધારો કે આ ત્રણે ચૈા મળીને ૧૦૦નું. પ્રમાણ થાય છે, તેમાંથી ૮૦ ભાગ પ્રમાણે આનુપૂર્વી દ્રબ્યા હોય અને ૧૦-૧૦ ભાગ પ્રમાણ અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય હાય તા બાકીના દ્રવ્ય ૨૦ ભાગપ્રમાણ હાવાથી તેમના કરતાં અનુપૂર્વી કંપ ચાર ગણુ હાવાથી તેમાં અસખ્યાતગણી અધિકતા ગણી શકાય નહીં. પરન્તુ સૂત્રકારે તેમાં અસખ્યાતગણી અધિકતા કહી છે તેથી આ પ્રકારનું કથન કરવામાં અસખ્યાત ગણી અધિકતા નહીં આવી શકવાને કારણે હીનતા આવી જાય છે. કારણ કે આનુપૂર્વી ચૈાને બાકીના વ્યા કરતાં સખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણુ પશુ કહ્યા નથી, અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ પણ કહ્યા નથી, સખ્યાત ભાગે પ્રમાણ (સંખ્યાત ગણાં) પણ કહ્યાં નથી, પણ અસખ્યાત ભાગેપ્રમાણ (असख्यात गां४) उद्यां छे.
શ'કાજો બાકીનાં દ્રવ્યા કરતાં સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્યને અલ્પ માનવામાં આવે તે તેમાં શી હરકત છે ?
For Private and Personal Use Only
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मेयोगचन्द्रिकाटोका सूत्र ८८ भागद्वारनिरूपणम्
३८१ रूपाण्येव, आनुपूर्वीद्रव्याणि तु व्यणुकचतुरणुकप्रभृत्यनन्ताणुकपर्यन्तानि, अतः शेषद्रव्यापेक्षयाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि असंख्येयभागैरधिकानि बोध्यानि । उक्तं चार्दि.. "एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं अणंतपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्यो वा अणंतपएसिया खंधा, परमाणुपोग्गला अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा संखेज्जगुणा, असंखेज्जपए. मिया खंधा असंखेज्जगणा" ' छाया-एतेषां खलु भदन्त ! परमाणुपुद्गलाना संख्येयप्रदेशिकानाम् असं. ख्येयप्रदेशिकानाम् अनन्तमदेशिकानां च स्कन्धानां के केभ्योऽल्या वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ?, गौतम! सर्वस्तोका अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः, - उत्तर-अनानुपूर्वी द्रव्य परमाणुरूप ही है और अवक्तव्यक द्रव्य इधणुक रूप ही है। तथा आनुपूर्वी द्रव्य ज्यणुक आदि स्कंध से लेकर अनन्ताणुक स्कंध पर्यन्त है-इसलिये ये आनुपूर्वी द्रव्य शेष प्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक है ऐसा जानना चाहिये। अन्यत्र भी इसी बात को यों कहा है-हे भदन्त ! परमाणु रूप पुद्गलों में संख्यात प्रदेश वाले स्कंधों में, असंख्यात प्रदेश वालेस्कंधों में और अनन्त प्रदेश बोले स्कंधों में कौन किनसे अल्प है ? कौन किनसेबहुत है ? कौन किनसे तुल्य है ? अथवा कौन किनसे विशेष अधिक है?
उत्तर-हे गौतम सबसे कम अनंतप्रदेशी स्कंध है, परमाणु पुगल इनसे अनंत गुणित है संख्यात प्रदेशी स्कंध संख्यात गुणित है। * ઉત્તર-અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય પરમાણુ રૂપ જ છે અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય દ્વયણુક કંધ રૂપ જ છે પરંતુ આનુપૂવી દ્રવ્ય ત્રિઅણુક, આદિ અનંત અણુક પર્યન્તના સ્કર્ષ રૂપ છે. તે કારણે તે આનુપૂવી દ્રવ્ય બાકીના દ્ર કરતાં અસંખ્યાત ગણું વધારે હોય છે, તે કારણે તેને બાકીના દૂ કરતાં અપ કહી શકાય નહીં. વળી અન્યત્ર પણ એવું જ કહ્યું છે કે-“હે ભગવન્! પરમાણુરૂપ પુતલે, સંખ્યાત પ્રદેશેવાળા છે, અસંખ્યાત પ્રોવાળા છે અને અનંત પ્રદેશાવાળા સ્કંધમાં કોણ કોનાથી અ૫ છે, કે જેનાથી અધિક છે, કેણ કોની બરાબર છે અને તેણે કોના કરતાં વિશેષાધિક છે?
ઉત્તર-હે ગૌતમ! અનંતપ્રદેશી ઔધ સૌથી અહ૫પ્રમાણમાં છે, પરમાણપુલ તેમનાં કરતાં અનંત ગણ છે, સંખ્યાત પ્રદેશી
For Private and Personal Use Only
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवार परमाणुपुद्गला अनन्तगुणाः, संख्येयपदेशिकाः स्कन्धाः संख्येयगुणाः, असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धा असंख्येयगुणाः, इति।
अत्र मूत्रे सर्वस्या अपि पुद्गलजातेरपेक्षयाऽसंख्यातप्रदेशिकाः स्कन्धा असं. प्यातगुणा उक्ताः। असंख्यातपदेशिकाः स्कन्धास्तु आनुपूर्ध्यामेवान्तर्भवन्ति, अतस्तदपेक्षया आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषसमस्तद्रव्येभ्योऽपि असंख्यातगुणानि किं पुनरनानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यमात्रात् । 'अधिकानी ति अर्थस्वारस्यादाक्षिप्यते। ...
तथा-नैगमव्यवहारसम्मवानि अनानुपूर्वीद्रव्याणि-परमाणुरूपाणि द्रव्याणि शेषद्रव्याणाम् आनुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामपेक्षयां कियतिभागे भवन्ति ? किसंख्येयेषु मागेषु भवन्ति ? किमसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-नो संख्येयतमभागे भवन्ति, किंतु असंख्येयतमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्ये येषु भागेषु भवन्ति । अनानुपूर्वीद्रव्याणि-शेषद्रव्याणाम्
और असंख्यात प्रदेशी स्कंध असंख्यात गुणित है। इस सूत्र में समस्त पुद्गल जाति की अपेक्षा से उसके असंख्यात प्रदेशी स्कंध असं. ख्यात गुणे कहें हैं। सो ये असंख्घात प्रदेशी कंध आनुपूर्वी में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । इसलिये इस अपेक्षा से सब आनुपूर्वी द्रव्य शेष समस्त द्रव्यों से भी जब असंख्यात गुणित हैं तो कि अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से ये असंख्यात गुणे हैं इसमें तो कहना ही क्या है। सूत्र में " अधिक" पद नहीं कहा गया है फिर भी यहां उसका आक्षिस अर्थ के अनुसार किया गया है। तथा नैगमध्यवहारमय संमत जो अमानुपूर्वी द्रव्य-परमाणु रूप द्रव्य ये आनुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से उनके असंख्यात અસંખ્યાત ગણાં છે. અને અસંખ્યાત પ્રદેશી રકંધ અસંખ્યાતણા છે. આ સૂત્રમાં સમસ્ત પુદ્ગલ જાતિની અપેક્ષાએ તેના અસંખ્યાત પ્રદેશી સ્કંધ અસંખ્યાત ગણુ કહા છે. તે અસંખ્યાત પ્રદેશી કંધાનો આનરવ માં જ સમાવેશ થઈ જાય છે. આ રીતે વિચાર કરતાં, જે સમરત આપવી કાવ્ય બાકીના સમસ્ત કો કરતાં પણ અસંખ્યાત ગણું છે, તે અનાનુપૂર્વ અને અવકતત્યક દ્રષ્યો કરતાં તે તે અસખ્યાત ગાયું હોય એમાં શંકા કરવા २७ नथी. सूत्रमा “पि" ५६ वायु नथी, छतi ५ मही तना અને સ્પષ્ટ ખ્યાલ આપવા માટે તે પદને પ્રયોગ કર્યો છે
તથા નગમ અને વ્યવહાર નયસંમત જે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય (પરમાણુ કાવ્ય) છે તે આનુપૂર્વી અને અવક્તવ્ય કો કરતાં અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે. તે બાકીના દ્રવ્યોના સંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ નથી, સંખ્યાત
For Private and Personal Use Only
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मयुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८९ भाषद्वारनिरूपणम् असंख्येयतममागे भवन्ति-सन्ति, न तु शेषभागेषु त्रिषु। असत्कल्पनया यथा पतस्य दश, भवन्ति । न तु शेषेषु त्रिषु मागेषु भवन्ति। तदेवाह-एवं अवत्तबगदवाणि वि' इति । एवमवक्तव्यकद्रव्याण्यपि भणितव्यानि अवक्तव्यकद्रव्याण्यपि मनानुपूर्वीवदेव शतस्य दशवद् विज्ञेयानि सू०८८॥
अथाष्टम भावद्वारमाह
मूलम्-गमववहाराणं आणुपुवीदव्वाइं कतरम्मि भावे होज्जा ? किं उदइए भावे होजा? उवसमिए भावे होजा ? खइए भावे होज्जा ? खओवसमिए भावे होज्जा पारिणामिए भावे होज्जा ? संनिवाइए भावे होज्जा ? णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा ।अणाणुपुबोदव्वाणि अवत्तवगदव्वाणि य एवं चेव भाणियव्वाणि ॥सू०८९॥
छाया-नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कतमस्मिन् भावे भवन्ति ? किमौदयिके भावे भवन्ति ? औपशमिके भावे भवन्ति ? क्षायिके भावे भवन्ति ? भाग हैं । शेष तीन भागों से अधिक नहीं हैं । जैसे मान लिया जावे कि ये तीनों द्रव्य १००संख्यात रूप में हैं-इनमें शेष द्रव्यों की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य ८०' और अनानुपूर्वी द्रव्य १०, दश है। इसी प्रकार अवक्तव्यक द्रव्य भी आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा सौ के दश की तरह उनके असंख्यातवें भाग जानना चाहिये शेष तीन भागों से नहीं। ॥ सू०८८ ॥
ગણું પણ નથી અને અસંખ્યાત ગણું પણ નથી. ધારો કે આનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક, આ ત્રણે દ્રવ્ય મળીને ૧૦૦ સો ની સંખ્યા રૂપે છે. તેમાં બાકીના દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય ૮૦ અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય દશની સંખ્યા રૂપ છે એજ પ્રમાણે અવક્તયક દ્રવ્ય પણ આનુપૂર્વી અને અનાનુપૂર્વી ની અપેક્ષાએ ૧૦માંથી ૧૦૦ ની જેમ તેમના અસંખ્યાતમાં ભાગરૂપ જ સમજવું તેને તેમના સંખ્યામાં ભાગરૂપ અથવા તેમના કરતાં સંખ્યાત ગણું કે અસંખ્યાત ગણું સમજવું જોઈએ નહીં. સૂ૦૮૮
For Private and Personal Use Only
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारा क्षायोपशमि के भावे भान्ति ? पारिणामिके भावे भवन्ति ? सान्निपातिके भावे भवन्ति ? नियमात् सादि पारिणामिके भावे भवन्ति। अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि च एवमेव भणितव्यानि ॥सू० ८९॥ । अब सूत्रकार अष्टम जो भावद्वार है-उसका कथन करते हैं
"णेगमववहाराण" इत्यादि शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं कतरम्मि भावे होज्जा)
प्रश्न-नैगमव्यवहारनय संमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? (किं उदहए भावे होज्जा ?) क्या औदायिक भाव में वर्तते हैं ? ( उवसमिये भावे होज्जा) या औपशमिक भाव में वर्तते हैं? (खाए भावे होज्जा? ) या क्षायिक भाव में वर्तते हैं ? (ख भोवसमिये भावे होज्जा ?) या क्षायोपशमिक भाव में वर्तते हैं ? (पारिणामिएँ भावे होज्जा) या पारिमाणिक भाव में वर्तते है ? (संनिवाइए भावे होज्जा) या सान्निपातिक भाव में वर्तते हैं ? (णियमा साइ परिणामिए भावे होज्जा)
समस्त आनुपूर्वी द्रव्य नियम से सादि पारिणामिक भाव में वर्तते हैं। द्रव्य का उस-उस रूपसे जो परिणमन होता है उसका नाम परिणाम है। इस परिणाम का नाम ही पारिणामिक है। अथवा परिणाम होता हो या परिणाम से जो बनता हो उसका नाम पारिणामिक है।
હવે સૂત્રકાર અનગમના આઠમાં ભેદ રૂપ ભારદ્વારનું કથન કરે છે
“णेगमववहाराण" त्याह- शहाथ-(णेगमववहाराण आणुपुव्वी दव्वाई कतरम्मि भावे होजा?) પ્રશ્ન-નગમ અને વ્યવહાર નયસંમત આનુપૂ દ્ર કયા ભાવમાં રહે છે? (किं उदइए भावे होजा) शु मोह िामा २२ ? (उवसमिए भावे होज्जा), मोपशम भावमा २७ छ १ (खइए भावे होज्जा ) , क्षायि भाभा डाय छ १ (खओवसमिए भावे होज्जा) क्षाया५मि लामा जय छ ? (पारिणामिए भावे होज्जा ?) , पारिवामिनामा ७.५ छ ? (संनिवाइए भावे होज्जा १) सानिपाति: Ivi डाय छ १.
. उत्तर-(णियमा साइपरिणामिए भावे होज्जा) समस्त भानु प्रय નિયમથી જ સાદિપારિણામિક ભાવમાં રહે છે દ્રવ્યનું તે તે રૂપે જે પરિણમન થાય છે તેનું નામ પરિણામ છે એ પરિણામનું નામ જ પરિણામિક
For Private and Personal Use Only
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
astrafiant टीका सूत्र ८९ भावद्वारनिरूपणम्
३८५
यह परिणाम दो प्रकार का होना है-एक सादि और दूसरा अनादि । धर्मास्तिक आदि जो अरूपी द्रव्य हैं उसका जो उम्र उस रूप से स्वाभाविक परिणमन है वह अनादि परिणाम है। क्यों कि अनादि काल से ही इन द्रव्यों का परिणमन इसी रूप से होता चला आरहा है। तात्पर्य कहने का यह है कि इन द्रव्यों का जो स्वाभाविक स्वरूप परिणमन हैं वही अनादि परिणाम है । परन्तु जो रूपी द्रव्य- पुद्गल द्रव्य है उनका उस उस प्रकार का जो 'परिणमन होता है वह सादि परिणाम है। क्योंकि अभ्र, इन्द्रधनुष आदि पौलिक द्रव्यों के उस उसे प्रकार के परिणम में अनादिता होती है। इसलिये समस्त आनुपूर्वी द्रव्य सादि पारिणामिक भाव में वर्तते हैं। अधीत आनुपूर्वी द्रव्यों में जो आनुपूर्वी रूप विशिष्ट परिणाम है वह अनादि कालीन नहीं है । कारण- पुलों का जो एक विशिष्ट रूप से परिणाम होता है वह उस्कृ ष्ट की अपेक्षा असंख्यात कालतक ही स्थायी माना गया है। इसी प्रकार से समस्त आनुपूर्वी द्रव्य और समस्त अवक्तव्य भी सादि परिणामि क भाव में ही रहते हैं । औदयिक भावों की व्याख्या आगे की जावे मी इसलिये यहां नहीं की गई है।
छे. ते परिणाम मे प्रभारनं डाय छे - (१) साहि परिणाम, (२) मनाहि परियाम ધર્માસ્તિકાય આદિ જે અરૂપી દ્રા છે તેમનુ તે તે રૂપે જે સ્વાભાવિક પરિણમન થાય છે તેનું નામ મનાદિ પરિણામ છે, કારણ કે અનાદિ કાળથી જ તે દ્રશ્ચેાનુ આ રૂપે પરિણમન થતુ' આવે છે. આ કથનને ભાષા એ છે કે આ દ્રવ્યાનું જે સ્વાભાવિક સ્વરૂપ પરિણમન છે, એજ અનાદિ પરિણામ છે. પરં'તુ જે રૂપી દ્રવ્ય (પુદ્ગલ દ્રવ્ય) છે તેમનું તે તે પ્રકારનું જે પરિણમન થાય છે તે સાદિ પરિણામ છે, કારણ કે વાદળાં, મેઘધનુષ આદિ પૌદ્ગલિક દ્રશૈાના તે તે પ્રકારના પરિશુમનમાં અનાહિતા હૈાતી નથી તેથી એવું કહેવામાં માવ્યુ` છે કે સમસ્ત આનુપૂર્વા દ્રવ્યે સાત્તુિપરિણામિક ભાવમાં રહે છે. એટલે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્યામાં જે આનુપૂર્વી રૂપ વિશિષ્ટ પરિણામ છે તે અનાદિ કાલિન નથી કારણ કે પુÀાનું જે એક વિશિષ્ટ રૂપે પરિણમન થાય છે તે વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી જ સ્થાયી રહે છે, એમ માનવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે સમસ્ત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અને સમસ્ત અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પશુ સાØિપરિણામિક ભાવમાં જ રહે છે ઔયિક આદિ ભાવાનું સ્પષ્ટીકરણ આગળ કરવામાં આવશે.
४९
For Private and Personal Use Only
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वार टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि- ....
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कतमस्मिन् भावे भवन्ति ? इति सामान्यतः पृष्ट्वा विशेषतः पृच्छति-किमौदयिके भावे भवन्ति ? . किमौपशमिके भावे भवन्ति ? क्षायिके भावे भवन्ति क्षायोपशमिके भावे भवन्ति ? पारिणामिके भावे भवन्ति ?, साधिपातिके भावे भवन्ति ? इति उत्तरमाह-नियमाव=अवश्यतया-आनुपूर्वीद्रव्याणि सादिपारिणामिके-भावेभवन्ति। तत्र-परिणमनं द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण भवनं परिणामः, म एव पारिणामिकः, परिणामे भवः, परिणामेन निर्वृत्त इति वा पारिणामिकः । स च द्विविधःसादिरनादिश्च तत्र-धर्मास्तिकायाधरूपिद्रव्याणामनादिः परिणामः । अनादिकालात् तत्तद्रव्यत्वेन तेषां परिणतत्वात् । रूपिद्रव्याणां तु सादिः परिणामः, अभ्रेन्द्रधनुरादीनां तथा परिणामस्यानादित्वाभावात् । सादिचासौ पारिणामिकश्च सादि पारि
भावार्थ- आनुपूर्वी आदि द्रव्य कौन से भाव वाले हैं यह यहाँ प्रश्न किया गया है तब इसका उत्तर सूत्रकार ने यों दिया है कि ये सब आनुपूर्वी आदि पोद्गलिक द्रव्य सादि पारिमाणिक भाव वाले हैं। पारिमाणिक भाव द्रव्य का वह परिणाम है जो सिर्फ द्रव्य के अस्तित्व से आप ही आप हुआ है। औपशमिकभाव कर्मों के उपशम से होता है। जैसे मल के नीचे बैठ जाने पर जलमें स्वच्छता होती है। क्षायिक भाव कर्मों के क्षय से पैदा होता है। जैसे कीचड़ के सर्वथा नष्ट हो जाने पर जल में स्वच्छता आती है। क्षय और उपशम इन दोनों के संबन्ध से जो भाव उत्पन्न होते हैं वे क्षायोपशमिक भाव हैं-जैसे कोदों-कोद्रकमें धोने पर कुछ मादक शक्ति नष्ट हो जाती है और कुछ
ભાવાર્થઆનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય કયા ભાવવાળાં હોય છે, એ અહી પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યા છે આ પ્રશ્નને સૂત્રકારે એવો ઉત્તર આપ્યો છે કે સમસ્ત આનુપૂર્વી આદિ પૌગલિક દ્રવ્ય સાદિપારિણામિક ભાવવાળાં હોય છે.. પારિણામિક ભાવદ્રવ્યનું એ પરિણામ છે કે જે માત્ર દ્રવ્યના અસ્તિત્વમાં જ આપો આપ થયા કરે છે. ઔપણમિક ભાવ કર્મોના ઉપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ પાણીમાં રહેલે કચરો નીચે બેસી જઈને પાણી સ્વચ્છ થાય છે એ જ પ્રમાણે કર્મોના ઉપશમથી ઓપશમિક ભાવ પેદા થાય છે. કર્મોના ક્ષયથી ક્ષયિક ભાવ પેદા થાય છે જેમ કાદવને સર્વથા નાશ થઈ જવાથી પાણી સ્વચ્છ બની જાય છે એજ પ્રમાણે કર્મોને ક્ષય થવાથી ક્ષાયિક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. ક્ષય અને ઉપશમ, આ બન્નેના સંબંધથી જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તેમને ક્ષાપશમિક ભાવ કહે છે. જેમ કેદરાને પાણીમાં ધોવાથી તેની થેડી માદકશક્તિ નષ્ટ થઈ જાય છે અને થોડી
For Private and Personal Use Only
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्त्वद्वारनिरूपणम् णामिका, तस्मिन् भावे भवन्ति, आनुपूर्वीद्रव्याणामानुपूर्वीत्वेन परिणामस्याना दिवाऽसंभवात् , उत्कर्षतो विशिष्टैकपरिणामेन पुद्गलानामसंख्येयकालमेवावस्थानात् । एवमनानुपूर्वीद्रयाणि अवक्तव्यकद्रव्याणि च सादिपारिणामिके भावे एवं भवन्ति । औदयिकादीनां व्याख्याऽत्र न कृता, अग्रे करिष्यमाणत्वात् ।।सू० ८९।। ___ मूलम्-एएसिणं भंते ! णेगमश्वहाराणं आणुपुत्वीदवाणं अणाणुपुबीदवाणं अवत्तबगदवाणं य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दबट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाइं गमववहाराणं अवत्तव्वगदवाइं दवयाए, अणाणुपुवीदवाइंदवट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुबीदवाई दवट्टयाए असंखेज्जगुणाई १। पएसट्टयाए सव्वस्थोवाई गमववहाराणं अणाणुपुत्वीदवाइं अपएसट्टयाए । अवत्तबगदवाइं पएसट्ठयाए विसेसाहियाई। आणुपुचीदवाई पएसटूयाए अणंतगुणाई २। दबटुपएसट्टयाए सवत्थोवाइं णेगमववहाराणं अवत्तबगदवाई दवट्टयाए। अणाणुपुत्वीदवाई दव शेष बची रहती है । कर्मों के उदय से होने वाले भाव औदयिक भाव हैं। जैसे कीचड़ के संबन्ध से जलमें मलिनता होती है। पारिणामिक भाव के दो भेद हैं १ एक सादि पारिणामिक भाव और-दूसरा अनदि पारिणामिक भाव । अनादि पारिणामिक भाव धर्मास्तिकायादिक अमू. त पदार्थों में होता है । और मूर्त पौगलिक द्रव्यों में सादि पारिणामिक भाव होता है। ॥ सू० ८९॥ બાકી રહી જાય છે એ જ પ્રમાણે ક્ષય અને ઉપશમને કારણે પણ કર્મોની સ્થિતિ થાય છે કર્મોના ઉદયથી ઉત્પન્ન થતાં ભાવને ઔદયિક ભાવ કહે છે જેમ કાદવને લીધે પાણી મલિન બને છે, એજ પ્રમાણે કર્મોના ઉદયથી આત્મા પર કર્ણોરૂપી મેલ જામે છે પરિણામિક ભાવના નીચે પ્રમાણે છે ભેદ છે-(૧) સાદિ પારિણામિક ભાવને સદૂભાવ ધર્માસ્તિકાય આદિ અમૃત દ્રવ્યમાં હેય છે અને મૂર્ત પગલિક દ્રવ્યમાં સાદિપરિણામિક ભાવને સદૂભાવ હોય છે. સૂ૦૮
For Private and Personal Use Only
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे ट्ठयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई । अवत्तवगदवाइं पएसट्टयाए विसेसाहियाई। आणुपुत्वीदवाई दवट्टयाए असंखेज्जगुणाई, ताई चेव पएसटुयाए अणंतगुणाई ३। से तं अणुगमे, से तं नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दवाणुपुत्वी सू० ९०॥
छाया-एतेषां खलु भदन्त ! नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणामनानुपूर्वीद्रव्याणामवक्तव्यकद्रव्याणां च द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया कानि केन्योऽल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा ? गौतम ! सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोरवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्थतया, अनानुपूर्वोद्रव्याणि
अथ सूत्रकार नववे अल्प बहुत्व द्वार की प्ररूपणा करते हैं"एएसिं णं भते!" इत्यादि
शब्दार्थ- (भंते ! णेगमववहाराणं एएसिं आणुपुम्वी दव्वाणं अणाणु पुत्वीयाणं अवत्तव्वगवाणं य दवट्टयाए पएसट्टाए, दव्वट्ठपए. सट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसा. हिया वा ? ) हे भदन्त ! नैगम व्यवहारनय संमत इन आनुपूर्वी द्रव्यों के अनानुपूर्वी द्रव्यों के, और अवक्तव्यक द्रव्यों के बीच में द्रव्यार्थता प्रदेशार्थता और द्रयार्थ प्रदेशार्थता की अपेक्षा करके कौन २ द्रव्य किन २ द्रव्यों से अल्प हैं ? कौन २ द्रव्यों से अधिक है ? कौन २ किन२ के समान हैं ? कौन २ किन २ द्रव्यों से विशेष अधिक हैं ? ..
હવે સૂત્રકાર નવમાં અલપબડુત્વ દ્વારની પ્રરૂપણ કરે છે“ एएसिं ण भंते ! " त्याह
शा--(भते ! णेगमववहाराण एएसिं आणुपुठवीदव्याण अणाणुपुषी ६व्याण अवत्तव्यगव्वाणय दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए, दवटुपएसटयाए कयरे कयरेहिता अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?) 3 अगवन् ! નગમ અને વ્યવહાર નયસંમત આ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય, અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યની દ્રવ્યર્થતા, પ્રદેશાર્થતા અને દ્રવ્યર્થપ્રદેશાર્થ તાની અપેક્ષાએ સરખામણી કરવામાં આવે, તે કયા કયા દ્રવ્ય કરતાં જૂન છે ? કયા કયા દ્રવ્ય કયા કયા દ્રવ્ય કરતાં અધિક છે ? કયા કયા દ્રવ્ય કયા કયા દ્રવ્યોની બરાબર છે? અને કયા કયા દ્રવ્ય કયા કયા દ્રવ્યોથી વિશેષાધિક છે?
For Private and Personal Use Only
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम्
३८९
पार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि । प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि अप्रदेशार्थतया
उत्तर- ( गोयमा दव्वट्टयाए णेगमववहाराणं अवन्त्तव्यगदव्वाइं eosस्थो वाइं ) हे गौतम! द्रवार्थता की अपेक्षा से नैगम व्यवहारनय संमत अवक्तव्यक द्रव्य सर्वस्नोक हैं- अनानुपूर्वी द्रव्यों से भी अल्प हैं। (अणाणुपुत्री दबाई दग्बट्टयाए विसेसाहियाई ) तथा अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा से विसेषाधिक हैं - अवक्तव्यक द्रव्यों से कुछ अधिक हैं। विसेषाधिकता इनमें वस्तुस्थिति के स्वभाव से है । " तदुक्तम्" इन परमाणु पुगलों के और द्विप्रदेशी स्कंधों के बीच में कौन किससे अधिक है ? गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कंधों से परमाणु पुगलअधिक हैं । इस कथन के अनुसार अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा पर माणुरूप पुद्गल अधिक प्रमाणित होते हैं। (दव्या आणुवी दवाई असंखेज्जगुणाइं) तथा द्रव्यार्थता की अपेक्षा से आनुपूर्वीद्रव्य असं ख्यात गुणित हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि जो अनानुपूर्वी द्रव्य हैं उनमें परमाणुरूप एक एक ही स्थान लभ्य है, एवं जो अवक्तव्यक द्रव्य हैं उनमें भी द्विप्रदेशी स्कंध रूप एक एक स्थान ही लभ्य हैं परन्तु जो
લ્યે
समभवी. "
"
उत्तर- ( गोयमा ! ) हे गौतम ! (दव्वट्टयाए णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदुव्वाइ' सव्वत्थ वाई ) द्रयार्थतानी अपेक्षा नैगम भने व्यवहार नयः સંમત અવક્તવ્યક દ્રશ્ય સૌથી અલ્પ છે-એટલે કે અનાનુપૂર્વી વ્યાથી પણ તે पत्रमामां होय छे (अणाणुपुत्रीदव्वाइ, दव्बट्टयाए विसे साहियाई) તથા દ્રવ્યાતાની અપેક્ષાએ અવકતવ્યક દ્રવ્યે કરતાં અનાનુપૂર્વી વિશેષાધિક છે. તેમાં આ વિશેષાધિકતા વસ્તુસ્થિતિના સ્વભાવની અપેક્ષાએ तदुक्तम् કહ્યુ' પણ છે કે “ હું ભગવન્! પરમાણુ પુદ્ગલે અને દ્વિપ્રદેશી કન્યા, આ અન્નેમાંથી કેણુ કાના કરતાં અધિક છે? ઉત્તરહે ગૌતમ ! દ્વિપ્રદેશીક સ્કધા કરતાં પરમાણુ પુદૂગલે અધિક હોય છે, ’' આ કથન અનુસાર દ્વિપ્રદેશી સ્પધા રૂપ અવક્તવ્યકબ્યા કરતાં પરમાણુપુદ્ગલ રૂપ અનાનુપૂર્વી ચે અધિક છે, એ વાત પ્રમાણિત થાય છે (त्रया आणुपुव्वदव्वाई' असंखेज्जगुणाइ) तथा द्रयार्थतानी अपेक्षाखे આનુપૂર્વી લ્યે, અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યે કરતાં અસખ્યાત ગણાં છે. આ કથનનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે જે અનાનુપૂર્વી કન્યા છે. તેમાં પરમાણુ રૂપ, એક એક સ્થાન જ લભ્ય ડાય છે, અને જે અવકતવ્યક દ્રવ્યેા છે તેમાં પણ દ્વિદેશી કોંધ રૂપ એક એક જ સ્થાન લભ્ય ડાય છે. પરન્તુ જે,
15
For Private and Personal Use Only
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
३९०
अनुयोगद्वारसूत्रे
अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया - अनन्तगुणानि २ । द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोरवक्तव्य द्रव्याणि द्रव्यार्थतया । अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्यतया, अपदेशार्थतया विशेषाधिकानि । अवaseकद्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि तान्येव प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि । स एषोऽनुगमः । सैषा Arora हारयोः अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ॥० ९० ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आनुपूर्वी द्रव्य है उनमें व्यणुक स्कंध से लगाकर एकोत्तर वृद्धि से एक एक प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि होने से अनंताणुक स्कंध पर्यन्त अनन्त स्थान हैं इसलिये स्थान की बहुत विवक्षा से अनुपूर्वी द्रव्य अनानु. पूर्वी और अवश्यक द्रश्यों की अपेक्षा असंख्यातगुणे कहे गये हैं।
शंका- यदि आनुपूर्वी द्रव्यों के स्थान पूर्व की अपेक्षा अनन्त हैं। इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात गुणें पूर्व की अपेक्षा लेकर के कहें गये हैं, सो ये कहना ठीक नहीं है क्यों कि इस प्रकार के कथन से तो उन आनुपूर्वी देव्यों में उनकी अपेक्षा असंख्यातगुणता न आकर अनंत गुणता ही आती है ?
उत्तर- अनंताणुक जो स्कंध हैं वे तो अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा से अनन्त भागवर्ती होने के कारण स्वभावतः ही स्तोक-कम- हैं । इसलिये अनन्ताणुक स्कंधों को लेकर आनुपूर्वी द्रव्यों में आनुपूर्वी के स्थानों में कुछ वृद्धि नहीं होती है। इसलिये यथार्थरूप में उनमें - आनुपूर्वी द्रव्यों આનુપૂર્વી દ્રવ્યા છે તેમાં તેા ત્રિઅણુક સ્કંધથી લઇને ક્રમે ક્રમે એક એક પ્રદેશની ઉત્તરોત્તર વૃદ્ધિ થતાં થતાં અનંતાણુક સ્કંધ પન્તના અન"ત સ્થાન હેાય છે તેથી સ્થાનના બહુત્વની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી લ્યે, અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક વ્યા કરતાં અસંખ્યાત ગણાં કહેવામાં આવ્યાં છે.
શંકા જો આનુપૂર્વી જ્યેના સ્થાન અનંત હાય, અને અનાનુપૂર્વી કૈાના તથા વક્તવ્યક દ્રવ્યેનાં સ્થાન એક એક હાય તેા અહી' આનુપૂર્વી દૂબ્યાને અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યકબ્યા કરતાં અનંતગણુાં કહેવા જોઈતા હતાં છતાં અહીં તેમને અસ`ખ્યાત ગણાં શા કારણે કહ્યાં છે?
ઉત્તર-મન'તાણુક જે સ્કા છે તે આનાનુપૂર્વી દ્રબ્યા કરતાં અન તમાં ભાગપ્રમાણુ હોવાને કારણે સ્વાભાવિક રીતે જ સ્તાક (ઓછાં, ન્યૂન) છે. તેથી અનંતાણુક કધને લીધે આનુપૂર્વી ચૈામાં માનુપૂર્વી કૂબ્યાનાં સ્થાનામાં ખાસ કોઇ વૃદ્ધિ થતી નથી. તેથી યથાય રૂપે તે તે આનુપૂવી
For Private and Personal Use Only
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्त्वद्वारनिरूपणम् टीका-'एएसिणं' इत्यादि
हे भदन्त ! नैगमव्यवहारसम्मतानामेतेषामानुपूर्वीद्रव्याणामनानुपूर्वी द्रव्यागामवक्तव्यकद्रव्याणां च मध्ये द्रव्यार्थतया द्रव्यमेवाओं द्रव्यार्थस्तस्यमावो द्रव्यार्थता तयश, द्रव्यत्वेनेत्यर्थः, द्रव्यत्वमपेक्ष्य, प्रदेशार्थतया प्रदेशत्वमपेक्ष्य, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया द्रव्यत्वं प्रदेशत्वं चापेक्ष्य कानि केभ्यः अल्पानि विशेषहीनस्वादिना स्तोकानि वा भवन्ति ? बहुकानि=असंख्येयगुणस्वादिनाधिकानि वा भवन्ति ? तुल्यांनि=समसंख्यत्वेन समानि वा, किंचिदाधिक्येन विशेषाधिकानि का भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-हे गौतम ! द्रव्यार्थतया द्रव्यार्थत्वमपेक्ष्य नेगमव्यवहारसम्मतानि अवक्तव्यवद्रव्याणि सर्वस्तोकानिधनानुपूर्वीद्रव्येभ्य आनुपूर्वीद्रव्येभ्यश्च अल्पानि । अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु द्रव्यार्थतया विशेषाधिकानि= अवक्तपकद्रव्येभ्यः किंचिदधिकानि । विशेषाधिक्यं त्वस्य वस्तुस्थितिस्वभावत् । तदुक्तम्...'एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपएसियाणं खंधाणं कयरे कयरेहितो बहुया ? गोयमा ! दुप्पएसिएस्तिो खंधेहितो परमाणुपोग्गला बहुया॥ - छाया-एतेषां खलु भदन्त ! परमाणुपुद्गलानां द्विपदेशिकानां स्कन्धानां मध्ये के केभ्यो बहुकाः;३ गौतम ! द्विमदेशिकेभ्यः स्कन्धेश्यः परमाणुपुद्गला बहुका:०३ इति। में- असंख्यात गुणित ही स्थान बनते हैं और उन्हीं स्थानों को लेकर उनमें असंख्यात गुणता आती है। अनंतगुणता नहीं। यह सब विषय अनुगम के भाग नाम के सप्तमहार में कथित "एएसि | भंते!"इत्यादि सूत्रपाठ से जान लेना चाहिये। इस प्रकार द्रव्यार्थता की अपेक्षा लेकर बहुरव का कथन करके अब सूत्रकार प्रदेशत्व की अपेक्षा से आनुपूर्वी आदि દ્રમાં અસંખ્યાત ગણાં જ સ્થાન બને છે, અને એજ સ્થાનની અપેક્ષાએ તેમનામાં (આનુપૂવી દ્રમાં) અસંખ્યાત ગુણિતતા જ સંભવી શકે છેઅનંત ગુણિતા સંભવી શકતી નથી. ૮૮માં સૂત્રમાં અનુગામના ભાગદ્વાર नामना सातभा सेतुं प्रतिभाहन ४२ती मते सारे " एएसिंण" त्यात સૂત્રપાઠ દ્વારા આ વિષયનું વિશેષ વર્ણન કર્યું છે. તે તે સૂત્રમાંથી તે વાંચી લેવું. આ રીતે દ્રવ્યાર્થતાની અપેક્ષાએ આનુપૂવ કર્યો આદિની અ૫બહુતાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર પ્રદેશત્વની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યના અપડતનું કથન કરે છે
For Private and Personal Use Only
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारस्ते ___ तथा-द्रव्यार्थतया आनुपूर्वीद्रव्याणि असंख्येयगुणानि । --- अयं भावः-अनानुपूर्वीद्रव्येषु परमाणुलक्षणं स्थानमेकैकमेव लभ्यते, अक्त व्यकद्रव्येषु द्वयणुकस्कन्धलक्षणं स्थानमेकैकमेवलभ्यते । आनुपूर्वीद्रव्येषु तु ध्य णुकस्कन्धप्रभृतीनि एकोत्तरवृद्धयाऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि अनन्तानि स्थानानि द्रव्यों में अल्प बहुत्व का कथन करके अब सूत्रकार प्रदेशत्व की अपेक्षा से आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में अल्प बहुत्वका कथन करते हैं-(णेगमववहारणं अणाणुपुब्बीदव्वाइं पएसट्टयाए सवयोवाइं) नैगम व्यवहारनय संमत समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य प्रदेशत्व की अपेक्षा करके अवक्तव्यक द्रव्यों से एवं आनुपूर्वी द्रव्यों से अला हैं । क्यों कि (अपएसट्टयाए ) अनानुपूर्वी. द्रव्यों में प्रदेशरूप अर्थका अभाव है। तात्पर्य कहने का यह है कि परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्यों में भी यदि द्वितीय आदि प्रदेश हो तो द्रव्यार्थता की तरह प्रदेशार्थता में भी अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से उनकी अधिकता हो जावे परन्तु ऐसा तो है नहीं क्योंकि परमाणु अप्रदेशी होता है-ऐसा सिद्धान्त का वचन है। इसलिये प्रदेशार्थता की अपेक्षा से ये आनुपूर्वीद्रव्य सर्वस्तोक-थोडे कहे गये हैं। निष्कर्षार्थ इसका यह है कि अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा लेकर अवक्तव्यक द्रव्यों से कुछ अधिक कहे गये हैं और अवक्तव्यक द्रव्य इनसे कम । सो यदि परमाणुरूप इन अनानुपूर्ण द्रव्यों में भी यदि द्वितीयादिक प्रदेश मान लिये जावें
(णेगमववहाराण अणाणुपुबीदवाई पएसद्वयाए सम्वत्थोवाई) नेम અને વ્યવહાર નયસંમત સમસ્ત અનાનુપૂર્વ દ્રવ્ય પ્રદેશત્વની અપેક્ષાએ અવક્તવ્યક દ્રવ્યે કરતાં અને આનુપૂવી ક કરતાં અલ્પ હોય છે, કારણ , (अपएसट्टयाए) मानानुपूर्वा द्रव्यमा प्रदेश ३५ अर्थ ममा यथे. આ કથન ત ત્પર્ય એ છે કે જે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂવી દ્રવ્યમાં પણ દ્વિતીય આદિ પ્રદેશને સદ્ભાવ હેત તે દ્રવ્યાર્થતાની જેમ પ્રદેશાર્થતામાં પણું અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં તેમની અધિકતા જ હેત પરન્તુ એવી કઈ વાતને તે સદ્ભાવ જ નથી, કારણ કે પરમાણુ અપ્રદેશી હોય છે, એવું સિદ્ધાંતનું વચન છે. તે કારણે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવ દ્રવ્યને સૌથી અલપ કહેવામાં આવેલ છે. આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે દ્રવ્યાર્થતાની અપેક્ષાએ તે અનાનુપૂર્વા કાને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં વિશેષાધિક કહેવામાં આવેલ છે. એટલે કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો કરતાં અવક્તવ્યકદ્વ અપ કહેવામાં આવ્યાં છે. પણ પ્રદેશત્વની અપેક્ષાએ તે આનુપૂવી
For Private and Personal Use Only
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् माप्यन्ते, अतः स्थानबहुत्वात् आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽवक्तव्यकद्रव्येभ्यथाऽसंख्येयगुणानि । ___ ननु-आनुपूर्वीद्रव्याणां स्थानानि यद्यनन्तानि, तर आनुपूर्वीद्रव्याणि पूर्वापेक्षयाऽनन्तगुणानि भवन्तीतिवक्तव्यम् , कथनमसंख्यातगुणानीत्युक्तम् १ इति चेत्, उच्यते-अनन्ताणुकस्कन्धास्तु अमानुपूर्व्यपेक्षयाऽनन्तभागवर्तित्वात् स्वमावादेव स्तोका इति-अनन्ताणुकस्कन्धेरानुपूर्वीद्रव्येषु न किंचिद् वर्धते, भतो वस्तुवृश्या असंख्यातान्येव तेषु स्थानानि पाप्यन्ते । तदपेक्षया तु असंख्यात. गुणान्येव तानि भवन्ति, नत्यानन्तगुणानीति । एतच्चानुगमस्य सप्तमे भागनामके द्वारे प्रदर्शितात्-'एएसिं गं भो' इत्यादिकान् सूत्रपाठान् सबैभावनीयम् १। इत्थं द्रव्यार्थतयाऽपबहुश्वमभिधाय सम्प्रति प्रदेशार्थतया तदाह-'पएसट्टयाए, इत्यादि। नैगमव्यवहारसम्मतानि अनानुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया-प्रदेशत्वमपेक्ष्य सर्वस्तोकानि-अवक्तव्यद्रव्येभ्य आनुपूर्वीद्रव्येभ्यबाल्पानि । एषां सर्वस्तोकल्ये हेतुमाह'अपएसट्टयाए' इति । अप्रदेशार्थवया-अप्रदेशार्थत्वात् , अनानुपूर्वी द्रव्येषु प्रदेशरूपस्यार्थस्य अभावात् । अयं भावा-यदि हि अनानुपूर्वी द्रव्येष्वपि मदेवाः स्युः स्तदा द्रव्यार्थतायामिव प्रदेशार्थतायामपि अवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया वेपामाधिक्य स्यात् , नचैतदस्ति, 'परमाणुरप्रदेशः' इति वचनात् , अतः सर्वस्तोकानि एतानि ।
ननु यथनानुद्रिव्येषु प्रदेशार्थता नास्ति, तहि मात्र तस्या विचारोऽनुपयुक्त एवे? ति चेत् , उच्यते-'प्रदेश' शन्दस्य मकृष्टः-सर्वसूक्ष्मः देशः पुद्गलास्तितो प्रदेशार्थता से भी उनकी अवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा अधिकता मानी जानी चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि परमाणु भप्रदेशी है। भतः भनानुपूर्वी द्रव्य सर्वस्तोक यही सिदान्त युक्तियुक्त है।
शंका-यदि अनानपूर्वी द्रव्यों में प्रदेशार्थता नहीं है, तो यहां पर प्रदेशार्थता को लेकर उनका विचार करना भनुपयुक्त ही है? દ્રવ્યને અવતવ્ય દ્રવ્ય કરતાં ૫ણ અ૫ માનવામાં આવેલ છે, કારણ કે પરમાણ રપ અને નવી દ્રવ્ય અપ્રદેશી હોય છે જે આ પરમાણ રૂપ અનાનુપૂર્વી
માં પણ દ્વિતીય આરિ પ્રદેશને સદૂભાવ માનવામાં આવે, તે પ્રવેશાર્થતાની અપેક્ષાએ પણ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અનાનપવી કન્યાની અધિકતા સંભવી શકે છે. પરંતુ પરમાણ રૂપ અનાનુપવી એને સર્વસ્તક (સૌથી અ૫) માનવીને સિદ્ધાંત જ યુક્તિયુક્ત લાગે છે. તે
શંકા- અનાનવી દ્રવ્યોમાં પ્રવેશાર્થતાને સદૂભાવ જ ન હોય, તે અહી પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ તેમને વિચાર કર એ વાત જ છે અનુચિત લાગતી નથી?
For Private and Personal Use Only
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगवारसूचे कायस्य निरंशो भागा, इति व्युत्पत्या परमाणुद्रव्येऽपि प्रदेशत्वमस्त्येव, अतः प्रदेशार्थतया एषां विचारो नानुपयुक्त इति । तथा-अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्यतयाऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो विशेषाधिकानि अवक्तव्यकद्रव्येषु एकैकस्य द्विपदेशत्वात् । भनानुपूर्वीद्रव्यापेक्षयाऽवक्तव्यकद्रव्याणां प्रदेशार्थत्वमाश्रित्य विशेषाधिक्य बोध्यमिति । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु प्रदेशार्यतया अवक्तव्यकद्रव्येभ्योऽनन्तगुणानि ।
उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि 'प्रकृष्टदेशः प्रदेशः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सर्व सूक्ष्मदेश का नाम प्रदेश, अर्थात् पुद्गलास्तिकाय का निरंश भाग है वह प्रदेश है। ऐसा प्रदेशपन परमाणु द्रव्य है ही। इस. लिये प्रदेशार्थता की अपेक्षा इनका विचार अनुपयुक्त नहीं है तथा( अवत्तव्यगदव्वाइं पएसट्टयाए विसेसाहियाई) अवक्तव्यक न्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक-कुछ अधिकहै। भर्थात् अबक्तव्यक द्रव्यों में एक २ मवक्तव्यकद्रव्य बिमदेशवाला होता है और अनानुपूर्वी द्रव्यों में एक एक अनानुपूर्वीद्रव्य एक प्रदेश बाला होता है इसी कारण अनानुपूर्वी द्रव्यों से भवक्तम्यक द्रग्य प्रदे. शार्थता को लेकर कुछ अधिक कहे गये हैं। (भाणुपुत्वीदपाइं पएस. हयाए अणतगुणाई) जो आनुपूर्वी द्रव्य से अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा अनंतगुणे हैं। क्यों कि इनके प्रदेश अबक्तव्यकद्रव्यों के प्रदेशों
उत्तर- पात सरासर नथी, २५ । “प्रकृष्टोशः प्रदेशः " मा વ્યુત્પત્તિ અનુસાર સૌથી સૂકમ દેશનું નામ પ્રદેશ છે એટલે કે પુલાસ્તિથાય જે નિરંશ ભાગ છે તે પ્રદેશરૂપ જ છે. એવું પ્રદેશવ તે પરમાણ દ્રવ્યમાં જ હોય છે. તેથી પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ તેમને વિચાર કરવામાં અનુપયુક્તતા જણાતી નથી. .. तया-(भवतव्यगव्वाई एमट्टयाए विसेसाहियाई) मतव्य ०५ પ્રવેશાર્થ ત્વની અપેક્ષાથી વિશેષાષિક હોય છે. એટલે કે અવક્તવ્ય
માના પ્રત્યેક અવકતવ્યક દ્રવ્ય બબ્બે પ્રદેશવાળાં હોય છે, અને અનાનુપવી દ્રમાંનું પ્રત્યેક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય એક એક પ્રદેશવાળું હોય છે. તે કારણે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય કરતાં અવકતવ્યક દ્રવ્યને વિશેષાધિક (અમુક પ્રમાણમાં વધારો કહ્યાં છે.
(भाणुपुच्चीदव्वाईपएमट्टयाए अणंतगुणाई) प्रदेशातानी अपेक्षा અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યો અનંત ગણાં ય છે, કારણ કે
For Private and Personal Use Only
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम्
द्रव्यार्थतयाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽवक्तव्य कद्रव्येभ्यश्चाऽसंख्यात-गुणान्युक्तानि तदपेक्षयाऽऽनुपूर्वीद्रव्यस्कन्धानाम संख्यातगुणत्वात् । प्रदेशार्थताऽपेक्षया तु आनुपूर्वीद्र पाण्यनन्तगुणानि सन्ति, तत्प्रदेशानां पूर्वापेक्षयाऽनन्त गुण`स्वादिति२ । इत्थं प्रदेशार्थतंयाऽल्पबहुत्वमुक्त्वा, इदानीमुभयार्थतामाश्रित्य तदुच्यते'दsageसहयाए' इत्यादि । नेगमव्यवहारसम्मतानि अवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्यप्रदेशार्थतया सर्वस्वोकानि, सर्वस्तोकत्वे हेतुमाह - 'दव्याए' इति । अवक्तव्यकद्रव्याणां द्रव्यार्थतया द्रव्यार्थत्वात् सर्वस्वोकत्वं बोध्यम् । तथा अनानुपूर्वीद्रव्याणि से अनंत गुणे हैं। यह पहिले कहा जा चुका है कि आनुपूर्वीद्रव्यायता को आश्रित करके अनानुपूर्वी द्रव्यों से अवक्तव्यकद्रव्यों से असंख्यातगुणे हैं क्यों कि इनकी अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्ध स्कंध असंख्यात गुण होते हैं । परन्तु प्रदेशों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य अनन्त गुणे हैं । क्यों कि इनके प्रदेश पूर्व की अपेक्षा अनन्तगुणे कहे गये हैं। इस प्रकार • प्रदेशार्थता की अपेक्षा अलग बहुत्व का कथन करके अब सूत्रकार उभ - यार्थता की अपेक्षा लेकर अल्प बहुत्व का कथन करते हैं
२९६
(गमववहाराणं अवसव्वगदव्वाई दव्यटुपए सट्टयाए सन्वत्थोबाई) नैगमव्यवहारनय संमत अवक्तव्यक द्रव्य द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता रूप उभयार्थता की अपेक्षा लेकर सर्वस्तोक हैं। क्योंकि (दव्यहुयाए) अवक्तव्यक द्रव्यों में द्रव्यार्थता की अपेक्षा लेकरके पहिले सर्व
For Private and Personal Use Only
તેમના પ્રદેશે। અવક્તવ્યક દ્રવ્યેના પ્રદેશેા કરતાં અનંત ગણાં હાય છે. પહેલાં એ વાત તે પ્રકટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે દ્રવ્યાÖતાની અપેક્ષામ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યે અને અવકતવ્યક દ્રવ્યા કરતાં માનુપૂર્વી દ્રવ્ય અસ’ખ્યાત ગણુાં છે, કારણ કે તેમના કરતાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યસ્ક ધ અસ`ખ્યાત ગણાં હાય છે પરન્તુ પ્રદેશેાની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી દ્રબ્યા અન ́ત ગણુાં છે, કાણુ કે તેમના પ્રદેશે। અવકતવ્યક દ્રઐના પ્રદેશે કરતાં અનંત ગણુાં કહ્યાં છે આ રીતે પ્રદેશાતાની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી આદિ દ્રબ્યાના અપ-મહત્વનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ઉભયાથતા દ્રવ્યતા અને પ્રદેશાથતા)ની અપેક્ષાએ तेभना मध्यमहुत्वनुं प्रथन उरे छे - (गमवबहाराण अवतव्वगदब्वाई' दवदुveegee seथोवा) नैगम भने व्यवहार नयसभित અવકતવ્યક મ દૂબ્યા તા અને પ્રદેશાતા રૂપ ઉભયાતાની અપેક્ષાએ સવસ્તાક સૌથી ઓછુ - छे, ४२ (दबट्टयाए) द्रयार्थतानी अपेक्षा भव्य द्रव्योमांसस्तातानुं प्रतिपाहुन पडेलां ४२वामां आयु छे, तथा ( अगाणुपुत्रवी दव्बाई दबदबा
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ अनुयोगद्वारसूत्रे उभयार्थत्वमाश्रित्यावक्तव्यकद्रव्यापेक्षया विशेषाधिकानि बोध्यानि। अत्र हेतुमाह'दन्वट्टयाए अपएसट्टयाए' इति । द्रव्यार्थतयाऽप्रदेशार्थतया च अनानुपूर्वीद्रव्यागामवक्तव्यक् द्रव्यापेक्षया विशेषाधिक्यं बोध्यम्। 'अवत्तव्यगदम्बाई' इत्यादि, अवक्तव्याद्रव्याणां त्विह प्रत्येकं द्विपदेशत्वाद्विगुणितानां तेषामन्येभ्य: अनानु. पूर्वीद्रव्येभ्यः प्रदेशार्थतया विशेषाधिकरवं बोध्यम् । उभयार्थत्वमाश्रित्यानुपूर्वी द्रव्याणि असंख्येयगुणान्यनन्तगुणानि च सन्तीति सूचयितुमाह-'आणुपुब्बीदवाई' इत्यादि। आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि बोध्यानि, च-पुनः तान्येव-आनुपूर्वीद्रव्याण्येव प्रदेशार्यतया अनन्तगुणानि बोध्यानि। प्रत्येकचिन्तास्तोकता कही गई है । तथा “अणाणुपुब्धीदव्वाइं दवट्टयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई ) अनानुपूर्ण द्रव्य उभयार्थत्व को ओश्रित करके अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा से कुछ अधिक हैं। यहां कुछ अधिकता द्रव्यार्थता और अप्रदेशार्थता से जाननी चाहिये। ( अवत्तव्वगव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई) तथा अवक्तव्यक द्रव्य प्रदेशार्थता की अपे. क्षा लेकर अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक है । सो यह विशेषाधिकता इनमें प्रत्येक अवक्तव्यकद्रव्य द्विप्रदेशी होने के कारण जाननी चाहिये। क्यों कि ये प्रत्येक अनानुपूर्वी द्रव्यों के प्रदेशों की अपेक्षा द्विगुणित प्रदेशवाले हैं। तब कि अनानुपूर्वी द्रव्यों में प्रदेश एक एक है। इस प्रकार इनमें द्विगुणिता जानना चाहिये । (आणुपुब्बीदव्वाई व्यायाए असंखेज्जगुणाई ताई चेव पएसट्टयाए अणतगुणाई) उभयार्थता को आश्रित करके द्रव्यार्थना की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात अपएसट्टयाए विसेसाहियाई) अनानुनी द्र०य मयावी अपेक्षा म५. તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં વિશેષાધિક હોય છે અહીં દ્રવ્યાર્થતા અને અપ્રદેશાર્થ, तानी अपेक्षामे मधित समावी. (अवत्तव्वगवाई पएसद्वयाए विसेसाहियाई) तथा भवतव्य द्रव्यो प्रदेशातानी अपेक्षा मानानुवा' દ્રવ્ય કરતાં વિશેષાષિક છે. તેમની આ વિશેષાધિકતા પ્રત્યેક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય ઢિપ્રદેશી હેવાને કારણે સમજવી, કારણ કે પ્રત્યેક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં પ્રત્યેક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય બમણુ પ્રદેશવાળું હોય છે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય એક એક પ્રદેશવાળું હોય છે અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય બબ્બે પ્રદેશવાળું હોય છે, તે કારણે અવક્તવ્યક દ્રવ્યને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં બમણ પ્રદેશવાળું કહ્યું છે.
(आणुपुत्वीदव्वाइ दव्वद्वयाए असंखेज्जगुणाई ताई चेव पएसद्वयाए गणतगुणाई) यातनी अपेक्षा वे तमना १६५ (पने पियार
For Private and Personal Use Only
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्ववारनिरूपणम् पवादुमयार्थतया चिन्तायामयमेव विशेषः-अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतामाश्रित्य अवक्तव्यक द्रव्यापेक्षया विशेषाधिकानि भवन्ति, तत्र प्रदेशरहितत्वात् प्रदेशार्थतापा असंभवात् सर्वस्तोकत्वं न गृहीतम् । प्रत्येकचिन्तायां तु प्रदेशार्थतापक्षे तदपि गीतम्। एतदर्थमेव उभयार्थता पक्षोपादानम् । इत्थं नवविधमनुगममुक्त्वा सम्मति पकरणमुपसंहरमाह-' से तं' इत्यादि । स एषोऽनुगमः। सैषा नैगमव्यवहारयोरनोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वीति ॥०९०॥ गुणे हैं और प्रदेशार्थता की अपेक्षा करके आनुपूर्वीद्रव्य अनन्तगुणा है। इस प्रकार प्रत्येक पक्ष से विचार करने की अपेक्षा जो यह उभयार्य पक्ष की अपेक्षा लेकर विचार करने में आया है उसमें यही विशेषता है कि जैसे इस पक्ष में अनानुपूर्वी द्रव्य, द्रव्यार्थता को आश्रित करके अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा विशेषाधिक कहे गये हैं। वैसे वे प्रदेश होने के कारण सर्वस्तोक प्रदेशार्थता असंभवता से नहीं लाये गये हैं । परन्तु जब प्रत्येक पक्षको लेकर इनका विचर होता है तब यह सर्वस्तोकता भी उनमें प्रकट की जाती है। इसी निमित्त से यहां यह तृतीय पक्षल्प उभयार्थता गृहीत की गई है। इस प्रकार नव. विध अनुगम कह करके अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करमे के अभिप्राय से ( से तं अणुगमे, से तं गमयवहाराणं अणोवणिदिया व्वानुपुव्वी ) इन पदों द्वारा यह प्रकट कर रहे हैं कि इस प्रकार કરવામાં આવે છે-દ્રવ્યાર્થતાની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અસંખ્યાત ગણું અને પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ આનુપૂવી દ્રવ્ય અનંત ગણું છે. આ પ્રકાર પ્રત્યેક પક્ષને અનુલક્ષીને વિચાર કરવાની અપેક્ષાએ જે અહીં ઉભયાર્થપક્ષની 1. અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવ્યું છે તેમાં એજ વિશેષતા છે કે-જેમ દ્રાર્થિતાની દષ્ટિએ વિચાર કરીને અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અવક્તવ્યક દ્ર કરતાં વિશેષાધિક પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, એ પ્રમાણે પ્રદેશાર્થતાની અપે. ક્ષાએ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોને વિશેષાધિક બતાવવામાં આવ્યા નથી, કારણ કે તેઓ પ્રદેશરહિત હોવાને કારણે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અ૫પ્રમાણુવાળા છે. પરતુ જે પ્રત્યેક પક્ષની અપેક્ષાએ તેમને વિચાર કરવામાં આવે તે આ સર્વસ્તકતા (સૌ કરતાં અ૫પ્રમાણતા) પણ તેમનામાં પ્રકટ કરી શકાય છે. એજ નિમિત્તને લીધે અહીં તૃતીય પક્ષ રૂ૫ ઉભયાથતા ગૃહીત કરવામાં આવી છે આ પ્રમાણે નવ પ્રકારના અનુગામનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર भ ने ५२ ४२ता 3 छ -(से त अणुगमे से तणेगमवय. हाराण अणोवणिहिया दवाणुपुव्वी) अनुगमनु' ४२ १३५ छ.
For Private and Personal Use Only
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
योग
per नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी व्याख्याय संघजयमतेन सम्पति तामेव व्याख्यातुमाह
·
मूलम् - से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया दवाणुपुवी ? संगहस्स अणोवणिहिया दव्वाणुपुत्री पंचविहा पण्णत्ता, तं जहांअट्ठपयपरूवणयार, भंगसमुक्कित्तणयार भंगोवदंसणया ३ समोमारे४ अणु मे५॥ सू० ९९ ॥
छाया - अथ का सा संग्रहस्य अनौपनिषिकी द्रव्यानुपूर्वी ? संग्रहस्य अनौनिधिक द्रव्यानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - अर्थपदमरूपणता १, भीचमता २, भङ्गोपदर्शनता ३, समवतारः४, अनुगमः ५ ॥ ०९१॥ टीका -' से किं तं ' इत्यादि
व्याख्या निगद सिद्धा । सू० ९९||
से यह अनुगम का स्वरूप है। इस प्रकार यहां तक नैगम व्यवहारनय संमत अनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का कथन किया । सू० ९० ॥
अब सूत्रकार संग्रहनय के मतानुसार इस अनौपनिधि की द्रव्या- पूर्वी का कथन करते हैं - 'से किं तं' इत्यादि ।
शब्दार्थ- हे भदन्त ( से किं तं संगहरूस अणोवणिहिया दव्याशु (पुत्री) 'संग्रहनय संमत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? 2. उत्तर - ( संगहस्स अणोवणिहिया दष्वाणुपुत्री पंचविहा पण्णला) संग्रह संमत अनौपनिधिकी धानुपूर्वी पांच प्रकार कही गई है। (तं अहा ) उसके वे प्रकार ये हैं- ( अट्ठश्यरूपवणया १ भंगसमुत्तिणया ५ गोवदंसणया३ समोयारे ४, अणुग मे ५, ) अर्थपद प्ररूपणता १, भंग પ્રકારે અહીં સુધીમાં સૂત્રકારે તૈગમવ્યવહારનયસ'મત અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી ના સ્વરૂપનુ નિરૂપણુ કર્યુ છે. પ્રસૂ॰oll
હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયના મતાનુસાર આ અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીના - उथन रे छे" से कि त " त्याहि
शब्दार्थ - प्रश्न - ( से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया दत्राणुपुत्री १) ભગવન્ ! સગ્રહુનયસ'મત અનોપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
Gत्तर - ( संगहरू अणोवणिहिया दब्बाणुपुत्री पंचविधा पण्णत्ता ) स श्रद्धनमस भत अनोपनिधिडी द्रव्यानुपूर्वी पांच प्रारनी उही छे. ( त जहा ) तेरी नीचे प्रमाये छे - ( अत्थापयपरूवणया १, भंगसमुत्तिणया २, भंगोषवंलया३. समोयारे४ अणुग मे ५ ) ( 1 ) अर्थ अ३पता, (२) ભગસમુત્કીત નતા
,
For Private and Personal Use Only
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सुयोगचन्द्रिका ठीका सूत्र ९२ अर्थपदप्ररूपणानिरूपणम्
अथ संग्रहनयेनार्थ पदमरूपणतामाह
मूलम् - से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? संगहरूस अटूपथपरूवणया तिप्पसिए आणुपुद्दी चउप्परसिए आणुपुत्री जाव दसपसिए आणुपुवी संखिजपएसिए आणुपुत्री असं खिज्जपएसिए आणुपुत्री अनंत एसिए आणुपुब्वी परमाणु पोम्गले अणाणुपुत्री, दुप्पएसिए अवत्तव्वए । से तं संग्रहस्त अट्ठपयपरूवणया ॥ सू० ९२ ॥
छाया - अथ का सा संग्रहस्य अर्थपदमरूपणता ? संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणता - त्रिप देशिक आनुपूर्वी चतुष्यदेशिक भानुपूर्वी याबद् दशप्रदेशिक आनुपूर्वी संख्येयमदेशिमुश्कीनता र भंगोपदर्श नता ३ समवतार४ और अनुगमः । इस सूत्र व्याख्या ७४ वे सूत्रकीव्याख्या के अनुसार जाननी चाहिये ॥ सु०९१ ॥ संग्रहनय के मतानुसार अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं। “से किं तं संगहस्स" इत्यादि
शब्दार्थ - हे भदन्त ! (से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया) पूर्व प्रका उस संग्रहनय मान्य अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (संगहस्स अट्ठपयपरूवणया) संग्रहनय मान्य अर्थ पद प्रवणता का स्वरूप इस प्रकार से हैं - ( तिप्पएसिए आणुपुत्री चउपएसिए आणुपुत्री, जाब दसपएसिए आणुपुब्बी संखिज्जपए लिए
(3) भगोपदर्शनता, (४) सभवतार અને (૫) અનુગમ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા ૭૪ માં સુત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી. ।।૦૯૧)
સંગ્રહનયના મતાનુસાર અથ પદ પ્રરૂપણુતાનું વરૂપ કેવુ હાય છે તે सूत्रठार अट ४२ छे " से कि त संगहस्स" इत्याहि
शार्थ - प्रश्न - (सेकित संगहरच अत्यपयपरूवणया १) हे भगवन् ! પૂર્વ પ્રસ્તુત સંગ્રહનચસંમત અથ પદ્મપ્રરૂપણતાનું સ્વરૂપ કેવું કહ્યુ' છે ? उत्तर - ( संगहस्स अत्यपयपरूवणया) सश्रनयस भत अर्थ यह स्व३५ मा अाउनु छे
भूतान
( तिप्परखिए आणुपुब्बी, चउप्परसिप आणुपुबी, जब इस परखिए माणुपुम्दी, संखिज्जपपलिए बाणुपुल्वी, अब्जिफ्पलिए आणुपुथ्वी, अपु
For Private and Personal Use Only
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४००
अनुयोगद्वार
क आनुपूर्वी असंख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, अनंतप्रदेशिक आनुपूर्वी परमाणुपुद्गलः अनानुपूर्वी, द्विमदेशिकः अवक्तव्यकम् । सैषा संग्रहस्य अर्थपदमरूपणता ॥ ९२ ॥
•
आणुपुथ्वी असंखिज्जपएसिए आणुपुन्वी, अणतपएसिए आणुपुत्री, परमाणुपुग्गले अणाणुपु०धी; दुप्पएसिए अवन्तव्यए) त्रिप्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्वी है, चार प्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्वी है, पावत दश प्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्वी है' संख्यात प्रदेशवाला स्कंघ आनुपूर्वी है, असंख्यात प्रदेश वाला स्कंध आनुपूर्वी है, अनन्त प्रदेश वाला स्कंध आनुपूर्वी है, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी द्रव्य है, द्विप्रदेश वाला स्कन्ध अवक्तव्यक
है यही संग्रहनय मान्य अर्थपद प्ररूपणता का स्वरूप है । तात्पर्य इसका यह है कि पहिले नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा करके एक त्रिप्रदेशिक स्कंध एक आनुपूर्वी द्रव्य है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कंध अनेक आनुपूर्वी द्रव्य है इस प्रकार आनुपूर्वी में एकस्व और अनेकब का निर्देश किया गया है । परन्तु समान्यत्ववादी होने के कारण इस संग्रहनय के मतानुसार समस्त त्रिप्रदेशिक स्कंध एक ही आनुपूर्वी हैं। इस नय की मान्यता इस विषय में ऐसी है कि जितने भी त्रिप्रदेशिक स्कंध हैं वे यदि अपने त्रिप्रदेशिकत्व रूप सामान्य से भिन्न हैं तो द्विदेशिक आदि स्कंध की तरह वे त्रिप्रदेशिक स्कंध ही नहीं
चिप आणुपुब्बी, परमाणुपुमाळे अणाणुपुब्बी, दुप्पपसिए अबत्तव्वप ) પ્રદેશવાળા સ્કંધ આનુપૂર્વી છે, ચાર પ્રદેશવાળા સ્કંધ માનુપૂર્વી છે, એજ પ્રમાણે દસ પર્યન્તના પ્રદેશવાળા સ્કંધ આનુપૂર્વી છે, સખ્યાત પ્રદેશવાળા સ્કંધ અનુપૂર્વી છે, આસખ્યાત પ્રદેશવાળા સ્કંધ આનુપૂર્વી છે અને અનત પ્રદેશવાળા સ્કંધ અનુપૂર્વી' છે, પરમાણુ પુદ્ગલ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે અને એ પ્રદેશવાળા સ્કંધ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય છે. સંગ્રહનય દ્વારા માન્ય અર્થ પ મરૂપણુતાનું' આ પ્રકારનુ' સ્વરૂપ છે. આ કથનનુ' તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે જેનેગમ અને વ્યવહાર નયની માન્યતાને આધારે પહેલાં એવું કથન કરવામાં આવ્યુ છે કે એક ત્રિપ્રદેશી કપ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ છે, અને અનેક ત્રિપ્રદેથી સ્કા અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્યે રૂપ છે. આ રીતે આનુપૂર્વી માં એકત્વ અને અનેકત્વને ત્યાં નિર્દેશ કરવામાં આવ્યા છે. પરન્તુ સામાન્ય તત્વવાદી હાવાને કારણે આ સંગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર સમસ્ત ત્રિદેશી કપ એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને આ નાની
For Private and Personal Use Only
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९२ अर्थपदप्ररूपणा निरूपणम्
टीका' से कि तं' इत्यादि
अथ का सा संग्रहनयसम्मता अर्थप्ररूपणता ? इति मनः । उत्तरमाह-संग्रहनमसम्मता अर्थपदमरूपणता तु त्रिपदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी चतुष्प्र देशिकः कन्ध आनुपूर्वी यावद दशप्रदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी, संख्येयमदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी, असंख्येयपदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी, अनन्तमदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी, परमाणुपुद्गलः आनुपूर्वी, द्विपदेशिकः स्कन्धः अवक्तव्यकमिति । अत्रेद ं बोध्यम्पूर्वत्र नैगमव्यवहारनयात्रापेक्ष्य 'त्रिपदेशिक आनुपूर्वी - त्रिमदेशिका आनुपू: ' इत्येवमेकत्वेन बहुत्वेन च निर्देशः कृतः । संग्रहनये तु संग्रहस्य सामान्यवादित्वात् सर्वेऽपि प्रिदेशिकाः स्कन्धा एकैकानुपूर्वी । अत्र को हेतुः १- त्रिप्रदेशिकाः स्क
त्रिदेशिकत्वसामान्याद् भिन्नाः, अभिन्ना वा ? | यदि भिन्नस्तहिं त्रिप्र देशिकाः स्कन्धाखिप्रदेशिका एत्र न स्युः, द्विमदेशिकादिवत् । अथऽभिभास्तर्हि यावन्तस्त्रिप्रदेशिकाः सन्ति, ते सर्वेप्येक स्वरूपा एवं च सर्वेऽपि त्रिप्रदेशिकाः कन्धा एकैवानुपूर्वी । तथा चतुष्यदेशिकतया सर्वेऽपि चतुष्प्रदेशिकाः स्कन्धा एकैवानुपूर्वी । एवं पञ्चमदेशिकादयः स्कन्धा अपि एका-एका भानुपूर्वी बोध्या । इदं च अविशुद्धसंग्रहनयमतेन बोध्यम् । विशुद्धसंपहनयमतेन तु सर्वेषां त्रिपदेकहला सकते है । यदि त्रिप्रदेशिव रूप सामान्य से वे अभिन्न हैं, तो फ्रेस त्रिप्रदेशिक स्कंध एक स्वरूप ही हैं। इस प्रकार सब भी त्रिप्र देशिक स्कंध एक ही आनुपूर्वी हैं अनेक आनुपूर्वी नहीं। इसी प्रकार चतुष्यदेशिकत्वरूप सामान्य की अपेक्षा समस्त चतुष्प्रदेशिक स्कंध एक ही आनुपूर्वी हैं। इसी प्रकार से पश्च प्रदेशिक आदि स्कंध भी एक एक आनुपूर्वी हैं ऐसा जानना चाहिये । यह कथन अविशुद्ध संग्रहनय के मत से हैं। परन्तु जो विशुद्ध संग्रहनय है उसके मतानुसार तो માન્યતા એવી છે કે જેટલા ત્રિપ્રદેશી સમા છે તેઓ જે પોતાના ત્રિપ્રદેશિકત્વ રૂપ સામાન્યથી ભિન્ન હાય તા તેમને ત્રિપ્રદેશિક કા જ કહી શકાય નહી. જો તેએ ત્રિપ્રદેશિકત્વ રૂપ સામાન્યથી અભિન્ન ચાય, તે તે બધા ત્રિપ્રદેશિક સ્કષા એક રૂપ જ છે. આ રીતે ખધા ત્રિપ્રદેશિક ક એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે-અનેક આનુપૂર્વી રૂપ નથી એજ પ્રમાણે ચતુ પ્રરુશિકત્વ રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ સમસ્ત ચતુષ્પદેશિક કધ એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે, એજ પ્રમાણે પાંચ આદિ પ્રવેશવાળા કા. પણ એક એક આનુપૂવી રૂપ છે, એમ સમજવુ' આ મન તા અવિશુદ્ધ ગ્રહનયની માન્યતા પ્રકટ કરે છે. પરન્તુ વિશુદ્ધ ગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર તા
अ० ५१
For Private and Personal Use Only
४०१
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४०२
मनुयोगद्वारसूत्रे शिकाधनन्तप्रदेशिकपर्यन्तानां स्कन्धानाम् आनुपूर्वीत्वसामान्याऽभेदात् सर्वाऽप्यानुपूर्वी एकैव । एवमनानुपूर्वीत्वसामान्याव्यतिरेकात् सर्वेऽपि परमाणुपुद्गला एकैवानानुपूर्वी, अवक्तव्यकत्वरूपसामान्याव्यतिरेकात् सर्वे द्विपदेशिकाः स्कन्धा अपि एकमेवावक्तव्यकम् , अतोऽत्र-'तिप्पएसिए आणुपुथ्वी' इत्यादि एकत्वेनैव निर्दिष्टम् , न तु बहुत्वेनेति । प्रकृतमुपसंहरमाह-' से तं' इत्यादि । सैषा संग्रहनयसम्मताऽर्थपदमरूपणतेति१ ॥सू०९२॥ समस्त त्रिप्रदेशिकादि स्कंध से लेकर अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यन्त के रकंधों की जीतनी भी आनुपूर्वियां हैं वे सब आनुपूर्वीस्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण एकही अनानुपूर्वी रूप है। इसी प्रकार अनानु. पूर्वीस्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण समस्त परमाणु पुद्गल रूप अनानुपूर्वीयां एकही अनानुपूर्वी रूप हैं । इसी प्रकार से अवक्तब्यक स्वरूप सामान्य से अव्यतिरिक्त होने के कारण समस्त विप्रदेशिक स्कंध भी एकही अवक्तव्यकरूप हैं । इसलिये यहां सूत्र में "तिप्पएसिए आणुपुब्धी" इत्यादि रूप से एकत्व का निर्देश सूत्रकारने किया है। बहुत्व का नहीं। (सेतं संगहस्स भट्ठपयपरूवणया) इस प्रकार यह संग्रहनय मान्य अर्थपद प्ररूपणता का स्वरूप है।
भावार्थ-संग्रहनय दो प्रकार का है- १ अविशुद्ध संग्रहनय और दसरा विशुद्ध संग्रहनय । अविशुद्ध संग्रहनय की मान्यतानुसार जिसने भी त्रिप्रदेशिक वाले स्कंध हैं वे एक आनुपूर्वी हैं तथा जितने भी સમસ્ત ત્રિપ્રદેશિક આ િધથી લઈને અનંત પ્રદેશિક પર્યન્તના ઋપિની જેટલી આનુપૂવી છે, તે બધી આનુપૂર્વીએ પણ આનુપૂવવ રૂપ સામા ન્યની અપેક્ષાએ અભિન્ન લેવાથી એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે. એ જ પ્રમાણે અનાનપૂવવ રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ અભિન્ન હોવાને કારણે સમસ્ત પરમાણુ પુદ્ગલારૂપ અનાનુપૂત્રીઓ પણ એક જ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે. એજ પ્રમાણે અવકતવ્યક રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ અભિન્ન હોવાને કારણે સમત રિપ્રદેશી કપે પs એક જ અવક્તવ્યક રૂપ છે. તેથી જ સૂત્રકાર આ सूत्रमा “ तिप्पएमिए आणुपुग्वी" निशि मानुषी मालि३ सपना (' या , ५५ महत्पनी निश ये नथी. (से तसंगहस्स भत्वपयपहवणया) मा ५२ अनयस मत म५६५३५ तार्नु २१३५२.
साय-अनय में मारने। -(1) अविशुद्ध सनय भने (२) વિશુદ્ધ સંગ્રહનય અવિશુદ્ધ સંગ્રહાયની માન્યતા અનુસાર સમસ્ત ત્રિપ્રદેશ
છે એક આવી રૂપ છે, એ જ પ્રમાણે જેટલા ચાર પ્રદેશથી લઈને
For Private and Personal Use Only
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र ९३ भङ्गसमुत्कीर्तनता निरूपणम्
सम्प्रति भङ्गमुकीर्त्तनयां निरूपयति
मूलम् - एयाए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए किं पओयणं? एयाएणं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्कित्तगया कजइ । से किं तं संगहस्स भंगतमुक्कित्तणया ? संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया - अस्थि आणुपुवी १ अस्थि अणाणुपुव्वी २ अस्थि अवतन्त्र३, अहवा अस्थि आणुपुवीय अणाणुपुन्वी ४, अहवा अस्थि आणुपुत्री य अत्रत्तव्वए य५, अहवा अस्थि अणाणुपुवीय अवत्तव्व य६, अहवा अस्थि आणुपुव्वी य
प्रदेशिक यावत् अनन्ताणुक स्कंध हैं वे सब स्वतंत्र २ भिन्न २ चतुष्प्रदेशी आदि आनुपूर्वियां हैं। परन्तु विशुद्ध संग्रहनय की मान्य तानुसार ये सब जुदी २ अनेक आनुपूर्वियां भी एक आनुपूर्विश्व रूप सामान्य की अपेक्षा से एक ही हैं। इसी बात को प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र में त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी आदि पदों में एकवचन का प्रयोग किया है । णुक स्कंध आदिरूप अर्थ से युक्त अथवा त्र्यणुक स्कंध आदि रूप अर्थ को विषय करने वाले पद की प्ररूपणा करना यही अर्थपदप्ररूपणता है। नैगम और व्यवहारनय मान्य अनेकत्व का यह नय आनुपूर्वी में निषेध करके एकस्व स्थापन करता है । । ० ९२ ॥
.
For Private and Personal Use Only
માન્યતા
અન ત પ્રદેશી પન્તના ધેા છે તે પ્રત્યેક પશુ એક એક સ્વતંત્ર ઋતુપ્રદેશી, પંચપ્રદેશી આદિ આનુપૂર્વી રૂપ છે. વિશુદ્ધ સ‘ગ્રહનયની અનુસાર તે ત્રિપ્રદેશિક કધ રૂપ આનુપૂત્રીથી લઈને અનત પ્રદેશિક સ્ક્રેપ રૂપ આનુપૂર્વી પન્તની સમસ્ત આનુપૂર્વી એ પણ આનુપૂર્વી ત્ત્વ રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે. આ વાતને પ્રદર્શિત કરવાને માટે સૂત્રકારે ત્રિપદેશિક આનુપૂર્વી આદિ પદમાં એકવચનના પ્રયાગ કર્યાં છે. ત્રિમણુક સ્કંધ આદિ રૂપ અથ થીયુક્ત ત્રિઅણુક સ્ક ંધ આદિ રૂપ અર્થનું પ્રતિપાદન કરનારા પદ્મની પ્રરૂપણા કરવી તેનું જ નામ અપદ પ્રરૂપશુતા છે. નગમ અને વ્યવહાર નયસબત અનેકત્વને આ નય (સગ્રહન) આનુપૂર્વી એમાં નિષેધ કરી એકત્વનું પ્રતિપાદન કરે છે. પ્રસૂ૯
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४०४
अनुयोगद्वारसूत्र अणुपुवी य अवत्तव्वए य७। एवं सत्त भंगा। सेतं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया ।सू०९३॥
छाया-पतया खलु संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु संग्रहस्य अर्थपदमरूपणतया संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते । अय का सा संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता? संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी १, अस्तिःअनानुपूर्वी २ अस्ति अवक्तव्यकम् ३, अथवा-अस्ति आनुपूर्वी च अनानु
अब सूत्रकार ससमभंगसमुत्कीर्तनता का निरूपण करते हैं"एयाए ण संगहस्स" इत्यादि।
शब्दार्थ-(एयाएणं संगहस्स अपयपरूवणयाए कि पओयणं ?) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य इस अर्थपदप्ररूपणता से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है?
उत्तर-(एयाए णं संगहस्स अट्ठपयपरूषणयाए संगहस्स भंगसमु. कित्तणया कज्जइ ) संग्रहनय मान्य इस अर्थपद प्ररूपणता से संग्रहनयमान्य भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। "से कि तं संगहस्स भंग समुक्त्तिणया ?) संग्रहनय मान्य वह भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ? .
उत्तर- (संगहस्स भंगसमुकित्तणया) संग्रहनय मान्य वह भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है-(भत्थि आणुपुव्वी' अस्थि अणाणुपुव्वी) १ एक आनुपूर्वी है ' दसरा अनानुरू: है (अस्थि अवत्तवए) तीसरा अवक्तव्यक है ( अहवा अस्थि आणुपुत्वीय अणाणुपुत्वीय ) चौथाः
હવે સૂત્રકાર સાતમા ભંગ, ભંગસમુકીર્તનતાનું નિરૂપણ કરે છે– " " एयाएण संगहस्स" ५.याह
शहाथ-( एयाएण संगहस्स अत्थपयपरूवणयाए कि पओषण) B1વન ! સંગ્રહનયમાન્ય આ અર્થપદપ્રરૂપણા વડે કર્યું પ્રયોજન સિદ્ધ થાય છે?
6त्तर-(एयाएण' संगहस्स अत्थपयपरूवणाए संगहस्स भंगसमुकित्तणया ass) સંગ્રહનય સંમત આ અર્થપદપ્રરૂપણુતા વડે સંગ્રહનયમાન્ય ભંગસ-. મુકીર્તનતાનું સ્વરૂપ જાણી શકાય છે.
"से किं तं संगहस्स भंगसमुक्कितणया" सपनय मान्य समुहीતનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે? . उत्तर-(संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया ?) सनयमभत ते समुत्सी. નતા આ પ્રકારની કહી છે__(अस्थि आणुपुत्री, अस्थि अणाणुपुब्बी ) (1) मे यानुभूती . (२) मे मनानुषी छे, (अस्थि अवत्तव्वए) (3) मे अवतव्य छे. (अहवाभत्थि पाणुपुखी य, अणाणुपुव्वी य) (४) मानुषी छ, मनानुषी छ,
For Private and Personal Use Only
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र ९३ भङ्गसमुत्कीर्तनतानिरूपणम् ४०५ पूर्वी च ४, अथवा-अस्ति आनुपूर्वी च अक्तव्यकं च ५, अथवा-अस्ति अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च६, अथवा-अस्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्वीच अवक्तव्य च ७। एवं सप्त भङ्गाः । सैषा संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता ॥मू० ९३॥ आनुपुर्वी है. अनानुपूर्वी है (अहवा-अस्थिआणुपुत्वीय अवत्तम्वएय) अथवा ५ आनुपूर्वी हैं अवक्तव्यक है ( अहवा-अस्थि अणाणुपुत्वीय अवसन्धए य ) अथवा-६ अनामुपूर्वी है अवक्तव्यक है, ( अहवाअस्थि आणुपुष्वीय अणाणुपुब्बी अवत्तव्वए य) अथवा ७ आनुपूर्वी है अनानुपूर्वी है अवक्तव्यक है । ( एवं सत्स भंगा) इस प्रकार ये सात भंग हैं । ( से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया) इस प्रकार संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता है।
भावार्थ-संग्रहनय मान्य अर्थपद प्ररूपणता से क्या प्रयोजन सधता है? यह यात सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा स्पष्ट की है। इसमें उन्हों ने भंग समुत्कीर्तनता का प्रयोजन कहा है, इस भंगसमुत्कीर्तनता में मूल में ३ पद हैं १ आनुपूर्वी, २ अनानुपूर्वी और तीसरा अवक्तव्यक। आमुपूर्वी का वाच्यार्थ क्या है ? यह सष पहिले स्पष्ट कर दिया गया है।
(अहवा-अस्थिवाणुपुत्वी य अवत्तब्वए य) अथ। (५) आनुपूवी छे. भ. ४०५४ छे. (अहवा-अत्थि अणाणुपुव्वी य अवत्तव्यए य) अथवा (६) भनानुनी छे, अवतव्य छे. (अहवा-अस्थि आणुपुश्वी य, अणाणुपुव्वी य, अवतव्वर य) अथवा (७) भानुपूवी , मनानुपूवी छ भने सsans 2. (एवं सत भंगी) मा प्ररे मडी सात मin (qिsEql) सन 2. (सेतसंग्रहस्स भंगसमुकित्तणया) ॥ ५२नु सहनयस मत मसभुती.. તનતાનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ-સંગ્રહ સંમત અર્થ પદારૂપપણુતાનું પ્રયોજન આ સુત્રધારા સૂત્રકારે પ્રકટ કર્યું છે. તેમણે આ સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે અર્થપદ પ્રરૂપણુતા વડે ભંગસમુત્કીર્તનતા રૂપે પ્રયજન સિદ્ધ થાય છે. આ ભંગસમુત્કીનામાં મૂળ ત્રણ પદ . તે ત્રણ પદ આ પ્રમાણે છે(१) भानुभूती, (२) मनानुनी मने (3) अपत०५४ मानुषी मालिनी વાચ્યાર્થી પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. આ ત્રણે પદોને સ્વતંત્ર રૂપે
For Private and Personal Use Only
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४०६
अनुयोगद्वारसूत्रे टीका-'एयाएणं' इत्यादि
अत्र-एकपदमाश्रित्य त्रयो भङ्गाः, पदद्वयसंयोगमाश्रित्य त्रयो भङ्गाः, पदप्रयः संयोगमाश्रित्य एको भङ्गः । इत्थं सप्त भङ्गा बोदव्याः । मजस्थापना मूलोक्तक्रमेणेव बोध्या। अस्य सूत्रस्य व्याख्या कृतप्राया ॥सू० ९३॥
भङ्गोपदर्शनता प्रदर्शयति.. मूलम्-एयाए णं संगहस्त भंगसमुकित्तणयाए कि पओयणं? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए संगहस्स भंगो. वर्दसणया कीरइ। से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया?संगहस्स भंगोवदसणया-तिप्पएसिया आणुपुत्वीर परमाणुपोग्गला अणाणुपुवीर दुप्पएसिया अवत्तव्वए३ । अहवा तिप्पएसिया य परमाणुपोग्गला य आणुपुत्वी य अणाणुपुत्री य ४। अहवा तिप्पएसिया य दुप्पएसिया य आणुपुत्री य अवत्तव्यए य ५। अहवा परमाणुपोग्गला य दुप्पएसिया य अणाणुयुष्वी य अवत्तव्वए या अहवा-तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य दुप्पएसिया य आणुपुव्वी य अणाणुपुत्री य अवत्तव्धए य७। से तं संगहस्स भंगोवदंसणया ॥सू०९४॥ इनमें १ एक आनुपूर्वी २ अनानुपूर्वी और तीसरा अवक्तव्यक इन तीन पदों को स्वतंत्ररूप से आश्रित हो करके ३ भंग हो जाते हैं। तथा
आनुपूर्वी अनानुपूर्वी ,आनुपूर्वी अवक्तव्यक और अनानुपूर्वी अवक्ता व्यक ये तीन भंग दो दो पदों के संयोग को लेकर बने हैं । और आनु. पूर्वी, अनानुपूर्वी' अवक्तव्यक यह सातवां भांगा तीन पदों के संयोग से बना है। इस प्रकार तीन पदों के स्वतंत्रता और संयोग से ये ७ भंग बने हुए हैं । ।। सू० ९३ ॥ લઈને ત્રણ ભાગ બને છે. દ્વિસંગી ત્રણ ભાંગા નીચેના બબ્બે પદેના સગથી બને છે- અનુપવી અને અનાનુપવી, આનુપૂવી અને અવકતવ્ય અનાનુપૂર્વ અને અવકતવ્યક આનુપૂર્વી, અનાનુપૂવી, અને અવક્તવ્યક, ત્રણ પદના સંયોગા સાતમ ભાંગે ભને છે. આ રીતે ત્રણ પદના અસં. ધગી ત્રણ ભાંગા, દ્વિસંગી ત્રણ ભાંગા અને ત્રિકસંગી એક લાગે મળીને કુલ સાત ભાંગા બને છે. સૂ૦૯હ્યા
For Private and Personal Use Only
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९४ भङ्गोपदर्शनतानिरूपणम्
४०७
छाया - एतया खलु संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्त्तनतया किं प्रयोजनम् ? एतया खलु संग्रहस्य भंगमुत्कीर्तनतया संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता क्रियते । अथ का सा संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता त्रिदेशिका आनुपूर्वी १ परमाणुपुद्गला अनानुपूर्वी २, द्विपदेशिका अवक्तव्यम् ३ । अथवा त्रिप्रदेशिकाश्च परअब सूत्रकार भंगोपदर्शनता का कथन करते हैं"एमाएणं संगहस्स" इत्यादि ।
-
शब्दार्थ - ( एयाएणं संगहस्स मंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं ) हे भदन्त संग्रहनय मान्य इस भंगसमुत्कीर्तरता से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ?
उत्तर- ( एपाएणं संगहस्स समुत्तिणयाए भंगोवदंसणया कीरइ) संग्रहनय मान्य इस भंग समुत्कीर्तनता से संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनता दिखलाई जाती है। ( से किं तं संगहस्स भगोवदंसणया ? ) हे भदन्त ! संग्रनय मान्य भंगोपदर्शनता क्या है ?
उत्तर - ( संगहस्स भंगोषदंसणया ) संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनता यह है (तपसि आणुपुथ्वी) यावन्मात्र त्रिप्रदेशी स्कन्ध है वे एक १ आनुपूर्वी है। इस प्रकार भानुपूर्वी इस शब्द के वाच्यार्थ से पावन्मात्र त्रिप्रदेशी स्कंध हैं वे सब संगृहीत हो जाते हैं। (परमाणुपोग्गला अणाrgoवी ) यावन्मात्र परमाणु पुकूल हैं वे एक अनानुपूर्वी हैं- इस प्रकार
હવે સૂત્રકાર ભંગાપાશ'નતાનું નિરૂપણ કરે છે—
" एयाए संगहस्स माहि
"
शार्थ' - ( पयाएण संगहस्य भंगवमुचिणयाप किं पओयण ? हे વન્! ગ્રહનયમાન્ય આ ભંગસમુત્કીત નતા વડે કયુ' પ્રયેાજન સિદ્ધ થાય છે. उत्तर- (एमाएण' संगहस्स अंगसमुझिराणयाए संगहस्स भगोवदंसणया कीरई) સુબ્રહનયમાન્ય મા બગસમુત્કીતનતા વડે સગ્રહનય માન્ય સગાપદશ નતા अताववामां आवे छे. ( से किं व संगहरम भंगोवदंसणया ?) हे भगवन् ! સ'ગ્રહનયમાન્ય લગેાપન નતાનું કેવું સ્વરૂપ છે ?
उत्तर - ( संगइस भंगविदंसणया ) सभनयमान्य लगोयहर्शनतानु સ્વરૂપ આ પ્રકારનુ છે
---
( तिप्पसिया आणुपुब्बी) नेटसा त्रिदेशी ४, तेथे मे આનુપૂર્વી રૂપ છે. આ રીતે જેટલા ત્રિદેશી ક ંધા જે તેમને અહી” આનુ पूर्वी शहना वाध्यार्थ ३४२वा हो. (परमाणुपोगका अणालु
For Private and Personal Use Only
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
४०८
अनुयोगदारको माणपुद्गलाश्च आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीच ४ । अथवा-त्रिपदेशिकाच द्विपदेशिकाम भानुपूर्वीच अवक्तव्यकं च ५। अथवा-परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदेशिकाश्च अनानुपूर्वच भवक्तव्यकं च ६ । अथवा-त्रिपदेशिकाश्च परमाणुपुद्गला श्च द्विपदेशिकाच आनु. पूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च ७। सैषा संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता।।मू०९४॥
टीका-'एयाएणं' इत्यादि। अत्रापि सप्त भङ्गा बोध्याः। अस्य सूत्रस्य व्याख्याकृतमाया ३ ॥मू०९४॥ अथ समवतार प्रदर्शयति
मूलम्-से किं तं संगहस्स समोयारे? संगहस्स समोयारेसंमहस्त आणपुव्वीदवाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुवीदहिं समोयरंति ? अणाणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? अवश्न.
वेगवेहिं समोयरंति ? संगहस्स आणुपुवादब्वाइं आणुपुवी. दव्वेहिं . समोयरंति नो अणाणुपुवीदव्वेहिं समोयरंति नो भनानुपूर्वी इस शब्द के वाच्यार्य से यावन्मात्र परमाणु पुगल है वे सब अनानुपूर्वी इस एक पद से संगृहीत हो जाते हैं। (दुप्पएसिया अवसरुवर ) इसी प्रकार यावन्मान विप्रदेशी स्कंध हैं वे एक अवक्तव्यका हैं इस प्रकार अवक्तव्यक इस शब्द के वाच्यार्थ से यावमात्र निप्रदेशी स्कंध हैं वे सब अवक्तव्यक इस एक शब्द से संगृहीत हो जाते हैं। इसी प्रकार से विसं योगी तीन पदों का और त्रिसंयोगी १ एक पद का भी वाच्यार्थ समझ लेना चाहिये। इसी विषय को सूत्रकार ने 'अहवा' मादि पदों द्वारा कहा है इन समस्त पदों की व्याख्या पहिले की जा
की है। ॥ सू० ९४ ॥ ... पुदी) २ai ५२मा पुरानो छ, तशा मे४ अनानुषी ३५ ७. मा રીતે સમસ્ત પરમાણુ પુદગલેને અહીં અનાનુપવી પદના વાચ્યાર્થરૂપે ગ્રહણ
अपामा भावत छ. (दुप्पएसियां अव्वत्तव्वए) Rai प्रशी छ, તેઓ એક અવક્ત ૫ રૂપ છે. આ રીતે “ અવક્તવ્યક” આ પદને વાગ્યાથી સમસ્ત દિપ્રદેશી કહે છે તેથી જ અવકતવ્ય”. આ એક પદના પ્રયોગ દ્વારા સમરત દ્વિપ્રદેશી ધ ગ્રહણ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે વિસગી ત્રણ ભાંગાએાને અને વિસંગી એક ભાંગાને વાગ્યાથે પણ NHead. Hi विषय सूत्रधारे " महा" माहिyalsoti અમ મન | કર્યું છે. આ બધા પદની વ્યાખ્યા પહેલાં આપવામાં આવી ચુકી છે અને
For Private and Personal Use Only
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९५ समवतारस्वरूपनिरूपण
४०१ अवत्तव्वगदम्बेहिं समोयरांति । एवं दोन्नि वि सट्टाणे सट्टाणे समोयरंति । से तं समोयारे ॥सू०९५॥
छाया-भय कः स संग्रहस्य सावतारः१ संग्रहस्य समवतारः-संग्रहस्य भानुपूर्वाद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किमानुपूर्वीद्रव्येषु समस्तरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्तव्यकद्रव्येषु समक्तरन्ति ? संग्रहस्य भानुपूर्वीद्रव्याणि
भय सूत्रकार संग्रहनय मान्य समवतार का स्वरूप कहते हैं"से कितं" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से कि तं संगहस्स समोयारे) हे भदन्त संग्रहनय मान्य समवतार का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (संगहस्स समोयारे ) संग्रहनय मान्य समवतार का स्व. रूप इस प्रकार से है समवतार का अर्थ समावेश- मिलना है। अर्थात् आनुपूर्वी आदि जो द्रव्य है उनका अन्तर्भाव मिलना स्वस्थान में होता है या परस्थान में होता है ? इस प्रकार चिन्तन प्रकार का जो उत्तर है वह समावेश है। यह विचार प्रकार इस प्रकार से होता है कि संग्रह नय संमत आनुपूर्वी द्रव्य कहाँपर समाविष्ट होते हैं ? (किं आणुपन्वेदि समोयरंति ! अणाणुपुग्वेहि-समोयरंति, अवत्तपगदन्वेहिं समोपरति ?) क्या आनुपूर्ण द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं? या अनानुपूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं या भवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते है।
હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયમત સામાવતારના સવરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– " क "gulls
Arti-(से कि त संगहस्प समोबारे) सन् ! न સંમત સમવતારનું સ્વરૂપ કેવું છે?
त्ति-"गइस्स समोयारे" सनमान्य समवतार ५१३५ આ પ્રકારનું -(સઅવતાર એટલે સમાવેશ અથવા મિલન) એટલે કે
આપવી આદિ જે દ્રવ્યો છે તેમને અન્તભાવ (સમાવેશ) અવસ્થાનમાં થાય છે કે પરસ્થાનમાં થાય છે?” આ પ્રકારની વિચારધારાને જે ઉત્તર છે, તેનું નામ સમવતાર છે અ. વિચારધારા આ પ્રમાણે ચાલે છે–સંગઠનયસંમત भानवी योना या समावेश याय छ १ (रिपाणपुयी दन्नहि समोपरति ? भणाणुपुत्वीदनेहि समोयरंति ! अवसव्वगदव्बेहि पमोयरंति !) मानवी ઇમાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે-મળી જાય છે કે અનાનુપૂવી દ્રોમાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે ? કે અવકતવ્યક દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે.
म. ५२
For Private and Personal Use Only
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
मनुयोगवारसूत्र भानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति नो भवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । एवं द्वावपि स्वस्थाने स्वस्थाने समवतरतः। स एष समवतारः ॥स.९५॥
टीका-से कि तं' इत्यादिअस्य सूत्रस्य व्याख्या कृतमायैवेति ४०९५॥ अथ पश्चमं भेदमनुगमं निरूपयति
मूलम्-से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा-'संतपयपरूवणया, दवप्पमाणं चखित्तं फुसणा य। कालो य अंतरं भाग भावे अप्पाबहुं नत्थि॥१॥' संगहस्स आणुपुवीदव्वाइं किं अस्थि णत्थि ? नियमा अत्थि, एवं दोन्नि वि ॥१॥ संगहस्स आणुपुत्वीदवाई किं संखिजाइं असंखिजाइं अणंताई? नो संखिजाइं नो असंखिज्जाइं नो अणंताई, नियमा एगो ___ उत्तर-संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाइं आणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति, नो भणाणुपुव्वीदव्वेहिं समोयरंति, नो अवत्तव्धगदम्वेहिं समोयरंति) संग्रहनय संमत समस्त आनुपूर्वीद्रव्य स्वस्थान रूप भानुपूर्वीद्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं। परस्थान रूप अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं । (एवं दोन्नि वि सट्टाणेसटाणे समोय. रंति) इसी प्रकार से संग्रहनय संमत अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यक द्रव्य भी क्रमशः अपने अपने स्थानरूप अनानुपूर्वीद्रव्यों में और भव. क्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं। इसकी व्याख्या ८० सूत्र के समानजाननी चाहिये ॥ सू० ९५ ॥
उत्तर-(संगहस्त्र आणुपुत्वीदव्वाई आणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति, नो अवत्तगदम्वेहि समोयरंति नो अणाणुपुव्वीदव्वेहि समोयरंति) स नयसभत સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સ્વસ્થાન રૂપ આનુપૂવી દ્રવ્યમાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે, પરસ્થાન રૂ૫ અનાનુપૂવી દ્રમાં કે અવક્તવ્યક દ્રોમાં સમાવિષ્ટ यता नथी. (एवं दोन्नि वि सहाणे सटाणे समोयरंति ) - प्रमाणे सહનયસંમત અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય પણ અનુક્રમે પિતપતાના રથાનરૂપ અનાનુપૂવ દ્રવ્યમાં અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થાય છે. તેનું સ્પષ્ટીકરણ ૮૦માં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું. સૂક્ષ્મ
For Private and Personal Use Only
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ratnafrost टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
રે
रासी, एवं दोनिवि ॥२॥ संगहस्स आणुपुवी दवाई लोगस्सं कइभागे होज्जा ? किं संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागें होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा नो असंखेज्जई भागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा सव्वलोए होज्जा, एवं दोनिवि ॥ ३ ॥ संगहस्स आणुपुaीदवाई लोगस्स किं संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति ? संखिज्जे भागे फुसंति ? असंखिज्जे भागे फुसति ? सव्वलोगे फुसंति ? नो संखेज्जइभागं फुसति जाव नियमा सव्वलोगं फुसंति । एवं दोन्नि वि ॥ ४ ॥ संगहस्स आणुपुदवाई कालओ केवच्चिरं होंति ? सव्वद्धा । एवं दोण्णि वि ॥ ५ ॥ संगहस्स आणुपुत्रदिवाणं कालओ केवश्चिरं अंतरं होई ? नत्थि अंतरं, एवं दोणि त्रि । ६ । संगहस्स आणुपुत्रीदव्वाइं सेसदव्वाणं कइभागे होज्जा ? किं संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखेज्जइभागे होज्जानो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा । एवं दोनिवि |७| संगहस्स आणुपुथ्वीदढवाई कयमि भावे होज्जा ? नियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा । एवं दोन्नि वि । ८ । अप्पाबहुं नत्थि । से तं अणुगमे । से तं संगहस्स अणोवणिहियां दव्वाणुपुच्ची । से तं अणोत्रणिहिया दव्वाणुपुढवी || सू० ९६॥
For Private and Personal Use Only
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगद्वारको गया-मथ कोऽसौ अनुगमः ? अनुगमः षष्टविधः प्रातः, तपथा-'सत्पदप्ररूपणता ट्रम्पप्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शना च । काम भन्तरं भागो भावः, अल्पबहुस्वं नास्ति ॥१॥' संग्रहस्य भानुपूर्वीद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमाव सन्ति। एवं द्वे अपि ॥१॥ संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि ? नो संगयेयानि नो असंख्येयानि नो अनन्तानि । नियमात् एको राशिः। एवं द्वे अपि ॥२॥ संग्रहस्य भानुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कतिभागे भवन्ति ? कि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु मागेषु भवन्ति ? सर्वलोके भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे, भवन्ति नो असंख्येयतमभागे भवन्ति. नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति । नियमात् सर्वलाकं भवन्ति । एवं द्वे अपि ।।३।। संग्रहस्य आतपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कि संख्येयतममागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतममागं स्पृ. शन्ति ? संख्येयान् भागान् स्पृशन्ति ? असंख्येयान भागान् स्पृशन्ति ! सर्वलोकं स्पृशन्ति ? नो संख्येयतमभागं स्पृशन्ति यावत् नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । एवं द्वे अपि ॥४॥ संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि कालतः कियच्चिर भवन्ति ? सर्वादा। एवं द्वे अपि ॥५॥ संग्रहस्य आनी द्रव्याणां कालतः किञ्चिरमन्तरं भवति ? नास्ति भन्तरम् । एवं दे भपि ॥६॥ संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि शेषद्रव्याणां कति. भागे भवन्ति ? कि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? भसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, नो असंख्येयतमभागे भवन्ति नो संख्येयेषु भागेषु भान्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नियमात् त्रिभागे भवन्ति । एवं दे अपि॥७संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि कतरस्मिन् मावे भान्ति नियमाम् सादिपारिणामिके भावे भवन्ति । एवं द्वे अपि ॥८॥ अल्पबहुत्वं नास्ति । स एषोऽनुगमः । सैषाऽनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ॥सू०९६॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ अनुगमः ?=संग्रहनयसम्मतोऽनुगमः कः? इति प्रश्नः। उत्तरमाह-अनुगमोऽष्टविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा-सत्पदमरूपणता, द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रं स्पर्शनाअब सूत्रकार पांचवें भेद अनुगम का निरूपण करते हैं
"से किं तं अणुगमे" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से कि तं अणुगमे ) हे भदन्त ! संग्रहनय संमत अनु. गम का क्या स्वरूप है ?
હવે સૂત્રકાર સંગ્રહ સંમત અનુગામના વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે"से किं त अणुगमे" त्याल
शा-(से कि त अणुगमे १) सावन् ! सबनयमान्य अनुगमन ११३५ ४यु छ ?
For Private and Personal Use Only
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
भनुयोगचन्द्रिकाटीका सूत्र ९६ मनुगमस्वरूपनिरूपणम् कालः अन्तर मागो भावश्चेति । अल्पबहुत्वरूपोऽनुगमस्तु संग्रहनयमते नास्ति, अस्य नयस्य सामान्यवादित्वात् । सम्पति सत्पदप्ररूपणतां प्ररूपयति-'संगहस्स आणुपुब्धी दवाई कि अस्थि नत्थि' इत्यादि । संग्रहसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि
उत्तर- (अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते) अनुगम आठ प्रकार का कहा गया है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं- (संतपयपरूवणया दव्यमाणंच खितं फुसणा य, कालोय अंतरं भाग भावे अप्पाबहु नस्थि ) सत्पदप्ररूपणता १, द्रव्यप्रमाण २, क्षेत्र ३, स्पर्शना ४, काल ५, अन्तर १, माग और भाव८ अल्पबहुत्व अनुगम का प्रकार यहां नहीं है क्योकि संग्रहनय सामान्यवादी है। “सगहस्सआणुपुब्धी दवाइं कि अस्थि णस्थि णियमा अस्थि एवं दोन्नि वि" सत्पदप्ररूपणता के निमित्त सूत्रकार कहते हैं कि इस सत्पद प्ररूपणा में यह प्ररूपित किया जाता है कि जिस प्रकार से शशशृंग आदिपद असदर्थ को विषय करने वाले होते हैं उस प्रकार से ये आनुपूर्वी आदि पद असदर्थ विषयक नहीं है, किन्तु जैसे स्तंभादि पद स्तंभ रूप अपने वास्तविक अर्थ को विषय करते हैं उसी प्रकार से ये आनुपूर्वी आदिपद भी वास्तविक आनुपूर्वी आदि को विषयक करते हैं, इसलिये (संगहस्स आणुपुत्वीदवाइं किं अस्थि ण.
उत्तर-(अणुगमे अदुविहे पण्णत्ते) अनुगम मा ५२ने यो छे. (तंजहा) ते प्रा। नीये प्रमाण है(संतपयपरूवणया, वप्पमाणं च खित्तं फुसणा य, कालो य अंतर भाग भावे अप्पाबहु नत्थि) (१) सत्५४५३५४ता, (२) द्रव्यप्रमा, (3) क्षेत्र, (४) २५शा , (५) , (९) मन्त२, (७) मा भने (८) साप. समत्व રૂપ અનુગામને પ્રકાર અહી નથી, કારણ કે સંગ્રહનય સામાન્યવાદી છે. ( संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई किं अत्थि णस्थि ? णियमा अस्थि एवं दोन्नि वि) હવે સૂત્રકાર સત્ય પ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ સમજાવે છે- સત્પદપ્રરૂપણુતામાં એ વાતની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે કે જે પ્રકારે શશશંગ (સસલાના શિંગડ) આદિ પદ અસદર્થ (અવિદ્યમાન પદાર્થ)નું પ્રતિપાદન કરનારા હોય છે, એ પ્રકારે આ આનુપૂર્વી આદિ પદે અસદર્થનું પ્રતિપાદન કરનારા નથી પરંતુ જેમ સ્તભ આદિ પદે સ્તંભરૂપ પિતાના વાસ્તવિક અને પ્રતિપાદિત કરે છે, એજ પ્રમાણે આનુપૂર્વ આદિ પદ પણ વાસ્તવિક આનુપૂર્વી આદિ सायन विद्यमान पहा नु) प्रतिपान रे . तया (संगहस्स आणुपुथ्वी दवाई कि अस्थि पत्थि ? ) " स य मत मानुषी द्र०य छे नही"
For Private and Personal Use Only
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगद्वार कि सन्ति ? न वा सन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-नियमात् सन्ति-भानुपूर्वी. द्रव्याणां सद्भावः संग्रहनयमतेऽस्त्येवेत्यर्थः । ___ ननु संग्रहविचारे प्रक्रान्ते 'आनुपूर्वीद्रव्याणि' इति बहुत्वेन निर्देशोऽनुपपमः, संग्रहनयमते आनुपूर्वीसामान्यस्यैवाऽभ्युपगमादितिचेत्, उच्यते-संग्रहनयमते मुख्यतया सामान्यमेवाभ्युपगम्यते, तथापि गौणरीत्या व्यवहारनयमते द्रव्यबहुस्वमपेक्ष्य बहुत्वेन निर्देशः कत इति नास्ति कश्चिद् दोषः । एवं संग्रहनयमते द्योरनानुपयवक्तव्यकयोर्विषयेऽपि बोध्यम् । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां समायो नियमादस्तीत्यर्थः। अथ द्रव्यप्रमाणनिरूपयितुमाह-'संगहस्स आणुपुब्बीदवाई किं संखिज्जाई' इत्यादि-संग्रहनयसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्येयानि सन्ति ? किमसंख्येयानि सन्ति ? किंवा-अनन्तानि सन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरमाहस्थि" संग्रहनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य है या नहीं हैं, इस प्रकार की शंका का समाधान यह है कि ये (नियमा अस्थि) नियम से हैं। इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी यही समझना चाहिये कि ये दोनों द्रव्य नियम से हैं । द्रव्यप्रमाण में आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा जिन द्रव्यों को कहा गया है उनकी संख्या का निर्धारण होता है-जैसे (संगहस्त आणुपुब्धीदवाई कि संखिज्जाहं असंखिजाई अणंताई ? ) संग्रहनय संमत आनुपूर्वीद्रव्य क्या संख्यात हैं या असंख्यात या अनंत हैं ?
उत्तर (नो संखिज्जोइं नो असंखिज्जाइं नो अणंताई) न संख्यात हैं न असंख्यात हैं, और न अनंत हैं किन्तु (नियमा एगो रासी) नियम से एक राशिरूप हैं मा प्रनता मा प्रमाणे उत्तर भापी शय. (णियमा अस्थि) “मानुपूकी દ અવશ્ય છે જ એ જ પ્રમાણે અનાનુપૂવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યોના વિષયમાં પણ એવું સમજવું જોઈએ કે એ બને દ્રવ્ય પણ અવશ્ય વિદ્યમાન છે.
દ્રવ્ય પ્રમાણમાં એ વાતને વિચાર કરવામાં આવે છે કે આનુપૂર્વી આદિ પદે દ્વારા જે દ્રવ્યનું કથન કરવામાં આવે છે તે દ્રવ્યોની સંખ્યા 2ी छे. २८ (संगहस्स आणुपुधीदवाई किं सखिज्जाइ' असंखिज्जाई अताई १) ॐ भवन् ! नयभत भानुपूवी द्रव्यो शुन्यात, કે અસંખ્યાત છે કે અનંત છે? .. उत्तर-(नो संखिजाई, नो असंखिजाइनो अणताई) 8नयमत આપવી સંખ્યાત પણ નથી, અસંખ્યાત પણ નથી અને અનત पनी , ५२न्तु (नियमा एगो रासी) नियमथी राशि३५ छे.
For Private and Personal Use Only
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् संग्रहनये आनद्रव्याणि नो संख्येयानि नो असंख्येयानि नो अनन्तानि सन्ति । किन्तु नियमात् एको राशिरस्ति ।
ननु आनुपूर्वीद्रव्याणां संख्येयादित्वाभावादेकराशिस्वमपि नोपपद्यते, द्रव्यबाहुल्ये सत्येव तस्योपपद्यमानत्वात् , दृश्यते च लोके व्रीहिबाहुल्ये 'व्रीहिराशि' इति व्यवहारः, इतिचेद, उच्यते-संख्येयादित्वाभावेऽपि स्व स्वरूपात् आनुपूर्वी. द्रव्यपाहुल्यं विद्यते । तेषामानुपूर्वीत्वसमान्यमाश्रित्य यदेकत्वं तदपेक्षया एकराशित्वमिति ‘एकोराशिः' इत्यस्याभिषायः, इति नास्तिकश्चिद् दोषः । यद्वा
शंका-जब आनुपूर्वीद्रव्य संख्यात आदिरूप नहीं हैं तो उनमें एकराशि रूपता भी कैसे बनसकती है ? क्योंकि यह राशिरूपता द्रव्य बहुलता में ही होती है । लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है की जब धान्य बहुत होता है तष"यह व्रीहिराशि" है ऐसा व्यवहार होता है।
उत्सर-संख्यात आदि रूपता के अभाव में भी अपने स्वरूप को लेकर आनुपूर्वीद्रव्यों में बहुलता है । अतः आनुपूर्वी त्व सामान्य का भाश्रय करके इनमें जो एकता है उसकी अपेक्षा ये एक राशिरूप है ऐसा कहने का अभिप्राय सूत्रकार का है। इसमें कोई दोष नहीं है। तात्पर्य कहने का यह है कि त्रिप्रदेशिक एक आनुपूर्वी है, चतुष्प्रदे. शिक एक आनुपूर्वी है पंचप्रदेशिक एक आनुपूर्वी है इत्यादि अनंत प्रदेशिक एक आनुपूर्वी है । इस प्रकार से सप आनुपूर्थियों के स्वरूप
શકા- જે આનવી દ્રવ્ય સંખ્યાત આદિ રૂપ ન હોય તો તેમાં એક શશિરપતા કેવી રીતે સંભવી શકે છે? કારણ કે આ રાશિરૂપતા તે દ્રવ્યની બહુલતામાં જ સંભવી શકે છે. લાકમાં પણ એવું જ જોવામાં આવે છે. કે જ્યારે ધાન્ય ઘણું જ હોય છે ત્યારે એમ કહેવામાં આવે છે કે “આ योमान aman (शि). ..
ઉત્તર-સંખ્યાત આદિ રૂપતાને અભાવ હોવા છતાં પણ પિતાના સવરૂપની દષ્ટિએ આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં બહુલતા (વિપુલતા) છે. તેથી આનુપૂવીત્વ સામાન્યની અપેક્ષાએ તે દ્રવ્યમાં જે એકતા છેતે એકતાને અનુ લક્ષીને સૂત્રકારે અહીં એવું કહ્યું છે કે “આનુપૂવી દ્રવ્યમાં એકરાશિરૂપતા છે. તેથી આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ દેષ નથી આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ત્રિપ્રદેશિક એક આનુપૂવી ચાર પ્રદેશિક એક આનુપૂવી છે, પાંચ પ્રાદેશિક પર્યન્તના હકની એક એક આનુપૂર્વી છે. આ પ્રકારે બધી આપવી એના સ્વરૂપ ભિન્ન ભિન્ન છે, પરંતુ તે સવળી આનુપૂવઓમાં ,
For Private and Personal Use Only
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४१६
अनुयोगद्वारसूत्रे
यथा यथा विशिष्टैकपरिणामपरिणते स्कन्धे तदारम्भकपरमाणूनां बाहुल्येऽपि तद्गतैकत्वमेव मुख्यतया विवक्ष्यते, तथैवात्राऽपि आनुपूर्वीद्रव्य बाहुल्येऽपि एकमानुपूर्वी स्वसामान्यमाश्रित्य एकत्वमेव मुख्यतया विवक्षितम्, अतो मुख्यमेकत्वमात्यैिव संख्येयत्वादयो निषिध्यते । गुणभृतानि द्रव्याण्याश्रित्य तु राशित्वमपि न विरुध्यते इति न कश्चिद् दोषः । एवमनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यविषयेऽपि बोध्यम् ।
भिन्न २ है - सो इन सब में आनुपूर्वी स्वरूप सामान्य की अपेक्षा करके एकता मान ली जाती है - इस अपेक्षा इनमें एकराशिरूपता मानी गई है ? अथवा जैसे विशिष्ट एक परिणाम स्कंध द्रव्य में तदारम्भक पर माणुओं की बहुलता होने पर भी तद्गत एकता ही मुख्य रूप से विवक्षित रूप से होती है, उसी प्रकार यहांपर भी राशिरूपता में भी आनुपूर्वीद्रव्यों की बहुलता होने पर भी एक आनुपूर्वीत्व रूप सामान्य को आश्रित करके एकत्व ही मुख्यतया विवक्षित हुआ है। और इसी कारण इस मुख्य एकस्व को लेकर के संख्येयस्व आदि निषिद्ध हुए हैं । अतः आनुपूर्वीद्रव्य में एक राशिरूपता विरुद्ध नहीं है। तथा गौण हुए व्यक्तिरूप द्रव्यों को आश्रित करके एक राशिपना भी विरुद्ध नहीं होता है । ( एवं दोनिवि ) इसी प्रकार से आनुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य में भी एकराशिता का उद्भबन कर लेना चाहिए ।
ભાનુપૂર્વી રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ એકતા માની લેવામાં આવી છે. તેથી તે મપેક્ષાએ આનુપૂર્વી આમાં એકાશિરૂપતા માની લેવામાં આવી છે. અથવા જેમ કોઈ એક વિશિષ્ટ પરિણામ સ્કંધદ્રવ્યમાં તદાર‘ભક (તેના ખારભ કરનારા) પરમાણુઓની બહુતા હોવા છતાં પણ તદ્ગત એકતા જ મુખ્ય રૂપે નિશ્ચિત થાય છે, એજ પ્રમાણે અહી પણ-શશિરૂપતામાં પશુ માનુપૂર્વી કન્યેની અહુતા હોવા છતાં પણ એક આનુપૂર્વીન રૂપ સામાન્યને આધારે એકત્વ જ મુખ્યત્વે વિક્ષિત થયુ છે, અને એજ કારણે આ મુખ્ય એકત્વને લીધે સ ંખ્યેયત્વ, અસમૈયત આદિના નિષેષ થયેા છે. તેથી માનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં એકરાશિરૂપતા માનવામાં કાઈ ઢોષ નથી. તથા ગૌણુ તાય રૂપ દ્રવ્યાને આશ્રિત કરીને એકરાશિત્વ પશુ વિરૂદ્ધ પડતું નથી, (एवं दोन्नि वि) सोन अभाव मनानुपूर्वी द्रव्यमां पातु मेम्राशित्व श्रद्धालु કરતું એપએ અને આવતષક દ્રવ્યમાં પણ એકરાશિત્વ સમજી લેવુ એઈને હવે સૂત્રકાર પ્ર ગ્રહનયસ'મત ક્ષેત્રનું નિરૂપણ કર
For Private and Personal Use Only
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् अय क्षेत्रं निरूपयितुमाह-'संगहस्स आणुपुब्बोदवाइं लोगस्स कदमागे होज्जा?' इत्यादि-संग्रहनयसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कतिभागे-कियद्भागे भवन्ति ? कि संख्येयतमभागे भवन्ति ? किमसंख्येयतमभागे भवन्ति ? किं संख्ये. येषु भागेषु भवन्ति ? किमसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? किं सर्वलोके भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-संग्रहनयसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य संख्येयतमभागे नो भवन्ति, असंख्येयतमभागे नो भवन्ति, संख्येयेषु भागेषु नो भवन्ति, असंख्ये. येषु भागेषु चापि नो भवन्ति, किन्तु नियमात् सर्वकोके भवन्ति । आनुपूर्वी. सामान्यस्यैकत्वात् मई को कव्यापित्याच्च नियमात् सर्वलोके तत्सत्ता बोध्या।
अब मूत्रकार क्षेत्र का निरूपण करते हैं
प्रश्न- (संगहस्स आणुपुठवी दवाई लोगस्स कहभागे होज्जा?). संग्रहनय संमत समस्त आनुपूर्वीद्रव्य लोक के कितने भाग में हैं? (कि संखेज्जहभागे होज्जा, असंखेज्जहभागे होज्जा, संखेज्जेसु भा. गेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? )क्या लोक के संख्यातवें भाग में हैं ? या लोक के असंख्यातवें भाग में हैं? या लोक के संख्यात भागो में है ? या लोक के असंख्यात भागों में है या सर्वलोक में हैं ?
उत्तर-(नो संखेज्जहभागे होज्जा, नो असंखेज्जाभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेजेसु भागेसु होज्जा, निय. मा सव्वलोए होज्जा, एवं दोनिवि ) समस्त आनुपूर्वी द्रव्य लोक के न संख्यातवें भाग में हैं न असंख्यातवें भाग में हैं, न संख्यात भागों में है और न असंख्यात भागों में हैं किन्तु नियम से समस्त लोक में है।
प्रश्न-(संगहरस आणुपुबीदवाई लोगस्य कहभागे होगा ?) 391१। सनयमान्य मानुषी द्रव्ये ना ६ १ (किं संखेजइभागे होना, असंखेज्जइभागे होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असं बेज्जेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए होज्जा ! Yasना सभ्यातमा भागमा ? કે અસંખ્યાતમાં ભાગમાં છે ? કે લેકના સંખ્યાતભાગોમાં છે? કે લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં છે? કે સર્વલોકમાં છે?
उत्तर-(नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो भसंखेजहभागे होम्जा, नो संखेजेसु भागेसु होम्जा, नो असंखेग्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा सव्वळोए होज्जा, एवं दोन्नि वि) समस्त मानुपा द्र०य asना ज्यातमभामा ५५ नयी, અખાતમાં ભાગમાં પણ નથી, સંખ્યાત ભાગોમાં પણ નથી, અસંખ્યાત ભાગોમાં પણ નથી, પરંતુ નિયમથી જ સમસ્ત લેકમાં છે, કારણ કે આન
भ० ५३
For Private and Personal Use Only
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे भनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यविषयेऽप्येवमेव बोध्यम् । स्पर्शनाद्वारेऽपि एवमेव बोध्यम्। कालद्वारे तु-कालतः आनुपूर्वीत्वानानुपूर्वीत्वावक्तव्यत्वानामव्यवच्छिन्नत्वेन सर्वदाऽवस्थायित्वात् कालत्रयेऽप्येषां सद्धिास्थानं बोध्यम् । अत एवैषां काल तोऽन्तरमपि न भवति, आनुपूर्वीत्वादीनां कालत्रयेऽपि सत्त्वेन व्यवच्छेदाभावात् इत्यन्तरद्वारे भावनीयम् । भागद्वारे त्वेवं विज्ञेयम्-आनुपूर्वीद्रव्येषु प्रत्येकद्रव्याणिक्योंकि आनुपूर्वी त्वरूप सामान्य एक है और वह सर्वलोक व्यापी है इसलिये नियमतः आनुपूर्वी द्रव्य की सत्ता सर्वलोक में हैं । इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में इसी प्रकार का कथन जानना चाहिये । तथा स्पर्शना द्वार में भी ऐसा ही मंतव्य जोनना चाहिये । अर्थात् आनुपूर्वी आदि समस्त द्रव्य सर्वलोक का नियम से स्पर्श करते हैं। यही विषय प्रश्नोत्तर पूर्वक ( संगहस्स आणुपुत्वीदब्वाई लोगस्स किं खेज्जइ भागं फुसति ? असंखेज्जइ मागं फुसति संखेज्जे भागे फुसति, असंखेग्जे भागे फुसति ? सव्वलोग फुसति! नो संखेज्जइभागं फुसति, जाव नियमा सव्वलोगं फुसति, एवं दो निवि ) सूत्रकार ने इन पदों द्वारा स्पष्ट किया है । (संगहस्स आणुपुवी. दवाई कालो केवच्चिरं होंनि ? सव्वद्धा एवं दोन्निवि)
प्रश्न- संग्रहनय मान्य समस्त आनुपूर्धी द्रव्य काल को आश्रित करके कितने समय तक आनुपूर्वी रूप से रहते हैं। પૂર્વીવ રૂપ સામાન્ય એક છે અને તે સર્વવ્યાપી છે, તેથી નિયમથી જ આનુપૂવી દ્રવ્યની સત્તા (અસ્તિત્વ) સર્વ લેકમાં છે. આ પ્રકારનું કથન અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય વિષે પણ સમજવું એટલે કે તે બને અસ્તિત્વ પણ નિયમથી જ સમસ્ત લેકમાં છે. સ્પશનને અનુલક્ષીને પણ એવું જ કથન સમજી લેવું. એટલે કે આનુપૂર્વી આદિ સમસ્ત દ્રવ્ય નિયમથી જ સર્વલોકને સ્પર્શ કરે છે. એ જ વિષયનું સૂત્રકારે નીચેના પ્રશ્નોત્તર દ્વારા સ્પષ્ટીકરણ કર્યું. છે
(संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाइ' लोगस्स किं संखेजइभागं फुसंति ? असंखेज्जा भागं फुसंति, संखिजे भागे फुसंत, असंखिज्जे भागे फुसंति, सव्य लोग फुसंति? नो संखेज्जइभागं फुसंति, जाव नियमा सव्वलोगं फुसंति, एवं दोन्नि वि.)
પ્રશ્ન-હે ભગવન્! સંગ્રહનયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્યો શું લેકના સંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શે છે કે, અસંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શે છે, કે સમસ્ત લેકને પશે છે ?
For Private and Personal Use Only
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् त्रिपदेशिकचतुष्पदेशिकादीनि-अनन्तप्रदेशिकपर्यन्तानि, नियमात् शेषद्रव्याणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां त्रिभागे-त्रयाणां राशीनामेको राशिरूपो भागत्रि. भागस्तस्मिन् भवन्ति । अयमर्थः-अनानुपूर्वीद्रव्याणां सर्वेषां संकलनेन यावत्
उत्तर- आनुपूर्वीत्व अनानुपूर्वीत्व और अवक्तव्यकत्व सामान्य का कभी भी विच्छेद नहीं होता है इसलिये इनका अवस्थान सर्वाद्धासार्वकालिक- है। इसीलिए काल को अपेक्षा इनका विरह काल भी नहीं हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि आनुपूर्वीत्व आदिकों का कालप्रय में भी सत्व होने के कारण व्यवच्छेद नहीं होता है, इस कारण इनमें अन्तर नहीं माना जाता है ऐसा विचार अन्तरद्वार में किया गया जानना चाहिये । यही बात सूत्रकारने (संगहस्स आनुपुठवीदव्वाण कालओ केवच्चिरं अतरं होई ? नस्थि अंतरं) इन पदों द्वारा कही गई है (संगहस्स आणुपुरधी दवाई सेसदव्याणं कहभागे होज्जा)
प्रश्न-संग्रहनयमान्य समस्त आनुपूर्वीद्रव्य शेष द्रव्यों के कौन से भाग में हैं ? (किं संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा
ઉત્તર-આનુપૂરી દ્રવ્ય સમહત લેકને જ સ્પર્શે છે, લેકના સંખ્યાતમાં ભાગને, અસંખ્યાતમાં ભાગને, સંખ્યાત ભાગને કે અસંખ્યાત ભાગને પર્શતું નથી આ પ્રકારનું કથન અનાનુપૂવ દ્રો અને અવકતવ્યક દ્રવ્યની સ્પર્શના વિષે પણ સમજવું.
(संगहस्स आणुपुत्रीदवाई कालओ केवच्चिरं होति ? सव्वद्धा, एवं दोन्नि वि) प्रश्न-3 साप ! सबखनयमान्य समस्त भानुपूवी द्रव्य जानी અપેક્ષાએ કેટલા સમય સુધી આનુપૂર્વી રૂપે રહે છે?
ઉત્તર-આનુપૂવવ, અનાનુપૂર્વીત્વ અને અવકતવ્યકત્વસામાન્ય કદિ પણ વિચછેદ થતા નથી તેથી તેમનું અવસ્થાન (અસ્તિત્વ) સાર્વકાલિક હેય છે તે કારણે કાળની અપેક્ષાએ તેમને વિરહકાળ પણ નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આનુપૂર્વ આદિને ત્રણે કાળમાં સદ્ભાવ હેવાને કારણે વ્યવચ્છેદ (વિનાશ) સંભવી શકતું નથી. તે કારણે કાળની અપેક્ષાએ તેમના અન્તર (વિરહકાળ) ને પણ સદૂભાવ હેતે નથી. આ પ્રકારે સૂત્રકારે અંતરદ્વારની પ્રરૂપણ કરી છે, એમ સમજવું એજ વાત સૂત્રકારે નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા વ્યક્ત કરી છે–
(संगहस्स आणुपुब्बीदव्वाण' कालओ केबच्चिर' अंतर होई ? नत्वि अंतर') मा सूत्राने मापा ९५२ माया प्रभारी समन्वो.
वे HINAR नि३५१ ४२१ामा माछ-( संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाह
For Private and Personal Use Only
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
राशिभवति तस्य भागत्रयकरणेन यस्तृतीयो भागः संपद्यते तत्संख्यकानि आतु पूर्वीद्रव्याणां प्रत्येकद्रव्याणि भवन्ति संग्रहस्यानुपूर्वीद्रव्याणि कस्मिन् भावे भवन्ति ?, इति प्रश्नः । उत्तरमाह - नियमात् सादिपारिणामिके भावे भवन्ति । संखेज्जेसु भागेसु होजा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? ) क्या संख्यातवें भाग में हैं या असंख्यातवें भाग में हैं ? - या संख्यात भागों में हैं ? या 'असंख्यात भागों में हैं ?
ww
उत्तर- (नो संखेज्जहभागे होज्जा, नो असंखेज्जह भागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा ) संग्रहनय मान्य समस्त आनुपूर्वी द्रव्यों में से प्रत्येक आनुपूर्वोद्रव्य - त्रिप्रदेशिक, चतुष्प्रदेशिक आदि अनन्त प्रदेशिक द्रव्यनियम से शेष द्रव्यों के त्रिभाग में हैं । अर्थात् अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्यकद्रव्यों को मिलाकर जो राशि उत्पन्न हो उस राशि के ३ भाग करो- इनमें जो तृतीय भाग आवे तत्प्रमाण आनुपूर्वी द्रव्यों में प्रत्येक आनुपूर्वी द्रव्य हैं । ( एवं दोन्निवि ) - इसी प्रकार आनुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में जानना चाहिये । ( संगहस्त आणुपुब्वी
सेसदव्वाण कइभागे होज्जा ?) प्रश्न-डे लगवान् ! सश्रनयसभित समस्त मानुपूर्वी द्रव्य महीना द्रव्योना उसामा लागप्रभाणु होय हे १ ( किं संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा १) शु सय्यातमां भागप्रमाणु छे ? है असभ्यातमां ભાગપ્રમાણ છે? કે સંખ્યાત ભાગાપ્રમાણુ સંખ્યાત ગણું છે ? કે અસખ્યાત भागोप्रभाणु-अस'फ्यात गायें है ?
उत्तर- (नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखेज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा ) સ'ગ્રહનયમાન્ય સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રબ્યામાંથી પ્રત્યેક આનુપૂર્વી દ્રષ્ય-ત્રિપ્રદેશિક ચતુષ્ટદેશિક પ`ચપ્રદેશક આદિ અનત પ્રદેશિક પર્યંન્તના પ્રત્યેક આનુ પૂર્વી દ્રવ્ય-નિયમથી જ ખાકીના દ્રવ્યેાના ત્રીજા ભાગ પ્રમાણુ જ હાય છે. એટલે કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યે અને અવક્તવ્યક દ્રષ્યાને એકત્ર કરવાથી જે રાશિ અને છે તે રાશિના જે ત્રણ ભાગ કરવામાં આવે તે તે પ્રત્યેક ભાગપ્રમાણુ (તે ખાકીના બ્યાની રાશિના રાશિના ત્રીજા ભાગપ્રમાણ ) मानुपूर्वी द्रव्यांना प्रत्ये! मानुपूर्वी द्रव्य होय छे. (एव दोन्नि वि) પ્રમાણે અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રન્ચેના વિષયમાં પણ સમજવું.
For Private and Personal Use Only
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
૨૨ court कपरंमि भावे होज्जा ? ) संग्रहनय मान्य आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव वाले हैं ?
उत्तर- (नियमा साइवारिणामए भावे होज्जा ) संग्रहनय मान्य आनुपूर्वीद्रव्य नियम से सादिपारिणामिक भाववाले हैं। (एवं दोन्निवि) इसीप्रकार से दोनों आनुपूर्वी और अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में जामना चाहिये। (अप्पा बहुनस्थि ) राशिगत द्रव्यों में अल्प बहुत्व नहीं माना गया है। क्योंकि इस संग्रहनय में राशिगत द्रव्यों का अस्तित्व व्यवहारनयरूप कल्पना मात्र से ही मान्य हुआ है। तात्पर्य कहने का यह है कि संग्रहनय की दृष्टि अनुपूर्वी द्रव्यों में अनेकत्व काल्पनिक हैं। क्यों कि व्यवहारनय इस बात को स्वीकार करता है कि आनुपूर्वी द्रव्य प्रत्येक अनेक हैं । इसलिये यह अनेकत्व सामान्यरूप आनुपूर्वी श्व की दृष्टि में विलीन के कारण है ही नहीं ।
शंका- यदि यही बात है तो फिर सूत्रकार ने इस संग्रहनय मान्य अनुगम के प्रकरण में "संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्येयानि " आदि बहुवचनान्त पद में आनुपूर्वी द्रव्य को क्यों रखा है ? " आनुपूर्वी -
प्रश्न - ( संगहस्स आणुपुत्री दव्वाई' कयरंभि भावे होज्जा ?) संभनयમન્ય આનુપૂર્વી દ્રન્ગેા કયા ભાવથી યુકત હાય છે ?
उत्तर- (नियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा) सग्रहनयसभित मानुपूर्वी द्रव्यो नियमधी ४ सःहिपारियामिङ भाववाणां होय छे. ( एवं दोन्नि वि ) એજ પ્રમાણે સંગ્રહનયસંમત અનાનુપૂર્વી દ્રબ્યા અને અવકતવ્યકદ્રજ્યે પણ નિયમથી જ સાક્રિપારિણામિક ભાવવાળાં હોય છે રાશિગત દ્રવ્યેામાં અપખડુત્વ માનવામાં આવ્યું નથી, હનયમાં રાશિગત દ્રવ્યાનું અસ્તિત્વ વ્યવહાર નયરૂપ કલ્પના માત્રથી જ માન્ય થયુ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સંગ્રહનયની દૃષ્ટિએ આનુપૂર્વી દ્રવ્યેામાં અનેકત્વ કાલ્પનિક છે, કારણ કે વ્યવહાર નય એ વાતના સ્વીકાર કરે છે, કે પ્રત્યેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનેક છે. અને તે અનેકત્વ સામાન્ય રૂપ આનુપૂર્વી ત્વની દૃષ્ટિમાં વિલીન થઈ જવાને કારણે છે જ નહીં.
( अप्पा बहु नत्थि ) કારણ કે આ સદ્મ
શક-જો એવી હકીકત હોય તે સૂત્રકારે આ સ'ગ્રહનયમાન્ય અનુગ भना अशुभां “ संगहस्त्र आनुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्येयानि " इत्याहि हु बयनान्त यहमां भानुपूर्वी द्रव्यने हैम भूभ्यु छे ? " " आनुपूर्वी द्रव्य "
For Private and Personal Use Only
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Comme
अनुयगद्वारसूत्रे अन्यद् द्वयमपि पूर्ववद् बोध्यम् । राशिगतद्रव्याणां पूर्वोक्तमल्पबहुत्वमत्र नाश्री यते, द्रव्याणां प्रस्तुतनये व्यवहारसंवृत्तिमात्रेणैव सत्त्वादिति । एवमनानुपूर्व्यवक्त. ध्यकद्रव्यविषयेऽपि बोध्यम् । अनुगमं समापयमाह-' से तं अणुगमे' इति । स द्रव्यम्" ऐसा एक वचनान्त पद प्रयुक्त करना चाहिये । क्योंकि संग्रहनय मुख्यतया सामान्यत्व ही मानता है। , उत्तर-शंका ठीक है-परन्तु सूत्रकार ने जो पहुवचनान्त आनुपूर्षी पद को रखा है उसका कारण यह है कि वे यह प्रकट करना चाहते हैं व्यवहारनय से द्रव्यवहुत्व भी हैं । इसी बात की अपेक्षा करके उन्होंने यहां आनुपूर्वी में बहुषचन का निर्देश किया है।
शंका-व्यवहारनय की अपेक्षा सूत्रकारने जय नैगम व्यवहारसंमत अनुगम का प्रकरण प्रारंभ किया है तब वहां द्रव्यवहत्व दिखला ही दिया है फिर इसे यहां इस एकत्व के प्रकरण में प्रदर्शित करने की क्या
आवश्यकता थी ? :उत्तर-ठीक है-नहीं दिखलाना चाहिये, परन्तु जो शिष्य विस्मरण शील है उन्हे इस विषय को पुनः स्मृत कराना कोई पुनरुक्ति दोष की बात नहीं है। अतः सूत्रकारने ऐसा किया है। शिष्यजन जिस प्रकार से वस्तु का स्वरूप समझ सके उसी प्रकार से उन्हे समझाना गुरुका कर्त
આ એક વચનાન્ત પદને પ્રવેગ કેમ કર્યો નથી? સંગ્રહના મુખ્યત્વે સામાન્યતત્વને જ માને છે તેથી અહીં એકવચનના પદને પ્રગ થ જોઈતો હતે.
ઉત્તર- શંકાકર્તાની શંકા વ્યાજબી છે. પરંતુ સૂત્રકારે જે બહુવચનાન્ત પદને પગ કર્યો છે-“આનપૂવી દ્ર ” એ પ્રવેગ કર્યો છે તેનું કારણ એ છે કે તેઓ એ વાત પ્રકટ કરવા માગે છે કે વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ દ્રવ્યહવ પણ છે. એજ વાતને અનુલક્ષીને સૂત્રકારે અહી આનુપૂર્વી પદમાં બહુવચનને નિર્દેશ કર્યો છે.
શંકા-નગમવ્યવહાર નયસંમત અનુગામના પ્રકરણમાં જ સૂત્રકારે વ્યવ હારનયની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય બહુત્વ પ્રકટ કર્યું છે. છતાં અહીં ફરીથી તેને એકત્વના પ્રકરણમાં પ્રદર્શિત કરવાની શી આવશ્યકતા હતી?
ઉત્તર-વિસ્મરણશીલ શિષ્યને આ વિષયનું ફરી સ્મરણ કરાવવા માટે સૂત્રકારે અહીં તેને ફરી ઉલ્લેખ કર્યો છે તેથી આ પ્રમાણે કરવામાં પુનરુક્તિ દેશની સંભાવના રહેતી નથી શિષ્ય જે પ્રકારે વસ્તુના સ્વરૂપને એમ. શકે એ પ્રકારે તેમને સમજાવવાનું તે ગુરુનું કર્તવ્ય થઈ પડે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् एषोऽनुगमः । इत्थं संग्रहसम्मताऽनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी समाप्तेतिसूचयितुमाह'से तं संगहस्स' इत्यादि । सैषा संग्रहसम्मताऽनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी। अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्णसमाप्तेति सूचयितुमाह-' से तं अणोवणिहिया' इत्यादिसैषाऽनौपनिषिकी द्रव्यानुपूर्वीति ।।सू० ९६॥ ... इत्थमनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी निरूप्य सम्पति प्रानिर्दिष्टामोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी माह
मूलम्-से किं तं ओवणिहिया दव्वाणुपुवी? ओवणिहिया दवाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुत्री१, पच्छाणुपुवी२, अणाणुपुत्वीय३॥सू०९७॥ न्य हो जाता है । ( से तं अणुगमे । से तं संगहस्त अणोवणिहिया दव्वाणुपुब्धी, से त अणोचणिहिया व्याणुपुव्वी) इस प्रकार अनुगम के प्रकरण को समाप्त करते हुये सूत्रकार कहते हैं कि यह पूर्वोक्तरूप से संग्रहनय मान्य अनुगम का स्वरूप है । इसकी समाप्ति में संग्रहनय संमत अनोपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी का कथन समाप्त हो चुका । यही प्रक्रान्त अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है । इसका विशेषरूप से खुलाशा अर्थ नैगम व्यवहारनय संमत अनुगम के प्रकरण में लिखा जा चुका है । ॥ सू० ९६ ॥
इस प्रकार से अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का निरूपण करके अब सूत्रकार पूर्व कथित औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी का कथन करते हैं
(से तू अणुगमे ! सेत संगहस्स अणोवणिहिया दव्वाणुपुब्बी, से त अणावणिहिया व्वाणुपुव्वी) अनुगमन ५४२ ५सहा२ ४२०i सूत्र કાર કહે છે કે આ પ્રકારનું (ઉપર વર્ણવ્યા પ્રમાણેનું સંગ્રહનયમાન્ય અનુ. ગમનું સ્વરૂપ છે. અનુગામના સ્વરૂપનું નિરૂપણ થઈ જવાથી સંગ્રહનયમાન્ય અનુગામનું સ્વરૂપ છે. અનુગામના સ્વરૂપનું નિરૂપણ થઈ જવાથી સંગ્રહાયસંમત અને પનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું કથન અહીં પૂરું થાય છે. આ પ્રકારનું પૂર્વ પ્રસ્તુત અપનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે. તેને વિશેષ ખુલાસે નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનુગામના પ્રકરણમાં આપવામાં આવેલ છે, જાસૂદા
આ પ્રમાણે અનૌપનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂવનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર પૂર્વકથિત ઔપનિપિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે–
For Private and Personal Use Only
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
જી
अनुयोगद्वारसूत्रे
छाया - अथ का सा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ? औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञता, तद्यथा - पूर्वानुपूर्वी १, पश्चानुपूर्वी २, अनानुपूर्वी ३च ॥ मू० ९७।। टीका- ' से किं तं ' इत्यादि --
अथ का सा औपनिधिक द्रव्यानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरमाह - औषनिधि की = उपनिधिःस्थापनं निर्माणमित्यर्थः, स प्रयोजनमस्या सा, द्रव्यानुपूर्वी - द्रव्यविषयाऽऽनुपूर्वी त्रिमकारा प्रोक्ता । तद्यथा - पूर्वानुपूर्वी = विवक्षितधर्मास्तिकायादिद्रव्यविशेषसमुदाये यः पूर्वः = प्रथमस्तस्मादारभ्य या आनुपूर्वी = अनुक्रमः परिपाटी वा निक्षिप्यते सा पूर्वानुपूर्वी १ । पञ्चानुपूर्वी - तत्रैव द्रव्यविशेष"से किं तं ओवणिहिया" इत्यादि
शब्दार्थ- से किं तं भवणिहिया दव्वाणुपुत्री ) हे भदन्त ! औपनिधि द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (ओवणहिया दव्याणुपुत्र्वी तिविहा पण्णत्ता) औपनिधि द्रव्यानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है । (तंजहा) वे उसके ३ प्रकार ये हैं- (पुव्वाणुपुब्बी १, पच्छाणुपुन्वी २, अणाणुपुन्वी ३) १ पूर्वानुपूर्वी २ पचानुपूर्वी और ३, भनानुपूर्वी उपनिधि का अर्थ स्थापन या निर्माण है । यह जिसका प्रयोजन हो उसका नाम औपनिधिकी है । यह द्रव्य विषक औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पूर्वोक्तरूप से तीन प्रकार की हैं। विवक्षित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य विशेष के समुदाय में जो पूर्व प्रथम द्रव्य है उससे लेकर जो आनुपूर्वी - अनुक्रम परिपाटी निक्षिप्त की से कि त ओवणिहिया " इत्याहि
66
शहाथ - ( से किं त ओबणिहिया रव्याणुपुत्री १) से भगवन ! भोप નિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- ( ओवणहिया दव्वाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) भोपनिधिडी द्रव्यानुपूर्वीत्र प्रहारनी उही छे, (तंजहा) ते त्रयु प्रकाश नीचे प्रमाणे - (geaiyyəût, qeðigyöt, emmygsat a) (1) yaigyal', (2) us18. पूर्वी, मने (3) अनानुपूर्वी
ઔપ
ઉપનિધિ એટલે સ્થાપના અથવા નિર્માણુ તે સ્થાપના અથવા નિર્માણુ જેનુ' પ્રત્યેાજન હાય છે તેને ઔપનિષિકી કહે છે. આ દ્રવ્યવિષયક નિષિકીના ઉપર મુજબ ત્રણ પ્રશ્નાર છે. નિશ્ચિત ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યવિશેષના સમુદાયમાં જે પૂર્વ (પ્રથમ દ્રવ્ય) છે ત્યાંથી શરૂ કરીને જે આનુ पूर्वी (अनुम्भ, परिपाटी) निक्षिप्त अश्वामां आवे छे-राभवामां आवे छे
For Private and Personal Use Only
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
मानुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूानुपूर्व्यादिमेदत्रयनिरूपणम् ४२५ समुदाये यः पाश्चात्या अन्तिमस्तस्मादारभ्य व्यतिक्रमेण या ऽऽनुपूर्वी निक्षिप्यते सा पथानुपर्छ । अनानुपूर्वी-पूर्वानुपूर्वीपश्चानुपूर्वीभ्यां मिन्नस्वरूपा याऽऽनु पूर्वी साऽनानुपूर्वी ॥ मू०९॥
पूर्वानुपूर्यादिभेदत्रयं निरूपयितुमाह. मूलम्-से किं तं पुव्वानुपुब्बी ? पुवाणुपुवी-धम्मत्थिकाये अधम्मत्थिकाये, आगासत्थिकाये, जीवत्थिकाये, पोग्गलत्थिकाये, अद्धासमथे। से तं पुव्वाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुवी? पच्छाणुपुची-अद्धासमए, पोग्गलस्थिकाए, जीवस्थिकाए, आगासत्यिकाए, अहम्मस्थिकाए, धम्मत्थिकाए। से तं पच्छाणुपुत्वी। से किं तं अगाणुपुवी? अणाणुपुब्धी-एयाए घेव पगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णम्भासो दुरुपूणो । से तं अणाणुपुत्वी ॥सू०९८॥
छाया-अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयः। सैषा पूर्वा की जाती है-रखी जाती है वह पूर्वानुपूर्वी है । तथा उसी द्रव्य विशेष के समुदाय में जो पाश्चोत्य-अतिमद्रव्य है-उससे लेकर व्यक्तिक्रम से जो आनुपूर्वी निक्षिप्त की जाती है वह प्रश्चानुपूर्षी है। पूर्वानुपूर्षी एवं पश्चानुपूर्वी इन दोनों से भिन्न स्वरूप वाली जो आनुपूर्वी है वह भनानुपूर्वी है । ॥ सू० ९७ ॥
पूर्वानुपूर्वी आदि जो तीन भेद हैं उनका स्वरूप क्या है इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं-"से किं तं पुव्वानुपुत्वी" इत्यादि। તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી છે. તથા એજ દ્રવ્યવિશેષના સમુદાયમાં જે પાશ્ચાત્યઅંતિમ દ્રવ્ય છે, ત્યાંથી શરૂ કરીને એટલે કે ઉલટા ક્રમથી જે આનુપૂર્વી રાખવામાં આવે છે તેને પશ્ચાપૂર્વા કહે છે. પૂર્વાનુપૂર્વી પશ્ચાતુપૂર્વી, આ બનેથી ભિન્ન સ્વરૂપવાળી જે આનુપૂવી છે તેને અનાનુપૂર્વી કહે છે. સુત્રા
હવે સૂત્રકાર પૂર્વાનુપૂવ આદિ ત્રણ ભેદના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે"से किं त पुव्वानुपुव्वी" त्याहिम. ५४
For Private and Personal Use Only
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुमोबास नुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-अद्धासमयः, पुद्गलास्तिका जीवास्तिकायः, आकाशास्तिकाय:, अधर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायः। सैषा पश्चानुपूर्वी। अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामेको तरिकायां षड्गच्छतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः। सैषाऽनानुपूर्वी।।सू.९८।।
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाह-'पुन्वाणुपुची' इत्यादि । पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकायः१, अधर्मास्तिकायः२, आकाशास्तिकायः३, जीवास्तिकायः४, पुद्गलास्तिकाय:५, अद्धासमयः६। धर्मास्तिकायादीनां व्या: ख्यांऽऽचारागसूत्रस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे मस्कृताचारचिन्तामणिटीकायां द्रष्टव्या। तथा-अद्धासमय:-अद्धारूपः समय इति समासः। अद्धाशब्दः कालवाचकः।
शब्दार्थ- (से किं तं पुव्वानुपुठवी ?) हे भदन्त । पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
उत्तर-(पुन्वाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है(धम्मस्थिकाये, अधम्मस्थिकाये, आगास स्थिकाये जीवस्थिकाये, पोग्गलत्थिकाये' अद्धासमये) १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३
आकाशास्तिकाय, ४ जीवास्तिकाय ५ पुद्गालास्तिकाय और ६ अद्धा समय इस प्रकार की परिपाटी से इन छह द्रव्यों का निक्षेपण करना यह पूर्वानुपूर्वी है। इन धर्मास्तिकाय आदि कों का क्या स्वरूप है इस बात को जानने के लिये आचाराग-सूत्र के प्रथम स्कंध में मस्कृत आचारचिन्तामणि टीका देखनी चाहिये। अद्धारूप जो समय है उसका नाम अद्धा समय है । अद्धा शब्द
शहाथ-(से कि त पुव्वानुपुठवी ?) समपन् । नुपूवा . રવરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) yानी , २१३५ । प्रा२नु है. (धम्मत्थिकाये, अधम्मत्थिकाये, आगासत्यिकाये, जीवस्थिकाये, पोग्गलत्थिकाये, अद्धासमये) (1) वास्ताय, (२) अस्ताय(3) शास्तिय, (४) स्तिय, (५) Yस्तिय अ२ (6) मासमय (1), मा प्रा२नी परिपाटीया (અનુક્રમથી) છ દ્રવ્યોનું નિક્ષેપણ કરવું તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે.
આચારાંગ સૂત્રની આચારચિતામણિ નામની મેં જે ટીકા લખી છે તેના પહેલા સ્કધમાં ધમસ્તિકાય આદિના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે તે જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ ત્યાંથી તે વાંચી લેવું. અદ્ધા રૂપ જે સમય છે તેનું નામ અપ્લાયુમય છે, અદ્ધા શબ્દ કાળવાચક છે, અને સમય શ૬
For Private and Personal Use Only
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूानुपूादिमेदत्रयनिरूपणम् ४३७ समयशब्दोऽनेकार्थकः शपथादिष्वपि वर्तते, अतः कालमर्थ बोधयितुम्-'अदा' इति विशेषणोपादानम् । पट्टसाटिकादिपाटनदृष्टान्तसिद्धः सर्वक्ष्मः पूर्वापरकोटिविममुक्तो वर्तमानः एकः कालांश इति 'अद्धासमय' शब्दार्थों बोध्यः, अत एवात्र मंस्तिकायत्वाभावः, बहुपदेशवति द्रव्य एव तस्य सद्भावात् । इह तु नास्ति प्रदे
बाहुल्यम्,-अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन एकमात्रस्य वर्तमानरूपस्य "समयस्य प्रदेशस्य सद्भावात् । ननु समयबहुत्वाभावे 'समया वलियमुहुत्ता काल वाचक है और समय शन्द अनेकार्थक है। क्योंकि समय शब्द का प्रयोग शपथ आदि अनेक अर्थों में भी होता है । अतः कालरूपअर्थ का वह यहां बोधक है, इस बात को बोध कराने के निमित्त सूत्रकार ने उसका विशेष अद्धापद रखा है। वर्तमान एक कालांश का नाम अद्धा समय है । यह अत्यंत सूक्ष्म है। पूर्व और अपर कोटि से यह रहित होता है। इसकी सिद्धि पट्ट साटिकादि के फाइने रूप दृष्टान्त से होती है। अर्थात् सर्व सूक्ष्मातिसूक्ष्म जो वर्तमान कालांश है वही अद्धा समय का वाच्यार्थ है। इसे अस्तिकाय में परिगणित नहीं किया गया है। क्यों कि इसमें बहुप्रदेशत्व का अभाव है। जो बहुप्रदेश वाले-होते हैं उन्हे ही अस्तिकाय कहा गया है । अतीतकाल विनष्ट हो जाने के और भविष्यत् काल अनुत्पन्न होने के कारण एकमात्र वर्तमानरूपसमय प्रदेश का सद्भाव है इसलिये उसमें प्रदेशबाहुल्य नहीं है।
शंका-समय की बहुता के आभाव में “समयावलियमुटुत्ता दिव. અનેકાર્થક છે, કારણ કે સમય શબ્દને પ્રવેગ શપથ આદિ અનેક અર્થોમાં પણ થાય છે. તેથી તે પદ અહીં કાળરૂપ અર્થનું બેધક છે, તે વાતને સમજાવવાને માટે સૂત્રકારે તેનું વિશેષ અદ્ધાપદ રાખ્યું છે. વર્તમાન એક સમયનું નામ અદ્ધા સમય છે. તે અત્યંત સૂક્ષમ છે. પૂર્વ અને અપર કટિથી તે રહિત હોય છે. તેની સિદ્ધિને માટે પટ્ટ સાટિકા આદિ ફાડવાનું દાન્ત આપવામાં આવે છે એટલે કે સર્વ સૂફમાતિસૂમ જે વર્તમાન કાયાંશ છે એજ અદ્ધાસમયના વાગ્યાથું રૂપ છે. તેને અસ્તિકામાં ગણાવવામાં આવેલ નથી કારણ કે તેમાં બહુ પ્રદેશત્વનો અભાવ છે. જે બહુ પ્રદેશવાળાં હોય છે તેમને જ અસ્તિકાય કહેવાય છે. અતીતકાળ (વ્યતીત થઈ ગયેલો કાળ) વિનષ્ટ થઈ જવાને કારણે અને ભવિષ્યકાળ અનુત્પન્ન હોવાને કારણે એક માત્ર વર્તમાન રૂપ સમયપ્રદેશને જ સદ્દબાવે છે, તેથી તેમાં પ્રદેશબાહુલ્ય નથી.
-सभयनी महताना भानामा माव, तो " समयाव
For Private and Personal Use Only
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारी दिवसमहोरत्तपक्खमासाय' इत्यागमसिद्ध आवलिकादिकालः कथमुपपद्येत ? इति चेत् , उच्यते-व्यवहारनयमाश्रित्य-आवलिकादिसत्ता स्वीक्रियते। निश्चय नयमते तु तदसत्वमेव । नहि पुद्गलस्कन्धे परमाणुसङ्घात इवावलिकादिषु समयसङ्घातः कश्चिदस्थितोऽस्ति, अतो व्यवहारनयमतेन तत्कथनमस्तीति न कविद् दोष इति । तदेतदुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि, सैषा पूर्वानुपूर्वीति । अथ पश्चानुपूर्वी निरूपयितुमाह-' से कि तं' इत्यादि । अथ का सा पश्चानुपर्छ ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाह-'पच्छानुपुव्वी' इत्यादिना। पश्चानुपूर्वीहि'अद्धासमयः, पुद्गलास्तिकायः, जीवास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, अधर्मास्तिस महोरत्तपक्खमासाय" इत्यादि आवलिकारूप काल जो कि आगम सिद्ध है कैसे संगत माना जा सकता है ?
उत्तर-व्यवहारनय को लेकर ही आवलिकादिरूप की सत्ता स्वीकृत हुई है। निश्चयनय के मत को लेकर नहीं। क्योंकि इस मत में तो आवलिकादि रूप कालका सत्व नहीं माना गया है। जिस प्रकार से पुगलस्कंध में परमाणुओं का संघात अवस्थित है उस प्रकार से आव. लिकादिकों में कोई समय संघात अवस्थित नहीं है । इसलिये मानना चाहिये यह आवलिकादिरूप काल का कथन व्यवहारनय के मत से है। इसलिये इसमें कोई दोष नहीं है । (से तं पुव्वानुपुव्वी) इस प्रकार यह पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप है । " से किं तं पच्छानुपुव्वी" पश्चानुपूर्वी क्या है?
उत्तर-(पच्छौणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से हैं-(अद्धासमए लियमुडुत्ता दिवसमहोत्तपक्खमासा य” मलित, मुहूत, हिस, रात, પક્ષ, માસ આદિ રૂપ કાળ કે જે આગમ દ્વારા સિદ્ધ થયેલ છે, તેને કેવી રીતે સંગત માની શકાય ?
ઉત્તર-વ્યવહાર નયની દૃષ્ટિએ જ આવલિકાદિ રૂપ કાળની સત્તા (સમયનું અસ્તિત્વ) સ્વીકૃત થઈ છે-નિશ્ચયનયની માન્યતા અનુસાર તે આવલિકા આદિ રૂપ કાળનું અસ્તિત્વ જ સ્વીકારવામાં આવ્યું નથી જે પ્રકારે पुरव२४i ५२भाशुमान सघात (सयो) मपस्थित (विद्यमान) छे, એ પ્રમાણે આવલિકાદિકમાં કઈ સમયને સંધાત અવસ્થિત નથી તેથી એવું માનવું જોઈએ કે આ આવલિકાદિ રૂપ કાળનું કથન વ્યવહાર નયના મતાનુસારનું કથન છે. તે કારણે આ પ્રકારના કથનમાં કઈ દોષ નથી. (से त पुव्वानुपुत्री) मा १२नु पूर्वानुवा नु २१३५ छे.
પ્રશ્ન-હે ભગવન ! પશ્ચાનુપૂવનું કેવું સ્વરૂપ છે? उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुभूती मा ४२नी ४४ ४-(अद्धासमए,
For Private and Personal Use Only
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूानुपूादिभेदत्रयनिरूपणम् ४२९ काया, धर्मास्तिकायः, इति व्युत्क्रमेण निर्दिष्टा। तदेतदुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि, सैषा पश्चानुपूर्वी ति । अथानानुपूर्वी निरूपयति-' से कि तं' इत्यादिना। अथ का सा अनानुपूर्वी ?-न विद्यते आनुपूर्वी-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वीद्वयरूपा यस्यां सा तथा विवक्षितपदानामनन्तरोक्तक्रमद्वयमुमुल्लङ्थ्य परस्परसार संभवनिर्भनर्यस्यां विरचना क्रियते साऽनानुपूर्वीत्यर्थः । साहि-एतस्याम्-अनन्तराधिकृतधर्मास्तिकायादिसम्बन्धिन्याम् , एकादिकायाम्-एक आदिर्यस्यां सा तथा तस्याम् , पुन:-एकोतरिकायाम् -एकैक उत्तरः प्रवर्धमानो यस्यां सा तथा पोग्गलस्थिकाए, जीवस्थिकाए आगालस्थिकाए, अहमस्टिकाए धम्मस्थिकाए) अद्धासमय, पुद्गलास्तिकाय,जीवास्तिकाय,आकाशास्तिकाय, अध.
स्तिकाय, धर्मास्तिकाय । इस प्रकार जो धर्मादिक द्रव्यों का व्युत्क्रम से निर्देश है (से तं पच्छाणुपुव्वी) वह पश्चानुपूर्वी है । (से कि अणाणु. पुथ्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्थी का क्या स्वरूप है ? (अणाणुपुत्रो)
उत्तर- अनानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है- (एयाए चेव एगाइ. याए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दूरुखूणो) जिस में पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी ये दोनों नहीं हैं उसका नाम अनानुपूर्वी है। इसमें विवक्षित धर्मादिक पदों के अनन्तरोक्त क्रमव्य को उल्लं. 'घन करके परस्पर संम्भवित भंगों से उन पदों की विरचना की जाती है इस अनानुपूर्वी मे जो श्रेणी स्थापित की जाती है उसमें सबसे पहिले एक संख्या रखी जाती हैं। बाद में एक एक की उत्तरोत्तर वृद्धि पागलत्थिकाए, जीवस्थिकाए, आगासस्थिकाए, अहम्मत्थिकाए, धम्मस्थिकाए) અદ્ધાસમય (કાળ), પુદ્ગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, અધમ સ્તિકાય અને ધર્માસ્તિકાય, આ પ્રકારે ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યોને જે Ceeliy४ निथाय छे, (से त पच्छाणुपुव्वी) तेनुं नाम पश्चानुपू 0 ?
प्रश्न-से कि अणाणुपुव्वी) मापन् ! मनानु¥ी २१३५ ३' छ ?
उत्तर-(अणाणुपुव्वी) मनानुषी नु. २१३५ २ छ-(एयाए घेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दूरुवूणो) मा પૂર્વાનુમૂવી અને પશ્ચાનુપૂર્વી એ બને નથી, તેનું નામ અનાનુપૂર્વી છે. તેમાં ધર્માસ્તિકાય આદિ પદેના ઉપર્યુકત બને કમનું ઉલ્લંઘન કરીને પરસ્પર સંભવિત અંગે વડે તે પદની વિરચના કરાય છે. આ અનાનુવમાં જે શ્રેણ સ્થાપિત કરવામાં આવે છે તેમાં સૌથી પહેલાં એક સંખ્યા રાખવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ છ સંખ્યા સુધી ઉત્તરોત્તર એકની વૃતિ
For Private and Personal Use Only
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगशरी
संस्याम् पुनः- षड्गच्छगतायाम् - षण्णां गच्छ ः- समुदाय :- षङ्गच्छस्तं गता-माता च्छता तस्यां धर्मास्तिकायादिद्रव्यष्ट्रकविषयायां श्रेण्यां=पङ्क्तौ अन्योन्याम्यासः - अन्योऽन्यं परस्परम् - अभ्यासो= गुणनम्, अन्योऽन्याभ्यासः - परस्परगुणरूप:, तथा द्विरूपोनः = आद्यन्तविवक्षारहितः, एवंरूपाऽनानुपूर्वी बोध्या । जयमभिप्रायः - प्रथमं व्यवस्थापितैककाया अन्ते च स्थापितषट्संख्यायाः (१-२-३-४-५-६ ) धर्मास्तिकायादि द्रव्यष्ट्रकविषयायाः पतेर्या परस्परगुणने भङ्गकसंख्ा भवति सा आवन्तभङ्गकद्वयरहिता अनानुपूर्वी बोध्येति । -स्य सूत्रस्येदं तात्पर्यम् - पूर्वानुपूर्व्या हि-प्रथमं तावद् धर्मास्तिकायः स्थापनिव्यः, तदनु-अधर्मास्तिकायः तत आकाशास्तिकायः, इत्येवं क्रमेण ' अद्धासमयः ' इत्येतत्पर्यन्तं स्थापना कर्तव्या । पश्चानुपूर्व्या तु प्रथमम् अद्धासमयो व्यवस्थापनीयः,
पुनास्तिकायः, ततो जीवास्तिकायः इत्येवं व्युत्क्रमेण 'धर्मास्तिकायः ' छह संख्या तक होती चली जाती है, जैसे १-२-३-४-५ -६, फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है जैसे १x२=२*३=६ ६×४=२४,×५=१२०, | १२०×६=७२०, इस प्रकार अन्योन्याभ्यस्तराशि वन जाती है। इसमें से आदि अन्त के दो भंग करने पर अनानुपूर्वी बन जाती है इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि पूर्वानुपूर्वी में पहिले धर्मास्तिकाय स्थापित हो जाता
उसके बाद अधर्मास्तिकाय, उसके बाद आकाशास्तिकाय' उसके बाद जीवास्तिकाय, फिर पुनलास्तिकाय और फिर अद्धा समय। इस क्रमसे यहां छह द्रव्यों का स्थापन होता है। तथा पञ्चानुपूर्वी में पहिले अढा समय 'फिर पुद्गलास्तिकाय, बाद में जीवास्तिकाय, फिर अकाशास्तिकाय अती रहे थे, प्रेम हे १-२-३-४-५-६ यार माह तेमां परस्परना गुर श्वासां भावे छे. भे १x२=२ । २X3=६ | १x४=२४ । २४४५= १२०, ૧૨૦૪૯=૭૨૦ આ રીતે અન્યાન્યાભ્યસ્ત રાશિ ખની જાય છે. તેમાંથી શરૂ માંતના એક ભંગ અને અન્ય એક ભંગ ઓછા કરી નાખવાથી અનાનુસુધી મની જાય છે આ સૂત્રના ભાવાય નીચે પ્રમાણે છે—
પૂર્વાનુપૂર્વીમાં પહેલાં ધર્માસ્તિકાય સ્થાપિત થાય છે, ત્યાર બાદ અધર્માસ્તિકાય, ત્યારબાદ આકાશાસ્તિકાય, ત્યાર બાદ જીવાસ્તિકાય, ત્યાર દ પુદ્દગલાસ્તિકાય અને ત્યાર બાદ અહ્વાસમય (કાળ) સ્થાપિત થાય છે. મા ક્રમે છ દ્રવ્યેનુ પૂર્વાનુપૂર્વી માં સ્થાપન થાય છે.
પદ્માનુપૂર્વીમાં પહેલાં અદ્ધા સમય, ત્યાર બાદ પુદ્દગલાસ્તિકાય, ત્યાર આ વાસ્તિકાય, ત્યાર બાદ માસ્તિકાય, ત્યાર બાદ શષાસ્તિકાય
For Private and Personal Use Only
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
जोगवनिका टीका सूत्र ९९ पुद्गलास्तिकायमधिकृत्य द्रव्यत्रयनिरूपणम् ॥ इतस्तत्पर्यन्त स्थापना कर्तव्या। अनानुपूर्ध्या तु पूर्वानुपूर्वीपश्चानुपूर्वीस्थान व्युत्क्रमोभयं परित्यज्य यथारुचि स्थापनाकर्तव्येति। प्रस्तुतसूत्रमुपसंहरन्नाइ' से तं ' इत्यादि । सैषाऽनानुपूर्वीति ॥सू० ९८॥
इत्यं धर्मास्तिकायादीनि षडपि द्रव्याणि पूर्वानुपूादित्वेनोदाहतानि । सम्वत्येकं पुद्गलास्तिकायमधिकृत्याह
- मूलम् अहवा ओवणिहिया दवाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुन्वाणुपुत्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुब्बी। से किं तं पुव्वाणुपुत्री? पुव्वाणुपुवी परमाणुपोगले दुप्पएसिप तिप्पपसिए जाव दसपएसिए संस्किज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए। से तं पुव्वाणुपुब्बी। से किं तं पच्छाणुपुवी? पच्छाणुपुटवी अणंतपएसिपअसंखिज्जपएसिए संखिज्जपएसिए जाव दसपएसिए जाव तिप्पएसिए दुप्पएसिए परमाणुपोग्गले। से तंपच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुठनी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरुखूणो। से तं अणाणुपुवी । से तं ओवणिहिया दव्वाणुपुवी। से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता पाद अधर्मास्तिकाय और फिर धर्मास्तिकाय इस व्युत्क्रम से ६ द्रव्यों का स्थापन किया जाता है। परन्तु अनानुपूर्वी में इन दोनों प्रकार के पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी रूप क्रम व्युत्क्रम का परित्यागकर यथारूचि ६ द्रव्य स्थापित किये जाते हैं । (से तं अणाणुपुव्वी) इस प्रकार यह अनानुपूर्वी का स्वरूप हैं। ॥ सू० ९८॥ અને ત્યાર બાદ ધર્માસ્તિકાય, આ પ્રકારના ઉલ્ટા ક્રમથી ૬ દ્રવ્યોનું સ્થાપન કરાય છે પરંતુ અનાનુપૂવીમાં તે પૂર્વાનવીની જેમ છ દ્રવ્યના સીધા કમને અને પશ્ચાનુપૂવીની જેમ તેમના ઉલ્ટા ક્રમને અને યથારુચિ (भनन गमे ते शत) ७ व्या २८५ ४२पामा मावे छ (से त अणाणुपुवी) मा भानु मनावी २०३५ छे. ॥१८॥
For Private and Personal Use Only
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयागवारसूत्र दवाणुपुवी। से तं नो आगमओ दव्वाणुपुत्वी। से तं दव्वाणुपुवी ॥सू०९९॥
या-अथवा-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्राप्ता, तद्यथा-पूर्वान पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-परमाणुपुदलो द्विपदेशिकः त्रिप्रदेशिको यारत् दशमदेशिकः संख्येयप्रदेशिकः असंख्येयपदेशिका अनन्तमदेशिकः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानु
अथ सूत्रकार एक पुद्गलास्तिकाय के ऊपर तीनों की घटना करते हैं"अहवा ओवणिहिया" इत्यादि।
शब्दार्थ-( अहवा) अथवा- (ओवणिहिया वाणुपुव्वी)ोपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी (तिविहा पण्णत्ता) तीन प्रकार की कही गई हैं। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं- (पुवाणुपुन्वी ) पूर्वानुपूर्वी (पच्छाणुपुच्ची ) पश्चानुपूर्वी (भणाणुपुव्वी) और अनानुपूर्वी। (से किं तं पुव्वाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (पुव्वाणुपुव्वी)
उत्तर-पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से हैं-(परमाणुपुग्गळे दुप्पएसिए तिप्पएसिए जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंत. पएसिए) परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् दशप्रदेशी, संख्यातमदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनंतप्रदेशी स्कंध-इस क्रमसे यह पुद्गला.
હવે સૂત્રકાર એક પુદ્ગલાસ્તિકાય ઉપર આ ત્રણેની ઘટના (સ્થાપના) કરે છે"हवा भोवणिहिया" त्याहि
AvsI4-(अहवा) अथवा (भोवणिहिया दवाणुपुषी) गोपनिधि इयानुभवी (तिविहा पण्णत्ता) ११ १२नी 6 . (तंजहा) ते १५ ॥२॥ नीय प्रमाणे छे-(पुवाणुपुव्वी, पच्छाणुपुब्बी अणाणुपुव्वी) (1) प्रानुभूती (२) पक्षानुभूती (3) मनानुभूती
18-(से किं त' पुवाणुपुत्री ?) 3मपन् ! नानु २१३५ 3 छ।
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) पूर्वानुभूतीन २१३५ मा ५२नु ५५ ४ थे(परमाणुपुग्गले, दुप्पएसिए तिप्पएसिए जाव दसपएसिए, संखिजपएसिए, असंखि. ज्जपएसिए, अणंतपएसिए) ५२५ पुस, विप्राः४५, विपशि२४५, દસ પ્રદેશી પર્યન્તના સ્કંધ, સંખ્યાત પ્રદેશીસ્કંધ, અસંખ્યાત પ્રદેશ અધ અને અનંત પ્રદેશી કંધ આ ક્રેમપૂર્વકની પુદ્ગલાસિતકાય સંબંધી જે આનYषी), (से त' पुव्वाणुपुत्री) तक पानुभूती ४७ हे.
For Private and Personal Use Only
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
न
बनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९९ पुद्गलास्तिकायमधिकृत्य द्रव्यत्रयनिरूपणम् ४३३ पूर्वी-अनन्तप्रदेशिकः असंख्येयमदेशिक संख्येयप्रदेशिकों यावद् दशपदेशिको यावत् त्रिप्रदेशिको द्विपदेशिकः परमाणुपुद्गलः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायामनन्तगच्छंगतार्या श्रेण्याम् अन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषाऽनानुपूर्वी । सैषा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । सैषा ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी । सैषा नोआगमतों म्यानुपूर्वी । सैषा द्रव्यानुपूर्वी ॥सू० ९९॥ टीका-'अहवा' इत्यादि
अथवा-पुनः पुद्गलास्तिकायमाश्रित्य औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी मयानुपूर्णनानुपूर्वी भेदेत्रिविधा प्रज्ञप्ता। तत्र-परमाणुपुद्गलो द्विप्रदेशिक इत्यादिक्रमेण-'अनन्तप्रदेशिकः' इति पर्यन्तं पूर्वानुपूर्वी। तथा-व्यु-क्रमेण 'अनन्तप्रदेशिकः' इत्यारभ्य 'परमाणुपुद्गलः' इति पर्यन्तं पश्चानुपूर्वी । अनानुकिाय संबंधी (से त पुव्वाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी है । (से किं तं पच्छा. गुपुवी) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है? ___ उत्तर- (पच्छाणुपुष्वी )पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से है-(अणंतपएसिए असखिज्जपएसिए, संखिज्जएएसिए जाव दसपएसिए जाव तिप्पएसिए दुप्पएसिए परमाणुगेग्गले ) जब पुद्गलास्तिकाय अनंत प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशिक, संख्यात प्रदेशिक, यावत् दशप्रदेशिक यावत् विनदेशिक विप्रदेशिक और परमाणुपुद्गल इस व्युत्क्रम से परिगणित हो तब (से तं पच्छाणुपुव्वी) वह पश्चानुपूर्वी है। (से किं तं अणाणुपुव्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी क्या है ? ___उत्तर-(अणाणुपुव्वी) अनानुपूर्वी इस प्रकार से हैं (एयाएचेव एगा. इयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए-अण्णमण्णन्भासो दुरू
प्रश्न-(से कि त पन्छाणुपुब्बी?) ३ सन् ! पश्चानुपूर्वानुं स्१३५ छ ?
उत्तर-(पच्छाणुपुब्बी) ५श्चानुपूवीर्नु भा २नु २१३५ छे-(अणंतपएसिए, असंखिजपएसिए, संखिज्जपएसिए जाव दसपएसिए जाव तिप्पएसिए, दुप्पएसिए, परमाणुपोग्गले) ब्यारे रतय मानत प्रशिक्ष, सस ખ્યાત પ્રદેશિક, સંખ્યાતપ્રદેશિક, દસપ્રદેશિક, નવપ્રદેશિક આદિ ત્રણ પ્રદેશિક પર્યન્તના સ્કલ્પરૂપે અને દ્વિપ્રદેશિક સ્કંધ અને પરમાણુ પુદ્ગલ, આ પ્રકારે Seel भथी परिशयित थाय छे, त्यारे (से त पच्छाणुपुवी तर ५श्वानु. પૂર્વ કહેવાય છે.
प्रश्न-(से कितअणाणुपुवी!) मग! मनानुषी नु२१३५३ हाय छ? उत्तर-(अणाणुपुव्वी) मनानुषी ने २१३५ मा प्रानुछे-(एयाए चेव म० ५५
For Private and Personal Use Only
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसने पूर्वी तु एकादिकायामेकोतरिकायाम् अनन्तगच्छगतायाम्-एकोत्तरवृद्धिमत्स्क; न्धानामनन्तत्वात् स्कन्धा अनन्तास्तेषां गच्छ: समुदायस्तं गता-माप्ता तस्यां तथाभूतायाम् एतस्यां परमाणुपुद्गलादारभ्य अनन्तप्रदेशपर्यन्तायामेव श्रेण्यां= पंक्ती, सा अन्योऽन्याभ्यासः परस्परगुणनरूपा द्विरूपोन: आद्यन्तस्थभङ्गद्वयरहिता च बोध्या।
नु यथैकः पुद्गलास्तिकायः पूर्वानुपूर्व्यादित्वेनोदाहृतः, तथैवान्येऽपि कयं नोदाहृताः ? इति चेत् , उच्यते-इह पूर्वानुपूर्यादिविचारे परमाण्वादिद्रव्याणां वृणो) जिसमें पुर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी ये दोनों नहीं हैं उसका नाम अनानुपूर्वी है यह पात पहिले कह दी गई है। इसमें विवक्षित पदों के अनन्तरोक्त क्रमवय को उलंघन करके परस्पर संभवित भंगा से उन पदों की विरचना की जाती है। उसमें सबसे पहिले एकप्रदेशी परमाणुपुद्गल की स्थापना की जाती है । फिर बादमें द्विप्रदेशी स्कंध आदि की । इस प्रकार एक एक २ प्रदेश की वृद्धि करते २ जब अनंत प्रदेशी स्कंधतक स्थापना हो चुकती है-तब इन सषकी श्रेणी बन जाती है। इस श्रेणी-पंक्ति में एकोत्तर वृद्धिवाले स्कंध अनंत हो जाते हैं। फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है । जो महाराशिरूप संख्या आती है उसमें आदि और अन्त के दो भंग करनेपर अनानुपूर्वी यन जाती है।
शंका-जैसे एक पुगद्लास्तिकाय पूर्वानुपूर्वी आदि रूपसे उदाहत एगाइयाए एगुत्तरियाए भणतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासा दुरुपूणो) मा પૂર્વનુપૂર્વી અને પક્ષાપૂવી, એ મને નથી, તેનું નામ અનાનુપૂર્વી છે, એ વાત પહેલાં પ્રકટ કરવામાં આવી ચુકી છે તેમાં વિવક્ષિત પદેના (પરમાણુ પુદ્ગલ આદિના) ઉપર્યુક્ત બને કમનો પરિત્યાગ કરીને પરસ્પર સંભવિત અંગે વડે તે પદેની વિરચના કરવામાં આવે છે. તેમાં સૌથી પહેલાં એક પ્રદેશી પરમાણુ પુદ્ગલની સ્થાપના કરવામાં આવે છે અને ત્યાર બાદ દ્વિદેશી સ્કંધ આદિની સ્થાપના કરાય છે. આ રીતે એક એક પ્રદેશની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં જયારે અનંત પ્રદેશી સ્કંધ સુધીની સ્થાપના થઈ જાય છે, ત્યારે તે બધાની એક શ્રેણી બની જાય છે. આ શ્રેણી–પંક્તિમાં ઉત્તરોત્તર એકની વૃદ્ધિવાળા સ્કંધ અનેક થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ પરસ્પરને ગુણાકાર કરવામાં આવે છે. આ આ રીતે જે મહારાશિ રૂપ સંખ્યા આવે છે તેમાંથી પહેલો અને છેલ્લે, એ બે ભંગ કમી કરવાથી અનાનુપૂર્વી બની જાય છે.
મ-જે રીતે એક પુગલાસ્તિકાયને ઉદાહરણ રૂપ લઈને તેની પૂર્વ
For Private and Personal Use Only
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९९ पुद्गलास्तिकायमधिकृत्य मेदत्रयनिरूपणम् ४३५
परिपाटयादिलक्षणः क्रमः प्रक्रान्तः । स च द्रव्यबाहुल्ये सत्येव संभवति । न चास्ति धर्मास्तिकाये, अधर्मास्तिकाये, आकाशास्तिकाये च पुद्गलास्तिकायवद् द्रव्यबाहुल्यम् एकैक द्रव्यत्वात्तेषाम् । जीवास्तिकाये त्वनन्तजीवद्रव्याणां सवाद
1
प्यस्ति द्रव्यबाहुल्यम्, तथापि परमाणुद्विमदेशिकादिषु यथा पूर्वानुपूर्वीत्वादिहेतुः पूर्वपश्चाद्भावो विद्यते, न तथा जीवद्रव्येषु प्रत्येकजीवस्यासंख्येयप्रदेशस्वेन सर्वजीवानां तुल्यप्रदेशत्वात् । परमाणुद्धिप्रदेशिकादिद्रव्याणां तु विषमप्रदेशिकत्वात् पूर्वपद्भावो विद्यते। तथा अद्धासमयस्यापि एकसमयरूपत्वादेव
हुआ है- उदाहरण से उपस्थित किया गया है वैसे ही अन्य धर्मस्ति काय आदि द्रव्य क्यों नहीं उदाहृत किये गये हैं ।
उत्तर- यहां पूर्वानुपूर्वी आदि के विचार में परमाणु आदि द्रव्यों का परिपाटीरूपक्रम प्रक्रान्त कथन में चलरहा है, सो वह क्रम द्रव्यकी बहुलता मे संभवित होता है-बन सकता है धर्मास्तिकाय में, अधर्मास्तिकाय में और आकाशास्तिकाय में पुगद्लास्तिकाय की तरह यह द्रव्यवाहुल्य नहीं है क्योंकि सब एकएक द्रव्यरूप माने गये हैं । यह यद्यपि जीवास्तिकाय में अनंत जीवद्रव्यों की सत्ता होने के कारण द्रव्यबाहुल्य है, परन्तु फिर भी परमाणुओं में एवं द्विप्रदेशी स्कंध आदिकों में जैसा पूर्वानुपूर्वी आदि कारणभूत पूर्व पश्चाद्भाव विद्यमान है वैसा जीवद्रव्यों में नहीं है। क्योंकि प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशवाला है। इसलिये समस्त जीवों में तुल्य प्रदेशता है परमाणुओं एवं द्विप्रदेशिक
નુપૂર્વી આદિનુ નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે ધર્માસ્તિકાય આદિ અન્ય દ્રાને ઉદાહરણરૂપે કેમ લેવામાં આવ્યાં નથી ?
ઉત્તર-અહી* પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના વિચાર કરતાં પરમાણુ આદિદ્રબ્યાના પરિપાટી રૂપ ક્રમ (અનુક્રમ) પ્રસ્તુત કથનમાં પ્રતિપાતિ થઈ રહ્યો છે. તેથી આ કથન દ્રવ્યની અહુતામાં જ સભવી શકે છે. ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય અને આકાશાસ્તિકાયમાં પુદ્ગલાસ્તિકાયની જેમ આ દ્રવ્યબાહુલ્યને સદ્ભાવ નથી, કારણ કે તેમને તે એક એક દ્રવ્યરૂપ માનવામાં આવેલ છે. જો કે જીવાસ્તિકાયમાં અનંત જીવદ્રબ્યાની સત્તા (અસ્તિત્વ) હાવાને કારણે દ્રવ્યખાહુલ્ય છે, પરન્તુ પરમાણુઓમાં અને દ્વિદેશી 'ધ આદિકામાં જેવા પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના કારણભૂત પૂપશ્ચાત્ ભાવ વિદ્યમાન છે, એવા જીવ દ્રવ્યેામાં નથી, કારણ કે પ્રત્યેક જીવ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા છે તેથી સમસ્ત જીવેામાં તુલ્ય (સમાન) પ્રદેશતા છે. પરમાણુએ અને દ્વિપ્રદેશિક આદિ બ્યામાં તે વિષમ
For Private and Personal Use Only
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारसले पूर्वानुपूर्वीत्वाद्यसंभवः, अतोऽत्र पुद्गलास्तिकाय एव पूर्वानुपूर्तीस्वादिकोदारता, नत्वन्ये धर्मास्तिकायादय इति। ___ तदेतदुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा अनानुपूर्वीति । औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी सम्पूर्णति सूचयितुमाह- से तं ओवणिहिया' इत्यादि । सैषा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीति । ज्ञायकशरीरमध्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वीसंपूर्णेति सूचयितुमाह-' से तं जाणयसरीरभवियसरीर वइरित्ता' इत्यादि-सैषा ज्ञायकमादि द्रव्यों में तो विषमप्रदेशिकता है इसलिये वहां पूर्वपश्चाद्भाव है। तथा जो अद्धासमय है वह एकसमयरूप है इसलिये उसमें भी पूर्वानु पूर्वी आदि संभवित नहीं हैं इसलिये पुगद्लास्तिकाय ही पूर्वानुपूवी
आदिरूप से उदाहृत किये गये हैं अन्य धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य नहीं। (से तं अणाणुपुव्वी) इस प्रकार यह अनानुपूर्वी है । (से तं ओवणिहिया दव्वाणुपुची ) यहांतक पूर्व प्रकान्त औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का कथन किया गया है । (से तं जाणयसरीरभवियसरीरवारिता दव्वाणुपुन्वी) इस प्रकार औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का कथन समास होते ही ज्ञायक शरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी समाप्त हो जाती है । (से तनो आगमओ दवाणुपुवी-से तं दवाणुपुन्वी) इस कथन की समाप्ति होते ही नोआगम को आश्रित करके जायमात द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप समाप्त हो जाता है । इसप्रकार यह द्रव्यानुपूर्वी है। પ્રવેશિકતા છે, તેથી ત્યાં પૂર્વપશ્ચાદ્ભાવ છે. તથા જે અદ્ધા સમય સંભવિત નથી તેથી પુદ્ગલાસ્તિકાયનું જ પૂર્વાનુપૂર્વી આદિ રૂપે ઉદાહરણ આપવામાં આવ્યું છે, અન્ય ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યોનું તે પ્રકારે ઉદાહરણ આપવામાં मा०यु नथी. (से त अणाणुपुत्री) 0 Rनु मनानुभूतीन २१३५ छे. (से त ओवणिहिया दव्वाणुपुव्वी) मी सुधीमा पूर्व प्रस्तुत भोपनिधिही द्रव्यानुपूवी ४थन ४२वामा माय छे. (से तं जाणयसरीरभवियसरीरषडरित्ता दव्वाणुपुव्वी) मा रीते भोपनिधिsी द्र०यानुभूती ४ ४थन ५३ यतi જ, જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનુવનું વર્ણન પણ मी समास थाय छे.
(से त' नोआगमओ दुधाणुपुत्री-से त दवाणुपुत्री) मा यननी સમાપ્તિ થઈ જવાથી નાઆગમને આધારે જે દ્રવ્યાનુપૂવી બને છે તેના સ્વરૂપના નિરૂપણની પણ સમાપ્તિ થઈ જાય છે. આ પ્રકારનું આ द्रव्यानुयूवा न २१३५ छे.
For Private and Personal Use Only
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका ठीका सूत्र ९९ पुद्गलास्तिकायमधिकृत्य मेदत्रयनिरूपणम् । शीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्तीति। नोभागमतो द्रव्यानुपूर्वी संपूर्णेत्रि सचयितुमाह-' से तं नो आगमओ' इत्यादि-सैषा नो आगमतो द्रव्यानुपूर्वी त्रि। व्यानुपूर्वी सम्पूर्णेति सूचयितुमाह- से तं' इत्यादि-सैषा द्रव्यानुपूर्वीति।सू.१९॥
भावार्थ-इस सूत्रधारा सूत्रकारने पुद्गल द्रव्य को लक्ष्य करके औपनि त्रिकी द्रव्यानु पूर्वी की विविधता उसपर घटित की है। यह तो पहिले से
ज्ञात हो चुका है कि विवक्षित द्रव्य विशेष के समुदाय में जो प्रथम ख्य है उससे लेकर क्रमशः अन्तिम द्रव्यतक जो परिपाटी स्थापित की जाती है वह आनुपूर्वी है। यहां पुद्गलद्रव्य के ऊपर सूत्रकार को यह घटित करनी है, अतः वे उसके एकमदेश से लेकर क्रमशः अनन्त प्रदेशी स्कंध तक बनाते हैं । इस प्रकार एकादेशी पुगलपरमाणु यंद पुद्रलास्तिकाय द्रव्य का प्रथम द्रव्य जानना चाहिये। इसके बाद एक प्रदेशोत्सर वृद्धि करते चला जाना चाहिये । इससे विप्रदेशी स्कंध सिप्रदेशी स्कंध, चतुष्पदेशी स्कंध पंच प्रदेशी स्कंध, आदि अनंत प्रदे. श्री स्कंध तक अनंत पोद्गलिक स्कंध बन जाते हैं । तब इनकी स्थापना इस प्रकार से की जाती है-एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल, दिप्रदेशी स्कंध व्यणुक, त्रिप्रदेशी व्यणुक चतुष्प्रदेशी स्कंध चतुरणुक इत्यादि । इस प्रकार की यथाक्रम की गई यह स्थापना पूर्वानुपूर्वी है। तथा इसी स्थापना
ભાવાર્થ-આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે પુગલ દ્રવ્યને અનુલક્ષીને ઔપનિધિ કી દ્રવ્યાનુપૂર્વીની વિવિધતાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે એ વાત તે પહેલાં પ્રકટ થઈ ચુકી છે કે વિવક્ષિત દ્રવ્યસમુદાયમાં જે પહેલું દ્રવ્ય હોય તે દ્રવ્યથી શરૂ કરીને અનુક્રમે છેલા દ્રવ્ય સુધીની જે પરિપાટી (અનુક્રમ) સ્થાપિત કરવામાં આવે છે, તેનું નામ આનુપૂર્વી છે. અહીં પુદ્ગલ દ્રવ્ય સાથે સૂત્રકાર તે આનુપૂવને ઘટાવવા માગે છે તેથી તેમણે તેના એક પ્રદેશથી લઈને અનંતપ્રદેશ સુધીના અનંત સ્કંધ બનાવ્યાં છે. આ રીતે એક પ્રદેશી મુગલ પરમાણુને પુલાસ્તિકાયનું પ્રથમ દ્રવ્ય સમજવું જોઈએ ત્યાર બાદ એક એક પ્રદેશની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં આગળ વધવું જોઈએ. આ રીતે પ્રિદેશી સ્કંધ, ત્રિપ્રદેશ સ્કંધ, ચાર પ્રદેશી સ્કંધ, પાંચ પ્રદેશી અંધ આદિ અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના અનંત પૌગલિક ધ બની જાય છે. ત્યારે તેમની સ્થાપના આ પ્રમાણે કરવામાં આવે છે-એક પ્રદેશપરમાણુ યુદ્ધલ, દ્વિશી મધ દ્વચક, ત્રિપ્રદેશી કંધ ત્રિઅણુક, ચતુષ્પદેશી આંધ ચતુરણુક, ઈત્યાદિ
આ પ્રકારના સીધા ક્રમપૂર્વક જે સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેનું નામ પણwવી છે. એજ સ્થાપનામાં છેલ્લા દ્રવ્યને અનપ્રદેશ ધને લે
For Private and Personal Use Only
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारा में जय अन्तिमादि द्रव्य को प्राथमिक रूप देकर व्युत्क्रम से स्थापित किया जाता है तो वही पश्चानुपूर्वी कहलाती है तथा स्वेच्छानुसार क्रमव्युत्क्रम का उल्लंघन करके पुद्गलास्तिकाय के द्रव्यों का जो स्थापना करना होता है वह अनानुपूर्वी है। जैसे इसे यों समझना चाहिये कि चतुरणुक के बाद एकप्रदेशीपुद्गल परमाणु का, इसके बाद षट्प्रदे सी पुद्गलस्कंध का इसके बाद असंख्यात प्रदेशी स्कंध आदि कास्थापन करना आदि । ज्ञायकशरीरभयशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी पहिले दो प्रकार की मूत्रकार ने कही है इसमें अनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के विषय में सूत्रकार ने बहुत अधिक विस्तृत विवेचन किया है। औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी आदि के मेद से यह तीन प्रकार की कही गई है। एक पुद्गलास्तिकाय के ऊपर जो पूर्वानुपूर्वी आदि की घटना सूत्रकार ने कही है उसका कारण यह है कि उनमें ही द्रव्यषष्टलता है। "आकाशादेकद्रव्याणि" अर्थात्-आकाश पर्यन्तके तीन द्रव्य-अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और आकाशास्तिकाय ये तीनों द्रव्य एक द्रव्य वाले होते हैं, तदनुसार धर्मास्तिकाय आदि तीम મૂકીને ઉલટા ક્રમથી જ્યારે દ્રોને સ્થાપિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેને પશ્ચાતુપૂવ કહે છે તથા ઉપરના બને કેમનું ઉલ્લંઘન કરીને પિતાની ઈચ્છાનુસાર જુગલસ્તિકાયના દ્રવ્યોની જે સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેને અનાનુપૂર્વી કહે છે. જેમ કે ચતુરણુક સ્કંધની પહેલાં સ્થાપના કરવી, ત્યાર બાદ એક પ્રદેશી યુગલ પરમાણુની, ત્યાર બાદ છ પ્રદેશી પુદ્ગલ સ્કંધની સ્થાપના કરવી, ત્યાર બાદ અસંખ્યાત પ્રદેશ સ્કંધ આદિની સ્થાપના કરવી તેનું નામ અનાનુપૂર્વી છે. જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનુપૂર્વીના સૂત્રકારે બે પ્રકાર પહેલાં પ્રકટ કર્યા છે. તેમાંના અનૌપનિપિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી નામના બીજા પ્રકારનું તે ખૂબ જ વિસ્તારપૂર્વક પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. આ ઔપનિધિકી દ્રવ્યાપૂવીના પર્વનુપૂર્વી આદિ ત્રણ ભેદનું નિરૂપણ પણ પહેલાં સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. ત્યાર બાદ સૂવકારે એક પુદ્ગલાસ્તિકાયના પૂર્વાનુપૂર્વી આદિ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે, પણ ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રામાં એ પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું નથી, કારણ કે પગલાસ્તિકાયમાં જ દ્રવ્યબાહુલ્યને સદૂભાવ-ધર્માસ્તિકાય આદિમાં દ્રવ્યબાહુલ્ય નથી. "आकाशादेकद्रव्याणि" मा ४थन अनुसार यस्ताय माहि त्रय व्योमi.
For Private and Personal Use Only
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०० क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् इत्थं द्रव्यानुपूर्वीमुक्त्वा सम्पति क्षेत्रानुपूर्वीमाह
मूलम्-से किं तं खेत्ताणुपुठवी ? खेत्ताणुपुवी दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-ओवणिहिया य अणोवणिहिया य। तत्थ णं जा सा
ओवणिहिया सा ठप्पा। तत्थणं जासाअगोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-णेगमववहाराणं १, संगहस्स २ य ॥सू०१००॥
छाया-अथ का सा क्षेत्रानुपूर्वी ? क्षेत्रानुपूर्वी द्विविधा प्राप्ता, तद्यथाऔपनिधिको च अनौपनिधिकी च । तत्र खलु या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या। द्रव्यों में द्रव्य बहुलता नहीं है। जीवास्तिकाय में यद्यपि द्रव्य बाहुल्य हैपरन्तु पुद्गल की तरह वह द्रव्य पाहुल्य एक २ जीव द्रव्य में क्रमशः नहीं है, क्योंकि प्रत्येक जीवद्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं । इस प्रकार इस कथन के समाप्त होते ही नो आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप कथन समाप्त हो जाता है। सू०९९॥
अब सत्रकार क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते हैं_ "से कि तं खेसाणुपुन्वी" इत्यादि ।
शब्दार्थ- (से किं तं खेत्ताणुपुव्वी) हे भदन्त ! क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
उत्तर-(खेताणुपुम्वी दुविहा पण्णता) क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे (मोषणिहिया यभणोवणिहिया य)१ औपनिधिको દ્રવ્યબાલ્યને અભાવ છે. જીવાસ્તિકાયમાં બે કે દ્રવ્યબાહુલ્ય છે ખરું, પરતું પાગલની જેમ તે વ્યબાહુલ્ય એક એક છવદ્રવ્યમાં કમશઃ નથી, કારણ કે જીવદ્રવ્ય અસંખ્યાત પ્રદેશ છે. આ રીતે આ કથન સમાપ્ત થઈ જતા આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપવીના સ્વરૂપનું કથન સમાપ્ત થઈ જાય છે. સૂ૯યા
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે– " से कि त खेत्ताणुपुब्बी" त्या
साथ-(से कि खेतागुपुन्नी !) हे भगवन्! त्रानुभूतीन ५१३५१
उत्तर-(खेत्ताणुपुत्वो दुषिहा पण्णत्वा) त्रानुभूती' में प्रा२नी ४00(तंजहा) ते २ रे नी प्रभा -(गोवणिहिया य अणोषणिहिया) (१)
For Private and Personal Use Only
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तत्र खलु या सा अनौपनिधिकी सा द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः१, संप्रहस्य २ च ॥९० १००॥
टीका--' से कि तं' इत्यादि
व्याख्या पूर्ववद् बोध्या ॥मू० १००॥ क्षेत्रानुपूर्वी, दूसरी अनोपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी। (तत्थ णं जा सा ओवणिहियासी ठप्पा) इनमें जो औपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी है वह अल्प विषयवाली होने के कारण अर्थात् उसका विषय विशेष विवेचना करने के योग्य न होने से-इस समय व्याख्या नहीं की जाती है । तात्पर्य कहने का यह है कि प्रथम नंबर की होने के कारण सूत्रकार को सबसे पहिले औक विधि की क्षेत्रानुपूर्वी का विवेचन करना कर्तव्य है। परन्तु ऐसा न करके वे पहिले अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी का जो विवेचन करेंगे इसका कारण यह है कि औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी को विषय विशेष वक्तव्य के योग्य नहीं है । क्यों कि उसका विषय अल्प है। इसलिये (तस्थणं जा साअणोवणिहिया सादुविहा पण्णत्ता) इनदोनों आनुपूर्वियों में जो अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्ण है उसका विस्तृत विवेचन करने के अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं कि वह दो प्रकार की कही गई है। (क्त जहा ) वे उसके प्रकार ये हैं-(णेगमववहाराणं १ संगहस्स २) एक भोपनिषिी क्षेत्रानुभूती', मने (२) मनोपनिधिही क्षेत्रानुभूती (तत्थण जा मा भोवणिहिया मा ठप्पा) तमाथी रे मोपनिषिी क्षेत्रावी छते १५ વિષયવાળી હોવાને કારણે એટલે કે તેને વિષય, વિશેષ વિવેચન કરવા યોગ્ય નહીં હેવાને કારણે, તેનું નિરૂપણ સૂત્રકાર આ સૂત્રમાં કરશે નહીં પણ પાછળના સૂત્રમાં કરશે જે કે ક્રમ અનુસાર તે તે પહેલી હેવાથી તેનું નિરૂપણ પહેલાં થવું જોઈએ પરંતુ સૂત્રકારે અહીં અનૌપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂવનું નિરૂપણ પહેલાં કર્યું છે કારણ કે ઓપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીને વિષય અલ્પ હોવાથી તેનું વિશેષ વક્તવ્ય કરવાનું નથી. પરંતુ અનોપનિધિકી ક્ષેત્રાનુવને વિષય વિસ્તૃત વિવેચન કરવા ગ્ય છે. તેથી સૂત્રકાર અહીં પહેલાં अनोपनिधि: द्रव्यानुपूर्वानु नि३५५५ ४९ छे 3-(तत्थ ण जा मा अणोबाणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता) त भन्ने भानुपूवी सोमानी २ मनीपानाही क्षेत्रानुपूर्वा छे तेना मे ॥२ ४६॥ छ. (तंजहा) ते ॥२॥ नाय प्रमाणे(गैगमववहाराण, संगहस्स) (१) नामव्यवहार नयभत मनोपनिविही क्षेत्रा.
For Private and Personal Use Only
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०१ क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम्
तत्र नैगमव्यवहारसम्मता क्षेत्रानुपूर्वी निरूपयितुमाह- मूलम्-से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी? णेगमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुची पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-अत्थपयारूवणया१,भंगसमुक्त्तिणयार,भंगो पदसणया३, समोयारे४, अणुगमे ॥सू० १०१॥ - छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी १ नेगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अर्थपदमरूपगतार, भंगसमुत्कीर्तनता२, भंगोपदर्शनता३, समवतार:४, अनुगमः५॥सू.१०१॥
टीका-से कि तं' इत्यादि
अथ का सा नैगमव्यवहारसम्मता अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी ? इति शिष्य मना। उत्तरमाह-'नेगमववहाराणं अणोरणिहिया' इत्यादि। नैगमव्यवहारयोः नैगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी और दूसरी संग्रहनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी। इस सूत्र की व्याख्या पहिले की तरह जाननी चाहिये ॥ सू० १०० ॥ अब नैगमव्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी का कथन सूत्रकार करते है"से कि तं गमयवहाराणं" इत्यादि । - शन्दार्थ-हे भदन्त ! नेगम और व्यवहारनय संमत अनोपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? । उत्तर-(अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) अनौपनिधिकी क्षेत्रानु पूर्वीका स्वरूप इस प्रकार से है-(पंचविहा पण्णत्ता) यह नैगमव्यवहारनयसंमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पांच प्रकार की कही गई है। (तं जहा) वे प्रकार ये है-(अस्थपयपरूवणया १ भंगसमुक्कित्तणया નમૂવી (૨) સંગ્રહનયસંમત અનૌપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વી આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગળ કહ્યા પ્રમાણે સમજવી. સૂ૦૧૦૦
હવે સરકાર નિગમવ્યવહાર સંમત ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે"से किं तं गमववहाराण" त्याह
શબ્દાર્થ–પ્રશ્ન-હે ભગવન! નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનોપનિ. ધિકી ક્ષેત્રાનુપૂવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणोवणिहिया खेवाणुपुव्वी) अनीपतिविही क्षेत्रानुभूतीन १३५ भानु -(पंचविहा पण्णत्ता) मा नाम अने व्यवसारनयस मत भापनि क्षेत्रानुषी पाय मारनी ही छे. (तंजहा) प्रहा। नये प्रभा -(मत्यपयपरूवणया, भंगसमुक्तिणया, भंगोवदसणया, समोयारे, बशु.
For Private and Personal Use Only
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
VER
enginee
अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीक्षेत्रविषया आनुपूर्वी पश्चविधा मझसा, तद्यथा अर्थ पदरूपणा, भत्कीर्त्तनता २, भङ्गोपदर्शनता ३, समवतारः ४, अनु गम ५, इति ॥ १०१ ॥
मूलम् - से किं तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया ? गम! ववहाराणं अडपयपरूवणया तिप्पएसोगादे आणुपुवी जाव दसपपसोगाढे आणुपुब्बी जाव संखिजपए सोगाढे आणुपुव्वी असंखिजपएसोगाढे आणुपुवी । एगपएसोगाढे अमाणुपुव्वी । दुष्परसोगाढे अवतव्वए तिप्पएसोगाढा आणुपुवीओ जाव दसपपसोगाढा आणुपुब्बीओ जाव असंखिजपएसोगाढा आणुपुवीओ। एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीभो । दुप्पएसोढा अवस व्वाई। से तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया ॥सू० १०२॥
छाया - अथ का सा नैगमव्यबहाराणाम् अर्थपदपरूपणता ? नैगमव्यवस राणाम् अर्थपदप्ररूपणता - त्रिपदेशावगाढ आनुपूर्वी यावद् दशप्रदेशावगाढ आनु २, भंगोवदंसणया ३, समोयारे ४, अणुगमे) अर्थपदप्ररूपणता भंगस समुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता, समावतार और अनुगम इन सब शब्दों की व्याख्या पीछे ७४ वें सूत्रमें की जा चुकी है । सू० १०१ ॥
f
अब सूत्रकार नैगमव्यहारमय संगत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का जो प्रथम भेद अर्थपदप्ररूपणता है उसका कथन करते हैं"से किं तं गमववहारा" इत्यादि ।
शब्दार्थ- 'से किं तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया?' हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनय संमत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ?
गमे) (१) अर्थ अ३पता, (२) भगसभुडीत नवा (3) भगोयहर्शनता, ' (૪) સમવતાર, અને (૫) અનુગમ આ પાંચે શબ્દોની વ્યાખ્યા આગળ ૭૪માં સૂત્રમાં આપવામાં આવી છે તે ત્યાંથી વાંચી લેવી, પ્ર૦૧૦૧
હવે સૂત્રકાર નૈગમવ્યવહારનયસ'મત અનૌપનિષિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના અથ પદપ્રરૂપણુતા નામના પહેલા ભેદનુ નિરૂપણ કરે છે—
" से किं तं णेगमववहाराणं " त्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणया १) हे भगवन् ! નામ અને વ્યવહાર નચસ'મત અપપણુતાનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
For Private and Personal Use Only
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
agalrefront der सूत्र १०२ अर्थपदप्ररूपणा
पूर्वी यावत्संख्येयप्रदेशावगाढः - आनुपूर्वी असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी । एकप्रदेशावगाढः अनानुपूर्वी । द्विपदेशावगाढः अवक्तव्यकम् । त्रिपदेशावगाढा आलुपूर्व्यं यावद् दशप्रदेशावगाढा आनुपूर्व्यो यावद् असंख्येयप्रदेशावगाढा आनुपूर्व्यः। ( गमववहाराणं अस्थपथपरूवणया )
ॐ
उत्तर- नैगमपव हारन संमत अर्थपद प्ररूपणता का स्वरूप इस प्रकार से है- ( तिप्पएसागाढे आणुपुब्बी, जाव दसपएसोगाढ़े आणुपुवी जाव संखिज्जपए सोगाढे आणुपुवी, असंखिज्जपएसो गाडे आणुपुवी ) त्र्यणुक स्कंध आदि रूप अर्थ से युक्त अथवा व्यणुक स्कंध आदिरूप अर्थ को विषय करनेवाला जो पद है उसका नाम अर्थपद है । इस अर्थ की प्रवणता करने का नाम अर्थपदप्ररूपणा है । तीन आकाश प्रदेश में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है । यावत् दश आकाश प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है यावत् संख्यात आकाश प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है। असंख्यात आकाश प्रदेशों में स्थित
स्कंध आनुपूर्वी है । ( एगपएसो गाढे अणाणुपुत्री, दुष्पएसीगाढेअवतore) एक प्रदेश में स्थित परमाणु द्रव्ध अनानुपूर्वी हैं। दो प्रदेश में स्थित द्वणुक स्कंध अवक्तव्यक द्रव्य हैं । (तिप्पएसोगाढा आणुपुच्चीओ जाव दसपएसोगाढा आणुपुथ्वीओ जाव असंखिज्जपएसोगाढा आणुपुथ्वीओ ) तीन आकाश प्रदेशों में स्थित समस्त द्रव्यस्कंध तीन
उत्तर- (गमववहाराण अस्थपयपरूवणया) नैगभव्यवहार नयस'भत अर्थ - પદપ્રરૂપણાનુ' સ્વરૂપ આ પ્રકારનુ છે—
( तिप्पोगाढे आठवी, जाव दसपएसोगाढे आणुपुब्बी जाव संखिज पएसोगाढे आणुव्वी, असंखिज्जप रसोगाढे आणुपुब्बी) त्रिमलुङ सुध माहि રૂપ અર્થ (વિષય) થી યુકત અથવા ત્રિઅણુક કોંધ આદિ રૂપ અનુપ્રતિ. પાદન કરનારૂ' જે પદ્મ છે તેનું નામ અ પદપ્રરૂપણુતા છે. ત્રણ અાશ પ્રદેશેામાં રહેલા દ્રવ્યષ આનુપૂર્વી રૂપ છે, એજ પ્રમાણે દશ પર્યન્તના, સખ્યાત પર્યન્તના અને અસખ્યાત પર્યન્તના આકાશપ્રદેશમાં રહેલ દ્રવ્ય' १४५ यासु यानुपूर्वी ३५ छे. ( एगपएसो गाढे अणाणुपुच्वी, दुष्पपसोगाढे अवत-' પ) એક આકાશપ્રદેશામાં સ્થિત પરમાણુ દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી રૂપ છે. એ આકાશપ્રદેશમાં સ્થિત પરમાણુ સ્કંધ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપ છે.
( तिप्पएसोगाढा आणुपुब्बी जाव दसपरसोगाढा आणुपुव्वीओ, जाव असंजिपसोगाढा आणुपुब्बीओ) ऋभु मांशप्रदेशामा रहेला समस्त इक्य
For Private and Personal Use Only
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारले एकप्रदेशावगाढा अनानुपूर्व्यः। द्विपदेशावगाढा अवक्तव्यकानि । सैषा नैगमव्यव. हारयोः अर्थपदमरूपणता ॥सू० १०२॥
टीका-तत्रार्थपदमरूपणतां निरूपयितुमाह-'से कि तं' इत्यादि-अथ का सा नैगमव्यवहारसम्मताऽर्थपदमरूपणता? इति। उत्तरमाह-'णेगमववहाराणं' इत्यादि । नैंगमव्यवहारयोरर्थपदमरूपणता-'त्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी यावद् दशमदेशावगाठ आनुपूर्ण' इत्यारभ्य 'द्विमदेशावगाढा अवक्तव्यकानि' इत्यन्ता योध्या। द्रव्यानुपूर्वीवदत्रापि व्याख्या विज्ञेया। अयमत्र विशेष:-त्रिप्रदेशावगाढा त्रिषु नभः प्रदेशेषु अवगाढा स्थितः, त्रिप्रदेशावगाढः-त्रिप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्धः। स ध्यणुकादिकोऽनन्ताणुकपर्यन्तो द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी।
ननु यदि द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी, कथं तर्हि तस्य क्षेत्रानुपूर्वीत्वम् ? इति चेत्, उच्यते-क्षेत्रप्रदेशत्रयावगाहपर्यायविशिष्टोऽसौ द्रव्यस्कन्धो गृह्यते, न तु आनुपूर्वी है । यावत् दश प्रदेशों में स्थित समस्त द्रव्यस्कंध दश आनु. पूर्षियां हैं। यावा असंख्यात प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध असंख्यात आनुपूर्षियां हैं। ( एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ! दुप्पएसोगाढा भवत्सव्वयाई) आकाश के एक २ प्रदेश में स्थित एक पुद्गलपरमाणु संधा. त आदि अनानुपूर्षियां हैं। दो प्रदेश में स्थित व्यणुक द्रव्यस्कंध आदि अवक्तव्यक द्रव्य हैं । यह सूत्रपदों का अर्थ हैं इनकी व्याख्या के लिये देखो ७५ वां सूत्र ।
शंका-त्रिप्रदेशावगाही द्रव्यस्कंध से लेकर अनंताणुक पर्यन्त स्कंधद्रव्य आदि अनानुपूर्वी रूप है तो उसमें क्षेत्रानुपूर्वी रूपता कैसे बन
ક ત્રણ આનુપૂર્વીએ રૂપ હોય છે, એ જ પ્રમાણે દસ પર્યાના પ્રદેશમાં સ્થિત સમસ્ત દ્રવ્યરક દશ પર્વતની આનુપૂર્વીએ રૂપ હોય છે, સંખ્યાત પ્રદેશમાં સ્થિત સમસ્ત દ્રવ્યસ્ક ધ સંખ્યાત આનુપૂવી એ રૂપ અને અસંખ્યાત આકાશપ્રદેશમાં સ્થિત સમસ્ત દ્રવ્યસ્ક ધ અસખ્યાત मानुषी । ३५ डाय छे. (एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ, दुप्पएसोगाढा अवसव्वयाइ) मशन 28 मे प्रदेशमा स्थित प्रत्ये। पुगिस५२मा ३५ સમુદાય અનાનુપૂર્વી એ રૂપ છે. બે આકાશપ્રદેશમાં રહેલા ચણક દ્રવ્ય સ્ક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપ છે. આ પ્રકારને સૂત્રપદને અર્થ થાય છે. તેમની વ્યાખ્યા ૭૫માં સૂત્રમાં આપી છે. . શંકા-ત્રિપ્રદેશાવગાહી દ્રવ્યસ્કંધથી લઇને અનંતાણુક પર્યન્તના દ્રવ્યકક આનુપૂર્વી રૂપ હોય તે તેમાં ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપતા કેવી રીતે સંભવી
For Private and Personal Use Only
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०२ अर्थपदप्ररूपणा
तदविशिष्टः, अतोऽत्र क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारात् क्षेत्रावगाह पर्यायस्य प्राधान्यात् सोऽपि क्षेत्रानुपूर्वीति न दोषः । अयं भावः - क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारादेवात्र प्रदेशत्रयलक्षणस्य क्षेत्रस्यैव मुख्यं क्षेत्रानुपूर्वीत्वम् । एवं च तदवगाढं द्रव्यमपि तत्पर्यायस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् क्षेत्रानुपूर्वीत्वेन न विरुध्यते इति ।
"
सकती है? क्योंकि क्षेत्रानुपूर्वी रूपता तो प्रदेश व्यादिरूप क्षेत्र के साथ संबन्ध रखती है saणुकादि पुल स्कंधों के साथ नहीं । शंकाकार का अभिप्राय यह है क्षेत्रानुपूर्वीका जब यहां प्रकरण चलरहा है तो उसमें पुल द्रव्यानुपूर्वी के विचार करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर - यहाँ जो त्रिप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कंत्र को अनानुपूर्वी कहा है। सो उसका तात्पर्य आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाहरूप पर्याय से विशिष्ट द्रव्यस्कंध से हैं। तीन पुद्गलपरमाणुवाले द्रव्यस्कंध अकाशरूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों को रोक कर रहते हैं। अतः आकाशके तीन प्रदेश. में अवगाही द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है, ऐसा जानना चाहिये। वैसे तो क्षेत्रा
पूर्वी का अधिकार चला आरहा है इसलिये मुख्य रूप से क्षेत्रानुपूर्वी तो तीन प्रदेशरूप क्षेत्र ही है। इस प्रकार मुख्यरूप से क्षेत्रानुपूर्वी रूपता तीन प्रदेशरूप क्षेत्र में विवक्षित होने पर भी जो तदवगाढ- तीन प्रदेश रूप क्षेत्रावगाही द्रव्य को क्षेत्रानुपूर्वी कहा है वह क्षेत्रावगाह रूप पर्याय
શકે છે ? ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપતા તા પ્રદેશત્રયાદિરૂપ ક્ષેત્રની સાથે સબંધ રાખે -ત્રિઅણુક પુદ્ગલકધાની સાથે સંબંધ રાખતી નથી શકાકર્તાના એવા અભિપ્રાય છે કે અહી' જ્યારે ક્ષેત્રનુપૂર્વીના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, ત્યારે પુદ્ગલ દ્રવ્યાનુપૂર્વી ના વિચાર કરવાની શી આવશ્યકતા છે ?
ઉત્તર-અહી* જે ત્રણ પ્રદેશની અવગાહનાવાળા દ્રવ્યકધને આનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં આવ્યા છે, તેના અથ અહીં આ પ્રમાણે સમજવા જોઇએ-ત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહના રૂપ પર્યાયથી યુક્ત દ્રવ્યકધને અહી. આનુપૂર્વા રૂપ કહેલ છે-ત્રણ પુદ્દગલ પરમાણુવાળા દ્રવ્યકધને નહી. તે ત્રણ પુદ્ગલ પરમાણુવાળા દ્રવ્યકધા આકાશ રૂપ ક્ષેત્રના ત્રણ પ્રદેશને શંકીને રહે છે, તેથી આકાશના ત્રણ પ્રદેશેામાં અવગાહી (રહેલે) દ્રવ્યસ્ક ધ આનુપૂર્વી રૂપ છે, એમ સમજવુ', જો કે અત્યારે તે અહી' ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, અને મુખ્યત્વે ક્ષેત્રાનુવી તે ત્રણ પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્ર જ છે. આ રીતે ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપતા મુખ્યત્વે ત્રણ પ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં વિવક્ષિત ડાવા છતાં પણ જે ત્રણ પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રાવગાહી દ્રવ્યને ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં આવ્યુ છે, તે
For Private and Personal Use Only
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुपमद्वारसूर्य
"
श्री ननु यदि क्षेत्रस्यैव मुख्यं क्षेत्रानुपूर्वीत्वं तहिं कथं तत् परित्यज्य तद यस्यानुपूर्वी स्वादिकं चिन्त्यते १ इति चेत्, उच्यते-' संतपयपरूवणया' इस्पाकि वक्ष्यमाणव हुतर विचारविषयत्वेन द्रव्यस्य शिष्यमतिव्युत्पादनार्थत्वात् क्षेत्रस्व तु नित्यत्वेन सदावस्थितमानत्वादचलत्वाच्च प्रायस्तत्रानुपूर्व्यादि कल्पना करणे शिष्यबुद्धेः सम्यक् प्रवेशाभावात् तत्रानुपूर्वीत्वादिकं न चिन्त्यने, अतोऽत्र क्षेत्राव गाढद्रव्यमेव क्षेत्रानुपूर्वीत्वेनोक्तमिति नास्ति कश्चिद् दोषः । एवं चतुष्यदेशाऽत्रगाढद्रव्यादिष्वषि बोध्यम् । 'असंख्येयपदेशावगाढ आनुपूर्वी ' इत्यस्य असंख्येयः को प्रधानता से विवक्षित होनेके कारण से कहा है। अतः द्रव्य में भी उपचार से क्षेत्रानुपूर्वी रूपता विरुद्ध नहीं पड़ती है।
शंका- जब क्षेत्र में ही मुख्य रूप से क्षेत्रानुपूर्वी रूपता है तो फि क्या ऐसा कारण है जो इस मुख्य रूपता का परित्याग कर उपचार को शरण करके तदवगाही द्रव्य में क्षेत्रानुपूर्वी का विचार किया जारहा है ?
उत्तर (संतपयपरूवणया) आदि रूप वक्ष्यमाण बहुतर विचार का विषय द्रव्य होता है और इसी के विचार से शिष्यों की मति व्युत्पन्न बनती है। क्षेत्र तो मित्य है तथा सदा अवस्थित है अचल है इसलिये : प्रायः करके उसमें आनुपूर्वी आदि की कल्पना करने में शिष्यजन की बुद्धिका अच्छी तरह प्रवेश नहीं हो सकता है। इसलिये वहां पर आनु पूर्वी आदि का विचार नहीं किया है। अतः यहाँ पर क्षेत्रावगाही द्रव्य ક્ષેત્રાવગાહ રૂપ પર્યાય મુખ્યત્વે વિક્ષિત હાવાને કારણે કહ્યુ` છે. તેથી દ્રવ્યમાં પશુ ઔપચારિક રૂપે ક્ષેત્રનુપૂર્વી રૂપતા વિરૂદ્ધ પડતી નથી.
શકા—જો ક્ષેત્રમાં જ મુખ્યત્વે ક્ષેત્રાનુપૂર્વીતાના સદૂભાવ હોય તે શા કારણે આ મુખ્યરૂપતાના પરિત્યાગ કરીને ઔપચારિક્તાના આધાર લઈને તહનગાહી (તેમાં મવગાહિત થયેલા રહેતા) દ્રશ્યમાં ક્ષેત્રાનુપૂર્વી ના વિચાર કરવામાં આવી રહ્યો છે ?
ઉત્તર-સપદપ્રરૂપશુતા આદિ રૂપ નીચે દર્શાવેલા ઘણા વિચારાના ક્રિષ્ણ દ્રવ્ય હોય છે, અને તેના જ વિચારથી શિષ્યેની મતિ વ્યુત્પન્ન અને છે. ક્ષેત્ર તા નિત્ય છે તથા સદા મવસ્થિત છે, અને અચલ છે. તેથી સામાન્યતઃ તેમાં માનુવી આતિની કલ્પના કરવાથી એ વાત શિષ્યાના મગજમાં સારી રીતે ઉતરી શકતી નથી તેથી તેને અનુલક્ષીને અાદિના વિચાર કરવામાં આત્મ્ય નથી અહી તા ક્ષેત્રાવગાહી દ્રવ્યને ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપે પ્રકટ કરવામાં
For Private and Personal Use Only
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रका टीका सूत्र १०२ अर्थपदप्ररूपणा पदेशेषु अवगाहोऽसंख्येयाएकोऽमन्ताको वा द्रव्यस्कन्धा, इत्यों बोदव्या। अद बोध्यम्-एक परमाणुः आकाशस्य एकस्मिन्नेव प्रदेशेऽक्माहते, विप्रदेशिकादोऽसंख्यातपदेशिकान्तास्तु कन्या प्रत्येक जपन्यत एकस्मिनाकाशमशे. ऽवगाहन्ते, उत्कृष्टतस्तु यत्र स्कन्धे यावन्तः परमाणवो भवन्ति स स्कन्धस्तास्तो नमः शेणगारते । अनन्तामुकतन्धोऽपि जघन्यत एकस्मिनमःप्रदेश माइते, उत्कृष्टतस्तु-असंख्येष्वेव आकाशपदेशेष्ववगाहते, नवनन्सेपु, काकायस्यासंख्येयप्रदेशत्वाद, भोकाकाशे च द्रव्यस्थावगाहाभावादिति । तथा
क्षेत्रानुपूर्वी से कहा है। इसमें कोई दोष नहीं है। इसी प्रकार से पतुष्प्रदेशावगाढ द्रव्य आदिकों के विषय में भी ऐसा हो जानना चाहिये। - "असंख्येयप्रदेशावमाढ आनुपूर्वी" इस पद का अर्थ आकाश के मसरूपात प्रदेशों में असंख्यात अणुबाला अयका अनंत अणुवाला द्रव्यस्कर आनुभवी है ऐसा जानना चाहिये । तात्पर्य इसका यह है कि एक फोलपरमाणु आकाश के एकही प्रदेश में अवगाही होता है। परन्तु दो मदेशवाले पुदगलसंध से लेकर असंख्यात प्रदेशवाले जो पुमलस्कंध है उनमें प्रत्येक पुद्गल स्कंध कमसे कम एक प्राकाश प्रदेश में रहता है और अधिक से अधिक जिस स्कंध में जितने प्रदेश है-जितने परमा गुभों का बना हुआ है-वह उतने ही आकाश के प्रदेशों में ठहरता है। अनन्त आकाश प्रदेशों में नहीं। क्योंकि द्रव्यों का अवगाह असंख्यात प्रदेशवाले सोकाकाश में ही हैं। अनन्त प्रदेश वाले अलोकाकाश में
આવેલ છે તેથી તે કથનમાં કેઈષ નથી એજ પ્રમાણે ચાર પ્રદેશાવગઢદ્રવ્ય વગેરેના વિષયમાં પણ એમ જ સમજવું જોઈએ.
“અસખ્ય પ્રદેશાલગા આનુપૂર્વી આ પદને અર્થ નીચે પ્રમાણે સમજ-આકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશમાં અસંખ્યાત અણુવાળો અથવા અનંત આજુવાળ દ્રવ્યરકલ આનુપૂર્વી છે એમ સમજવું આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-એક પુદ્ગલપરમાણુ આકાશના એક જ પ્રદેશમાં અવગાહી હોય છે. પરંતુ બે પ્રવેશવાળા પુદ્ગલસ્કંધથી લઈને અસંખ્યાત પ્રયવાળા જે પુદ્ગલ સ્કવે છે, તેમાં પ્રત્યેક પુદ્ગલ સ્કંધ ઓછામાં એછા એક આકાશપ્રદેશમાં રહે છે અને વધારેમાં વધારે તે સ્કધના જેટલા પ્રરેશે હાય-જેટલા પરમાણોને તે રકધ બને તે હેય-એટલાજ આકાશપ્રદેશમાં તે રહે છે, અનંત આકાશપ્રદેશમાં તે રહેતું નથી, કારણ કે તને અવગાહ અસખ્યાત પ્રદેશવાળા કાકાશમાં જ છે-અનંત પ્રદેશ
For Private and Personal Use Only
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगहार एकप्रदेशावगाढा-एकस्मिन्नेव नभःप्रदेशे अवगाढा स्थितः परमाणुसङ्घाता स्कन्धसङ्घातश्च क्षेत्रतोऽनानुपूर्वीति । तथा-द्विपदेशावगाढ:-आकाशस्य प्रदेशइयेऽवगाढा स्थितो द्विपदेशिकादिस्कन्धः क्षेत्रतोऽवक्तन्यकमिति। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा नैगमव्यवहारयोरर्थप्ररूपणतेति॥सू० १८२॥ नहीं। तात्पर्य यह है कि आधारभूत क्षेत्र के प्रदेशों कि संख्या आधेय. पुद्गल द्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है, अधिक नहीं । इसलिये एक परमाणु एकही आकाश प्रदेश स्थित रहता है पर व्यणुक एक प्रदेश में भी ठहर सकता है और दो में भी इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढते २ व्यणुक चतुरणुक-यावत् संख्याताणुक स्कंध एक प्रदेश दो प्रदेश तीन प्रदेश यावत् संख्यात प्रदे. श क्षेत्र में ठहर सकते हैं संख्याताणुक द्रव्य की स्थिति के लिए असं. रूपात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं पड़ती। असंख्याताणुका स्कंध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बराबर की अधिक संख्यावाले प्रदेश के क्षेत्र में ठहर सकता है। अनन्ताणुक और अनंता. नंताणुक स्कंध भी एकप्रदेश दो प्रदेश इत्यादि क्रम से पढते २ संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेशवाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं उनकी स्थिति के लिये अनंत प्रदेशात्मक क्षेत्र जरूरी नहीं है। तथा एकही आकाशવાળા અલકાકાશમાં નથી આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આધારભૂત ક્ષેત્રના પ્રદેશની સંખ્યા આધેયભૂત પુદ્ગલદ્રવ્યના પરમાણુઓની સંખ્યા કરતાં ઓછી પણ હેઈ શકે છે અને બરાબર પણ હોઈ શકે છે, પરંતુ અધિક હોઈ શકતી નથી તેથી એક પરમાણુ એક જ આકાશપ્રદેશમાં રહી શકે છે પણ બે અણુવાળો સ્કંધ એક આકાશપ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે અને બે આકાશપ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે એ જ પ્રમાણે ઉત્તરોત્તર અણુઓની સંખ્યા વધતાં વધતાં જે ત્રિઅણુક, ચતુરણુક આદિ સંખ્યાતાથુક પર્યન્તના કંધ પણ એક પ્રદેશમાં, બે પ્રદેશમાં, ત્રણપ્રદેશમાં અને સંખ્યાત સુધીના આકાશપ્રદેશમાં રહી શકે છે. સંખ્યાતાથુક દ્રવ્યને રહેવાને માટે અસંખ્યાત પ્રશવાળા ક્ષેત્રની જરૂર પડતી નથી અસંખ્યાતાથુક કંધ એક પ્રદેશથી લઈને વધારેમાં વધારે પિતાના બરાબરની અધિક સંખ્યાવાળા પ્રદેશના ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે. અનંતાણુક સ્કધ અને અનંતાનતાણુક સ્કંધ પણ એક પ્રદે. શમાં, બે પ્રદેશમાં, ત્રણ પ્રદેશમાં અને એજ ક્રમે વધતાં વધતાં સંખ્યાત પ્રશવાળા ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે. તેમની સ્થિતિને માટે તેમને રહેવાને માટે અનંત પ્રદેશવાળા ક્ષેત્રની જરૂર પડતી નથી તથા એક જ આકાશપ્રદેશમાં
For Private and Personal Use Only
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अजुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०३ अर्थपदप्ररूपणताप्रयोजनानकपणम् ।
मूलम्-एयाए णं णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाए कि पओयणं? एयाएणंणेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाएणेगम. ववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया कजइ ॥सू०१०३॥
छाया-पतया स्खलु नैगमव्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु नैगमव्यवहारयोरर्थपदमरूपणताया नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते ।मु. १०३॥
टीका-'एयाए णं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतया एतया अर्थपदमरूपणतया कि प्रयोजनम् ? इति प्रश्नः। एतया हि भगसमुत्कीर्तनता क्रियते इत्युत्तरम् ।।मू० १०३॥ प्रदेश में स्थित परमाणु संघात और स्कंध संधात क्षेत्रकी अपेक्षा अना. नुपूर्वी है तथा द्विप्रदेशागाढ -आकाशके दो प्रदेशों में स्थित-विप्रदेशिक आदि स्कंध, क्षेत्र की अपेक्षा अवक्तव्यक है । इस प्रकार यह नैगमन्यवः हारनय संमत अर्थपद प्ररूपणता है ।।सू. १०२॥ - "एयाएणं गमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(एयाएणं णेगमववहाराणं अस्थपथपरूवणयाए कि पोयणं ?) हे भदन्त ! नैगम व्यवहारनय संमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम मेद रूप इस अर्थपदप्ररूपणता से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? ___ उत्तर-(एयाएणं णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाए णेगमयवहाराणं भंगसमुक्कित्तणया कज्जा ) नैगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम भेद रूप इस अर्थपद् प्ररूपणता से भंगસ્થિત પરમાણ સંઘત અને કંધ સંઘાતક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવી છે. તથા દ્ધિપ્રદેશાવગાઢ (આકાશના બે પ્રદેશમાં રહેલા) દ્વિદેશિક આદિ રકપ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અવક્તવ્યક છે, એમ સમજવું નગમવ્યવહાર નયસંમત અર્થપ્રરૂપણુતાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૧૦રા
" एयाएणणेगमववहाराण" ध्या:
शहाथ-(एयाएणणेगमववहाराण' अत्थपयपरूवणाए किं पओयण') के ભગવન! નિગમ વ્યવહારનયસંમત અનેપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂવીના પ્રથમ ભેદ રૂ૫ આ અર્થપદપ્રરૂપણતાથી કયું પ્રયોજન સિદ્ધ થાય છે?
- उत्त-(एयाए णं णेगमववहाराण अत्यपयपरूवणयाए णेगमववहाराण भंगममुक्त्तिणया कज्जइ) नैगमध्यपहा२नयसभत मनोपनिधि क्षेत्रानुकीन પ્રથમ ભેદ રૂપ આ અર્થપપ્રરૂપણુતા વડે ભંગસમુત્કીર્તનતા રૂપ પ્રજન
For Private and Personal Use Only
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबार मूलम्-से किं तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया? णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया-अस्थि आणुपुची, अस्थि अणाणुपुष्वी, अस्थि अवत्तवए। एवं दवाणुपुविगमेणं खेत्ताणुपुवीए वि ते चेव छब्बीसं भंगा भाणियबा, जाव से तं भंगसमुंकित्तणया ॥सू०१०४॥ ___ छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः भासमुत्कीर्तनता ? नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । एवं द्रव्यानुपूर्वीगमेन क्षेत्रानुपूामपि त एव षड्विंशतिर्भङ्गा भणितव्याः, यावत् - सैषा नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता ॥सू० १०४॥ ____टीका-अथ भङ्गसमुत्कीर्तनतां मरूपयितुमाह-' से कि तं' इत्यादि। अय का सा नैगमव्यवहारसम्मता मङ्गसमुत्कीर्तनता ? इति प्रश्नः। उत्तरमाह-'णेगमववहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मता मङ्गसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी, समुत्कीर्तनता रूप प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके भावार्थ के लिये पीछे ७६ वें सूत्र के भावर्थ को देखो। ॥ १०३ ॥
अब सूत्रकार इसी भंगसमुत्कीर्तनता का निरूपण करते हैं- .. ... "से किं तं गमववहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ- ( से किं तं गमववहाराणं भंगसमुचित्तणया? ) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनपसंमत वह भंग समुत्कीर्तनता क्या है ?
उत्तर-(णेगमववहारणं भंगसमुक्त्तिणया अस्थि आणुपुव्वी अस्थि भणाणुपुन्वी, अस्थि अवत्तव्वए) नैगमव्यवहार नयसंमत वह भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है-आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है अवक्तસિદ્ધ થાય છે આ પદના ભાવાર્થ માટે આગળના ૭૬માં સૂત્રને ભાવાર્થ વાંચી જ. સૂ૦૧૦૩.
હવે સૂત્રકાર એજ ભંગસમુત્કીર્તનતાનું નિરૂપણ કરે છે– " से कि तणेगमववहाराण" त्याह- .
उत्तर-(णेगमववहाराण' भंगसमुक्त्तिणया अस्थि आणुपुव्वी, अस्थि अणाणुपुव्वी, अस्थि अवचव्वए) नैगमव्यवहारनयमित समुहीत नानु આ પ્રકારનું સ્વરૂપ દેઆનુપવી છે, અનાનુપવી છે, અને અવક્તવ્યક છે
For Private and Personal Use Only
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मैनुयोगचन्द्रिकाटोका सूत्र १०५ अंगसमुत्कीर्तन ताप्रयोजननिरूपणम्
अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । एवं द्रव्यानुपूर्वीगमेन = द्रव्यानुपूर्वी पाठवत क्षेत्रानुपूर्व्यामपि त एव = द्रव्यानुपूर्वीकरणे ७७-७८ सूत्रे प्रोक्ता एव, षडविंशति ङ्गा भणितव्याः । किमवधि भणितव्याः ? इत्याह- ' जाव से तं ' इत्यादि । यावत् सैषा नैगमव्यवहारसम्मता भङ्गसमुत्कीर्त्तनतेति ॥० १०४ ॥
मूलम् - एयाएणं गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओयणं ? एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया कज्जइ ॥ सू० १०५ ॥
छाया - एतया खलु नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्त्तनतया किं प्रयोजनम् ? एतया खलु नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्त्तनतया नैगमव्यवहारयो भङ्गोपदर्शनता क्रियते || सू० १०५ ||
व्यक है। (एवं दण्वाणुपुब्बिग मेणं खेत्ताणुपुब्बीए वि ते चेव छब्बीसं भंगा भाणिवा अस्थि से तं भंग समुत्तिणया ) इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह क्षेत्रानुपूर्वी में भी द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में कहे गये २६ भंग जानना चाहिये । इनभंगो के विषय को स्पष्ट करनेवाला पाठ ७७ -७८ सूत्रों में पीछे कहा गया है-सो वहांतक इसभंग विषयक पाठ को ग्रहण करना चाहिये । यह पाठ " से तं भंगसमुक्किन्तणया" यहीं तक है । इस सूत्र की व्याख्या के लिये इन्हीं सूत्रों की व्यख्या को देखनी चाहिये । ॥ सू० १०४ ॥
• सूत्रकार इस भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? इसबात को स्पष्ट करते हैं-'एयाए णं जैगमववहाराणं भंगसमुद्दिसणयाए ' इत्यादि । शब्दार्थ - (एयाए णं णेगमबवहाराणं भंगसमुत्तिणयाए किं पओ
( एवं दव्याणुपुत्रिगमेण खेत्ताणुपुव्वीए वि ते देव छव्वीसं मंगा भाणियबा जाब से तं भंगसमुक्किन्तणया) मा प्रहारे द्रव्यानुपूर्वीना पाहनी प्रेम क्षेत्रानु પૂર્વી માં પણ દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલા ૨૬ લાંગાએ કહેવા જોઈએ. આ ભગાના (ભાંગા એના) વિષયની સ્પષ્ટતા ७७ तथा ७८ भां सूत्रोभां रवामां भावी युडी छे, " से त भंगसमुक्कित्तणया " આ સૂત્રપાઠ પર્યન્તના સૂત્રપાઠે ત્યાંથી ગ્રહણ કરવા જોઇએ. આ સૂત્રની વ્યાખ્યાને માટે ઉપર્યુક્ત અને સૂત્રાની વ્યાખ્યા વાંચી લેવી. સૂ॰૧૦૪ા
"" एयाए णं णेगमववहाराणं भंगवमुत्तिणयाए " इत्याहि
शब्दार्थ - (एयाए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयण ? ભગવન્ !નૈગમ અને વ્યવહારનયસ'મત આ ભંગસમુત્કીનતાનું શુ' પ્રચાજન છે
For Private and Personal Use Only
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारा टीका-'एयाए णं' इत्यादि । व्याख्या सुगमा सा अष्ट सप्ततितम ७८ सूत्रे विलोकनीया ॥सू. १०५॥
मूलम्-से किं तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया? णेगमववहाराणं भंगोगदंसणया तिप्पएसोगाढे आणुपुवी, एगपएसोमाढे अणाणुपुबी, दुप्पएसोगाढे अवत्तवए, तिप्पएसोगाढा आणुपुबीओ, एगपएसोगाढा अणाणुपुत्वीओ, दुप्पएसोगाढा अवत्तवयाई ।सू० १०६॥ - छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः मङ्गोपदर्शनता ? नैगमव्यवहारयोर्भङ्गोपदर्शनता-त्रिपदेशावगाढ आनुपूर्वी, एकपदेशाचगाढः अनानुपूर्वी, द्विपदेशावगाढः यणं ?) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनय संमत इस भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है?
उत्तर-(एयाएण गमववहराणं भंगसमुक्त्तिणयाए णेगमववहाराणं भंगोवदसणया कज्जह)नैगमव्यवहारनय संमत इस भंगसमुत्कीर्तनता से नैगमव्यवहारनय संमत भंगों को दिखाया जाता है-अर्थात् उनकी प्ररूपणा की जाती है । इसलिये भंगसमुत्कीर्तनताका भंगों को दिखलाना यही प्रयोजन है। इसकी व्याख्या के लिये पीछे का ७८ अठहत्तर वां सूत्र देखो । ॥ सू० १०५ ॥ ... "से किं तं गमववहराण' इत्यादि ।
शब्दार्थ-( से किं तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया ) हे भदन्त ! नैगमन्वहारनय संमत वह भंगोपदर्शनता क्या है ? उत्तर-(णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया) नैगमव्यवहारनय संमत
उत्तर-(एयाएण' ण णेगममहाराण' भंगसमुक्त्तिणयाए णेगमववहाराण भगोवदसणया कन्जइ) नैगमन्यवहा२नयमत 21 अगसमुहात नत १४ નૈગમવ્યવહારનયસંમત ભાંગાઓ બતાવવામાં આવે છે, એટલે કે તેમની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. તેથી ભંગને (ભાંગાઓને) પ્રકટ કરવાનું જ પ્રજન છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યાને માટે આગળનું ૭૮મું સૂત્ર વાંચી જવું. સૂ૦૧૦૫
" से कि त णेगमववहाराण" त्याह
शहाथ-(से किं त णेगमवहाराण भंगोवदंम्रणया?) ७ मापन ! નગમવ્યવહાર નયસંમત તે અંગે પદર્શનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(णेगमववहाराण भंगोवदंसणया) नरामयपहारनयस मत मगोप४. શનતાનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે–
For Private and Personal Use Only
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०६ भोपदर्शनतानिरूपणम् अवक्तव्यकम् । त्रिप्रदेशावगाढा आनुपूर्व्यः, एकपदेशावगाढा अनानुपूर्व्यः, विप्रदेशावगाहा अवक्तव्यकानि ॥सू०१.६॥
टीका-सम्पति भङ्गोपदर्शनतां निरूपयितुमाह-' से कि तं' इत्यादि । टीका सुगमा सू० १०६॥ भंगोपदर्शनता इस प्रकार से है-(तिप्पएसोगाढे ओणुपुव्वी एगपएसो. गाढे अणाणुपुव्वी दुपएसोगाढे अवत्तव्वए) आकाश के तीन प्रदेशों में रहा हुआ व्यणुक आदि स्कंध आनुपूर्वी इस शब्दका वाच्यार्थ है। एकप्रदेश में स्थित परमाणु संघात, और स्कंध संघात क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी है तथा आकाश के दो प्रदेशों में स्थित विप्रदेशिक आदि स्कंध क्षेत्र की अपेक्षा अवक्तव्यक है । (तिप्पएसोगाढा आणुपुब्बीओ, एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ, दुप्पएसोगाढा अवत्तव्वयाई) आकाश के तीन प्रदेशों में रहे हुए बहुत से व्यणुक आदि स्कंध आनुपूर्वियां इस बहुपचनान्त शब्द के वाच्यार्थ हैं । आकाशके एक प्रदेश में रहे हुए अ. नेक परमाणु संघात आदि द्रव्य, अनानुपूर्वियां इस शब्दके वाच्यार्थ हैं। तथा छिप्रदेश में स्थित अनेक द्विप्रदेशिक आदि स्कंध अवक्तव्यक इस बहुवचनान्त शब्द के वाच्यार्थ हैं । इसकी व्याख्या के लिये पीछे ७९ वें सूत्र की व्याख्या देखनी चाहिये ॥ सू० १०६ ॥
(तिप्पएसोगाढे आणुपुरी एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वर ) माशन १ प्रदेशमा २७सा व्याशु (३ मा ६७) माहि
આનુપૂવી ' આ શબ્દના વાગ્યાથું રૂપ છે. એક પ્રદેશમાં સ્થિત પરમાણુ સંઘાત, અને સ્કંધ સંઘાત ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવી છે.
તથા આકાશના બે પ્રદેશમાં રહેલ દ્વિદેશિક આદિ ધ ક્ષેત્રની अपेक्षाये अवतव्य छे. (तिःपएसोगाढा आणुपुठवीओ एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ, दुप्पएसोगाढा अवत्तव्वयाइं) gir विमाY AAILE २४ “આનુપૂવીએઆ બહુવચનાન્ત શબ્દના વાચ્યાર્થ રૂપ છે. આકાશના એક પ્રદેશમાં રહેલા અનેક પરમાણુ સંઘાત આદિ દ્રવ્ય “અનાનપવી એ ” આ પદના વાગ્યાથ રૂપ છે. બે પ્રદેશમાં સ્થિત અનેક દ્વિદેશિક આદિ
છે “અવક્તવ્યકે” આ બહુવચનાન્ત પદના વાચ્યાર્થ રૂપ છે. આ સત્રની વ્યાખ્યા સમજવા માટે ૭૯ માં સૂત્રની વ્યાખ્યા વાંચી લેવી. સૂ ૧૬ %
For Private and Personal Use Only
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
ક
www.kobatirth.org
मूलम् - अहवा तिप्पएसेोगाढे य एगपएसो गाढे य आणुपुवी य अणाणुपुवीय एवं तहा चैव दव्वाणुपुविगमेणं छवीसं भंगा भाणि वा जात्र से तं गमववहाराणं भंगोत्रदंसणया ॥ सू० १०७॥ छाया - अथवा त्रिपदेशात्र गाढव एकमदेशावगाढश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च । एवं तथाचैव द्रव्यानुपूर्वीगमेन षड्विंशतिर्भङ्गा भणितव्या यावत् सेवा नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता ॥सू० १०७॥
टीका - ' अहवा' इत्यादि । व्याख्या सुगमा || सू० १०७॥
66
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वार
"अहवा तिप्पएसोगाढे य" इत्यादि । शब्दार्थ - ( अहवा तिप्पएसोगाढे य एगपएसोगाढे य आणुपुण्वीय) अणाणुपुण्वीय) अथवा त्रिप्रदेशावगाढ स्कंध और एकप्रदेशावगाढ स्कंध एक आनुपूर्वी और एक अनानुपूर्वी हैं। (एवं तहाचेव दव्याणुपुविगमेणं छत्रीस भगा भाणिकत्रा जाव से तं गमववहाराणं भंगोब देसणया) इस तरह द्रयानुपूर्वी के पाठ की तरह २६, भंग समझ लेना चाहिये। इस प्रकार यह नैगम व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता है ।
सूत्रकारने यह बात पहिले द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में स्पष्ट करदी है कि एकवचनान्त और बहुवचनान्त आनुपूर्वी आदि-३-३ पदों के असंयोग और संयोगपक्ष में २६, भंग किस प्रकार से बनते हैं और इन सबका वाच्यार्थ क्या २ है । उस द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरणगत आनुपूर्वी, agar farqqaìmà” Neuf
शब्दार्थ - ( अहवा तिप्परसोगाढे य एगपएसो गाढे य आणुपुव्वी य अणाणुपुत्रीय) अथवा - त्रिप्रदेशावगाढ २४६ (आाशना त्रषु प्रदेशोभां रहे थे। સ્ક'ધ) અને એક પ્રદેશાવગાઢ સ્કંધ એક આનુપૂર્વી અને એક અનાનુપૂર્વી છે. ( एवं तहाचे दव्वाणुपुव्विगमेणं छब्बीस भंगा भाणियव्वा जाव से तं णेगमववहाराण भंगोवंसणयां) मे प्रभा द्रव्यानुपूर्वीना पाहनी प्रेम २१ ભાંગાએ સમજી લેવા જોઈએ,
આ પ્રકારનું નામમવ્યવહાર નયસંમત ભગેપદશ નતાનું સ્વરૂપ છે. સૂત્રકારે પહેલાં દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે એકવચનાન્ત અને બહુવચનાન્ત આનુપૂર્વી આદિ ત્રણ-ત્રણ પદોના અસાગ અને સંચાગ પક્ષે ૨૬ લાંગાએ કેવી રીતે બને છે, અને તેમના વાગ્યાથ શા થાય છે,
તે દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં બતાવેલાં માનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વી અને વક્તવ્યક આદિ પદ્મોના વાચ્યામાં ત્રિપ્રદેશિક આદિ સ્કંધ, એક પ્રદેશી
For Private and Personal Use Only
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीकास्त्र १०६ मझोपर्धनतानिकपणम् अनानुपूर्वी और अबक्तव्यक आदि पदों के वाच्यार्थ में त्रिप्रदेशिक
आदि कंध एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु और विप्रदेशी स्कंध आदि आते हैं। तब कि इस क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकरण गत भगोपदर्शनता में आकाश के तीन प्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध ही आनुपूर्वी शब्द के पाच्यार्थ माने गये हैं। एक दो आकाश के प्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक स्कंध आनुपूर्वी शब्दके वाच्यार्थ नहीं माने गये हैं। क्योंकि यह पहिले कहा जा चुका है कि त्रिप्रदेशिक स्कंध आकाशके एकप्रदेश में भी अब. गाही हो सकता है,दो प्रदेश में भी अवगाही हो सकता है और तीन प्रदेशों में भी ठहर सकता है। त्रिप्रदेशिक स्कंध के लिये आकाश के चार प्रदेशों की ठहरने के लिये आवश्यकता नहीं है । इसी प्रकार जो चतुष्पदेशिक स्कंध होगा उसे अपने को अवगाहित होने के लिये आ. काश के एक दो, तीन, एवं चार प्रदेश आपेक्षिक होंगे। पांच प्रदेश नहीं । इसलिये क्षेत्रानुपूर्वी में यदि त्रिप्रदेशिक स्कंध आकाश के एक प्रदेश में अथवा दो प्रदेश में स्थित है, तो वह क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक शन्द का वाच्यार्थे होगा। क्षेत्रकी अपेक्षा आनु पूर्वी तीनप्रदेश से ही प्रारंभ होती है। इसी तरह जो असंख्यात प्रदे. પઠલપરમાણુ અને દ્વિદેશી અંધ આદિ આવે છે. પરંતુ આ ક્ષેત્રાનુpવના પ્રકરણગત ભોપદીનતામાં આકાશના ત્રણ પ્રદેશમાં સ્થિત ત્રિપ્રદેશિક આદિ કંધ જ આનુપૂવ શબ્દના વાચ્યાર્થ રૂપે માનવામાં આવેલ છે. એક પ્રદેશમાં કે બે પ્રદેશમાં સ્થિત ત્રિપ્રદેશિક સંધને અહી આનુપાવી શબ્દના વાગ્યાથ રૂપે માનવામાં આવેલ નથી, કારણ કે એ વાત તે આગળ પ્રકટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે વિદેશી શકંધ આકાશના એકપ્રદેશમાં પણ અવગાહી થઈ શકે છે–રહી શકે છે, એ પ્રદેશમાં પણ અવગાહી થઈ શકે છે અને ત્રણ પ્રદેશોમાં પણ અવગાહી થઈ શકે છે. વિદેશી કંધને રહેવા માટે આકાશના ચાર પ્રદેશની આવશ્યક્તા રહેતી નથી. એ જ પ્રમાણે ચાર પ્રદેશિક સ્કંધને રહેવા માટે આકાશના એક બે, ત્રણ અથવા ચાર પ્રદેશોની આવશ્યક્તા રહે છે. તેને રહેવા માટે પાંચ પ્રદેશની જરૂર પડતી નથી. તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે “જે ત્રિપ્રદેશિક કંધ આકાશના એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રસ્થામાં રહેલું હોય, તે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેને અનાનવી અને અવક્તવ્યક શખના વાગ્યા રૂપ જ ગણ જોઈએ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આવીને પ્રારંભ ત્રણ પ્રદેશેથી જ થાય છે, એ જ પ્રમાણે જે
For Private and Personal Use Only
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगद्वार ... मूलम्-से किं तं समोयारे? समोयारे णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाइं कहिं समोयरंति ? किं आणुपुत्वीदवेहिं समोयरंति अणाणुपुतीदवेहि समोयरंति ? अवत्तवगदवेहिं समोयरंति?, आणुपुत्वीदवाइं आणुपुत्वीदवेहि समोयरंति नो अणाणुपुचीदवेहि नो अवत्तवयदवेहिं समोयरंति । एवं तिणि वि सट्टाणे समोयरंतित्ति भाणियवं। से तं समोयारे ॥सू०१०८॥
छाया-अथ कोऽसौ समवतारः ? समवतारो नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु शवाला-कंध होगा-वह भी आकाशके एक, दो, तीन आदि प्रदेशों में भवगाही हो सकता है और असंख्यात प्रदेशों में भी अवगाही हो स. कता है। अतः क्षेत्र की अपेक्षा यह असंख्याताणुक स्कंध भी एकप्रदेश में स्थित होनेपर अनानुपूर्वी और दो प्रदेश में अवक्तव्यक अवगाहित होने पर माना जावेगा । तथा तीन आदि असंख्यात प्रदेशों में स्थित होनेपर आनुपूर्वी माना जावेगा । इस प्रकार से चित्तमें अवधारित कर २६भंगों का वाच्यार्थ क्षेत्रकी अपेक्षा आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकइन एकवचनान्त बहुवचनान्त पदों के असंयोग और संयोग पक्ष में द्रव्यानुपूर्वी के भंगोपदर्शन की तरह कर लेना चाहिये । ॥सू० १०७॥ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળો અંધ હશે તે પણ આકાશના એક, બે, ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં પણ અવગાહી હોઈ શકે છે, અને અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં પણ અવગાહી હોઈ શકે છે, જ્યારે તે અસંખ્યાતાણુક કંધ આકાશના એક જ પ્રદેશમાં રહેલું હોય ત્યારે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેને અનાનુપૂર્વી રૂપ ગણ જોઈએ. પરંતુ જ્યારે તે ત્રણથી લઈને અસંખ્યાત પર્યરતના આકાશના પ્રદેશોમાં રહેલું હોય ત્યારે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેને આનુપૂર્વી રૂપ ગણ જોઈએ. આ પ્રકારને અર્થ મનમાં ધારણ કરીને ૨૬ ભંગને વાચ્યાર્થ સમજી લેવું જોઈએ, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુ પૂવી, અનાનુપૂવી અને અવે. તવ્યક આ એકવચન અને બહુવચનાન્ત પદના અસંગ અને સંગ પણે દ્રવ્યાનુપૂવને ભંગદર્શનની જેમ અહીં પણ ૨૬ ભાંગાએ સમજી લેવા જોઈએ. સુ ૧૦૭
For Private and Personal Use Only
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०८ समवतारनिरूपणम्
समवतरन्ति ? अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु नो भवक्तव्यकद्रव्येषु समनतरन्ति । एवं श्रीव्यपि स्वस्थाने समवतरन्तीति भणितव्यम् । स एष समवतारः ||८० १०८ ||
टीका - अथ समवतारं प्ररूपयितुमाह-' से किं तं ' इत्यादि । अथ कोऽसौ समवतारः ? इत्यारभ्य ' स एष समवतारः' इति पर्यन्तस्य पाठस्य व्याख्या अशीतिसूत्रवद्द्रव्यानुपूर्वीद् बोध्या । सू० १०८ ॥
अब सूत्रकार समवतार की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं समोयारे ? " इत्यादि ।
शब्दार्थ - हे भदन्त ! (से किं तं समोयारे) पूर्वप्रक्रान्त समवतार का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (समोयारे) पूर्वप्रक्रान्त समवतार का स्वरूप इस प्रकार से है- (गमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाई कहिं समोयरंति ? ) शिष्य पूछता है कि नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य कहां समाविष्ट होते हैं (किं आणुपुथ्वी दव्वेहिं समोयरंति ? अणाणुपुब्बी दव्वेहिं समोयरंति) क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या अनानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या (अवक्तव्यगदव्वेहिं समोयरंति) अवक्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ?
उत्तर- (आणुपुब्बीद व्वाई आणुपुब्बीदव्वेहिं समोयरंति) नैगमव्यहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं। હવે સૂત્રકાર સમવતારની પ્રરૂપણા કરે છે
" से किं त' समोयारे " इत्याहि-
शब्दार्थ - ( से किं त' समोयारे १) हे भगवन् ! भाग ने सभवतार નામના પ્રકાર કહ્યો છે તેનુ સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर - ( समोयारे) सभवतार स्व३५ मा प्रहार - (गमवबहाराण आणुपुवी दव्वाइ कहिं समोयरंति १ )
શિષ્યના પ્રશ્ન-મૈગમવ્યવહાર નયસ'મત માનુપૂર્વી દ્રવ્યે કર્યાં સમાविष्ट थाय छे ? (किं आणुपुव्वीदबेहिं समोयरंति ? भणाणुपुबी दव्बेर्हि समोयरंति, अवत्तन्वगदव्वेहिं समोयरंति ?) शु आनुपूर्वी द्रव्योमा समाविष्ट થાય છે? કે અનાનુપૂર્વી દ્રબ્યમાં સમાવિષ્ટ થાય છે? કે અવક્તવ્યક દ્રવ્યેામાં સમાવિષ્ટ થાય છે ?
तर- (आणुपुब्बीदब्वाई' आणुपुब्बीदब्बेहिं समोयरंति) नैगभव्यवहार નયસંમત આનુપૂર્વી ડૂબ્યા આનુપૂર્વી દ્રબ્યામાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે, (નો
५० ५८
For Private and Personal Use Only
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
४५८
अनुयोगद्वारसूत्रे
मूलम् - से किं तं अणुगमे ? अणुगमे नवविहे पण्णत्ते, तं जहा - संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं चेव ।। सू० १०९ ।।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
छाया - अथ कोऽसौ अनुगमः ? अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पदप्ररूपणता यावत् अल्पबहुत्वं चैव ।। सू० १०९ ॥
टीका - अथ अनुगमं प्ररूपयितुं प्राह - ' से किं तं ' इत्यादि । अथ कोऽसौ अनुगमः ? इति प्रश्नः । अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सत्पद प्ररूपणता १,
(नो अणाणुपुब्वदव्वेहिं नो अवतन्त्रगदव्वेहिं समोयरंति ) अनानुपूर्वी द्रव्यों में एवं अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं। (एवं तिष्णि वि सहाणे समोयरंति सिभाणि यच्व-से तं समोपारे) इसी प्रकार से यह समझना चाहिये कि अवक्तव्यक और अनानुपूर्वी द्रव्य भी आनुपूर्वी द्रव्य की तरह अपनी ५ जातिरूप की अवक्तव्यक और अना नुपूर्वी द्रव्यरूप स्वस्थान में ही अन्तर्भूत होते हैं इस प्रकार से ये तीनों ही स्व स्व स्थान में ही समाविष्ट होते हैं,। परस्थान में नहीं यही समवतार का स्वरूप है इस सूत्र की व्याख्या पहिले ८० सूत्र की व्याख्या की तरह जाननी चाहिये ।। सू० १०८ ॥
अब सूत्रकार अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी के पंचम भेदरूप अनुगम के स्वरूप का कथन करते हैं- "से किं तं अणुग मे ? " इत्यादि । शब्दार्थ - (से किं तं अणुगमे ?) हे भदन्त ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? उत्तर- (अणुगमे नवविहे पण्णत्ते) अनुगम नौ प्रकार कहा है (तंजअणाणुपुब्बी दव्वेहिं नो अवत्तव्वगदव्वेहिं समोगरंति) पशु मनानुपूर्वी द्रव्योम भने भवतव्या द्रव्योम समाविष्ट थतां नथी. (एवं तिष्णि वि साणे समोयरंति त्ति भाणियव्व से त समोयारे) ये प्रमाणे व्यवस्तव्य અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યે પણ પાતપોતાની જાતિના દ્રવ્સેમાં જ (અનુક્રમે અવક્તવ્યર્ક અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યે રૂપ સ્વસ્થાનમાં જ) અતભૂત થાય છે. અન્ય સ્થાનમાં અંતર્ભૂત થતાં નથી આ પ્રકારનું સમવતારનુ” સ્વરૂપ છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા ૮૦ માં સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી. ાસૂ॰૧૦૮ા હવે સૂત્રકાર અનૌપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના પાંચમાં ભેદ રૂપ અનુગમના स्व३चतु ं नि३षणु ४रे छे– “ से किं तं अणुगमे ? " ४त्याहि -
66
शब्दार्थ - (से किं तं अणुगमे ? ) हे भगवन् ! अनुगमनु स्व३५ ठेवु छे? उत्तर- ( अणुगमे नवविद्दे पण्णत्ते) अनुगमना नवारा छे,
For Private and Personal Use Only
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०९ अनुगमनिरूपणम् यावत् अल्पबहुत्वं९ चैवेति । इह-यावच्छन्देन-द्रव्यप्रमाणंर, क्षेत्रं ३, स्पर्शना ४, कालः ५, अन्तरं ३, भागः ७, भा.८ इति बोध्यम् । व्याख्या एकाशीति सूत्रवत् द्रव्यानुपूरी बोध्या मू० १०९॥
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुयोदाई किं अस्थि णस्थि? णियमा अस्थि। एवं दुण्णि वि।सू० ११०॥
छाया-नगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कि सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति । एवं द्वे अपि ॥पू० ११०॥
टीका-सत्र-सपदमरूपणनाद्वारं प्ररूपयति-'णेगमयवहाराणं' इत्यादि। अस्य द्वारस्य व्याख्या द्वयशीति सूत्रात् द्रव्यानुपूर्वीच बोध्या ॥मू० ११०॥ हा) जैसे-(संतपयारूवणया जाव अपापहुंचेव) सत्पदप्ररूपणता यावत् अल्प बहुत्व ,। यहां यावत् शब्द से इस अनुक्तपाठका संग्रह हुआ है"दबप्पमाणं खित, फुलगा, कालोय, अंगर, भाग, भाव," द्रव्य प्रमाण क्षेत्र पर्शना, काल, अंतर, भाग और भाव, इस सूत्र की व्याख्या के लिये देखो पीछेका ८१, वां सूत्र ॥ १०९॥
अव सूत्रकार अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के अनुगम के भेदरूप प्रथम सत्पदप्ररूपणता का कथन करते हैं
"णेगमयवहाराणं" इत्यादि । शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुब्बीदवाई किं अस्थि णस्थि ?णियमा अस्थि । एवं दुण्णिवि) नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं? (तं जहा) ते प्रा। नीय प्रमाण-(संतपयपहवणया जाव अप्पाबहु थेव) સસ્પદપ્રરૂપણુતાથી લઈને અલ્પમહત્વ પર્યન્તના નવ પ્રકારે અહીં પર્યત ५४ ।। " दवपमाण खित्त, फुसणा, कालोय, अंतरं, भाग, भाव " द्रव्य. प्रभार, क्षेत्र, २५ना, ण, मत२, मा भने माप, मा सात मारे। . ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા માટે ૮૧મું સૂત્ર વાંચી જવું સૂ૦૧૦
હવે સૂત્રકાર અનૌપદ્ધિક ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના અનુગામના પ્રથમ ભેદ રૂપ સત્પદપ્રરૂપણુતાનું નિરૂપણ કરે છે__"णेगमववहाराण," त्या:
शा-(णेगमववहाराण' माणुपुम्वोदव्बाई कि अस्थि णस्थि ? णियमा भस्थि, एवं दुण्णि वि)
પ્રશ્ન-નગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે કે નહી?
For Private and Personal Use Only
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम्-गमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं किं संखिज्जाई असंखिज्जाइं अणंताई? नो संखिज्जाइं असंखिज्जाइं नो अणंताई। एवं दुण्णि वि ॥सू० १११॥ .. छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि ? नो संख्येयानि, असंख्येयानि, नो अनन्तानि । एवं द्वे अपि ।।सू० १११॥
टीका-अथ द्रव्यप्रमाणद्वारं प्ररूपयितुमाह 'मेगमववहाराणं' इत्यादि। नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूदिव्याणि किं संख्येयानि भवन्ति ? किं वा असं. ख्येयानि भवन्ति ? उत वा अनन्तानि भवन्ति ? इति त्रिविधः प्रश्नः । उत्तरमाह'नो संखिज्जाई' इत्यादि । नो संख्येयानि भवन्ति, नो अनन्तानि भवन्ति, अपि तु असंख्येयानि भवन्तीत्यर्थः । इति । अयं भावः-त्रिपदेशावगाढादीनि द्रव्याणि ___ उत्सर-नियमतः हैं । इसी प्रकार नैगमव्यवहारनयसमत अनानु. पूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य भी नियम से हैं । इस मूत्र की व्याख्या के लिये देखो पीछे का ८२, वां ।। सू० ११० ॥
"णेगमववहाराणं आणुपुत्वी दवाई" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुचीदव्वाइं कि संखिज्जाइ', असं. खिज्जाइं, अणंताई ?) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं ? या असंख्यात हैं ? या अनंत हैं ?
उत्तर-(नो संखिज्जाई, असंखिज्जाई, नो अणंताई। एवं दुण्णिवि) नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वीइप न संख्यात हैं न अनंत हैं किन्तु असंख्यात हैं । इसका तात्पर्य यह है-आकाश के तीन प्रदेश में स्थित
ઉત્તર-અવશ્ય છે જ એજ પ્રમાણે નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનાનુમૂવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય પણ અવશ્ય છે જ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સમજવા માટે ૮૨માં સૂત્રની વ્યાખ્યા વાંચી લેવી. સૂ૦૧૧૦
"णेगमववहाराण आणुपुत्वीदवाई" ध्याह
शहाथ-(णेगमववहाराण आणुपुत्वीदवाई कि संखिज्जाई', असंखि. जाई', अणंताई १) 3 नापन् ! नैगमयबा२ नयस मत आनुपूपी द्रव्यो सध्यात, असभ्यात छ, मन छ ? उत्तर-(नो संखिज्जा असंखिज्जाई, नो अणताइ', एवं दुण्णि वि)
નૈગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂવી દ્રવ્ય સંખ્યાત પણ નથી, અનંત પણ નથી, પરંતુ અસંખ્યાત જ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
narrater cher सूत्र १११ द्रव्यप्रमाणद्वारनिरूपणम्
.४६१
क्षेत्र भानुपूर्वीत्वेन निर्दिष्टानि, त्रिपदेशादि स्कन्धाधारभूताः क्षेत्रविभागाथ असंख्येयमदेशात्म के लोकेऽसंख्याता भवन्ति, अतो द्रव्यतया बहूनामप्यानुर्वीद्रव्याणां क्षेत्र वगाहम पेश्य क्षेत्रैक्यमाश्रित्य तुल्यपदेशावगाढानामेकत्वात् क्षेत्रानुपू
मसंख्यातान्येवानुपूर्वी द्रव्याणि भवन्तीति । अथानानुपूर्व्य वक्तव्यकद्रव्यविषये प्राह-' एवं ' इत्यादि । एवम् = आनुपूर्वीद्रव्यवत् द्वे अपि अनानुपूर्व्यवक्तव्यक द्रव्याणि असंख्येयानि बोध्यानि । अयं भावः - एकैकपदेशावगाढं बहुपि द्रव्यं क्षेत्र एकैनानुपूर्वी | लोकस्य प्रदेशा असंख्याताः सन्ति, अतस्तत्तुल्यमसंख्य| हुए द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा आनुपूर्वीरूप से कहे गए हैं। तीन आदि प्रदेशवाले कंत्रों के आधारभूत क्षेत्र विभाग असंख्यात प्रदेशी लोक में असंख्यात हैं । इसलिये द्रव्य की अपेक्षा बहुत भी आनुपूर्वीद्रव्य तुल्य प्रदेशवाले क्षेत्र में अवगाह की अपेक्षा करके एक मान लिये जाते हैंअर्थात् आकाशरूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों में त्रिप्रदेशवाले, चार प्रदेशवाले, पांच प्रदेशवाले छह आदि अनंत प्रदेशवाले अनेक आनुपूर्वीद्रव्य अवगाहित होकर रहते हैं । परन्तु ये सब द्रव्य तुल्यप्रदेशावगाही होने के कारण एक हैं। क्षेत्रानुपूर्वी में लोक के ऐसे त्रिपदेशात्मक विभाग असंख्यात हैं । इसलिये आनुपूर्वीद्रव्य भी तत्तुल्य संख्यावाले होने के कारण असंख्यात होते ही हैं । इसी प्रकार - आनुपूर्वी द्रव्य की तरहअनानुपूर्वी, अवक्तव्यक द्रव्य भी असंख्यात ही हैं। तोत्पर्य कहने का यह है कि लोक के एक एक प्रदेश में अवगाही अनेक द्रव्य क्षेत्र की
આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-આકાશના ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં રહેલા દ્રબ્યાને ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં આવે છે. ત્રણ આફ્રિ પ્રદેશવાળા ધાના આધારભૂત ક્ષેત્રવિભાગે। અસ ખ્યાત પ્રદેશી લેાકમાં અસખ્યાત છે. તેથી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઘણાં જ આનુપૂર્વી દ્રબ્યાને તુલ્યપ્રદેશવાળા ક્ષેત્રમાં અવગાહની અપેક્ષાએ એક માનવામાં આવેલ છે એટલે કે આકાશરૂપ ક્ષેત્રના ત્રણ પ્રદેશેામાં ત્રણ પ્રદેશવાળાં, ચાર પ્રદેશવાળાં, પાંચ પ્રદેશવાળાં અને છ આદિ અનત પ્રદેશવાળાં અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અવગાહિત થઈને રહે છે, પરંતુ તે સઘળાં દ્રવ્ય તુલ્યપ્રદેશાવગાહી હોવાને કારણે એક છે. ક્ષેત્રાનુપૂર્વી'માં લેાકના એવાં ત્રિપ્રદેશાત્મક વિભાગ અસખ્યાત છે. આનુપૂર્વી દ્રવ્યે પણ તેના જેટલી જ સંખ્યાવાળા હાયાથી અસંખ્યાત જ ડાય છે. એજ પ્રમાણે (અનુપૂર્વી દ્રષ્યેાની જેમ) અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેા અને વક્તવ્યક દ્રશૈ પણ અસખ્યાત જ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ઢાકના એક એક પ્રદેશમાં અવગાહી અનેક કૂબ્યા પણ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ
For Private and Personal Use Only
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे स्वादनानुपूर्वी द्रव्याण्यपि असंख्येयानि भवन्ति । तथा-प्रदेशद्वयेऽजगाढं बहूपि द्रव्य क्षेत्रत एकमेवावक्तव्यकद्रव्यम् । लोकस्य द्विप्रदेशात्मका विभागा असंख्याताः सन्ति, अतो द्विपदेशात्मकान्यवक्तव्यकद्रव्याण्यप्यसंख्यातानि भवन्तीति ॥० १११॥ अपेक्षा एक ही अनानुपूर्वीरूप हैं । ये असंख्यात इसलिए माने गये हैं कि इस प्रकार से असंख्यात प्रदेशवाले लोक में एक एक प्रदेश में ये एक २ रहते हैं। तथा आकाश के दो प्रदेशों में स्थित बहुत भी द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा एक ही अवक्तव्यक द्रव्य हैं । आकाश के दो प्रदेश रूपविभाग असंख्यात होते हैं इसलिये तदवगाहीद्रव्य भी असंख्यात हैं।
भावार्थ-नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य कितने हैं ? सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा इन प्रश्नों का समा. धान किया है। उन्होंने कहा है कि-आकाश के त्रिप्रदेशात्मक, विप्रदेशात्मक और एकप्रदेशात्मक विभाग असंख्यात हैं। क्योंकि आकाश स्वयं असंख्यात प्रदेश वाला है । यद्यपि आकाश के प्रदेश अलोकाकाश की अपेक्षा अनंत कहे गये हैं, फिर भी इस अनंत अलो. काकाश में कोई द्रष्य नहीं रहता है । असंख्यात प्रदेशवाले लोका. काश-में ही द्रव्योंका अवगाह है। लोकाकाशके उन विभागों में आनु. पूर्वी, अनानुपूर्वी, और अवक्तव्यक द्रव्य प्रत्येक असंख्यात २ रहते हैं। એક જ અનાનુપૂવ રૂપ છે. તેમને અસંખ્યાત માનવાનું કારણ એ છે કે આ પ્રકારે અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લેકના એક એક પ્રદેશમાં એક એક અનાનyવી દ્રવ્ય રહે છે. તથા આકાશના બે પ્રદેશોમાં સ્થિત ઘણાં દ્ર પણ ક્ષે ની અપેક્ષાએ એક જ અવક્તવ્ય દ્રવ્ય રૂપ છે. આકાશના બે પ્રદેશ રૂપ વિભાગ અસંખ્યાત હોય છે, તે કારણે તેમાં અવગાહી દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત છે.
| ભાવાર્થસૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રશ્નનું સમાધાન કર્યું છે કે, નિગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કેટલાં છે. સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે આકાશના ત્રિપદેશાત્મક, દ્વિપદેશાત્મક અને એક પ્રદેશાત્મક વિભાગ અસંખ્યાત છે, કારણ કે આકાશ પતે જ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળું છે. જો કે અલકાકાશની અપેક્ષાએ આકાશના પ્રદેશે અનંત કહ્યા છે, પરંતુ આ અનંત અકાકાશમાં તે કોઈ પણ દ્રવ્યને સદ્ભાવ જ નથી અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લેાકાકાશમાં જ દ્રવ્યને અવગાહ છે. કાકાશના તે વિભાગોમાં અસંખ્યાત આનુપૂવ દ્રવ્ય, અસખ્યાત અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય અને અસંખ્યાત અવક્તવ્ય
For Private and Personal Use Only
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र १११ द्रव्यप्रमाणद्वारनिरूपणम् क्योंकि यहांपर क्षेत्र की अपेक्षा-आनुपूर्वी आदि का विचार चल रहा है। अत: एक प्रदेशात्मक असंख्यात विभागों में एक एक विभागों में एक २ आनुपूर्वी आदि द्रव्य रहता है । यद्यपि एक प्रदेश में द्रव्य की अपेक्षा अनेक आनुपूर्वी आदि द्रव्य रहते हैं-परन्तु वे सब एक प्रदेश में आधारभूत होने के कारण एक माने जाते हैं। अतः इस प्रकार से एक प्रदेशरूप विभाग में रहे हुए ये अनेक द्रव्य एक प्रदेशरूप आधार की अपेक्षा एक प्रदेशाधगाही होने के कारण एक अनानुपूर्वी द्रव्य रूप पड़ते हैं। इस प्रकार लोक के एकप्रदेशात्मक असंख्यात विभागों में अनानुपूर्वी द्रव्य असंख्यात ही हो जाते हैं। इसी प्रकार से अवक्तव्यक द्रव्य और अनानुपी द्रव्य भी असंख्यात सध जाते हैं। क्योंकि लोक के विप्रदेशात्मक विभाग जप असंख्यात हैं तो इनमें जितने भी द्विप्रदेशी
आदि द्रव्य रहेगे वे सब विप्रदेशावगाही होने के कारण एक विप्रदेशास्मक विभाग में एक अवक्तव्यक द्रव्य रूप से स्वीकृत माने जावेगें। इस दिप्रदेशात्मक एक विभाग में जब अवक्तव्यकद्रव्य रहता है तो रिप्रदेशास्मक असंख्यात विभागों में असंख्यात ही अवक्तव्यक द्रव्य रहेगें। દ્રો રહે છે. અહીં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુપૂવ આદિને વિચાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી એકપ્રદેશાત્મક અસંખ્યાત વિભાગોમાંના પ્રત્યેક વિભાગમાં એક એક આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય રહે છે. જો કે પ્રત્યેક પ્રદેશમાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનેક આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યો રહે છે, પરંતુ તેઓ બધાં એક પ્રદેશમાં આધારભૂત હોવાને કારણે તેમને એક માનવામાં આવેલ છે. આ રીતે એકપ્રદેશ રૂપ વિભાગમાં રહેલાં અનેક દ્રવ્ય એક પ્રદેશરૂપ આધારની અપેક્ષાએ એક પ્રદેશાવગાહી હવાને કારણે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય રપ ગણવાને ગ્ય બને છે. આ રીતે લેકના એક પ્રદેશાત્મક અસંખ્યાત વિભાગમાં અનાનુપવી ક અસખ્યાત હોવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણે અવક્તવ્ય દ્રવ્ય અને આનુપૂવી દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત હેવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે, કારણ કે લેકના દ્વિપદેશાત્મક વિભાગ અસંખ્યાત હેવાથી તેમાં જેટલા ઢિપ્રદેશી આદિ દ્રવ્ય રહેશે તે સૌ પણ ઢિપ્રદેશાવગ હી હેવાને કારણે એક દ્વિપદેશાત્મક વિભાગમાં એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપે સ્વીકૃત થયેલાં માની શકાશે. આ ઢિપ્રદેશાત્મક એક વિભાગમાં જે એક અવકતવ્યક દ્રવ્ય રહેતું હોય, તે દ્વિપદેશાત્મ અસંખ્યાત પ્રદેશમાં અસંખ્યાત અવકતવ્યક દ્રવ્ય રહી શકે, એ વાત પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે. આ રીતે અવકતવ્ય બે અખાત લેવાનું કથન પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
४६४.
अनुयोगद्वारसूत्रे
मूलम् - गमववहाराणं खेत्ताणुपुब्वीदव्वाई लोगस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा ? असंखिज्जइभागे होजा ? जाव सव्वलोए होजा ?, एगं दव्वं पहुच लोगस्स सांखज्जइभागे वा होजा, असंखिज्जइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, देसूणे वा लोए होजा । नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सक्लोए होज्जा । णेगम त्रवहाराणं अणाणुपुवीदय्वाणं पुच्छा एगदवं पडुच्च नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होजा, नो संखेज्जेसु भागेसु होजा नो असंखेजेसु भागेसु होज्जा नो सव्वलोए होजा, नाणादव्वाईं पडुच्च णियमा सव्वलोए होज्जा । एवं अवत्तवगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि ॥ सू० ११२ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इसी प्रकार अवक्तव्यकद्रव्य भी असंख्यात सधजाते हैं । इसी प्रकार से लोक के जब प्रदेशात्मक विभाग असंख्यात हैं तो इनमें जितने भी प्रदेशी आदि द्रव्य रहेंगे वे सब त्रिप्रदेशावगाड़ी होने के कारण एक प्रदेशात्मक विभाग में एक आनुपूर्वी द्रव्य रूप से स्वीकृत हुए माने जावेगें । इस त्रिप्रदेशात्मक एक विभाग में जब एक आनुपूर्वीद्रव्य रहता है तो लोक के त्रिप्रदेशत्मक असंख्यात विभागों में द्रव्य कितने आनुपूर्वी रहेंगे। इस प्रकार गणना के अनुसार आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात सध जाते हैं । सू० १११ ॥
એજ પ્રમાણે લેકના ત્રિપ્રદેશી વિભાગા પણુ જો સખ્યાત હૈય તે તેમાં જેટલાં ત્રિપ્રદેશી આદિ દ્રવ્યે રહેશે તેઓ બધાં પણ ત્રિપ્રદેશાવ ગાઢી હાવાને કારણે એક ત્રિપ્રદેશાત્મક વિભાગમાં એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે સ્વીકૃત થયેલા મનાશે આ ત્રિપ્રદેશાત્મક એક વિભાગમાં જે એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રહેતુ. ડાય, તે લેાકના ત્રિપ્રદેશાત્મક અસખ્યાત વિભાગેામાં અસ ખ્યાત આનુપૂર્વી દ્રવ્યેા રહેતા હશે આ પ્રકારે માનુપૂર્વી દ્રવ્યેની સખ્યા પણ અસંખ્યાત હોવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. સ્ ૧૧૧૫
For Private and Personal Use Only
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् ४६५
छाया-नैगमव्यवहारयोः क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्याणि कोकस्य किं संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयमागे भवन्ति यावत् सर्वलोके भवन्ति ? । एकं द्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्येयतमभागे वा भवति, असंख्येयतमभागे वा भवति, संख्येयेषु भागेषु वा भवति, असंख्येयेषु भागेषु वा भवति, देशोने वा लोके भवति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति। नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणां पृच्छा. बामेकद्रव्यं प्रतीत्य नो संख्येयतमभागे भवति, असंख्येयतमभागे भवति, नो संख्येयेषु भागेषु भवति, नो सर्वलो के भवति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । एवम् अवक्तव्यकद्रव्याण्यपि भणितव्यानि ॥मू० ११२॥
टीका-अथ क्षेत्रद्वार निरूपयितुमाह-'णेगमयवहाराणं' इत्यादि ।
नैगमव्यवहारसम्मतानि क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभागे भव. न्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? यावत् सर्वलोके भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरमाहएकं द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्वी द्रव्यं लोकस्य संख्येयतमभागे वा भवति, असंख्येयतमभागे वा भवति, संख्येयेषु वा मागेषु भवति, असंख्येयेषु वा भागेषु भवति । (गमववहाराणं खेत्ताणुपुव्वी) इत्यादि ।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं खेत्ताणुपुवी-दव्वाईलोगस्स किं संखिज्जाभागे होज्जा ?)
प्रश्न-नैगमव्यवहारनय संमत क्षेत्रानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के सं ख्यातवें भाग में होते हैं ? (असंखिज्जहभागे होज्जा ?) या असंख्यातवें भागमें रहते हैं ?(जाव सबलोए होज्जा) यावत् समस्त लोकमें होते हैं ? ___उत्सर-(एगं दव्यं पडुच्च लोगस्स संखिज्जाभागे वा होज्जा असं. खेज्जहभागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा देसूणे वा लोए होज्जा ) एकद्रव्यकी अपेक्षा लेकर आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में भी रहता है असंख्यातवें ___ “णेगमववहाराण' खेत्ताणुपुवो" त्याह
साय-(गमवहाराणं खेसाणुपुत्वीदव्याई लोगस्स किं संखिज्जा भागे होज्जा) गन् । नेगमव्यवहार नयस भत क्षेत्रानुषी द्रव्या as vयातमा भागमा छ ?" (असंखिज्जइभागे होण्जा ?) सध्या तमा भागमा डाय छ। (जाव सव्वलोए होज्जा ?) समतभडियछे ?
Sत्तर-(एगं दव्व पडुच्च लोगस्स संखिज्जइभागे वा होज्जा, असंखिजइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वो होज्जा, देसणे वा लोए होजा) से द्रव्यनी अपेक्षा विया ३२वाम भाव તે આનુપૂરી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગમાં પણ રહે છે, અસંખ્યાતમાં
अ० ५९
For Private and Personal Use Only
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
经济学
अनुयमाद्वार
कन्धद्रव्याणां विचित्र परिणमनशक्तिमत्वात् संख्येयादिप्रदेशावगाहित्वं बोध्यम् । विशिष्टक्षेत्रात्रगाहो पलक्षितानां स्कन्धद्रव्याणामेव क्षेत्रानुपूर्वीत्वेनोक्तत्वात् । तथा एकं द्रव्यं प्रतीत्य देशोने वा लोके आनुपूर्वीद्रव्यं भवति ।
ननु - अचितमहास्कन्धस्य सर्वलोकव्यापकत्वं पूर्वमुक्तम् । तस्य च समस्तलोकसंख्येयप्रदेश लक्षणायां क्षेत्रानुपूर्व्यामत्रगाढत्वात परिपूर्णस्यापि क्षेत्रानुपूर्वीत्वं न किचिद् विरुध्यते, अतस्तदपेक्षया क्षेत्रतोऽप्यनुपूर्वीद्रव्यं सर्वलोकव्यापि भाग में भी रहता है, संख्यात भागों में भी रहता है असंख्यात भाग मैं भी रहता है । क्योंकि स्कंध द्रव्यों की परिणमन शक्ति विचित्र प्रकार की है। अतः विचित्रप्रकार की परिणमन शक्तिवाले होने के कारण स्कंध द्रव्योंका अवगाहलोक के संख्यातवें आदि भागों में होता है। क्यों कि विशिष्ट क्षेत्र में अवगाह से उपलक्षित हुए स्कन्ध द्रव्यों को ही क्षेत्रानुपूर्वी रूप से कहागया है। तथा एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर आनुपूर्वी द्रव्य कुछ कम देशोन लोक में भी अवगाहित होता है।
शंका- पहिले द्रव्यानुपूर्वी में अचित्त महास्कंध, कि जो पुद्गलद्रव्य सबसे बड़ा स्कंध होता है और जो अनंतानंत परमाणुओं से निष्पन्न होता है । सर्व लोक व्यापी कहा है। इस प्रकार अवित्त महास्कंध की अपेक्षा एक आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में व्यापक होकर जब रहता है - तथ यह बात आपकी कैसे मानी जा सकती है कि आनुपूर्वी द्रव्य
ભાગમાં પશુ રહે છે, સખ્યાત ભાગેામાં પણ રહે છે, અસખ્યાત ભાગેામાં પણ રહે છે, કારણ કે કધ દ્રબ્યાની પરિણમનશકિત વિચિત્ર હોય છે. વિચિત્ર પ્રકારની પરિણમનશકિતવાળા હેાવાને કારણે 'ધ દ્રબ્યાને અવગાહ લાકના સખ્યાતમાં આદિ ભાગેામાં હોય છે. કારણ કે વિશિષ્ટ ક્ષેત્રમાં અવગાહથી ઉપલક્ષિત થયેલાં સ્કધદ્રવ્યેાને જ ક્ષેત્રનુપૂર્વી રૂપે ગણવામાં આવે છે. તથા એક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અમુક ન્યૂન દેશપ્રમાણુ-દેશન-લેાકમાં પશુ અવગાહિત હાય છે. શંકા-દ્રવ્યાનુપૂર્વી નું નિરૂપણુ કરતાં પહેલાં આપે એવુ કહ્યુ છે કે પુકૂલ દ્રવ્યના સૌથી માટે સ્કધ કે જે અનતાન'ત પરમાણુઓમાંથી બને છે, અને જેને અચિત્ત મહાસ્ક ધ કહેવામાં આવે છે, તે સવલોકન્યાપી છે.’’ આ પ્રકારે આ અચિત્ત મહાક`ધની અપેક્ષાએ એક અનાનુપૂર્વી દ્રશ્ય જો સમસ્ત લેાકમાં વ્યાપક હોય તે આપની એ વાત કેવી રીતે માની શકાય કે આનુપૂર્વી દ્રવ્યના એક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તે અમુક દેશે!ન (દેશ ન્યૂન) લેાફમાં વ્યાપીને રહે છે? કારણ કે સમસ્ત લેાક
"<
For Private and Personal Use Only
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् माप्यते, कथं तर्हि देशोनलोकव्यापिता प्रोच्यते ? इति चेत् , उच्यते-- अयं लोक आनुपूर्व्यनानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यैः सर्वदेवाशून्य एव भवतीति सिद्धान्तः । यदिचात्राऽऽनुपूर्व्याः सर्वलोकव्यापिता निर्दिश्येत, तदाऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां निरवकाशतयाऽभावः प्रतीयेत, अतश्च-अचित्तमदास्कन्धपूरितेऽपि लोके जघन्यतोऽप्येकः प्रदेशोऽनानुपूर्वीविषयत्वेन विवक्षितः। प्रदेशद्वयं चायक्तव्यकद्रव्यविषयएक द्रव्य की अपेक्षा करके कुछ कम लोक में व्यापक होकर रहता है । क्योंकि समस्त लोकवी असंख्यात प्रदेशरूप क्षेत्रानुपूर्वी है सो उसमें अवगाढ-अवगाही होने से- परिपूर्ण अचित्त महास्कंध का क्षेत्रानुपूर्वोपना भी कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ता है। इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य में एक आनुपूर्वी, द्रव्य की अपेक्षा करके जो देशोन लोक में अवगाहिता प्रकट की है वह ठीक नहीं है।
उत्तर-यह सिद्धान्त है कि यह लोक आनुपूर्वी अनानुपूर्वा और अवक्तव्यक द्रव्यों से सदा ही अशुन्य है। यदि आनुपूर्वी द्रव्य कोसर्वलोक व्यापी माना जावे तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को ठहरने के लिये स्थान न होने के कारण उनका अभाव प्रसक्त होगा।
और जब देशोन लोक में एक आनुपूर्वी द्रव्य व्यापक होकर रहता है। ऐसा माना जाता है तो इस प्रकार से अचित्त महास्कंध से पूरित हुए भी लोक में कम से कम एक प्रदेश ऐसा भी आजाता है कि जो अना. नुपूर्वी द्रव्य का विषय रूप से विवक्षित हो जाता है । तथा दो प्रदेश વત અસંખ્યાત પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રાનુપૂવી છે, અને તેમાં અવગાહી (રહેલો) લેવાથી પરિપૂર્ણ અચિત્ત મહાત્કંધમાં પણ ક્ષેત્રાનુપૂવવ માનવામાં કોઈ પણ વધે જણાતું નથી.
ઉત્તર-એ સિદ્ધાંત છે કે આ લેક આનુપૂવી અને અવક્તવ્ય દ્રવ્યોથી રહિત કદી હેતે નથી જે આનુપૂર દ્રવ્યને સર્વવ્યાપી માનવામાં આવે, તે અનાનુપૂવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યને રહેવાનું સ્થાન જ બાકી ન રહે ! અને તે કારણે તેમને અભાવ જ માનવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે જે એવું માનવામાં આવે કે દેશેન (દેશ ન્યૂન) લેકમાં એક આતુ પૂર્વી દ્રવ્ય વ્યાપીને રહે છે, તે અચિત્ત મહાપ વડે પૂરિત થયેલા લેકમાં પણ ઓછામાં ઓછા એક પ્રદેશ એવો પણ બાકી રહેશે કે જેમાં અનુપૂર્વી દ્રવ્યને સદ્દભાવ હોઈ શકે, તથા તે લેકમાં બે પ્રદેશ એવા
For Private and Personal Use Only
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ઘૂંટ
अनुयोगद्वारसूत्रे
त्वेन विवक्षितम्, आनुपूर्वीद्रव्यस्य तत्र सश्वेऽपि तस्याज्याधान्येन विवक्षणात्, अनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोस्तु प्राधान्येन विवक्षणादिति श्रतोऽत्र देशोनो लोकोऽत्र विवक्षितइति । उक्तं च
" महापुण्गे वय अवतन्त्रगणाणुपुव्विद वाई । जसोगाढाई तद्देसेणं स लोगूणो " ॥ १ ॥
छाया - महास्कन्धाऽऽपूर्णेऽपि च अवक्तव्यकाऽनानुपूर्वीद्रव्याणि । यद्देशावगाढानि तद्देशेन स लोकोनः ॥ इति ।
ननु यद्येवं तर्हि द्रव्यानुपूण्यमपि सर्वलोकव्यापित्वमानुपूर्वोद्रव्यस्य यदुक्तं तद् विरुध्यते, अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामनवकाशत्वेन तत्राप्यभाव प्रतीतिऐसे भी आ जाते हैं कि जो अवक्तव्यक द्रव्य के विषयरूप से विवक्षित हो जाते हैं। इन एक और दो प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य का भी सद्भाव रहता है तो भी अप्रधान होने से उसकी वहां विवक्षा नहीं होती है। अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक इन द्रव्यों की ही प्रधानता होने से विवक्षा की जाती है। इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से देशोन लोक में अवगाहित कहा गया है। यही बात उक्तंच"महाखंधा पुण्णेविय इत्यादि" करके इस गाथा द्वारा प्रकट की गई है।
शंका- यदि यही बात है कि एक अनानुपूर्वी द्रव्य क्षेत्रानुपूर्वी में देशोन लोक व्यापी है फिर द्रव्यानुपूर्वी में भी यही बात माननी चाहियेपरन्तु वहां ऐसी बात नहीं मानी गई है वहां तो आनुपूर्वी द्रव्य को सर्व लोक व्यापी कहा गया है। क्षेत्रानुपूर्वी में अनानुपूर्वी द्रव्य को सर्व
પણ ખાકી રહેશે કે જેમાં અવકતવ્યક દ્રશ્યના અવગ હું સાઁભવી શકશે તે એક અને એ પ્રદેશેામાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યને પણ સદ્દભાવ રહે છે, છતાં પણ તે ત્યાં અપ્રધાન હાવાને કારણે તેની વિવક્ષા અહીં કરી નથી અનાનુપૂર્વી અને આવકતવ્ય, આ એ કન્યાની જ ત્યાં પ્રધાનતા હાવાથી તેમની જ વિવક્ષા કરવામાં આવી છે. તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્યના એક આનુપૂર્વી દ્રશ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તેા તેની અવગાહના દેશાન લેાકમાં છે. એજ વાતને महाखंधा पुण्णेविय " ઇત્યાદિ સૂત્રપાઠ દ્વારા અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
66
શકા-જો એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય ક્ષેત્રાનુપૂર્વીમાં દેશેાન (દેશ ન્યૂન) લાકવ્યાપી હોય, તા દ્રવ્યાનુપૂર્વીમાં પણ એવી જ વાતના સ્વીકાર થવા જોઇએ પરન્તુ દ્રવ્યાનુપૂર્વીમાં એવી વાતને સ્વીકાર કરવાને બદલે આનુપૂર્વી ત્યને સલાકવ્યાપી કહેવામાં આવેલ છે. ક્ષેત્રાનુપૂર્વીમાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યને
For Private and Personal Use Only
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् प्रसङ्गात् , सर्वकालं च तेषामप्यवस्थितिप्रतिपादना ? दिति चेत् ? उच्यतेद्रव्यानुपूर्या हि द्रव्याणामेवानुपूर्यादिभाव उक्तः, न तु क्षेत्रस्य, तस्य तत्रानधिः कृतत्वात् । आनुपूादिद्रव्यागां परस्परभेदेऽपि एकस्मिन्नपि क्षेत्रे तदवस्थानं न किंचिद् विरुध्यते, यथा एकापवरकान्तर्गतानेक प्रदीपप्रमाणामवस्थिति न विरुध्यते। इत्थं च द्रव्यानुपूामानुपूर्वीद्रव्याणां समस्तलोके विद्यमानत्वेऽपि न तत्र कस्या लोक व्यापी मानने में जो आपने अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यको ठहरने के लिये स्थान होने के कारण उनमें अभाव के प्रसंग प्राप्त होने का कथन किया है, सो वही अभाव के प्रसंग प्राप्त होने के कारण उन अनानुपूर्वी' और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिये द्रव्यानुपूर्वी में भी आनुपूर्वी द्रव्य को सर्वलोकव्यापी मानने पर उपस्थित होता है । परन्तु ऐसा तो है नहीं-क्योंकि सर्वकाल उन दोनों का भी अवस्थान माना गया है। - उत्तर-द्रव्यानुपूर्वी में द्रव्यों के ही आनुपूर्वी आदि भाव का कथन किया गया है। आकाश रूप क्षेत्र को आनुपूर्वी आदि भाव का नहीं। क्योंकि वहां पर द्रव्यानुपूर्वी में-आकाश रूप क्षेत्र का विचार अधिकृत नहीं है । आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का परस्पर में भेद होने पर भी उनका अवस्थान एक भी आकाश प्रदेश रूप क्षेत्र में थोड़ा सा भी विरूद्ध नहीं पड़ता है, जैसे एक कोठे के अन्तर्गत अनेक प्रदीपप्रभाओं की अवस्थिति में कोई विरोध नहीं होता है । इस प्रकार यानुपूर्वी मे आनुपूर्वीद्रव्यों સર્વલકથાપી માનવામાં આવે એ પ્રસંગ પ્રાપ્ત થવાનો ભય બતાવ્યા છે. કે એ પ્રકારની માન્યતાને સ્વીકાર કરવામાં આવે તે અનાનુપૂવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય ને રહેવાના સ્થાનને જ અભાવ રહેવાને કારણે તે દ્રવ્યને અભાવ માનવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. તે આનુપૂવી દિવ્યને સર્વવ્યાપી માનવામાં આવે તે અનાનુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક દ્રને પણ અભાવ માનવાનું કારણ અહીં પણ ઉપસ્થિત થશે પરંતુ એવી વાત તે સંભવિત નથી, કારણ કે તે બનેને સદ્ભાવ સદા માનવામાં આવે જ છે.
ઉત્તર-દ્રવ્યાનુપૂર્વીમાં દ્રવ્યના જ આનુપૂર્વી આદિ ભાવનું કથન કરવામાં આવ્યું છે-આકાશરૂપ ક્ષેત્રને આનુપૂર્વી આદિ ભાવનું કથક થયું નથી, કારણ કે દ્રવ્યાનુપવમાં આકાશ રૂપ ક્ષેત્રને વિચાર અધિકૃત નથી આનપણી આદિ દ્રવ્યને પરસ્પરમાં ભેદ હોવા છતાં પણ તેમનું અવસ્થાન એક પણ આકાશપ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં સહેજ પણ વિરૂદ્ધ પડતું નથી જેવી રીતે એક કોઠાની અંદર પ્રદીપે (દીવા) ની પ્રભાઓની અવસ્થિતિમાં કોઈ વિધિ પડતું નથી, એજ પ્રમાણે દ્રવ્યાનુપૂર્વમાં આનુપૂવ દ્રવ્યને સમસ્ત લેકમાં
For Private and Personal Use Only
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४७०
अनुयोगद्वारसूत्र यनरकाश इति, न कश्चिद् शेषः। क्षेत्रानुष्यों तु द्रव्याणामौपचारिक एवार्नु पूादिभावः, मुख्यतस्तु क्षेत्रस्यैवानुपूर्णादिभावो विवक्षितः, तस्यैवात्राधिकारात्। तस्मादत्र यदि सर्वेऽपि कोकमदेशा आनुपूया व्याप्ता भवेयुस्तहि अनानुपूर्व्यवक्तध्यकतया किमन्यत् क्षेत्र क्षेत्रानुपूर्वीस्यात् ?। येषु नमःमदेशेष्वानुपूर्व्यस्तेष्वेवाना नुपूर्व्यवक्तव्यययोरपि सद्भावः स्यादिति तु न वक्तुं शक्यते, द्रव्यावगाहभेदेन को समस्त लोक में व्यापक मानने पर भी वहां अनानुपूर्वी और अव. कम्यक द्रव्यों के ठहरने में अनवकाश रूप दोष की आपत्ति का प्रसंग प्राप्त थोड़ा भी नहीं होता है । परन्तु क्षेत्रानुपूर्वी में जो द्रव्यों का आनु. पूर्वी आदि भाव कहा गया है वह तो औपचारिक ही हैं । क्योंकि इस क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र में, ही आनुपूर्वी आदि रूप भाव मुख्य रूप से विकक्षित हुआ है, इसका कारण यह है कि उसका यहां अधिकार चल रहा है, इसलिये क्षेत्रानुपूर्वी में यदि सब भी लोक के प्रदेश आनुपूर्वी से व्यात हो जावे तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक रूप से और कौन से दूसरे प्रदेशरूपी क्षेत्र क्षेत्रानुपूर्वी रूप से व्यवहृत होंगे कि जिससे जिन आकाश के प्रदेशों में आनुपूर्वियों का सद्भाव है उन्हीं में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकों का सदभाव हो सके ? नहीं हो सकेगा। अतः फिर यह कैसे कहा जा सकता है, कि जिन आकाश प्रदेशों में आनुपूर्वी का सद्भभाव है उन्हीं में अनानुपूर्वियों और अवतव्यकों का भी सद्भाव हैं। यदि इसपर यों कहा जावे कि इस प्रकार से मानने में कि जिन आकाश બાપક માનવા છતાં પણ ત્યાં અનાનુપૂવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યને રહેવામાં અવકાશ રૂપ દેશની આપત્તિને પ્રસંગ બિલકુલ પ્રાપ્ત થતો નથી. પરતું ક્ષેત્રાનુપૂર્ણીમાં દ્રવ્યના જે આનુપૂવ આદિ ભાવ કહેવામાં આવ્યા છે તે તે ઔપચારિક જ છે, કારણ કે આ ક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં ક્ષેત્રમાં જ આનુપૂર્વી આદિ ૩૫ ભાવ મુખ્ય રૂપે વિવસિત થયા છે તેનું કારણ એ છે કે તેને જ અધિકાર અહીં ચાલી રહ્યો છે તેથી ક્ષેત્રાનુકૂવીમાં જે લેકના સમસ્ત પ્રદેશો આનુપૂર્વા વડે વ્યાપ્ત થઈ જાય, તે અનાનુપૂર્વી અને અવકતબ્બક દ્રવ્યોને જેમાં સદૂભાવ હોય એવાં અન્ય પ્રદેશે રૂપ ક્ષેત્રનો સદૂભાવ જ કયાથી રહે! આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં એવું કેવી રીતે કહી શકાય કે જે આકાશપ્રદેશોમાં આનુપૂર્વી એને સદૂભાવ છે, એજ આકાશપ્રદેશમાં અનાનુ“ધી અને અવકતવ્યકેને પણ સદભાવ છે ! આ બાબતને અનુલ
For Private and Personal Use Only
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् क्षेत्रभेदस्य विवक्षणात् । तस्मादनानुपूर्व्यवक्तव्यकयो विषयं प्रदेशत्रयं विहाय शेषप्रदेशा एवानुपूर्त्या विषयो भवतीति प्रदेशत्रयलक्षणेन देशेन लोकम्योनता निवसिता, अतः क्षेत्रानुपूर्यामेकं द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्तीद्रव्यं देशोने लोके भवति । प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य अवगाहित होते हैं, उन्हीं प्रदेशों में शेष दो द्रव्य भी अवगाहित होते हैं। अतः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों से अधिष्ठित वे कुछ प्रदेश अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक रूप से कहें जावेंगे । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है कारण इस प्रकार के कथन से द्रव्य के अवगाह की भिन्नता से क्षेत्र में भेद आजाता है । जिसकी यहां विवक्षा है। तात्पर्य कहने का यह है कि द्रव्यानुपूर्वी में भानुपूर्वी द्रव्यों का समस्त लोक में अवस्थान न होने पर भी अनानुपूरी और अवक्तव्यक द्रव्यों के अवस्थान होनेपर वहां कोई दोष नहीं आता है। परन्तु क्षेत्रानुपूर्वी में यदि आनुपूर्वीद्रव्य को समस्त लोक व्यापी माना जावे अर्थात् लोक के समस्त प्रदेश भानुपूर्वी रूप मान लिये जावें तो इस स्थिति में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक प्रदेश कौनसे माने जावेंगे कि जिनमें अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य ठहर सकें । अतः यह मानना चाहिये कि इस क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रदेश अनानुपूर्वी क्षेत्रानुनुपूवीं का विषय है और दो प्रदेश अवक्तव्यक क्षेत्रानुपूर्वी के विषय ક્ષીને એવી દલીલ કરવામાં આવે કે “જે આકાશપ્રદેશમાં આનુપૂવી દ્રવ્ય અવગાહિત હોય છે, એજ પ્રદેશમાં બાકીના બન્ને દ્રવ્ય અવગાહિત હોય છે, અને તે કારણને લીધે અનાનુપૂરી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યથી અધિષિત એવાં એજ અમુક પ્રદેશને અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક રૂપે કહી શકાશે. ” આ પ્રકારની માન્યતા પણ બરાબર નથી, કારણ કે આ પ્રકારની માન્યતાને સ્વીકાર કરવાથી દ્રવ્યના અવગાહની ભિન્નતાને લીધે ક્ષેત્રમાં પણ ભિન્નતા આવી જાય છે. તેની જ અહીં વિવક્ષા ચાલી રહી છે આ સમસ્ત કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે દ્રવ્યાનવીમાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યોનું સમસ્ત લેકમાં અવસ્થાન હોવા છતાં પણ અનાનુપૂવી અને અવકતવ્ય દ્રવ્યો ત્યાં અવસ્થાન માનવામાં કઈ દેષ નથી પરંતુ ક્ષેત્રાનું પૂર્વમાં જે આનુપૂર્વી સમસ્ત લેકવ્યાપી માનવામાં આવે એટલે કે લેકના સમસ્ત પ્રદેશને જે આનુપૂર્વી રૂપ માનવામાં આવે, તે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યું જેમાં અવગાહિત થઈ શકે એવાં અનાનુપૂર્વ પ્રદેશ કોને માનવા? તેથી એવું જ માનવું પડશે કે આ ક્ષેત્રાનુપૂર્વીમાં એકપ્રદેશ અનાનુપૂર્વી ક્ષેત્રાનુપવને વિષય છે અને બે પ્રદેશ અવક્તવ્ય ક્ષેત્રાનુ-વીને વિષય છે. આ
For Private and Personal Use Only
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૦૨
अनुयोगद्वारसूत्रे
तथा - नानाद्रव्याणि प्रतीत्य आनुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सर्वलोके भवन्ति । sयादिप्रदेशावगाढ भेदतो नानाविधैः = विभिन्नप्रकारैरानुपूर्वीद्रव्यैः सर्वोऽपि कोको व्याप्त इति भावः ।
हैं। इस प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को ठहरने के लिये ये तीन प्रदेश लोक के हैं। इन प्रदेशों में यद्यपि आनुपूर्वीद्रव्य भी अवगाहित होकर रहता है - परन्तु उसकी यहां गौणना है, और शेष दो द्रव्यों की मुख्यता है, इस प्रकार अवगाहियों के भेद से अवगाहरूप आकाश में भेद आजाता है । अतः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकद्रव्यों के विषयभूत प्रदेश को छोड़ कर बाकी के समस्त प्रदेश लोक के आनुपूर्वी रूप हैं । तथा एकप्रदेश अनानुपूर्वी और दो प्रदेश अवक्तव्यक हैं । इसी कारण तीन प्रदेशरूप देशरूप देश से न्यूनता लोक में विवक्षित की गई है। अर्थात् लोक के ये ३ प्रदेश आनुपूर्वी नहीं हैं और बाकी के समस्त प्रदेश आनुपूर्वी रूप हैं। इस प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी में एक आनुपूर्वी द्रव्य को आश्रित करके तीन प्रदेश न्यून समस्त लोक में आनुपूर्वी द्रव्य अवगाही हैं । यह कथन सिद्ध हो जाता है। तथा (नाणादव्वाई पडुच्च नियमा) नाना द्रव्यों की अपेक्षा लेकर समस्त आनुपूर्वी द्रव्य नियम से सर्वलोक में अवगाही है। अर्थात् लोक के प्यादिप्रदेशों में
રીતે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રબ્યાને રહેવા માટે લેાકના આ ત્રણ પ્રદેશ છે. તે પ્રદેશમાં જે કે આનુપૂર્વી દ્રષ્ય પશુ અવગાહિત થઇને રહે છે, પરન્તુ તેની ત્યાં ગૌશુતા છે અને બાકીના બે કૂબ્યાની પ્રધાનતા છે. આ પ્રકારે અવગાહિત કૂબ્યાની અપેક્ષાએ અવગાહરૂપ આકાશમાં પણ ભેદ આવી જાય છે. તેથી અનાનુપૂર્વી અને મવક્તવ્યક દ્રવ્યાના વિષય રૂપ ત્રણ પ્રદેશે સિવાયના લાકના માકીના સમસ્ત પ્રદેશેા આનુપૂર્વી રૂપ છે. તથા એક પ્રદેશ અનાનુપૂર્વી રૂપ અને બે પ્રદેશેા અવક્તવ્યક રૂપ છે. આ કારણે ત્રણ પ્રદેશરૂપ દેશની અપેક્ષાએ લેકમાં ન્યૂનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. એટલે કે લેાકના તે ત્રશુ પ્રદેશે! આનુપૂર્વી રૂપ નથી અને બાકીના સમસ્ત પ્રદેશે। આનુપૂર્વી રૂપ છે. આ રીતે એ કથન સિદ્ધ થાય છે કે ક્ષેત્રાનુપૂર્વીમાં એક અનાનુપૂર્વી' દ્રવ્યને આશ્રિત કરીને ત્રણ પ્રદેશ ન્યૂન સમસ્ત લેાકમાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યની અવગાહના છે.
तथा (नाणादव्वाइ' पहुच्च नियमा) विविध द्रव्यांनी अपेक्षाओ विचार કરવામાં આવે તે સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય નિયમથી જ સવ ઢાકમાં અવગાહી
For Private and Personal Use Only
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम्
४७३
तथा - नैगमव्यवहारसम्मतानाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणां पृच्छायां =पने तु एवं विज्ञेयम् - एकं द्रव्यं प्रतीत्य अनानुपूर्वीद्रव्यं नो संख्येयतमभागे भवति, नो संख्येयेषु भागेषु भवति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवति, नापि च सर्वलोके भवति, किन्तु - असंख्येयतमभागे भवति । अयं भावः - एकं द्रव्यमाश्रित्यानानुपूर्वीद्रव्यं स्थित आनुपूर्वी द्रव्यों के भेद से विभिन्न प्रकार के आनुपूर्वी द्रव्यों से समस्त लोक व्याप्त हैं। ( णेगमबवहाराणं) नेगम व्यवहारनयसंमत (अणाणुपुथ्वीदन्वाइं ) अनानुपूर्वी द्रव्यों के ( पुच्छाए) प्रश्नों में तो इस प्रकार समझना चाहिये ( एगं दत्र ) एक द्रव्य की ( पडुच्च) प्रतीति करके अर्थात् एक अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा करके (नो संखेज्जहभागे होज्जा) अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में अवगाही नहीं हैं (नो संखेज्जेसु भागे होज्जा. संख्यात भागों में अवगाही नहीं हैं (नोअसंखेज्जेसु भागेसु होज्जा) असंख्यात भागों में अवगाही नहीं हैं) (नो सव्वलोए होज्जा) और न सर्वलोक मे अवगाही हैं किन्तु (असंखेज्जइ भागे होज्जा) लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाही हैं। अयं भावः- एक आनानुपूर्वी द्रव्य को लेकर जब यह विचार किया जाता है कि अनानुपूर्वीद्रव्य लोक के कौन से भाग में अवगाहित है? तब यह उत्तर मिलता है कि असंख्यातवें भाग में ही अवगाही है। क्योंकि अनानुपूर्वी द्रव्य
(રહેલુ) છે. એટલે કે લેાકના ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં રહેલા આનુપૂર્વી દ્રવ્યેના लेहथी विभिन्न प्रहारना मानुपूर्वी द्रव्यो वडे समस्त सेोड व्यास छे. (णेगमववहाराणं' ) नैगभव्यवहार नयसभित ( अणाणुपुव्वी दव्वाण ) अनानुपूर्वी द्रव्योना (पुच्छाए) प्रश्नोभां (विषयभां) तो गया प्रमाणे समभवु लेोहयो(एग दव्त्र पडुच्च) ले सेठ मनानुपूर्वी द्रव्यनी अपेक्षाओ विचार अश्वाभां श्यावे, तो (नो संखिज्जइभागे होज्जा ) मनानुपूर्वी द्रव्य सोम्ना सध्यातभां भागमां भवगाडी नथी, (नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ), बोडना सभ्यात भागोभां पशु अवगाडी नथी, (नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ) असभ्यात लागोभां पशु अवगाडी नथी, (नो सम्बलोए होज्जा ) भने समस्त बोम्मां पाशु अवगाडी नथी, परन्तु ( असंखेज्जइभागे होज्जा ) साउना असभ्यातभां ભાગમાં અવગાહી છે. આ સઘળા કથનના ભાવાય એ છે કે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની ખાખતમાં એવા વિચાર કરવામાં આવે કે “એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેાકના કેટલા ભાગમાં અવગાહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર એ છે કે તે લેાકના અસખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહી છે. કારણ કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય
अ० ६०
For Private and Personal Use Only
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारस्ते लोकस्य संख्येयतमे भाग एव वर्तते, एकप्रदेशावगाढस्यैवानानुपूर्वीत्वेन विवक्षणात्, एकप्रदेशस्य च लोकाऽसंख्येयभागवर्तित्वादिति। नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अनानुपूर्वीद्रव्याणि नियमात सर्वलोकव्यापीनि भवन्ति, एकैकप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां समस्तलोकव्यापित्वादिति भावः।
एवम् अनानुपूर्वीद्रव्यवत् अवक्तव्यकद्रव्याण्यपि मणितव्यानि वक्तव्यानि । अयं भावः-एकं द्रव्यमाश्रित्यावक्तव्यकद्रव्यमपि असंख्येयतममागे एव भवति, द्विपदेशावगाढस्यैवावक्तव्यकद्रव्यत्वेनाभिधानात् प्रदेशद्वयस्य च लोकासंख्येयरूप से वही द्रव्य विवक्षित हुआ है, जो लोक के एकप्रदेश में ही-अव. गाढ होता है। लोक का एकप्रदेश लोक के असंख्यातवें भाग में रहने वाला है । इसलिये अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवगाही माना गया है । (नाणा दवाई) नाना अनानुपूर्वी द्रव्यों की(प. इच्व) अपेक्षा लेकर अनेक अनानुपूर्वी द्रव्य (णियमा) नियम से (सव्वलोए होज्जा) सर्वलोक व्यापी माने गये हैं। क्योंकि एक एकप्रदेश में अवगाढ अनानुपूर्वीद्रव्यों के भेद समस्त लोक को व्याप्त किये हुए रहते हैं। (एवं अवत्तव्यगव्वाणि वि भाणियव्याणि) इसी प्रकार अनानुपूर्वी द्रव्य की तरह अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी जानना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि एक अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा से एक अवक्तव्यकद्रव्य भी लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवगाही रहता है, क्योंकि लोक के प्रदेशव्य में अवगाढहुए द्रव्य को अवक्तરૂપે એજ દ્રવ્ય વિવક્ષિત થયું છે કે જે લેકને એક પ્રદેશમાં જ રહેલું હોય છે. લેકને એક પ્રદેશ લોકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહેલું હોય છે. તે કારણે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યને લોકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહી માનવામાં આવ્યું છે.
(नाणाव्वाई पडुच्च) विविध मनानुभवी द्रव्यानी अपेक्षा वयार ४२वामां आवे, तो (णियमा सव्वलोए होज्जा) तो तभने नियमथी। સર્વલકવ્યાપી માનવામાં આવેલ છે, કારણ કે એક એક પ્રદેશમાં અવગાઢ मनानुभवी द्रव्याना ही समस्त साने व्यास उशन २ सय छे. (एवं अवत्तव्वगव्वाणि वि भाणियव्वाणि) मनानुपूवी द्रव्याना २१ यन અવક્તવ્યક દ્રવ્યે વિષે પણ અહીં ગ્રહણ કરવું જોઈએ એટલે કે એક અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે એમ કહેવું જોઈએ કે એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહી હોય છે, કારણ કે લોકના બે પ્રદેશમાં જ અવગાહિત થયેલા દ્રવ્યને અવક્તવ્ય
For Private and Personal Use Only
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् भागवतित्वात् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अवक्तव्यकद्रव्याणि सर्वलोके सन्ति, नानाद्रव्यापेक्षया द्विपदेशावगाढानामवक्तव्यकद्रव्याणां समस्तलोकव्यापित्वादिति भावः।
ननु-आनुपूर्यादीनि त्रीण्यपि द्रव्याणि सर्वलोकव्यापीनि पोच्यन्ते, इत्थं च येष्वाकाशप्रदेशेषु आनुपूर्वी, तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्ययोरपि सद्भाव प्रतिपादितो भवति, एवं च कथमेकस्यैव क्षेत्रस्य परस्परविरुद्धं भिन्नविषयम् आनुपूर्व्यादिव्यपदेशत्रयं स्यात् ? इति चेत् , अत्रोच्यते-ज्यादिप्रदेशावव्यक द्रव्यरूप से कहा गया है। लोक के असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातवें भाग रूप पड़ते हैं। इसलिये अवक्तव्यक द्रव्य को लोक के असंख्यातवें भागवर्ती माना गया है। तथा नाना अवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा से जितने भी अवक्तव्यक द्रव्य हैं, वे सब लोक के दो २ प्रदेशों में व्यापक रहने के कारण सर्वलोकव्यापी माने गये हैं।
शंका-आनुपूर्वी आदि जो द्रव्य हैं वे सब ही लोकव्यापी हैं ऐसा आप कहते हैं । सो जिन आकाश प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य रहते हैं। उन्हीं आकाश प्रदेशों में इतर दो अनानुपूर्वी अवक्तव्यक द्रव्य भी रहते हैं। यही बात इस कथन से प्रतिपादित होती है । अतः इस प्रकार के कथन से एक ही क्षेत्र में परस्पर विरुद्ध ओनुपूर्वी आदि व्यपदेशत्रय जो कि भिन्न भिन्न विषय से संबंधित है, कैसे संगत हो सकता है ? દ્રવ્ય કહેવામાં આવે છે. લેકના તે બે પ્રદેશને લેકના અસંખ્યાત પ્રદેશોની સાથે સરખાવવામાં આવે તે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગની બરાબર જ હોય છે. તે કારણે જ એક અવક્તવ્યક દ્રવ્યને લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ રહેલું માનવામાં આવ્યું છે. વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે છે તે સઘળાં અવક્તવ્યક દ્રવ્ય લેકના બબ્બે પ્રદેશમાં વ્યાસ હોવાને કારણે તેમને સર્વલેકવ્યાપી માનવામાં આવ્યાં છે.
શંકા–આપે અહીં એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે આનુપૂર્વી આદિ જે દ્રવ્યું છે તે સમસ્ત લેકવ્યાપી છે. આપના આ કથન વડે તે એવું પ્રતિપાદિત થાય છે કે જે આકાશપ્રદેશમાં આનુપૂવી દ્રવ્યો રહે છે, એજ પ્રદેશમાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ રહે છે, આ પ્રકારનું કથન સંગત લાગતું નથી, કારણ કે એક જ ક્ષેત્રમાં પરસ્પરથી વિરૂદ્ધ એવાં આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યને અવગાહ કેવી રીતે સંભવી શકે? ભિન્ન ભિન્ન વિષય સાથે સંબંધિત આ ત્રણેને એક જ ક્ષેત્રમાં કેવી રીતે સદૂભાવ હોઈ
For Private and Personal Use Only
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र गादाद् द्रव्याद भिन्नमेव तावदेकमदेशावगाढम् , ताभ्यां च भिन्नं द्विपदेशावगाढम् । इत्यं च आधेयस्यावगाहकद्रव्यस्य भेदादाधारस्याप्यवगाहस्य क्षेत्रस्य भेदः शंकाकार की इस शंका का भाव यह है कि एकही क्षेत्र में आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक इन तीनों की संगति कैसे हो सकती है? क्योंकि यह आनुपूर्वी आदि का भाव एक दूसरे से सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि इनका विषय अपना २ भिन्न २ है। यदि ये तीनों व्याप्त रूप होते तो एक क्षेत्र में घटित भी हो जाते-परन्तु ऐसे तोये-नहीं हैं । ये तो तीनों व्यापक द्रव्य हैं । इस प्रकार जो आकाशप्रदेश आनुपूर्वी रूप से कहें जावेगें वे ही अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकरूप से कैसे व्यपदिष्ट हो सकते हैं ? इसलिये अनानुपूर्वी आदिभाव को व्यापक मानने पर एक ही आकाशरूप क्षेत्र में आनुपूर्वी आदि व्यपदेश भिन्न विषयवाला होने के कारण परस्पर विरुद्ध पडता है। ___ उत्तर-आकाशरूप क्षेत्र यदि एकही माना जाता तो इस प्रकार की शंका संगत हो सकती-परन्तु ऐसा नहीं है । क्योंकि व्यादिप्रदेशों में अवगाढ जो आनुपूर्वीद्रव्य है उससे एक प्रदेशागाढ द्रव्य भिन्न है, और इन दोनों से विप्रदेशावगाढ द्रव्य भिन्न है। इस प्रकार आधेय रूप जो શકે? શંકાકારની શંકાને ભાવાર્થ એ છે કે આનુપૂવી, અનાનુપૂવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોનું અસ્તિત્વ એક જ ક્ષેત્રમાં કેવી રીતે સંભવી શકે? આ આનુપૂર્વી આદિ ભાવે પરસ્પરથી બિલકુલ વિરૂદ્ધ ગુણધર્મો ધરાવે છે, તે પ્રત્યેકને વિષય પરસ્પરથી ભિન્ન ભિન્ન છે, છતાં તેમને આપ સર્વક વ્યાપી કેવી રીતે કહે છે જે તે ત્રણે વ્યાપ્ય રૂપ હેત તે એક ક્ષેત્રમાં તેમને સદૂભાવ માની શકાત, પરંતુ તેઓ વ્યાપ્ય રૂપ નથી તે ત્રણે વ્યાપક દ્રવ્ય ૩૫ છે. આ પરિસ્થિતિમાં જે આકાશપ્રદેશને આનુપૂવ રૂપે ઓળખવામાં આવશે, એજ આકાશપ્રદેશને આનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક રૂપે કેવી રીતે કહી શકાશે? તેથી અનાનુપૂવ આદિ ભાવેને વ્યાપક માનવામાં આવે તે એક જ આકાશરૂપ ક્ષેત્રમાં આનુપૂર્વી આદિવ્યપદેશ ભિન્ન વિષયવાળ હોવાને કારણે પરસ્પરથી વિરૂદ્ધ પડે છે.
ઉત્તર–આકાશ રૂપ ક્ષેત્ર જે એક જ માનવામાં આવ્યું હેત તે આ પ્રકારની શંકા સંગત ગણી શકાય. પરંતુ એવું નથી કારણ કે ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાઢ જે આનુપૂવી દ્રવ્ય છે, તેના કરતાં એક પ્રદેશાવગાઢ અનાનપવી દ્રવ્ય ભિન્ન છે અને તે બને કરતાં ઢિપ્રદેશાવગાઢ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય ભિન્ન છે. આ રીતે આધેય રૂપ જે અવગાહક દ્રવ્ય છે, તેના ભેદથી
For Private and Personal Use Only
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
G
.
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११३ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् स्यादेव । तथा च व्यपदेशभेदो युक्त एव । दृश्यते चानन्तधर्माध्यासिते वस्तूनि ततत्सहकारि सन्निधानात्तत्तद्धर्माभिव्यक्तौ समकालं व्यपदेशभेदः, यथा खड्गकुन्तकवचादियुक्ते देवदत्ते खड्गी कुन्ती कवचीत्यादिव्यपदेशभेद इति नास्ति कविद दोषः। इति क्षेत्रद्वारम् ॥सू० ११२॥ .. अथ स्पर्शनाद्वार प्ररूपयितुमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखे. ज्जइभागं फुसंति ? असंखिज्जइभागं फुसति ? संखेज्जे भागे फुसंति जाव सव्वलोयं फुसंति ? एगं दवं पडुञ्च संखिजइभागं वा फुसइ, असंखिज्जइभागं वा संखेज्जे भागे वा असंखेज्जे भागे वा देसूणं वा लोगं फुसइ । नाणादवाई पडुच्च णियमा सव्वलोयं फुसंति। अणाणुपुवीदव्वाइं अवत्तव्वगदवाई च जहा खेत्तं नवरं फुसणा भाणियव्वा ॥सू०११३॥ अवगाहकद्रव्य है उसके भेद से आधाररूप अवगाह्य क्षेत्रमें भेद हो जाता ही है । इसप्रकार होने से व्यपदेश मेद वहां होना युक्त ही है । असं. गत नहीं । भिन्न २ सहकारियों की समिधानता से तत्सद्धर्म की अभि. व्यक्ति होनेपर अनन्त धर्मात्मक एक ही वस्तु में युगपत् व्यपदेश मेद होना देखा जाता है। जैसे खग, कुन्त, कवच, आदि से युक्त एक हीदेवदत्त व्यक्ति में खड्गी, कुन्ती कवची इत्यादि व्यपदेश भेद देखा जाता है अतः अनानुपूर्ण आदि भाव को एक क्षेत्र में व्यापक माननेपर उसमें आनुपूर्वी आदिरूप से व्यादेश निर्दोष है । ॥ सू० ११२॥ આધારરૂપ અવગાહ્ય ક્ષેત્રમાં ભેદ આવી જ જાય છે. આ પ્રમાણે થવાથી ત્યાં વ્યપદેશ ભેદ થવે તે યુક્ત જ લાગે છે–અસંગત લાગતું નથી. જુદા જુદા સહકારીઓની સન્નિધાનતા વડે તે તે ધર્મની અભિવ્યક્તિ થાય ત્યારે અનન્ત ધર્માત્મક એક જ વસ્તુમાં યુગપત (એક સાથે) વ્યપદેશ ભેદ થતે જોવામાં આવે છે, જેમકે ખડગ, કુન્ત, કવચ આદિ વડે યુક્ત એક જ દેવદત્ત આદિ વ્યક્તિમાં ખફગી, કુન્તી, કવચી ઈત્યાદિ વ્યપદેશ-ભેદ જોવામાં આવે છે. તેથી અનાનુપૂર્વી આદિ ભાવને એક ક્ષેત્રમાં વ્યાપક માનવામાં આવે તે તેમાં આનુપૂર્વી આદિ રૂપે થપદેશ નિર્દોષ છે. છે સૂઇ ૧૧૨ છે
For Private and Personal Use Only
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
४७८
अनुयोगद्वारसूत्रे
छाया - नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? संख्येयान् भागान् स्पृशन्ति ? यावत्सर्वलोकं स्पृशन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य संख्येयतमभागं वा स्पृशति असंख्येयतमभागं वा संख्येयान् भागान् वा असंख्येयान् भागान् वा देशोनं वा लोकं स्पृशति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि च यथाक्षेत्रं नवरं स्पर्शना भणितव्या ॥ सू० ११३ ।।
टीका- 'गमहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि किं लोकस्य संख्येयतम मागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? इत्येवं पूर्ववदेव प्रश्ना विज्ञेयाः । उत्तरमाह - ' एगं दत्रं ' इत्यादि । एकं द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्वी द्रव्यं संख्येयतमभागं वा स्पृशति, असंख्येयतमभागं वा स्पृशति, संख्येयान् वा भागान्, असंख्येयान् वा भागान् स्पृशति देशोनं वा अब सूत्रकार स्पर्शनाद्वार की प्रपरूणा करते हैं "गमववहाराणं" इत्यादि ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शब्दार्थ - प्रश्न - ( गमववहाराणं आणुपुथ्वी दव्वाई लोगस्स किं संखेज्जइभाग फुसंति ?) नैगमव्यवहारनय संमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ( असंखेज्जहभाग फुसंति ? ) या असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ( संखेज्जे भागे फुसति) या संख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? (जाव सव्वलोय' फुस - ति) या यावत् सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? ( एगं दव्वं पडुच्च)
उत्तर - एक द्रव्य को आश्रित करके ( संखिज्जइभागं वा ) आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग को ( फुसइ) स्पर्श करता है(असंखिज्जइभागं वा ) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है (संखिज्जे હુંવે સૂત્રકાર સ્પનાદ્વારની પ્રરૂપણા કરે છે. गमववहाराण " इत्यिाहि
66
शार्थ - प्रश्न - ( गमववहाराण' आणुपुथ्वीबाई लोगस्स कि संखेज्जइ भागं फुप्रति असंखिज्जइभागं फुसंति, संखेज्जे भागे फुसंति, जाव सम्बलोय फुसंति ? ) नैगमव्यवहारनयसभित समस्त आनुपूर्वी द्रव्यो शुद्ध लोउना સખ્યાતમાં ભાગના પશ કરે છે? કે અસખ્યાતમાં ભાગના સ્પર્શ કરે છે? કે સખ્યાત ભાગાના સ્પર્શ કરે છે? કે અસખ્યાત ભાગોના સ્પર્શ કરે છે. કે સમસ્ત લેકના પશ કરે છે?
उत्तर- ( एगं दव्व' पडुच्च) को द्रव्यनी अपेक्षा मे विचार वाम भावे, तो (संखिज्जइभागं वा फुखइ) ग्यानुपूर्वी द्रव्य बोडना सख्यातभ भागना स्पर्श छे, (असंखिज्जइभागं वा) असण्यातमां भागना पड़
For Private and Personal Use Only
•
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११३ स्पर्शनावारनिरूपणम् लोकं स्पृशति । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्योनिरवकाशताप्रसङ्गात् पूर्ववत् लोकस्य देशोनानुपूर्वीद्रव्यस्पर्शना बोध्येति भावः। नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु आनुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां स्पर्शना तु अत्रैवान्यवहितपूर्वोक्तक्षेत्रद्वारवद् बोध्या। इति स्पर्शनाद्वारम् ।।१० ११३॥ भागेवा असंखेज्जे भागे वा) संख्यात भागों को स्पर्श करता है, असं. ख्यात भागों को स्पर्श करता है' (देमूणं वा लोग फुसइ) देशोन लोक को भी स्पर्श करता है । (नाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वलोय फुसंति) नाना द्रव्यों की अपेक्षा करके तो आनुपूर्वीद्रव्य नियम से सर्वलोक का स्पर्श करते हैं (अणाणुपुच्चीदव्वाइं अवत्तव्यगद्व्वाइं च जहा खेत्तं नवरं फुसणा भाणियव्यो) अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की स्पर्शना तो यहीं पर अव्यवहित पूर्वोक्त क्षेत्रद्वार की तरह जानना चाहिये।
भावार्थ-नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्या तवें भाग की कोई एक लोक के असंख्यातवे भाग की कोई एक लोक के संख्यात भागों की, कोई एक असंख्यात भागों की, और कोई एक देशोन सर्वलोक की स्पर्शना करते हैं। यहां पर जो कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक. की स्पर्शना करने का कथन किया है सो उसका कारण यह है कि यदि आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक की स्पर्शना करें तो अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को अवकाश प्राप्ति का अभाव होगा। २५० ४३ छ, (संखेज्जे भागे वा, असंखेज्जे भागे वा) सेप्यात सामान ५५ २५० ४३ छ, असभ्यात मागान पशु २५ ४२ छे, (देसूणं वा लोग फुसइ) मन शान न ५४ २५ रे छ. (नाणादव्वाई पडुच्च णियमा सव्वलोय फुसंति) विविध यानी अपेक्षा विया२ ४२पामा भावे, त। मानुषी द्रव्यो नियमयी Aasने। २५४३ छ. (अणाणुपुव्वी दव्वाई अवत्तव्वगव्वाई च जहा खत्तं नवरं फुसणा भाणियव्वा) मनानुयूपी भने सतय द्रव्ये.नी સ્પર્શના વિષેનું કથન પર્વોક્ત ક્ષેત્રદ્વારના કથન મુજબ જ સમજવું જોઈએ.
ભાવાર્થ-નૈગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રમાંનું કોઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગની, કેઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકની સંખ્યાત ભાગની, કેઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગની અને કેઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય દેશોન સર્વલકની સ્પર્શના કરે છે. અહીં “એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય દેશોન સવલોકની સ્પર્શના કરે છે. આ પ્રકારનું જે કથન થયું છે તેનું કારણ એ છે કે જે એક આનુપૂવી દ્રવ્ય સમસ્ત લેકની સ્પર્શના કરતું હોય, તે અનાનુપૂર્વ અને અવકતવ્યક
For Private and Personal Use Only
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___भनुयोगद्वारसूत्र अथ कालद्वारमरूपति
मूकम्-णेगमववहाराणं आणुपुबीदवाई कालओ केवरिचरं होई ? एर्ग दवं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखिजं कालं। नाणादवाइं पडुच्च णियमा सव्वद्धा। एवं दोण्णि वि ॥सू०११४॥ - छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियचिरं भवन्ति । एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एक समयम् , उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वाद्धा। एवं द्वे अपि ॥मू० ११४॥
टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि।
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? इति प्रश्नः। क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यविवक्षया श्यादिप्रदेशावगाढद्रव्याणामेवानुः अतः इन दोनों द्रव्यों को भी अवकाश प्राप्त हो इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य की स्पर्शना देशोन लोक की कही गई है । नानो द्रव्यों की अपेक्षा ये तीनों ही द्रव्य नियम से सर्वलोक की स्पर्शना करते हैं । ॥सू० ११३॥
अब सूत्रकार कालबार की प्ररूपणा करते हैं"जेगमववहाराणं आणुपुत्वी" इत्यादि।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं) नैगमव्यवहारनयसंमत (आणुपुव्वीदव्वाइं) समस्त आनुपूर्वी द्रव्य (कालओ) कालकी अपेक्षा (केवच्चिरं होई) कितने समयतक आनुपूर्वी रूप से रहते हैं ? पूछने वाले का यह आशय है कि अनानुपूर्वी आदि द्रव्यों का क्षेत्र में व्यादि प्रदेशों में अव. કને સ્પર્શના કરવા માટેના સ્થાનને અવકાશ જ ન રહે. તે બને દ્રવ્યની સ્પર્શના પણ અવકાશ મળી રહે તે માટે આનુપૂવી દ્રવ્યની સ્પર્શના સમસ્ત લોકમાં કહેવાને બદલે દેશોન લેકમાં કહી છે. વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે આનુપૂર્વી આદિ ત્રણે દ્રવ્ય નિયમથી જ સર્વલકની સ્પર્શના કરે છે. સૂ૧૧૩
હવે સૂત્રકાર કાળદ્વારની પ્રરૂપણ કરે છે– "णेगमववहाराण आणुपुव्वी" त्याह
शहाथ-(णेगमववहाराण) नामव्य१७२ नयस मत (माणुपुत्वीदवाई) समस्त भानुपूवी द्रव्ये। (कालओ) अपनी अपेक्षा (केवच्चिरं होई ?) । સમય સુધી આનુપૂર્વી રૂપે રહે છે? એટલે કે આનુપૂવી દ્રવ્યોને ક્ષેત્રમાં ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈને રહેવાને કાળ કેટલું છે? કારણ કે
For Private and Personal Use Only
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११४ कालद्वारनिरूपणम्
४८१
पूर्व्यादिभावः पूर्वमुक्तः तेषामानुपूर्व्यादिद्रव्याणामवगाहस्थितिकालः कियान भवतीति प्रदुराशयः । उत्तरमाद- ' एगं दव्त्रं ' इत्यादि । एकं द्रव्यं प्रतीत्य कालतः = कालमाश्रित्य आनुपूर्वीद्रव्यं जघन्येन एकं समयं वर्तते । इह द्विमदेशावगाढस्य वा एक प्रदेशावगाढस्य वा द्रव्यस्य परिणामवैचित्र्यात् प्रदेशत्रयाद्यवगाहभवने आतु पूर्वीद्रव्य प्रवेशः संजातः । एकं समयं तद्भावेन स्थित्वा पुनः पूर्ववदेव द्विमदेशावगाढमेकप्रदेशावगाढं वा तद् द्रव्यं संजातम्, अतो जघन्यत आनुपूर्वीद्रव्याणामेकं समयमवस्थिति बौध्येति भावः । तथा उत्कर्षेण असंख्येयं कालं भवति । भयं गाह रूप से रहने का समय कितना है ? क्यों कि यह पहिले कहा जा चुका है कि क्षेत्र में अवगाह पर्याय की प्रधानता रूप से विवक्षा है । और इसलिये ज्यादि प्रदेशों में अवगाढ हुए द्रव्यों में ही आनुपूर्वी आदि भाव का कथन क्षेत्रानुपूर्वी में किया गया है। अतः पूछने वाले ने यहाँ यह पूछा है कि वे आनुपूर्वी आदि द्रव्य ज्यादि प्रदेश रूप क्षेत्र में कितने समय तक आनुपूर्वी आदि रूप से अवगाहित रहते हैं ?
उत्तर- ( एगं) एक द्रव्य की (पडुच्च) अपेक्षा लेकर ( जहन्नेणं) कम से कम (एगं समयं ) एकसमय तक और (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट ज्यादा से ज्यादा (असंखिज्जं कालं) असंख्यात काल तक एक आनुपूर्वीद्रव्य क्षेत्र में अवगाहित रहता है। तात्पर्य कहने का यह है कि विप्रदेश में अबगाहित या एक प्रदेश में अवगाहित हुआ द्रव्य परिणमन की विधि - ता से जब प्रदेश आदि में अवगाहित होता है उस समय उसमें आ
એ વાત તે પહેલાં જ પ્રકટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે ક્ષેત્રમાં અવગાહ પર્યાયની પ્રધાન રૂપે વિવક્ષા છે. અને તેથી જ ત્રણ આદિ દેશેામાં આવગાહિત થયેલાં દ્રવ્યેામાં જ આનુપૂર્વી આદિ ભાવનું કથન ક્ષેત્રાનુપૂર્વી માં કરવામાં આવ્યું છે. તેથી અહીં પ્રશ્નકર્તાના એવા પ્રશ્ન છે કે તે આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય ત્રણ આદિ પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રમાં સમય સુધી આનુપૂર્વી આદિ રૂપે અવગાહિત રહે છે?
કેટલા
उत्तर- (एगं दव्वं पडुच्च) ४ द्रव्यनी अपेक्षा विचार अश्वामां आवे ते (जहञेण एगं समय) ४ मानुपूर्वी द्रव्य श्रोछामां भेोछा भेट समय सुधी मने (उकोसेणं असंखिज्जं कालं) वधारेमा वधारे असंख्यात आण સુધી ક્ષેત્રમાં અવગાહિત રહે છે. આ કથનના ભાવાથ' નીચે પ્રમાણે છે એ પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલુ અથવા એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલું. કન્ય પશ્િમનની વિચિત્રતાથી જ્યારે ત્રણ આદિ પ્રદેÀામાં અવગાહિત થાય છે,
भ० ६१
For Private and Personal Use Only
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४४२
- अनु योगवार भावः-यदा तदेव द्रव्यमसंख्येयं कालं तद्भावेन स्थित्वा पुनस्तथैव द्विप्रदेशावगाढमेकप्रदेशावगाढं वा जायते तदाऽऽनुपूर्वीदव्यस्य उत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं स्थितिर्भवति । अनन्तं कालं तु स्थिति न भवति, एकप्रदेशावगाढस्यैकद्रव्यस्य उत्कर्षतोऽसंख्येयकालमेवावस्थानात् । तथानानाद्रव्याणि प्रतीत्य अनुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सर्वादासर्वकालमेव भवन्ति-वर्तन्ते इत्यर्थः व्यादिप्रदेशावगाढद्रव्य नुपूर्वी ऐसा व्यपदेश हो जाता है । सो वह द्रव्य एक समय तक आनु. पूर्वी रूप से वहां अवगाहित रहकर बाद में पहिले की तरह ही या तो विप्रदेश में अवगाहित हो जाता है या एक प्रदेश में अवगाहित हो जाता है इसलिये आनुपूर्वी द्रव्यों की व्यादि प्रदेशों में रहने की स्थिति एक समय की कही गई है। इसी प्रकार से जय आनुपूर्वी द्रव्यअसंख्यात काल तक तद्भाध से स्थित रहकर पुनः धिप्रदेशावगाही बन जाता है तब आनुपूर्वी द्रव्य की उत्कृष्ट रूप से असंख्यात काल की स्थिति होती है ऐसा जानना चाहिये । अनन्त काल तक वहां पर रहने की, उसकी स्थिति नहीं होती है। क्योंकि एक अवगाहमें एक द्रव्य असं. ख्यात काल तक ही ज्यादा से ज्यादा रह सकता है। तथा (णाणा. दव्वाई पडुच्च) अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से आनुपूर्वीद्रव्यों का अवस्थान (णियमा सम्वद्धा) नियम से सार्वकालिक है । अर्थात् ત્યારે તેમાં “આનુપૂવ' પદને વ્યપદેશ થાય છે-તેને આનુપૂર્વી રૂપે કહી શકાય છે. તે દ્રવ્ય એછામાં ઓછું એક સમય સુધી ત્યાં આનુપૂર્વી રૂપે અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ પહેલાની જેમ જ બે પ્રદેશમાં કે એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જાય છે. તેથી આનુપૂત દ્રવ્યની ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં રહેવાની જઘન્ય સ્થિતિ એક સમયની કહી છે. એ જ પ્રમાણે આનુપૂવી દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ બે પ્રદેશાવગાહી કે એક પ્રદેશાવાહી બની જાય છે. આ પ્રકાર આનુપૂર્વી દ્રવ્યની આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે રહેવાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળની થઈ જાય છે. તે અનંત કાળ સુધી ત્યાં આનુપૂરી દ્રવ્ય રૂપે રહી શકતું નથી, કારણ કે એક દ્રવ્ય એક અવગાહમાં વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી જ રહી શકે છે.
तथा (णाणादव्वाई पडुच्च) भने। मानुषी द्रव्यानी अपेक्षा વિચાર કરવામાં આવે, તે આનુપૂર્વી દ્રવ્યની આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે રહે पानी स्थिति (णियमा मन्बद्धा) नियमयी सापति ही छे. मेटले .
For Private and Personal Use Only
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११४ कालद्वारनिरूपणम् भेदानां सर्वदैवावस्थानात् । एवं द्वे अपि । अयं भावः-यदा एक द्रव्यमेकस्मिन् प्रदेशेऽवगाढमेकं सायं स्थित्वा ततो द्वयादिप देशादगादं भवति, तदा अनानुपूर्वीद्रव्यस्य जघन्यत एकं समयं स्थितिः। यदा तु तदेवासंख्यातं कालं तद्रूपेण स्थित्वा ततो यादिप्रदेशावगाढं भवति, तदा-उत्कर्षतोऽसंख्येयोऽत्रगाहस्थितिकालः। श्यादिप्रदेशों में अवगाढ आनुपूर्वीद्रव्यों के जो भेद हैं उनका अवस्थान सर्वदा ही रहता है । (एवं दोण्णिवि) इसी प्रकार से जब एक अनानुपूर्वी द्रव्य एक प्रदेश में एक समय तक अवगाढ रहकर बाद में व्यादिप्रदेशों में अवगाढ हो जाता है तब उस अनानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य से एक समय की स्थिति मानी जाती है। तथा जब वही अनानुपूर्वीद्रव्य असंख्यात समय तक अनानुपूर्वी द्रव्यरूप से एक प्रदेश में अवगाढ रहकर बाद में व्यादि प्रदेशों में अवगाढ-स्थित-हो जाता है तब उत्कृष्ट से असंख्यात काल तक ही उस अनानुपूर्वीद्रव्यकी उस एक प्रदेश में रहने की स्थिति मानी जाती है, तथा अनेक अनानुपूर्वी द्रव्योंकी अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों की स्थिति का काल एकप्रदेश में अवगाढ हुए अनानुपूर्वी द्रव्यके भेदों का सर्वदा ही सद्भाव होने से सार्वकालिक माना गया है। विप्रदेश में अवगाढ अवक्तव्यकद्रव्य का एक समय के बाद एक प्रदेश में अथवा व्यादि प्रदेशों में अवगाहित हो जाने पर जघन्य से अवगाह ત્રણ આદિ પ્રદેશોમાં અવગાહિત જે આનુપૂર્વી દ્રવ્યના ભેદ છે તેમનું मस्तित्व सह२३ छ १ (एवं दोणि वि) प्रभाव से मनानुपूवी દ્રવ્યની જઘન્ય સ્થિતિ પણ એક સમયની કહી છે. એટલે કે એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય ઓછામાં ઓછું એક સમય સુધી એક પ્રદેશમાં અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ બે આદિ પ્રદેશોમાં અવગાહિત થઈ જાય છે, તેથી જ એક અનાનુપૂવી દ્રવ્યની જઘન્ય સ્થિતિ એક સમયની કહી છે. પરંતુ જ્યારે એજ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અસંખ્યાત સમય સુધી એક પ્રદેશમાં અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ બે આદિ પ્રદેશમાં અવગાઢ (સ્થિત) થઈ જાય છે, ત્યારે તે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની તે એક પ્રદેશમાં રહેવાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળની મનાય છે. જે અનેક અનાનુપૂવી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે અનેક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોની સ્થિતિને કાળ એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલા અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના નો સર્વદા સર્ભાવ હોવાથી સાર્વકાલિક માનવામાં આવ્યું છે.
બે પ્રદેશમાં અવગાઢ (સ્થિત) અવક્તવ્યક દ્રવ્ય એક સમય પછી એક પ્રદેશમાં અથવા ત્રણ આદિ પ્રદેશોમાં અવગાહિત થઈ જાય, તે 'જઘન્યની
For Private and Personal Use Only
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
ઘંટડ
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु सर्वकालम्, एक प्रदेशावगाढद्रव्य भेदानां सर्वदैव सद्भावात् । अवक्तव्यकद्रव्यस्य तु द्विपदेशावगाढस्य समयादूर्ध्वमेकस्मिन् प्रदेशे व्यादिषु वा प्रदेशेष्ववगाहप्रतिपत्तौ जघन्यत एकः समयोऽवगाहस्थितिकालः असंख्येयकालादूर्ध्वं द्विपदेशावगाई परित्यजतस्तस्यावक्तव्यकद्रव्यस्य उत्कर्षतोऽसंख्येयोsaगाहस्थितिकालः सिध्यति । नाना द्रव्याण्याश्रित्य तु सर्वकालं, द्विप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सदैव सद्भावादिति । समान वक्तव्यत्वादाह एवं दोणि वि'- त्ति एवं द्वे अपि बोध्ये ||११४॥
स्थिति का काल एक समय है। तथा असंख्यात काल के बाद द्विप्रदेश में अपने अवगाह को छोड़ने वाले उस अवक्तव्यकद्रव्य का उत्कृष्ट रूप से अवगाह स्थिति का काल असंख्यातकाल हैं । तथा नाना अवक्तव्यक
यों की अपेक्षा द्विप्रदेश में अवगाढ अवक्तव्यक द्रव्य के भेदों का सर्वदा ही सद्भाव रहने के कारण उनका अवगाह-स्थितिका काळ सर्वकाल माना गया है । इसप्रकार आनुपूर्वी द्रव्य की तरह इन दोनों द्रव्य की अवगाह- - स्थिति का समय जानना चाहिये ।
भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने यह स्पष्ट किया है कि अनुपूर्वी आदि द्रव्य त्र्यादि प्रदेशरूप क्षेत्र में अपने २ रूप में कब तक स्थित रहते हैं । इन बातों का उत्तर उन्होंने एक द्रव्य और अनेक द्रव्य को आश्रित करके दिया है। जिसका निष्कर्षार्थ यह है कि आनुपूर्वी द्रव्य ज्यादि प्रदेशों में एक समय तक स्थित रहकर यदि एक या द्विप्रदेश
અપેક્ષાએ તેની અવગાહસ્થિતિના કાળ એક સમયને કહ્યો છે. તથા અસ ખ્યાત કાળ ખાદ એ પ્રદેશેામાંના પેાતાના અવગાહને છેડનારા તે અવક્ત વ્યક દ્રવ્યની વધારેમાં વધારે અવગાહસ્થિતિ અસ`ખ્યાતકાળની કહી છે. તથા અનેક અવક્તવ્ય દ્રવ્યાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે એ પ્રદે શામાં અવગાઢ અવક્તવ્યક દ્રશૈાના ભેદોને સદા સદ્ભાવ જ રહેવાને કારણે તેમની અવગાહસ્થિતિ સાવ કાલિક માનવામાં આવી છે. આ પ્રકારે આ અને દ્રબ્યાની અવગાહસ્થિતિના કાળ આનુપૂર્વી દ્રવ્યેની અવગાહસ્થિતિ કાળ પ્રમાણે જ સમજવે જોઇએ.
ભાવાર્થ –આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે આનુપૂર્વી આદિ બ્યા ત્રણ આદિ પ્રદેશેારૂપ ક્ષેત્રમાં પોતપોતાના મૂળ રૂપે કેટલા કાળ સુધી અસ્તિત્વમાં રહે છે? આ વાતના ઉત્તર સૂત્રકારે એક દ્રવ્ય અને અનેક કુખ્યાને અનુલક્ષીને આપ્યા છે. આ સમસ્ત સૂત્રને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય ત્રણ આદિ પ્રદેશામાં એક સમય સુધી આનુપૂર્વી દ્રષ્ટ
For Private and Personal Use Only
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
মুখাঙ্কিা শঙ্কা যুগ হং৭ সানি
अथान्तरद्वारं प्रतिपादयितुमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुचीदवाणमंतरं कालओ केवचिरं होई ? तिण्हपि एगं दबं पडुच्च जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, नाणादव्वाइं पडुच्च णस्थि अंतरं ॥सू० ११५॥ में अवगाहित हो जाता है तो वहां पर एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य का स्थिति काल माना जाता है । और यही एक आनुपू. धीद्रव्य उन व्यादि प्रदेशों में असंख्यात काल तक अवगाहित रहकर बाद में एकप्रदेश या दो प्रदेश में अवगाहित हो जाता है तो इस स्थिति में इसका समय असंख्यात काल का माना जाता है। यह संख्यात कोल का समय उस्कृष्ट है । और एक समय का काल जघन्य है, नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से यह समय सर्वदा का है क्योंकि व्यादि में ऐसा कोई सा भी समय नहीं है कि जिसमें कोई न कोई आनुपूर्वी द्रव्य का भेद अवगाहित न हो। इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी ऐसा ही वक्तव्य निर्धारित कर लेना चाहिये ।। सू० ११४ ॥ રૂપે સ્થિત રહીને જે એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જાય છે, તે એ પરિસ્થિતિમાં એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી દ્રવ્યને સ્થિતિકાળ એક સમયને ગણાય છે. પરંતુ એ જ આનુપૂવી દ્રવ્ય જે તે ત્રણ આદિ પ્રદેશોમાં અસંખ્યાત કાળ સુધી અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશોમાં અવગાહિત થઈ જાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેને સ્થિતિકાળ અસંખ્યાતકાળને માનવામાં આવે છે આ અસંખ્યાતકાળના સમયને તેને ઉકૃષ્ટ કાળ સમજ અને એક સમયના પૂર્વોક્ત કાળને તેને જઘન્ય કાળ સમજે. અનેક આનુપૂવી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તે સમય સાર્વકાલિક છે, કારણ કે ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં એ કઈ પણ સમય નથી કે જેમાં કેઈને કંઈ આનુપૂર્વી દ્રવ્યને ભેદ અવગાહિત ન હોય અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યના એક અને બે પ્રદેશમાં રહેવાના કાળના સંબંધમાં પણ આનુપૂર્વી દ્રના કાળના જેવું જ કથન સમજવું સૂ૦૧૧૪
For Private and Personal Use Only
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
४८६
अनुयोगद्वारसूत्रे
छाया - नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? त्रयाणामपि एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् ॥सू० ११५ ॥
टीका- ' गमववहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मतानामानुपूर्वीद्रव्याणाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरमाह - ' ति०हं पि' इत्यादि । त्रयाणाम्=आनुपूर्व्यनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणाम् एकं समयं प्रतीत्य जघन्येन एक समयमन्तरम् | उत्कर्षेण असंख्येयं कालमन्तरम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् । प्रश्नकोटौ आनुपूर्वीद्रव्याण्याश्रित्य प्रश्नः क्रियते अब सूत्रकार अन्तरद्वार का प्रतिपादन करते हैं"गप्रववहाराणं " इत्यादि ।
शब्दार्थ - (गमववहाराणं) नैगम व्यवहारसंमत (आणुपुत्रीदव्वाणं ) आनुपूर्वी द्रव्यों का ( अंतरं) अन्तर- व्यवधान - ( कालओ) कालकी अपेक्षा (कियच्चिरं होई) कितने समय का होता है ?
उत्तर- (तिन्हं पि एगं दब्बं पडुच्च) आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, और अवक्तव्यक इन द्रव्यों के एक समय को आश्रित करके ( जहन्ने णं ) जघन्य से (एक्कं समयं ) एक समयका अंतर है (उक्को सेणं) उत्कृष्ट से (असंखेज्जं कालं) असंख्यातकाल का अंतर है। (नाणा दव्वाइं पहुचन) तथा नाना द्रव्यों की अपेक्षा करके (णस्थि अंतरं ) कोई अन्तर नहीं है । शंका- प्रश्न कोटि में आनुपूर्वी द्रव्यों को आश्रित करके प्रश्न किया गया
હવે સૂત્રકાર અન્તરદ્વારનું નિરૂપણ કરે છે.
41
"
ònaqagınım'” Scule
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शब्दार्थ - (गमववहाराण) नैगभव्यवहार नयस भत ( आणुपुत्र्वी दवा) यानुपूर्वी द्रव्येोनुं (अन्तरं) अन्तर ( व्यवधान, यांतरे।) (कालओ कियच्चिर होई) अजनी अपेक्षा मे डेंटला समयनुं होय छे ?
उत्तर- (तिण्ड पि एग दव्वं पडुच्च) मनुपूर्वी, अनानुपूर्वी मने વક્તવ્યક આ ત્રણેના એક એક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે ( जहन्ने एक्कं समय) छाम छुमे समयनुं भने (उक्को द्देणं असंखेज्ज' कालं) उत्तॄष्टथी असभ्यात अजनुं अ ंतर होय छे (नाणादव्बाई पडुच्च) याने द्रव्यांनी यापेक्षा विचार उरवामां यावे, तो ( णत्थि अंतर ) ફ્રાઈ અન્તર નથી.
શકા-પ્રશ્નમાં તે આનુપૂર્વી દ્રબ્યા વિષે પ્રશ્ન પૂછવામાં આળ્યે છે,
For Private and Personal Use Only
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मायुयोगम्ट्रिका टीका सूत्र ११५ अन्तरद्वारनिरूपणम्
४८७ परन्तु त्रयाणामपि द्रव्याणां समानान्तरत्वेन प्रतिपाद्यतया उत्तरकोटौ तिहं पि' इति भोक्तम् । अस्य द्वारस्यायं भाव:-यदा व्यादिप्रदेशावगाढं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यम् एकस्माद् विवक्षित क्षेत्रात् समयमेकम् अन्यत् क्षेत्रमवगाह्य पुनरपि केवलम् । अन्यद्रव्यसंयुक्तं या भूत्वा तमेव विवक्षितव्याधाकाशप्रदेशम् अवगाहते, तदैकानुः पूर्वी द्रव्यस्य समयमेकं जघन्यतोऽन्तरकालो बोध्यः । तथा-तदेव द्रव्यं यदाऽन्येषु क्षेत्रप्रदेशेषु असंख्येयं कालं परिभ्रम्य केवलम् , अन्यद्रव्यसंयुक्तं वा भूत्वा प्रथममेव क्षेत्रप्रदेशमवगाहते, तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयं कालमन्तरं भवति । न च पुनहै, परन्तु उत्तरकोटि में "तिण्हं पि" तीनों द्रव्यों को क्यों पकड़ा गया है ? ___ उत्तर-इसका कारण यह है कि इन तीनों द्रव्यों का अन्तर समान है। इस द्वार का भाव इस प्रकार से है-जिप्त समय कोई एक व्यादिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी द्रव्य किसी एक विवक्षित क्षेत्र से एक समय तक किसी दूसरे क्षेत्र में अवगाहित होकर पुनः अकेला या किसी दूसरे द्रव्य से संयुक्त होकर उसी विवक्षित व्यादि आकाशरूप प्रदेश में अवगाढ होता है तो उस समय उस एक आनुपूर्वी द्रव्य का अन्तर काल-विरहकाल जघन्य से एक समय का है-ऐसा जानना चाहिये। तथा जय वही द्रव्य अन्य क्षेत्र प्रदेशो में असंख्यातकाल तक घूमकर केवल या अन्य द्रव्यों से संयुक्त होकर पहिले के ही अवगाहित प्रथम क्षेत्र प्रदेश में अवगाहित होता है तब विरहकाल उत्कृष्ट से असंख्यात પરતુ ઉત્તર રૂપે તે ત્રણે દ્રવ્યોની વાત કરવામાં આવી છે તેનું કારણ શું છે? ઉત્તર–તે ત્રણે દ્રવ્યનું અતર સમાન હોવાથી ત્રણે દ્રવ્યોના અત્તરની વાત સાથે જ કરવામાં આવી છે.
ઉત્તર–આ અન્તરદ્વારને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–આ સૂત્રમાં અન્તર એટલે વિરહકાળ ગ્રહણ કર જે ઈએ કઈ એક ત્રણ આદિ પ્રદેશાવગઢ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય કેઈ એક વિવક્ષિત (અમુક) ક્ષેત્રમાંથી નીકળીને એક સમય સુધી કોઈ બીજા ક્ષેત્રમાં અવગાહિત થઈને ફરીથી પિતે એકલું અથવા કેઈ અન્ય દ્રવ્યની સાથે સંયુક્ત થઈને એજ વિવક્ષિત ત્રણ આદિ આકાશ રૂપ પ્રદેશોમાં અવગાઢ થાય, તે તે પરિસ્થિતિમાં તે એક આનુપૂવી દ્રવ્યનું અંતર કાળની અપેક્ષાએ વિરહાકાળ) એક સમયનું ગણાય છે, આ અતરને કાળની અપે. ક્ષાએ જઘન્ય અતર સમજવું તથા એજ દ્રવ્ય અન્ય ક્ષેત્ર પ્રદેશોમાં અસં. ખ્યાતકાળ સુધી ફરીને પિતે એકલું અથવા અન્ય દ્રવ્ય સાથે સંયુક્ત થઈને પહેલાં જે ક્ષેત્રમાં અવગાહિત થયું હતું એજ ક્ષેત્રમાં અવગાહિત થઈ જાય, તે તે પરિસ્થિતિમાં તેને ઉત્કૃષ્ટ વિરહકાળ અસંખ્યાતકાળને ગણાય
For Private and Personal Use Only
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૪૮૮
अनुयोगद्वारसूत्रे द्रव्यानुपूर्व्यामिव अनन्त कालमन्तरं भवति, यतो द्रव्यानुपूयां विवक्षितद्रव्यादन्ये द्रव्यविशेषा अनन्ता भवन्ति । तैश्च सह क्रमेण तस्य संयोगे पुनःस्वरूपप्राप्तौ अनन्तं कालमन्तरं भवति । अत्र तु विवक्षितावगाहक्षेत्रादन्यत् क्षेत्रमसंख्येयमेव । प्रतिस्थान च अवगाहनामाश्रित्य असंख्येयकालं संयोगस्थितिः। ततथासंख्येये क्षेत्रे परिभ्रमद् द्रव्यं पुनरपि केवलम् , अन्यसंयुक्त वाऽसंख्येयकालानन्तरं तस्मिन् विवक्षित प्रदेश एवावगाहनां कुर्यात् । काल का माना जाता है। जिस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी में विरहकाल माना गया है उस प्रकार से यहां विरहकाल अनन्त कालका नहीं माना गया है। क्यों कि द्रव्यानुपूर्वी में विवक्षित द्रव्य से दसरे जो द्रव्य हैं वे अनन्त हैं। अतः उनके साथ क्रम क्रम से उसका संयोग होने पर फिर से अपने स्वरूप की प्राप्ति में उसे अनन्त काल लग जाता है। इस प्रकार पुनः स्वरूप प्राप्ति में अन्तर अनंत काल का सध जाता है। परन्तु यहां विवक्षित-अवगाह क्षेत्र से अन्य क्षेत्र असंख्यातप्रदेश प्रमाण ही है, अनंत प्रदेश प्रमाण नहीं । इसलिये प्रतिस्थान में, अवगाहना को आश्रित करके जो उसकी संयोग स्थिति है वह असंख्यातकाल की है। अतः विवक्षित प्रदेश से अन्य असंख्यात क्षेत्र में परिभ्रमण करता हुआ द्रव्य पुन: उसी विवक्षित प्रदेश में अन्य द्रव्य से संयुक्त होकर या एकाकी ही असंख्यातकाल के बाद अवगाहित हो जाता है। છે. અહીં એ વાત ધ્યાનમાં રાખવા જેવી છે કે દ્રવ્યાનુપૂવીમાં ઉત્કૃષ્ટ (વધારેમાં વધારે) અનન્ત કાળનો વિરહકાળ કહ્યો છે, પરંતુ ક્ષેત્રાનવમાં ઉત્કૃષ્ટ વિરહકાળ અનન્તકાળને કહેવાને બદલે અસંખ્યાતકાળને કહ્યો છે.. તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે
દ્રવ્યાનુપૂવીમાં વિવક્ષિત દ્રવ્ય સિવાયના જે અન્ય દ્રવ્ય છે તે અનંત છે. તેથી તેમની સાથે તેને કમશઃ સંગ થઈને ફરીથી પોતાના સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ થવામાં તેને અનંતકાળનું અત્તર પડી જાય છે. આ પ્રકારે પુનઃ સ્વરૂપ પ્રાપ્તિમાં અનન્તકાળનું અત્તર પડવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. પરંતુ અહીં ક્ષેત્રાનુપૂવીમાં) વિવક્ષિત અવગાહક્ષેત્ર સિવાયનાં અન્ય ક્ષેત્રે તે અસંખ્યાતપ્રદેશ પ્રમાણે જ છે-અનંત પ્રદેશપ્રમાણુ નથી તેથી પ્રત્યેક સ્થાનમાં અવગાહનાને આશ્રિત કરીને જે તેની સંગસ્થિતિ છે, તે અસંખ્યાતકાળની જ છે તેથી કઈ વિવક્ષિત પ્રદેશમાંથી નીકળીને અન્ય અસંખ્યાત ક્ષેત્રોમાં પરિભ્રમણ કરીને તે દ્રવ્ય પિતે એકલું અથવા અન્ય દ્રવ્યની સાથે સંયુક્ત થઈને તે વિવાસિત પ્રદેશમાં અસંખ્યાતકાળ વ્યતીત થયા બાદ જ અવગાહિત થઈ જાય છે,
For Private and Personal Use Only
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११५ भन्तरबारनिरूपणम्
४८९ ननु भवत्वसंख्येयः प्रदेशः, परन्तु तत्रैव प्रदेशे द्रव्यस्य पुनः पुनः परिभ्रमणेन भनन्तकालान्तर्यमपि प्राप्यते, तदेह कथमनन्तकालमन्तरं नोच्यते ? इति चेद , उच्यते, विवक्षितमदेशादसंख्येयप्रदेशे क्षेत्रेऽसंख्येयकालमेव द्रव्यं परिभ्रमति, तदनन्तरं पुनर्विवक्षितक्षेत्र एव तद् द्रव्यं नियमादागच्छति, वस्तुस्थितिस्वाभाव्यादिति । अतो नास्ति कश्चिदोषः। यद्वा व्यादि प्रदेशलक्षणाद् विवक्षितक्षेत्रात वदानुपूर्वीद्रव्यमन्यत्रगतं, ततस्तत् क्षेत्रम् असंख्येयकालावं स्वभावादेव तेनैव आनुपूर्वीद्रव्येण, वर्णगन्धरसस्पर्शसंख्यादिधर्मः सर्वथा तुल्येन अन्येन वा आनुपूर्वी___ शंका-भवगाहना क्षेत्र से अन्यक्षेत्र भले ही असंख्यातप्रदेशवाला हो-इस में कोई बाधा नहीं है। परन्तु उसी प्रदेशों में पार २ परिभ्रमण करने से द्रव्य को इस परिभ्रमण में अनन्त काल का भी अन्तर लग सकता है । अतः सूत्रकारने यहां अनन्तकाल का अन्तर क्यों नहीं कहा? - उत्तर-विवक्षित प्रदेशरूप क्षेत्र से अन्य असंख्यात प्रदेशसप क्षेत्र में द्रव्य का परिभ्रमण असंख्यातकाल तक ही होता है। इसके बाद वह द्रव्य नियम से फिर विवक्षित क्षेत्र में ही आजाता है। क्यों कि ऐसा ही वस्तुस्थिति का स्वभाव है। अथवा-जब व्यादि प्रदेशल्प विवक्षित क्षेत्र से वह भानुपूर्वी द्रव्य अन्य प्रदेश में चला जाता है। बाद में वह क्षेत्र स्वभाव से ही असंख्यातकाल के पश्चात् उसी आनुपूर्वी द्रव्य से या वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, एवं संख्या आदि धर्मों से
શંકા-અવગાહના ક્ષેત્ર સિવાયનું જે અન્ય ક્ષેત્ર છે તે ભલે અસંખ્યાત પ્રદેશોવાળું હોય તે વાત માનવામાં અમને કોઈ વાંધો નથી પરંતુ એ જ પ્રદેશમાં વારંવાર પરિભ્રમણ કરવામાં તે દ્રવ્યને અનન્તકાળનું અત્તર પણ લાગી શકે છે. છતાં સૂત્રકાર અહીં અનન્તકાળના અન્તરને બદલે અસં ખ્યાતકાળનું અન્તર શા માટે કામ છે?
ઉત્તર-વિવક્ષિત પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રમાંથી નીકળીને અન્ય અખાત પ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં દ્રવ્યનું પરિભ્રમણ અસંખ્યાત કાળ સુધી જ થાય છે. ત્યાર બાદ તે દ્રવ્ય નિયમથી જ તે વિવણિત શેત્રમાં જ આવી જાય છે, કારણ કે તેને
જ હવભાવ છે.
અથવા-ત્રણ આદિ પ્રદેશ રૂપ કઈ વિવક્ષિત ક્ષેત્રમાંથી નળીને તે આનુપૂવ દ્રવ્ય અન્ય પ્રદેશમાં ચાલ્યું જાય છે, અને ત્યારબાદ તે છેત્ર સ્વભાવથી જ અસંખ્યાતકાળ બાદ એજ આવી દ્રષ્ય સાથે, અથવા વા,
For Private and Personal Use Only
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ भनुयोगद्वारसूत्र द्रव्येण संयुज्यते इति नियमात् असंख्येयकाळोत्तरं तथाविधानुपूर्वोद्रव्येण तरक्षेत्र संयुज्यते एवेति असंख्येयकालमेव अन्तरं भवतीति नास्ति कश्चिद् दोषः । तथानानादन्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । ज्यादिमदेशावगादानि सर्वाण्यपि आनपूर्वीद्रव्याणि युगपत् स्वभावं विहाय पुनस्तथैव जायन्ते इति तु न कदाचिदपि संभवति, असंख्येयानां तेषां सर्वदैव विद्यमानस्वादिति नानाद्रव्याश्रयपक्षे नास्ति अन्तरमिति भावः । एवमनानुपूर्व्यवक्तव्यक द्रव्यविषयेऽपि अन्तरभावना कर्तव्या।सू.११५। उसी के तुल्य किसी दूसरे आनुपूर्वी द्रव्य से संयुक्त हो जाता है। ऐसा नियम है। इस नियम के अनुसार असंख्यात काल काही अन्तर रोता है। नाना द्रव्यों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है ऐसा जो कहा गया है उसका तात्पर्य यह है कि ज्यादिप्रदेशों में अदगाढ हुए समस्त भी आनुपूर्षी द्रव्य एक साथ अपने स्वभाव को छोडकर पुनः उन्हीं श्यादिप्रदेशों में अवगाहित हो जाते हों ऐसी बात किसी भी समय में संभः वित नहीं होती है। क्यों कि असंख्यात आनुपूर्वी द्रव्य सदाही विद्यमान रहते हैं। इसलिये नाना द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य के विषय में भी अन्तर भावना जाननी चाहिये ॥सू० ११५॥
ગંધ, રસ, સ્પર્શ અને સંખ્યા આદિ ધર્મોની અપેક્ષાએ તેના જેવાં જ કઈ બીજા આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સાથે સંયુક્ત થઈ જાય છે એવો નિયમ છે. આ નિયમ પ્રમાણે અસંખ્યાતકાળનું અત્તર વ્યતીત થયા બાદ તે પ્રકારના આનુપૂવી દ્રવ્ય વડે તે ક્ષેત્ર અવશ્ય સંયુક્ત થઈ જાય છે. આ રીતે અસંખ્યાતકાળનું જ અન્તર પડવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે.
અનેક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે કાળની અપેક્ષાએ કોઈ અન્તર જ પડતું નથી, આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે ત્રણ આદિ પ્રદેશોમાં અવગાવિત થયેલાં સમસ્ત આનુપૂવી દ્રવ્ય એક સાથે પિતાના સ્વભાવને છેડીને ફરી એજ ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જતાં હોય એવી વાત કઈ પણ સમયે સંભવી શકતી નથી, કારણ કે અસંખ્યાત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સદા વિધમાન રહે જ છે. તે કારણે અનેક કની અપેક્ષાએ અન્તરનો અભાવ કહ્યો છે. એ જ પ્રમાણે અનાનુપૂર્વી અને
અવક્તવ્યક દ્રવ્યના વિષયમાં પણ અન્તર (વિરહાકાળ)નું મન સમજી લેવું જોઈએ. ર૦૧૧પ.
For Private and Personal Use Only
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम् । इत्थमन्तरद्वारं व्याख्याय सम्पति भागद्वार व्याख्यातुमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुबीदवाइं सेसव्वाणं कई भागे होज्जा? तिषिण वि जहा दवाणुपुबीए ॥सू०११६॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कियद् भागे भवन्ति ? त्रीण्यपि यथा द्रव्यानुपाम् ॥मू० ११६।।
टीका-'णेगमवहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपू“द्रव्याणि शेपद्रव्याणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यक द्रव्याणां कतिभागे-कियति भागे भवन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-त्रीण्यपि यथा द्रव्यानुपूाम् । यथा द्रव्यानुपू- भागद्वारे प्रतिपादितं तथैवात्रापि त्रयाणामपि द्रव्याणां विषये बोध्यम् । अयं भावः-आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकरूपशेषद्रव्येभ्योऽसंख्येयै गैरधिकानि । शेषद्रव्याणि तु तेषामसंख्येयभागे वर्तन्ते ।
अब सूत्रकार भागद्वार का व्याख्यान करते हैं"णेगम ववहाराणं इत्यादि"
शब्दार्थ- (णेगमववहाराणं) नैगमव्यवहारनय संमत (आणुपुत्वी. दव्वाई) समस्त आनुपूर्वीद्रव्य (सेसव्वाणं) शेष द्रव्यों के-अनानुपूर्वी
और अवक्तव्यक द्रव्यों के (कहभागे) कितने भागों में हैं ? (तिनिधि जहा दवाणुपुब्धिये) ____ उत्तर-जिस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी में भागद्वार में प्रतिपादन किया है उसी प्रकार से यहां पर तीनों ही द्रव्यों के विषय में जानना चाहिये। इसका भाव यह है-अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य उनके असंख्यात भागों से अधिक है । तथा शेष द्रव्य भानुपूर्वीद्रव्यों के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
હવે સૂત્રકાર ભાગદ્વારનું નિરૂપણ કરે છે–
(णेगमववहाराण) नैगमध्यपहा२ नयसभत (आणुपुत्वीदवाई) समस्त मानुपूवी द्रव्ये (सेसवाणं) मातीनां द्रश्याना (मनानुपी भने १४त. व्य द्रश्याना) (कइभागे) समय मा डाय छ
उत्तर-(तिणि वि जहा दव्वाणुपुव्वीए) द्रव्यानुपूर्वा मार द्वारमा २५ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ ત્રણે દ્રવ્ય વિષે સમજવું એટલે કે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂવી દ્રવ્ય તેમના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ વધારે છે તથા બાકીના દ્રવ્ય આનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
अनुयोगद्वारसूत्रे ननु 'ध्यादिपदेशावगादानि द्रव्याणि आनुपूर्यः, एकैकप्रदेशावगाढानि द्रव्याणि अनानुपूर्व्यः, द्वि द्वि प्रदेशावगाहानि द्रव्याणि अवक्तव्यकानि' इति पूर्व प्रतिपादितम् । तान्येतानि त्रिविधान्यपि द्रव्याणि सर्वलोकव्यापीनि । तेषां मध्ये युक्त्या विचारणायां कृतायामानुपूर्वीद्रव्याणां सर्वस्तोकता प्राप्यते । तथाहि-लोके किल असत्कल्पनया त्रिंशत्मदेशाः कल्प्यन्ते । तेषु त्रिंशत्प्रदेशेषु अनानुपूर्वीद्रव्याणि त्रिंशत्संख्यकानि भवन्ति एकैकप्रदेशावगाढत्वात् । अवक्तव्यकद्रव्याणि तु पञ्चदश, द्वि द्वि प्रदेशावगाढत्वात् । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु यदि त्रिप्रदेशनिष्पन्नान्येव गण्यन्ते
शंका-यह पहिले ही कहा जा चुका है। कि व्यादिप्रदेशों में स्थित द्रव्य आनुपूर्वी हैं एक एक प्रदेशों में स्थित अनानुपूर्वी हैं, और दो दो प्रदेशों में स्थित द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्य हैं । ये तीनों ही द्रव्य सर्वलोक ध्यापी हैं। इनके बीच में, युक्ति से विचारणा होने पर आनुपूर्वी द्रव्य सबसे थोड़े आते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार से है"लोक असंख्यात प्रदेशी है-सो असंख्यात प्रदेश को असत्कल्पना से ३०, मानकर उनप्रदेशों के स्थानपर ३०,तीस रखलेना चाहिये-इन ३०, प्रदेशों में एक एक प्रदेश पर अनानुपूर्वी द्रव्य अवगाहित हैं इसलिये अनानुपू(द्रव्य ३० हो जाते हैं। तथा अवक्तव्यक द्रव्य लोक के दो दो प्रदेशों में एकर अवगाढ होने के कारण १५,आते हैं। तथा आनुपूर्वीद्रव्य लोक के ३-३ तीन २ प्रदेशों में अवगाढ हैं इसलिये उनकी संख्या १०
શંકા-આગળ એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે ત્રણ, ચાર આદિ પ્રદેશમાં સ્થિત દ્રવ્યને આનુપૂવ કહે છે, એક એક પ્રદેશમાં સ્થિત દ્રવ્યને અનાનુપૂવી કહે છે અને બન્ને પ્રદેશમાં સ્થિત દ્રવ્યને અવકતવ્ય કહે છે. આ ત્રણે દ્રવ્ય સર્વક વ્યાપી છે જે બુદ્ધિપૂર્વક વિચાર કરવામાં આવે તો તે ત્રણે દ્રવ્યોમાંથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું પ્રમાણ સૌથી ઓછું હોવું જોઈએ તેને ખુલાસે આ પ્રમાણે છે-“લેક અસંખ્યાત પ્રદેશવાળે છે.” હવે અહીં અસત્કલ્પનાને આધાર લઈને એવું માની લઈએ કે લેકના ૩૦ પ્રદેશ છે. આ ૩૦ પ્રદેશમાંના પ્રત્યેક પ્રદેશ પર અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અવગાહિત છે. તેથી ૩૦ પ્રદેશમાં ૩૦ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અવગાહના માની લઈ એ. લેકના બન્ને પ્રદેશમાં એક એક અવકતવ્યક દ્રવ્ય અવગાહિત હેવાથી ૩૦ પ્રદેશમાં અવગાહિત અવફતવ્ય ની સંખ્યા ૧૫ માની લઈએ તથા આનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના ઓછામાં ઓછા ત્રણ ત્રણ પ્રદેશિમાં અવગાહિત હેવાથી ૩૦ પ્રદેશમાં અવગાહિત આનુપૂવી દ્રવ્યની
For Private and Personal Use Only
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रोगन्द्रिका टोका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम् सानि दशसंख्यकान्येव भवन्ति त्रिपदेशावगाढत्वात् । अत एष तानि सर्वस्वीकान्येव वाच्यानि । इति चेदाइ-यदि ये नमःप्रदेशा एकस्मिन्न नुर्वीद्रव्ये उपयुक्ता भान्ति ते ययस्मिन्नोपयुक्ता भवेयुस्तदेवं स्यात् , नचैवमस्ति, यतः त्रिभिःप्रदेशैः सम्पद्यमाने एकस्मिन् आनुपूर्वीद्रव्ये ये त्रयः प्रदेशा उपयुक्ता भवन्ति, त एव त्रयः पदेशा अन्यान्यरूपतया परिणतैरन्यैरप्यानुपूर्वीद्रव्यरुपयुज्यन्ते । अत एकैक: प्रदेशोऽनेकेषां त्रिक संयोगानामानुपूर्वीद्रव्याणामाधारो भवति । एवं चतुष्कसंयोगपञ्चकसंयोग यावदसंख्येयतंयोगानुपूर्वीद्रव्यविषयेऽपिबोध्यम् । ततश्च एकैको नमः आती है। आनुपूर्वीदव्य तीनप्रदेशों से प्रारंभ होकर निष्पन्न होते है। इसलिये इन्हे त्रिप्रदेशावगाढ माना गया है। इस प्रकार ये अनानुपूर्वी
और अवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा पूर्वोत्तरीति से विचार करनेपर कम ही आते हैं" यदि कोई इस प्रकार से कहे तो इसका उत्तर इस प्रकार से हैं कि जो आकाशप्रदेश एक आनुपूर्णद्रव्य में उपयुक्त होते हैं, वे यदि अन्य आनुपूर्ण द्रव्य में उपयुक्त नहीं होते तो ऐसा कहना बन सकता था परन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि तीन प्रदेशों से जायमान एक आनुपू. वीं द्रव्य में जो तीनप्रदेश उपयुक्त होते हैं, वे ही तीन प्रदेश अन्य अन्य रूप से परिणत हुए अन्य आनुपूर्वी द्रव्यों द्वारा भी अपने २ उपयोग में लाये जाते हैं । इसलिये लोक का एक २ प्रदेश अनेक त्रिक संयोगी आनुपूर्वी द्रमों का आधार होता है । इसी प्रकार से चतुष्क संयोगी पावत् असंख्यात संयोगी आनुपूर्वी द्रव्यों के विषय में भी जानना સંખ્યા ૧૦ માની લઈએ આનપૂવી દ્રવ્ય ત્રણથી લઈને અસંખ્યાત પર્યાના પ્રદેશમાંથી નિષ્પન્ન થાય છે. તેથી અહીં તેને ત્રિપ્રદેશાવગાઢ માનીને ઉપર પ્રમાણેની ગણતરી કરવામાં અાવી છે. આ રીતે વિચાર કરવામાં આવે તે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં તેનું પ્રમાણ ઓછું દેખાય છે.
આ પ્રકારની માન્યતા બરાબર નથી તે હવે રસ્પષ્ટ કરવામાં આવે છેજે આકાશપ્રદેશે એક આનુપૂવી દ્રવ્યમાં ઉપયુકત થાય છે તેઓ જે અન્ય આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં ઉપયુક્ત થતા ન હોત તે એવું બની શકત. પરંતુ એવું તે બનતું નથી કારણ કે ત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહિત એક આનુપૂથી ધમાં જે ત્રણ પ્રદેશે ઉપયુક્ત થાય છે, એજ ત્રણ પ્રદેશ અન્ય અન્ય રૂપે પરિણત થયેલા અન્ય આનુપૂવી દ્રવ્ય દ્વારા પણ પિતપોતાના ઉપયોગમાં લેવામાં આવે છે. આ રીતે લેકને પ્રત્યેક પ્રદેશ અનેક ત્રિકસંયોગી આનપૂર્વી દ્રવ્યોને આધાર થાય છે, એ જ પ્રમાણે ચતુષ્ક સગીથી લઈને
For Private and Personal Use Only
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्धारसूत्रे प्रदेशः अनेकेषु च्यादि संयोगात्मकेषु आनुपूर्वीद्रव्येषु उपयुज्यते । इत्थं च ज्यादि संयोगात्मकानुपूर्वीद्रव्यरूपाधेयभेदेन पतिपदेशरूपाधारस्यापि भेदो विवक्षितो भवति । नहि नभःमदेशा येन स्वरूपेगैकस्मिन् आधेये उपयुक्ता भवन्ति, तेनैव स्वरूपेण आधे यान्तरेऽपि । तथा सत्येकस्मिन् आधारस्वरूपे तदरगाइनाद् आधे. यानाम् एकता प्रसज्येत, घटे तत्स्वरूपवत् । ततश्च असंख्येयपदेशात्मके स्वस्थित्या व्यवस्थिते लोके यावन्तस्त्रिकसंयोगाघसंख्येयसंयोगार्यन्ता संयोगा जायन्ते तावन्त्यानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्ति । तानि च व्यादि संयोगानां बहुत्वाद् बहुसंख्य चाहिये । इस प्रकार एक २ आकाश प्रदेश अनेक व्यादि संयोगात्मक आनुपूर्वी द्रव्यों में उपयुक्त होता है। अतः व्यादि संयोगात्मक आनुपूर्वी द्रव्य रूप आधेय के भेद से, हर एक प्रदेश रूप आधार का भी भेद, विवक्षित हो जाता है । क्योंकि आकाश प्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय मे उपयुक्त होते हैं । उसी स्वरूप से वे दूसरे आधेय में उपयुक्त नहीं होते हैं । यदि ऐसी हो पात मानी जावे कि आकाश प्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय में उपयुक्त होते हैं उसी स्वरूप से वे अन्य आ. धेय में भी उपयुक्त होते हैं तो एक आधार स्वरूप में उनकी अवगाहना होने से उन अनेक आधेयों में घट में घट के स्वरूप की तरह एकता प्रसक्त होगी। इसलिये अपने स्वरूप की अपेक्षा से असंख्यात प्रदेशी लोक में जितने भी त्रिक संयोगादि रूप असंख्यात संयोग पर्यन्त तक के संयोग हैं उतनेही आनुपूर्वीद्रव्य हैं । ये आनुपूर्वीद्रव्य व्यादिसंयोगों અપંખ્યાત સગી પર્યન્તના આનુપૂર્વી ના વિષયમાં પણ સમજવું
આ પ્રકારે પ્રત્યેક આકાશપ્રદેશ અનેક ત્રિ આદિ સંગાત્મક આનુપૂર્વી દ્રમાં ઉપયુક્ત થાય છે. તેથી ત્રિ આદિ સંગાત્મક આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂ૫ આધેયના ભેદને લીધે દરેક પ્રદેશ રૂપ આધારને પણ ભેદ પડી જાય છે. કારણ કે જે સ્વરૂપે આકાશપ્રદેશે એક આધેયમાં ઉપયુક્ત થાય છે, એજ સ્વરૂપે તેઓ બીજા આધેયમાં પણ ઉપયુક્ત થતા નથી જે એવી વાત માન. વામાં આવે કે આકાશપ્રદેશે જે સ્વરૂપે એક આધેયમાં ઉપયુકત થાય છે એજ સ્વરૂપે તેઓ અન્ય આધેય વસ્તુમાં પણ ઉપયુક્ત થાય છે, તે એક આધારસ્વરૂપમાં તેમની અવગાહના હોવાથી તે અનેક આધેમાં પણ ઘટમાં ઘટના સ્વરૂપની જેમ એક્તા માનવા પ્રસંગે પ્રાપ્ત થશે, તેથી પિતાના સ્વરૂપની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત પ્રદેશી લેકમાં ત્રિકસંગથી લઈને અસંખ્યાત સગ પર્યન્તના જેટલા સગે છે એટલાં જ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે ત્રિ
For Private and Personal Use Only
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम् कानि बोध्यानि । अवक्तव्यकद्रव्याणि तु द्विकसंयोगाना स्तोकत्वात् स्तोकानि । भनानुपूर्वीद्रव्याण्यपि लोकप्रदेशसंख्यासमानसंख्यत्वात् स्तोकान्येव । अत्र मुखेनावबोधार्थ किंचिनिर्दिश्यते । तथाहि-लोके किल पञ्चाकाशमदेशाः कल्प्यन्ते, तद्यथा-:.: इति । अत्र अनानुपूर्वीद्रव्याणि तावत् पश्चैव भवन्ति । यथा-:.: इति। भवक्तव्यकद्रव्याणि तु अष्टौ, अष्टानामेव द्विकसंयोगानामिहाभ्युपगमात् । यथा- इति । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु षोडश संभवन्ति । तत्र-दशत्रिकसंयोगाः, पञ्च चतुष्कसंयोगाः, को बहुत होने के कारण बहुसंख्यक हैं । और जो अवक्तव्यक द्रव्य हैं वे बिक संयोगों के कम होने के कारण कम हैं। तथा जो अनानुपूर्वी द्रव्य हैं । वे भी लोक प्रदेशों की संख्या के बराबर होने के कारणकम ही है। यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जावे इसलिये यों समझना चाहिये-लोक में पांच आकाशप्रदेश कल्पित करो, और उसका आकार:.: इस प्रकार से करो। प्रत्येक आकाश प्रदेश में एक अनानुपूर्वी द्रव्य है इसलिये इस हिसाब से पांच अनानुपूर्वी द्रव्य हैं। ऐसा मान लो तथा विप्रदेश संयोगी जो अवक्तव्यक द्रव्य हैं वे द्विकमदेश संयोगों को यहां आठ ही होनेसे आठ आते हैं। जैसे-संस्कृत टीका में आकार देकर कहा गया है । आनुपूर्वीद्रव्य १६, संभवित होते हैं-वे इसप्रकार से १०, त्रिक प्रदेश संयोग के १०, ५ चतुष्पदेशि संयोग के पांच, और આદિ સંગે ઘણા હેવાને કારણે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બહુસંખ્યક છે, અને બ્રિકસંગે એાછાં હોવાને કારણે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય તેના કરતાં અ૫ સંખ્યામાં છે. તથા જે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે તેઓ પણ લેકના પ્રદેશોની સંખ્યાની બરાબર હોવાથી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અલ્પ સંખ્યામાં છે. આ વાતને સ્પષ્ટ રીતે સમજવા માટે આ પ્રમાણેની કલ્પના કરા-ધારા કે આકાશપ્રદેશો પાંચ છે અને તેમને આકાર આ પ્રમાણે છે– 28 પ્રત્યેક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂવી દ્રવ્યે રહી શકે છે. તેથી પાંચ પ્રદેશોમાં પાંચ અનાનુપૂવ દ્રવ્ય રહી શકે એમ માની લે.
તથા દ્ધિપ્રદેશ સંગી જે અવક્તવ્યક દ્રવ્યું છે, તેમની સંખ્યા અહીં આઠની આવે છે, કારણ કે અહીં કિક પ્રદેશ સંગે આઠ આવે છે તે વાત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે.
આ પાંચ પ્રદેશોમાં આનુપવી દ્રવ્ય ૧૬ સંભવી શકે છે. તેને હિસાબ આ પ્રમાણે સમાજ-ત્રિકપ્રદેશ સાગના ૧૦, ચતુષ્પદેશ સાગના
For Private and Personal Use Only
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारस पशकसंयोगस्त्वेक इति षोडश । तत्र दशत्रिकसंयोगा एवं बोध्या:-षट् तावत्रिकसंयोगा मध्यव्यवस्थापितेन सह ळभ्यन्ते, यथा- इति । तथा मध्यनिरपेक्षैदिग्व्यवस्थापितैवभिश्चत्वारनिकसंयोगाः, यथा- न्य इति । इत्थं दश त्रिकसंयोगा भवन्ति । पञ्च च चतुष्कसंयोगा एवं विज्ञेया:-चत्वारस्तान्मध्यव्यवस्थापितेन सह ममन्ति, पथा-(इति । एकस्तु चतुष्कसंयोगो मध्यनिरपेक्षैदिग्व्यवस्थापित गर्मिी, यथाइति । इत्थं पश्च चतुष्कसंयोगा भवन्ति । एक पांच प्रदेश संयोगका एक । इनमें त्रिकप्रदेश संयोग जो दस हैंवे इस प्रकार हैं-मध्य में जो प्रदेश व्यवस्थापित है, उसके साथ त्रिकप्रदेश संयोग ६ आते हैं-जैसे टीका में आकार देकर कहे गये है-तथा मध्य प्रदेश निरपेक्ष जो दिग्व्यवस्थापित चारप्रदेश हैं उनके साथ त्रिकप्रदेश संयोग ४ चार आते हैं जो टीका में दिये हुए चित्र वारा स्पष्ट किये गये है इस प्रकार से तीन २ प्रदेशों के संयोग दश होते हैं-ये तीन तीन प्रदेशों के संयोग ही १० अनानुपूर्वी द्रव्यों के आधार क्षेत्र है। तथा चार२ प्रदेशों के संयोग ५ इसप्रकार है-मध्य में जो प्रदेश व्यवस्थापित है उसके साथ चतुष्क संयोगचार होते हैं, ये चतुष्क संयोग ही चार आनपूर्वी द्रव्यों के आधाररूप क्षेत्र हैं। जो टीका में दिये हवे चित्र द्वारा कहे गये हैं। तथा मध्य प्रदेश निरपेक्ष जो चार दिग्व्यवस्थापित चारप्रदेश में उनसे एक चतुष्कसंयोगरूप आधार चारप्रदेशी आनुपूर्वी द्रव्य निष्पन्न होता है। जो संस्कृत टीका में दिया या चित्रमारा स्पष्ट ૫, અને પાંચપ્રદેશ સગનું ૧, આ રીતે કુલ ૧૪ આનવી દ્રવ્યો થઈ જાય છે. તેમના જે ૧૦ ત્રિપ્રદેશ સોગ કહ્યા છે તે નીચે પ્રમાણે સમજવા-મયમાં જે પ્રદેશ વ્યવસ્થાપિત (રહેલે) છે, તેની સાથે ત્રિકપ્રદેશ સગ ૧ ખાતે છે. એજ વાત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિવારા સમજાવવામાં આવી છે. મધ્યપ્રદેશ સિવાયના જે ચાર પ્રદેશો ચારે દિશામાં આવેલા છે. તેમની સાથે ત્રિકપ્રદેશસંગ ચાર આવે છે તેમને પણ આ આકૃતિ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે આ ત્રણ ત્રણ પ્રદેશોના સંચાગ ૧ થાય છે. આ ત્રણ ત્રણ પ્રદેશના સંચાગ જ ૧૦ આપવી દ્રવ્યના આધાર છે. તથા ચાર ચાર પ્રદેશના પાંચ સંગ આ પ્રમાણે થાય છે-માપમાં જે પ્રદેશ વ્યવસ્થાપિત છે તેની સાથે ચતુષ્કગ ચાર થાય છે. તે ચતુષસં. યોગ જ ચાર આનુવી" દ્રવ્યનાં આધારરૂપ ક્ષેત્ર છે. તેમને સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિ દ્વારા બતાવવામાં આવેલ છે તથા મધ્યપ્રદેશ સિવાયના ચાર દિશામાં વ્યવસ્થાપિત જે ચાર પ્રતેશ છે તેમના દ્વારા પાર
For Private and Personal Use Only
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम्
पञ्चकसंयोगस्तु सुगम एव यथा- ( इति इत्थं पञ्चपदेशप्रस्तारेऽप्यानुपूर्वीद्रव्याणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया बाहुल्यं दृश्यते । ततः स्वस्थित्या व्यवस्थितेऽसंख्येयप्रदेशात्मके लोके आनुपूर्वीद्रव्याणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यापेक्षयाऽसंख्यातगुणत्वं स्पष्टमेवेति ॥५०११६॥ किया गया है। इस प्रकार चतुष्कसंयोग रूप आधार क्षेत्र के आनुपूर्वी द्रव्य पांच होते हैं। तथा इन पांच प्रदेशों के संयोग से जायमान एक पांच प्रदेशी आनुपूर्वी द्रव्य का समझना सुगम है । जो संस्कृत टीका में दिया हुवा चित्र में समझाया गया है । इस प्रकार से पांच प्रदेशों के प्रस्तार में भी इन आनुपूर्वी द्रव्यों का अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा चाहुल्य देखा जाता है। तब इससे अपनी स्थिति के अनुसार सुव्यवस्थित इस असंख्यात प्रदेशवाले लोक में आनुपूर्वी द्रव्यों में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से असंख्यात. गुणता स्पष्ट ही है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा यह समझाया है कि नैगमव्यवहार नयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक हैं और शेष द्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इस बात को सुनते ही किसी शंकाकार ने इसપ્રદેશી આનુપૂવી દ્રવ્યના એક ચતુષ્કસવેગ રૂપ આધાર નિષ્પન્ન થાય છે, તેને પણ સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે ચતુષ્કસ ગ રૂ૫ આધાર ક્ષેત્રના આનુપૂવી દ્રવ્ય પાંચ થાય છે. તથા તે પાંચ પ્રદેશના સંચગથી નિષ્પન્ન પાંચપ્રદેશી એક આનુપૂવી દ્રવ્યને સમજવું સુગમ છે. ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિમાં તેને સમજાવવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે પાંચ પ્રદેશના પ્રસ્તારમાં પણ અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યોની અધિકતા જોવામાં આવે છે, તે પછી અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લોકમાં અનાનુપૂવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂવી દ્રવ્ય અસંખ્યાત ગણાં હોય એમાં નવાઈ પામવા જેવું શું છે?
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે નગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂવી દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અનેક ગણો વધારે છે. અને આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સિવાયના દ્રવ્ય આનમૂવી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે. સૂત્રકારના આ કથન સામે કઈ વ્યક્તિ એવી શંકા પ્રકટ કરે કે આપનું આ કથન બુદ્ધિગમ્ય
अ० ६३
For Private and Personal Use Only
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
a
अनुयोगद्वार सूत्रे
पर शंका की - कि आपका यह कथन युक्ति से संगत नहीं बैठता हैकारण असंख्यात प्रदेशी इस लोक में सबसे अधिक संख्या आनुपूर्वी द्रव्यों की ही आती है बाद में इनसे कम अवक्तव्यक द्रव्यों की और इनसे भी कम आनुपूर्वीद्रव्यों की। इस बात को हम इसप्रकार से समझा सकते हैं। लोक असंख्यात प्रदेशी माना गया है-सो लोकके असंख्यात प्रदेशों के स्थान में ३० संख्या रख लो ये ३० ही असंख्यात प्रदेश हैं। अनानुपूर्वीद्रव्य लोकाकाश के एक २ प्रदेश रूप आधार पर अवगाहित हैं इस अपेक्षा से अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या ३० आती है । और अवक्तव्यक द्रव्य जो द्विप्रदेशी होता है, वह दो दो प्रदेशों में अवगाहित होता है - इसलिये उसकी संख्या १५ आती है । तथा आनुपूर्वी द्रव्य त्रिप्रदेशावगाढ होता है । इसलिये इनकी संख्या दश आती है । तब सिद्धान्तकार ने इस शंका का उत्तर बहुत सुन्दररीति से किया है - उन्होंने उसे समझाया कि जैसा तुम कह रहे हो वैसा नहीं है । क्योंकि आकाशका एकर प्रदेश भिन्नर रूपसे परिणत अनेक व्यणुकादि रूप अनानुपूर्वी द्रव्यों का आधारस्थल है एक आनुपूर्वी द्रव्य में आकाश લાગતુ નથી પેાતાની શંકાના સમર્થાંનમાં તે એવી દલીલ કરે કેઅસ ખ્યાત પ્રદેશાવાળા આ લાકમાં અનાનુપૂર્વી દ્રબ્યાની સંખ્યા સૌથી વધારે છે, અવક્તવ્યક દ્રવ્યેાની સખ્યા અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યા કરતાં ઓછી છે અને આનુપૂર્વી દ્રવ્યાની સંખ્યા તે અવક્તવ્ય દ્રવ્યેા કરતાં પણ ઓછી છે. નીચેની કલ્પના દ્વારા તે પેાતાની આ માન્યતાનું સમર્થન કરે છે, લેાકના અસખ્યાત પ્રદેશે. માનવામાં આવ્યા છે. ધારા કે લેાકના ૩૦ પ્રદેશેા છે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેાકાકાશના એક એક પ્રદેશ રૂપ આધાર પર અવગાહિત છે. તેથી ૩૦ પ્રદેશેામાં અવગાહિત અનાનુપૂર્વી ચૈાની સખ્યા ૩૦ ત્રીસ થાય છે વકતવ્યક દ્રવ્ય કે જે એપ્રદેશી હાય છે તે લે!કાકાશના બબ્બે પ્રદેશેામાં અવગાહિત હાય છે. તેથી તેમની સખ્યા ૧૫ની થાય છે. તથા આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકાકાશના ત્રણ ત્રણ પ્રદેશેામાં અવગાહિત હાવાથી ૩૦ પ્રદેશેામાં અવગાઢ આનુપૂર્વી દ્રવ્યેાની સખ્યા ખાકીના અને દ્રવ્યેા કરતાં ઓછી થવા છતાં આપ શા કારણે એવું કહા છે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્યે બાકીના અને દ્રબ્યા કરતાં અસંખ્યાત ગણાં હોય છે?
આ શકાનું અહી નીચે પ્રમાણે સમાધાન કરવામાં આળ્યુ.. છે-તમે કડા છે. એવી વાત નથી, કારણ કે આકાશના એક એક પ્રદેશ ભિન્ન ભિન્ન રૂપે પરિણત થયેલ અનેક ત્રણ આદિ અણુરૂપ આનુપૂર્વી દ્રવ્યેાનું આધારસ્થાન છે. એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં આકાશના જે ત્રણ પ્રદેશા ઉપયુકત થાય
For Private and Personal Use Only
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टोका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम्
४९९ के जो तीन प्रदेश उपयुक्त होते हैं वे यदि अन्य अनानुपूर्वी द्रव्यों के उपयोग में न आते, तो यह बात बन भी जाती कि आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा बहुत कम है, परन्तु जो आकाश के व्यादि प्रदेश एक आनुपूर्वी द्रव्य में काम आते हैं, वे ही अन्य आनुपूर्वी द्रव्यों के भी उपयोग में आते हैं । जो आकाश के ३ प्रदेश जिस स्वभाव से व्यणुक रूप एक भानुपूर्वी द्रव्य के उपयोग में आते हैं। वे तीन प्रदेश उसी स्वभाव से ज्यणुकादि एवं चतुष्प्रदेशिक आदि अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों के उपयोग में नहीं आते हैं। उनके स्वभाव में भिन्नता आजाती है। इसलिये आकाश को स्वभाव की भिन्नता के कारण असंख्यात प्रदेशी माना गया है। व्यणुकादिरूप आनुपूर्वीद्रव्य भी तो एक २ की ही संख्या में नहीं हैं किन्तु एक २ आनुपूर्वी द्रव्य अनेक हैं। तभी तो ये समस्त आनुपूर्वियां लोकव्यापी हैं । अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य भी इसी प्रकार से हैं। इनमें आनुपूर्वी द्रव्य ही इन दो द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणा है । क्योंकि अनानुपूर्वी द्रव्य के लिये एकप्रदेश रूप आधार की और अवक्तव्यक द्रव्य के लिये दो प्रदेशरूप आधार की ही છે, તે ત્રણ પ્રદેશ જે અન્ય આનુપવી કાના ઉપગમાં આવી શકતા ન હેત તે એવી વાત સંભવી શકત કે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાકીના બને દ કરતાં બહુ જ અલ્પ સંખ્યામાં છે. પરંતુ પરિસ્થિતિ એવી છે કે આકાશને જે ત્રણ આદિ પ્રદેશે એક આનુપૂવી દ્રવ્યના કામમાં આવે છે, એજ પ્રદેશ અન્ય આનુપૂરી દ્રવ્યોના ઉપગમાં પણ આવે છે. જે આકાશના ત્રણ પ્રદેશો જે સ્વભાવને લીધે ત્રણ અણુવાળી એક આનુપૂર્વાના ઉપગમાં આવ્યા છે, તે ત્રણ પ્રદેશે એજ સ્વભાવથી ત્રણ અણુવાળાં, અને ચાર પ્રદેશવાળ આદિ અનેક આનુપૂર્વી ના ઉપગમાં આવતાં નથી. તેમના સ્વભાવમાં આધેયની ભિન્નતાને લીધે ભિન્નતા આવી જાય છે. તેથી આકાશને સ્વભાવની ભિન્નતાને કારણે અસંખ્યાત પ્રદેશી માનવામાં આવેલ છે. ત્રિ અક આદિ રૂપ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય પણ એક એકની સંખ્યામાં જ નથી, પરંતુ પ્રત્યેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનેક હોય છે.-ત્રિ આજીક આદિ પ્રત્યેક આનુપૂવી અનેક હોય છે અને તેથી જ તે સમસ્ત આનુપૂર્વી એ લેકવ્યાપી છે. અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય પણ લેકવ્યાપી છે. આ ત્રણેમાંથી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય જ તે બને દ્રવ્ય કરતાં અસખ્યાત ગણું છે, કારણ કે અનાનુપૂવી દ્રવ્યને માટે એક પ્રદેશ રૂપ આધારની અને અવકતવ્યક દ્રવ્યને
For Private and Personal Use Only
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
अनुयोगद्वारसूत्रे વરઘાના જતી હૈ, તાકિ માનુપૂર્વ ક્રિ છો તીર માર समस्त रूप आधार की अपेक्षा पड़ती है-तथो एक २ प्रदेश में भी अनेक आनुपूर्वी द्रव्य अवगाहित हैं । तय कि अनेक अनानुपूर्वी और अनेक अवक्तव्यकद्रव्य एक प्रदेश और दो दो प्रदेशों में ही अवगाहित हैं। इसी विषय को लोक में पांचप्रदेशों की कल्पना कर निर्णय किया गया है। इनमें चारों दिशाओं में चार प्रदेश स्थापित- करना चाहिये और एक प्रदेश बीच में । अनानुपूर्वीद्रव्य जैसा की कहा गया है, कि एक प्रदेशावगाही होता है इसलिये एक२ प्रदेश में एक एक रहने के कारण पांचप्रदेश रूप आधार संबन्धी वे ५ ही ज्ञात होते हैं । न्यून और अधिक नहीं। इन पांच प्रदेशों में जप दो२ प्रदेशों का संयोग-किया जाता है तो वे द्विक संयोग यहां आठ बनते हैं-जैसे टीकामें दिया हुवा चित्र में प्रदर्शित किये गये हैं । यहां जो एक दो आदि अंक-लिखे हुए हैं वे दो दो प्रदेशों के संयोग के प्रदर्शक हैं। इस प्रकार ये दो दो प्रदेशों के संयोगरूप जो आधार हैं वे उतने ही अवक्तव्यक द्रव्यों के आधार हैं।
માટે બે પ્રદેશ રૂપ આધારની આવશ્યકતા પડે છે, પરંતુ આનુપૂવ દ્રવ્યને માટે એક, બે, ત્રણ આદિ સમસ્ત પ્રદેશરૂપ આધારની આવશ્યકતા રહે છે. તથા એક એક પ્રદેશમાં પણ અનેક આનુપૂર્વા દ્રવ્ય અવગાહિત છે, જ્યારે અનેક અનાનુપૂર્વી અને અનેક અવકતવ્યક દ્રવ્ય તે અનુક્રમે એક એક પ્રદેશમાં અને બન્ને પ્રદેશોમાં જ અવગાહિત છે. હવે સૂત્રકાર લેકના પાંચ પ્રદેશ હોવાની કલ્પના કરીને આ વિષયનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે–ચાર દિશાએમાં ચાર પ્રદેશની અને વચ્ચે એક પ્રદેશની સ્થાપના કરવી જોઈએ. તેની આકૃતિ આ પ્રમાણે બનશે- અનાનુપૂવી દ્રવ્ય એક પ્રદેશાવગાહી હોય છે, તેથી એક એક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય હેવાને કારણે પાંચ પ્રદેશ રૂપ આધારમાં પાંચ જ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો સંભવી શકે છે. તેથી ઓછાં કે વધારે સંભવી શકતાં નથી. આ પાંચ પ્રદેશમાં જે બએ પ્રદેશને સંગ કરવામાં આવે, તે એવાં કિસાગ અહીં આઠ બને છે તે ઉપરની સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિમાં બતાવવામાં આવેલ છે
આ આકૃતિમાં જે એક, બે આદિ અંકે લખ્યા છે, તે બબ્બે પ્રદેશેના સાગના પ્રદર્શક છે. આ રીતે તે બબ્બે પ્રદેશના સંગ રૂપ જે આધાર છે, તેઓ એટલાં જ અવકતવ્યક દ્રવ્યના આધાર રૂપ છેઆ રીતે
For Private and Personal Use Only
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५०१
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र ११७ भावद्वारनिरूपणम् इत्थं भागद्वारमभिधाय सम्मति भावद्वारमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदवाई कयरंमि भावे होज्जा? णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा। एवं दोणि वि ॥सू०११७॥ ___ छाया-नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कतरस्मिन् भावे भान्ति ? नियमात् सादिपारिणामिके भावे भवन्ति । एवं द्वयोरपि ।।मू० ११७॥ इस प्रकार से यहां हिकप्रदेश संयोगरूप आधारवर्ती ८ अवक्तव्यकद्रव्य हैं। यह बोध हो जाता है । क्योंकि जितने आधार हैं उतने ही वहां अनानुपूर्ण आदि द्रव्य हैं ऐसा यहां कहा गया है । आनुपूर्वी द्रव्य इन पांच प्रदेशों के संयोग रूप आधार १६ होने से १६ होते हैं । चतुष्कसंयोग पांच और पांच प्रदेशों का एक संयोग यहां होता है । इन चतुष्क .(चार) संयोग रूप पांच आधारों में पांच आनुपूर्वी द्रव्य और पांच प्रदेशों के संयोगरूप एक आधार में एक पांच प्रदेशवाला आनुपूर्वी द्रव्य रहता है। पांच प्रदेशों में दो दो प्रदेशों के संयोग ८, तीन तीन प्रदेशों के संयोग १०, चार चार प्रदेशों के मंओग-से पांच बनते हैं। औरपांच प्रदेशोंका संयोग एक ये सब निकादि संघोगरूप आधार कैसे बने यह सब संस्कृत टीकामें दिया हुवाचित्रोद्वारा स्पष्ट किया गया है।सू.११६॥ અહી ક્રિકપ્રદેશ સગરૂપ આ ધારવતી આઠ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય હેવાને બોધ થઈ જાય છે, કારણ કે જેટલા આધાર છે એટલાં જ ત્યાં આવી આદિ દ્રવ્ય છે એવું અહીં કહેવામાં આવ્યું છે. - આ પાંચ પ્રદેશના સંગરૂપ આધાર ૧૬ હોવાથી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અહીં ૧૬ હોય છે. ચતુષ્કસંગ પાંચ અને પાંચ પ્રદેશને એક સંયોગ અહીં થાય છે. આ ચતુષ્કસંગ રૂપ પાંચ આધારેમાં પાંચ આપવી દ્રવ્યો અને પાંચ પ્રદેશોના સંગ રૂપ એક આધારમાં પાંચ પ્રદેશવાળું એક આનુપૂવી દ્રવ્ય રહે છે. પાંચ પ્રદેશમાં બન્ને પ્રદેશના સાગ આઠ, ત્રણ ત્રણ પ્રદેશના સાગ ૧૦, ચાર ચાર પ્રદેશના સંગ પાંચ અને પાંચ પ્રદેશને સંગ એક બને છે, આ બધાં દ્રિકાદિ સંગ રૂપ આધાર કેવી રીતે બને છે, તે બધું સૂત્રાર્થમાં આકૃતિઓ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં साध्य छे. ॥९०११६
For Private and Personal Use Only
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri yanmandir
५०२
अनुयोगद्वारसूत्रे टीका-'णेगमश्वहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कतरस्मिन् भावे भवन्ति ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-आनुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सादिपारिणामिके भावे भवन्ति। एवं द्वे अपि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यायपि सादिपारिणामिके भावे भवन्तीति । अयं भावः-शदिप्रदेशावगाह परिणामस्य एकप्रदेशावगाहपरिणामस्य द्विप्रदेशावगाहपरिणामस्य चेति त्रयाणामपि द्रव्याणां सादिपारिणामिकत्वात् सादिपारिणामिकभाववर्तित्व बोध्यमिति ॥सू० ११७॥
अब सूत्रकार भावद्वार का कथन करते हैं"जेगमववहाणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुत्री दवाई) नैगम व्यवहारनय. संमत समस्त भानुपूर्ण द्रव्य- (कयरंमि भावे होज्जा) कौन से भाव में वर्तते हैं।
उत्तर- (णियमा) नैगमव्यहारनयसंमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य नियम से (साइपारिणामिए भावे होजा) सादि पारिणामिक भाव मेंवर्तते हैं। (एवं दोषिणवि) इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अब. क्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी-जानना चाहिये । तात्पर्य इसका यह है कि व्यादि प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्यों का अवगाह, परिणाम एक प्रदेश अनानुपूर्वी द्रव्यों का अवगाह परिणाम और अवक्तव्यक द्रव्यों का द्विपदेशों में अवगाह परिणाम सादि है। इसलिये-ये सब द्रव्य सादि पारिणामिक भाववर्ती- हैं । ॥ सू०११७ ।।
હવે ભારદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે.– " णेगमववहाराण" त्याह
शा-(णेगमववहाराणं आणुपुव्वी दवाई) नैशमध्यपहारनयस भत समरत भानुपूवी द्रव्ये (कयरंमि भावे होज्जा !) या लापमा पतमान डेय छ ? उत्तर-(णियमा साइपारिणामिए भावे होजा) नैगमव्यव२ नयस મત સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય નિયમથી જ સાદિપારિણમિક ભાવવતી હોય छ. (एवं दोणि वि) मे ४थन मनानुयूवी द्रव्यो मन मतव्य। દ્રવ્યના વિષયમાં પણ સમજવું આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેત્રણ આદિ પ્રદેશમાં આનુપૂવી દ્રવ્યોનું અવગાહપરિણામ, એક પ્રદેશમાં અનાનુપૂવી દ્રવ્યોનું અવગાહપરિણામ અને બે પ્રદેશોમાં અવકતવ્યક દ્રવ્યોનું અવગાહપરિણામ સાદિ (આદિ સહિત) હોય છે. તેથી જ આ ત્રણે કોને સાદિપરિણામિક ભાવવતી કહ્યાં છે. સૂ૦૧૧થી
For Private and Personal Use Only
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् ५०१ इत्थं भावद्वारमभिधाय अल्पबहुत्वद्वारं प्ररूपयति
मूलम्-एएसिणं भंते!णेगमववहाराणं आणुपुबीदवाणंअणाणुपुचीदवाणं अवत्तव्वगदवाणं य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दवटुपएसटुयाए कयरे कयरहितो अप्पावा बहुगा वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा सव्वत्थोवाइंगमववहाराणं अवत्तव्वगदवाइं दवट्टयाए, अणाणुपुबीदवाइं दवट्ठयाए विसेसाहियाई, आणुपुत्वीदवाई दवट्टयाए असंखेज्जगुणाई। पएसट्ठयाए सव्वत्थोवाइं गमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं अपएसट्टयाए । अवत्तव्वगदवाइं पएसट्टयाए विसेसाहियाई । आणुपुब्बीदवाई पएसट्टयाए असंखेज्जगुणाई। दवट्ठपएसट्टयाए सम्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदवाई दवट्ठयाए । अणाणुपुवीदवाई दव्वट्टयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई। अवत्तबगदवाई पएसट्टयाए विसेसाहियाइं। आणुपुत्वीदव्वाइं दव्वट्टयाए असंखेजगुणाई ताई चेव पएसट्ठयाए असंखेज्जगुणाई। से तं अणुगमे। से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुत्वी॥सू० ११८॥ ___ छाया-एतेषां खलु भदन्त ! नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अवक्तव्यकद्रव्याणां च द्रव्यार्थतया प्रदेशार्यतया कानि केभ्यः अल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा ? । गौतम ! सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोः अबक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्थतया। अनानुपूर्वीद्रव्याणि व्यार्थतया विशेषाधिकानि । भानुपूर्वी द्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि । प्रदेशार्थतया-सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि अप्रदेशार्थतया। अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि । द्रमार्थप्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोः अवक्तव्यक द्रव्याणि द्रव्यार्थतया। अनानपूर्वी-द्रव्याणि द्रव्यार्थतया अपदेशार्थतया
For Private and Personal Use Only
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५०४
अनुयोगद्वारसूत्र विशेषाधिकानि । अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वी द्रव्याणि द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणानि तान्येव प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि । स एषोऽनुगमः। सैषा नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी ॥मू० ११८॥
टीका-'एएसि णं' इत्यादि।
हे भदन्त ! एतेषां खलु नैगमव्यवहारसम्मतानाम् आनुपूर्वीद्रव्याणाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अवक्तव्यकद्रव्याणां मध्ये कानि द्रव्याणि कतरेभ्यो द्रव्येभ्यो द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया द्रमार्थपदेशार्थतया च अल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति--'गोयमा' इत्यादिना । अस्य व्याख्या नवतितमसंख्यकमत्राद् योध्या।
अब सुत्रकार अल्प बहुत्व द्वार की प्ररूपणा करते हैं"एएसिणं भंते" इत्यादि।
शब्दार्थ- (भते) हे भदन्त ! (णेगमववहाराणं एएसिं आणुपुत्वी दव्याण) नैगमव्यवहारनय-संमत इन आनुपूर्वी द्रव्यों के (अाणुपुव्वी दव्वाणं) अनानुपूर्वी द्रव्यों के (य) और (अवत्तव्धगदवाणं) अवक्तव्यकद्रव्य के यीच (कयरे कयरेहितो) कौन कौन से द्रव्यों से (व्वट्टयाए, पएसट्टयाए, दवट्ठपएसट्टयाए ) द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता और द्रव्यार्थता प्रदेशार्थता की अपेक्षा (अप्पावा बहुगावा तुल्लावा विसेसाहियावा) अल्प हैं-कौन र किनर द्रव्यों से बहुत हैं कौन किन२-के समान हैं और कौन २ किन २ द्रव्यों से विसेष अधिक हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (णेगमवव. हाराणं) नैगमव्यवहारनय समत (अवत्तवादब्वाई) अवक्तव्यक
હવે સૂત્રકાર અલ્પબહુત દ્વારની પ્રરૂપણ કરે છે– " एएसिंणं भवे!" छत्याल
शहाय-(भंते !) 3 ममपन् ! (णेगमववहाराणं एरसिं माणुपुव्वीदव्याण अणाणुपुव्वीदव्वाणं, अवत्तव्वगव्वाण) नामव्य१९२ नयस मत मा भानु. पूवी न्यो, मनानुभूती द्रव्यो भने भरतव्य द्रव्यमानi (कयरे क्यरेहितो) है य: ४ या न्यो (दव्वट्टयाए, पएसटुयाए, दन्वटुपएसट्टयाए) यार्थता, प्रडे. साता भने यार्थता प्रदेशातानी अपेक्षामे (अप्पा वा बहुगा वा, तुल्ला था, विसेनाहिया वा ?) ४ ॥ ४॥ ये ४२di A६५ प्रभाय छ १ ४ ॥ ४ ॥
જો ક યા કયા કા કરતાં અધિક છે, કયા કયા દ્રએ કયા કયા દ્રવ્યોના જેટલાં જ છે અને કયા કયા દ્રવ્ય કયા કયા દ્રવ્ય કરતાં વિશેષાધિક છે ?
उत्तर-(गोयमा !) हे गौतम ! (णेगमववहाराण) नैराम०५१ २ नयमत (अवतव्वगव्वाई) सतम्य द्रव्ये (दवट्टयाए) द्रव्यार्थतानी मक्षा
For Private and Personal Use Only
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् ५०५ द्रव्य (वठ्ठयाए) द्रव्यार्थता की अपेक्षा (सव्वत्थोवाइं) सर्वस्तोक हैं। (अणाणुपुब्बीदव्वाइं) अनानुपूर्वीद्रव्य (दव्वट्टयाए) द्रव्यार्थता की अपेक्षा (विसेसोहिआई) विशेष अधिक हैं। (आणुपुत्वीदवाई ) आनुपूर्वीद्रव्य (दव्ययाए) द्रव्यार्थता की अपेक्षा (असंखेज्जगुणाई) असंख्यात गुणे हैं । (पएसट्टयाए) प्रदेशार्थताकी अपेक्षा (णेगमववहाराणं) नैगम व्यवहारनय संमत (अणाणुपुव्वी दवाई) अनानुपूर्वी द्रव्य (सव्यस्थो. वाई सर्वस्तोक हैं। क्योंकि (अपएसट्टयाए) अनानुपूर्वीद्रव्य में प्रदेशरूप अर्थ का अभाव है । तात्पर्य यह है, कि परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्यों में भी यदि वितीय आदि प्रदेश हो तो द्रव्यार्थता की तरह प्रदेशार्थता में भी अवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा से उनकी अधिकता हो जाती। परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि परमाणु अप्रदेशी होता है। ऐसा सिद्धान्त का वचन है इसलिये प्रदेशता की अपेक्षा से ये अनानुपूर्वी द्रव्य
सर्वस्तोक कहे गये हैं। (अवतव्वगव्वाई) अवक्तव्यक द्रव्य (पएसयाए) प्रदेशार्थता की अपेक्षा (विसेसाहियाइं) विशेष अधिक है। (आणु पुन्वी दवाइं) आनुपूर्वी द्रव्य (पएसट्टयाए) प्रदेशार्थता की अपेक्षा (असं. खेज्जगुणाई) असंख्यात गुणे हैं । (दव्वटुपएसट्टयाए) द्रव्यार्थता और. (सम्वत्थोवाइं) सौथी ५८५ प्रभावमा छे. (अणाणुपुव्वी व्वाई दव्वट्ठयाए विसेसाहियाई) न्याय तानी अपेक्षा विया२ ४२वामां आवे तो मनानुभवी द्रव्ये। अत०५४ ०। ४२di विशेषाधि: छ. (धाणुपुव्वीदवाई दव्वद्वयाए पसंखेज्जगुणाई) अने द्रयार्थानी अपेक्षा मानुषी द्रव्ये! अनानुभूती द्र०यो ४२ai ye nभ्यात अgi . (पएण्ट्टयाए) प्रदेशातानी अपेक्षाको विया ४२वामां माता (णेगमववहाराणं) नेगमयवहा२ नयस मत (भणाणुपुत्वीदव्वाई) मनानुपूवी द्रव्ये (सव्वत्योवाई) सौथा छछे, ४२ । (अपएपदयाए) मनानुनी प्रयमा प्रदेश३५ मन मा . म. बनना ભાવાર્થ એ છે કે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં પણ જે બે આદિ પ્રો. શેને સદ્દભાવ હેત તે દ્રવ્યાર્થતાની જેમ પ્રવેશાર્થતાની અપેક્ષાએ પણ અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અનાનુપૂવ દ્રવ્યની અધિકતા જ સંભવી શકત, પરતુ એવી વાતને તે અહીં અવકાશ નથી, કારણ કે પરમાણુ અપ્રદેશી હોય છે, એવું સિદ્ધાન્તનું વચન છે. તેથી જ પ્રદેશાથતાની અપેક્ષાએ मनानुपूर्वी द्रव्यने सस्तो (सीथी भ६५ प्रभा) ४ . (अवत्तगव्वाइं) भ१४त०५४ द्रव्ये (पएसटुयाए) प्र.शाय'तनी अपेक्षा मानुषी द्रव्यो Rai विशेषाधि 2. (आणुपुत्वीदलवाई पएसदयाए असंखेज्जगुणाई) प्र.
म० ६५
For Private and Personal Use Only
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ भनुयोगद्वारसूत्रे प्रदेशार्थता इन दोनों की अपेक्षा से (णेगमववहागणं) नैगम व्यवहारनय संमत-(अवत्तव्यगव्वाई) अवक्तव्यक द्रव्य (सव्वत्थोवाइं) सर्वस्तोक हैं। क्योंकि (दव्यट्टयाए) अवक्तव्यक द्रव्यों में द्रव्यार्थता की अपेक्षा पहिलेसर्वस्तोकता प्रकट की गई है । (अणाणुपुव्वी दवाई दवट्टयाए अपएसहगाए विसेसाहियाई) अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता से और अप्रदेशार्थता से अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा कुछ अधिक हैं । (अवत्तव्वगदव्याई पएसट्टयाए विसेसाहियाई ।) अवक्तव्यक द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षाअनानुपूर्थी द्रव्यों से कुछ अधिक हैं। (आणुपुन्वी दवाई दबट्टयाए असंखेज्जगुणाई ) उभयार्थता को आश्रित करके द्रव्याता की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात गुणें हैं और (पएसट्टयाए) प्रदेशार्थता की अपेक्षा से भी (ताइंचेव) वे ही आनुपूर्वीद्रव्य (असंखेज्जगुणाई) असं. ख्यात गुणें हैं (से तं अणुगमे) इस प्रकार यह अनुगम का स्वरूप है (से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) इस प्रकार यहां तक नैगम व्यवहारनय संमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के स्वरूप का कथन किया। सूत्र पदों का यह अर्थ है। इसकी व्याख्या ९० वें सूत्र के શાથતાની અપેક્ષાએ આનુપૂવી દ્રવ્ય અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત Ni . (दव्वटुपएसटुयाए) द्रव्यात! भने प्रदेशातानी अपेक्षा पियार ४२१मा मा त (णेगमववहाराणं) नैराभयपा२ नयसमत (अवचव्वगदव्वाई) भवतव्य द्रव्ये। सौधा माछ, ४२५ (दवट्याए) द्रव्याथતાની અપેક્ષાએ અવકતવ્યક દ્રવ્યમાં પહેલાં સર્વરકતા (સૌથી અલ્પ प्रम) मतापामा मा छे. (अणाणुपुव्वीदव्याई दवट्ठयाए अपएसटुयाए विसेमाहियाई) द्रव्याता भने प्रदेशातानी अपेक्षा मानानुपूवी न्यो । अपतय: ये ४२di विशेषाधि४ छे. (आणुपुचीदव्वाइं ख्वदयाए असं. खेजगुणाई) या तानी अपेक्षा लिया२ ४२वामां आवे तो भानुभूती व्योमसण्यात ग छे. (पएसयाए) प्रशात.नी अपेक्षाय पियार ३२पामा भावे तो (ताई चेव) ते मानुषी द्रव्यो । (असंखेज्जगुणाई) मण्यात गया है. (से तं अणुगमे) प्रारमनुगमनु २१३५ छ. (से तणेगमबवहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) मा रीते मही सुधानां सूत्रोमा નગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂવીના સ્વરૂપનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. સૂત્રપદને આ અર્થ છે તેની વ્યાખ્યા ૯૦માં સૂત્ર પ્રમાણે સમજવી,
For Private and Personal Use Only
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् ५०७
अत्रेदं बोध्यम्-द्रव्यगणनं द्रव्यार्थता, प्रदेशगणनं प्रदेशार्थता, उभयगणनं तूभयार्थता। तत्रानुपूर्या विशिष्टद्रव्यावगाहोपलक्षितास्यादिनभः प्रदेशसमुदाया द्रव्याणि, समुदायारम्भकास्तु प्रदेशाः । अनानुगू तु एकैकप्रदेशावगाहिद्रव्योपलक्षिताः सकलनमःप्रदेशाः प्रत्येकं द्रव्याणि, प्रदेशास्त्वत्र न संभवन्ति, एकैकप्रदेशद्रव्ये हि पदेशान्तरायोगात् । अवक्तव्य केषु तु समान जाननी चाहिये। "अत्रेदं बोध्यं-द्रव्यों की गिनती करना इसका नाम द्रव्याता है । प्रदेशों की गिनती करना इसका नाम प्रदेशार्थता है । द्रव्यों और प्रदेशों की दोनों की गिनती-गणना करना उभयार्थता है। आनुपूर्वी में विशिष्ट द्रव्यों के अवगाह से उपलक्षित हुए जोनभःप्रदेश हैं उन नभःप्रदेशों के यह तीन नभःप्रदेशों का समुदाय है यह चार नभः पदेशो का समुदाय है "इत्यादि जो समुदाय हैं-वे समस्त ज्यादि नभःप्रदेश समुदाय द्रव्य हैं । और इस समुदायों के जो आरं. भक हैं वे प्रदेश हैं । अनानुपूर्वी में, एक एकप्रदेश अवगाही हुए द्रव्य से उपलक्षित जो सकल आकाशप्रदेश हैं वे अलग २ प्रत्येक द्रव्य हैं। प्रदेश यहां संभवित नहीं हैं। क्योंकि एक २ प्रदेश रूप द्रव्य में अन्य प्रदेशों का रहना असंभव है अवक्तव्यकों में लोक में जितने दिक-दो दो प्रदेशों के योग हैं उतने वे प्रत्येक द्रव्य हैं । और इन द्विक योगों को
" अत्रेदं बोध्य" सही मे समपार्नु छ है न्योनी तरी ४२वी તેનું નામ વ્યાર્થતા છે અને પ્રદેશની ગણતરી કરવી તેનું નામ પ્રદેશાથતા છે. દ્રવ્યોની અને પ્રદેશની (ઉભયની) ગણતરી કરવી તેનું નામ ઉભયાર્થતા છે. આનુપૂવીમાં, વિશિષ્ટ દ્રવ્યોના અવગાહથી ઉપલક્ષિત (યુકત) એવાં જે આકાશપ્રદેશના “આ ત્રણ આકાશપ્રદેશને સમુદાય છે, આ ચાર આકાશપ્રદેશનો સમુદાય છે,” ઈત્યાદિ રૂપ જે સમુદાયે છે તે સમસ્ત ત્રણ આદિ આકાશપ્રદેશમાં રહેલાં દ્રવ્યસમુદાયે આવી જાય છે. અને તે સમુદાયના જે આરંભકે છે તેમનું નામ પ્રદેશ છે. - અનાનુપૂર્વી માં, એક એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલા દ્રવ્યથી ઉપલક્ષિત જે સમસ્ત આકાશપ્રદેશો છે તેઓ અલગ અલગ પ્રત્યેક દ્રવ્ય છે અહી પ્રદેશ સંભવિત નથી, કારણ કે એક એક પ્રદેશ રૂપ દ્રવ્યમાં અન્ય પ્રદેશોનું અસ્તિત્વ અસંભવિત છે. અવક્તવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે લેકમાં જેટલાં હિંગ (બબે પ્રદેશના ગ) છે, એટલાં તે પ્રત્યેક દ્રવ્ય છે, અને તે કિગોને આરંભ કરનારા પ્રવેશે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६०८
अनुयोगद्वारसूत्रे
यावन्तो लोके द्विकयोगाः संभवन्ति तावन्ति प्रत्येकं द्रव्याणि तदारम्भकास्तु प्रदेशा इति । किंच 'सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तन्यगदव्त्राई इत्यादि यदुक्तं तत्रोच्यते ननु यदा पूर्वोक्तयुक्त्या एकैको नभःप्रदेशोऽनेकेषु द्विकसंयोगेषूपयुज्यते, तदा अनानुपूर्वी द्रव्येभ्योऽवक्तव्यकद्रव्याणामेव बाहुल्यमुपलभ्यते, पञ्चप्रदेशनभःकल्पनायामपि पञ्चसंख्यकेभ्यो ऽनानुपूर्वी द्रव्येभ्योऽष्टसंख्यकानामवक्तव्य कद्रव्याणामेव आधिक्यदर्शनात्, तत् कथमिहोक्त' 'सव्वत्योवाई गमवत्रहाराणं अवत्तन्त्रगदव्वाई' इति ? अत्रोच्यते - लोकमध्यमात्रमाश्रित्य अवक्तव्यकद्रव्याणामाधिक्यमुक्तम् । परन्तु लोकपर्यन्तस्थित निष्कुटगता ये कण्टआरंभ करने वाले प्रदेश हैं। किंच "सब्वस्थोवाई गमववहाराणं अवक्तव्वगदव्वाई" इत्यादि जो कहा है उसके विषय में शंकाकार का ऐसा कहना है कि पहिले प्रदर्शित युक्ति के अनुसार जब एक एक अकाशप्रदेश अनेक द्विक संयोगों में उपयुक्त होता है तब अनानुपूर्वी द्रव्यों से अवक्तव्यक द्रव्यों की ही बहुला मालुम देती है जैसा पहिले कहा गया है कि आकाश के कल्पित पांच प्रदेशों में एक २ प्रदेश पर अनानुपूर्वी द्रव्य रहता है और आठ अवक्तor द्रव्य रहते हैं । अतः इस कथन से अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्यों की बहुलता पाई जाती है। तो फिर यहां ऐसे कैसे कहा कि नैगमव्यहारनय संमत अवक्तव्यक द्रव्य सर्वस्तोक हैं ?
उत्तर - लोक के मध्य भाग मात्र को आश्रित करके अवक्तव्यक द्रव्यों में अधिकता कही गई है। परन्तु जो एक २ प्रदेश लोक के अन्त तक ४- " सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई” खाये मेनुं જે કહ્યું છે કે નાગમવ્યવહારનયસ'મત અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સૌથી ઓછાં છે, પરન્તુ આપનું આ કથન ખરાખર લાગતું નથી પહેલાં આપે જ એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે એક એક આકાશપ્રદેશ અનેક દ્વિકસચેગામાં ઉપયુક્ત થાય છે, અને તેથી જ અનાનુપૂર્વી ચૈા કરતાં અવક્તવ્ય દ્રબ્યાની જ અધિકતા હાવી જોઈએ આપે પહેલાં એવુ કહ્યુ` છે કે લેાકના પાંચ પ્રદેશે હાય તા દરેક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અવગાહના હાય તે પાંચ પ્રદેશમાં પાંચ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ચે હાઇ શકે અને તે પાંચ પ્રદેશેામાં આઠ અવક્તવ્યક ગૈા રહી શકે આપના પૂર્વોક્ત આ કથન દ્વારા તે અવ વ્યક દ્રવ્યે અનાનુપૂર્વી દ્રયૈ કરતાં અશ્વિક હાવાની વાતને જ પુષ્ટિ મળે છે. છતાં અહી' આપે શા કારણે એવુ કથન કર્યું` છે કે નૈગમવ્યવહાર નયસમત અવક્તવ્યક બ્યા સસ્તાક છે ?
ઉત્તર-લાકના મધ્યભાગ માત્રને અનુલક્ષીને અવકતવ્ય દ્રચૈાની અધિહતા ખતાવવામાં આવી છે. પરન્તુ જે એક એક પ્રદેશ લેકના અન્ત પર્યન્ત
For Private and Personal Use Only
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अस्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् काकृतयो विश्रेण्या निर्गता एकाकिनः प्रदेशास्ते विश्रेणिव्यवस्थितत्वादवक्तव्यक. त्वादवक्तव्यकत्वायोग्या इति तेषामनानुपूर्वीसंख्यायामेवान्तर्भावो भवति । अतो लोकमध्यस्थितां निष्कुटगतां च अनानुपूर्वीद्रव्यसंख्यां मीलयित्वा यदा केवली निर्दिशति, तदाऽवक्तव्यकद्रव्याण्येव स्तोकानि, अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु ततो विशेपाधिकानि । अत्र निष्कुटस्थापना ४४४ इति । अत्र विश्रेणिलिखितौ द्वौ अवक्तव्यकायोग्यौ द्रष्टव्यौ । इत्थम्भूताश्चामी सर्वलोकपर्यन्तेषु तु बहवः सन्ति, इत्यनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अक्तव्यकद्रव्यापेक्षया बाहुल्यं बोध्यम् । अतएवोक्तम्'सम्वत्थोवाई णेगमवहाराणं आत्तव्यगदम्बाई' इति । आनुपूर्वीद्रव्याणां तु तेभ्यो. स्थित एवं निष्कुट स्थान में हैं और जिनका आकार कण्टक जैसा है, श्रेणि से जो निकले हुए नहीं हैं, ऐसे वे प्रदेश विश्रेणि में व्यवस्थित होने के कारण अवक्तव्यक के योग्य नहीं माने गये हैं । अतः इनका अन्तर्भाव अनानुपूर्वी की संख्या में ही हुआ है । इसलिये लोक के मध्य में स्थित और निष्कुट जो अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या है उसको मिलाकर जिस समय-केवली भगवान इसका कथन करते हैं । तब वेऐसा ही कहते हैं कि अवक्तव्यक द्रव्यही स्तोक हैं और अनानुपूर्वीद्रव्य उनसे कुछ अधिक हैं । निष्कुट की स्थापना यहां ४ ४ ४ इस प्रकार से है। इसमें विश्रेणि लिखित दो अवक्तव्यक के अयोग्य हैं। इस प्रकार के तो ये समस्त लोक के अन्त तक बहुत हैं । इसलिये अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों की अधिकता जाननी चाहिये ? સ્થિત રહેલે) છે અને નિકુટસ્થાનમાં છે અને જેને આકાર કંટક (કાંટા) જે છે, શ્રેણિમાંથી જેઓ નીકળેલા નથી, એવા તે પ્રદેશ વિશ્રેણિમાં વ્યવસ્થિત હેવાને કારણે તેમને અવક્તવ્યક કહેવાને એગ્ય ગણ્યા નથી તેથી તેમને સમાવેશ અનાનુપવીની સંખ્યામાં જ થયેલ છે. તેથી લેકની મધ્યમાં સ્થિત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો અને નિષ્ફટગત અનાનુપૂવી દ્રવ્યોની સંખ્યાનો સરવાળે કરીને જ્યારે કેવલીભગવાન તેમનું કથન કરે છે ત્યારે તેઓ એવું જ કહે છે કે અવક્તવ્યક દ્રવ્યો જ ઓછાં છે અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો તેમના કરતાં વિશેષાધિક છે નિષ્ફટની સ્થાપના (આકૃતિ) અહીં આ પ્રમાણે છે-૪૪૪” તેમાં વિશ્રેણિ લિખિત બે અવકતવ્યને ચોગ્ય નથી. આમ તે તેઓ સમસ્ત લાકના અંત સુધીમાં ઘણું જ છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિને કારણે જ અવકતવ્યક દ્ર કરતાં અનાનપવી દ્રવ્યોની અધિકતા સમજવી જોઈએ,
For Private and Personal Use Only
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
अनुयोगद्वारसूत्रे सिंह सात गुणामुक्त सेव। विशेषसत्र-उभयार्थताविचारे आनुपूर्वीद्रव्याणि स्वद्रव्ये. भ्यः प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयगुगानि, एकै कस्य तावद् द्रव्यस्य च्यादिभिरसंख्येयैनमः प्रदेशैरारब्धत्वात् , नमःमदेशानां च संमिलितानामपि असंख्येयत्वादिति । प्रस्तुतविषयमुपसंहरनाह- से तं' इत्यादि स एषोऽनुगमः-अनुगमविषयोऽत्रसम्पूर्णः । तत्समाप्तौ नैगमव्यवहारसम्मताऽनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी उपसंहृतेति तदुपसंहारमाह-'से तं णेगम०' इत्यादि-सैषा नैगमव्यवहारसम्मताऽनोपनिधिको क्षेत्रानु. पूर्वी सम्पूर्णा ॥१० ११८॥
इसलिये अब सूत्रकारने "सम्वत्थोवाई गमववहाराणं अवत्तव्य. गदवाई" ऐसा कहा है । अनानुपूर्वी द्रव्य उनसे असंख्यात गुणे हैं यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी है। यहां इतनी विशेषता और है कि जिस प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्यात गुणे हैं । उसी प्रकार वे उभयार्थता से विचरित होने पर प्रदेशार्थता की अपेक्षा अपने २ द्रव्यों से भी असंख्यात गुणे हैं। क्योंकि एक २ आनु. पूर्वी द्रव्य तीन आदि असंख्यात नभः प्रदेशों (आकाश) से निष्पन्न होता है और संमिलित हुए भी वे नभःप्रदेश असंख्यात ही होते हैं। इस प्रकार अनुगम का विषय समाप्त होते ही नैगमव्यवहारनयसंमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन समाप्त हो गया-इस विषय की सूचना से तं', इत्यादि पदों द्वारा मूत्रकार ने दी है। सू० ११८ ॥
तथा ॥ सूत्र॥रे घुछ है “ सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अव्वत्तव्यगदव्याइं" " नशम या२ नयसभित म१४०५४ थ्या सौथा छ। છે.” આનુપૂવી દ્રવ્યે તેમના કરતાં (અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં) અસંખ્યાત ગણાં છે, એ વાત તે પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી ચુકી છે. અહીં એટલી વધુ વિશેષતા છે કે જે પ્રકારે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ગણું છે, એ જ પ્રમાણે ઉભયાર્થતાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે પણ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ગણાં જ છે કારણ કે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ પણ એજ પ્રકારની પરિસ્થિતિ છે કારણ કે પ્રત્યેક આનુપૂવી દ્રવ્ય ત્રણ આદિ અસખ્યાત આકાશપ્રદેશ વડે નિષ્પન્ન થાય છે, અને તે આકાશપ્રદેશની એકંદર સંખ્યા પણ અસંખ્યાત જ થાય છે. આ પ્રકારે અનુગામનું વિષય નિરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. અને અનુગામનું વર્ણન સમાપ્ત થવાથી નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિતી सत्रानुनी थन ५ ५३ थाय छे. “से तं" या सूत्र द्वारा सारे એજ વાત સૂચિત કરી છે. સૂ૦૧૧૮
For Private and Personal Use Only
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११९ अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५११
इत्यं नैगमव्यवहारसम्मतामनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीमुक्त्वा सम्मति संग्रहनय संमतामनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीमाह
मूलम्-से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुच्ची ? संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुत्री पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा अत्थपयपरूवणया१,भंगसमुक्त्तिणयार,भंगोवदंसणया३,समोयारेट, अणुगमे५। से किं तं संगहस्स अत्थपयपरूवणया ?, संगहस्स अत्थपयपरूवणया-तिपएसोगाढे आणुपुत्री, चउप्पएसोगाढे आणुपुत्वी, जाव दसपएसोगाढे आणुपुवी, संखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी, असंखिज्जपएसोगाढे आणुपुठवी, एगपएसोगाढे अणाणुपुवी, दुप्पएसोगाढे अवत्तव्यए। से तं संगहस्स अत्थपयपरूवणया। एयाए णं संगहस्स अस्थपयपरूवणयाए किं पओयणं?, संगहस्स अत्थपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया कज्जइ। से किं तं संगहस्त भंगसमुकित्तगया?, संगहस्त भंगसमुक्त्तिणया अस्थि आणुपुब्बी, अस्थि अणाणुपुब्बी अस्थि अवत्तब्बए। अहवा अत्थि आणुपुवी अणाणुपुब्बी य, एवं जहा दव्वाणुपुवीए संगहस्स तहा भाणियव्वं जाव से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया। एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए किं पओयणं? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए संगहस्त भंगोवदंसणया कज्जइ। से किं तं संगहस्त भंगोवदंसणया?, संगहस्तभंगोवदंसणया-तिप्पएसोगाढे आणुपुब्बी, एगपएसोगाढे अणाणुपुब्बी, दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वए । अहवा तिप्पएसोगाढ़े य एगपएसोगाढे य आणु
For Private and Personal Use Only
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ अनुयोगद्वारसूत्रे पुब्बी य अणाणुपुव्वी य, एवं जहा दवाणुपुवीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुटवीए वि भाणियब्वं जाव से तं संगहस्स भंगो. वदंसणया। से किं तं समोयारे ? समोयारे-संगहस्स आणु. पुचीदव्वाइं कहिं समोयरंति? किं आणुपुव्वीदव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुठवीदव्वेहिं ? अवत्तठवगदव्वेहि ? तिण्णिवि सटाणे समोयरंति। से तं समोयारे। से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं नत्थि। संगहस्स आणुपुत्वीदवाइं किं अस्थि गस्थि ? णियमा अस्थि । एवं तिणि वि। सेसगदाराइं जहा दव्वाणुपुबीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुबीए वि भाणियवाई जाव से तं अणुगमे । से तं संगहस्त अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी। से तं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी ॥सू०११९॥
छाश-अथ का सा संग्रहस्य औरनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी १ संग्रहस्य अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी पश्चविधा प्राप्ता, तद्यथा-अर्थ पदमरूपणता १, भंगसमुत्कीर्त
इस प्रकार नैगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करके अब सूत्रकार संग्रहनय मान्य अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते हैं-से किं तं इत्यादि
शब्दार्थ- ( से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेसाणुपुव्वी ?)
प्रश्न-हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त पहिले प्रारंभ की हुई उस संग्रहनय मान्य अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
આ પ્રકારે નિગમવ્યવહાર નચમત અનૌપનિધિક ક્ષેત્રાનુપૂર્વ નિરૂ પણ કરીને હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયસંમત અનૌપનિધિ કી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું नि३५५ रे छ-" से किं तं" याkि
सहाय-(से कि तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) ३ पन्! પૂર્વ પ્રકાન્ત-પહેલાં જેને પ્રારંભ થઈ ચકર્યો છે એવી–સંગ્રહનયસંમત અને પનિધિ કી મેત્રાનુપવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
For Private and Personal Use Only
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
---
-
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११९ अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी निरूपणम् ५५५ मतार, मंगोपदर्शनता३, समवतार:४, अनुगमः ५ । अथ का सा संग्रहस्य अर्थपद. प्ररूपणता ? संग्रहस्य अर्थपदमरूपणता-प्रिप्रदेशावगाह आनुपूर्वी, चतुष्पदेशावगाडभानुपूर्वी, यावद् दशपदेशावगाढ आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्ती,
उत्तर-(संगहस्त अणोवणिहिया खेसाणुपुष्धी पंचविही पण्णत्ता) संग्रहनयमान्य अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पांच प्रकार की कही गई है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(अस्थपयपरूवणया) १ अर्थपदप्ररूपणता ( भंगसमुकिसणया)२ भगसमुत्कीर्तनता (भंगोवदंसणया)३ भंगोपदर्शनता (समोयारे )४ समवतार (अणुगमे) और अनुगम ।
प्रश्न-(से किं तं संगहस्स अस्थपयपरूवणया) संग्रहनय मान्य अर्थपदप्ररूपणता क्या है?
उत्तर (संगहस्स अस्थपयपरवणया) संग्रहनयमान्य अर्थपदप्ररूपणता इस प्रकार से है-(तिप्पएसोगाढे आणुपुष्वी) तीन प्रदेश में अवगाहस्थित-व्यणुक आदि द्रव्य आनुपूर्वी है (चउप्पएसोगाढे भाणुपुब्बी) पार प्रदेशों में अवगाढ चतुरणुक आदि आनुपूर्वी है
(जाव दसपएसोगावे आणुपुब्धी) यावत् दशप्रदेशाषगाट ग्य आनुपूर्वी है (संखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी) संख्यात प्रदेशावगार द्रव्य आनुपूर्वी है। (असंखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी) असंण्यात प्रदे.
Gत्तर-(संगहस्स अणोवणिहिया खेवाणुपुच्ची पंचविहा पण्णत्ता) 'नय. सभत मनोपनिधिही नुा पाय पानी से छे. (संजहा) ते । नाय प्रभा -(अत्थपयपरूवणया) (१) मा ५४५३५gता, (भंगममुकितणया) (२) समुजीतनता, (भगोवदसणया) () नता, (अमोयारे) (४) सभवतार भने (अणुगमे) (५) मनुराम.
प्रश-(संगहस्स भत्थपयपरवणया ?) 'नयभा-५ ५६५३वाई વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(संगहस्स अत्यपयपरूपणया) सनयमान्य ५५४५३५ga mu रनी है-(तिपएसोगाढे आणुपुव्वी) १५ प्रशामा अर (२९) भारावा द्र०५ भानुका ३५ , (परप्पएसोगाठे पाणुपुव्वी) या प्रदेशमा MAR यार भाद्र०५ ५ भानुभूती छे, (जाब दसपएगोगाटे माणपुम्वी) ५-तना मा अq॥ द्र०५ मानुषी छ, (संखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी) सभ्यात प्रदेशमा १ ०५ भानुभूती (असं. विजपएसोगावे पाणुपुम्वी) अने सात प्रदेशमा भ ६०५ ५५
०१५
For Private and Personal Use Only
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवारसूबे असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, एकपदेशावगाढ अनानुपूर्वी, द्विपदेशावगाहर अबक्तव्यकम् । सैपा संग्रहस्य अर्थपदमरूपणता। एतस्याः खलु संग्रहस्य अर्थप्ररूपणतायाः किं प्रयोजनम् ? संग्रहस्य अर्थमरूपणतया संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते । कोऽसौ संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता ? भङ्गसमुत्कीर्तनता अस्ति आनुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । अथवा अस्ति आनुपूर्वीच अनानुपूर्वी च। शावगाढ द्रव्य आनुपूर्वी हैं । (एगपएसोगाढे अणाणुपुग्धी) एक प्रदेशावगाढ द्रव्य अनानुपूर्वी है। (दुप्पएसोगाढे अवत्तव्यए) दो प्रदेशावगाद द्रव्य अवक्तव्यक है। (से तं संगहस्स अत्थपयपरूवणया) इस प्रकार यह संग्रहनय मान्य अर्थपदमरूपणता है। (एयाएणं संगहस्स अस्थपयपरूवणयाए किं पओयणं) इस संग्रहनयमान्य अर्थपदप्ररूपणता से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? (संगहस्स अस्थपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुकित्तणया कज्जई)
उत्तर-इस संग्रहनयमान्य अर्थपदप्ररूपणता से संग्रहनयमान्य भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। यही इसका प्रयोजन है (से कि तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य यह भंगसमूहकीर्तनता क्या है ? (संगहस्तभंगसमुकित्तणया अस्थि आणुपुची अस्थि अणाणुपुब्बी अस्थि अवत्तवए) संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता ऐसी है कि आनुपूर्वी है अनानुपूर्वी है अवक्तव्यक द्रव्य है। (अहवा अस्थि आणु मानुषी छ. (एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी) मे प्रदेशमा १३|| द्रव्य मना. नुनी ३५ छ, (दुप्पएसोगाढे अवत्तव्यए) २ प्रदेशमा अढ द्रव्य ५५. gics. (से तं संगहस्स अत्थपयपरूषणया) सहनयमान्य अ५४५३५४તાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(एयाएणं संगहस्स अस्थपयपहवणयाए कि पओयणं!) मा स नय. માન્ય અર્થ પદપ્રરૂપણુતા વડે કયા પ્રજનની સિદ્ધિ થાય છે?
उत्तर-(संगहस्स अत्थपयपहवणयाए संगहस्स भंगसमुकित्तणया करजई) આ સંગ્રહનયસંમત અર્થપપ્રરૂપણુતા દ્વારા સંગ્રહનયમાન્ય ભંગસમુત્કીત્તનતા કરવામાં આવે છે. એટલું જ તેનું પ્રજન છે.
-(से किं तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया ) 3 .१न् ! स नयस મત તે ભંગસમુત્કીર્તનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(संगहस्स भंगसमुचित्तणया अत्थि आणुपुत्री, अत्थि अणाणुपुत्री अत्यि अवत्तव्वए) स'नयस मत मसभु-डीत नतामा प्रश्नी -भानु५॥ 2, मनाषी थे भने १४०५४ २०य छे. (अहवा बत्थि आणुपुवी,
For Private and Personal Use Only
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११९ अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५१५ एवंयथा द्रव्यानुपूर्व्याः संग्रहस्य तथा भणितव्यं यावत् सैषा संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्त्तनता । एतस्याः खञ्च संग्रहरूप भङ्गसमुत्कीर्त्तनतायाः किं प्रयोजनम् ? एतया खलु संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्त्तनतया संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता क्रियते । अथ काऽसौ संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता - त्रिपदेशाव गाड ? पुण्बी, अणाणुपुत्रीय एवं जहा दव्याणुपुब्बीए संगहस्स तहा भाणियव्वे जाब से तं संगहस्स भंगसमुक्किन्तणया) अथवा आनुपूर्वी है अनानुपूर्वी है इस प्रकार जिस रीति से द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप कहा गया है, उसी प्रकार से इस क्षेत्रानुपूर्वी में भी संग्रनयमोन्य अंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप जानना चाहिये । यह स्त्ररूप कथन का संग्रह " से तं संगहरूस भंगसमुक्कि तणया" इसपाठ तक करना चाहिये। (एयाएणं संगहस्स भंगसमुक्कितणयाए कि पओयणं ? कज्जइ) इस संग्रहनय मान्य भगसमुतकीर्त - नता को क्या प्रयोजन है ?
उत्तर- (एयाएं संगहस्स भगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगो वदंसणया कज्जइ) इस संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता से संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनता की जाती है। (से किं तं संगहस्स भंगोवदंसया ? ) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य वह भंगोपदर्शनता क्या है ?
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
""
अणुपुवी य, एवं जहा दव्वाणुपुव्वीए संगहरस तहा भाणियव्वं जाव से तं संगहस्व भंग मुक्त्तिणया) अथवा "मानुपूर्वी छे, अनानुपूर्वी छे ઈત્યાદિ જે પ્રકારતું કથન દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં સંગ્રહનયસંમત ભગસમુત્કીતનતા વિષયમાં કરવામાં આવ્યુ છે એજ પ્રકારનુ` કથન આ ક્ષેત્રાનુ પૂર્વમાં પણ સગ્રહનયમાન્યભંગસમુત્કીનતાના વિષયમાં પશુ સમજવું જોઇએ આ કથન से तं संगहरु भंगसमुक्कित्तणया આ સૂત્રપાઠ પત ४२ हाये.
66
"
प्रश्न- (एयाएण संगहरु मंगसमुत्तिणयाए कि पओयणं ?) मा सग्रहनઅમાન્ય ભંગસમુત્કીત નતાનુ પ્રયાજન શું છે ?
उत्तर- (एयाएणं संगहस्स अंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगोवदंसणया યુગર). આ સંગ્રહનયમાન્ય ભગસમુત્કીનતા વડે સગ્રહનયમાન્ય ભગાપદરાનતા કરવામાં આવે છે.
For Private and Personal Use Only
अश्न - (से किं तं संगइरल भंगोवदंसणया १) डे भगवन् ! सनयस भत તે ભગાપદ'નતાનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारस्त्रे भानुपूर्वी, एकपदेशावगादः आनुपूर्वी विमदेशावगाढा अवक्तव्यकम् । अथवा-त्रिप्रदेशावगादश्च एकप्रदेशावगाढश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च, एवं यथा द्रव्यानुपू- संग्रहस्य तथा क्षेत्रानुपूर्व्यामपि भणितव्यं यावत् सैषा संग्रहस्य मनोपदर्शनता। अथ कोऽसौ समवतारः ? समवतार:संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किमानुपूर्वी द्रव्येषु समवतरन्ति !, अनानुपूर्वी द्रव्येषु ? अवक्तव्यकद्रव्येषु ? त्रीण्यपि स्वस्थाने समवतरन्ति, सोऽसौ समवतारः। अथ कोऽसावनुगमः ? अनुगमः अष्टविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-यावत् अल्पबहुत्वं नास्ति । संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि कि सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति । एवं त्रीण्यपि । शेषकद्वाराणि यथा द्रव्यानुपूर्त्या संग्रहस्य तथा क्षेत्रानु. पूयामपि भणितव्यानि यावत् स एषोऽनुगमः। सैषा संग्रहस्य अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी। सैषा अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी ।सू० ११९॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि। संग्रहनयाभिमत द्रव्यानुपूर्वीवदेव माय इदमपि सूत्रम् । अतो व्याख्यातमायमेव, अस्य व्याख्या चतुर्नवतितमस्त्रादारभ्य सप्तनवतिपर्यन्तमूत्रे विलोकनीया ॥सू० ११९॥ इत्थमनोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वीमभिधाय सम्पत्योपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीमाह
मूलम्-से किं तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुवी? ओवणिहिया खेत्ताणुपुटवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा, पुव्वाणुपुटवी, पच्छाणुपुवी, अणाणुपुवी। से किं तं पुत्वानुपुवी? पुवाणुपुवीअहोलोए तिरियलोए उड्डलोए। से तं पुव्वाणुपुवी। से किं तं
उत्तर-(संगहस्स भंगोवदसणया ) संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनताइस प्रकार से है-(तिपएसोगाढे आणुपुव्वी) त्रिप्रदेशाधगाढ आनु. पूर्वी इत्यादि आगेके समस्त पदों का अर्थ संग्रहनय मान्य द्रव्यानुपूर्वी में कथित भंगसमुत्कीर्तनता आदि के सूत्रों की व्याख्या के अनुसार ही है। इसलिये इनमें पदों की व्यख्या के लिये पिछे ९४ में सूत्र से लेकर ९७ ३ तक के सूत्रों को देखना चाहिये । मू० ११९ ॥
उत्तर-(संगहस्स भंगोवदसणया) सनयमान्य मानतानु સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે –
(तिपएसोगाढे आणुपुत्वो) विदेश मानुषी या पूरित સમસ્ત પદોને અર્થ સંગ્રહનયમાન્ય કવ્યાનુપૂર્વાના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ ભંગાસતીનતા આદિના સૂત્રોની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ છે. તેથી તેમાં જે પદે આવે છે તેમની વ્યાખ્યા જાણવા માટે ૪ થી ૭ સુધીના સૂત્રો વાંચી જવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. ૦૧૧
For Private and Personal Use Only
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२० औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वनिरूपणम् ५१७
पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुत्री उडलोए तिरिएलोए अहोलोए । से तं पच्छाणुपुव्वी से किं तं अणाणुपुन्नी ? अणाणुपुवी एयाए चैव एगाइयाए एगुत्तरियाए तिगच्छगया ए सेढीए अन्नमन्नभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुवी ॥सू० १२०॥
छाया - अथ का सा औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी ? औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तथा पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी अधोलोकः, तिर्यग्लोकः ऊर्ध्वलोकः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का इस प्रकार अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करके अब सूत्रकार औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते हैं"से किं तं ओवणिहिया" इत्यादि ।
शब्दार्थ (से कि तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी १) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर - ( वणिहिया खेप्ताणुपुच्ची तिविहा पण्णत्ता) औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है - (तं जहां) वे उसके प्रकार ये हैं - ( पुत्रवाणुपुत्री, पच्छाणुपुच्ची अणाणुपुत्री) १ पूर्वानुपूर्वी २ पश्चानुपूर्वी (३) अनानुपूर्वी (से किं तं पुव्वाणुपुच्ची) पूर्वानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (पुव्वाणुपुच्ची) पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है- (अहो लोए, तिरियलोए, उडूलोए) अधोलोक तिर्यग्लोक ऊर्ध्वलोक । ( से तं पुत्रवणुgoat) यह पूर्वानुपूर्वी है । (से किं तं पच्छाणुपु०वी) पश्चानुपूर्वी क्या है ?
આ પ્રમાણે અનૌપનિષિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર योपनिधिडी क्षेत्रानुपूर्वी नुं उथन उरे छे – “से किं तं ओवणिहिया" इत्याह
शब्दार्थ - (से किं तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी १) हे भगवन् ! सौंग्रहનયમાન્ય ઔપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વી નું સ્વરૂપ કેવુ છે ?
उत्तर- (ओणिहिया खाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) भोपनिधिडी क्षेत्रानुपूर्वी ऋणु प्रहारनी उही छे. (तंजहा) ते अशरी नीचे प्रमाये छे- (पुव्त्राणुपुबी पछाणुपुत्री, अणाणुपुब्वी) (१) पूर्वानुपूर्वी, (२) पश्चानुपूर्वी (3) अनानुपूर्वी प्रश्न - ( से किं तं पुत्र्वाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी मेटले शु?
Gur-(genggōft) yalgydi'g eazy 24 us12g D-(erg181q, fafcudig, sjalg) màıdık, fìu°3âïs »A §âqaÀiš, (À á gǝalygōáî) મા ક્રમે કહેલું તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી છે.
For Private and Personal Use Only
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५२८.
अनुयोगद्वार सा पश्चानुपूर्वी-पश्चानुपूर्वी ऊलोकः, तिर्यग्लोकः, अधोलोकः । सैषा पश्चानुपूर्वी। अथ का सा अनानुपूतो ? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायां विगच्छगताय श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपन्यूनः । सैषा अनानुपूर्वी ॥सू० १२०॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि । व्याख्याकृतपाया। ऊर्ध्वलोकादि लोकत्रयविषये किंचिदुच्यते-औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वीपस्तावे द्रव्यानुपूर्घधिकाराद् धर्मा ... उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इसप्रकार से है-उडलोए तिरियलोए अहोलोए) उर्वलोक, तिर्यग्लोक, अधोलोक, (से तं पच्छा. णुपुधी) यह पश्चानुपूर्ण है । (से कितं अणाणुपुत्री) अनानुपूर्वी क्या है।
(अणाणुपुब्बी) अनानुपूर्वी इस प्रकार से हैं। (एयाएचेव एगइयाए एगु सरियाए तिगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवणो-सेतं अणाणुपुब्बी) जिस में पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी ये दोनों नहीं हैं उसका नाम अनानुपूर्वी है इसमें विवक्षित अधोलोक आदि क्रमद्वय को उल्लंघनकरके परस्पर सं भवित भंगों से उन पदों की विरचना की जाती है । इस अनानु. पूर्वी में जो श्रेणी स्थापित की जाती है, उसमें सब से पहिले १ एक संख्या स्थापित की जाती है-धाद में एक २ की उत्तरोत्तर वृद्धि तीन संख्या: तक होती चली जाती है। फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है। इस प्रकार अन्योन्याभ्यस्त राशि बन जाती है। इसमें से आदि अंत के,
प्रश्न-(से किं तं पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूती ने हे छ ?
उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूवी L Rनी डाय छ-(उड्डलोए, तिरि.. यलोए, अहोलोए) Sqतियो भने अधीन, मा प्रमाणे असा उभे आयु (से तं पच्छाणुपुत्री?) तेनुं नाम पश्चानु छे.
प्रश्न-(से किं तं अणाणुपुव्वी) मनानुनी भेटसे शु
उत्तर-(अणाणुपुव्वी) मनानुभूती' मा २नी य ई-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए तिगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो-से तं अणाणुपुब्बी) मा पूर्वानुभूती भने पश्चानुपूवी से मन्नेनी मा डाय छे, એવા કમપૂર્વક કથન કરવું તેનું નામ અનાનુપૂવી છે. તેમાં ઉપર્યુક્ત બને કમનું ઉલ્લંઘન કરીને પરસ્પરની સાથે સંભવિત ભંગે (ભાંગાઓ) વડે તે પની વિરચના કરવામાં આવે છે. આ અનાનુપૂવમાં જે છે સ્થાપિત કરવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ ત્રણ સંખ્યા સુધી ઉત્તરોત્તર એક એક સંખ્યાની વૃદ્ધિ થતી રહે છે. ત્યાર બાદ તેમને પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરાય છે. આ પ્રકારે અન્ય અભ્યત રાશિ બની જાય છે તેમાંથી આદિ અને
For Private and Personal Use Only
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १२० धौपनिधिको क्षेत्रानुपू/निरूपणम् ५९ स्तिकायादीनि द्रव्याणि पूर्वानुपूर्यादित्वेन ९८ अष्टनवति सूत्रे उदाहतानि । अत्र तु क्षेत्रानुपूर्व्याः प्रस्तावात् अधोलोकादयः पूर्णनुपूादित्वेनोक्ताः। अधोकोकादिविभागास्तु-अधिश्चतुर्दशरज्ज्वायतस्य अनियतविस्तारस्य पश्चास्तिदो भंग कम कर ने पर अनानुपूर्वी बन जाती है। यही अनानुपूर्वी है । इस सत्र की व्याख्या के लिये ९८ वां सूत्र देखो। ऊर्ध्वलोक आदि जो तीन लोक हैं, उनके विषय में यहां कुछ-कहा जाता है।-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में द्रव्यानुपूर्वी का अधिकार होने से वहां धर्मा. स्तिकाय आदि द्रव्यों को पूर्वानुपूर्वी आदिरूप से उदाहृत किया गया है। परन्तु यहां क्षेत्रानुपूर्वी का प्रकरण चल रहा है इसलिये अधोलोक
आदि पूर्वानुपूर्वी आदि रूप से उदाहृत हुए हैं। लोक के ये जो ऊर्ध्वलोक अधोलोक आदि तीन विभाग किये गये हैं सो उसका कारण यह है कि मध्यलोक के बीचोंबीच मेरु पर्वत है। इसके नीचे का भाग अधोलोक और ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक है। तथा परायर रेखा में तिरछा फैला हुआ मध्यलोक है। मध्यलोक का तिरछा विस्तार अधिक है इसलिये इसे तिर्यग्लोक भी कहते हैं। लोक ऊपर से नीचेतकलंबाई में १४ राजू है । विस्तार इसका अनियत है। यह पांच अस्ति.
અન્તના બે સંગે આછાં કરી નાખવાથી અનાનુપવી બની જાય છે. અનાનવનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સમજવા માટે ૯૮મું सूत्र in n.
ઉર્વક આદિ જે ત્રણ લોક છે તેમના વિષે હવે અહીં થે કથન કરવામાં આવે છે
ઔપનિષિકી દ્રવ્યાનપૂર્વના પ્રકરણમાં દ્રવ્યાનુપૂવને અધિકાર હેવાથી ત્યાં ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યનું પૂર્વાનુમૂવી આદિ રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું હતું. પરંતુ અહીં ક્ષેત્રાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી અહીં અલક આદિ ક્ષેત્રનું પૂર્વાનુપૂવ આદિ રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું છે. લેકના ઉષ્પલેક અધોલેક (
તિક) આદિ જે ત્રણ વિભાગ કરવામાં આવ્યા છે તેનું કારણ એ છે કે મધ્યલકની વચ્ચે વચ મેરુપર્વત છે. તેની નીચેના ભાગને અલેક અને ઉપરના ભાગને ઉલક કહે છે તથા બરાબર રેખામાં તિરછી ફેલાયેલે મધ્યક છે. મલેકને તિરછો વિસ્તાર અધિક હેવાને કારણે તેને તિર્યશ્લેક પણ કહે છે લેકની ઉપરથી નીચે સુધીની લંબાઈ ૧૪ રાજુ પ્રમાણ છે. અને તેને વિસ્તાર અનિયત છે તે પાંચ અસ્તિકાથી
For Private and Personal Use Only
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५२०
भनुयोगद्वार
कायमस्य त्रिधा परिकल्पनया सम्पद्यन्ते । तत्रास्यां रत्नप्रभायां बहुसमभूभागे मेरुमध्ये नमःम देशद्वयेऽष्टमदेशो रुचकोऽस्ति । तस्य प्रतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादस्तनतरादारभ्याधोऽभिमुखं नव योजनशतानि परिहृत्य परतः सातिरेकसप्तरज्ज्वायतोऽधोलोकः । अथवा - अधः शब्दोऽशुभार्थकः तत्र च क्षेत्रप्रभावाद बाहुल्येनाशुमएव द्रव्याणां परिणामो भवति । अशुभपरिणामिद्रव्यवश्वादेव स लोकः अधोलोक इत्युच्यते । उक्तं च
'अव अहोपरिणामो खेत्ताणुभावेण जेण भोसण्णं प्रायः । सुभो अहोति भणिओ दव्वाणं तेणऽहोलोगो ॥ " छाया - अथवा अधः परिणामः क्षेत्रानुभावेन येनोत्सन्नम् । अमोध इति मणिवो द्रव्याणां तेनाधोलोकः ॥ इति ।
44
कायों से व्याप्त है लोक के अधः मध्य और ऊर्ध्व इस प्रकार से ये तीन विभाग हैं। इस रत्नप्रभा पृथिवीपर बहु समभूभागवाले मेरु पर्वत के मध्य में आकाश के दोप्रतरों में अर्थात् दो दो प्रदेशों के वर्ग में आठ रुचक प्रदेश हैं । उस प्रतरद्वय में से एक अधस्तन प्रतर से ले कर नीचे की नौ सौ योजन की गहराई को छोड़कर उसके आगे नीचे कुछ अधिक सात राजू विस्तारवाला अधोलोक है। अथवा अधः शब्द अशुभ अर्थ का वाचक है। उस अधोलोक में क्षेत्र के प्रभाव से अधि कतर अशुभ ही द्रव्यों का परिणाम होता है। इसलिये अशुभ परि णामवाले द्रव्यों से युक्त होने से कहा जाता है यही बात उत्कंच करके अहव अहो परिणामो " इत्यादि गाथा द्वारा निर्दिष्ट की गई है। तथा उसी प्रकार द्रव्यमें से एक उपरितन प्रतर से लेकर ऊंचे नौ सौ व्याप्त छे. बोडना श्रायु विभाग नीचे प्रभावे छे - (१) अषः (२) भभ्य भने (૩) વ* આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી પર બહુસમભૂભાગવાળા મેરુ પવતના મધ્યમાં આકાશના એ પ્રતરામાં એટલે કે બન્ને પ્રદેશેાના વર્ગમાં આઠ રુચક્રપ્રદેશ છે. તે એ પ્રતરમાંના એક અપસ્તન પ્રતથી લઇને નીચે ૨૦૦ ચેાજનની ઊંડાઈને પાર કરવાથી સાત રાજ્ કરતાં અધિક વિસ્તારવાળા ખીલાક આવે છે અથવા પ૪ અશુભ અર્થનું વાચક છે. તે અધાલાકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવને લીધે અધિકતર અશુભ દ્રવ્યપરિણામ જ હોય છે. આ રીતે અશુભ પરિણામવાળાં દ્રવ્યેાથી યુક્ત હાવાને કારણે તે લેાકને અપેાલેાકને નામે भोभवामां आवे मे बात सूत्रारे " अहब अहो परिणामो " ઇત્યાદિ ગાથા દ્વારા પ્રાટ મી છે,
"
< अधः
For Private and Personal Use Only
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२० औपनिचिकी क्षेानुपूर्वीनिरूपणम्
५२१
तथाच - तस्यैव रुचकमतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादुपरितनमतरादारभ्योध्वं नव योजन शतानि परिहृत्य परतः किंचिन्न्यून सप्तरज्ज्वायत ऊर्ध्वलोकः । ऊर्ध्वम् उपरि व्यवस्थापितो लोक लोकः । अथवा-ऊर्ध्वशब्दः शुभपर्यायः । तत्र क्षेत्रमभा बाद द्रव्याणां प्रायः शुभाएव परिणामा भवन्ति । अतः शुभपरिणामि द्रव्ययों गादूर्ध्व: शुभो लोकः
उक्त'च-' उट्टंति उवरि जंचिय सुभखित्तं खेत्तओ य दव्वगुणा । उपज्जेति सुभा वा तेण तओ उडुलोगोति ॥ "
छाया - ऊर्ध्वमिति उपरि यदेव शुभं क्षेत्रं क्षेत्रतश्च द्रव्यगुणाः । उत्पद्यन्ते शुभा वा तेन स ऊर्ध्वलोक इति ॥ इति ।
-
तथा च पूर्वोक्तयोरधोलोको लोक योरन्तरालेऽष्टादश योजनशतानि तिर्यग्लोकः समय परिभाषया तिर्यगू मध्ये व्यवस्थितो लोकः तिर्यग्लोकः । अथवा तिर्यक्छन्दो योजन छोड़कर उसके आगेऊपर कुछ कम सात राजू लंबा ऊर्ध्वलोक है। ऊपर रहा हुआ जो लोक है उसका नाम ऊर्ध्वलोक है । अथवाऊर्ध्वशब्द यहां शुभ अर्थ का वाचक है। उस ऊर्ध्वलोक में क्षेत्र के प्रभाव से द्रव्यों के परिणाम प्रायः शुभ ही होते हैं इसलिये शुभ परिणामवाले द्रव्यों के संबन्ध से शुभलोक का नाम ऊर्ध्वलोक है। यही बात यहा उक्तंच करके " उति उवरि " इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट की गई है। इन पूर्वोक्त अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के बीच में १८ सौ योजन प्रमाणवाला तिर्यग्लोक-मध्यलोक है। सिद्धान्त की परिभाषा के अनुसार यहां तिर्यग शब्द का अर्थ मध्य है । इसलिये मध्य मैं व्यवस्थित हुए लोक का नाम तिर्यग् मध्य-लोक है । अथवा तिर्यग
ઉપર જે એ પ્રતરની વાત કરી છે તેમાંના એક ઉપરિતન પ્રતરથી લઈને ૯૦૦ ચૈ!જન ઊંચે જવાથી સાત રાજૂ કરતાં સહેજ એછા વિસ્તારવાળા ઉર્વલક આવે છે. તે લેક ઊંચે આવેલા હૈાવાથી તેનુ નામ ઉર્ધ્વલાક છે. અથવા ‘ ઉર' શબ્દ અહી શુભ અંના વાચક છે તે ઉઘ્ન લેકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવથી દ્રબ્યાનું પરિણામ સામાન્ય રીતે શુભ જ હાય છે આ રીતે શુભ પરિણામવાળાં દ્રચૈાથી યુક્ત હાવાને કારણે તે લેાકનુ નામ ઉધ્વલાક પડયુ છે. એજ વાત સૂત્રકારે નીચેની ગાથા દ્વારા વ્યક્ત કરી છે"उद्धृति उवरि " त्याहि या पूर्वेति सघोस अने उध्वसेोउनी वस्ये ૧૮ સા ચેાજનના પ્રમાણવાળા તિય ગ્લેક-મધ્યલેાક છે. સિદ્ધાંતની પરિભાષા प्रमाणे अडीं' 'तिर्यगू' पहने। अर्थ 'मध्य' थाय छे. तेथी मध्यमां रडेला साउनु नाम तियंग (मध्य) सोङ पड्यु हे अथवा ' तिर्यगू' या यह भ० ६६
For Private and Personal Use Only
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
REE
५२२
भनुयोगदारसूर्य मध्यमपर्यायः। तत्र च क्षेत्रप्रभावात् मायो मध्यमपरिणामवन्त्येव द्रव्याणि संजायन्ते, अतस्तद्योगात् तिर्यक्-मध्यमो लोकस्तिर्यग्लोकः । यद्वाऽस्य लोकस्य ऊर्वाधोभागापेक्षया तिर्यग्लोक एव विशालतया प्रधानम् । प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति। इति न्यायमनुसृत्यायं लोकोऽपि 'तिर्यग्लोकः' इत्युच्यते । उक्तंच
" मज्झणुभावं खेत्तं जं तं तिरियंति क्यणपज्जवओ।
भण्णइ तिरियं विसालं अतो व तं तिरियलोगोत्ति ॥" छाया-मध्यानुभावं क्षेत्रं यत् तत्तियगिति वचनपर्यवात् ।।
भण्यते तिर्यग् विशालमतो वा स तिर्यग्लोक इति ।।इति । अत्र जघन्यपरिणामि द्रव्ययोगात् जघन्यतया चतुर्दशगुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्टेरिव आदावेव अधोलोकस्योपन्यासः। ततो मध्यमपरिणामि द्रव्ययोगान्मध्यमत्वेन शब्द यहां मध्यम पर्याय का वाचक है। इस मध्यलोक में क्षेत्र के प्रभाव से प्रायः मध्य परिणामवाले ही द्रव्य होते हैं । इसलिये इन मध्यम परिणामवाले द्रव्यों के संयोग से तिर्यग्-मध्यम-जो लोक है उसका नाम तिर्यगू लोक है। अथवा-इस लोक में अपने ऊर्ध्व और अधो भाग की अपेक्षा से तिर्यक् लोक ही विशाल है इसलिये विशालता की अपेक्षा वही प्रधान है । और ऐसा न्योय है कि जो प्रधान होता है उसी के अनुसार व्यपदेश-नाम चलता है। इसलिये इस लोक को तिर्यग लोक इस नाम से कह दिया गया है। उक्तं च करके यही बात "माणुभावं इत्यादि गाथा द्वारा स्पष्ट किया गया है। यहां जो सूत्र में सर्वप्रथम अधोलोक का उपन्यास किया गया है सो उसका कारण यह है कि वहांपर प्रायः जघन्य परिणाम वाले द्रव्यों का हो संबंध रहा करता है। इसलिये મધ્યમપર્યાયનું વાચક છે આ મલેકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવથી સામાન્ય રીતે મધ્યમ પરિણામવાળાં દ્રવ્ય જ હોય છે. આ મધ્યમ પરિણામવાળા દ્રવ્યોથી યુક્ત હોવાને કારણે તિર્યગ્ર-મધ્યમ જે લેક છે તેનું નામ તિય લેક પડયું છે. અથવા આ લેકના ઉર્વ અને અભાગ કરતાં તિક જ વધારે વિશાળ છે તે કારણે તિયકને જ મુખ્ય ગણી શકાય એ નિયમ છે કે જે પ્રધાન હેય તેને નામે જ વ્યવહાર ચાલે છે. તેથી આ લેકને “તિર્યYats" मा प्रा२नु नाम मापामा मायले. सूत्रसर " मज्मणु भावं" ઇત્યાદિ ગાથા દ્વારા એજ વાત વ્યક્ત કરી છે.
અહીં સૂત્રકારે સૌથી પહેલાં અલકનું કથન કર્યું છે, કારણ કે અલોકમાં સામાન્યતઃ જઘન્ય પરિણામવાળાં કૂબેને જ સદૂભાવ રહે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२१ अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५२३ तिर्यग्लोकस्योपन्यासः। ततश्च उत्कृष्ट द्रव्यवत्वाव॑लोकस्योपन्यासः, इति पूर्वानुपूर्व्याः क्रमो बोध्यः। पश्चानुपूर्त्यां तु पूर्वानुपूया व्युत्क्रमो बोध्यः। अनानुपूर्ध्या तु पदत्रयस्य षड्मङ्गा भवन्ति, ते च पूर्व दर्शिता एव । शेषभावना स्विह पाग्वदेव बोध्या ॥१०१२०॥
सम्मति शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थम् अधोलोक क्षेत्रानुपूर्यादि दर्शयितुमाह
मलम्-अहोलोअ खेत्ताणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता, तं जहापुवाणुपुवी पच्छाणुपुब्बी अणाणुपुवी।से किं तं पुटवाणुपुवी! पुव्वाणुपुवी-रयणप्पभा सक्करप्पभा वालुअप्पभा पंकप्पभा धूमप्पभा तमप्पभा तमतमप्पभा। से तं पुवाणुपुवी ? से किं तं पच्छाणुपुत्वी ! पच्छाणुपुवी-तमतमा जाव जिस प्रकार चौदह गुण स्थानों में जघन्य होने से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का सर्व प्रथम उपन्यास करने में आया है इसीप्रकार यहांपर भी जघ. न्य होने से अधोलोक का उपन्यास करने में आया है । तथा मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों के संबंध को लेकर मध्यम होने के कारण तिर्यग् लोक को और उस्कृष्ट द्रव्यवाला होने के कारण अवलोक का क्रमशः उपन्यास किया गया है यह पूर्वानुपूर्वी का क्रम है । और जो पश्चानुपूर्वी है उसमें पूर्वानुपूर्वी का व्युत्क्रम रहा करता है। तथा अनानुपूर्वी में इन तीन पदों के ६ भंग होते हैं ये पहिले दिखला ही दिये गये हैं । शेष भावना यहां पहिले की तरह ही जाननी चाहिये । म ० १२०॥ જેવી રીતે ૧૪ ગુણસ્થાનેનું વર્ણન કરતી વખતે જઘન્ય એવાં મિથ્યાષ્ટિ ગુણસ્થાનનું વર્ણન સૌથી પહેલાં કરવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે જઘન્ય હોવાને કારણે અધોલેકનું વર્ણન પણ સૌથી પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. મધ્ય પરિ. ણામવાળાં દ્રવ્યોથી યુક્ત હેવાને કારણે તિર્યલકને ઉપન્યાસ (વર્ણન) ત્યાર બાદ કરવામાં આવ્યા છે, અને ઉત્કૃષ્ટ દ્રવ્યપરિણામવાળા ઉર્વલકને ઉપન્યાસ (વજન). ત્યાર બાદ કરવામાં આવ્યું છે. આ પૂર્વાનુને ક્રમ છે પશ્ચાનુપૂવીમાં પૂર્વાનુપૂરી કરતાં ઉલટ ક્રમ રહે છે, તથા અનાનુપૂવીમાં આ ત્રણ પદેના ૬ ભંગ (વિકલ) થાય છે, તે અંગે પહેલા બતાવવામાં આવ્યા છે. બાકીનું કથન પહેલાના ફયન પ્રમાણે જ અહીં સમજવું જોઈએ. પાસ ૧૨
For Private and Personal Use Only
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
સરક
अनुयोगद्वारसूत्रे
रयणप्पभा । से तं पच्छाणुपुवी । से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुवी याए चैव एगाइयाए इगुत्तरियाए सत्तगच्छगयाएं सेढीए अन्नमन्नभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुथ्वी ॥सू० १२१ ॥
छाया - अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा पूर्वानुपूर्वी, पश्चा नुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी - रत्नप्रभा शर्करामभा वालुकाप्रभा पङ्कममा धूमपभा तमः प्रभा तमस्तमः प्रभा । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी - तमस्तमा यावद् रत्नप्रभा सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायां सप्तगच्छगतायां श्रेण्याम् अन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः ||०१२१ ॥
अब सूत्रकार शिष्यजनों की बुद्धि की विशदता के निमित्त अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी आदि को दिख लाते हैं - 'अहोलोए खेत्ताणुपु०वी' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( अहोलोअ खेत्ताणुपुच्धी तिविहा पण्णत्ता) अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है - (तं जहा ) जैसे (पुण्याणुपुच्ची, पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुच्ची) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी (से किं तं पुत्रान्वी) हे मदन पूर्वानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (पुव्वाणुपुत्री) अधोलोक पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार है- ( रयणध्वमा, सक्करणमा, वालु अध्यभा, पंकपभा, धूमध्पमा, तमप्पभा, तमतमभा) रहनप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, घूमप्रभा, तमःप्रभा, और तमस्तमःप्रभा, इनमे जो पहिली नरक पृथ्वी
ॐ
શિષ્યાને આ વાત ખરાખર સમજાય તે ઉદ્દેશથી સૂત્રકાર હવે અધેાલે ક क्षेत्रानुपूर्वी महिनु निश्पायु ४रे छे – “ अहोलोअ खेत्ताणुपुब्वी" त्याहिशहाथ - ( अहोलोअ खेतानुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) मधो क्षेत्रानुपूर्वी प्रभारनी उडी छे (तंजा) ते त्र प्रहारो नये प्रभाछे छे (पुब्वाणुपुब्बी, पुवी, अणाणुपुवी) पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी मने मनानुपूर्वी. प्रश्न- (से किं तं पुत्रापुव्वी १) हे भगवन् ! असे पूर्वानुपूर्वी हैवी छे? उत्तर- (पुव्वाणुपुठवी) अधोलोङ पूर्वानुपूर्वी या प्रहारनी छे - ( रयणप्पभा सकरtपभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, तमध्पभा, तमतमःपभा) रत्नप्रभा, शशला, वालुअला, पडला, धूमप्रला, तमःप्रला तभस्तभः अला, भा મે સાત પૃથ્વીના ઉપન્યાસ કરવા તેનું નામ અધેલાક પૂર્વાનુપૂર્વી છે. પહેલી નરકપૃથ્વીનું નામ રત્નપ્રભા પડવાનુ કારણ એ છે કે ત્યાં નારકનાં
For Private and Personal Use Only
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १२१ अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम्
टीका- 'अहो कोअखेाणुपृथ्वी' इत्यादि ।
-
"
अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी हि पूर्वानुपूर्व्यादि भेदैस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता । तत्र पूर्वानुपूर्वी - नारक जीवनिवासस्थानातिरिक्तस्थानेषु इन्द्रनीलादि बहुविधरश्नानां प्रभायाः सत्वात् प्रथमा नरकपृथिवी रत्नमभेत्युच्यते । द्वितीया शर्करामभा । इयं हि शर्कराणाम्-उपलखण्डानां प्रभावत् प्रभावश्वेन शर्कराप्रभेत्युच्यते । तृतीया - वालुकाममा । वालुकायाः सिकतायाः प्रभावत् प्रभावत्वेनैषा वालुकाममेत्युच्यते । एवमेत्र-पङ्कस्य = ' कीवड ' इति छोकमसिद्धस्य, धूमस्य= ' धूंआ' इति लोकप्रसिद्धस्य, तमसः=अन्धकारस्य कृष्णद्रव्यस्य तमस्तमसः = महान्धकारस्य निबिडकृष्णवर्णद्रव्यस्य च प्रभावत् प्रभावत्वेन तत्तत्पृथिवी पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमहै उसका नाम रत्नप्रभा इसलिये हुआ है कि नारक जीवों के निवास स्थानों के अतिरिक्त स्थानों में वहां इन्द्रनील आदि अनेक प्रकार के tea की कान्तिका सद्भाव है। शर्कराप्रभा नाम की जो द्वितीय भूमि है उसकी प्रभा शर्करों - पाषाण खंडों की प्रभा जैसी है । वालुकाप्रभा नाम की जो तृतीय भूमि है उसकी कान्ति रेत की प्रभा के समान है । inप्रभा नाम की चौथी भूमि है उसकी प्रभा कीचड़ की प्रभा के समान है। धूलप्रभा नाम की पांचवी भूमि की प्रभा धूम्र की प्रभा जैसी है । तमः प्रभा नामकी छट्ठी भूमि की प्रभा कृष्ण द्रव्यरूप जो अंधकार है उसकी प्रभा के जैसी है । और जो सातवीं भूमि तमस्तमःप्रभा है, उसकी कान्तिगाढ कृष्ण द्रव्यरूप जो महधिकार है उसकी कान्ति जैसी है इस प्रकार पूर्वानुपूर्वी में रत्नप्रभा शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंक નિવાસસ્થાન સિવાયનાં સ્થાનામાં ઈન્દ્રનીલ આદિ અનેક પ્રકારનાં રત્નાની કાન્તિને સદ્ભાવ છે. બીજી નરકપૃથ્વીની કાન્તિ કાંકરાએની કાન્તિ જેવી હાવાથી તેનું નામ શાપ્રભા છે. ત્રીજી નરકપૃથ્વીની કાન્તિ રેતીની કાન્તિના જેવી હાવાથી તેનુ' નામ વાલુકાપ્રભા છે. ચાથી પૃથ્વીની પ્રભા પક (કાદવ)ના જેવી હાવાથી તેનુ' નામ પંકપ્રભા પડયુ છે. પાંચમી પૃથ્વીની પ્રભા ધુમાડાના જેવી હાવાથી તેનુ' નામ ધૂમપ્રભા પડયુ છે. છઠ્ઠી પૃથ્વીની પ્રભા કૃષ્ણદ્રવ્ય રૂપ અંધકારના જેવી હેાવાથી તેનું નામ તમઃપ્રભા છે. સાતમી પૃથ્વીની ક્રાન્તિ ગાઢ—અતિશય કુષ્ણુદ્રવ્ય રૂપ મહાન્ધકારની કાન્તિ જેવી હોવાથી તેનું નામ તમસ્તમઃપ્રભા છે આનુપૂર્વી માં આ ક્રમે સાતે પૃથ્વીના उपन्यास थाय छे.
For Private and Personal Use Only
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
५२६
___ अनुयोगद्वारसूत्रे स्तमः-प्रभेति क्रमेण नाम्ना व्यपदिश्यते । एषा पूर्वानुपूर्वी । पश्चानुपू`तु तम स्तमा इत्यारम्य रत्नप्रभेत्यन्तं व्युत्क्रमेण व्यवस्थापना बोध्या। अनानुपूर्व्या व एषां सप्तानां पदानामन्योन्याभ्यासे चत्वारिंशदधिकाः पश्चसहस्रसंख्यकाः पूर्वानु पूर्वी पश्चानुपूर्णरूपाऽऽयन्तभद्रयविवक्षारहिता भङ्गा बोध्याः ॥सू. १२१॥
मूलम्-तिरियलोय खेत्ताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहापुवाणुपुठवी पच्छाणुपुवी अणाणुपुब्बी।से किं तं पुव्वाणुपुवी? पुवाणुपुव्वी-"जंबुद्दीवे लवणे, धायइ कालोय पुक्खरे वरुणे। खीर घय खोय नंदी, अरुणवरे कुंडले रुअगे॥१॥ आभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए य पुढविनिहिरयणे। वासहरदहनईओ, विजयावक्खारकप्पिदा ॥२॥ कुरुमंदर आवासा, कूडा नक्खत्तप्रभा, धूमप्रमा, तमःप्रभा और तमस्तमः प्रभा, इस प्रकार इन सात भूमियों का उपन्यास होता है । तथा पश्चानुपूर्वी में तमस्तमःप्रभा से लेकर रत्नप्रभा तक व्युत्क्रम से इन भूमियों का उपन्यास किया जाता है । अनानुपूर्वी में इन सात पदों का १-२-३-४-५-६-७ इस रूप से उपन्यास किया जाता है । फिर बाद में आपस में इनका गुणा किया जाता है। इस प्रकार गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उसमें से
आदि अन्त दो भंग कर दिये जाते हैं। इन सात पदों का परस्पर गुणा होने पर ५०४० भंग होते हैं । इनमें से पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी रूप दो आदि अन्त के भंग कम कर दिये जाते हैं। इस प्रकार यह अधोलोक संबंधी अनोनुपूर्वी है । ॥ सू० १२१ ॥
પશ્ચાનુ પૂર્વી માં તમતમ પ્રભાથી લઈને રત્નપ્રભા સુધીના ઊલટા ક્રમે સાતે પૃઓને ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે. અનાનુપૂવ માં આ સાત पहोना १, २, ३, ४, ५, ६, ७ २ ३ १ ४२१ामा माछ, ત્યાર બાદ પરસ્પરમાં તેમનાં ગણું કરવામાં આવે છે આ પ્રમાણે ગણું કરવાથી જે રાશિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે અંગે (વિકલ્પ) બાદ કરવામાં આવે છે. આ સાત પદેને પરસ્પર ગુણાકાર થવાથી ૫૦૪૦ ભંગ થાય છે તેમાંથી પૂર્વાનુપૂર્વી અને પશ્ચાનુપૂર્વી રૂપ આદિ અન્તના બે ભંગ ઓછાં કરવામાં આવે છે. અલેક સંબંધી અનાનુપૂવી આ પ્રકારની છે. સૂ૦ ૧૨૫
For Private and Personal Use Only
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२२ तिर्यग्लोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम्
५२७
चंदसूराय । देवे नागे जक्खे भूए य सयंभूरमणे य ॥ ३॥ से तं पुव्वाणुपुब्वी । से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुवी - सयंभूरमणेय जाव जंबुद्दीवे । से तं पच्छाणुपुव्वी । से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुद्दी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छ्गयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरुवूको । से तं अणाणुपुवी ॥सू० १२२ ॥
छाया - तिर्यग लोक क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा- पूर्वानुपूर्वी पथा नुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी जम्बूद्वीपो लवणो घातकी कालोदः पुष्करः वरुणः । क्षीरः घृतः क्षोदः नन्दी अरुणवरः कुण्डलः रुचकः । आभरणवस्त्रगन्धाः उत्पलतिलकं च पृथिवीनिधिरत्नम् । वर्षधरनद्यो विजया
(6
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
" तिरियलोयखेत्ताणुपुवी" इत्यादि
शब्दार्थ - (सिरियलोयखेत्साणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता) तिर्यग्लोक क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं- (पुव्वाणुपुथ्वी, पच्छाणुपुथ्वी, अणाणुपुबी) पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । (से किं तं पुचाणुपु०बी ? ) हे भदन्त । पूर्वानुपूर्वी क्या है ? (पुव्वाणु पुच्ची )
उत्तर-पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है जंबुद्दीवे लवणे, घायई कालोय पुवखरे वरुणे । खीर- घय खोय नंदी- अरुणवरे कुंडले रुभगे ॥ १ ॥ "आभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए य पुढवि निहिरयणे । वासहरदहनईओ, विजया वक्खारकपिंदा ॥ २ ॥ जंबुद्वीप, लवणसमुद्र धातकी तिरियलोयखेत्ताणुपुव्वी ' " इत्यादि
2984'-( faftusadanggeat fafagı qonai) Hubâis Dagपूर्वी यु अमरनी डी छे. (तंजहा) ते अमारो नीचे प्रमाणे छे - (पुव्वाणुपुम्बी पछाणुपुब्बी, अणाणुपुब्वी) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी मने नानुपूर्वी प्रश्न - ( से कि तं पुव्वाणुपुव्वी १) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी नुं स्व३५ ठेवु छे? उत्तर- (पुव्वाणुपुत्री) तिर्यो समधी पूर्वानुपूर्वी या अझरनी छे(जंबुद्दीवे लवणे, धायई कालो य पुक्खरे वरुणे । खीर - घयखोय- नंदी - अरुणवरे कुंडले रुभगे || १ ||
आभरणवत्थ गंधे, उप्पलतिलए य पुढविनिहिरयणे । बाहर दहनईओ, विजयावक्खारकपिंदा ॥२॥
वयूद्वीप, बवायुसमुद्र, घातही थंड, समुद्र, पुष्ठरद्वीय,
For Private and Personal Use Only
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्रे वक्षस्कारकल्पेन्द्राः। कुरुमन्दरावासा कूटा नक्षत्रचन्द्रसूर्याश्च । देवो नागो यक्षो भूतश्च स्वयम्भूरमणश्च । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी पश्चानुपूर्वीस्वयभूरमणश्च यावज्जम्बूद्वीपः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायामसंख्येयगच्छगतायां श्रेण्या मन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी ॥मू० १२२।।
टीका-'तिरियलोअ' इत्यादि।
तिर्यग्लोकक्षेत्रानुर्वी अपि पूर्वानुपादिभेदेन त्रिविधा विज्ञेया। तत्र जम्बूद्वीपेत्यारभ्य स्वयभूरमणेत्यन्तं पूर्गनुपूर्वी बोध्या। तत्र-जम्बूद्वीपो जम्बूवृक्षोपलक्षितो द्वीपो बोध्यः ततस्तं परिवेष्टय स्थितो लवणरसवज्जलपूरितो लवणसमुद्रः। लत्रणसमुद्रं परिवेष्टय धातकीवृक्षोपलक्षितो धातकीद्वीपः। ततस्तं परिवेष्टय शुद्धजलरसास्वाइवान् कालोदः समुद्रः। तं परिवेष्टथ स्थितः पुष्करैरुपलक्षितः पुष्करद्वीपः । पुष्करद्वीपं परिवेष्टय स्थितः शुद्ध जलरसास्वादवान पुष्करोदः समुद्रः। तं परिवेष्टय स्थितो वरुणो द्वीपः। ततो वारुणीरसास्वादो वारुणोदः समुद्रः । ततः क्षीरद्वीपः। ततश्च क्षीरोदः समुद्रः । ततश्च घृतद्वीपः। ततो घृतोदः समुद्रः। तत इक्षुद्रीपः । ततश्च इक्षुरसास्वाद इक्षु. रसोदः समुद्रः। ततो नदी-नन्दीश्वरद्वीपः । ततो नन्दीश्वरसमुद्रः । ततोऽरुणवरो खंड, कालोदसमुद्र पुष्करद्वीप, पुष्करोदसमुद्र, वरुणद्वीप, वारुणोदसमुद्र क्षीरद्वीप, क्षीरोदसमुद्र, घृतबीय' घृतोदसमुद्र, इक्षुश्रीप, इक्षुरसोदः, समुद्र, नन्दीदीप नन्दीसमुद्र अरुणवरछीप अरुणवरसमुद्र कुण्डलकोष, कुन्डलसमुद्र, रुचकद्वीप, रुचकसमुद्र,। इसके बाद असंख्यातद्वीप
और असंख्यात समुद्र हैं। सब से अन्तिम मीप स्वयंभरमण द्वीप और सबसे अन्तिमसमुद्र स्वयंभूरमण समुद्र हैं। अनुक्त इन द्वीपसमुद्रों के नाम आभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल तिलक आदि से उपलक्षित है अर्थात् स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त जो और छोप और समुद्र धु०४राइसमुद्र, १२५, पारु समुद्र, क्षीदी५, ३६ समुद्र, धृतद्वीप, तोहसमुद्र, क्षुद्वीप, क्षुरसाइसमुद्र, नन्हीही५, नन्ही समुद्र, अरुવરદ્વીપ, અરુણરસમુદ્ર, કુંડલીપ, કુંડલસમુદ્ર, રુચીપ, રુચકસમુદ્ર, ત્યાર બાદ અસંખ્યાત દ્વીપ અને અસંખ્યાત સમુદ્ર છે. સૌથી છેલ્લે દ્વીપ સ્વયંભૂરમણદ્વીપ, અને સૌથી છેલ્લે સમુદ્ર સ્વયંભૂરમણસમુદ્ર છે. અનુક્ત જેનાં નામો અહી કાં નથી એવા) દ્વીપસમુદ્રોનાં નામ આભરણું, વસ્ત્ર, ગંધ, ઉત્પલ, તિલક આદિથી ઉપલક્ષિત છે. એટલે કે રુચકસમુદ્રથી લઈને
સ્વયંભરમણ સમુદ્ર સુધીમાં અનુક્રમે આભરણદ્વીપ આભરણસમુદ્ર, વાદ્વીપ, વસમુદ્ર, ગંધદ્વીપ, ગધસમુદ્ર, ઉત્પલદ્વીપ, ઉત્પલઝમુદ્ર, તિલકદ્વીપ, તિલક
For Private and Personal Use Only
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२२ तिर्यग्लोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५२९ द्वीपः। ततश्वारुणवरसमुद्रः। ततः कुण्डलद्वीपः । ततश्च कुण्डलसमुद्रः। ततो रुचक द्वीपः । ततश्च रुचकसमुद्रः । तथा-असंख्येयानाम् असंख्येयानाम् द्वीपानामन्ते आभरणवस्त्रगन्धोत्पतिलकाद्युपलक्षिताः आभरणवस्त्रगन्धोत्पलतिलकादि स्वयम्भूरमणान्ताः द्वीपाः, तत्तन्नामानः समुद्राश्च सन्ति। स्वयम्भूरमणसमुद्रः-शुद्धोदक रसास्वादः। मूले पुष्कराधारभ्य स्वयम्भूरमणान्ताः शब्दा द्वीपसमुद्रोभयवाचका हैं उनके नाम आभरण आदि के ऊपर हैं । जो द्वीप का नाम है वही नाम बेढे हुए समुद्र का है । स्वयंभूरमण समुद्र के जलका स्वाद शुद्धोदक रसास्वाद जैसा है मूल में-पुष्कर से लेकर स्वयंभूरमण तक के शब्द द्वीप और समुद्र के वाचक हैं। तात्पर्य कहनेका यह है ! कि रुचकद्वीप और रुचकसमुद्र के आगे आभरण द्वीप और आभरणसमुद्र है । इसके बाद-वस्त्र द्वीप और वस्त्र समुद्र है। इसके आगे गंध द्वीप
और गंध समुद्र है इसी प्रकार से उत्पल, तिलक पृथिवी निधि, रत्न वर्षधर, इद, नदी, विजय वक्षस्कार, कल्पेन्द्र (कूरु मंदर आवासा कूडानक्खत्तचंदसूरा य देवे नागे जक्खे भूए य सयंभूरमणे य ३) कुरु, मन्दर आवासकूट, नक्षत्र, चन्द्र सूर्य देव, नाग यक्ष भून, और स्वयंभूरमण इन नामों वाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र है । जंबूद्वीप नाम का जो द्वीप है, वह जंबूवृक्ष से युक्त है। इसलिये इसका नाम जंबूद्वीपहुआ है। इस जंबूद्वीप को वेष्टित हुए गोल चूड़ी के आकार के आकार जैसा लवणસમુદ્ર આદિ અસંખ્યાત દ્વીપસમુદ્ર આવેલા છે. દ્વીપનાં જે નામે છે, એજ નામે તેમને વીંટળાયેલા સમુદ્રોના માટે પણ વપરાય છે.
વયંભૂરમણ સમુદ્રનું પાણી શુદ્ધ પાણીના જેવાં સ્વાદવાળું છે. પુષ્કરથી લઈને સ્વયંભૂરમણ પર્યન્તના શબ્દ દ્વીપ અને સમુદ્રો-બનેનાં વાચક છે એમ સમજવું આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ચકદ્વીપ અને ચકસમુદ્રથી આગળ જતાં આભરણદ્વીપ અને આભરણ સમુદ્ર આવે છે, ત્યાર બાદ વસ્ત્રદ્વીપ અને વસમુદ્ર આવે છે, ત્યાર બાદ ગંધદ્વીપ અને ગંધસમુદ્ર આવે છે, त्या२ मा ५४, तिas, पृथ्वी निधि, २१५५२, नही, विय१९२४२,
पेन्द्र (कुस्मंदर आवासा कूडानखत्तचंदसूरा य, देवे नागे जक्खे भए य सयंभूरमणे य ॥३॥) ३२, भन्४२, मावास, नक्षत्र, यन्द्र, सूर्य, हे, નાગ, યક્ષ, ભૂત અને સ્વયંભૂરમણ આ નામેવાળાં અસંખ્યાત દ્વીપ અને અસંખ્યાત સમુદ્રો આવે છે. જમ્બુદ્વીપ નામને જે દ્વીપ છે તે જંબૂવૃક્ષથી યુક્ત હોવાને કારણે તેનું નામ જંબૂદ્વીપ છે. આ જબૂદ્વીપને ઘેરીને વલયના
अ० ६७
For Private and Personal Use Only
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___ अनुयोगद्वारसूत्रे बोध्याः ननु मळे असंख्येयानसंख्येयान द्वीपसमुद्रानुल्लङ्य ये ये द्वीपसमुद्रादयः सन्ति, तेषां नामानि निर्दिष्टानि, किन्त्वन्तरालस्थिता अतिक्रम्यमाणा ये द्वीपा उक्तास्ते कि नामकाः ? इति चेदाइ-ल के पदार्थानां शङ्खध्वजकलशस्वस्तिक समुद्र हैं, इस समुद्र का जल लवण के स्वाद जसा खारा है । लवणसमुद्र को घेरे हुये धातकी खंडवीप है। यह धातकी वृक्ष से उपलक्षित है। इस धातकी द्वीप को घेरे हुए कालोदसमुद्र है । इस जल का स्वाद शुद्ध जल के स्वाद जैसा है, खारा नहीं हैं। इस समुद्र को घेर कर पुष्करद्वीप है। यह पुष्करशीप को घेर कर उस की चारों ओर पुष्कगेदसमुद्र है इसके जल का स्वाद शुद्ध जल के स्वाद जैसा है। इस समुद्र को वेष्टितहुए वरुणद्वीप है । वरुणद्वीप को घेरकर स्थित हुआ वोरुणोद समुद्र है। इसके जलका स्वाद वारुणी रस के मास्वाद जैमा है । इसके बाद क्षीरद्वीप है, क्षीरसमुद्र को घेरे हुए घृतदीप है। इसके बाद घृतोदसमुद्र है। घृतोदसमुद्र को घेरे हुए इक्षु-द्वीप है। इसके बाद इक्षुरमोद समुद्र है। इक्षुरसोद समुद्र के बाद नन्दीश्वर द्वीप है। और उमदीप को घेरे हुए नन्दीश्वरसमुद्र है। फिर अरुणवरद्वीप और अरुणवरममुद्र है। फिर कुन्डल द्वीप और कुन्डल समुद्र है। बाद में रुचक द्वीप और रुचक समुद्र है। इस प्रकार से आभरण वस्त्र आदि-शुभनाम वाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त-नक है।આકારને લવણુસમુદ્ર આવેલ છે. તે સમુદ્રનું પાણી લવણ (મીઠા)ના જેવાં ખારા સ્વાદવાળું છે. લવણસમુદ્રને ઘેરીને ધાતકીખંડ દ્વીપ અવેલે છે તે ધાતકીદ્વીપ ધાતકી નામના વૃક્ષની યુક્ત હોવાને કારણે તેનું નામ ધાતકીદ્વીપ પડયું છે. આ ધાતકીદ્વીપને ઘેરીને કાદસમુદ્ર રહે છે. તેનું પાણી ખા નથી પણ શુદ્ધ જળ જેવા સ્વાદવાળું છે લવણસમુદ્રને ઘેરીને પુષ્કરદ્વીપ આવેલો છે પુષ્કરોથી યુકત હોવાને કારણે તેનું નામ પુષ્કરદ્વીપ પડયું છે. પુષ્કર દ્વીપને ઘેરીને તેની ચારે તરફ પુષ્કરદસમુદ્ર આવેલું છે. તેના જળને સ્વાદ શુદ્ધ જળના સ્વાદ જે છે આ સમુદ્રને ઘેરીને વરુણદ્વીપ રહેલે છે અને વરુણદ્વીપને ઘેરીને વારુણેદ સમુદ્ર આવેલ છે. તેના જલને સ્વાદ વાણીરસના સ્વાદ જેવું છે. ત્યાર બાદ ક્ષીરદ્વીપ છે, તેને ઘેરીને ક્ષીરદસમુદ્ર આવેલ છે ક્ષીરસમુદ્રને ઘેરીને ઘતદ્વીપ આવે છે અને ઘતદ્વીપને ઘેરીને ઘેદ સમુદ્ર રહે છે. ત્યાર બાદ ઘdદ સમુદ્રને ઘેરીને ઈંક્ષદ્વીપ આવેલું છે અને ઈક્ષદ્વીપને ઘેરીને ઈશુરસદ સમુદ્ર આવેલ છે. ઈશ્વરદ સમુદ્રને ઘેરીને નન્દીશ્વર દ્વીપ રહે છે અને નીશ્વર દ્વીપની
મેર નન્દીશ્વર સમુદ્ર રહેલ છે ત્યાર બાદ અરુણુવરદ્વીપ અને અરુણવર સસક આવે છે. ત્યાર બાદ કુંડલદ્વીપ અને કુંડલસમુદ્ર આવે છે ત્યાર બાદ રુચીપ અને સૂચક સમુદ્ર આવે છે ત્યાર બાદ આભરણ દ્વીપ, આભરણ
For Private and Personal Use Only
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२२ तिय'लोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५३१ श्रीवत्सादीनि यान्ति शुमनामानि सन्ति तैः सर्वैरप्युएलक्षिता अन्तरालस्थिता द्वीपसमुद्राः सन्ति । उक्तंच-"दीवसमुदाणं भंते ! केवइया नामधिज्जेहिं पण्णत्ता ? गोयमा! जावइया लोए मुभा नामा सुभा रूवा सुभा गंधा सुभा रसा सुभा फासा एवझ्या णं दीवसमुद्दा नामधिजेहिं पण्णता।" (जीवा. ३ प्र. ४ उ.) छाया-द्वीपसमुद्राः खलु भदन्त ! कियन्तो नामधेयैः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! यावन्ति लोके शुभानि नामानि शुभानि रूपाणि शुभाः गन्धाः शुभा रसाः शुभाः स्पर्शाः इयन्तो द्वीपसमुद्रा नामधेयः प्रज्ञापाः । इति । एते हि-असंख्येयसंख्यकाः अनुपदवक्ष्यमाणगाथया प्रतिपादिता द्रष्टव्याः।
शंका-मूल में असंख्यात २ द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करके जो जो बीप और समुद्र आदि है उनके नाम तो कहे हैं परन्तु जो अन्तराल में स्थित द्वीप कहे हैं उनके क्या नाम हैं ?
उत्तर-लोक में पदार्थों के शंख, ध्वज, कलश स्वतिक, श्रीवत्स आदि जितने शुभ नाम हैं-उन सबसे उपलक्षित अन्तराल में स्थित हुए द्वीप
और समुद्र हैं। उक्तंच करके "दीवलमुद्दाणं इत्यादि" जो सूत्र पाठ दिया गया है उसका यही भाव है-इसमें यही कहा गया है कि लोक में जितने शुभ नाम हैं जितने शुभ रूप हैं, जितने शुभ गंध हैं जितने शुभ रस हैं और जितने शुभ स्पर्श हैं इतने ही द्वीप समुद्र इतने ही સમુદ્ર, વસ્ત્રદ્વીપ, વસ્ત્રસમુદ્ર, આદિ શુભનામવાળા અસંખ્યાત છે અને સમુદ્રો આવે છે. છેવટે લવણદ્વીપ અને લવણસમુદ્ર આવે છે.
પ્રશ્ન-મૂળમાં અસંખ્યાત સમુદ્રને પાર કરિને આગળ વધતાં છેવટે વયંભૂરમણ દ્વીપ અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર આવે છે, એવું કહેવામાં આવ્યું છે તેમાંથી કેટલાક દ્વીપ અને સમુદ્રોનાં નામે આપે આ સૂત્રમાં પ્રગટ કર્યા છે. પરંતુ ત્યાર પછીના સ્વયંભૂરમણદ્વીપ પર્યન્તમાં જે દ્વીપસમુદ્રો છે તેમનાં નામે આપે અહીં પ્રગટ કર્યા નથી તેમના નામે જણાવવા કૃપા કરશે?
ઉત્તર–લેકમાં પાર્થોનાં શંખ, વજ, કલશ, સ્વસ્તિક, શ્રીવત્સ આદિ જેટલાં શુભ નામે છે, એ સઘળાં નામથી ઉપલક્ષિત (ઓળખાતાં) તે અન્તशसभा २२सा द्वाप अने समुद्रो छे. यु. ५ -" दीवसमुद्दाणं " ઇત્યાદિ આ સૂત્રપાઠ દ્વારા એ વાત પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે લેકમાં જેટલા શુભ નામ છે, જેટલાં શુભ રૂપ છે, જેટલા શુભ ગંધે છે, જેટલાં શુભ સ્પર્શ છે, તેમનાં વડે આ દ્વીપસમુદ્રો ઉપલક્ષિત છે. તેઓ અસંખ્યાત હોવાને કારણે પ્રત્યેકનાં નામ અહી આપી શકાય એમ નથી દ્વીપસમૂહો
For Private and Personal Use Only
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे थाहि-"उद्धारसागराणं अड्डाइजाण जत्तिया समया।
दुगुणादुगुणपवित्थर दोबोदहि रज्जु एवइया ॥" छाया-उद्धारसागराणामर्धवतीयानां यावन्तः समयाः।
द्विगुणद्विगुणप्रविस्ताराः द्वीपोदधयो रज्ज्वामियन्तः ॥ इति तदेषा पूर्वानुपूर्वी । पश्चानुपूर्वी तु व्युत्क्रमेण बोध्या। अनानुपूर्वी तु-अमीषामसंख्येयानां पदानामन्योऽन्याभ्यासे ये ऽसंख्येया भङ्गा भवन्ति, तत आधन्त विवक्षारहिता भङ्गा बोध्याः ।।मू० १२२॥ नाम वाले हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि द्वीप और समुद्र असंख्यात संख्या वाले हैं । द्वीप समुद्र कितने हैं ? इसका उत्तर, उद्धारसागराणं" गाथा द्वारा दिया गया है जिसका भावार्थ ऐसा है कि अढाइ उद्धार सागरों के जितने समय होते हैं उतने एक दूसरे से दूने विस्तार वाले द्वीप और समुद्र हैं। इस प्रकार जंबूद्वीप आदि के क्रम से स्वयंभू रमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त द्वीप समुद्रों का उपन्यास करना सो पूर्वानुपूर्वी है । तथा इन्हीं द्वीपसमुद्रों का व्युत्क्रम से अर्थात् स्वयंभूरमण से प्रारंभ कर जंबूद्वीप तक-न्यास-उपन्यास-करना सो पश्चानुपूर्वी है । और इन्हीं असंख्यात पदोंका स्थापन करके फिर उनका परस्पर में गुणा करना और प्राप्त गुणन राशि में से आदि अन्त के दो भंग कम कर-देना इस प्रकार करने से असंख्यात भंगहोते हैं वह अनानुपूर्वी है। ।। सू० १२२ ॥ કેટલાં છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર નીચેની ગાથા દ્વારા આપવામાં આવ્યું છે"उद्धार सागराणं " त्याह- ा यानी भावार्थ सो छ है “मढी ઉદ્ધાર સાગરના જેટલા સમય થાય છે એટલા એક બીજાથી બમણાં બમણાં વિસ્તારવાળા દ્વીપ અને સમુદ્રો છે.” આ પ્રકારે જંબુદ્વીપથી શરૂ કરીને વયંભૂરમણ દ્વીપ અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર પર્યન્તન દ્વીપ અને સમુદ્રોને ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ તિર્થક સંબંધી પૂર્વાનુમૂવી છે.
ઉપર્યુક્ત દ્વીપસમુદ્રોને ઊલટા ક્રમમાં એટલે કે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રથી લઈને જબૂદ્વીપ પર્યન્તના પદેને ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ પશ્ચાતુપૂર્વી છે. અને એજ અસંખ્યાત પદેનું સ્થાપન કરીને તેમને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર કરો અને એ રીતે જે ગુણનરાશિ (ગુણાકાર) પ્રાપ્ત થાય તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભંગેને કાઢી નાખવા આ પ્રમાણે કરવાથી જે અસંખ્યાત ભગે થાય છે તેમને અનાનું પર્વ રૂપ સમજવી. સૂઇ૧૨૨
For Private and Personal Use Only
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
-
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १२३ ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्वी निरूपणम् ५३३
सम्पति ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वी निरूपयतिमूलम्-उड्डलोयखेत्ताणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा पुवाणुपुवी पच्छाणुपुत्री अणाणुपुत्वी । से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुवी सोहम्मे१, ईसाणेर, सणंकुमारे३, माहिदे४, बंभलोए५, लंतए६, महासुक्के,सहस्सारेद,आणए९,पाणए१०, आरणे११ अच्चुए१२, गेवेजगविमाणे१३, अणुत्तरविमाणे१४, ईसिपब्भारा१५, से तं पुवाणुपुत्वी । से किं तं पच्छाणुपुबी? पच्छाणुपुत्वी ईसिपब्भारा जाव सोहम्मे । से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपवी? अणाणुपुवी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए पन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूगो। से गं अणाणुपुत्वी। अहवा ओवणिहिया खेत्ताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहापुवाणुपुत्वी, पच्छाणुपुवी, अणाणुपुवी। से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुत्री-एगपएसोगाढे, दुप्पएसोगाढे, दसपएसोगाढे संखि. जपएसोगाढे जाव असंखिजपएसोगाढे । से तं पुवाणुपुब्धी। से किं तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुठवी-असंखिजपएसोगाढे संखिजपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे। से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुवी? अणाणुपुटवी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिजगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो। से तं अणाणुपुब्बी से तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्वी से तं खेत्ताणुपुवी ॥सू० १२३॥
छाया-ऊर्धलोकक्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी। अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-सौधर्मः१, ईशानः२, सनत्कुमारो३, माहेन्द्रो४, ब्रह्मलोफ:५, लान्तको ६, महाशुक:७, सहस्रारा, आनतः९,
For Private and Personal Use Only
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
५३४
अनुयोगद्वारसूत्रे
}
प्राणतः १०, आरणः११. अच्युतो २, ग्रेवेयक विमानं १३. अनुत्तरविमानं १४, ईमामारा | १५ | सेवा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पञ्चानुपूर्वी - ईष स्मारमारा यावत्मोधर्मः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनुपूर्वी ? अनानुपूर्वीएतस्यामेव एकादिकायामेको तरिकायां पञ्चदशगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैंपा अनानुपूत्र अथवा औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तथा पूर्वांनुपूर्वी, पचानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु पूर्वी - एकपदेशावगाढो द्विपदेशावगाढो दशप्रदेशावगाढः संख्येयमदेशावगाढो यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढः । सेषा पूर्वानुपू । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी - असंख्येयप्रदेशावगाढः संख्ये प्रदेशावगाढो यावत् एकमदेशावगाढः । सैषा पश्चानुपूर्वी ? अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायामसंख्येयगच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैपा अनानुपूर्वी । सैषा औपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी सैषा क्षेत्रानुपूर्वी ॥ मू० १२३ || टीका -' उडलोयखेचा ० ' इत्यादि ।
ऊलोक क्षेत्रानुपूर्वी हि पूर्वानुपूर्व्यादिभेदेत्रिविधा विज्ञेया। तत्र पूर्वानुपूर्वी सौधर्मादपत्रमारान्ता । प्रज्ञापक प्रत्यासत्या प्रथमं सौधर्मोपन्यासः । ततस्तत्त अब सूत्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण करते हैं:"उलोयखेत्ताणुपुरुवो" इत्यादि ।
शब्दार्थ (उडूलोयखेताणुपुत्री निविहा पण्णत्ता) ऊर्ध्वलोक क्षेत्रा नुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे - ( पुत्रवाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी (पच्छाणुपुत्री) पञ्चानुपूर्वी ( अगाणुपुब्बी) और अनानुपूर्वी ( से hd year goat ? ) हे भदन्त । पूर्वानुपूर्वी क्या है ?
(पुवाणुपु०वी) पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से हैं। (सोहम्मे १) सौधर्म १ ईसाणे २, सणकुमारे ३, माहिंदे ४, बंभलोए ५, लंतए ६, महासुહવે સૂત્રકાર ઉલેક ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે.
(4
"
esta@aiggest ” Sule—
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शब्दार्थ-(ड्डयखेत्ताणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता) उन क्षेत्रानुपूर्वी प्रहारनी उही छे. (तंजहा) तेत्राय प्राश नीचे प्रमाये छे - ( पुत्राणुपुत्री, पच्छाणुपुत्री, अणाणुपुत्री) (१) पूर्वानुपूर्वी (२) पश्चानुपूर्वी अने (3) मनातु पूर्वी. प्रश्न- (से किं तं पुत्राणुपुब्वी १) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वीनु स्व३५ કેન્નુ હાય છે?
उत्तर–उनले ४ स ंमधी पूर्वानुपूर्वी स्वयं अारनु छे (सोइम्मे) (१) सौधर्म (ईमाणे, खर्णकुमारे, माहिदे, बंगलोर, लंतर, महासुके, सहस्सारे,
For Private and Personal Use Only
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२३ ऊध्र्वलोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५३५ लोकमत्यासत्या तत्तल्लोकोपन्यासः । सौधर्मनामकं विमानं हि त क्षेत्रविमानेषु सर्वतः श्रेष्ठम् , अतः सः लोकः सौधर्मेति व्यपदिश्यते । एवमेव ईशानायच्युतविमानानां तत्तल्लो के श्रेष्ठत्वमलस्तत्तन्नाम्ना स स लोको व्यपदिश्यते। लोकपुरुषस्य ग्रोवाविभागे भवानि विमानानि अवेयकविमानानीत्युच्यन्ते । अनुत्तरविमानस्यलोकापेक्षयाऽन्यानि उत्तराणि विमानानि न सन्तीति तानि विमानानि अनुत्तर
क्के ७, सहस्मारे ८, आणए २, पाणए १०, आरणे ११, अच्चुए १२, गेवेजगविमाणे १३, अणुत्तरविमाणे १४, ईलिपभारा १५) ईशान २ सनत्कुमार ३, माहेद्र ४. ब्रह्मलोक ५, लान्तक ६, महाशुक्र ७, सहस्रार८. आनन ९, प्राणत १०, आरण ११ अच्युन १२, अवेयकविमान १३, अनुत्तरविमान १४, और ईषत्प्रागभारा १५ (से तं पुठ्याणुपुव्वी) यह पूर्वानुपूर्वी है । यहां पर प्रज्ञापक-की प्रत्यात्तिसे सबसे पहिले सौधर्म का उपन्यास किया गया है। याद में तत्तत् लोक की प्रत्यासत्ति से उन ५ लोगों का उपन्यास हुयी है। सौधर्म नाम का विमान है। यह विमान तत्क्षेत्र सबन्धी विमानों में सर्वश्रेष्ट है इसलिये उसके संबन्ध से उस लोक का नाम सौधर्मलोक हुभा है । इसी प्रकार ईशान से लेकर अच्युत नक के विमानों में उन २ लोको में श्रेष्टता है । इस लिये उस २ नाम से वह २ लोक कहा गया है। लोक रूप पुरुष की ग्रीवा के स्थानापन्न जो विमान हैं वे ग्रेवेयक विमान कहलाते हैं। आणए, पाणए, आरणे, अच्चुप) (२) न, (3) सनामा२, (४) भार-द्र, (५) प्र , (6) alत, ७) माशु, (८) सना२, (6) मानत, (..) प्रात, (११) मा२], (१२) अच्युत (गेवेज्जगविमाणे, अणुत्तरविमाणे ईसिपन्भारा) (१३)अवेय विमाना, (१४) ध्वत्प्रामा।. (से तं पुठवाणुपुव्वी) मा ક્રમે ઉર્વિલેકગત ક્ષેત્રોને ઉપવાસ કરવો તેનું નામ પૂર્વાનુપૂવ છે. અહીં પ્રજ્ઞાપની વધારે નજીકમાં આવેલા ઈશાનકલ્પનો ઉપન્યાસ પહેલાં કરવામાં આવ્યા છે. ત્યાર બાદ ત્યાંથી વધારે ને વધારે દૂર આવેલાં ક્ષેત્રોને ઉપન્યાસ અનુક્રમે કરવામાં આવ્યું છે. સૌધર્મ ક૫માં જે વિમાને છે તેમાં સર્વશ્રેષ્ઠ સૌધર્મ નામનું વિમાન હેવાથી તે દેવકનું નામ સૌધર્મકલ્પ પડયું છે. એજ પ્રમાણે ઈશાનથી લઈને અશ્રુત પર્યન્તના કલ્પમાં પણ એજ નામનાં (ઈશાન, સનસ્કુમાર) વિમાનની શ્રેષ્ઠતા છે, એમ સમજવું કે કારણે તેમનાં નામો પણ તે વિમાનો જેવાં જ રાખવામાં આવ્યાં છે. લેકરૂપે પુરુષની શ્રીવાના સ્થાનમાં જે વિમાન રહેલાં છે તેમને શૈવેયક વિમાનો કહે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५३६
अनुयोगद्वारसूत्रे
विमानान्युच्यन्ते । ईपत्याग्मारा-माराकान्तपुरुषवदीपन्नतत्वात् एषा ईषमाग्भारेस्युच्यते । इयं सौधर्मादीषत्प्राग्भारान्ता पूर्वानुपूर्वी। तथा ईषत्प्राग्भारा यावत् सौधर्म इति पश्चानुपूर्वी। तथा-अनानुपू] तु सौधर्मादिपञ्चदशपदानामन्योऽन्याअनुत्तरविमानस्थ लोक की-अपेक्षा और दूसरे विमान-उत्तर-श्रेष्ट नहीं है-इसलिये वे विमान अनुत्तर विमान कहे गये हैं । भार आक्रान्त पुरुष की तरह कुछ झुकी हुई होने से यह ईषत्प्रारभारा इस नाम से कही गई है। सौधर्म से लेकर ईषत् प्रारभारा भूमि तक पूर्वानुपूर्वी है। (से किं तं पच्छाणुपूव्वी) हे भदन्त पश्चानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्ण इस प्रकार हैं-(ईसिपाभाराजाव सोहम्मे) इषत् प्रारभारा भूमि से लेकर जो सौधर्म देवलोक तक व्यु. स्क्रम से गणना है ! (से तं पच्छाणुपुन्धी ) वह पश्चानुपूर्वी है । (से कि तं अणाणुपुवी ?) हे भदन्त ऊर्ध्वलोक सबन्धी अनानुपूर्वी क्या है ? ___ उत्तर-(अणाणुपुव्वी) ऊर्ध्वलोक सबन्धी अनानुपूर्वी इस प्रकार से हैं। (एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए पन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्न मन्न भासो दूरुवणो) इस अनानुपूर्वी में जो श्रेणी स्था. અનુત્તર વિમાનથ લેકના કરતાં અન્ય કઈ પણ વિમાન શ્રેષ્ઠ નથી, તે કારણે તે શ્રેષ્ઠ વિમાનને અનુત્તર વિમાને કહ્યા છે. જેમ કે ભારને વહન કરતે પુરુષ સહેજ ઝૂકી જાય છે એ જ પ્રમાણે આ વાગ્યારા પૃથ્વી પણ સહેજ ઝૂકેલી હોવાને કારણે તેનું નામ ઈષ~ામારા પડયું છે. સૌધ. મથી લઈને ઈ~ાગ્યાર પર્યન્તનાં પને કમપૂર્વક ઉપન્યાસ કરવો તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે
प्रश्न-(से कि तं पच्छाणुपुब्बी?) अमरपन् ! ५श्वानुभूती नु ५१३५ छ ?
उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) ५श्वानुनी मानी -(ईसिपम्भारा जार मोहम्मे) पत्न.मा भिथी २३ श२ सौधम ६५ ५-तना सत्राना ઊલટા ક્રમમાં જે ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે-ગણુતરી કરવામાં આવે છે (से तं पच्छाणुपुव्वी) तेनु नाम पश्चानुवाछ
प्रश्न (से कि तं षणाणुपुवी?) Galas vी मनातीनु સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणाणुपुव्वी) Balate समधी मनानु५वीमा प्रकार है(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए पन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नमामो दूरूवूणो) मा मनानुपूर्वाभा २ et स्थापित ४२पामा मा छे ते सौथा
For Private and Personal Use Only
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२३ ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम्
५३७.
*या यावन्तो भङ्गका भवन्ति, ते आयन्त विवक्षारहिता भङ्गा बोध्याः सम्प्रतिऔपनिधिक क्षेत्रानुपूर्वी प्रकारत्रयेण प्रदर्शयितुमाह-'अहवा' इत्यादि । अथवाऔपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पूर्वानुपूर्व्यादिभेदैस्त्रिविधा विज्ञेया । तत्र - पूर्वानुपूर्वी प्रित की जाती है उसमें सबसे प्रथम में १ संख्या रखी जाती है बाद में एक २ की उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जाती इस प्रकार की वृद्धि यहां १.५ संख्या तक होती है। फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है । जो गुणन फल आता है उसमें आदि अन्त के दो भंग कम कर दिये जाते हैं। क्योंकी आदिका भङ्ग आनुपूर्वी में आजाता है और अन्तका भङ्ग पञ्चानुपूर्वी में आजाता है। इसलिये अनानुपूर्वी में आदि अंत के दो भंग छोड़ने को कहा है। इस प्रकार ( से णं अणाणुपुब्बी ) यह ऊर्ध्वलोक संबन्धी अनानुपूर्वी बन जाती है। ( अहवा) अथवा - ओवणिहिया- खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी - तीन प्रकार की प्रज्ञप्त हुई है । (तं जहा) जैसा - (पुब्बाणुपुच्ची, पच्छाणुपु०वी, अणाणुपुवी) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी ( से किं तं goalgoat) पुर्वानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (पुव्वाणुपु०वी) पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है - ( एपए सोगाडे दुष्परसोगाढे दसपरसोगाढे संखिज्जपए सोगाढे जाव असंखिज्जपएसो
પહેલાં એક સખ્યા રાખવામાં આવે છે, ત્યારમાદ ઉત્તરાઉત્તર એક એકની વૃદ્ધિ થતી જાય છે. આ પ્રકારની વૃદ્ધિ અહી ૧૫ સખ્યા સુધી કરાય છે. ત્યાર બાદ તેમાં પરસ્પરના ગુણાકાર આવે છે. જે ગુણનફળ આવે તેમાંથી આદિના એક અને અન્તના એક એમ એ ભગ ખાદ કરવામાં આવે છે. કેમકે-આદિના ભંગ આનુપૂર્વી માં આવી જાય છે, અને મતના ભગ પધ્ધાનુપૂર્વીમાં આવી જાય છે. તેથી અનાનુપૂર્વી માં આદિ અને यतन। खेभ मे लगो छोडवानु धुं छे. (से णं अणाणुपुव्वी) या प्रहार उर्ध्वा समधी मनानुपूर्वी मनी लय छे. ( अहवा) अथवा - (ओवणि हिय.. goat तिविद्दापण्णत्ता) भोपनिधिठी क्षेत्रानुपूर्वी वायु प्रहारनी उडी. (तंजा) ते प्रभारी नीचे प्रभाले छे - (पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुञ्ची) (1) पूर्वानुपूर्वी, (२) पश्चानुपूर्वी मने (3) मनानुपूर्वी.
प्रश्न - ( से किं तं पुव्वाणुपुत्री) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी नुं स्व३५ ठेवु छे? Gur-(goanggoat) yalgyálo 24 4812 9. (nageìnià, gcq एम्रो गाढे, दखपएस्रगाढे, संखिरजएएसोगादे जाव असंखिज्जपए योगाठे)
म० ६५
For Private and Personal Use Only
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारा एकप्रदेशावगादादारभ्यासंख्येयपदेशावगाढान्ता वोध्या। पश्चानुपूर्वी तु असंख्ये. यप्रदेशावगाढमारभ्य एकप्रदेशावगादान्ता बोध्या । अनानुपूर्वी तु-एकपदेशावगाढाधारभ्य असंख्येयप्रदेशावगाढानामन्योऽन्याभ्यासेऽसंख्येया भङ्गा भवन्ति । तेषु आधन्तविवक्षा नास्ति, औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितुमाहगाढे) एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावगोढ, दशपएसावगाढ संख्यात प्रदे. शोवगाढ यावत् असंख्यात प्रदेशावगाढ ( से कि तं पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (पच्छाणुपुच्ची) पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से है। (असंखिज्ज पएसोगाढे संखिज्जपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे) असंख्यातप्रदेशाव गाढ, संख्यात प्रदेशावगाढ यावत् एकप्रदेशावगाढ (से तं पच्छा. णुपुब्धी) इस प्रकार यह पश्चानुपूर्वी है। (से किं तं अणाणुपुव्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (अणाणुपुव्वी) अणाणुपूर्वी इस प्रकार से है-(एगाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए संखिज्जगच्छगयाए सेढीये अन्नमन्नन्भासो दूरूवूणो) इन पदों का अर्थ पहले दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यहां जो श्रेणी मांडी जावेगी वह एक से प्रारंभ कर एक की वृद्धि होते २ असंख्यात तक होती जावेगी फिर उन सबका परस्पर में गुणा करने पर जो असंख्यात भंग रूप महाराशि उत्पन्न होगी उसमें से आदि પ્રદેશાવગાઢ, બે પ્રદેશાવગાઢ, દસ પર્યક્તના પ્રદેશાવાહ, સંખ્યાત પ્રદેશા१८ भने मसज्यात प्रवेशासा८ (से तं पुब्वाणुपुव्वी) २मनी २ ક્ષેત્રાનુપૂવી છે તેને પૂર્વાનુમૂવી કહે છે.
प्रश्न-से किं तं पच्छाणुपुब्बी?) 3 भाषन् ! ५श्वानुनी वी साय छ?
उत्तर-(पच्छाणुपुब्बी) ५श्वानुषी' मा २नी राय छ-(असंखिज्जपएसोगाढे, संखिज्जपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे) असभ्यात प्रशाद, સંખ્યાત પ્રદેશાવગાઢ અને એજ પ્રકારના ઉલ્ટા ક્રમમાં એકપ્રદેશાવગાઢ પર્ય. -तना पहाना ५न्यास ४२वे (से तं पच्छाणुपुव्वी) तेनु नाम पश्चानुभूती छे.
श-(से किं तं अणाणुपुव्वी) अनानुपूवी । प्रा२नी डाय छ-(एगाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिन्जगच्छगयाए सेटीए अन्नमन्नन्मासोदरूवूणो) આ પદનો અર્થ પહેલાં આપવામાં આવ્યું છે. એટલે કે અહીં જે શ્રેણી સ્થાપિત કરવામાં આવશે તે એકથી શરૂ કરીને એક એકની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત પર્યરતની થઈ જશે ત્યાર બાદ તે સોને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર કરવાથી જે અસંખ્યાત ભંગરૂપ મહારાશિ ઉત્પન્ન થશે તેમાંથી
For Private and Personal Use Only
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२४ कालानुपूर्वीनिरूपणम् ' से तं ओवणिहिया' इत्यादि । सैषा औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी । इत्थं क्षेत्रानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितुमाह-'से तं' इत्यादि। सैषा क्षेत्रानुपूर्वी ॥९० १२३॥ उक्ता क्षेत्रानुपूर्वी, सम्मति पूर्वोद्दिष्टामेव क्रमप्राप्तां कालानुपूर्वी विघृणोति
मूलम्-से किं तं कालाणुपुवी? कालाणुपुवी दुविहां पण्णत्ता, तंजहा-ओवणिहिया अणोवाणिहियाय ॥सू०१२४॥
छाया-अथ का सा कालानुपूर्वी ? कालानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाऔपनिधिकी अनौपनिधिकी च ॥सू० १२४॥ टीका-'से किं तं ' इत्यादि । व्याख्या सष्टा ॥मू० १२४॥
मूळम् तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा ठप्पा। तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-णेगमववहाराणं संगहस्स य ॥सू०१२५॥
छाया-तत्र खलु या सा औपनिधि सा स्थाप्या। तत्र खलु या सा अनौपनिधिकी सा द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः संग्रहस्य च।।सू.१२५॥
टीका-'तत्थ णं' इत्यादि । व्याख्यातमायमिदं सूत्रम् ।।मू० १२५॥ , अंत के दो भंग कम कर दिये जावेंगे-(से तं अणाणुपुव्वी) इस प्रकार से क्षेत्र संबन्धी अनानुपूर्वी बनती है । (से तं ओवणिहिया खेसाणुपुब्बी) इस प्रकार औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है इस प्रकरण के समाप्तहोते ही क्षेत्रानुपूर्वी का स्वरूप समाप्त हो जाता है। ॥ सू० १२३॥
अब सूत्रकार पूर्वोद्दिष्ट ही क्रमप्राप्त कालानुपूर्वी का कथन करते हैं"से कि तं" इत्यादि।
शब्दार्थ-इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट की है। ॥ सू० १२४ ॥ આદિને એક ભંગ અને અન્તને એક ભંગ એમ બે ભંગ કમી કરવામાં सारी (से कि त अणाणुपुव्वी) मा २ क्षेत्रसमधी मनानुयूवी मन छे. (से तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्री) भानु मोपनिधिही क्षेत्रानुवीनु स्व. ३५ छे. (से तं खेत्ताणुपुब्बी) मोपनिधि क्षेत्रानुपूवी नु थन समास याथी ક્ષેત્રાનુપૂર્વાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ અહીં પૂરું થાય છે. સૂ૦૧૨૩
હવે સૂત્રકાર પૂદ્દિષ્ટ ક્રમ પ્રાપ્ત કાલાનુ પૂવીનું કથન કરે છે"से कि त" त्या:શબ્દાથ–આ સત્રની પ્રખ્યા સ્પષ્ટ છેસા .
For Private and Personal Use Only
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्र ..मूलम्-से किं तं गमववहाणं अणोवणिहिया कालाणुपुटवी?
अणोवणिहियाकालाणुपुठवी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-अत्थपयपरूवणया, भंगसमुक्त्तिणया, भंगोवदंसणया, समोयारे, अणुगमे ॥सू०१२६॥ ___छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोरनौपनिधिकी कालानुपूर्वी ? अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी पश्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अर्थपदप्ररूपणता, भङ्गसमुत्कीर्त्तनता, भङ्गोपदर्शनता, समवतारः, अनुगमः ॥९० १२६॥ ___टीका-'से कि तं' इत्यादि । व्याख्याऽस्य स्पष्टा ॥सू. १२६॥ 'तस्थणं' इत्यादि।
शब्दार्थ-इन में जो औपनिधि कालानुपूर्वी है वह अल्पवक्तव्य विषय वाली होने से स्थाप्य है-अभी उसका विषय प्रतिपादन करने योग्य नहीं है । तथा जो अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी है वह दो प्रकार की है। एक नेगमव्यवारनयसंमत अनौपनिधिकी कोलानुपूर्वी और दूसरी संग्रहनयसंमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी। यह सूत्र पहले व्याख्यात हो चुका है। ॥ सू० १२५ ॥
"से कि त गमववहाराणं" इत्यादि । (से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुची ?) हे भदन्त ! नैगमव्यहारनयसंमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? (अणोवणिहिया कालाणुपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता)
" तत्थणं " त्याह
શબ્દાર્થ–તેમાં જે ઔપનિધિકી કાલાનુપૂર્વી છે, તે અલ્પ વક્તવ્યવિષયથાળી લેવાથી સ્થાપ્ય છે-એટલે કે હમણાં તેના વિષયનું પ્રતિપાદન કરવું તે ચગ્ય નથી તેમાંની જે અનૌપનિધિક કાલાનુપૂર્વી છે તેના બે પ્રકાર છે(૧) નિગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિક કાલાનુપૂર્વી અને (૨) સંગ્રહન પસંમત અનૌપનિષિકી કાલાનુpવી આ સૂત્રના વિષયની પ્રરૂપણ પહેલાં થઈ ચુકી છે. સૂ૦૧૨માં
"से कि ते णेगमववहाराणं " त्याह
शहाथ-(से किं ते णेगमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुव्वी?) 8 ભગવન! નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિક કાલાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणोवणिहिया कालाणुपुवी पंचविहा पण्णता) मनोपनिषिधी
For Private and Personal Use Only
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १२७ नैगमव्यवहारनयसंमतार्थपदनिरूपणम् ५४१ ... मूलम्-से किं तंणेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणया?णेगमववहाराणं अस्थपयपरूषणया-तिसमयाइए आणुपुबी जाव दससमयटिइए आणुपुवी संखिजसमयटिइए आणुपुब्वी, असंखिजसमयटिइए आणुपुव्वी। एगसमयटिइए अणाणुपुवी। दुसमयटिइए अवत्तव्यगं। तिसमयटिइयाओ आणुपुब्बीओ। एगसमयहिइयाओ अणाणुपुवीओ।दुसमयहिइयाओ अवत्तव्वगाई। से तं गमववहागणं अत्थपयपरूवणया। एयारणं णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाए कि पओयणं? एयाए णं णेगमववहाराणं अस्थपयपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया कन्जइ ॥सू०१२७॥
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अर्थपदमरूपणता? नैगमव्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणता-त्रिसमयस्थितिक आनुपूर्वी यावद् दशप्तमयस्थितिक आनुपूर्वी,
उत्तर-अनोपनिधि की कालानुपूर्वी पांच प्रकार की कही गई है। '(तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(अस्थपयपरूवणयो भंगसमुक्त्तिणया, भंगो 'पदसणया, समोयारे अणुगमे ) अर्थपदप्ररूपणता भंगसमुत्कीर्तनता समवतार और अनुगम । इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट है । ॥सू० १२६॥ __ "से कि तं गमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं गमवहाराणं अस्थपयपरूवणया?) हे भदन्त ! नैगमव्यहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता क्या है ? (णेगमववहाराणं अस्थपयपरूवणया)
सानुYी पांय हारनी ४४ी. छ. (तंजहा) ते पाय प्रा। नीय प्रभारी छे-(अत्थपयपरूवणया, भंगसमुक्त्तिणया, भंगोवदसणया समोयारे अणुगमे) (१) अर्थ ५४४३५ यता, (२) सभुशीत ना, (3) ५४शनता, (४) सभव. તાર અને (૫) અગમ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે. સૂ૦૧૨દા ____“से किं तं गमयवहाराणं " त्याह
शहाथ-(से किं तं गमयवहाराणं अत्थपयपरूवणया ?) 8 अगवान। નગમવ્યવહાર નયસંમત અર્થ પદ પ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ કેવું છે.?
For Private and Personal Use Only
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ર
अनुयोगद्वारसूत्रे
संख्येय समयस्थितिक आनुपूर्वी असंख्येयसमयस्थितिकआनुपूर्वी । एकसमयस्थितिक अनानुपूर्वी । द्विसमयस्थितिक अवक्तव्यकम् । त्रिसमयस्थितिका आलुपूर्व्यः । एकमयस्थितिका अनानुपूर्व्यः । द्विसमय स्थितिका अवक्तव्यकानि । fer नैगमoranrcयोः अर्थपदमरूपणता । एतस्याः खलु नैगमव्यवहारयोः अर्थपदपरूपणतायाः किं प्रयोजनम् ? एतस्याः खलु नैगमव्यवहारयोरर्थपद प्ररूपणताया नैगमव्यवहारयोर्भङ्गसमुत्कीर्त्तनता क्रियते ॥ ० १२७॥
टीका' से किं तं ' इत्यादि
"
अथ का सा नैगमव्यवहारसम्मता अर्थपदपरूपणता ? इति प्रश्नः । उत्तरयतिइत्थं च पर्याय पर्यायणोरभेदोपचारमाश्रित्य तत्र च कालपर्यायस्यैव प्राधान्यमाश्रित्य कालपर्यायविशिष्टस्य द्रव्यस्यापि कालानुपूर्वीत्वं बोध्यम् । अनन्तसमयावधिद्रव्यस्य स्थितिः स्वभावादेव न भवति, अतोऽनन्तसमय स्थितिकः
उत्तर = नैगमव्यहारनयसंमत अर्धपदप्ररूपणता इस प्रकार से हैं( ति समयहिए अणुपुरवी, जाव दससमय एडिए आणुपुब्बी) जिस द्रव्य विशेष की स्थिति तीन समय की हैं अर्थात् तीन समय की स्थितिवाला जो द्रव्य विशेष है - वह त्रिसमयस्थितिक है। ऐसा त्रिसमय स्थितिक जो द्रव्य विशेष है वह आनुपूर्वी है, ऐसा द्रव्य विशेष एकपरमाणु भी हो सकता है द्विपरमाणुक स्कंध भी हो सकता तीन परमाणु वाला स्कंध भी हो सकता है, चार परमाणु वाला भी स्कंध हो सकता है, पांच आदि परमाणु वाले स्कंध से लेकर अनंत परमाणुओं वाला स्कंध तक भी हो सकता है । इस प्रकार एक परमाणु रूप द्रव्य से लेकर द्विपरमाशुक त्रिपरमाणुक आदि अनन्त परमाणुक स्कंध पर्यन्त जितने भी द्रव्य
उत्तर- (गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया) नैगमव्यवहार नयस मत अर्थપ્રરૂપણુતા આ प्रभारनी छे - (तिसमयइिए आणुपुब्बी, जाव दससमय ट्ठइए आणुपुत्री) ने द्रव्यविशेषनी स्थिति ऋणु समयनी होय छे, ते द्रव्यविशेषने ત્રિસમયસ્થિતિ કહે છે એવું ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળુ' જે દ્રવ્યવિશેષ છે, તેને અડી આનુપૂર્વી રૂપ સમજવુ જોઇએ એવુ' દ્રવ્યવિશેષ એક પરમાણુ પણ હાઇ શકે છે, એ પરમાણુવાળા સ્કન્ધ પણ હોઈ શકે છે, ત્રણ પરમાણુવાળા સ્કન્ધ પણ હાઈ શકે છે, ચાર પરમાણુવાળા સ્કન્ધ પણ હોઇ શકે છે, અને પાંચથી લઇને અનંત સુધીના પરમાણુઓવાળા સ્કન્ધા પણ હોઇ શકે છે. આ રીતે એક પરમાણુ રૂપ દ્રવ્યથી લઈને દ્વિપરમાણુક, ત્રિપરમાણુક અન‘ત પરમાણુક કન્ધ પન્તના જેટલાં દ્રવ્યવિશેષ છે, તે ત્રણ સમયની સ્થિતિ
For Private and Personal Use Only
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
I
nauraन्द्रिका टीका सूत्र १२७ नैगमव्यवहारनयसंमतार्थपदनिरूपणम् ५४३ कालानुपूर्वी न मोक्ता । तथा - एकसमयस्थितिकः परमाण्वाद्यनन्तपरमाणुकस्कन्ध पर्यन्तो द्रव्यविशेषः अनानुपूर्वी । द्विसमयस्थितिकः परमाण्वाद्यनन्तपरमाणुकस्कन्धपर्यन्तो द्रव्यविशेषः अवक्तव्यकम् । तथा त्रिसमयस्थितिकाः परमाण्वाद्यनन्तपरमाणु स्कन्धात्मका द्रव्यविशेषा यावदसंख्ये यसमय स्थितिकाः पूर्वोक्तद्रव्यविशेषा विशेष तीन समय की स्थिति वाले हैं वे सब अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी के भेद रूप अर्थपदप्ररूपणा के विषय भूत है। और ये सब एक २ अनानुपूर्वी है। इसी प्रकार से चार समय की स्थिति वाला - जितना भी द्रव्य है उससे लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों तक जितने द्रव्य विशेष हैं उन में प्रत्येक द्रव्यविशेष आनुपूर्वी है।
शंका- यदि द्रव्य विशेष को ही यहां आनुपूर्वी पना है तो फिर कालानुपूर्वी ऐसा कहना विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि कालानुपूर्वी में काल में आनुपूर्वी पना कहना चाहिये द्रव्य विशेष में नहीं। यहां तो आनुपूर्वी पना द्रव्यविशेषों में कहा जारहा है ।
उत्तर - यहां जो द्रव्य विशेषों में आनुपूर्वी पना कहाँ जारहा है सो केवल - द्रव्यों में नहीं कहा जारहा है किन्तु जो द्रव्य समror आदि रूप काल पर्याय से विशिष्ट है उसमें ही कहा जारहा है। इसलिये यहां समयत्रय आदिरूप कालपर्याय से युक्त ही द्रव्य ग्रहण किया गया है। इस प्रकार काल की पर्याय जो समयत्रय आदि વાળાં છે, તે સઘળા અનૌપનિધિષ્ઠી કાલાનુપૂર્વીના ભેદ રૂપ અ પદપ્રરૂપશુતાના વિષયરૂપ છે. અને તેએ બધાં એક એક અનાનુપૂર્વી રૂપ છે એજ પ્રમાણે ચાર સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્યેા છે તે દ્રબ્યાથી લઈને અસંખ્યાત પન્તની સ્થિતિવાળાં જેટલાં કૂબ્યા છે, તેમાંનું પ્રત્યેક દ્રવ્યવિ શેષ પણ આનુપૂર્વી રૂપ જ છે. शा-ले द्रव्यविशेषभां मानुपूर्वीता मानवानां यावे, तो " असा નુપૂર્વી” આ પ્રકારનું કથન વિરૂદ્ધ પડે છે, કારણ કે કાલાનુપૂર્વીના કથનમાં તેા કાળમાં માનુપૂર્વીતા કહેવી જોઈએ-દ્રવ્યવિશેષમાં આનુપૂર્વી તા કહેવી જોઇએ નહી'. અહી' તે આપે દ્રવ્યવિશેષામાં આનુપૂર્વીતા ખતાવી છે. તા આ ખાખતના આપ શા ખુલાસા કરેા છે ?
ઉત્તર-અઢી' જે દ્રવ્યવિશેષામાં આનુપૂર્વીતા પ્રકટ કરવામાં આાવી છે, તે કેવળ દ્રવ્યેામાં જ પ્રકટ કરવામાં આવી નથી, પરન્તુ જે દ્રવ્ય સમયત્રય દિ રૂપ કાળપર્યાયથી વિશિષ્ટ (યુક્ત) છે તેમાં જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તેથી અહીં સમયત્રય આદિ રૂપ કાળપર્યાયથી યુક્ત દ્રવ્ય જ ગ્રહણ ક્રૂર
For Private and Personal Use Only
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारसूत्र. पर्यायी जो तविशिष्ट द्रव्य है सो इन दोनों में अभेद के उपचारको आश्रय करके और कालपर्यायकी ही प्रधानता-मानकर के काल पर्याय विशिष्ट द्रव्य में भी कालानुपूर्वीपना जानना चाहिये। अनन्त समय तक रहनेवाले द्रव्य की स्थिति स्वभाव से ही नहीं होती है। अर्थात् कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है कि जिसकी स्थिति स्वभाष से अनन्त समयवाली हो। इसीलिये अनन्त समय की स्थितिवाली कालानुपूर्वी नहीं कही है। (संखिज्जसमयहिहए आणुपुन्वी असंखिज्जसमयद्विाए आणुपुव्वी) इन पदोंका अर्थ विषयक खुलासा भी इसी कथन में हो चुका है। (एगसमहिए अणाणुपुब्धी) तथा जो परमाणुरूप द्रव्य, दयणुक द्रव्य, व्यणुकद्रव्य यावत् संख्याताणुक द्रव्य, असंख्याताणुक और अनंताणुक द्रव्य एक समय की स्थितिवाला है वह अनानुपूर्वी है। (दुसमएटिए अवत्तव्वर्ग) तथा जो दो समयकी स्थितिवाला परमाणुरूप द्रव्य, व्यणुक द्रव्य ज्यणुक द्रव्य यावत् संख्याताणुक द्रव्य, असं. ख्याणुक द्रव्य और अनंताणुक पर्यन्त तक का द्रव्य है वह सब अब. तव्यक द्रव्य है। (तिसमयष्टियानो आणुपुन्वीओ) तीन समयकी વામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે કાળની ત્રણ પર્યાયે અને તે ત્રણ પર્યાવાળા દ્રવ્યમાં અભેદને ઉપચાર કરીને અને કાળપયયની જ પ્રધાનતા માનીને કાળપર્યાયવિશિષ્ટ દ્રવ્યમાં પણ કાલાવતા સમજવી જોઈએ દ્રવ્યની અનન્ત સમય સુધી રહેવાની સ્થિતિ સ્વભાવથી જ હોતી નથી એટલે કે કોઈ પણ દ્રવ્ય એવું નથી કે જેની સ્થિતિ સ્વભાવથી જ અનંત સમયની હોય તેથી જ અનંત સમયની સ્થિતિવાળી કાલાનુપવી હતી નથી તે કારણે અનંત સમયની સ્થિતિવાળી કાલાનુપૂવી અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી નથી.
(संखिज्जसमयदिइए आणुपुवी असंखिज्यसमयदिइए आणुपुत्पी) આ સૂત્રપાઠનો અર્થ પણ ઉપર્યુક્ત કથનમાં સ્પષ્ટ થઈ ચુક્યા છે.
(एगसमयदिइए अणाणुपुव्वी) तथा २ ५२मा ३५ द्र०य, मे. माવાળું દ્રવ્ય, ત્રણ અશુવાળું દ્રવ્ય, ચારથી લઈને સંખ્યાત પર્યન્તના અણુવાળું દ્રવ્ય, અસંખ્યાત અણુક દ્રવ્ય અને અનંતાણક દ્રષ એક સમયની स्थितिवाय छ, तर मनानुनी ३५ समानु'. (दुसमयदिइए भवत्तव्वगं) તથા બે સમયની સ્થિતિવાળું જે પરમાણુ રૂપ દ્રવ્ય, બે અણુવાળું દ્રવ્ય, ત્રણથી લઈને સંખ્યાત પર્યન્તના અણુવાળું દ્રવ્ય, અસંખ્યાત અણુક દ્રવ્ય અને અનંત અણુક દ્રવ્ય હોય છે તેને અવાખ્યા દ્રવ્યરૂપ સમજવું.
For Private and Personal Use Only
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२७ नैगमध्यवहारसंमतार्थपदनिरूपणम्
५४५
आनुपूर्व्यः । एकसमयस्थितिका अनानुपूर्व्यः । द्विसमयस्थितिका अवक्तव्यकानि । सेवा नैगमव्यवहारसम्मता - अर्थपदमरूपणता । एतस्याः खलु नैगमव्यवहारयोरर्थ मरूपणतायाः किं प्रयोजनम् ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - एतया खलु नैगमव्यवहारसम्मार्थरूपणतया नैगमव्यवहारयोः कीर्त्तनता क्रियते ॥ १२॥ स्थितिवाले जितने भी परमाणु आदि से लेकर अनंताणुक पर्यन्त तक के स्कंधात्मक द्रव्य विशेष हैं वे तथा संख्यात असंख्यातसमयकी स्थितिवाले परमाणुरूप द्रव्य से लेकर अनंताणुक पर्यन्त तक के जितने भी द्रव्य विशेष हैं वे सब पहुवचनान्त आनुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ हैं। (एग समययाओ अणाणुपृथ्बीओ) तथा जितने भी एक परमाणुरूप द्रव्य से लेकर अनंताणुक पर्यन्त तक के द्रव्य विशेष एक समय की स्थितिवाले हैं वे सब बहुवचनान्त अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ हैं। (दुसमपट्टियाओ अवन्तव्ययाई) तथा दो समय की स्थितिवाले जितने भी ये पूर्वोक्त द्रव्य हैं वे सब बहुवचनान्त अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ हैं, (से तं गमववहाराणं अस्थपयपरूवणथा) इस प्रकार नैगमव्यवहारनवसंमत अर्थपदप्ररूपणता है। (एयाएणं मेगमववहाराणं अत्थपयपरूथire किं पओयण)
प्रश्न- इस नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ?
(ति समय दियाओ भाणुपुव्वीओ) त्रयु समयनी स्थितिवालां बेटसां પરમાણુ આદિથી લઇને અનતાણુક પર્યન્તના સ્કન્ધાત્મક દ્વવ્યવિશેષા છે, તેમને તથા સખ્યાત, અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળા પરમાણુરૂપ દ્રવ્યથી લઈને અન તાલુકા પન્તના જેટલાં દ્રવ્યવિશેષ છે તેએ બહુવચનાન્ત આનુપૂર્વી શબ્દના વાચ્યાય રૂપ છે.
(एग समयट्टिइयाओ भणाणुपुव्वीभो ) तथा मे परमायु द्रव्यभी લઈને અનંતાણુક પન્તના જેટલાં દ્રવ્યવિશેષા એક સમયની સ્થિતિવાળા છે, તેઓ બધાં બહુવચનાન્ત અનાનુપૂર્વી શબ્દના વાચ્યા રૂપ છે.
(दुसमय ट्ठइयाओ अब सव्वगाई) तथा मे समयनी स्थितिवाणां बेटसां પૂર્વોકત દ્રવ્યા છે, તે બધાં બહુવચનાન્ત વકતવ્યક શબ્દના વાગ્યાથ ३५ ४. ( से तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया) नैगमव्यवहार नयसभित અ પદપ્રરૂપણુતાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न- (एयाएणं णेगमबवहाराणं अत्थपयपरूवणाए कि पओयणं १) मा नैगमવ્યવહાર નયસ'મત અર્થ પદપ્રરૂપણતાનું પ્રત્યેાજન શું છે ?
अ० ६९
For Private and Personal Use Only
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
५४६
अनुयोगद्वारसूत्रे
उत्तर- एयाएणं गमववहाराणं अस्थपयपरूवणाए णेगमववहाराणं भंगसमुत्तिणया कज्जइ) नैगमव्यवहारनयसंमत इस अर्थपद प्ररूपणता से नैगमव्यवहारनयसंमत भंग समुत्कीर्तनता की जाती है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भावार्थ सूत्रकार यहां कालानुपूर्वी का कथन कर रहे हैं। अतः उस विषयका सांगोपांग वर्णन करने के लिये उन्होंने इस आनुपूर्वी को औपfafant और अनौपनिधिकी इस प्रकार के दो विभागो में विभक्त किया है। इन का शब्दार्थ क्या है ? यह सब पीछे द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है। औपनिधिकी आनुपूर्वी के स्वरूप आदिका कथन सूत्रकार अनौपनिधिकी आनुपूर्वी के कथन करने के बाद करेंगे। अतः उसे पहिले न कहकर वे अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी का सर्व प्रथम विवेचन करने के अभिप्राय से उसे नैगमः व्यवहारनय संगत अनौपनिधि की और संग्रहनय संमत अनौपनिधिकी इन दो विभागो में विभक्त कर रहे हैं। इन में जो नैगमव्यवहारनय संत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी है वह अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुस्कीर्तनता, गोपदर्शनता, समवतार और अनुगम के भेद से ५ पांच प्रकार की है। अर्थपदप्ररूपणता में तीन समय से लेकर असंख्यात
उत्तर-(एयाएणं णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया कज्जइ) नैगभव्यवहारनयसभित या अर्थ अ३पताने आधारै નૈગમન્યવહાર નયસ'મત ભંગસમુત્કીનતા કરાય છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં કાલાનુપૂર્વીનું કથન કર્યુ છે. આ વિષયનું સાંગાપાંગ વર્ણન કરવાને માટે સૂત્રકારે કાલાનુપૂર્વી ના ઔષનિધિકી અને અનૌપનિધિકી નામના બે વિભાગ પાડયાં છે. આ બન્નેના અથ દ્રવ્યાનુપૂ વીના પ્રકરણમાં પહેલાં ખતાવી દેવામાં આવેલ છે અનૌપનિષિકી આનુપૂ વીના સ્વરૂપનું કથન કર્યાં બાદ સૂત્રકાર ઔપનિષિકી આનુપૂર્વીના સ્વરૂપનું કથન કરશે આ પ્રકારે સૂત્રકાર પહેલાં તે અનૌપનિષિકી આનુપૂર્વી નિરૂ પણ કરે છે-તે માટે તેમણે અનૌપનિધિકી આનુપૂર્વી ને નીચેના એ વિભાગામાં વિભકત કરી નાખી છે-(૧) નેગમવ્યવહારનયસ'મત અનૌપનિષિકી અને (૨) સૉંગ્રહનયસ’મત અનૌપનિધિકી તેમાંની જે નગમવ્યવહારનયસ મત અનૌપનિષિકી કાલાનુપૂર્વી છે તેના નીચે પ્રમાણે પાંચ ભેદ પડે છે (૧) अर्थः अ३पष्णुता, (२) भगसमुडीत नता, (3) लगायहर्शनता, (४) अभ वतार गाने (4) अनुगम
For Private and Personal Use Only
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२७ नैगमव्यवहारसंमतार्थपदनिरूपणम् ५४७ समय तक की स्थितिवाला जितना भी एक परमाणु आदि द्रव्य हैवह सब आनुपूर्वी शब्द का वाच्यार्थ है । क्योंकि यहां कालानुपूर्वी का प्रकरण है इसलिये तीन आदि समयों में रहनेवाले द्रव्य को ही आनु. पूर्वी माना गया है। एक परमाणु भी तीन समयकी स्थितिवाला होता है, दो आदि परमाणुवाला द्रव्य भी तीन समय की स्थितिवोला होता है। अतः ये सब आनुपूर्वी शब्द के वाच्य हैं । इसी प्रकार से चार आदि समयों से लेकर संख्यात समय और असंख्यात समय तक की भी स्थितिवाले ये पूर्वोक्त द्रव्य होते हैं। इसलिये ये सब स्वतंत्र आनुपूर्वी हैं। एक समयकी स्थितिवाला एक पुद्गलपरमाणु द्रव्य और व्यणुक
आदि अनंत परमाणुक पर्यन्त तक का द्रव्य अनानुपूर्वी है। दो समयकी स्थितिवाला एक पुद्गलपरमाणुरूप द्रव्य और व्यणुक आदि अनंत परमाणु युक्त तकका द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्य हैं । यहां एक वचनांत और बहुवचनान्त जो आनुपूर्वी आदिपद सूत्रकारने कहे हैं उन का कारण यह है कि तीन आदि समयों की स्थितिवाले आनुपूर्वी द्रव्य 'एक २ व्यक्तिरूप भी है और अनेक अनंत-व्यक्तिरूप भी हैं। इसी
અર્થ પદ પ્રરૂપણુતામાં ત્રણ સમયથી લઈને અસંખ્યાત સમય પર્યન્તની સ્થિતિવાળાં જેટલાં એક પરમાણુથી લઈને અનંત પર્યન્તના પરમાણુવાળાં કળે છે, તે બધા દ્રવ્યને આનુપૂર્વી રૂપ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે અહીં કાલાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી ત્રણ અાદિ સમયની સ્થિતિ વાળાં દ્રવ્યને જ આનુપૂવ રૂપ માનવામાં આવ્યાં છે. એક પરમાણુ પણ ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળું હોઈ શકે છે, એ આદિ પરમાણુવાળું દ્રવ્ય પણ ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળું હોઈ શકે છે. તેથી એવાં ત્રણ સમયની સ્થિતિ વાળાં દ્રવ્ય આનુપૂવ રૂપ છે એજ પ્રમાણે ચારથી લઈને સંખ્યાત સમયે, અને અસંખ્યાત પર્યન્તના સમયની સ્થિતિવાળાં એક પરમાણુંવાળાં, અને બેથી લઈને અનંત પર્યન્તના પરમાણુવાળાં દ્રવ્ય પણ હોઈ શકે છે એવા બધાં દ્રવ્ય પણ સ્વતંત્ર આનુપૂર્વી રૂપ જ ગણાય છે. એક સમયની સ્થિતિ વાળું એક પુદ્ગલ પરમાણુ રૂપ દ્રવ્ય અને બે અણુકથી લઈને અનંત આણુક પર્યન્તનું દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી રૂપ ગણાય છે. બે સમયની સ્થિતિવાળું એક પગલપરમાણુ રૂપ દ્રવ્ય અને બે અણુવાળાથી લઈને અનંત પર્યાના અણુવાળું દ્રવ્ય અવક્તયક રૂપ ગણાય છે. અહીં સૂત્રકારે જે એકવચનાત અને બહુવચનાઃ આનુપૂર્વી આદિ પદ બતાવ્યાં છે તેનું કારણ એ છે કે ત્રણ આદિ સમયેની રિથતિવાળાં આનુપૂર્વી દ્રવ્ય એક એક વ્યક્તિ (પદાર્થ)
For Private and Personal Use Only
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
____ अनुयोगद्वारसूत्र मूलम्-से किं तं णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया ? णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया-अस्थि आणुपुब्बी, अस्थि अणाणुपुब्बी, अस्थि अवत्तव्यगं। एवं दवाणुपुटवीगमेणं कालागुपवीए वि ते चेव छब्बीसं भंगा भाणियव्वा जाव से तं णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया। एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाएकिं पओयणं? एयाए णंणेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणयाएणेगमववहाराणंभंगोवदंसणया कजइ॥सू०१२८॥ प्रकार से अवक्तव्यक और अनानुपूर्वी द्रव्यों के विषय में भी जानना चाहिये । इसके खुलासा के लिये द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरणमें नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणतारूप आनुपूर्वी का अर्थ देखना चाहिये। यहां द्रव्यानुपूर्वी का प्रकरण होने से तीन आदि प्रदेशवाले द्रव्य को आनुपूर्वी, एक प्रदेशवाले द्रव्य को अनानुपूर्वी और दो प्रदेशवाले द्रव्य को अवक्तव्यक द्रव्य कहा है। तब कि यहां कालानुपूर्वी के सबन्ध से तीन आदि समय स्थित द्रव्यको आनुपूर्वी, एक समय स्थित द्रव्य को अनानुपूर्वी और दो समयस्थित द्रव्य को अवक्तब्यक द्रव्य कहा है। इस एक वचनान्त और बहुवचनान्त आनुपूर्वी आदि अर्थपद प्ररूपणता का प्रयोजन क्या है ? इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं ।।सू० १२७॥ રૂપ પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે અવક્તવ્યક અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના વિષયમાં પણ સમજવું તેની સ્પષ્ટીકરણ માટે દ્રવ્યાનુવીંના પ્રકરણમાં નંગમવ્યવહાર નયસંમત અર્થપદપ્રરૂપણા રૂપ આનુપૂવીનું પ્રકરણ વાંચી જવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. તે પ્રકરણમાં દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરેલું હોવાથી, ત્રણ આદિ પ્રદેશવાળાં દ્રવ્યને આનુપૂર્વી રૂપ, એક પ્રદેશવાળા દ્રવ્યને અનાનુપૂર્વી રૂપ અને બે પ્રદેશવાળા દ્રવ્યને અવક્તવ્યક રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. પરંતુ અહીં કાલાનુપૂર્વીનું કથન ચાલતું હોવાથી ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને આનુપૂર્વી રૂપ, એક સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને અનાનુપૂર્વી રૂપ અને બે સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને અવક્તવ્યક રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. આ એકવચનાન્ત અને બહુવચનાઃ અર્થ પદપ્રરૂપણુતાનું પ્રજન શું છે? તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. સૂ૦૧૨છા
For Private and Personal Use Only
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १२८ नैगमध्यवहारनयसंमतभङ्गसमुत्कीर्तननि. ५४९
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयो भङ्गसमुत्कीर्तनता ? नैगमव्यवहारयो भङ्गसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । एवं सप्तसप्ततिसूत्रोक्तद्रव्यानुपूर्वीगमेन कालानुपूर्व्यामपि त एव पइविंशतिर्भङ्गा मणितव्या यावत् सैषा नैगमव्यवहारयोमङ्गसमुत्कीर्तनता । एतस्याः खलु भङ्ग
"से किं तं गमववहाराणं" इत्यादि। ... शब्दार्थः-(से किं तं गमववहाराणं भंगसमुकित्तणया?) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनयसंमत वह भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ?
उत्तरः-(णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया) नैगमव्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है-(अस्थि आणुपुठवी, अस्थि अणाणुपुत्वी अस्थि अवत्तव्यगं) आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्यक है (एवं दवाणुपुत्रीगमेणं कालाणुपुवीए वि ते चेव छन्वीसं भंगा भाणियव्या) इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी में कथित भंगसमुत्कीर्तनता के अनुरूप इस कालापूर्वी में भी वे ही २६ भंग बना लेना चाहिये।
और-इस पाठ को “से तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया" इस पाठ तक समाप्त हुआ जानना चाहिये । (एयाए णं गमववहाराणं भंगसमुकित्तणयाए किं पओयणं ?) नैगमव्यवहारनयसंमत इस भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ?
" से किं तं गमववहाराणं " त्या:
हाथ-(से किं तं णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया ? ) है सावन् ! નગમવ્યવહાર નયસંમત તે ભંગસમુત્કીર્તનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया ) नैगमव्यवहार नयभत ભંગસમુકીર્તનતાનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે
( अस्थि आणुपुष्वी, अस्थि अणाणुपुव्वी, अस्थि अवत्तव्यगं) भानुपूवी छ, मनानुपूका छ भने मत०५४ छ, (एवं दव्वाणुपुव्वीगमेण कालाणुव्वीए विते चेत्र छन्वीसं भंगा भाणियवा) मा परे द्रव्यानुपूवी ना ५२मां
જેવાં ૨૬ ભંગ (ભાંગા) કહેવામાં આવ્યા છે, એવાં જ ૨૬ ભાંગાઓ सामानुपूवाना विषयमा ५६ वा २४. “से तं गमववहाराणं भंगममुक्त्तिणया" मा सूत्रपा8 ५-तनु समस्त ४यन मी ५५५ ४२७ नये.
प्रश्न-(एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए किं पओयण) नामવ્યવહાર નયસંમત આ ભંગસમુકતનતાનું શું પ્રયોજન છે?
For Private and Personal Use Only
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५५०
अनुयोगद्वारसूत्र समुन्कीर्तनतायाः किं प्रयोजनम् एतया खलु नैगमव्यवहारयोः मङ्गसमुत्कीर्तन तया नैगमव्यवहारयोभङ्गोपदर्शनता क्रियते ॥मू० १२८।।
टोका-'से किं तं' इत्यादि । व्याख्याऽस्य स्पष्टा ॥३० १२८॥
उत्तर-(एयाए णं णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणयाए णेगमय वहाराणं भंगोवदंसणया कज्जा) इस नैगमव्यवहारनयसंमत भंगसमु. स्कीर्तनता से नैगमव्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता की जाती है। इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट है।
भावार्थ:-यहां इस प्रकार से जानना चाहिये-कि जो ये आनुपूर्वी आदि तीन पद एकवचनान्त हैं उनसे तीन भंग घनते हैं। और जो आनुपूर्वी आदि तीन पद बहुवचनान्त हैं उनसे भी तीन भंग बनते हैं। इस प्रकार असंयोग पक्ष में ये जुदे २ छ भंग हो जाते हैं। और संयोग पक्ष में इन तीन पदों के द्विसंयोगी भंग तीन होते हैं। इनमें एक २ भंग में दो दो का संयोग होने पर एकवचन और बहुवचन को लेकर चार चार भंग हो जाते हैं। इस प्रकार तीन भंग के द्विकसंयोगी भंग चार २ होने से ये १२ बन जाते हैं। तथा त्रिकसंयोग में एकवचन
और बहुवचन को लेकर ८ भंग धनते हैं । इस प्रकार सय भंग मिलकर २६ भंग होते हैं । इन भंगों की स्थापना के लिये द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण का ७७ वां सूत्र देखना चाहिये । ।सू०१२८॥
उत्तर-( एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्तित्तणयाए णेगमववहाराणं भंगोष. दसणया कज्जइ) मा नेमण्या२ नयस मत समुडीत नतान साधारे નગમવ્યવહાર નયસંમત ભેગે પદર્શનતા કરવામાં આવે છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે.
ભાવાર્થ—અહી ૨૬ ભંગ કેવી રીતે બને છે, તે હવે સમજાવવામાં આવે છે–આનુપૂવ આદિ ત્રણ એકવચનાન્ત પદોના ત્રણ ભંગ (ભાંગા) બને છે. અને જે આનુપૂર્વી આદિ બહુવચનાઃ ત્રણ પદે છે તેમના પણ ત્રણ ભંગ બને છે. આ રીતે કુલ ૬ ભંગ અલગ પક્ષમાં થાય છે.
સંગ પક્ષમાં આ ત્રણ પદના દ્વિસંગી ભંગ ત્રણ થાય છે. તેમાં પ્રત્યેક ભંગમાં બબ્બેને સંગ થવાથી એકવચન અને બહુવચનવાળા ચાર ચાર ભંગ બને છે. આ રીતે ત્રણ અંગેના દ્વિસંગી ચાર ચાર બંગ થતા હોવાથી કુલ ક્રિકસંગી ભંગ ૧૨ થાય છે. અને ત્રિકસંગમાં એકવચન અને બહુવચનાન્ત પદે નાં કુલ ૮ ભંગ થાય છે. આ પ્રકારે કુલ ૨૬ ભંગ થઈ જાય છે. આ અંગેની રચના સ્પષ્ટ રીતે સમજવા માટે દ્રવ્યાનું પવના પ્રકરણનું ૭૭મું સૂત્ર વાંચી લેવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. સૂ૦૧૨૮૫
For Private and Personal Use Only
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२९ मैनमव्यवहारनयसंमतभङ्गोपदर्शननि.
५५१
मूलम् - से किं तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया ? णेगम० गोवदंसणया-तिसमयइिए आणुपुवी, एगसमय डिइए अणाणुपुवी, दुसमयहिए अवत्तत्रगं तिसमयडिया अणाणुपुवीओ एग समयहिइया अणाणुपुवीओ, दुसमयद्विइया अवत्तवयाई, अहवा - तिसमयइिए य एगसमय ट्ठिइए य आणुपुवीय अणापुवीय एवं तहा चैव दव्वाणुपुवी गमेणं छत्रीसंभंगा भाणियता जाव से तं णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया ॥ सू० १२९ ॥
छाया - अथ का सा नैगमव्यवहारयो भङ्गोपदर्शनता ? नैगम. भङ्गोषदर्श नता - त्रिसमय स्थितिक आनुपूर्वी, एकसमयस्थितिक अनानुपूर्वी द्विसमयस्थितिक अवक्तव्यकम् । त्रिसमयस्थितिका आनुपूर्व्यः । एकसमय स्थितिका आनुपूर्व्यः । " से किं तं गमववहाराणं " इत्यादि । शब्दार्थ : - ( गमववहाराणं) हे भदन्त ! नैगमव्यवहार नयसंमत (तं) पूर्वप्रक्रान्त (से) वह (भंगोवदंसणया) भंगोषपदर्शन्ता (किं) क्या है ? उत्तर:- (गम. भंगोवदंसणया) नैगमव्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता इस प्रकार से है - (तिसमपट्ठिए आणुपुथ्वी) तीन समय की स्थितिवाला एक एक परमाणु आदि द्रव्य आनुपूर्वी है । (एगसमयहि ए अणाणुपुच्ची) एक समय की स्थितिवाला एक परमाणु आदि द्रव्य अनानुपूर्वी है। (दुसमपट्ठिए अवत्तव्वर्ग) दो समय की स्थितिवाला एक परमाणु आदि द्रव्य अवक्तव्यक है। (तिसमयहिया आणुपुब्बीओ) से किं तं णेगमववहाराणं " त्याहि
66
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं ) डे लगवन् ! नैगभव्यवहार नयस भत (सं) पूर्व प्रान्त (से) ते (संगोवदंसणया) गोपदर्शनतानु (किं) देवु स्व३५ ४ १ उत्तर- (गमववहाराणं भंगोवदंसणया) नैगमव्यवहारनयसभित भगोપદેશ'નતા આ પ્રકારની છે—
(तिसमयइिए आणुपुत्री) ऋणु सभयनी स्थितिवाणु प्रत्येक परभागु माहि द्रव्य मानुपूर्वी ३५ . ( एगखमयट्टिए अणाणुपुव्वी) : सभयनी स्थितिवाणु मे परमायु याहि द्रव्य गमनानुपूर्वी ३५ छे (दुसमय ट्ठइए अवन्तन्वर्ग) ये सभयनी स्थितिवाणु ! પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય અવક્તવ્યક ३५ . ( तिम्रमयद्विश्या आणुपुव्वीओ) त्र समयनी स्थितिवाणां अनेक
For Private and Personal Use Only
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे द्विसमयस्थितिका अवक्तव्यकानि । अथवा-त्रिसमयस्थितिकश्च एकसमयस्थितिकम आनुपूर्वीच अनानुपूर्वी व । एवं तथैव द्रव्यानुपूर्वीगमेन पविशतिर्भङ्गा भणितव्याः, यावत् सैषा नैगमव्यवहारयो भङ्गोपदर्शनता ।।९० १२९॥ ___टीका-'से किं तं इत्यादि । व्याख्या द्रव्यानुपूर्वीवदभ्यूहनीया । ९० १२९॥ तीन समय की स्थितिवाले अनेक अपनी २ एक सी जातिवाले पदार्थ आनुपूर्वियां हैं। (एगसमयहिइया अणाणुपुव्वीओ) एक समय में स्थितिथाले अनेक अपनी २ एक सी जातिवाले पदार्थ अनानुपूर्थियां हैं। (दुसमयहिश्या अवत्तव्वयाई) दो समय की स्थितिवाले अनेक अपनी २ एक सी जातिवाले पदार्थ अन्नक्तव्यक हैं। इस प्रकार ये एकवचनान्त बहुवचनान्त पक्ष में ३-३ भंग हैं। इस प्रकार से असंयोग पक्ष में इन छ भंगों का अर्थ कथन है । संयोगपक्ष में एकवचन और बहुवचन संबन्धी प्रथम और द्वितीय भंग को संयुक्त करने पर त्रिसमय की स्थितिवाला पदार्थ एक आनुपूर्वी और एक समय की स्थितिवाला पदार्थ एक अनानुपूर्वी का वाच्यार्य जानना चाहिये। यही बात (अहवा तिसमदटिइए य एगसमयटिइए य आणुपुत्वी य अणाणुपुत्री य) इस पाठ द्वारा स्पष्ट की गई है। यह प्रथम चतुर्भगी का प्रथम भंग है (एवं तहाचेव दव्वाणुपुधीगमेणं छब्बीसं भंगा भाणियव्या जाव से तं गमववहाराणं भंगोवर्दसणया) इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के पाठ के पातपातानी में सभी dिal ५६. मनानु । ३५ 2. (दुसमयदिइया अवत्तवयाई) में सभयनी स्थितिमा भने पातपातानी से સરખી જાતિવાળા પદાર્થો અવક્તવ્યકે રૂપ છે. આ પ્રકારે એકવચનાન્ત અસગ પક્ષમાં ત્રણ ભંગ અને બહુવચનાત અસગ પક્ષમાં પણ ત્રણ ભંગ બને છે. આ રીતે અસંગપક્ષે કુલ ૬ ભંગ બને છે. સંગ પક્ષે એકવચન અને બહુવચન સંબંધી પ્રથમ અને દ્વિતીય ભંગને સંયુક્ત કરવાથી ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળો પદાર્થ એ આપવી રૂપ અને એક સમયની સ્થિતિવાળો પદાર્થ એક અનાનુપૂર્વી રૂપ સમજવું જોઈએ, એ જ વાત નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે
(महवा तिसमयदिइए य एगसमयष्ट्रिइए य भाणुपुत्वीप भणाणुपुटवी य) આ પ્રકારે પહેલી ચતુર્ભાગીને પહેલે ભંગ ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવ્યો છે. (एवं तहा चेव दवाणुपुव्वीगमेणं छठवीसं भंगा भाणियव्या नाव से तं णेगमववहाराणं भगोवदसणया) मा यानु५वीना Hi tul-या अनुसा.
For Private and Personal Use Only
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयागचान्द्रका टाका सूत्र १२९ नगमध्यवहारनयसंमतभङ्गोपदर्शननि. ५५३ , अनुसार यहाँ पर “से तं गमयवहाराणं भंगोवदंसणया" इस पाठ पर्यन्त २६ भंग जानना चाहिये। यही भंगोपदर्शनता है। यहां २६ भंग इस प्रकार से बनते हैं
(१) त्रिसमयस्थितिक-एकपरमाणु आदि से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यंत द्रव्य विशेष आनुपूर्वी, (२) एक समय स्थितिक-एक परमाणु आदि से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यन्त द्रव्यविशेष अनानुपूर्वी (३) बिसमयस्थितिक-एकपरमाणु द्रव्य आदि से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यत द्रव्य विशेष-अवक्तव्यक ये ३ तीन भंग एकवचनान्त हैं
. (१) त्रिसमयस्थितिक-अनेक एक २ परमाणु आदि से लेकर अनेक अनंताणुक स्कंधद्रव्यविशेष-आनुपूर्वियां, (२) एक समयस्थितिकअनेक एक २ परमाणु आदि द्रव्य से लेकर अनेक अनंताणुक स्कंध पर्यत अनानुपूर्वियां, (३) द्विसमर्यास्थतिक-अनेक एक २ परमाणु
आदि से लेकर अनेक अनंताणुक स्कंध पर्यत समस्त अवक्तव्यक ये तीन भंग बहुवचनान्त हैं।
दो २ भंगो के संयोग से प्रथम चतुर्भगी इस प्रकार से बनती है(१) आनुपूर्वी अनानुपूर्वी (२) आनुपूर्वी अनानुपूर्वियां (३) आनुपूर्वियां २॥ २१ मी ५] समस। . “से तं गमववहाराणं भंगोबदसणया" नेमण्यार नसभत म नतानुस३५ मा प्रानु' છે, આ સૂત્રપાઠ પર્યન્તનું સમસ્ત કથન અહીં ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આ પ્રકારનું ભંગાપદનતાનું સ્વરૂપ સમજવું અહીં આ પ્રકારના ૨૬ ભંગ બને છે
यनान्त - (૧) ત્રિસમયસ્થિતિક–એક પરમાણુ દ્રવ્યથી લઈને અનંતાણુક કન્ય પર્યન્તના દ્રવ્યવિશેષરૂપ-આનુપૂવ (૨) એક સમયસ્થિતિક એક પરમાણુ દ્રવ્ય આદિથી લઈને અનંત અણુક સ્કન્ધ પર્યંતના દ્રવ્યવિશેષ રૂપ આપવી (૩) બે સમયની સ્થિતિવાળા એક પરમાણુ દ્રવ્ય આદિથી લઈને અનંતાણ સ્કર્ષ પર્યન્તના દ્રવ્યવિશેષ રૂપ અવક્તવ્યક બહુવચનાન્ત ત્રણ ભંગ
(૧) ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક એક એક પરમાણુ રૂ૫ દ્રવ્યોથી લઈને અનેક અનંતાણુક કપ પયંતના દ્રવ્યવિશેષ આનુપૂર્વીઓ છે.
(૨) એક સમયની સ્થિતિવાળાં એક એક પરમાણુ રૂપ દ્રવ્યથી લઈને અનેક અનંતાણુક સ્કન્ધ પર્યન્તના દ્રવ્યવિશે અનાનુપૂવી છે.
(૩) બે સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક એક એક પરમાણુ રૂપ દ્રવ્યોથી લઈને અનેક અનતાણુક ક પર્વતના દ્રવ્યવિશે અવક્તવ્ય રૂપ છે. બે પદેના સાગથી પહેલી ચતુર્ભગી (ચારભાગા) નીચે પ્રમાણે બને છે
(१) भानुभूती मनानुभूती, (२) भानुभूती मनानुनी मो, (8) भानु
For Private and Personal Use Only
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगदारले अनानुपूर्वी, (४) आनुपूर्वियां अनानुपूर्वियां । वितीय चतुर्भगी-स प्रकार से है (१) आनुपूर्वी अवक्तव्यक (२) आनुपूर्वी बहु अवक्तव्यक (३) आनुपूर्वियां एक अवक्तव्यक (४) अनेक आनुपर्वियां अनेक अब. तव्यक । तृतीय चतुर्भगी इस प्रकार से है-(१) अनानुपूर्वी अवक्त. व्यक (२) अनानुपूर्वी बहु अवक्तव्यक (३) अनानुर्वियां एक अवक्तव्यक (४) अनेक आनुपूर्वियां अनेक अवक्तव्यक । इस प्रकार दो २ के संयोग पक्ष में द्विसंयोगी भंग इन एकवचनान्त बहुवचनान्त आनुपूर्वी आदि पदों के ये १२ भंग हैं। तीन २ के संयोग से जो आठ भंग बनते हैं वे इस प्रकार से हैं-(१) एक आनुपूर्वी एक अनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक, (२) एक आनुपूर्वी एक अनानुपूर्वी अनेक अवत्तव्यक (३) एक आनुपूर्वी अनेक अनानुर्वियां एक अवक्तव्यक (४) एक आनुपूर्वी अनेक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक (५) अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक, (६) अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक (७) अनेक आनुपूर्वियां अनेक अनानुपूर्वियां एक अवक्तव्यक (८) अनेक आनुपूर्वियां अनेक अनानुपूर्वियां अनेक अवक्तપૂર્વીએ અનાનુપૂર્વ અને (૪) આનુપૂવીએ અનાનુપૂર્વીએ.
બે પદેના સંગથી બીજી ચતુર્ભાગી નીચે પ્રમાણે બને છે
(१) मानुषी मतव्य, (२) मानुषी ५ अ१४०), () આનુપૂર્વીએ એક અવક્તવ્યક, (૪) અનેક આનુપૂર્વી એ અનેક અવક્તવ્યું.
બે પદેના સાગથી ત્રીજી ચતુર્ભગી આ પ્રમાણે બને છે
(૧) એક આનુપૂવી એક અવક્તવ્ય, (૨) એક અનાનુપૂવી ઘણું અવક્તવ્યકે, (૩) ઘણું અનાનુપૂર્વી એક અવક્તવ્યક () ઘણી નાનુવીઓ ઘણા અવક્તવ્યકે.
આ પ્રકારે એકવચનાન્ત અને બહુવચનાઃ આપવી આદિ પાના સંયોગથી કુલ ૧૨ બ્રિકસંગી અંગે થાય છે. હવે ત્રણ પદેના સંગથી જે ૮ ભલે બને છે, તે પ્રકટ કરવામાં આવે છે,
(१) ४ भानुषी मनानुभूती मने मे भतया (२) मे આનુપૂવી, એક અનાનુપૂર્વી અને ઘણા અવક્તવ્યો ( એક આનુપૂવી, અનેક અનાનુપૂવીએ અને એક અવક્તવ્યક (૪) એક આનુપૂર્વી, અનેક मनानुपूवी अन भने अवतव्य है। (५) भने भानु५वी 21, मे। અનાનુપૂવી અને એક અવક્તવ્યક (૬) અનેક આનુપૂવીએ, એક અનાનુપૂવી અને અનેક અવક્તવ્યો (૭) અનેક આનુપૂવી એ, અનેક અનાનુપૂ વિઓ અને એક અવક્તવ્યક (૮) અનેક આપવી , અનેક અનાનુપવી એ
For Private and Personal Use Only
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३० समवतारस्वरूपनिरूपणम् ___मूलम्-से किं तं समोयारे ? समोयारे णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदयाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुबीदव्वेहिं समो. यरंति ? अणाणुपुबीदव्बेहिं समोयरंति ? अवत्तव्यगदव्वेहि समोयरंति ? एवं तिपिणवि सहाणे समोयति भाणियत्वं से तं समोयारे ॥सू० १३०॥
छाया-अथ कोऽसौ समवतारः? नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किमानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति व्यक । इस प्रकार ये सब भंग २६ हो जाते हैं। इनकी विशेष जानकारी के लिये द्रव्यानुपूर्वी प्रकरणगत भंगोपदर्शनता को देखना चाहिये। ॥सू०१२९॥
" से किं तं समोयारे ?" इत्यादि।
शब्दार्थ:-(से किं तं समोयारे) हे भदंत ! पूर्वप्रक्रान्त समवतार का क्या स्वरूप हैं ?
उत्तर-(समोयारे) पूर्वप्रक्रान्त (पहले प्रारंभ किया हुवा) समवतार का स्वरूप इस प्रकार से है।-(णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाइं कहिं समोयरंति) नैगमव्यवहारनयसंमत जो अनेक आनुपूर्वी द्रव्य हैं उनका अन्तर्भाव कहां होता है ? इस प्रकार के चिन्तन प्रकार का जो उत्तर देता है वही समवतार है। यह विचार इस प्रकार से होता है कि અને અનેક અવક્તવ્ય કે આ પ્રકારે અસગી ૬, દ્વિકસાયેગી ૧૨ અને ત્રિકસંગી ૮ ભાંગાઓ મળીને કુલ ૨૬ ભાંગા થઈ જાય છે. તેમના વિશે વધુ માહિતી મેળવવી હોય તે દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં જે અંગે પદશનતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે તે વાંચી જવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. સૂ ૧૨ા
“से किं तं समोयारे " त्याह
शहाथ-प्रश्न-(से किं तं समोयारे ?) 3 बसन् ! प्रान्त (Anी. પનિધિકી કાલાનુપૂર્વીના એક પ્રકાર રૂ૫) સમાવતારનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(समोयारे) पूsird समवतार २१३५ मा प्रा२नु छ(णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्याई कहिं समोयरंति) नेगभन्यवहार नसभत જે અનેક આનુપૂવી દ્રવ્યો છે તેમને અન્તર્ભાવ (સમાવેશ) કયાં થાય છે? શું સ્વાસ્થાનમાં તેમનો સમાવેશ થાય છે કે પરસ્થાનમાં થાય છે? આ પ્રકારની વિચારધારાને જે ઉત્તર દેવે તેનું નામ સમવતાર છે. અહીં આ
For Private and Personal Use Only
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
५५६
अनुयोगद्वारसूत्रे अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? एवं त्रीण्यपि स्वस्थाने समवतरन्ति इति भणित. व्यम् । स एष समवतारः ॥९० १३०॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि। अशीतितमसूत्रे द्रव्यानुपूर्वीवदस्य सूत्रस्य व्याख्या बोध्या ॥१० १३०॥ नैगमव्यवहारनयसंमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य (किं आणुपुयीदव्वेहि समोयरंति, अणाणुपुब्धी दव्वेहि-समोयरंति, अवत्तव्यगव्वेहि समो. घरंति) क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? या अनानुपूर्वी द्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? या अवक्तव्यक द्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? (एवं तिणिवि सहाणे समोयरंति इति भाणियां)
उत्तर-नैगमव्यवहारनयसंमत जो आनुपूर्वी द्रव्य हैं वे आनुपूर्वी द्रव्यों में ही समाविष्ट नहीं होते हैं और न अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं। इसी प्रकार से जितने भी नैगमव्यवहारनयमान्य अनानुपूर्वी द्रव्य हैं वे अपनी जाति में अन्तर्भूत होते हैं, भिन्न जाति में नहीं। नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्य भी अवक्तव्यक द्रव्यों में ही अन्तर्भूत होते हैं अन्य आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में नहीं। इस प्रकार आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक ये तीनों भी द्रव्य પ્રકારની વિચારધારા ચાલે છે-નૈગમવ્યવહાર નયસંમત સમસ્ત આનુપૂર્વી द्र०य (किं आणुपुबीदव्वेहि समोयरंति, अणाणुपुत्वीदवेहि समोयरंति, अवत्तव्वगदव्वेहि समोयरंति १) शुमानुपू द्रव्योमा मन्तभूत थाय छ १ मनाનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં અંતત થાય છે? કે અવક્તવ્યક દ્રમાં અતર્ભત થાય છે?
उत्तर-(एवं तिण्णि वि सटाणे समोयरंति इति भाणियव्यं) नेमण्यार નયસંમત જે આનુપૂવ દ્રવ્ય છે તેઓ આનુ પૂવી દ્રામાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે, તેઓ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યુંમાં સમાવિષ્ટ થતાં નથી અને અવક્તવ્યક દ્રામાં પણ સમાવિષ્ટ થતાં નથી. એ જ પ્રમાણે ગમવ્યવહાર નયસંમત જેટલાં અનાનુપૂવ કળે છે, તેઓ પણ પિતાની જાતિમાં જ (અનાનુપૂર્વ દ્રવ્યમાં જ) સમાવિષ્ટ થાય છે, તેમનાથી ભિન્ન એવાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં અથવા અવક્તવ્યક દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થતાં નથી એ જ પ્રમાણે નૈગમવ્યવહાર નવસંમત અવક્તવ્યક દ્રવ્યો પણ અવક્તવ્યક દ્રવ્યમાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે--અન્ય આનુપૂર્વી આદિ દ્રામાં સમાવિષ્ટ થતાં નથી આ પ્રકારે આનુપવી, અનાનુપવી અને અવક્તવ્ય, આ ત્રણે પ્રકારનાં દ્રવ્ય તિપિતાના
For Private and Personal Use Only
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
मूलम्-से किं तं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते, तं जहा-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं घेव। णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं किं अस्थि णस्थि ३१ नियमातिषिण वि अत्थि। णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं किं संखिज्जाइं असंखिज्जाई 'अणंताइं३? तिषिण वि नो संखिजाई, असंखिजाई, नो
अणंताई।सू० १३१॥ १. छाया-अथ कोऽसावनुगमः ? अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पदमरूपणता यावदल्पबहुत्व चैव । नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि किं सन्ति न अपने २ स्थान रूप जाति में ही अन्तर्भूत होते हैं इस सूत्र की व्याख्या के लिये देखो पीछे का ८० वां सूत्र ॥ ॥५.१३०॥
"से किं तं अणुगमे" इत्यादि । शब्दार्थ-(से किं तं अणुगमे?)हे भदंत ! अनुगम का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(अणुगमे णवविहे पणत्ते) अनुगम नौ प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) जैसे (संतपयपरूवणया, जाव अप्पाबहुंचेव) संतपदप्ररूपणता से लेकर अल्पबहुत्व तक
अर्थात्-(१) सत्पदप्ररूपणता, (२) द्रव्यप्रमाण, (३) क्षेत्र (४) स्पर्शना (५) काल (६) अन्तर, (७) भाग (८) भाव (९) अल्पबहुत्व। विद्यमान पदार्थ विषयक पद की प्ररूपणा का नाम सत्पदप्ररूपणता है। इस में (णेगमववहाराणं आणुपुबीदवाई कि अस्थि णस्थि ३) जो
સ્થાન રૂપ જાતિમાં જ અન્તર્ભત થાય છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા માટે પાછળ ૮૦મું સૂત્ર વાંચી જવું જોઈએ સૂ૦૧૩
“से किं तं अणुगमे" त्या
हाथ-(से कि त अणुगमे) भगवन् ! मनुगमनुस्१३५ १
उत्तर-(अणुगमे णवविहे पण्णत्ते) मनुगमन प्रारना हो छ. (तंजहा) त प्रा। नीचे प्रभारी छ
(संतपयपरूवणया, जाव अप्पाबहुं चेव) सत५६ ५३५ताथी सधन અલપબદ્ધત્વ પર્યરતના નવ પ્રકારે અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ. તે નવ પ્રકારે હવે ગણાવવામાં આવે છે –
(१) सत्५४ प्र३५यता, (२) द्रव्यप्रभा, (3) क्षेत्र, (४) २५शना, (५) m, (6) मन्त२, (७) मा (८) मा भने (4) ममत्व.
વિદ્યમાન પદાર્થવિષયક પદની પ્રરૂપતાનું નામ સત્પદપ્રરૂપણુતા છે. तभा (णेगमववहाराणं आणुपुचीदवाई कि अस्थि णस्थि ?) मेवा प्रश्न
For Private and Personal Use Only
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारस्ते सन्ति३? नियमात् त्रीण्यपि सन्ति । नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्ये. यानि असंख्येयानि अनन्तानि३१ त्रीण्यपि नो संख्येयानि, असंख्येयानि, नो अनन्तानि सू० १३१॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसावनुगमः ? इति । उत्तरयति-अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पदमरूपणतेत्याघल्पबहुत्वान्तः । तथाहि-सत्पदप्ररूपणता१, द्रव्यप्रमाणं२, क्षेत्रं३, स्पर्शना४, कालः५, अन्तरम् ६, भागः७, भावः८, अल्पबहुत्व ९ चेति । तत्र-सत्पदप्ररूपणतां निरूपयितुमाह-'णेगमववहाराणं' इत्यादिनैगमव्यवहारसम्मतान्याऽऽनुपूर्वी द्रव्याणि कि सन्ति ? न सन्ति वा ? एवमनानुपूर्यवक्तव्याविषयेऽपि प्रश्नो बोध्यः। उत्तरयति-नियमात् त्रीण्यपि आनु. कोई ऐसा प्रश्न करते हैं कि "नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं हैं " इसी प्रकार का प्रश्न अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्यक द्रव्यों के भी विषय में होता है-तब इसका उत्तर-(णियमा तिण्णि वि अत्थि“नियमतः ये तीनों द्रव्य हैं" ऐसा दिया जाता है । (णेगमववहाराणं आणुपुत्वी दवाइं किं संखिज्जाइं असंखिजाई अणंताई ३१) द्रव्यप्रमाण में आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या कितनी है इसका विचार होता है-जिसे इस पाठ द्वारा व्यक्त किया गया है-प्रश्नकर्ता पूछता है कि नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, या असंख्यात हैं या अनंत हैं ? इसी प्रकार का प्रश्न प्रश्नकर्ता का अनानुपूवी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी है। इसका उत्तर सूत्रकार ने (तिणि પછે કે બેગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે કે નથી? અનાનુપૂર્વ દ્રવ્યો છે કે નથી ? અવક્તવ્યક દ્રવ્ય છે કે નથી?” તે તે પ્રશ્નને उत्त२ मा प्रमाणे मायामां आवे छे-(णियमा तिणि वि अस्थि) “मा ત્રણે દ્રવ્ય અવશ્ય વિદ્યમાન છે. આ પ્રકારે આનુપૂવ આદિ દ્રવ્યના અસ્તિત્વ વિષયક જે પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે તેનું નામ સત્પદપ્રરૂપણતા છે.
હવે દ્રવ્યપ્રમાણનું સ્વરૂપ સમજાવવામાં આવે છે–જે દ્રવ્યોને આનુવ આદિ રૂપે ઓળખવામાં આવે છે, તે દ્રવ્યોની સંખ્યાને દ્રવ્ય પ્રમાણમાં વિચાર કરવામાં આવે છે એજ વાતને નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે
प्रश्न-(णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं किं संखिज्जाई, असंखिज्जाई, अणंताई ) नामव्यवहार नयभत समस्त भानुपूवी द्रव्ये। शुन्यात છે, અસંખ્યાત છે, કે અનંત છે? આ પ્રકારને પ્રશ્ન અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય વિષે પણ પછ જોઈએ.
For Private and Personal Use Only
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् पूर्यनानुपूयंवक्तव्यकाभिधेयानि श्रीण्यपि सन्ति । अथ द्रव्यप्रमाणं निरूपयति'णेगमवहाराणं' इत्यादि। नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्ये. यानि असंख्येयानि अनन्तानि ? एवमनानुपूर्वीद्रव्यावक्तव्यकद्रव्यविषयेऽपि प्रश्नो बोध्यः। उत्तरयति-त्रीण्यपि नो संख्येयानि नो अनन्तानि, किन्तु असंध्येयानि । अत्रेदं बोध्यम्-त्र्यादिसमयस्थितिकानि परमाण्वादि द्रव्याणि यधपीड होके प्रत्येकमनन्तानि, तथापि समयत्रयलक्षण स्थितिरेकैव, कालस्य माधान्याद् द्रव्यपहुस्वस्य गुणीभूतत्वाच्च । एवं च त्रिसमयस्थितिकैरनन्तैरपि एकमेवानुपूर्वी द्रव्यम् । इत्यमेव चतुःसमयादि स्थितिकानन्तेषु यावदशसमयसंख्येयसमया वि नो संखिजाइं, असंखिवाई, नो अणंताई) यों दिया है। वे कहते हैं कि ये तीनों ही द्रव्य न संख्यात हैं और न अनंत हैं, किन्तु असं. ख्यात हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि-तीन समय की स्थितिघाले प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य यद्यपि इसलो में अनंत हैं तो भी उनकी समयत्रयरूपस्थिति एक ही है। क्योंकि काल की यहाँ प्रधानताहै और द्रव्यषहुत्व की गौणता है। इसलिये समयत्रय की स्थितिवाले जितने भी वे परमाणु आदि अनंत द्रव्य हैं वे सब अपनी २ तीन समय की स्थितिकी अपेक्षा से एक ही आनुपूर्वी द्रव्य रूप हैं। इसी प्रकार से यद्यपि चार समय आदि की स्थितिवाले प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य अनंत हैं, यावत् दश समय की स्थितिवाले, संख्यात समय की ___उत्तर-(तिण्णि वि नो संखिज्जाई, असंखिज्जाई, नो अणंताई) मानुषी આદિ ત્રણે પ્રકારના દ્રવ્ય સંખ્યાત પણ નથી, અનંત પણ નથી, પરંતુ અસંખ્યાત છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં પ્રત્યેક પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય જે કે આ લેકમાં અનંત છે, છતાં પણ તેમની સમયત્રય રૂપ સ્થિતિ એક જ છે, કારણ કે કાળની અહી પ્રધાનતા ગ્રહણ કરવાની છે અને દ્રવ્યબહત્વની ગણતા સમજવાની છે તેથી ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં પરમાણુથી લઈને અનંત પર્યન્તના પુદ્ગલ પરમાણુવાળાં કન્ય રૂપ દ્રવ્ય છે. તેઓ બધાં પિોતપોતાની ત્રણ સમયની સ્થિતિની અપેક્ષાએ એક જ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ છે. એજ પ્રમાણે છે કે ચાર આરિ સમયની સ્થિતિવાળાં પ્રત્યેક પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય અનંત છે, દસ સમય પર્યન્તની સ્થિતિવાળાં, સંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં પરમાણુ આદિ દ્રવ્યો અનંત છે, છતાં પણ તેઓ પિતાપિતાની ચાર આદિ સમય, હસ પર્યન્તના સમય, સંખ્યાત અને અસં.
For Private and Personal Use Only
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र. संख्येयसमपस्थितिकानन्तेषु एकैकेषामेकैकानुपूर्वीत्व बोध्यम् । द्रव्यस्यानन्त समयस्थितिरेव न भवति तथाविधस्व-भावत्वात् । एवमेव अनानुपूर्वी द्रव्याणि अबक्तव्यकद्रव्याणि चाप्यसंख्येयानि बोध्यानि । ननु एकसमयस्थितिकस्य द्रन्यस्य अनानुपूर्वीत्व, द्विसमयस्थितिकस्य द्रव्यस्यावक्तव्यकत्वमुच्यते, तत्र यद्यपि लोके स्थितिवाले, असंख्यात समय की स्थितिवाले परमाणु आदि द्रव्य अनंत है तो भी वे अपनी २ चार आदि समय, दश समय, संख्यात समय, और असंख्यात समयरूप स्थिति को एक होने की अपेक्षा से एक एक आनुपूर्वी रूप हैं । अर्थात् चार आदि समय की स्थितिवाले जितने भी अनन्त परमाणु द्रव्य एवं अनन्त स्कंध द्रव्य हैं वे अपनी चार समय की स्थिति को एक होने के कारण एक आनु वी द्रव्य हैं । इसी प्रकार से दश आदि समयोंकी स्थितिवाले अनंत परमाणु द्रव्य से लेकर अनंत परमाणुक स्कंधों में भी एक २ को एक २ आनुपूर्वी रूपता अपनी २ स्थितिको एक होने की अपेक्षा से जानना चाहिये । द्रव्य की स्थिति अनंत समय की नहीं होती है, क्योंकि ऐसा कोई द्रव्य ही नहीं है कि जिसकी स्थिति अनन्त समय की हो। इसलिये आनुपूर्वी द्रव्यों को असंख्यात माना गया है। इसी प्रकार से अनानुपूवी द्रव्य और अबक्तव्यक द्रव्य भी असंख्यात २ है ऐसा जानना चाहिये।
शंका-एक समय की स्थितिवाला द्रव्य अनानुपूर्वी है और दो समय की स्थितिवाला द्रव्य अवक्तव्यक है। इनमें यपि लोक में एक
ખ્યાત સમય રૂપ સ્થિતિ એક સરખી હોવાને કારણે એક એક આનyવી રૂ૫ છે. એટલે કે ચાર સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં અનંત પરમાણુ દ્રવ્ય અને અનંત સ્કન્ધ દ્ર છે. તેઓ ચાર સમયની એક સરખી સ્થિતિવાળાં હોવાને કારણે એક આનુપૂર્વા દ્રવ્યરૂપ છે એ જ પ્રમાણે પાંચથી લઈને દસ પર્યન્તના સમયની સ્થિતિવાળાં, સંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અનંત પરમાણુ દ્રવ્યથી લઈને અનંત પરમાણ રકધામાં પણ, તે પ્રત્યેકની પિતપોતાની સ્થિતિની એકરૂપતાને કારણે તે પ્રત્યેકમાં પણ એક એક આનુપૂવ રૂપતા સમજવી જોઈએ દ્રવ્યની સ્થિતિ અનત સમયની હોતી નથી-એટલે કે એવું કોઈ પણ દ્રવ્ય નથી કે જેની સ્થિતિ અનંત સમયની હોય તેથી આનુપૂવ કોને અસંખ્યાત જ માનવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અનાનુપૂવી દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત જ છે અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત જ છે એમ સમજવું.
કા-એક સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી છે, અને એ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રશ્ય અવક્તા૫ક છે જે કે લેકમાં એક સમયની સ્થિતિવાળાં
For Private and Personal Use Only
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् ५६१.. एकसमयस्थितिकानि द्विसमयस्थितिकानिच परमाण्वादिद्रव्याणि प्रत्येकमनन्तानि सन्ति, तथापि पूर्वोक्तरीत्या एकसमयलक्षगाया द्विसमयलक्षणायाश्च स्थितिरेकैक रूपत्वाद् द्रव्यबाहुल्यस्य च गुणीभूतत्वादेकमेवानानुपूर्वीद्रव्यमेकमेव चावक्तव्यकद्रव्यं वक्तुमुचितं, न तु प्रत्येकमसंख्येयम् । ननु यदि च द्रव्यभेदेन भेदोऽङ्गीक्रियते सहि प्रत्येकमनन्तं वक्तुमुचितम् , एकसमयस्थितीनां द्विसमयस्थितीनां च द्रव्याणां एक समय को स्थितिवाले और दो समय की स्थितिवाले परमाणु आदि प्रत्येक द्रव्य अनंत हैं, तो भी पूर्वोक्त रीति से एक समय की और दो समय की स्थिति को एक रूप होने से और द्रव्यबाहुल्य को गौण होने से एक ही अनानुपूर्वी द्रव्य और एक ही अवक्तव्यक द्रव्य है ऐसा कथन करना ही उचित है । प्रत्येक असंख्यात है ऐसा कहना उचित नहीं है। शंकाकार का तात्पर्य यह है कि कालानुपूर्वी में द्रव्य बाहुल्य गौण माना गया है और काल प्रधान-इसलिये एकसमय की स्थितिवाले जितने द्रव्य होंगे वे सब अपनी अपनी एक २ समय की स्थिति में एकरूपता होने के कारण एक ही अनानुपूर्वी द्रव्य कहे जावेंगे भिन्न २ असंख्यात अनानुपूर्वी द्रव्य नहीं । इस प्रकार जितने भी दो समय की स्थितिवाले द्रव्य होंगे वे सब अपनी २ दो २ समय की स्थिति को एक रूप होने से एक ही अवक्तव्यक द्रव्य माने जायेंगे भिन्न भिन्न असंख्यात अव. तव्यक द्रव्य नहीं। यदि द्रव्य के भेद से इनमें भेद माना जावे तो फिर અને બે સમયની સ્થિતિવાળાં પરમાણ આદિ પ્રત્યેક દ્રવ્ય અનંત છે, છતાં પણ પકત રીતે એક સમયની અને બે સમયની સ્થિતિની એકરૂપતાં હોવાથી અને દ્રવ્યબાહુલ્યની ગણતા હોવાથી “એક જ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અને એક જ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય છે,” એવું કથન કરવું ઉચિત ગણાત' પ્રત્યેક અસંખ્યાત છે, એવું કથન કરવું ઉચિત લાગતું નથી શંકાકરનારના, કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે- કાલાનુપૂર્વમાં દ્રવ્યબાહુલ્યને ગૌણ માનવામાં આવ્યું છે અને કાળને પ્રધાન માનવામાં આવેલ છે. તેથી એક સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્ય હશે, તેમનામાં એક એક સમયની સ્થિતિ રૂપ એકતા હોવાને કારણે, એક જ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપ ગણવા જોઈએભિન્ન ભિન્ન અસંખ્યાત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો રૂપ ગણવા જોઈએ નહી એજ પ્રમાણે બે સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્ય હશે તે બધાને પણું, પિતપિતાની બએ સમયની સ્થિતિની એકરૂપતાને કારણે, એક જ અવક્તવ્યાક. દ્રવ્ય રૂ૫ માનવા પડશે-ભિન્ન ભિન્ન અસખ્યાત અવતવ્યક દ્રવ્ય રૂપ માની
म०७१
For Private and Personal Use Only
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगबारसूर्य प्रत्येकमानन्त्यादितिवेदाह-लोके हि असंख्येया अवगाहभेदाः सन्ति । एवं एकसमयस्थितिकद्विसमयस्थितिफयोर्द्रव्ययोः एकैकस्य अवगाहनाभेदेन भिन्नतयाः विवक्षितत्वात्मत्येकमसंख्येयं बोध्यम् । प्रत्यवगाईच एकसमयस्थितिक: द्विसमयस्थितिकानेकद्रव्यसंभवादनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामाधारक्षेत्रभेदात्प्रत्येक मसंख्येयत्वं न विरुध्यते ॥इति।।मु० १३१॥ इस प्रकार से तो इनमें प्रत्येक में असंख्यातता न कहकर यहां सूत्रकार को अनंतता प्रत्येक में कहना उचित था क्यों कि एक समय की स्थितिवाले द्रव्यों में और दो समय की स्थितिवालेद्रव्यों में प्रत्येक द्रव्य अनन्त है?
उत्तर-लोक में अवगाह मेद असंख्यात हैं। इसलिये एक समय की स्थितिवाडे जितने द्रव्य हैं और दो समय की स्थितिवाले जितने द्रव्य हैं उनमें से एक र द्रव्य में अवगाहना के भेद से भिन्नता है। इस भिन्नता की विवक्षा की वजह से प्रत्येक द्रव्य असंख्यात है-ऐसा जानना चाहिये । हरएक अवगाहमें एक समय की स्थितिवाले और दो समय की स्थितिवाले अनेक द्रव्यों का रहना संभवित होता है। इस. लिये असंख्य अवगाह में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के रहने के कारण उनके आधारभूत क्षेत्र में भेद हो जाता है। इसलिये इनमें શકાશે નહીં એ દ્રવ્યને ભેદને લીધે તેમની વચ્ચે ભેદ માનવામાં આવે, તે તે પ્રત્યેકમાં અસંખ્યાતતા આવવાને બદલે અનંતતા જ આવવાને પ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે તેથી સત્રકારે અહીં જે અસંખ્ય તતા કહી છે તેને બદલે પ્રત્યેકમાં અનંતતા જ કહેવી જોઈતી હતી, કારણ કે એક સમયની સ્થિતિ. વાળાં દ્રવ્યમાં અને બે સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રવ્યમાં-એ પ્રત્યેકમાં– અનંતતા જ હોય છે.
ઉત્તર-લાકમાં અવગાહભે અસંખ્યાત છે તેથી એક સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્ય છે અને બે સમયની સ્થિતિવાળા જેટલાં દ્રવ્ય છે, તેમાંના પ્રત્યેક દ્રવ્યમાં અવગાહનાના ભેદને લીધે ભિન્નતા છે. આ ભિન્નતાની અપેક્ષાએ પ્રત્યેક દ્રવ્ય અસંખ્યાત છે, એમ સમજવું જોઈએ. દરેક અવગાહમાં એક સમયની સ્થિતિવાળાં અને બે સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક દ્રવ્યની વિધમાનતા (રહેવાનું) સંભવિત હોય છે. તેથી અસંખ્ય અવગાહમાં અનાખવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોના રહેવાને કારણે તેમના આધાભૂત ક્ષેત્રમાં જે પી જાય છે તેથી તે કમાં-પ્રત્યેકમાં-અસંખ્યાતતાનું કથન વિરૂદ્ધ
-
-
For Private and Personal Use Only
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम्
अथ क्षेत्रद्वारं स्पर्शनाद्वारं च वक्तुमाह
मूलम् - गमववहाराणं आणुपुत्रीदवाई अणाणुपुत्रीदव्वाई अवत्तव्वगदव्वाई लोगस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा ? असंखिजड़भागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु वा होजा ? असंखेजेसु भागेसु वा होज्जा ? सव्वलोए वा होज्जा ? आणुपुत्रीदवाई एवं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइ भागे वा होजा, संखे जेसु वा भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, देसूणे वा लोए होज्जा ? नाणादव्वाई पडुश्च नियमा सव्वलोए होज्जा । एवं अणाणुपुत्री दव्वाई। आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु
५६३
प्रत्येक में असंख्यातता का कथन विरुद्ध नहीं है। निर्दोष है। तात्पर्य कहने का यह हैं कि लोक में एक समय की स्थितिवाले द्रव्यों को रहने के स्थान असंख्यात है क्यों कि लोकाकाश स्वयं असंख्यात प्रदेशी है। इन द्रव्यों को रहने का एक ही एक प्रदेश रूप या दो प्रदेश रूप आधार स्थान नहीं है । अतः एक प्रदेश रूप और दो आदि रूप आधार अनेक होने के कारण उन असंख्यात आधार रूप स्थानों में ये प्रत्येक द्रव्य असंख्यात रूप में रहते हैं इसलिये ये प्रत्येक असंख्यात ही है अतः भिन्न २ स्थानों में रहे हुवे इन एक समय की और दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों में प्रत्येक में असंख्यातता का कथन निर्दोष है | |०१३१ ॥
For Private and Personal Use Only
પડતુ નથી, પણ નિર્દોષ કથન રૂપ જ ગણી શકાય છે. આ કથનને ભાવાચ એ છે કે લેાકમાં એક સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રવ્યેાને તથા એ સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રન્યાને રહેવાનાં સ્થાન અસખ્યાત છે, કારણ કે લેાકાકારા પાતે જ અસખ્યાત પ્રદેશેાવાળું છે આ દ્રવ્યેને રહેવાનુ એક જ પ્રદેશ રૂપ અથવા એ પ્રદેશરૂપ આધારસ્થાન હતુ નથી તેથી એક પ્રદેશરૂપ અને એ પ્રદેશ આદિ રૂપ આધાર અનેક હાવાને કારણે તે અસખ્યાત આષાર રૂપ સ્થાનામાં તે પ્રત્યેક દ્રવ્ય અસંખ્યાત રૂપે રહે છે. (તેથી તે પ્રત્યેક જ્ગસ ખ્યાત જ છે. આ રીતે સિન્ન ભિન્ન સ્થાનામાં રહેલા એક સમયની અને પ્રેમમયની સ્થિતિવાળાં તે પ્રત્યેક દ્રવ્યમાં ભસ ખ્યાતનું કથન કોષરહિત જ છે.) પસ૧૩૧
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६६४
अनुयोगद्वारसूत्रे
होज्जा । एवं अवत्तव्वगद्व्वाणि वि जहा खेत्ताणुपुव्वीए । फुसणा कालापुवीए वि तहा चैव भाणियव्वा ।। सू० १३२ ॥
छाया - नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि लोकस्य कि संख्येयभागे भवन्ति ? असंख्येयमागे भवन्ति ? संख्येयेषु मागेषु वा भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु वा भवन्ति ? सर्वलोके वा भवन्ति ? आनुपूर्वीद्रव्याणि एकं द्रव्यं प्रतीत्य संख्येयभागे वा भवन्ति, असंख्येयभागे वा भवन्ति, संख्येयेषु वा भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु वा भागेषु भवन्ति ? देशो वा लोके भवन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । एवमनानुपूर्वीद्रव्यम् । आदेशान्तरेण वा सर्वपृच्छासु भवन्ति । एवमवक्तव्यकद्रव्यायपि यथा क्षेत्रानुपूर्व्याम् । स्पर्शनाकालानुपूर्व्यामपि तथैव भणितव्या || सू० १३२ ॥ टीका- ' णेगमववहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रयाणि लोकस्य कि संख्येयभागे भवन्ति = तिष्ठन्ति ? इत्यादि प्रश्नः । उत्तरयति - 'एग दव्वं' इत्यादि । आनुपूर्वीद्रव्याणि एकं अब सूत्रकार क्षेत्रद्वार और स्पर्शनद्वार का कथन करते हैं"गमववहाराणं" इत्यादि
शब्दार्थ - (गमववहाराणं) नैगमव्यवहारनयमान्य ( आणुपुच्ची दवाई) समस्त आनुपूर्वी द्रव्य (अणाणुपुब्बी दव्वाई) समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य (अवतन्त्रगदव्बाई) और समस्त अवक्तव्यक द्रव्य (लोगस्स) लोक के (किं) क्या (संखिज्जइभागे होता) संख्यात भाग में रहते हैं? (असंखिज्जइ भागे होज्जा) या असंख्पात भाग में रहते हैं (संखेज्जेसुभागे वा होज्जा) या संख्यात भागों में रहते हैं ? (असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा) या असंख्यात भागों में रहते हैं ? (सब्बलोए वा होज्जा) या समस्त लोक में रहते हैं ?
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રદ્વાર અને સ્પર્શનદ્વારનું કથન કરે છે.गमववहाराणं " त्याहि
66
शहार्थ - (गमववहाराणं) नेगभव्यवहार नयस'भत ( आणुपुब्बीदव्वाई) समस्त मानुपूर्वी द्रव्ये, (अणाणुपुव्वीव्वाइं) समस्त मनानुपूर्वी द्रव्येो (अवव्वगदव्वाई) भने समस्त अवतव्य द्रव्यो (लोगस्स किं संखिणजइ भागे होना) शु बोना सभ्यातभी भागमां रहे होजा ) है असण्यात भागभा रहे हे, (संखेज्जेसु
For Private and Personal Use Only
छे, (असंखिज्जइभागे भागेसु वा होब्जा)
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ६६५ द्रव्यं प्रतीत्य-आश्रित्य लोकस्य संख्येयमामे 'होज्जा' भवन्ति तिष्ठन्ति, असंख्येयमागे वा तिष्ठन्ति, संख्येयेषु भामेषु वा तिष्ठन्ति, असंख्येयेषु भागेषुः वा तिष्ठन्ति, देशोने वा लोके तिष्ठन्ति । अत्र च्यादिसमयस्थितिकद्रव्यस्य संख्येबादिमागवत्तित्वं तत्तदवगाहसंभवाद् बोध्यम् । तथा-यदा व्यादिसमयस्थितिका सूक्ष्मपरिणामः स्कन्धो देशोने लोकेऽवगाहते, तदा एकस्य आनुपूर्णद्रव्यस्य - उत्तर-(आणुपुथ्वीदव्याई एगं दव्वं पडुच्च संखेजहभागे वा होबा, असंखेज्जह भागे वा होज्जा, संखेज्जेसुभागेसु वा होज्जा, असं. खेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, देसूणे वा लोए होज्जा) एक द्रव्य की अपेक्षा करके कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यात भाग में रहता है, कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के असंख्यात भाग में रहता है, कोई एक आनुपूर्वी द्रव्यलोकके संख्यात भागों में रहता है और कोई एक आनुपूर्णद्रव्य लोक के असंख्यात भागों में रहता है । तथा कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य देशोन लोक में रहता है। यहां पर जो ज्यादि समय की स्थितिवाले द्रव्य का लोक के इन संख्यात आदि भागों में रहना कहा गया है वह उन २ भागों में अवगाह उनका संभवित है इस अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये। तथा-जिस समय ज्यादि समय की स्थितिवाला सूक्ष्म परिणाम युक्त स्कंध देशोन लोक में अवगाहित होता है-ठहरता है उस समय एक आनुपूर्वीद्रव्य देशोन लोकवर्ती होता है ऐसा समझना चाहिये। सभ्यात मागमा २९ छे, (असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा) , मसभ्यात भागमा २३ छ, (सव्वलोए वा होज्जा ?) समस्त सभा २३ छ
उत्तर-(आनुपुब्बीदव्वाइं एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखे. जइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु वा भागेसु होउ जा, देसूणे वा लोए होज्जा) मे दयनी अपेक्षा पियार ४२वामां आवे तो એક આનુપૂવ દ્રવ્ય લોકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કેઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કેઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના સખ્યાત | ભાગમાં રહે છે, તથા કોઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય દેશનલેકમાં રહે છે.
અહીં “આનુપૂવી દ્રવ્ય (ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય) લેકના સંખ્યાત આદિ ભાગમાં રહે છે.” એવું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે તે સંખ્યાત આદિ ઉપર્યુક્ત ભાગમાં તેની અવગાહના સંભવિત હોય છે. તથા જે સમયે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળ સૂક્ષમ પરિણામયકત અન્ય દેશનલકમાં અવગાહિત થાય છે-રહે છે–તે સમયે એક આપવી ય દેશોનલકવતી હોય છે, એવું સમજવું જોઈએ,
For Private and Personal Use Only
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे देशोनलोकवर्तित्वं भावनीयम् । ननु सम्पूर्णेऽपि लोके कस्मादिदं न तिष्ठति ? इति चेदुच्यते-सर्वलोकव्यापी अचित्तमहास्कन्ध एव भवति, स च सर्वलोकन्यापितया एकमेव समयमेव तिष्ठते, ततःपरं तदुपसंहारात् । न चैकसमयस्थितिक मानुपूर्वीद्रव्यं भवति, ज्यादिसमयस्थितिकत्वेनैव तत्संभवात् । तादृशं द्रव्यं तु नियमादेकेनापि प्रदेशेनोन एव लोकेऽवगाहते । अतः व्यादिसमयस्थितिकद्रव्यस्य देशोनव्यापित्वं बोध्यम् । ननु-अचित्तमहास्कन्धस्यैकसमयस्थितिकत्वं नोपपद्यते,
शंका:-आप जो सूक्ष्म परिणाम युक्त व्यादि समय की स्थितिवाले स्कंध रूप एक जानुपूर्वीद्रव्य को देशोन लोक व्यापी बतला रहे हो सो यह समस्त लोक में क्यों नहीं रहता है?
उत्तर:-यह तो पहिले ही कहा जा चुका है कि सर्वलोक व्यापी अचित्त महास्कंध ही होता है और यह अचित्त महास्कंध सर्वलोक में ध्यापक रूप से एक ही समय तक रहता है-बाद में उसका संकोचउपसंहार-हो जाता है। एक समय की स्थितिवाला तो आनुपूर्वीद्रव्य होता नहीं है। वह तो ज्यादि समय की स्थितिवाला ही होताहै। अतः ऐसा जो द्रव्य होता है वह नियम से एक प्रदेश ऊन ही लोक में अवगाहित होता है। इसलिये व्यादि समय की स्थितिवाला जो द्रव्य होता है वह देशोनलोक व्यापी होता है ऐसा समझना चाहिये। . शंका-आपने जो अचित्त महास्कंध को एक समय की स्थितियाला प्रकट किया है, सो वह एक समय की स्थितिकता उसमें घटित नहीं
શંકા-આપ જે સૂક્ષમ પરિણામયુકત ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા કન્ય રૂપ એક આનુપૂવી દ્રવ્યને દેશના વ્યાપી કહ્યો છે, તે અમારે પ્રશ્ન એ છે કે તે સમસ્ત લેકમાં કેમ વ્યાપેલે (અવગાહિત) નથી ?
ઉત્તર-એ વાત તે પહેલાં સ્પષ્ટ થઈ ચુકી છે કે અચિત્ત મહાશ્વ જ સર્વ લેકવ્યાપી હોય છે, અને તે અચિત્ત મહાસ્કન્ય સર્વ લેકમાં વ્યાપક રૂપે એક સમય સુધી જ રહે છે. ત્યાર બાદ તેને સંકેચ (ઉપસં. હા૨) થઈ જાય છે. આનુપૂવી દ્રવ્ય એક સમયની સ્થિતિવાળું હોતું નથી. તે તે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું હોય છે. તેથી એવું જે વ્ય હેય છે તે તે દેશોન લેકમાં (એક પ્રદેશ પ્રમાણ ન્યૂન લેકમાં) જ અવગાહિત થાય છે, એ નિયમ છે. તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું જે દ્રવ્ય હોય છે, તે દ્રવ્ય દેશોન લેકમાં અવગાહિત હેય છે.
શંકા-આપે કહાં તે અચિત્ત મહાકની સ્થિતિ એક સમયની હોય છે, પરંતુ આપનું તે કથને દોષયુક્ત લાગે છે, કારણ કે દંડ કપાટ, મળ્યાન,
For Private and Personal Use Only
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रधारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ५६७ दण्डकपाटमन्थानायवस्थागणनेन तस्याप्यष्टसमयस्थितित्वात् । असौ हि-केवलि समुद्घातन्यायेन विस्रसापरिणामवशाचतुर्भिः समयैर्लोकस्य पूरणं करोति । संहरणमपि प्रतिलोमं-तस्याचित्तमहास्कन्धस्य तैरेव चतभिः समयै द्रष्टव्यम् । एवं च सत्यष्टौ समयान कालमानेन भवतीति । एवं चाचित्त महास्कन्धस्याप्यानुपूर्तीत्वात् भानुपूर्वीद्रव्यस्यापि सर्वलोकव्यापित वक्तव्यं, न तु देशोनलोकव्यापित्वमिति चेदाह-अत्र हि दण्डकपाटमन्थानाधभिन्ना भिमा अवस्थाः। अवस्थाभेदेन वस्तुनोऽपि भेदः । इत्थं च दण्डकपाटमन्थानाधवस्थद्रव्येभ्यो भिन्न एवाचित्तहोती है। क्यों कि दण्ड, कपाट और मन्थान आदि अवस्था की गणना से उसमें भी आठ समय की स्थितिकता आती है। यह अचित्त महास्कंध केवलिसमुद्घातन्याय से विसापरिणामवशात् चार समयों में लोक को पूरित करता है। अर्थात् सकल लोक को व्याप्त करलेता है और चार ही समयों में फिर वह अपना संहार करता है-अर्थात् अपने आपमें समाजाता है। इस प्रकार इसकी स्थिति आठ समय की कालप्र. माण से होती है। फिर एक समय की स्थिति आप इमकी कैसे कहते हो? तथा यह अचित्त महास्कंध भी आनुपूर्वी रूप है और जब यह इस प्रकार से सर्वलोक व्यापी है तो आनुपूर्वीद्रव्य को जो आप देशोनलोक व्यापी कह रहे हो वह कैसे संगत माना जा मकता है? अतः आनुपूर्वी द्रव्य सर्वलोक व्यापी है ऐसा कहना चाहिये ?
उत्तर-दण्ड, कपाट और मन्थान आदि अवस्थाएँ हैं वे भिम २ हैं। और अवस्थाओं के मेद से अवस्थावाली वस्तु में भी भेद होना है। इस આદિ અવસ્થાઓની ગણતરી કરતાં તેની સ્થિતિ આઠ સમયની થાય છે. આ આ અચિત્ત મહાસ્યન્ય, કેવલિસમુદુઘાતને ન્યાયે વિસસાપરિણામને લીધે ચાર સમયમાં સકળ લોકને વ્યાપ્ત કરી દે છે, અને ત્યાર બાદ ચાર સમયમાં જ તે પિતાને ઉપસંહાર કરે છે એટલે કે પિતાની અંદર જ સમાઈ જાય છે. આ રીતે કાળપ્રમાણનો વિચાર કરવામાં આવે તો તેની સ્થિતિ આ સમયની થાય છે. છતાં આપ તેની સ્થિતિ એક સમયની શા કારણે કહે છે ? આ અચિત્ત ઔધ આઠ સમયની સ્થિતિવાળો હોવાથી આનુપૂર્વી રૂપ જ છે. જે આનવી દ્રવ્ય રૂપ આ અચિત્ત સ્કન્ધ સવલકવ્યાપી હોય તે આનુપૂવી દ્રવ્યને આપ કેવી રીતે દેશના લોકળ્યાપી બતાવે છે? આ રીતે આપવી દ્રવ્યને દેશોન લેકવ્યાપી કહેવું તે સંગત લાગતું નથી. તેને સર્વવ્યાપી જ કહેવું જોઈએ...
ઉત્તર-દંડ, કપાટ અને મન્થાન આદિ જે અવસ્થાએ છે તે ભિન્ન ભિન્ન છે, અને અવસ્થાઓના ભેદને લીધે અવસ્થાવાળી વસ્તુમાં પણ ભિન્નતા આવી
For Private and Personal Use Only
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुपोगशारसूर्य महास्कन्धः। स चैकसमयस्थितिक एव। एवं च तस्यानुस्वाभावादानुपूर्वी द्रव्यस्य देशोनलोकव्यापि न विरुध्यते. इति । यद्वा-यथा क्षेत्रानुपयों तथाऽत्रापि सर्वलोकव्यापिनोऽप्यचित्तमहास्कन्धस्य विवक्षया एकस्मिन्नमःप्रदेशेऽप्राधान्याश्रयणेन देशोनलोकवर्तित्व बोध्यम् । तत्र प्रदेशे हि एकसमयस्थितिकम्य प्रकार दण्ड, कपाट और मन्थान अवस्थावाले द्रव्यों से भिन्न ही अचित्त महास्कंध है। एक समय की स्थितिवाला द्रव्य आनुपूर्ण रूप नहीं माना गया है। अतः इममें आनुपूर्वीच का अभाव है। इसलिये जो आनुपूर्वी द्रव्य में अचित्त महास्कंध को लक्षित करके सर्वलोक व्यापिता पर लाने की शंका उठाई है वह निर्मूल है। अतः यही कथन सत्य है कि आनुपूर्वी द्रव्य देशोनलोकव्यापी होता है यहा-क्षेत्रानुपूर्वी की तरह यहां पर भी सर्वलोक व्यापी भी अचित्त महास्कंध की विवक्षा से एक आनुपूर्वी द्रव्य को एक आकाश के प्रदेश में अप्रधानता के आश्रय से उसे देशोन लोकवी जानना चाहिये-तात्पर्य कहने का यह है कि अचित्त महास्कंध रूप एक आनुपूर्वीद्रव्य को देशोन लोकव्यापी न मानकर यदि केवल सर्वलोकव्यागे ही मानो जावे तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को ठहरने के लिये स्थान न होने के कारण उनका अभाव प्रसक्त होगा और जब देशोन लोक में प्रचित्त महा. स्कंध रूप एक आनुपूर्णद्रव्य व्यापक होकर रहता है ऐसा माना जाता જાય છે. આ પ્રકારે દંડ, કપાટ અને મન્થાન અવસ્થાવાળા દ્રવ્યથી અચિત્ત મહાક્કન્ધમાં ભિન્નતા છે. અને તે એક જ સમયની સ્થિતિવાળે છે. એક સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને આનુપૂર્વી રૂપ ગણાતું નથી પણ, અનાનુપૂવી રૂપ જ ગણાય છે. આ પ્રકારે તે અચિત્ત મહાકલ્પમાં આવતાને અભાવ જ છે તેથી શંકા કર્તાએ એવી જે શંકા ઉઠાવી છે કે “અચિન મહાસ્કન્ય સલેકવ્યાપી હેવાથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યને પણ સર્વવ્યાપી કહેવું જોઈએ, તે વાત ઉચિત નથી તે સાબિત થઈ જાય છે. અચિત્ત મહારકન્ય અનાનુપૂવ રૂપ હેવ થી તેની સવલોકવ્યાપિતાનો આધાર લઈને આવી દ્રવ્યમાં સલેકવ્યાપિતા માની શકાય નહીં. તેથી એજ કથન સત્ય સિદ્ધ થાય છે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય દેશનલેકવ્યાપી હોય છે.
અથવા-ક્ષેત્રાનુકૂવીની જેમ અહીં પણ સર્વલેકવ્યાપી અચિત્ત મહાસ્કન્ધની વિવક્ષાની અપેક્ષાએ એક આનુપૂવી દ્રવ્યને એક આકાશના પ્રદેશમાં અપ્રધાનતાને આશ્રય લઈને દેશોનું લેકવ્યાપી સમજવું જોઈએ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે અચિત્ત મહાઔધ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યને દેશોન લેકવ્યાપી માનવાને બદલે સર્વ લેકવ્યાપી માનવામાં આવે, તે અનાનુપૂર્વી, અને અવકતવ્યક દ્રવ્યને રહેવાનું સ્થાન જ ન રહેવાને કારણે તેમને અભાવ માનવાનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે અને જો એવું માનવામાં આવે કે અચિત્ત મકારકધુ રૂપ એક આgવી દ્રવ્ય દેશેન લેકમાં વ્યાપ્ત થઈને રહેવું હોય
For Private and Personal Use Only
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रहारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ५६९ अनानुपूर्वीद्रव्यस्य द्विसमयस्थितिकस्यावक्तव्यकद्रव्यस्य च प्राधान्यात् । एयमन्यदपि भागमाविरोधतो वक्तव्यम् । तथा-नानाद्रव्याणि-अनेकानुपूर्वीद्रव्याणि मतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । ज्यादिसमयस्थितिकद्रव्याणां सर्वलोकेऽपि सच्चानानाद्रव्याणि नियमात् सर्वलोकव्यापीनि भवन्तीति भावः । एवमेव मनान: है तो इस प्रकार से अचित्त महा स्कंध से पूरित हुए भी लोक में कम से कम एकप्रदेश ऐसा भी आजाता है कि जिसमें अनानुपूर्वी और अब. क्तव्यक द्रव्य को ठहरने के लिये स्थान मिलजाता है यपि इस एक प्रदेश में भी आनुपूर्वीद्रव्य रहता है-तो भी उसकी प्रधान रूप से वहां विवक्षा नहीं मानी जाती है। वहां तो एक समय की स्थितिवाले अना. नुपूर्वीद्रव्य और दो समय की स्थितिवाले अवक्तव्यक द्रव्य की ही प्रधा. नता मानीजाती है इस प्रकार और भी बातें आगम में विरोध न आवे इस प्रकार से समझ लेनी चाहिये । तथा-(नाणादव्वाई पडच्च नियमा सम्वलोए होज्जा) अनेक आनुपूर्वीद्रव्यों की विवक्षा करके नियम से आनुपूर्वोद्रव्य समस्त लोक में रहते हैं अर्थात् ज्यादि समय की स्थिति वाले अनेक आनुपूर्वीद्रव्यों की सत्ता समस्त लोक में भी पायी जाती है इसलिये नाना आनुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा से अनेक आनुपूर्वीद्रव्य समस्त लोक व्यापी होकर रहते हैं । (एवं अणाणुपुत्वीदन्य) इसी प्रकार છે, તે આ રીતે અચિત્ત મહાસ્ક વડે પૂરિત (વ્યાસ) થયેલા લોકમાં પણ ઓછામાં ઓછો એક પ્રદેશ એ હોય છે કે જેમાં અનાનુપવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યને રહેવાને માટે સ્થાન મળી જાય છે. જો કે તે એક પ્રદેશમાં પણ આનુપૂવી દ્રવ્ય રહે છે, છતાં પણ તેમાં તેમને પ્રધાનરૂપે ગણી શકાય નહી તે એક પ્રદેશમાં તે એક સમયની સ્થિતિવાળા અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અને બે સમયની સ્થિતિવાળા અવક્તવ્યક દ્રવ્યની જ પ્રધાનતા માનવી પડે છે. એજ પ્રમાણે બીજી વાતને પણ આગમની વિરૂદ્ધ ન પડે એવી રીતે સમજી લેવી જોઈએ.
तथा-(नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा) भने मानवी દ્રની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેઓ નિયમથી જ સર્વ લેકમાં રહેલાં હોય છે, એમ સમજવું જોઈએ. એટલે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ સમસ્ત લેકમાં પણ હોય છે તેથી જ અનેક આનુપૂવ દ્રવ્યોની અવગાહના બાબતમાં એવું કથન કરવામાં આવ્યું છે કે અનેક આનુપૂવી દ્રવ્ય સમસ્ત લેકમાં વ્યાસ થઈને રહે છે,
म. ७२
For Private and Personal Use Only
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगासने पूर्वी द्रव्यमाश्रिस्य अनानुपूर्वीद्रव्यम पे लोकस्यासंख्येयभागव्यापि भवति । अत्रेदं बोध्यम्-यथा क्षेत्रानुपूर्व्यामनानुपूर्वीद्रव्यं लोकस्यासंख्येयभागे भवति, तथा कालानुपूर्व्यामपि तस्यासंख्येयभागवत्तित्वं बोध्यम् । यतो यत्कालत एकसमयस्थितिकं तत्क्षेत्रतोऽप्येकप्रदेशावगाढं भवति । तच्च लोकस्यासंख्येयभागे एवं भवति । प्रकारान्तरमुपश्रित्याह-'आएसंतरेण वा' इत्यादि। आदेशान्तरेण=प्रका. सन्तरमाश्रित्य अनानुपूर्वी द्रव्यं सर्वपृच्छामु-संख्येयभागे, असंख्येयभागे, संख्येयभागेषु असंख्येयभागेषु सर्वलोके वा, भवति । अयं भाव:-अचित्तमहास्कसे अनानुपूर्वीद्रव्य के विषय में भी जानना चाहिये-अर्थात् एक अनानुपूर्वीदव्य को आश्रित करके एक अनानुपूर्वी द्रव्य भी लोक के असंज्यात भाग में रहता है-यहां ऐसा समझना चाहिये-जैसे क्षेत्रानुपूर्वी में एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है, उसी प्रकार से कालानुपूर्वी में भी वह लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। क्यों कि काल की अपेक्षा जिसकी एकसमय की स्थिति है वह क्षेत्र की अपेक्षा भी एक प्रदेश में स्थित होता है। यह एकप्रदेश में रहना ही लोक के असंख्यातवें भाग में उसका रहना है। (आएसंतरेण वा सम्वपुच्छासु होज्जा) अथवा पत्रकार प्रकारान्तर को आश्रित करके अनानुपूर्वीद्रव्य के विषय में इस प्रकार से कहते हैं कि यदि कोई ऐसा पूछे कि अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भाग में अथवा असं. ख्यातभाग में -अथवा संख्यात भागों में अथवा सर्वलोक मे रहता .... (एवं भणाणुपुठवी दव्वं) मे ॥ ४५५ मनानु५॥ द्र०यना विषयमा પણ સમજવું જોઈએ એટલે કે એક અનાનુપવી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે એક અનાનુપૂવ દ્રવ્ય પણ લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે સમજજેવી રીતે ક્ષેત્રાનુપૂવમાં એક અનાનુપવી દ્રવ્ય લોકનાં અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, એજ પ્રમાણે કહાનવમાં પણ તે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહે છે, કારણ કે કાળની અપેક્ષાએ જેની એક સમયની સ્થિતિ હોય છે, તે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ એક પ્રદેશમાં અવગાહિત (રહેલું) હોય છે. આ એક પ્રદેશમાં રહેવું, તેનું નામ જ લોકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહેવું છે. . (भाएसंतरेण वा सव्वपुग्छासु होज्जा) अथवा सूत्रा२ अन्य प्रार આનુપૂવી દ્રવ્યના વિષયમાં નીચે પ્રમાણે કથન કરે છે–જે કઈ એ પ્રશ્ન
છે કે અનાનુપવી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કે અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કે સમસ્ત લેકમાં રહે છે?
For Private and Personal Use Only
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ५५ न्धस्य दण्डाद्यवस्थाः परस्परं भिषाः, आकारादि भेदात्, द्वित्रिचतुःपदेशिकादि स्कन्धवत् । ततश्च ता दण्डाद्यवस्था एकैकसमयत्तित्वात् पृथगनानुपूर्वीद्रध्याणि। तेषु च मध्ये किमपि कियत्यपि क्षेत्रे वर्त्तते, इत्यनया विवक्षया किल एकमनानु. पूर्वीद्रव्यं प्रकारान्तरेण एतत्सूत्रोक्तसंख्येयभागादिकामु पञ्चस्वपि पृच्छासु लम्पते। तथा नानाद्रव्याणि प्रनीत्याऽनानुपूर्वीद्रव्याणि सर्वस्मिमपि लोके भवन्ति । एक है ? तो उसका उत्तर इस प्रकार से है-दो तीन चारप्रदेशवाले स्कंध आदि की तरह अचित्त महास्कंध की दण्ड, कपाट और मन्थान अवस्थाएँ आकार आदि के भेद से परस्पर में भिन्न २ हैं। इस प्रकार वे दण्डादिक अवस्थाएँ एक एक समयवर्ती होने के कारण पृथक् २ अनानुपूर्वी द्रव्य हैं। इनके बीच में कोई एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भी क्षेत्र में रहता है जब इस प्रकार की विवक्षा होती है तब-इस विवक्षा से एक अनानुपूर्वी द्रव्य प्रकारान्तर से इस सूत्रोक्त संख्येय भागादिक पांचों ही पृच्छाओं में लभ्य हो जाता है-तात्पर्य कहने का यह है कि एक समय की स्थितिवाला अनानुपूर्वी द्रव्य होता है और इस अनानुपूर्वी द्रव्य में से कोई एक द्रव्य लोक के संख्यात भाग में रहता है कोई एक द्रव्य असंख्यात भाग में रहता है, कोई एक द्रव्य संख्यात भागों में रहता है। कोई एक असंख्यात भागों में रहता है और कोई एक सर्वलोक में रहता है। तथा नाना अनानुपूर्वीद्रव्यों
તે આ પ્રશ્નને એ ઉત્તર આપી શકાય કે બે, ત્રણ, ચાર પ્રદેશવાળાં • સ્કન્ધ આદિની જેમ અચિત્ત મહાસ્કન્ધની દંડ, કપાટ અને મળ્યાન અવ.
સ્થાઓ આકાર આદિની અપેક્ષાએ એક બીજીથી ભિન્ન ભિન્ન હોય છે. આ પ્રકારે તે દંડાદિક અવસ્થાઓ એક એક સમયવતી હોવાને કારણે અલગ અલગ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપ હોય છે. તેમાંનું કેઈ એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના કેટલા ય ક્ષેત્રમાં રહે છે. જ્યારે આ પ્રકારની વિવક્ષા થાય છે, ત્યારે આ વિવક્ષાની અપેક્ષાએ એક અનાનુપવી દ્રવ્ય પ્રકારાન્તરની અપેક્ષાએ આ સૂક્ત સંખ્યય ભાગાદિ પાંચ પ્રકારના ભાગમાં ઉપલબ્ધ થાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે એક સમયની સ્થિતિવાળા અન નુપૂવી દ્રવ્યની અવગાહનાને વિચાર કરવામાં આવે, તે કોઈ એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કોઈ એક અનાનુપૂવ દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કોઈ એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગોમાં તે છે, કેઈ એક અનાનુપ દ્રવ્ય લેકના અસખ્યાત ભાગોમાં રહે છે અને કંઈ એક અનાવી દ્રવ્ય સર્વકમાં પણ રહે છે, અનેક અનાનુપવી એની
For Private and Personal Use Only
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
1
૨
अनुयोगद्वारसूत्र
समयस्थितिकानां द्रव्याणां सर्वत्र सस्वादिति । एवम् अवक्तव्यकद्रव्याण्यपि यथा क्षेत्रानुपूण्यम् । अयं भावः - अवक्तव्यकद्रव्यं क्षेत्रानुपूर्व्यामिव कालानुपूर्व्यामपि लोकस्यासंख्येमागे एव भवति । यतो यत्कालतो द्विसमयस्थितिकं तत्क्षेत्रतो ऽपि द्विपदेशावगाढम् तच्च लोकस्यासंख्येयभागमेव व्याप्नोति । अथवाद्विसमयस्थितिकं द्रव्यं स्वभावादेव लोकासंख्येयभागव्यापि भवति न ततोऽधिकव्यापि । तथा आदेशान्तरेण वा 'महाखंधवज्जमन्नदग्वेसु आइल्लच उपुच्छासु होज्जा " इति प्रोक्तम् ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
int अपेक्षा करके नाना अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोक में भी रहते हैं। क्योंकि एक समय की स्थितिवाले अनानुपूर्वीद्रव्यों का सर्वत्र सम्व रहता है । ( एवं अवसवदव्वाणि वि जहा खेसाणुपुब्बीए) इसी प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी की तरह अवक्तव्यक द्रव्य भी हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से क्षेत्रानुपूर्वी में अवक्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यात भागवर्ती बतलाया गया है उसी प्रकार से यहां कालानुपूर्वी में भी वह लोक के असंख्यातवें भाग में रहनेवाला बतलाया गया है। क्यों कि कालकी अपेक्षा जिसकी स्थिति दो समय की होती है वह लोक के दो प्रदेशों में ही अवगाढ होता है। दो प्रदेशों में अवगाढ होना ही लोक के असंख्यातवें भाग में व्याप्त करना है । अथवा दो समय की स्थितिवाला द्रव्य स्वभाव से ही लोक के असंख्यातवें भाग में व्याप्त होता है इस से अधिक भाग को
અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેએ સલેકવ્યાપી હોય છે, એમ સમજવું, કારણ કે એક સમયની સ્થિતિવાળાં અનાનુપૂર્વી યેનું અસ્તિત્વ सर्वत्र होय छे. (एवं अत्तगदव्वाणि वि जहा खेत्ताणुपुत्री९) क्षेत्रानुपूर्वी भां અવક્તવ્યક દ્રવ્યેાની અવગાહના વિષે જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ થન અહી પણ સમજવું જોઈએ આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે— ક્ષેત્રાનુપૂર્વી માં અવક્તવ્યક દ્રવ્યને લેાકના અસખ્યાત ભાગવતી બતાવ્યુ છે, એજ પ્રમાણે અહી' કાલાનુપૂર્વી માં પણ તેને લેાકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહેલું જ મતાવવામાં આવ્યું છે, કારણ કે કાળની અપેક્ષાએ જેની સ્થિતિ એ સમયની હાય છે, તે દ્રવ્ય લેાકના એ પ્રદેશામાં જ અવગાઢ હાય છે. આ પ્રકારે એ પ્રદેશમાં રહેવું તેનું નામ જ લેાકના અસખ્યાતમાં ભાગને વ્યાપ્ત કરવા અથવા એ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય સ્વભાવથી જ લેના અસ ખ્યાતમાં ભાગને ભ્યાસ કરે છે, તેનાં કરતાં અધિક ભાગને તે ન્યાસ કરતું નથી,
For Private and Personal Use Only
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारपर्शनाद्वारनिरूपणम् ५७३
भत्रेदमनुसन्धेयम्-किमपि द्विसमयस्थितिकं द्रव्यं लोकस्य संख्येयतमभागमवगाहते, किमप्यसंख्येयतमभागम् किमपि संख्येयान् भागान् , किमपि तु असंख्येयान भागान् न तु सर्वलोकमवमाइते । सर्वलोक व्यापित्वं तु महास्कन्धस्य । स चाष्टसमयै निष्पयते, न तु द्वाभ्यां समयाभ्याम् । अतो द्विसमयस्थितिकत्वाभावेन महास्कन्धस्यावक्तव्यकत्वामावादवक्तव्यकद्रव्य विषये पञ्चमपृच्छा न भवति । अत एव-' महाखंधवग्नं' इत्युक्तम् । नानाद्रव्याणि तु सर्वलोकव्यापीनि भवन्तीति । इति क्षेत्रद्वारम् । स्पर्शनाद्वारं निरूपयितुमाह-'फुसणा' इत्यादि। स्पर्शनाशारमपि तथैव-क्षेत्रानुपूर्वी वदेव विज्ञेयम् ।।मू०१३२॥ वह व्याप्त नहीं करता है। तथा-"आदेशान्तरेण वा-महाखंधवज्जमन्न. दव्वेसु आइल्लचर पुच्छासु होज्जा" ऐसा जो कहा है उसका भाव इस प्रकार से है-कि दो समय की स्थितिवाला कोई एक अवक्तव्यक
व्य लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ होता है कोई असंख्यातवें भाग में अवगाढ होता है, कोई संख्यात भागों में अवगाढ होता है, और कोई असंख्यात भागों में अवगाढ होता है परन्तु सर्वलोक में अवगाढ नहीं होता है । सर्वलोक में अवगाढतो महास्कंध होता है। यह महास्कंध आठ समयों से निष्पन्न होता है। दो समयों से नहीं। इस. लिये इस महास्कंध में हिसमयस्थितिकता का अभाव होने से अवक्तव्यकद्रव्यत्व का अभाव है। इसलिये अवक्तव्यक द्रव्य के विषय में पांचर्चा प्रश्न नहीं होता है। इसीलिये "महाखंधवज्ज" ऐसा कहा है। तथा नाना अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा करके नाना अवक्तव्यक द्रव्य सर्व
तथा-" आदेशान्तरेण .. वा-महाखंघवज्जमन्नव्वेसु आइल्लचउपुच्छासु होजा" । प्रभारी २ ४ह्यु छ तर मापा नीय प्रभार छ-समयनी રિથતિવાળું કેઇ એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગમાં અવગાઢ (રહેલું) હોય છે, કોઈ અસંખ્યાતમાં ભાગમાં અવગાઢ હોય છે, કોઈ સંખ્યાત ભાગમાં અવગાઢ હોય છે, કોઈ અસંખ્યાત ભાગોમાં અવગાઢ હોય છે, પરન્તુ કઈ પણ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સમસ્ત લેકમાં અવગાઢ હોતું નથી. મહસ્કિન્ય જ સર્વલેકમાં અવગાઢ હોય છે. આ મહાસ્કન્ધ આઠ સમયમાં નિષ્પન્ન થાય છે એ સમયે માં નિષ્પન્ન થતું નથી આ રીતે આ મહાસ્ક ધમાં એ સમયની સ્થિતિને અભાવ હોવાને કારણે તેને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપ ગણી શકાય નહીં. આ રીતે અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અવગાહનાની બાબતમાં પાંચમી पात (Kasetual) सलवी शती नी तेथी । “महाखंधवजं" આ સૂત્રાંશ મૂકવામાં આવ્યો છે. અનેક અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે એવ' કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ કે
For Private and Personal Use Only
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
RAM
५७४
अनुयोगद्वारसूत्र अथ कालद्वारमाह
मूलम्--णेगमवबहाराणं आणुपुषीदवाई कालओ केवच्चिर होति ? एगं दवं पडुच्च जहण्णेणं तिण्णि समया उक्कोसेणं असंखेनं कालं । नाणादवाइं पडुच्च सबद्धा। गमववहाराणं आणुपुबीदवाई कालओ केवञ्चिरं होइ? एगं दवं पडुच्च अजहन्नमणुकोसेणं एक समयं, नाणादवाइं पडुच्च सबद्धा। भवत्तगदवाणं पुच्छा, एगं दवं पडुच्च अजहण्णमणुकोसेणं दो समया, णाणादवाई पडुच्च सबद्धा ॥सू०१३३॥ ___ छाया-नेगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि कालतः कियश्चिरं भवन्ति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन त्रीन् समयान उत्कर्षेण-असंख्येयंकालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य सर्वाद्धा। नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियश्चिरं भव. • ति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुस्कर्षण एकं समयं, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य सर्वाद्धा। अवक्तव्यकद्रव्याणां पृच्छा । एक द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण दी समयौ, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य सद्धिा सू० १३३॥
टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि।
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वी द्रव्याणि कालता कियच्चिरं भवन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-एकं द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्वीद्रव्याणां जघन्यतः श्रीन लोक व्यापी होते हैं। इस प्रकार यहां तक क्षेत्रवार की प्ररूपणा हुई है। (फुमणा कालाणुपुत्वीए वि तहा. चेव भाणियम्वा) स्पर्शनी द्वार भी इसका कालानुपूर्भ में क्षेत्रानुपूर्षी की तरह जानना चाहिये ।।० १३२॥
अप सूत्रकार कालद्वार का कथन करते हैं‘णेगमववहाराण' इत्यादि।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं) नेयमव्यवहारनयसंमत (आणुपुची. दब्वाई) समस्त आणुपूर्वीद्रव्य (कालओ) कालकी अपेक्षा करके (केव चिरं होई) कितने समयतक रहते हैं ?
- અનેક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સર્વવ્યાપી હોય છે. આ પ્રકારે આ सभा क्षेत्रवानी ५३५४ा ४२पामा भावी छ. (फुरणा कालाणुपुवीए वि तहाचेव माणियवा) मा Kadiyaभा १५ वा ४थन ५५५ क्षेत्रानुवानी જેમ જ સમજવું જોઈએ. ઇસબ૩
For Private and Personal Use Only
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
aartient टीका सूत्र १२३ कालद्वारनिरूपणम्
समयान् स्थितिः, उत्कर्षेण चासंख्येयं कालं स्थितिः । अयं भावः आनुपूर्वी द्रव्याणां मध्ये त्रिसमयस्थितिकं द्रव्यं सर्वतो जघन्यं, तच्च श्रीन् समयानेव तिष्ठति । अतो जघन्यतस्त्रिसमयं यावदानुपूर्वीद्रव्याणां स्थितिः । उत्कृष्टतस्तु असंख्येयं कालं स्थितिर्बोध्या । ततः परमेकेन तंद्र पेण परिणामेन द्रव्यावस्थान
उत्तर- ( एगं दव्वं पडुच्च) एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा करके आनुपूर्वीद्रव्यों की (जहणेणं) जघन्य से (तिण्णि समया) तीन समयकी स्थिति है, और (उक्को सेणं) उत्कृष्ट से (असंखेज्जं कालं) असंख्यातकाल की स्थिति है। इसका तात्पर्य यह है। आनुपूर्वीद्रव्यों के बीच में तीन समय की स्थितिवाला द्रव्य सब से कम है यह तीन समय तक ही ठहरता है-रहता है। इसलिये आनुपूर्वीद्रव्यों की स्थिति जघन्य से तीन समय तक की कही गई है। और उत्कृष्ट से जो असंख्यात काल की स्थिति कही गई है उसका तात्पर्य यह है कि द्रव्य असंख्यात काल के बाद आनुपूर्वोरूप परिणाम से परिणमित હવે સૂત્રકાર કાળદ્વારનું કથન કરે છે—
66
'गमववहाराणं " इत्याह-
शब्दार्थ- (णेगमबवहाराणं) नैगमव्यवहार नयस भत ( आणुपुव्वीदव्बाई) समस्त भानुपूर्वी द्रव्ये (काळओ) गजनी अपेक्षा (केव च्चिरं होई १) डेंटला સમય સુધી રહે છે?
उत्तर- (एग दव्वं पच्च) शेठ मानुपूर्वी द्रव्यनी अपेक्षाओ विचार 'श्वामां आवे, तो आनुपूर्वी द्रव्यनी (जहणणे तिष्णि समया ) ४धन्य (सोछामा सोधी) स्थिति भी सभयनी उडी के गाने (उक्कोसेणं असंखेज्जं काल) उत्सृष्ट ( वधारेभां पधारे) स्थिति असण्यात अजनी उही छे. मा કથનને ભાવાથ નીચે પ્રમણે છે-જે આનુપૂર્વી દ્રન્ગેા છે તેમાં ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળુ' દ્રશ્ય સૌથી છેલુ છે. તે ત્રણ સમય સુધી જ રહે છે, તે કારણે આનુપૂર્વી બ્યાની જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સમયની કહી છે. તેની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસખ્યાત કાળની કહેવાનુ કારણ એ છે કે તેદ્રવ્ય અસખ્યાત કાળ બાદ આનપૂવી' રૂપ પરિણામ રૂપે પણિમિત રહેતુ જ નથી,
·
For Private and Personal Use Only
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
. अनुयोगद्वारसूत्रे स्यैवाभावादिति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु आनुपूर्वीद्रव्याणां सर्वाद्धा-सर्वकाल स्थिति भवति । लोकस्य प्रत्येकास्मन् प्रदेशे तेषां सर्वदा सद्भावात् । तथा-नेगम व्यवहारसम्मतानि अनानुद्रिव्याणि काळतः किच्चिरं भवन्ति-तिष्ठन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-एकं द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कण एकं समयं तिष्ठन्ति । रहता ही नहीं है। (नागादब्वाइं पडुच्च सम्बद्धा) तथा नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा को आश्रित करके आनुपूर्वीद्रव्योंकी स्थिति सार्वः कालिक है। क्योंकि लोक के प्रत्येक प्रदेश में नाना आनुपूर्वी द्रव्योंका सद्भाव रहता है (णेगमववहाराणं ) नैगमव्यवहारनयसंमत (अणाणुः पुचीदव्वाई ) समस्त अनानुपूर्वीद्रव्य (कालओ) काल की अपेक्षा से (केवच्चिरं ) कितने समय तक रहते हैं।
उत्तर-(एगं दवं पडुच्च ) एक अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा करके-(अजहन्नमणुकोसेण) अनानुपूर्वीद्रव्य अजघन्य और अनुस्कर्ष से एक समय तक रहते हैं (नाणादव्वाई पडुच्च सव्वदा) और नानाद्रव्यों की अपेक्षा करके समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वकाल रहते है। क्योंकि लोक के हरएक प्रदेश में इनका सद्भाव रहता है। (अवत्तव्यगद -व्वाणं पुच्छा)प्रवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में भी इसी प्रकार से प्रश्न में कि नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्य काल की अपेक्षा से कितने समय तक रहते है ?
(नाणादव्वाइं पडुच्च सव्वद्धा) भने भानुभूती यानी अपेक्षा વિચાર કરવામાં આવે, તે આનુપૂવ ની સ્થિતિ સાર્વકાલિક છે, કારણ કે લેકના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં વિવિધ આનુપૂવ દ્રવ્યને સદા સદ્દભાવ જ રહે છે.
प्रश-(णेगमववहाराणं) नरामव्यवहार नयसमत (अणाणुपुठवीदव्वाई) सभरत मनानु द्रव्य (कालओ) मनी अपेक्षा (केवग्गिरं) । સમય સુધી રહે છે? ____ उत्तर-(एगं दव्वं पडुन्च) मे मनानुषी दयनी अपेक्षा पियार ४२वामां आवे. तो (अजाममणुकोसेणं) बनानु५वी द्र०य भ य भने मनु.
जनी अपेक्षा समय सुधी २३ छ. (नाणा इव्वाइं पहुच्च सम्वद्धा) અને અનેક દ્રવ્યેની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે અનાનુપ દ્રવ્યોની સ્થિતિ સાર્વક લિક છે, કારણ કે લેકના દરેક પ્રદેશમાં તેમને સદભાવ રહે છે.
____ -(अवत्तगइव्वाणं पुन्छा) भवत०५४ याना विषयमा ५g वे। પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે કે નૈગમવહાર નયસંમત અક્તવ્યક દ્રવ્ય કાળની અપેક્ષાએ કેટલા સમય સુધી રહે છે?
For Private and Personal Use Only
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरद्वारनिरूपणम्
५७७ नानाद्रव्याणि तु प्रतीत्य सर्वकालम् , लोकस्य प्रतिप्रदेशे तेषां सद्भावात् । अव. क्तव्यकद्रव्याणि तु एक द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण द्वौ समयौ तिष्ठन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु सर्वकालम् । लोकस्य प्रतिपदेशे तेषां सर्वादावस्थानात् ।। एकसमयस्थितिकस्यैवानानुपूर्वीत्वं, द्विसमयस्थितिकस्यैवावक्तव्यकत्वमभ्युपगम्यतेऽतो नानयोयोर्विषये जघन्योत्कृष्टचिन्तासंभव इति भावः ॥म्० १३३॥
अथान्तरद्वारमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुवीदवाणमंतरं कालओ केवचिरं होई ? एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं दो समया। नाणादवाई पडुच्च गत्थि अंतरं। गमववहाराणं अणाणुपुब्बीदव्वाणमंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं दो समया, उकोसेणं असंखेज्जं कालं जाणादवाइं पडुच्च पत्थि अंतरं। णेगमववहाराणं अवत्तधगदम्वाणं
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया गाणा दव्वाई पडुच्च सव्वद्धा) एक द्रव्य की अपेक्षा करके अजघन्य और अनुः स्कृष्ट से अवक्तव्यक द्रव्य दो समय तक रहते हैं। और नाना द्रव्यों की अपेक्षासे सर्वकाल रहते हैं । क्योंकि लोक के प्रतिप्रदेश में इनका सर्वदा अवस्थान रहता है । एक समय की स्थिति वाला द्रव्य अनानुए. ी है और दो समय की स्थितिवाला द्रव्य अवक्तव्यक है इसलिये इन दोनों के विषय में जघन्य और उत्कृष्ट को लेकर विचार नहीं किया गया है। सू० १३३॥
उत्तर-(एगं व्वं पडुच्च अजहण्णमणुकोसेणं दो समया, णाणा दवाई पडुच्च सव्वद्धा) द्रव्यनी अपेक्षा विया२ ४२११मा मावेत मन्य અને અનુત્કૃષ્ટ કાળની અપેક્ષા એ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય બે સમય સુધી રહે છે. અને જે અનેક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની સ્થિતિ સાર્વકાલિક છે, કારણ કે લેકના દરેક પ્રદેશમાં તેમને સદા સદ્દભાવ રહે છે. એક સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી રૂપ છે અને બે સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અવક્તવ્યક રૂપ છે. તે કારણે તે બનને જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવ્યું નથી, સૂ૧૩૩
भ० ७३
For Private and Personal Use Only
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगद्वारसूत्र पुच्छा, एगं दबं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसणं असंखेज्जं कालं। णाणादवाइं पडुच्च पत्थि अंतरं। भाग भाव अप्पाबहुं चेव जहा खेत्ताणुपुबीए तहा भाणियव्वाइं जाव से तं अणुगमे । से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुवी ॥सू०१३४॥ ___ छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण द्वौ समयौ। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहारयोरनानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियचिरं भवति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन द्वौ समगौ उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहारयोरवक्तव्यकद्रव्याणां पृच्छा। एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येनैकं समयम् , उत्कर्षणासंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । भागोभावोऽल्पबहुत्वं चैव यथा क्षेत्रानुपूर्या तथा भणित. ध्यानि,यावत्सोऽसावनुगमः। सैषा नैगमव्यवहारानौपनिधिकीकालानुपूर्वी सू.१३४।
टीका-'णेगमववहारःणं' इत्यादि--
नैगमव्यवहारसम्मतानामानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-एकं द्रव्यं प्रतीत्यानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतो जघन्ये
अब सूत्रकार अन्तरद्वार की प्ररूपणा करते हैं। "णेगमववहारणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराण) नैगमव्यवहारनयसंमत (आणुपुत्वी दव्याणं) समस्त आनुपूर्वीद्रव्यों का (अंतरं) अंतर (कालओ) कालकी अपेक्षा से (किच्चिरं) कितने समयका होता है ?
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च) एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर (जहन्नेणं) आनुपूर्वीद्रव्यों का अंतर-विरहकोल-जघन्य से (एगं समयं) एक समय का
હવે સૂત્રકાર અતરદ્વારની પ્રરૂપણા કરે છે– "णेगमयबहाराण" त्याह
Avni (णेगमववहाराणं) नरामय१९.२ नयसभात (आणुपुठवी व्याणं) समस्त मानुषी द्र०यानु (अंतरं) त२ (वि२७४१) (कालओ) आनी अपेक्षा (कियचिरं) 20 समयनुं य छ ?
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च) 28 व्या अपेक्षा विया२ ४२वामा मावे a (जहण्णेणं) मानुषी' या 4-4 मत२-अन्य विक्षण-(एगं
For Private and Personal Use Only
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५७९
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरद्वारनिरूपणम् नैकं समयं भवति, उत्कर्षेण तु द्वौ समयौ। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् । अयं भावः-यादिसमयस्थितिकं विवक्षितं किंचिदेकमानुपूर्वीद्रव्यं तं परिणामं परित्यज्य परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा पुनःपूर्वोक्तेनैव परिणामेन ज्यादि समयस्थितिकं जायते तदा जघन्यत एकं समयमन्तरं भवति । यदा तदेव द्रव्यं द्वौ समयौ परिणामान्तरेण स्थित्वा पुनस्तेनैव परिणामेन च्यादि समयस्थितिकं जायते तदा तत्रोत्कर्षतो द्वौ समयो अन्तरं भवति। यदि पुन: परिणामान्तरेण क्षेत्रादिभेदतः समयद्वयात् परतोऽपि तिष्ठेत् तदा तत्राऽप्यानु.
और (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट से (दो समया) दो समय का होता है। (नाणादव्वाई पडुच्च) तथा नाना द्रव्यों की अपेक्षा लेकर इनमें (णस्थि अंतरं) अंतर नहीं है) तात्पर्य इसका इस प्रकार से है कि ध्यादि समय की स्थितिवाला कोई विवक्षित एक आनुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीरूप अपने परिणाम को छोडकर के किसी दूसरे परिणाम से एक समय तक परिणमित रहकर पुनः उसी परिणाम से ज्यादिसमय की स्थितिवाला बन जाता है तो ऐसी स्थिति में जघन्य से वहां अंतर एक समय का होता है। और जिस समय वही द्रव्य दो समय तक परि. णामान्तर से परिणमित बना रहकर फिर बाद में उसी परिणाम से यादिसमय की स्थितिवाला बनता है तो ऐसी दशा में वहां उत्कृष्ट से दो समय का अन्तर माना जाता है। यदि परिणामान्तर से परिणमित बना हुआ वह द्रव्य क्षेत्रादि संबन्ध के भेद से दो समय से अधिक समय) मे समयनु भने (उक्कोसेणं) पधारेमा थारे मत२ (दो समया) से समयनु डाय छे. (णाणादव्वाइं पहच्च) मन द्रव्यानी अपेक्षा वियार ४२वामां आवे तो (णत्थि अंतरं) अत२ (वि२७) नथी मा थननु તાત્પર્ય એ છે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય પિતાના આનુપૂર્વી રૂપ પરિણામને છેડીને કોઈ અન્ય પરિણામ રૂપે એક સમય સુધી પરિણમિત રહીને ફરી ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે પરિમિત થઈ જતું હોય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં ત્યાં જઘન્ય અન્તર (વિરહકાળ) એક સમય ગણાય છે. પણ ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું કેઈ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય પિતાના આનુપૂર્વી રૂપ પરિણામને છેડીને કેઈ અન્ય પરિણામ રૂપે બે સમય સુધી પરિણમિત રહીને ફરી ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે પરિમિત થઈ જતું હોય, તે એવી પરિસ્થિતિમ ત્યાં ઉત્કૃષ્ટ અત્તર બે સમયનું ગણાય છે. જે અન્ય પરિણામ રૂપે પરિણમિત થયેલું તે આનુણ દ્રવ્ય ક્ષેત્રાદિ સંબંધના ભેદથી બે સમય
For Private and Personal Use Only
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५८०
अनुयोगद्वारसूत्रे
-
पूर्वीत्वमनुभवेत्, ततोऽन्तरमेव न स्यात् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्त्यन्तरम्, त्रिसमयस्थितिकद्रव्याणां लोके सर्वदा सद्भावादिति । तथा-नैगमव्यवहारसम्म - तानामनानुपूर्वीद्रव्याणां काळतः कियच्चिरमन्तरं भवति १ इति प्रश्नः । उत्तरयति - एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन द्वौ समयौ अन्तरम्, उत्कर्षतः असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् । अयं भावः एकं द्रव्यं प्रतीत्य एकसमयसमय तक भी रहता है तो उस समय वह उस स्थिति में भी आनुपूर्वी स्वका अनुभवन करता है और इस स्थिति में वहां अन्तर ही नहीं आता है । नाना द्रव्यों की अपेक्षा से जो अन्तर नहीं कहा है उसका कारण यह है कि त्रिसमय की स्थितिवाले कोई न कोई द्रव्य लोक में सर्वदा रहते ही हैं।
प्रश्न - ( णेगमववहाराणं अणाणुपुथ्वीदन्वाणं अंतरं कालओ के बच्चिरं होई) नैगमव्यवहारनयसंपत अनानुपूर्वीद्रव्यों का अन्तर का - ल की अपेक्षा कितनेक समय का होता है ?
उत्तर- ( एगं दव्त्र पडुच्च ) एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर (जहम्ने णं) जघन्य से (दों समया) दो समय का और (उक्को सेणं) उत्कृष्ट से (असंखेज्जं कालं ) असंख्यातकाल का अन्तर होता है । (णाणादव्वाइं पहुंच्च णत्थि अंतरं) तथा नानाद्रव्यों की अपेक्षा करके अन्तर नहीं
કરતાં અધિક સમય સુધી પશુ રહે તે તે પરિસ્થિતિમાં પણ ત્યારે તે આનુપૂર્વીના અનુભવ કરે છે, અને આ સ્થિતિમાં ત્યાં અંતર જ સભવી શકતુ નથી વિવિધ દ્રજ્યેની અપેક્ષાએ અંતર (વિરહકાળ)ના અભાવ જ કહેવાનું કારણ એ છે કે ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં કાઈને કંઇ દ્રવ્યે લેકમાં સા માદ જ રહે છે.
प्रश्न-1
1- ( गमववहाराणं अणाणुपुत्र्वी दव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई?) નગમવ્યવહાર નયસ'મત અનાનુપૂર્વી' દ્રવ્યેનું અંતર કાળની અપેક્ષાએ કેટલા સમયનું હાય છે ?
उत्तर- ( एगं दव्वं पडुच्च) : अनानुपूर्वी द्रव्यनी अपेक्षाओ विचार ४२वामां आवे तो ( जहन्त्रेण दो समया ) ४धन्य अन्तर (सोछाभां छो विराज) में समयनुं (उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं) उत्सृष्ट अंतर ( वधारेभां बधारे विरहुआ) असण्यात अजनुं होय छे. ( णाणादव्वाई पदुच्च णत्थि અંતર) અનેક ડૂબ્યાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે 'તર (વિરહકાળ) હાતુ નથી આ કથનને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે—એક સમયની સ્થિતિ
For Private and Personal Use Only
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरद्वारनिरूपणम् स्थितिकान्यनामुपूर्वीद्रव्याणि यदा परिणामान्तरेण समयद्वयमनुभूय पुनः पूर्वावं स्थितिं लभेरन् तदा जघन्यतः समयद्वयमन्तरं लभ्यते । यदि तु परिणामान्तरेण एकमेव समयं तिष्ठेयुस्तदा अन्तरमेव न भवति, तत्राप्यनानुपूर्वीत्वस्यैव सद्भावात् । अथ समयद्वयात्परतो यदि परिणामान्तरेण तिष्ठेयुस्तदा जघन्यत्वमेव न स्यात् । यदा तु तान्येव द्रव्याणि असंख्येयं कालं परिणामान्तरेण स्थित्वा पुनरेकस्थितिकं परिणामं लभेरन्, तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयं कालमान्तरं भवति । ननु अन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसम्बन्धेऽनन्तमपि कालम् अन्तरं भवितुमर्हति, ततः कथमुक्तम् ‘उक्कोसेणं होता है। इसका भाव यह है कि एक समय की स्थितिवाले अनानु: पूर्वीद्रव्य जिस समय दूसरे परिणाम से दो समय तक परिणमित बने रहते हैं और बादमें पुनः उसी अपनी पूर्व स्थिति में आजाते हैं तब वहां जघन्य से दो समय का अन्तर माना जाता है। और यदि वे परि. णामान्तर से परिणमित बने हुए एक समय तक ही रहते हैं तो ऐसी दशा में वहां अन्तर ही नहीं होता है क्यों कि उसस्थिति में भी वहां अनानुपूर्वीत्व का सद्भाव है । और यदि वे दो समय के बाद तक भी परिणामान्तर से परिणमित बने रहते हैं तो वहां जघन्यता नहीं मानी जाती है। और जब वे ही द्रव्य असंख्यात काल तक परिणामान्तर से परिणमित रहकर पुनः एक स्थिति वाले अपने परिणाम को पाते हैंतब उस्कृष्ट से असंख्यात काल अन्तर होता है।વાળું કોઈ એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય જ્યારે અન્ય પરિણામ રૂપે પરિમિત થઈને બે સમય સુધી તે પરિણામ રૂપે પરિમિત થયેલું રહીને ત્યાર બાદ પિતાની એજ પૂર્વ સ્થિતિમાં આવી જાય, તે એવી સ્થિતિમાં ત્યાં જઘન્ય. વિરહકાળ બે સમય ગણાય છે. અને જે તે એક સમય સુધી જ અન્યા પરિણામ રૂપે પરિમિત થયેલું રહે છે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં ત્યાં અંતર જ હેતું નથી, કારણ કે એવી દશામાં તે દ્રવ્યમાં અનાનુપૂર્વીત્વને સદૂભાવ જ રહે છે. અને બે સમય બાદ પણ જે અન્ય પરિણામ રૂપે પરિમિત થયેલું જ રહે, તે ત્યાં જઘન્યતા માનવામાં આવતી નથી પરંતુ જે તે દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી અન્ય પરિણામ રૂપે પરિમિત થયેલું રહીને, ત્યાર બાદ એક સમયની સ્થિતિવાળા પિતાના પૂર્વ પરિણામને પ્રાપ્ત કરે તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે અનાનુપૂવ દ્રવ્યને ઉત્કૃષ્ટ વિરહુકાળ અસંખ્યાતકાળને ગણાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५८६
अनुयोगद्वारसूत्र असंखेज्ज कालं' इति ? इति चेदाइ-कालानुपूर्वीप्रक्रमात् कालस्यैवात्र प्राधान्यं विवक्षितम् , यदि चात्र अन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसंबन्धादन्तरकालबाहुल्यं क्रियते, तदा तद् द्वारेणैवान्तरकालस्य बहुत्वं स्यात् , तदा द्रव्यक्षेत्रयोरेव प्राधान्यं स्यात, न तु कालस्य । तस्मादेकस्मिन्नेव परिणामन्तरे यावान् कश्चिदुत्कृष्टः कालो लभ्यते स एवान्तरे चिन्त्यते, स चासंख्येय एव । ततः परमेकेन परिणामेन वस्तुनोsवस्थानस्यैव निषिद्धत्वात् । इदं च सूत्रस्य विवक्षावैविचिच्यात् सर्व पूर्वमुत्तरत्र
शंका-अन्य२ द्रव्य और क्षेत्र के साथ संबन्ध होने पर अनन्तकाल का भी अन्तर हो सकता है, तो फिर सूत्रकार ने “ उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं" ऐसा क्यों कहा?
उत्तर-कालानुपूर्वी के प्रकरण से काल में ही यहां प्रधानता वि. वक्षित हुई है, यदि यहां पर अन्य २ द्रव्य और क्षेत्र के संबन्ध से अं. तरकाल में बाहुल्य किया जाता है तो यह बाहुल्य उसमें द्रव्य और क्षेत्र के द्वारा ही आया माना जावेगा तयतो द्रव्य और क्षेत्र की ही प्र. धानता हो जावेगी काल की नहीं । इसलिये एक ही परिणोमान्तर में जितना कुछ उत्कृष्ट काल लभ्य होता है वही अन्तर में विचारा जाता है और वह इस प्रकार से असंख्यात ही लभ्य होता है । इसके बाद व. स्तु का एक परिणाम रूप से अवस्थित रहना ही निषिद्ध है। यह सब कथन सूत्र की विवक्षा की विचित्रता से आगे पीछे आगम में विरोध न
શંકા-જુદાં જુદાં દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રની સાથે સંબંધ થતું હોય તે અનં. તકાળનું પણ અંતર સંભવી શકે છે. છતાં સૂત્રકારે ઉત્કૃષ્ટ અંતર અસંખ્યાતકાળનું શા કારણે કહ્યું છે?
ઉત્તર-કાલાનુપૂવનું પ્રકરણ ચાલતુ હોવાને કારણે અહીં કાળમાં જ પ્રધાનતા માનીને કથન કરવામાં આવ્યું છે. જે અહીં જુદાં જુદાં દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રના સંબંધને લીધે અંતરકાળમાં બાહુલ્ય માનવામાં આવે, તે તે બાહુલ્ય તેમાં દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રના દ્વારે જ આવેલું માનવું પડશે જે એ પ્રમાણે કર. વામાં આવે તે કાળની પ્રધાનતાને બદલે દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રની જ પ્રધાનતા માનવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે તેથી એક જ પરિણામાન્તરમાં જેટલું ઉત્નટકાળ થાય છે, તેને જ ઉત્કૃષ્ટ અંતર રૂપ માનવામાં આવે છે, અને તે ઉત્કટ અંતર ઉપર બતાવ્યા પ્રમાણે અસંખ્યાતકાળનું જ હોય છે. ત્યાર બાદ (અસંખ્યાત કાળ બાદ) વસ્તુ એક પરિણામ રૂપે અવસ્થિત મોજૂદ) રહેવાને જ નિષેધ છે. આ સમસ્ત કથન, સૂત્રની વિવક્ષાની વિચિત્રતાને લીધે, એવી રીતે અહી લગાડવું જોઈએ કે આગમના આગળપાછળના કથ
For Private and Personal Use Only
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरद्वारनिरूपणम् चागमाविरोधेन भावनीयम् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु नास्त्यन्तरम्, लोकस्य पतिपदेशे सर्वदा तस्य सद्भावादिति । तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानामवक्तव्यकद्रयाणामपि अन्तरविषये पृच्छा-प्रश्नोऽनानुपूर्वीवद् बोध्यः। उत्तरस्तु-एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येने समयमन्तरम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरमिति । अयं भावः-द्विसमयस्थितिकं किंचिदवक्तव्यकद्रव्य परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा ततः पुनर्बिसमयस्थितिकत्वमेव यदा लभते तदा आवे इस प्रकार लगा लेना चाहिये । नानाद्रव्यों की अपेक्षा करके जो अन्तर नहीं कहा गया है उसका कारण यह है कि लोक के प्रति प्रदेश में सर्वदा उसका सद्भाव रहा करता है । (णेगमववहाराणं अवत्त. स्वगदव्याणं पुच्छा) नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्यों के अन्तर के विषय में प्रश्न-अनानुपूर्वीद्रव्य की तरह ही जानना चाहिये। ___ उत्तर-उसका इस प्रकार से हैं-(एगं दव्वं पडुच्च) एक अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा करके (जहण्णणं) जघन्य से अन्तर (एगं समय) एक समय का है और (उकोसेणं) उत्कृष्ट से अन्तर (असंखेज्ज कालं) असंख्यात काल का है। तथा (णाणादव्वाइं पडुच्च णस्थि अंतरं) नाना द्रव्यों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि दो समय की स्थितिघाला कोई अवक्तव्यक द्रव्य परिणामान्तर से परिનમાં કોઈ વિશેષ સંભવે નહીં અનેક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અંતરવિરહકાળ- અભાવ કહેવાનું કારણ એ છે કે લેકના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં તેને સદા સદૂભાવ જ રહ્યા કરે છે.
प्रश्र-(णेगमववहाराणं अवत्तवगदव्वाणं पुच्छा) नामव्यवहा२ नयस मत અવક્તવ્યક દ્રવ્યોના અંતરના વિષયમાં પણ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના જે જ પ્રશ્ન સમજ.
उत्तर-(एगं दर्व पडुच्च) मे गवतव्य द्र०यनी अपेक्षा पियार ४२वामा माव, त (जहण्णेणं एगं समयं) धन्यनी अपेक्षाये मे समय, मन (उकोसेणं असंखेज्जं कालं) 6ष्टनी अपेक्षा असण्यात नुमत२ હોય છે. એટલે કે ઓછામાં ઓછા એક સમયને અને વધારેમાં વધારે असभ्यात मनी पि२९ डाय छे. (णाणादवाइं पडुच्च णस्थि अंतरं) વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે વિરહકાળ રૂપ અંતર અભાવ હોય છે.
હવે આ કથનને ભાવાર્થ બતાવવામાં આવે છે, ધારો કે એ સમયની સ્થિતિવાળું કઈ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પિતાના પરિણામને ત્યાગ કરીને કે
For Private and Personal Use Only
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगद्वारस्प जघन्यत एक समयमन्तरम् । यदा च परिणामान्तरेणासंख्येयं कालं स्थित्वा ततः पुनद्विसमयस्थितिकत्वं लभते तदा उत्कर्षण असंख्येयं कालमन्तरं भवति । अनानुपूर्त्या यथाऽऽक्षेपपरिहारौ तथाऽत्रापि बोध्यौ । तथा-नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् , लोके सर्वदा तेषां सद्भावात् । इत्थमन्तरद्वारमुक्त्वा सम्प्रतिभागद्वारं भावद्वारमल्पबहुत्वद्वारं च वक्तुकाम आह-भाग-भाव अल्पाबहुचेव' इत्यादि । अयं भावः-अत्रापि भागद्वार क्षेत्रानुपूर्वीवद् बोध्यम् । क्षेत्रानुपर्यों यथाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्यापेक्षयाऽसंख्येय गैरधिकानि, शेषद्रव्याणि तदपेक्षयाऽसंख्पेयभागन्यूनानि तथाऽत्रापि बोध्यम् । इदमत्र बोध्यम्-अनानुपूर्वीद्रव्यं णमित हुआ एक समय तक रहता है और बाद में फिर वह दो समय की अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त कर लेता है तब इस स्थिति में विरहकाल जघन्यरूप से एक समय का माना जाता है और जब दो समय की स्थितिवाला कोई अवक्तव्यक द्रव्य परिणामान्तर से परिणमित असं. ख्यात काल तक बना रहकर फिर दो समय की अपनी पूर्वस्थिति में आ जाता है तब इस दशा में वहां उसका अन्तर असंख्यात काल का माना जाता है। अनानुपूर्वी में जिस प्रकार से आक्षेप और उसका परिहार किया गया है उसी प्रकार से यहीं पर भी अक्षेप और उसका परिहार उसी पद्धति से किया गया जानना चाहिये। तथा नाना अव. तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा जो अन्तर नहीं कहा गया है उसका कारण यह है कि लोक में सर्वदा अवक्तव्यक द्रव्यों का सद्भाव रहता है। (भाग, भाव, अप्पाबहु चेव जहा खेत्ताणुपुत्वीए तहा भाणिपब्वाई અન્ય પરિણામ રૂપે પરિણમિત થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ તે એક સમય સુધી એજ દશામાં રહીને ફરી બે સમયની પિતાની પૂર્વ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં જઘન્ય વિરહકાળ એક સમયને ગણાય છે. પરન્ત કઈ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય અને પરિણામ રૂપે પરિણમિત થઈને અસંખ્યાત કાળ સુધી તે અન્ય પરિણામ રૂપે જ રહીને ત્યાર બાદ બે સમયની પિતાની પૂર્વ સ્થિતિમાં આવી જાય છે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યન ઉત્કૃષ્ટ અંતર અસંખ્યાત કાળનું માનવામાં આવે છે. અનાનપ્રવીમાં જે પ્રકારની શંકા ઉઠાવવામાં આવી છે તે પ્રકારની શંકા અહી પણ ઉઠાવી શકાય છે. આ શંકાનું ત્યાં જે પ્રકારે નિવારણ કરવામાં આવ્યું છે એજ પ્રકારે અહીં પણ નિવારણ કરી શકાય છે,
| વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અંતરને અભાવ કહેવાનું કારણ એ છે કે Avi अपत०५ याना सहा सहमा २३ छे. (भाग, भाव, अप्पाव
For Private and Personal Use Only
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरारनिरूपणम् हि एकसमयस्थितिलक्षणमेकं स्थानं लभते, अवक्तव्यकद्रव्यं तु द्विसमयस्थितिलक्ष णमेकं स्थानं लभते । आनुपूर्वीद्रव्यं तु त्रिसमयचतुःसमयपश्चसमयस्थितिलक्षणानि स्थानान्यारभ्यासंख्येयस्थितिलक्षणपर्यन्तेषु स्थानेषु एकैकं स्थानं लभते । इत्थं पानुपूर्वीद्रव्यं शेषद्रव्यापेक्षयाऽसंख्येयमागाधिकम् । शेषद्रव्याणि तदपेक्षयाऽसजाव से तं अणुगमे) भागवार, भावद्वार और अल्पषत्वद्वार क्षेत्रानु: पूर्वी की तरह यहां पर भी जानना चाहिये। अर्थात् क्षेत्रानुपूर्वी में जैसे समस्त आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रयों की अपेक्षा असंख्यात भागों से अधिक-असंख्यातगुणित-माने गये हैं और शेष द्रव्य-अनानुपूर्वी एवं अवक्तव्यक द्रव्य-इन की अपेक्षा असंख्यातभागन्यून माने हैं उसी प्रकार यहां पर भी भागधार के विषय में कथन जानना चाहिये। यहां ऐसा जानना-अनानुपूर्वी द्रव्य एक समय की स्थितिरूप एक स्थान को प्राप्त करता है और जो अवक्तव्यक द्रव्य है वह बिसमय की स्थिति रुप एक स्थान को पाता है, तथा जो आनुपूर्वी द्रव्य है, वह तीन समय, चार समय पांच समय की स्थितिरूप स्थानों से लेकर असंख्यात समय तक की स्थितिरूप स्थानों में एक एक स्थान को प्राप्त करता है। इस प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक देव जहा खेत्ताणुपुवीए तहा भाणियब्वाइं जाव से तं अणुगमे) यार, ભાવઢાર અને અ૫બહત્વદ્વા૨નું કથન ક્ષેત્રાનુપૂર્વીની જેમ જ અહીં પણ સમજવું જોઈએ એટલે કે ક્ષેત્રાનુકૂવીમાં જેવી રીતે સમત આનુપવી દ્રવ્યને બાકીનાં દ્રવ્યો કરતાં અસંખ્યાતગણું કહેવામાં આવ્યું છે, અને બાકીનાં કને (અનાનુપવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોને) આપવી એ કરતાં અસંખ્યાત ભાગપ્રમાણું કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહીં પણ ભાગદ્વારના વિષયમાં કથન ગ્રહણ થવું જોઈએ આ કથનનું વધુ સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે સમજવું. - અનાનુપૂર્વ દ્રવ્ય એક સમયની સ્થિતિ રૂપ એક પાનને પ્રાપ્ત કરે છે, અને જે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય છે તે બે સમયની સ્થિતિ રૂપ એક સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે, તથા જે આનુપૂવી દ્રવ્ય છે તે ત્રણ, ચાર, પાંચ આદિ સમયની સ્થિતિ રૂપ સ્થાનોથી લઈને અસંખ્યાત સમય પર્યન્તની સ્થિતિ રૂપ સ્થાનેમાંના એક એક સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. આ પ્રકાર આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાદીનાં બે દ્ર કરતાં અસંખ્યાતગાશું અધિક સંભવી શકે છે અને બાકીના __अ० ७४
For Private and Personal Use Only
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
येयभागःयूनानीति । तथा-माद्वारे आनुपूर्व्यना तुपूर्व्यवक्तव्यकानां त्रयाणामपि द्रव्याणां सादिपारिणामिकभाववर्त्तित्वं पूर्ववद् बोध्यम् । तथा एषां प्रयाणां द्रव्याणा मल्पबहुत्वद्वारमेवं बोध्यम्-अवक्तव्य कद्रव्याणि हि सर्वस्तोकानि तेषां स्वभावत एव स्तोकस्यात् । अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु ततो विशेषाधिकानि अनातुपूर्वी द्रव्याणामवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया विशेषाधिकत्वात् । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु उस्कोभयद्रव्यापेक्षया असंख्येयभागाधिकानि । असंख्येयभागाधिकत्वं त्वेषाम् उपरि - भागद्वारे निर्दिष्टं तथैवात्राऽपि बोध्यम् । भागादि विषये क्षेत्रानुपूर्वीत् सर्व बोध्यमिति । इत्थं नैगमव्यवहारसम्मताऽनौपनिधिकी काळानुपूर्वीत् उपसंहृतेति लभ्य होता है। और शेष दो द्रव्य उसकी अपेक्षा असंख्यात भागव्यून लभ्य होते हैं। भावद्वार में आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक ये तीनों भी द्रव्य पूर्व के जैसे सादि पारिणामिक भाववर्ती हैं। तथाइन तीनों द्रव्यों का अल्पबहुत्वद्वार इस प्रकार से जानना चाहियेसमस्त अवक्तव्यक द्रव्य स्वभाव से ही कम होने से शेष दो द्रव्यों की अपेक्षा से कम हैं। अनानुपूर्वी द्रश्य अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से कुछ विशेष अधिक है तथा जो आनुपूर्वी द्रव्य हैं वे इन दोनों द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणा अधिक है। असंख्यात भागाविकता जिस प्रकार से ऊपर भागद्वार में प्रकट की गई है उसी प्रकार से यहां पर भी जानना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि इन भागादिद्वारों के विषय में सब कथन क्षेत्रानुपूर्थी की तरह ही जानना चाहिये। इस प्रकार (जाव से तं अ.) यावत् यह अनुगम का स्वरूप એ પ્રકારનાં દ્રવ્યે આનુપૂર્વી દ્રબ્યા કરતાં અસખ્યાત ભાગપ્રમાણે ન્યૂન
होराडे छे.
ભાવદ્વારમાં આનુપૂર્વી અને અવક્તવ્ય, આ ત્રણે બ્યાને માગળ કહ્યા પ્રમાણે સાતિપારિણામિક ભાવતી' કહ્યાં છે.
આ ત્રણેના અપમહુવદ્વારનુ` કથન આ પ્રમાણે સમજવુ-મસ્ત અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સ્વાભાવિક રીતે જ આપ્યું હોવાને કારણે બાકીનાં બન્ને દ્રવ્ય કરતાં ઓછું છે. અવક્તવ્યક દ્રવ્યા કરતા અનાનુપૂર્વી દ્રબ્યા વિશેષાધિક છે અનાનુપૂર્વીયેા અને વક્તવ્ય દ્રવ્યે કરતાં આનુપૂવી' દ્રષ્ય અસ્રખ્યાત ભાગપ્રમાણ અધિકતાનું સ્પષ્ટીક્રુરજી ઉપર ભાગહામમાં જે પ્રમાણે કરવામાં આવ્યુ છે તે પ્રમાણે અહી' પણ સમજી દેવું આ સમસ્ત ગ્રંથનનું તાત્પય એ છે કે આ ભાગાદિ દ્વારાના વિષયમાં સમસ્ત કથન ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના नेवुन समभवु (जाव से तं अजुंगमे) આ પ્રકારનું અનુગમન' સ્વરૂપ
८८
For Private and Personal Use Only
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३५ अनौपनिधिकीकालानुपूर्वी निरूपणम् ५८७ सूचयितुमाह से तं' इत्यादि । सैषा नैगमव्यवहारसम्मता अनौपनिचिकी कालानुपूर्वी || सू० १३४॥
"
अथ संग्रहनयम तेन अनौपनिधिकीं कालानुपूर्वी माहमूलम् - से किं तं संगहस्स अणोरणिहिया कालाणुपुन्नी ? संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - अत्थपयपरूवणया, भंगसमुक्कित्तणया, भंगोवदंसणया, समोयारे, अणुगमे ॥ सू० १३५॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
छाया-अथ का सा संग्रहस्य अनौपनिधिकी काळानुपूर्वी ? संग्रहस्य अनौ है। इसको समाप्त होते ही नैगमव्यवहारनयसंगत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वीका यह प्रकरण समाप्त हो रहा है इस बात को सूचित करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि ( से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया काला goat ) इस प्रकार से यह नैगमव्यवहारनयसंमत नौनिधिकी कालानुपूर्वी है । सू० १३४॥
अब सूत्रकार संग्रहनय के मन्तव्यानुसार अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी का कथन करते हैं - "से किं तं संगहस्स" इत्यादि ।
शब्दार्थ -- (से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुच्ची ) हे भदंत | संग्रहनयमान्य अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ?
Az apang
उत्तर ( संगहस्स अणोवणिहिया) संग्रहनय मान्य अनौपनिघिकी (कालाणुपु०वी) कालानुपूर्वी (पंचविहा पण्णत्ता) पांच प्रकार की છે. ” આ કથન પન્તનુ ક્ષેત્રાનુપૂર્વી ના પ્રકરણમાંનુંસમત કયન અહી ગ્રહણુ કરવુ જોઈએ તેની સમાપ્તિ થતાં જ નગમવ્યવહાર નયસ'મત અનૌપનિધિકી કાલાનુપૂર્વીનું આ પ્રકરણ સમાપ્ત થઈ રહ્યું છે, એ વાતને સૂચિત ४२वाने भाटे सूत्रा२ मा प्रभा डे - ( से तं णेगमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुब्वी ) "नेगरव्यवहार नयसभित मनोपनिषिडी असानुपूर्वीनु ઉપર મતાવ્યા પ્રમાણેનુ સ્વરૂપ છે. ’ પ્રસ્॰૧૩૪ા
હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયના મતવ્ય અનુસાર અનૌપનિષિકી કાલાનુપૂ वनु उथन पुरे -" से किं तं संगहस्स " इत्यादि
शब्दार्थ - (से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुष्षी १) हे भगवन् ! # અહનયમાન્ય અનૌપનિધિકી કાલાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવુ' છે ?
१- (संगहस्स अणोबणिहिया कालाणुपुब्वी पंचविद्या पण्णत्ता) सभनय
For Private and Personal Use Only
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५४
अनुयोगद्वारसून पनिधिकी कालानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तपथा-अर्थपदमरूपणता, भासमुत्कोतनता, मङ्गोपदशेनता, समवतार: अनुगमः ॥९०१२५॥
टीका-से कि तं' इत्यादि । व्याख्यास्य पूर्ववद् बोध्या । मू० १३५॥ * अर्थपदमरूपणताहीनां निरूपणायाह___ मूलम्-से किं तं संगहस्स अस्थपयपवणया ? एयाई पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुठवीए संगहस्त तहा कालाणुपुबीए वि भाणियवाणि, णवरं टिई अभिलावो, जाव से तं अणुगमे से तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपची ॥सू०१३६॥
छाया-अथ का सा संग्रहस्य अर्थपदमरूपणता ? एतानि पश्चापि द्वाराणि यथा क्षेत्रानुपूया संग्रहस्य तथा कालानुपूर्व्यामपि भणि व्यानि, नवरं स्थित्यमिः लापर, यावत् स एषोऽनुगमः। सैषा संग्रहस्य अनोपनिधिकी कालानुपूर्वी ॥५.१३६॥
टीका-"से कि तं" इत्यादि ।
अथ का सा संग्रहसम्मताऽर्थपदमरूपणता ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-एतानि= अर्थप्ररूपणतादीनि पश्चापि द्वाराणि संग्रहमते क्षेत्रानुपूामेकोत्तरशततमे सूत्रे कही गई है (तं जहा) जैसे-'अट्ठस्यपरूवणया भंगसमुक्त्तिणया, भंगोवदसणया 'समोयारे' अणुगमे) अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता समवतार और अनुगम इस सूत्र की व्याख्या पहिले की गई व्याख्या के अनुसार ही जाननी चाहिये॥०१३५॥
"से किं तं संगहस्स" इत्यादि।
शब्दार्थ-- (से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ) हे भदंत ! सं. महनयमान्य अर्थपद प्ररूपणता क्या है ? (एयाइं पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुवीए संगहस्स तहो कालाणुकुठवीए वि भाणियव्याणि) समत भनीपनिधिही मानुषी पांय ५४२नी ही छ. "तं जहा" a पांय । नीय प्रमाणे छ-(अदुपयपहवणया भंगसमुक्कित्तगया, भंगोवदंतणया, समोयारे, अणुगमे) (१) म ५४ प्र३५श्यता, (२) समुहीत नता, (3) Atપદર્શનતા, (૪) સમાવતાર અને (૫) અનુગમ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવી પડ૧૩૫ ___“से किं तं संगहस्स" त्याह
सहाय-(से किं तं संगहस्स अदुपयपरूवणया ?) ३ सन् ! ' હનયસંમત અર્થપદ પ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપે કેવું છે?
उत्तर-(एयाइं पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुव्वीर संगहस्स तहा कालाणुपु. बीए वि भाणियवाणि) सनयस मत क्षेत्रानुभूतीमा म पांच बारात
For Private and Personal Use Only
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३६ अर्थपदप्ररूपणादीनां निरूपणम् . ५८९ । पथा सन्ति तथा कालानुपामपि संग्रहमते भणितव्यानि । नवरं-विशेषस्त्वयमेवयदत्र स्थित्यभिलाप कर्तव्यः। अयं भाव:-क्षेत्रानुपूर्त्या "तिप्पएसोगाढे आणु. पुत्री, चउप्पएसोगाढे आणुपुरो” इत्याद्युक्तम् , एवमिह-" तिसमयहिए आणुपुब्बी, चउसमयटिए आणुपुब्बी" इत्यादि वक्तव्यमिति । क्षेत्रानुपूर्वोवत् कियदबधिवक्तव्यम् ? इत्याह-'जाव से तं' इति । यावत्स एषोऽनुगम इति पर्यन्तं क्षेत्रानुपूविदेव वक्तव्यमिति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-' से तं संगहस्स' इत्यादि । सैषा संग्रहनयसम्मता अनौपनिधिको कालानुपूर्वीति ।।५० १३६।। ___उत्तर--संग्रहनय मान्य इन पांचों द्वारों का कथन जिस प्रकार का क्षेत्रानुपूर्थी में किया गया है उसी प्रकार का कथन संग्रहनयसंमत इन पांचों द्वारों को इस कालानुपूर्वी में भी जानना चाहिये । (णवरं ठिई अभिलायो जाव से तं अणुगमे) परन्तु विशेषता केवल इतनी है कि क्षेत्रानुपूर्वी में "त्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी चतुष्प्रदेशावगाढ आनुपूर्वी" इस प्रकार से भंगों का आलाप करने में आया है तब यहां पर "ति समयट्टिाए आणुपुठवी चउसमयटिइए आणुपुव्वी" इत्यादि प्रकार से भंगों का आलाप करना चाहिये । क्षेत्रानुपूर्वी की तरह इन आनुपूर्वी
आदि भंगों का संग्रह कहां तक करना चाहिये इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि "से तं अणुगमे" इस प्रकार यह क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी अनु. गम का स्वरूप है " यहां तक संग्रह करना चाहिये ।(सेतं संगहस्स अ. गोवणिहिया कालानुपुत्वी ) इस प्रकार यह संग्रहनय संमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी है। જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન સંગ્રહનયસંમત આ કાલાनुभूती ना पाये दाना विषयमा ५ सभ७ पु. (णवरं ठिई अभिलावो जाव से तं अणुगमे) ५२-तु क्षेत्रानुषी ना ४५न ७२di मा थनमा नीय પ્રમાણે વિશિષ્ટતા રહેલી છે-ક્ષેત્રાનુપૂવીના પ્રકરણમાં જ ત્રિપ્રદેશાવગાઢ આનુપૂવ, ચતુપ્રદેશાવગાઢ આનુપૂર્વી, '( આ પ્રકારે ભંગોનું કથન કરવામાં माय छ, त्यारे सपनयसभत सानु पूचीमा “ तिसमयद्विइए आणुपुव्वी, उसमयदिइए आणुपुवी, " त्याह रे मनोनु थन ४२७ न्ने क्षेत्रानुभूती ना २ त ५४ ४थन, “से तं अणुगमे " " | मानु अनुगमनु २१३५ छे. या सूत्रा ५ ४२ न . (से तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुव्वी) मा १२नु सनयसभत भनीपनिविही કાલાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र अथ प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी मरूपयितुमाह
भूगम्-से किं तं ओवणिहिया कालाणुपुरी ? ओवणिहिया कालाणुपुबी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुषुवी पच्छाणुपुष्पी अणाणुपुवी। से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुत्वी समए, आवलिया, आण, पाणू, थोवे, लवे, मुहुत्ते, अहोरत्ते, पक्खे, मासे, उऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहस्से, वाससय. सहस्से, पुव्वंगे, पुढचे, तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अववे, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, णलिणंगे, गलिणे, अत्थनिऊरंगे, अत्थनिअरे, अउअंगे, अउए, नउअंगे, नउए, पउअंगे, पउए, चूलिअंगे, चूलिया, सीसपहेलि. अंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, ओस्सप्पिणी,
भावार्थ-- सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा संग्रहनय मान्य अनौपनिघिकी कालानुपूर्वी के अर्थपप्ररूपणता आदि पांच द्वारों के स्वरूप कथन के विषय में यह समझाया है कि इन पांच द्वारों के स्वरूप का कथन क्षेत्रानुपूर्वी में संग्रहनय की मान्यता के प्रकरण में जिस प्रकार से किया गया है वैसा ही स्वरूप कथन इनका इस कालानुपूर्वी में इस प्रकरण में जानना चाहिये। परन्तु उस प्रकरण में प्रदेशों को लेकर आनुपूर्वी आदि भंगों का स्वरूप कथन करने में आया है-तब कि यहां पर समयों को लेकर आनुपूर्वी आदि भंगों का स्वरूप दिखाया गया है। सू० १३६॥
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં સંગ્રહનયસંમત અનૌપનિધિકી કાલાન વિના અર્થ પદ પ્રરૂપણુતા આદિ પાંચ દ્વાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છેસંગ્રહુનયસંમત ક્ષેત્રાનુપૂવીના પ્રકરણમાં આ પાંચ દ્વારે વિષે જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવાનું કહ્યું છે. તે પ્રકરણના કથન કરતાં આ પ્રકરણના કથનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે તે પ્રકરણમાં પ્રદેશોની અપેક્ષા એ ભંગોનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, પરંતુ અહીં સમયેની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી આદિ દ્વાન ભગેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું. જાસૂ૦૧૩૬
For Private and Personal Use Only
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३७ औपनिधिकीकालानुपूर्षीनिरूपणम् ५९१ उस्सप्पिणी, पोग्गलपरियट्टे, अईयद्धा, अणागयद्धा, सव्वद्धा। से किं तं पच्छाणुपुबी? पच्छाणुपुवी-सव्वद्धा अणागयद्धा जाव समए । से तं पच्छाणुपुठनी। से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुवी-एयाए व एगाइयाए इगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो। सेतं अणाणुपुठवी । अहवा ओवणिहिया कालाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुन्वाणु. पुवी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुवी। से किं तं पुव्वाणुपुवी ? पुव्वाणुपुठवी-एगसमयट्टिइए, दुसमयट्टिइए, तिसमयट्रिइए जाव दससमयटिइए संखिजसमयटिइए असंखिजसमयट्ठिइए से तं पुठवाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुत्वी ? पच्छाणुपुव्वीअसंखिजसमयदिइए जाव एगसमयट्टिइए। से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुची? अणाणुपुवी-एयाए चैव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिजगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुवी। से तं ओवणिहिया कालाणुपुत्वी। से तं कालाणुपुष्टी सू०१३७॥ . छाया-अथ का सा औपनिधिकी कालानुपूर्वी ? औपनिधिकी कालानुपूर्वी त्रिविधा प्रसप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पचानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-समयः आवलिका मानः प्राणः स्तोकः लचः महतः अहोरात्र पक्ष: मासः ऋतुः अयनं संवत्सरः युगं वर्षशतं वर्षसहस्रं वर्षशतसहस्रं पूर्वाय पूर्व अटिताङ्ग त्रुटितम् अटटाइम् अटटम् अववाङ्गम् अववम् हुहुकाऊं हुहुकम् उत्पलाङ्गम् उत्पलं पपाझं पमं, नलिना नलिनम् अर्थनिपूरानम् अर्थनिपूरम् अयुताङ्गम् अयुतं नयुतानं नयुतं प्रयुतानं प्रयुतं चूलिका चूलिका शीर्षप्रहेलिकाहं शीर्षप्रहेलिका पल्योपम सागरोपमम् अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पुद्गलपरिवर्तः अतीताद्धा अनागतादा सर्वाद्धा। सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पत्रानुपूर्वी ? पक्षानुपूर्वी-सादा अनागताद्धा
For Private and Personal Use Only
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे यावत् समयः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अमानुपूर्वी-एतस्या. मेव एकादिकायामे कोतरिकायामनन्तगच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासो द्विरपोनः । सैषाऽनानुपूर्वी। अथवा-औपनिधिकी कालानुपूर्ती त्रिविधा पज्ञमा, तयथा-पूर्वानुपूर्ती, पश्चानुपूर्ती अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वीएकसमयस्थितिको द्विसमपस्थितिका त्रिसमयस्थितिको यावद् दशसमयस्थितिका संख्येयसमयस्थितिकः असंख्येयतस्थितिकः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्ती-असंख्येयसमयस्थितिको यावत् एकसमयस्थितिकः । सैना पश्चानुपूर्ण । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायामसंख्येयगच्छगतायो श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा मनानुपूर्वी । सैषा औषनिधिकी कालानुपूर्वी। सैपा कालानुपूर्वी ॥० १३७॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ का सा औपनिधिकी कालानुपूर्वी ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-औपनिधिकी काळानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूय॑नानुपूर्वीभेदेन त्रिविधा मनमा। तत्र पूर्वानपूर्वी-समय: वक्ष्यमाणस्वरूपः सर्वमक्ष्मः कालांशः एष हि सर्वप्रमाणानां प्रभव
अब सूत्रकार औपनिधिकी कालानुपूर्वी की प्ररूपणा करते हैं. "से कि तं ओणिहिया" इत्यादि । - शब्दार्थ --- (से कि तं ओवणिहिया कालाणुपुल्वी १)हे भदन्त । औपनिधिकी कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
उत्तर-- (भोवणिहिया कालाणुपुव्वी) औपनिधिको कालानुपूर्वी (तिविहा पण्णत्ता ) तीन प्रकार की कही गई है (तं जहा) के प्रकार ये (पुवाणुपुच्ची, पच्छाणुपुग्वी, अणाणुपुयी)। पूर्वानुपूर्वी२ पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । (से किं तं पुष्वाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वानुपूर्ण क्या है ! .... उत्तर--"समए, आवलिया, आण, पाणू. थोवे, लवे, मुटुसे, अहो
હવે સૂત્રકાર ઓપનિધિ કી કાલાનુપૂર્વાની પ્રરૂપણ કરે છે" से कि तं ओवणिहिया " या
सहाय-(से कि तं ओवणिहिया कालाणुपुब्बी १) सन् ! मीपनिવિકી કાલાનુકૂવીનું સવરૂપ કેવું છે ? - उत्तर-(ओवणिहिया कालाणुपुव्वी) गोपनिधि खानुकाना (तिविहा पण्णत्ता, तंजहा) नीय प्रभा ३५ ४.२ ४॥छे-(पुव्वाणुपुव्वी, परमाणु. पुन्वी, अणाणुपुव्वी) (१) पूपानुवा, (२) पश्चानुवा', भने (3) मनानुवा.
प्रश्न-से कितं पुवाणुपुषी') मा ! पूर्वानु५वी तुं २१३५ छ। उत्तर-(समए, आवसिया, भाण, पाण्, पाषे, सवे, मुहत्ते, महोरके,
For Private and Personal Use Only
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३७ औपनिधिकीकालानुपूर्वीनिरूपणम् ५९ रत्ते, पक्खे, मासे, उऊ, अयणे", समय आवलिका, आन, प्राण, स्तोक लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन (संवच्छरे) संवत्सर (जु. गे) युग, (वाससए) वर्षशत (वाससहस्से) वर्ष सहस्र, (वाससयसहस्से) वर्षशतसहस्र, (पुन्चंगे) पूर्वाङ्ग (पुब्वे) पूर्व (तुडियंगे) त्रुटितांग) (तुडिए) त्रुटित, (अडडंगे) अटटाङ्ग (अडडे) अटट (अववंगे) अववाङ्ग (अ. घवे) अवय (हुहुअंगे) हुहुकाङ्ग (हुहुए) हुहुक (उप्पलंगे) उत्पलाङ्ग (उ. प्पले) उत्पल (पउमंगे) पद्माङ्ग (पउमे) पद्म (णलिणंगे) नलिनाङ्ग (गलिणे) नलिन (अत्यनिरंगे) अर्थ निपूराङ्ग (अथनिउरे) अर्थ निपूर (अरअंगे) अयुताङ्ग (उए) अयुन (न उअंगे) नयुनाग (नउए) नयुत (पउअंगे) प्र. युताङ्ग (पउए) प्रयुन (चूलिअंगे) चुलिकांग (चूलिया) चूलिका (सीस प. हेलिअंगे) शीर्षप्रहेलिकाङ्ग (सीमपहेलिया) शीर्षप्रहेलिका (पलिओषमे) पल्योपम (सागरोवमे) सागरोपम (ओसप्पिणी) अवसर्पिणी (उस्सपिणी) उत्सर्पिणी) (पोग्गलपरिय?) पुद्गलपरिवर्त्त (अईयद्धा) अतीताद्धा (अणागयदा) अनागताद्धा (सबद्धा) सर्वाद्धा। यह पूर्वानुपूर्वी हैं। सम. य का स्वरूप आगे स्वयं सूत्रकार कहेंगे। यह काल का सब से सूक्ष्म अंश है । इससे ही समस्त प्रमाणों की आलिका आदिकों की - उ. पक्खे, मासे, उऊ. अयणे,) समय, पलिया, मान, प्राण, स्ते, स१, भुडूत, मात्र, ५५, मास, तु, अयन, (संवच्छरे, जुगे) सत्स२, युग, (वाससए) व शत, (वाससहस्से) १'सहस, (वाससयसहरसे) १५शत सस (म.) (पुव्वंगे, पुने) पू , पू (डियंगे, तुडिए,) त्रुटितin, बुरित, (अडडंगे, अडडे) ५८in, २५८, (अववंगे, अववे) भवन, ११, (हुहुअंगे, हुहुए) in, ४, (उप्पलंगे, उप्पले) ७५in, G५९ (पउमंगे, पउमे) ५मान, ५५, (गलिणंगे, णलिगे) नविन, नलिन, (अत्यनिऊरंगे) म1ि , (अत्थनि ऊरे) अनि५२, (अउऊ) मयुतin, (अउए) अयुत, (नउअंगे, नए) नयुतांश, नयुत, (पउअंगे) प्र-in, (13ए) प्रयुत, (चूटिअंगे) यूxिin, (चूरिया) यूलित, (सीमपहेलिअं) २५ प्रतिsion, (सीसपहेलिया) प्रडेवि, (पलिओवमे) पक्ष्या५म, (सागरोवमे) सा॥१५म, (ोसप्पिणी) अस4 ए0, (उस्सप्पिणी) सि!ि, (पोग्गलपरियट्टे) पुरस५२. पत्त, (अईयद्धा) अताताद्धा, (अणागयद्धा) मन मताद्धा, (सव्वद्धा) सर्वानी, આ ક્રમે પદોને ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ પૂર્વાનુ પૂર્વી છે. કાળના સૌથી સૂક્ષમ અંશનું નામ “સમય” છે. સૂત્રકાર પોતે જ તેનું સ્વરૂપ આગળ , સમજાવાના છે. તે સમયને આધારે જ આવલિકા આદિ કાળ પ્રમાણેની
अ० ७५
For Private and Personal Use Only
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अनुयोगद्वारसूत्रे त्वात् प्रथम निर्दिष्टः, आंवलिका इयं हि असंध्येयः समयनिष्पयते । आन एक उच्छ्रासः संख्येयाऽऽत्रलिकारूपः, उपलक्षणासंख्येवावलिकारूपो निःश्वासोऽपिप्रायः। पाण:-संख्येयावलिकारूपयोरुच्छासनिःश्वासयोः कालः, स्तोका-सप्तप्राणात्मकः, लवासप्तस्तोकात्मकः, मुहूतः सप्तसप्ततिलवात्मका, अहोरात्रा त्रिंशन्मुहूर्तात्मका, पक्षा=पञ्चदशाहोरात्ररूपः, मासा पक्षद्वयरूपः, ऋतुः मास. इयरूपः, अयनम् ऋतुत्रयात्मकम् , संवत्सरः अपनद्वयात्मकः, युगं-पञ्चवर्षात्मकम् , वर्षशतं=विंशतियुगात्मकम् , वर्षसहस्रम् , वर्षशतसहस्रम्-शतगुणितं सहस्रंशतसहस्रं-वर्षाणां शतसहस्रं वर्षशतसहस्रं-लक्षवर्षाणि, पूर्वाङ्गम् चतुरशीतिलक्षत्पत्ति होती है इसलिये सूत्रकार ने सर्व प्रथम इसका उपन्यास किया है। असंख्यात समयों को एक आवलिका होती है । संख्यान आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है । इसी प्रकार संख्यात आवलिका रूप एक निश्वास होता है । संख्यात आवलिका रूप जो उच्छ्वास निश्वास का काल है वही प्राण है सात प्राणों का एक स्तोक होता है । सात स्तो. कों का एक लव होता है। सतहत्तरलवों का एक मुहूर्त होता है। ती. स मुहूर्तों का एक अहोरात्र होता है । १५ अहोरात्र का एक पक्ष होता है । दो पक्षों को एक मास होता है। दो महीनों की एक ऋतु होती है। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। दो अयनों का एक संवत्सर होता है। पांच वर्ष का एक युग होता है । वीस युगों का एक सौ वर्ष होता है। दशप्तौ वर्षों का एक वर्षसहस्र होता है । सौ हजार वर्षों का एक लाख वर्ष होता है। चौरासी लाख वर्षों का १ पूर्वाश होता है।
ગણતરી કરી શકાય છે, તેથી જ સૂત્રકારે સૌથી પહેલાં સમયનો ઉપન્યાસ કર્યો છે. અસંખ્યાત સમયની એક આવલિકા થાય છે. સંખ્યાત આવલિ
गाना मे नि:श्वास (नि:श्वास प्रमाण १५) थाय छे. सप्यात मालिકાઓ રૂપ જે ઉચ્છવાસ નિઃશ્વાસને કાળ છે, તેનું નામ જ પ્રાણ છે. સાત પ્રાને એક સ્તક થાય છે સાત સ્તોકને એક લવ થાય છે. ૭૭ લવનું એક મુહૂર્ત થાય છે. ૩૦ મુહૂર્તનું એક અહોરાત્ર (દિનરાત્રિ) થાય છે ૧૫. અહોરાત્રનું એક પક્ષ (પખવાડિયું) થાય છે. બે પક્ષેને એક માસ થાય છે. બે માસની એક ઋતુ થાય છે. ત્રણ ઋતુનું એક અયન થાય છે. બે અયાનું એક સંવત્સર (વર્ષ) થાય છે પાંચ સંવત્સરને એક યુગ થાય છે. વીસ યુગના શતવર્ષ થાય છે દસ સે વર્ષપ્રમાણ કાળને વર્ષ સહસ્ત્ર કહે છે. સ હજાર (લાખ) વર્ષ પ્રમાણ કાળને લાખવષે કહે છે ૮૪ લાખ વર્ષોનું એક
For Private and Personal Use Only
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १३७ औपनिधिकीकालानुपूर्वीनिरूपणम् ५९५ वर्षात्मकम्, पूर्वम् चतुरशीत्या लॉर्गुणिते चतुरशीतिकक्षात्म केऽङ्के यावती संख्या लभ्यते तत्पमाणम् , सा संख्याच-सप्ततिकोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशचकोटिसहस्राणि (७०५६००००००००००) वर्षाणाम् । उक्तंच
" पुनस्स उ परिमाणं, सयरी खलु हुँति कोडिलक्खाउ ।
छप्पण्णं च सहस्सा, बोद्धमा वासकोडीणं ॥" छाया-पूर्वस्य तु परिणाम सातिः खलु भवन्ति कोटिलक्षाः।
षट्पञ्चाशच्च सहस्राणि बोद्धव्या वर्षकोटीनाम् ॥इति॥ इदमपि चतुरशीत्यालझर्गुणितं त्रुटिताङ्ग भवति । त्रुटिताङ्ग हि चतुरशीत्याल:गुणितं सदेकं त्रुटितं भवति । त्रुटितं च चतुरशीत्यालक्षैर्गुणितं सदेकम् अटटाई भवति । चतुरशीत्यालगुणितं च अटटाङ्गमेकमटं भवति। एवमेव इतः प्रभृति चौरासी लाखपूर्वाङ्ग का पूर्व होता है। इसमें वर्षों की संख्या ७०५६०००, ०००,०००० इतनी आती है । यही बात “पुवस्स उ परिमाणं" इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट की है । इन वर्षों में ८४ लाख का गुणा करने पर जो संख्या आती है वह त्रुटिताङ्ग का परिमाण है । त्रुटिनांग परिमाण में चौरासीलाख का गुणा करने पर एक त्रुटित होता है । एक त्रुटित को ८४ लाख से गुणा करने पर १ अटटाङ्ग होता है। एक अटटाङ्ग को चौरासी लाख से गुणा करने पर एक अटट होता है। १ अटट प्रमाण में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ एक अववाङ्ग होता है। १ अववाङ्ग में ८४ लाख का गुणा करने पर एक अश्व होता है। इसी प्रकार आगेर शीर्षप्रहेलिका तक के प्रमाणों में ऐसे ही करते चले जाना चाहिये । अर्थात् १ अवव में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ हुहुकाङ्ग, १हु. हुकान में चौरासी लाख से गुणा करने पर१ हुहुक, १ हुहुक में चौरासी પૂર્વીગ થાય છે, અને ૮૪ લાખ પૂર્વાનું એક પૂર્ણ થાય છે. એક પૂર્વના ७०५९०००००००००० वर्ष थाय छे. मे पात सूत्रमारे " पुवस्स उ परिमाणं" छत्यादि सूत्रमा बा२। घट ४॥ छे. ८४ साथ पूरीन 28 ત્રુટિતાંગ થાય છે એટલે કે ૭૦૫૬૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦ વર્ષને ૮૪ લાખ વડે ગુણવાથી જેટલાં વર્ષ આવે છે, તેટલાં વર્ષ પ્રમાણુ કાળને એક ત્રુટિતાંગ કહે છે ૮૪ લાખ ત્રુટિતાંગનું એક ત્રુટિત થાય છે. ૮૪ લાખ ત્રુટિતેનું એક અટટાંગ થાય છે. ૮૪ લાખ અટટનું એક અવવાંગ થાય છે. ૮૪ લાખ અવવાનું એક અવવ થાય છે. એક અવવના ૮૪ લાખ ગણ કરવાથી એક હુકાંગ પ્રમાણ કાળ બને છે. ૮૪ લાખ હેકગનું એક હુક બને છે
For Private and Personal Use Only
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र पूर्व पूर्व चतुरशीत्यालक्षेश्चतुरशीत्यालक्षश्च गुणितम् उत्तरोतरमेकैकंकालप्रमाणं यावत् शीर्षप्रहेलिकान्तं बोध्यम् । शीर्षप्रहेलिकायाः स्वरूपमङ्कत एवं बोध्यम्-७५,८२. लाख से गुणा करने पर १ उत्एलाङ्ग एक उत्पलाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर एक उत्पल, १ उत्पल में ८४ लाख से गुगा करने पर १. पद्माङ्ग, १ पमाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर एक पद्म एक प. म में ८४ लोख से गुणा करने पर १ नलिनाज, १ नलिनाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ नलिन १ नलिन में ८४ से गुणा करने पर १ अर्थ निपूराङ्ग एक अर्थ निपूगड़ में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ अर्थ निपूर १ अर्थनिपूर में ८४ लाख से गुणा करने पर एक अयुतांग १अयुनांग में ८४ लाख से गुगा करने पर १ अयुन, १ अयुन में ८४ लाख से गुणा करने पर १ नयुनांग १नयुताङ्ग में ८४ लाख से गुणा करने पर १ नयुन १ नयुन में ८४ लाख से गुगा करने पर १ प्रयुनान १. १प्रयुनाङ्ग में ८४ लाख से गुणो करने पर १प्रयुत, १ प्रयुत में८४ लाख से गुणा करने पर एक चूलि काङ्ग, १ चूलि काङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर चूलिका एक एक चूलिका में ८४ लाख से गुगा करने पर १ शीर्ष प्रहेलिका और एक शीर्ष प्रहेलिकाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ शोर्षप्रहेलिका का प्रमाण होता है । इस शीर्षपहेलिका के अंको
" હકને ૮૪ લાખ વડે ગુણવાથી એક ઉ૫લાંગ થાય છે. ૮૪ લાખ ઉ૫લાંગેને એક ઉત્પલ કાળ થાય છે ૮૪ લાખ ઉલનું એક પડ્યાંગ થાય છે. અને ૮૪ લાખ પડ્યાંગનું એક પદ્ધ થાય છે. તેને ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક નલિનાંગ થાય છે. એક નાલિનાંગના ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક નલિન આવે છે. નલિનના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક અર્થનિપૂરાંગ આવે છે એક અર્થનિપૂરંગના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક અર્થનિપૂર આવે છે, એક અર્થનિપૂરના ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક અયુતાંગ, એક અયુતાંગના ૮૪ લાખ ગણ કરવાથી એક અચૂત, એક અમૃતના ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક નયુતાંગ, એક નયુતાંગના ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક નયુત, એક નયુતના ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક પ્રયુતાંગ, એક પ્રયુતાંગને ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક પ્રયુત, એક પ્રયુતના ૮૪ લાખ ગણું કરવાથી એક ચૂલિકાંગ, એક ચૂલિકાંગના ૮૪ લાખ ગણ કરવાથી એક ચૂલિકા, એક ચૂલિકાના ૮િ૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક શીર્ષ પ્રહેલિકાંગ અને એક શીર્ષ પ્રહેલિકાંગના ૮૪ લ ખ ગણાં કરવાથી એક શીર્ષપ્રહેલિકા નામના કાળનું પ્રમાણ આવે છે.
For Private and Personal Use Only
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३७ मोपनिधिकीकालानुपू/निरूपणम् ५९७ ६३,२५,३०,७३०,१०,२४,११,५७,९७,३५,६९,९७,५६,९६,४०,६२, १८, ९६,६८,४८०,८०१८,३२,९६, एतदग्रे चत्वारिंशदुत्तरैकशतसंख्यकानि शून्यानि (१४०) निक्षेप्तव्यानि। तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां चतुर्नवत्यधिकशतसंगकानि अङ्कस्थानानि भवन्ति । अनेन पूर्वोक्तेन कालमानेन केषांचिद् रत्नप्रभानारकाणां भवनपतिव्यन्तरमुराणां सुषमदुष्पमारकसम्भविनां नरतिरश्चां च यथासंभवमायुषो मानं भवति । एतस्माच्च परतोऽपि संख्येयः कालोऽस्ति, किन्तु तस्य अतिशयज्ञानवनितानां छमस्थानामसंव्यवहार्यत्वात् , सर्पपाशुपमयाव वक्ष्यमाणत्वाच मेहोक्तः। किं तर्हि ? उपमामात्रप्रतिपाद्यानि पल्योपमादीन्येव । तत्र पल्योपमसा. का प्रमाण ७५८२६३२५३०७३०१०२४११, ५७९७३५६९,,९७५६९६४. ०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६, और इसके १४० शून्य रखने से इ. तना होता है । इस समस्त अंको की संख्या का योग १९४ अंक प्रमाण होता है। इस पूर्वोक्त काल प्रमाण से किननेक रत्नप्रभागत नारकों की तथा भवनपति, व्यन्तर देवों की और सुषमदुषमारक में उत्पन्न हुए मनुष्य तियो की यथासंभव आयु का प्रमाण कहा जाता है। इससे आगे भी संख्यात काल है। परन्तु वह यहां जों नहीं कहा गया है । उसका कारण यह है कि एकतो वह अतिशयज्ञान वर्जित जो छद्मस्थ प्राणी हैं उनके द्वारा असंगवहार्य है । तथा दूसरे सर्षप आदि की उपमा देकर मूत्रकार आगे उसे इसी शास्त्र में स्वयं कहेंगे भी। उपमा मात्र देकर जिनका स्वरूप समझाया जा सकता है ऐसे पल्योपम
ઉપરના કણકને આધારે એક શિષપ્રહેલિકાનાં વર્ષોની ગણતરી કરવામાં આવે તે ૧૪ આંકડાની સંખ્યા આવે છે. તે સંખ્યા નીચે પ્રમાણે છે૭૫૮૨૬૩૨૫૩૦૭૩૦૧૦૨૪૧૧૫૭૯૭૩૫૯૯૭૧૬૯૬૪૦૬૨૧૮૯૬૬૮૪૮૦૮ ૦૧૮૩ર૯૬ આ ૫૪ આંકડા ઉપર જમણી તરફ ૧૪૦ શૂન્ય મૂકવાથી જે ૧૯6 આંકડાની સંખ્યા આવે છે, તે સંખ્યા એક શિર્ષપ્રહેલિકાનાં વર્ષો બતાવે છે. આ પૂર્વોક્ત કાળપ્રમાણને આધારે કેટલાક રત્નપ્રભા નરકના નારકોના, ભવનપતિ દેના, વ્યન્તર દેના, અને સુષમદુષમ આરામાં ઉત્પન્ન થયેલા મનુષ્યના યથાસંભવ આયુનું પ્રમાણ કહી શકાય છે. શીર્ષ. પહેલિકાની આગળ પણ સંખ્યાત કાળ છે. પરંતુ અહીં તેનું કથન કરવામાં આવ્યું નથી કારણ કે તે અતિશય જ્ઞાનવજીત છઘસ્થ જીવે દ્વારા અસંખ્ય વહાર્ય છે-છઘ જ દ્વારા તેને વ્યવહારમાં ઉપયોગ થઈ શકે તેમ નથી સત્રકાર સર્ષ પ (સરસવ) આદિની ઉપમા દ્વારા તે કાળપ્રમાણેનું આગળ ઉપર નિરૂપણ કરવાના છે. ઉપમા દ્વારા જ જેના સ્વરૂપને સમજાવી શકાય
For Private and Personal Use Only
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र गरोपमे वक्ष्यमाणस्वरूप। दशमागरोपमकोटाकोटिप्रमाणात्लवसर्पिणी, तावन्मानैव उत्सर्पिणी । अनन्ता अवसर्पिण्युत्सपिण्यः पुद्गलपरिवर्तः । अनन्ताः पुद्गलपरा. पर्ता अजीताद्धा। अनागताद्धाऽप्यनन्तपुद्गलपरावर्त्तमानैव बोध्या। अतीताऽना. गतवर्तमानकालस्वरूपा सद्धिा । इयं पूर्शनुपूर्ण । पश्चानुपूर्ग तु 'सर्वाद्धा' इत्यारम्य 'समयः' इत्यन्ता बोध्या। अनानुपूर्वी तु-समयः' इत्याद्यारम्प 'सद्धिा'
और सागरोपम जो काल हैं उन्हें सूत्रकार आगे प्रगट करेंगे । दश सागरोपम कोटि कोटि का १एक अवसर्पिणी काल और इतने ही प्रणाम घाला एक उत्सर्पिणी काल होता है। एक पुद्गल परावर्त काल अनन्त अ. वसर्पिणी उत्सर्पिणी काल का होता है। तथा जो अतीताद्धा-काल होता है उसमें अनन्त पुद्गल परावर्त होते हैं । अर्थात् अनन्त पुद्गलपरा. वों का एक अतीताद्धा काल होता है । इसी प्रकार जो अनागताद्धा काल होता है वह भी अनन्त पुद्गल परावर्तो का होता है। तथा जो सर्वाद्धा काल है वह अतीत अनागत और वर्तमान काल इन तीनों का संमिलित रूप होता है। इस प्रकार यह पूर्वानुपूर्वी है। तथा सवाद्धा से लेकर समय पर्यन्त जो व्युत्क्रम से इनकी स्थापना-विन्यास-करना है वह पश्चानुसूरी है। यही पात (से किं तं पच्छाणुपुष्वी ?) हे भदन्त ! प. श्चानुपूर्वी क्या है इस प्रश्न के उत्तर में (सम्बद्धा अणागयद्धा जाव स. मए) इन पदों द्वारा प्रगट की गई है। (से तं पच्छाणुपुव्वी) इस प्रकार
એમ છે એવાં ૫૫મકાળ અને સાગરોપમ કાળનું સ્વરૂપ સૂત્રકાર આગળ પ્રકટ કરવાના છે. દસ સાગરોપમ કેરિકેટિને એક અવસર્પિણી કાળ થાય છે અને ઉત્સર્પિણી કાળનું પણ એટલું જ પ્રમાણ કહ્યું છે. અનંત અવસ કિાળને એક પુદ્ગલપરાવર્ત કાળ થાય છે. અનત પુદ્ગલપરાવર્તન એક અતીતાઢા-કાળ થાય છે એટલે કે અનિતાદ્ધામાં અનંત પુદ્ગલપસવતકાળ હોય છે. એ જ પ્રમાણે અનંત પુદ્ગલપરાવીને એક અનાગતાદ્ધ કાળ થાય છે. જે સદ્ધ કાળ છે તે અતીત, અનાગત અને વર્તમાન, આ ત્રણે કાળના સંમિલિતકાળ રૂપ હોય છે. આ પ્રકારનું વનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે.
હવે પશ્ચાનુ પૂવીનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે – प्रल-से किं पच्छाणुपुत्री?) भगवन् ! पश्चानुपूवीनु११३५४१
उत्तर-(सव्वाद्धा, अणागयद्धा जाव समर) Halgi, मनातायात ઊલટા કમ સમય પર્યન્તના પદે વિન્યાસ (સ્થાપના) કરો, તેનું નામ पानुषी छ. (से तं पच्छाणुपुन्वी) 241 प्रा२नु पश्चानुवी, १३५ थे.
For Private and Personal Use Only
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३७ पौषनिधिक कालानुपूर्षीनिरूपणम् ५९९ इत्यामानामन्योऽन्याभ्यासे ये अनन्ता भङ्गा भवन्ति, सेषु आद्यन्तरूपभङ्गकद्वयविवक्षामपहाय सर्वमङ्गगुणनामिषा बोध्या। अत्र कालविचारस्य प्रस्तुतत्वात समयादेश्वकालत्वेन प्रसिद्धत्वात् अनुषातो विनेयानां समयादिकालज्ञानं भवत्, इति प्रकारान्तरेण कालानुपूर्वीमाह-'अहवा' इत्यादिना। अथवा औपनिधिकी कालानुपूर्वी पूर्वानुपूर्यादिभेदेन त्रिविधा प्रज्ञप्ता। तत्र-पूर्वाहपूर्वी-एकसमययह पश्चानुपूर्वी का स्वरूप है। (से किं तं अणाणुपुवी?) हे भदन्त? अना नुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? ____ उत्सर-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दूरुवृणो) अनानुपूर्वी में समयादि पदों का एकर की वृद्धिपूर्वक उपन्यास किया जाता है, फिर बाद में आपस में इनका गुणा किया जाता है। इस प्रकार गुणा करने पर जो अनन्त भंगरूप-राशि उत्पन्न होती है उसमें से आदि और अन्त के दो भंग घटा दिये जाते हैं । इस प्रकार से अनानुपूर्वी अनन्त भंगात्मक होती है। यहां काल का विचार प्रस्तुत है और समयादिक कालरूप से प्रसिद्ध हैं। इस लिये शिष्यों को समयादिरूप कालका आनुषंगिकरूप से ज्ञान हो जावे इसलिये सूत्रकार प्रकारान्तर से कालानुपूर्वीका कथन करते है-(अहवा
ओवणिहिया कालाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता) अथवा औपनिधिकी कालानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है (तं जहा) जैसे (पुवाणुपुब्धी पच्छाणुपुत्री, अणाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्भ, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी।
___ उत्तर-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमगम्भासो दूसवूणो) अनानुभवी मां समयाहि पहानी मे सनी वृद्धिथी ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે. ત્યાર બાદ આપસમાં (અંદર અંદર) તેમના ગણ (તેમને ગુણાકાર) કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે ગુણાકાર કરવાથી જે અનંત ભંગરૂપ રાશિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમાંથી શરૂઆતને અને અન્તન એક, એમ બે અંગે ઓછાં કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે અનાનપૂર્વ અનંત ભંગરૂપ હોય છે. અહીં કાળને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે અને સમયાદિક કાળરૂપે પ્રસિદ્ધ છે તેથી શિષ્યને સમયાદિ રૂપ કાળનું આનુષંગિક રૂપે જ્ઞાન થઈ જાય તે હેતુથી સૂત્રકાર કાલાનુપૂર્વાના સ્વરૂપનું અન્ય પ્રકાર नि३५ ४२ -(अहवा ओवणिहिया काल'णुपुत्वी तिविहा पण्णता) अयामोपनिधिही मानुषी ३ ॥२नी ही छे. (तं जहा) ते त्र] प्रा। नीय प्रमाणे छे-(पुत्वाणुपुठवी, पच्छाणुपुठवी, अणाणुपुत्री) - पूर्वानी , પશ્ચાત પૂવી અને અનાનુપૂવ.
For Private and Personal Use Only
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६००
अनुयोगद्वारसूत्रे
स्थितिकः- एकः समयः स्थितिर्यस्य द्रव्यविशेषस्य स तथाभूतो द्रव्यविशेषो बोध्यः । एवमेव द्विसमयस्थितिकविसमयस्थितिको यावदशसमयस्थितिकः संख्ये यसमयस्थितिकोऽसंख्येय समयस्थितिकश्च द्रव्यविशेषः पूर्वानुपूर्वी बोध्या । पश्चानुपूर्वीतुअसंख्येयसमय स्थितिको यावदेक समयस्थितिकश्च । अनानुपूर्वी तु एकसमयस्थितिकाधारभ्य असंख्येयसमयस्थितिकानामन्योन्याभ्यासेऽसंख्येया भङ्गा भवन्ति तेषु आद्यन्तरूपभङ्गकद्वयविवक्षामपहाय सर्वभङ्गगुणनामिका बोध्या । इयमोपनिधिकी कालानुपूर्वी बोध्या । एतदेवाह' से तं ओवणिहिया' इत्यादि । सैपा औपनिधि
'
( से किं तं पुत्राणुपुत्री) हे भदन्त ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? उत्तर- ( पुत्राणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है(एमडिए, दुसमयहिए, निसमयहिए जाब दस समय संविज्जसमग्रहिए असंखिज्जलमयहिए ) एक समय की स्थितिवाला, दो समय की स्थितिवाला, तीन समय की स्थितिवाला यावत् दश समय की स्थितिवाला संख्यातसमय की स्थितिवाला असंख्यात समय की स्थितिबाला जितना भी द्रव्य विशेष है वह सब पूर्वानुपू है। (से किं तं पच्छाणुपुच्ची) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (असंखिउसमयहिए जब एगसमर्या इए पच्छाणुपुथ्वी) असंख्यातसमय की स्थितिवाले द्रव्य से लेकर एकसमय तक की स्थितिवाला जो द्रव्य विशेष है वह पश्चानुपूर्वी है। ( से तं पच्छा पुच्ची ) यह पश्चानुपूर्वी का स्वरूप है। (से किं तं अणाणुपुथ्वी ?) हे भदन्त अनानुपूर्वी का
प्रश्न- (से किं तं पुत्राणुपुत्री) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वीनु स्व३५ ठेवु छे ? उत्तर- (पुव्वाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी स्व३५ मा अनु छे - ( एगसमयट्टिइए, दुसम्यट्टिइए, तिसमयद्विश्य जाय दससमय ट्ठइए, संखिज्ज समय इिए, असंखिज्ज समर्याट्ठइए) मे समयनी स्थितिवाजां में समयनी स्थितिवाजा, ત્રણથી લઈને દસ પન્તની સ્થિતિવાળાં, સ`ખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્યવિશેષા તેએ પૂર્વાનુપૂર્વી રૂપ છે, - ( मे किं तं पच्छाणुपुवी १) हे भगवन् ! पश्च नुपूर्वी नुं स्व३५ हेवु छे? उत्तर- (असंखिज्जस मयट्ठइए जान एगसमयट्ठइए पच्छाणुपुव्वी) असभ्यात સમયની સ્થિતિવાળથી લઈને એક સમય પન્તની સ્થિતિવાળાં જે દ્રવ્યવિशेष। छे, ते पश्चानुपूर्वी ३५ छे ( से तं पच्छाणुपुव्वी) या प्रभारनं पश्चानुपूर्वी नुं स्व३५ छे.
प्रश्न-1
प्रश्र - ( से हि तं अणाणुपुथ्वी ?) हे भगवन् ! अनानुपूर्वी स्व३प ठेवु छे
હૈ
For Private and Personal Use Only
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३८ उत्कीर्तनानुपूर्वीनिरूपणम् ६.१ . की काल नुपूर्वी । इत्थं कालानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितुमाह-' से तं' इत्यादिसैषा कालानुपूति ॥पू. १३७। अथ पूर्वोक्तामुत्कीर्तनानुपूर्वी प्रतिपादयितुमाह
मूलम् -से किं तं उकित्तणाणुपुवी? उकित्तणाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुवी पच्छाणुपुवी अणाणुपुत्री । से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुत्री-उसभे अजिए संभवे अभिणंदणे सुमई पउमप्पहे सुपासे चंदप्पहे सुविहा सीयले सेजसे वासुक्या स्वरूप है ? ( एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवृणो अणाणुपुव्वी)
उत्तर-एक से लेकर असंख्यात तक एकर की वृद्धि करते हुए असंख्यातश्रेणि मांडो, फिर इन श्रेणियों में परस्पर में गुणा कर दो
और उस उत्पन्न असंख्योत भंग रूप माराशि में से आदि अंत के दो भंगों-पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी रूप दो भंगों और अवक्तव्यक भंगों को कम कर दो-यही अनानुपूर्वी का स्वरूप है। (से तं ओवणिहिया कालाणुपुब्बी-से तं कालाणुपुव्वी) इस प्रकार औपनिधिकी कालानुपूर्वी है। इसके समाप्त होते ही पूर्वप्रक्रान्त कालानुपूर्वी का कथन समाप्त हो गया ॥० १३७॥
उत्तर-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिज्जग गयाए सेढीए अन्नमन्नम्भासो दूरुवूणो अणाणुपुव्वी) मेथी र असभ्यात पन्त । એકની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત શ્રેણી સુધીનાં દ્રવ્યોનો ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે ત્યાર બાદ તે શ્રેણીઓને પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરવામાં આવે છે અને આ પ્રકારે જે અસંખ્યાત ભંગ રૂપ મહારાશિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભાંગાઓ-પૂર્વાનુમૂવી અને પશ્ચાનુ પૂવી રૂપ બે ભાંગાઓ-બાદ કરવામાં આવે છે આ પ્રકારનું અનાનુપૂવીનું સ્વરૂપ છે (से तं अणाणुपुर्व) म सोपलिपिछी मनानुपूवी छे. (से तं ओवणिहिया कालाणुपुत्वी-से तं कालाणुपुव्वी) मा प्रा२नुं मोपनिविही सानु५वीन સ્વરૂપ છે. તેના સ્વરૂપનું કથન સમાપ્ત થતાની સાથે જ પૂર્વ પ્રક્રાન્ત કાલાનુપૂવીના સ્વરૂપનું કથન પણ સમાપ્ત થાય છે. સૂ૦૧૩૭
अ० ७६
For Private and Personal Use Only
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६०२
अनुयोगद्वारसूत्र पुजे विमले अणंते धम्मे संती कुंथू अरे मल्ली मुणिसुव्वए णमी अरिडणेमी पासे बद्धमाणे । से तं पुवाणुपुव्वी। से किं तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुत्री-वद्धमाणे जाव उसमे । से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुठवी? अणाणुपुवी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए चउवीलगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो। से तं अगाणुपुवी। से तं उकित्तणा. णुपुबी।सू०१३८॥
छाया-अथ का सा उत्कीर्तनानुपूर्वी ? उत्कीर्तनानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी। अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वीऋषभः अजितः संभवः अभिनन्दनः सुपतिः पद्मप्रभः सुपार्श्वः चन्द्रप्रभः सुविधिः शीतलः श्रेयांसः वासुपूज्यः विमलः अनन्तः धर्मः शान्तिः कुन्थुः अरः मल्लिः मुनिसुव्रतः नमिः अरिष्टनेमिः पाश्वों वर्द्धमानः । सैपा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायां चतुर्विंशतिगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरुपोनः । सैपा अनानुपूर्वी। सैपा उस्कीर्तनानुपूर्वी ॥सू० १३८॥ टीका-' से कि तं' इत्यादि
अथ का सा उत्कीर्तनानुपूर्वी ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-उत्कीर्तनं कथनम् अभिधानोच्चारणमिति यावत् , तस्य आनुपूर्वी अनुपरिपाटिः पूर्वानुपूर्यादि.
अब सूत्रकार पूर्वोक्त उत्कीर्तनानुपूर्वी का प्रतिपादन करते हैं‘से किं तं उकित्तणाणुपुव्वी ? इत्यादि।
शब्दार्थ-हे भदन्त ! (से किं तं उकित्तणाणुगुब्धी ?) पूर्व प्रकान्त उत्कीर्तनानुपूर्वी का स्वरूप क्या है ?
उत्तर-(उकित्तणाणुपुब्बी तिविहा पण्णता) उत्कीर्तनानुपूर्वी तीन
હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત ઉકીર્તનાનુપૂર્વાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે... “से किं तं उक्कित्तणाणुपुव्वी” त्याह
शहाथ-(से कि त उक्त्तिणाणुपुवी ?) 3 पन् । पूर्व sla sी. ર્તાનાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उकित्तणाणुपुव्वी तिविह। पण्णत्ता-तंजहा) जात नानुषी ना
For Private and Personal Use Only
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३८ उत्कीर्तनानुपूर्वीनिरूपणम् भेदेन त्रिविधा प्रज्ञप्ता। तत्र-पूर्वानुपूर्वी-ऋषभादि वर्द्धमानान्ता । सर्वपथमोत्पन्नाद् ऋषभस्य प्रथममुरादानम् । तदनन्तरं क्रमेण अजितादय उक्ताः। पश्चानुपूर्वी तुप्रकार की कही गई है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(पुव्वाणुपुत्री, पच्छाणुपुत्री, अणाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । उत्कीर्तन शब्द का अर्थ नाम का उच्चारण करना ऐसा है । इस उत्कीतन की जो परिपाटी है उसका नाम उत्कीर्तनानुपूर्वी है। (से कि तं पुव्वाणुपुब्बी) पूर्व प्रकान्न पूर्वानुपूर्वी क्या है ? । ___उत्तर-(उसभे अजिए संभवे अभिणंदणे, तुमई, पउमप्पहे, सुपासे, चंदपहे, सुविही, सीबले, सेज्जं से, वासुपुज्जे, विमले, अणते, धम्मे, संनी, कुंथू, अरे, मल्ली, मुणिसुधए, णमी, अरिट्टणेनी, पासे, वद्धमाणे, से तं पुवाणुपुची) ऋषभ, अजिल, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व, और वर्द्धमान । इस प्रकार परिपाटिरूप से नामो. च्चारण करना इसका नाम उत्कीर्तनानुपूर्वी का प्रथम भेद पूर्वानुपूर्वी है। ऋषभनाथ सब से प्रथम उत्पन्न हुए हैं। इसलिये उनका प्रथम नामोच्चारण किया है। तदनन्तर क्रमशः अन्य अजित आदि हुए हैं इसलिये उनका नामोच्चारण हुआ है। पश्चानुपूर्वी में बर्द्धमान को नीय प्रमाण १२ ४छ-(पुवाणुपुठवी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुव्वी) (१) पूर्वानुपूवी, (२) ५श्व नुपूवी अन (3) मनानुपूवी.
"मनु या ४२वु" मेरो श्रीन माहीत ननी (नाम ઉચ્ચારણ કરવાની) જે પરિપાટી (પદ્ધતિ) છે, તેનું નામ ઉત્કીર્તનાનુપૂવી છે.
प्रश्न-(से किं तं पुवाणुपुरी') लगवन् ! पूर्वानुपूवी नुस्१३५ छ ?
उत्तर-(उसभे, संभवे, चंदप्पहे. सुविही, सीयले, सेज्जंसे, वासुपुज्जे, विमले, अणंते, धम्मे, संती, कुंथू, अरे, मल्ली, मुणिसुव्वए, णमी, अरिडणेमी, पासे, वद्धमाणे, से तं पुव्वाणुपुव्वी) अपन, मलित, सम, मनिनन, भुमति, पमन, सुपाश्व प्रन, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, पासुन्य, विभत, अनन्त, यम, शान्ति, न्यु, १२, भसी, मुनिसुनत, नभि, मरि. ષ્ટનેમિ, પાર્શ્વ અને વર્ધમાન, આ પ્રકારે પરિપાટી રૂપે નામેચ્ચારણ કરવું તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે. તે ઉત્કીર્તનાનુપૂવીના પ્રથમ ભેદ રૂપ છે. બાષભનાથ ભગવાન સૌથી પહેલાં થઈ ગયાં હોવાથી તેમના નામનું ઉચ્ચારણ સૌથી પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. ત્યાર બાદ અજિત આદિ તીર્થકરે ક્રમશઃ થઈ ગયા હોવાથી તેમના નામનું કમશઃ ઉચ્ચારણ કરાયું છે,
For Private and Personal Use Only
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६०४
अनुयोगद्वारसूत्र वर्द्धमानादि ऋपमान्ता बोध्या । अनानुपूर्वी तु-ऋषमादिवर्धमानान्तानां चतुर्वि शतिपदानामन्योऽन्याभ्यासे आधन्तरूपमङ्गकद्वयविवक्षामपहाय भङ्गा विधातव्यास्तदात्मिका बोध्या। ननु औपनिधिक्या द्रव्यानुपूा अस्याश्च को भेदः ? उच्यते, तत्र हि द्रव्याणां विन्यासमात्रमेव पूर्वानुपूर्व्यादिभावेन चिन्तितम् । अत्र तु तेषामेव तथैवोत्कीर्तनं क्रियते-इत्येतावन्मात्रेण एतयोमेदो बोध्यः । ननु अस्त्येवं तथाऽ. प्यत्र शास्त्रे आवश्यकस्य प्रस्तुतत्वादत्रापि सामायिकाघध्ययनानामेवोत्कीर्तनं युक्तम्, आदि करके-ऋषभपद को अन्त में उच्चरित किया जाता है। तथा अनानुपूर्वी आदि के ऋषभपद से लेकर अन्तिम वर्द्धमान तक के चौ. वीस पदों का परस्पर में गुणा करने पर और गुणितराशि में से आदि अन्त रूप भंग वय की विवक्षा को कम करने पर जितने भंग बचते हैं उन भंग स्वरूप होती है।
शंका-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी से इस में क्या भेद है?
उत्तर-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी में द्रव्यों का केवल विन्यास ही पूर्वानुपूर्वी आदिरूप से विचारित होता है और इस उत्कीर्तनानुपूर्वी में उन्ही द्रव्यों का आनुपूर्वी आदिरूप से नामोच्चारण किया जाता है।
शंका--इस शास्त्र में आवश्यक का प्रकरण होने से इस आनुपूर्वी में भी सामायिक आदि अध्ययनों का ही उत्कीर्तन करना उचित था
પશ્ચાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે–ઉપર જે ક્રમે નામેચ્ચારણ કરાયું છે તેના કરતાં ઊલટા ક્રમે નામોચ્ચારણ કરવાથી પશ્ચાનુપૂર્વી બને છે. તેમાં વર્ધમાનથી લઈને ઋષભ પર્યન્તના પદોનું ઉચ્ચારણ કરાય છે. આ રીતે “વર્ધમાન” પદ પહેલું અને “ષભ” પદ છેલલું આવે છે. અનાનુપૂવીમાં શરૂઆતના ઋષભ પદથી લઈને છેલ્લા વર્ધમાન પર્વતના ૨૪ પદ પર. સ્પરની સાથે ગુણાકાર કરવામાં આવે છે અને તેથી જે મહારાશિ આવે છે તેમાંથી આદિ અને અન્ત રૂ૫ બે ભંગને બાદ કરવામાં આવે છે. આ બે ભગે બાદ કરવાથી જે અંગે બાકી રહે છે, તે અંગે રૂપ અનાનુપૂર્વી હોય છે.
શંકા-ઔપનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી કરતાં આ ઉત્કીર્તનાનુપૂર્વમાં શું તફાવત છે?
ઉત્તર-પનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વમાં દ્રવ્યને કેવળ વિન્યાસ જ પૂર્વાનુપ આદિ રૂપે કરવામાં આવે છે, પરતું આ ઉત્કીર્તનાનુપૂર્વીમાં તે એજ વચ્ચેનું આનુપૂર્વી આદિ રૂપે ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે છે.
શંકા-આ શાસ્ત્રમાં આવશ્યક અધિકાર ચાલતો હોવાથી આ આનુપૂવીમાં સામાયિક આદિ અધ્યયનું જ ઉત્કીર્તન (ઉચ્ચારણ) કરાયું હત
For Private and Personal Use Only
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३९ गणनानुपूर्वीनिरूपणम् कथमपक्रान्तानामृषमादीनामुत्कीर्तनं कृतम् ? इति चेदाह-इदं शास्त्रं सर्वव्यापकमित्यादावेवम् उक्तम् । तत्समर्थयितुमेव ऋषमादीनामुपादानं कृतम् । ऋपभादीनां तीर्थकर्तृत्वात्तन्नामोच्चारणे सकलमपि श्रेयः प्राप्नोति जन इति युक्तमेव तेषां भगवतां नामोच्चारणम् । एवं विधस्थलेऽन्यत्राप्येवमेव समाधेयमिति । प्रकृतमुप संहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा उत्कीर्तनानुपूर्वी ॥०१३८ ।
अथ पूर्वोक्तामेव गणनानुपूर्वी निरूपयितुमाहमूलम्-से किंतं गणणाणुपुवी? गणणाणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुवीपच्छाणुपुब्बी अणाणुपुत्री।से किं तं पुव्वाणुपुवी ? पुवाणुपुवी-एगो, दस, सयं, सहस्सं, दस सहस्साई, तो फिर अपक्रान्त-प्रकरण बाह्य-ऋषभ आदिकों का उत्कीर्तन सूत्रकारने क्यों किया?
उत्तर--यह तो पहिले ही कहा जा चुका है कि यह शास्त्र सर्व व्यापक है। सो इसी बात का समर्थन करने के लिये यहां ऋषभादिकों का उत्कीर्तन किया है। ये ऋषभ आदि तीर्थ कर्ता हैं। इनके नाम का उच्चारण करने वाला मनुष्य समस्त श्रेयको पा लेता है। अतः उनके नाम का उच्चारण करना युक्त ही है। दूसरे और भी इसी प्रकार के स्थलों में ऐसा ही समाधान समझना चाहिये। इस प्रकार से यह उत्कीर्तनानुपूर्वी है। सूत्रस्थ बाकी पद सुगम्य हैं अतः उनका भिन्न भिन्न रूप से अर्थ नहीं लिखा है।सू० १३८॥ તે ઉચિત ગણાત તેને બદલે અપ્રક્રિાન્ત (પ્રકરણના વિષયથી બાહ્ય એવાં) કષભ આદિકનું ઉત્કીર્તન સૂત્રકારે શા કારણે કર્યું છે?
ઉત્તર–એ વાત તે પહેલાં જ કહેવામાં આવી ચુકી છે કે શાસ્ત્ર સર્વવ્યાપક છે. એજ વાતનું સમર્થન કરવાને માટે અહીં કષભાદિકેનું ઉત્કીર્તન (નામેનું ઉચ્ચારણ) કરવામાં આવ્યું છે. આ અષભ આદિ તીર્થ. કરેએ તીર્થની સ્થાપના કરી હતી. તેમનાં નામનું ઉચ્ચારણ કરનાર મનુષ્યનું દરેક પ્રકારે શ્રેય જ થાય છે. તેથી તેમનાં નામનું ઉચ્ચારણ કરવું ઉચિત જ ગણી શકાય આ પ્રકારનાં બીજાં સ્થાનમાં પણ આ પ્રકારનું જ સમાધાન સમજવું.
આ પ્રકારનું ઉત્કીર્તનાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે આ સૂત્રમાં આવેલાં બાકીનાં પદેને અર્થ સુગમ હોવાથી અહીં તેમનું, વધુ સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું નથી. સૂ૦૧૩૮
For Private and Personal Use Only
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६०६
अनुयोगद्वारसूत्र सयसहस्सं, दस सयसहस्साई, कोडी, दस कोडीओ, कोडीसयं, दस कोडिसयाई। से तं पुवाणुपुब्बी । से किं तं पच्छाणुपुवी? पच्छाणुपुवी-दस कोडिसयाइं जाब एगो से तं पच्छाणुपुव्वी। से कि तं अणाणुपुवी? अणाणुपुधी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरिया र दसकोडिसयगच्छगयाए सेडीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो। से तं अणाणुपुगी। से तं गणणाणुपुठवी ॥सू०१३९॥
छाया-अथ का सा गणनानुपूर्वी ? गणनानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथापूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-एको, दश, शतं, सहस्रं, दश सहस्राणि, शतसहस्रं, दश शतसहस्राणि, कोटिः, दशकोटयः, कोटिशतं, देशकोटिशतानि । सैषा पूर्णनुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी दशकोटिशतानि यावदेकः । सैपा एश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी १ अनानुपूर्वी एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायां दशकोटिशतगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी। सैषा गगनानुपूर्वी ।मु० १३९॥
टीका-' से किं तं' इत्यादि
अथ का सा गणनानुपूर्वी ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-गणनानुपूर्वी पूर्वानुपूर्यादिभेदेन त्रिविधा । तत्र-एकादिदश कोटिशवान्तापूर्यानुपूर्वी दशकोटिशताये
गणनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है-इस बात को अब सूत्रकार स्पष्ट करते हैं -"से किं तं गणगाणुपुच्ची ?" इत्यादि।
शब्दार्थ- (से किं तं गणणाणुपुव्वी) प्रश्न-- हे भदन्त ? गणनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(गणणाणुपुब्बी तिविहा पण्गत्ता) गगनानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है ! (तंजहा) जैसे (पुत्वाणुपुच्ची पच्छाणुपुच्ची, अणाणुपुव्वी)
હવે સૂત્રકાર ગણનાનુપૂર્વાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે“से किं तं गणणाणुपुवी" त्या:
शहाथ-(से किं तं गणणाणुपुवी?) उ सन् ! आशुनानु पूतीनु વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(गणणाणुपुव्वी तिविहा पणत्ता) नापूर्वी प्रा२नी ४४ छ-(जहा) ते ४२। नीय प्रमाणे छे-(पुवाणुपुब्यो, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुब्बी) (१) पूर्वानुभूती', (२) पश्चानुपूत्री माने (3) समानुपूी.
For Private and Personal Use Only
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३९ गणनानुपूर्वी निरूपणम्
६०७
कान्ता पचानुपूर्वी तथा एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायां दशकोटिशतगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः - अनानुपूर्वी, व्याख्या पूर्ववत्
पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी (से कि तं पुण्वाणुपु०वी) हे भदन्त ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर -- ( पुत्राणुपु०वी) पुर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है( एगो) एक (दस) दश (सयं) सौ (सहस्सं) हजार (दस सहरसाई) दश हजार (ससहरुलाई) लाख ( दससय सहरसाई) दश लाख (कोडी) करोड़ (दस कोडीओ) दस करोड़ (कोडीस) अर्थ, (दस कोडिसयाई) दस अर्थ (सेतं पुचाणुपुथ्वी) यह पूर्व प्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी है। (से किं तं पच्छाणुपु०बी) हे भदन्त ! गणनानुपूर्वी के भेद रूप पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर -- (पच्छाणुपुच्ची) पश्चानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है । (दस कोडिसयाई जाव एगो) दस अर्ब से लेकर व्युत्क्रम से एक तक गिनना (सेतं पच्छा पुच्ची) सो पश्चानुपूर्वी है। (से किं तं अणाणुपुथ्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (अणाणुपुब्बी) अनानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है -- (एयाए चेव एमाइयाए एगुत्तरियाए दस कोडिसच्याए सेदीए अन्नमन्नन्भासो दुरुवृणो) एक से लेकर
प्रश्न - ( से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ? ) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वानुं स्व३५ ठेवु छे? छत्त२ - (पुव्वाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी स्व३५ या अभार छे - ( एगो) मे४, (दस) हस, ( सयं) से।, (सहस्सं ) उन्नर, ( दससहरसाई) इस उमर, (सयसहरसाई) लाभ, ( दससय सहरसाई) इस साभ, (कोडी) 513, (दस कोडीओ ) इस रेड, ( कोडी सयं) अमन, (दस कोडीसयाई) हस भय, (से तं पुत्राणुपुब्बी) त्याहि ३ जना ४२वी तेनु' नाम पूर्वानुपूर्वी छे.
प्रश्न - (से किं तं पच्छाणुपुव्वी ?) हे भगवन् गणुनानुपूर्वीना जीभ लेह રૂપ પશ્ચાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવુ' છે ?
€712-(953109831) 4ålgyál'g' 2934 zu usled 2-(zaistसयाई जाव एगो) इस अमन्यी सर्धने असा उभे सुधीनी गायुतरी
४२वी ( से तं पच्छागुपुत्री) तेनु' नाम पश्चानुपूर्वी छे.
प्रश्न-1
- ( से किं तं अणाणुपुब्वी ? ) हे भगवन् ! गणुनानुपूर्वीना भी लेह રૂપ અનાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવુ છે ?
उत्तर- (अणाणुपुव्वी) मनानुपूर्वीनु स्वय या प्रकार छे - (एयाए चैव एगाइयाए एगुत्तरियाए दस को डिस्यगच्छनयाए सेढीए अन्नमन्नन्भासो दूरूवूण )
For Private and Personal Use Only
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६०८
अनुयोगद्वारसूत्रे अत्रोक्ताः संख्या उपलक्षणमात्रम् , अन इतोऽन्या अपि संभापमानाः संख्या अवगन्तव्याः। उत्कीर्तनानुपूर्वा नाममात्रोत्कीर्तनं कृतम्, अत्र गणनानुपूर्त्या तुएकादि संख्यानामभिधानं कृतमिति बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा गणनानुपूर्वी ।।मू० १३९॥
अथ प्रागुद्दिष्टामेव संस्थानानुपूर्वीमाहमूलम्-से किं तं संठाणाणुपुवी ? संठाणाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुवी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुवी। से किं तं पुवाणुपुवी ? पुव्वाणुपुवी-समचउरंसे निग्गोहमंडले सादी खुजे वामणे हुडे । से तं पुवाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुवी-डंडे जाव चउरंसे । से तं पच्छाणुपुवी । से किं तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुबी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभालो दुरूवूणो। से तं अणाणुपुवी। सा एसा संठाणाणुपुवी सू० १४०॥
छाया-अथ का सा संस्थानानुपूर्वी ? संस्थानानुपूर्वी त्रिविधा प्राप्ता, तद्यथापूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-समचतुरस्रं न्यग्रोधमण्डलं सादि कुब्जं वामनं हुण्डम् । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-हुण्डं यावत् समचतुरस्रम् । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का दश कोटिशतक की एक एक की वृद्धिवाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर में गुणा करने पर और उत्पन्न उस महाराशि में से भंग इय की विवक्षा को कम करने पर अवशिष्टभंगात्मक (से तं अणाणुपु. ब्बी) अनानुपूर्वी है (से तं गणणाणुपुव्वी) इस प्रकार यह गणनानुपूर्वी का स्वरूप है ॥लू० १३९॥ એકથી લઈને દસ અબજ પર્યન્તની એક એકની વૃદ્ધિવાળી શ્રેણીમાં સ્થાપિત સંખ્યાને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર (
સજન) કરીને જે અંગેની મહારાશિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભંગાને બાદ કરવાથી જે ભગે, बाडी २७ छ,ते मान (से त' अणाणुपुत्री) मनानुषी ३५ गपामा भावे छ. (सेत गणणाणुपुव्वी) मा ४२ आयुनानुपूर्वानु २१३५ छ. ।।२०१३।।
For Private and Personal Use Only
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४० संस्थानानुपूर्वीनिरूपणम् सा अनानुपूर्यो? भनानुपूर्ती-एतस्यामेव एकादिकायामेकोनरिकायां छ गच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः। सैषा अनापूर्ती । सैपा संस्थानानुपूर्वी।।सू.१४०॥
टीका-' से किं तं' इत्यादि. अथ का सा संस्थानानुपूर्वी ? इति प्रश्नः। उतरयति-संस्थानानुपूर्वी संस्थानानि
प्राकृतिविशेषाः, तेपामानुपूरिपाटी संस्थानानुपूर्वी आकृतिविशेषरूपाणि । संस्थानानि जीवानीभेदेन यधपि द्विविधानि तथापि 'समचउरंसे' इत्यायभिधानेन जीपसम्बन्धीन्ये व तानि योध्यानि इयं संस्थानानुपूर्यपि पूर्वानुपूर्यादिमेदेन त्रिविधा प्रोक्ता : तत्र-पूर्गनुपूर्वी-समचतुरस्रम्-समं नाभेरुपर्यधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावर यतया चतुरस्रम् अन्यूनाधिकाश्चतस्रः अस्रयः-कोणा यस्य तत्
अब सूत्रकार पूर्वोक्त संस्थानानुपूर्वी का स्वरूप कथन करते हैं-- "से किं तं संठाणाणुपुत्री" इत्यादि।
शब्दार्थ-- (से कि तं संठाणाणुपुरुषी ?) हे भदंत ! पूर्वप्रक्रान्त संस्थानानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? ___उत्तर-- (संठाणाणुपुब्धी तिविहा पण्णत्ता) संस्थानानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं -- (पुत्राणुपुत्री, पच्छाणुपुथ्वी, अणाणु पुव्वी) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी (से किं तं पुराणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(पुव्वाणुपुञ्ची) पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है-(समचउरंसे, निग्गोहमंडले, सादी खुज्जे वामणे हुंडे) समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधमंडल संस्थान, सादिसंस्थान, कुज संस्थान, वामन संस्थान,
હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત સંસ્થાનાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે" से कि त संठाणाणुपुची ?" त्याह
शहा- (से किं त' संठाणाणुपुवी ?) सावन ! पूति सस्थानाનવીનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्त२-(संठाणाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) सस्थानानुभूती' यानी ४सी छ. (तजहा) ते । नीय प्रभा छे-(पुटवाणुपुठवी पच्छाणुपुत्वी अणाणुव्वी) (1) पूर्वानुनी (२) पश्चानुनी भने (3) मानानुपूर्वा
-( से किं त पुजाणुपुञ्चो ? ) भाष! पूर्वानुपूर्वानु २१३५ यु छ?
उत्तर-(पुवाणुपुत्री) पूर्वानुमानु २१३५ मा प्रा२नुछे-(समच उरंसे, निमोहमंडले, सादी, खुज्जे, वामणे, हुंडे) सभयतु२५ संस्थान, न्यश्रीधभस સંસ્થાન, સાદિ સંસ્થાન, કુજ સંસ્થાન, વામન સંસ્થાન અને કુંડ સંસ્થાન,
अ० ७७
For Private and Personal Use Only
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६१०
अनुयोगद्वारसूत्रे
चतुरस्रम् | अनयोः कर्मधारयः । तुल्यारोहपरिणाहः सम्पूर्णलक्षणोपेताङ्गोपाङ्गावयवः स्वालाष्टाधिकशतोच्छ्रायः सर्वसंस्थानेषु मुख्यः पञ्चेन्द्रियजीवशरीराकारविशेष और हुंड संस्थान । आकृति विशेष का नाम संस्थान है । इन संस्थानों की जो परिपाटी है उसका नाम आनुपूर्वी है । यद्यपि ये संस्थान जीव और अजीव के संबन्धी होने से दो प्रकार के हैं तो भी " इस प्रकार के कथन से यहाँ जीव संबन्धी ही ग्रहण किये गये हैं । जिस संस्थान में नाभि से ऊपर के और नीचे के समस्त अवयव सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार अपने २ प्रमाण से युक्त हों, हीनाधिक न हों उसका नाम सम'चतुस्र है, " समं चतुस्रम् यस् तत् समचतुरस्रम् " यह इसकी व्युत्पत्ति है । इसका तात्पर्य यह है कि इस संस्थान में जितने भी शरीर के नाभि से ऊपर नीचे के अंग उपांग रूप अवयव होते हैं वे सब समस्त लक्षणों से सहित होते हैं। न्यूनाधिक भाव इनमें नहीं होता है शरीर के चारों कोने इसमें बराबर होते हैं । इस संस्थान में आरोह और परिणाह - उतार चढाव - एकसा होता है। सामुद्रिक शास्त्र में सुहावने शरीर के जितने भी लक्षण कहे गये हैं वे सब लक्षण इस संस्थान वाले शरीर के अंग और આ ક્રમ સૉંસ્થાના વિન્યાસ કરવે તેને સંસ્થાનાનુપૂર્વીના પ્રથમ ભેદ રૂપ પૂર્વાનુપૂર્વી કહે છે.
સસ્થાન એટલે આકાર આ આકારોની જે પરિપાટી તેનું નામ આનુ પૂર્વી છે જો કે આ સસ્થાન જીવ અને અજીવ વિષયક હાવાને કારણે મુખ્ય એ પ્રકારનું હાય છે, પરન્તુ " समचउरंसे " त्यहि જીવસ બધી સ`સ્થાનાને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે,
हो द्वारा यहीं
સમચતુરસ્ક્રૂ સ’સ્થાન જે સંસ્થાનમાં (આકાર વિશેષમાં) નાભિની નીચેના અને નાભિની ઉપરનાં સમસ્ત અવયવે સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં ખતાવ્યા પ્રમાણેના તપેાતાનાં પ્રમાણવાળાં હાય છે—હીન અથવા અધિક પ્રમાણવાળાં હાતાં નથી, તે સંસ્થાનને સમચતુરસ્ર સંસ્થાન કહે છે. તેની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે—
" समं चतुस्रम् यस्य तत् समचतुरस्रम् " मा उथनना लावार्थ नीचे आभाषे છે—આ સસ્થાનમાં નાભિની ઉપરનાં અને નચેનાં સમસ્ત અંગ ઉપાંગે સમસ્ત લક્ષણેાથી યુક્ત ડાય છે. કોઈ પણ અંગ ઉપાંગ ન્યૂન અથવા અધિકપ્રમાણુવાળું હતું નથી, પશુ સપ્રમાણ હાય છે તેમાં શરીરના ચારે ખૂણુા ખરાખર હાય છે આ સસ્થાનમાં આરાહુ અને અવરાહ-ચઢાવ અને ઉતાર-એક સરખા હૈાય છે. સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં સુંદર શરીરના જેટલાં લક્ષણેા કહ્યાં છે, તે બધાં લક્ષણા આ શરીરના અંગઉપાંગામાં જોવામાં આવે છે. આ સસ્થા
For Private and Personal Use Only
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४० संस्थानानुपूर्वीनिरूपणम्
૬૨
इत्यर्थः । न्यग्रोधमण्डलम् = न्यग्रोधो वटवृक्षरतद्वन्मण्डलं यस्य तत्तथा, यथा-न्यग्रोध उपरि सम्पूर्ण विवोऽधस्तनभागे पुन र्न तथा तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभागम्, अधस्तु हीनाधिकप्रमाणं विज्ञेयम् । सादिआदिरिह उत्सेबाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागी गृह्यते। आदिना= नाभेरधस्तनकायलक्षणेन सह वर्तते इति सादिः । यद्यपि सर्वशरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्व विशेषणान्यथाऽनुपपच्या विशिष्ट एवं प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह गृहयते, तत
पांगों में रहा करतें हैं । अपने अंगुल से इस संस्थान वाला शरीर १०८ अंगुल की ऊँचाईवाला होता है । यह संस्थान समस्त संस्थानों में मुख्य होता है । और यह पंचेन्द्रिय जीव के शरीरका एक विशेष आकाररूप होता है । न्यग्रोधमण्डल न्यग्रोध नाम वटवृक्ष का है। इसके समान जिसका मंडल हो अर्थात् जिस प्रकार न्यग्रोध- वटवृक्ष ऊपर में संपूर्ण अवयवोंवाला होता है और नीचे वैसा नहीं होता, उसी प्रकार यह संस्थान भी नाभि से ऊपर में बहुत विस्तारवाला होता है और नाभि से नीचे हीनाधिक प्रमाणवाला होता है ऐसे संस्थान का नाम न्यग्रोध मंडल है । सादि-नाभि से नीचे का जो उत्सेध नाम का देह भाग है वह यहां आदि से ग्रहण किया है। नाभि से नीचे का भाग कायरूप आदि के साथ जो रहता है उसका नाम सादि है । यद्यपि समस्त शरीर आदि सहित होते हैं तो भी संस्थान का जो सादि विशेषग
નવાળા મનુષ્યની ઊંચાઈ તેના ૧૦૮ આંગળપ્રમાણ હોય છે. આ સસ્થાન બધાં સ્થાનામાં મુખ્ય (શ્રેષ્ઠ) ગણાય છે. અને આ સસ્થાન પ’ચેન્દ્રિય જીવના શરીરના એક આકારવિશેષ રૂપ હાય છે.
ન્યગ્રોધમ’ડેલસ સ્થાન–વડના વૃક્ષને ન્યગ્રોધ કહે છે. તે વડના જેવુ' જે સંસ્થાન (આકાર) હાય છે તે સંસ્થાનનું નામ ન્યગ્રોધમડલસ સ્થાન છે. જેમ વડના ઉપરના ભાગ સ'પૂર્ણ અવયવેાવાળા હાય છે, પણ નીચે એવા હાતા નથી, એજ પ્રમાણે આ સસ્થાન નાભિથી ઉપરના ભાગમાં ઘણા વિસ્તાર વાળુ' હાય છે, પરન્તુ નાભિની નીચેને ભાગમાં ન્યૂનાધિક પ્રમાણવાળું હોય છે. માટે આ પ્રકારના સસ્થાનનું નામ ન્યગ્રોધમડલ સસ્થાન છે.
સાક્રિસ સ્થાન નાભિની નીચેના જે ઉત્સેધ નામના શરીરના ભાગ છે, તેને અહી. “ આદિ'' પદ વડે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. નાભિથી નીચેન જે ભાગ કાયરૂપ આદ્ધિની સાથે રહે છે તેનું નામ 'साहि ' छे. ले ! समस्त શરીર આદિ સહિત જ હોય છે, છતાં પણુ અહી જે ભ્રાપ્તિ વિશેષણુ લગા
For Private and Personal Use Only
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
६१२
अनुयोगद्वारसूत्रे उक्तम्-उत्सेधबहुलमिति। अत्रेदमुक्त भवनि-यत्स्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुषी च हीनं तत्सादीति बोध्यम् । कुज-यत्र संस्थाने शिरो ग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणलक्षगोपेतम् , उदरादिमण्डलं च यथोक्तप्रमाणरहितं तत् कुब्जामिन्युच्यते । वामनम्-यत्र तु हृदयोदरपृष्ठं सर्वलक्षणोपेतं शेषं तु हीनलक्षणं तद् वामनम्-कुनविपरीतमित्यर्थः । हुण्डम् =पत्र संस्थाने सर्वेऽप्यवयवाः प्रायो लक्षणविरुद्धा भवन्ति, तत्संस्थानं हुण्डमित्युच्यते। चतुरस्रसंस्थानस्य समस्तलक्षरखा है वह अन्यथानुपपत्ति के बल से विशिष्ट प्रमाणलक्षणोपेत आदि से ही संबंधित होता है। इसीलिये उत्सेधबहुल ऐसा कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि नाभि से नीचे का भाग जिम संस्थान में बहुत विस्तारवाला होता है और नाभि से ऊपर का भाग हीन होता है वह संस्थान सादि है। कुब्ज जिप्त संस्थान में शिर, ग्रीवा, हाथ, पग आदि यथोक्त प्रमाणवाले हों और उदर आदि का मंडल यथोक्त प्रमाण से विहीन हो वह कुब्ज संस्थान है । वामन-जिस संस्थान में हृदय, उदर और पीठ ये समस्त लक्षणों से युक्त हों और बाकी के अवयव हीन लक्षणवाले हो उसका नाम वामन संस्थान है । यह संस्थान कुब्ज से विपरीत होता है।हुण्ड संस्थान-जिस संस्थान में समस्त अवयत्र प्रायः लक्षणहीन होते हैं उसका नाम हुण्ड संस्थान है। समचतुस्र संस्थान समस्त लक्षणों से ડવામાં આવ્યું છે, તે અન્યથાનુપત્તિના બળથી વિશિષ્ટ પ્રમાણ લક્ષણે પેત આદિ વડે જ સંબંધિત હોય છે. તેથી જ તેને ઉત્સધ બહુલે કહ્યું છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જે સંસ્થાનમાં નાભિની નીચેનો ભાગ ઘણું વિસ્તારવાળે હોય, પરંતુ નાભિની ઉપરને ભાગ હીન માણવાળે હોય છે, તે સંસ્થાનને સાદિ સંસ્થાન કહે છે.
કુસંસ્થાન–જે સંસ્થાનમાં શિર, ગ્રીવા, હાથ, પગ આદિ અંગે શાસ્ત્રોક્ત પ્રમાણવાળાં હોય, પરંતુ ઉદર આદિ અંગે યક્ત પ્રમાણથી વિહીન હોય છે, તે સંસ્થાનને કુસંસ્થાન કહે છે.
વામનઃસંસ્થાન–જે સંસ્થાનમાં હૃદય, પેટ, અને પીઠ, આ અંગે સમસ્ત લક્ષણેથી યુક્ત હોય છે, પરંતુ બાકીનાં અવયે હીન લક્ષણવાળાં હોય છે, તે સંસ્થાનને વામન સંસ્થાન કહે છે. આ સંસ્થાન કુજ સંસ્થાન કરતાં વિપરીત લક્ષણોવાળું હોય છે.
હંડસંસ્થાન–જે સંસ્થાનમાં શરીરનાં બધા અવયવો યથાક્ત લક્ષણવાળાં હેવાને બદલે વિપરીત લક્ષવાળાં હોય છે, તે સંસ્થાનને
संस्थान ४ छे..
For Private and Personal Use Only
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४० संस्थानानुपूर्वीनिरूपणम् ६१३ णोपेतत्वात मुख्यत्वम् । ततः शेषाणां यथाक्रमं हीनत्वाद् द्वितीयादित्वं बोध्यम् । सैषा पूर्शनुपूर्वी बोध्या। पश्चानुपूर्वी तु, हुण्डादि चतुरसान्ता बोध्या । तया-चतुरस्रादि हुण्डान्तानां पदानामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः। आद्यन्तरूपद्वयभङ्गकवित्रक्षामपहाय ये भङ्गास्ते-अनानुपूर्वीति । ननु यदीत्थं संस्थानानुपूर्वी मोच्यते, तर्हि संहननवर्णरसस्पर्शायानुपूर्योऽपि वक्तव्याः स्युः, तथा सति आनुपूकः प्राग् द्वासप्ततितमसूत्रोक्तदशसंख्यकत्वमेव परिहीयेत, एवं च आनुपूर्वाः दशविधत्व युक्त होता है इसलिये उस में मुख्यता है। शेष प्रमाणोपेत-लक्षणों से यथाक्रम होन हैं इमलिये उन में अमुख्यता द्वितीयता आदि है। यही पूर्वप्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी है । हुण्ड संस्थान से लेकर समचतुरस्त्र संस्थान तक पश्चानुपूर्वी होती है । तथा समचतुरन से लेकर हुण्ड संस्थान तक के पदों का परस्वर में गुणाकरने पर और उस गुणिन राशि में आदि अंत के भंगद्वय की विवक्षा कम करने पर जो भंग होते हैं उन भा स्वरूप अमानुपूर्वी होती है । शंका-यदि इस प्रकार से संस्थानानुपूर्वी आप कहते हैं तो संहनन, वर्ण, रस, स्पर्श आदिकों की भी आनुपूर्वियां आपको कहनी चाहिये । इस प्रकार से आनुपूर्वियां कहने पर जो७२ वें सत्र में " आनुपूर्वियां दश होती हैं " ऐसा कहा है सो उस संख्या में ही आती है।
સમચતુરસ્ત્ર સંસ્થાન સમસ્ત લક્ષણેથી યુક્ત હોય છે. તેથી તેમાં પ્રધાનતા માનીને તેનું કથન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. બાકીનાં સંસ્થાને શાસ્ત્રોક્ત લક્ષણે કરતાં ક્રમશઃ ઓછાં ઓછાં લક્ષણો ધરાવે છે તેથી તે સંપાનને ગૌણ ગણીને તેમનું કથન સમચતુરન્સ સંસ્થાનનું કથન કર્યા બાદ કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રકારને કથનને જે કમ છે તેને જ અહીં પૂર્વાનુપૂર્વી રૂપ ગણવામાં આવેલ છે. હુંડ સંસ્થાનથી લઈને ઊલટા ક્રમે સમચતુ સ પર્યતન સંસ્થાનેને ક્રમ રાખવાથી પશ્ચાનુપૂર્વી રૂપ બીજી સંસ્થાન નુપૂર્વ બને છે
અનાનુપૂર્વી–સમચતુરન્સ સંસ્થાનથી લઈને હુંડસંસ્થાન પર્યન્તની એક એકની વૃદ્ધિવાળી શ્રેણિમાં સ્થાપિત સંસ્થાનોને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર (સંજન) કરવાથી જે ગુણિતરાશિ આવે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભગોને બાદ કરવાથી જે ભંગસમૂહ બાકી રહે છે, તે લંગસમૂહ રૂપ અનાનુપૂવી હોય છે.
श-२ मा प्ररे भा५ सस्थानानुपूवीर्नु ४थन ४२ छौ, तो सहनन, વર્ણ, રસ, સ્પર્શ આદિકની આનુપૂર્વી એનું આપે કથન કરવું જોઈએ આ પ્રકારે આનુપૂવી ઓ કહેવામાં આવે તે ૭૨માં સૂત્રમાં “આનુપૂર્વીએ દસ હોય છે,” આ પ્રકારનું જે કથન કર્યું છે તે કેવી રીતે સંમત માની શકાય?
For Private and Personal Use Only
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
દૃશ્ય
अनुयोगद्वारसूत्रे
कथनमसंगतम् ? इति चेदाह पूर्वी कमानुपूर्व्या दशविधत्वं नो संख्याया नियामकम् अपि तु उपलक्षणमात्रम् । अतो दशविधानुपूर्व्यतिरिक्ता अन्या अपि संभाव्यमाना आनुपूर्व्यः सुधिया स्वधिया विभावनीयाः ॥ म्रु० १४० ॥
अथ सामाचार्यानुपूर्वी माह
"
मूलम् - से किं तं सामायारी आणुपुव्वी ? सामायारी आणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- पुत्राणुपुत्री पच्छानुपुत्री अणाणुपुवी । से किं तं पुवानुपुवी ? पुव्वाणुपुथ्वी - इच्छागारो, मिच्छागारो, तहक्कारो आवस्तिया, निसीहिया, आपुच्छणा, पडिपुच्छणा, छंदणा, निमंतणा, उवसंपया । से तं पुत्राणुपुत्री से किं तं पच्छाणुपुद्दी ? पच्छाणुपुवी-उवसंपया जात्र इच्छागारो । से तं पच्छाणुपुत्री | से किं तं अणाणुपुत्री ? अगाणुपुत्री - एयाए चैव एगाइयाए एगुत्तरियाए दसगच्छ्गयाए सेढीए अन्नमन्नन्भासो दुरूवूणो से तं अणाणुपुव्वी । से तं सामायारी आणुपु०त्री । सू. १४१।
छाया - अथ का सा सामाचार्यांनुपूर्वी ? सामाचार्यांनुपूर्वी त्रिविधा मज्ञप्ता, तद्यथा- पूर्वानुपूर्वी पचानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी - इच्छाकारः, मिथ्याकारः, तथाकारः, आवश्य की, नैषेधिकी, आपच्छना, प्रतिपच्छना, छन्दना,
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तर पहिले जो आनुपूर्वी में दश प्रकारता प्रकट की है वह संख्यात की नियामकता रूप से प्रकट की है, किन्तु वह तो उपलक्षण मात्र से कही है । इसलिये दश प्रकार की आनुपूर्वियों से भी अतिरिक्त और भी अनुपूर्वियां संभवित होती हैं ऐसा इससे भाव निकलता है। इसलिये ऐसी आनुपूर्वियों को बुद्धि शाली जन अपनी बुद्धि से उद्धावित करलें । सूत्र " १४० "
ઉત્તર-પહેલાં આનુપૂર્વી માં જે દસ વિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે સખ્યાતની નિયામકતા રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવી નથી, પણ તે તા ઉપ લક્ષણ માત્રની અપેક્ષાએ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, તેથી દસ પ્રકારની આનુપૂર્વી સિવાયની ખીજી આનુપૂર્વી એ પણ સભવિત હૈય છે, એવા તે કથનના ભાવાર્થ સમજવા તેથી બુદ્ધિશાળી માણસાએ એવી આનુપૂર્વી આને પાતાની બુદ્ધિથી જ ઉદ્ભાવિત કરી લેવી જોઈએ, સૂ॰૧૪૦ના
For Private and Personal Use Only
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम् ६१५ निमन्त्रणा, उपसंपत् । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वीउपसंपद यावदिच्छाकारः। सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानु पूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामे कोत्तरिकायां दशगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी । सैषा सामाचार्यानुपूर्वी ॥५० १४१॥
टीका-से कि तं' इत्यादि
अथ का सा सामाचार्यानुपूर्वी ? इति शिष्यमश्नः। सामाचार्यानुपूर्वीसमाचरणं समाचारः शिष्टजनाचरितः क्रियाकलापः, स एव सामाचारी, स्वार्थव्यञ्, पित्वान्डीप्, तद्रूपा आनुपूर्वी सामाचार्यानुपूर्वी । सा हि पूर्वानुपूर्व्यादि
अय सूत्रकार सामाचारी आनुपूर्वी का कथन करते हैं -- "से किं तं सामायारी आणुपुची" इत्यादि ।
शब्दार्थ--(से किं तं सामायारी आणुपुची) हे भदन्त ! पूर्वप्रकान्त सामाचारी आनुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(सामायारी आणुपुधी तिविहा पण्णत्ता) सामाचारी आनुपूर्वी का तात्पर्य है शिष्यजनों द्वारा आचरित क्रियाकलाप रूप समाचार । यह समाचार ही स्वार्थ में व्यञ् प्रत्यय और ङीष् होने से सामाचारी ऐसा बन जाता है। इस सामाचारी रूप जो आनुपूर्वी है। वह सामाचारी आनुपूर्वी कही जाती है। यह आनुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे (पुव्वाणुपुत्री,पच्छाणुपुषी, अणाणुपुव्वी)पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी। (से किं तं पुव्वाणुपुब्धी) हे भदन्त! पूर्वापूर्वी सामाचारी क्या है?
હવે સૂત્રકાર સામાચારી આનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं सामायारी आणुपुठवी " त्या
शा-(से किं तं सामायारी आणुपुव्वी १) मापन् ! भूत સામાચારી આનુપૂવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(सामायारी आणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा) शिष्य द्वारा આચરિત ક્રિયાકલાપ રૂપ સમાચારને સામાચારી આનુપૂર્વી કહે છે. તે સમા ચાર જ સામાચારી રૂપ હોવાથી તેનું નામ સામાચારી પડયું છે. આ સામાચારી રૂપ જે આવી છે તેને સામાચારી આનુપૂવી કહે છે. તેના नाये प्रमाणे त्रय र ४ा छ-(पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुवी, अणाणुपुव्वी) (१) पूर्वानुपूवी, (२) ५श्वानु यूवी मन (3) मनानुभूती.
प्रश्न-(से किं तं पुव्वाणुपुबी') मापन ! पूर्वानुपूवी सामायारीनु સ્વરૂપ કેવું છે ?
For Private and Personal Use Only
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे भेदेन त्रिविधा प्रज्ञप्ता । तत्र पूर्शनुपूर्वी इच्छाकारः, मिथ्याकारः, तथाकारः, तत्र-इच्छाकारः-इच्छाया बलाभियोगमन्तरेण करणम् ॥१॥मिथ्याकार: मिथ्या यदेतन्मयाऽऽचरितं तदसदिति मनसि करणम् । कस्मिंश्चिदकृत्ये कर्मणि कृते सति भव्येनैवं विचिन्त्यते -यदिदं मया कृतं तद् भगवताऽनुक्तत्वात् मिथ्याभूनम् , अतो मयेदं दुष्कृतं कृतमित्येवं यदसक्रियातो निवृत्तिः स मिथ्याकार इति भावः॥२॥
उत्तर - (पुधाणुपुयी) पूर्वानुपूर्वी सामाचारी इस प्रकार से है(इच्छागारो मिच्छागारो, तहक्कारो आवस्सिया निसीहिया, ओपुच्छणा' पडिपुच्छणा छंदणा' निमंतणा, उपसंपया) इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यकी, नैषेधिकी, आप्रच्छना, प्रतिप्रच्छना, छन्दना, निमंत्रणा,
और उपसंपन् । किसी की जबर्दस्ती विना व्रतादिक आचरण करने की इच्छा करना इसका नाम इच्छाकार है। मेरे प्रमाद आदि से अकृत्य का सेवन हो गया है वह मेरा निष्फल हो-असत् हो ऐसा मन में विचार करना इसका नाम मिथ्याकार है ! कोई अकृत्य कर्म जब बन जाता है। तब भव्यपुरुष मन में ऐसा चिन्तवन करता है कि जो यह मैंने किया है वह भगवान् द्वारा अनुक्त होने से मिथ्याभूत है । इसलिये यह दुष्कृत्य है और यह मैंने किया है-अब आगे नहीं करूंगा-इस प्रकार
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) पूर्वानुभूती सामायारीनु २१३५ मा प्रा२नु छ(इच्छागारो, मिच्छागारो, तहक्कारो, आवस्सिया, निसीहिया, आपुच्छणा, पडिपुच्छणा, छंदणा, निमंतणा, वसंपया) ७२७।४।२, मिथ्या४२, तथा४२, આવશ્યકી, નધિ, આમછના, પ્રતિપ્રચ્છના, છન્દના, નિમંત્રણ અને ઉપસંપત્, આ ક્રમે પદને વિન્યાસ (સ્થાપના) કરે તેનું ના પૂર્વાનુપૂર્વી સામાચારી છે. હવે ઈચ્છાકાર આદિ પદોને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છેકેઈની બળજબરી વિના બહારના કોઈ પણ દબાણ વિના-વાદિક આચરવાની ઈચ્છા કરવી તેનું નામ ઈચછાકાર છે.
મારા દ્વારા પ્રમાદ આદિને કારણે આ અકૃત્યનું જે સેવન થઈ ગયું છે, તે મારું અકૃત્ય નિષ્ફલ (મિથ્યા) હે,” આ પ્રકારને મનમાં વિચાર કરે તેનું નામ મિથ્યાકાર છે. જ્યારે કેઈ અકૃત્યનું સેવન થઈ જાય છે ત્યારે ભવ્યપુરુષ મનમાં એવું ચિત્તવન કરે છે કે “ આ મેં જે કર્યું છે તે ભગવાન દ્વારા અનુક્ત હોવાથી મિથ્યાભૂત છે. તેથી તે દુષ્કૃત્ય રૂપ જ છે. એવું દુષ્કૃત્ય મારા વડે સેવાઈ ગયું છે, પરંતુ હવેથી હું તેનું સેવન નહીં કરું, ” આ પ્રકારને વિચાર કરીને અસત્ ક્રિયાઓથી દૂર રહેવુંએવી ક્રિયાઓ કરતાં પાછાં હઠવું, તેનું નામ મિથ્થાકાર છે.
For Private and Personal Use Only
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम्
६१७
तकार - सूत्रगाख्यानादौ प्रस्तुते गुरुभिः कस्मिंश्चिद् वचस्युदीरिते सति यथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति तथैचैत" दित्येवं करणम्-वितर्कमकृत्यैव गुर्वाज्ञाऽभ्युपगम इत्यर्थः ॥ ३ ॥ आवश्यकी - ज्ञानाद्यर्थमुपाश्रयादवश्यं बहिर्गमने समुपस्थिते 'अवश्यमिदं कर्तव्यमतोsहं गच्छामि' इत्येवं या गुरुं प्रति निवेदना सा आवश्यकीति तात्पर्यम् ॥ २ ॥ नैषेधिकी - निषेवे भरा-नैषेधि की उपाश्रयाद् बहिः कर्तव्यव्यापारं परिसमाप्य पुनस्तत्रैव पविशतः साधोः शेषसाधूनामुत्त्रासादि-दोषपरिजिहीर्षया बहिर्व्यापार निषेधेन उपाश्रय प्रवेशम्रचनम् ||५|| आप्रच्छना = " भदन्त ! करोमीद" विचार कर असत् क्रियाओं से पीछे हटना उनसे दूर रहना इसका नाम मिथ्याकार है। सूत्र व्याखशन आदि जब हो रहा हो तब उस समय गुरुजन जो कोई भी वचन उच्चरित करें तब ऐसा कहना कि जिस प्रकार आप कहते हैं वह वैसा ही है। इसका नाम तथाकार है । तात्पर्य ग्रह है कि feaर्क किये बिना ही गुरुदेव की आज्ञा का स्वीकार करना तथाकार है। आवश्यक कर्तव्य करने के लिये उपाश्रय से बहिर्गमन यदि अवश्य कर्तव्य रूप में उपस्थित हो तब अवश्यं कर्तव्यमिदम् अतो गच्छामि' ऐसा ख्याल करके गुरु से बाहर जाने की आज्ञा प्राप्त करने के लिये निवेदन करना इसका नाम आवश्यकी है। उपाश्रय से बाहिर कर्तव्य कर्म को समाप्त करके जब साधु उपाश्रय में प्रवेश करे, तब शेष साधु जनों को मेरे द्वारा कोई उत्वास आदि न हो इस प्रकार के ख्याल से उपाश्रय में अपने प्रवेश की सूचना देना इसका नाम नैषेधिकी है।
19
સૂત્રનું વ્યાખ્યાન આદિ જ્યારે ચાલી રહ્યું હાય, ત્યારે ગુરુ જે ૧૨ના કહે તેને સ્વીકારી લેવાં. હું ગુરુદેવ! આપ જે કહે છે તે ખરૂ જ છે— આપની વાતયથા છે, " या प्रकरनां वयनानु' उभ्या ४२ तेनु' નામ તથાકાર છે. એટલે કે ઉતર્ક કર્યાં વિના જ ગુરુની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરવા તેનું નામ તથાકાર છે.
66
""
આવશ્યકી–આવશ્યક કન્ય કરવાને માટે ઉપાશ્રયમાંથી બહાર જવાનું ले अवश्य उतव्य ३ये उपस्थित थाय, तो " अवश्यं कर्तव्यमिदम् अतो गच्छामि " આ કાર્ય અવશ્ય કરવા ચૈગ્ય છે, આ પ્રકારને વિચાર કરીને મહાર જવાની આજ્ઞા પ્રશ્ન કરવા માટે ગુરુની આગળ નિવેદન કવુ' તેનું નામ આવશ્યકી છે. ઉપાશ્રયની બહારના કાર્યને પતાવીને જ્યારે સાધુ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે, ત્યારે તે પેાતાના ઉપાશ્રયમાં પાછાં ફરવાની સૂચના આપે છે. આ પ્રકારે ઉપ શ્રમાં પુનઃપ્રવેશની જે સૂચના અપાય છે તેને નૈષષિકી કહે છે. આમ કરવાનું કારણ એ છે કે તેના આગમનની પ્રતીક્ષા કરતા બાકીના
अ. ७८
For Private and Personal Use Only
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र मित्येवं गुरुं प्रति प्रच्छनम् ॥६॥ प्रतिप्रच्छना=किंचित्कर्त्तव्यमुद्दिश्य शिष्येण पृष्टं गुरुः तत्कार्य का दत्ताज्ञोऽपि पुनः कार्यारंभसमये कथयति-सा प्रतिपच्छना अथवा-ग्रामान्तरगमनाय गुरुणादिष्टः शिष्यो गमनकाले यत्पुनर्गुरुं प्रतिपृच्छति सा प्रतिपच्छना एवं प्रत्येककार्येऽपि वोध्यम्' १७॥ छन्दना-साधुः स्वानीताश नाघुपभोगविषये गुज्ञिया 'परिभुङ्क्षवेदं कुरु मयि कृपाम् ' इत्येवं-यथारानिक मन्यसाधून प्रति आग्रहं करोति, सा छन्दना ॥८॥ निमन्त्रणा इमं-पदार्थमुप. हे भदन्त ! मैं यह काम करता है इस प्रकार से गुरु महाराज से पूछना इसका नाम आप्रच्छना है। किसी कर्तव्य कार्य को उद्देश्य करके जब शिष्य गुरुजन से उस कार्य को करने की आज्ञा प्राप्त करने के लिये पूछता है, और कार्य की आज्ञा होने पर भी कार्य करने के समय में गुरु से पुनः पूछना इसका नाम प्रतिपच्छना है। अथवा दूसरे ग्राम में जाने के लिये गुरुद्वारा आदिष्ट हुआ शिष्य जव जाने लगे तो उसका कर्तव्य है कि वह जाते समय पुनः गुरु महाराज से पूछे-इस प्रकार के पूछने का नाम भी प्रतिप्रच्छना है। यह प्रतिप्रच्छना प्रत्येक कार्य में भी हो सकती है। साधु अपने भाग का आहार आदि के लिये यथा रास्निक अन्य साधुओं से गुरु की आज्ञा प्राप्त कर जो ऐसा आग्रह
સાધુએને તેના આગમનની ખબર પડે છે અને તેના દ્વારા કેકને ઉત્રાય ઉત્પન્ન થવાની સંભાવના રહેતી નથી. .. माछा -'हे सगवन्! हुमा म ४३ " ! प्ररे गुरु મહાજને પૂછવું તેનું નામ આપ્રચ્છના છે.
પ્રતિપ્રચ્છના-કેઈ કામ કરવા માટે શિષ્ય ગુરુ પાસે આજ્ઞા માગે, અને તે કાર્યની ગુરૂએ આજ્ઞા આપ્યા છતાં પણ કાર્ય કરતી વખતે આ પ્રમાણે ગુરુને ફરીથી પૂછવું તેનું નામ પ્રતિપ્રચ્છના છે
અથવા–બીજે ગામ જવાની ગુરુ દ્વારા આજ્ઞા મળી હોય. છતાં પણ બીજે ગામ ગમન કરતી વખતે શિષે ફરીથી ગુરુની આજ્ઞા લેવી જોઈએ આ પ્રકારે પૂર્વે આજ્ઞા પ્રાપ્ત થઈ ગયા બાદ ગમન કરતી વખતે ગુરુને ફરી જે પૂછવામાં આવે છે તેનું નામ પ્રતિપ્રચ્છના છે પ્રત્યેક કાર્યમાં પણ આ પ્રતિપ્રચ્છના સંભવી શકે છે.
છંદના–પિતાના ભાગના આહારદિને ભેજનાદિ રૂપે ગ્રડણ કરવાની અન્ય સાંગિક સાધુઓને વિનંતિ કરવી તેનું નામ ઈદના છે. ગુરુની આજ્ઞા લઈને તે સાધુ યથાનિક અન્ય સાધુઓને આ પ્રમાણે આગ્રહ કરે
For Private and Personal Use Only
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम् लभ्याहं तुभ्यं दास्यामीति मे भावो वर्तते ' इत्येवं पदार्थप्राप्तेः पूर्वमेव यत्साधू नामामन्त्रगं सा निमन्त्रणा । उक्तंच
___ "पुबग्गहिएण छंदण निमंतणा होई अग्गहिएणं" छाया-पूर्वगृहीतेन छन्दना निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेनेति ॥९॥ तथा-उपसम्मत्="त्वदीयोऽह" मित्येवं रूपेण श्रुताधर्थमन्यदीयसत्ताऽभ्युपगमः ॥१०॥ इह धर्मस्य परानुपतापमूलत्वात् इच्छाकारस्य आज्ञाबलाभियोगलक्षणपरो. पतापवर्जकत्वात् प्राधान्येन प्रथममुपन्यासः। परानुपतापकेनापि च कथंविस्खलने करता है कि मुझ पर कृपा करके इसे आप ग्रहण करिये-अपने उपयोग में लाइये उसका नाम छंदना है। पदार्थ प्राप्ति के पहिले ही जो अन्य साधुजनों से ऐसा कहना कि इस पदार्थ को लाकर मैं तुम्हें दूंगा इसका नाम निमंत्रणा है। उक्तं च करके (पुव्वग्गहिएण) इत्यादि गाथा द्वारा यही बात कही गई है । श्रुनादिके अर्थ को सीखने के लिये में आपका ही हूँ इस प्रकार से अन्य साधु आदि की आधीनता स्वीकार करना इसका नाम उपसंपत् है। धर्म परानुपतापमूलक होता हैअर्थात् धर्म वही है कि जिस से-किसी भी प्राणी को कष्ट न हो। इच्छाकार इसी प्रकार का धर्म है। क्योंकि इसमें जिनव्रतादिकों को
आचरण करनेकी इच्छा की जाती है उसमें पर की आज्ञा और बला. भियोग काम नहीं करता है। क्योंकि इन से दूसरे प्राणियों को संताप છે-“કૃપા કરીને આપ આ આહારદિને ગ્રહણ કરે અને તેને ઉપગ કરો.” આ પ્રકારની સાધુ સામાચારીનું નામ છેદના છે.
નિમંત્રણ–પદાર્થની પ્રાપ્તિ થયાં પહેલાં કઈ પણ સાધુને કઈ પણ અન્ય સાધુ દ્વારા એવું જે કહેવામાં આવે છે કે અમુક પદાર્થ વહેરી લાવીને હું આપને આપીશ, આ પ્રમાણે કઈ પણ વસ્તુ લાવી આપવાનો भाव छ तेम तेतुं नाम निभत्रणा छ. "पुव्वग्गहिएण" त्यादि સૂત્રપાઠ દ્વારા આ વાત જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
ઉપસંપત-કૃતાદિને અર્થ શીખવાને માટે “હું આપને જ છું, ” આ પ્રકારનાં વચને દ્વારા અન્ય સાધુની આધીનતાને સ્વીકાર કરે તેનું નામ ઉપસં૫ત્ છે. - ધર્મ પરાનુપતાપમૂલક હોય છે. એટલે કે ધર્મ તેને જ કહી શકાય કે જેના દ્વારા કોઈ પણ પ્રાણીને કષ્ટ ન થાય ઈચ્છાકાર એજ પ્રકારનો ધર્મ છે, કારણ કે તેમાં જે વ્રતાદિકેનું આચરણ કરવાની ઈચ્છા કરાય છે, તેમાં અન્યની આજ્ઞા અથવા બળજબરી ચાલી શકતી નથી, કારણ કે એવી આજ્ઞા
For Private and Personal Use Only
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६२०
अनुयोगद्वारसूत्र मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमिति तदनन्तरं मिथ्याकारस्योपन्यासः । एतौ य गुरुवचनपतिपत्तावेव ज्ञातुं शक्यौ, गुरुवचनं च तथाकारकरणेनैव सम्यक् प्रतिपन्नं भवतीति तदनन्तरं तथाकारस्योपन्यासः । गुरुवचनं स्वीकृत्यापि शिष्य उपाश्रयाद् बहिनिर्गमनकाले गुरुं पृष्ट्वैर निर्गच्छन्, अतस्तथाकारानन्तरं गुरुपृच्छारूपाया आव. श्यषयाः कथनम् । बहिनिर्गतः शिष्यो नैषेधिक पूर्वकमेवोपाश्रये प्रविशेदिति आवश्यक्या अनन्तरं नैषेधिक्याः कथनम् । उपाश्रये प्रविष्टः साधुर्मुरुमापृच्छयैव सर्वहोता है या हो सकता है। अतः व्रतादिकों की चाहना में आत्मा की निज इच्छा ही काम करती हैं । इसलिये इच्छाकार में प्रधानता होने से उसका यहां सर्व प्रथम उपन्याप्त किया है। दूसरों को अनुपतापक होने वाले भी गुरुजन द्वारा कथंचित् व्रतादिक से स्खलित होने पर शिष्या. दिजनों के लिये मिथ्यादुष्कृत दिया जाता है इसलिये इच्छाकार के बाद में मिथ्या दुष्कृत का पाठ रखा है । इच्छाकार और मिथ्यादुष्कृत वे दोनों गुरुवचनों पर विश्वास रखने पर या उनकी स्वीकृति करने पर ही ज्ञातुं शक्य हैं इसलिये गुरुमहाराज के वचनों का स्वीकार किया जाना तथा कार से ही जाना जाता है इसलिये मिथ्याकारके बाद तथाकार का पाठ रखा है । गुरुवचन को स्वीकार करके भी शिष्य का कर्तव्य है कि जब वह उपाश्रय से बाहर जावे तो गुरु से पूछकर ही जावे इस बात को स्पष्ट करने के लिये तथाकार के बाद आवश्यकी અને બળજબરી કરવામાં આવે તે અન્ય જીવને સંતાપ થાય છે કે થઈ શકે છે. તેથી વતાવિકની ચાહનામાં આત્માની પિતાની જ ઈરછા કાર્યસાધક બને છે. આ પ્રકારે ઈચ્છાકારમાં પ્રધાનતા હોવાને કારણે અહીં સૌથી પહેલાં ઉછાકારને ઉપવાસ કરવામાં આવે છે. જયારે કઈ સાધુ કેઈ અકૃત્યનું સેવન કરે છે અથવા વ્રતાદિકનો ભંગ કરે છે ત્યારે અન્ય જીને કષ્ટ નહીં આપનારા એવાં ગુરુજને દ્વારા મિથ્યાદુકૃત દેવામાં આવે છે, તેથી ઇચ્છાકારને ઉપવાસ કર્યા બાદ મિથ્યાકારને ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે. ઈચ્છાકાર અને મિથ્યાદુષ્કત, આ બનેને સાવ ત્યારે જ હોઈ શકે છે કે જ્યારે ગુરુનાં વચને પર શિષ્યને વિશ્વાસ હોય છે. ગુરુના વચનનો શિષ્ય સ્વીકાર કરે છે, એ વાત તથાકાર વડે જ જાણી શકાય છે. તે કારણે મિથ્યાકાર પછી તથાકારને પાઠ રાખવામાં આવ્યા છે.
ગુરુના વચનને તથાકાર દ્વારા સ્વીકાર કરનાર શિષ્ય ઉપાશ્રયમાંથી કે આવશ્યક કાર્ય નિમિત્ત બહાર જવા માટે ગુરુની આજ્ઞા લેવી જોઈએ, એજ વાતને સ્પષ્ટ કરવાને માટે તથાકાર પછી આવશ્યકીને પાઠ રાખવામાં આવ્યું
For Private and Personal Use Only
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
3D
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम् ६२१ मनुतिष्ठेदिति नषेधिक्या अनन्तरमाप्रच्छनायाः कथनम् । किंचित्कार्य कर्तुमध्यवसितः पाप्ताज्ञोऽपि शिष्यः कार्यकरणसमये गुरुं पुनः पृच्छेदिति गुरोरनुमति प्राप्तुकामः कारणपदर्शनपूर्वकं पुनःपृच्छेदिति आप्रच्छनानन्तरं प्रतिपच्छनायाः कथनम् । प्रतिपृष्टेन गुरुगाऽनुज्ञातः शिष्योस्वसंविभागप्राप्ताशनाद्याहारपरिमोगार्थ पर्यायज्येष्ठक्रमेण साधूनामन्त्रयेदिति प्रतिपच्छनानन्तरं छन्दनाया उपन्यासः । का पाठ रखा है। बाहर गया हुआ शिष्य नैषेधिकीपूर्वक ही उपाश्रय में प्रवेश करे इस विषय को बताने के लिये आवश्यकी के बाद नैषे. घिकी का पाठ रखा है। उपाश्रय में प्रविष्ट हुआ शिष्य जो कुछ भी करे वह गुरुमहाराज की आज्ञा लेकर ही करे इस विषय को कहने के लिये नैषेधिकी के बाद आप्रच्छना का पाठ रखा है। किसी कर्तव्य कार्य को करने के लिये शिष्य गुरु महाराज से पूछे परन्तु वे यदि उस कार्य को करने की आज्ञा देवें शिष्य तत्पश्चात् पुनः आवश्यक कार्य को करने के लिये गुरु महाराज से आवेदन करे और उस कार्य को करने की उनसे आज्ञा प्राप्त करने के लिये पूछे यह संबंध बताने के लिये आप्रच्छना के बाद प्रतिप्रच्छना का पाठ रखा है। गुरु महाराज से आज्ञा प्राप्त कर अशनादिक को लाया हुआ शिष्य उसके परिभोग के लिये सादर अन्य साधुओं को आमंत्रित करे इस बात को
છે. ઉપાશ્રયની બહાર ગયેલા સાધુએ નધિકીપૂર્વક જ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરવું જોઈએ, એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે આવશ્યકીના પાઠ પછી નહિં. કીને પાઠ રાખવામાં આવ્યું છે. ઉપાશ્રયમાં પ્રવિષ્ટ થયેલે શિષ્ય જે કામ કરે તે કામ તેણે ગુરુમહારાજની આજ્ઞા લઈને જ કરવું જોઈએ, એ વાત પ્રકટ કરવાને માટે નૈધિકીના પાઠ પછી આકચ્છનાને પાઠ રાખવામાં આવ્યું છે. કઈ પણ કાર્ય કરવા માટે શિષ્ય ગુરુની આજ્ઞા માગે અને ગુરુ તે કાર્ય કરવાની આજ્ઞા આપે, તે પછી થોડીવાર થોભીને તેણે ફરીથી કાર્યને આરંભ કરતી વખતે ગુરુની ફરીથી આજ્ઞા માગવી તે બતાવવા માટે પ્રતિપછના (ફરી પૂછવા)ને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે, તે કારણે સત્રકારે આપ્રચ્છના પછી પ્રતિપ્રચ્છનાને પાઠ મૂકે છે. ગુરુ મહારાજની આજ્ઞા લઈને જે આહારાદિ સાધુ લા હોય તેના ઉપભેગને માટે અન્ય સાધુઓને માનપૂર્વક બેલાવવા જોઈએ, એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે પ્રતિપ્રચ્છના પછી છન્દનાને પાઠ રાખવામાં આવ્યું છે.
For Private and Personal Use Only
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे छन्दना तु गृहीत एवाशनादौ संभवेत् , अगृहीते तु निमन्त्रणव, अवच्छन्दनाया अनन्तरं निमन्त्रणाया उपन्यासः।१ गुरूपसत्तिमन्तरेण=गुरुसामीप्यं विना इच्छा. कारादिनिमन्त्रणान्ता सर्वाऽपि सामाचारी गुरूपसत्तिमन्तरेण=गुरुसामीप्यं विना न ज्ञायते इति सर्वान्ते उपप्तम्पद उपन्यासः १ । इति पूर्वानुपूर्वावे हेतुळध्यः। उपसंहरन्नाह-सैषा पूर्वानुपूर्वीति । पश्चानुपूर्वी तु उपसम्पदादीच्छाकारान्ता बोध्या। कहने के लिये प्रतिप्रच्छना के बाद छन्दना का पाठ रखा है। गृहीत अशनादिक में ही छन्दना होती है परन्तु जो अगृहीत अशनादिक हैं उनमें तो निमंत्रणा ही होती है। इसलिये छन्दना के बाद निमंत्रणा का पाठ रखा है। इच्छाकार से लगाकर निमंत्रणा तक की जितनी भी सामाचारी हैं वे सब गुरु महाराज को निकटता के विना नहीं जानी जा सकती है इस बात को कहने के लिये अन्त में उपसंपत् का उपन्यास किया है । इस प्रकार इस सामाचारी के पूर्वानुपूर्वीस्व में यह सब हेतु जानना चाहिये।
। (से तं पुन्वाणुपुव्वी) इस प्रकार यह पूर्वानुपूर्वी है। (से कि तं पच्छाणुपुञ्ची) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी सामाचारी क्या है ?
उत्तर-(उवसंपया जाव इच्छागारो) उपसंपदा से इच्छाकार पर्यन्त (पच्छाणुपुवी) पश्चानुपूर्वी है । (से किं तं अणाणुपुब्धी ?) हे भदन्त !
ગૃહીત અશનાદિના વિષયમાં જ છન્દના સંભવી શકે છે, પરંતુ અગ્ર હીત અશનાદિકના વિષયમાં નિમંત્રણ સંભવી શકે છે, તે કારણે છન્દનાના પાઠ પછી નિમંત્રણાનો પાઠ રાખવામાં આવ્યું છે ઈછાકટરથી લઈને નિમત્રણ પર્યન્તની જેટલી સામાચારી છે, તેમને જાણવાને માટે ગુરુની નિકટતાની જરૂર રહે છે, એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૌથી છેલ્લે ઉપસંપને ઉપન્યાસ કરવામાં આવ્યું છે. સામાચારીમાં ઈચ્છાકાર આદિ ક્રમે પદની જે સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે. આ પદેને આ પ્રકારને शुभ मानानु ४२५ 3५२ ५४८ ४२वामा माव्यु छ. (से तं पुव्वाणुपुव्वी) આ પ્રકારનું પૂર્વાનુમૂવી સામાચારીનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(से किं तं पच्छाणुपुव्वी) भगवन्! ५श्चानुपूवी सामान्यारी ५१३५ छ ?
उत्तर-(वसंपया जाव इच्छा गारो) 6५साथी 5२४२७४२ ५. स्तन Saal भमा पानी उपन्यास (२थापना) ४२३। (पच्छाणुपुव्वी) તેનું નામ પશ્ચાનુપૂવી છે.
सह
For Private and Personal Use Only
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६२३
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४२ भावानुपूर्वीनिरूपणम् तथा-इच्छाकाराद्युपसम्पदन्तानां पदानामन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोन:-आघन्तपदद्वयविवक्षामपहाय ये भङ्गास्ते-अनानुपूर्वी बोध्याः। पकृतमुपसंहरन्नाह-सैषा सामाचर्यानुपूर्वीति ।मु० १४१॥
अथ भावानुपूर्वीमाह... मूलम्-सेकिंतं भावाणुपुवी? भावाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुन्वाणुपुब्बी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुवी। से किं तं पुव्वाणुपुत्री ? पुवाणुपुवी-उदए १, उपसमिए २, खाइए३, खआवसामिए४, पारिणामिए५, संनिवाइए६,। से तं पुवाणु. पुवी। से किं तं पच्छाणुपुव्वी? पच्छाणुपुव्वी संनिवाइए जाव उदइए। से तं पच्छाणुपुब्बी । से किं तं अणाणुपुवी ? अणाअनानुपूर्वी क्या है ? (अणाणुपुब्धी) अनानुपूर्वी सामाचारी इस प्रकार से है (एयाए चेव एगोइयाए उगुत्तरियाए दस गच्छगयाए सेटीए अण्णमन्नम्भालो दुरूवूगो) इच्छाकार से लेकर उपसंपदा तक के दश पदों का एक एक अधिक संख्या कर के परस्पर में गुणा करना चाहिये और इस प्रकार से जो राशि उत्पन्न होवे उसमें से आदि अन्त के भंग छय की विवक्षा को कम कर देना चाहिये । अन्त में जितने भंग बचते हैं उन भंगात्मक यह अनानुपूर्वी सामाचारी होती है। (से तं सामागारी आणुपुव्वी) इस प्रकार यह सामाचारी आनुपूर्वी है ॥सू० १४१।।
प्रश्न-(से किं त अणाणुपुव्वी) 3 मान्! मनानुपूवा सोभायारीनु ५१३५ ३ छ ?
उत्तर-(अणाणुपुत्री) अनानुभूती सामायारीनु २१३५ ॥ ४२ थे(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अण्णमन्नन्मासोदुरूवूणों) ઈચ્છાકારથી લઈને ઉપસંપદા પર્યન્તના દસ પદેને એક એક અધિક સંખ્યા લઈને પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરવો જોઈએ આ પ્રકારે જે રાશિ પ્રાપ્ત થાય તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભગેની વિવફા બાદ કરી નાખવી જોઈએ. આ બે ભંગ બાદ જતાં જેટલા અંગે બાકી રહે છે તેટલા ભંગારૂપ આ मनानु सामाया उसय छे. (से तं सामायारी आणुपुत्री) साभाया। આનુ પવનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૧૪૧
For Private and Personal Use Only
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ફરસ
अनुयोगद्वारसूत्रे
पुपुवी - एयाए चेत्र एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए सेडीए अन्नमन्नभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी से तं भावाणुपुवी । सेतं आणुपुद्दी | आणुपुवीति पयं समत्तं ॥सू. १४२॥
छाया - अथ का सी भावानुपूर्वी ? भावानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञा, तद्यथापूर्वानुपूर्वी पचानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-औद for: १, औपशमिकः २, क्षायिकः ३, क्षायोपशमिकः ४, पारिणामिकः५, साभिपातिकः ६ । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अब का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी सान्निपातिको यावदौदयिकः । सैषा पचानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एत स्यामेत्र एकादिकायाम् एकोत्तरिकायां षड्गच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो रूपनः । सैषा अनानुपूर्वी सेवा भावानुपूर्वी सेवा आनुपूर्वी । आनुपूर्वी ति पदं समाप्तम् ||० १४२ ॥
टीका -' से किं तं ' इत्यादि
अथ का सा भावानुपूर्वी ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - भावानुपूर्वी - मात्राः = भाव्यन्ते विन्त्यंते पदार्थों यैस्ते भावाः - अन्तःकरणपरिणतिविशेषः । भूयते तेन तेन रूपेणाऽऽत्मना यैस्ते भावाः जीवस्य परिणामविशेषा औदयिकादयः, तेषामानुपूर्वी =भावानुपूर्वी । सा पूर्वानुपूर्व्यादिभेदैस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता । तत्र-पूर्वानु अब सूत्रकार भावानुपूर्वी का कथन करते हैं'से किं तं भावाणुपुच्ची ?' इत्यादि
1
शब्दार्थ - (से किं तं भावाणुपुण्वी ?) हे भदन्त । पूर्वप्रक्रान्त भावानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (भावाणुपुथ्वी) भावानुपूर्वी (तिविहा) तीन प्रकार की (पण्णत्ता) कही गई है। (तं जहा) उसके वे तीन प्रकार ये हैं- (पुव्वाणुपुत्री) १ पूर्वानुपूर्वी (पच्छाणुपुत्री) २ पश्चानुपूर्वी और (अणाणुपुत्री)
For Private and Personal Use Only
1
હવે સૂકાર ભાવાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે—
" से किं तं भावाणुपुब्बी " छत्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं भावाणुपुत्री) हे भगवन् ! पूर्वेति भावानुपूर्वीनु २१३५ देवु छे.
उत्तर- (भावाणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता - तंजहा) भावानुपूर्वीनां नीचे प्रभा ત્રપુ પ્રકાર sell 3-(gsarggsaft) (1) yaigya?", (4531ggeat (2) पश्चानुपूर्वी अने (अणाणुपुव्वी) (3) अनानुपूर्वी.
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४२ भावानुपूर्वीनिरूपणम्
६२५
पूर्वी - औयिकः औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकः सान्निपाविषश्रेति पट्ट औदपिकादिस्वरूपस्य पुरस्ताद वक्ष्यमाणत्वेनात्र तेषां स्वरूपनिरूपणं न क्रियते । अत्र शास्त्रे नारकादिगतिरौदयिको भाव इति वक्ष्यते ।
१ अनानुपूर्वी । जिनके द्वारा पदार्थों का विचार किया जाता है उनका नाम भाव है । और ये भाव अन्तःकरण की परिणति विशेषरूप है । अथवा आत्मा उस २ रूप से होता है वे भाव हैं। ऐसे वे भाव जीव के परिणाम विशेषरूप हैं । और ये परिणाम विशेष औदयिक आदि रूप होते हैं । इन परिणाम रूप भावों की आनुपूर्वी का नाम भावानुपूर्वी है । (से किं तं पुत्राणुपुत्री ? ) हे भदन्त ! भावानुपूत्र का भेद जो पूर्वानुपूर्वी है उसका क्या स्वरूप है अर्थात् वह क्या है ?
उत्तर--(पुत्राणुपुच्ची) वह पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है - ( उदहप) औदयिक (उवसमिए) औपशमिक ( खाइए) क्षायिक (खओवसमिए) क्षायोपशमिक (पारिणामिए) पारिणामिक (संनिवाइए) और सान्निपातिक इन औदयिक आदिकों का स्वरूप आगे कहा जायगा, इसलिये यहां उसका स्वरूप निरूपण नहीं किया है। इस शास्त्र में नारकादि रूप चारों गतियां औदधिक भाव रूप से कही जावेंगी इसलिये औद
જેમના દ્વારા પદાર્થાના વિચાર કરવામાં આવે છે, તેમનું નામ ભાવ छे. आ लावा अन्तः५२नी परियुतिविशेष ३५ ( परिणाम ३५) होय . અથવા આત્મા જે જે રૂપે હાય છે તે તે રૂપનું' નામ ભાવ છે. એવાં તે ભાવા જીવના પિરાવિશેષ રૂપ હોય છે. અને તે પિરણામવિશેષ ઔદ યિક આદિ રૂપ હોય છે. તે પરિણામેા રૂપ ભાવાની આનુપૂર્વી નુ નામ ભાવાનુપૂર્વી છે.
अन- (से किं तं पुत्र गुपुच्ची ?) हे भगवन् ! लावानुपूर्वीन ने भूवीનુપૂર્વી નામના પહેલા ભેદ છે, તેનુ સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
उत्तर- (पुव्त्राणुपुव्वी) ते यूत्रनुपूर्वी या प्रहारनी छे - ( उदइए) मोहथिए, (उबल मिए ) भोपशमिङ, (खाइए) क्षायिक, (खओवसमिए) क्षायोपशमि४, (mftonfaq) u koulus, (÷fkaign) mà ulauilas, A yiÊI ઉપન્યાસ કરવે તેનુ નામ પૂર્વાનુપૂર્વી' ભાવાતુપૂર્વી છે.
આ ઔયિક આદિ પદ્માને અ સૂત્રકાર દ્વારા આગળ પ્રકટ કરવામાં આવશે, તેથી અહી તેમના સ્વરૂપનુ નિરૂપરૢ કર્યું... નથી. આ શાસ્ત્રમાં નરકાદિ રૂપ ચારે ગતિઓનુ ઔયિક ભાવ રૂપે પ્રતિપ'દન કરવામાં આવશે તેથી ઔદિયક ભાત્ર રૂપ નરકાદિ ગતિએના સદ્ભાવ હાય, તે જ બાકીના
अ० ७९
For Private and Personal Use Only
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
६२६
अनुयोगद्वारसूत्रे औदायिकभावरूपनारकादिगतौ सत्यामेत्र औपशमिकादयः शेपभावा यथासम्भव प्रादुर्भवन्तीति शेषभाराधारत्वेन औदयिकस्य प्राधान्यम् । अत एव प्रथमं तदुपन्यासः। ततः शेषाणां पश्चानामपि भावानां मध्ये औपशमिकस्य स्तोकविषयत्वात् स्तोकतया प्रतिपादयिष्यते इति सूची कटाहन्यायेन औदायिकानन्तरमवशिष्टेषु पञ्चसु मध्ये पूर्वमौपशमिकस्योपन्यासः । औरशमिकापेवाऽधिक विषयत्वात्क्षायिकस्य तदनन्तरमुपन्यासः । ततश्र विषयाणां तारतम्यमाश्रित्य क्रप्लेग क्षायोपशमिक्रस्य पारिणामिकस्य चोपन्यासः। सानिपातिकभाको हि पूर्वोक्तभावानां द्विकादिसंयोगेन समुत्पद्यते इति भन्तेि सान्नियाति कमायोपल्यासः । इयं भावानां यिक भावरूप नरकादि गलियों के होने पर ही शेष औपशमिक आदि भाव यथासंभव उत्पन्न होते हैं। इपलिये शेष भावों का आधारभूत होने से औदायिक भाव में प्रधानता है। इसी कारण उनका सर्वप्रथम सूत्रकारने विन्यास किया है। इस के बाद अवशिष्ट पांचों भावों के घोच में औपशमिक भाव स्तोक विषयवाला है इसलिये वह स्वयं स्तोक है इस प्रकार से आगे प्रतिपादित किया जावेगा, अतः सूचीकटाहन्धाय से औदायिक के अनन्तर अवशिष्ट पांच भावों के बीच में से पहिले औपशमिक का पाठ किया गया है। औपशमिक की अपेक्षा अधिक विषयवाला होने से क्षायिक का पाठ औपशमिक के बाद किया गया है। इस के अनन्तर विषयों की तरतमता का आश्रय करके क्रम से क्षायोपशमिक और पारिणामिक का पाठ किया गया है। इन पूर्वोक्त भावों के विकादि संयोग से सान्निपातिक भाव उत्पन्न होता है इसलिये
પશમિક આદિ ભારે ઉત્પન્ન થઈ શકે છે આ પ્રકારે બાકીના ભાવના આધાર રૂપ હોવાને લીધે ઔદયિક ભાવમાં પ્રધાનતા છે. તેથી જ સૂત્રકારે તેને વિન્યાસ સૌથી પહેલાં કર્યો છે એટલે કે તેને સૌથી પહેલું સ્થાન આપ્યું છે, બાકીના પાંચ ભાવોમાંને ઔપશમિક ભાવક (અલ્પ) વિષયવાળો હોવાથી તે પોતે જ સ્તક છે. (આ વાતનું સૂત્રકાર આગળ પ્રતિપદન કરશે) તેથી સૂચીકટાહ ન્યાયે ઔદયિક ભાવ પછી પથમિક ભાવને મૂકવામાં આવ્યા છે. ઓપશમિક ભાવ કરતાં અધિક વિષયવાળ હોવાને કારણે ક્ષાવિકભાવને પથમિક ભાવ પછી મૂકવામાં આવેલ છે. વિષયની અધિકતરતા અને અધિકતમતાને કારણે ક્ષાવિક ભાવ પછી અનુક્રમે ક્ષા પશમિક અને પરિણામિક ભાવેને મૂકવામાં આવ્યા છે. આ પૂર્વોક્ત ભાવોના દ્વિસંગ આદિથી સક્રિપનિક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી સૌથી છેલ્લે
For Private and Personal Use Only
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४२ भावानुपूर्वीनिरूपणम् पूर्वानुपूर्वी। सैषा पूर्वानुपूर्वी ति। पश्चानुपूर्वा तु सान्निपातिकाद्यौदयिकान्त बोध्या। तथा-औदयिकादि सान्निपातिकान्तानां पण्णां पदानामन्योन्याभ्यास द्विरूपोन:-आधन्तपदद्वयविवक्षामपहाय ये भङ्गास्तदात्मिकाऽनानुपूर्वी बोध्या सब के अन्त में सान्निपातिक भाव का उपन्यास किया गया है। (से तं पु०) इस प्रकार यह भावों की पूर्वानुपूर्वी है । (से किं तं पच्छाणु पुन्वी) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी क्या है ? (पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से है-(संनिवाइए जाव उदइए) सान्निपातिक भाव से लेकर
औदयिक भाव तक पश्चानुपूर्वी है । (से तं पच्छाणुपुब्बी) यही पूर्वप्रका न्त भावों की पश्चानुपूर्वी है । (से किं तं अणाणुपुव्धी ? ) हे भदन्त भावों की अनानुपूर्वी क्या है ? (एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियार छ गच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नम्भासो दुख्खूगो) औदयिकादि सान्नि पातिकान्त छह पदों को परस्पर में गुणा करना और गुणित राशिरूर भागों में से आदि अन्त के पदव्य की विवक्षा को कम करना इस प्रकार जो भंग बचते हैं उन भंग स्वरूप यह भावो की (भणाणु पु० अनानुपूर्वी है । (से तं अशाणुपुव्वी) यही पूर्वप्रक्रान्त अनानुपूर्वी है (से तं भावाणुपुव्वी) इस प्रकार यह भावानुपूर्वी है। (से तं आणुपुव्वी)
सान्निति मापन। ५-यास ४२पामा मा०ये। छे. (से तं पुवाणुपुव्वी) मा પ્રકારની આ ભાવની પૂર્વાનુમૂવી છે.
प्रश्न-(से किं तं पच्छाणुपुठवी १ ) 3 भगवन्! भावानुषी नी पश्चानुपू. વનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(पच्छाणुपुत्री) पश्चानुपूर्वानु २१३५ मा ५२नु छ-(संनिवाइए जाव उदइए) पूरानुपूवी १२di aau भना-मेट है सान्निति माथा લઈને ઔદયિકભાવ પર્યન્તના-ભાવે ને પશ્ચાનુપૂવ કહે છે.
प्रश्न-(से कि तं अणाणुपुठवी?) 3 मान्! सावनी अनानुदान સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए सेढीए अनमन्न. भासो दूरुवूणो) मौयि४थी ने सान्निपाति ५५ तना छ पहीना ५२९५રની સાથે ગુણાકાર કરે, અને તેને લીધે જે રાશિરૂપ ભાંગાઓ આવે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભાગાઓ બાદ કરવાથી જે ભાંગાએ બાકી २ छे, ते म ! ३५ (अणोणुपुत्री) मनानुपू सभापी.
(से त भावाणुपुत्री) मा प्ररनी लानुनी य छे (से त आणुપુરી) આ પ્રકારે નામાવીથી લઈને ભાવાનુપૂવ પર્યન્તની દસે આનુપૂ. વઓના રૂપનું નિરૂપણ અહીં પૂરું થાય છે, એ વાત સૂચિત કરવા માટે
For Private and Personal Use Only
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૬૮
अनुयोगद्वारसूत्रे
प्रकृतमुपसंहरन्नाह - सैंपा भावानुपूर्वीति । नामानुपूर्व्यादि भावानुपूर्व्यन्ता दशाsप्यानुपूर्व्यः समुद्दिष्टा इति सूचयितुमाह सैषा आनुपूर्वीति । इत्थमुपक्रमस्य आनुपूर्वी नामकः प्रथमो भेदः समुद्दिष्ट इति सूचयितुमाह- आनुपूर्वीति पदं समाप्तमिति ॥ १४२॥
सम्प्रत्युपक्रमस्य नामाभिधेयं द्वितीयं भेदं व व्याख्यातुमाहमूलम् - से किं तं णामे ? णामे दसविहे पण्णत्ते, तं जहाएगणामे, दुणामे तिणामे, चउगामे, पंचणामे, छणामे, सत्तणामे, अट्ठणामे, नवणामे, दसगामे || सू० १४३ ॥
छाया-अथ कि तन्नाम? नाम दशविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-एकनाम, द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पञ्चनाम, षण्णाम, सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम, दशनाम ॥ मू० १४३॥ टीका-' से किं तं ' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति - अथ किं तन्नाम ? इति । उत्तरयति - नाम- जीवगतज्ञानादिपर्यायाजी वगतरूपादिपर्यायानुसारेण प्रतिवस्तुभेदेन नमति तदभिधायकत्वेन वर्त्तते यहां तक नामानुपूर्वी से लेकर भावानुपूर्वी तक जो दश आनुपूर्वियां हैं वे सब प्रतिपादित हो चुकी इसकी सूचना के लिये सूत्रकारने " से तं आणुपुन्वी " यह कहा है । (आणुपुत्रीतिपयं समत्तं) इस प्रकार यहां तक उपक्रम का यह आनुपूर्वी नाम का प्रथम भेद कथित हो चुका अर्थात् समाप्त हुआ ||० १४२ ॥
अब सूत्रकार उपक्रम का जो द्वितीय भेद नाम नाम का है उसकी व्याख्या करने के लिये कहते हैं कि- "से किं तं णामे ?" इत्यादि । शब्दार्थ - (से किं तं णामे) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त नाम क्या है ? ( णामे दसविहे पण
)
""
सूत्रारे " से त' आणुपुत्री था प्रहारनो सूत्र भूम्यो छे (आणुपुव्वीतिपयं समन्तं) आअहारे उपमना आनुपूर्वी नामना प्रथम लेवनु निइयाशु सहीं समाप्त थाय छे. || सू० १४२ ॥
ઉપકમને બીજો ભેદ - નામ ’ છે હવે સૂત્રકાર તે નામનુ નિરૂપણ કરે છે" से कि त णामे १" इत्याहि
शब्दार्थ - (से किं त णामे १) डे भगवन् ! उपमना मी प्रहार ३५ नाम शु छे ?
For Private and Personal Use Only
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४३ 'नाम' स्वरूपनिरूपणम् इति नाम-वस्वभिधानमित्यर्थः । उक्तंच
"जं वत्धुणोऽभिहाणं पज्जयभेयाणुसारि तं णामं ।
पइभेअं जं नमई, पइभेयं जाइ जं भणिअं" ॥१॥ छाया-यद्वस्तुनोऽभिधानं, पर्ययभेदानुसारि तन्नाम ।
प्रतिभेदं यन्नमति, प्रतिभेदं याति यद् भणितम् ।।इति।। एवंविधमिदं नाम दशविधं प्रज्ञप्तम् । दशविधत्वमाह-तद्यथा-एकनाम द्विनाम त्रिनामेत्यादि । तत्र-येन केन एकेनापि सता नाम्ना सर्वेऽपि विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते, तदेकनाम बोध्यम् । एवं याभ्यां द्वाभ्यां नामभ्यां सर्वेऽपि
उत्तर - यह नाम दश प्रकार का कहा गया है । जीवगत ज्ञानादिक पर्यायों और अजीवगत रूपादिक पर्यायों के अनुसार जो प्रतिवस्तु के भेद से नमता है - झुकता है - अर्थात् उनका अभिधायकवाचक होता है वह नाम है । उक्तंच-करके "जं वत्थुणोऽभिहाणं" इत्यादि गाथा द्वारा यही नाम शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट की है। (तं जहा) नाम के दस प्रकार ये हैं - (एगणामे दुणामे तिणामे च उणामे,पंचणामे, छणामे, सत्तणामे, अट्ठणामे 'नवणामे, दसणामे ) एक नाम, दोनाम, तीन नाम, चार नाम, पांच नाम, छह नाम, सात नाम, आठनाम, नौ नाम, और दश नाम ! जिस एक नाम से समस्त पदार्थों का कथन हो जाता है वह एक नाम है। जैसे सत्, सत् इस नाम से समस्त पदार्थों का युगपत् कथन हो जाता है क्यों कि ऐसा कोई भी पदार्थ
उत्तर-(णामे दसविहे पण्णत्ते) ते नमना से प्रार ४ा छ त જ્ઞાનાદિક પર્યાય અને અછવગત રૂપાદિક પર્યા પ્રમાણે જે પ્રત્યેક વરતના ભેદથી નમે છે-ખૂકે છે-એટલે કે તેમનું અભિધાયક (વાચક) હોય છે, તેનું नाम "नाम" छ. "जं वत्थुणोऽभिहाणं " त्याहि था द्वारा 'नाम' શબ્દની ઉપર પ્રમાણેની વ્યુત્પત્તિ જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
(जहा) नामना स प्रा२। नीचे प्रमाणे छ-(एगणामे, दुणामे, तिणामे, चउणामे, पंचणामे, छणामे, प्रत्तणामे, अट्ठणामे, नवणामे, दसणामे) (१) नाम, (२) मे नाम, (3) 7 नाम, (४) या२ नाम, (५) पांय नाम, (६) छ नाम, (७) सात नाम, (८) 418 नाम, (6) नव नाम मन (१०) सनाम.
જે એક નામથી સમસ્ત પદાર્થોનું કથન થઈ જાય છે, તેને “એકનામ”
छ. म "सत्" " सत्" नामथी समस्त पहातुं ये साये કથન થઈ જાય છે, કારણ કે એ કઈ પણ પદાર્થ નથી કે જે આ સત
For Private and Personal Use Only
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
__ अनुयोगद्वारसूत्र विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते तद् द्विनाम । तथा-यैस्तु विभिर्नामभिः सर्वेऽपि विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते तत् त्रिनाम । एवं रीत्या चतुर्नामादिदशनामान्तविषयेऽपि बोध्यम् ।।मु० १४३॥
तत्रोद्देशक्रमेण निर्दिशन् प्रथममेकनामस्वरूपं निर्दिशति
मूलम्-ले किं तं एगणासे? एगणामे-माणि जाणि काणि वि, दवाण गुणाण पज्जवाण च । तेसिं आगमनिहसे, नामति परूविया सपणा॥१॥ से तं एगणामे ॥सू०१४४॥
छाया-अथ किं तदेक नाम ? एकनाम-नामानि यानि कान्यपि द्रव्याणां गुणानां पर्याणां च। तेषामागमनिकषे-नामेति प्ररूपिता संज्ञा । तदेत. देकनाम सू० १४४॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तदेकनाम ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-एकनाम-एकं मद् नामेति विग्रहः । तत्स्वरू मेवाह-'णामाणि जाणि' इति गाथया। अयं भाव:-द्रव्याणां= नहीं है जो इस सत् नाम रहित हो । अतः सत् यह एक नाम है । इसी प्रकार जिन दो नामों से समस्त विवक्षित पदार्थ अभिधातुं शक्य होते हों वह दो नाम है । तथा जिन तीन नामों से समस्त विवक्षित पदार्थ कहने में आ जाते हों वह त्रि नाम हैं। इसी प्रकार से चतुर्नामादि से लेकर दशनाम तक के विषय में भी जानना चाहिये। सू० १४३॥
उद्देश क्रम से निर्देश करने वाले सूत्रकार सर्व प्रथम एक नाम के स्वरूप का कथन करते हैं-"से किं तं एगणामे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किंतं एगणामे) हे मदन्त ! पूर्वप्रकान्त एक नाम क्या है ? નામથી રહિત હોય તેથી “સત્ ” એક નામરૂપ છે. એ જ પ્રમાણે જે બે નામોથી સમસ્ત વિવક્ષિત પદાર્થોનું કથન થઈ જાય છે, તેમને બે નામ રૂપ સમજવા તથા જે ત્રણ નામોથી સમસ્ત વિવક્ષિત પદાર્થોનું કથન થઈ જાય છે, તે ત્રણ નામોને વિનામ કહે છે. એ જ પ્રમાણે ચતુર્નામથી લઈને દસ નામ પર્યન્તના નામના પ્રકારો વિષે પણ સમજવું. સૂ૦૧૪all.
પૂર્વસૂત્રમાં નામના પ્રકારો પ્રકટ કરવામાં આવ્યાં હવે સૂત્રકાર નામના પ્રથમ પ્રકાર રૂપ એકનામના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે –
" से किं त एगणामे ?" त्याह
शहाथ-(से कि त एगणामे?) भगवन् ! ya sir नाम शु. છે? એટલે કે એકનામનું સ્વરૂપ કેવું છે?
For Private and Personal Use Only
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४४ एकनामस्वरूपनिरूपणम्
६३१
जीवाजीवभेदानां गुणानां ज्ञानादीनां रूपादीनां च तथा-पर्यायाणां नार करवाtataणत्वादीनां च नामानि = अभिधानानि यानि कानिचिल्लोके रूहानि, तद्यथा - जीवो जन्तुरात्मा प्राणीत्यादि, आकाशं नभस्तारापयो व्योमाम्बरमित्यादि । तथा-ज्ञानं बुद्धिर्बोध इत्यादि, तथा-रूपं रसो गन्ध इत्यादि, तथानारकस्तिर्यङ्गमनुष्य इत्यादि, एकगुणकृष्णो द्विगुणकृष्ण इत्यादि । तेषां सर्वेषामप्यभिधानानाम् - आगमनिकषे - आगम एव निकष : = हेमरजतसदृश जीवादिपदार्थस्वरूपपरिज्ञानहेतुत्वात् कषपट्टस्तस्मिन् 'नाम' इत्येवंरूपा संज्ञा - आख्या
उत्तर (वामाणि जाणि काणि वि, दव्वाण, गुणाण, पज्जवाण च। तेसिं आगमनिहसे नामंति परुविया सण्णा "१" से तं एगगामे) एक होकर जो नाम होता है वह एक नाम है । इसी का स्वरूप इस गाथा द्वारा सूत्रकार ने कहा है-जीब अजीब भेद विशिष्ट द्रव्यों के, ज्ञानादिक गुणों के, रूपादि गुणों के तथा नारकत्व आदि पर्यायों के लोक में जितने भी नाम रूढ हैं जैसे जीव-जन्तु, आत्मा' प्राणी इत्यादि, आकाश, नभस तारापथ, व्योमन् (व्योम) अम्बर इत्यादि' तथा ज्ञान बुद्धि, बोध इत्यादि, तथा रूप, रस, गंध, इत्यादि तथा नारक तिर्यङ् मनुष्य इत्यादि एक गुण कृष्ण, दो गुण कृष्ण इत्यादि - इन सब अभिधानों की "नाम" ऐसी एक संज्ञा आगम रूप निकष (कसौटी) कही गई है । सो ये सब जीव जन्तु आदि अभिधान एक नामस्व
-
"
6
उत्तर- (णामाणि जाणिकाणि वि, दव्वाण, गुणाण, पज्जवाण च तेसिं आगम निसे' नामंति परूविया सण्णा ||१|| से त एगणामे) भे ४ अर्थने अट કરનારી જે નામ હાય છે તેને એકનામ' કહે છે. તે એકનામનું સ્વરૂપ સૂત્રકારે ઉપરની ગાથા દ્વારા પ્રકટ કર્યુ છે. તેનેા ભાવા નીચે પ્રમાણે છેજીવ અજીત્ર રૂપ ભેદવાળાં દ્રષ્યેાના જ્ઞાનાદિક ગુણેાના, રૂપાદિ ગુણે'ના, તથા નારકત્વ આદિ પાંચેના લાકમાં જેટલાં નામા રૂઢ (પ્રચલિત) છે, તે માં અભિધાનાની (નામાની) नाम ' એવી એક સત્તા આગમ રૂપ निःष (से: टी) हेवामां भावी हे प्रेम है लब-गन्तु, આત્મા, પ્રાણી छत्याहि तथा ज्ञान, बुद्धि, भेोष इत्याहि तथा नल, तारापथ, व्योम, आाश, અંબર ઈત્યાદિ તથા રૂપ, રસ, ગંધ ઇત્યાદિ તથા નારક, તિયચ, મનુષ્ય ઈત્યાદિ એક ગણુ' કૃષ્ણુ, બે ગણું કૃષ્ણ ઇત્યાદિ આ બધાં અભિધાને ની " सेवी खेड संज्ञा- भागभ३५ सोरी-डी छे. तेथी ते सबका જીવ-જન્તુ આદિ અભિધનને એક નામત્વ સામાન્યની અપેક્ષાએ એકનામ”
66 નામ
For Private and Personal Use Only
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
---
मनुयोगद्वारसूत्र मरूपिता व्यवस्थापिता । अयं भाषः-सर्वाण्यपि जीवो जन्तुरेित्याघभिधानानि नामत्वसामान्यमाश्रित्यकेन नाम शब्देनोच्यन्ते इति । इत्थं च एकेनाप्यनेन नामशब्देन लोकरूढाभिधानानि सर्वाग्यपि वस्तूनि प्रतिपाद्यन्ते इत्येतदेकनामो. म्यते। तदेव उपसंहरन्नाह -तदेतदेकनामेति ॥ १४४॥ सामान्य के आश्रय से एक नाम शब्द से कहे जाते हैं। इस प्रकार एक भी इस नाम शब्द से वस्तुओं के, गुणों के और पर्यायों के जो भी लोक रूढ नाम हैं वे सब" नामत्व" इस एक सामान्य पद से गृहीत हो जाते हैं। इसलिये इस एक भी नाम शब्द से लोकरुढाभिधान वाली सघ भी वस्तुएँ प्रतिपादित हो जाती हैं । अतः एक नाम कहलाना है । (से तं एगगामे) इस प्रकार यह एक नाम है।
भावार्थ- एक नाम क्या है इस जिज्ञासा का समाधान करने के निमित्त मूत्रकार ने यहां उसी का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने समझाया है की जितने संसार में द्रव्यों के, पर्यायों के और गुणों के लोक रूढ नाम हैं-यद्यपि वे सय जुदे २ हैं। फिर भी नामस्व सामान्य के आ. श्रयभूत होने के कारण वे सब एक ही हैं । इस प्रकार नामत्व सामान्य की दृष्टि से ये सब नाम एक है-क्यों कि जितने अभिधानरूप व्यक्ति हैं उन सब में नामस्वरूप सामान्य रहता है। यही बात आगमरूप શબ્દ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ રીતે એક પણ આ નામ વડે-શબ્દ વડે-વસ્તુઓના ગુણેનાં અને પર્યાનાં જે નામે લેકમાં રૂઢ થયેલા હેય છે, તે બધાને “નામત્વ” આ એક સામાન્ય પદ વડે ગ્રહણ કરી શકાય છે. તેથી આ એક નામ શબ્દથી પણ લેકમાં રૂઢ એવા અભિધાનવાળી બધી परतुया प्रतिपाहित ४ जय छे. तेथी तने से नाम 3 छ. (से त एगणामे) मा प्रा२नु ये नामनु ११३५ छ
सापाथ-सूरे मा सूत्रभो, ' नाम शु " मा प्रश्ननु સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તેમણે આ સૂત્રમાં એ વાત સમજાવી છે કે સંસારમાં દ્રનાં, પર્યાનાં અને ગુણોનાં જેટલાં લેકરૂઢ (લેકમાં પ્રચલિત) નામો છે, તે નામ જે કે જુદાં જુદાં છે, છતાં પણ નામ સામાન્યના આશ્રયભૂત હોવાને કારણે તેઓ સૌ એક જ છે. આ રીતે નામવ સમાન્યની દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે તે બધાં નામે એકનામ રૂપ જ છે, કારણ કે જેટલા અભિધાન રૂપ પદાર્થો છે, તે સઘળા પદાર્થોમાં નામ રૂપ સામાન્યને સદુભાવ રહે છે. એજ વાત આગમ રૂપ કટીની ઉપમા દ્વારા
For Private and Personal Use Only
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् ६३३
मूलम्-से किं तं दुनामे ? दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाएगवखरिए य अणेगक्खरिए य । से किं तं एगक्खारिए ? एगक्खारिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-ही, सी, धी, थी, । से तं एगवखरिए। से किं तं अणेगक्खरिए ? अणेगक्खरिए अणेगा बिहे पण्णत्ते, तं जहा-कन्ना वीणा लया माला । से तं अणेगक्खरिए। अहवा-दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवनामे य अजीवनामे च । से किं तं जीवनामे ? जीवनामे अणेगविहे पण्णते, तं जहा-देवदत्तो जण्णदत्तो विण्हुदत्तो सोमदत्तो । से तं जीवनामे। से किं तं अजीवनामे ? अजीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा घडो पडो कडो रहो। से तं अजीवनामे। अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा विसेसिए य अविसेसिए य। अविससिए दवे, विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य। अविसेसिए जीवदव्वे, विससिए णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुकसौटी से प्रसिद्ध की गई है। यहां पर आगम को जो कसौटी की उपमा दी गई है उसका कारण यह है कि जिस प्रकार हेम रजत आदि के वास्त. विक स्वरूप का परिज्ञान निकषपट से होता है उसी प्रकार हेम रजत के सहश जो जीवादि पदार्थ हैं उन के स्वरूप का परिज्ञान शास्त्र-आगम -से ही होता है। अत: उनके स्वरूप के परिज्ञान का हेतु होने से आगम को यहां सूत्रकार ने निकष की उपमा से उपमित किया है।०१४४। વ્યક્ત કરવામાં આવી છે. અહીં આગમને કસે ટી ઉપમા દેવાનું કારણ એ છે કે જેવી રીતે સેનું, ચાંદી આદિના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું પરિજ્ઞાન નિકષપટ્ટ (કોટી કરવાને પથ્થર) વડે થાય છે, એ જ પ્રાણે સોનાચાંદી જેવાં જીવાદિ પદાર્થો છે તેમના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું પરિજ્ઞાન આગમ (શાસ્ત્ર) વડે જ થાય છે. તેથી તેમના સ્વરૂપના પરિજ્ઞાનના હેતુભૂત હોવાને કારણે સૂત્રકારે આગમને અહીં નિકલ (કસોટી પથ્થર)ની ઉપમા આપી છે સૂ૦૧૪
अ० ८०
For Private and Personal Use Only
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६३४
अनुयोगद्वारसूत्रे
1
से देवे | अविससिए रइए, विसेसिए रयणप्पहाए सकरप्पहाए वालुअ पहाए पंक पहाए घूमप्पहाए तमाए तमतमाए । अविसेसिएरयणप्पहा पुढवीणेरइए, विसेसिए पज्जन्त्तए य अपजत्तए य । एवं जाव अविसेसिए तमतमा पुढवी नेरइए, विसेसिए पजत्तएर अपजत्तए । अविलेसिए तिरिक्खजोणिए, विसेसिए एर्गिदिए बेइदिए तेईदिए चउरिदिए पंचिदिए । अविसेसिए एगिंदिए, विसेसिए पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणसइकाइए | अविसेसिए पुढविकाइए, विसेसिए सुहुम पुढचिकाइए य बादरपुढविकाइए य । अविससिए सुहुमपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयसुहुमपुढविकाइए य अपज्जतयसुहुमपुढविकाइए. य । अविसेसिए य बादरपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयबादरपुढ विकाइए य अपज्जत्तयवादरपुढविकाइए य एवं आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए अविसेसिए, विसेसिए य पज्जत्तय अपज्जत्तय भेएहिं भाणियव्त्रा । अविसेसिए बेइदिए, बिसेसिए पज्जत्तय बेईदिए य अपज्जत्तय वेइंदिए य। एवं ते इंदिय
रिंदिया भाणियव्वा । अविसेसिए पंचिदि यतिरिक्खजो - लिए, विसोसिए जलयरपंचिदियतिरिक्ख जोणिए थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए खहयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिए । अविसेसिए जलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिए विश्लेसिए समुच्छिम जलयरपंचिदियतिरिक्ख जोणिए य गब्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोगिए । अविसेसिए संमुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए, विसोसिए पज्जत्तयसंमुच्छिम जलगर पंचिदियतिरिक्ख
For Private and Personal Use Only
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् ६३५ जोगिए य। अपज्जत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य। अविससिए गम्भवतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विससिए पज्जत्तयगम्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य, अपज्जत्तगभवतिजलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए य। अविलेसिए थलयरपंचिंदियतिरिकव जोणिए, विससिए चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिकखजोणिए य परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य अविसेसिए चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोगिए, विसेसिए सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य गन्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिए य। अविसेसिए सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खनोणिए, विसेसिए पज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य। अविसेसिए गब्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिर, विसेसिए पज्जत्तयगब्भवकतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिख जोणिए य अपज्जत्तयगब्भवकंतियचउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य।अविसेसिए परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विससिए उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिकजोगिए य भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य। एए वि सम्मुच्छिमा पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य, गम्भवतिया वि पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य भाणियवा।
For Private and Personal Use Only
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे अविसेसिए खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए सम्मुच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्वजोणिए य गन्भवतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य। अविससिए संमुच्छिमखहयरपांचदियतिरिक्ख जोगिए, विसेसिए पज्जत्तयसंमुच्छिमखहयरपंचिं. दियतिरिक्खजोगिए य अपज्जत्तयसमुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए य । अविसेसिए गन्भवतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए पज्जत्तयगब्भवतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयगब्भवतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य। अविसेप्तिए मणुस्से, विमेसिए संमुच्छिममगुस्से गम्भवत्तियमणुस्से। अविसेसिए संमुच्छि ममणुस्से, विसेसिए पज्जत्तगसंमुच्छिममणुस्से य अपजत्तममुच्छिममणुस्से य। अविसेसिए गम्भवक्कंतियमणुस्से, विसेसिए कम्मभूमिओ य अकम्मभूमिओ य अंतरदीवओ य संखिन्जवासाउय असं. खिज्जवासाउय पज्जत्तापज्जत्तओ। अविसेसिए देवे विसेसिए भवणवासी वाणमंतरे जोइसिए वेमागिए य। अविसेसिए भव णवासी, विसेसिए असुरकुमारे नागकुमारे सुवण्णकुमारे विज्जु कुमारे अग्गिकुमारे दीवकुमारे उदहिकुमारे दित्तीकुमारे वाउ. कुमारे थणियकुमारे। सव्वेसिपि अविसेसियविसेसिय पजत्तर अपज्जत्तगभेया भाणियब्वा । अविससिए वागमंतरे, विसेसिप पिसाए, भूए, जक्खे, रक्खसे, किन्नरे, किंपुरिसे, महोरगे, गंधब्वे एएसि पि अविसेसियविसेसियपज्जत्तयअपज्जत्तयभेया भाणि
For Private and Personal Use Only
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् यत्वा। अविप्लेसिए जोइसिए, विसेसिए चंदसूरे गहगणे नक्खत्ते ताराहवे। एएसि पि अविससियविसेसियपजत्तयअपजतयभेया भाणियव्या आविससिए वेमाणिए, विससिए कपणेवगे य कप्पातीयगे य। अविसेसिए कप्पोवगे, विसेसिए सोहम्मए ईसाणए सणंकुमारए माहिदए बंभलोए लंतयए महासुक्कए सहस्सारए आणयए पाणयए आरणए अच्चुयए। एएसिपि अविसेसियविसेसियपज्जत्तगअपज्जत्तगभेया भाणियवा। अविसे. सिए कप्पातीयए, विसेसिए गेवेज्जगे य अणुत्तरोववाइए य अविसेसिए गेवेज्जए, विसेसिए हेटिमे, मज्झिमे, उवरिमे। अवि. सेसिए हेडिमगेवेजए, विसेसिए हेटिमटिमगेवेज्जए, हेट्रिममज्झिमगेवेजए, हेट्रिम उवरिमगेवेज्जए। अविसेसिए मज्झिमगेविजए, विसेसिए मज्झिमहेट्रिमगेवेज्जए, मज्झिममज्झिमगेवेजए, मज्झिम उवरिमगेवेज्जए। अविसेसिए उपरिमगेवेजए, विसेसिए उबरिमहेट्रिमगेवेजए उवग्मिमज्झिमगेवेज्जए उवरिम उवरिमगेवेज्जए य। एएसिपि सव्वेसिं अविसेसियविससियपज्जत्तगापज्जत्तगभेया भाणियव्वा। अविसेसिए अणुत्तरोव. वाइए, विसेसिए विजयए वेजयंतए जयंतए अपराजियए सम्वटसिद्धए य। एएसिपि सव्वेसिं अविसेसियविसेसियपज्जतगापज्जगभेया भाणियवा। अविससिए अजीवदव्वे, विसेसिए धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए पोग्गलस्थिकाए अद्धासमए य। अविसेसिए पोग्गलधिकाए, विसेलिए
For Private and Personal Use Only
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
परमाणुपोग्गले दुप्पएसिए तिप्पएसिए जाव अर्णतपएसिए य। से तं दुनामे ॥सू०१४५॥
छाया-अथ किं तद् द्विनाम ? द्विनाम द्विविधं भज्ञप्तम् , तद्यथा- एकाक्षरिकं च अनेकाक्षरिकं च । अथ किं तदेकाक्षरिकम् ? एकाक्षरिकम् अनेकविध मज्ञप्तम् , तद्यथा-ही: श्री धीः स्त्री । तदेतदेकाक्षरिकम् । अ िददनेकाक्षरिकम् ? अनेकाक्षरिकमनेकविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-कन्या वीणा लता माला । तदेतदनेका. क्षरिकम् । अथवा-द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तघथा जीवनाम च अजीवनाम च। अथ किं तद् जीवनाम ? जीवनाम अनेकविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-देवदत्तो यज्ञदत्तो विष्णुदत्तः सोमदत्तः । तदेतद् जीवनाम । अथ किं तदजीवनाम ? अजीवनाम अनेकविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-घटः पटः कटो रथः। तदेतदजीवनाम । अथवाद्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-विशेषितं च भविशेषितं च । अलिशेपितं द्रव्यम् , विशेषितं जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च । अधिशेपितं जीवाम् . विशेषितम्-नैरयिकः, तिर्यग्योनिका, मनुष्यो देवः। अविशेषितम् नैरपिकः, विशेषितम् रत्नप्रभाकः, शर्करामभाको, वालुकापभाका, पङ्कपभाको, धूमप्रमाका, तमस्का, तमसमस्कः। अविशेषितम्-रत्नपभापृथिवीनरयिकः, विशेषितम्-पर्याप्तकश्च अपर्याप्तकश्च । एवं यावत् अविशेषितम्-तमस्तमः पृथिवी-नैरयिको, विशेषितम्-पर्याप्तकश्च अपर्याप्तकश्च । अविशेषतम्-तिर्यग्योनिकः, विशेपितम्-केन्द्रियो द्वीन्द्रियस्त्रीन्द्रियश्चतुरिन्द्रियः पञ्चेन्द्रियः। पत्रिशेषितम्-एकेन्द्रियः, विशेषितम्-पृथिवीकायिकः, अकायिकः, तेजस्कायिकः, वायुकायिकः, वनस्पतिकायिकः। अविशेषितम्पृथिवीकायिकः, विशेषितम्-मूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च बादरपृथिवीकायिकश्च । अविशेषितम्-सूक्ष्मपृथिवीशयिकः, विशेषितम्-पर्याप्तकमूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च अपप्तिकमक्ष्मपृथिवीकायिकश्च । अविशेषितं च-बादरपृथिवीकायिकः, विशेषितम्पर्याप्तकवादरपृथिवीकायिकश्च अपर्याप्तकवादरपृथिवीकायिकश्च । एवम्-अप्का यिकः, तेजस्कायिको वायुकायिको वनस्पतिकायिकः, अविशेषितं विशेषितं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदाभ्याम्ः भणितव्ये अविशेषितम्-द्वीन्द्रियः, विशेषितम्पर्याप्तकद्वीन्द्रियश्च अपर्याप्तकद्वीन्द्रियश्च । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियावपि भणितव्यो। अविशेषितम्-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः. स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः खेचरपञ्चेन्द्रितिर्यग्योनिकः । अविशेषितम्-जलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-संपूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिश्च । अविशेषितम्-संमूछिमजलचरपञ्च
For Private and Personal Use Only
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ हिनामादिस्वरूपनिरूपणम् न्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम् पर्याप्तक-संपच्छिमजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकसंपूछिमजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च। विशेषितम्-गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, विशेषितम्-पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपश्चे. न्द्रियतिर्यग्यो निकश्च अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिमश्च । अविशेषितम् स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका, विशेषितम्-चतुष्पदस्थळचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च परिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-चतुपदस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिबग्योनिकः, विशेषितम्-संमूछिमचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियग्योनिकश्च । अविशेषितम्-संमूच्छिमचतुष्पदम्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्पर्याप्तकसमूच्छिमचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकसमूछिम चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-गर्भव्युत्क्रान्तिकचतु. पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचस्पश्चन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपश्च. न्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-परिसर्पस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, विशेषितम्-उर परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकश्च भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकश्च । एतेऽपि संम्छिमाः पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च, गर्भव्युत्क्रान्तिका अपि पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च मणितव्याः। अविशेषितम् खेचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकविशेपितम् संमृच्छिमखेवरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकश्च गर्भव्युस्क्रान्तिकखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिश्च : अविशेषितम्-संमृच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-पर्याप्तकसमूच्छिमखेचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकम। अपर्याप्तकसंमूछिमखेचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका विशेषितम् पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकगर्भव्युस्क्रान्तिकलेचरणश्चेन्द्रियनिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-मनुष्यः, विशेषितम्-समछिममनुष्यश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यश्च । अविशेषितम्-सम्मूछिममनुष्यः, विशेषितम्-पर्याप्त सम्मूच्छिममनुष्यश्च अपर्याप्तकसम्मूछिममनुष्यश्च। अविशेषितम्गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुषः, विशेषितम्-कर्मभूमिजश्व अकर्मभूमिजश्च अन्तरद्वीपजश्व, संख्येयवर्षायुष्कः असंख्येयवर्षायुष्का पर्याप्तकः अपर्याप्तकः । अविशेषितम्-देवा, विशेषितम्-प्रवनवासी वानव्यन्तरः ज्योतिषिको वैमानिकश्च। अविशेषितम्-भवनवासी, विशेषितम्-अमुरकुमारो नागकुमारः सुपर्णकुमारो विद्युत्कुमारः अग्निकुमारो द्वीपकुमारः उदधिकुमारो दिक्कुमारोवायुकुमारः स्तनितकुमारः। सर्वेषामपि अविशेषितविशेषित पर्याप्तापर्याप्तकभेदा भणितव्याः । अविशेषितवानव्यन्तरः,
For Private and Personal Use Only
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूने विशेषितम्-पिशाचो भूतो यक्षो राक्षसः किन्नरः किंपुरुषो महोरंगो गन्धर्व । एनेषामपि अविशेषितविशेषतपर्याप्तापर्याप्तकभेदा भणितयाः। अविशेषितम्ज्योतिषिकः, विशेषितम्-चन्द्रः मूर्यः ग्रहगणः नक्षत्रं तारारूपम् । एतेषामपि अविशेषितविशेषितपर्याप्तापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम् वैमानिका, विशेषितम्-कल्पोपगश्व कल्पातीत कश्च । अविशेषितम् -कल्पोपगः, विशेषितम्सौधर्मकः ईशानका सनत्कुमारको माहेन्द्रको ब्रह्मलोकको लान्तकको महाशुक्रक सहस्रारक आनतकः प्राणतकः आरणकः अच्युतकः । एतेषामपि अविशेषितविशेपिनपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम्-कल्पातीतकः, विशेषिम्अवे यकश्च अनुतरोपपातिकश्च। अविशेषितम्-अवेयकः, विशेषितम्-अधस्तना, मामः, उपरितनः । अविशेषितम्-अधस्तनोवेयकः, विशेषितम्-अधस्दनाधस्तनग्रैधेयकः, अधस्तनमध्यमवेयकः, अधस्तनोपरितनग्रेवेयकः । अविशेषितम्-मध्यमवेयकः, विशेषितम्-मध्यमाधस्तनोवेयका, मध्यममध्यमवेयकः, मध्यमोपरि तनोवेयकः। अविशेषितम्-उपरितनोवेयकः, विशेषितम्-उपरितनाधस्तन३वेयका, उपरितनमध्यमवेयकः, उपरितनोपरितनग्रैवेयकश्च । एतेषामपि सर्वेषां अविशेपितविशेषितपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा भणितव्याः । अविशेषितम्-अनुत्तरोपपातिकः, विशेषितम्-विजयको वैजयन्तको जयन्तकः अपराजितका सर्वार्थसिद्धकश्च । एतेषामपि सर्वेषाम् अविशेषितविशेषितपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम्-अजीवद्रव्यम् , विशेषितम्-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्लास्तिकायः, अद्धासमयश्च । अविशेषितम्-पुद्गलास्तिकायः, विशेषितम्-परमाणुपुद्गलो द्विप्रदेशिकः त्रिपदेशिको यावदनन्तमदेशिकश्च । तदेतद द्विनाम ॥मू०१४५॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तद् द्विनाम ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-द्विनाम-द्विविधं नामद्विनाम । द्विनामत्वादेवेदं द्विपकारकं बोध्यम् । द्विप्रकारकत्वमेवाह-तद्यथा-एका
अब सूत्र कार बिनाम की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं दुनामे?" इत्यादि शब्दार्थ -(से किं तं दुनामे) हे भदन! वह हि नाम क्या है ? હવે સૂત્રકાર હિનામના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– " से कि त दुनामे" त्या
शा -(से कि त दुनामे ?) हे भगवन् ! नामना Hilon wit२ ३५ દ્વિનામનું સ્વરૂપ કેવું છે?
For Private and Personal Use Only
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् एकाक्षरिकं च अनेकाक्षरिकं च। तत्रैकाक्षरिकम्-एकं च तदक्षरं चेति एकाक्षरम्, तेन निवृत्तमेकाक्षरिकम् , तद्धि-ही-लज्जा, श्रीः-लक्ष्मीः, धीः-बुद्धिा, इत्यादिकमे. काक्षरिकं द्विनाम बोध्यम् । तथा-अनेकाक्षरिकम्-अनेकानि च तान्यक्षराणि-अने. काक्षराणि तैनित्तमनेकाक्षरिकम, तद्धि-कन्या वीणा लता मालेत्यादिकमने. काथरिकं द्विनाम बोध्यम् । एवं 'बलाका पत्ताका' इत्यादि व्याधक्षरनिष्पामपि
उत्तर-(दुनामे दुविहे पण्णत्ते) दिनाम-द्विविधनाम-दो प्रकार का है। यहां द्विनाम का तात्पर्य दो प्रकार के नाम से है। दो प्रकार का जो नाम है वह द्विनाम है (तं जहा) नाम के दो प्रकार ये है-(एगक्सरिए य अणेगक्खरिए य) एकाक्षरिक और अनेकाक्षरिक एक अक्षर से जो नाम निष्पन्न हो वह एकाक्षरिक नाम है और जो अनेक अक्षरों से निष्पन्न होता है वह अनेकाक्षरिक नाम है। जैसे 'ही' लज्जा, 'श्री' लक्ष्मी, 'धी' बुद्धि, स्त्री, ये सब एकाक्षरिक दिनाम हैं। कन्या, वीणा, लता, माला ये सब अनेकाक्षरिक द्विनाम हैं। यही बात (से कितं एगक्खरिए ? एगक्खरिए अणेगविहे पण्णते,) तं जहा-ही, सी, थी, थी, से तं एगक्खरिए-से किं तं अणेगक्खरिए ? अणेगक्खरिए-अणेगविहे पण्णत्ते-तं जहा-कण्णा, वीणा, लया, माला, से तं अणेगक्खरिए) इस सूत्रपाठ द्वारा प्रश्नोत्तरपूर्वक सूत्रकारने प्रदर्शित की है। इसी प्रकार "घलाका पताका" इन तीन अक्षरों से निष्पन्न हुआ नाम
उत्तर-(दुनामे दुविहे पण्णत्ते) द्विनाम-aqधनाम मे २४ -ms હિનામ પદ બે પ્રકારના અર્થમાં વપરાયું છે. તેથી બે પ્રકારનું જે નામ છે. तनु नाम दिनाम छे. (तंजहा) नामना मे प्रा। नीय प्रभा छ-(एगा. रिए य अणेगक्षरिए य) (१) ARI मन (२) भनेक्षe नाममा અક્ષર વડે નિષ્પન્ન થાય છે, તે નામને એકાક્ષરિક નામ કહે છે અને જે નામ અનેક અક્ષરે વડે નિષ્પન્ન થાય છે, તેને અનેકાક્ષરિક નામ કહે છે,
भ, "ही" (asen), " श्री" (AEभी), “धी" भुद्धि, 'श्री' આદિ એકાક્ષરિક દ્વિનામ છે. કન્યા, વીણા, લતા, માલા, આદિ અનેકાક્ષરિક દ્વિનામ છે. એજ વાત સૂત્રકારે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રશ્નોત્તરપૂર્વક પ્રકટ કરી છે
(से किं त' एगखरिए ? एगक्खरिए भणेगविहे पण्णत्ते, तजहा-ही, सी, पी, थी, से त एगक्खरिए । से किं त अणेगवरिए ? अणेगखरिए अणेगविहे एण्णत्ते-तजहा-कण्णा, वीणा, ख्या, माला, से त अणेगक्चरिए) । सूत्रानो सावार्थ ५२ ४२वामा भाये। छ. मेरा प्रमाणे "बळाका,
भ०८१
For Private and Personal Use Only
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६२
__ अनुयोगद्वारसूत्र बोध्यम् । इत्थमेकाक्षरानेकाक्षरेति द्विप्रकारेण नाम्ना विवक्षितस्य समस्तस्यापि वस्तुजातस्य प्रतिपादनाद् द्विनामेत्युच्यते। द्विरूपं सत् सर्वस्य नामेति द्विनाम। द्वयोनाम्नोः समाहार इति पक्षे तु द्विनामे तिच्छाया बोध्या। अथ प्रकारान्तरेण द्विनाम निरूपयति-अथवा-द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-जीवनाम च अजीवनाम चेति । तत्र-देवदत्तयज्ञदत्तादिभेदेन जीवनाम अनेकविधम् । तथा-घटपटादिभेदेनाभी अनेकाक्षर निष्पन्न नाम में अन्तर्हित जानना चाहिये । इस प्रकार एकाक्षर और अनेकाक्षर से निष्पन्न दो प्रकारवाले नाम से, विवक्षित समस्त भी वस्तु समूह का प्रतिपादन होता है इससे दो नाम ऐसा कहा जाता है। "द्विरूपं सत् सर्वस्य नामेति विनाम" सर्व का नाम दो रूपवाला होता है। इसलिये वह द्विनाम है। एकाक्षरिक और अनेकाक्षरिक ये ही नाम के दो रूप है। "द्वयोः नाम्नोः, समाहारः इति हिनाम" इस पक्ष में भी बिनाम ऐसी ही छाया जाननी चाहिये। ; अब सूत्रकार प्रकारान्तर से द्विनाम का निरूपण करते हैं-(अहवादुनामे दुविहे पण्णत्ते) अथवा-द्विनाम दो प्रकार का प्रज्ञप्त-हुआ है (तं जहा) जसे (जीव नामे य अजीव नामे य) जीव नाम और अजीव नाम (से कि तं जीवनामे !) हे भदन्त ! जीव नाम क्या है ?(जीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते) जीव नाम अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ पताका" मात्र अक्षराथी नि०पन्न यता नाभन भन क्ष२ निपन्न नाममा જ સમાવેશ કરે જોઈએ આ પ્રકારે એકાક્ષર અને અનેકાક્ષર વડે નિષ્પન્ન થતા બે પ્રકાશવાળા નામ વડે વિવક્ષિત સમસ્ત વસ્તુસમૂહનું પ્રતિપાદન થાય
तथा तन द्विनाम ३५ वामां आवे छे. "द्वि ला सत् सर्वस्य नामेति द्विनाम सेवन नाम मे ३५वाणु डाय छे, तेथी त द्विनाम ३५ छ । क्षरि माने भने।क्ष४ि, मे , नामनामे ३॥ छ. “द्वयोः नाम्नोः समाहारः इति द्विनाम" मा पक्ष पर विनाम' सेवी छाया समभवी જોઈએ હવે સૂત્રકાર બીજી રીતે દ્વિનામનું નિરૂપણ કરે છે–
(अहवा-दुनामे दुविहे पण्णत्ते) अथवा-द्विनाम से प्रारना ४ा छ(तजहा) में ५४॥२॥ नीय प्रमाणे छ-( जीवनामे य, अजीवनामे य) (१) नाम भने (२) म नाम.
प्रश्न-से किं तं जीवनामे?) भवन ! पनाम मेटले शु.१
उत्तर-(जीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते) मन भने ४२ ४॥ छे. (तजहा) भ ...(देवदत्तो जण्णदत्तो विण्डत्तो सोमदत्तो) हेपत्त, यज्ञहत्त, पशुहत्त, साभहत्त, वगेरे.
For Private and Personal Use Only
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् जीवनामाप्यनेकविधम् । जीवाजीवेति द्वाभ्यां नामभ्यामेव विपक्षितसमस्तपदार्थानां संग्रहाद् द्विनामेत्युच्यते । पुनरेतदेव प्रकारान्तरेणाह-अथवा द्विनाम द्विविधं प्रज. तम्-अविशेषितं च विशेषितं च । तत्र-अविशेषितं द्रव्यम् । विशेषितं-जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च। प्रत्येकमिदमविशेषितविशेषितभेदात् पुनर्भेदान्तराचानेकपकारक भवतीति मूलादेव विज्ञेयम् । सौगम्याच मूलस्य व्याख्या न क्रियते । अत्रेदंबोध्यम्। है। (तं जहा) जैसे (देवदत्तो जगदत्तो विण्हुदत्तो सोमदत्तो) देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुदत्त, सोमदत्त आदि । (से किं तं अजीव नामे) वह अजीब नाम क्या है ? (अजीवनामे अणेगधिहे पण्णसे) __ उत्तर- अजीव नाम अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है (तं जहा) जैसे (घडो, पडो, कडो, रहो.) घट, पट, कट, रथ, आदि । (से तं अजीव नामे) यह अजीव नाम है । (अहवा दुनामे दुविहे पपगत्ते) अथवाद्विनाम दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) जैसे (विसेसिए य अविसेसिए य) विशेषित और अविशेषित (अविसेसिए दबे विसेसिए जीवव्वे अजीवब्वे य) अविशेषित द्रव्य कहलाता है और विशेषित उसके भेद कहलाते हैं । द्रव्य ऐसा नाम अविशेषित द्विनाम है। और द्रव्य दो प्रकार का होता है-१ जीव द्रव्य
और दूसरा अजीव द्रव्य ऐसा नाम विशेषिन द्वि नाम है । इनमें जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ये अविशेषित और विशेषित के भेद से तथा और भी भेदान्तरों से अनेक प्रकार के हो जाते हैं यह बात मूल से
प्रश्न-(से किं तअजीवनामे?) मन्! नाम मे शु
उत्तर -(अजीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते) भनाभन भने प्र ह छ. (त'जहा) २ ४ (घडो, पडो, कडो, रहो) ५८ ५८, ४८ (२८), २५ वगैरे (से त अजीवनामे) मा प्रा२नुं नाम डाय छे. (अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते) ५२द्विनामना मे ४.२ ४. छे. (तजहा) भ .... (विसेसिए य अविसेसिए य) (१) विशषित म२ (२) विशेषित (अविसेसिप दव्वे, विसेसिए जोववे अजीवव्वे य) द्रव्यने विशेषित ३५ उपाय छ અને દ્રવ્યના જીવ અજીવ રૂપ ભેદને વિશેષિત કહેવાય છે. દ્રવ્ય એવું નામ અવિશેષિત દ્વિનામ છે. દ્રવ્ય બે પ્રકારનું હોય છે-(૧) જીવ દ્રવ્ય અને (૨) અછવદ્રવ્ય આ જીવદ્રવ્ય અને અછવદ્રવ્ય ૫ નામને વિશેષિત દિનામ કહે છે. વળી જીવ દ્રવ્ય અને અજીવ દ્રવ્યના અવિશેષિત અને અવિશક્તિ નામના બે ભેદે તથા બીજા પણ ઘણા ભેદ પડતા હોવાથી તે વ્યોમા અનેક પ્રકાર હોય છે, આ વાત મૂળ સૂત્રમાંથી જ જાણી લેવી જેમ -
For Private and Personal Use Only
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे
तु संमूर्च्छन्ति तथाविधकर्मोदयाद् गर्भमन्तरेणैवोत्पद्यन्ते ते सम्मूर्छिमाः । येषां तु गर्भे व्युत्क्रान्तिः = उत्पत्तिस्ते गर्मव्युत्क्रान्तिकाः । परिसर्पन्ति ये ते परिसर्पाः । ते हि - उरः परिसर्प - भुजपरिसर्पभेदाभ्यां द्विमकाराः । तत्र - उरः परिसर्पाः सर्पादयः । भुजपरिसर्पास्तु गोधानकुलादयः । इति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह तदेतद् द्विनामेति ॥ सू० १४५ ॥
1
ही जान लेनी चाहिये जैसे- (अविसेसिए जीवदन्ये, विसेसिए गैरइए तिरिक्खजोणिए, मणुस्से देवे) जीव द्रश्य ऐसा नाम अविशेषित द्विनाम है तथा नारक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव ये विशेषित द्विनाम हैं। (रइए अविसेसिए) नैरयिक यह अविशेषित द्विनाम है और ( रयणपate सक्कर प्पहाए, वालुअप्पहाए, पंक पहाए, धूमप्पहाए तमाए, तमतमाए विसेसिए) रत्नप्रभागत नैरथिक, शर्करा प्रभागत नैरयिक, वालुका प्रभागत नैरयिक, पंक प्रभागत नैरयिक, धूम प्रभागत नैरयिक, तमःप्रभागत नैरयिक तमस्तमःप्रभागत नैरयिक ये विशेषित द्विनाम हैं। आगे भी इसी प्रकार से सूत्र के अन्त तक प्रत्येक भेद में अविशेषित और विशेषित द्विनाम की योजना कर लेनी चाहिये । सूत्र सुगम होने से आगे के पदों की व्याख्या नहीं की है। संमूच्छिम वे जीव हैं जो तथाविध कर्म के उदय से गर्भ के विना ही उत्पन्न हो जाते हैं । व्युत्क्रान्ति का तात्पर्य उत्पत्ति है। जिन जीवों की उत्पत्ति
( अविसेसिए जीवदव्वे, विसेसिए णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से, देवे ) 'लवद्रव्य ' या नाम अविशेषित द्विनाभ छे, तथा नार४, तियय, मनुष्य भने हेव, આ ચારે વિશેષિત દ્વિનામેા છે.
( रइए अविसेसिए) 'नार' या नामने ले भविशेषित द्विनाभ वामां आवे तो ( रयण पहाए, सक्करपहाए, वालुअ पहाए, पंकपहाए धूमप्पgic, axıę, axanıq faàfag) Requenal airs, 218214gal diŔs, તાલુકાપ્રભાના નારક, પંકપ્રભાના નારક, ધૂમપ્રભાના નારક, તમઃપ્રભાના નારક, અને તમસ્તમઃપ્રભાના નારકને વિશેષિત દ્વિનામ કહે છે, એજ પ્રકારે સૂત્રના અન્ત સુધીના પ્રત્યેક લેકમાં અવિશેષિત અને વિશેષત દ્વિનામની યાજના કરી લેવી જોઈએ સૂત્ર સુગમ હાવાથી પછીનાં પદ્માની વ્યાખ્યા આપવામાં આવી નથી જે જીવા તથાવિધ ક્રમના ઉદ્દયથી ગભ વિના જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે જીવાને સમૂ`િછમ જીવે કહે છે. વ્યુત્ક્રાન્તિ बहनो अर्थ' ' उत्पत्ति' थाय छे ? बोनी
(
,
उत्पत्ति गर्ल भन्थी थाय छे,
For Private and Personal Use Only
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् त्रिनाम निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं तिनामे ? तिनामे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा दवणामे गुणणामे पज्जवणामे य। से किं दवणामे ? दवणामे छविहे-पण्णत्ते, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगा. सत्थिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए य। से तं दवनामे। से किं तं गुणनामे ? गुणनामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णणामे गंधणामे रसणामे फासणामे संठाणणामे । से कि तं वण्णणाम? वण्णणामे पञ्चविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवण्णणामे नीलवण्णणामे लोहियवण्णनामे हालिदवपणनामे सुकिल्लवण्णनामे । सेत्तं वपणनामे। से किं तं गंधनामे-गंध. नामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुरभिगंधनामे य दुरभिगंधनामे य। से तं गंधनामे। से किं तं रसनामे? रसनामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-तित्तरसणामे कडुयरसणामे कसायरसणामे अंबिलरसणामे महुररसणामे य। से तं रसणामे। से किं तं गर्भ जन्म से होती है वे गर्भव्युत्क्रान्ति जीव हैं। जो सरकते है। परिसर्प हैं । उर परिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से परिसर्प जीव दो प्रकार के हैं ! सादिक जीव जो कि छाती से सरकते हैं-उरः परिसर्प हैं । और गोधा, नकुल आदि जीव जो भुजाओं से सरकते-चलते हैं वे भुजपरिसर्प हैं । इस प्रकार यह द्विनाम हैं ॥सू०१४६॥ તે જીવને ગર્ભથ્થુક્રાતિક જીવે કહે છે, જે જીવે સરકતાં સરકતાં ચાટે છે તે જેને પરિસર્પ કહે છેપરિસર્ષ ના ઉર પરિસર્ષ અને ભુજપરિસર્પ નામના બે ભેદ પડે છે. સર્પાદિક જે છ છાતીને બળથી સરકે તે જેને ઉર પરિસર્પ કહે છે. ગળી, નેળિયા આદિ છ ભુજા એના બળથી સરકે (ચાલે છે, તેથી તેમને ભુજ પરિસપ કહે છે. આ પ્રકારનું આ કિનામનું સવરૂપ છે. સૂ૦૧૪પ
For Private and Personal Use Only
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारले फासणामे ? फासणामे अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-कक्खडफासणामे मउयफासणामे गरुयफासणामे लहुयफासणामे सीयफासणामे उसिणफासणामे गिद्धफासणामे लुक्खफासणामे। सेसं फासणामे । से किं तं संठाणनामे ? संठाणनामे-पंचविहे पण्णत्ते तं जहा परिमंडलसंठाणनामे वट्टसंठाणनामे तंसंटाणनामे चउरंसठाणनामे आययसंठाणनामे। से तं संठाणनामे से तं गुणनामे ॥सू० १४६॥ ___छाया-अथ किं तत् त्रिनाम ? त्रिनाम त्रिविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-द्रव्यनाम, गुणनाम पर्यवनाम च । अथ किं तद् द्रव्यनाम ? द्रव्यनाम पइविधं प्रज्ञसमे , तयथा-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयश्च । तदेतद् द्रव्यनाम । अथ किं तद् गुणनाम ? गुणनाम पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम संस्थाननाम । अथ किं तद् वर्णनाम ? वर्णनाम पञ्चविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-कालवर्णनाम नील. वर्णनाम लोहितवर्णनाम हारिद्रवर्गनाम शुक्लवर्णनाम तदेतद्वर्णनाम । अथ किं तत् गन्धनाम ? गन्धनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-सुरभिगन्धनामच दुरभिगन्धनाम च। तदेतद् गन्धनाम । अथ किं तद् रसनाम ? रसनाम पञ्चविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथातिक्तरसनाम, कटुकरसनाम, कषायरसनाम अम्लरसनाम मधुररसनाम च। तदेतद् रसनाम । अथ किं तत् स्पर्शनाम ? स्पर्शनाम-अष्टविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथाकर्कशस्पर्शनाम मृदुकस्पर्शनाम गुरुकस्पर्शनाम लघुकस्पर्शनाम शीतस्पर्शनाम उष्णस्पर्शनाम स्निग्धस्पर्शनाम रूक्षस्पर्शनाम । तदेतत् स्पर्शनाम । अथ किं तत् संस्थान नाम ? संस्थाननाम पञ्चविध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-परिमण्डलसंस्थाननाम वृत्तसंस्थाननाम व्यंससंस्थाननाम चतुरंससंस्थाननाम आयतसंस्थाननाम । तदेतत संस्थान नाम । तदेतद् गुणनाम ॥सू० १४६॥
टीका-से किं तत त्रिनाम ? इति शिष्यमश्नः। उत्तरयति-त्रिनाम त्रिरूपं नाम त्रिनाम तत् त्रिविध प्रज्ञप्तम् । यत एवेदं त्रिनाम अत एवेदं त्रिविध
अब त्रिनाम का सूत्रकार निरूपण करते हैं"से किं तं तिनामे' इत्यादि। હવે સૂત્રકાર ત્રિનામનું નિરૂપણ કરે છે– "से किं तं तिनामे " त्याल
For Private and Personal Use Only
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३५ त्रिनामनिरूपणम् पोध्यम्। त्रैविध्यमेवाह-तद्यथा-द्रव्यनाम-द्रवति गच्छति तास्तान पर्यायान माप्नोतीति द्रव्यं, तस्य नाम-द्रव्यनाम । गुगनाम-गुण्यन्ते संख्यायन्ते इति गुणास्तेषां नाम-गुणनाम। तथा-वर्णनाम-वर्ण्यते-अलक्रियते वस्त्वनेनेति वर्णः, तस्य नाम वर्णनाम । एषु त्रिविधेषु नामसु प्रथमं द्रव्यनाम जिज्ञासमानः शिष्यः पूच्छति-अथ किं तद् द्रव्यनाम ? उत्तरयति-द्रव्यनाम हि धर्मास्तिकायादिभेदैः विधम् । धर्मास्तिकायादीनां व्याख्या पूर्व कृता । गुणनामतु वर्णगन्धरसस्पर्श
शब्दार्थ-- (से किं तं तिनामे ?) हे भदन्त ! त्रिनाम क्या है ? . उत्तर-- (तिनामे तिविहे पण्णत्ते) त्रिनाम तीन प्रकार का कहा गया हैतीन रूप वाला जो नाम है वह त्रिनाम है ! त्रिनाम से ही यह त्रिविध है। (तं जहा) वे तीन प्रकार ये हैं-- (दव्वणामे, गुणनामे,पज्जवणामे) द्रव्यनाम, गुणनाम, पर्यव नाम । उन २ पर्यायों को जो प्राप्त करता है उसका नाम द्रव्य है । इस द्रव्य का जो नाम है वह द्रव्यनाम है। जो गिने जावें उनका नाम गुण है यह गुण शब्द की व्युत्पत्ति है। इनका जो नाम है वह गुण नाम हैं। पर्याय का जो नाम है वह पर्याय नाम है। पर्याय नाम का वर्णन सूत्रकार १४७ वें सूत्र में करेंगे। (सेकिं तं दव्वनामे) वह द्रव्य नाम क्या है ?
उत्तर-- (दवणामे छविहे पण्णसे) द्रव्य नाम ६ प्रकार का कहा है । (तं जहा) जैसे--(धम्मत्थिकाए, अधम्नथिकाए, आगासत्यिकाए
शहाथ-(से कि त तिनामे ?) 3 मापन् ! त्रिनाम भेटले शु१
उत्तर-(तिनामे तिविहे पण्णत्ते) विनामना ३ २ ४ा छ. ३१ ३५વાળું જે નામ છે, તેને વિનામ કહે છે ત્રિનામ હોવાને લીધે જ તે ત્રણ मारनु छे. (तजहा) ते १५ मारे। नीय प्रमाणे छ-(दव्वणामे, गुणनामे, पज्जवणामे) (१) द्र०यनाम, (२) गुरुनाम भने (3) ५ यनाम (पर्यायनाम.)
જુદી જુદી પર્યાને જે પ્રાપ્ત કરે છે, તેનું નામ દ્રવ્ય છે. આ દ્રવ્યનું જે નામ છે તેને દ્રવ્ય નામ કહે છે. ગુણ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે છે. "२ गाय ते शुष छे." ते गुरतुं नाम तेने मुनाम. ४ . પર્યાયનું જે નામ છે, તેનું નામ પદનામ છે. આગળ ૧૪માં સત્રમાં સૂત્રકાર આ પર્યાયનામનું વર્ણન કરવાના છે. ____प्रश्न-(से कि त दव्वनामे?) ते द्र०यनाम शु छ ?
उत्तर-(दुव्वणामे छव्विहे पण्णत्ते) द्रव्यनाम छ प्रा२नुं छे. (तजहा) २.....(धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवस्थिकाए, पुग्गलत्यि
For Private and Personal Use Only
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारले संस्थानभेदैः पञ्चविधम् । तत्र वर्णनाम-कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लनामभेदैः पञ्च विधम् । धूसरारूणरूप कपिशादयस्तु वर्णां संयोगेनैवोत्पयन्ते, नत्वेते तेभ्यो भिन्ना इति न पृथगुपात्ताः। तथा-गन्धनाम-गन्भ्यते-आघ्रायते इति गन्धस्तस्य नामगन्धनाम । तद्धि-सुरभिदुरभिभेदाद द्विविधम् । तत्र-सौमुख्यकृत् सुरभिः, वैमुख्यजीवस्थिकाए, पुग्गलस्थिकाए, अद्धासमए य) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धा समय । इन सबकी व्याख्या पहिले की जा चुकी है । अतः यहां नहीं की है । (सेतं व्वनामे) इस प्रकार यह द्रव्य नाम है। (से किं तं गुणनामे) वह गुण नाम क्या है ? -
उत्तर-(गुणनामे पंचविहे पण्णत्ते) गुणानाम पांच प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे-- (वण्णणामे, गंधणामे रसणामे, फास णामे, संठाणणामे) वर्णनाण, गंध नाम, रस नाम, स्पर्श नाम, संस्थान नाम । वस्तु जिससे अलंकृत की जाती है वह वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति है। इस वर्ण का जो नाम है वह वर्ण नाम है। जो सूंघी जावे वह गंध है। इस गंध का जो नाम है वह गंधनाम है । जो चखा जाता है वह रस है। रस का जो नाम है वह रस नाम है। जो स्पर्श से जाना जाता है वह स्पर्श है। संस्थान नाम आकार का है। इस संस्थान का जो नाम है वह संस्थान नाम है। काए, अद्धासमए य) यस्ताय, अघस्तिय, मस्तिय, वास्तिકાય, પુલાસ્તિકાય અને અદ્ધાસમય (કાળ) આ બધાં પતેની વ્યાખ્યા પહેલાં આપવામાં આવી છે, તેથી અહીં તેમની વ્યાખ્યા આપવામાં આવી नया (से त बनामे) मा नु ते द्रव्यनाम .
प्रश्न-(से कि त गुणनामे?) 8 भगवन् ! सुनाम २ ४३ छ।
उत्तर-(गुणनामे पंचविहे पण्णत्ते-तजहा) गुनाम पाय मारनु ।' छ. ते प्रा। नये प्रमाणे छ-(वण्णणामे, गंधणामे, रसणामे, फासणामे, संठाणणामे) नाम, गधनाम, २सनाम, १५श नाम भने संस्थाननाम વસ્તુને જેના વડે અલંકૃત કરાય છે, તેને વર્ણ કહે છે. તે વર્ણનું જે નામ છે તેને વર્ણનામ કહે છે. સુંઘવાથી જેને અનુભવ થાય છે, તે ગધ છે. આ ગધનું જે નામ છે તેને ગંધનામ કહે છે. ચાખવાથી જેને અનુભવ થાય તે રસ છે. એવા રસનું જે નામ છે, તે રસનામ છે. કઈ પણ વસ્તુને અડકવું તેનું નામ સ્પર્શ છે. આ સ્પર્શનું જે નામ છે તેને સ્પર્શનામ કહે છે. સંસ્થાન એટલે આકાર આ સંસ્થાનના નામને સંસ્થાનનામ કહે છે,
For Private and Personal Use Only
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् कुदुरभिः । तथा-रसनाम-रस्यते-भास्वाधते इति रसस्तस्य नाम रसनाम तच्च-तिक्तकटुककषायाम्लमधुरनाम भेदात् पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । तत्र-तिक्तरसनाम - श्लेष्मादिदोषहन्ता रसा, तस्य नाम तिक्तरसनाम । तिक्तरससेवनफलमुक्तमायुः वेदशास्त्रे-"श्लेष्मामरुचिः पित्तं तृषं कुष्ठं विषं ज्वरम् । हन्यात्तिक्तो रसो बुद्धः कत्त
(से कि तं वण्णणामे) वह वर्णनाम क्या है ? . ___उत्तर-(वण्णणामे पंचविहे पण्णत्ते) वर्णनाम पांच प्रकार का कह गया है। (तं जहा) जैसे-(कालवण्णणामे, नीलवण्णनामे, लोहि यषण्णनामे, हालिद्दवण्णनामे, सुकिल्लवणनामे) काल कृष्ण-वर्ण नाम, नीलवर्णनाम, लोहितवर्णनाम, हारिद्रवर्णनाम, शुक्लवर्णनाम धूसर, अरूण रूप जो कपिशादि वर्ण हैं-वे संयोग से ही उत्पन्न होते है, इसलिये ये स्वतंत्रवर्ण नहीं हैं इसलिये इनका स्वतंत्र रूप से सूट में पाठ नहीं किया है। सुरभिगंध और दुरभिगंध के भेद से गन्ध गुण दो प्रकार का है । जो गंध अपनी ओर आकृष्ट करती है वह सुरभि गेंध और जो अपने से विमुख करती है वह दुरभिगंध है। तिक्त कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर नाम के भेद से रस पांच प्रकार है श्लेष्म आदि दोषों को नष्ट करनेवाला जो रस है वह तिक्त रस तिक्त रस के सेवन का फल आयुर्वेद शास्त्र में ऐसा कहा है-मात्रा से
प्रश्न-से कि त वण्णणामे) मगवन् ! १ नामनु २१३५ ३ सय छ?
उत्तर-(वण्णणामे पंचविहे पण्णत्ते) पनाम पांय ५४१२ना i छे. (त'जहा) रेभ....(कालवण्णणामे, नीलवण्णणामे, लोहियवण्णणामे, हालिहवण्णणामे, सुकिल्लवण्णणामे) (१) नाम, (२) नीस नाम, (3) बोलत (२४) नाम, (९) द्रि (पाणी) व नाम, मन (५) शुसाशनाभ.
આ સિવાયના જે સર આદિ વણે છે, તેઓ ઉપર્યુક્ત વર્ણોના સગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તેમને સ્વતંત્ર વર્ણ રૂપ ગણી શકાય નહી, તેથી અહીં તેમને સ્વતંત્ર પ્રકારો રૂપે બતાવવામાં આવેલ નથી સુરભિગમ (सु) मने दुमि (4) मेथी मथुना में प्रा२ ५ . જે ગંધ ને પિતાની તરફ આકર્ષે છે તે ગધને સુરભિગધ અને જે ગંધ જીવોને પિતાની તરફ ખેંચવાને બદલે વિમુખ કરે છે એવી ગંધને
मिस छ. २सना नीचे प्रमाणे पाय ५४२ छ-(१) तित (ती), (२) ४४४ (४७३t), (3) ४षाय (तु), (४) ma (माट!) मन (मधु२) કફ આદિ દેને નાશ કરનાર જે રસ છે તેનું નામ તિક્તરસ છે. આયુર્વેદ શાસ્ત્રમાં તિક્તરસના સેવનને નીચે પ્રમાણે લાભ બતાવ્યા છે–માત્રામાં
अ० ८२
For Private and Personal Use Only
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसमे
मात्रोपसेवितः । इति। तथा-कटुकरसनाम-गळरोगमशमनो मरिचनागराद्याश्रितो रसः- कदुकरसः-तस्य नाम - कटुकरसनाम | कटुकरस सेवन फलमुक्तमायुर्वेदे - कदुर्ग: लामयं शोफं, हन्ति युक्त्योषसेवितः । दीपनः पाचको रुच्यो बृंहणोऽतिकफापहः । इति । तथा कषायरसनाम - रक्तदोषाद्यपनेताविभीतकामलककपित्थाद्याश्रितो रसःकषायरसः, तस्य नाम कषायरसनाम । उक्तंचास्य सेवनफलम् - " रक्तदोषं कर्फ पित्तं, कषायो हन्ति सेवितः । रूक्षः शीतो गुणग्राही रोचकश्च स्वरूपतः" ॥इति ॥ सेवन किया तिक्तरस श्लेष्मा - कफ अरुचि, पित्त, तृषा, कुष्ठ, विष, ज्वर, इनका नाश करता है और बुद्धि को बढाता है। इस तिक्तरस का जो नाम है वह तिक्तरस नाम है। गले के रोग को प्रशान्त करनेवाला एवं मरिच और नागर आदि में रहनेवाला जो रस है वह कटुकरस है। इस कटुकरस के सेवन का फल आयुर्वेदशास्त्र में ऐसा कहा है- युक्ति से सेवन किया गया कटुक रस.... शोफ - सूजन को नष्ट करता है, दीपक, पाचक, रुच्य और बृंहण होता है । बढे हुए कफ को नष्ट करता है। रक्त दोष आदि का नाशक- विभीतक - बहेड़ा आमलक - आँवला एवं कपित्थ आदि के आश्रित जो रस है वह कषाय रस है । इसका जो नाम है वह कषाय रस नाम है। इसके सेवन का फल ऐसा कहा है- सेवित हुआ यह कषाय रस रक्तदोष, कफ, पित्त, को नाश करता है । यह स्वरूप से रूक्ष, शीत और गुणग्राही होता है तथा
तितरसनु ले सेवन वामां आवे तो ४३, मरुथि, पित्त, तृषा, डुण्ड, વિષ અને જવરના નાશ થાય છે અને બુદ્ધિની વૃદ્ધિ થાય છે. આ તિક્તરસનુ' જે નામ છે, તે તિક્તરસ નામ છે.
ગળાના રાગેાને પ્રશાન્ત કરનારા અને રિચ અને નાગર આદિમાં रद्धेनारे! ? रस छे, ते रसनु नाम उम्र (एडवास्वाह) छे. आयुर्वे શાસ્ત્રમાં આ કટુક રસના સેવનનુ' ફળ નીચે પ્રમાણે કહ્યુ છે-ચેાગ્ય માત્રામાં એ કટુક રસનું સેવન કરવામાં આવે, તે શરીરના કોઈ પણ ભાગના સેજો ઉતરી જાય છે, દીપક (પાચનક્રિયામાં મદદ રૂપ) હાય છે, રુચ્ય અને બૃંહણ (શક્તિવર્ધક) હાય છે તે વધારાના કના નાશ કરે છે.
રક્તદોષ આદિના નાશક, બહેડા, આમળાં, કાઠાં આદિમાં રહેલા જે રસ છે તેને કષાય (તુરા) રસ કહે છે. તેનુ જે નામ છે તે કષાયરસ નામ છે. આયુર્વે માં કષાયરસના સેવનનું ફળ નીચે પ્રમાણે કહ્યુ` છે-જો ચાગ્ય રીતે સેવન કરવામાં આવે તે કષાયરસ રકતદોષ, કર, અને પિત્તના નાશ ४२ छे. ते ३क्ष, शीत, गुआदी भने रोय होय छे,
For Private and Personal Use Only
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
--
अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम्
वस्य
तथा - अम्लरसनाम - अग्निदीपनादिकृदम्लीका थाश्रितो रसः - अम्लरसः, नाम - अम्लरसनाम | उक्त चास्य फलम् - " अम्लोऽग्निदीप्तिकृत् स्निग्धः, शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो, गूढवातानुलोमकः ॥ इति ॥ तथा मधुररसेनामपित्तादिप्रशमनः खण्डशर्कराद्याश्रितो रसो मधुररसः, तस्य नाम - मधुररसनाम । उक्त चास्य फलम् - "वित्तं वातं विषं हन्ति, धातुवृद्धिकरो गुरुः । जीवनः केश'केंद्र बालवृद्ध क्षीणौजसां हितः " || इति । अन्यत्र हि सिन्धुलवणाचाश्रितो लवणरोचक होता है। अम्लीक इमली आदि में रहा हुआ जो रस है वह अम्लरस है । यह अग्निदीपन आदि का करने वाला होता है। इस रस का जो नाम है वह अम्ल रस नाम है। इसका फल इस प्रकार कहा है - यह रस अग्निदीपक होता है, स्निग्ध होता है। शोफ, पित्त और कफ को नाश करता है। क्लेदन, ( पसीना उत्पन्न करनेवाली (शरीरका अग्निविशेष) पाचन करता है - और रुच्य होता है तथा गूढ वायु का अनुलोमक होता है । पित्तादिका प्रशमन करने वाला जो रस है वह मधुर रस है । यह मधुर रस खांड़, शक्कर आदि का आश्रित रहता है। इसका जो नाम है वह मधुररसनाम है। इसका - फल ऐसा कहा है कि मधुररस पित्त, वात, और विषका नाशक होता है, , धातु की वृद्धि करता है गुरु होता है । बालक, वृद्ध और क्षीण शक्ति वालों का यह हित कस होना है। जोवनप्रद और केशवर्धक होता है। दूसरी जगह सिन्धु लवण सैन्धव-आदि के आश्रित लवण रस भी
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
આમલી આદિમાં રહેલા રસને અમ્હરસ (ખાટાસ્વાદ) કહે છે. તે અગ્નિદ્ગીપન (જઠરાગ્નિને સતેજ કરનારા) આદિ કરનારા હોય છે. આ રસનુ
નામ છે તે અમ્બરસ નામ છે. અમ્લરસના સેવનનુ' ફળ આ પ્રકારનુ ક્યું છે-આ રસ અગ્નિદીપક અને સ્નિગ્ધ હાય છે. સાજા પિત્ત અને ના નાશક હાય છે લેન, પાચન કરે છે. અને રુથ્ય (રુચિકર) હાય છે વળી આ રસ ગૂઢ વાયુને અનુલામક હાય છે.
(પત્તાહિકનું શમન કરનારા જે રસ છે તેનુ નામ મધુરરસ છે. તે ખાંડ, સાકર, ગાળ આદિમાં રહેલા હાય છે. તેનું જે નામ છે તે મધુરરસ નામ છે તેના સેવનનુ ફળ આ પ્રકારનુ કહ્યું છે-મધુર રસ વાત, પિત્ત અને વિષને નાશક હાય છે, ધાતુની વૃદ્ધિ કરનારા અને ગુરુ હાય છે ખાલકા, વૃદ્ધો અને કમજોર માણુસેને લાભકારી હાય છે, જીવનપ્રદ અને કેશવ ક હાય છે કેટલાક માકા લત્ર૩રસ (ખાશ સ્વાદ) ને પણ એક પ્રકારના સ્વતંત્ર રસ
For Private and Personal Use Only
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
अनुयोगद्वारसूत्रे सोऽपि पठयते। अयं रसो हि स्तम्भिताहारबन्धविध्वंसादिकर्ता भवति । अयं रसो दि.मधुरादिरससंसर्गजत्वात्तदमिन्तत्वेन विवश्यते । यतो. लवणरसयोगादेवान्येऽपि रसाः स्वादीयस्त्वं भजन्ते, अतस्तिक्तादिषु पञ्चसु रसेषु लवणरसस्यान्तर्भावः, अत एव न तस्य पृथगुपादानम् । प्रकृतमुपसंहरबाह-तदेतदूसनामेति। अथ गुणनाम्नश्चतुर्थभेदं जिज्ञासितुकामः पृच्छति-अथ किं तत् स्पर्शनाम ? इति । उत्तरयतिसपनाम-स्पृश्यते त्वगिन्द्रियेणावबुध्यते इति स्पर्शः, तस्य नाम स्पर्शनाम । तदि अष्टविधम् अष्टसंख्यकं बोध्यम् । अष्ट विधत्वमेवाह-तद्यथा-कर्कश स्पर्शनामएक-एक स्वतंत्र रस कहा गया है। यह रस स्तंभित आहार आदि का विध्वंस का होता है आहार वधक एवं मलबद्रता नाशक होता है। यह रस मधुर आदि रस के संसर्ग से उत्पन्न होने के कारण उनसे-अभिनही माना गया है। क्यों कि लवण रस के भोग से ही अन्य दूसरे रस स्वादिष्ट लगते है। इसलिये तिक्तादि पांच रसों में ही लवण रस का अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिये इस रस का स्वतंत्र रूप से सूत्रकार ने कथन नहीं किया है। यह अर्थ "से कितं गंधनामे" यहां से लेकर" "महुररसणामे" यहां तक के पाठ का किया है। (से तं रसणामे) इस प्रकार यह रस माम है। (से किं तं फासणामे) हे भदन्त ! गुणनाम का जो चतुर्थ भेद स्पर्श नाम है वह क्या है?
उत्तर--(फासणामे अट्टविहे पण्णत्ते) स्पर्श नाम आठ प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। स्पर्शन इन्द्रिय से जो जाना जाता है वह स्पर्श है। રૂપે ગણાવે છે. સિંધાલુણ, નમક, આદિમાં આ રસને સદ્ભાવ હોય છે. આ રસ તંભિત આહાર આદિને વિવંસ કરવાવાળા હોય છે. આહારવર્ધક અને બંધકોશને નાશક હોય છે. આ રસ મધુર આદિ રસના સંસર્ગથી ઉત્પન્ન થતું હોવાને કારણે, તે રસેથી અભિન્ન જ ગણીને અહીં તેને સ્વતંત્ર પ્રકાર રૂપે ગણવામાં આવેલ નથી કારણ કે લવણરસના ચેગથી જ અન્ય રસે સ્વાદિષ્ટ લાગે છે. તેથી તિકતાદિ પાંચે રસમાં લવણરસને સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી જ સૂત્રકારે આ રસનું स्वतत्र ३१ ४थन यु नथी "से कि त गंधनामे" या सूत्रथी धन "महुररसणामे" मा सूत्र पय-तना सूत्रानो मापा ५२ ५४८ ४२वामा माया छे. (से त रमणामे) 40 प्रा२नु २सनामनु १३५ समा. . .. श्र-(से कित फासणामे १) भगवन् ! - अनामना योथा लेह ३५ २ १५शनाम छे, तनु २१३५ ३ छ ?
उत्तर-(फासणामे अदविहे पगत्ते) १५ नाम 243 प्रा२नु प्रशस यु . સ્પર્શેન્દ્રિયની મદદથી જે અનુભવ થાય છે, તેનું નામ સ્પર્શ છે
For Private and Personal Use Only
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
S
:
योगचन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् स्तब्धताकारणं पाषाणादिगतः स्पर्शः-कर्कशस्पर्शः-तस्य नाम कर्कशस्पर्शनाम । सुदुकस्पर्शनाम-कोमलस्पर्शकारणं तिनिशलतादिगतः स्पर्श:-मृद्धकस्पर्शस्तस्य नाम। गुरुकस्पर्शनाम-अधःपतनहेतुरयोगोलकादिगतः स्पर्श:-गुरुकस्पर्शस्तस्य नाम । लघुकस्पर्शनामपायस्तियगूधिोगमनहेतुरकतूलादि निश्रितः स्पर्शः लघु
सस्पर्श का जो नाम है वह स्पर्श नाम है । (तंजहा) इसके आठ बकार ये हैं-(कक्खडफासणामे, मउयफासणामे, गरुयफासणामे, लहुयफासणामे, सीयफासणामे, उसिणफासणामे, गिद्धफासणामे, लुग्वफासणामे) कर्कश स्पर्श नाम मृदुक स्पर्श नाम, गुरुकस्पर्श नाम, लधु. कस्पर्श नाम, शीतस्पर्श नाम, उष्णस्पर्श नाम, स्निग्धस्पर्श नाम, रूक्षस्पर्श नाम । कर्कशस्पर्श पाषाण आदि में रहता है। यह स्पर्श स्तब्धता का कारण होता है। इसका जो नाम है. वह कर्कशस्पर्श नाम है। कोमलस्पर्श का जो कारण होता है तथा तिनिशलता-वेत्र लता आदि में जो रहता है वह मृदुकपर्श है। इसका जो नाम है वह मृदुकस्पर्श नाम है । जो अधःपतन का कारण होता है और अयोगोलक आदि में रहता है वह गुरुकस्पर्श है । इसका जो नाम है वह गुरुकस्पर्श नाम है। जो स्पर्श प्रायः तिर्यगू ऊर्ध्व, अधः गमन में कारण होता है और जो अर्कतूल आदि के आश्रय रहता है वह लघुक स्पर्श है । उसका जो मा २५ तुंरे नाम छे ते ९५म छे. (जहा) ते २५ नामना मा:
२ नीय प्रमाणे छे-(कक्खडफासणामे, मउयफासणामे, गरुयफासणामे, लहयफासणामे, सीयकासणामे, उसिणफासणामे, णिद्धफासणामे, लुक्खफासणामे) 10:१५ नाम, (२) भूप नाम, (3) शुरु२५श नाम, (४) मधुर५शनाम, (५) शतनाम, (6) G०:५ नाम, (७) नाम (८) ३३२५ नाम..
પાષાણ આદિમાં કર્કશ સ્પર્શને સદભાવ હોય છે. આ સ્પેશ સ્તબ્ધ તાના કારણભૂત બને છે. તેનું જે નામ છે તે કર્ક શસ્પર્શનામ છે કમલસ્પર્શને અનુભવ કરાવનાર તિનિશિલતા (ત્રલતા) આદિના સ્પર્શને મૂહ. સ્પર્શ કહે છે તેનું જે નામ છે. તે મુદકસ્પર્શનામ છે. જે વસ્તુના અધઃપતનમાં કારણભૂત બને છે એવા લેઢાના ગેળા આદિના સ્પર્શને ગુરુકરપર્શ કહે છે. આ સ્પર્શ દ્વારા વસ્તુ ભારે છે એ અનુભવ થાય છે. આ ગુરુક સ્પર્શનું જે નામ છે તે ગુરુકપર્શનામ છે. આંકડો તેલ આ દિ હલકી વસ્તુઓના સ્પર્શને લઘુકસ્પર્શ કહે છે આ સ્પર્શ વસ્તુના તિર્યગગ- મન, ઉદર્વગમન અને અર્ધગમનમાં કારણભૂત બને છે, તેનું જ નામ છે તે
For Private and Personal Use Only
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
M
e harpatiDHADAINuturAuraniu
अनुयोगद्वारी कस्पर्शस्तस्य नाम । शीतस्पर्शनाम-देहस्तम्भादि हेतुः हिमाद्याश्रितः स्पर्शः शीत. स्पर्शस्तस्य नाम । उष्णस्पर्शनाम-आहारपाकादिकारणं वहन्याधनुगतः स्पर्शः उष्णस्पर्शस्तस्य नाम । स्निग्धस्पर्शनाम-पुद्गलद्रव्याणां मियः संयुज्यमानानां बन्धनिबन्धनं तैलादिस्थितः स्पर्शः स्निग्धस्पर्शस्तस्य नाम । तथा-रुक्षस्पर्शनामपुद्गलद्रव्याणामबन्धनिबन्धनं भस्मादिस्थितः स्पर्शः रूक्षस्पर्शस्तस्य नाम । इत्यष्टविक स्पर्शनाम बोध्यम् । तदेतदुपसंहरबाह-तदेतत्स्पर्श नामेति। अथ किं तत् संस्थाननाम ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-संस्थाननाम हि परिमण्डलसंस्थाननामादिभेदः नाम है वह लधुक स्पर्श नाम है। देहस्तम्भ आदि का जो हेतु होता है एवं जो हिम आदि के सहारे रहता है वह शीतस्पर्श है। इसका जो नाम है वह शीतस्पर्श नाम है। आहार के पकाने आदि का जो कारण होता है ऐसा अग्नि आदि के सहारे रहा हुआ जो स्पर्श है वह उष्णस्पर्श है। इसका जो नाम है वह उष्णस्पर्श नाम है। परस्पर मिले हुए पुद्गल द्रव्यों के संश्लिष्ट होने का कारण होता है ऐसा तैला दिक पदार्थ के सहारे रहा हुआ स्पर्श-स्निग्धस्पर्श है। इसका जो नाम है वह स्निग्धस्पर्श नाम है । जो पुद्गल द्रव्यों के अबन्ध का कारण होता है ऐसा भस्मादि स्थित स्पर्श रूक्षस्पर्श है। इसका जो नाम है वह रूक्षस्पर्श नाम है । (से तं फासणामे) इस प्रकार यह आठ प्रकार का स्पर्शनाम है। (से किं तं संठाणणामे) यह संस्थान नाम क्या है? લઘકસ્પનામ છે હિમ, બરફ આદિના સપર્શથી જે સ્પર્શનો અનુભવ થાય છે તે સ્પર્શને શીતસ્પર્શ કહે છે. શરીર ઠંડકવાઈ જવામાં કે અકડાઈ જવામાં આ સ્પર્શ કારણભૂત બને છે. તેનું જે નામ છે, તે શીતસ્પર્શનામ છે. આહારને રાંધવા આદિમાં જે કારણભૂત થાય છે અને અગ્નિ આદિમાં જેને સદૂભાવ હોય છે, તે સ્પશને ઉષ્ણસ્પર્શ કહે છે તેનું જ નામ છે તે ઉષ્ણુ સ્પર્શનામ છે. તેલ, ઘી આદિ પદાર્થોમાં જે સ્પર્શને સદુભાવ હોય છે તે સ્પશને સ્નિગ્ધસ્પર્શ કહે છે. પરસ્પર મળેલાં પુદ્ગલ દ્રવ્યના એક બીજા સાથે સંલિષ્ટ રહેવામાં આ સ્પર્શ કારણુબત બને છે. તેનું જે નામ છે તે નિધસ્પર્શનામ છે જે સપર્શ પુદ્ગલ દ્રવ્યના સંબન્ધમાં કારણભૂત બને છે તે સ્પર્શને રૂાસ્પર્શ કહે છે ભસ્મ આદિમાં આ સ્પર્શને સદ્ભાવ હોય છે. तेरे नाम D ते ३१९५३ नाम छ (से त' फासणामे) 4. As' als પ્રકારના સ્પર્શનામનું સ્વરૂપ છે.
8-(से किं तसंठाणणामे मग यान नाम१३५१
For Private and Personal Use Only
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम्
६५५
पंचविधं प्रज्ञतम् । संस्थान माकारविशेषस्तत्स्वरूपं प्रसिद्धमेव । तदेतदुपसंहरभाह - तदेतत् संस्थाननामेति । इत्थं गुणनाम प्ररूपितमिति सूचयितुमाह- तदेतत् गुणनामेति ॥ सू० १४६ ॥
मूलम् - से किं सं पज्जवणामे ? पज्जवणामे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा- एगगुणकालए दुगुणकालए तिगुणकालए जाव दसगुणकालए संखिज्जगुणकालए असंखिज्जगुणकाल ए अनंत गुणकालए। एवं नीललोहियहालिद्दसुकिल्ला वि भाणि - यव्वा । एगगुणसुरभिगंधे दुगुणसुरभिगंधे तिगुणसुरभिगंधे
(संठाणनामे पंचविहे पण्णत्ते) संस्थान नाम पांच प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है (परिमंडल संठाणनामे, वहसंठाणनामे, तंस संठाणनामे, चउरंससंठाणनामे आययसंठाणनामे) संस्थान नाम आकार विशेष का है। यह संस्थान नाम परिमंडल संस्थान नाम आदि के भेद से पांच प्रकार का है। इन संस्थानों का स्वरूप प्रसिद्ध ही है । संस्थान के नाम इस प्रकार से हैं- परिमंडल संस्थान, वृत्त संस्थान, व्यस्त्रसंस्थान, चतुरस्रसंस्थान, और आयत संस्थान ( से तं संठाणनामे) इस प्रकार यह संस्थान नाम है । (से तं गुणनामे) इस प्रकार से यहांतक यह गुणनाम का वर्णन है । द्रव्यों के नाम द्रव्यनाम, वर्ण रस आदिकोंके नाम गुणनाम है | || सू० १४६॥
उत्तर - ( संठाणनामे पंचविहे पण्णत्ते ) संस्थाननाभना पांथ प्रहार उद्या छे. (तजहा) ते अाश नीथे प्रभा छे - ( परिमंडल संठाणनामे, वट्टसंठाणणामे, 'त' संसंठाणनामे, 'चउरंससंठाणनामे, आययसंठाणनामे) भार विशेषतुं नाम સસ્થાન છે આ સસ્થાનનામના પરિમ`ડલ સસ્થાન નામ આદિ પાંચ પ્રકાર છે. આ સંસ્થાનાનું સ્વરૂપ જાણીતું હાવાથી અહીં તેમનું વધુ ન કરવામાં આવ્યુ' નથી સસ્થાનનાં નામ या प्रमाणे छे-(१) परिभउससस्थान (२) वृत्तस ंस्थान, (3) त्र्यस्त्रसंस्थान, (४) यतुरस्त्रसंस्थान भने (4) भायतसंस्थान. (सेत संठाणनामे) या प्रातुं संस्थान नामनुं स्व३५ छे. (से त गुणनामे) वर्षा, रस, गंध, स्पर्श भ्यने संस्थाननाम ३५ शुष्णुनाभनुं भा પ્રકારનું સ્વરૂપ છે દ્રવ્યેનાં નામને દ્રવ્યયનામ કહે છે અને વણુ રસ ગંધ,
સ્પર્ધા અને સસ્થાનના નામને ગુણનામ કહે છે. IIસ૦૧૪૬ા
For Private and Personal Use Only
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६५६
अनुयोगद्वारसूत्र
जाव अनंतगुणसुरभिगंधे । एवं दुरभिगंधोऽवि भाणियव्वो एगगुणतित्ते जाव अनंतगुणतिते । एवं कडुयकसाय अंबिल महुरावि भाणियन्त्रा । एगगुणकक्खडे । जाव अनंतगुणकक्खडे एवं मउयगरुयल हुयसीतउसिणणिद्धलुक्खावि भाणियव्वा । से तं पजवणामे ॥ सू. १४७ ॥
छाया - अथ किं तत् पर्यवनाम ? पर्यवनाम अनेकविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाएक गुणकालकः, द्विगुणकालकः, त्रिगुणकालको यावद दशगुणकालकः संख्ये यगुणकालकः असंख्येयगुणकालकः अनन्तगुणकालकः । एवं नीललोहितहारिद्रशुक्लाअपि भणितव्याः । एकगुणसुरभिगन्धो द्विगुणसुरभिगन्धः त्रिगुणसुरभिगन्धो यावदनन्तगुणसुरभिगन्धः । एवं दुरभिगन्धोऽपि भणितव्यः । एकगुण तिने यावदनन्तगुणतिक्तः । एवं कटुकक पायाम्लमधुरा अपि भणितव्याः । एकगुणकर्कशो यावदनन्तगुणकर्कशः । एवं मृदुकगुरुकल घुकशीतोष्ण स्निग्धरूक्षा अपि भणितव्याः । तदेतत् पर्यवनाम || सू० १४७॥
टीका -- ' से किं तं ' इत्यादि
सम्प्रति पर्यवनाम परिज्ञातुं पृच्छति-अथ किं तत् पर्यवनाम ? इति । उत्तरयति - पर्यवनाम - परि-समन्तात् अवन्ति = अपगच्छन्ति न तु द्रव्यवत् सर्वदेवादिष्ठन्ते इति पर्यवाः । अथवा परि=समन्तात् अवनानि = गमनाति = द्रव्यस्यावस्थान्तरप्राप्तिरूपाणीति पर्यवाः = एकगुणकालत्वादयस्तेषां नाम - पर्यवनाम । पर्याय
" से किं तं पज्जवणामे " ? इत्यादि ।
शब्दार्थ - (से किं तं पज्जवणामे) हे भदन्त ! पर्यव नाम क्या है ? उत्तर- (पज्जवणामे अणेगविहे पण्णत्ते) पर्यवनाम अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है । द्रव्य के जैसी जो सर्वदा नहीं ठहरती हैं किंतु बदलती रहती हैं वे पर्यव हैं । अथवा जो द्रव्य की भिन्न २ अवस्थारूप हों वे पर्यव हैं । ये पर्यव एक गुणकालस्व आदि हैं। इनका नाम पर्यष
હવે પવનામની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે—
" से किं तं पज्जवणामे " इत्यादि
शब्दार्थ - (से कि त पज्जवणामे ?) हे भगवन् ! पर्यवनाभनुं व३५ ठेवु धु छ ? उत्तर- (पज्जवणामे अणेगविहे पण्णत्ते) पर्यवनाम भने प्रारना उद्य છે. દ્રવ્યની જેમ જેનું અસ્તિત્વ સદા રહેતું નથી, પણ જે મદલાતી જ રહે છે તેનું નામ પર્યોય અથવા વ ચે અથવા તે દ્રવ્યની ભિન્ન ભિન્ન અવ
For Private and Personal Use Only
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
....
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् नामेति पाठान्तरपक्षे-परि-समन्तात् अयन्ते अपगच्छन्तीति पर्यायाः । यद्वापरि-सामस्त्येन यन्ति अभिगच्छन्ति वस्तुतामिति पर्यायास्तेषां नाम पर्यायनाम । अत्रपक्षेऽप्यर्थः पूर्वोक्त एव बोध्यः । पर्यवनाम हि अनेकविध प्राप्तम्। अनेक विधत्वमेवाह-तद्यथा-एकगुणकालक:-अत्र गुणशब्दोऽशार्थकः । एकगुणेन एका. शेन कालका कृष्णः परमाण्वादिरेकगुणकालक इत्युच्यते। समस्तस्यापि त्रैलोक्य. नाम हैं। जप " पज्जवणामे" इसकी संस्कृत छाया पर्यायनाम ऐसी होती है तब इस पाठान्तर पक्ष में भी यही पर्यव नामोक्त अर्थ ही निकलता है (तंजहा) यह पर्यवनाम अनेक प्रकार का इस प्रकार से है(एगगुणकालए, दुगुणकालए, तिगुणकालए, जाव दसगुणकालए संखिज्जगुणकालए, असंखिज्जगुणकालए अणंतगुणकालए ) एक गुणकालक, दिगुणकालक, त्रिगुणकालक, यावत् दशगुणकालक, संख्यासगुणकालक, असंख्यातगुणकालक, अनंतगुणकालक। यहां गुण शन्द अंश का वाचक है। जिस परमाणु आदि द्रव्य में कृष्ण गुण का एक अंश हो वह परमाणु आदि द्रव्य एक गुणकालक है। इसी प्रकार जिस परमाणु आदि द्रव्य में कृष्ण गुण के दो अंश हैं वह द्विगुणकालक है तीन अंश कृष्ण गुण के हैं वह त्रिगुणकोलक है यावत् संख्यात अंश कृष्णगुण के हैं वह संख्यातगुणकालक है असंख्यात સ્થાએ રૂપ હોય છે. દ્રવ્યની એક ગણું, બે ગણી કાળાશ આદિ રૂપ આ पर्याय हाय छे. “पज्जवणामे" ॥ पनी संस्कृत छाया ' पर्यायनाम' થાય છે. તે પર્યાયનામનો અર્થ પણ પજવનામ થાય છે. આ રીતે પર્યાય અને પજવ, આ બને સમાન અથ પદે છે.
(त' जहा) ते ५ नमना भने । छ म । (एगगुणकाळए, दुगुणकालए, तिगुणकालए, जाव दसगुणकालए, संखिज्जगुणकालए, असंखिज्जगुणकालए, अणंतगुणकालए) : Ya४, बंगुर, त्रिशुश्था asa દસગુણ પર્યન્તનું કાલક, સંખ્યાત ગુણકાલક, અસંખ્યાત ગુણકાલક અને અનતગુણકાલક અહીં “ગુણ” શબ્દ અંશને વાચક છે. જે પરમાણુ આતિ દ્રવ્યમાં કાળાશને એક અંશ હોય છે તે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યને એક કાલક દ્રવ્ય કહે છે. એ જ પ્રમાણે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં કાળાશના બે અંશ હોય છે તે પામણ આદિ દ્રવ્યને દ્વિગુણકાલક દ્રવ્ય કહે છે એ જ પ્રમાણે દસગુણકાલક પનતના દ્રવ્યને અર્થ પણ સમજ જે દ્રવ્યમાં કાળાશના સંખ્યાત અંશ હોય છે તે દ્રને સંખ્યાત ગુણકાલક કહે છે જે દ્રવ્યમાં
म० ८३
For Private and Personal Use Only
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूर्य गतकालकस्य असत्कल्पनया पिण्डितस्य च एका सर्वजघन्यो गुणा-अंशस्तेन कालक:-एकगुणकालका-सर्वजघन्य-कृष्ण इत्यर्थः। एवं द्विगुणकालकप्रभृत्यनन्तगुणकालकान्ताः परमाणवो बोध्याः। एवमेव एकगुणनीलकादय एकगुणलोहितअंश कृष्णगुण के हैं वह असंख्यात गुणकालक है और अनंत अंश कृष्ण गुण के हैं वह अनंतगुणकालक है। एक गुण से जो काला है ऐसा परमाण्वादि द्रव्य एक गुणकालक शब्द का वाच्यार्थ है। इसी प्रकार से अन्यत्र भी-द्विगुणकालक आदि में भी समझना चाहिये। तात्पर्य कहने का यह है कि तीन लोक में जितना भी कालक गुण है उसको असत् कल्पना से एकत्रित करलो, फिर उसमें से उस कृष्ण वर्ण का सबसे जघन्य अंश लेलो-इस जघन्य कृष्णांश से जो काला हो-वह एक गुणकालक परमाणु आदि द्रव्य है । (एवं) इसी प्रकार (नीललोहियहालिद्दसुकिल्ला वि भाणियव्वा) एक गुण-अंश नीलवर्ण का जिसमें है वह एक गुणनीलक परमाणु आदि द्रव्य है। दो गुणअंश-नीलवर्ण के जिसमें हैं वह द्विगुणनीलक है । इसी प्रकार से तीन चार आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त अंश नीलवर्ण के जिसमें हैं वे तीन गुणनीलक, चार गुगनीलक यावत् संख्यात गुणनीलक કાળાશના અસંખ્યાત અંશ હેય છે, તે દ્રવ્યને અસંખ્યાત ગુણ કાલક કહે છે અને જે દ્રવ્યમાં કાળાશના અનંત અંશ હોય છે તે દ્રવ્યને અનંતગુણ કાલક કહે છે. આ રીતે કાળાશના એક ગુણ અથવા અંશવાળું પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય “ એકગુણકાલક”નું સમાનાથી પદ છે. એ જ પ્રમાણે દ્વિગુણકાલક આદિના વિષયમાં પણ સમજવું આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેત્રણે લેકમાં જેટલા કાલકણુણ (કાળાશ) છે તેને ધારે કે અસત્કલ્પનાને આધારે એકત્ર કરવામાં આવે ત્યાર બાદ તેમાંથી તે કૃષ્ણ વર્ણને જઘન્ય (સૌથી નાનો અંશ લઈ લે. આ જઘન્ય કૃષ્ણઅંશ પ્રમાણુ કાળા દ્રવ્યને २४ ४ ४ ५२मा मालिन्य छ. (एवं) मे प्रमाणे (नील, लोहिय, हालिहसुकिल्ला वि भाणियव्वा) २ ५२मा माद्रियमा नास वर्षा એક અંશ હોય છે તેને એક ગુણ નીલક પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય કહે છે જેમાં નીલવર્ણના બે અંશ હોય છે તેને દ્વિગણનીલક દ્રવ્ય કહે છે એ જ પ્રમાણે ત્રણ, ચાર આદિ દસ પર્યન્તના નીલવર્ણના અંશ જેમાં હોય છે તે દ્રવ્યોને ત્રણગુણ નીલક, ચારગુણનીલક, (યાવત્ ) દસ ગુણનીકલ દ્રવ્ય કહે છે એજ પ્રમાણે સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનંત અંશ નીલવર્ણ ધરાવતાં દ્રવ્યોને
For Private and Personal Use Only
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् कादय एकगुणहारिद्रादय एकगुणशुक्लादयश्च परमाणवो बोध्याः । तथा-एकगुणसु. रभिगन्धाधनन्तगुणसुरभिगन्धान्ताः परमाणवो बोध्याः। एवमेकगुणदुरभिगन्धाधअसंख्यात गुणनीलक एवं अनन्त गुणनीलक परमाणु आदि द्रव्य हैं। इसी प्रकार एक आदि अंश लोहितवर्ण का जिसमें है वह एक गुण लोहितक परमाणु आदि द्रव्य है, एक गुण आदि पीतवर्ण का जिसमें है वह एक गुण पीतवर्णवाला दो गुण पीत वर्णवाला परमाणु आदि द्रव्य है। इसी प्रकार से एक गुण आदि शुल्क वर्णवाले परमाणु आदि द्रव्य भी जानना चाहिये। (एकगुणसुरभिगंधे दुगुणसुरभिगंधे, तिगुणसुरभिगंधे जाव अणंतगुणसुरभिगंधे-एवं दुरभिगंधोऽवि भाणियव्यो) एक-जघन्य-अंश सुरभिगंधवाला परमाणु आदि दो अंश सुरभिगंधवाले परमाणु आदि यावत् अनंत अंश सुरभि गंधवाले परमाणु आदि भी जानना चाहिये ! एक जघन्य अंश दुरभिगंध का जिसमें है वह एक गुण दुरभिगंधवाला परमाणु आदि द्रव्य है यावत् अनंत अंश दुरभिगंध के जिसमें हैं वे अनन्त गुण दुरभिगंधवाले परमाणु आदि हैं। અનુક્રમે સંખ્યાત ગુણનીકલ, અસંખ્યાત ગુણનીકલ અને અનંતગુણનીકલ દ્ર કહે છે. એ જ પ્રમાણે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં લાલવર્ણને એક અંશ હેય છે, તે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યને એક ગુણ હિતક દ્રવ્ય કહે છે એજ પ્રમાણે દ્વિગુહિતકથી લઈને અનતગુણ લેહિતક પર્યન્તના પદને અર્થ જાતે જ સમજી શકાય એવે છે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં પીળાવ
ને એક અંશ હોય છે, તેને એક ગુણ પીતવર્ણવાળું કહે છે એજ પ્રમાણે દ્વિગુણુ પીત વર્ણવાળાં દ્રવ્યોથી લઈને અનંતગણુપીતવર્ણવાળાં દ્રવ્યો વિષે પણ સમજવું એજ પ્રમાણે શુકલ વર્ણના એકથી લઈને અનંત પર્યન્તના અશવાળા પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય વિષે પણ સમજવું.
પર્યવનામના વધુ પ્રકારને હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે
(एकगुणसुरभिगधे, दुगुणसुरभिगंधे, तिगुणसुरभिगंधे, जाव अणतगुण सुरभिगंधे, एवं दुरभिगंधोऽव भाणियध्वो) मे सुमिगुशुपाणु ५२ मा (ઓછામાં ઓછા સુરભિના અંશવ છું પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય), સુરભિના બે અંશવાળું, અને ત્રણથી લઈને અનંત પર્યન્તના સુરભિગધના અંશેવાળાં પરમાણુ આદિ કવ્યું પણ હોય છે એ જ પ્રમાણે એકથી લઈને અનંત પર્યન્તના દરમિગન્ધના અંશેવાળા પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય હોય છે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં દુધને ઓછામાં ઓછે અંશ-એક અંશ-હેય તે દ્રવ્યને એક ગુણ દુરભિગંધવાળું કહે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીનાં પદેને અર્થ પણ સમજી લે
For Private and Personal Use Only
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६६०
अनुयोगद्वारसूत्र नन्तगुणदुरभिगन्धान्ताः परमाणवो बोध्याः। तथा-एकगुणतिक्ताधनन्तगुणतिक्तपर्यन्ताः परमाणवो बोध्याः। एवमेव-एकगुणकटुकादयः, एकगुण कपायादयः, एकगुणाम्लादयः, एकगुणमधुरादयश्चापि परमाणको बोध्याः । तथा-एकगुणकर्कशप्रभृत्यनन्तगुणकर्कशान्ताः बोध्याः। एवमेव-एकगुणमृदुकादयः, एकगुणगुरुका दयः, एकगुणलघुकादयश्च-कर्कशमृदु-गुरुलघुस्पर्शाः परमाणुषु न लभ्यन्ते, एषां बादरानन्तपदेशिस्कन्धेष्वेव सद्भावात् , ततोऽत्रपरमाणवो न ग्राह्य इति। तथा एकगुणशीतादयः, एकगुणोष्णादयः, एकगुणस्निग्धादयः, एकगुणरूक्षादयश्च तथा एक गुण तिक्त का जिसमें है वह एक गुण तिक्तवाला परमाणु
आदि है यावत् अनंत अंश तिक्त गुण के जिप्समें हैं वे अनंत गुण तिक्तवाले परमाणु आदि हैं ऐसा जानना चाहिये । इसी प्रकार से एक गुण कटुकादिवाले, एक गुण कषाय आदिवाले, एक गुण अम्लादिवाले
और एक गुण मधुरादि रसवाले परमाणु आदि भी जानना चाहिये तथा एक गुण कर्कश स्पर्शवाले से लेकर अनंत कर्कशांशवाले भी ऐसे ही जानना चाहिये ! इसी प्रकार एक गुण मृदुक आदिवाले, एक गुण गुरु स्पर्श आदिवाले एक गुण लघु स्पर्श आदिवाले भी जानना चाहिये। कर्कश मृदु-गुरु लघु ये चार स्पर्श परमाणु में नहीं होते हैं, क्यों कि ये चार स्पर्श बादर अनन्तप्रदेशी स्कंध में ही होते हैं। तथा एक गुण
રસની અપેક્ષાએ પર્યાયના નીચે પ્રમાણે પ્રકારે છે-એક ગુણતિક્ત રસવાળું પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય એજ પ્રમાણે અનંત પર્યન્તના તિક્તગુણવાળાં પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે એક ગુણ કટુકથી લઈને અનંતગુણ કટુક પર્યન્તના, એક ગુણ કષાયથી લઈને અનંત ગુણ કપાય એક ગુણ અસ્ફરસથી લઈને અનંતગુણ પર્યન્તના અમ્લ રસવાળાં અને એક ગુણ મધુરથી લઈને અનંત પર્યાન્તના મધુરગુણવાળાં દ્રવ્ય પણ હોય છે.
સ્પર્શની અપેક્ષાએ પર્યાયના નીચે પ્રમાણે પ્રકારે છે-એક ગુણ કર્કશ સ્પર્શવાળાથી લઈને અનંતગુણ કર્કશ સ્પર્શવાળા, એજ પ્રમાણે એક ગુણ મૃદુકથી લઈને અનંત ગુણ મૂક પર્યન્તના, એક ગુણથી લઈને અનેક ગુણ પર્યન્તના ગુરુ સ્પર્શવાળાં, એક ગુણથી અનેક ગુણ પર્યન્તના લઘુ સ્પર્શવાળાં, એક ગુણથી લઈને અનેક ગુણ શીતસ્પર્શવાળાં, એકથી લઈને અનેક ગુણ ઉષ્ણપિવાળાં, એકથી લઈને અનેક ગુણ પર્યન્તના સ્નિગ્ધ પશવાળાં અને એથી અનેક ગુણ પર્યન્તના રૂક્ષસ્પર્શવાળાં, દ્રવ્ય પણ હેય છે કર્કશ, મદ,
For Private and Personal Use Only
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् बोध्याः। ननु-गुणपर्याययोः को भेदः ? इति चेदुच्यते-सर्वदा सहवत्तिनो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाः, एवं च-सदैव सहवत्तित्वाद् वर्णगन्धरसादयः सामान्येन गुणा उच्यन्ते, न हि मूर्ने वस्तुनि कदाचिदपि वर्णगन्धरसादयो निवर्तन्ते । एकगुणकालकत्वादयस्तु पर्यायाः। द्विगुणकालकत्वावस्थायामेकगुणकालत्वस्याभावेन शीतादिवाले, एक गुण उष्णादिवाले, एक गुणस्निग्धादिवाले और एक गुण रूक्षादिवाले भी जानना चाहिये। . शंका-गुण और पर्याय में क्या भेद हैं ? शंकाकार का यह अभि. प्राय है कि द्रव्य में गुण और पर्यायें युगपत् रहा करती हैं तब ये दोनों एक ही हैं-फिर गुण और पर्यायों को सूत्रकार ने अलग अलग क्यों कहा?
उत्तर-गुण और पर्यायें यद्यपि द्रव्य में एकसाथ रहती हैं-फिर भी इनमें यह भेद है कि गुण तो द्रव्य के सहवर्ती होते हैं और पर्याय क्षण विध्वंसी होने के कारण द्रव्य की सहवर्ती नहीं होती हैं । ये तो क्रमवर्तिनी ही होती हैं। इसलिये सर्वदा सहवर्ती होने के कारण वर्ण गंध, और रसादिक सामान्य से गुण कहे जाते हैं और उनकी एक गुण कालकत्वादि क्रमवर्ती अवस्थाएँ पर्याय कही जाती हैं। ये वर्ण, गंध, आदि गुण मूर्त वस्तु जो पुद्गल हैं उससे कभी भी निवृत्त नहीं होते हैं। ગુરુ અને લઘુ, આ ચાર સ્પર્શોને પરમાણુમાં સદ્ભાવ હેતે નથી, કારણ કે તે ચાર સ્પર્શીને સદૂભાવ બાદર અનંત પ્રદેશી સ્કન્દમાં જ હોય છે.
શકા-ગુણ અને પર્યાય વચ્ચે શું ભેદ છે ? (આ પ્રશ્નને ભાવાર્થ એ છે કે દ્રવ્યમાં ગુણ અને પર્યાયે એક સાથે જ રહેતાં હોય છે આ રીતે તે બને એક જ હેવા છતાં પણ સૂત્રકારે ગુણ અને પર્યાનું જુદા જુદા વિષય રૂપે શા માટે કથન કર્યું છે?).
ઉત્તર-ગુણ અને પર્યાયે જે કે દ્રવ્યમાં એક સાથે રહે છે, છતાં પણ તે બનેમાં આ પ્રમાણે ભેદ છે
ગુણતે દ્રવ્યોને સહવતી હોય છે, પરંતુ પર્યાયે ક્ષણ વિકસી હેવાને કારણે દ્રવ્યના સહવતી હોતા નથી વર્ણ, ગંધ, રસ આદિ સર્વદા સહવતી હેવાને કારણે તેમને ગુણ કહેવામાં આવે છે. પણ તેમની એક ગુણકા. લત્વ આદિ કમવતી અવસ્થાએને પર્યાય કહેવામાં આવે છે. વર્ણ, ગંધ આદિ જે ગુણે છે તેમને મૂર્ત વસ્તુમાંથી–પુતલમાંથી-કદી પણ નાશ (નવૃત્તિ) થતું નથી ગુણેના અંશોનું નામ પર્યાય છે. ગુણને એક અંશ બે અંશેની
For Private and Personal Use Only
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे एकगुणकालकत्वावस्थायां द्विगुणकालकत्वस्याभावेन च एकगुणकालकत्वादीनां क्रमवृत्तित्वात् पर्यायत्वं बोध्यम् । उक्तंच
" सहार्त्तिनो गुणाः, यथा जीवस्य चैतन्यामूर्त्तत्वादयः।
क्रमवर्तिनः पर्यायाः यथा तस्यैव नारकत्वतियक्त्वादयः ॥" इति। ननु यद्येवं तर्हि वर्णादिसामान्यस्य भवतु गुणत्वम् , तद्विशेषाणां कृष्णादीनां तु गुणत्वं न स्यात् , तेषामनियमितत्वात् , इति चेदाइ-कृष्णादीनां वर्णसामान्यभेदा. गुणों के गुणांश पर्याय हैं । गुण का एक अंश दो अंशों को अवस्था में निवृत्त हो जाती हैं। इसलिये ये गुणांश पर्याय हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि जब परमाणु द्रव्य में सर्व जघन्य रूप कृष्णादि गुण रहते हैं तब वे, दो अंश कृष्णादि गुणों के आने पर निवृत्त हो जाते हैं। इसी प्रकार कृष्णादि गुगों के दो अंश एक अंश कृष्णादि गुणों की अवस्था में निवृत्त हो जाते हैं। इसलिये कृष्णादि गुणों के ये एक, दो तीन यावत् संख्यात असंख्यात और अनंत अंश सब पर्याय हैं । क्योंकि ये क्रमवर्ती हैं । उक्तंच-"सहवर्ती " इत्यादि गुण सहवर्ती होते हैं-जैसे जीव के चैतन्य अमूर्तत्त्व आदि । पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं-जैसे जीव की नारक तिर्यक् आदि पर्यायें। ___ शंका-यदि यही बात है तो फिर वर्णादि सामान्य में ही गुणपना होना चाहिये-वर्णादिकों के विशेष जो कृष्ण आदि हैं उनमें गुणपना અવસ્થામાં નિવૃત્ત થઈ જાય છે અને બે અંશ એક અંશની અવસ્થામાં પણ નિવૃત્ત થઈ જાય છે. તેથી તે ગુણાંશને પર્યાય રૂ૫ ગણવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-વારે કે કેઈ દ્રવ્યમાં ઓછામાં ઓછા પ્રમાણુવાળા એટલે કે એક ગુણ (અંશ) કાળાશ આદિ ગુણ રહેલું હોય પરન્ત બે અંશ (ગુણ) કૃષ્ણાદિ ગુણોનું તે દ્રવ્યમાં આગમન થતાં જ તે એક ગુણ કૃષ્ણાદિ ગુણેની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે એ જ પ્રમાણે કૃષ્ણાદિ ગુણના બે અંશ રહેલા હોય, તે એક ગુણકૃણાદિ અવસ્થાની પ્રાપ્તિ થતાં જ તે બે અશોની નિવૃત્ત થઈ જાય છે તેથી કૃષ્ણાદિ ગુણોના એક, બે, ત્રણ, ચાર, આદિથી લઈને સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનંત પર્યન્તના બધા અંશો पर्याय ३५ छे, २१ तमे अभवती य छ. ४ ५४ छ :-"सह. वर्ती") या मा थन दा२। ये पात ५४८ ४२वामा भावी छे , शुष्य સહવતી હોય છે. જેમ કે જીવના ચિતન્ય, અમૂત્વ આદિ ગુણે સહવતી છે. પર્યાયે કમવતી હોય છે. જેમ કે જીવની નારક, તિર્યંચ આદિ પર્યા.
શંકા-જે એવું હોય, તે વર્ણાદિ સામાન્યમાં જ ગુણપણુ લેવું જોઈએ પરંતુ કાળાશ આદિ જે વર્ણવિશે છે તેમાં ગુણપણાને અભાવે હવે જોઈએ,
For Private and Personal Use Only
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् नामपि प्रभूतकालं प्रायः सहावस्थायित्वमिति तेषामपि गुणत्वं बोध्यम् । नन्धेते गुणपर्यायाः पुद्गलास्तिकायस्यैव भवताऽभिहिताः, न तु धर्मास्तिकायादीनाम् । रश्यन्ते च धर्मास्तिकायादीनामपि गुणा गतिस्थित्यवगाहोपयोगवर्तनादयः, पर्यायाश्च प्रत्येकमनन्ता अगुरुलघ्वादय इति चेदाइ-इन्द्रियप्रत्यक्षगम्यत्वात् सुपतिनहीं होना चाहिये । क्योंकि ये अनियमित हैं। शंकाकार की इस शंका का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार गुण के एक अंशदो-अंश आदि अनियमित है इसलिये ये पर्याय हैं उसी प्रकार कृष्णादि भी अनिय. मित है अतः इन्हें भी-पर्याय ही मानना चाहिये-गुण नहीं । सो इस शंका का उत्सर यह है कि वर्ण सामान्य के भेद जो ये-कृष्णादि हैं वे प्रायः बहुत समय तक द्रव्य के साथ अवस्थित रहते हैं। इसलिये इनमें गुणता मानी गई है। पर्यायें इस प्रकार से द्रव्य के साथ नियमित प्रभू. तकाल तक नहीं रहती हैं। इसलिये अचिरस्थायी होने से उन में गुणता नहीं मानी गई है। ___ शंका-ये गुण पर्यायें आपने पुद्गलास्तिकाय की ही कही हैं धर्मास्तिकायादिकों की नहीं कहीं हैं। सो ऐसा तो है नहीं क्योंकि पुद्गलास्तिकाय के जैसा धर्मास्तिकायादिकों में भी गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, उपयोग एवं वर्तनादि गुण और इनमें प्रत्येक में अनन्त अगुरुलघु आदि रूप पर्यायें देखी जाती हैंકારણ કે તેઓ અનિયમિત છે, અહીં શંકા કરનાર વ્યક્તિ એવું કહેવા માગે છે કે જેમ ગુણના એક અંશ, બે અંશ આદિ અનિયમિત હોવાથી તેમને પર્યાય રૂપ ગણવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે કૃષ્ણાદિ ગુણો પણ અનિયમિત હોય છે, તેથી તેમને પણ ગુણરૂપ માનવાને બદલે પર્યાય રૂપ જ માનવા જોઈએ.
આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે કરી શકાય –
વણું સામાન્યના ભેદ રૂપ જે કૃણાદિ વર્ષો છે, તેઓ સામાન્ય રીતે ઘણા સમય સુધી દ્રવ્યની સાથે અવસ્થિત રહે છે (વિદ્યમાન રહે છે, તેથી કૃષ્ણાદિ વર્ણને દ્રવ્યના ગુણરૂપ માનવામાં આવેલ છે પરંતુ પર્યાયે એ રીતે દ્રવ્યની સાથે લાંબા સમય સુધી રહેતા નથી આ રીતે અચિરસ્થાયી હોવાને કારણે તેમને દ્રવ્યના ગુણરૂપ માનવાને બદલે દ્રવ્યની પર્યાય રૂપ માનવામાં આવે છે.
શંકા-આપે અહીં પુલાસ્તિકાયના જ ગુણે અને પર્યાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. ધર્માસ્તિકાય આદિના ગુણે અને પયનું તે આપે કથન જ કર્યું નથી પુલાસ્તિકાયની જેમ ધર્માસ્તિકાય આદિકામાં પણ ગતિ હેતુત્વ, સ્થિતિહતત્વ, અવગાહહતત્વ, ઉપગ અને વર્તાનાદિ ગુણેને અને અનંત અગુરુ લઘુ આદિ પર્યાને અહીં શા કારણે ઉલ્લેખ કરાયે નથી ?
For Private and Personal Use Only
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
......मनुयोगद्वारले पाद्यतया पद्लद्रव्यस्यैव गुणपर्याया उक्ताः, न तु शेषाणां धर्मास्तिकायादीनाम् । तस्माद् यत् किमपिनाम तेन सर्वेणापि द्रव्यनाम्ना गुणनाम्ना पर्यायनाम्ना वा भवितव्यम् , नातः परं किमपि नामास्ति । ततः सर्वस्यैवानेन संग्रहात् त्रिनामतदुच्यते इति ।।सू० १४७॥ ___ उत्तर-पुद्गल द्रव्य को गुण पर्यायें इन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा गम्य होने से सुप्रतिपाद्य हैं इसलिये सूत्रकारने उसकी ही गुण और पर्यायें यहां कही हैं शेष धर्मास्तिकायादिकों की नहीं । इसलिये जो भी कोई नाम है वह या तो द्रव्य का नाम होगा, या पर्याय का नाम होगा या गुण का नाम होगा। इससे आगे और कोई नाम नहीं होगा अतः समस्त नामों का इस त्रिनाम से संग्रह हो जाने से यह त्रिनाम कहलाताहै।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा त्रिनाम की व्याख्या की हैउसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तीन प्रकार का जो नाम है वह त्रिनाम है। नाम के तीन प्रकार द्रव्य गुण और पर्याय नाम हैं। जो भी नाम होगा वह या तो द्रव्य को लेकर होगा, या गुण को लेकर होगा यापर्याय को लेकर होगा। धर्मास्तिकाय आदि जो नाम हैं वे द्रव्याश्रित नाम है । अर्थात्-द्रव्यों के जो नाम हैं वे द्रव्य नाम हैं। गुणों के जो
ઉત્તર-પુદ્ગલદ્રવ્યના ગુણે અને પર્યાયે ઈન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ દ્વારા અનુભવી શકાય તેવાં હોવાથી તેમનું પ્રતિપાદન સરળતાપૂર્વક કરી શકાય છે પરન્ત ધર્માસ્તિકાયાદિના ગુણ પર્યાને ઈન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ દ્વારા અનુભવ કરી શકો નથી તેથી જ સૂત્રકારે અહીં પુલ દ્રવ્યના જ ગુણે અને પર્યાનું પ્રતિ. પાદન કર્યું છે, બાકીનાં ધર્માસ્તિકાય આદિકાના ગુણે અને પર્યાનું પ્રતિપાદન કર્યું નથી તેથી જ જે કઈ પણ નામ હશે તે કાં તે દ્રવ્યનું નામ હશે, કાં તે ગુણનું નામ હશે કાં તે પર્યાયનું નામ હશે તેનાં કરતાં આગળ બીજ" કોઈ પણ નામ નહીં હોય તેથી સમસ્ત નામને આ ત્રિનામ વડે સંગ્રહ થઈ જવાથી, તેમને અહીં ત્રિનામ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા ત્રિનામનું નિરૂપણ કર્યું છે આ સૂત્રમાં તેમણે એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે ત્રણ પ્રકારનું જે નામ છે તે ત્રિનામ છે. नामना २ नीय प्रभारी छ-(१) द्रव्यनाम, (२) शुधनाम, भA (3) પર્યાયનામ જે કઈ પણ નામ હશે કાં તેં દ્રવ્યને આધારે હશે, કાં તો ગુણને આધારે હશે, કાં તે પર્યાયને આધારે હશે ધર્માસ્તિકાય આદિ જે નામો છે તેઓ દ્રવ્યાશ્રિત નામ છે એટલે કે કાનાં જે નામ
For Private and Personal Use Only
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् नाम हैं वे गुण नाम हैं-इसीलिये गुणनाम पांच प्रकार का कहा गया है। यद्यपि गुण रूप रसादि के भेद से चार प्रकार का होता है परन्तु संस्थान को भी पुद्गल द्रव्याश्रित सर्वदा होने के कारण गुणरूप मान लिया गया है इसलिये गुण नाम में पंचविधता कही गई है। पांच प्रकार के वर्षों का, दो प्रकार के गंधो का, पांच प्रकार के रसों का और आठ प्रकार के स्पर्शों का तथा पांच प्रकार के परिमंडल आदि आकारों का जो २ नाम है वह गुण नाम होकर भी भिन्न २ रूप से वर्णादि नाम है। इस प्रकार ये गुणनाम २५ प्रकार के होकर भी एक गुणनाम में ही अन्तर्भूत हैं। पर्याय नाम नियमित नहीं हैं। क्योंकि पर्यायें स्वयं अनेकविध हैं। रूप, रस, गंध आदि जितने भी गुण हैं उन सब में उनके एक दो तीन चार आदि संख्यात, असंख्यात अनंत अश हैं एक कृष्ण गुण को ही ले लीजिये-कोई पदार्थ कम कृष्ण है, कोई उससे अधिक कृष्ण है
और कोई उससे भी अधिक कृष्ण हैं । यह कृष्ण गुण की तरतमता उसके अंशों के ऊपर निर्भर है। कृष्ण गुण का सबसे कम जो एक છે તે દ્રવ્યનામ છે. ગુણનાં જે નામ છે તે ગુણનામ છે. તે ગુણનામ પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે જે કે વર્ણ, રસ, ગંધ, અને સ્પર્શ રૂપ ચાર ગુણ હોય છે, પરંતુ સંસ્થાન (આકાર)ને પણ પુદ્ગલ દ્રવ્યમાં સદા સદુભાવ રહે છે, તે કારણે અહીં સંસ્થાનને પણ ગુણ રૂપ ગણીને ગુણનામમાં પંચવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. પાંચ પ્રકારના વર્ષોના, બે પ્રકારના ગંધનાં, પાંચ પ્રકારના રસોના, આઠ પ્રકારના સ્પર્શોનાં અને પાંચ પ્રકારના સંસ્થાનાં (આકારેશન) જે જે નામે છે તે ગુણનામ હોવા છતાં પણ જુદાં જુદાં વર્ણાદિ નામ રૂપ છે. આ પ્રકારે આ ગુણનામ ૨૫ પ્રકારના હોવા છતાં પણ એક ગુણનામમાં જ સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. પર્યાયનામ નિયમિત નથી, કારણ કે પર્યાય અનેકવિધ હેાય છે રૂપ, રસ, ગંધ આદિ જેટલા ગુણો છે તેમાં વર્ણાદિના એક, બે, ત્રણ, ચાર, આદિથી લઈને ૧૦ વર્ષના અંશેને, સંખ્યાત અશેને, અસંખ્યાત અંશને અને અનેક અંશેને સદભાવ હોઈ શકે છે. એકલા કૃષ્ણ વર્ણ રૂપ ગુણને જ દાખલો લઈએ કઈ પદાર્થમાં ઘણી ઓછી કાળાશ હેવ છે, કેઈકમાં અધિક કાળાશ હોય છે, કેઈમાં અધિકતર કાળાશ હોય છે, તે કઈમાં અધિકતમ કાળાશ હોય છે. આ કૃષ્ણ ગુણની જૂનાધિકતાને આધારે તેમાં રહેલી કાળાશના અંશો પર આધાર રાખે છે. કૃષ્ણ ગુણને જે સૌથી જઘન્ય (ન્યૂનમાં ન્યૂન) અંશ છે તે એક અંશ રૂ૫
अ० ८४
For Private and Personal Use Only
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
अनुयोगद्वारखो पुनःप्रकारान्तरेण त्रिनाम मोच्यतेमूलम्-तं पुण णामं तिविहं, इत्थी पुरिसं णपुंसगं चेव।
एएसिं तिण्हंपि य, अंतमि य परूवणं वोच्छं ॥१॥ तत्थ पुरिसस्स अंता, आई ऊओ हवंति चत्तारि ।
ते घेव इत्थियाओ, हवंति ओकारपरिहीणा ॥२॥ अंश है वह कृष्ण गुण का जघन्य अंश है । यह कृष्ण गुणांश कृष्ण गुण का पर्याय है । इस पर्यायवाला जो परमाणु आदि द्रव्य है वह कृष्ण गुण की एक अंश रूप पर्यायवाला होने से एक गुण कृष्णवालाएक गुणकालक-परमाणु आदि इस नाम से कहा जाता है। इसी प्रकार से अन्य द्विगुण आदि कालक द्रव्य पर्याय नाम में जानना चाहिये। इसी प्रकार से अन्य गंधादि गुणों के एकादि अंशोपेत परमाणु आदि बन्यों के नाम के विषय में जानना चाहिये। यहां पर कृष्णादि गुणों की एक अंश दो अंश आदि पर्यायें कही हैं और इन पर्यायों के आश्रित एक गुण कालक परमाणु ऐसा जो नाम है वह पर्यायाश्रित नाम है। पर्यायाश्रित नाम में पर्याय की मुख्यता रहती है । गुण और पर्यायों में सहवत्तित्व और क्रमवर्तित्व अनियमितत्व-को लेकर भेद है। तात्पर्य यह है कि सहवर्ती गुण और क्रमवर्ती पर्यायें हैं।॥सू०१४७॥ ગણાય છે તે કૃષ્ણ ગુણેશ કૃષ્ણ ગુણની પર્યાય રૂપ ગણાય છે. આ પર્યાયવાળું જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય હોય છે તે કૃણ ગુણના એક અંશ રૂપ પર્યાયવાળું હોવાથી તેને એક ગુણ કૃષ્ણતાવાળું અથવા એક ગુણ કાલક પરમાણુ આદિ રૂપ કહેવામાં આવે છે. દ્વિગુણ આદિ કાલક દ્રવ્યપર્યાયના વિષયમાં પણ એજ પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ સમજવું એજ પ્રમાણે અન્ય ગંધાદિ ગુણેના એક આદિ અંશેવાળા પરમાણુ આદિ દ્રવ્યના નામ વિષેનું કથન પણ સમજવું જોઈએ. - અહીં કૃષ્ણાદિ ગુણોના એક અંશ, બે અંશ આદિને પર્યાય રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. અને તે પર્યાને આધારે એક ગુણ કાલક પરમાણુ, આદિ જે નામ આપવામાં આવ્યાં છે, તે પર્યાયાશ્રિત નામ છે પર્યાયાશ્રિત નામનાં પર્યાયની પ્રધાનતા રહે છે ગુણ અને પર્યાયમાં સહવર્તિત્વ અને કમવતિત્વ. (અનિયમિતત્વોની અપેક્ષાએ ભેદ હોય છે એટલે કે ગુણ સહવતી હોય છે અને પર્યાય કમવતી હોય છે, સૂ૦૧૪છા
For Private and Personal Use Only
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४८ प्रकारान्तरेण त्रिनामनिरूपणम्
૯૬૭
अंतिअ इंतिय अंतिय-अंताउ णपुंसगस्स बोद्धव्वा । एएसि तिपहंपि य, वोच्छामि निदंसणे एत्तो ॥ ३॥ आगारंतो राया, ईगारंतो गिरी य सिहरी य । ऊगारंतो विषहू, दुमो य अंतो उ पुरिसाणं ॥४॥ आगारंता माला, ईगारंतो सिरीय लच्छी य ।
ऊंगारंता जंबू, बहू य अंता उ इंकारंतं
नपुंसगं नपुंसगं
अंकारंतं धनं इंकारंतं उंकारंतं पीलुं महुं च अंता पुंसाणं॥ से तं तिणामे ॥सू. १४८॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इत्थीणं ॥
अस्थि ।
छाया - तत्पुनर्नाम त्रिविधम्, स्त्री पुरुषो नपुंसकं चैत्र । एतेषां त्रयाणामपि च, अन्ते च प्ररूपणां वक्ष्ये || तत्र पुरुषस्य अन्ताः, आईऊओ भवन्ति चत्वारः । तएव स्त्रियाः भवन्ति ओकारपरिहीनाः ॥
"
अं इति च ई इति च, उं इति च अन्तास्तु नपुंसकस्य बोधव्याः । एतेषां त्रयाणामपि वक्ष्यामि निदर्शनमितः ॥ आकारान्तो 'राया' ईकारान्तो 'गिरी' च 'सिहरी' च । ऊकारान्तो 'विहू' 'दुमो' च अन्तस्तु पुरुषाणाम् ॥ आकारान्ता 'माला' ईकारान्ता 'सीरी'च 'लच्छी' च । ऊकारान्ता 'जंबू' 'बहू' च अन्यस्तु स्त्रीणाम् ॥ अंकारान्तं 'धन्नं' ईकारान्तं नपुंसकम् 'अस्थि' । उकारान्तः 'पीलुं' 'महूं' च अन्तो नपुंसकानाम् ॥ तदेतत् त्रिनाम || सू० १४८ ॥
टीका - तं पुण' इत्यादि --
द्रव्यसम्बन्धि तत्पुनर्नाम स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन त्रिविधं विज्ञेयम् । एषां त्रयाणामपि च नाम्नाम् अन्ते यान्याकारादीन्यक्षराणि तद्द्वारा नाम्नः प्ररूपणां करि
प्रकारान्तर से पुन: इसी विनाम को सूत्रकार कहते हैं"तं पुण णामं तिविहं" इत्यादि
હવે સૂત્રકાર ત્રિનામનું ખીજા પ્રકારે કથન કરે છે. “å goi on fafag" Jeult
For Private and Personal Use Only
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
-
-
-
अनुयोगद्वारसूत्र प्यामि ॥१॥ तत्र=त्रिविधनाम्नो मध्ये पुरुषस्य पुल्लिङ्गनाम्नः अन्ता: अन्तस्थिता वर्णा 'आई ऊओ' इति भवन्ति । तथा-स्त्रीलिङ्ग नाम्नः अन्तस्थिता वर्णा ओकारचर्जिताः पूर्वोक्ता एव वर्णा बोध्याः। आकारान्ता ईकारान्ता ऊकारान्ताश्च शब्दा स्त्रीलिङ्गा बोध्याः ॥२॥ तथा-नपुंसकशब्दानाम् 'अं' इति च 'ई' इति च 'उ' इतिच अन्ता बोध्या: । अयं भावः-अंकारान्ता इंकारान्ता उंकारान्ताश्च शब्दा नपुंसकलिङ् बोध्याः। इतोऽग्रे एतेषां त्रयाणामपि निदर्शनम् उदाहरणं वक्ष्यामि=
शब्दार्थ-द्रव्य संबन्धी (तं पुणणाम) वह नाम (तिविहं) तीन प्रकारका है (इस्थी पुरिसं णपुंसगं चेव) स्त्रीनाम पुरुषनाम और नपुंसक नाम । (एएसि तिण्हंपि अंतमियारूवणं वोच्छं) मैं इन तीनों भी नामों की अन्त में आगत आकारादि अक्षरों द्वारा प्ररूपणा करूँगा। (तत्थ) तीन प्रकार के नाम के बीच में (पुरिसस्स) पुल्लिङ्ग नाम के (अंतो) अन्त में (आईउ ओ चत्तारि हवंति) आई ऊ, ओ, ये चार वर्ण होते हैं। (इत्थियाओ) स्त्रीलिङ्ग नाम के अन्त में (ओकार परिहीणा) ओकार वर्ण से रहित ये पूर्वोक्त ही वर्ण (हवंति) होते हैं। अर्थात् आकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द स्त्रीलिङ्गवाले होते हैं। तथा (अन्ताः) जिनके अन्त में (अंतिम इंतिय उतिय) अं, ई, उं ये वर्ण होते हैं वे (णपुंसगस्स) शब्द नपुंसकलिङ्ग, के (बोद्धव्या) जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि प्राकृत भाषा में अं, ई, उं, अन्तवाले शब्द नपुंसकलिङ्ग,
शहाथ-द्रव्य विषय (तं पुण णाम) ते नाम (तिविह) र ५४२नु डाय छे. है (इत्थी पुरिसं णपुंसगं चेव) (१) श्रीनाम, (२) पुरुषनाम (3) नपुंसनाम (एएसिं तिण्ह पि अंतमियपरूवण वोच्छं) वे मात्र પ્રકારનાં નામની તેમના અંત્યાક્ષ દ્વારા પ્રરૂપણું કરવામાં આવે છે એટલે કે સ્ત્રીલિંગ, આદિના નામને અને કયા કયા અક્ષરો આવે છે, તે પ્રકટ ४२पामा भाव छ-(तत्थ पुरिसस्स अंता आ, ई, ऊ, ओ चत्तारि हवंति) पुरु. पनामा (दिनामी, नातिना नाम) ने मन्ते मा, छ, 9 मी, मा यारमान ५ (अक्ष२) डाय छे. (इस्थियाओ ओकारपरिहीणा) સ્ત્રીના નારી જાતિનાં નામે) ને અને “એ” સિવાયના પૂર્વોક્ત વર્ગો मेट 3 आ, ई, ऊ (हवंति) डाय छे अटले 3 आरा-त, ईरान्त भने असन्त शval नारी तिनi (स्त्रीलि) डाय , तथा (अन्ताः) २ शहने मन्त (अंतिअ इंतिय उतिय) म', डाय छ, ते शहाने (णपुंसगस्स) नघुस लिन (नान्येतर तिन) (बोद्धयो) समरामा ४थनन તાત્પર્ય એ છે કે પ્રાકૃત ભાષામાં અં, ઈ અને ઉં અન્તવાળા પદેને નવું
For Private and Personal Use Only
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४८ प्रकारान्तरेण त्रिनामनिरूपणम् ६६९ कथयिष्यामि ॥३॥ अथ पुंल्लिङ्गशब्दोदाहरणमाह-राया' इति आकारान्तः शब्दो बोध्यः । 'गिरी' 'सिहरी' च शब्दौ ईकारान्तौ । 'विण्हू' इति ऊकारान्तः 'दुमो' इति ओकारान्तः। एते पुल्लिङ्गशब्दाः ॥४॥ अथ स्त्रीलिङ्गशब्दोदाहरणान्याह'माला' इति आकारान्तः शब्दः। 'सिरीलच्छी' शब्दौ ईकारान्तौ । 'जंबू बहू' शब्दौ च ऊकारान्तौ। आकारान्ता ईकारान्ता ऊकारान्ताश्च मालादयः शब्दाः स्त्रीलिङ्गा बोध्याः ॥५॥ अथ नपुंसकलिङ्गशब्दोदाहरणान्याह-'अंकारं तं धनं' माने गये हैं। (एतेसि तिण्हपि य एतो गिदंसणे वोच्छामि) अब मैं यहां से आगे इन तीनों के उदाहरण कहता हूँ-(आगारंतो राया, ईगा. रंतो गिरी, य सिहरी य, ऊगारंतो विण्हू दुमो य अंतो उ पुरिसार्ण) "राया" यह पुल्लिङ्गके आकारान्त शब्द का उदाहरण है "गिरी" एवं "सिहरी" ये दो शब्द पुल्लिङ्ग, के ईकोरान्त शब्द के उदाहरण हैं। "विण्हू" यह पुल्लिङ्ग के ओकारान्त शन्द का उदाहरण है । और "दुमो" यह पुल्लिङ्गके ऊकारान्त शब्द को उदाहरण हैं। (इस्थीण) स्त्रीलिङ्ग शब्द के उदाहरण ये हैं-(आगारंता माला) आकारान्त "माला" शब्द (ईगारंता) ईकारान्त (सिरी य लच्छी य) "सिरी" और "लच्छी" ये दो शब्द (ऊगारंता जंबू बहूय) ओकारांत "जंबू" और "बहू" ये दो शब्द । इस प्रकार आकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त मालादिकशब्द स्त्रीलिङ्ग जानना चाहिये । अब सूत्रकार नपुंसकलिङ्ग शब्दों के उदाहरण सविना नामी गवामा मात्र छ. (एतेसिं तिहपि य एतो णिसणे वोच्छामि) वे मात्रणे दिन पहोना GK२ऐ। मामा मावे हैं(आगारंतो राया, ईगारंतो गिरी, य सिहरी य, ऊगारंतो विहू, ओगारंतो दुमो, अंतो उ पुरिमाणं) पुदिना मारान्त पर्नु २ "शया" (२11), छ. "गिरी" (गिरि) भने " सिहरी" (शिमरी) मा मे पहारान्त नतिन पह! छ. “विण्हू (A) " मा ५४ सन्त नतिन ५६ छ. " दुमो (वृक्ष, दुम)" प्रात ५४ ४.२!-नातिनु ५४ छे. (इत्थीण) श्रीlan (
नातिनi) पहाना नीय प्रभा २ -(आगारंता माला) " भाता" मा ५४ मा सन्त नारीमतिनु छ, (ईगारंता सिरी य लच्छी य " सिरी" मने " लच्छी" मा में प्रात पह! शत-नारी
तिनi पहेछे, (ऊगारंता जंबू, बहूय) "भू" मने "म" मा में પદે ઊકારાન્ત નારીજાતિનાં પદે છે. આ પ્રકારે આકારાન્ત, ઈકારાન્ત અને ઊકારાન્ત માલા આદિ પદેને સ્ત્રીલિંગ સમજવા જોઈએ હવે સૂત્રકાર નપુંસક
For Private and Personal Use Only
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
६७०
अनुयोगद्वारसूत्रे
अंकारान्तः शब्दः 'धन्नं' इति विज्ञेयः । 'अत्थि' इति शब्द ईकारान्तो बोध्यः । 'पीलुं महुं' चेति शब्द द्वयं उकारान्तं बोध्यम् । एते अंकारान्वादयः शब्दा नपुंसकलिङ्गा बोध्याः । लिङ्गत्रये य एते शब्दा उक्तास्ते सविभक्तिकाः प्राकृतशब्दा विज्ञेयाः प्रकृतमुपसंहरन्नाह तदेतत् त्रिनामेति ||० १४८ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कहते हैं - ( अंकारं धन्नं) अंकारान्त शब्द "धन्नं" हैं । (इंकारंतं नपुं सगं अथ) इंकारान्त शब्द "अस्थि" है (उकारंत पिलं महुं च) और उकारान्त "पीलुं" "महुं" हैं ये अंकारान्तादि शब्द (अन्ता) कि जिनके अन्त में "अं" "" "डं" ये वर्ण हैं वे (नपुंसगाणं) नपुंसकलिङ्ग हैं। तीनों लिङ्गों में जो ये उदाहरण कहे गये हैं वे विभक्तियुक्त प्राकृत शब्द हैं। ( से तं तिणामे) इस प्रकार यह त्रिनाम है।
भावार्थ - प्राकृत भाषा में तीन लिङ्ग हैं। उनमें जिन शब्दों के अन्त में "आ ई ऊ ओ" ये चार वर्ण हों वे पुल्लिङ्ग हैं- जैसे "राया " यह शब्द "संस्कृत में "राया" की छाया "राजन् " है । और यह वहां हलन्तपुल्लिङ्ग में नकारान्त शब्द है । "गिरी और मिहरी" ये दो शब्द इकारान्त पुल्लिङ्ग के उदाहरण हैं। संस्कृत में इन की छाया " गिरि"
66
झिंगना (नान्यतर जतिन) होना उहाहर आये छे- (अकारान्तं धनं) "4" 241 आङ्कृत यह अकारान्त नपुंसः झिंगनु यह छे. (इंकारान्तं नपुंसगं अस्थि ) " अस्थि " आ आत यह अरान्त नपुंसि द्विगनुं यह छे. (उकारान्तं पीलुं महुं च ) पीलुं " मते " महुं " मा पहो अन्ते "म, ध, સક લિંગના પટ્ટા છે. જે શબ્દેને (नपुंसगाणं) नपुंस सिजना होय छे, या वात तो पडेसां भावी युद्ध छे. त्रणे सिगोनां (लतिना) या थे यहोना वामां भाव्या छे, ते विलक्तियुक्त आहृत शब्दे । छे. ( से तं तिणा मे ) मा પ્રકારનું ત્રિનામનું સ્વરૂપ સમજવુ',
પ્રકટ કરવામાં उठाईरखे। आय
અન્ત
(1
ભાવા–પ્રાકૃત ભાષામાં ઉપયુક્ત ત્રણ લિંગ હાય છે. જે શબ્દને "" आ, ई, ऊ डे ओ " मा यार वर्षाभांना अर्थ पशु वर्षा होय हे તે પદો પુલ્લિંગ હાય છે જેમ કે આકારાન્ત राया પદ્મ આ શબ્દની संस्कृत छाया " राजन्,' थाय छे तेने गुरुशतीभां " राज्म" हे छे. मा शब्दं भाडाशन्त युब्सि ंगनु उहाहरण छे. " गिरी अने " सिहरी " ये यह ारान्त पुल्लिंगना उहाहरणे ३ये महीं वपरायां छे. "गिरी " मां आद्भुत पहनी संस्कृत छाया " गिरी " थाय छे, " सिहरी" मा पहनी
"
આ
For Private and Personal Use Only
ܙܙ
अरान्त नपुं
उं” छे ते पहा
"
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुमोमबन्द्रिका टीका सूत्र १४८ प्रकारान्तरेण त्रिनामनिरूपणम् ६७१
और “शिखरी" ऐसी होती है-गिरि शब्द वहां अजन्त पुल्लिा और शिखरिन् शब्द हलन्तपुल्लिङ्ग है। "विण्हू" यह शब्द ऊकारान्त पुल्लिङ्ग का है। इसकी संस्कृत छाया "विष्णु" ऐसी है। विष्णु शब्द यहाँ अजन्त पुल्लिङ्ग है। "दुमो" यह शब्द ओकारान्त पुल्लिङ्ग का है। इसकी छाया "द्रुमः" ऐसी है । यह शब्द वहां अकारान्त पुल्लिङ्ग है। स्त्रीलिङ्ग में प्राकृत आकारान्त माला शब्द है। संस्कृत छाया इसकी माला ही है। संस्कृत में भी यह शब्द अजन्त स्त्रीलिङ्ग ही है। प्राकृत भाषा में ओकारान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग नहीं माना जाता है। जैसे देवों आदि शब्द । ओकारान्त शब्द सघ ही पुल्लिङ्ग है। लच्छी सिरी-कि जिनकी संस्कृ छाया लक्ष्मीः और श्री ऐसी होती है दोनों शब्द ईका. रान्त स्त्रीलिङ्ग हैं। ऊकारान्त जंबू बहू शब्द प्राकृत में स्त्रीलिङ्ग हैं। संस्कृत में भी ये दोनों स्त्रीलिङ्ग में हैं। प्राकृत भाषा में नपुंसकलिङ्ग की निशानी अंई उ है। जिनके अन्त में ये अंहं उं होते हैं वे नपुंसकलिङ्ग माने जाते हैं। जैसे अस्थि-अस्थि, महुं-मधु पीलुं-पीलु । इस प्रकार सस्त छया “शिखरी" थाय छ, शुभरातीमा त म त थाय छे “ विण्हू " 21 ५४ And yeant २७ ३५ छ. तनी सकृत छाया " विष्णु" थाय छे. “दुमो” मा ५४ सन्त पुगिना हाल ३५ छे. तेनी संत छाया “द्रुमः थाय छ तेन शुभरातीमा " वृक्ष" ४ छ सरतमा 'द्रुम' ५६ मन्तYean छे. भारान्त श्री पहनु हा "माला" ५६ छे. तेनी सस्त छाय। ५५५ मामा' જ થાય છે. સંસ્કૃતમાં પણ આ શબદ આકારાન્ત સ્ત્રીલિંગ જ છે પ્રાકતમાં આકારાન્ત શબ્દને સ્ત્રીલિંગવાળો ગણવામાં આવતું નથી જેમ કે “દેવ अघi ||रान्त ५हो yearय छे “ मिरी भने लच्छी " भागने પદે ઈરાન્ત સ્ત્રીલિંગનાં ઉદાહરણ છે તેમની સંસ્કૃત છાયા અનુક્રમે "श्री" भने “ लक्ष्मी" छ. संस्कृतमा ५५ मा मन्ने पी श्रीनिi ar पहा छ. ऊ रान्त " जंबू' भने “ बहू " मा म.ने प्राकृतभा श्रीति जना શબ્દો છે સંસ્કૃત ભાષામાં પણ આ બન્ને શબ્દો સ્ત્રીલિંગ જ છે. જે શબ્દોના अन्त्याक्षरे। “अं" '' " डाय छ, ते श नपुसलिमा डाय छ
म है "अत्थिं " मा ५४ ईरान्त, " महुं" ५४ रान्त भने “पोलं" मा ५६ उशन्त भने 'धनं' मा ५४ अंश-नसलसना पही छे सकृतभा तमन। म न पाय भने “मधु", 'पीलु'
For Private and Personal Use Only
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
६७२
अनुयोगद्वारसूत्र अथ चतुर्नाम निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं चउणामे ? चउणामे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमेणं लोवेणं पयईए विगारेणं। से कितं आगमेणं? आगमेणं वंक, वयंसे, अइमुत्तए। से तं आगमेणं । से किं तं लोवेणं? लोवेणं ते एत्थ-तेऽस्थ, पडो एत्थ-पडोऽस्थ, घडो एत्थ-घडोऽस्थ। से तं लोवेणं। से किं तं पगईए ? पगईएहोइ इह गड्डे आवडंती, आलिक्खामो एपिंह, अहो अच्छरियं । से तं पगईए। से कि तं विगारेणं? विगारेणं-दंडस्स अग्गं दंडग्गं, सा आगया साऽऽगया, दहि इणं-दहीणं, नईइह-नईह, महु उदगं-महूदगं वह ऊहो-वहहो । से तं विगारेणं। से तं चउणामे ॥सू०१४९॥ ___ छाया-अथ किं तच्चतुर्नाम? चतुर्नाम चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-आगमेन, लोपेन, प्रकृत्या, विकारेण । अथ किं तदागमेन? आगमेन-चक्रम् , वयस्यः, अतिमुक्तकः । तदेतदागमेन । अथ किं तद् लोपेन ? कोपेन-ते अत्रतेऽत्र, पटो अत्र-पटोऽत्र, घटो अत्र घटोऽत्र । तदेतद् लोपेन । अथ किं तत् प्रकृत्या ? प्रकृत्या-भवति-इह, गर्ते आपतन्ती आलेक्ष्याम इदानीम् , अहो आश्चर्यम् तदेतत् प्रकृत्या । अथ किं सद् विकारेण विकारेण दण्डस्य अग्रम् दण्डाग्रम् , सा आगतासाऽऽगता, दधि इदम् दधीदम् , नदी पहनदीह, मधु उदकम् मधूदकम् , वधू उहा-वधूहः। तदेतद् विकारेण । तदेतच्चतुर्नाम ॥सू० १४९॥ स्त्रीलिङ्ग, पुलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग संबन्धी शब्दों से निष्पन्न स्त्रीनामपुल्लिङ्ग नाम और नपुंसक नाम हैं । इस प्रकार लिङ्गानुसार यह त्रिनाम स्वरूप है।स० १४८॥
"न" छ । २i स्त्रीलि, पुलिस भने नलिना શખ્સમાંથી બનતાં નામને અનુક્રમે સ્ત્રીનામ, પુલિંગનામ અને નપુંસકનામ કહે છે. લિંગ (જાતિ) અનુસાર ત્રિનામનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું. સૂ૦૧૪૮
For Private and Personal Use Only
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६७
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४९ चतुर्नामनिरूपणम् - टीका-' से किं तं' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ किंतचतुर्नाम ? इति उत्तरयति-चतुर्नाम-चतुष्पकार नाम-चतुर्नाम, तद्धि चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् । चतुर्विधत्वमेवाह - आगमेन, लोपेन, प्रकृत्य विकारेण चेति आगमेनेत्यादिषु सर्व 'निष्पन्न-मित्यध्याहार्यम् । तत्र-आर मेन निष्पन्नम्-'वकं, वयंसे, अइमुंतर' चक्रं, वयस्यः, अतिमुक्तकः, अत्र पाक आगमरूपोऽनुस्वारः, "वक्रादावन्तः” (८.१।२६) तथा लोपेन निष्पन्नं नाम
अब सूत्रकार चार प्रकार के नाम की प्ररूपणा करते हैं"से कि तं च उणामे" इत्यादि। शब्दार्थ-(से किं तं च उणामे) हे भदन्त ! वह चतुर्नाम क्या है।
उत्तर-(चउणामे चउब्धिहे पणत्त) चतुर्नाम-चार प्रकार व मज्ञप्त हुआ है । (तं जहा) जैसे (आगमेण, लोवेणं पपईए, विगारेणं एक आगम निष्पन्न नाम, दूसरा लोपनिष्पन्न नाम तीसरा प्रक निष्पन्न नाम और चौथा विकार निष्पन्न नाम । (से किं तं आगमेण हे भदंत ! आगम निष्पन्न नाम क्या है ?
उत्तर-(आगमेणं वकं वयंसे, अहमुंतए) आगमनिष्पन्न ना वक्र वयस्थ और अतिमुक्तक हैं । (से तं आगमेणं) इस प्रकार ये स आगम से निष्पन्न नाम हैं। (से किं तं लोवेणं) हे भदन्त ! लोप निष्प नाम क्या है ?
હવે સૂત્રકાર ચતુર્નામની પ્રરૂપણ કરે છે– “से किं तं चउगामे" त्याहि
शहा-(से किं तं चउणामे) . मान्! नामन यायाले ३१ यतुनाभनु ९१३५ पु छ १ ।
उत्तर-(चउणामे चउविहे पण्णत्ते) यतु म या२ प्रा२नु छ(तंजहा) ते या२ ५४२नीय प्रमाणे छ-(आगमेण, लोवेणं, पयईए, विगारेणं (१) भागमनिष्पन्न नाम, (२) पनि०५-न नाम, (3) प्रतिनि०५-न नाम (४) विनि -५-न नाम..
प्रश्न-से कि तं आगमेणं) भगवन् ! रामनिन नाम न छ। उत्तर-(आगमेणं वंक, वयंसे, अइ मुंतर) १४, १५२५ भने मतिभुत, म ५ो सामान०पन्न नाम। छ. (से तं आगमेणं) मा ४२i मामनि०५. નામો હોય છે . ५-(से किं तं लोवेणं) मन् ! पनिष्पन्न नाम जय छ ।
अ० ८५
For Private and Personal Use Only
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६७४
अनुयोगद्वारसूत्रे एत्थ तेत्थ, पडो एत्थ पडोत्थ' ते अत्र-तेऽत्र, पटो अत्र-पटोऽत्र इत्यादि, अत्र भाकृतमयोगे 'एत्य' इत्यस्य एकारस्य लोपः "त्यदायव्ययात् तत्स्वरस्य लुक्" (८।१।४०)। तथा-प्रकृत्या निष्पन्नं नाम-गड्डे-आवडंती, आलेक्खमो-एण्डि, होइ-इह गर्ने आपतन्ती, आलेक्ष्याम इदानीम् , भवति-इह, इत्यादि। अत्र "एदोतो स्वरे" (८।१७) "त्यादेः" (८ १.९) एतत्सूत्रानुसारेण पाकृते प्रकृति भावो भवति । तथा-विकारेण निष्पन्नं नाम-'दंडस्स अग्गं दंडग्गं, सा आगया
उत्तर-(लोवेणं) लोप निष्पन्न नाम इस प्रकार से हैं-(ते एत्थ= तेऽत्थ, पडो एस्थ-पडोऽस्थ, घडो एस्थ-घडोऽस्थ) ते अत्र-तेऽत्र पटो अत्र-पटोऽत्र घटो अत्र-घटोऽत्र (से तं लोवेणं) इस प्रकार ये लोपसे निष्पन्न नाम हैं। (से कि तं पगईए १) हे भदन्त ! प्रकृति भाव से निष्पन्न नाम क्या है ? (पगईए) प्रकृति भाव से निष्पन्न नाम इस प्रकार से है (होइ इह, गड्डे आवडती आलिक्खामो एण्हि अहो अच्छरिय) भवति इह गर्ते आपतन्ती, आलेक्ष्याम इदानीम्, अहो आश्चर्यम् (से तं पगईए) इस प्रकार ये प्रयोग प्रकृति भाव से निष्पन्न नाम हैं । (से किं तं विगारेणं) हे भदन्त ! विकार से निष्पन्न नाम क्या है ? - उत्तर-(विगारेणं) विकार से निष्पन्न नाम इस प्रकार से है(दंडस्स+अग्ग-दडग्गे, सा+आगया साऽऽगया, दहि+हणं-दहीणं, नई+
उत्तर-(लोवेणं) सोपनियन नाम सारना डाय-(ते एत्थ तेऽत्थ,' पडो एत्थ-पडोऽस्थ, घडो एत्थ-घडोऽत्थ) तमित्रतेऽत्र(तत्र, ते अने त्र १२ये " આ જે નિશાન છે તેને અવગ્રહચિહ કહે છે. આ પ્રકારનું નિશાન પછીના पहना 'अ' न सो५ च्या छ मेम सूयवे) पटमित्रपटोऽत्र, मन ઘટે અત્ર=દોડત્ર (આ પદમાં અત્રના અને લોપ થવાથી અવગ્રહચિત મક. पामा मायां छे. (से तं लोवेणं) मा परे पिथी नियननामा डाय છે તેમને લેપનિષ્પન્ન નામ કહે છે.
प्रश्न-(से किं तं पगईए ?) समपन् । प्रतिमाथी नि०५-न नाम हाय छ
उत्तर-(पगईए) प्रकृतिमाथी निष्पन्न नाम मा अानु डाय छ(होइ इह, गड्ढे आवडती, आलिखामो एण्हिं, अहो अच्छरिय) मपति, मत भापतन्ती, मालेक्ष्याम हानीम, अडे! माश्यम् (से तं पगईए), म प्रीરના આ પગે પ્રકૃતિભાવનિષ્પન નામના ઉદાહરણ પૂરાં પાડે છે.
प्रल-से कि तं विगारेणं) सन् ! विनिष्प-न नाम उडाय छ? उत्तर-(विगारेणं) विनि०पन्न नाम मा प्रा२नु डाय छ-(दंडस्सx
For Private and Personal Use Only
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४९ चतुर्नामनिरूपणम् सागया' दण्डस्य-अंग्रे दण्डायम् , सा-भागता साऽऽगता' इत्यादि बोध्यम् विकारो हि वर्णस्य स्थाने वर्णान्तरापादनरूपः । नामत्वंचात्र तेन तेन रूपेण नमनात परिणमनाद् बोध्यम् । लोके हि यान्तः शब्दास्ते आगमाघन्यतमनिष्पन्ना एव सन्ति । ये च डित्य डवित्थादयः कैश्चिदव्युत्पन्नत्वेनाभिमतास्तेऽपि शाकटायनमते व्युत्पन्ना एव । उक्तंच
"नाम च धातुजमाह निरुक्ते, व्याकरणे शकटस्यच स्तोकम् (अपत्यम्)।
यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदृह्यम्" ॥इति॥ इत्थं च सर्वेषां शब्दानामागमादिभिश्चभिः संग्रहादिदमागमादिकं चतुर्नामेत्युच्यते। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतच्चतुर्नामेति ।मु० १४९॥ इह-नईह महु+उदगं+महूदगं, बहू+ऊहो-बहूहो। दण्ड+अग्र-दण्डाग्र सा+ आगता-सागता दधि+इदं धीदं नदी+इह-नदीह, मधु+उदक-मधूदक, वधू+ऊह वधूहः (से तं विगारेणं) इस प्रकार के ये शब्द विकार निष्पन्न नाम हैं । (से तं च उणामे ) ये पूर्वोक्त चतुर्नाम हैं।
भावार्थ-आगम निष्पन्न, लोप निष्पन्न, प्रकृति निष्पन्न और विकार निष्पन्न इस प्रकार से चतुर्नाम चार प्रकार के होते हैं। आगम रूप अनु. स्वार से जो शब्द निष्पन्न होते हैं वे आगम निष्पन्न चतुनीम है जैसे प्राकृत भाषा में वंक, वयंसे, अई मुंतए ये शब्द हैं। "वक्रादावन्तः" इस सूत्र से प्राकृत भाषा में वक्रादि शब्दो में आगमरूप अनुस्वार होता है। "व" शब्दकी संस्कृत छाया "वक्रम्" है। वयंसे "शब्द की अग्ग-दंडग्गं, सा+आगया साऽऽगया, दहि इणं-दहीणं, नईxइह-नईह, महुx उदगं-महूदगं, बहूxअहो बहूहो) +
म श्र, सा+आगतासमता, दधिx इदधी,
न दी , मधु+उदक-भy६४, वधू ऊह-वधूः (से तं विगारेणं) मा मा शाही वि२नि०५-न नाभा छे. (से तं चउणामे) ॥ मयां નામો પૂર્વોક્ત ચતુર્નામ રૂપ ગણાય છે.
ભાવાર્થ-ચતુર્નામના ચાર પ્રકાર છે-આગમનિષ્પન, લેપનિષ્પન્ન, મકતિનિષ્પન્ન, અને વિકારનિષ્પન આગમ રૂપ અનુસ્વાર વડે જે જે શબ્દો અને તેમને આગમનિષ્પન્ન ચતુર્નામ રૂપ સમજવા જેમ કે પ્રાકૃત ભાષાના "वंक, वयंसे सने अइमुंतए" ! शो मागमनिष्पन्न यतुमा छे. " वादावन्तः" मा सूत्र मे पात ४८ ४२ छ । प्राकृत भाषामi Ane शण्डीमा माराम ३५ अनुस्वार डाय छे. “वं" मा सात जना सस्कृत छाया "वक्रम् ” छे. “वयंसे" या प्रात पहनी सत
For Private and Personal Use Only
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
६७६
अनुयोगद्वारसूत्रे
संस्कृत छाया " वयस्यः " है । " अहमंतर की जगह पर अहमुत्तर भी रूप होते हैं। परन्तु वंकं आदि जो ये नाम - प्रतिपादिक संज्ञक शब्द हैं वे आगम निष्पन्न नाम हैं अर्थात् अनुस्वार के आगम से बने हुए नाम हैं। ते+एत्थ, पडो+एत्थ इन प्राकृत प्रयोगो में "एत्थ" शब्द के एकार का लोप “ह्यदायव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् " इस सूत्र से होता है । इसलिये “तेस्थ पडोरथ" ये लोप निष्पन्न नाम हैं। "गड्डे आवडती, आलेक्खमो ऐहिं होइ इह" इन प्रकृतिभाव निष्पन्न नामों में "एदेतो: स्वरे स्यादेः इन सूत्रों के अनुसार प्राकृत भाषा में प्रकृतिभाव होता है। जो प्रयोग जैसे हैं उनका वैसा ही रूप रहना इसका नाम प्रकृति भाव है। प्रकृति भाव में मूल रूप में कोई विकार नहीं होता है । गर्तें + आपतन्ती यहां पर संस्कृत व्याकरण के अनुसार ए के स्थान में अव् होना चाहिये, आलेयाम + इदानीम् यहाँ पर "आदगुण" से ए गुण होना चाहिये, भवति + इह यहाँ पर अकः सवर्णे दीर्घः " से दीर्घ होना चाहिये परन्तु प्रकृति भाव होने पर इन नामों में कोई भी संधिरूप विकार नहीं हुआ है ।
66
66
वयस्यः
66
""
66
"
" छे. 61 अइमुंतए " मा प्राहुत पहनी संस्कृत छाया अतिमु क्तकः " छे. " वकं " या पहनी नग्या "वल्कं, " " वयंसे " या पहनी भय्यामे " वयस्खे " भने “ अइमुंतए આ પદની જગ્યાએ अइमुत्तर या इयोनो पशु प्रयोग थाय छे. परन्तु १५ आहि उपर्युक्त नाम-प्रतिપાદન કરનારા ઉદાહરણુ રૂપ શબ્દો-આગમનિષ્પન્ન નામેા છે, કારણ કે આ નામા અનુસ્વારના આગમથી બનેલાં છે. त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् " या सूत्रां तावेसा नियम अनुसार " ते+एत्थ " भने “ पडो+एत्थ " આ પ્રાકૃત પટ્ટામાં एत्थ પદ્મના (6 ए " ना सोप थवाथी तेत्थ " अने “Bıça”, mui Aluloyed aAi mai §. “qtal: tak zart: ” 241 सूत्रभां मतावेसा नियम प्रमाणे "गड्डे आवडती " मने “ आलेक्खमो एहि, होइ इह " मा प्रहृतिलाव निष्पन्न नाममा अधृतिभावना सद्भाव रहे छे પ્રકૃતિભાવમાં મૂળરૂપમાં કેાઈ પશુ પ્રકારના વિકાર થતા નથી પરન્તુ જે પ્રયાગ नेवा स्व३ये हाय मेवां स्त्र३ये रहे छे. " गर्ते + आपतन्ती " આ એ પદ્માની सन्धि थतां सस्कृत व्या¥श्शुना नियम प्रमाणे “ए” ! ' अबू ' थवा लेखे, અને आलेक्ष्याम+ इदानीम् ” आा पहोनी सन्धि उरतां अ +इ=ए या नियम અનુસાર आलेक्ष्यामेानीम् ” थधुं ले, "भवति + इह" मा पोमां इ+इ = ई थपाथी ' भवतीह ' थवु लेहये; परन्तु या यहो अमृतिलाव निष्पन्न नाभी હાથી, તે નામામાં કેઇ પણ પ્રકારના સન્ધિ રૂપ વિકાર થયા નથી.
,
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
"
For Private and Personal Use Only
-
66
""
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५० पञ्चनामनिरूपणम्
अथ पश्चनाम निरूपयितुमाह
मलम् से किं तं पंचनामे? पंचनामे-पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-नामियं णेवाइयं अक्खाइयं ओवसग्गियं मिस्सं। आसे दण्ड भग्गं दण्ड+अग्रम् सा आगया, दहि+इणं, नई+ईह महु+उदगं, बह ऊहो, इन विकार निष्पन्न नामों में सर्वत्र दीर्घरूप विकार हुआ है। वर्ण के स्थान में दूसरे वर्ण का होना इसका नाम विकार है तथा उस उस रूप से परिणमन होनो इसका नाम नाम है। विकार होने पर इनका "दंडग्गं साऽऽगया, दहीणं, नईह महूदगं, वहूहो" ऐसा रूप हो जाता है। लोक में जितने भी शब्द हैं वे आगम आदि किसी एक से निष्पन्न हुए ही होते हैं । तथा "डिस्थ डवित्थ आदि जो शब्द अव्युत्पन्न किन्हीं के द्वारा माने हुए हैं वे भी शाकटायन के मत में व्युत्पन्न ही माने गये हैं। उक्तंच-नाम च धातुजमाह निरूक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदह्यम्" इस प्रकार समस्त शब्दों का इन आगमादि चारों से संग्रह हो जाता है इसलिये आगमादिक चतुर्नाम कहे जाते हैं ।सू० १४९॥
"दंड+अग्गं सा+आगया दहि+इणं, नई+इह, महु+उदगं, मने बहू+ऊहो" मा मां पहोमा सन्धि ३५ वि७२ ७२ "श्रम, सागया, दहीणं, नईह, महूदगं, बहहो" त्या विनि०५-न नामा मयां छ. ४ વર્ણને સ્થાને બીજા વર્ણને પ્રયાગ થશે તેનું નામ વિકાર છે. જે નામમાં આ પ્રકારનું પરિણમન થયું હોય છે, તે નામને વિકારનિષ્પના નામે કહે है. “ दंड+अग्गं " ALE G५युत पहीमा सन्धिन र वि२ पाथी " दण्डान, साऽऽगया, दहीणं, नईह, महूदगं वहहो पा रन ३॥ जना ગયાં છે. લેકમાં જેટલાં શબ્દો છે, તેઓ આગમ આદિ પૂર્વોક્ત ચાર अाशमान ४२ नि०५- येai हाय छे. तथा "डित्थ डवित्थ" આદિ જે શબ્દને કે કઈ લોકે દ્વારા અગ્રુપન માનવામાં આવે છે, પરન્તુ શાકટાયનના મત અનુસાર તેમને પણ બુન જ માનવામાં આવેલ ७. ४थु ५५ है-" नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम् यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम्" मा प्रारे સમસ્ત પદનો આ આગમ આદિ ચારેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી આગમાદિ રૂપ ચતુર્નામ રૂપે અહીં તેમને પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. સૂ૦૧૪
For Private and Personal Use Only
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६७४
अनुयोगद्वारसूत्रे त्ति नामियं, खलु ति नेवाइयं, धावइत्ति अक्खाइयं, परित्ति
ओवसग्गियं, संजए ति मिस्सं। से तं पंचनाम ॥सू०१५०॥ ____ छाया-अथ किं तत् पश्चनाम? पश्चनाम पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथानामिक, नैपातिकम् , आख्यातिकम् , औपसर्गिकं, मिश्रम् । अश्व इति नामिकम् । 'खलु' इति नैपातिकम् । 'धावति' इति आख्यातिकम् । 'परि' इति औपसर्गिकम् । संयत इति मिश्रम् । तदेतत् पश्चनाम ॥मू० १५०॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ किं तत् पश्चनाम? इति। उत्तरयति-पश्चनाम-पश्चप्रकारकं नाम-पश्चनाम, तद्धि पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । पञ्चविधस्वमेवाह-नामिकमित्यादि । तत्र-अश्व इति नामिकम्-वस्तुवाचकत्वात् । 'खलु' इति नैपातिकम्निपातेषु पठितत्वात् । धावतीति आख्यातिक क्रियाप्रधानत्वात् । 'परि' इति
अब सूत्रकार पश्चनाम का निरूपण करते हैं"से कि तं पंचनामे" इत्यादि। शब्दार्थ-(से किं तं पंचनामे ? ) हे भदन्त ! पंचनाम क्या है ?
उत्तर-(पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते) पंच नाम पांच प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) उस के पांच प्रकार ये हैं-(नामियं, णेवाइयं, अक्खाइयं, ओवसगियं मिस्स) नाभिक नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक, और मिश्र। वस्तु का वाचक होने से (आसेत्ति नामियं)-अश्व यह शब्द नामिक है । (खलुत्ति नेवाइयं) खलु शब्द निपानों में पठित होने के कारण नैपातिक है। क्रियाप्रधान होने से (धावइत्ति अक्खाइयं) धावति" यह तिङ्गन्त पद आख्यातिक है। (परित्ति ओवसग्गियं) परि
હવે સૂત્રકાર પંચનામનું નિરૂપણ કરે છે“से किं तं पंचनामे" त्या:शहाथ-(से किं तं पंचनामे १) सन् ! ५ याम ने छ ?
उत्तर-(पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते) ५यनाम पांय ४२ ॥ . (तंजहा) २। नये प्रमाणे छ-(नामियं, णेवाइयं, ओवसग्गियं, मिस्सं) (१) नाभि, (२) नेपाति, (3) आध्याति:, (४) मोपसन मने () मिश्र __ पस्तुनु वाय पाने ४॥२ (आसेत्ति नामिय) " A " ५४ नाभि. ॥ २६५ ३५ सभा (खलुत्ति नेवाइयं) " म" ५६ निपातमा १५२॥तु डावाने २0 नेपातिन SIS२५ ३५ सभा (धानइत्ति अक्खा. इत्यं) " धावति" ! ५४ याप्रधान पाने २२ माभ्यातिन GIR२५]
For Private and Personal Use Only
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५१ घण्णामनिरूपणम् औपसर्गिकम् उपसर्गेषु पठितस्वात् । 'संयतः' इति मिश्रम्-उपसर्गनामोभयनिष्नत्वात् । एतैर्नामिकादिभिः पञ्चभिः सकलशब्दसंग्रहणात् पश्चनामवं बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतत् पश्चनामेति ।।मू० १५०॥
अथ षण्णामं निरूपयति
मूलम्-से किं तं छण्णामे ? छण्णामे छबिहे पण्णत्ते, तं जहा उदइए, उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिए संनिवाइए ॥सू०१५१॥
छाया-अथ किं तत् षण्णाम ? षण्णाम षड्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-औदयिकः, औपशमिकः, क्षायिका, क्षायोपशमिकः, पारिणामिका, सान्निपातिकः।मु० १५१॥ टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत् षण्णाम ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-पण्णाम षटपकारकं नाम-पण्णाम, तद्धि-औदयिकादिभेदेन षड्विधं विज्ञेयम् । नन्वत्र प्रकृतं यह उपसर्ग, उपसर्गों में पठित होने से औपसर्गिक है। (संजए त्ति मिस्स) संयत यह सुबन्त पद उपसर्ग और नाम इन दोनों से निप्पन होने के कारण मिश्र है। इन नामिक आदि पांचों से समस्त शब्दों का संग्रह हो जाता है इसलिये ये पांच नाम कहे जाते हैं। (से तं पंचनाम) इस प्रकार यह पंचनाम का स्वरूप है॥सू० १५०॥ अब सूत्रकार छहनाम का निरूपण करते हैं-'से कितं छण्णामे इत्यादि। शब्दार्थ-से कि तं छण्णामे?) हे भदन्त ! छह नाम क्या है?
उत्तर-(छण्णामे छविहे पण्णत्ते) छह नाम छह प्रकार का प्रज्ञप्त ३५ छे. (परित्ति ओवसग्गिय) “परि" मा 64स छ. उपस 32 ना प्रयोग थाय छ, ते २ तेने औ५सर्गि छे (संजए त्ति मिस्स) सेयत ५४ सम्' ५सग भने 'यत' ५४ सयाथी मन्यु वाथी तन મિશ્રના ઉદાહરણ રૂપ ગણી શકાય આ નામિક આદિ પાંચે પંચનામ વડે સમસ્ત શબ્દોનો સંગ્રહ થઈ જાય છે, તેથી તેમને પંચનામ કહે છે. રે पंचनाम) . २ ५यनामनु १३५ सभा ॥२०१५॥
હવે સૂત્રકાર છનામની પ્રરૂપણા કરે છે – "से किंत' छण्णामे " त्या:
शहाय-(से कि त छण्णाम?) 3 भगवन् ! नामना ! २ ३५ છનામનું સ્વરૂપ કેવું કહ્યું છે ?
उत्तर-(छण्णांमे छविहे पण्णत्ते) छनामा ६ ॥२॥ ४ा छ (तनामना
For Private and Personal Use Only
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे नाम, न तु पदर्थाः, एवं च नाम्नः प्रकरणे तदर्थाना भावलक्षणानां प्ररूपणमयु. तमिति चेदाह, नाम नामवतोरभेदोपचाराद् नागार्थप्ररूपणमय्यदुष्टमेवेति न कश्चिद् दोषः। तत्र ज्ञानावरणादीनामष्टानां स्व स्वरूपेण विपाकतोऽनुभवनम् उदयः, स एव औदयिकः। अथवा-उदयेन निष्पन्न औदयिकः। औदयिकश्च भाव एव सामर्थ्याद् गम्यते । एवमग्रेऽपि भाव इत्याक्षेप्यः सामर्थ्यात् । उपशमहुआ है। छह प्रकारवाला जो नाम है वह छह नाम है। यह नाम छह प्रकारवाला है इसीलिये यह छह भेदराला है। (तं जहा) उसके वे छह प्रकार ये हैं-(उदाए, उवासमिए, खाए, खओवसमिए, पारिणामिए, संनिवाइए) औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशामिक पारिणामिक और सानिपातिक।
शंका-यहां प्रकरण नाम का चल रहा है। नाम के अर्थों का नहीं इस प्रकार नामके प्रकरणमें उसके अर्थरूप भावों की प्ररूपणा करना युक्त नहीं है?
उत्तर-नाम और नामवाले अर्थ में अभेद के उपचार से नामार्थ की प्ररूपणा करना अयुक्त नहीं है। औदयिक भाव-ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों के अपने२ रूप से विपाक का अनुभव करना इस का उदय है। इस उदय का नाम ही औदयिक हैं। अथवा उदय से निष्पन्न हुआ जो भाव है वह औदयिक है। औदयिक पद की सामर्थ्य से यहां औदयिक भाव ही लिया गया है । इसी प्रकार से आगे भी ૬ પ્રકાર હોવાને લીધે જ અહીં તેને પનામ (છનામ કઈ છે) તે ૬ ભેદ, नीय प्रमाणे -
(उदइए, उपसमिए खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, संनिवाइए) (१) मोहयि, (२) मौ५३भिड, (3) क्षायि४, (४) क्षयोपशभिड, (५) पारि भि अन (१) सानियाति.
શંકા-અહીં નામનું પ્રકરશું ચાલી રહ્યું છે. નામના અર્થોનું આ પ્રકરણ નથી આ પ્રકારના નામના પ્રકરણમાં તેના અર્થરૂપ ભાવોની પ્રરૂપણું કરવી તે ઉચિત લાગતું નથી છતાં આપે શા કારણે અહીં અર્થરૂપ ભાવની પ્રરૂપણ કરી છે ?
ઉત્તર-નામ અને નામવાળા અર્થમાં અભેદ માનીને આ પ્રકારે નાનાર્થની પ્રરૂપણ કરવી અયુક્ત નથી.
ઔદયિકભાવ-જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોના ફળ રૂપ વિપાકન-અનુભવ કરે, તેનું નામ ઉદય છે આ ઉદયનું નામ જ ઔદયિક છે. અથવા ઉદયથી નિષ્પન્ન થયેલે જે ભાવ છે તેનું નામ દયિક છે, ઔદયિક પદ અહીં ઔદયિક ભાવનું જ વાચક છે. એ જ પ્રમાણે ઔપશ
For Private and Personal Use Only
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५१ षण्णामनिरूपणम् नम्-उपशमः-कर्मणोऽनुदयाक्षीणावस्था भस्मराश्यन्तरालस्थितवद्भिवत् , स एव, तेन वा निर्वृत्त औपशमिकः । क्षयः कर्मणोऽपगमः, स एव तेन वा निर्वृत्त:क्षायिकः। क्षायोपशमिक:-क्षय उपशमश्च उक्त एव, तदेव भावः क्षायोपशमिका, तेन निवृत्तो वा क्षायोपशमिकः । अयं च-ईषद्विध्यातभस्मवहिवद् बोध्यः। औपशमिक भाव क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, पारिणामिक भाव, और सान्निपातिक भाव उन २ पदों से जानना चाहिये। औपशमिक-कर्मों का उदय में नहीं रहना, किन्तु उनकी उपशमावस्था का होना इसी का नाम अनुदयाक्षीणावस्था है। इसी अवस्था का नाम उपशम है। जैसे भस्मराशि के भीतर अग्नि छुपी रहती है उसी प्रकार से इस उपशम अवस्था में कर्मों का उदय नहीं है किन्तु वे सत्ता में बैठे रहते हैं। इस उपशम का नाम ही औपशमिक भाव है। अथवा इस उपशम से जो भाव निवृत्त (बनता) होता है वह औप. शमिक भाव है। कर्मा का अत्यंत विनाश होना इसका नाम क्षय है। पह क्षय ही क्षायिक है। अथवा इस क्षय से जो उत्पन्न होता है-वह क्षायिक है। कर्मों का क्षय और उपशम होना इसका नाम क्षयोपशम है। यह क्षयोपशम ही क्षायोपशमिक है। अथवा क्षयोपशम से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक भाव है। यह भाव कुछ बुझी हुई अग्नि के जैसा जानना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि इस क्षयो. મિકભાવ, ક્ષાયિકભાવ, ક્ષાપશમિકભાવ, પરિણામિકભાવ અને સારિપાતિક ભાવને પણ ઔપશમિક આદિ પદો વડે નિષ્પન્ન થયેલા સમજવા જોઈએ.
ઓપશમિ-કર્મો ઉદયાવસ્થામાં રહેલાં ન હોય, પણ ઉપશમાવસ્થામાં રહેલાં હોય, ત્યારે તે અવસ્થાને અનુયાક્ષણાવસ્થા કહે છે એજ અવસ્થાનું નામ ઉપશમ છે. જેમ રાખના ઢગલા નીચે અગ્નિ છુપાયેલું રહે છે, એજ પ્રમાણે ઉપશમ અવસ્થામાં કર્મોને ઉદય હેત નથી પણ તેમનું અસ્તિત્વ તે હોય છે જ આ ઉપશમનું નામ જ ઔપશમિક ભાવ છે અથવા આ ઉપશમ વડે જે ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે તે ભાવનું નામ ઔપથમિક ભાવ છે કર્મોને અત્યંત વિનાશ છે તેનું નામ ક્ષય છે. તે ક્ષય જ ક્ષાયિક રૂપ સમજ, અથવા આ ક્ષયથી જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે ભાવને ક્ષાયિકભાવ કહે છે. કમેને ક્ષય અને ઉપશમ કે તેનું નામ ક્ષોપશમ છે. તે ક્ષયે પશમ જ સાપશમિક છે. અથવા ક્ષપશમ વડે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તે ભાવનું નામ સાપશમિક ભાવ છે આ ભવને થોડી થોડી બુઝાયેલી અગ્નિ જે
अ० ८६
For Private and Personal Use Only
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
%
ES
अनुयोगद्वारसूत्रे परिणामः-तेन तेन रूपेण वस्तूनां परिणमनं-भवनम् , स एव, तेन वा निवृत्तः पारिणामिकः । सन्निपातः अनन्तरोक्तानां भावानां द्वयादिरूपेण मेलनं स एव, वेन वा निर्दृतः सानिपातिकः ॥इति।।सू०१५१॥ सम्मति एतेषां भावानां स्वरूपं निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं उदइए ? उदइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाउदइए य उदयनिष्फण्णे य। से किं तं उदइए? उदइएअटण्हं कम्मपयडीणं उदएणं से तं उदइए। से किं तं उदयनिप्फणे? उदयनिष्फणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवोदयपशम में कितनेक सर्वघाति स्पर्द्ध को (अंशो) का उदयाभावी क्षय और कितनेक सर्वघातिस्पर्द्धकों का स्वस्थारूप उपशम होता है और देशघाति प्रकृतिरूप जो सम्यक् प्रकृति है उसका उदय रहता है। इसलिये इस भाव को कुछ वुझी हुई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि की उपमा दी गई है । उस २ रूप से वस्तुओं का जो परिणमन होता है वह परिणाम है। वह परिणाम हो पारिणामिक भाव है । अथवा इस परिणाम से जो भाव उत्पन्न होता है वह पारिणामिक भाव है। इन पांच भावों का द्वयादि संयोगरूप से जो मिलना है वह सनिपात है। यह समिपात ही सान्निपातिक भाव है। अथवा इस सन्निपात से जो भाव उत्पन्न होता है वह सान्निपातिक भाव है ॥म.० १५१॥ સમજ આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આ ક્ષયે પશમમાં કેટલાક સર્વઘાતિ સ્પદ્ધ કેને (અશેને) ઉદયાભાવી ક્ષય અને કેટલાક સર્વઘાતિ પદ્ધકને સદવસ્થા રૂપ (વિદ્યમાનતા રૂપ) ઉપશમ થાય છે, અને દેશઘાતિ પ્રકૃતિ રૂપ જે સમ્યક્ પ્રકૃતિ છે તેને ઉક્રય રહે છે તેથી આ ભાવને થોડી બુઝાયેલી અને ડી ન બુઝાયેલી અગ્નિની ઉપમા આપવામાં આવી છે. તે તે રૂપે વસ્તુઓનું જે પરિણમન થાય છે તેને પરિણામ કહે છે. તે પરિણામ જ પરિણામિક ભાવ છે. અથવા તે પરિણામ વડે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને પરિણામિકભાવ કહે છે આ પાંચ ભાવેનું જે દ્વિસંગ આદિ સંગ રૂપે મિલન (સંગ) થાય છે, તેનું નામ સન્નિપાત છે. તે સનિપાત જ સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ છે અથવા તે સન્નિપાત વડે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય
तेनुं नाम सान्निपातिसा छे. ॥२०१५॥ .
For Private and Personal Use Only
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६३ निष्फण्णे य अजीवोदयनिप्फण्णे य। से किं तं जीवोदयनिप्फपणे ? जीवोदयनिप्फण्णे-अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे पुढविकाइए जाव तसकाइए कोहकसाई जाव लोहकसाई, इत्थीवेदए पुरिसवेदए णपुंसगवेदप कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्ठी सम्मदिट्ठी मीसदिट्ठी अविरए असण्णी अण्णाणी आहारए छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे । से तं जीवोदयनिप्फण्णे। से कितं अजीवोदयनिष्फपणे? अजीवोदयनिप्फण्णे-अणेगविहे पण्णत्ते,तं जहा-उरालियं वा सरीरं, उरालियसरीरपओगपरिणामियं वा दवं, वेउध्वियंवा सरीरं, वेउब्वियसरीरपओगपरिणामियं वा दवं, एवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं, कम्मगं सरीरं च भाणियत्वं । पओगपरिणामिए वण्णे गंधे रसे फासे। से तं अजीवोदयनिप्फपणे । से तं उदयनिफण्णे से तं उदइए ॥सू०१५२॥ ___छाया-अथ कोऽसौ औदयिकः ? औदयिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाऔदयिकश्च उदयनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसौ औदयिकः ? औदयिक:-अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयः खलु । स एष औदयिकः । अथ कोऽसौ उदयनिष्पन्नः ? उदय. निष्पन्नो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जीवोदयनिष्पन्नश्च अनीवोदयनिष्पन्नश्च। अथ कोऽसौ जीवोदयनिष्पन्नः ? जीवोदयनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नैरयिका तिर्यग्योनिको मनुष्यो देवः पृथिवीकायिको यावत् त्रसकायिकः क्रोधकषायी यावद् लोभकषायी स्त्रीवेदकः पुरुषवेदको नपुंसकवेदकः कृष्णलेश्यो यावद शुक्ललेश्यो मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः मिश्रडष्टिः अविरतः असंज्ञी अज्ञानी आहारका छद्मस्थः सयोगी संसारस्थः असिद्धः। स एष जीवोदयनिष्पन्नः। अथ कोऽसौ अजीवोदयनिष्पन्नः ? अजीवोदयनिष्पन्नः-अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-औदारिक वा शरीरम्, औदारिकशरीरप्रयोगपरिणामितं वा द्रव्यम् , वैकुर्विकं वा शरीरं वैकुर्विकशरीरमयोगपरिणामितं वा एवम्द्रव्यम् , -आहारकं शरीरम् , तेजस्क
For Private and Personal Use Only
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र शरीरं कामकं शरीरंच भणितव्यम् । प्रयोगपरिणामितो वर्णो गन्धो रसः स्पर्शः। स एषोऽजीवोदयनिष्पन्नः। स एष उदयनिष्पन्नः। स एष औंदयिकः॥सू० १५२॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ औदयिकः ? इति पश्नः। उत्तरयति-प्रौदयिको द्विविधा मनमः। दैविध्यमेवाह-औदयिकः उदयनिष्पन्नश्च । तत्र औदयिकः-ज्ञानावरणीयादीनामष्टकर्मपकृतीनामुदयः । 'ण' इति वाक्यालङ्कारे। अयं प्रथमो भेदः । द्वितीयश्च भेद उदयनिष्पन्नः। स हि-जीवोदयनिष्पन्नः, अजीवोदयनिष्पन्नश्च ।
अब सूत्रकार इन्हीं भावों का स्वरूपनिरूपण करते हैं‘से किं तं उदइए' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं उदइए?) हे भदन्त ! पूर्वप्रकान्त औदयिक भाव क्या हैं ?
उत्तर-(उदहए दुविहे पण्णत्ते) औदयिक भाव दो प्रकार का प्राप्त हुआ है। (तं जहा) उसके वे दो प्रकार ये हैं-(उदहए य उदय निष्फण्णे य) एक औदयिक और दूसरा उदयनिष्पन्न (से किंतं उदइए?) हे भदन्त ! औदायिक भाव क्या है ? (अट्ठण्हं कम्मपयडीणं उदएणं उदइए)
उत्तर-ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म प्रकृतियों का उदय औदयिक है। (से तं उदइए) इस प्रकार यह औदयिक है।
(से किं तं उदयनिप्फणे १) हे भदन्त ! उदयनिष्पन्न क्या है ?
આગલા સૂત્રમાં ઔદયિક આદિ જે ભાવ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, તે ભાવના રૂપનું હવે સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે–
"से कि त उदइए" त्या6ि
शहाथ-(से कि त उदइए १) लगवन् ! नामना छ लेहमान પહેલા ભેદ રૂપ ઔદયિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે? - उत्तर-(उदइए दुविहे पण्णत्ते) मोहयि भाव मे ५४।२।। Bही . (जहा) में प्रा२ नीय प्रमाणे सभा -(उदइए य उदयनिष्फण्णे य) (1) मोडयि भने (२) यनि-पन्न.
प्रश्न-(से कि त उदइए ) 3 सावान् ! मोहथिईनु २५३५ ४. डाय छे.
उत्तर-(अण्ह कम्मपयडीणं उदएणं उदइए) ज्ञाना१२०ीय माहिमा ४म प्रकृतिमान। जय मोयि ३५ समाव (सेत उदइए) मारीत मोहयिनु વરૂપ સમજવું. HN-(से कि त छदयनिष्फण्णे?) डे मापन् ! यनि-ननु २५३५३७ डाय?
For Private and Personal Use Only
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८५ तत्र-जीवोदयनिष्पन्नः-जीवे उदयेन निष्पन्नः। औदयिकभावोऽनेकविधःमज्ञप्तः । अनेकविधत्वमेवाह-'णेरइए' इत्यादि। नैरयिकादिरसिद्धान्तो जीवोदयनिष्पन्न औदायिको भावो बोध्यः। नैरयिकादयः शब्दा भावपरा बोध्याः। नारकत्वादयः पर्यायाः कर्मणामुदयेनैव जीवे निष्पद्यन्ते इत्यत एते जीवोदयनिष्पन्ना इति भावः।
उत्तर-(उदयनिष्फण्णे-दुविहे पण्णत्ते) उदयनिष्पन्न दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वे दो प्रकार ये हैं-(जीवोदयनिष्फणे य अजीवोदयनिष्फण्णे य)-एक जीवोदय निष्पन्न और दूसरा अजीवोदय. निष्पन्न । (से किं तं जीवोदयनिष्फण्णे ?) हे भदन्त ! जीव में उदय से जो भाव निष्पन्न होता है वह क्या है ?
उत्तर-(जीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) जीव में उदय से जो औदयिक भाव निष्पन्न होता है वह अनेक प्रकार का कहा है (तं जहा) जैसे-(णेरहए, तिरिक्खजोणीए, मणुस्से, देवे, पुढविकाइए जाव तसकाइए, कोहकसाई, जाव लोहकसाई, इत्थीवेदए, पुरिसवेदए, णपुंसगवेदए, कण्हलेसे, जाव सुक्कलेसे मिच्छादिही, सम्मदिट्ठी मीसदिट्टी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे, सजोगी, संसारस्थे, असिद्धे) नैरयिक, तियग्योनिक, मनुष्य, देव, पृथिवीकायिक यावत् प्रसकायिक, क्रोधकषायी, यावत् लोभकषायी, स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक, कृष्णलेश्या, यावत् शुक्ललेश्या, मिथ्यादृष्टि, सम्यकूदृष्टि,
उत्तर-(उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते) यनि-प-नना में ॥२ ५ . (तजहा) ते प्रा। नीय प्रमाणे -(जीवोदयनिप्फण्णे य, अजीवोदयनिष्फण्णे य) (१) वय निपन्न, (२) १७वाय नि०५-न.
प्रश्न-(से कि त जीवोदयनिष्फण्णे?) अपान् ! म यथा २ ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે, તે ભાવનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
उत्तर-(जीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पणत्ते) मा यथा रे मोयि:मा ५-न थाय छ, ते भने २ सय छ (जहा) भ .....(णेरइए, तिरिक्खजोणीए, मणुस्से, देवे, पुढविकाइए जाव तसकाइए, कोह कसाई आव लोहकसाइ, इत्थीवेदए, पुरिसवेदए, णपुंसगवेदए, कण्हलेसे जाप सुक्कलेसे, मिच्छादिट्ठी, सम्मदिट्ठी, मीसदिट्ठी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहा. रए, छउमत्थे, सजोगी, संसारत्थे, अमिद्धे) ना२४, तिय योनि, मनुष्य, ३५, પૃથ્વીકાયિક આદિ સ્થાવર, ત્રસકાયિક, ધકષાયથી લઈને લેભકષાયી પર નના, સ્ત્રીવેદક, પુરુષવેદક, નપુંસકઇક, કૃષ્ણસ્યાથી લઈને શુભેચ્છા
For Private and Personal Use Only
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६८६
__ अनुयोगद्वारसूत्र ननु नारकत्वादिभ्योऽन्येऽपि निद्रापञ्चक वेदनीयहास्यादयो बहवः कर्मोदयजन्याः पर्यायाः सन्ति, कथं तर्हि नारकत्वादयः कतिपय एवोदाहृताः ? इति चेदाहनारकत्वादयोऽत्रोपलक्षगत्वेनोदाहृताः, अत एभ्योऽन्येऽपि सम्भविनः पर्याया बोध्याः । ननु कर्मोदयजनितानां नारकत्वादीनां भवत्वत्रोपन्यासः, परन्तु लेश्यास्तु मिश्रदृष्टि अविरत, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थ, सयोगी संसारस्थ, असिद्ध । ये सब नैरयिक से लेकर असिद्ध पर्यन्त जीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव हैं। नैरयिक आदि शब्द भाव परक जानना चाहिये। नारकत्व आदि पर्यायें कर्मों के उदय से ही जीव में निष्पक्ष होती हैं इसलिये ये जीवोदय निष्पन्न हैं।
शंका:-नारकत्व आदि से भिन्न और भी निद्रापञ्चक-निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि वेदनीय और हास्यादि अनेक कर्मोदय जन्य पर्यायें हैं । तो फिर सूत्रकार ने यहां इन नारक आदि थोड़ी सी पर्यायों को ही उदाहृत क्यों किया है ?
उत्तरः-सूत्रकार ने जो यहां इन नारक आदि पर्यायों को उदाहृत किया है वह केवल उपलक्षण रूप से किया है । इसलिये इन से भी अतिरिक्त जितनी भी पर्यायें कर्मोदय जन्य हैं वे सब इनसे गृहीत हो जाती हैं।
शंका-कर्मोदय जनित इन नारक आदि पर्यायों का औदयिक भाव ५-तनी वेश्यावाणा, मिथ्याष्टि, सभ्यल्टि, भिट, असशी, अज्ञानी, माला२४, छमस्थ, सयासी, ससारस्थ मन मसि, मा अघा ७४यનિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવે છે. નરયિક આદિ શબ્દને ભાવપરક સમજવા જોઈએ નારકત્વ આદિ પર્યાય કર્મોના ઉદયથી જ જીવમાં નિષ્પન્ન (ઉત્પન) થાય છે, તેથી તેમને જીવદયનિષ્પન્ન કહેવામાં આવેલ છે.
શંકા-નારકત્વ આદિ ઉપર્યુક્ત પર્યાયે સિવાયની નિદ્રા પંચક (નિદ્રા, નિદ્રાનિદ્રા, પ્રચલા, પ્રચલપ્રચલા, ત્યાનગૃદ્ધિ), વેદનીય અને હાસ્યાદિક અનેક કર્મોદય જન્ય પર્યાયે છે. છતાં સૂત્રકારે તે પર્યાને ગણવવાને બદલે માત્ર નારકાદિ પર્યાયને જ કેમ ગણવેલ છે?
ઉત્તર-સૂત્રકારે તે અહીં ઉદાહરણ રૂપે નારકદિ પર્યાને જદયનિષ્પન કયિક ભાવ રૂપે ગણાવેલ છે. કેવળ ઉપલક્ષણ રૂપે જ આ પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું છે. પરંતુ તે સિવાયની કર્મોદય જન્ય જેટલા પર્યાયે છે. તેમને પણ અહી ગ્રહણ કરી શકાય છે.
શંકા-કર્મોદય જનિત આ નારક આદિ પર્યાને ઔદયિક ભાવમાં ભલે
For Private and Personal Use Only
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदर्यिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८७ कस्यचित् कर्मण उदये भवन्तीत्येतन्नप्रसिद्धम् , तत् कथमिह कृष्णलेश्यादयः पठयन्ते ? इति चेदाइ-लेश्यास्तु योगपरिणाम: त्रिविधोऽपि योगः कर्मोदयजन्य एव, ततो लेश्यानामपि योगकर्मोदयेत्युभयजन्यत्वं न विरुध्यते इति नास्ति छेश्यानाम पाठे कश्चिद् दोषः। केचित्त्वेवं मन्यन्ते-यथा कर्माष्टकोदयात् संसारस्थत्वमसिद्धत्वं च जायते, तथैव लेश्यावतमपि जायते, इति । प्रकृतमुप संहरन्नाह-स एष जीवोदयनिष्पन्न इति। अथ कोऽसौ अजीवोदयनिष्पन्नः ? में उपन्यास भले रहो, परन्तु लेश्याएँ औदयिक हैं यहबात संभवित नहीं होती, क्योंकि लेश्याएँ किसी कर्म के उदय से होती हों यह बात प्रसिद्ध नहीं है । अतः जब ऐसी बात है, तो फिर सूत्रकार ने औदायिक भाव में इनका पाठ क्यों रखा है ?
उत्तर:-लेश्याएँ योगों के परिणाम-प्रवृत्ति रूप हैं । और तीनों प्रकार का जो योग है वह शरीर नाम कर्मोदय जन्य है। इसलिए लेश्याओं को योग और शरीर नामकर्मोदय इन दोनों द्वारा जन्य के होने के कारण इनका पाठ-औदायिक भाव में रखना निर्दोष है। कोई २ इस विषय में ऐसा मानते हैं-कि जैसे आठ कर्मों के उदय से संसारस्थत्व और असिद्धत्व होता है, उसी प्रकार लेश्यावत्व भी होता है, (से तं जीवोदयनिष्फण्णे) इस प्रकार यह जीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव हैं । (से कितं अजीवोदय-निष्फण्णे) हे भदन्त ! अजीवोदयनिष्पन्न औदायिक भाव क्या है ? । સમાવિષ્ટ કરવામાં આવે, પરંતુ લેસ્યાઓ ઔદયિક હેવાનું સંભવી શકતું નથી, કારણ કે વેશ્યાઓને કર્મોદયજન્ય માનવામાં આવતી નથી છતાં પણ સૂત્રકારે શા કારણે ઔદયિક ભાવમાં તેને સમાવેશ કર્યો છે?
ઉત્તર-લેસ્થાએ યોગના પરિણામ-પ્રવૃત્તિ-રૂપ હોય છે અને ત્રણે પ્રકારના યોગ શરીરનામ કમજન્ય હોય છે. તેથી દેગ અને શરીરનામ કર્મોદય આ બને દ્વારા જન્ય હેવાને કારણે વેશ્યાઓને ઉપર્યુક્ત ઔદયિક ભાવમાં સમાવેશ કરવામાં કેઈ દેષ જણાતું નથી કઈ કઈ લેકે એવું માને છે કે-જેવી રીતે આઠ કર્મોના ઉદયથી સંસારીપણાની અને અસિદ્ધ(पनी प्रीति थाय छे, मे२८ प्रमाणे वेश्यायुतत्व ५५ प्रात थाय छे. (से तं जीवोदयनिष्फण्णे) मा प्रा२नु वाय निष्पन्न मोडयिभानु ५१३५. छे.
प्रश्न-(से किं त' अजीवोदयनिष्फण्णे१) मापन् ! सवय નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
For Private and Personal Use Only
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भनुयोगद्वारसूरे इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-अजीवोदयनिष्पन्न:-अजीवे उदयेन निष्पन्न औदयिक भावः अनेकविधः प्रज्ञतः। अनेकविधत्वमेवाह-तद्यथा-औदारिकंवा शरीरम्विशिष्टाकारपरिणतं तिर्यङ्मनुष्यदेवरूपमौदारिकं शरीरकम् । औंदारिकशरीरपयोगपरिणामितं वा द्रव्यम्-औदारिकशरीरस्य प्रयोगेण व्यापारेण परिणामितंनिष्पादितं वा द्रव्यम् । एतद्वयमपि अजीवे-पुद्गलद्रव्ये औदारिकशरीरनामकर्मोदयेन निष्पद्यते, अत एतद् द्वयम् अजीवोदयनिष्पन्न औदयिको भाव उच्यते। एवं वैकुर्विकादिचतुःशरीरविषयेऽपि बोध्यम् । औदारिकादि शरीरमयोगेण यत्
उत्तर-(अजीयोदयनिफण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) अजीव में उदय से निष्पन्न औदयिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(उरालियं वा सरीरं उरालियसरीरं पोगपरिणामियं वा दव्वं) विशिष्ट आकार परिणत हुआ तियश्चों और मनुष्यों का देहरूप औदारिक शरीर, अथवा औदारिक शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, ये दोनों भी अजीधपुद्गलद्रव्यमें औदारिक शरीर नामकर्म के उदय से निष्पन्न होते हैं। इसलिये ये दोनों अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव कहे जाते हैं। (वउव्वियं वा सरीरं, वेउव्वीयसरीरपभोगपरिणामियं वा दवं एवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं कम्मग सरीरं च भाणियव्वं) इसी प्रकार से वैक्रिय शरीर, अथवा वैक्रिय शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, आहारक शरीर अथवा आहारक शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, तेजस शरीर अथवा तेजस शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, कार्माण
उत्तर-(अजीबोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) Hi Guथा निपन्न भौयि भने प्रार। छो छ. (त'जहा) २म ...(उरालियं वा सरीरं
रालियसरीरं-पओगपरिणामियं वा व्व) विशिष्ट मामा परिणत यये તિય અને મનુષ્યના દેહરૂપ દારિક શરીર, અથવા દારિક શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાદિત દ્રવ્ય આ બને અજીવ–પુલ દ્રવ્યમાં ઔદારિક શરીર નામકર્મના ઉદયથી નિષ્પન્ન (ઉત્પન્ન) થાય છે. તેથી તે બન્નેને અજીવદય निपन्न मोहयिq ४ामां आवे छे. (वेउव्वियं वा सरीरं, वेउव्विय. मरीरपओगपरिणामियं वा दव्वं, एवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं, कम्मगं सरीरं च भाणियव्व) मे डारे वैठिय शरीर, मया वैय शरीरना •याપારથી નિષ્પાદિત દ્રવ્ય, આહારક શરીર અથવા આહારક શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાદિત દ્રવ્ય, તેજસ શરીર અથવા તેજસ શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાદિત
For Private and Personal Use Only
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदायिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८९ परिणम्यते द्रव्यं तत् स्वयमेव दर्शयति सूत्रकारः - 'पओगपरिणामिए' इत्यादि । प्रयोगपरिणामितो वर्णों गन्धो रसः स्पर्शः। अयं भाव - औदारिकादीनां पश्चा नामपि शरीराणां प्रयोगेण निष्पादितं वर्णगन्धरसस्पर्शस्वरूपं द्रव्यं बोध्यम् । एतद्भिन्नमानमाणादिकमपि यच्छरीरे उत्पद्यते तदप्युपलक्षणत्वाद् ग्राह्यमिति । ननु यथा नारकत्वादयः पर्याया जीवे भवन्तीति जीवोदय निष्पन्ने औदयिके पठ्यन्ते, एवं शरीराण्यपि जीवे एव भवन्ति, अत एतान्यपि जीवोदय निष्यन्ने औदयिक एव पठनीयानि, कथं पुनरजीवोदय निष्पन्ने औदयिके पठयन्ते ? इति
शरीर अथवा कार्माण शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य के विषय में भी जानना चाहिये । औदारिकादि शरीर के व्यापार से जो द्रव्य औदा रिकादि रूप परिणामित होता है उसे सूत्रकार स्वयं दिखलाते है- (पओ गपरिणामए वण्णे, गंधे, रसे, फासे, ) प्रयोग परिणामित वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श हैं। इसका तात्पर्य यह है कि औदारिक आदि पांचों भी शरीरों के व्यापार से जो द्रव्य निष्पादित होता है वह वर्ण, गंध, रस, और स्पर्शरूप है। इनसे भिन्न आन प्राण आदिक भी जो शरीर में उत्पन्न होते हैं वे भी उपलक्षण से यहां ग्रहण कर लेना चाहिये !
शंका- जैसे नारकत्व आदि पर्यायें जीव में होती हैं इस अभिप्राय से वे जीवोदय निष्पन्न औदधिक भाव में कही गई है, इसी प्रकार शरीर भी जीव में ही होते हैं-अतः वे भी जीवोदयनिष्पन्न औदयिक
દ્રવ્ય અને કાર્માણુ શરીર અથવા કાર્માણુ શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાતિ દ્રવ્યના વિષયમાં પણ સમજવું ઔદારિક આદિ શરીરના વ્યાપારથી જે દ્રવ્ય ઔઢારિક આદિ રૂપે પરિણત્રિત થાય છે, તેને સૂત્રકાર પાતે જ બતાવે છે– (quinqkonfag avdì, sà, cà, mà) unukqıla agʻ, n'u, zu અને સ્પર્શ છે. આ કથનને ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-ઔદારિક આદિ પાંચ શરીરના વ્યાપારથી જે દ્રવ્ય નિષ્પાદિંત થાય છે, તે વણુ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શરૂપ હોય છે. આ સિવાય જે આન, પ્રાણાકિની શરીરમાં ઉત્પત્તિ થાય છે તેમને પણ ઉપલક્ષણુની અપેક્ષાએ અહી ગ્રહણ કરવા જોઈએ.
શકા—જેવી રીતે નાકત્વ આદિ પર્યાયાના જીવમાં સદ્ભાવ હાય છે, અને તે કારણે તે તે પર્યાયને જીવેાદય નિષ્પન્ન ઔયિક ભાવમાં સમાવેશ કરવામાં આવ્યે છે, એજ પ્રમાણે શરીરના પશુ જીવમાં સદ્ભાવ હેાય છે, તેથી તેમના પશુ જીવાય નિષ્પન્ન ઔયિક ભાવેામાં સમાવેશ થવા જોઈતા હતા
अ० ८७
For Private and Personal Use Only
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे दाह-यधप्यौदारिकादिशरीराणि जीवे भवन्ति तथापि औदारिकादिशरीर नाम ककर्मोदयस्य मुख्यतया शरीरपुद्गलेष्वेव विपाको भवति, अत एतानि औदारि कादीनि पञ्चशरीराणि अजीवोदय निष्पन्ने औदायिक एव भावे पठ्यन्ते, अतं नास्ति कश्चिद् दोषः । इत्थमजीवोदनिष्पन्न औदयिकभावः प्ररूपित इति सूच यितुमाह-स एषोऽजीवोदयनिष्पन्न इति । उदयनिष्पन्नो भावः सकलो परूपित इति प्रचयितुमाह-स एष उदय निष्पन्न इति । एतावता औदायिको भाव प्ररूपित इति सूचयितुमाइ-स एष औदायिक इति । इत्थं द्विविधोऽप्यौदयिक मावः प्ररुपित इति विज्ञेयम् ॥मू० १५२॥ भाव में ही कहना चाहिये थे, फिर क्यों-उन्हे अजीबोदयनिष्पन्न औद यिक भाव में रखा है ?
उत्तर-यद्यपि औदारिक आदि शरीर जीव में होते हैं, तो भी औदारिक आदि शरीर नाम कर्मका विपाकमुख्यतया शरीर पुद्गलों ही होता है, इसलिये इन औदारिक आदि पांच शरीरों को अजीबोदर निष्पन्न औदारिक भाव में ही रखा है। इसलिये इसमें कोई दोष नहीं है। (से तं अजीवोदयनिष्कणे) इस प्रकार से यह अजीवोदय निष्पक औदयिक भाव का कथन है । (से तं उदयनिष्फण्णे, से तं उदहए एतावता औदयिक भाव प्ररूपित हो चुका । और इस प्ररूपणा से दोनो प्रकार का भी औदयिक भाव कथित हो चुका ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस मूत्र द्वारा औदयिक भाव का कथन किय है। इसमें उन्होंने यह समझाया है कि अपविध कर्मों का जो उदय है છતાં અહીં તેને અજીવોદય નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ રૂપે શા કારણે ગણાવવામાં આવેલ છે?
ઉત્તર-જે કે ઔદારિક આદિ શરીરને જીવમાં સદ્ભાવ હોય છે, છતાં પણ દારિક આદિ શરીર નામકર્મને વિપક મુખ્યત્વે શરીર પુદ્રલમાં જ થાય છે. તેથી હારિક આદિ પાંચ શરીરને અદય નિષ્પન્ન
દયિક ભાવ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. તેથી તે પ્રકારનું કથન નિર્દોષ જ Brel ४य. (से तं अर्ज वोदयनिष्फण्णे) मा ५२- माय निपन्न मोहयि सातुं १३५ सम (से त उदयनिष्फण्णे, से त' उदइए) मा प्रारे
દયિક ભાવની પ્રરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે આ પ્રરૂપણું દ્વારા બને પ્રકારના દયિક ભાવની પ્રરૂપણા સમાપ્ત થઈ જાય છે.
ભાવાર્થસૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા દયિક ભાવનું કથન કર્યું છે. આ સૂત્ર દ્વારા તેમણે એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે આ પ્રકારનાં કર્મોને
For Private and Personal Use Only
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६९१ एक तो वह औधिक भाव है, दूसरा अष्टविध कर्मों के उदय से जो भाव उत्पन्न होता है वह औदयिक भाव है। यह कर्मोदय निष्पन्न औदायिक भाव जीवोदय निष्पन्न और अजीवोदय निष्पन्न के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। कर्मों के उदय से जो भाव जीव में उदित होता है वह जीवोदय निष्पन्न और जो अजीव में उदित होता है वह अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव हैं। वह जीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव में चारों गतियां चारों कषाय, तीनों वेद मिथ्या दर्शन अज्ञान छहों लेश्याएँ असंयम, असिद्धभाव आदि परिणमित किये गये हैं। क्योंकि ये सब जीव में ही विवक्षित अपने कर्म के उदय से निष्पन्न होते हैं-जैसे मनुष्यगति नाम के उदय से मनुष्य गति, निर्यश्चगतिनामकर्म के उदय से तिर्यश्चगति देवगति नामकर्म के उदय से देवगति और नरकगति नामकर्म उदय से नरक गति उत्पन्न होती है। इसी प्रकार से चारों कषाय घेदनीय के उदय से होता है। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है જે ઉદય છે તે ઔદયિક ભાવ રૂપ છે અને બીજું એ પણ પ્રકટ કર્યું છે કે આઠ પ્રકારના કર્મોના ઉદયથી જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ દયિક ભાવ રૂપ છે તે કર્મોદય નિષ્પન દયિક ભાવના નીચે પ્રમાણે બે ભેદ Bा -(१) .४५ नि०५-न अने (२) मोहय नि०५-न. ४ीना . યથી જે ભાવ જીવમાં ઉદિત થાય છે તેને જીવે દયનિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ કહે છે. અને કર્મોના ઉદયથી જે ભાવ અજીમાં ઉત્પન્ન (ઉદિત) થાય છે, તેને અજીવદય નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ કહે છે. જયનિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવમાં ચાર ગતિએ, ચારે કષાયે, ત્રણે વેદ, મિયાદશન અજ્ઞાન, છએ લેશ્યાઓ, અસંયમ, અસિદ્ધભાવ આદિને ગણવામાં આવેલ છે, કારણ કે એ બધાં ભાવેને જીવમાં જ સદ્ભાવ હોય છે. અને જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોના ઉદયથી આ ભાવે નિધન થતા હોય છે જેમ કે મનુષ્યગતિ નામકર્મના ઉદયથી મનુષ્યગતિ, તિર્યંચગતિ નામ કર્મના ઉદયથી તિર્યંચગતિ, દેવગતિ નામકર્મના ઉદયથી દેવ ગતિ અને નરકગતિ નામકર્મના ઉદયથી નરકગતિ ઉત્પન્ન થાય છે. ચારે કષાયે ની ઉત્પત્તિ પણ કષાયદનીયના ઉદયથી થાય છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-મોહનીય કર્મના બે પ્રકાર છે-ચારિત્રમોહનીય અને દર્શનમોહનીય દર્શનમોહનીયના નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ પડે
For Private and Personal Use Only
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे दर्शन मोहनीय के, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तदुभय-सम्यक्त्व मिथ्या त्व ये तीन भेद हैं । चारित्र मोहनीय के कषाय वेदनीय और नो कषाय वेदनीय ये दो भेद हैं । इनमें जो कषाय वेदनीय है, उसके उदय होने पर क्रोध मान, मोया और लोभ ये चारों कषायें उत्पन्न होते है।
और नोकषाय चारित्र मोहनीय के उदय होने पर तीन वेद निष्पन्न होते हैं । मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से मिथ्या दर्शन होता है। किसी मनावरण कर्म के उदय से अज्ञान भी होता है । लेश्याएँ योग परिगाम रूप हैं। इसलिये ये योग जनक शरीर नामकर्म उदय के फल है। चारित्रमोहनीय के सर्वघाति स्पर्धकों (कर्मों के अंश ) के उदय से असंयत भाव होता है। किसी भी कर्म के उदय से असिद्ध भाव होता है इस प्रकार जो भी जीव में कर्मोदय से पर्याय निष्पन्न होती है वह सब औदयिक भाव है ऐसा जानना चाहिए । अजीव में उदय से निष्पन्न जो भाव है वह अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव है। यह अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है। जैसे औदारिक आदि शरीर अथवा औदारिक शरीर आदि के व्यापार से निष्पादित द्रव्य । ये शरीरादि अजीवोद्य निष्पन्न औदછે-સમ્યકત્વ, મિથ્યાત્વ અને તદુભય (સમ્યકત્વ મિથ્યાત્વ) ચારિત્ર હનીयना नीय प्रमाणे मे ले ५७ छ-(१) पायवेहनीय भने (२) नायवे. દનીય જ્યારે કષાયવેદનીયને ઉદય થાય છે ત્યારે ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ રૂપ ચાર કષાયે ઉત્પન્ન થાય છે અને કષાયચારિત્ર મોહનીયને દય થાય ત્યારે ત્રણ વેદ (સ્ત્રી, પુરુષ અને નપુંસક રૂપ ત્રણ વેદ) નિષ્પન્ન થાય છે મિથ્યાત્વ મોહનીયના ઉદયથી મિથ્યાદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે. જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉદયથી અજ્ઞાનભાવ ઉત્પન્ન થાય છે વેશ્યાઓ
ગપરિણામ રૂપ ગણાય છે તેથી ગજનક શરીર-નામકર્મના ઉદયના ફલરૂપ તેમને ગણી શકાય છે. ચારિત્રમેહનીયના સર્વઘાતિ સ્પર્ધ્વ કેન (કર્મોના
ના) ઉદયથી અસંયત ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે કઈ પણ કર્મના ઉદયથી અસિદ્ધભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે કર્મોદયને કારણે જીવમાં જે પર્યા ઉત્પન્ન થાય છે તે બધી પર્યાને દયિક ભાવ રૂપ સમજવી જોઈએ, 'અજીવમાં કર્મોદયને લીધે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે ભાવને અજીહિય નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ કહે છે. આ અદય નિષ્પન્ન ઔદયિકભાવ અનેક પ્રકારને બતાવ્યું છે જેમ કે હારિક આદિ શરીરે અથવા અંદારિક આદિ શરીરના વ્યાપારથી નિપાદિત દ્રવ્ય આ શરીરાદિને અદય
For Private and Personal Use Only
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५३ औपशमिकभावनिरूपणम् अथ औपशमिकं भावं निर्दिशति
मूलम्-से किं तं उवसमिए ? उपसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसमे य उवसमनिप्फण्णे य। से किं तं उवसमे ? उवसमे-मोहणिजस्स कम्मस्स उवसमेणं । से तं उवसमे। से किं तं उसमनिप्फण्णे? उवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसंतकोहे जाव उवसंतलोहे उवसंतपेजे उवसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिजे उवसंतमोहणिज उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिया चरित्तलद्धी उवसंतकसाय छउमत्थवीयरागे। से तं उवसमनिप्फण्णे । से तं उवसमिए ॥सू०१५३॥
छाया-अथ कोऽसौ औपशमिकः? औपशमिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उपशमश्च उपशमनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसावुपशमा-मोहनीयस्य कर्मण उपशमः खलु । सोऽसावुपशमः । अथ कोऽसावुपशमनिष्पन्नः ? उपशमनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उपशान्त-क्रोधो यावदुपशान्तलोभ, उपशान्तप्रेम उपशान्तद्वेष उपशान्तदर्शनमोहनीय उपशान्तमोहनीयः औपशमिकी सम्यक्त्तवलब्धिः औपशमिकी चारित्रलब्धिः उपशान्तकषायछमस्थवीतरागः। स एष उपशमनिष्पन्नः। स एष औपशमिकः ॥सू० १५३॥
टीका-से कि तं' इत्यादि। यिक भाव इसलिये कहे गये हैं कि औदारिक आदि शरीर नाम कर्म का विपाक मुख्यतया इन शरीर पुद्गलों में ही होता है । इसीलिये इन्हें पुद्गल विपाकी प्रकृतियों में परिणमित किया गया है। ॥ सू०१५२ ॥
अब सूत्रकार औपशमिक भाव का कथन करते हैं... "से किं तं उवसमिए" इत्यादि। નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ રૂપે પ્રકટ કરવાનું કારણ એ છે કે દારિક આદિ શરીર નામકર્મને વિપાક મુખ્યત્વે આ શરીરપુલમાં જ થાય છે. તેથી તેમને પુલવિપાકી પ્રકૃતિમાં પરિણમિત કરાયેલ છે પસૂ૦૧૫રા
હવે સૂત્રકાર પમિક ભાવનું પ્રતિપાદન કરે છે–" से कि तं उपसमिए" त्याह
For Private and Personal Use Only
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૬૪
अनुयोगद्वारसूत्रे
शिष्यः पृच्छति - अथ कोऽसौ औपशमिकः ? इति । उत्तरयति - औषशमिकःउपशोपशमनिष्पन्नभेदेन द्विविधः प्रज्ञप्तः । तत्र - मोहनीयस्य कर्मण उपशम एव उपशम इत्युच्यते । 'णं' इति वाक्यालङ्कारे । अर्थ मनो भेदोऽष्टाविंशतिविधस्य मोहनीयस्यैव कर्मण उपशमश्रेण्यां द्रष्टव्यः, 'मोहस्सेवोवसमो' (मोहस्यैवोपशमः) इति वचनात् । अथ द्वितीयं भेदमाह-अप कोऽसौ उपशमनिष्पन्नः ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-उपशमनिष्पन्न उपशान्तको वाद्युपशान्तकषायछद्मस्थवीतरागान्तो
हे भदन्त ! (से किं तं उवसमिए ?) वह औपशमिकभाव क्या है ? (उसमिए दुविहे पण ते).
उत्तर- औपशमिक भाव दो प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) उसके वे दो प्रकार ये हैं - ( उवसमे य उवसमनिष्कपणे य) एक उपशम और दूसरा उपशम निष्पन्न है । (से किं तं उवसमे ?) हे भदन्त ! वह उपशम क्या है ?
उत्तर- ( उसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमेणं) अट्ठाईस प्रकार के समस्त मोहनीय कर्मका जो उपशम है वही उपशम है।
यह उपशन ८ वे ९ वें १० वें ११ वें गुणस्थान रूप उपशमश्रेणी में होता है । (से तं उवसमे ) इस प्रकार यह उपशम है । (से किं तं उवसमनिष्oणे ?) हे भदन्त ! वह उपशम निष्पन्न क्या है ?
उत्तर- ( उपसमनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णसे) उपशम निष्पन्न
शब्दार्थ - (से किं तं उत्रसमिए १) हे भगवन् । ते औपशभिम्भावनु સ્વરૂપ કેવું કહ્યું ?
उत्तर - ( समिए दुविहे पण्णत्ते) मौशम भाव मे प्राश्नो उद्योछे (तंजा) ते प्रामा प्रभा छे - ( उसमे य उबसम निष्कण्णे य) (1) उपभ भने (२) उपशमनिष्यन्न प्रश्न - (से कि त उसमे ? ) डे अगवन् ! ते उपशमनुं स्त्र३५ ठेवु छे ? હૈ उत्तर- (उसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उत्रसमेणं) २८ प्रारना સમસ્ત માહનીય કમના ઉપશમને જ અહી' ઉપશમ ભાવ કહેવામાં આવ્યે છે. આડ, નવ, દસ અને અગિયારમાં ગુણસ્થાન રૂપ ઉપશમ શ્રેણીમાં આ ઉપशभ लवना सद्दूभाव र छे (सेत उसमे ) या प्रास्तु' उपशमनु' स्व३य होय छे. प्रश्न - (से किं तं उवसम निष्कण्णे १) डे लगवन् ! भोपशमिड लावना ખીજા ભેક રૂપ ઉપશમ નિષ્પન્નનું સ્વરૂપ કેવું उत्तर- ( उवसमनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) उपशम निष्यन्न सोपशमिठ
છે ?
For Private and Personal Use Only
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५३ औपशमिकभावनिरूपणम् बोध्यः। अत्रेदं बोध्यम्-मोहनीयस्योपशमेन दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चोपशान्तं भवति, एतद्वये उपशान्ते क्रोधादय उपशान्ता भवन्तीति । स एषोऽनन्त रोक्तो द्वितीयो भेदो बोध्यः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष औपशमिक इति । इत्थं निर्दिष्टो द्विविधोऽप्यौपशमिको भावः ॥मू० १५३॥
औपशमिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे-(उवसंत कोहे) क्रोध का उपशान्त होना (जाव उवसंतलोहे) यावत् लोभ का उपशान्त होना, (उवसंतपेमे) प्रेम-राग-का उपशान्त होना (उवसंत दोसे) द्वेष का उपशान्त होना (उवसंत देसणमोहणिज्जे) दर्शनमोहनीय का उपशांत होना (उवसंतमोहणिज्जे) मोहनीय कर्म का उपशान्त होना (उपसमिया सम्मत्तलद्धी) औपशमिकी सम्यक्त्व लब्धि, (उवसमिया चरित्तलद्धी) औपशमिकी चारित्रलब्धि (उवसंत कसाय छ उमत्थवीयरागे) उपशान्त कषाय, छद्मस्थवीत राग (से तं उपसमनिप्फण्णे) इस प्रकार यह उपशम निष्पन्न औपशमिक भाव हैं। (सेतं उवसमिए) इस प्रकार दोनों प्रकार का औपशमिक निर्दिष्ट हो चुका।
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने औपमिक भाव का स्वरूप दिखलाया है। उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उपशम से होनेवाला औपशमिक भाव दो प्रकार का होता है । एक प्रकार का औपशमिक भाव भने ४२॥ ४ा छे. (त'जहा) रेभ -(उत्रसंते कोहे जाव उवसंते लोहे) डोष पन्त थी, भानशान्त थयु, मायापशान्त थवी, म अशान्त था, (उवसंत पेमे) प्रेम (1) Said 4, (उवसंतदासे) देष SAld थवे, (उवसंत देसण मोहणिज्जे) शनमा नीयनु शान्त , (उवसंतमोहणिज्जे) माखनीय भनु शन्त थयु, (उपसमिया सम्मत्तलद्धी) भोपशमिडी सभ्यतय, (उवसमिया चरित्तलद्धी) औपशभिडी यात्रिय (उवसंत कसाय छउमस्थवीयरागे) शान्त पाय, अस्थवीत, (से तं उपसमनिष्फण्णे) पत्यालि३५ मा ५शमनियन मोपशम भाव छ. ( से तं उवसमिए) मा प्रा२नु भन्ने प्रा२ना मो५भि भावोनु २१३५ समन::
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે પથમિક ભાવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યા છે. સૂત્રકાર ઉપશમ જનિત ઔપથમિક ભાવના બે પ્રકારો બતાવ્યા છે. એક પ્રકારને ઔપશમિક ભાવ એ હોય છે કે જે માત્ર મોહનીયકમના
For Private and Personal Use Only
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे. भाष वह है जो केवल मोहनीय कर्म के ही उपशम स्वरूप होता है। तात्पर्य इस कथन का यह है कि कर्मों की दस अवस्थाओं में एक उपशान्त अवस्थाभी है। जिन कर्म परमाणुओं की उदीरणा संभव नहीं अर्थात् जो उदोरणा के अयोग्य होते हैं वे उपशान्त कहलाते हैं। यह अवस्था आठों कर्मों में सम्भवित है। प्रकृन में इस उपशान्त अवस्था से प्रयोजन नहीं है। किन्तु अधः करण आदि परिणामों से जो मोहनीय कर्म का उपशम होता है प्रकृत में उसी से प्रयोजन है । इसीलिये "मोहनीयस्यैवोपशमः" ऐसा पाठ यहां जानना चाहिये क्यों कि अन्यत्र ऐसा ही पाठ है । मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय के ३ भेदों और चरित्र मोहनीय ने २५ भेदों को लेकर २८ प्रकार का है, इस सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम, उपशम श्रेणी में होता है, इसलिये मोहनीय कर्म का उपशम रूप औपशमिक भाव उपश्रेणी में होना कहा गया है। दसरा-उपशत निष्पन औपशामिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है सो उसका तात्पर्य यह है कि मोहनीय के उपशम से दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ये दोनों उपशान्त हो जाते हैं । इनके उपशान्त होने पर क्रोधादिक भी उपशान्त हो जाते हैं इस प्रकार यह औपमिक भाव का विवेचन है । सू०१५३॥ ઉપશમ રૂપ હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે- કમેની દસ અવસ્થા. એમાંની એક ઉપશમ અવસ્થા પણ છે. જે કર્મ પરમાણુઓની ઉદીરણ શક્ય હોતી નથી, એટલે કે જે કર્મપરમાણુઓ ઉદીરણને માટે અયોગ્ય હોય છે, તેમને ઉપશાન્ત કહે છે આ અવસ્થાને આઠે પ્રકારનાં કામમાં સંભવ હોય छ. प्रतिमा (मह1) शान्त अवस्थानु प्रयोग नथी, परन्तु अध:કરણ આદિ પરિણામોથી જે મેહનીય કર્મને ઉપશમ થાય છે, તેનું જ सही प्रयासन छे. तथा “मोहनीयस्यैवोपशमः " मा रन। ५४ मही સમજવું જોઈએ કારણ કે અન્યત્ર એ જ પાઠ આવે છે.
દર્શન મોહિનીયકર્મના ત્રણ ભેદે અને ચારિત્રમેહનીયના પચીશ ભેદે મળીને મોહનીય કર્મના કુલ ૨૮ પ્રકાર છે આ સંપૂર્ણ મોહનીયકમને ઉપશમ, ઉપશમ શ્રેણીમાં થાય છે તેથી મોહનીય કર્મના ઉપશમ રૂ૫ ઔપશમિક ભાવ ઉપશમ શ્રેણીમાં હેવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. બીજા પ્રકારને જે ઉપશમનિષ્પન્ન
પશમિક ભાવ છે, તે અનેક પ્રકારને કહ્યો છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-મોહનીયના ઉપશમથી દર્શન મેહનીય અને ચારિત્રમોહનીય, એ બનને ઉપશાન્ત થઈ જાય છે તેઓ ઉપશાન્ત થઈ જવાથી ક્રોધાદિક પણ ઉપશાન્ત થઈ જાય છે આ પ્રકારનું પથમિક ભાવના સ્વરૂપનું વિવેચન मही ४२पामा मा०यु छे. ॥२०१५॥
For Private and Personal Use Only
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनामनिरूपणम्
अथ क्षायिकं नाम निरूपयति___ मूलम्-से किं तं खइए? खइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाखइए य खयनिप्फण्णे य। से किं तं खइए ? खइए-अटण्हं कम्मपयडीणं खए णं से तं खइए। से किं तं खयनिष्फण्णे ? खयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, खीण आभिणिबोहियणाणावरणे, खीण सुयणाणावरणे, खीण ओहिणाणावरणे, खीणमणपजवणाणावरणे, खीणकेवलणाणावरणे, अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे, णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, केवलदंसी, सब्वदंसी, खीणनिदे, खीणनिहानिद्दे, खीणपयले, खीणपयलापयले, खीण थीणगिद्धी, खीणचक्खुदंसणावरणे, खीणअचक्खुदसणावरणे खीणओहिदसणावरणे, अणावरणे, निरावरणे, वीणावरणे, दरितणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, खीणसायावेयणिजे खीणअसायावेयणिजे, अवेयणे, निव्वेयणे खीणवेयणे, सुभासुभवेयणिज्जकम्मविप्पमुक्के, खीणकोहे, जाव खीणलोहे, खीणपेजे, खीणदोसे, खीणदंसणमोहणिजे, खीणचरित्तमोहणिजे, अमोहे, निम्मोहे, खीणमोहे, मोहणिजकम्मविप्पमुक्के, खीणणेरइयाउए, खीणतिरिक्खजोणिआउए, खीणमणुस्साउए, खीणदेवाउए, अणाउए, निराउए, खीणाउए, आउकम्मविप्पमुक्के, गइजाइसरीरंगोवंगबंधणसंघायणसंघयणेसंठाण अणेगबोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के, खीणसुभणामे, खीण असुभणामे, अणामे निण्णामे, खीणनामे, सुभासुभ
म ८८
For Private and Personal Use Only
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- अनुयोगद्वारसूत्रे णामकम्मविप्पमुक्के, खीणउच्चागोए, खीणणीयागोए, अगोए, निग्गोए, खीणगोए, उच्चणीयगोत्तकम्मविप्पमुक्के, खीणदाणं. तराए, खीणलाभंतराए, खीणभोगतराए, खीणउवभोगंतराए, खीणवीरियंतराए, अणंतराए, णिरंतराए, खीणंतराए, अंतरायकम्मविप्पमुक्के, सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, परिणिव्वुए, अंतगडे, सव्वदुक्खप्पहीणे। से तं खयनिष्फण्णे। से तं खइए ॥सू०१५४॥
छाया-अथ कोऽसौ क्षायिकः ? क्षायिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-क्षायिकंश्च क्षयनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसौ क्षायिकः ? क्षायिक:-अष्टानां कर्मप्रकृतीनां क्षयः खलु । सोऽसौ क्षायिकः। अथ कोऽसौ क्षयनिष्पन्न: ? क्षयनिष्पन्नोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अरहा जिनः केवली क्षीणाभिनिवो. पिंकज्ञानावरणः क्षीणश्रुतज्ञानावरणः क्षीणावधिज्ञानावरणः क्षीणमनःपर्यवज्ञानावरणः क्षीणकेवलज्ञानावरणः अनावरणः निरावरणः क्षीणावरणो ज्ञानावरणीयकर्मविमुक्तः केवलदर्शी सर्वदर्शी, क्षोणनिद्रः क्षीणनिद्रानिद्रः क्षीणप्रचलः क्षीणप्रचला प्रचलः क्षीणस्त्यानगृद्धिः, क्षीणचक्षुदर्शनावरणः क्षीणाचक्षुर्दर्शनावरणः क्षीणावधिदर्शनावरणः क्षीणकेवलदर्शनावरणः अनावरणः निरावरणः क्षीणावरणः दर्शनावरजीयकर्मविषमुक्तः । क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयः अवेदनो निवेदनः क्षीणवेदनः शुभाशुभवेदनीयकर्मविप्रमुक्तः। क्षीणक्रोधो यावत् क्षीणलोभः क्षीणप्रेमा क्षीणद्वेषः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्रमोहनीयः अमोहो निर्मोहः क्षीणमोहो मोहनीयकर्मविषमुक्तः। क्षीण नैरयिकायुष्कः क्षीणतिर्यग्योनिकायुष्का क्षीणमनुष्या. युष्का क्षीणदेवायुष्कः अनायुष्को निरायुष्कः क्षीणायुष्कः आयुकर्मविप्रमुक्तो, गति जाविशरीराङ्गोपाङ्गबन्धनसंघातन संहननसंस्थानाने शरीरन्दसंघातविभवमुक्तःक्षी
शुभनामा क्षीणाशुभनामा अनामा निर्नामाक्षीणनामा शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्तः। शीणोगोत्रः क्षोशनीचगोत्रः अगोत्र निर्गोत्र: उच्चनीचगोत्रकर्मविप्रमुक्तः । क्षीणदानान्तरायः क्षीणलाभान्तरायः क्षीणभोगान्तरायः क्षीणवीर्यान्तरायः अनन्तरायो निरन्तरायः क्षीणान्तरायः अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः। सिद्धो बुद्धो मुक्तः परिनिर्वृत्तः अन्ततः सर्वदुःखमहीणः। सोऽसौ क्षयनिष्पन्नः। मोऽसौ क्षायिकः॥सू०१५४॥
TOS
For Private and Personal Use Only
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
टीका -' से किं तं ' इत्यादि
or hisar क्षायिकः ? इति शिष्य मश्नः । उत्तरयति - क्षायिकः क्षय एव, क्षग्रेज निष्पन्नो वा क्षायिकः । स द्विविधः प्रज्ञप्तः । द्वैविध्यमेवाह - तद्यथा- क्षायिक क्षयनिष्पन्नव । तत्र - क्षायिकः खलु अष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयाद्यष्ट विधा कर्मप्रकृतीनां क्षयः । क्षयनिष्पन्नस्तु अनेकविधः प्रज्ञप्तः । अनेकविधत्वमाह अब सूत्रकार क्षायिक भाव का निरूपण करते हैं“से किं तं खइए " इत्यादि
शब्दार्थ - (से किं तं खइए ?) हे भदन्त ! वह क्षायिक क्या है ? उत्तर- (खइए दुविहे पण्णत्ते) क्षायिक दो प्रकार का कहा गया है।(तंजा) (जैसे - खइए य खयनिष्फण्णे य) एक क्षय रूप क्षायिक और दूसरा क्षय निष्पन्न। (से किं तं खइए) हे भदन्त ! वह क्षायिक क्या है ( अट्टहं कम्मपयडीणं खएणं) आठ कर्म प्रकृतियों का जो क्षय है वही क्षायिक है । (सेतं खइए) इस प्रकार वह यह क्षायिक है (से किं तं खयमि फण्णे) हे भदन्त ! वह क्षयनिष्पन्न क्षायिक क्या है ? (खयनिष्कपणे अवि पण्णत्ते).
उत्तर- क्षय निष्पन्न क्षायिक भाव अनेक प्रकार का है। (तंजा) जैसे- (उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली) उत्पन्न ज्ञान दर्शन को
હવે સૂત્રકાર ક્ષાયિક ભાવનું નિરૂપણ કરે છે " से किं तं' खइए " इत्याहि
शब्दार्थ - (से कि त
સ્વરૂપ કેવું છે ?
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
खइए ?) हे भगवन् ! पूर्व प्रान्त क्षायिक लावूनु
उत्तर- (खइए दुबिहे पण ते क्षार्थि भाव से प्रहारनो ह्यो छे. (तजा) ते मे अमरे। नीचे प्रमा छे - ( खइर य खयनिष्फण्णे य) (१) क्षय ३५ क्षायिक मने (२) क्षयनिष्यत्न.
प्रश्न - (से कि त खइए ? ) है लगइन् ! ते क्षायिक लावनु स्व३५ ठेवु ? उत्तर-(अट्ठण्हं कम्मपयडीणं खरणं) मा उर्भ प्रमृतियांना क्षयनु' नाम क्षाथि छे. (सेत खइए) क्षायिउनु मा प्रहार स्व३५ छे.
प्रश्न - (से कि तं खयनित्कण्णे ?) हे भगवन् ! क्षायिङ लावना जील से રૂપ ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાયિક ભાવનુ સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर-(खयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) क्षयनिष्पन्न क्षायिभाव भने अम २. छे. (तंजाम है... ( उपण्णणाणदंसणबरे अरहा जिणे केवली) उत्पन्न જ્ઞાનદ નષારી અંત જિન કૈવલી ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र तद्यथा-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः-उत्पन्नयो:-अपनीतमलादर्शमण्डलमभावत् सकल बदावरणापगमादभिव्यक्तयोः ज्ञानदर्शनयोधरः धारकः, अरहा:-नास्ति रहा रहस्यं यस्यासौ अरहा:-अविद्यमानरहस्यः, नास्य किंचिदपि गोप्यमस्तीति भावः जिन:-आवरणशत्रुजेतृत्वात् , केवली-केवलं-संपूर्ण ज्ञानमस्यास्तीति केवलीकेवलज्ञानवान्, क्षीणाभिनिवोधिकज्ञानावरणः-क्षीणमामिनिबोधिकज्ञानावर धारण करनेवाले अहंत जिन केवली-जिस प्रकार-मल के अपगम से आदर्श मण्डल की प्रभा में पदार्थ प्रतिबिम्बित होने लगते हैं, उस मकार-मूलरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के विनाश से उत्पक निर्मल अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन में त्रिकालवर्ति समस्त ज्ञेय झलकने लगते हैं ऐसे ज्ञान और दर्शन को जो धारण करते हैं तथा जो भरहा-जिनके लिये-कोई भी जगत का पदार्थ गोप्य नहीं हैं। आवरण रूप शत्रु के विजेता होने से जो जिन हैं, तथा जिनका ज्ञान संपूर्ण है, इसलिये जो केवली हैं, यहां केवल शब्द का अर्थ सम्पूर्ण ज्ञान है। इस सम्पूर्ण ज्ञान रूप केवल ज्ञान से जो युक्त हैं ऐसे वे उत्पन्न ज्ञानदर्शन को धारण करनेवाले अरहा जिन केवली क्षयनिष्पन्न क्षायिक भावरूप हैं। . अब सूत्रकार प्रत्येक कर्म के नष्ट होने से जो २ नाम होते हैं उनका यहाँ से कथन करते हैं-यह कथन सिद्धपरमेष्ठी की अपेक्षा से जानना चाहियेक्यों कि वे ही प्रत्येक कर्म के क्षय से क्षायिकभाव रूप निष्पन्न होते हैं।રીતે અરીસા ઉપરને મેલ દૂર કરી નાખવામાં આવે તે અરીસામાં પદાર્થનું
પણ પ્રતિબિંબ દેખાય છે, એ જ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણ અને દર્શનાવરણ રૂ૫ કર્મ મળ દૂર થઈ જવાને લીધે ઉત્પન્ન થયેલા નિર્મળ, અનંત જ્ઞાન અને અનત દર્શનમાં ત્રિકાળવતી સમસ્ત રેય પદાર્થો સ્પષ્ટ રૂપે દેખવા માંડે છે. એવા જ્ઞાન અને દર્શનના ધારક અહંત જિન કેવલી ક્ષય નિષ્પન્ન ક્ષાયિક ભાવ રૂ૫ છે. “અરહા –જેમને માટે જગતને કોઈ પણ પદાર્થ બેગ (અદધ્ય) નથી અથવા જેમણે કામ, ક્રોધાદિ શત્રુઓને નાશ કરી નાખે છે એવાં તીર્થકર ભગવાને અરહા અથવા અહત કહે છે. કમરિ રૂપ શત્રુઓ પર વિજય મેળવનાર હોવાથી તેમને જિન કહ્યા છે. તેમનું જ્ઞાન સંપૂર્ણ હોવાથી તેમને કેવલી કહ્યા છે કેવલજ્ઞાન એટલે સંપૂર્ણજ્ઞાન.
હવે સૂત્રકાર પ્રત્યેક કર્મને નાશ થવાથી જે જે નામ થાય છે, તેમનું નિરૂપણ કરે છે આ કથન સિદ્ધ પરમાત્માની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે એમ સમજવું, કારણ કે તેમના પ્રત્યેક કમને ક્ષય થવાને કારણે તેઓ જ હાયિક ભાવ રૂપે નિષ્પન્ન થાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
७१ यस्य स तथा, एवं-क्षीणश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानावरणरूपाणि चत्वारि पदानि बोध्यानि । तथा-अनावरण:-अविधमानमावरणं यस्य त तथा, विमलप्रकाशवस्वात् निमलाकाशस्थितचन्द्रवत् । निरावरणः-निर्गतम् आवरणं यस्य स तथा समस्तावरण
ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का है
१ मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण जीव जब अहत जिन केवली बनता है, तब उसका सम्पूर्ण ज्ञानावरणकर्म नष्ट हो जाता है-इसलिये (खीण आभिणियोहियणाणावरणे) क्षीण हो गया है आभिनिबोधिक ज्ञानावरण जिसका (खीणसुयणाणावरणे) क्षीण हो गया है श्रुतज्ञानाधरण कम जिसका (खीणओहियणाणावरणे) क्षीण हो गया है अवधि ज्ञानावरण कर्म जिसका (खीण मणपजवणाणावरणे) क्षीण हो गया है मनःपर्यवज्ञानावरण जिसका, (खीणकेवलणाणावरणे) क्षीण हो गया है केवलज्ञानावरण जिसका, ऐसा होने के कारण क्षीणाभिनिषोधिक ज्ञानावरण, क्षीण तज्ञानावरण, क्षीणावधिज्ञानावरण, क्षीण मनःपर्यव. ज्ञानावरण, क्षीण केवलज्ञानावरण ये भिन्न २ नाम समस्त ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय हो जाने की अपेक्षा से निष्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार से (अणावरणे निरावरणे, खीणावरणे, णाणावरणिनकम्मविप्पमुके) जय समस्त आवरण कर्म नष्ट हो जाता है तब वह आत्मा - જ્ઞાનાવરણ કર્મ પાંચ પ્રકારનાં છે
(१) भतिज्ञानावर, (२) श्रुतज्ञाना१२६, (3) सपधिज्ञाना, (४) भना५वज्ञाना१२ भने (५) विज्ञानावर,
જીવ જ્યારે અહત જિન કેવલી બને છે, ત્યારે તેના સમસ્ત જ્ઞાનાવ२५ नो नाश 48 Mय छ, तेथी ते (खीणं आभिणिबोहिय णाणापरणे) क्षी मानिनिमाधि ज्ञानावरपागा, (खीण सुयणाणावरणे) क्षी अवज्ञाना१२ भामा, (खीण ओहियणःणावरणे) aley अधिशाना१२५ ४म पाणा, (खीण मणपज्जवणाणावरणे) क्षी मनापयशाना१२५ ४भवाणी भने (खीण केवलणाणावरणे) क्षीवनावर पाणी 25 तय छ त १२०) समस्त જ્ઞાનાવરણીય કર્મોને ક્ષય થઈ જવાને કારણે તેના આ પાંચ નામે નિષ્પન્ન थाय छे. (१) क्षीनिनिमाधिज्ञानावर, (२) क्षीणतज्ञानावर, (3) ક્ષણાવધિજ્ઞાનાવરણ, (૪) ક્ષીણ મન ૫ર્યવજ્ઞાનાવરણ અને (૫) ક્ષીણ કેવલજ્ઞા ना१२५ मे प्रमाणे (अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे, णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के) यारे समस्त भाव२६ मन नाश 25 जय छे त्यारे ते मात्मा
For Private and Personal Use Only
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०२
मनुयोगद्वारी रहितत्वात् । विगतमलस्वर्णवत् , क्षीगावरणः-क्षीणो निःसत्ताकीभूतः आवरणो यस्य स तथा, अपुनर्भावावरणरहितत्वात् । अपोकृतमलावरणजात्यमणिवत् । उपसंहरन्नाह-ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्तः-ज्ञानावरणीयेन कर्मणा विविधैः अनेकप्रकारैः प्रकर्षेण मुक्तः । एषां पदाना नयमतभेदेन भेदो बोध्यः। इत्थं ज्ञानावरणीयक्षया. पेक्षाणि नामान्युक्तानि। मिर्मल आकाश में स्थितपूर्ण चन्द्र के जैसा निर्मल प्रकाशवाला हो जाता है इसलिये अविद्यमान आवरणवाला होने से उसका “ अनावरण" ऐसा.नाम हो जाता है। अतः अनावरण यह उसकी नाम रूप अवस्था आवरण के क्षय से निष्पन्न होने के कारण क्षायिक भाव रूप है। आगे किसी भी प्रकार के आवरण कर्म का संबन्ध फिर उस आत्मा से होता नहीं है इसलिये वह निरावरण अवस्था विशिष्ट बन जाता है। तब जसका नाम “निरावरण" ऐसा हो जाता है। इसी प्रकार वह निःसत्ता की भूत आवरणवाला होने के कारण क्षीण मलावरणवाले जात्यमणि के जैसा "क्षीणावरण" इस नामवाला पनजाता है। इस प्रकार विविध प्रकार से ज्ञानावरणीय कर्म द्वारा विप्रमुक्त बने हुए उस आत्मा के ये पूर्वोक्त समस्त नाम ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से कहे गये है। यद्यपि शब्दनय की अपेक्षा से इनमें कोई भी भेद नहीं है इसलिये નિર્મળ આકાશમાં રહેલા પૂર્ણચન્દ્રના સમાન વિમલ પ્રકાશવાળ બની જાય છે. આ રીતે અવિદ્યમાન આવરણવાળે હેવાને લીધે તેનું અનાવરણ” નામ નિષ્પન્ન થાય છે આ “અનાવરણ” નામ રૂપ તેની અવસ્થા આવરણના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલી હોવાને કારણે ક્ષાયિક ભાવરૂપ ગણાય છે.
ભવિષ્યમાં કઈ પણ પ્રકારનું આવરણ કર્મ તે આત્માને લાગવાનું નથી, તેથી તે આત્મા નિરાવણ અવસ્થા સંપન્ન બની જાય છે. તેથી તેનું નિરાકરણ' નામ નિષ્પન્ન થઈ જાય છે એજ પ્રમાણે તે આત્મા નિ: સત્તાભૂત આવરણવાળે (આવરણના અસ્તિત્વ વિનાને) બની જવાને કારણે ક્ષીણ મલાવરણવાળા ઉત્કૃષ્ટ મણિની જેમ “ક્ષણાવરણ” આ નામવાળે બની જાય છે આ પ્રકારે વિવિધ પ્રકારે જ્ઞાનાવરણીય કર્મમાંથી વિપ્રમુક્ત થયેલા તે આભાને પૂર્વોક્ત સમસ્ત નામે જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ કહે. વામાં આવ્યાં છે જે કે શબ્દનયની અપેક્ષાએ તે નામ વચ્ચે કઈ પણ ભેદ ન હોવાને કારણે આ શબ્દને પર્યાયવાચી શબ્દો જ ગણી શકાય છે, પર
For Private and Personal Use Only
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भुवोगन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् ___ अथ दर्शनावरणीयक्षयापेक्षाणि नामान्याह- केवलदर्शी-केवलेन क्षीणावरणेन दर्शनेन पश्यतीतिकेवलदर्शी-सर्व पश्यतीति सर्वदर्शी-क्षीणदर्शनावरणत्वात् सकलपदार्थदर्शी । एवं क्षीणनिद्रादीनि पश्चनामानि तथा दर्शनावरणचतुष्कक्षयसम्भवीन्यपराण्यपि क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणादीनि नामानि बोध्यानि । तत्र निद्रापञ्चक लक्षणमेवमवगन्तव्यम्ये पर्यायवाची शब्द हैं। फिर भी समभिरूढनय की अपेक्षा से इनके पाच्यार्थ में भिन्नता होने से इनमें भेद है, ऐसा जानना चाहिये। ___अब सूत्रकार दर्शनावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से जायमान मामों को कहते हैं-(केवलदंसी) आत्मा से जब दर्शनावरणीय कर्म सर्वथा निर्मूल हो जाता है, तब वह आस्मा, क्षीणावरणवाले दर्शन से, सामान्यरूप में समस्त ज्ञेयों को देखता है, इसलिये केवलदर्शी पह कहलाने लगता है। (सव्वदंसी) क्षीण दर्शनावरणवाला होने से समस्त पदार्थों का वह दृष्टा बन जाता है। इसलिये वह सर्वदर्शी कहलाता है।
खीणनिहे, खीणनिहानिदे, वीणपयले, खीणपयलापयले, खीणवीणगिद्धी, खीणचक्खुदंसणावरणे, खीण अचखुदंसावरणे, खीण ओहि. दंसणावरणे खीण केवलदसणवरणे अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे) निद्रादर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से वह क्षीण निद्र हो जाता है; निद्रानिठा दर्शनावरणीयकर्म निर्मूल होने से क्षीणनिद्रानिद्र, प्रचला दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण प्रचल, સમમિઢ નયની અપેક્ષાએ તેમના વાર્થમાં ભિન્નતા હોવાના કારણે तभनी १२ये लेह (मत२-तशत) छे, मेम समन . .. . - હવે સૂત્રકાર દર્શનાવરણીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ જે નામો નિષ્પન્ન याय छे तभनु जयन ४२ है-(केवलदंसी) मात्मा ५२थी न्यारे ४श ना१२० ક સર્વથા નિર્મૂળ થઈ જાય છે ત્યારે તે આત્મા, ક્ષીણાવરણવાળા દર્શન વડે સામાન્ય રૂપે સમસ્ત ય પદાર્થોને દેખી શકે છે, તેથી તેને “કેવલદર્શી
वामा म छे. (सव्वदंसी) क्षीशनावराणे २४ पान १२ ते આત્મા સમસ્ત પદાર્થોને દ્રષ્ટા બની જાય છે, તેથી તેને “સર્વદશી" કહે. पाभां आवे छे. (खीणनिदे, खीणनिदा निद्दे, खोणपयले, खीणपयलापयले, खीण वीणगिद्धी, खीण चक्खुदसणावरणे, खीण अचक्खुदसणावरणे, खीण ओहिंदणावरणे, खीण केवलदसणावरणे, अणावरणे निरावरणे, खीणावरणे) ते सामान निद्रा વરણીય કર્મનો નાશ થઈ જવાને લીધે તે “ક્ષીણનિદ્ર' કહેવાય છે, તેના નિદ્રાનિદ્રા દર્શનાવરણીય કર્મ નિર્મૂળ થઈ જવાથી તે “ક્ષીણનિદ્રાનિદ્ર કહેવાય છે. તેના પ્રચલા દર્શનાવરણીય કર્મ નષ્ટ થઈ જવાથી તેને “ક્ષણ
For Private and Personal Use Only
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०४
मनुयोगद्वार "मुह पडिबोहा निद्दा दुइपडिबोहा य निहनिहाय । पयला होइ ठियस्स उ, पयलापयला य चंकमो ॥१॥ आइसकिलिट्टकम्माणु वेयणो होइ थीणगिद्धी य ।
महनिदा दिणचिंतियवावार पसाहणी पायं ॥२॥" छाया-मुखपतिबोधा निद्रा दुःखप्रतिबोधा च निद्रानिद्रा च ।
मचला भवति स्थितस्य प्रचलामचला च चमतः॥१॥ अतिसंक्लिष्टकर्मानुवेदनो भवति स्त्यानगृदिस्तु ।
महानिद्रा दिनचिन्तितव्यापार प्रसाधनीमायः ॥२॥इति । प्रथला प्रचला दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि दर्शनावरणीय कर्म क्षीण होने से क्षीण स्त्यानगृद्धि चक्षुर्दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण कर्मनष्ट होने से क्षीण अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्श. नावरण कर्म नष्ट होने से क्षीणावधिदर्शनावरण, केवलदर्शनवरण कर्म नष्ट होने से क्षीण केवलदर्शनावरण कहलाने लगता है । अर्थात् दर्शनावरण कर्म के सर्वथा विगम क्षय हो जाने से उस आत्मा के ये पूर्वोक्त नाम निष्पन्न हो जाते हैं। निद्रा पंचक का लक्षण इस प्रकार से है-सुहपडियोहा-इत्यादि-जिस कर्म के उदय से सुख पूर्वक जाग सके ऐसी निद्रा आवे वह निद्रा दर्शनावरण कर्म है। जिसके उदय से निद्रा से जागना अत्यन्त दुष्कर हो वह निद्रानिद्रा दर्शनावरणપ્રચલ' કહેવાય છે. તેના પ્રચલા પ્રચલા દર્શનાવરણીય કર્મ નષ્ટ થઈ જવાથી તેને ક્ષીણપ્રચલા પ્રચલ કહેવાય છે, તેના સ્થાનગૃતિ દર્શનાવરણીય કર્મને ક્ષય થઈ જવાથી તેને “ક્ષીણત્યાનગૃદ્ધિ” કહેવાય છે. તે આત્માના ચક્ષુદેશના વરણીય કર્મને નાશ થઇ જવાથી તેને “ક્ષીણચક્ષનાવરણ” કહેવાય છે. તેના અચક્ષનાવરણ કર્મને નાશ થઈ જવાથી તેને “ક્ષીણ અચક્ષશનાવરણ” કહેવાય છે. તેના અવધિદર્શનાવરણ કમને ક્ષય થઈ જવાથી તેને ક્ષણાવધિદર્શનાવરણ” કહેવાય છે તેના કેવલ દર્શનાવરણ કર્મનો નાશ થઈ જવાથી તેને “ક્ષીણકેવલદર્શનાવરણ” કહેવાય છે એટલે કે દર્શનાવરણ કર્મોને સંપૂર્ણતઃ નાશ થઈ જવાને કારણે તે આત્માના પૂર્વોક્ત નામે નિષ્પન્ન થાય છે.
નિદ્રાપંચકનાં લક્ષણ નીચે પ્રમાણે સમજવાં–
"सुहपडिबोहा" त्याहि-रे मना यथा सुमधुर Mall शाय એવી નિદ્રા આવી જાય છે, તે કમને નિદ્વાદર્શનાવરણ કમ કહે છે જે કર્મના ઉદયથી નિદ્રામાંથી જાગવાનું અત્યંત દુષ્કર થઈ જાય છે, તે કર્મને નિદ્રાનિદ્રા
For Private and Personal Use Only
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् ७६ तथा-अनावरणादिशब्दाः पूर्व ज्ञानावरणाभावापेक्षया प्रोक्ताः, अत्रतु दर्शनावरणाभावापेक्षया बोध्याः। उपसंहरन्नाह-दर्शनावरणीयकर्मविप्रमुक्त इति । कर्म है । जिस कर्म के उदय से बैठे २ या :खडे २ हो नींद आ जाने वह प्रचलादर्शनावरण कर्म है । जिस कर्म के उदय से चलते २ ही निद्रा आ जावे वह प्रचला प्रचला दर्शनावरण कर्म है । स्त्यानगद्धि यह महानिद्रा है। इस निद्रावस्था में, जागृत अवस्था में सोचे हुए काम करने का सामर्थ्य प्रकट हो जाता है । जिसजीव को अति सतिष कर्मका उदय होता है उसी जीव के यह स्त्यानगृद्धि होती है। इस निद्रा में सहज बल से कई अनेक गुण अधिक बल प्रकट होता है। पहिले जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के अभाव को लेकर अनावरण निरावरण, क्षीणावरण, इन शब्दों का अर्थ प्रकट किया गया है उसी प्रकार यहां पर दर्शनावरण कर्म के अभाव की अपेक्षा लेकर इन शब्दों का अर्थ लगा लेना चाहिये। (दरिसणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के इस प्रकार ये पूर्वोक्त नाम दर्शनावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से सूत्रकार ने कहे हैं। દર્શનાવરણ કર્મ કહે છે જે કર્મના ઉદયથી બેઠાં બેઠાં કે ઊભાં ઊભાં નિદ્રા આવી જાય છે, તે કર્મને પ્રચલાદર્શનાવરણ કમ કહે છે. જે કર્મના ઉદયથી ચાલતાં ચાલતાં નિદ્રા આવી જાય છે, તે કમને પ્રચલાપ્રચલા દર્શનાવરણ કમ કહે છે “ત્યાનગૃદ્ધિ” આ પદ મહાનિદ્રાનું વાચક છે. આ પ્રકારની નિદ્રાવસ્થામાં જાગૃત અવસ્થામાં જે કામ કરવાનો વિચાર કરવામાં આવ્યું હોય તે કામ કરવાનું સામર્થ્ય પ્રકટ થઈ જાય છે. જે જીવમાં અતિ સંક્ષિણ કર્મને ઉદય હોય છે, એજ જીવમાં આ ત્યાનગૃદ્ધિ દર્શનાવરણને સદૂભાવ રહે છે સ્વાભાવિક બળ કરતાં કેટલાય ગણું અધિક બળનો આ પ્રકારની નિદ્રામાં અનુભવ થાય છે.
આગળ જ્ઞાનાવરણ કર્મના અભાવની અપેક્ષાએ અનાવરણ, નિરાવરણ અને ક્ષીણાવરણ, આ પદે અર્થ પ્રકટ કરવામાં આવે છે એજ પ્રકારે અહીં દર્શનાવરણ કર્મના અભાવને અનુલક્ષીને અનાવરણ, નિરાવરણ એને તણાવરણને અર્થ સમજી લેવો જોઈએ.
(दरिसणावरणिजकम्मविप्पगुक्के) सूत्रारे ना१२३य मनाया અપેક્ષાએ કેવળદર્શીથી લઈને નિરાવણ પર્યન્તના ઉપયુક્ત નામે પ્રકટ કર્યા છે
अ० ८९
For Private and Personal Use Only
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०६
अनुयोगद्वारसूत्र इत्थं दर्शनावरणीयक्षयापेक्षया नामान्युक्त्वा सम्पति वेदनीयकर्मक्षयापेक्षाणि नामानि प्रतिपादयितुमाह-'खीणसायावेयणिज्जे' इत्यादि। वेदनीयं द्विविधं भवति-सातम् असातं च, तत्र-सातं प्रीत्युत्पादकम् , असातम् अपीत्युत्पादकम् , तत्क्षये क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयश्च भवति । तथा-अवेदना वेदनारहित:-अयम् अल्पवेदनोऽपि व्यवहीयते । तथा-निर्वेदनः सर्ववेदनाभ्यो रहितः । कालान्तरेऽपि वेदना न भवतीति सूचयितुमाह-क्षीणवेदन:-क्षीणा=अपुनर्भावितया _ अब वे वेदनीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से जायमान नामों को कहते हैं
(खीणसायावेयणिज्जे खीण असायावेयणिज्जे) वेदनीय कर्म दो प्रकार का है-एक साता वेदनीय कर्म और दूसरा असाता वेदनीय कर्मजिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव हों वह साता वेदनीय
और जिसके उदय से प्राणी को दुःख का अनुभव हो वह असाता वेदनीय है। इन दोनों प्रकार के वेदनीय कर्म के क्षय होने पर जीव क्षीणसातावेदनीय और क्षीणासातवेदनीय हो जाता है। (अवेधणे, निव्वेयणे) वेदनारहित हो जाता है। अवेदन शब्द का अर्थ अल्प वेदनावाला ऐसा भी होता है। क्योंकि अवेदन में जो "अ" है वह ईषदर्थ-में भी प्रयुक्त होता है। इसलिये निवेदन-सर्व प्रकार की वेदना से वह रहित बन जाता है । (खीणवेयणे) कालान्तर में भी बेदना इस जीव को नहीं होती है-इसलिये क्षीणवेदन अर्थात् अपुन विवेदन हो
હવે વેદનીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ જે નામે નિષ્પન્ન થાય છે, તે घट ४२वामां आवे छे-(खीणमायावेयणिज्जे खीण असायावेयणिज्जे) वहनीय કમના બે પ્રકાર પડે છે-(૧) સાતવેદનીય કર્મ અને (૨) અસાતવેદનીય કર્મ જે કમના ઉદયથી જીવને સુખને અનુભવ થાય છે, તે કર્મને સતાવે નીય કર્મ કહે છે જે કર્મના ઉદયથી જીવને દુખનો અનુભવ થાય છે, તે કર્મને અસતાવેદનીય કર્મ કહે છે આ બન્ને પ્રકારના વેદનીય કર્મોને ક્ષય थापाथी ७१ क्षीसातावहनीय" मन "क्षीयासातवहनीय " मनी नय. (अवेयणे, निव्वेयणे) वहनीय भनी क्षय ५४ पाथी मात्मा વેદનારહિત બની જાય છે. “અવેદન” પર અલ્પવેદનાનું પણ વાચક છે, મરણ કે “અવેદન” પદમાં જે “અ” ઉપસર્ગ છે તે અલ્પતાના અર્થમાં પણ પ્રયક્ત થાય છે. તેથી સૂત્રકારે “નિર્વેદન પદના પ્રયોગ દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરી છે કે વેદનીય કર્મને સર્વથા ક્ષય થવાથી આત્મા સર્વપ્રકારની વેદનાથી सहित थ य छे. (खीणवेयणे) सन्तरे (विष्यमi) ५ ते पने વેદનાને અનુભવ કરવું પડતું નથી તેથી તે જીવને “ક્ષીણુવેદન” કહ્યો છે
For Private and Personal Use Only
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
agartificer टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
God
सर्वथा विना वेदना यस्य स तथा । एतदुपसंहरन्नाह - शुभाशुभवेदनीय कर्मविषमुक्त इति । अथ मोहनीयक्षयापेक्षाणि नामानि प्ररूपयितुमाह- 'खीणको हे' इत्यादि । मोहनीयं द्विविधं भवति - दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च । तत्र - दर्शनमोहनीयं सम्यक्त्वमिश्र मिध्यात्वभेदात् त्रिविधं भवति । चारित्रमोहनीयं तु क्रोधादिकंपाय हास्यादि नोकषायभेदात् द्विविधं भवति । एतत्क्षये यानि नामानि भवन्ति तान्याह सूत्रकारः - क्षीणक्रोधो पात्रत् क्षीगलोभः । एतानि नामानि सुबोध्यानि । तथाक्षीणप्रेमा - क्षीणं प्रेम मायालो नौ यस्य स तथा - अपगतमायालोभ इत्यर्थः । जाता है, (सुभासु भवेयणिजकम्मविध्यमुक्के) शुभ और अशुभवेदनीय कर्म से विप्रमुक्त हुए उस जीव के ये पूर्वोक्त क्षीण सातादनीय आदि नाम हैं।
अब सूत्रकार मोहनीय कर्म के क्षय से जो नाम होते हैं उन्हें कहते हैं
(खीण कोहे जाव खीणलोहे) मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय- इनमें मिथ्यात्व सम्यक्त्वमिथ्यात्व और मिश्र के भेद से दर्शन मोहनीय तीन प्रकार का हैतथा चारित्र मोहनीय, क्रोधादिकषाय और हास्यादिक नोकषाय के भेद से दो प्रकार का है - इस दोनों प्रकार के मोहनीय के क्षय होने पर जो नाम होते हैं उन्हें सूत्रकारने क्षीण क्रोध यावत् क्षीण लोभ इन शब्दों द्वारा प्रकट किया है। ये नाम सुबोध्य हैं। (खीणपेज्जे) प्रेम शब्द
(सुभासुभवेयणिज्ज कम्मविष्पमुक्के) शुभ भने अशुभ वेदनीय उभथी विभुक्त થયેલા તે જીવના ક્ષીણસાતાવેદનીય આદિ પૂક્તિ નામા સમજવાં
હવે સૂત્રકાર માહનીય કર્મના ક્ષયથી આત્માનાં જે જે નામે નિષ્પન્ન થાય છે તેમનું નિરૂપણ કરે છે—
(खीण कोहे जाव खीण लोहे) भोडनीय अर्मना नीचे प्रभा में अहार पडे छे-(१) दर्शनमोडनीय भने (२) चारित्र मोडनीय मिथ्याल, सभ्यत्व મિથ્યાત્વ અને મિશ્રના ભેદથી દશનમાહનીય કર્મ ત્રણ પ્રકારના કહ્યાં છે. ાષાદિક કષાય અને હાસ્યાદિક નાકષાયના ભેદથી ચારિત્ર માહનીય ક્રમ એ પ્રકારનુ કહ્યું છે. બન્ને પ્રકારના માહનીય ના આત્મામાંથી ક્ષય થઈ જવાથી આત્માનાં નીચેનાં નામે નિષ્પન્ન થાય છે ક્ષીશુક્રોધ, ક્ષીણુમાન, શ્રીગુમાયા અને શ્રીજીલાભ આ નામના અર્થ સુગમ होवाथी तेमना विषे बघु स्पष्टता उरवानी ४३२ नथी. (खीण पेब्जे) प्रेभ
For Private and Personal Use Only
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७०८
- अनुयोगद्वारसून श्रीणदेषाक्षीणो देपा-क्रोधमानौ यस्य स तथा-अपगत क्रोधमान इत्यर्थः। तथाममोह:-अपगतमोहनीयकर्मा, अयं च अल्पमोहोदयोऽपि लोके व्यवहियते । क्या-निर्मोहः-निर्गतो मोहानिर्मोहः । यतोऽपोहः, अत एव निर्मोहो बोध्यः। निमोहस्तु कालान्तरे मोहोदययुक्तोऽपि स्यादुपशान्तमोहवदिति प्रत्ययो मा भवस्विति हेतोराह-क्षीणमोहः-अपुन विमोहोदयः इत्यर्थः, एतदुपसंहरबाह-मोहमाया और लोभ का बोधक है। मोहनीय कर्म के-नष्ट होने पर माया
और लोभ नष्ट हो जाते हैं। (खीण दोसे) इसी प्रकार द्वेष-मान और कोष-भी नष्ट हो जाता है। अतः क्षीण प्रेमा, क्षीण द्वेष ये नामहोते हैं। (अमोहे निम्मोहे, खीणमोहे) अमोह निर्मोह क्षीण मोह-ये नाम भी मोहनीय कर्म के अभाव मे होते हैं । अल्प मोहवाले में भी अमोह शब्द का प्रयोग होता है सो ऐसा अमोह यहां नहीं लिया गया है किन्तु मोहनीय कर्म से जो अपगत है वही अमोह है, ऐसा अमोह ही यहां ग्रहण किया गया है। जिस कारण यह अमोह हैं इसलिये निर्मोह है। कोई ऐसी शंका भी कर सकता है कि जो निर्मोह होता है, वह कालान्तर में मोहोदय से युक्त भी बन सकता है-जैसे उपशान्त मोहवाला बन जाता है । सो इस आशंका को निर्मूल करने के लिये पत्रकार ने क्षीणामोह यह पद रखा है। इससे उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अपुनर्भाव मोहोदय जिस जीव के होते हैं, वही यहां अमोह શબ્દ માયા અને લેભને બેધક છે. મેહનીય કર્મને નાશ થઈ જવાથી જીવના માયા અને લેભ નષ્ટ થઈ જાય છે, તેથી તે જીવને “ક્ષીણપ્રેમા” उपाय छे. (खीण दोसे) प्रभा मालनीय भनी नाश थ६ पायी આત્માને ઠેષ ભાવ પણ નષ્ટ થઈ જાય છે તેથી તે આત્માનું “ક્ષીણ દ્વેષ मा नियन्न थाय छे. (अमोहे निम्मोहे, खोणमोहे) मानीय मन मा થઈ જવાથી આત્માનાં “અમેહ, “નિર્મોહ, અને ક્ષીણમેહ નામે પણ નિષ્પન્ન થાય છે અલ્પ મેહવાળામાં પણ અમેહ શબ્દ પ્રયોગ થાય છે. પરતુ અમેહ શબ્દને એ અર્થ અહીં ગ્રહણ કરવાનું નથી. અહીં તે
હનીય કર્મને સર્વથા ક્ષય થઈ જવાને લીધે આત્મામાં મને સર્વથા અાવ જ ગ્રહણ કરવાને છે. જે કારણે તે આત્મામાં આ અમેહને સદુભાવ છે એજ કારણે નિર્મોહને પણ સદુભાવ છે. કદાચ કઈ એવી શંકા હવે કે કાળાન્તરે નિર્મોહી આત્મામાં મોહને ઉદય થઈ જવાથી તે મોહે. હમત પણ બની શકે છે, તે તે આશંકાનું નિવારણ કરવાને માટે સૂત્રકાર શણાય? પદનો પ્રયાગ કર્યો છે, આ પદ દ્વારા સૂત્રકારે એ વાત પ્રકટ
For Private and Personal Use Only
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
9
www.kobatirth.org
मैनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिक भावनिरूपणम्
७०९
freedaarक्त इति । नारकायुकादिभेदेन आयुष्कर्म चतुर्विधं बोध्यम् । सम्मति तत्क्षयोद्भवानि नामानि प्ररूपयति-क्षीणनैरयिकायुष्कः क्षीणतिर्यग्योनिकायुष्कः, क्षीणमनुष्यायुष्कः क्षीणदेवायुष्कः । एतानि चत्वार्यपि पदानि सुर्गमानि । तथा अनायुकः = अविद्यमानायुष्कः । अविद्यमानायुष्कस्तु तद्भविकायुः निरम ह नामवाला ग्रहण किया गया है। इस प्रकार ( मोहणिज्जकम्म farmers) मोहनीय कर्म से विप्रमुक्त बने हुए जीव के ये क्षीण क्रोध से लेकर क्षीण मोह तक के नाम हैं। अब आयुकर्म के क्षयापेक्ष जो नाम होते हैं, उन्हें सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-आयु कर्म चार प्रकार का है- नरक आयु तिर्यगायु, मनुष्य आयु देव आयु सो इनमें से ( खीणreersy, स्वीणतिरिक्खजोणिआउए, खीण मणुस्साउए खीणदेवाre) नरकायुष्क के क्षय होने से क्षीण नरकायुष्क, तिर्यग्योनिक आयुष्क के क्षय होने से क्षीणतिर्यग्योनिकायुष्क, मनुष्य आयुष्क के नष्ट होने से क्षीण मनुष्यायुष्क और देवायुष्क के नष्ट होने से क्षीण देवायुष्क ये नाम होते हैं (अणाउए, नीराउए, खीणाउए ) अनायुष्क, fनरायुष्क और और क्षीणायुष्क ये नाम भी होते हैं तद्भव संबन्धी आयु કરી છે કે જે જીવમાં અપુનાંવિમાહાય (ભવિષ્યમાં ફરી ઉદયમાં ન આવે मेव। अभीड) हाय छे, ते अपने सहीं 'समोह' मने 'निमेड ' नाभत्राणेो ऽह्यो छे. (मोइणिज्ज कम्म विप्यमुक्के) भोडनीय थी सपूतः विभुक्त થયેલા જીવના ક્ષીણુક્રોધથી લઇને ક્ષીણમાહ પન્તનાં ઉપયુક્ત નામા સમજવાં. હવે સૂત્રકાર આયુકમના ક્ષયથી આત્માના જે જે નામા નિષ્પન્ન થાય छे, तेमनु नि३ रे -
66
आयुर्भना यार प्रहार - (१) नरहायु, (२) तिर्यगायु, (3) मनुष्यायु मने (४) हेवायुं. (खीणणेर झ्याउए, खीणविरिक्खजोणि आउए, खीणमणुह्साउए, खीण देवाउए) नरायुष्णुना क्षय था भवाने सीधे व 'क्षीषुनरप्रयुष्टु' અની જાય છે, તિગ્યેાનિક આયુષ્યના ક્ષય થઈ જવાથી જીવ “ક્ષીણતિય - ચેનિકાચુષ્ક” બની જાય છે, મનુષ્ય આયુષ્યના ક્ષય થઈ જવાથી જીવ ક્ષીજીમનુષ્યાયુક '' થઈ જાય છે અને દેવાયુષ્કને ક્ષય થઈ જવાથી જીવ “ ક્ષીણુદેવાયુક” થઇ જાય છે. આ પ્રકારે ચારે ગતિના આયુષ્યના ક્ષય થઈ भवाथी भवना उपर्युक्त यार नाभेो निष्यन्न थाय छे. (अणाउए, निराउए, श्रीणाउए) आयुभना क्षय था भाथी भवनां “ मनायुष्णु,” “निरायुष्टुं " भने “श्रीषायुष्” मा ऋणु नाभेोषाणु निष्यन्न थाय छे. तहूलव संबंधी (ते
66
1
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र क्षयमात्रेऽपि भवती, त्यत्राह-निरायुष्का-निर्गतायुष्क इति । निरायुष्कस्तु शैले श्रीमवस्थां किंचिदवतिष्ठमानायुः-शेषोऽपि उपचारतः स्यादत आह-क्षीणायुष्ष इति। एतदुपसंहरन्नाह-आयुष्कर्मविप्रमुक्त इति। नामकर्म सामान्येन शुभाशुभमेदतो द्विविधम् , विशेषतस्तु गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादि भेदाद द्विचत्वारिंशदादिभेदं जिस जीव की नष्ट हो गई हो ऐसा जीव भी अनायुष्क कहलाता हैअतः ऐसा अनायुष्क यहां गृहीत नहीं है किन्तु जिसका आयुकर्म समाप्त हो चुका है ऐसा ही निरायुष्क अनायुष्क यहां लिया गया है। यदि इस पर ऐसी आशंका की जावे कि ऐसी निरायुष्क अवस्था जीव की. शैलेशी अवस्था में हो जाती है-परन्तु यहाँ सम्पूर्णरूप से वह जीव निरायुष्क तो नहीं बनता है-फिर भी निरायुष्क इस नाम से किंचित आयु अवशिष्ट होने पर भी उपचार से कहा ही जाता है । अतः इस आशंका को दूर करने के लिये सूत्रकारने क्षीणायुष्क यह पद रखा है। इसलिये अनायुष्क निरायुष्क ये नाम तब ही जानना चाहिये कि जब सम्पूर्णरूप से आयुकर्म नष्ट हो चुका होता है। (आयुकम्मविष्पमुक्के) इस प्रकार से आयुकर्म के सर्वथा अभाव होने पर क्षीणनरकायुष्क आदि ये नाम निष्पन्न होते हैं । (गहजाइ ભવન) જેનું આયુષ્ય નષ્ટ થઈ ગયું હોય છે એવા જીવને પણ અનાયક કહી શકાય છે. પરંતુ એવા અનાયુષ્કની વાત અહીં કરવામાં આવી નથી અહી તે એવા અનાયુષ્યની વાત કરવામાં આવી છે કે જેના આયુકમને સદંતર ક્ષય થઈ ચુક હોવાને કારણે જે નિરાયુષ્ક બની ગયેલ છે એટલે કે અહીં નિરાયુષ્ક (આયુષ્યરહિત) જીવને જ અનાયુષ્ક પદ વડે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. કદાચ અહીં કોઈ એવી શંકા ઉઠાવે કે એવી નિરાયુષ્ક અવસ્થા તે જીવની શૈલેશી અવસ્થામાં થઈ જાય છે, પરંતુ આ અવસ્થાવાળે છવ સંપૂર્ણ રૂપે નિરાયુષ્ક બનતું નથી, છતાં પણ “નિરાયુષ્ક” આ નામને
ગ, આયુ બાકી હોવા છતાં પણ ઔપચારિક રૂપે કરવામાં આવે છે. આ આશંકાને દૂર કરવાને માટે સૂત્રકારે “ક્ષણિયુષ્ક” પદ મૂકયું છે તેથી આત્માને અનાયુષ્ક, અને નિરાયુષ્ક રૂપે ત્યારે જ ગણી શકાય કે જયારે सामना संपूर्णपणे क्षय थ६ गये। डाय छे. (आयुकम्मविप्पमुक्के) । પ્રકારે આયુકમને સર્વથા અભાવ થઈ જવાથી આમાનાં ક્ષીણુનરકાયુષ્ક અદિ ઉપર્યુક્ત નામો નિષ્પન્ન થાય છે. ' હવે નામકર્મના ક્ષયથી આત્માના જે જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે, તે નામની સૂત્રકાર પ્રરૂપણા કરે છે
For Private and Personal Use Only
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७११
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् स्थानान्तराद् विज्ञेयम् । अत्र तु तत्क्षयभावोनि कियन्त्यपि तन्नामानि पाह-गति जातिशरीराङ्गोपाङ्गबन्धनसंघातनसंहननसंस्थानानेकशरीरवृन्दसंघातविप्रमुक्तः-तत्र गतिः नारकादिगतिचतुष्टयहेतुभूतं गतिनाम, जातिः-एकेन्द्रियादि जातिपश्चककारणं जातिनाम, शरीरम्-औदारिकादिशरीरपञ्चकनिबन्धनंशरीरनाम, अङ्गोपागम् औदारिकवैक्रियाहारकशरीरत्रयाङ्गोपाङ्गनिर्दृत्तिकारणम् अङ्गोपाङ्गनाम, बन्धनम्-काष्ठादिखण्डसंयोजकलाक्षादिद्रव्यमिव शरीरपञ्चकपुद्गलानां परस्परं सरीरंगोवंगपंधणसंघायणसंठाणअणेगयोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के) नामकर्म सामान्य से शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म इस प्रकार दो भेदवाला हैं और विशेषरूप से गति जाति शरीर अंगोपाङ्ग आदि के भेद से ४२ प्रकार के हैं। तथा ४२ प्रकार से भी और अधिक भेदवाला है। इसके ये सब भेद अन्य शास्त्रों से जानलेना चाहिये। यहां पर तो सूत्रकारने इस नामकर्म के क्षय से जो नाम उत्पन्न होते हैं उन्हें कहा है। नारक आदि चार गतियों का हेतुभूत जो कर्म है वह गति नामकर्म है। एकेन्द्रिय आदि पांच जाति का जो कारण होता है वह जातिनामकर्म है। औदारिक आदि पांच शरीर का जो कारण होता है वह शरीर नामकर्म है । औदारिक अंगोपांग, वैक्रीय अंगोपांग और आहारक अंगोपांग की रचना का जो हेतु हो वह अंगोपांग नामकर्म है। जिस प्रकार काष्टादि खंडों ... (गइजाइसरीरंगोवंगबंधणसंघायणसंठाणअणेगबोंदिबिंदसंघायविप्पमुक्के) नामકર્મના નીચે પ્રમાણે બે મુખ્ય ભેદ કહ્યા છે. (૧) શુભનામકર્મ અને (૨) અશુભનામકર્મ. પરંતુ વિશેષ રૂપે વિચાર કરવામાં આવે તે ગતિ, જાતિ, શરીર, અંગોપાંગ આદિના ભેદથી નામ કમના ૪૨ ભેદ પડે છે, તથા આ ૪૨ ભેદે સિવાયના કેટલાક વધુ ભેદ પણ પડે છે તેના આ સઘળા ભે વિષેની માહિતી અન્ય શાસ્ત્રોમાંથી મેળવી લેવી અહીં તે સરકારે આ નામકર્મનો ક્ષય થઈ જવાથી આત્માના જે જે નામે નિષ્પન્ન થાય છે તેમને જ કથન કર્યું છે. નારક આદિ ચાર ગતિઓની પ્રાપ્તિના કારણભૂત જ કર્મ છે તેનું નામ ગતિનામકર્મ છે એકેન્દ્રિય આદિ પાંચ જાતિને કારણભૂત છે કમ છે તેને જાતિનામકર્મ કહે છે. ઔદારિક આદિ શરીરના કારણરૂપ છે કર્મ છે તેનું નામ શરીરનામકર્મ છે. ઔદ્યારિક અંગોપાંગ, વૈક્રિય અને પાંગ અને આહારક અંગે પાંગની રચનાના કારણભૂત જે કર્મ છે તેને અંગોપાંગ નામકર્મ કહે છે. જેવી રીતે કાકદિના ટુકડાઓને લાખ આદિ
For Private and Personal Use Only
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१२
भनुयोगद्वार बन्धहेतुबन्धननाम, संघातनं-काष्ठसमुच्चयकारकः कर्मकर इव तेषामेव पुद्गलानां परस्परं बधनार्थमन्योऽन्य सांनिध्यरूप सघातकारणं सङ्घातनाम, संहननम्कपाटादीनां लोहपट्टादिरिव औदारिकशरीरास्थ्ना परस्परबन्धविशेषनिबन्धनं संह. नननाम, संस्थानम्-संस्थाननाम-संतिष्ठन्ते विशिष्टावयवरचनात्मिकया शरीरा. कल्या जन्तवो भवन्ति येन तत् संस्थाननाम । इदं हि समचतुरसादिसंस्थानकारणम्। तथा-अनेकशरीरबन्दसंधातः-अनेकानि शरीराणि-अनेकशरीराणिको परस्पर में जोडनेवाला लाख आदि द्रव्य होता है उसी प्रकार पांच
औदारिक शरीर आदि के पुद्गलों को जो परस्पर में जोड़ता है । वह बंधन नामकर्म है। काष्टको चुन चुन २ कर रखने वाले कर्मकर की तरह जो उन्हीं पुद्गलों को परस्पर मे बन्धने के लिये अन्योन्यसांनिध्यस्प संघात का कारण होता है। अर्थात् बद्ध पुद्गलों को शरीर के नाना विध आकारों में व्यवस्थित करने वाला जो कर्म है वह संघात कर्म है। जैसे कपाट आदिकों को लोह पट्ट परस्पर में बांध देता है उसी प्रकार जो औदारिक शरीर की हड़ियों को परस्पर मे बांध देता है वह संहनन नामकर्म है। अर्थात् यह नामकर्म अस्थिबंध की विशिष्ट रचना रूप होता है । जिसकर्म से अवयवों की विशिष्ट रचनारूप शरीर की आकृति बने वह संस्थान नामकर्म समचतुरस्रादि संस्थान का कारण है। तथा. अनेक शरीरों का जो समूह रूप संघात है वह अनेक शरीरवृन्द संघात ક વડે પરસ્પરની સાથે જોડવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે પાંચ દારિક શરીર આદિના પુદ્ગલેને પરસ્પરની સાથે જોડનારું જે કર્મ છે તેનું નામ બ ધન નામ કર્મ છે, યોગ્ય કાષ્ઠને વીણી વીણીને ગોઠવનાર કારીગર (સુથાર)ની જેમ, એજ કર્મ પુદ્રાને પરસ્પરની સાથે બાંધવાને માટે અન્ય સાંનિધ્ય ૩૫ સંભાતમાં જે કર્મ કારણભૂત બને છે–એટલે કે બદ્ધ પુદ્ગલેને શરીરના વિવિધ આકારમાં ગોઠવનારૂં (સ્થાપિત કરનારું) જે કમ છે તેનું નામ સંઘાત કર્મ છે. જેવી રીતે કમાડ આદિનાં પાટિયાઓને લેઢાની પાટી પરસ્પરની સાથે બાંધી દે છે, એ જ પ્રમાણે ઔદારિક શરીરનાં હાડકાંઓને પરસ્પરની સાથે બાંધી નારૂં જે કમ છે તેને સંહનન નામકર્મ કહે છે એટલે કે આ નામકર્મ અસ્થિબંધની વિશિષ્ટ રચના રૂપ હોય છે. જે કર્મ અવયની વિશિષ્ટ રચના રૂપા શરીરની આકૃતિ બનાવવામાં કારણભૂત બને છે તે કર્મનું નામ સંસ્થાના નામકર્મ છે. આ સંસ્થાનું નામકર્મ સમચતુસ્ત્રાદિ સંસ્થાનમાં કારણભૂત બને
For Private and Personal Use Only
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगधन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् तेषां वृन्द-समूहस्तदेव पुद्गलसंघातरूपत्वात् संघात:-अनेकशरीरबन्दसंघातः, शरीरानेकत्वं जन्मान्तरीयशरीराण्यादाय । अस्मिन्नपि जन्मनि जघन्यत औदारिकतेजसकार्मणरूपशरीरत्रयस्य सदावाद् वा शरीरानेकत्वं बोध्यम् । गत्यादिशब्दाना द्वन्द्वसमासः, तै विषमुक्तो यः स तथा। शरीरशब्देन शरीरनिबन्धनं नामकर्म गृहीतम् , 'शरीरबन्दे' त्यत्र शरीरशब्देन तु तत्कार्यभूतशरीराण्येव गृह्यन्ते, इत्यमयो. मैदा, अतो न पौनरुत्यम् , तथा-क्षीणशुभनामा क्षीणं-विनष्टं शुभनामतीर्थकर शरीर की अनेकता है । अथवा जीव के दूसरे जन्म में तेजस और कार्मण ये दो शरीर साथ रहते हैं, इसलिये इन जन्मान्तरीय शरीरों को लेकर कम से कम एक जीव में इस जन्म में भी औदारिक तेजस
और कार्मण ये तीन शरीर रहते हैं । इस अपेक्षासे भी शरीर की अनेकता रूप-अनेक शरीर वृन्द संघात सधजाता है। इन गत्यादिक शन्दों में बन्छ समास है, इन गत्यादिकों से जो विप्रमुक्त है वहं गति जाति-शरीरअंगोपांग बन्धन-संघात संहनन संस्थान-अनेक शरीरवृन्दसंघात विप्रमुक्त शब्द का वाच्यार्थ है । गति जाति शरीर आदि में जो यह शरीर शब्द है उसका अर्थ शरीर नामकर्म है, इस नाम कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीरों की रचना होती है तथा “ अनेक शरीर वृन्द" में जो शरीर शब्द आया है, वह उस शरीर नामकर्म के कार्यभूत उन औदारिक आदि शरीरों का वाचक है। इस प्रकार इनमें છે અને શરીરના સમૂહરૂપ જે સંઘાત છે તેને અનેક શરીર સધાત કે છે. તે અનેક શરીરવૃંદ સંઘાત શરીરની અનેકતા રૂપ હોય છે અથવા જીવની સાથે રહે છે. તેથી આ જન્માન્તરીય શરીરની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે એક જીવમાં દારિક, તેજસ અને કાર્મ, આ ત્રણ શરીરને સદભાવ હોય છે આ દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે શરીરની અનેકતા રૂપ અનેક શરીરવૃંદ સંઘાતનું પ્રતિપાદન થઈ જાય છે ઉપર્યુક્ત ગતિ આદિ શબ્દમાં દ્વન્દ્ર સમ સ છે. આ ગતિ આદિથી જે જીવ વિપ્રમુક્ત થઈ ગયેલ साय ने गति, ति, शरीर, Atuli, अन्धन, भात, मनन, સંસ્થાન અને અનેક શરીરવૃન્દસંઘાતવિપ્રમુકત ગણવામાં આવે છે. એ કે એવા જીવના ગતિવિપ્રમુક્ત જાતિવિપ્રમુકત આદિ ના નિષ્પન્ન થાય છે ગતિ, જાતિ, શરીર આદિમાં જે શરીરે શબ્દ છે તેને અને શરીરનો છે. આ નામકર્મના ઉદયથી ઔદ્યારિક આદિ શરીરની રચના થાય છે તથા
અનેક શરીરવૃન્દ" આ પદમાં જે શરીર' શબ્દ આવ્યા છેતે શરીર શબ્દ શરીર નામકર્મના કાર્યભૂત તે ઔદારિક આદિ શરીરને વાચક છે.
For Private and Personal Use Only
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१४
अनुयोगद्वारसूत्रे शुभसुभगसुस्वरादेययशाकीर्त्यादिकं यस्य स तथा। क्षीणाशुभनामा-क्षीणम् अशुभनाम-नरकगत्यशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशाकीर्त्यादिकं यस्य स तथा। अनामा निनामा क्षीणनामा इति त्रयोऽपि शब्दाः 'अभोहः' इत्यादिवद् भावनीयाः। उपसंहरनाह-शुभाशुभनामकर्मविषमुक्त इति। गोत्रम्-उच्चनीचभेदेन द्विविधं भवति । सम्पति तत्क्षयसंभवोनि नामान्याह-क्षीणोच्चगोत्रः' इत्यारभ्य भिन्नता जाननी चाहिये । (खीण सुभणामे) नामकर्म के नष्ट होने पर तीर्थकर, शुभ, सुगम, सुस्वर, आदेय और यशाकीर्ति आदि-जो शुभ नाम हैं ये सब विनष्ट हो जाते हैं इसलिये "क्षीणशुभनामा" यह नाम निष्पन्न होता है । (खीण असुभणामे) इसी प्रकार नामकर्म के नष्ट होने पर नरकगति, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर अनादेय, और अयशः कीर्ति आदिक अशुभ नाम नष्ट हो जाते हैं । इसलिये ' क्षीणाशुभनामा" यह नाम निष्पन्न हो जाता है। (अणामे, निष्णामे, खीणनामे) अनाम, निर्नाम और क्षीणनाम ये तीनों शब्द भी अमोह आदि शब्दों के जैसे समझना चाहिये। (सुभासुभणामकम्मविप्पमुक्के) इस प्रकार गति विप्रमुक्त से लेकर क्षीणनाम तक के ये नाम इस शुभाशुभनामकर्म से सर्वथा रहित हो जाने पर निष्पन्न होते हैं। (खीण उच्चागोए खीण नीयागो) अय सूत्रकार गोत्रकर्म से विप्रमुक्त सारे तेमनी १२ये भिन्नता सभापी नसे. (खीणसुभणामे) नाममना નાશ થતાં જ તીર્થકર, શુભ, સુભગ, સુસ્વર, અદેય, યશ કીર્તિ યુકત આદિ જે શુભ નામે હોય છે તેમને પણ નાશ થઈ જાય છે, તેથી એવા જીવનું "क्षी शुभनामा" मा नाम निष्पन्न याय छे. (खीण असुमणामे) से प्रभारी नाममना नाश थतi २४गति, अशुभ, हु, १२, मनाय, અયશકીતિક આદિ અશુભ નામે પણ નાશ થઈ જાય છે તેથી એવા
पनु “क्षाशुलनामा" नाम नि0पन्न थाय छे. (अणामे, निण्णामे, खीण. णामे) 4जी नाम:म निभूण 25 थी ना " मनाम, निनाम, सने ક્ષીણુનામ” આ નામો પણ નિષ્પન્ન થાય છે. આ ત્રણે શબ્દોનો ભેદ અમેહ, निड भने क्षीमाना व समन्व. (सुभासुभणामकम्मविषमुक्के)
જ્યારે આત્મા શુભાશુભ નામકર્મથી સર્વથા રહિત થઈ જાય છે ત્યારે તેના ગતિવિપ્રમુક્તથી ક્ષીણનામ પર્યન્તના ઉપર્યુકત નામે નિષ્પન્ન થાય છે.
- હવે સૂત્રકાર ગાત્રકને ક્ષય થઈ જવાથી આત્માના જે જે નામો નિષ્પન્ન થાય છે, તેમનું નિરૂપણ કરે છે–
For Private and Personal Use Only
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभाव निरूपणम्ं
'उच्चनीच कर्मविमुक्तः' इत्यन्तैः पदैः । एषां व्याख्या पूर्ववद् भावनीया । अन्त रायकर्म हि दानान्तरायादिभेदैः पञ्चविधं बोध्यम् । सम्प्रति तत्क्षय निष्पाि नामानि प्राह- 'क्षीणदानान्तरायः' इत्यारभ्य 'अन्तरायकर्म विमुक्तः' इति । एष
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
होने पर जो नाम निष्पन्न होते हैं उन्हें कहते हैं । गोत्र कर्म दो प्रकार का हैहै- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । संतान क्रम से चले आये हुए जीव के आचरण का नाम गोत्र है । प्रतिष्ठा प्राप्त हो ऐसे कुल में जन्म दिलानेवाला कर्म उच्च गोत्र और शक्ति रहने पर भी प्रतिष्ठा न मिल
सके ऐसे कुल में जन्म दाता कर्म, नीच गोत्र कहलाना है । गोत्र कर्म के अभाव होते ही उच्च और नीच दोनों प्रकार का गोत्र नष्ट हो जाता -अतः क्षीणोच्वगोत्र और क्षीण नीचगोत्र ये नाम निष्पन्न होते हैं । ( अगोए निग्गोए खीणगोए ) इन अगोत्र निर्गोत्र क्षीणगोत्र शब्दों की व्याख्या पहिले जैसी ही जाननी चाहिये। अब सूत्रकार अन्तराय कर्म के अभाव में जो नाम निष्पन्न होते हैं उन्हें बताते हैं-दानान्तराय आदि के भेद से अन्तराय कर्म ५ प्रकार का है। इनमें (खीणदाणंतराए, खीणलाभंतराए खीण भोगंतराए, खीणउपभोगंतराए, खीण वीरियंतराए) दानान्तराय के क्षय होने से क्षीण दानान्तराय,
(
( खीण उच्चागोए खीण नीयागोए ) गोत्रम्मना नीचे प्रभा में प्रकार पडे छे- (१) अभ्यगोत्र, (२) नीयगेोत्र में डुगमां जन्म थवाथी प्रतिष्ठा भणे छे, એવા કુળમાં જન્મ અપાવનાર કમને ઉચ્ચગેાત્ર કમ કહે છે શક્તિ હાવા છતાં પશુ–ચેાગ્યતઃ હાવા છતાં પણ પ્રતિષ્ઠા ન મળે એવા કુળમાં જન્મ અપાવનાર કર્મોને નીચ ગોત્રકમ કહે છે ગેાત્રકમના ક્ષય થતાંની સાથે જ ઉચ્ચ અને નીચ, આ ખન્ને પ્રકારના ગેત્રના નાશ થઈ જાય છે તેથી જેના ગાત્રકમ ના नाश था गयो छेत्रा करना “श्रीषोभ्यगोत्र " भने “क्षीगुनीथगोत्र " नाभी निष्पन्न थाय छे. (अगोर, निग्गोए, खीणगोए) वणी सेवा भात्माने " गोत्र ” " निर्गोत्र " अने “ श्रीगोत्र" पशु उडेवामां आवे छे. भा પદોની વ્યાખ્યા માહ' આદિની વ્યાખ્યાને આધારે સમજી શકાય એવી છે.
હવે સૂત્રકાર અન્તરાય કના અભાવથી આત્માના જે જે નામે નિષ્પન્ન થાય છે, તેમનુ સ્થન કરે છે—
દાનાન્તરાય આદિના ભેદથી અન્તરાયકમ પાંચ પ્રકારના કહ્યા (स्त्रीण दाणंतराए, खीणां तुहाए वीप भगं तुरापु स्त्री भोरांतीवीर
०.
यंतराए ) भवना हानान्तराना क्षय थ भवाश्री 'श्रीसुहानान्तराय,
For Private and Personal Use Only
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१६
अनुयोगद्वारसूत्र व्याख्याऽपि पूर्ववदेव बोध्या। इत्थं ज्ञानावरणाधन्तरायकान्ताष्टप्रकृतीनामेकैकक्षण निष्पन्नानि नामान्यभिधाय सम्पति समुदिताष्टकर्म प्रकृतिक्षये यानि नामानिनिष्पयन्ते तान्याह-'सिद्धे' इत्यादि-सिद्धा=सिद्ध समस्तपयोजनत्वात् सिद्धः । बुद्ध बोधस्वरूपत्वाद्बुदः। मुक्ता बाद्याभ्यन्तरग्रन्थबन्धन मुक्तत्वाद् मुक्तः। परिलामोत्तराय के क्षय होने से क्षीण लाभान्तराय, भोगान्तराय के क्षय भने से क्षीण भोगान्तराय उपभोगान्तराय के नष्ट होने से श्रीण उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय के नष्ट होने से क्षीण वीर्यान्तराय ये नाम निष्पन्न होते हैं (अणंतराए णिरंताए खीणंतराए ) तथा अनन्तराय निरन्तराय और क्षीणान्तराय ये नाम निपन्न होते हैं । इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त नोम (अंतरायकम्मविप्प मुक्के ) अन्तराय कर्म से विषमुक्त होने पर होते हैं । (सिद्धे बुद्धे मुते परिणिधुए, अंतगडे, सव्वदुक्खप्पहीणे ) अप सूत्रकार यह कहते हैं कि ये जो ज्ञानावरण आदि से लेकर अन्तराय कर्म पर्यन्त आठकर्म है उनमें से एक एक कर्म के नाश होने से जैसे ये भिन्न २ नाम कहे गये हैं उसी प्रकार से आठ कर्मों के सर्वथा नष्ट होने पर जो नाम होते हैं वे ये हैं-सिद्ध-समस्त प्रयोजन सिद्ध हो जाने से सिद्ध-यह नाम લાભાન્તરાય કર્મને ક્ષય થઈ જવાથી “ ક્ષીણુલાભાન્તરાય,” ભેગાન્તરાયને ક્ષય થઈ જવાથી “ક્ષીણગાન્તરાય,” ઉપભેગાન્તરાયને ક્ષય થઈ જવાથી
ક્ષીણઉપભેગાન્તરાય,” અને વર્યાન્તરાયને ક્ષય થઈ જવાથી “ક્ષણિવર્યાतराय" 0 Ri Ori IAL निपन थाय छे. (अणंतराए, णिरंतराए, खीणंतराए) तथा ना अन्तराय मना क्षय ५४ पाथी तेन मन तशय." निरन्तराय' मन 'क्षीतशय' मा नाम निपन्न थाय छे. ક્ષીણદાનાન્તરયથી લઈને ક્ષીણાન્તરાય પર્વતના ઉપર્યુક્ત નામે આત્માને ત્યારે જ ઓળખી શકાય છે કે જ્યારે તેના અન્તરાય કમને સંપૂર્ણતા ક્ષય થઈ ગયેલ હોય છે.
- (सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, परिणिव्वुए, अंतगडे, सव्वदुक्खप्पहीणे) ज्ञानापरी લઈને અન્તરાય પર્યન્તના પ્રત્યેક કર્મને નાશ થવાથી જીવના જે ભિન્ન ભિન્ન નમે નિષ્પન્ન થાય છે. તેમનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર, આઠે કમને સર્વથા વિનાશ થવાથી જીવના જે જે નામે નિષ્પન્ન થાય છે, તે નામને પ્રકટ કરે છે
* આઠ પ્રકારના કર્મોને જ્યારે સર્વથા ક્ષય થઈ જાય છે ત્યારે જીવના समस्त प्रयोग सिद्ध य य छ तेथी । पनु "सिद्ध " सिद्ध'
For Private and Personal Use Only
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् निर्वृतः परि समन्तात्-सर्वपकारैः निर्वृतः शीतीभूतः परिटतिः परिनिर्वृ तत्वं च सर्वोत्कृष्ट सकलसमीहितमोक्षरूपार्थपाप्त्या बोध्यम्। अन्तकृतः-अन्तकृतत्वं तु समस्तसंसारान्तकारित्वाद् बोध्यम् । तथा-सर्वदुःखपहीणः । सर्वदुःखपहीणत्वं तु शारीरमानसदुःखानामात्यन्तिकक्षयेण बोध्यम् । सम्पति प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष क्षयनिष्पन्न इति । निरूपितः क्षायिको भाव इति सूचयितुमाह-स एप धायिक इति ।।सू० १५४॥ निष्पन्न होता है।-बुद-बोध स्वरूप हो जाने से बुद्ध यह नाम निष्पन्न होता है । मुक्त-बाय और आभ्यन्तररूप परिग्रह बन्धन से छूटजाने से मुक्त यह नाम निष्पन्न होता है। परिनिर्वृत-सर्व प्रकार से, सब तरफ से शीती भूत हो जाने से परिनिर्वृत यह नाम निष्पन्न होता है। सकल समीहितो में सर्वोत्कृष्ट समीहित एक मोक्ष ही है-सो उसकी प्राप्ति से परिनिर्वृतपना-जानना चाहिये। अन्तकृत-समस्त संसार का अन्तकारी होने से अन्तकृत यह नाम निष्पन्न होता है सर्व दुःखप्रहीणशारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों के आत्यंतिक क्षय हो जाने से सर्व दुःख प्रहीण यह नाम निष्पन्न होता है।
अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करने के निमित्त कहते हैं નામ નિષ્પન્ન થાય છે. એ જીવ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનથી યુકત થઈ જવાને કારણે “બુદ્ધ” ગણાય છે. એવો જીવ બાહા અને આભ્યન્તર પરૂિ ગ્રહરૂપ બન્શનમાંથી મુક્ત થઈ જાય છે તેથી તેને “મુક્ત” કહેવામાં આવે છે. એ જીવ સર્વ પ્રકારના પરિતાપોથી નિવૃત થઈને શીતલીબત થઈ જાય છે. તેથી તેનું પરિનિર્વત” નામ નિષ્પન્ન થાય છે. સકળ સમીહિતેમાં સર્વોત્કૃષ્ટ સમીહિત તે માત્ર મોક્ષ જ ગણાય છે, તે મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ જવાના કારણે તે આત્મામાં પરિનિર્વતતા સમજવી એ જીવ સમસ્ત સંસા રને અન્તકારી બને છે તેથી તેને “અન્નકૃત” કહે છે. એવા જવના શારીરિક અને માનસિક સમસ્ત દુખોને આત્યંતિક (સંપૂણતા ક્ષય થઈ જવાને કારણે તેને સર્વદુઃખ પ્રહણ કહે છે. આ પ્રકારે આઠે કમેને સર્વથા ક્ષય કરી નાખનાર જીવન નીચે પ્રમાણે નામ નિષ્પન્ન થાય છે-(૧) સિદ્ધ (२) मुद्ध, (3) भुत, (४) ५२नित, (५) अन्तत भने (६) समाy.
હવે આ સૂત્રને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે(से तं खयनिष्फण्णे) ! २नु भयनिष्पन्न क्षायिs मापन ११३५ छ,
For Private and Personal Use Only
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१८
अनुयोगद्वारसूत्रे कि (से तं खयनिष्फण्णे) इस प्रकार यह क्षय निष्पन्न है । (से तं खइए) इस प्रकार यह क्षायिक भाव का निरूपण है___भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा क्षायिक भाव का निरूपण किया है। उसमें उन्होंने यह कहा है कि ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कमों का जो क्षय है एक तो वह क्षायिक भाव है-और दूसरा क्षायिक भाव वह है जो इन कर्मों के क्षय से निष्पन्न होता है । कर्मों के क्षय से निष्पन्न हुआ क्षायिक अनेक प्रकार का कहा है। उनमें पांच प्रकार के ज्ञानावरण कर्म के क्षय से नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म के क्षय से दो प्रकार के वेदनीय कर्म के क्षय से, २८ प्रकार के मोहनीय कर्म के क्षय से चार प्रकार के आयु कर्म के क्षय से, ४२ प्रकार के नाम कर्म के क्षप से, दो प्रकार के गोत्रकर्म के क्षय से और पांच प्रकार के अन्तराध के क्षय से सूत्र प्रदर्शित जितने भी नाम निष्पन्न होते हैं वे सब क्षाधिक हैं। क्योंकि ये भिन्न २ प्रकार के कर्मों के क्षय से निष्पन्न होते हैं। यहाँपर क्षयनिप्पन्न क्षायिकभाव में क्षयनिष्पन्न क्षायिक नामों का कथन जो किया गया है वह आप्रासंगिक नहीं है, क्योंकि क्षायिक (से तं स्वइए) क्षयनियन्न थायि भावनु नि३५ समास पाथी क्षायि ભાવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ પણ અહીં પૂરું થાય છે.
लावाय-सूत्रारे । सूत्रना क्षायि मापनु नि३५५] ४यु"छ. तमा તેમણે કાયિક ભાવના બે પ્રકાર બતાવ્યા છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોને જે ક્ષય છે તેને ક્ષાયિક રૂપ પહેલે પ્રકાર ગણવામાં આવે છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના ક્ષયથી નિષ્પન્ન થતાં ક્ષાયિક ભાવને ક્ષયનિષ્યન ૨૫ બીજા પ્રકારને ક્ષાયિક ભાવ કહ્યો છે. કર્મોનો ક્ષયથી નિષ્પન થત ક્ષાયિક ભાવ અનેક પ્રકારને કહ્યું છે. પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી, નવ પ્રકારના દર્શનાવરણ કર્મને ક્ષયથી, બે પ્રકારના વેદનીય કર્મના क्षयथी, २८ नमानीय मना क्षयथी, या प्राना भयुमना ક્ષયથી, ૪૨ પ્રકારના નામકર્મના ક્ષયથી, બે પ્રકારના ગોત્રકર્મના ક્ષયથી, અને પાંચ પ્રકારના અન્તરાય કર્મના ક્ષયથી સૂત્રોક્ત જેટલાં નામ નિષ્પન્ન થાય છે, તેમને ક્ષય નિષ્પન ક્ષયિક ભાવ રૂપે ગણવા જોઈએ, કારણ કે તે નામો ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારનાં કર્મોનો ક્ષયથી નિષ્પન થાય છે. . આ સત્રમાં ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાયિક ભામાં ક્ષયનિષ્પન ક્ષાયિક નામનું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે અપ્રાસંગિક નથી. તેનું કારણ નીચે
For Private and Personal Use Only
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
७१९
भाव का तात्पर्य है क्षय से उत्पन्न हुई अवस्था के परिणाम | यह आत्मा की निज स्वाभाविक अवस्था है। इसमें जो भी परिणाम हैं वे सब शुद्ध आत्मस्वरूप हैं । इन्हीं परिणामों को लेकर जो नाम कहे गये हैं । वे नाम, स्थापना या द्रव्यरूप नहीं हैं, किन्तु भावरूप है। कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा का जो मौलिक रूप प्रकट हो जाता है, उसी मौलिक रूप के ये वाचक हैं इसलिये इन नामों का क्षायिकभाव के प्रक रण में विवेचन करना युक्ति युक्त ही है। अप्रासंगिक नहीं है। जैसे जय केवलज्ञानावरण नष्ट हो जाता है तब आत्मा में केवलज्ञानगुण प्रकट हो जाता है केवलज्ञानावरण के नष्ट होते ही क्षायोपशमिक चार ज्ञान क्षायिकरूप हो जाते हैं-अर्थात् केवल ज्ञान में अन्तर्हित हो जाते हैं । तब इस आत्मा का क्षीण केवल ज्ञानावरण ऐसा नाम जो होता है वह नाम, स्थापना या द्रव्यरूप नहीं है। किन्तु भावनिपेक्ष रूप है । कारण उस प्रकार की पर्याय उस आत्मा में निष्पन्न हो चुकी है, और उसी का यह वाचक है । इसी प्रकार से शेष कर्मो के क्षय से निष्पन्न हुए नामों में भी जनाना चाहिये । इसीलिये क्षाधिक भाव के प्रकरण में सूत्रकार ने इनका निर्देशन किया है | || सू० १५४ ॥
પ્રમાણે છે-ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલી અવસ્થાના પરિણામને ક્ષાયિક ભાવ ગણાય છે. તે આત્માની નિજ સ્વાભાવિક અવસ્થા છે. તેમાં જે જે પરિશ્થામા છે, તે બધાં પરિણામ શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપ છે. તે પરિણામાના વિચાર કરીને જે નામા બતાવવામાં આવ્યાં છે તેએ નામ, સ્થાપના કે દ્રવ્યરૂપ નથી, પરન્તુ . ભાવરૂપ છે, કાના ક્ષય થઈ જવાથી આત્માનુ' જે મૌલિક મૂલ રૂપ પ્રકટ થઈ જાય છે, એજ મૌલિક રૂપના તે વાચક છે. તેથી તે નામેાનુ` ક્ષાયિક ભાવના પ્રકરણમાં વિવેચન કરવુ. તે અનુચિત અથવા અપ્રાસ'ગિક નથી, પરન્તુ ઉચિત અને પ્રાસ'ગિક જ છે. જેમ કે કેવળજ્ઞાનાવરણ ક`ના સ’પૂર્ણ ક્ષય થઈ જતાં જ આત્મામાં કેવળજ્ઞાનગુણુ પ્રકટ થઇ જાય છે. કેવળજ્ઞાના વણના નાશ થતાં જ ક્ષાયેાપશમિક ચાર જ્ઞાન ક્ષાયિક રૂપ થઈ જાય છે, એટલે કે આ ચારે જ્ઞાન કેવળજ્ઞાનમાં જ સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે, ત્યારે તે આત્માનું ‘ક્ષીણકેવળજ્ઞાનાવરણ” આ નામ નિષ્પન્ન થઈ જાય છે. તે નામ, સ્થાપના અથવા દ્રવ્યરૂપ હાતું નથી, પરન્તુ ભાવનિક્ષેપ રૂપ જ होय छे, કારણ કે તે પ્રકારની પર્યાય તે આત્મામાં નિષ્પન્ન થઈ ચુકી હોય છે, અને આ નામ તેનું જ વાચક છે. એજ પ્રમાણે બાકીનાં કર્માંના ક્ષયથી નિષ્પન્ન થયેલાં નામેાના વિષયમાં પણ સમજવુ. તેથી જ ક્ષાયિક ભાવના પ્રકરણમાં સૂત્રકારે તેમના નિર્દેશ કર્યાં છે. ૫.સૂ૦ ૧૫૪,
For Private and Personal Use Only
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगद्वारसूत्र अथ क्षायोपशमिकं नाम निरूपयतिमूलम्-से किं तं खओवसमिए ? खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते तं जहा-खओवसमे य, खओवसमनिप्फण्णे य। से कित खओवसमे ? खओवसमे चउण्हं घाइकम्माणं खओवसमेणं, तं जहा-णाणावरणिजस्स, दसणावरणिज्जस्स, मोहणिजस्स. अंतरायस्त, खओवसमेणं, से तं खओवसमे। से कितं खओ. वसमनिप्फण्णे? खओवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा खओवसमिया आभिणिबोहियणाणलद्धी, जाव खओवसामिया मणपजवणाणलद्धी, खओवसमिया मइअण्णाणलद्धी, खओव. समिया सुयअण्णालद्धी, खओवसमिया विभंगणाणलद्धी, खओवसमिया चक्खुदसणलद्धी, अचक्खुदंसणलद्धी ओहिदसणलद्धी, एवं सम्मदसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी, सम्ममिच्छादसणलद्धी, खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी, एवं छेयोवटावणलद्धी, परिहारविसुद्धियलद्धी, सुहुमसंपरायचरित्तलद्धी, एवं चरित्ताचरित्तलद्धी, खओवसमिया दाणलद्धी, एवं लाभलद्धी, भोगलंधी, उवभोगलद्धी, खओवसमिया वीरियलद्धी, एवं पंडियवीरियलद्धी, बालवीरियलद्धी, बालपंडियवीरियलद्धी, खओवसमिया सोई. दियलद्धी, जाव खओवसमिया फासिदियलद्धी, खओवसमिए आयारंगधरे, एवं सुयगडंगधरे, ठाणंमधरे, समवायंगधरे, विवाहपण्णत्तिधरे, नायाधम्मकहाधरे, उवासगदसाधरे, अंतगडदसाधरे, अणुत्तरोववाइयदसाधरे, पण्हावागरणधरे, विवागसुयधरे
For Private and Personal Use Only
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् , खओवसमिए दिट्टिवायधरे, खओवसमिए णवपुटवी, खोक समिए जाव चउद्दस्सपुबी, खओवसमिए गणी, खओवसमिए वायए,सेतंखओवसमनिप्फण्णे, सेतं खओवसमिए॥सू०१५५॥
छाया-अथ कोऽसौ क्षायोपशमिकः ?क्षायोपशमिकः द्विविधः प्रज्ञप्ता, तद्यथाक्षयोपशमश्च क्षयोपशमनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसौ क्षयोपशमः ? क्षयोपशमः-चतुर्णा पातिकर्मणां क्षयोपशमः खलु तद्यथा-ज्ञानावरणीयस्य, दर्शनावरीयस्य मोहनीयस्य, अन्तरायस्य क्षयोपशमः खलु, स एष क्षयोपशमः। अथ कोऽसौ क्षयोपशमनिष्पन्नः। क्षयोपशमनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः-तद्यथा-क्षायोपशमिकी आभिनिर्वाधिक शानलब्धिः, यावत् क्षायोपशमिकी मनः पर्ययज्ञानलब्धिः, क्षायोपशमिकी मत्यजतः लब्धिः, क्षायोपशमिकी श्रुताज्ञानलब्धिः, क्षायोपशमिकी विभङ्गज्ञानलाधार क्षायोपशमिको चक्षुर्दर्शनलब्धिाः अचक्षुर्दर्शनलन्धिः, अवधिदर्शनलब्धिः , एवं सम्यक्दर्शनलब्धिः, मिथ्यादर्शनलब्धिः, सम्यगमिथ्यादर्शनलम्धिः, क्षायोपश. मिकी सामायिकचारित्रलब्धिः, एवं छेदोपस्थापनलब्धिः परिहारविशुद्धिकलब्धि, संस्मसंपरायचारित्रलब्धिः, एवं चरित्राचरित्रलब्धिः क्षायोपमिकी दामलन्धिी,एवं लोमलब्धिः, भोगलब्धिा, उपभोगलब्धिः, क्षायोपशमिकी वीर्यसन्धिः," पण्डितवीर्यलब्धिः, बालवीर्यलब्धिा बालपण्डितवीर्यलब्धिा, क्षायोपशमिकी श्रोत्र दियलब्धिः, यावत् क्षायोपशमिकी स्पर्शेन्द्रियलब्धिः, क्षायोपशमिका आयाराममा एवं सूत्रकृताधरः, स्थानाङ्गधरः समवायाङ्गधरः, व्याख्यामाप्तिधरः, अत्ताधर्म काघरा, उपासकदशाधरः, अन्तकशाधरः, अनुत्तरोपपातिकशाधरः, प्रया करणधरः, विपाकश्रुतधरः, क्षायोपशमिको दृष्टिबादधरः, क्षायोपशमिको नवपूर्वीपर, क्षायोपशमिको यावत् चतुर्दशपूर्वीधरः, क्षायोपशमिकों गणी, क्षायोपोमिको पाचकः । स एष क्षयोपशमनिष्पन्नः स एष क्षायोपशमिका ।।१० १५५सा
टीका-से कि तं' इत्यादिअथ कोऽसौ क्षायोपशमिकमः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-शायोपशमिक अब सूत्रकार क्षायोपमिकभावका निरूपण करते हैं'से कि तं खओवसमिए' इत्यादि ।
शब्दार्थ-( से किं तं खओवसमिए ?.) हे भदन्त ! वह लामो मिक क्या है? - હવે સૂત્રકાર ક્ષાપથમિક ભાવનું નિરૂપણ કરે છે—
"से किं तं खओवसमिर" प्रत्यार
शार्थ-(से कि तं ख नोवसमिए ?) ३ मापन - antiપથમિકનું કવરૂપ કેવું છે?.
अ० ९१
For Private and Personal Use Only
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७२२
अनुयोगद्वारसूत्र क्षयोपशम-क्षयोपशमनिष्पन्नेति द्विविधः। तत्र-क्षयोपशम:-केवलज्ञानप्रतिबन्धकस्य ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयमोहनीयान्तरायरूपघातिकर्मचतुष्टयस्य क्षयोपशमोबोध्या। अयं भावः-विवक्षितज्ञानादिगुणविघातकस्य कर्मणः उदयमाप्तस्य क्षय:सर्वथाऽपगमः, अनुदीर्णस्य तस्यैव कर्मण उपशमः विपाकत उदयाभावः। ततश्च क्षयोपलक्षितः उपशम इति । ननु औपशमिके भावे उदयप्राप्तस्य कर्मणः सर्वथा : उत्तर-खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते ) क्षयोपशमिक दो प्रकार को प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा ) जैसे-खभोवसमे य खओवसमनिष्फण्णे य) एक क्षयोपशमरूप क्षायोपशभिक और दूसरा क्षयोपशमनिष्पक्ष क्षायोपशमिक। (से कि त खोवसमे ?) हे भदन्त ! वह क्षायोपशम क्या है। - उत्तर-(खोवसमे चउण्हं घाइकम्माण खओवसमेणं ) केवल ज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्त. राय इन चार घातिक कर्मों का जो क्षयोपशम है वह क्षायोपशम है। इसका तात्पर्य यह है कि विवक्षित ज्ञानादिक गुणों को घात करने वाले उदय प्राप्त कर्म का क्षय-सर्वथा अपगम-और अनुदीर्ण उसी कर्म का उपशम-विपाक की अपेक्षा से उदयाभाव इस प्रकार क्षय से उपलक्षित जो उपशम है वही क्षयोपशम है।
शका-औपशमिक भाव में उदय प्राप्त कर्मका सर्वथा क्षय है और
.. उत्तर-(खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तंजहाँ) क्षाया५शभि भावना नीय प्रभाव में प्रा२ ४॥ छ-(खओवसमे य खओवसमनिप्फण्णे य) (1) ક્ષપશમ રૂ૫ લાપશમિક અને (૨) ક્ષપશમ નિષ્પન્ન ક્ષાપશમિક. ....... प्रश्न-(से किं तं खओवसमे ?) भगवन् ! ते क्षायोपशमनु २१३५
उत्तर-(खओवसमे चउण्डं घाइकम्माणं खओवसमेणं) ज्ञानना प्रतिम. શ્વક-કેવળજ્ઞાનને પ્રકટ થતું કિનારાં-જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, મોહનીય અને અન્તરાય, આ ચાર ઘાતિયા કર્મોને જે પશમ રૂ૫ ભાવ છે, તેને ક્ષપશમ કહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-વિવક્ષિત જ્ઞાનાદિક ગુણેને ઘાત કરનારા ઉદય પ્રાપ્ત કર્મને ક્ષય (સર્વથા અપગમ) અને અનુદીર્ણ એજ કર્મને ઉપશમ (વિપાકની અપેક્ષાએ ઉદયાભાવ), આ પ્રકારનો ક્ષયથી ઉપલક્ષિત જે ઉપશમ છે, તેનું નામ જ ક્ષપશમ છે.
શંકા–પશમિક ભાવમાં ઉદયપ્રાપ્ત કર્મને સર્વથા ક્ષય થાય છે અને
For Private and Personal Use Only
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् .७३६ क्षयः, अनुदयप्राप्तं तु कर्म न क्षीणं नापि तस्योदयोऽतस्तस्योपशमश्च उच्यते, क्षायोपशमिकेऽस्मिन्नपि भावे उदीर्णस्य क्षयः, अनुदीर्णस्य चोपशम इत्युन्यते, इत्थमनयोः को भेदः ? इति चेदाह-कर्मणः क्षयोपशमे तु विपाकत एवोदयाभावः, प्रदेशस्तु अस्त्येवोदयः, औपशमिके भावे तु कर्मणः प्रदेशतोऽप्युदयो नास्तीत्यनयोर्मेंदो बोध्यः । क्षयोपशमस्तु ज्ञानावरणादि कर्मचतुष्टयस्यैव भवति, नान्येषां (अनुदय प्राप्त जो कर्म है उसका न क्षय है और न उदय है, किन्तु उपशम है, इसी प्रकार इस क्षायोपशमिक भाव में भी उदीर्ण कर्मका क्षय है और अनुदीर्ण कर्मका उपशम है। तब औपशमिक और क्षायोपशमिक में क्या भेद है ? . उत्तर-क्षयोपयोशम भाव में जो कर्म का उपशम कहा गया है वह विपाक की अपेक्षा से ही उद्याभाव रूप उपशम कहा गया है, प्रदेश की अपेक्षा नहीं-प्रदेश की अपेक्षा से तो वहां कर्मका उदय है परन्तु औपशमिक भाव में जो उपशम कहा गया है वह विपाक और प्रदेश दोनों की अपेक्षा से कहा गया है । अर्थात् औपशमिक भाव में कर्म का न विपाकोदय है, और न प्रदेशोदय है। नीरस किये हुए कर्म दलिकों का वेदन प्रदेशोदय है और रस विशिष्ट दलिकों का विपाक वेदन विपाकोदय है। क्षयोपशम ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अंतराय इन चार कर्मों का ही होता है। निषिद्ध होने અનુદય પ્રાપ્ત જે કર્મ છે તેને ક્ષય પણ તે તથી અને ઉદય પણ થતું નથી પરતુ ઉપશમ જ થાય છે. એ જ પ્રકારે ક્ષાપશમિક ભાવમાં પણ ઉદીર્ણ કર્મને ક્ષય અને અનુદી કર્મને ઉપશમ થતું હોય છે. તે પછી આપશમિક અને ક્ષાપશમિકમાં શે ભેદ છે ?
ઉત્તર-ક્ષયે પશમ ભાવમાં કર્મને જે ઉપશમ કહેવામાં આવે છે તે વિપાકની અપેક્ષાએ જ ઉઠયાભાવ (ઉદયને અભાવ) રૂપ ઉપશમ બતાવવામાં આવ્યો છે, પ્રદેશની અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યું નથી. પ્રદેશની અપેક્ષાએ તે ત્યાં કર્મને ઉદય જ છે. પરંતુ ઔપશમિક ભાવમાં જે ઉપશમ બતાવવામાં આવ્યું છે, તે વિપાક અને પ્રદેશ, આ બંનેની અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યા છે એટલે કે પશમિક ભાવમાં કર્મને વિપાકેદય હેતું નથી, પણ પ્રદેશદય હોય છે. નીરમ્ર કરાયેલા કર્મવિકોનું વેદના પ્રદેશદય રૂપ છે અને રસવિશિષ્ટ હલિકનું વિપકવેદન વિપાકેદય રૂપ છે. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, મોહ
For Private and Personal Use Only
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
.
अनुयोगद्वारी किमी, निषिद्धत्वात् । सम्पति प्रथमं भेदमुपसंहरन्नाह स एष क्षयोपशम इति । मातीय भेदं पृच्छति-अथ कोऽसौ क्षयोपशमनिष्पन्नः? इति । उत्तरयति-क्षयोपशनिपल अनेकविधः मजप्तः। अनेकविधस्वमेवाह-तद्यथा-क्षायोपशमिकी मानिनिमोशिकानलन्धिः क्षयोपशमेन निष्पन्ना क्षायोपशमिकी, सा का? : इल्या
आमिनिबोधिकज्ञानलब्धिरिति। आमिनिबोधिकज्ञान-भतिज्ञानं तस्य लन्धिम् प्राधिः इयं हि-स्वावरणकर्मक्षयोपशमेनोपसम्पद्यते, अत एवेयं क्षायोपशमिकीत्युच्यते । तभारभ्य क्षायोफ्शमिकी मनः पर्यवज्ञानलब्धिरिति यावद् वक्तव्यम् । तत्वान से अन्य कर्मों को नहीं होता है । (से तं खोसमे) इस प्रकार यहक्षयोपशम है (से कि तं खोवसमणिप्फण्णे १ ) हे भदंत ! क्षयोपशम निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव क्या है ?
उत्तर-(खोवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्त) क्षयोपशमं निष्पून सायोपशमिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा ) वे प्रकार ये हैं
(खोव समिया आर्भिणियोंहियणाणलद्धी जाव खोवसमिया मणप्रज्जवणाणलद्धी) क्षयोपशमिकी आभिनियोधिक ज्ञानलन्द्धि-अभिनिबाधक नाम मतिज्ञान है। इस मतिज्ञान की प्राप्ति का नाम आभिनियोधिक शानलब्धि है। यह आभिनियोधिकज्ञानलब्धि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होती है। इसलिये इसे क्षायोपमिकी कही है, इसी प्रकार श्रुतज्ञानलंब्धि श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से होती है। अवधिમીય અને અંતરાય, આ ચાર પ્રકારનાં કમેને જ ક્ષપશમ થાય છે, અન્ય કમેને
पशम यता नथी. (से तं खओवसमे) मा प्रानुक्षयोपशमनु १३५ . 3. प्रभ-(से कि तं खओवसमणिप्फण्णे ?) 3 मन्! क्षयोपशमनि०पन्न સાપશર્મિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खओवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) क्षयोपशमनिष्पन्न झायो"पशभिड मा भने प्रारन। यो छे. (तंजहा) रेम है....(खओवसमिया
आभिणियोहियाणणलद्धी जाव खोवसमिया मणपज्जवणाणलद्धी) क्षायोपभिती અભિનિધિક જ્ઞાનલબ્ધિ મતિજ્ઞાનને આભિનિધિક જ્ઞાન કહે છે. આ મતિજ્ઞાનની પ્રાપ્તિનું નામ આભિનિધિક જ્ઞાનલબ્ધિ છે. મતિજ્ઞાનાવરણ
ના પશમથી આ અભિનિધિક જ્ઞાનલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે તેથી તેને શાપથમિકી કહેવામાં આવી છે. એ જ પ્રમાણે શ્રુતજ્ઞાનાવરણ કમને ઉપશમથી શ્રુતજ્ઞાનલશ્વિની, અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષે પશમથી
.7-
2..
WARE
For Private and Personal Use Only
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
27.
अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ७३५ 'प्रातिहि तत्तदावरणकर्मक्षयोपशमजन्या बोध्या। केवलज्ञानलब्धिस्तु तदावरण कर्मणः क्षय एवोत्पयते अतोऽत्र नोक्ता। तथा-क्षायोपशमिकी मत्यज्ञानलब्धि:अज्ञान-कुत्सितं ज्ञानम्-अज्ञानम्, कुत्सार्थेऽपि नबोवृत्तिः, कुत्सितं-शीलम्शीलम् इत्यादौ तथा दृष्टत्वात् , मतिरेवाज्ञानं मत्यज्ञानं तस्य लब्धिः योग्यते स्वावरणक्षयोपशमेनैव निष्पयते । कुत्सितस्वं चास्य मिथ्यादर्शनोदयषितवार पाँध्यम् । एवं क्षायोपशमिकी श्रुतंज्ञानलम्धिरपि बोध्या। तथा-क्षायोपशामक विमानलब्धिः भामकारो भेदइति पर्यायाः। भङ्गशब्दस्त्विह प्रक्रमादवधिवाचका ज्ञानालब्धि अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होती है, और मनापर्यवज्ञानलब्धि मनः पर्यवज्ञानावण कर्म के क्षयोपशम से होते है। इसलिये इन लब्धियों कोक्षायोपशमिक कहा है। केवलज्ञानलब्धि के सूत्रकार ने जो यहां नहीं कहा है उसका कारण यह है कि यह बलज्ञानावरणकम के क्षय से होती है। (खओवसमिया मह अण्णा लद्धी, खमोवसमिया सुय अण्णाणलद्धी, खीवसमिया विभंगणाण लद्धी ) मंतिअज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति अज्ञान, श्रुतअज्ञानी वरण के क्षयोपशम से श्रुमज्ञान, विभंगज्ञानावरण के क्षयोपशम से विभंगज्ञान की प्राप्ति होती है, इसलिये इन्हें क्षायोपशिमिकी मत्यज्ञान लन्धि, क्षायोपशमिकी श्रुताज्ञानालब्धि और क्षायोपशमिकी विभी झान लब्धि कहा है। कुत्सित ज्ञान का नाम अज्ञान है । कुत्सित और में भी न होता है। जैसे कुत्सितशील अशील आदि (खीवसमिय અવધિજ્ઞાન લખિની અને મન પર્યવજ્ઞાનાવરણના ઉપશમથી મનપવાન લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે કારણે તે લબ્ધિઓને પથમિક કહેવામાં આવી છેઅહીં સૂત્રકારે કેવળજ્ઞાન લબ્ધિને ઉલેખ કર્યો નથી, કારણ કે કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી જ કેવળજ્ઞાન લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, क्षयोपशमयी तनी प्राति त नथी.........
(खोवसमिया मइ अण्णाणलद्धी, ख भोवसमिया सुय अण्णाणलद्धी, खोपसमिया विभंगणाणलद्धी) मति मज्ञानावरना क्षयोपशमयी मति अज्ञान, થતઅજ્ઞાનાવરણના ક્ષયોપશમથી થતાજ્ઞાન અને વિભંગાનાવરણના ક્ષયે પશમથી વિજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેથી તેમને ક્ષાપશમિકી મઝાન રષિ, લાપશમિકી મૃતાજ્ઞાનલબ્ધિ અને ક્ષાપશમિકી વિભજ્ઞાનલબ્ધિ કહેવામાં આવેલ છે. કુત્સિત જ્ઞાનનું નામ અજ્ઞાન છે. કુત્સિતના અર્થમાં પણ नब (ना२ पा) न प्रयो. थाय छ. २ , इत्सितशीद, मशॉ its.
म
.
"
.
For Private and Personal Use Only
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
अनुयागद्वारा
........
Il
विरूपः कुत्सितो भङ्गो विभङ्गः, स एव ज्ञान-विभङ्गज्ञानम्-ज्ञानत्वं चास्य अर्थपरिज्ञा. नात्मकत्वाद् नांव्यम् । मिथ्याष्टिदेवादेरवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमुच्यते । विभङ्गज्ञानस्यलब्धि-विभङ्गज्ञानलब्धिः। इयमपि स्वावरणक्षयोपशमेनैव भवति, अतोऽस्या अपि क्षायोपशमिकीत्वं बोध्यम् । एवं मिथ्यात्वादिकर्मणः क्षयोपशमसाध्याः शेषा अपि सम्यग्दर्शनादिलब्धयो यथासम्भवं भावनीयाः। तथा-क्षायोपशमिकी वीर्यलब्धिःइयं हि वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमाद भवति। एवं-पण्डितवीर्यलब्धिः, बालवीर्यलब्धिः, चक्खुदंसणलद्धी) क्षायोपशमिकीचक्षुः दर्शन लब्धि, (अचक्खुदंसणलद्धी, ओहिदंसणलद्धी) अचक्षुदर्शनलन्धि अवधिदर्शनलब्धि है। इन में चक्षुर्दर्शनावरण के क्षयोपशम से चक्षुर्दर्शन लब्धि, अचक्षुर्दर्शनावरण के क्षायोपशम से अचक्षुर्दर्शनलब्धि और अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से अवधिदर्शनलब्धि होती है। (एवं सम्मदसणलद्धी, मिच्छादसणलद्धी सम्ममिच्छादसणलद्धी) इसप्रकार से सम्यकदर्शनलब्धि, मिथ्या. दर्शनलब्धि (खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी, एवं छेयोवट्ठावणलद्धी, परिहारविसुद्धिलद्धी सुहुमसंपरायचरित्तलब्धि एवं चरित्ताचरित्सलद्धी) क्षायोपशमिकी सामायिक चरित्रलब्धि छेदोपस्थापनालन्धि, परिहारविशुद्धिक लब्धि, सूक्ष्म संपरायचारित्रलब्धि, चारित्राचरित्रलब्धि (खओव समिया दाणलद्धी, एवं लाभलद्धी, भोगलद्धी, उपभोगलद्धी) क्षायोपश. मिकी दानलब्धि लाभलब्धि, भोगलब्धि उपभोगलब्धि, (खभोवसमिया
(खओवसमिया चक्खुदसणलद्धी) क्षायो५मिमी यक्षः शनय, (अवखुदसणलद्धी, ओहिदसणलद्धी) अयश नसDिE मने साधन પણ ક્ષપશમ નિષ્પન્ન ક્ષાપશમિક ભાવરૂપ છે, કારણ કે ચક્ષુદર્શનાવરણ કર્મના ક્ષયે પશમથી ચક્ષુદર્શનલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અચક્ષુર્શનાવરણ કર્મના ક્ષયે પશમથી અચક્ષુદ્દશનલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે અને અવધિદર્શનपरशुना क्षयोपशमी पNिDी प्राप्ति थाय छे. (एव' सम्मदंपणलद्धी, मिच्छादसणलद्धो, सम्ममिच्छादसणलद्धी) मे प्रमाणे सभ्यनिधि, भियानसधि, सभ्यभूमिथ्याशनalou, (ख ओवधमिया सामाइयचरितलद्धी, एवं छेयोवढावणलद्धी, परिहारविसुद्धिलद्धी) क्षायो५मिती सामायि न्यास्त्रिय, छे४।५स्थापना, परिक्षा२विशुद्धिप्रधि, (सुहमसंपराय चरित्सलद्धी, एवं चरित्ताचरित्तलद्धी) सूक्ष्म स५२।५ यरित्र , यारित्रायाaalou, (ख ओवसमिया दाणलद्धी, एवं लाभलद्धी, भोगलद्धी, उपभोगलद्धी) સાપશમિકી દાનલબ્ધિ, લાભલબ્ધિ, ભેગલબ્ધિ અને ઉપગલબ્ધિ, (सभोवसमिया वीरियलद्धी) आयो५मिवायध, (एवं पंडियवीरियसली,
For Private and Personal Use Only
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ७२७. बालपण्डितवीर्यलब्धिरिति बोध्यम् । अयं भावः-पण्डिताः साधवः, बालाअविरताः, बालपण्डिताः देशविरताः। एषां स्वस्ववीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमेन स्वस्ववीर्यलब्धिः प्रादुर्भवतीति । तथा-क्षायोपशमिकी श्रोत्रेन्द्रियलब्धिः यावत् सायोपशमिकी स्पर्शेन्द्रियलब्धिः। अत्र-इन्द्रियाणि लब्ध्युपयोगरूपाणि भावेन्द्रियाणि बोध्यानि, तेषां लब्धिःमतिश्रतज्ञानचक्षुरचक्षुदर्शनावरणक्षयोपशमजन्यत्वात् क्षायोपशमिकीति बोध्यम्। तथा-क्षायोपशमिक आचारागधर इत्यारभ्य क्षायोपशमिको वाचक इत्यन्तोऽपि श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजन्यो बोध्यः। आचाराङ्गधरत्वादि पर्याया हि श्रुतज्ञानमभवाः, श्रुतज्ञानं च तदावरणकर्म क्षयोपशमेन निष्पद्यते, अत आचाराङ्गधरादयः क्षायोपशमिका बोध्या इति भावः । पीरियलद्धी) क्षायोपशमिकी वीर्यलब्धि, (एवं पंडियवीरियलद्वी) पंडित वीर्यलब्धि (पाल वीरियलद्धी) बालवीर्यलब्धि (बालपंडियवीरियलद्धी) बालपंडित वीर्यलब्धि (खओवसमिया सोइंदियलद्धी) क्षायोपशमिकी श्रोत्रेन्द्रियलन्धि (जाव) यावत् (खओवसमिया फासिदियलद्धी)क्षायोपशमिकी स्पर्शन इन्द्रिलब्धि (खोवसमिए आयारंगधरे) क्षायोपशमिक आचारांगधारी, (एवं सुयगडंगधरे, ठाणंगधरे, समवायंगधरे, विवाहपप्रणत्तिधरे, नायाधम्मकहाधरे)सूत्रकृताङ्गधारी, स्थानांगधारी, समवायाधारी, विवाहप्रज्ञप्तिधारी ज्ञाताधर्मकथाधारी (उवासगदसाधरे) उपासकदशाधारी, (अंतगडदसाधरे) अन्तकृदशाधारी, (अणुत्तरोववाइयदसाघरे) अनुत्तरोपपातिक दशाधारी, (पण्हावागरणधरे) प्रश्नव्याकरणधारी, (विवाग सुयधरे) विपाक अतधारी (खोवसमिए दिहिवायधरे) क्षायोपशमिक दृष्टिवादधारी (खओवसमिए णवपुव्वी) क्षायोपशमिक नवबालवीरियलद्धी, बाळपंडियवीरियलद्धी) क्षामिडी तिवीय , ia. વીર્ય લબ્ધિ અને બાલપંડિતવીર્યલબ્ધિ.
(खभोबसमिया सोइंदियलद्धी जाव खओवसमिया फासिंदियलद्धी) क्षायो५.. શમિકી શ્રોત્રેન્દ્રિયલબ્ધિથી લઈને ક્ષાપશમિકી સ્પર્શેન્દ્રિયલબ્ધિપર્યન્તની પાંચ ४२नी समे, (खोवसमिए आयारंगधरे) क्षायो५मि मायारागधारी, (एवं सुयगडंगधरे, ठाणंगघरे, समवायंगधरे, विवाह पण्णत्तिधरे, नायाधम्मकहाधरे, वा. सगदसाधरे, अणुत्तरोववाइयदसाधरे, पाहावागरणधरे, विवागसुयधरे,) मे प्रभार) ક્ષાપશમિક સૂત્રકૃતાં.ધારી, સ્થાનાંગધારી, સમવાયાંગધારી, વિવાહપ્રજ્ઞપ્તિ (०याभ्याप्रशसियारी, SIAMAधारी, मन्तताधारी, अनुत्तरी५५ति.
धारी, प्रश्न०या४२५धारी विश्रुतधारी, (खओवसमिए दिद्विवायधरे)
For Private and Personal Use Only
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
૨૮
अनुयोगद्वारसूत्रे,
मकवमुपसंहरणाह-स. एष क्षायोपशमनिष्पन्न इति । क्षायोपशमिको भावः प्ररूपित सूचयितुमाह- स एष क्षायोपशमिक इति सू० १५५ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पूर्वधारी ( खओवसमिए जाव चउदस पुथ्वी) क्षायोपशमिक यावत् चतुर्दशपूर्वधारी (खओवसमिए गणी) क्षायोपशमिक गणी खाओब समिए वायर) क्षायोपशमिकबाचक ( से तं खओवसम्मनिष्फण्णे ) इसप्रकार ये सब क्षायोपशम निष्पन्न हैं ( से तं खओवसमिए) यह बह क्षायोपशमिक है। -
भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने क्षायोपशमिक क्या है इसका विवेचन किया है। उन्होंने कहा है कि एक तो क्षायोपशम ही क्षायोपश fue है और दूसरा क्षयोपशम निष्पन्न क्षायोपशमिक है। इनमें चार घातिक कर्मों का क्षय उपलक्षित जो उपशम है वह क्षायोपशमिक है। क्षायोपशमिक ज्ञान के आवारक जो कर्म हैं उनमें सर्वधातिस्पर्युक (कमांश) और देशघातिस्पर्द्धक ये दोनों प्रकार के स्पर्द्धक पाये जाते हैं। इसलिये उनका क्षयोपशम होता है। नव नोकषायों में केवल देशघातिस्पर्द्धक ही पाये जाते हैं इसलिये उनका क्षयोपशम नहीं होता केवल ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों में केवल सर्वघातिस्पर्द्धक पाये जाते हैं
क्षायोपशभिः दृष्टिवाडधारी, (खओवसमिए णत्रपुच्ची) क्षायोपशभिः नवपूर्व धारीथी संहने (खओवसमिए जाव चउदसपुव्वी) क्षायोपशमिठ, यो पूर्वधारी पर्यन्तना लवे!, (खओवसमिए गणी ) क्षायोपशभिः गली, (खओयसमिए वायए) भने क्षायोपशमि पाय (सेतं खओवसमनिप्पण्णे) आधा क्षार्थी पशम निष्यन्न लावे! छे. ( से तं खओवस्वमिए) क्षायोपशभिनु म प्रहार स्वईच छे.
1,
ભાવાર્થ –આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે ક્ષાાપશમિક ભાવના સ્વરૂપનુ વિવેચન કર્યુ છે તેમાં તેમણે એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે એક તા ક્ષાાપશમજ ક્ષાપશર્મિક છે અને બીજું ક્ષાષશમનિષ્પન્ન ક્ષાયેાપશર્મિક છે. ચાર ઘાતિયા
કમીના ક્ષયથી ઉપલક્ષિત જા જે ઉપશમ છે, તેનું નામ ક્ષાયાપથમિક
V.
સાચાપશર્મિક જ્ઞાનનું આવરણ કરનારા જે ક્રાં છે તેમાં સાતિ પા અને દેશધાતિ પુકારૂપ અને પ્રકારના સ્પદ્ધકાના સદ્દભાવ રહે છે.
۱
For Private and Personal Use Only
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपमिकभावनिरूपणम् l इसलिये उनका भी क्षयोपशम नहीं होता है। यद्यपि प्रत्याख्यानावरण
और अप्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाति ही हैं-किन्तु उन्हें अपेक्षा कृत देशघाति मान लिया जाता है इसलिये अनंतानुषंधी आदि क्षयोपशम बन जाता है। अघातिया कर्मों में तो देशघाति और सर्व घाति यह विकल्प ही संभव नहीं, इसलिये उनके क्षयोपशम का महल ही नहीं उठता। अतः सूत्रकारने यह तो क्षयोपशम की सामान योग्यता का विवेचन किया है। क्षयोपशम और उपशम में केवल अन्तर इतना ही है कि क्षयोपशम में कितनेक सर्वघातिस्पर्द्धको कर उदयाभावी क्षय रहता है और कितनेक उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकों का सदवस्था रूप उपशम रहता है-तथा देशघातिस्पर्द्धकों का उदय रहता है। तब कि उपशम में किसी का भी उदय नहीं रहता है। सबका उपशम ही रहता है
अप सूत्रकार यह कहते हैं कि किन २ कर्मों के क्षयोपशम से कौन २ से भाव प्रकट होते हैं-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधि ज्ञानावरण, और मनःपर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति, श्रुत, તેથી તેમને ક્ષયે પશમ થાય છે. નવ નેકષામાં કેવળ દેશવાતિ સ્પ (કર્મલિકે)ને જ સદ્ભાવ હેય છે, તેથી તેમને ક્ષયોપશમ થતું નથી કેવળજ્ઞાનાવરણ આદિ પ્રવૃતિઓમાં કેવળ સર્વિઘાતિ પદ્ધ કેને જ સદભાવ હોય છે, તેથી તેમને ક્ષયે પશમ પણ થતું નથી જે કે પ્રત્યાખ્યાતાવરણ અને અપ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાય સર્વઘાતિ જ છે, પરંતુ તેમને અપેક્ષાત દેશદ્યાતિ માની લેવામાં આવેલ છે, તેથી અનંતાનુબંધી આદિને સોપશમ સંભવિત બની જાય છે. અાતિયા કર્મોમાં તે દેશવાતિ અને સર્વ ધાતિ રૂપ વિકપ જ સંભવી શો નથી, તેથી તેમના ક્ષપશમને તે પ્રશ્ન જ ઉ૬ભવતે નથી આ પ્રકારે સૂત્રકારે ક્ષપશમની સામાન્ય ગ્યતાનું અહીં વિવેચન કર્યું છે ક્ષપશમ અને ઉપશમ વચ્ચે નીચે પ્રમાણેનું અંતર સમજવું– ક્ષપશમમાં કેટલાક સર્વઘાતિ સ્પર્ધ્વ કે ઉદયાભાવી ક્ષય રહે છે અને કેટલાક સર્વઘાતિ પદ્ધકના સદવસ્થારૂપ ઉપશમ રહે છે તથા દેશદ્યાતિ સ્પદ્ધકે ઉદય રહે છે પરંતુ ઉપશમમાં તેમને ઉદય રહેતું નથી પણ ઉપશમ જ રહે છે.
હવે સૂવકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કયાં કયાં કર્મોના પશમથી ક્યા કયા ભાવ પ્રકટ થાય છે—મતિજ્ઞાનાવરણ, શ્રુતજ્ઞાનાવરણુ, અવધિજ્ઞાનાવ.. ૨ણ અને મન ૫ર્યવજ્ઞાનાવરણ કર્મોના ક્ષાપશમથી અનુક્રમે મતિજ્ઞાન, શ્રત
अ० ९२
For Private and Personal Use Only
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे भषि और मनःपर्यवज्ञान प्रकट होते हैं। सूत्र में लब्धि शब्द क मार्य प्राप्ति है। यह स्त्रीलिङ्ग है इसलिये “क्षायोपशमिकी" शब्द में श्रीलिंग में व्यवहृत किया गया है। अपने २ आवारक कर्मों के क्षयोप शाम से मतिज्ञानादिकों की प्राप्ति होती है । इसलिये यह प्राप्ति क्षायो कामिकी है। केवलज्ञान को क्षयोपशमिक नहीं माना गया है। घर तोक्षायिक है। क्यों कि यह केवलज्ञानावरण के क्षय से होता है।
शंका-यदि केवलज्ञान, केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से होता हैतो फिर उसे ऐसा क्यों कहा जाता है कि यह ज्ञानावरण कर्म के क्षय से होता है ?
उत्तर-आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान है। इसे केवलज्ञानावरण भावृत किये हुए हैं। तथापि वह पूरा आवृत नहीं हो पाता, अतिमन्य ज्ञान प्रकट ही बना रहता है। जिसे मतिज्ञानावरण आदि कर्म आवृत करते हैं, इससे स्पष्ट है कि केवलज्ञान को प्रकट न होने देना ज्ञाना करण के पांचों मेदों का साक्षात् रोकता है और मतिज्ञानावरण आदि परंपरा से। इसलिये ज्ञानावरणकर्म के क्षय से केवलज्ञान होता। જ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાન પ્રકટ થાય છે. સૂત્રમાં જે “લબ્ધિ” પદ વપરાયું છે તેને અર્થ “પ્રાપ્તિ” સમજ “લબ્ધિ પદ આલિંગમાં હોવાથી તેની સાથે “ક્ષાપશમિકી” આ પદને પણ સ્ત્રીલિંગમાં જ પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે મતિજ્ઞાન આદિકેની પ્રાપ્તિ ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે તે પ્રત્યેક જ્ઞાનના આવારક (આવરણ કરનારાં) કમને ક્ષયપશમ થાય છે. તેથી તેમની તે પ્રાપ્તિને ક્ષાપશમિકી કહી છે. કેવળજ્ઞાનને ક્ષયપશમિક ગણવામાં આવતું નથી, તેને તે ક્ષાયિક જ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી જ કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે.
શંકા-જે કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયને લીધે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થતું હોય, તે એવું શા માટે કહેવામાં આવે છે કે જ્ઞાનાવરણ કર્મને ક્ષય થવાથી કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે? - ઉત્તર-આત્માને સ્વભાવ કેવળજ્ઞાન છે તેના ઉપર કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મનું અકારણ હોય છે છતાં પણ તે પૂરેપૂરું આવૃત થઈ શકતું નથી અતિ મન્દ જ્ઞાન પ્રકટ જ થતું રહે છે, કે જેને મતિજ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મ આવૃત કરે છે તેથી એ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે કેવળજ્ઞાનને પ્રકટ ન થવા દેવામાં જ્ઞાનાવરણના પાંચે ભેદે કારણભૂત બને છે કેવળજ્ઞાનાવરણ કમ કેવળજ્ઞાનને રાત રોકે છે અને મતિજ્ઞાનાવરણ આદિ ચાર કર્મો તેને પરંપરા
For Private and Personal Use Only
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ऐसा कहा जाता है । मतिअज्ञानावरण, श्रुतअज्ञानावरण, और विमंगज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मत्यज्ञान, श्रुनाज्ञान, और विभंगज्ञान प्रकट होते हैं। यहां अज्ञान से तात्पर्य ज्ञानाभाव से नहीं है, क्योंकि ज्ञानावरण रूप अज्ञान औदयिक भाव है । यह - ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है । किन्तु कुत्सित ज्ञान का ना अज्ञान है। जब मतिज्ञान आदि मिथ्यादर्शन के उदय से दूषित होते तब वे कुत्सितज्ञान कहलाते हैं। विभंग में भंगशब्द प्रकरणवश अवधि वाचक है। वैसे तो यह प्रकार भेद का वाचक है। और "वि" शब्द 'विरूप- कुत्सित अर्थ का वाचक है । इस तरह विरूपः भंगः विभंग: विभंग एव ज्ञानम्" ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है । इस विभंग में जो ज्ञान पना है, वह अर्थ परिज्ञानात्मक होने से है । मिध्यादृष्टि देवादिकों का अवधिज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनाचरण, और अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन प्रकट होते हैं। इसलिये क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ३ये रे छे. तेथी “ज्ञानावरशुम्भंना क्षयथी डेवलज्ञान उत्पन्न थाय छे, " એવુ' કહેવામાં આવે છે.
-
મતિઅજ્ઞાનાવરણુ, શ્રુતમજ્ઞાનાવરણુ અને ક્ષયાપશમથી અનુક્રમે મત્યજ્ઞાન, શ્રુતાજ્ઞાન અને छे. अहीं " अज्ञान " પદ્મ દ્વારા જ્ઞાનાભાવ કે જ્ઞાનાભાવ ३५ અજ્ઞાનતા ઔયિક ભાવરૂપ છે, અને જ્ઞાનાવરણુ ક્રના ઉદયથી તે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. પરન્તુ કુત્સિતજ્ઞાનને અજ્ઞાન કહે છે. જયારે મતિજ્ઞાન આદિ મિથ્યાદશનના ઉદયથી કૃષિત હાય છે, ત્યારે તેમને કુત્સિત જ્ઞાનરૂપ ગણવામાં આવે છે. 'વિભગ' પટ્ટમાં જે “ભગુ” પા છે તે અહીં અવધિવાચક છે. આમ તે તે પદ્મ પ્રકારભેદનું વાચક ગણાય છે. અને “વિ” પદ વિરૂષકુત્સિત અનુ વાચક છે. વિભગજ્ઞાનની વ્યુત્પત્તિ આ प्रमाणे थाय छे - "विरूपः भंग: विभंगः विभंग एव ज्ञानं विभंगज्ञानम् " આ વિશ્વંગમાં જે જ્ઞાનપણુ છે તે અ રિજ્ઞાનાત્મકતાની અપેક્ષાએ છે. મિથ્યાષ્ટિ દેવા ઢકાના અવિધજ્ઞાનને વિભગજ્ઞાન કહે છે. ચક્ષુ શનાવરણુ, અસૂત્ર
For Private and Personal Use Only
વિભગજ્ઞાનાવરણ ક્રમના વિભંગજ્ઞાન પ્રકટ થાય સમજવાના નથી કારણુ
નાવરણુ અને અવિવેદનાવરણ કમના ક્ષયાપશમથી અનુક્રમે ચક્ષુ શમ અચક્ષુ શન અને અદિન પ્રકટ થાય છે. તેથી તેમને પણ સાયેશ મિક કહેવામાં આવેલ છે, મિથ્યાત્વકમના ક્ષયાગમથી ક્ષયામિ સસ્ત્ર
Page #749
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
এইই
अनुयोगद्वारसूत्रे
की प्राप्ति मिथ्यात्व कर्म के क्षयोपशम से होती है। इसी प्रकार से और भी लब्धियों में यथासंभव क्षायोपशमिकता जान लेनी चाहिये । वीर्य लब्धि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है । इसी प्रकार से पंडित लब्धि बालवीर्य लब्धि, बालपंडितवीर्य लब्धि को भी जानना चाहिये | यह है कि पंडित से यहां साधुजन बाल से अविर - तिजन, और बालपंडित से देशविरतजन लिये गये हैं । इनको अपने २ वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से अपनी २ वीर्य लब्धि प्रकट होती है।
सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि सम्यक्त्व का भेद है। इसलिये यह लब्धि मिथ्यात्वकर्म के क्षयोपशम से होती है । सामायिक चारित्रलब्धि, छेदोपस्थापनलब्धि, परिहारविशुद्धिकलब्धि, सूक्ष्म संपरायचारित्रलब्धि और चारित्राचारित्रलब्धि ये सब चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होती है इसीलिये इनमें क्षायोपशमिकता है। संयत के कर्मों को निवारण करने के लिये 'जो अन्तरंग और बहिरंग प्रवृति होती है वह चारित्र है- अर्थात् आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है । परिणाम शुद्धि के तरतम भाव की अपेक्षा और निमित्त भेद से
શ્વશનની પ્રાપ્તિ થાય છે. એજ પ્રમાણે બીજી બધી સૂત્રેાક્ત લબ્ધિઓમાં પણ યથાસ’ભવક્ષાયે પશ્ચમિકતા સમજી લેવી. વીયૅન્તરાય ક્રમના ક્ષીપ શમથી વીયલબ્ધિ પ્રકટ થાય છે, એજ પ્રમાણે પડિતીય લબ્ધિ, ખાલ વીયલબ્ધિ અને માલપ`ડિતવીય લબ્ધિને પણ ક્ષાયેાપશમિક જ સમજવી જોઇએ. 'ડિતપદ અહી સાધુજનનું, ખાલપદ અવિરતયુક્તજનનું અને માલપતિપદ દેશવિરત જનનુ વાચક છે. તેમને પાતપાતાના વીર્યન્તરાય ક્રમના સૂર્યપશમ થવાથી પડિતવીય લબ્ધિ આદિની પ્રાપ્તિ થાય છે.
સમ્યગ્મિથ્યાદર્શન લબ્ધિ સમ્યકત્વના એક ભેદ રૂપ છે. તેથી મિથ્યા ૧ ક્રમના ક્ષયે પશમથી તે લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, સામાયિક ચારિત્ર લબ્ધિ, છેદેપસ્થાપનલબ્ધિ, પરિહાર વિશુદ્ધિક લબ્ધિ, સૂક્ષ્મ સપરાય લબ્ધિ અને ચારિત્રાચારિત્ર લબ્ધિ, આ બધી લબ્ધિએની પ્રાપ્તિ ચારિત્રમેહનીય ક્રમ'ના ભયેાપશમને લીધે થાય છે, તેથી તેમનામાં ક્ષાયેાપશમિકતા સમજવી એઈએ. કર્મોનુ નિવારણ કરવા માટે સયત જે અન્તર્ગ અને અહિરંગ પ્રવૃત્તિ કરે છે તેનુ નામ ચારિત્ર છે. એટલે કે આત્મિક શુદ્ધ દશામાં સ્થિર રહેવાના પ્રયત્ન કરવા તેનું જ નામ ચારિત્ર છે. પરિણામ શુદ્ધિના
For Private and Personal Use Only
Page #750
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम्
७३३
afra के सामायिक आदि पांच विभाग किये गये हैं । विशेष खुलासा इस प्रकार से है - सामायिक का अर्थ है सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप इनके साथ ऐक्य स्थापित करने की अर्थात् समभाव में स्थिर रहने के लिये सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों को त्याग करने की आत्मपरिणामों की वृत्ति बनाये रखना । इस सामायिक चारित्र की प्राप्ति सामायिक चारित्र लब्धि है। सामायिक चारित्र में रागद्वेष का निरोध कर के सथ आवश्यक कर्तव्यों में समता बनाये रखना ही होता है। इसके नियतकाल और अनियतकाल ऐसे दो भेद होते हैं। जिनका समय निश्चित है ऐसे स्वाध्याय आदि नियतकाल सामायिक है। और जिन का समय नियत नहीं है ऐसे ईर्ष्यापथ आदि अनियतकाल सामायिक है। जैसे अहिंसावत सव व्रतों का मूल है, वैसे ही सामायिक चारित्र सब चारित्रों का मूल है। मैं “ सर्वसावद्ययोग से जीवन पर्यंत विरत हूँ" इस एक व्रत में समावेश हो जाने से एक सामायिक व्रत माना है और वही एक व्रत पांच रूप से विवक्षित होने के कारण छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है । प्रथम दीक्षा लेने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास
તરતમ ભાવની અપેક્ષાએ અને નિમિત્ત ભેદની અપેક્ષાએ ચારિત્રના સામાયિક આદિ પાંચ વિભાગ પાડવામાં આવ્યા છે. તેનું વધુ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છેસમ્યકત્વ, જ્ઞાન, સયમ અને તપની સાથે અકય સ્થાપિત કરવાની-એટલે કે સમભાવમાં સ્થિર રહેવાને માટે સમસ્ત અશુદ્ધ પ્રવૃત્તિઓના ત્યાગ કરવાની આત્મપરિણામેાની વૃત્તિ રાખવી તેનુ' નામ સામાયિક છે. આ સામાયિક ચારિત્રની પ્રાપ્તિનું નામ સામાયિક ચારિત્ર લબ્ધિ છે. સામાયિક ચારિત્રની આરાધનામાં રાગદ્વેષના નિરોધ કરીને સઘળાં આવશ્યક કન્યામાં સદા સમભાવ જ રાખવા પડે છે. તેના નિયતકાળ અને અનિયતકાળ રૂપ એ ભેટા છે જેમના સમય નિશ્ચિત છે એવાં સ્વાધ્યાય આદિને નિયતકાળ સામાયિક કહે છે. જેમના સમય નિયત નથી એવા ઇર્ષ્યાપથ આદિને અનિ મૃતકાળ સામાયિક કહે છે. જેમ અહિ'સાવ્રતને સઘળાં ત્રતાનું મૂળ માનવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે સામાયિક ચારિત્રને સઘળાં ચારિત્રાનુ મૂળ માન. વામાં આવે છે. “હુ જીઞનપર્યન્ત સવ સાવદ્યયેાગેાથી વિત થઉં છુ આ એક વ્રતમાં સમાવેશ થઇ જવાને કારણે સામાયિક વ્રતને એક જ વ્રત ગણવામાં આવ્યુ છે. અને એજ એક વ્રત પાંચ રૂપે વિવક્ષિત થવાને કારણે છેદેપસ્થાપના ચારિત્ર કહેવાય છે. પ્રથમ દીક્ષા લીધા બાદ વિશિષ
""
For Private and Personal Use Only
Page #751
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૨૪
अनुयोगद्वारसूत्रे
कर चुकने पर विशेष शुद्धि के निमित्त जो जीवन पर्यन्त पुनः दीक्षा ली जाती है एवं प्रथम ली हुई दीक्षा का छेद करके फिर नये सिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है-वह छेदोपस्थापन चारित्र है । जिसमें खास विशिष्ट प्रकार के तपः प्रधान आचार का पालन किया जाता है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है जिसमें क्रोध आदि कषायों का तो उदय नहीं होता, सिर्फ लोभ का अंश अति सूक्ष्मरूप में रहता है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र है । यह चारित्र केवल दशवे गुणस्थान में होता है । चारित्राचारित्र का नाम देश चारित्र है । यह अनन्तानुबन्धी आदि अष्टविध कषाय के क्षयोपशम आदि से आविर्भूत होता है। तथा सर्वविरनि रूप चारित्र अनन्तानुबन्धी आदि १२ प्रकार के कषाय के क्षायोपशम आदि से आविर्भूत होता है । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनकी लब्धि वीर्यान्तराय कर्म के दानान्तराय आदि के क्षायोपशम आदि से होती है,, । श्रोत्रे न्द्रिय से लेकर जो स्पर्शनेन्द्रिय तक की लब्धियां कही हैं । वे द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा से नहीं कही हैं, किन्तु भावेन्द्रिय की अपेक्षा से कही हैं। શ્રુતના અભ્યાસ કરી લીધા બાદ વિશેષશુદ્ધિને નિમિત્તે જે જીવનપર્યન્તની પુનઃ દીક્ષા લેવામાં આવે છે અને પ્રથમ લીધેલી દીક્ષાના છેદ કરીને (ત્યાગ કરીને) ફરી નવેસરથી જે દીક્ષાનું આરોપણ કરવામાં આવે છે, તેનુ નામ છેદેપસ્થાપન ચારિત્ર છે. જેમાં વિશિષ્ટ પ્રકારના તપ: પ્રધાન આચારનું પાલન કરવામાં આવે છે, તેનુ નામ પરિહારવિશુદ્ધિ ચારિત્ર છે. જે ચારિત્રમાં ક્રોધાદિ કષાયેના ઉદય રહેતા નથી, પરન્તુ લેાલના અશ અતિ સૂક્ષ્મ પ્રમાણમાં બાકી રહી જાય છે એવા ચારિત્રનું નામ સૂક્ષ્મ સ'પરાય ચારિત્ર છે. દસમાં ગુણુસ્થાનમાં જ આ ચારિત્રના સદ્ભાવ રહે છે. અશતઃ ચારિત્ર અથવા દેશચારિત્રને ચારિત્રાચારિત્ર કહે છે. અનન્તાનુષધી આદિ આઠ પ્રકારના કષાયના ક્ષયાપશમ આદિથી તેના આવિર્ભાવ થાય છે. સ*વિરતિ રૂપ ચારિત્ર અનન્તાનુષધી આદિ ૧૨ પ્રકારના કષાયના ક્ષયે પશમ આદિથી વિભૂત (પ્રકટ) થાય છે. અન્તરાય ક'ના પ્રકાર રૂપ દાનાન્તરાય, લામાન્તરાય, ભાગાન્તરાય, ઉપભાગાન્તરાય અને વીર્યાન્તરાય કના યેાપશમથી અનુક્રમે દાનલબ્ધિ, લાભલબ્ધિ, ઉપભાગલબ્ધિ અને વીર્ય લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે. એજ પ્રમાણે શ્રોત્રેન્દ્રિયથી લઈને સ્પર્શેન્દ્રિયલબ્ધિ પન્તની પશુ પાંચ લબ્ધિઆ કહી છે. આ પાંચે લબ્ધિએ કૂટૈન્દ્રિયની અપેક્ષાએ કહી નથી, પણ ભાવે.
For Private and Personal Use Only
Page #752
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५ पारिणामिकभावनिरूपणम्
सम्पति पारिणामिकं नाम निरूपयति
मूलम् - से किं तं पारिणामिए ? पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - साइपरिणामिए य अणाइपारिणामिए य । से किं तं साइपारिणामिए ? साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते तं जहाजुण्णसुरा, जुण्णगुलो जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव । अब्भा य झागंणगरा य ॥१॥ उक्कावाया दिसादाहा
अब्भरुक्खा
भावेन्द्रियलब्धि उपयोग के भेद से दो प्रकार की है । इनकी लब्धि मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, के क्षयोपशम से होती है। तात्पर्य यह है कि मतिज्ञानावरणीय कर्म आदि का क्षायोपशम जो एक प्रकार का आत्मिक परिणाम है वह लब्धीन्द्रिय हैं । और लब्धि, निवृत्ति, तथा उपकरण इन तीनों के मिलने से जो रूपादि विषयों का साम्मन्य और विशेषबोध होता है वह उपयोगे न्द्रिय है। मतिज्ञान तथा चक्षु अचक्षुर्दर्शनरूप है। इसी प्रकार आचाराङ्ग, आदि १२ अंगों को धारण करने रूप तथा वाचकरूप पर्याये हैं वे सब श्रुतज्ञान प्रभव हैं । श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। इसलिये ये आचाराङ्गघर आदि पर्यायें क्षायोपशमिक हैं। इस प्रकार क्षायोपशम निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव का स्वरूप है ।। सू०१५५ ॥ ન્દ્રિયની અપેક્ષાએ કહી છે ભાવેન્દ્રિયા લબ્ધિ ઉપયાગના ભેદથી એ પ્રકારની છે મતિજ્ઞાનાવરણુ, શ્રુતજ્ઞાનાવરણુ, ચક્ષુકનાવરણ અને અચક્ષુઃદેશ - નાવરણના ક્ષચેપશમથી તેમની લબ્ધિ થાય છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે મતિજ્ઞાનાવરણીય કમ આદિના ક્ષયાપશમ રૂપ જે એક પ્રકારનું આત્મિક પરિણામ છે, તે લખ્ખીન્દ્રિય રૂપ છે અને લબ્ધિ, નિવૃત્તિ તથા ઉપકરણ, - આ ત્રણે મળવાથી રૂપાદિ વિષયાના જે સામાન્ય અને વિશેષ મધ થાય . છે તે ઉપયેગેન્દ્રિય રૂપ છે ઉપયેગેન્દ્રિય મતિજ્ઞાન તથા ચક્ષુ અચક્ષુ દર્શન-, રૂપ છે એજ પ્રમાણે આચારાંગ આદિ ૧૨ અગને ધારણ કરવા ૨૫ તથા વાચક રૂપ જે પર્યાય છે તે શ્રુતજ્ઞાન સ્વરૂપ શ્રુતજ્ઞાનાવરણુકના સચાપશમથી શ્રુતજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી આચારાંગધર આદિ ૧૨ પર્યાયા પણ સાચાપશમિક છે. આ પ્રકારનું ક્ષાપશમ નિષ્પન્ન ક્ષાયૈાપમિક ભાવનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૧૫મા
For Private and Personal Use Only
७३५
Page #753
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७३६
-- अनुयोगद्वारसूत्र गजियं विज्जू णिग्घाया जूवया जक्खादित्ता धूमिया महिया रयुग्घाया चंदोवरागा सूरोवरागा चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा पडिचंदा पडिसूरा इंदधणू उदगमच्छा कविहसिया अमोहावासा वासधरा गामा णगरा घरा पत्वया पायाला भवणा निरया रयणप्पहा सक्करप्पहा वालुयप्पहा पंकप्पहा धूमप्पहा तमप्पहा तमतमप्पहा सोहम्मे जाव अच्चुए गेवेज्जे अणुत्तरे ईसिप्पभारा परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसिए । से तं साइपारिणामए । से किं तं अणाइपारिणाामए ? अणाइपारिणामिए धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया। सेतंअणाइपारिणामिए।सेतं पारिणामिए॥सू०१५६॥ __ छाया-अथ कोऽसौ पारिणामिकः? पारिणामिको द्विविधा प्राप्तः, तयथासादिपारिणामिकश्च अनादिपारिणामिकश्च । अथ कोऽसौ सादिपारिणामिका सादिपारिणामिक:-अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जीर्णसुरा जीर्णगुडः जीर्णघृतम् जीर्णतण्डुलाश्चैव । अभ्राणि च अभ्रक्षाः संध्या गन्धर्वनगराणि च ॥१॥ उल्कापाताः, दिगदाहाः, गर्जितं, विद्युत् , निर्घाताः, यूपकाः, यक्षा दीप्तकानि, धूमिका, मिहिका, रजउद्घाताः, चन्द्रोपरागाः, सूर्योपरागाः, चन्द्रपरिवेषाः, सूर्यपरिवेषाः, प्रतिचन्द्राः, प्रतिसूर्याः, इन्द्रधनुः, उदकमत्स्याः , कपिहसितानि, अमोघा, वर्षाणि, वर्षधराः, ग्रामाः, नगराणि, गृहाः, पर्वताः, पातालाः, भवनानि, निरया, रत्नप्रभा, शर्करामभा, वालुकाममा, पङ्कपमा, धूमप्रमा, तमामभा, तमस्तःप्रभा, सौधर्मों, यावत् अच्युतः, अवेयकः, अनुत्तरः, ईषत्माग्भारा, परमाणु पुद्गलो, द्विप्रदेशिको, यावत् अनन्तप्रदेशिकः । सएष सादिपारिणामिकः । अथ कोऽसौ अनादिपारिणामिकः ? अनादिपारिणामिक:-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकाया, आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयः, लोका, अलोकः, भवसिद्धिकाः, अभवसिद्धिका:, सएष अनादि पारिणामिकः । सएष पारिणामिकः ॥ स . १५६ ॥
For Private and Personal Use Only
Page #754
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम्
टीका- 'से कि तं' इत्यादि___ अथ कोऽसौ पारिणामिकः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति-पारिणामिकापरिणमनं सर्वथाऽपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रूपान्तरेण भवनं स परिणामः, उक्तंच
"परिणामो ह्यन्तिरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् ।
न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः॥ इति । स एव तेन वा निर्वृत्तः परिणामिका स सादि पारिणामिकानादि पारिणामिकेति भेद द्वयविशिष्टः। तत्र सादिपारिणामिकः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जीर्णमुरा, जीर्णगुडो,
अब सूत्रकार पारिणामिक भाव का निरूपण करते हैं"से कि तं पारिणामिए ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ:- (से किं तं पारिमाणामिए) हे भदन्त ! पारिणामिक भाष क्या है?
उत्तर-(पारिणामिए, दुविहे पण्णत्ते) पारिणामिक भाव दो प्रकार का-कहा गया है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(साइपारिणमिए य अणार पारिणामिए य सादि पारिणामिक और अनादि पारिणामिक । जिसमें द्रव्य की पूर्वअवस्था का तो सर्वथा परित्याग हो नहीं और एक अवस्था से दूसरी अवस्थाएँ होती रहें इसीका नाम परिणमन -परिणाम है। कहा भी है-"परिणामो" इत्यादि यही बात अन्यत्र कही है, कि एक अवस्था से दूसरी अवस्था का होना यही परिणाम है। अर्थात् स्वरूप में स्थित रहकर उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है,सर्वथा व्यवस्था
હવે સૂત્રકાર પરિણામિક ભાવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે“से कि तं पारिणामिए" त्या
शाय'-(से कि तं पारिणामिए ?) 3 भगवन्! पारिवामि कानु સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा) पारिभि भावना नाय प्रभारी म २ छ-(साइ पारिणामिए य अणाइ पारिणामिए य) (१) साल पारि
મિક અને (૨) અનાદિ પરિણામિક જે પરિણામમાં દ્રવ્યની પૂર્વ અવસ્થાનો સર્વથા પરિત્યાગ થતું ન હોય એવી રીતે એક અવસ્થામાંથી બીજી અવસ્થાઓ यती २७, सेवा परिमनने सातिपरिणाम ४ छ ५५छे ४-"परिणामो" ઈત્યાદિ એજ વાત બીજી જગ્યાએ પણ આ પ્રમાણે જ કહી છે-એક અવસ્થામાંથી બીજી અવસ્થા રૂપ પરિણમન થવું તેનું નામ પરિણામ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #755
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे या सर्वथा विनाश परिणाम नहीं है । परिणाम का दूसरा नाम पर्याय है। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है उसी के भीतर उसका परिणमनपरिवर्तन होता है। जैसे मनुष्य बालक से और युवा युवा से वृद्ध होता है पर वह मनुष्यत्व का परित्याग नहीं करता, वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी मयादा के भीतर रहता हुआ ही परिवर्तन करता रहता है । बहन तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा क्षणिक ही। नैयायिक आदि मेदवादी दर्शन जो गुण और द्रव्य का सर्वथा-एकान्त-भेद मानते हैं उनके मन्तव्यानुसार द्रव्य तो सर्वथा अविकृत रहता है और गुण उसमें उत्पन्न विनष्ट होते रहते हैं यही वह परिणाम है । तथा बौद्धलोग वस्तुमात्र कोक्षणस्थायी और निरन्वय विनाशी मानते हैं, उनके मतानुसार परिणाम का अर्थ उत्पन्न होकर वस्तु का सर्वथा नाश हो जाना ऐसा निकलता है। इन्ही मन्तव्यों का निराकरण करने के निमित्त "न च सर्वथा व्यवस्थानम्" न च सर्वथा विनाशः परिणामः" ऐसा बहा है। अतः 'अर्थान्तरगमनपरिणाम:' यही परिणाम का लक्षण युक्ति युक्त है। ऐसा जो परिणाम है वही पारिणामिक है अथवा इस એટલે કે વરૂપમાં સ્થિત રહિને ઉત્પન્ન તથા નષ્ટ થવું તેનું નામ પરિણામ છે સર્વથા વ્યવસ્થાન અથવા સર્વથા વિનાશને પરિણામ કહી શકાય નહીં પરિણામનું બીજું નામ પર્યાય છે. જે દ્રવ્યને જે સવભાવ છે તે સ્વભાવમાં રહીને જ તેનું પરિણમન (પરિવર્તન) થાય છે. જેમ કે મનુષ્ય બાલકમાંથી યુવાન અને યુવાનમાંથી વૃદ્ધ બને છે, પરંતુ તે મનુષ્યત્વને પરિત્યાગ કરતું નથી. એ જ પ્રમાણે પ્રત્યેક દ્રવ્ય પોતાની મર્યાદામાં રહીને જ પરિણ મન પામત રહે છે. તે સર્વથા નિત્ય પણ નથી અને સર્વથા ક્ષણિક પણ નથી. તૈયાયિક આદિ ભેદવાદી દર્શન જે ગુણ અને દ્રવ્યને સર્વથા (એકાન્તત) ભેદ માને છે તેમની માન્યતા પ્રમાણે દ્રવ્ય તે સર્વથા અવિકૃત જ રહે છે, અને તેમાં ગુણની ઉત્પત્તિ તથા વિનાશ થતું રહે છે. તેનું નામ જ પરિણામ છે. બૌદ્ધ મતવાદીઓ વસ્તુ માત્રને ક્ષણસ્થાયી અને નિરન્વય વિનાશી માને છે. તેમના મત પ્રમાણે પરિણામને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-“ઉત્પન્ન થઈને વસ્તુને સર્વથા નાશ થઈ જ તેનું નામ પરિણામ છે” આ માન્યતાઓનું ખંડન કરવા માટે સૂત્રકારે અહીં આ પ્રકારનું કથન કર્યું છે" न च सर्वथा विनाशः परिणामः" तथा " अर्थान्तरगमनपरिणामः" मा પરિણામનું લક્ષણ જ યુક્તિયુક્ત લાગે છે. એવું જ પરિણામ છે, એ જ પારિણમિક છે. અથવા તે પરિણામથી જે નિષ્પન્ન છે, તેનું નામ જ પરિણામિક છે,
For Private and Personal Use Only
Page #756
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ताबशिष्टाः सुरादयः शब्दाव्यस्यैव नूतनमुरादिरूप
में
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम् जीर्णघृतं, जीर्णतण्डुला इति । अत्र जीर्णवपरिणामस्य सादित्वात् सादिपारिणों मिकता बोध्या सुरादि-द्रव्याणि नव्यजीणों भयावस्थयोरप्यनुगतानि । तत्र नव्या तायां निवृत्तायां जीर्णतारूपेण यः परिणामः स सुखावबोधो भवति, अतो जीणेति विशेषणविशिष्टाः सुरादयः शब्दा उक्ताः । मुरादिद्रव्याणां तु नव्यावस्थायामपि सादि पारिणामिकत्वमस्त्येव । कारणद्रव्यस्यैव नूतनमुरादिरूपेण परिणमनात, परिणाम से जो निर्वत्ति (निष्पन्न ) है वह पारिणामिक है। (से कि साइपारिणामिए ? ) हे भदन्त ! सादिपारिणामिक क्या है ? . ___ उत्सर-(साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते) सादि पारिणामिक अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(जुण्णसुरा जुण्णालो, जुण्णघयं, जुगणतंदुला चेव) जीर्णसुरा, जीर्णगुड़, जीर्णघृत, जीर्णतंदुल, सुरा में, गुड़ में घृत में, एवं तंदुलों में जो जीर्णपर्यायरूप परिणाम आया है वह सादि है। क्योंकि जीर्णता के काल की पूर्वकोटि ज्ञात हो सकती है। सुरादि द्रव्य नव्य पर्याय और जीर्ण पर्याय इन दोनों अवस्थाओं में भी अनुगतरूप से रहते हैं । जब नव्य-नवीनता-पर्याय इनसे निवृत हो जाती है तब जीर्णता पर्याय आजाती है यह बात सभी के लिये स्पष्ट है । इसी कारण सूत्रकार ने यहां जीर्ण विशेषण से विशिष्ट इन सुरा आदि शब्दों को रखा है। __ शंका-यह बात हम मानते हैं कि सुरादिक द्रव्यों में जीर्ण अवस्था में सादि पारिणामिकता है क्योंकि इनमें जीणअवस्था के समय की
प्रश्न-(से किं तं साइ यारिणामिए ?) भगवन् ! सा पारिवामित સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते) साह परिणाम मा भने प्रश्न हो . (तं जहा) भ3-(जुण्णसुरा, जुण्णगुलो, जुण्णषय, जुण्णतंदुला चेव) सु२१, २ , घी, मन स. ना સુરામાં, ગેળમાં, ઘીમાં અને તંદુલમાં જે જીણું પર્યાય રૂપ પરિણામ આવ્યું છે, તે સાદિ પરિણામિક ભાવ રૂ૫ છે, કારણ કે જીર્ણતાના કાળની પૂર્વ કેટિ જાણી શકાય છે. સુરાદિ દ્રવ્ય નવી પર્યાય અને જીર્ણ પર્યાય, એ બને અવસ્થાઓમાં પણ અનુગત રૂપે રહે છે જ્યારે નવીનતા પર્યાય આ દ્રવ્યોમાંથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે ત્યારે તે દ્રવ્યમાં જતા પર્યાય આવી જાય છે, આ વાત સૌને માટે સ્પષ્ટ છે. તે કારણે જ સૂત્રકારે જીણું વિશેષણ યુકત સુરદિક દ્રવ્યને સાદિ પરિણામિક ભાવના દૃષ્ટાન્ત રૂપે અહીં પ્રકટ કરેલ છે.
શંકા–એ વાત તે અમે માની લઈએ છીએ કે સુરાદિક દ્રવ્યમાં અવસ્થામાં સાદિ પારિણામિકતા હેય છે, કારણ કે તે દ્રામાં છે,
For Private and Personal Use Only
Page #757
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४४०
अनुयोगद्वारसूत्र अन्यथा कार्यानुत्पत्तिः प्रसज्येत । तथा-अभ्राणि-मेघाः। अभ्रवृक्षाः=वृक्षाकारेण परिणतान्यभ्राण्येव । सन्ध्या-कृष्ण नीलाघाकाशपरिणतिमान् अहोरात्रसन्धिपूर्वकोटि ज्ञात हो जाती है। परन्तु इनकी जो नव्य अवस्था है उसमें सादिपारिणामिकता कैसे मानी जा सकती है ? क्योंकि उसके समय की पूर्वकोटि तो ज्ञात नहीं है ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है क्योंकि नव्य पर्याय के भी समय की पूर्वकोटि ज्ञात हो जाती है । वह इस प्रकार से-कि सुरादिरूप जो नव्य पर्याय है । वह सुरादिजनक कारण द्रव्यों से ही उद्भूत हुई है । अतः उसमें भी सादि पारिणामिकता है। तात्पर्य कहने का यह है, कि सुरादि जनक जो द्रव्य हैं वे हो सुरादिरूप परिणाम से परिणमित हो जाते हैं अतः यह सुरादिरूप पर्याय उनकी सादि पर्याय हैं और जब यह सादिरूप पर्याय उनमें से कालान्तर में निवृत्त हो जाती है तब उसकी निवृत्ति होते ही उनमें जीर्णतारूप पर्याय आ जाती है । इस प्रकार सुरादिद्रव्यों में नव्यता जीर्णता सादि परिणाम है। यदि यह बात न मानी जावे कि उपादान कारण द्रव्य ही कार्यरूप से परिणमित होता है तो फिर कार्य की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है।
અવસ્થાના સમયની પૂર્વકેટિ જ્ઞાત થઈ જાય છે, પરંતુ તેમની જે નવ્ય (નવીની અવસ્થા છે, તેમાં સાદિ પરિણામિકતા કેવી રીતે માની શકાય તેમ છે? તેના સમયની પૂર્વકેટિ તે જ્ઞાત હતી નથી? - ઉત્તર–એવી વાત શક્ય નથી, કારણ કે નવીન પર્યાયના સમયની પૂર્વ કેટિ પણ જ્ઞાત થઈ જાય છે. તે આ પ્રકારે સમજવું-સુરાદિ દ્રવ્ય રૂપ જે નેવીના પર્યાય છે તે સુરાદિજનક કારણ માંથી જ ઉદ્દભવી હોય છે. તેથી તેમાં પણ સાદિ પરિણામિકતાને સદૂભાવ રહે છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે સુરાદિજનક જે દ્રવ્યું છે તે જ સુરાદિરૂપ પરિણામમાં પરિણમિત થઈ જાય છે, તેથી તેમની આ સુરાદિરૂપ પર્યાય સાદિ પર્યાય રૂપ જ છે, અને જયારે કાલાન્તરે આ સાદિ રૂપ પર્યાય તે દ્રવ્યમાંથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે, ત્યારે તેની નિવૃત્તિ થતાં જ તે દ્રવ્યમાં જીણુતા રૂપ પર્યાય આવી જાય છે, આ પ્રકારે સુરાદિ દ્રવ્યમાં નવીનતા (નવ્યતા) અને જીર્ણતા સાદિ પરિણામ રૂપ જ ગણી શકાય છે, જે એ વાત માનવામાં ન આવે કે ઉપાજાનકારણ દ્રવ્ય જ કાર્ય રૂપે પરિણમિત થાય છે, તે કાર્યની ઉત્પત્તિ જ થઈ શકે નહીં ___तथा-(अब्भया य अब्भरुक्खा, संझा, गंधव्वणगरा य) मन (मेघ),
For Private and Personal Use Only
Page #758
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम् ७४ कालः। गन्धर्व नगराणि-उत्तमोत्तम प्रासादोपशोभित नगराकृतितया परिणतास्त. थाविधनमःपुद्गलाः। उल्कापाता=आकाशप्रदेशतस्तेजः पुञ्जपतनानि। दिग्दाहाःअन्यतरस्यां दिशि नमःमदेशे ज्वालामालाकरालित ज्वलनावभासनानि। तथा-गर्जितं विद्युत् एतौ प्रसिदावेव। निर्घाता=विद्युत्पाताः। तथा-यूपका:-शुक्लपक्षीयदिनत्रयावस्थायिनः संध्याच्छेदावरणा बालचनेति प्रसिद्धाः ॥उक्तंचावश्यके
___ "संझाच्छेयावरणो य जूयो सुकदिण तिन्नि" ॥ छाया-संध्याच्छेदावरणश्च यूपका शुक्छे दिनानि त्रीणि-इति ॥ तथा-यक्षादीप्तानि-नभसि दृश्यमानाः पिशाचाकृतयोऽग्नयः धूमिका=नभसि रूक्षः प्रविरलो धूम इव दृश्यमानो 'धूमिका' इत्युच्यते। महिका-जलकणयुता
तथा-(अन्भाय अन्भरुक्खा, संशा गंधव्वणगराय)अभ्र-मेघ अभ्रवृक्ष-वृक्षाकार में परिणमित हुए मेघ, संध्या-अहोरात्रका संधिकाल कि जिसमें आकाश कृष्ण, नीलादिरूप में परिणत हो जाता है। गंधर्वनगर-उत्तमोत्तम प्रासाद से शोभित नगर की आकृति जैसे बने हुए आकाश पुद्गल (उक्कावाया) उस्कोपात आकाश प्रदेश से गिरता हुआ तेजः पुंज (दिसा दाहा) दिग्दाह-किसी एक दिशाकी ओर आकाश में जलती हुई अग्नि का आभास-(दिखलाई देना) होना (गज्जिया) गर्जित मेघ की गर्जना, (विज्जू ) विजली (णिग्धाया) निर्यात-विजली कापात (जूवया) यूपक-शुक्लपक्षसंवन्धी तीन दिनका बालचन्द्र, (जक्खादित्ता) पक्षदीप्त-अकाश में दिखलाई देती हुई पिशाचाकृति जैसी अग्नि (धूमिया) धूमिका-आकाश में रूक्ष एवं विरल दिखलाई पड़ती हुई धूमकी तरह एक प्रकार की धूमस, (महिया) महिका-जलकण युक्त धूम जैसी भाप અવૃક્ષ (વૃક્ષાકારે પરિમિત થયેલા મેઘ) સંધ્યા (દિવસ અને રાત્રિને સંધિકાળ કે જેમાં આકાશ કૃષ્ણ, નીલાદિ રૂપે પરિણમિત થઈ જાય છે), ગંધર્વનગર (ઉત્તમોત્તમ પ્રાસાથી શોભતા નગરની આકૃતિ જેવાં બનેલાં माशY ), (उकावाया) Gerld (मा.श५मा स२४ते। तेश:), (दिसादाहा) हाल 58 हशमां शनी मह२ प्रति मनिना भामास वे!), (गज्जिया) मेघनी ना, (विजू) qिvil, (णिग्घाया), निर्यात (विoreी ५४ी), (जूवया) यू५४ (शुट पक्षनेत्र हसन मासयन्द्र), (जम्खादित्ता) यक्षाहीत (शमा माती पति की मन), (धूमिया) भूमिका (५मस) (महिया) मा (arBY युत धुमा २ घर धुमस)
For Private and Personal Use Only
Page #759
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४६
अनुयोगद्वारसूत्रे सैव । रजउद्धाताः दिक्षु रजसामुस्थानानि । चन्द्रोपरागाः सूर्योपरागाः-चन्द्रसूर्याणां राहुग्रहणानि । अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रवर्तिनोऽनेके चन्द्रसूर्याः सन्ति, अतः 'चन्द्रोपरागाः सूर्योपरागा' इति पदद्वयं बहुत्वेन निर्दिष्टम् । तथा-चन्द्रपरिवेषाः सूर्यपरिवेषाः-चन्द्ररर्ययोः परितोवलयाकारपुदलपरिणामाः । प्रतिचन्द्रः प्रतिसूर्य:उत्पातसूचकं द्वितीयचन्द्रादित्यदर्शनम् । इन्द्रधनुः नभसि नीलपीतादिवर्णविशिष्टं धनुराकारं यद् दृश्यते तदिन्द्रधनुरित्युच्यते । इदं च लोके प्रसिद्धम्। उदकमस्याः इन्द्रधनुः खण्डानि। कपिहसितानि यदा कदाचिन्नमसि जायमाना अन्युप्रशब्दाः श्रूयन्ते, त एव कपिहसितान्युच्यन्ते। अमोघाः सूर्यस्य उदयास्तसमये तत्किरणैः समुत्पद्यमाना रेखाविशेषाः । वर्षाणि भरतादीनि। वर्षधराः= कुहरा-(रयुग्धाया) रज उद्घात-दिशाओं में धूलि का उड़ना, (चंदो. चराग-चन्द्रोपराग-चंद्रग्रहण (सूरोवरागा) सूर्यग्रहण (चंदपरिवेसा, सर. परिवेसा) चन्द्र परिवेष-चन्द्रमा की चारों ओर गोलाकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का चक्रवाल (गोल मंडल) सूर्य की चारों ओर गोल चूड़ी के जैसे आकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का चक्र. वाल (पडिचंदा) प्रतिचंद्र (पडिसूरा) प्रतिसूर्य-उत्पात सूचक वित्तीय चंद्र की ओर सूर्यका दिखलाई पड़ना (इंधणू) इन्द्रधनुष-आकाश में नीलपीत आदि वर्ण विशिष्ट जो धनुष के आकार दिखलाई देता है वह कि जिसे भाषा में "मदान" कहते हैं (उदगमच्छा) उदक मत्स्य इन्द्र धनुष के खंड (कविहसिया) कपिहसित-यदा कदाचित्-जब कभी आकाश में सुनाई पड़नेवाले अत्युग्रशन्द (अमोहा) अमोध सूर्य के उदय और अस्त के समय में उसकी किरणोंद्वारा उत्पन्न रेखा विशेष-(वासा) भरत (त्युग्घाया) नेधात (BALोमा धूण ९वी ) (चंदोवराग) यन्द्रो५२।। (यन्द्र. As), (सूरोवराग) सू५७५, (चंदपरिवेसा, सूरपरिवेसा) यन्द्र५२३५ (यन्द्रने ફરતે ગોળાકારમાં પરિણત થયેલા પુલપરમાણુઓનું ગોળાકારનું મંડળ), સૂર્ય પરિવેષ (સૂર્યની આસપાસ ચારે દિશામાં ગોળ ચૂલીને આકારે પરિણત थये पुस५२भाशु मानु ग र्नु भ3 (पडिचंद) प्रतियन्द्र (पात सूय भी यन्द्रनु पापु), (पडिसूरा) प्रतिसूर्य (अपात सूय भी सूनुः हुमायु), (इंदधणू) मेघधनुष (मशमा यामासामा रे सा मही हेमाय छ त), (उद्गमच्छा) म५ (अवधनुष्याना म), (कविहसिया) पिकसित (माशभांथी यारे सभण. मति3 131), (अमोहा) અમેઘ (સૂર્યોદય અને સૂર્યાસત વખતે સૂર્યના કિરણે દ્વારા ઉત્પન્ન થતી
For Private and Personal Use Only
Page #760
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम्
६४३
हिमवदादयः पर्वताः । ग्रामादयः प्रसिद्धाः । पातालाः = पातालककशाः । शेषा भवनाद्यनन्तप्रदेशिकान्ताः प्रसिद्धा एव । ननु वर्षधरादयः शाश्वताः, न ते कदाचिदपि स्वकीयं भावं मुञ्चन्ति तत्कथं पुनरेषां सादिपारिणामिकत्वमुक्तम् ? इति - वेदाह - वर्षभरादीनां शाश्वतत्वं तदाकारमात्रेणैवावतिष्ठमानत्वाद् बोध्यम् । पुद्गलाआदि क्षेत्र (वासरा) हिमवत् आदि पर्वत (गामा, नगरा, घरा, पच्वया, पायाला) ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पातालकलश (भवणा) भवन (निरा) नरक, (रयणप्पहा) रत्नप्रभा (सकरप्पहा) शर्कराप्रभा (बालुयपहा) बालु का प्रभा (पंपहा) पंक प्रभा (धूम पहा) धूमप्रभा (तमपहा) तमः प्रभा (तम तमपहा) तमस्तमः प्रभा (सोहम्मे ) सौधर्म (जाव अच्चुए) यावत् अच्युत (गेवेज्जे अणुसरे) ग्रैवेयक, अनुसर, (इसिप्पन्भारा ) ईषत्प्राभारा (परमाणुपोग्गले) परमाणुपुद्गल (दुपए सिए) द्विप्रदेशिक (जाव अनंत परसिए) यावत् अनंतप्रदेशिक (से तं साइपारिणामिए) इस प्रकार वह यह सादि पारिणामिक है ।
शंका- वर्षधरादिक तो शाश्वत हैं। क्योंकि ये कभी भी अपने अस्तित्व का परित्याग नहीं करते हैं। फिर इन्हें सादि परिणामवाला कैसे सूत्रकारने कहा है ?
उत्तर- वर्षधरादिकों में जो शाश्वतपना कहा है वह " वे अपने आकार मात्र से ही सदा अवस्थित रहते हैं "इसी ख्याल से कहा गया
रेणाविशेष), (वासा) भरत आहि क्षेत्र ( वासधरा) हिमवान् याहि पर्वत, (गामा, जगरा, घरा, पव्वया पायाला ) ग्राभ, नगर, घर, पर्वत, पातालश, (भवणा) भवन, (निरया) न२४, ( रयणप्पभा) रत्नप्रभा (सकरप्पमा) शरायला, (बालुयप्पभा) वालुायला, (पंकप्पा ) पशुअला, (धूमप्पहा ) धूमअला, (तमप्पा ) तभः प्रभा ( तमतमप्पा ) तभस्तभः प्रभा (सोहम्मे जाब अच्चुए) सौधभंथी सहने अभ्युत पर्यन्तना उद्यथेो, (गेवेज्जे अणुत्तरे ) ग्रैवेय, अनुत्तर (quial, (gfacqsızı) Saczoquial, (qrary qìmè) uzuy yka (Tएलिए जाव अनंत पविए) द्विप्रदेशिथी सङ्घ ने अनतप्रदेशि पर्यन्तना सुधा, (सेतं साइ पारिणामिए) मा अधांने साहियारियामिङ भाव ३५ समभवा શકા-વધર આદિ પવતા તા શાશ્વત છે, કારણ કે તેઓ કદી પણુ પાતપાતાના અસ્તિત્વના પરિત્યાગ કરતા નથી છતાં સૂત્રકારે તેમને સાક્રિ પારિણામિક શા કારણે કહ્યા છે ?
ઉત્તર-વષધર આફ્રિકામાં જે શાશ્વતતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તેનુ કારણ એ છે કે તેઓ તેમના આફાર માત્રની અપેક્ષાએ જ સદા અવસ્થિત
For Private and Personal Use Only
Page #761
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र स्तु असंख्येयकालावै परिणमन्त एव । साम्प्रति केषु वर्षधरादिषु ये पुद्गलाः सन्ति ते चोत्कृष्टतोऽसंख्येयकालार्ध्वमपगमिष्यन्त्येव (१) उक्तंचात्रविषयेऽ. त्रैवमूत्रे-"णेगमववहाराणं आणुपुब्बीदवाई कालओ कियच्चिरं होइ ? एगं दव्यं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं" इति । सू० ६ पृ. ११३ मुद्रित पृष्ठ ५७ मू० ८५ तत्स्थाने अपरेऽपरे पुद्गलाः संगताः सन्तस्तद्भावेन परिणमिष्यन्ति, अतः पुद्गलपरिवृत्तिमादाय वर्षधरादीनां सादि पारिणामिकत्वं न विरुध्यते इति नास्ति दोषः। एतदुपसंहरनाइस एष सादिपारिणामिक इति । द्वितीय भेदविषये शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसौ अनादिपारिणामिका ? इति । उत्तरयति-अनादिपारिणामिकः-धर्मास्तिकायायहै। इसका तात्पर्य यह थोडे ही हो सकता है कि उनमें परिणमन नहीं होता है । वर्षधरादिक पौगलिक हैं । पुद्गल असंख्यातकाल के बाद परि
मन करते हैं । इस समय के वर्षधरादिको में जो पुद्गल हैं वे वहां ज्यादा से ज्यादा असंख्यात काल तक रहेंगे-बाद में वहां से च्युत हो जावेगे। यह बात इसी सूत्र के ८५ वे सूत्र में पहिले स्पष्ट ही की जा चुकी है कि नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य कालकी अपेक्षा आनुपूर्वी रूप में जघन्य से एक द्रव्यको आश्रित करके एक समय तक
और उत्कृष्ट से असंख्यात काल तक रहते हैं। च्युत हुए उन पुद्गलों के स्थान में और दूसरे दूसरे पुदगल संगत होकर उस रूप से परिणम जायेंगे। इसलिये पुद्गल की इस परिवृत्ति-परिणमन को लेकर के घर्षधरादिकों में सादि पारिणामिकता का कथन विरूद्ध नहीं पड़ता है। (से कि तं अणाइपारिणामिए) हे भदन्त ! वह अनादि पारिणामिक क्या है ? વહ છે. તેનો અર્થ એ થતું નથી કે તેમનામાં પરિણમન જ થતું નથી તેમનામાં પરિણમન તે જરૂર થતું જ રહે છે વર્ષધરાદિક પૌલિક છે પુદ્ગલે તે અસંખ્યાત કાળ બાદ પરિણમન કરે જ છે. હાલના વર્ષધર આદિકમાં જે પલે હાલમાં છે. તેઓ ત્યાં વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી
છે. ત્યાર બાદ તેઓ ત્યાંથી આવીને જશે આગળ ૮૫માં સૂત્રમાં આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે તે સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે નૈગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂવી દ્રવ્ય કાળની અપેક્ષાએ એક દ્રવ્યની રષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે રહે છે. ચવેલા થયેલા તે પુદ્ગલેને સ્થાને અન્ય પુદ્ધ સંગત થઈને તે રૂપે પરિણમી જશે તેથી પલેની આ પરિવૃત્તિ (પરિણમન)ને કારણે વર્ષધરાદિકમાં પણ સાદિ પરિણામિકતાનું કથન વિરૂદ્ધ પડતું નથી.
For Private and Personal Use Only
Page #762
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५७ सान्निपातिकभावनिरूपणम् ७५ भवसिद्धिकान्तो बोध्यः। धर्मास्तिकायादयोऽनादिकालादेच तत्तद्रूपतया परिणताः सन्ति, अत एषामनादिपारिणामिकत्वम् । एतदुपसंहरन्नाह स एषोऽनादिपारि णामिक इति। पारिणामिको भावः प्ररूपित इति सूचयितुमाह-स एष पारिणामिक इति ।।सू० १५६॥ अथ सान्निपातिकं नाम प्ररूपयति
मूलम्-से किं तं सण्णिवाइए? सण्णिवाइए एएसि व उदइय उवसमिय-खइय-खओव समियपारिणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं तियसंजोएणं चउकसंयोएणं पंचगसंजोएणं जे
उत्तर-(अणाइपारिणामिए धम्मस्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, आगासस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पुग्गलस्थिकाए, अद्धासमए, लोए, अलोए, भन. सिद्धिया अभवसिद्धिया) अनादि पारिणोमिक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय, लोक, अलोक भवसिद्धिक अभवसिद्धिक है । (से तं अणाइपारिणामिए) यह अनादि पारिणामिक है । तात्पर्य इसका यह है कि धर्मास्तिकायादिक अनादि काल से ही उस २ रूप से परिणत हैं । इसलिये इनमें अनादि पारिणामिकता है। (से तं पारिणामिए) इसप्रकार पारिणामिक भाव का निरूपण है ॥ सू० १५६ ॥
प्रश्न-(से कि त अगाइ पारिणामिए?) 3 ! मन पारिभि ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणाइ पारिणामिए धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, बागोसस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पुग्गलथिकाए, अद्धासमए, लोए, अलोए, भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया) धर्मास्तिय, अपमास्तिय, भातिय, पतिय, पुरता. स्तिय, मद्धासमय (14), ४, Rals, मपसिद्धिअरे ARTAlt આ ભાવે અનાદિ પરિણામિક છે ધમસ્તિકાય આદિ અનાદિ કાળથી જ ધર્માસ્તિકાય આદિ રૂપે પરિણત હોવાને કારણે તેમને અનાદિ પરિણામિક लाव द्या छ. (से तअणाइ पारिणामिए) 0 Rनु मनाहि पारिभिः भानु २१३५. छे. (से त पारिणामिए) सा परिणाम भने मनाया. થામિક ભાવનું નિરૂપણ સમાપ્ત થવાથી પરિણામિક ભાવનું કથન અહીં પૂરું થાય છે. સૂ૦૧૫દા
भ० ९४
For Private and Personal Use Only
Page #763
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारमने निष्फजइ सव्वे से सन्निवाइए नामे । तत्थ णं दस दुयसंजोगा, दसतियसंजोगा,पंच चउकसंजोगा, एगेपंचगसंजोगे।सू.१५७॥
छाया-अथ कोऽसौ सान्निपातिकः? सान्निपातिकः-एतेषामेव औदयिको. पशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकानां भावानां द्विकसंयोगेन त्रिकसंयोगेन बसुष्कसंयोगेन पञ्चकसंयोगेन यो निष्पद्यते सर्वःस सान्निपातको नाम। तत्र खलु दश विकसंयोगाः, दश त्रिकसंयोगाः, पञ्चचतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोगः॥सू.१५७॥ . टीका-से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ सान्निपातिकः ? इति शिष्यपश्नः। उत्तरयति-साभिपातिकःसन्निपतनम् औदयिकादिभावानां द्वयादिसंयोगेन संयोजन सन्निपातः, स एव तेन नित्तो वा सान्निपातिकः । अमुमेवार्थमाह-सूत्रकार:-'एएसि चेव' इत्या. दिना । एतेषामेव औदयिकादीनां पश्चानां भावानां विकत्रिकचतुष्कपश्चकसंयोगेन यो यो भावः सम्पद्यते स सर्वोपि भावः सान्निपातिको बोध्यः। स साभिपातिकभाव एव सान्निपातिकनामेत्युच्यते। तत्र हि दश द्विकसंयोगा भवन्ति, दश त्रिकसंयोगाः, पश्च चतुष्कसंयोगाः, एकः पश्चकसंयोग इति ॥सू०१५७॥ -
अब सूत्रकार सानिपातिक भावकी प्ररूपणा करते हैं"से कि तं सण्णिवाइए" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं सण्णिवाइए ?) हे भदन्त ! वह सानिपातिक भाव क्या है ? (सण्णिवाइए एएसिंचेव उदइए उवसमिय-खइयसओवसमिय पारिणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं तिय संजोएणं चउ. पकसंजोएणं पंचकसंजोएणं जे निष्फज्जइ)
उत्तर-इन औदयिक आदि पांच भावों के दो के, तीन के चार के और पांच के संयोग से जो जो भाव निष्पन्न होते हैं वे सब भी भाव सानिपातिक भाव है। इस सान्निपातिक भोवों में दश भाव हिकसयोगज,
હવે સૂત્રકાર સાન્નિપાતિક ભાવની પ્રરૂપણ કરે છે–
" से कितसण्णिवाइए" त्याह. शहाथ-(से कि त सण्णिवाइए?) भगवन् ! पू न्त सन्निपातित आव २१३५ ४. छे .
उत्तर-(सण्णिवाइए एएसि चेव उदइए उवसमिय-खइय-खओवसमियहारिणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं, तियसंजोएणं, चउक्कसंजोएणं, पंचकसंजोपण जे निष्फज्जइ) मोहयि, भोपशमिश, क्षायि, क्षायो५मि, मने पारि વામિક, આ પાંચ ભાના બ્રિકસંગ, ત્રિકસોગ ચતુષ્કસંયોગ અને પાચક સંયોગથી જે ભાવે નિષ્પન્ન થાય છે તે બધા ભાવેને સાન્નિપાતિક ભારે કહે છે આ રીતે બ્રિકસંગ જન્ય ૧૦ ભાવે, વિકસાગ જન્ય ૧૦
For Private and Personal Use Only
Page #764
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १५८ द्विकादिसंयोगनिरूपणम् - द्विकादि पञ्चकान्ताः संयोगा ससंख्यका उक्ताः। तत्र द्विकादिसंयोगा है। इति तान् प्रदर्शयितुमाह- मूलम्-एत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा ते गं इमे-अस्थि णामे उदइयउवसमियनिष्फण्णे? अत्थि णामे उदइयखाइगनिष्फण्णे२, अस्थि णामे उदइयखओवसमियनिष्फण्णे३, अस्थि णामे उदइयपारिणामियनिष्फण्णे४, अस्थि णामे उवसमियखइयनिप्फण्णे५, अस्थि णामे उसमिय खओवसमियनिष्फ पणे६, अस्थि णामे उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे७, अस्थि णामे खइयखओवसमियनिष्फपणेद, अस्थि णामे खड्यपारि णामियनिष्फण्णे९, अस्थि गामे खओवसमियपारिणामियनिफण्णे१०। कयरे से णामे उदइय उपसमियनिष्फण्णे? उदइयू उवसमियनिष्फण्णे -उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया। एसणं से णामे उदइय उवसमियनिष्फण्णे॥१॥ कयरे से णामे उदइयखाइयनिष्फपणे ? उदइयखाइयनिष्फण्णे-उ स्से खइयं सम्मत्तं। एस णं से णामे उदइयखइयणिप्फण्णे॥२॥ कयरे से णामे उदइयख ओवसमियनिष्फण्णे? उदइयखओका समियनिष्फणे-उदइएत्ति मणुस्से खओवसमियाइं इंदियाई। एसणं से णामे उदइयखओवसमियनिप्फपणे॥३॥ कयरे से दशभाव त्रिकसंयोगज, पांचभाव चतुष्क संयोग, और एक भाव पंचा संयोगज बनते हैं। इस प्रकार ये २६ सान्निपातिक भाव हैं।॥सू०१५७॥
DAIN
ભાવે, ચતુષ્કસ જન્ય પાંચ ભાવે અને પંચકર્સગ જન્ય એક ભાવ નિષ્પન થાય છે. આ પ્રકારે કુલ ૨૬ સાનિપાતિક ભાવ થાય છે. પાસ ૧૫ણા
For Private and Personal Use Only
Page #765
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
.
अनुयोगद्वारसूत्र णाम उदइयपारिणामियनिष्फण्णे? उदइयपारिणामियनिष्फण्णेउदइएत्ति मणुस्से पारिणामिए जीवे। एस णं से णामे उदइयपारिणामियनिप्फण्णे ॥४॥ कयरे से गामे उवसमियखइयनिष्फण्णे? उवसमियखइयनिष्फण्णे-उवसंता कसाया-खइयं सम्मत्तं । एस णं से णामे उवसमियखइयनिप्फण्णे॥५॥ कयरे से णामे उपसमियखओवसमियनिष्फण्णे ? उपसमियखओवसमियनिनिष्फण्णे-उवसंता कसाया खओवसमियाइं इंदियाई एस णं से णामे उपसमियखओवसमियनिष्फण्ण॥६॥ कयरे से गामे उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ? उपसमियपारिणामियनिष्फ
णे-उवसंता कसाया पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे॥७॥ कयरे से णामे खइयखओवसमियनिष्फण्णे ? खइयखओवसमियनिष्फण्णे-खइयं सम्मतं खंओवसमियाइं इंदियाई। एस णं से णामे खइयखओवसामियनिष्फण्णे॥८॥ कयरे से णामे खइयपारिणामियनिष्फणे ? खइयपारिणामियनिष्फण्णे-खइयं सम्मत्तं परिणामिए जीवे । एस णं सेनामे खइयपारिणामियनिष्फण्ण॥९॥ कयरे से णामे खओवसमियपारिणामियनिफण्णे? खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णेखोवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे। एस णं णामे खोवसमियपारिणामियनिप्फण्णे॥१०॥॥सू०१५८॥ ..छाया-अत्र खलु ये ते दश द्विकसंयोगास्ते खलु इमे-अस्ति नाम औदयिकोपशमिकनिष्पन्नम् ॥१॥ अस्ति माम औदयिकक्षायिकनिष्पन्नम् ॥२॥ अस्ति नाम औदयिकक्षायोपशस्किनिष्पन्नम् ॥३॥ अस्ति नाम औदयिकपारिणामिक .
For Private and Personal Use Only
Page #766
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५८ द्विकादिसंयोगनिरूपणम् निष्पन्नम्॥४॥ अस्ति नाम औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥५॥ अस्ति नाम औपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्॥६॥ अस्ति नाम औपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥७॥ अस्ति नाम क्षायिक क्षायोपशमिकनिष्पन्नम्।।८। अस्ति नाम क्षायिकपारिणामिकनिष्पभम्।।९। अस्ति नाम क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥१०॥ कतरत्तन्नाम
औदयिकौ पशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकमिति मानुष्यम् , उपशान्ताः कषायाः। एखत् खलु तन्नाम औदयिकौपशमिकनिष्पन्नम् ॥१॥ कतरत्तन्नाम औदायिकक्षायिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायिकनिष्पन्नम् औदयिकमितिमानुष्यं, क्षायिकं सम्यक्त्वम् । एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥२॥ कतरत्तन्नाम औदयिक शायौपशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-औदयिनमिति मानुष्यं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायोपशमिक निष्पन्नम्॥३॥ कत्तन्नामऔदयिकपरिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकपारिणामिक निष्पन्मम् औदयिकमिति मनुष्यम् पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकपारिणामिकनिष्पन्नम्।।४। कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वम्। एतत् खल तन्नाम औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥५॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायोपसमिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायो. पशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्।॥६॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकपारिणामिकनिष्पनम्-उपशान्ताः कषायाः, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥७॥ कतरत् तन्नाम क्षायिक क्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? सायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम क्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्।।८॥ कवरत् तन्नाम क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम क्षायिकारिणामिकनिष्पन्नम्॥९॥ कतरत तन्नाम क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ॥१०॥मू०१५८॥
टीका-'एत्थ णं' इत्यादिअत्र-सान्निपातिके भावे दश दिकसंयोगा उक्ताः, ते दश द्विकसंयोगा।
दो दो भावों के संयोग से जो १० भाव निष्पन्न होते हैं। सूत्रः कार उन्हें कहते हैं-"एत्थ णं जे ते" इत्यादि
બબે ભાના સાગથી જે ૧૦ ભાવે નિષ્પન્ન થાય છે, તેમને सू ट परेछ-"एत्थणं जे ते" त्याहि
For Private and Personal Use Only
Page #767
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७५०
अनुयोगद्वारसूत्रे
3.
भङ्गा- 'अस्ति नाम औदयिकौपशमिक निष्पन्नम्' इत्यारभ्य 'अस्ति नाम 'अस्ति नाम क्षायोपशमिकपरिणामिक निष्पन्नम् इत्यन्ता बोध्याः । एषु औदयिकेन सह औपशमिकादि भावचतुष्टयसंयोगात् चत्वारो भङ्गाः, औपशमिकेन सह क्षायिकादिभावत्रयस्य संयोगात् त्रयो भङ्गाः, क्षायिकेण सह क्षायोपशमिकादि भावद्वयसंयोगात् द्वौ भङ्गौ, तथा - क्षायोपशमिकेन सह
शब्दार्थ - ( एत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा, ते णं इमे) यहां जो दो दो भावों के संयोग से भाव निष्पन्न होते हैं वे इस प्रकार से है(अस्थामे उपवसमियनिष्कण्णै ? ) पहिला औदयिक और औपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव एक, (अस्थिणामे उदयखाइग निष्फoणे २) दूसरा औदधिक और क्षायिक के संयोग से निष्पन्न, भाव ( अस्थिणामे उदश्यखओवसमनिष्कण्णे) तीसरा - औद्धिक और क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थिणामे उदश्यपारिणामियनिष्कण्णे) चौधा औदयिक और पारि णामिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थि णामे उवसमियवइय निष्क०) पांचवा - औपशमिक और क्षायिक के संयोग से निधन भाव (अथणामे उसमय खओवसमियनिष्कण्णे) छठा - औपशमिक और क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थिणा मे उवसमियपारिणामियनिष्oणे) सातवां-औपशमिक और पारिणामिक के संयोग से निष्पन्नभाव (अस्थिणामे खहय, खओवसमियनिष्कणे) आठवां- क्षायिक और क्षायोपशमिक के संबन्ध से निष्पन्नभाव (अस्थिणामे खइय पारि
शब्दार्थ - ( एत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा, तेणं इमे ) मज्जे भावना सथा. गयी ने इस भावो निष्पन्न थाय छे ते नीचे प्रभा छे - ( अस्थिणा मे उदहब समय निण्णे) (1) मोहयि भने भौपशभिना संयोगयी निष्यन्न लाव . ( अस्थिणामे उदयखाइयनिप्फण्णे २) (२) मोहयि भने क्षायिना सयोगथी निष्पन्न थयेलो भाव (अथिणामे उदय खओवसमनिष्कण्णे३) (3) मौि अने क्षायोपशभिम्ना सयोगी निष्पन्न थयेो भाव (अत्थिणा मे उदइय पारिणामिव निष्कण्णे) (४) मोहयिक समने पारिश्राभिना संयेोगयी निष्यन्न भाव (अत्थि मे उवखमियखइयनिप्फण्णे ) (५) सोपशमि भने क्षायिना 'सयोगयी निष्पन्न भाव (अस्थिण मे उवसमियखओवस मियनिःकण्णे) (९) श्रीयशभिङ भने क्षायोपशमिठना सयोगयी निष्यन्न थयेो भव (अस्थिणा मे मिपारिणामिनिफण्णे) (७) भोपशमि भने पारिशाभिना साथीगयीं निष्यन्न लाव (अस्थिणा मे खइयखओवस मियनिष्फण्णे ) (८)
સાયિક
For Private and Personal Use Only
Page #768
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५८ द्विकादिसंयोगनिरूपणम् . . ७५१ पारिणामिकमावस्य संयोगादेको भङ्गः। इति दश भङ्गा बोध्या। इत्थं सामान्यतो दश भङ्गान् ज्ञात्वा विशेषतस्तान जिज्ञासितुकामः शिष्यः पृच्छति-कतरतू तन्नाम औदयिकौपशमिकनिष्प नम्-औदयिकोपशमिकभावेन यन्निष्पद्यते तन्नाम किम् ? इति । उत्तरयति-औदयिकोपशमिकनिष्पन्नमेवं विज्ञेयम्-औदयिकमितिमानुष्यम्, जामियनिष्फणे) ९वां-क्षाइक और पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थिणामे खओवसमियपारिणामिनिष्फण्णे) १० वां-क्षायो. पशमिक और पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न हुआ भाव । इस प्रकार ये औदायिक के साथ औपशमिक आदि चार भावों के संयोग से ४ भंग, औपशमिक के साथ क्षायिक आदि तीन भंगो के संयोग से तीनभंग, क्षायिक के माथ क्षायोपशमिक आदि दो भावों के संयोग से दो भंग तथा क्षायोपमिक के साथ पारिणाभिक भाव के संयोग से एक भंग ये दश भंग हो जाते हैं। इस प्रकार सामान्य से दश भंगों को जानकर विशेषरूप से शिष्य पूछता है। कि (कयरे से णामे उदय उवसमिय निष्फण्णे ? हे भदन्त ! औदयिक एवं औपशमिक भाव के संयोग से जो साभिपातिक भावरूप भंग निष्पन्न होता है वह कैसा है? • उत्तर-(उदायउवसमियनिष्फण्णे) औदयिक एवं औपशमिक
भने क्षया५शभिडना अयोगी नि०पन्न मा (अस्थिण मे खइय पारिण मियनिष्फण्णे) (6) क्षायि अने पारिवामिना संयोगथी निरूपन्ना (अस्थिणामे खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) (१०) क्षाया५शभि अन पारिवामिना સંગથી નિષ્પન્ન ભાવ આ પ્રકારે ઔદયિકની સાથે પરામિક આદિ ચારના સગથી ૪ ભંગ, ઔપશમિક ભાવની સાથે ક્ષાયિક આદિ ત્રણ ભાવના સંગથી ૩ ભંગ, ક્ષાવિકભાવની સાથે ક્ષાપશમિક આદિ બે ભાવના સંગથી ૨ ભંગ તથા ક્ષાપશમિકની સાથે પારિણમિક ભાવના સાગથી એક ભંગ બને છે. આ રીતે કિસંગી કુલ ૧૦ ભંગ બને છે.
આ પ્રકારે આ અંગેનું સામાન્ય કથન કરીને હવે સૂત્રકાર દરેક ભંગના સ્વરૂપનું વિવેચન કરે છે–
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउपसमियनिष्फण्णे?) 8 मान्! मौयि અને ઔપશમિક ભાવના સાગથી જે સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ ભંગ નિષ્પન્ન થાય છે, તેનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
।
For Private and Personal Use Only
Page #769
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७५२
अनुयोगदारसूत्रे उपशान्ताः कषायाः, इति । अयं भाव-औदयिके भावे मनुष्यत्वं मनुष्यगतिरुत्पद्यते । उपलक्षणमिदम्-तिर्यगादिगतिजातिशरीरनामादिकर्मणामपि, तेषामप्यत्र संभवात् । औपशमिके भावे तु कषाया उपशान्ता भवन्ति । इदमप्युदाहरण. मात्रम्-दर्शनमोहनीयनोकषायमोहनीयावपि औपशमिके भावे समुत्पद्यते । एतदुपसंहरन्नाह-'एस गं' इत्यादि । एतत् अनन्तरोक्त', 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे, तत्-प्रसिद्धम् औदयिकौपशमिकनिष्पन्नं नाम बोध्यमिति प्रथमद्विकयोगे यदिदमुक्तं तद् विवक्षामात्रम् । न पुनरीदृशो भङ्गः कचिजीवे संभवति तथाहि यस्य भाव के संयोग से जो सान्निपातिक भावरूप भंग उत्पन्न होता है यह ऐसा है-(उदाएत्तिमणुस्से उवसंता कसाया) औदपिकभाव में मनुप्यत्वमनुष्यगति-उपशांत कषाय यहां "मणुस्से" यह पद उपलक्षण है, इससे तिर्यगादि चारों गतियां, जाति और शरीरनामादिकर्मों का भी ग्रहण हुआ है। क्योंकि यहां पर उनका भी सद्भाव पाया जाता है। औपशमिकभाव में कषाय उपशान्त होती है । सो यह भी-उदा. हरण मात्र है । क्योंकि औपशमिक भाव में दर्शनमोहनीय और नो कषायमोहनीय इन दोनों का भी उपशम रहता है। (एस णं से णामे उदहयउवसमिपनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदधिकोपशमिकनाम का प्रथम सान्निपातिकभावरूप भा है। इस प्रथम भंगरूप सोन्निपातिक भाव में मनुष्यगति उपशांत कषाय ऐसा जो कहा है वह केवल विवक्षामात्र है। क्योंकि ऐसा सान्निपातिक भाव किसी भी जीव में
उत्तर-(उदइयउवसमियनिष्फणे) मौयि भने श्रीपशभिः भावना સંગથી જે સાન્નિપાતિક ભાવરૂપ ભંગ ઉત્પન્ન થાય છે તે આ પ્રકારનો छ-(उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया) मौयि लामा मनुष्याव-मनुष्यગતિ અને પરામિકભાવમાં ઉપશાન્ત કષાયને ગણાવી શકાય. અહી “મનુષ્યગતિ” આ પદ ઉદાહરણ રૂપે વપરાયેલું હોવાથી તેના દ્વારા તિર્યંચ આદિ ચારે ગતિએ, જાતિ અને શરીરનામાદિ કર્મોને પણ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. કારણ કે અહીં તેમને પણ સદૂભાવ રહે છે ઔપશમિક ભાવમાં કષાય ઉપશાન્ત હોય છે આ વાત પણ ઉદાહરણ રૂપે જ આપવામાં આવી છે, કારણ કે ઔપશમિક ભાવમાં દર્શન મેહનીય અને કષાયમહનીય, मा मत ४२॥ भनी ५५ ६५शम २७ छ. (एसणं से णामे उदय असमियनिष्फण्णे) मा ४२ सोयिौ५शभि नामने। प्रथम सानि. પાતિક ભાવ રૂ૫ ભંગ છે. આ પ્રથમ ભંગમાં “મનુષ્યગતિ અને ઉપશાન્ત કષાય” આ પ્રકારનું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે કથન માત્ર વિવક્ષારૂપ
For Private and Personal Use Only
Page #770
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५८ विकादिसंयोगनिरूपणम्
७५३ जीवस्य औदयिकी मनुष्यगतिः, औपशमिकाः कषायाः भवन्ति, तस्य क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वं चापि भवन्ति । कस्यचित्तु क्षायिकं सम्प, कृत्वमपि संभवति । एवं नवमभङ्गातिरिक्तसर्वेषु भङ्गेषु बोध्यम् । नवमो भास्तु सिद्धविषयो बोध्यः। सिद्धस्य क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येतद् भावद्वयं भवति । इतः परोन कोऽपि मावो भवति । तस्मात् सिद्धस्यायमेक एवं भङ्गो भवतीति बोध्यम् । नवमातिरिक्ता नव भङ्गास्तु मरूपणामात्रमेत्र । यतः सिद्धातिसंभवित नहीं होता है। जिस जीव को मनुष्यगति है और कषाय उपशमित हैं सो इस प्रकार से उसके औदायिक और औपशमिक इन दो भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिकोपशमिक नाम का प्रथम सान्निपातिक भाव माना जाता तब कि जब उसके और दूसरे भाव नहीं होते। औदयिकोपशमिकभाव के साथ वहाँ क्षायोपशमिक भाव रूप इन्द्रियां पारिणामिक भाव रूप जीवत्व भी है। किसी २ जीव को इस औदयिकोपशमिक के साथ क्षायिकसम्यक्त्व भी संभवित होता है इस प्रकार का विचार नौवें-भंग के सिवाय समस्त भंगो में जानना चाहिये । क्योंकि जो नौवा भंग है वह सिद्ध भगवान् की अपेक्षा से है। सिद्ध भगवान् में क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिक भाव रूप जीवत्व रहता है। इनके अतिरिक्त और भाव वहां नहीं रहते हैं। इसलिये सिद्ध में यह नौवां भंगरूप एक सान्निपातिक भाव ही है। જ છે, કારણ કે એ સાન્નિપાતિક ભાવ કઈ પણ જીવમાં સંભવિત તે નથી જે જીવમાં મનુષ્યગતિ છે અને કષાય ઉપશમિત છે, આ પ્રકારે તેનાં ઔદયિક અને ઔપથમિક, આ બન્ને ભાના સંયેગથી નિષ્પન્ન ઔદયિકૌપથમિક નામને પ્રથમ સાન્નિપાતિક ભાવ છે ત્યારે જ માની શકાય કે જ્યારે તે જીવમાં અન્ય કઈ ભાવનો સદુભાવ જ ન હોય દયિકીપશમિક ભાવની સાથે ત્યાં ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ ઈન્દ્રિયે અને પરિણામિક ભાવ રૂપ છવને પણ સદૂભાવ રહે છે. કઈ કઈ જીવમાં આ ઔદયિકીપશમિકની સાથે ક્ષાયિક સમ્યકત્વ પણ સંભવિત હોય છે. આ પ્રકારને વિચાર નવમાં ભંગ સિવાયના સમસ્ત ભગમાં સમજ જોઈએ, કારણ કે જે નવમે ભગ છે તે સિદ્ધ ભગવાનની અપેક્ષાએ ગ્રહણ કરવાનું છે. સિદ્ધ ભગવાનમાં ક્ષાયિક સમ્યકત્વ અને પરિણામિક ભાવ રૂપ જીવત્વને સદૂભાવ રહે છે. તે સિવાયના અન્ય ભાવોને તેમનામાં સદ્ભાવ હેતે નથી તેથી જ સિદ્ધ છમાં નવમાં ભગ રૂપ એક સાન્નિપાતિક ભાવને સદ્ભાવ કહ્યો છે તે સિવાયના જે નવ
-
For Private and Personal Use Only
Page #771
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
-
अनुयोगद्वारसूत्रे रिक्तानामन्येषां जीवानां न्यूनतोऽपि औदयिकी गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं तु जीवरम् , इत्येतद् भावत्रयं लभ्यते एवेति बोध्यम् ।।सू० १५८॥ इसके अतिरिक्त और जो नौ भंग हैं वे केवल प्ररूपणा मात्र ही हैं। क्योंकि सिद्धों के सिवाय जितने भी संसारी जीव हैं, उनको कम से कम तीन भाव तो होते ही हैं। जिस गति में वे हैं एक तो वह, तथा इन्द्रियां और जीवत्वगति औदयिक भाव है। इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव है और जीवत्व पारिणामिक भाव है।
भावार्थ-सूत्रकारने दो भावों के संयोग होने पर जो दश सान्निपातिक भाव होते हैं उनके विषय में इस सूत्रद्वारा विवेचन किया है। इसमें जहां पर औदायिक भाव प्रत्येक संयोग में प्रधान रूप से रहता है, और शेष औपशमिक आदि में से एक २ छूटता चला जाता है वह पहिला दि माव संयोगी भेद होता है। इसके चार भंग बनाये गये हैं। उनमें औदयिक औपशमिक-सान्निपातिक भाव नाम का पहिला भंग है । जैसे यह मनुष्य उपशांत कषाय है । अर्थात् यह मनुष्य उपशान्त क्रोधी यावत् मनुष्य उपशान्त लोभी है- यहां पर उपांत क्रोध होने से तो मोपशमिक भाव और मनुष्य कहने से मनुष्यगति कर्म के उदय से ભંગે છે તેમને ઉલેખ તે માત્ર પ્રરૂપણાની અપેક્ષાએ જ કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે સિદ્ધ જી સિવાયના જે સંસારી જીવે છે તે જીમાં તે ઓછામાં ઓછા ત્રણ ભાવે અવશ્ય હોય છે. જે ગતિમાં તેમને સદ્ભાવ છે તે ગતિ તથા ઇન્દ્રિયે અને જીવગતિ ઔદયિક ભાવ છે ઈન્દ્રિ ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ અને જીવત્વ પરિણામિક ભાવ રૂપ છે.
ભાવાર્થ–બબે ભાને સંગ થવાથી જે દસ સાન્નિપાતિક ભાવો નિષ્પન્ન થાય છે, તેમના વિષયમાં સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં વિવેચન કર્યું છે. પહેલા ચાર તિભાવ સગી સાન્નિપાતિક ભામાં ઔદયિક ભાવ પ્રધાન રૂપે રહે છે. દયિક ભાવની સાથે પશમિકથી લઈને પારિણામિક પર્યન્તને ચાર ભાવોને સંગ કરીને પહેલા ચાર ભંગ (ભાગાઓ) બને છે. તેમાં ઔદયિક અને ઔપશમિક ભાવના સંગથી પહેલું સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ ભંગ બને છે જેમ કે.આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત કષાય છે એટલે કે આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત ક્રોધી, ઉપશાન્ત માની, ઉપરાન્ત મારી અને ઉપશાન્ત લેભી છે. આ પ્રકારનું કથન કરવાથી પહેલા સાન્નિપાતિક ભાવ આ પ્રકારે ગ્રહણ થાય અહીં ક્રોધ ઉપશાન્ત થયેલે હેવાથી પથમિક ભાવને, અને મનુષ્ય
For Private and Personal Use Only
Page #772
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचंन्द्रिका टीका सूत्र १५८ द्विकादिसंयोगनिरूपणम् औदयिक भाव घटित होता है । इसी प्रकार से मनुष्य उपशांत मानी, मनुष्य उपशांत मायी और मनुष्य उपशांत क्रोधी इन इन वचनों में भी घटित कर लेना चाहिये। औदयिक क्षायिक सोन्निपातिक नाम को दूसरा भंग है-इसका द्रष्टान्त इस प्रकार से जानना चाहिये कि जैसे यह मनुष्य क्षीणकषायी है। औदयिक क्षायोपशमिक नाम का तीसरा सामि पातिक भंग है जैसे मनुष्य पंचेन्द्रिय है । औदयिक पारिणामिक नाम का चौथा सानिपातिक भंग है जैसे मनुष्य जीव हैं। जहां पर औदयिक भाव को छोड़ कर औपशमिक भाव के साथ क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों का संयोग कर भंग बनाये जाते हैं वहां ५वर्ष ६ ठा और सातवां ये सानिपातिक भाव बनते हैं। उनमें औपशमिक क्षायिक यह साभिपातिक नाम का पहिला भंग है। जैसे यह उपशांत लोभी दर्शन मोहनीय के क्षीण होजाने से क्षायिक सम्यग्दृष्टि है। औपशमिक क्षायिक नामका दूसरा भंग है जैसे यह उपांत मानी आभिनियोधिक ज्ञानी है । औरमिक पारिणामिक नाम का तीसरा भंग है-जैसे उपशान्त मायाकषाय वाला भव्य । जहां पर औपशमिके ' કહેવાથી મનુષ્ય ગતિ કર્મના ઉદયને લીધે ઔદયિક ભાવને સદૂભાવ બતાવ્યું છે છે. એ જ પ્રમાણે ઉપશાન્ત માની મનુષ્ય, ઉપશાન્ત માથી મનુષ્ય અને ઉપશીત લેભી મનુષ્ય, આ ત્રણે પ્રકારના કથનમાં પણ ઔદયિક અને ઔપશમિક ભાવના સંગથી નિપન્ન સાન્નિપાતિક ભાવ જ ઘટિત થઈ જાય છે.
દયિક ક્ષાયિક સાનિપાતિક ભાવ” નામના બીજા ભંગનું દૃષ્ટાન્ત નીચે प्रमाणे छे-" 240 मनुष्य क्षी पाय छे."
"मीहयि खायोपशभिः" नामना on सोनियति नुटान्त“ મનુષ્ય પંચેન્દ્રિય છે.” ઔદયિક પરિણામિક નામના ચેથા સાન્નિપાતિક नु दृष्टान्त-" मनुष्य ७३ जे."
પશમિક ભાવની સાથે અનુક્રમે ક્ષાયિક, શાપથમિક અને પારિ. મિક ભાવના સાગથી પાંચમાં, છઠ્ઠા અને સાતમાં સાનિ પાતિક ભાવ રૂપ
निरूपन्न थाय छे. "मीपशभिः क्षायि" नाना पायमा सानातिनु: शतઆ ઉપશાન્ત લોભી દર્શન મેહનીય કર્મને ક્ષય થઈ જવાથી ક્ષાયિક सभ्य छ" આ “પશમિક ક્ષાપશમિક” નામના છઠ્ઠા સાનિસ્પતિક ભંગનું earn-"AL BAI-त मानी मानिनिमाथि ज्ञानी छे."
“ઔપશમિક પરિણામિક” નામના સાતમાં સાનિ પાતિક ભંગનું टा--Sard भाया पायवाणी १०५."
For Private and Personal Use Only
Page #773
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे भाव भी छोड़दिया जाता है। वहां क्षायिकभाव के साथ क्षायोपशमिक
और पारिणामिक भावका संवन्ध होनेपर तीसरा विभाव संयोगी भेद होता है-उसके दो भंग इसप्रकार से हैं-उनमें क्षायिक क्षायोपशमिक प्रथम सान्निपातिकभाव है और दूसरा क्षायिक पारिणामिक है । इनमें प्रथम का दृष्टान्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञानी है और दूसरे का दृष्टान्त क्षीणकषायी भव्य है। जहांपर क्षायिकभाव का भी परित्याग हो जाता है केवल क्षायोपशमिक पारिणामिक रूप संयोग रहता है, वहां पर एक ही क्षायोपशमिक पारिणामिक ऐसा भंग होता है। इसका रष्टान्त-जैसे अवधिज्ञानी जीव है । इसप्रकार ये विभाव संयोगी भंग मिलकर १० हैं। इनमें जो नौवां भंग है कि जिसका नाम क्षायिक पारिणामिक है यह सिद्धजीवों की अपेक्षा से है और वही शुद्धनिर्दोष है बाकी के अवशिष्ट नौ भंग विवक्षा मात्र है-क्योंकि उनमें अन्य भावों का भी संपन्ध घटित होता है । जैसे यह मनुष्य उपशांत क्रोधी है यहां पर मनुष्य को मनुष्यगतिनाम कर्मको उदय है इसलिये औदयिक भाव है। क्रोध का उपशम है, इसलिये औपशमिक भाव है।
ક્ષાયિક ભાવની સાથે અનુક્રમે ક્ષાપથમિક અને પાણિમિક ભાવને સોગ કરવાથી આઠમાં અને નવમાં સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ બે ભાગે બને છે.
"यि यो५मि" नामना BHiसनितिनुशान्तસાયિક સમ્યગ્દષ્ટિ કૃતજ્ઞાની અને “ક્ષીણકષાયી ભવ્ય” ક્ષાયિક પારિણામિક નામના નવમાં સાનિ પાતિક ભંગના ઇષ્ટાન્ત રૂપ છે.
સાપશમિક ભાવ અને પરિણામિકભાવના સાગથી ૧૦ મે सान्निपाति मने छे. " धिज्ञानी ७१, " माना टान्त ३५ 2.
આ પ્રકારે બે ભાવેના સાગથી કુલ ૧૦ ભંગ બને છે. તેમાં જે નવમ ભંગ (ક્ષાયિક પરિણામિક નામને ભંગ) છે, તે સિદ્ધ જીવેને લાગૂ પડે છે. આ ભંગ જ ખરી રીતે સંભવી શકે છે તેથી આ ભંગ જ શુદ્ધ નિષ ગ રૂપ છે. બાકીના જે નવ ભળે છે તેમનું તે અહીં વિવક્ષા માત્ર રૂપે જ (પ્રરૂપણ કરવા માટે જ) કથન કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે તે ભામાં અન્ય ભાને સંબંધ પણ શક્ય હોય છે જેમ કે “આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત ક્રોધી છે.” અહીં મનુષ્યમાં મનુષ્યગતિ નામકર્મને ઉદય છે, તેથી
દયિક ભાવના સદૂભાવ છે, અને ક્રોધને ઉપશમ હોવાથી ઔપશમિક ભાવને પણ સદૂભાવ છે. પરંતુ સાથે સાથે તે મનુષ્યમાં બીજા ભાવે પણ
For Private and Personal Use Only
Page #774
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोग निरूपणम्
अथ योगान्निरूपयितुमाह
मूलम् - तस्थ णं जे ते दस तिगसंजोगा ते णं इमे - अस्थि णामे उदय वसमियखइयनिप्पण्णे१ अस्थि णामे उदइयउव समियखओवसमियनिष्फण्णेर, अस्थि णामे उदइय उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे३, अत्थि णामे उदइय खइयखओवसमियनिष्फण्णे४, अस्थि णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे५, अस्थि णामे उदइयखओवस मियपारिणामियनिष्कण्णे६, अस्थि णामे उवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे७, अस्थि णामे उवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णेट, अस्थि णामे उवसमिय खओवसमियपारिणामियनिष्कण्णे९, अस्थि णामे खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे १० । कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयनिष्फण्णे ? उदइय उवस मियखइयनिप्पण्णे - उदइएत्ति मस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मतं । एस णं से णामे उदइयउवसमियखइयनिष्कपणे ॥ १ ॥ कयरे से णामे उदइयउवस मियखओवसमियनिष्कपणे ? उदइयउवस मियखओवसमियनिष्फण्णेउदहपति मणुस्से उवसंता कसाया खओवसमियाई इंदियाई । एस णं से णामे उदइयउवस मियखओवसमियनिष्कपणे॥ २ ॥ कयरे से णामे उदयउवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ? उदइयउवसमियपारिणामियनिष्फणे - उदइएत्ति मणुस्से उवसंता
७५७
परन्तु साथ २ उसके और भी भाव मौजूद हैं। क्योंकि समस्त संसारी जीवों में कम से कम तीन भाव तो होते ही हैं । ॥ सू० १५८ ॥
For Private and Personal Use Only
માદ હાય છે, કારણ કે સમસ્ત સ`સારી જીવામાં એાછામાં આછા ત્રણ ભાવાના તા અવશ્ય સદ્ભાવ હોય છે. પ્રસૂ॰૧૫૮ા
Page #775
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे कसाया पारिणामिए जीवे। एस णं से णामे उदइयउवसमियपारिणामियनिष्फग॥३॥ कयरे से णामे उदइयखइयखओवसमियनिष्फणगे? उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से खइयं सम्मत्तं खओवसमियाइं इंदियाई। एस णं से णामे उदइयखइयखओक्समियनिष्फण्णे॥४॥ कयरे से णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे? उदइयखझ्यपारिणामियनिष्फण्णे-उदहएत्ति मणुस्से खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उदइएखइयपारिणामियनिष्फण्णे॥५॥ कयरे से णामे उदइय. खोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे? उदइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से खओवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे । एसणं से णामे उदइयखओवसमियपारि. णामियनिष्फण्णे॥६॥ कयरे से णामे उवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे? उपसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे-उव. संता कसाया खइयं सम्मत्तं खओवसमियाइं इंदियाई। एसणं से णामे उवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे॥७॥ कयरे से णामे उवसमियखइयपारिणामियनिष्फगे? उपसमियखझ्यपारिणा. मियनिष्फण्णे-उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे। एस णं णामे उवसमियखइयगरिणामियनिष्फण्णे॥८॥ कयरे से णामे उवसमियखओवसमियपारिणामियनिप्पणे? उपसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे-उवसंता कसाया खओवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जीवे। एसणं से णामे उव.
For Private and Personal Use Only
Page #776
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयगनिरूपणम्
७५९ समियखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे॥९॥ कयरेसे णामे खइय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे? खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे-खइयं सम्मत्तं खोवसमियाइं इंदियाई परिणामिए जीवे। एस णं से णामे खइयखओवसमिय पारिणामियनिष्फण्णे॥१०॥सू०१५९॥
छाया-तत्र खलु ये ते दश त्रिकसंयोगास्ते खलु इमे-अस्ति नाम औदयिकीपशमिक क्षायिकनिष्पन्नम् १, अस्ति नाम औदपिकौपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् अस्ति नाम औदयिकौपशमिकारिणामिकनिष्पन्नम् ३, अस्ति नाम औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्४, अस्ति नाम औदयिकक्षायिकपरिणापिकनिष्पन्नम्५, अस्ति नाम औदयिकमायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्६, अस्ति नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्७, अस्ति नाम औपशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्८, अस्ति नाम औपमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्९, अस्ति नाम क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् १०। कतरत् तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्-औदयिकमिति मानुष्यम् उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वम् । एतत्खलु तन्नाम औदयिकीपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥१॥ कतरत् तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकनि पन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-औदायिकमिति मानुष्यं उपशान्ताः कषायाः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि । एतस्खलु त नाम औदयिकौपशमिक शायोपशमिकनिष्पन्नम्।।२॥ कतरत् तन्नाम औदायिकोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ! औदयिकौपशमिकारिणामिकनिष्पन्नम्-औदपिकमिति मानुष्यम् उपशान्ताः कषायाः पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकौपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥३॥ कतरत् खल्लु औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-औदयिकभिति मानुष्यम् , क्षायिक सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्॥४॥ कतरत् तन्नाम औदयिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-औदयिकमिति मानुष्यं क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदायिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥५॥ कतरत् तन्नाम औदायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायोपशमिकपारिणारिकनिष्पन्नम्-औदयिकमितिमानुष्यं क्षायोपशमिकानि
For Private and Personal Use Only
Page #777
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७६०
अनुयोगद्वारसूत्रे
कषायाः
इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ॥ ६ ॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक निष्पन्नम् ? औपशमिकक्षाधिकक्षायोपशमिक निष्पन्नम् - उपशान्ताः कषायाः क्षायिक सम्यकत्वं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक निष्पन्नम् ||७|| कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकशाविकपारिणामिक निष्पन्नम् - उपशान्ताः क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवः एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकपारिणामिक निष्पन्नम् ||८|| कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औपशमिक्क्षायोपशमिकपारिणामिक निष्पन्नम् - उपशान्ताः कषायाः क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्नम् || ९ || कतरत् तन्नाम क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक निष्पन्नम् ? क्षायिकक्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्नम् - क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षयोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम क्षायिक क्षायोपशमिकपरिणामिक निष्पन्नम् १०॥ सू० १५९ ।।
टीका--' तत्थ णं जे ते दस' इत्यादि -
त्रिक संयोगेऽपि दश भङ्गा भवन्ति । तत्र आद्य भावद्वयं परिपाटया निक्षिप्य अवशिष्टानां त्रयाणां मध्ये क्रमेण एकैकस्य तत्र संयोगे कृते सति त्रयो भट्टा
अब सूत्रकार तीन भावों के संयोग से जो सान्निपातिक भाव बनते हैं उनका कथन करते हैं-" तत्थणं जे ते " इत्यादि ।
शब्दार्थ - (तस्थ णं जे ते दस तिग संजोगा ते णं इमे) इन सान्निपा तिक भावों में जो तीन २ भावों के संयोग से १० सान्निपातिक भाव के दश भंग बनते हैं वे इस प्रकार से हैं - ( अस्थिणामे उदय वसमिय खयनिष्कण्णे १) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिकौपशमिक क्षायिक साभिपातिक भाव एक (अस्थि मे उदय उवस मियखओवस मियनिष्फण्णे २) दूसरा
ત્રણ ભાવેાના સચાત્રથી જે સાન્નિપાતિક ભાવા બને છે તેમનું સૂત્રકાર वेनि३ रे -" तत्थ णं जे ते " त्याहि
शब्दार्थ - (तत्थ णं जे ते दसतिगसंजोगा तेणं इमे... ) श्रायु शु भावना संयोगथी ने इस सान्निपाति भावो भने छे ते नाथ अभार्थी हे - (अस्थि - नामे उदयश्वसमिय - खइयनिष्कण्णे १) (१) मोहयिक, सोपशमि भने ક્ષાયિક, આ ત્રણે ભાવાના સમૈગથી ખનતા “ ઔયિકીપશમિક ક્ષાયિક सान्निपातिक लाव, " ( अस्थि णामे उदय उत्रसमियख ओवस मियनिष्फण्णे) (२)
For Private and Personal Use Only
Page #778
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् औदयिक औपशमिक, एवं क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिकोपशमिक क्षायोपशमिक सामिपातिक भाष (अस्थिणामे उदय उवसमिय पारिणामिय निष्फण्णे) तीसरा-औदयिक,
औपशमिक और पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिक औपशमिक पारिणामिक सानिपातिक भाव (अस्थिणामे उदयखइयखोवसमियनिष्फण्णे) चौथा-औदयिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक सान्निपातिक भाव (अत्थिणामे उदय खइय पारिणोमिय निष्फण्णे) पांचवां-औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिक क्षायिक पारिणामिक सान्निपातिक भाष (अस्थि णामे उदइय खोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) छठा-औदयिक क्षायोपशमिक और पोरिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक भाव (अस्थिजामे उवसमियखाइयखभोवसमियनिष्फण्णे) सातवां-औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पक्ष औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक नाम का सान्निपातिक भाव ઔદયિક, ઔપથમિક અને ક્ષાપશમિક, આ ત્રણ ભાવના સાગથી બનતે ઔદયિકૌપથમિક ક્ષાપશમિક સાઘિપતિક ભાવ.”
(अत्थिणामे उदइयउवासमियपारिणामियनिष्फण्णे३) (3) मौयि, भोपમિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાવના સાગથી બનતે “દયિક પથમિક પરિણામિક સાતિપાતિક ભાવ.”
(अस्थि णामे उदइयखइयखओवसमियनिदफण्णे) (४) भौयि, xि અને ક્ષાપથમિક સાત્રિપાતિક ભાવ.” - (अस्थि णामे उदइयखइयपारिणामियनिप्फण्णे) (५) मोहयि, क्षायिह અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થતે “ઔદયિક ક્ષાયિક પરિણામિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अस्थि णामे उदइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) (6) मोहयि, क्षाया. પશમિક અને પરિણામિક ભાવેના સાગથી બનતે “દયિક ક્ષાપશમિક પરિણામિક સાન્નિપાતિક ભાવ.” . (अस्थि णामे उपसमियखइयख ओवसमियनिष्फणे) (७) मोपभिड, ક્ષાયિક અને ક્ષાપશમિક, આ ત્રણ ભાના સંયોગથી બનતે “ ઓપશમિક શાયિક ક્ષાપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
अ० ९६
For Private and Personal Use Only
Page #779
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे (अस्थिणामे उवसमियखहयपारिणामियनिष्फण्णे) आठवां-औपशमिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न
औपशमिक क्षायिक पारिणामिक नाम का सान्निपातिक भाव (अस्थिणामे उवसमियखोवसमियपारिणामियनिप्फण्णे) नौवां-औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नाम कासान्निपातिक भाव, अस्थिणामे खइयखओवस मियपारिणामियनिष्फण्णे) दसवांक्षायिक, क्षायोपशमिक, और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नामका सान्निपातिक भाव । (कयरे से णामे उदयउवसमियखानप्फण्णे)
प्रश्न-हे भदन्त ! औदयिकोपशमिक क्षायिक नाम का जो प्रथम त्रिक भाव संयोगी सान्निपातिक भाव है वह कैसा है ?
उत्तर-(उदइय उवसमियखइयनिष्फण्णे) औदयिकोपमिक क्षायिकनाम का जो प्रथम त्रिक संयोगी सान्निपातिक भाव है वह ऐसा है. उदाएत्तिमणुस्से उवसंता-कसाया खहयं संमत्तं) मनुष्यगति औदयिक भाव में है कषायों का उपशम औपशमिक भाव में हैं और क्षायिक ..(अस्थि णामे उवसमियखइयारिणामियनिष्फण्णे) (८) मोपभि, ક્ષાચિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવેના સગથી બનતે “પરામિક ક્ષાયિક પારિણામિક નામનો સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अस्थिणामे उपसमिय खओवसमिय पारिणामिय निकण्णे) (6) मोपभिर, ક્ષાયોપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંયોગથી બનતે
પશમિક ક્ષાયોપથમિક પરિણામિક નામને સાન્નિપાતિક ભાવ.” __- (अस्थिणामे खइयन ओवसमियपारिणामियनिप्पण्णे) (१०) क्षायि3, क्षाया५२. મિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંગથી બનતે “ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક પરિણામિક નામને સાત્રિપાતિક ભાવ.”
प्रश्न-(कयरे से गामे उदइयउवसमियखइयनिष्कण्णे ?) ७ मावन् ! ઔદયિકીપશમિક ક્ષાયિક નામને જે પહેલે વિકભાવ સગી સાન્નિપાતિક ભાવ છે તે કે છે?
उत्तर-(उदइयउवसमियखइयनिष्कण्णे) मोहथि: भोपाभि क्षायि: નામને જે પહેલે ત્રિકભાવસંગી સાન્નિપાતિક ભાવ છે તે આ પ્રકારને छे-(उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं संमत्त) मनुष्य गति मौयि ભાવ છે, કષાયોને ઉપશમ ઔપશમિક ભાવ છે અને ક્ષાયિક સમ્યકત્વ
For Private and Personal Use Only
Page #780
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगधन्द्रिका टोका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् सम्यक्त्व क्षायिक भाव में है-(एसणं से णामे उदइयउवसमियखझ्या निष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिक औपशमिक क्षायिक निष्पन्न नाम सान्निपातिक भाव है । (कयरे से णामे उदइयउवसमियखओव समियनिष्फपणे) हे भदन्त ! औदयिक क्षायोपशमिक सान्निपातिक भाव कैसा है ? - उत्तर-(उदइय उपसमियखोवसमियनिष्फण्णे) औदयिक औप: शमिक क्षायोपशमिक नामको सान्निपातिकभाव ऐसा है (उदइएं त्तिमणुस्से उवसंता कसाया ख भोवसमियाइं इंदियाई) मनुष्यगति औदयिक, उपशांतकषायें औपशमिक, और इन्द्रियाँ क्षायोपशमिक (एसणं से णामे उदयउवसमियखोवलमियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकौपशमिक क्षायोपशमिक सान्निपतिक भाव है। (कपरे से णामे उदहपउवसमियपारिणामियनिष्फण्णे?) हे भदन्त ! औद: यिकोपशमिक पारिणामिक नाम का तीसरा सान्निपातिक भाव कैसा है ? (उदइयउवसमियपारिणामियनिप्फण्णे) . उत्तर-औदयिकौपशमिक पारिणामिक नामका जो तीसरा सान्नि पातिक भाव है वह ऐसा है-(उदइयएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया पारिक्षायि४ मा छ. (एसणं से णामे उदइयउपसमियखइयनिष्फण्णे) ॥ प्रारना આ ઔદયિકોપથમિક ક્ષાયિક નિષ્પન્ન નામને સાત્રિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न-कयरे से णामे उदइयउपसमियखओवसमियनिष्फण्णे १ ३ सन् ! દયિકૌપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ કે છે?
उत्तर-(उदइयवसमियखओवसमियनिष्कण्णे) मोहयो५मि४-मायामि। नामनी सानिपाति: ला 240 रने छे-(उदएत्ति मणुस्से, उपसंताकसाया, खओवसमियाइं इंदियाई) मनुष्य गति मोहयि भाव छ, शान्त ४ाये। मो५मि४ मा छे भने न्द्रिय क्षायो५मि मा छे. (एसणं से णामे उदइयउवसमियख ओवसमियनिष्फण्णे) ! ५२ मा मोयिसमा સાપશમિક સાત્તિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउपसमियपारिणामियनिष्फण्णे १ 3 मापन् । દયિક શમિક પરિણામિક નામને ત્રીજો સાન્નિપાતિક ભાવ કે છે?
उत्तर-(उदइय उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ?) भौयिठीपशभिः पारि भि नामनी त्रीले सान्निपाति: १ मा प्रारना छे-(उदइयएति मगुस्से, बसंवा कसाया, पारिणामिए जी) मनुष्य गति मौयि माप),
य
For Private and Personal Use Only
Page #781
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७६४
अनुयोगद्वारसूत्रे णामिए जीवे) मनुष्यगति औदयिक भाव है कषायों की उपशांति
औपशमिक भाव है और जीव पारिणामिक भाव है । (एसणं से णामे उदयउवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकौपशमिकपारिणामिक नाम का सान्निपातिक भाव है। (कयरे से णामेउदायखझ्यखओवसमियनिष्फण्णे ? ) हे भदन्त ! औदायिक क्षायिक
और क्षायोपशमिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिक क्षायिकक्षायोपशमिक नाम का सान्निपातिक भाव कैसा है ? ___उत्तर-(उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे) औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिक नाम का सान्निपातिक भाव ऐसा है... (उदएत्ति मणुस्से खइयं सम्मत्तं खोवसमियाइं इंदियाई) मनुष्य गति औदयिक भाव में है । क्षायिक सम्यक्त्व यह क्षायिकभाव में है,
और इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव में हैं । (एसणं से णामे उदइयखाय खओवसमियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकक्षायिकक्षायोपश. मिक नामका सान्निपातिक भाव है। (कयरे से णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे?) हे भदन्त ! औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ? (उदइयखायपारिणामियनिष्फन्ने) કષાની ઉપશાન્તિ ઔપથમિક ભાવ છે અને જીવ પરિણામિક ભાવ છે. (एसणं से णामे उदइयउपसमियपारिणामियनिष्फन्णे) मा मौयिटी५२મિક પરિણામિક નામના સાનિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे) 3 स ! હયિક ક્ષાયિક અને ક્ષાપશમિક આ ત્રણે ભાવેના સંગથી બનતા ઔદયિક સાયિક ક્ષાપશમિક નામના ચેથા સાનિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे) मोहथि क्षायि साया५३. भि नाभना या सान्निपाति: मापनु २१३५ मा अनुछे-(उदइए ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खओवस मियाइं इंदियाई) मनुष्य गति मोह४ि मा રૂ૫ છે, ક્ષાયિક સમ્યકત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને ઇન્દ્રિયે ક્ષાપથમિક मा ३५ छे. (एनणं से णामे उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे) ॥ प्रा२र्नु ઔદયિક ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક નામના સાન્નિપાતિક ભેદનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे १) ७ मापन् ! હયિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક ભાવના સાગથી બનતા પાંચમાં યાત્તિપતિ ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
For Private and Personal Use Only
Page #782
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिक संयोगनिरूपणम्
७६५
ऊसर औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक नामका भाव इस प्रकार से है( उदइएन्ति मणुस्से खयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे) मनुष्य गति यह औदयिक भाव है, क्षायिक सम्यक्त्व यह क्षायिक भाव है और जीव यह पारिणामिक भाव है । (एसणं से णामे उदयखइयपारिणामियनिष्फoणे) इसप्रकार यह औदयिक क्षायिक पारिणामिक नामका सान्निपातिक भाव है । (कयरे से णामे उदय खओवसमियपारिणामियनिष्oणे ?) हे भदन्त ! औदयिक क्षयोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर- ( उदय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) औदयिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव ऐसा है - ( उदहएत्तिमनुस्से खभोवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे) मनुष्यगति यह औदयिक भाव है । इन्द्रियां ये क्षायोपशमिक भाव हैं और जीव यह पारिणामिक भाव है । (पुसण से णामे उद्यखओवसमियपारिणामियनिष्कण्णे) इस प्रकार से यह औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नाम का सान्निपातिक भाव है।
उत्तर- (उदइयखइयपारिणामियनिष्कण्णे) मोहयि क्षायि भने पारिશુામિક, આ ત્રણ ભાવાના સમૈગથી મનતે પાંચમા સાન્નિપાતિક ભાવ આ प्रारा छे - ( उदइए ति मणुस्से, खइयं सम्मतं, पारिणामिए जीवे) मनुष्य गति ઔયિક ભાવરૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને જીવ પારિણામિક ભાવ રૂપ છે. (एसणं से णामे खइयपारिणामियनिष्फण्णे) मा પ્રકારનું ઔદયિક ક્ષાચિક પારિણામિક નામના સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ છે. प्रश्न - ( कयरे से णामे उदहयख ओवस मियपारिणामियनिष्कण्णे १) ड ભગવન્ ! ઔયિક, ક્ષાાપશમિક અને પારિણામિક, આ ત્રણે ભાવાના સચેાગથી બનતા છઠ્ઠા સાન્નિપાતિક ભાવનુ સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर- (उदइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मोहयिङ, क्षायोपश મિક અને પારિણામિક, આ ત્રણ ભાવાના સચૈાગથી બનતા છઠ્ઠા સાન્નિપાતિક भावनु स्व३५ मा प्रहारनु छे - ( उदइए मणुस्से खओवसमाई इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मनुष्यगति भौयिक लावइय छे, इन्द्रियो क्षायोपशमिठ लाव ३५ छे अने व पारिश्राभि भाव ३५ छे. (एसणं से णामे उदयख ओवसमियपारिणामियनिष्कण्णे) मा प्रहारनो मोहयिक क्षायोपशमि पारिशाभिठ નામના સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #783
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Da
c tetic...
-
-
-
अनुयोगद्वारसूत्रे (कयरे से णामे उवप्लमियन्वयखोवसमियनिप्फण्णे ? ) हे भदन्त !
औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर-(उपसमियखइयखोवसमियनिष्फण्णे) औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीन भावों से निष्पन्न हुआ-सान्निपातिकभाव इसप्रकार से है-(उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खओव समियाई इंदियाई) उपशमित हुई कषायें औपशमिक भाव हैं, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भावरूप है और इन्द्रियांक्षायोपशमिक भाव है। (एसणं से णामे उपसमियखहयखओवसमियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव है, (कयरे से णामे उवसमिय खायपारिणामिय. णिफण्णे) हे भदन्त ! औपशमिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ? ___ उत्तर-(उपसमियखझ्यपारिणामियनिप्फण्णे) औपशमिक क्षायिक
और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्नि. पातिक भाव इसप्रकार से है । (उवसता कसाया, खड्यं सम्नत्त, पारि___ -(कयरे से णामे उवसमियखझ्यनओसमियनिष्फण्णे १) डे मापन् । ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાપથમિક, આ ત્રણેના સાગથી બનતા સાતમાં સારિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે? .. उत्तर-(उवसमिय खइयखओवसमियनिष्फण्णे) भोपशभि, क्षायि भने ક્ષાપશમિક, આ ત્રણ ભાવના સાગથી બનતા સાતમાં સાન્નિપાતિક सापर्नु २१३५ मा ५४.२नु छ-(उपसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाई) 6५शभित थये। पाये। मी५शमि मा ३५ छ, क्षायिक સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને ઇન્દ્રિય ક્ષયપશમિક ભાવ રૂપ છે. (एसणं से णामे उव समियखइयख ओवसमियनिष्फण्णे?) मारने मो५०. મિક ક્ષયિક ક્ષાયોપથમિક નામને સાન્નિપાતિક ભાવ હોય છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उवममिय खइयपारिणामियनिष्फण्णे) 3 भगवन् । પશમિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંગથી બનતા આઠમાં સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે? - उत्तर-(उवसमियखहयपारिणामियनिष्फण्णे) भोपशभिड, क्षायि: भने પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંગથી બનત સાન્નિપાતિક ભાવ આ भरना 8-(उपसंता कसाया, खइयं सम्मतं, पारिणामिए जीवे) ७५शभित
For Private and Personal Use Only
Page #784
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७६७
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् णमिए जीवे) उपशमित हुई कषायें औपशमिक भाव हैं क्षायिक सम्य. त्व क्षायिक भाव है और जीव पारिणामिकभाव है । (एसणं से णामे उवासमियखहयगरिणामियनिष्फण्णे) इसप्रकार यह औपशमिकक्षायिक
और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सन्निपातिकभाव है । (कयरे से णामे उपसमियख भोवसमिय पारिणामिय निप्फण्णे १) हे भदन्त ! औपशमिक क्षायोपशमिक और पोरिणामिक इनतीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिकभावकैसा है ? ___ उत्तर-(उवसमिय खोवसमियपरिणामियनिष्फण्णे) औपश. मिक, क्षायोपशमिक, और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआसामिपातिक भाव इस प्रकार से है (उवमंना कमाया खओवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जीवे) उपशमित कषाय औपशमिक भाव है,इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव हैं और जीव यह पारिणामिक भाव है। (एसणं से णामे उवसमियख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औपशमिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सानिपातिक भाव है। (कयरे से णामे खड्य खोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) हे भदन्त ! क्षायिक क्षायोपशमिक થયેલા કષાયે ઔપશમિક ભાવ રૂપ છે, ક્ષાયિક સફર ક્ષયિક ભાવ રૂપ छ भने १ पारिभिर मा ३५ छे. (एसणं से णामे उबसभियखइयपारिणामियनिष्फण्णे) मा प्रारना औ५शभि: क्षायि४ पारिभि नामना સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न- कयरे से णामे उपसमियख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे?) હે ભગવન! ઔપશમિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવેના સંગથી નિપન્ન થતે નવમે સાન્નિપાતિક ભાવ કેવો છે?
Gत्तर-(उअसमिय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मौ५५भि, क्षायोपभिः અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સોગથી બનતે નવમો સાન્નિપાતિક ભાવ या प्रश्न छ-(उवसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदिया, पारिणामिए जीवे) ઉપશમિત કષાયે ઔપશમિક ભાવ રૂપ છે, ઈન્દ્રિય ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ छ भने ७१ परिणामि मा ३५ छे. (एसणं से णामे उवसमियखओवस. मियपारिणामियनिष्फण्णे) मा हारने औपशभि क्षाया५शमि भने पारिया. મિક નામને સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे १). ભગવન! ક્ષાયિક, લાપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવના સંગથી બનતે દસમે સારિપાતિક ભાવ કે છે?
For Private and Personal Use Only
Page #785
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७६८
अनुयोगद्वारसूत्रे और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर-(खइयख भोवसमिय पारिणामियनिष्फण्णे)क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव ऐसा है-(खइयं सम्मत्तं ख मोवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे) क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भाव है, इन्द्रियां क्षायो. पशमिक भाव हैं तथा जीव यह पारिणामिक भाव है। (एस णं से णामे खड्यखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पत्र हुआ क्षायिकक्षायोपशमिक पारिणामिक नामका सान्निपातिक भाव है
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा तीन भावों के संयोग से जो १० सान्निपातिक रूप भंग होते हैं उनका प्रदर्शन किया है। इनमें औदयिक और औपशमिक इन दो भावों को परिपाटी से निक्षिप्त कर के अवशिष्ट क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीनों भावों में से एक एक भाव का उनके साथ संयोग किया है। इस प्रकार करने से तीन भंग निष्पन्न होते हैं, इनमें औदायिकौपशमिक क्षायिक सान्निपा. तिक भाव इस प्रकार से घटित करना चाहिये कि यह मनुष्य उपशांत क्रोधादि कषायवाला होकर क्षायिक सम्यक् दृष्टि है। मनुष्य से यहां
उत्तर-(खइय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) क्षायि, क्षायापनि અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવના સાગથી બનતે દસમે સાવિ પાતિક मा१ मा २ -(वइयं सम्मत्तं, खोवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) क्षायि: सभ्यत्व क्षायि४ मा ३५ , धन्द्रिय क्षाया५मि४ मा ३५ छ भने ७५ परिणामि मा ३५ छ. (एसण से णामे खय खओवन. मिययारिणामियनिष्फण्णे) मा प्रा२नु क्षायि, क्षयोपशभि भने पारिवामि આ ત્રણ ભાના સાગથી બનતા દસમાં સન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ-ત્રણ ભાવના સાગથી જે દસ સાવિ પાતિક ભાવ રૂપ ૧૦ ભંગ બને છે, તેમનું સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં નિરૂપણ કર્યું છે દયિક અને
પશમિક ભાવની સાથે અનુક્રમે ક્ષાયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક ભાને સંગ કરવાથી પહેલા ત્રણ ભંગ બન્યા છે.
(१) "मोहविठोपभि सानियाति: आप " ३५ पडसा मनु' ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે-“આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત ક્રોધાદિ કષાયવાળે છે અને સાયિક સમ્યક્દષ્ટિ છે. ” મનુષ્ય પદ અહી મનુષ્યગતિનું વાચક છે. મનુષ્ય ગતિ ઔદયિક ભાવ રૂપ હોય છે, કારણ કે મનુષ્યગતિ નામકર્મના ઉદયથી
For Private and Personal Use Only
Page #786
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___७६९
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् भवन्ति । तत आद्यं तृतीयं च परिपाटया निक्षिप्य अवशिष्टयोईयोस्तत्र क्रमेण संयोगे भगद्वयम् । ततः प्रथमचतुर्थपञ्चमभावानां संयोगे एको भरः । इत्थं पह भङ्गाः । ततो द्वितीयं च भावपरिपाटया निक्षिप्य तत्र चतुर्थपञ्चमयोः क्रमेण योगे भङ्गद्वयम् । ततो द्वितीयचतुर्थपञ्चमभावानां च योगे एको भङ्गः। तथा-तृतीयचतुमनुष्यगति ली गई है। मनुष्यगति यह औदयिक भाव है। क्यों कि मनुष्यगति नामकर्म के उदय से मनुष्य होता है। उपशांत क्रोधादि कषायवाला कहने से औपशमिक भाव घटित होता है और क्षायिक सम्यकत्व से क्षायिक भाव । इसी प्रकार से शेष दो भंगों में-औदयिकौपशमिक क्षायोपशमिक सानिपातिक भाव में यह मनुष्य उपशान्त कषायवाला पंचेन्द्रिय है यथा औदयिकोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक भंग में यह मनुष्य उपशांत कषायवाला जीव है-घटित करलेना चाहिये । जहां पर औपशमिक भाव का परित्याग कर औदायिक और क्षायिक भाव का ग्रहण हो तथाक्षायोपशमिक एवं पारिणामिक भावों में से एक२ को ग्रहण हो वह दूसरा त्रिभाव संयोगी सानिपातिक भाव का भेद है-इसके दो भंग हैं-एक औदयिक क्षायिकक्षायोपशमिक और दूसरा औदयिक क्षायिक पारिणामिक, पहिलेका दृष्टान्त-क्षीण कषायी मनुष्य મનુષ્ય ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. ઉપશાન્ત ક્રોધાદિ કષાયવાળ કહેવાથી ઔપથમિક ભાવ ઘટિત થાય છે અને ક્ષાયિક સમ્યકૂવ યુક્ત કહેવાથી ક્ષાયિક ભાવ ઘટિત થાય છે એજ પ્રમાણે બીજા અને ત્રીજા ભેગેને ભાવાર્થ પણ સમજી શકાય એવે છે.
(२) "मौयिौपशभिक्षायो५५भि: सालिपाति मा१" ३५ मी. ભંગનું ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે
આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત કષાયવાળે પચેન્દ્રિય જીવ છે.” (૩) દકિૌપથમિક પરિણામિક સાવિપાતિક ભંગનું ઉદાહરણ " । मनुष्य शान्त पायवाणी १ छ."
ત્યાર પછીને ચે અને પાંચમો ભંગ આ પ્રમાણે બને છે–અહીં ઔદયિકભાવની સાથે પરામિક ભાવ લેવાને બદલે ક્ષાયિક ભાવ લે અને ઔદયિક અને ક્ષાયિક ભાવની સાથે અનુક્રમે ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક ભાને સંગ કરવાથી ચેશે અને પાંચમ ભંગ બને છે.
(૪) ઔદયિક ક્ષયિક ક્ષાપશમિક સાઝિપાતિક ભાવનું ઉદાહરણ "क्षी पायी मनुष्य श्रुतज्ञानि."
अ. ९७
For Private and Personal Use Only
Page #787
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७७०
अनुयोगद्वारसूत्रे थंपञ्चमभावानां च योगे एको भङ्गः । इत्थं सर्वे भङ्गा दश संख्यका भवन्ति । एतेषामेव स्वरूपविवरणाय प्राह-'कयरे से णामे' इत्यादि । एषां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या। तत्र पञ्चमो भङ्गः केवलिनां संभवति। केवलिनां हि-औदयिकी श्रुतज्ञानी और दूसरे का दृष्टान्त जिसका दर्शन मोहनीयादि कर्म क्षीण हो गया है ऐसा वह मनुष्य जीव है । जहाँपर केवल औदयिक भावका ग्रहण है और औपशमिक एवं क्षायिक का परित्याग है वह तीसरा त्रिभाव संयोगी सान्निपातिकभाव है। उसका औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक एक-ऐसा छठा भंग है। इसका दृष्टान्त-जिस प्रकार मनुष्य मनोयोगी जीव है । जहां पर औदायिक भाव को छोड़कर शेष औपशमिकादि चार भावों में एक २ का परित्याग किया जावे वह चौथा त्रिभाव संपोगी भेद है और उसके इस प्रकार से चार भंग माने गये है-पहला भंग-औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक सान्निपातिक नाम का दूसरा भंग औपशमिक क्षायिकपारिणामिक सान्निपातिक नामको तीसरा भंग-औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक नाम का। चौथा-क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक नाम को इस प्रकार ये सब भंग १० हो जाते हैं। इनमें जो औदयिक क्षायिक एवं पारिणोमिक भावों के संयोग से निष्पन्न ५वा साभिपातिक भावका
(५) मौयि: क्षायि: पाक्षिणाभि४ सालति भानु दृष्टान्त-"२॥ દશનમેહનીય આદિ કર્મ ક્ષીણ થઈ ગયાં છે એ મનુષ્ય જીવ.”
જે સાન્નિપાતિકભાવમાં ઔદયિક ભાવની સાથે ઔપશમિક અને ક્ષાયિક, આ બે ભાવને લેવાને બદલે બાકીના બે ભાગ લેવામાં આવે છે એ છો ભંગ નીચે પ્રમાણે છે-“ઔદયિક ક્ષાપશમિક પરિણામિક સાઘિપતિક ભાવ તેનું દૃષ્ટાન્ત નીચે પ્રમાણે છે-“મનુષ્ય મનાયેગી જીવ છે.”
બાકીના ચાર ભંગ આ પ્રકારે બન્યા છે-આ ચારે ભંગમાં ઔદયિકભાવ સિવાયના ચાર ભામાંના ત્રણ ત્રણ ભાના સંયોગથી ચાર ભંગ બન્યા છે,
પશમિક અને ક્ષાયિક, આ બે ભાવ સાથે ક્ષાપશમિક ભાવના સંગથી સાતમે ભંગ અને પરિણામિકભાવના સંયોગથી આઠમે ભંગ બન્યા છે.
નવમાં ભંગમાં ઓપશમિક ક્ષાયોપથમિક અને પરિણામિક ભાવના સંયોગથી જે સાત્રિપાતિક ભાવ બને છે તે ગ્રહણ કર અને દસમાં ભંગમાં લયિક લાયોપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવોના સંયોગથી બનતે સાત્રિપાતિક ભાવ ગ્રહણ થયો છે. આ પ્રકારે કુલ ૧૦ ભંગ બને છે.
ઔદયિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક ભાવોના સંયોગથી નિષ્પન્ન પાંચમા સાન્નિપાતિક ભાવને તે માત્ર કેવલીઓમાં જ સદૂભાવ હોય છે, કારણ કે
For Private and Personal Use Only
Page #788
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोग निरूपणम्
मनुष्यगतिः क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनवारित्राणि पारिणामिकं जीवत्वमिति त्रयों भावा भवन्ति । औपशमिकस्तु तेषु नास्ति, औपशमिकस्य मोहनीयाश्रयत्वात्, केवलिषु मोहनीयस्यासंभवात् । क्षायोपशमिको भावोऽप्येषां नास्ति, क्षायोपश मिकानि इन्द्रियादिपदार्थत्वेनाभिमताः, इन्द्रियादिपदार्थास्तु केवलिषु न सन्ति, तेषामतीन्द्रियत्वात् । उक्तंचापि - 'अतीन्द्रियाः केवलिनः' इति । इत्थं च औदयिकक्षायिकपारिणामिकेति भावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो मङ्गः केवलिनां संभवति । षष्ठो भङ्गस्तु नारकादिषु चतसृषु गतिषु बोध्यः । तथाहि - नारकाद्यन्यतमा गतिः औदभंग है वह केवलियों के संभवता है क्योंकि केवलियों के औदयिक - मनुष्यगति है ज्ञानदर्शन और चारित्र ये क्षायिकरूप हैं । और पारिणामिक रूप जीवत्व है। वहां ये तीन भाव हैं । औपशमिक भाव उनमें नहीं है, क्योंकि औपशमिक मोहनीय के आश्रय से होता है। और मोहनीय केवलियों में है नहीं। क्षायोपशमिक भाव भी केवलियों में नहीं होता है। क्योंकि क्षायोपशमिकभाव इन्द्रिय आदि पदार्थरूप माने गये हैं। इन्द्रियादिरूप पदार्थ केवलियों में नहीं है। क्यों कि वे इन्द्रियातीत हैं " अतीन्द्रिया केवलिनः " ऐसा अन्यत्र कहा है । तात्पर्य इसका यह है कि केवलियों का ज्ञान इन्द्रियातीत अतीन्द्रिय है। इस प्रकार औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों से निष्पन्न पंचम भंग केवलियों में संभवता है। तथा जो छठा औदयिक क्षायोपशमिक एवं કેવલીઓમાં મનુષ્ય ગતિ રૂપ ઔયિક ભાવના, જ્ઞાનદર્શન રૂપ ક્ષાયિક ભાવના અને જીવ રૂપ પારિણામિક ભાવના સદ્ભાવ રહે છે આ રીતે • કૈવલીમાં આ ત્રણ ભાવાના જ સદ્ભાવ રહે છે, તેમનામાં ઔપશમિક ભાવના સદ્દભાવ હાતા નથી કારણ કે ઔપમિક ભાવ માહનીય ક્રમના ઉપશમ પર આધાર રાખે છે, કેવલીઓમાં મેાહનીય કર્મના સદ્ભાવ જ હાતા નથી કેવલીઓમાં ક્ષાયોપશમિક ભાવને પશુ સાવ હાતા નથી કારણ કે ક્ષાયોપથમિક ભાવ ઇન્દ્રિયાદિ પદાર્થ રૂપ મનાય છે છે ઇન્દ્રિયાદિ રૂપ પદાર્થ કેવલીઓમાં હાતા नथी, કારણ ક तेथे। इन्द्रियातीत होय छे. "अतीन्द्रिया केवलिनः " खेवु सिद्धान्तस्थन छे.
આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કેવલીઓનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયાતીત (અતીન્દ્રિય) હાય છે આ પ્રકારે ઔયિક, ક્ષાયિક અને પાણિમિક, આ ત્રણે ભાવાના સયોગથી નિષ્પન્ન થતા પાંચમા ભ ́ગ માત્ર કેવલીએમાં જ સભવી શકે છે. ઔયિક, ક્ષાયોમિક અને પારિણ મિક, આ ત્રણ ભાવાના સ’યોગથી નિષ્પન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાત્ર રૂપ છઠ્ઠો ભ'ગ. નારકાદિ ચારે ગતિમાં
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
فیف
Page #789
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७७२
अनुयोगद्वारसूत्र यिकी, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम्, इति औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकेति भावत्रयनिष्पन्नः षष्ठो भङ्गो नारकादिगतिचतुष्टये संभवति । अत इतरेत्वष्टौ भङ्गाः प्ररूपणामात्रम्, तेषां क्वाऽप्यसंभवात् ।।सू.१५९॥
अथ चतुष्फसंयोगान्निरूपयितुमाह___ मूलम्-तत्थ ण जे ते पंच चउक्कसंजोगा ते णं इमे-अस्थि गामे उदइय-उवसमिय-वइय-खओवसमियनिष्फण्णे? अस्थि णामे उदइय-उवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे२, अस्थि गामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिप्फपणे३, अस्थि णामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे४, अस्थि णामे उपसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फपणे५। 'कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिप्फपणे ?, उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, पारिणामिक इन भावों से-निष्पन्न भंग है वह नारकादि चारों गतियों में होता है क्यों कि ये नारकादि गतियां औदयिकी मानी गई है और वहां जो इन्द्रियां हैं वे क्षायोपशमिक भावरूप है और जीवत्व वहां पारिणामिक भाव रूप है। इस प्रकार औदयिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों से निष्पन्न यह छठा भंग नारक आदि चारों गतियों में संभवता है । तथा इनसे अतिरिक्त और जो आठ भंग हैं वे केवल प्ररूपणा मात्र हैं। क्यों कि इन भंगों की कहीं पर भी संभावना नहीं है !॥मू०१५९॥ સંભવી શકે છે, કારણ કે નારકાદિ ગતિએને ઔદયિક માનવામાં આવે છે. આ ગતિના જીવમાં જે ઈન્દ્રિયો હોય છે તે ક્ષાયોપથમિક ભાવ રૂપ ગણાય છે. અને છેવત્વ પરિણામિક ભાવ રૂપ ગણાય છે. આ રીતે ઔદયિક, સાયોપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવના સંયોગથી નિષ્પન્ન થતો છો ભંગ નારકાદિ ચારે ગતિઓમાં સંભવી શકે છે.
પાંચમાં અને છઠ્ઠા ભંગ સિવાયના આઠ અંગોની કઈ પણ જગ્યાએ શક્યતા હોતી નથી તેથી માત્ર પ્રરૂપણ કરવા નિમિત્તે જ તે ભંગેનું કથન અહીં કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું.૦ ૧૫
A
For Private and Personal Use Only
Page #790
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम्
७७३ उवसंता कसाया, खइअं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाइं। एस णं से णामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिष्फपणे ?, कयरे से णामे उदइयउपसमियखइयपरिणामियनिष्फण्णे ?, उदइयउवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, पारिणामिए जीवे। एस णं से णामे उदइयउवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे२। 'कयरे से गामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे-- उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फन्ने उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे३ । कयरे से जामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे? उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खओ. वसमियाइं इंदियाइं, पारिणामिए जीवे। एस णं से नामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे४। कयरे से नामे उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे?, उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे-उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे । एस णं से नामे उवसमियखझ्यखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे५॥सू०१६०॥ ___ छाया-तत्र खलु ये ते पञ्च चतुष्कसंयोगाः, ते खलु इमे-अस्ति नाम प्रौदयिफौपशमिकक्षायिकक्षायोपशपिकनिष्पन्नम् १ अस्ति नाम औदपिकौपशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्२, अस्ति नाम औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणा
For Private and Personal Use Only
Page #791
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७७४
अनुयोगद्वारसूत्रे
मिकनिष्पन्नम् ३. अस्ति नाम औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक निष्पन्नम् ४, अस्ति नाम औपशमिकक्षाधिकक्षायोपशमिकपारिणारिणामिक निष्पन्नम्५, कतरत्
अब सूत्रकार - चार भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिक भावों की प्ररूपणा करते हैं- तत्थ णं जे ते पंच " इत्यादि ।
"
शब्दार्थ - (तस्थ णं जेते पंच चउक्कसंजोगा ते णं इमे) यहां जो चतुष्क संयोगी पांच भंग हैं वे इस प्रकार से हैं- (अस्थि णामे उदय, उवसमिप - खइय-खओवसमियनि फण्णे १) औदयिक, औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न पहिला भंग है । (अस्थि णामे उदय - उवसंमिय-खड्य- पारिणामियनिष्कण्णे २) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न दूसरा भंग है । (अस्थिणा मे उदय उवसमिय, खओवसमय पारिणामिय निष्फण्णे ३) औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चारभावों के संयोग से निष्पन्न तीसरा भंग है । ( अस्थि णामे उदयखइयखओवसमिय पारिणामियनिष्फण्णे ४ ) औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न चौथा भंग है (अस्थि णामे उवसमियखइयखभवચાર ભાવાના સચૈાગથી નિષ્પન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાવેનુ સૂત્રકાર da lzug it 3-“ aæroi à à da ” Seullâ—
शब्दार्थ - (तत्थणं जे ते पंच चउक्कसंजोगा ते णं इमे) यार भावाना सयोगथी અનતા ચતુષ્કસ ચેાગી. પાંચ ભ`ગ ભને છે, તે ચતુષ્કસચેાગી પાંચ ભ`ગા नीचे प्रमाणे छे- (अस्थिणामे उदइय उवस मिय-खइय- खओवस मियनिष्फण्णे) પહેà! ભગ-ઔયિક, ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયેાપશમિક, આ ચાર लाशना स'योगथी जनते सान्निपात लाव ( अस्थिणा मे उदय, उवस मिय, aga, akaifa, fac007) old -illus, milualus, las m પારિણામિક, આ ચાર ભાવેાના સયાગથી ખનતા સાન્નિપાતિક ભાષ
( अस्थिणा मे उदइय उवस मिय - खओवसमिय- पारिणामियनिष्कण्णे) त्रीले लौंग-गौहयिक, भोपशमि क्षायोपशमिङ भने पारिश्रामिक, मा यार ભાવાના સ ંચાગથી બનતા સાત્તિપાતિક ભાવ,
थोथे। लौंग- ( अस्थिणा मे उदइय - खइय - खओवसमिय- पारिणामियनिष्कण्णे) ઔયિક, ક્ષાયિક, ક્ષાયે પદ્યમિક અને પાણિામિક, મા ચાર ભાવાના સયે.ગથી નિષ્પન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાવ,
यांथमा लौंग - (अत्थिणामे उवस्वभिय-खाय खओवस मिय- पारिणामिय
For Private and Personal Use Only
Page #792
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ चतुष्कसंयोगनिरूपणम् तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-औदायिकमिति मानुष्यम्, उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औदयिौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? । कतरत् तन्नाम औदयिकोपशमिक क्षायिकसमिय-पारिणामियनिफण्णे १) औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक
और पारिणामिक इन चार भावो के संयोग से निष्पन्न ५वां भंग है। (कयरे से नामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे) हे भदन्त ! औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन चार भंगो के संयोग से जो सानिपातिक भाव रूप भंग निष्पन्न होता है वह कैसा है ? ___ उत्तर-(उदय उपसमियखायखोवसमिनिफण्णे ) औदयिक
औपमिक-क्षायिक और क्षायोपशमिक इन चार भावों के संयोग से जो सान्निपातिक भाव निष्पन्न होता है वह ऐसा है-(उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खोवसमियाई इंदियाइं) यहां मनुष्य गति यह औदयिक भावरूप है, उपशांत कषाय ये औपशमिक भावरूप है, क्षाधिक सम्यक्त्व यह क्षायिक भावरूप है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव रूप हैं । (एस ण से णामे उदइयउवसमिय, खइयखओक्समिय. निप्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकौपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक नाम का इन भावों से निष्पन्न सान्निपातिक भाव का प्रथम भंग है। निष्फण्णे) भोपामिर, क्षायि, क्षायोपशभिः मने पारिवामिड, 0 यार ભાના સંગથી બનતે સાત્રિપાતિક ભાવ,
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउवचमियखइयस्खओवसमियनिष्फण्णे?) 3 ભગવદ્ ! ઔદયિક, ઔપથમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયોપથમિક, આ ચાર ભાવના સંયોગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ પહેલા ભંગનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइय उवसमियखइयख ओवसमियनिष्फण्णे) मौयि४, मोपશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયોપથમિક, આ ચાર ભાવેના સંયોગથી જે સાત્તિपातिकमा ३५ सन छ मारने -(उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाई) मा सान्निपाति भावमा मनुष्य ગતિ ઔદયિક ભાવ રૂ૫ છે, ઉપશાન્ત કષાય ઔપશમિક ભાવરૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને ઇન્દ્રિયો શાયોપથમિક ભાવરૂપ છે. (एस णं से णामे उदइय उवचमियखइयत्रओवसमियनिष्फण्णे) मारना તે ઓયિક, ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાપશમિક, આ ચાર ભાવના સાગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #793
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे पारिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-औदयिकमिति मानुष्यं, उपशान्ताः कषायाः, क्षायिक सम्यक्त्वं, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायिकपरिणामिकनिष्पन्नम्२, कतर तन्नाम औदयिकोपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ?, औदयिकौपश(कयरे से नामे उदइय उपसमियखायपारिणामियनिष्फण्णे?) हे भदन्त !
औदायिक औपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न जो सान्निपातिक भाव रूप भंग है वह कैसा है?
उत्तर-( उदइय स्वसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे) औदायिक औपशमिक, क्षायिक, एवं पारणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ भंग ऐसा है-(उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे) यहां मनुष्यगति यह औकि है, उपशांत हुई कषायें औपशमिक भावरूप है, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकरूप है। तथा जीवत्व यह पारिणामिक रूप है । (एसणं से णामे उदइयउवसमिय खायपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन चार भंगों से निष्पन्न हुआ इस नाम का यह-द्वितीय भग है। (कयरे से णामे उदय उपसमियखओवस. मियपारिणामियनिप्फण्णे ?) हे भदन्त ! औदयिक, औपशमिक, क्षायो
प्रश्न-( कयरे से णामे उदइयउबसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे) है ભગવન! દયિક, ઔપથમિક, ક્ષયિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સંયોગથી નિષ્પન્ન થતે જે સાત્રિપાતિક ભાવરૂપ બીજો ભંગ છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयउपसमियखइय गरिणामियनिष्फण्णे) मोयि, भोपમિક ક્ષાયિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવેના સંગથી બનતા सान्निाति भानुं २१३५ २ १२नुछे-(उदइए त्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खड्यं सम्मत्तं, पारिणामिए जीवे) मा सान्निपाति भावमा मनुष्यति माह થિ, ભાવ રૂ૫ છે, ઉપશાન કષાયે પશમિક ભાવ રૂ૫ છે, ક્ષાયિક સમ્યકત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને જીવવ પરિણામિક ભાવ રૂપ છે. भय से णामे उदइयउपसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे) मा प्रा२नु मोयि:
પશમિ ક્ષાયિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાવે.ના સંગથી બનેલા સાનિપાતિક ભાવ રૂપ બીજા ભંગનું સ્વરૂપ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #794
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
قیف
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम् मिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-औदयिकमितिमानुष्यम् , उपशान्तार कषायाः, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको. जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकोपमिक क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्३ । कतरत् तन्नाम औदयिक क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्? औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपशमिक, और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ भंग कैसा है ?
उत्तर-( उदय उवममियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ) औदपिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न तीसरा भंग ऐसा है-(उदएत्ति मणुस्से, उपसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मनुष्य गति यह औदायिक भावरूप है, उपशांत हुई कषायें औपशमिक भाव हैं, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव रूप है और जीवत्व यह पारिणामिक भाव रूप है । (एस " से णामे उदय उवसमियखओवस मिय पारिजामियनिष्फणे) इस प्रकार यह औदयिक, औपशमिक और पारिणामिक इन चारभावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नामका तृतीय भंग है। (कयरे से णामे उदइय खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ?) हे भदन्त ! औदपिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चोर भावों के संयोग से निष्पन्न भंग कैसा है ?
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउवसमियखओवनमियपारिणामियनिष्फन्ने) 3 ભગવન! દયિક, ઔપશમિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સંવેગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ ત્રીજા ભંગનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिप्पण्णे) मोहयि, मौ५. શમિક ક્ષાએ પશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સોગથી मनता की सानितिs भाप मा २ छ-(उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) alon Rना सान्निपाતિક ભાવમાં મનુષ્યગતિ ઔદયિક ભાવ રૂપ છે, ઉપશાન્ત કષાયે પશમિક ભાવ રૂપ છે, ઈન્દ્રિયો લાપશમિક ભાવ રૂપ છે અને છેવત્વ પરિણામિક मा ३५ छ. (एसणं से णामे उसइयवसमियन ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) આ પ્રકારને આ “દયિકોપથમિક ક્ષાપશમિક પરિણામિક” નામને ત્રીજે ભંગ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयखइयख ओवस मियपारिणामियनिष्फण्णे १) હે ભગવન! ઔદયિક, ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સગથી બનતા ચેથા પ્રકારના સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે.
अ० ९८
For Private and Personal Use Only
Page #795
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे पारिणामिकनिष्पन्नम्-औदयिकमिति मानुष्यं, क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ४ । कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ?, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्उपशान्ताः कषायाः, क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणा
(उदइय खइयस्वओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक-और पारिणामिक इन चार भावो के संयोग से निष्पन्न-हुआ भंग ऐसा है-(उदइएत्ति मणुस्से खइयं मम्मतं, खओवसमियाई इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मनुष्यगति यह औदयिक भावरूप है, क्षायिक सम्यक्त्व यह क्षायिक भावरूप है, इंद्रियां ये क्षायोपशमिक भावरूप है और जीवत्व यह पारिणामिक भावरूप है । (एस ण से नामे उदइय खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह
औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इनचार भावों से निष्पन्न हुआ इस नामका चतुर्थ भंग है । (कयरे से नामे उवसमिय खइयखओवसमियपारिणामियनिफण्णे ?) हे भदन्त ! औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ पांचवां भंग कैसा है ?
उत्तर-( उवसमियखइयखोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे)
उत्तर-(उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) भौयि, क्ष4, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સાગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે, એટલે કે ચોથો ભંગ આ પ્રકારને छे-(उदइए त्ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खोवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मा याथा प्राना सान्निपातिमामा भनुष्याति मोहयि साप રૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યકત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે, ઈન્દ્રિય ક્ષાપશમિક ભાવ३५ छे भने ११ परिणाम मा ३५ छ. (एस णं से णामे उदइयवइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) An प्रानु मोयि, क्षयि४, क्षायो५शમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવોના સંગથી બનતા “ઔદયિક ક્ષાપશમિક પારિણમિક” નામના ચોથા ભંગનું સ્વરૂપ છે. . प्रश्न-(कयरे से णामे उबस मियखइयत्र ओवसमियपारिणामियनिष्फन्ने?)
ભગવન! આપશમિક, ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સંગથી બનતે પાંચમાં પ્રકારને સાત્રિપતિક ભાવ કે છે?
For Private and Personal Use Only
Page #796
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम्
७७९ मिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ५ ॥५० १६०॥ .. टीका-'तत्थ णं जे ते पंच' इत्यादि
पञ्चसु भावेषु पञ्चमं भावं परिहाय अविशिष्ट भावनिष्पन्नत्वेन प्रथमो भगो बोध्यः । चतुर्थ परिहाय शेषनिष्पन्नत्वेन द्वितीयो भङ्गः । तृतीयं परिहाय शेषऔपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ भंग ऐसा है-(उपसंता कसोया, खइयं सम्म. सं, खओवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे) उपशांत हुई कषायें औपशमिकभाव है, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भाव रूप है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भावरूप है, और जीवत्व यह पारिणामिक भाव रूप है (एस णं से नामे उवसमिय खहयख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औपशमिकक्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुभा इस नामका पांचवां भंग है।
भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने चार २ भावों के संयोग से ५ भंग निष्पन्न हुए हैं वे कहे हैं। इनमें पांचवां भाव जो पारिणामिक भाव है उसे छोड़कर बाकी के चार भावों के संयोग से प्रथम भंग निष्पन्न हुआ है। चौथा भाव जो क्षायोपशमिक भाव है उसे छोड़कर शेष चारभावों के संयोग से द्वितीय भंग निष्प___Gत्तर-( उपसमियखइयख भोवस मियपारिणामियनिष्फण्णे ) मोपसभिड ક્ષાયિક, શાપથમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સંગથી બનતે पाय Min मा २नेछ-उवसंता कसाया, खयं सम्मत्तं, खओवसमियाई इंदियाई' पारिणामिए जीवे) २सान्निति समi Gurd पाये।
પશમિક ભાવ રૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે, ઈન્દ્રિ क्षायो५मि मा ३५ छे भने ०११ पारिमि मा ३५ छ. (एसणं से नामे उपसमियखइयख भोपसमिय, पारिणामिय नि फण्णे) या प्रश्ना
પશમિક, ક્ષાયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સંગથી બનતે “પશમિક ક્ષાયિક ક્ષાયોપથમિક પરિણામિક ” નામને પાંચમે ભંગ સમજ.
ભાવાર્થ–ચાર ચાર ભાવના સંગથી બનતા પાંચ અંગોનું સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે. પહેલે ભંગ આ પ્રકારે બન્યો છે-પાંચ ભાવે માંના છેલ્લા પરિણામિક ભાવ સિવાયના સંગથી પહેલે ભંગ બને છે.
For Private and Personal Use Only
Page #797
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७८०
अनुयोगद्वारसूत्रे निष्पन्नत्वेन तृतीयो भङ्गः। द्वितीयं परिहाय शेषनिष्पन्नत्वेन चतुर्थों भङ्गः । प्रथमं परिहाय अवशिष्टभावचतुष्टयनिष्पन्नत्वेन पश्चमश्च भङ्गो बोध्यः। एतान् पञ्च भङ्गान् विवरीतुमाह-'कयरे से णामे' इत्यादि। एषां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या। एषु पञ्चसु भङ्गेषु तृतीयो भङ्गो नारकादिगतिचतुष्टये भवति । तथाहिऔदयिकी नारकाद्यन्यतमा गतिः, नारकतिर्यग्देवगतिषु प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले एव उपशमभावो भवति, मनुष्यगतौ तु तत्रोपशमश्रेण्यां चौपशमिकं सम्यक्त्वम् , क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणी, पारिणामिकं जीवत्वम् , इत्येवमयं भङ्गकः सर्वासु न्न हुआ है। तृतीय भाव जो क्षायिक भाव है उसे छोड़कर बाको के चार भावों के संयोग से तृतीय भंग निष्पन्न हुआ है। द्वितीय जोऔपशमिक भाव है उसे छोड़कर शेष भावों के संयोग से चतुर्थ भंग निष्पन्न हुआ है। प्रथम भाव जो औदयिक भाव है उसे छोड़कर शेषभावों के संयोग से पंचम भंग निष्पन्न हुआ है। इन पांच भंगों में से जो औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन चार भावोंके संयोग से निष्पन्न तृतीयभंग है वह नारक आदि चारगतियों में होता है । वहाँ विवक्षितगति औदयिकी है। इनमें प्रथम सम्यक्त्व के लाभकाल में ही उपशमभाव होता है। मनुष्यगति में उपशमश्रेणी में औपशमिक सम्यक्त्व होता है। इंद्रियां यहां क्षायोपशमिक भावरूप हैं। जीवत्व पारिणामिक भाव है इस प्रकार यह तृतीयभंग सर्व गतियो
બીજો ભંગ-ક્ષાપશમિક ભાવ નામના ચેથા ભાવને છોડીને બાકીના ચાર ભાવેના સંયોગથી બીજો ભંગ બન્યો છે. - ત્રીજો ભંગ-ક્ષાયિક ભાવ નામના ત્રીજા ભાવ સિવાયના ચારે ભાવના સોગથી ત્રીજો ભંગ બન્યા છે.
ચોથા ભંગ-ઓપશમિક નામના બીજા ભાવને છેડી દઈને બાકીના ચાર ભાવેના સંગથી એ ભંગ બન્યા છે.
પાંચમે ભંગ–ઔદયિક નામના પહેલા ભાવને છેડી દઈને બાકીના બાર ભાવના સાગથી પાંચમ ભંગ બન્યા છે.
ઔદયિક, ઔપથમિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સાગથી જે ત્રીજો ભંગ બને છે-જે ત્રીજા પ્રકારને સાત્રિ પાતિક ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે તેને નારક આદિ ચારે ગતિઓમાં સદ્દભાવ હોય છે ત્યાં નારક આદિ ગતિ ઔદયિક ભાવ રૂપ છે. આ ગતિએામાં પ્રથમ સમ્યફત્વના પ્રાપ્તિ કાળે જ ઉપશમ ભાવને સદભાવ હોય છે, મનુષ્ય ગતિમાં તે પશમ શ્રેણીમાં પથમિક સમ્યક્ત્વને સદૂભાવ હોય છે ઇન્દ્રિયે ક્ષાપ
For Private and Personal Use Only
Page #798
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम्
७८१ गतिधूपलभ्यते । यदिह मूत्रे-'उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया' इत्युक्तम् , तन्मनुष्यगत्यपेक्षयोक्तम् । उपशमश्रेण्यां मनुष्यत्वोदयः कषायोपशमश्च भवतः । मूलोक्त तूपलक्षणं बोध्यम् । एवम् औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नश्चतुर्थभङ्गोऽपि नारकादिगतिचतुष्टयविषयो बोध्यः । तृतीयभगवदेवात्रापि भावना कर्तव्या। विशेषस्त्वयमेव-तृतीयभङ्गे यदुपशमसम्यक्त्वमुक्तं तत्स्थानेत्विह क्षायिकसम्यक्त्वं वाच्यम् । क्षायिकसम्यक्त्वं तु सर्वास्वपि गतिषु जायते । नारकतिर्यग्देवगतिषु पूर्वपतिपन्नस्य प्रतिपधमानस्य चापि क्षायिकसम्यक्त्वं में पाया जाता है । जो इस सूत्रमें "उदइएत्ति मणुस्से उवमता कसाया" ऐसापाठ कहा है वह मनुष्यगति की अपेक्षा से कहा है। उपशमश्रेणी में मनुष्यत्व का उदय और कषायों का उपशम होता है । मूलोक्तपाठ उपलक्षण है ऐसाजानना चाहिये। इसीप्रकार औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इनचार भावों के संयोग से चौथा भंग बना है, वह भी नारक आदि चारगतियों में होता है ऐसा जानना चाहिये। तृतीय भंग की तरह ही यहां पर भी कथन समझना चाहिये । परन्तु इसमें विशेषता इतनी ही है कि तृतीय भंग में उपशम सम्यत्व कहा है सो उसके स्थान में यहां क्षायिक सम्यक्त्व समझना चाहिये । क्षायिकसम्य. त्व चारों गतियों में होता है। नारक, तिर्यक् और देव इन गतियों मेंपूर्व प्रतिपन्न जीव को ही क्षायिक सम्यक्त्व होता है । और मनुष्यगति શમિક ભાવ રૂપ અને છેવત્વ પરિણામિક ભાવરૂપ હેય છે. આ પ્રકારે श्री मधी गतिमामा ४५ मन छ. या सूत्रमा उदइएसि मणुस्से उवसंता कसाया" मा प्रारने २ या मापामा मा०ये। छे मनुष्य ગતિની અપેક્ષાઓ આપવામાં આવ્યો છે. ઉપશમ શ્રેણીમાં મનુષ્યત્વને ઉદય અને કષાને ઉપશમ હોય છે, મૂક્ત પાઠ ઉપલક્ષણ છે એવું સમજવું જોઈએ
એજ પ્રમાણે ઔદયિક, ક્ષાયિક, શાપથમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સાગથી જે ચેાથો ભંગ બને છે, તેને પણ નારક આદિ ચારે ગતિઓમાં સંભવ હોય છે, એમ સમજવું ત્રીજા ભંગના જેવું જ કથન અહીં પણ સમજવું જોઈએ, પરંતુ ત્રીજા ભંગમાં જે ઉપશમ સમ્યક્ત્વ કહ્યું છે તેને બદલે અહીં ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ સમજવું જોઈએ ચાર ગતિઓમાં ક્ષાયિક સમ્યફૂલને સદ્દભાવ સંભવી શકે છે. નારક, તિર્યંચ અને દેવ, આ ત્રણ ગતિઓમાં પૂર્વ પ્રતિપન્ન જીવમાં જ ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ હોય છે. પરંતુ મનુષ્યગતિમાં તે પૂર્વ પ્રતિપન્નામાં અને પ્રતિપદ્યમાનમાં ક્ષાયિક
For Private and Personal Use Only
Page #799
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७८२
अनुयोगद्वारसूत्र भवति । इत्थं चात्र तृतीयचतुर्थ भङ्गौ एव वस्तुगतत्वेन संभवतः । इतरे भङ्गास्तु प्रदर्शनमात्रम् । तद्रूपेण तेषां वस्तुन्यसंभवादिति ॥मू० १६०॥
अथ पञ्चकसंयोगं निरूपयति
मूलम्-तत्थं गंजे से एके पंचगसंजोए से णं इमे-अस्थि नामे उदइय उपसमिय खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे? कयरे से नामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे?, उदइय उपसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फाणे-उदइएत्ति मणुस्से उबसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खओवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जीवे। एस णं से णामे जाव पारिणामियनिप्फण्णे। से तं सन्निवाइए । से तं छपणामे ॥सू०१६१॥
छाया-तत्र खलु यः स एकः पञ्चकसंयोगः स खलु अयम्-अस्ति नाम औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ?। कतरत् तन्नाम में पूर्व प्रतिपन्न को और प्रतिपद्यमान को भी होता है । इसप्रकार तृतीय और चतुर्थ ये दो भंग ही वास्तविक रूप में वस्तुगत संभवित होते हैं । इतर शेष-तीन भंग नहीं पाये जाते हैं ॥सू० १६०॥ ... अब सूत्रकार पांच भावों के संयोग से जो-भंग निष्पन्न होता है उसकी प्ररूपणा करते हैं-"तत्थ णं जे से एक्के" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(तत्थ णं जे से एकके पंचक संयोगे से णं इमे) पांचोंभावों के संयोग से जो एक भंग उत्पन्न होता है वह इस प्रकार से हैસમ્યક્ત્વ હોય છે. આ પ્રકારે અહીં ત્રિીને અને ચોથે, આ બે ભંગ જ વાસ્તવિક રૂપે વસ્તુગત સંભવિત હોય છે બાકીના ત્રણ ભગે વાસ્તવિક રૂપે તે સંભવિત જ નથી છતાં પ્રરૂપણું કરવાના હેતુથી જ અહીં તે અંગેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. સૂ૦૧૬ના - પાંચ ભાવના સાગથી જે સાત્રિપાતિક ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે, તેની सूत्र॥२ ३ ४३५६५। ४२ छ-" तत्थ णं जे से एक्के" त्याहि
शहाथ-(तत्थणं जे से एकके पंचगसंजोगे से णं इमे) पाये सावाना सयोगयी २ मे मन छे ते मा प्रभा छ-(अस्थिणामे उदइयउवस.
For Private and Personal Use Only
Page #800
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६१ पञ्चमसंयोगनिरूपणम् औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणा मकनिष्पन्नम् ?, औदयिकौपशमिकसायिक क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् औदयिकमितिमानुष्यम् , उपशान्ताः कषायाः, क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः । (अस्थि णामे उदइय उपसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे?)
औदयिक, औपशमिक. क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पांचों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिकोपमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक इस नामका सान्निपातिक भाव है । (कयरे से नामे उदइय उवसमियखइयख भोवसमियपारिणामिनिफण्णे ?) हे भदन्त ! औदयिकोपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नाम का जो पांचों भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिक-भाव वह कैसा है ? ___ उत्तर-(उदइयउवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे)
औदयिक, औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पांचों भावों के संयोग से जो सान्निपातिक भाव निष्पन्न होता है वह ऐसा है-(उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मत्त खओव समियाइं इंदियाइं पारिणामिए जीवे) यहां इस सान्निपातिक भाव में मनुष्य गति यह औदयिकी है, उपशमित कषायें औपशमिक भाव है क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकभाव है इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव है जीवत्व मिय खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मौयि४, सोपभिर, क्षायि, ક્ષા પથમિક અને પરિણામિક, આ પાંચે ભાને સોગથી બનતે
“ઔદકિપશમિકક્ષાયિક ક્ષાપશમિક” નામને સાન્નિપાતિક ભાવ, આ मे मने छ. ____प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे :) હે ભગવન! ઔદયિક, ઔપથમિક, ક્ષાવિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ પાંચે ભાવેના સંયોગથી નિપન્ન થતે સાન્નિપાતિક ભાવ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मोहयि પશમિક, ક્ષાયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ પાંચે ભાવોના सयोगथी लिप-न यत समिति मार मारने छ-(उदइएत्ति मणस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाइं, पारिणामिए जीवे) | निति नाम भनुष्याति मोह४ि मा ३५ छ, शान्त કષા ઔપશમિક ભાવ રૂપ છે, ક્ષાયિક સપક્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂ૫ છે, ઈન્દ્રિય ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ છે અને જીવત્વ પરિણામિક ભાવ રૂ૫ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #801
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे एष खलु तन्नाम यावत् पारिणामिकनिष्पन्नम्। स एष सान्निपातिकः । तदेतत् षण्णाम ॥० १६१॥
टीका-'तत्थ णं' इत्यादि
व्याख्या सुगमा । अयं पञ्चक संयोगस्तस्यैव संभवति यः क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सन् उपशमश्रेणि प्रतिपद्यते । अन्यस्य तु न संभवति । अन्यत्र हि समुदितभावपश्चकस्यास्यासंभवादिति। अत्रेदं बोध्यम्-एकः क्षायिकपारिणामिकभावद्वयनिष्पन्नरूपो नवमो भङ्गो द्विकसंयोगे, औदायिकक्षायिकपारिणामिक भावत्रयनिष्पन्नरूपः पञ्चमः, औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिक भावत्रयनिष्पन्नयह पारिणामिक भाव है । (एसणं से णामे जाव पारिणामियनिष्फण्णे, से तं सन्निवाइए से तं छण्णामे) इस प्रकार यह पांव भावों के संयोग से निष्पन्न हुए इस नाम के सान्निपातिक भाव का स्वरूप है। यहां तक औदयिक भाव से लेकर पारिणामिक भाव तक के पांच भावों के संयोगसे जीतने सान्निपातिक भाव निष्पन्न होते हैं उनका प्रतिपादन कियाइस प्रकार यह छह प्रकार के नामका स्वरूप कथन समाप्त हुआ।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस मूत्रद्वारा पांचोभावों के संयोग से निष्पन्न हुए सान्निपातिक भाव का कथन किया है। यह पंचक संयोग रूप सान्निपातिक भाव उसी को संभवित होता है, जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर उपशम श्रेणी पर चढता है । अन्यजीव को नहीं क्योंकि उस को इस समुचित भाव पंचकरूप सान्निपातिक भावका अभाव होता है। यहां पर इस प्रकार से जानना चाहिये-द्विक संयोग में क्षायिक और (एस णं से णामे जाव परिणामियनिष्फण्णे, से तं सन्निवाइए, से तं छण्णामे) । પ્રમાણે આ પાંચે ભાવોના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામનું સાન્નિપાતિક સ્વરૂપ છે અહીં સુધી ઔદયિક ભાવથી માંડીને પારિમિક ભાવ સુધીના પાંચ ભાના સાગથી જેટલા સાન્નિપાતિક ભાવે નિષ્પન્ન થાય છે. તેમનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. આ પ્રમાણે આ છ પ્રકારના નામનું સ્વરૂપ४यन ५३ थयु छे. - ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર વડે પાંચે ભાવના સંયોગથી નિષ્પન્ન થયેલા સાનિતિક ભાવનું કથન કર્યું છે. આ પંચક સાથે ગ રૂપ સાન્નિપાતિક ભાવ તેમને જ સંભવે છે કે જે ક્ષાયિક સમ્યગ્દષ્ટિ થઈને ઉપશમ શ્રેણી પર ચઢે છે. બીજાઓને નહિ કારણ કે તેમને આ સમુદિતભાવ પંચક રૂપ સાત્રિપાતિક ભાવને અભાવ હોય છે અહીં એમ સમજવું જોઈએ કે દ્રિકસંગમાં ક્ષાયિક અને પરિણામિક આ બે ભાવેના સંયોગથી નિષ્પન્ન
For Private and Personal Use Only
Page #802
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६१ पञ्चमसंयोगनिरूपणम् षष्ठश्चेति द्वौ भङ्गौ त्रिकसंयोगे, औदायिकौपशमिक शायोपशमिकपारिणामिक भाव चतुष्टयनिष्पन्नरूपस्तृतीयः, औंदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टय निष्पन्नरूपश्चतुर्थश्चेति द्वौ भङ्गौ चतुष्कसंयोगे, भावपञ्चकरूप एको भङ्गः पञ्चकसंयोगे। इत्येवमे ते षड्भङ्गाः सम्भाव्यत्वेन बोध्याः। इतोऽपरेविंशतिभङ्गास्तु संभाव्यत्वरहिता अपि योगप्रदर्शनार्थमेव मोक्ताः। षण्णामसूत्रे ये द्विकसंयोगपारिणामिक, इन दो भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ जो इस नाम का नौवां भंग है बह, तथा त्रिक संयोग में औदकि, क्षायिक और पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नाम का पांचवां-भंग और औदयिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नामका छठा भंग, तथा चतुष्क संयोग में औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नाम का तृतीय भंग, और
औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुभा इस नाम का चौथा भंग तथा पांचो भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ एक इस नाम का भंग ये छह भंग जीवों में वास्तविकरूप से पाये जाते हैं और इनसे अतिरिक्त जो २० भंग है। वे वास्तविक रूप से-नहीं पाये जाते हैं ऐसा, जानना चाहिये । २० भंग जब कि भव्यत्व रहित है तो फिर ये क्यों कहे गये हैं ? तो इस થયેલ જે આ નવમે ભંગ છે તે તેમજ ત્રિકસ ચોગમાં ઔદયિક ક્ષાયિક, અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામને પાંચમે ભંગ અને દયિક, લાપશમિક અને પરિણામિક એ ત્રણ ભાના સાગથી નિષ્પન થયેલ છઠે ભંગ તેમજ ચતુષ્ક સંગમાં ઔદયિક, ઔપણમિક, લાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાવોના સનેગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામને ત્રીજો ભંગ અને ઔદયિક, ક્ષાયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાવોના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામે ચે ભંગ તથા પાંચે ભાવના સંગથી નિપન્ન થયેલ એક આ નામે ભંગ એ છ અંગે જેમાં વાસ્તવિક રૂપે મળે છે અને એમના સિવાય જે ૨૦ ભંગો છે. તે વાસ્તવિક રૂપે પ્રાપ્ત થતા નથી આમ સમજવું જોઈએ ૨૦ ભેગે જયારે ભવ્યત્વ રહિત છે તે પછી એમનું કથન શા માટે કરવામાં આવ્યું છે ? આ શંકાનું નિરાકરણ આ પ્રમાણે છે કે આ ૨છે.
अ० ९९
For Private and Personal Use Only
Page #803
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे त्रिकसंयोगचतुष्कसंयोगपञ्चकसंयोगलक्षणा भङ्गास्ते किळ सिद्ध केवलिगतिचतुष्टः योपशान्तमौहमनुष्यविषया विज्ञेयाः । इयमनभावना-द्विकसंयोगभङ्गेष्वेकः क्षायिकपारिणामिकमावद्वयनिष्पन्नरूपो नवमो भङ्गः सिद्धेषु भवति । त्रिकसंयोगभङ्गेषु औदयिकक्षायिक पारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नरूपः पञ्चमो भङ्गः केवलिषु, औद. यिकक्षायोपमिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नरूपः षष्ठो भङ्गो गतिचतुष्टये भवति । चतुष्कसंयोगभङ्गेषु-औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुशंका का समाधान यह है कि-ये २०वीसभंग योग प्रदर्शन के निमत्त ही कहे गये हैं अर्थात् इन पांच भावों के योग से किस २ प्रकार से कितने भंग बन सकते हैं ? यह प्रकट करने के अभिप्राय से कहे गये हैं । षण्णाम सूत्र में जो द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग और पंचकसंयोग रूप भंग हैं, वे सिद्धों में, केवलियों में, चारों गतियों में,
और उपशांत मोहमनुष्यों में पायेजाते हैं। ऐसा जानना चाहिये-अर्थात रिकसंयोगवाले भंगों में जो क्षायिक पारिणामिक भावव्य से निष्पन्न नौवां भंग है, वह सिद्धों में पाया जाता है । त्रिकसंयोगवाले भंगों में जो औदपिक, क्षायिक और पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ पंचम भंग है, वह केवलियों में पाया जाता है।
औदयिक क्षायोपशामिक, और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से जन्य छठा भंग चार गतियों में पाया जाता है। चतुष्क संयोगवाले भंगों में औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक-इन અંગે વેગ પ્રદર્શનના નિમિત્તથી કહેવામાં આવ્યા છે. એટલે કે આ પાંચ ભાવના યોગથી કેવી રીતે કેટલા અંગે થઈ શકે છે? આ સ્પષ્ટ કરવાના
देशथी । ४ामा मयां छे. '१९याम' सूत्रमा २ सियाग, त्रि:સંગ, ચતુષ્ક સંગ અને પંચક સંગ રૂપ ભગે છે તે સિવોમાં કેવલિઓમાં, ચારે ગતિઓમાં અને ઉપશાંત મોઢવાળા માણસોમાં મળે છે. આમ સમજવું જોઈએ એટલે કે બ્રિકસંયોગવાળા ભંગોમાં જે ક્ષાવિક પરિ. શામિક ભાવઢયથી નિષ્પન્ન નવમે ભંગ છે. તે સિદ્ધોમાં પ્રાપ્ત થાય છે. ત્રિકોગવાળા ભાગોમાં જે ઔદયિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ પંચમ ભંગ છે, તે કેવલિઓમાં પ્રાપ્ત થાય છે. દયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાના સંગથી નિષ્પન છેઠો ભંગ ચાર ગતિઓમાં પ્રાપ્ત થાય છે ચતુષ્ક સગવાળા ભગોમાં ઓયિક પરામિક-ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ ત્રીજો ભંગ તેમજ ઔદયિક, ક્ષાયિક,
For Private and Personal Use Only
Page #804
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६१ पञ्चमसंयोगनिरूपणम्
७८७ ध्यनिष्पन्नरूपस्तृतीयः, औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टयनिष्पन्नरूपश्चतुर्थश्चेत्येतावपि द्वौ भङ्गो गतिचतुष्टयेऽपि लभ्येते । भावपञ्चकनिष्पन्नरूप एको भङ्ग उपशान्तमोहमनुष्येष्वेव लभ्यते । विस्तरवस्तु स्वस्वभङ्गस्वरूपे विलोकनीयम्। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष सान्निपातिक इति । इत्थमुक्तः सान्नि पातिको भावः । उक्त तस्मिंश्चोक्ताः षडपि भावाः। ते च तद्वाचकैर्नामभिर्विना प्ररूपयितुं न शक्यन्ते इति तद्वाचकान्यौदयिकादीनि नामान्यप्युक्तानि । एतैश्च पहभिरपिधर्मास्तिकायादेः समस्तस्यापि वस्तुनो ग्रहणात् इदं षट् प्रकारकं सत् समस्तस्यापि वस्तुनो नाम षण्णामेत्युच्यते । एतदेवोपसंहरन्नाह-तदेतत् षण्णामेति॥स.१६१।। चारभावों के संयोग से निष्पन्न हुआ तृतीयभंग तथा औदयिकक्षायिक, क्षायोपशमिक एवं-पोरिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ चौथा भंग चारों गतियों में पाये जाते हैं, तथा पांचों भावो के संयोग से-निष्पन्न हुआ चौथाभंग ये दोनों भी भंग चारों गतियों में पाये जाते हैं तथा पांचों भावों के संयोग से-निष्पन्न हुआ एकभंग उप. शांतमोही मनुष्यों में ही पाया जाता है । विस्तार पूर्वक इनका कथन अपने २ भंग-स्वरूप में देखलेना चाहिये । इसप्रकार सान्निपातिकभाव का कथन है-इस भाव के कथित होने पर अब छहों भाव कथित हो चुके । इन भावोंका कथन उनके वाचक नामों के विना हो नहीं सकता है इसलिये उन भावों के वाचक औदयिक आदि नामों को-भी यहां कहा गया है। इन छह नामों से भी-धर्मास्तिकामादिक समस्त वस्तुओं का ग्रहण हो जाता है, इसलिये ये समस्त वस्तु के नाम छह प्रकार के होने से छह नाम इस प्रकार से कहलाये हैं। सू० १६१॥ ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાવના સાગથી નિષ્પન થયેલ એ ભંગ આ બન્ને ભેગે પણ ચારે ગતિઓમાં પ્રાપ્ત થાય છે. તેમજ પાંચે ભાવેના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ એક ભંગ ઉપશાંત મોહી માણસોમાં જ પ્રાપ્ત થાય છે. આ વિષે સવિસ્તર વિવેચન પોતપોતાના ભંગ-રવરૂપમાં જોઈ લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે સાન્નિપાતિક ભાવનું કથન છે. આ ભાવને કહ્યા બાદ છએ છ ભાવે કથિત થઈ ગયા. આ ભાવેનું કથન તેમના વાચકનામે વગર સંભવે જ નહિ એટલા માટે તે ભાવેના વાચક ઔદયિક વગેરે નામનું પણ અહીં કથન થયું છે. આ નામથી પણ ધમસ્તિકાયાદિક સમસ્ત વસ્તુઓનું ગ્રહણ થઈ જાય છે એટલા માટે આ બધી વસ્તુઓના છ પ્રકારના નામે હેવાથી છ નામ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યાં છે. સૂ૦૧૫
For Private and Personal Use Only
Page #805
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
૭૮૮
अनुयोगद्वारसूत्रे अथ सप्तनाम मरूपयतिमूलम्-से कि तं सत्त नामे ? सत्तनामे-सत्त सरा पण्णत्ता, ते जहा-सजे रिसहे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे। धेवए चेव निस्साए सरा सत्त वियाहिया॥१॥सू०१६२॥
छाया-अथ किं तत् सप्त नाम ? सप्त नाम-सप्त स्वराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाषड्जः ऋषभः गान्धारः मध्यमः पञ्चमः स्वरः। धैवतश्चैव निषादः, स्वराः सप्त व्याख्याता॥१॥०१६२॥
टीका-'से किं तं सत्तनामे' इत्यादि
अथ किं तत् सप्तनाम ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-सप्तनाम-सप्तविधं नाम सप्तनाम, तच्च-सप्तसप्त संख्यकाः स्वरा:-ध्वनिविशेषाः प्रज्ञप्ताः । तानेव स्पष्टयति-तद्यथा-पड्ज ऋषभ इत्यादिना। तत्र-षड्जः-नासिकाकंठोरस्तालुजिह्वा दन्तेति षट्स्थानसं नातस्यात् अयं स्वरः षड्ज इत्युच्यते । उक्तंच--
अब सूत्रकार सप्त नाम की प्ररूपणा करते हैं"से कि तं सत्तनामे ?" इत्यादि । शब्दार्थ-(से कि तं सत्तनामे ?) हे भदन्त ! सतनाम क्या है ?
उत्तर-(सत्सनाम) सप्त प्रकार रूप-जो सप्तनाम है वह (सत्तसरा पण्णत्ता) सातस्वर स्वरूपप्रज्ञप्त हुआ है । अर्थात् सातस्वर ही सप्तनाम हैं । (तं जहा ) वे सात स्वर इस प्रकार से हैं-( सज्जे रिसहे गंधारे, मज्झिमे, पंचमे सरे । घेवए-चेव निस्साए सरा सत्त वियाहिया) षड्ज ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, और निषाद । नासिका, कंठ, उरस्थल, तालु, जिह्वा और दन्त इन छह स्थानों से उत्पन्न होने के कारण प्रथम स्वर 'षड्ज' कहलाता है। उक्तंच करके "नासां कण्ठ"
હવે સૂત્રકાર સતનામની પ્રરૂપણ કરે છે.
"से किं तं सत्तनामे " त्याहि- शाय-से किं तं सत्तनामे ?) महत ! सतनाम शु छ ? मता. qdi छे ते (सत्त सरा पण्णत्ता) सात २१२ २१३५ प्रशस येत छे. मेटसे
सात २१२ १ सानाम। छे. (तंजहा) ते सात १२ मा प्रभाव छ-(सज्जे रिसहे, गंधारे, मज्झिमे, पंचमे, सरे । धेवए चेव निस्साए सरा सत्त वियाहिया) पड़ सषम, साधार, मध्यम, यम धैवत मन निषानासित, , २स्थान, તાલુ,જિહૂવા અને દંત આ છ સ્થાનેથી ઉત્પન થવાના કારણથી પ્રથમ સ્વર
For Private and Personal Use Only
Page #806
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६२ सप्तस्वरनामनिरूपणम्
" नासां कण्ठमुरस्तालुं जिहांदन्ताश्च संश्रितः । पइभिः संजायते यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ इति । तथा-ऋषभो-वृषमा, तद्वद् यो वर्तते स ऋषभः । उक्तंचास्य लक्षणम्"वायुः समुस्थितो नाभेः, कण्ठशीर्ष समाहतः ।
नईन वृषभवद् यस्तत, तस्माद, वृषभ उच्यते ।। इति ॥ तथा-गान्धारः-गन्धम् इयेति-प्राप्नोतीति गन्धारः, सएव गान्धारः गन्धमापकः स्वरविशेषः । उक्तंच -
वायुः समुत्थितो नाभे-ह दिकण्ठे समाहतः ।
नानागन्धवहः पुण्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥ इति ।। इत्यादि श्लोक द्वारा यही बात कही गई है। ऋषभनाम बैल का है। बैल के स्वर के जैसे जो स्वर होता है, उसका नाम ऋषभ है। इसका लक्षण इस प्रकार कहा हुआ है-नाभि से जो वायु उठता है, वह कण्ठ
और शीर्ष में जाकर टकराता है। इससे बैल के स्वर के जैसे आवाज होती है। इसलिये इस स्वर का नाम ऋषभ है। गंध को जो स्वर प्राप्त करता है उसका नाम 'गांधार' स्वर है। इस को लक्षण इस प्रकार कहा गया है-जो वायु नाभि से उत्थित होकर हृदय और कंठ में टकराता है तथा नाना प्रकार के गंधों को वहन करता है इसलिये हृदय
और कंठ से टकराने पर जो आवाज उत्पन्न होता है, उसका नाम 'गान्धार' है। शरीर के बीच में जो स्वर होता है, उसका नाम 'मध्यम' स्वर है । इसका लक्षण इस प्रकार से है-नाभिप्रदेश से उत्पन्न हुआ ५३०१ ४पाय छ तय पछी " नासा कण्ठ" वगैरे 1 43 मे पात સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. જભ બળદનું નામ છે. બળદના સ્વરની જેમ જે સ્વર હોય છે તેનું નામ કષભ છે. આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે—નાભિસ્થાનથી જે વાયુ ઉપર ઉઠે છે તે કંઠ અને શીર્ષમાં જઈને અથડાય અને તેથી બળદની જેમ અવાજ થાય છે. એટલા માટે જ આ સ્વરનું નામ ઋષભ છે. ગંધને જે સ્વર પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ “ગાંધાર” સ્વર છે. આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. જે વાયુ નાભિસ્થાનથી ઉપર ઉઠીને હૃદય અને કંઠ સ્થાનમાં અથડાય છે તેમજ વિવિધ જાતના ગધનું વહન કરે છે એટલા માટે હૃદય અને કંઠને અથડાયા પછી જે સવર ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ ગાન્ધાર છે. શરીરની વચ્ચે જે સ્વર હોય છે તેનું નામ મધ્યમ સ્વર છે આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે છે નાભિસ્થાનથી ઉત્પન્ન થયેલ વાયુ
For Private and Personal Use Only
Page #807
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र तथा-मध्यम:-मध्ये कायस्य भवो मध्यमः । उक्तंच
वायुः समुत्थितो नाभेरूरोहदि समाहतः।
नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते ।। यद्वा-"तद्वदेवोत्थितो वायु रुरः कण्ठसमाहतः । नामि प्राप्तो महानादो मध्यस्थस्तेन मध्यमः ॥ इति ॥ तथा-पश्चमः-पञ्चानां पड्जादिस्वरानुसारेण पश्चसंख्यकानां स्वराणां पूरण: स्वरः पंञ्चमः । यद्वा-पञ्चसु नाभ्यादि स्थानेषु मातीति पञ्चमः । उक्तंच
"वायुः समुद्गतो नामे रुरो हत्कण्ठमधेसु ।
विचरन् पञ्चमस्थानप्राप्त्या पञ्चम उच्यते" इति। वायु उरस्थल और हृदय में टकराता है और फिर नाभिस्थान में आकर वडी आवाज उत्पन्न करता है-इसलिये इस स्वर का नाम मध्यम स्वर है। अधया-उसी प्रकार से उत्थित हुभा वायु उरस्थल और कण्ठ में टकराता है फिर नाभिस्थल में पहुँच कर बडे भारी शब्द को ' उत्पन्न करता है। इस प्रकार मध्यस्थ होने से यह स्वर मध्यम कहा गया है। षड्ज आदि स्वरों की यह स्थर पांचची संख्या की पूर्ति करता है इसलिये इस स्वर का नाम 'पंचन' स्वर हुआ है। अथवा नाभि भादि पांच स्थानों में यह स्वर समा जाता है इसलिये यह-स्वर पंचम स्वर कहलाया है। इस का लक्षण इस प्रकार से कहा गया हैनाभिस्थान से जो वायु उत्पन्न होता है, वह वक्षस्थल हृदय कंठ और मस्तक में टकराता हुआ पंचमस्थान में उत्पन्न होता है। इसलिये इस
ઉસ્થળ અને હદયમાં અથડાય છે અને પછી નાભિસ્થાનમાં આવીને મોટે અવાજ ઉત્પન કરે છે, એટલા માટે આ સ્વરનું નામ મધ્યમાર છે. અથવા પહેલાની જેમ જ ઉપરની તરફ ઉઠતે વાયુ ઉસ્થળ અને કંઠમાં અથડાય છે પછી નાભિસ્થાનમાં પહેચીને બહુ મોટે અવાજ ઉત્પન્ન કરે છે. આ પ્રમાણે મધ્યસ્થ હેવા બદલ આ સ્વર મધ્યમ કહેવાય છે. ષડુ જ વગેરે
રેમાં આ વર પાંચમી સંખ્યાને પૂરે છે એટલા માટે આ વરનું નામ પંચમસ્વર છે. અથવા નાભિ વગેરે પાંચ સ્થાનમાં આ સ્વર સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. એથી આ વર પંચમસ્વર કહેવાય છે. આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. નાભિસ્થાનમાંથી જે વાયુ ઉત્પન્ન થાય છે તે વક્ષસ્થળ હદય કંઠ અને મસ્તકમાં અથડાઈને પંચમસ્થાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે. એટલા માટે આનું નામ આ પ્રમાણે રાખવામાં આવ્યું છે. જે સ્વર બાકી રહેલા
For Private and Personal Use Only
Page #808
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६२ सप्तस्वरनामनिरूपणम्
७९१
तथा - चैवतः - अभिसन्धयते =अनुसन्धयति शेषस्वरानिति चैवतः। यद्वा-धीमतामयं चैवतः। पक्षद्वयेऽपि पृषोदरादित्वात् साधुत्वम् । उक्तं चास्य लक्षणम्"अभिसन्धयते यस्मादेतान् पूर्वोदितान स्वरान् ।
तस्मादस्य स्वरस्यापि धैवतत्वं विधीयते " ॥ इति ।
तथा - निषाद:- निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः । उक्तं चापि -- निषीदन्ति स्वराः यस्मिन्निषादस्तेन हेतुना ।
66
सर्वांश्रामि भवत्येष, यदादित्योऽस्य दैवतम् " ॥ इति ।
तदेवं सप्त सप्तसंख्यकाः स्वराः=जीवाजीवाश्रयाः स्वराः व्याख्याताः = विविधप्रकारेण तीर्थङ्करगणधरैः कथिताः । ननु कार्यं हि कारणायतं तच्च कारणं कार्यभूतानां स्वराणां जिहादिकं तानि च द्वीन्द्रियादि त्रसजीवानाम संख्येयत्वादसंख्येयानि किमुताजीवनिसृतानां ततः कथं स्वराणां सप्तसंख्यकस्वं न विरुध्यते ? उच्यतेका नाम ऐसा कहा गया है। जो स्वर शेष स्वरों का अनुसंधान करता है वह 'धैवत' है । अथवा संगीत विशारदों का जो स्वर है वह 'धैवत' है। इस का लक्षण इस प्रकार से कहा है-" अभिसंघयते " इत्यादि इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट है । जिस में स्वर ठहरता है उसका नाम निषाद स्वर है । यह स्वर समस्त स्वरों का पराभव करता है क्योंकि इसका देव आदित्य है। ये जो सात स्वर हैं वे जीव और अजीव दोनों के आश्रय रहते हैं । ऐसा तीर्थकर भगवंतोने कहा है ।
शंका-कार्य कारणो के आधीन होता है । इन सात स्वरस्वरूप कार्य के कारण जिह्वा आदिक हैं। ये जिहवा आदि कारण हीन्द्रिय आदि बस जीवों के असंख्यात होने से असंख्यात हैं। अजीव निसृत स्वरों के विषय की तो बात ही क्या है। इसलिये स्वरों का सात प्रकार का कहना ठीक नहीं है।
66
સ્વરાનું અનુસ્રધાન કરે છે તે ધૈવત” છે. અથવા સ’ગીત વિશારદ્યાના જે સ્વર છે. તે ધૈવત છે આનું લક્ષણુ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યુ છે. “ अभिसन्धयते इत्यादि " मोनो अर्थ स्पष्ट छे. नेमां स्वर स्थिर થાય છે તેનું નામ નિષાદ સ્વર છે. આ સ્વર બધા સ્વરેાને પરાભૂત કરે છે ક્રમ કે આને દેવ આક્રિત્ય છે જે આ સાત સ્વર છે તે જીવ અને અજીવ અન્ને ને આશ્રિત રહે છે. આમ તીર્થંકર ભગવાએ કહ્યું છે.
શંકા-કાય કારણેાને આધીન હોય છે. આ સાત સ્વર રૂપ કાના કારણેા જિહ્વા વગેરે છે. આ જિહ્વા વગે૨ે કારણે દ્વીન્દ્રિય વગેરે ત્રસ જીવે અસખ્યાત હાવાથી અસ`ખ્યાત છે અજીવ નિરુત સ્વરાના વિષયની તે વાત જ શીકરવી? એટલા માટે સ્વરાના સાત પ્રકાર યોગ્ય કહેવાય નહિ.
For Private and Personal Use Only
Page #809
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७९२
अनुयोगद्वारखो विशेषमाधिस्यासंख्येया अपि स्वराः सामान्येन सर्वेऽपि सप्तस्वेवान्तर्भवति । यहा सूत्रे स्वराणां यत् सप्तसंख्यकत्वमुक्त तत् स्थूलस्वरान् गीतं चाश्रित्य प्रोक्तं, सर्वेषां स्वराणां सप्तस्वरानुपातिवादतो नास्ति कोऽपि स्वराणां सप्तसंख्यागणने दोष इति ॥ सू० १६२॥ इत्थं स्वरान्नामतो निरूप्य संपति तानेव कारणत आह
मूलम्-एएसिं णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरदाणा पण्णत्ता, तं जहा-सजं च अग्गजीहाए, उरेण रिसह सरं । कंटुग्गएण गंधारं, मज्झजीहाए मज्झिमं ॥१॥ नासाए पंचमं ब्रूया, दंतोट्रेण य धेवयं । मुद्धाणेण य सायं, सरदाणा वियाहिया॥३॥ सत्तसरा जीवणिस्सिया पण्णत्ता, तं जहा-सजं रवह मऊरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो रखइ गंधारं, मज्झिमं च गवेलगा॥४॥ अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं। छटुं च सरसा कोंचा, नेसायं सत्तमं गया॥५॥ सत्तसरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता, तं जहा-सनं रवइ मुयंगो, गोमुही रिसहं सरं । संखो रवइ गंधारं, ___ उत्सर-विशेष की अपेक्षा लेकर स्वर यद्यपि असंख्यात हैं परन्तु, ये सब असंख्यात स्वर सामान्यरूप से इन सात स्वरों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । अथवा सूत्रकारने जो "सात स्वर हैं" ऐसा सूत्र कहा है, बह स्थूल स्वरों से एवं गीत को लेकर कहा है ऐसा जानना चाहिये। क्योंकि और जितने भी स्वर हैं, वे सब इन्हीं सात स्वरों में समा जाया करते हैं। इसलिये स्वर सात हैं इस प्रकार के कथन में कोई दोष नहीं है। सू० १६२॥
ઉત્તર-વિશેષની અપેક્ષાથી સ્વર છે કે અસંખ્યાત છે છતાં એ આ બધાં અસંખ્યાત સ્વરે સામાન્ય રૂપથી આ સાત સ્વરમાં જ અન્તત થઈ જાય છે. અથવા સૂત્રકારે જે “સાત સ્વરો છે” આમ કહ્યું તે ભૂલ સ્વરે અને ગીતને લઈને કહ્યું છેઆમ જાણવું જોઈએ કેમ કે બીજા જેટલા સ્વરા છે તે બધા એજ સાત સ્વરમાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે એટલા માટે સ્વર સાત છે આ જાતના કથનમાં કઈ પણ જાતને ફેષ નથી, સૂ૧૬૨
For Private and Personal Use Only
Page #810
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६३ कारणतो स्वरनिरूपणम् मज्झिमं पुण झल्लरी ॥६॥ चउचरणपाहाणा, गोहिया पंचमं सरं।
आडंबरो धेवइयं, महाभेरी य सत्तमं ॥७॥सू०१६३॥ ___ छाया-एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाषड्ज च अग्रजिया, उरसा ऋपभं स्वरम् । कण्ठाग्रेण गान्धारं, मध्ये जिह्वया मध्य. मम् ॥२॥ नासिकया पश्चमं ब्रयात्, दन्तोष्ठेन च धैवतम् । मूनां च निषादम्, स्वरस्थानानि व्याख्यातानि ॥३॥ सप्तस्वराः जीवनिश्रिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-षड्जं
इस प्रकार नाम से स्वरों का कथन करके अथ सूत्रकार उन्हीं स्वरों का कारण की अपेक्षा लेकर कथन करते हैं- . 'एएसिं णं सत्तण्हं' इत्यादि।
शब्दार्थ-(एएसिणं ) इन (सत्तसराणं) सात स्वरों के (सप्त)सात (सरहाणा) स्वरस्थान (पणत्ता) कहे गये हैं। (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं।-(सज्जं च अग्गजीहाए) जिह्वा के अग्र भाग से षड्ज स्वर बोलना चाहिये (उरेण रिसहं सरं) वक्षस्थल से ऋषभस्वर बोलना चाहिये (कंटुग्गएणं गंधारं) कण्ठ के अग्रभाग से गांधार स्वर पोलना चाहिये। (मज्झजीहाए मज्झिमं) जिहवा के मध्य भाग से मध्यम स्वर योलना चाहिये । (नासाए पंचम) नासिका से पंचम स्वर बोलना चाहिये (दंतोटेण य धेवयं ) दन्तोष्ठ से धैवत स्वर बोलना चाहिये ( मुद्धाणेणं य णेसायं बूया) और मूर्धा से निषाद स्वर बोल.
આ પ્રમાણે સ્વરનું નામની અપેક્ષાએ કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેજ સ્વરેનું કારણની અપેક્ષાએ કથન કરે છે
" एएसिणं सत्तण्हं" त्याह
शाय-(एएसि णं) मा (सत्तसराणं) सात स्परेशना (सत्त) सात (सरद्वाणा) २१२स्थान। (पण्णत्ता) ४ाम मा०यां छे. (तंजहा) ते मा प्रमाणे छे (सज्जं च अग्गजीहाए) मन ममाया पड २१२ या२६५ ४२ मध्ये (उरेणं रिसहं सरं) १३०था ऋषम २१२ यार ४२ ४ो. (कंठुग्गएणं गंधारं) ४ना समाथी गांधार २१२नु च्या२१ ४२७ नमे (मज्झजीहाए मज्झिम) मना मध्यभागी मध्यम ५१२नु प्यार ४२७
स. नासाए पंचम) नथी पंयभर५२नु या२९५ ४२ मे. (दंतोटेण य घेवयं) इन्त।४थी धैवत २१२नु अया२३ ४२ नये (मुद्धाणे णं य णेसायं बूया) अरे भूर्भाधा निषा १२नु अया२५ ४२ मे. (सरदाणा वियाहिया) मा प्रमाणे सात १२ स्थानानु थन ४२वामा भा०य छे.
अ० १००
For Private and Personal Use Only
Page #811
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
-
-
अनुयोगद्वारसूत्रे रौति मयूरः, कुक्कुटः ऋषभं स्वरम् । हंसो रौति गोन्धारं, मध्यमं च गवेलका (मेषाः)॥४॥अथ कुसुमसंभवे काले, कोकिलाः पञ्चम स्वरम् । षष्ठं च सारसाः क्रौंचाः , निषादं सप्तमं गजाः ॥५॥ सप्तस्वराः अजीवनिश्रिताः प्रज्ञप्ताः तद्यथाषड्ज रौति मृदगो, गोमुखी ऋषभं स्वरं । शंखो रौति गन्धारं, मध्यमं पुनर्झल्लरी॥६॥चतुश्चरणप्रतिष्ठाना, गोधिका पश्चमं स्वरं । आडम्बरो धैवतकं, महामेरीश्च सप्तमम् ॥ सू०१६३ ॥ ना चाहिये । (सरहाणा वियाहिया) इस प्रकार से सात स्वरस्थान व्या. ख्यात किये हैं। (सत्तसरा जीवणिस्सिया पण्णत्ता) सात स्वर जीवनिश्रित कहे गये हैं। (तंजहा) वे इस प्रकार से हैं—(सज्ज रवह मउरो) षड्जस्वर मयूर बोलता है (कुक्कुडो रिसहं सरं) कुक्कुटऋषभस्वर बोलता है ।(हंसो रवइ गंधारं ) हंस गांधार स्वर बोलता है (मज्झिमं च गवेलगा) गवेलक-मेष मध्यम-स्वर बोलते हैं। (अह कुसुमसंभवे काले कोइला पंचमं सरं) पुष्पोत्पत्तिकाल में कोयल पंचम स्वर बोलती है (छटुं च सारसा कोंचा) छठा धैवत स्वर सारस और क्रौंच पक्षी बोलते हैं। (सत्तमं नेसायं गया) सातयाँ जो निषाद स्वर है उसे गज बोलते है। (सत्त सरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता) सात स्वर अजीवनिश्रित कहे गये हैं-(तं जहा) वे इस प्रकार से हैं-(सज्ज रवह मुयंगो) षड्ज मृदंग बोलता है (गोमुही रिसहं सरं) गोमुखी-वाद्यविशेष-ऋषभ स्वर बोलता है । (संखो गंधारं रवइ) शंख-गांधार स्वर बोलता है।(मल्लरीमज्झिम) झल्लरी मध्यमस्वर बोलता है। (चउचरणपाटाणा गोहिया) (सत्तसरा जीवणिस्पिया पण्णत्ता) सात १२। मिश्रित रुवामा साव्या (तंजहा) ते भा प्रभारी छ-(सज्जं रवइ मठरो) १९०१ २१२ मयू२-मार-मासे छ. (कुक्कुडो रिसहं सरं) ४ ५ ६१२ मा छे. (मज्झिमं य गवेलगा) भव-भष-मध्यम २१२ मा छे (अह कुसुमसंभवे काले कोइला पंचमं सर) पुण्योत्पत्ति मां-14 यमस्व२ मा छे. (छठंच मारमा कोंचा) छठी धेत २५२ सास भने-यपक्षी विशेष मा छ. (त्तमं नेसायं गया) सातमा निषा १२ हाथी माले छ (सत्तसरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता) सात ५१२। म तश्रित वामां माया छे (तंजहा) ते मा प्रमाणे छसज्ज वह मुयंगो) ५३०५ २१२ भृगमा नीजे छ, (गोमही रिसहं सरं) गेमुभी-बाध विशेषमाथी *पम १२ नीले छे. (संखो गंधारं रखइ) शमभांथा गांधार २१२ नाणे छे. (झल्लरी मज्झिम) आसमांथा मध्यम स्वर नाणे छे. (चउचरणपइद्वाणा गोहिया) यारे ५॥ २॥ भान ५२ भूपामा
For Private and Personal Use Only
Page #812
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६३ कारणतो स्वरनिरूपणम् टीका-'एएसिणं' इत्यादि
एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरस्थानानि प्रज्ञप्तानि, अयं भावः एते षड्जादि सप्तस्वरा यस्मात् यस्मात् स्थानात् समुत्पद्यते तानि जिह्वाग्रभागादिस्वरस्थानान्यपि सप्तसंख्यकानि सन्ति । नाभेरुत्थितोऽविकारी स्वर आभोगतोऽनाभोगतो वा जिहादिस्थान प्राप्य विशेषमासादयतीति तत् स्वरस्योपकारकमतस्तत् स्वरस्थानमुच्यते, इति । तान्येव स्थानानि दर्शयति-तद्यथा-पड्ज स्वरम् अग्रजियाअग्रभूता जिह्वा-अग्रजिह्वा, तया जिह्वाग्रभागेन ब्रयात् । षड्जस्वरस्य स्थानं जिह्वाग्रचारोंपैरों से जमीन पर रखी गई ऐसो गोधिका-वाद्यविशेष-(पंचम सरं) पंचम स्वर को बोलती है (आडंबरो धेवयं) आडंबर धेवत स्वर को बोलता है (महाभेरीय सत्तम) और महाभेरी सप्तम जो निषाद स्वर है, उसे बोलती है।
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने सात स्वरों के सात स्थानों का कथन किया है। षड्ज आदि सात स्वर जिस २ स्थान से उत्पन्न होते हैं, वे जिह्वाग्रभाग आदि स्वरोत्पादक स्थान सात हैं। नाभिस्थान से उत्थित अविकारी स्वर आभोग (अनजान) से जिह्वा आदि स्थान को प्राप्त हो करके अपने में विशेषता प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह जिहवा आदि स्थान उस स्वर का उपकारक होता है। अतः वह उस स्वर का स्थान कहा जाता है। सूत्रकारने इन्हीं सात स्वर स्थानों को यहां दिख. लाया है । षड्ज स्वर जिह्वाग्रभाग से बोला जाता है। इसलिये उसका स्थान जिह्वाग्रभाग है।
आवे छे. मेनी jिxt-qा विशेषमाथी (पंचमं सरं) ५५५ २१२ नाने के (आडंबरो घेवयं) २माथी घेवत २५२ नाणे छे. (महाभेरीय सत्तम)गने મહાભેરીમાંથી સાતમે જે નિષાદ નામે સ્વર છે કે નીકળે છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે સાત સ્વરના સ્થાનનું કથન કર્યું છે. ષડૂ જ વગેરે સાત સ્વર જે જે સ્થાન વિશેષથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જિહાગ્ર ભાગ વગેરે સાત સ્વરેસ્પાદક સ્થાને છે નાભિરથાનથી ઉસ્થિત થયેલ અવિકારી સ્વર આગ (જાણ) થી કે અનાભોગ (અજા)થી જિહા વગેરે સ્થાન સુધી પહોંચીને પિતાની જાતમાં એક વિશેષતા મેળવી લે છે. એટલા માટે જિહા વિગેરે સ્થાન તે સ્વર માટે ઉપકારક હોય છે. એથી તે તે વરનું સ્થાન કહેવાય છે. સૂત્રકારે એજ સાત સ્વર સ્થાનનું અહીં સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે ષડૂ જરૂર જિલ્લા ભાગથી ઉચ્ચરિત કરવામાં આવે છે તેથી તેનું નામ જિલ્લા ભાગ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #813
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
%
E
७९६
___ अनुयोगद्वारसूत्रे भाग इत्यर्थः । ननु षड्जस्वरोच्चारणे कण्ठादीन्यपि स्थानान्याश्रीयन्ते, अग्रजिह्वाचस्वरान्तरेष्वप्याश्रीयते तत्कथं षड्जादिष्वेकैकस्य स्वास्य अप्रजिह्वादिरूपमेकैक स्थानमुच्यते ? इति चेदाह-यद्यपि षड्जादयः सर्वेऽपि स्वराः निह्वाग्रभागादीनि सर्वाण्यपि स्थानान्यपेक्षन्ते, तथापि विशेषत एकैकस्वरो निहाप्रभागादिष्वेकैकं स्थानमादायैव व्यज्यते । अतस्तत्तत्स्वरस्य तत्तत्स्थानमुक्तमिति बोध्यम् । तथा-उरसावक्षसा ऋषभं स्वरं ब्रूयात् । ऋषभस्वरस्य स्थानं वक्षो बोध्यम् । तथा-कण्ठोद्गतेन कण्ठादुद्गतम्-उद्गतिः-स्वरनिष्पत्तिहेतुभूताक्रिया तेन गान्धारं स्वरं ब्रूयात् । गान्धार
शंका-षड्ज स्वर के उच्चारण करने में कण्ठोदिक स्थानों का भी सहारा लेना पड़ता है, तथा अग्रजिह्वा दूसरे स्वरों में भी उपयुक्त होती है, तो फिर षडूज-आदि स्वरों में से एक २ स्वर का अग्रजिहवा आदि रूप एक २ स्थान प्रतिनियत कैसे कहा जा सकता है? _____उत्तर-यद्यपि षड्ज आदि समस्त भी स्वर जिह्वाग्रभाग आदि रूप समस्त स्थानों की अपेक्षा करते हैं, तो भी विशेष रूप से एक २ स्वर जिह्वाग्रभागादिक रूप स्थानो में से एक २ स्थान को आश्रित करके ही अभिव्यक्त (प्रकट ) होता है। इसलिये उस २ स्वर का वहवह स्थान कहा जाता है। इसी अभिप्राय को लेकर यहां सूत्रकारने एक २ स्वर का एक एक स्थान कहा है। वक्षस्थल से ऋषभ स्वर बोलना चाहिये इस कथन से यही जाना जाता है कि-'ऋषभ स्वर का पक्षस्थल स्थान है । स्वर की निष्पत्ति की हेतुभूत जो क्रिया कंठ से होती
શંકા-ષડૂ જ સ્વરને ઉચાર કરતાં કંઠ વગેરે સ્થાને ના પણ આધાર લેવા પડે છે. તેમજ અગ્રજિ હા બીજા પણ કેટલાક વરેના ઉચ્ચારણ માટે સહાયભૂત હોય છે. તે પછી ષડુ જ વગેરે સ્વરોમાંથી એક એક સ્વર અજિહા વગેરે રૂપ એક એક સ્થાન પ્રતિનિયત કેવી રીતે કહેવાય?
–જે કે ષડૂજ વગેરે બધા સ્વરે જિહાગ્ર ભાગ વગેરે બધાં સ્થાનોને ઉપયોગ કરે છે. છતાં એ વિશેષ રૂપથી દરેક વર જિહાર ભાગાદિક સ્થાનમાંથી કઈ એક સ્થાનને સમાશ્રિત કરીને જે વ્યક્ત (ઉચ્ચરિત) થાય છે. એટલા માટે તે સ્વરનું તે સ્થાન કહેવાય છે એ જ અભિપ્રાયને લઈને અહીં સૂત્રકારે દરેક સ્વરનું એક એક સ્થાન કહ્યું છે. વક્ષસ્થળથી પક્ષ સ્વરનું ઉચ્ચારણ કરવું જોઈએ આ કથનથી એજ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે ત્રાજભા સ્વરનું સ્થાન વક્ષસ્થળ છે સ્વરની નિષ્પત્તિમાં હેતભૂત જે ક્રિયા કંથી થાય છે.
For Private and Personal Use Only
Page #814
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६३ कारणतो स्वरनिरूपणम् ७९७ स्वरस्य स्थानं कण्ठो बोध्यम् तथा मध्य जिह्वयाजिवाया मध्यो भागो मध्यजिहवा, तया-मध्यमं स्वरं ब्रूयात् । जिह्वाया मध्यभागो मध्यमस्वरस्य स्थानमितिभावः। तथा-नासया नासिकया पञ्चमं स्वरं ब्रूयात् । पञ्चमस्वरस्य स्थानं नासिकेत्यर्थः। तथा दन्तोष्ठेन-दन्तोष्ठक्रियया धैवतं स्वरं ब्रूयात् । धैवतस्वरस्य स्थानं दन्तोष्ठं बोध्यम् । तथा-मूना-मूर्धस्थानेन निषादं स्वरं ब्रूयात् । निषादस्वरस्य स्थानं मूर्धा बोध्यम् । एतानि जिह्वाग्रभागादीनि सप्त स्वरस्थानानि भगवता व्याख्यातानि। इत्थं स्वरस्थानान्युक्त्वा सम्पति 'को जीवः कं स्वरं ब्रूते' इनि दर्शयति-'सत्त सरा जीवनिस्सिया' इत्यादिना 'णिसायं सत्तमं गया इत्यन्तेन । अर्थः स्पष्टः। नवरम्-गावश्च-एलकाश्चेति गवेलकाः, यद्वा गवेलकाः-मेषा एव। कुसुमसंभवेहै, उसका नाम 'कंठोद्त' है इससे गांधार स्वर बोला जाता है, अतः मंधार स्वर का स्थान -कंठ है । जिह्वा का जो मध्य भाग है-उससे मध्यम स्वर बोला जाता है; इस कारण मध्यम स्वर का स्थान जिह्वा का मध्य भाग है। 'नासिका से पंचम स्वर बोलना चाहिये' इस कथन से यही जाना जाता है-कि 'पंचम स्वर का स्थान नासिका है।' 'दन्तोष्ठ क्रिया से धैवत स्वर को बोलना चाहिये' इस कथन से यही स्पष्ट होता है कि 'धैवत स्वर का स्थान दन्तोष्ठ है'। 'मूर्धा से निषाद स्वर बोलना चाहिये' इससे यही जाना जाता है कि 'निषाद स्वर का स्थान मूर्धा है। ये जिह्वाग्रभागादिक सप्तस्वरस्थान भगवान् ने कहे हैं। इस प्रकार सात स्वरों के स्थान कहकर मूत्रकारने पुनः यह बत. लाया है कि-कौन २ जीव किस २ स्वर को बोलता है- "गवेलक" में गौ और एलक ये दो प्राणी आये हैं । अथवा गवेलक का अर्थ मेष તેનું નામ કઠોદ્દગત છે. એનાથી ગાંધાર સ્વર ઉચ્ચરિત થાય છે એથી ગાંધાર વરનું નામ કંડ છે. જિહાના મધ્ય ભાગથી મધ્યમ સ્વરનું ઉચ્ચારણ થાય છે. એથી જિહાને મધ્ય ભાગ મધ્યમ સ્વરનું સ્થાન છે નાકથી પંચમ સ્વરનું ઉચ્ચારણ કરવું જોઈએ આ કથનથી આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે પંચમ સ્વરનું સ્થાન નાસિકા છે. દૉષ ક્રિયાથી દૈવત સ્વર બેલ જોઈએ આ કથનથી એજ વાત જણાય છે કે દૈવત સ્વરનું સ્થાન દોઈ છે મૂર્ધાથી નિષાદ વર બોલ જોઈએ એથી એ વાત જણાય છે કે, નિષાદ સ્વરનું સ્થાન મૂર્ધા છે એ જિહાગ્ર ભાગ વગેરે સમસ્વર સ્થાને ભગવાને કહ્યા છે.
આ પ્રમાણે સપ્તસ્વરના સ્થાન વિષે માહિતી આપીને સૂત્રકાર ફરી એ બતાવે છે કે કયા કયા છો કયા કયા સ્વરથી બોલે છે? “ગવેલકમાં ગૌ અને એલક એ બે પ્રાણુઓ છે અથવા ગલકને અર્થ મેષ પણ છે.
For Private and Personal Use Only
Page #815
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७९८
अनुयोगद्वारसूत्र काले वसन्तसमये । अथ यस्मात् यस्मात् वाद्याद् यो यः स्वरो निर्गच्छति, तं तमाह-तद्यथा-तदर्शयति-'सत्त सरा अजीवनिस्सिया' इत्यादिना 'महामेरी य सत्तम' इत्यन्तेन । अर्थः स्पष्टः। नवरं-गोमुखी यस्था मुखे गोशृङ्गादि वस्तु स्थाप्यते सा 'काहला' इत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा। चतुश्वरणप्रतिष्ठाना गोधिकाचतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथाभूता गोधिका-गोधैव गोधिका चर्माक्नद्धा दर्दरिकेत्यपरनाम्ना पसिद्धा वायविशेषः । आडम्बर:=पटहः । सप्तमं= निषादम् । अत्रेदं बोध्यम्-यद्यपि मृदङ्गादि जनितेषु स्वरेषु नाभ्युरःकण्ठाद्युत्पद्यमानरूपो व्युत्पत्त्यर्थों न घटते, तथापि-मृदङ्गादि वाद्येभ्यः षड्जादिस्वरसदृशस्वरा उत्पद्यन्ते । अतएव तेषां मृदङ्गाधनीवनिश्रितत्वमुक्तम् ।।सू०१६३॥ ___ संप्रति एषां सप्तस्वराणां लक्षणान्याह___मूलम्-ए एसिं णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णता, तं जहा-सजेण लहई वित्तिं, कयं च न विणस्सइ । गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होइ वल्लहो॥१॥ रिसहेण उ एसज्जं, सेणाभी है। कुसुमसंभवकाल का तात्पर्य वसन्त ऋतु से है। जिसके मुख पर गोश्रृंग आदि स्थापित किया जाता है तथा जिसका दूसरा नाम 'काहला' है, वह वाद्यविशेष 'गोमुखी' कहलाता है । चतुश्चरण प्रति छाना गोधिका भी एक प्रकार का वाचविशेष होता है इस का नाम 'दर्द रिका' है। यह चमड़े से मढा हुआ होता है । 'आडम्बर' पटह को कहते हैं । यद्यपि मृदङ्ग आदि जनित स्वरों में नाभि उरस् कण्ठ आदि से उत्पन्न होना रूप व्युत्पत्यर्थ घटित नहीं होता है, तो भी मृदंग आदि वाघों से षड्ज आदि स्वरों के सदृश स्वर उत्पन्न होते हैं, इसलिये उन्हें मृदंगरूप अजीव से निश्रित कहा है |लू०१६३॥ કામ સંભવકાલ એટલે વસંત ઋતુ છે જેનાં મુખ પર ગેમ્પંગ, વગેરે
સ્થાપિત કરવામાં આવે છે તેમજ જેનું બીજુ નામ “કાહલા છે તે વાઘ વિશેષ “મુખી' કહેવાય છે ચતુશ્ચરણ પ્રતિષ્ઠાના ગોથિકા પણ એક વાઘ વિશેષ છે એનું નામ “દર્દરિકા” છે. એ ચામડાથી બનાવેલું હોય છે
આડંબર” પટને કહે છે. જો કે મૃદંગ વગેરેથી ઉત્પન્ન સ્વરમાં નાભિ, ઉરસ, કંઠ વગેરેથી ઉત્પત્તિ રૂપ વ્યુત્પત્યર્થ નીકળતું નથી, છતાં એ મૃદંગ વગેરે વાઘોથી પજ વગેરે સ્વરોની જેમ જ સવર ઉત્પન્ન થાય છે. એથી તેમને મૃદંગ રૂ૫ અજીવથી નિશ્ચિત કહ્યા છે. સૂ૦૧૬a ,
For Private and Personal Use Only
Page #816
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६४ सप्तस्वरलक्षणनिरूपणम् ७९९ वच्चं धणाणि य । वत्थ गंधमलंकारं, इथिओ सयणाणि य॥२॥ गंधारे गीयजुत्तिण्णा, वज्जवित्ती कलाहिया। हवंति कइणो पण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा॥३॥ मज्झिमस्सरसंपन्ना, हवंति सुहजीविणो। खायई पियई देई, मज्झिमस्सरमस्सिओ॥४॥ पंचमस्सरसंपन्ना हवंति पुढवीवई । सूरा संगहकत्तारो अणेगगणनायगा॥५॥धेवयस्सरसंपन्ना हवंति कलहप्पिया। साउणिया वग्गुरिया, सोयरिया मच्छबंधा य ॥६॥ चंडाला मुट्रिया सेया, जे अन्ने पावकम्मिणो। गोघातगा य जे चारा, णिसायं सरमस्सिया ॥७॥सू०१६४॥
छाया-एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरलक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाषड्जेन लभते वृति, कृतं च न विनश्यति । गावः पुत्राश्च मित्राणि च, नारीणां
अब सूत्रकार इन सात स्वरों के लक्षणों को कहते हैं"एएसिं णं सत्तण्हं" इत्यादि।
शब्दार्थ-(एएसिं सत्तण्हं सराणं) इन सात स्वरों के (सरलक्खणा) स्वर लक्षण-तत् तत्-फल की प्राप्ति के अनुसार स्वर तत्व-'सत्त) सात (पण्णत्ता) कहे गये हैं। (तंजहा) वे इस प्रकार से हैं-(सज्जेण वित्तिलहई) षहज स्वर से मनुष्य-आजीविका प्राप्त करता है। (कयं च ण विणस्सइ) तथा षडूज स्वरवाले व्यक्ति का कृतकर्म नष्ट नहीं होता है। (गावो पुस्ता य मित्सा य नारीण होइ वल्लहो) इस को गायें पुत्र और
હવે સૂત્રકાર એ સાત સ્વરેના લક્ષણ કરે છે– "एएसिणं सत्तण्हं" त्याह
शहाथ-(एएसि णं सत्तण्हं सराणं) मे सात २१राना (सरलक्खणा) १२क्षय-
ते जनी प्रालिनी अपेक्षाये २१२तत्य (सत्त) सात (पण्णत्ता) 8. पाम माव्या छ (तंजहा) तमे मा प्रभार छ (सज्जेण वित्तं लहई) ५४०१ ११२थी भास भावि प्रात ४२ छ (कयंच ण विणस्सइ) तेभ०४ ५३०४ २१२वाणी व्यति. सोना इतनाश पामता नथी अर्थात् सिद्धरे छे. (गावो पुत्ता य मित्ता य नारीण होइ वल्लहो) माने या पुत्र भने भित्र हाय छे. श्रीमान से मार
For Private and Personal Use Only
Page #817
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८००
अनुयोगद्वारसूत्रे भवति वल्लमः॥१॥ ऋपमेण तु ऐश्वर्य सेनापत्यं धनानि च । वस्त्रगन्धम् अलंकारम् , स्त्रियः शयनानि च ॥२॥ गान्धारे गीतयुक्तिज्ञाः वयवृत्तयः कलाधिकाः। भवन्ति कवयो धाज्ञाः, ये अन्ये शास्त्रपारगाः ॥३॥ मध्यम स्वरसम्पन्ना भवन्ति-सुखजीविनः । खादति पिबति ददाति, मध्यमस्वरमाश्रितः ॥४॥ पञ्चमस्वरसम्पन्ना मित्र होते हैं। यह स्त्रियों को बहुत प्यारा होता है । (रिसहेण उ एसज्ज) ऋषभ स्वर से मनुष्य ऐश्वर्य-ईशनशक्तिवाला-होता है (सेणाबच्वं धणाणिय) इस स्वर के प्रभाव से वह सेनापतित्व को धन को, (वस्थगंधमलंकारं इत्यिभो सयणाणि य) वस्त्रों को गंधपदार्थों को, अलं. कारों को, स्त्रियों को, और शयनों को पाता है । (गंधारे गीयजुत्तिण्णा) गान्धार स्वर से गाना गानेवाले मनुष्य (वजवित्ती कलाहिया) श्रेष्ठ आजीविकावाले होते हैं तथा कलाओं के ज्ञाताओं में शिरोमणि होते हैं। (कहणो पण्णा हवंति) कवि-काव्यकर्ता-होते हैं अथवा-"करणोकृतिनः" इस छाया पक्ष में कर्तव्यशील होते हैं। प्राज्ञः-सद्बोध संपन्न-होते हैं । (जे अण्णे सस्थपारगा) तथा जो पूर्वोक्त गीत युक्तिज्ञ आदि कों से जो भिन्न होते हैं-वे, सकलशास्त्रों में निष्णात होते हैं ! (मज्झिमस्सरसंपन्ना) जो मध्यम स्वर से युक्त होते हैं, वे (सुहजीविणो हवंति) सुखजीवि होते हैं । (खायई पियई देई मज्झिमस्सरमस्सिओ) सुखजीवि कैसे होते हैं ? इसी बात को सूत्रकार कहते हैं कि वे सुस्वादु भोजन को मनमाना खाते हैं, दुग्बादि का पान करते हैं। दूसरों को (प्रय डाय छ (रिसहेण उ एसिज्ज) *पम २१२थी भास भैश्वय-शन शत सप-न-डाय छे (सेणावच्चं धणाणि य) मा २१२ना प्रमाथी सेनापतित्पन, धनने, (वत्थगंधमलंकार इथिओ सयणाणिय) पक्षी, पहा, '२१, श्रीमा, तम शयनाने भगवे छे. (गंधारे गीय जुत्तिण्णा) गान्धार स्वरथी गाना। मायुसे। (वज्जवित्ती कलाहिया) श्रेष्ठ मालविणाराय छे तमा
साविमा श्रे3 गाय छे. (कइणोवण्णा हवंति) ४०३२ साय छे 'कइणो-कृतिनः' मा छाया पक्षमा त यशात हाय छ प्राज्ञ:-समाध अपन डाय छे. (जे अण्णे सत्यपारगा) तेभर पूरित गीत युतिः परथी २ मिन्न हाय छ तेथे। स४४ शास्त्रीमा निgad छे. (मझिमसरसंपन्ना) २सा मध्यम स्१२ सपन डाय छ तेस (सुइजीविणो हवंति) सुमलव होय छे. (वायई पियई देई, मज्झिमस्सरमस्सिओ) सुभवी वी शते साय છે? એજ વાતને સૂત્રકાર હવે સ્પષ્ટ કરે છે કે તેઓ પિતાની ઈચ્છા
For Private and Personal Use Only
Page #818
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६४ सप्तस्वरलक्षणनिरूपणम् भवन्ति पृथिवीपतयः । शूराः संग्रहकर्तारः, अनेकगणनायकाः ॥५॥ धैवतस्वरसम्पन्ना भवन्ति कलहपियाः। शाकुनिका बागुरिकाः सौकरिका मत्स्यबन्धाध ॥६॥ चाण्डालामौष्टिकाः सेया ये अन्ये पापकर्माणः । गोघातकाश्च ये चोरा निषाद स्वरमाश्रिताः ॥७॥॥सू० १६४॥ भी इसी प्रकार से खिलाते पिलाते रहते हैं । (पंचमस्सरसंपना हर्वति पुढवीवई) जो पंचमस्वर से युक्त होते हैं वे पृथिवीपति होते हैं। (सूरा संगहकत्तारो अणेगगणनायगा) शरवीर होते हैं, संग्रह करनेवाले होते हैं और अनेक गणों के नायक होते हैं। तथा जा (धेवयस्सरसंपन्ना हवंति कलहप्पिया) जो धैवतस्वरवाले होते है वे कलहप्रिय होते हैं-लड़ाई झगडा करना उन्हें बहुत पसन्द आता है। (साउणियावरगुरिया सोयरिया, मच्छबंधा य) शाकुनिक-पेक्षियों का शिकार करनेवाले, होते हैं, वागुरिक-हरिणों की हत्या करनेवाले, होते हैं, सौकरिक-सुअरों का शिकार करनेवाले, होते हैं, और मत्स्यबंधमछलियों को मारनेवाले, होते हैं ! (चंडाला) तथा जो चांडाल-रौद्रका हैं (मुट्ठिया) मुष्टि से प्रहार करनेवाले हैं (सेया) अधम जातीय हैं-(जे अन्ने पावकस्मिणो) तथा इनसे भिन्न जो पाप कर्मों में परायण बने हुए प्राणी हैं, तथा जो (गोघातगा) गोधात.करनेवाले हैं (जे चोरा) जो चोरी करनेवाले हैं (णिसायं सरमस्सिया)वे सब निषाद स्वर से आश्रित મુજમ તૃપ્તિદાયક સુસ્વાદુ ભોજન મેળવે છે. દૂધ વગેરે પીવે છે. બીજાઓને. ५५ वी शत म त पीडा २९ छे. (पंचमस्सरसंपन्ना हवंति, पुढवीवई) २॥ यम २१२ सपन्न डायतमा पृथ्वीपति डाय छे. (सूरा संगहकत्तारो अणेगगणनायगा) शूरवीर डाय छ, सब ४२नार डाय छे. भने 4 गाना नेता डाय छे (घेवयस्सरसंपन्ना) तेभ रे धैवत २१२१ सय छे. (हवंति कलहप्रिया) ते ४ प्रिय जय छ ans, ४४ास, त४२२ तभने मह गमे छे. (साउणिया वग्गुरिया सोयरिया, मच्छबंधा य) - નિક-પક્ષીઓને શિકાર કરનાર હોય છે વાગુરિક-હરની હત્યા કરનારા હોય છે સૌકરિક-સૂવરનો શિકાર કરે છે અને મત્સ્ય બંધ-માછલીઓને भारना२ डाय छे. (चंडाला) तम यांse-N -, (मुद्रिया) भुमिका ४२॥२॥ हाय छे. (सेया) अधम त य छ (जे अन्ने पावकम्मिणो)" तेभर मेमनाथी मिन्न २ पापमा २१ २२ छ तथा २ (गोपातगा) गाव ४२॥२ जाय छ (जे चोरा) २ यारी ४२॥२॥ छ. (णिसाय सर..
अ० १०१
For Private and Personal Use Only
Page #819
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
feve
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
टीका- 'एएसि णं' इत्यादि
एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरलक्षणानि = तत्तत्फलप्राप्त्यनुसारीणि स्वरशिवानि कथितानि । तान्येव फलत आह— तद्यथा - षड्जेन लभते वृत्तिम्' इत्यादिभिः सप्तभिः श्लोकैः । तथाहि - षड्जेन स्वरेण जनो वृर्ति-जीविकां लभते । तथा षड्जस्वरवतो जनस्य कृतं कर्म विनष्टं न भवति सफलमेव भवतीत्यर्थः । वस्य गावः पुत्रा मित्राणि च भवन्ति । तथा स स्त्रीणां वल्लभः = मियथ भवति । रमेण स्वरेण तु ऐश्वर्यम् = ईशनशक्तिमन्त्रं, सैनापत्यं = सेनापतित्वं, धनानि, वस्त्रगन्ध-वस्त्राणि गन्धांश्च, अलंकारं स्त्रियः शयनानि च लभते । तथा - गान्धारे = गान्धारस्वरे गीतयुक्तिज्ञाः = गीतयो जनावे तारः - गान्धारस्वरगानकर्त्तार इत्यर्थः, सूर्यवृत्तयः - वयः श्रेष्ठा वृतिः=जीविका येषां ते तथा श्रेष्ठ जीविकावन्तः, कलाधिकाः- कलाभिरधिकाः कलाज्ञेषु मूर्धन्याश्च भवन्ति । तथा- कवयः = काव्यकर्त्तारः, 'कुसिनः' इतिच्छायापक्षे- कर्तव्यशीलाः, प्राज्ञाः सद्बोधाश्व भवन्ति । ये अन्ये= पूर्वोभ्यो गीतयुक्तिज्ञादिभ्यो ये भिन्ना भवन्ति ते शास्त्रपारगाः = सकल शास्त्र - निष्णाता भवन्ति । तथा - मध्यम स्वरसम्पन्नास्तु सुखजीविन: = सुखेन जीवितुं शीला संवन्ति । सुखजीवित्वमेव प्रकटयति मध्यम स्वरमाश्रितो जनो हि खादति सुस्वादु भोजनं भुङ्क्ते, पिवति दुग्धादिपानं करोति, ददाति = अन्यानपि भोजयति पाययति च । पञ्चमस्वरसम्पन्नास्तु पृथिवीपतयो भवन्ति तथा शूराः संग्रहकर्त्तारः अनेकगणनायकाश्च भवन्ति । तथा धैवतस्वरसम्पन्नास्तु कलहप्रियाः = क्लेशकारका अवन्ति तथा - शकुनिकाः - शकुनेन श्येनेन पर्यटन्ति, शकुनान् = पक्षिणो घ्नन्ति वा शकुनिकाः = पक्षिघातका लुब्धकविशेषाः । वागुरिका: - वागुरा=मृगवन्धिनी, तया चरन्तीति वागुरिका:- हरिणघातका लुन्धकविशेषाः, सौकरिकाः सूकरेणकरवधार्थं चरन्ति सूकरान् घ्नन्ति वा सौकरिका: = मुकरघातका लुब्धकविशेषाः, तथा - मत्स्यबन्धाः = मत्स्यघातिनश्च भवन्तीति । तथा ये चाण्डाला: चाण्ड कर्माणः, मौष्टिक :-मुष्टिः प्रहरणं येषां ते तथा, मुष्टिभिः प्रहरणशीला इत्यर्थः, सेयाः = अधमजातीया मनुष्याश्च सन्ति, एभ्योऽन्ये च ये पापकर्माणः = पापकर्मपरायणाः सन्ति, तथा च ये गोघातकाः सन्ति ये च चौराः सन्ति, ते सर्वे निपादस्वरमाश्रिता विज्ञेयाः इति । एष पाठः स्थानाङ्गानुसारेण व्यख्यातो गृहीतश्च ॥ सू० १६४ ॥
अनुयोगद्वारसूत्रे
हैं, ऐसा जानना चाहिये। यह पाठ स्थानाङ्ग के अनुसार व्याख्यात किया और वहीं से किया है | ॥सू०१६४ ॥
मस्सिओ) ते निषाह स्वरनु उभ्या रे छे स्थानांग प्रभा બ્યાખ્યાત કરવામાં આવ્યા છે અને ત્યાંથી જ લેવામાં આવ્યે છે.
For Private and Personal Use Only
मा पा भडी
સૂ॰૧૬૪
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६५ स्वराणां ग्रामान मूर्च्छनांश्चनिरूपणम् ८०३ अथैषां स्वराणां ग्रामान् एकैकग्रामस्य मूछनाचाह
मूलम्-एएसिं णं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णत्ता, तं. जहा-सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे। सज्जगामस्सणं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-मंगीकोरवीया हरी य, रयणी य सारकंता य। छट्ठी य सारसी नाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा॥१॥ मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उत्सर मंदा रयणी, उत्तरा उत्तरा समा। समोकंता य सोवीरा, अभीर हवइ सत्तमा ॥२॥ गंधारगामस्सणं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नंदी य खुड्डिया पूरिमा य, चउत्थी य सुद्धगंधास। उत्तरगंधारा वि य, पंचमिया हवइ मुच्छा उ॥३॥ सुहत्तर मायामा, सा छट्ठी नियमसो उ णायवा। अह उत्तरायया कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा ॥४॥सू०१६५॥ ...
छाया-एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां त्रयो ग्रामा प्रजमाः, तप्रथा पडलमामा मध्यमग्रामः गान्धारग्रामः । षड्जग्रामस्य खलु सप्त मृच्छेनाः मातार,
अब सूत्रकार इन स्वरों के ग्रामों को और एक एक ग्राम की मूच्छे. नाओं को कहते हैं-"एएसिं णं सत्तण्हं सराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ-(एएसि णं सत्तण्हं सराण) इन सातस्वरों के (तओ गामा पण्णत्ता) तीन ग्राम कहे गये हैं। (तं जहा) वे इसप्रकार हैं-(सज्जगामे, मझिमगामे गंधारगामे) १ षड्जग्राम, २, मध्यमग्राम, ३ गान्धारग्राम, । (सज्जगामस्स णं सत्तमुच्छणाओ पण्णत्ताओ) षड्ज-ग्राम की मात
હવે સૂવકાર આ સ્વરના ગ્રામે અને દરેકે દરેક ગ્રામની મૂચ્છના विष ४थन ४रे ठे-" एएसिं णं सत्तण्हं सराणं "त्याह
शहाथ-(एएसिं णं प्रत्तोहं सराण) मा सात १२॥ना (तओ गामा पण्णता) Y आमी उपाय छ (तंजहा) ते 20 प्रमाणे छे. (सज्जगामे, मझिमगामे गंधारगामे) १५३४ श्राम, २ मध्यम प्राम, 3 गान्धाराम. (मज्जगामस्सणं सत्तमुच्छणाश्रो पत्ताओ) १३०१ श्रामनी सात भू२ नारा
For Private and Personal Use Only
Page #821
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
८०६
www.kobatirth.org
भनुयोगद्वारसूत्रे.
एते सप्तस्वराः कुतो भवन्ति ? इत्यादि प्रश्नचतुष्टयपूणि तदुत्तराणि प्रोच्यन्ते
मूलम् - सत्त सरा कओ संभवति ? गोयस्स का हवंति जोणी ? | कइ समया उसासा ? कइ वा गीयम्स आगारा ? ॥१॥ सत्त सरा नाभीओ हवंति, गीयं च रुइयजोणियं । पायसमा ऊसासा, तिष्णि य गीयरस आगारा ॥२॥ आइमिउ आरभंता समुहंता मझगारंमि । अवसाणे तज्जर्वितो, तिन्नि य गीयस्स आगारा ||३|| सू० १६६॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
छाया - सप्त स्वराः कुतः संभवन्ति ? गीतस्य का भवन्ति योनयः ? कति समया उच्छ्वासाः ? कति वा गीतस्य आकाराः १ || १ || सप्तस्वरा नाभितो, भवन्ति, गीतं च रुदितयोनिकम् । पादसमा उच्छ्वासाः, त्रयश्च गीतस्य -
ये सात स्वर कहां से होते हैं इत्यादि जो चार प्रश्न हैं उनका उद्भा वन करते हुए सूत्रकार उनका उत्तर देते हैं
"
सत्तसरा कओ " इत्यादि । -
शब्दार्थ - ( सत्तसरा कओ संभवति) प्रश्न- सात स्वर कहां से उत्पन्न होते है ? (गोयल का हवंति जोणी) गीत की जातियां क्या हैं ? (कह समया उसासा ?) गीत के उच्छवास कितने समय के प्रमाण वाले होते. हैं ( कति वा गीयस्स आगारा) गीत के आकार कितने होते है ?
उत्तर - ( सत्त सरनाभीओ हृति) सात स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। (गीयं च रुपजोणियं) गीत रुदितयोनिक होता है । (पापसमा ऊसासा) पाद सम उच्छ्रवास होते हैं। (गीयस्स तिष्णि आगारा) गीत के तीन એ સાત સ્વરા કયાંથી પ્રગટ થાય છે વગેરે જે ચાર પ્રશ્નો છે તેમનું ઉર્દુભાવન કરતાં સૂત્રકાર તેમના જવાબમાં કહે છે કે
66
सत्तसरा कओ " इत्याहि
शब्दार्थ - ( सत्तसरा कओ संभवंति ) प्रश्न सात स्वरो ज्यांथी उत्पन्न याय छे ? ( गीयम्स का हवंति जोणी) गीताना उत्पत्ति स्थाना या छे ? ( कइसमया उसासा ?) गीतना उच्छ्वास सा सभयना प्रभाणुवाणा होय छे ? ( कति वा गीयरस आगारा) गीतना था। डेंटला होय छे १
उत्तर- (त्तर नाभीओ ७. (गीयं च हयजोज़ियं) गीत
हवंति ) सात स्वरे। नालियोथी उत्पन्न थाय दुहित योनि होय छे ( पायसमा उमामा)
For Private and Personal Use Only
Page #822
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
spe
मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६६ स्वरोत्पत्तिनिरूपणम्
८०७
काराः || २ || आदिमृदुम् आरभमाणाः समुद्वहन्तश्च मध्यकारे | अवसाने क्षपयन्तः,
जयोऽपि गीतस्य आकाराः || ३| सू१६६ ॥ टीका 'सत्त सरा' इत्यादिएते षड्जादिसप्तस्वराः कुतः संभवन्ति = उत्पद्यन्ते ? तथा गीतस्य का योनयो=जातयो भवन्ति ? तथा गीतस्य कति समयाः कियत्कालप्रमाणा उच्छ्वासा भवन्ति ? तथा - गीतस्य कति वाकियन्तो वा आकाराः= आकृतयः - स्वरूपाणि भवन्ति ? इति चत्वारः प्रश्नाः । उत्तरयति - षड्जादयः सप्त स्वरा नामितो भवन्ति जायन्ते । गीतं च रुदितयोनिकम् - रुदितं योनिः समानरूपतया जाति र्यस्य तत्तथाविधं भवति, गीतं रोदनसमानं भवती स्यर्थः । उच्छ्वासाथ पदसमा भवन्ति । यावता समयेन वृत्तस्य पादः समाप्यते आकार होते हैं। (आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झगारंमि, अवसाणे तज्जर्वितो तिन्निय गीयम्स आगारा) सर्व प्रथम गीत मृदुध्वनिवाला होता है । मध्यभाग में वह तेजध्वनिवाला और अन्त में मन्द्रध्वनिवाला होता हैं ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भावार्थ सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा " षड्ज आदि सात स्वर कहां से उत्पन्न होते हैं ? गीत की जातियां क्या है ? गीत के उच्छ्वासों के समय का प्रमाण कितने हैं, और गीत किस आकार का होता है ?-" इन चार प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। इसमें उन्हों ने यह प्रकट किया है कि- ये पूर्वोक्त षड्ज आदि सात स्वर नाभिस्थान से उत्पन्न होते हैं । गीत रोने की जाति के जैसा होता है। यहां योनि शब्द का अर्थ जाति
। छन्द का पाद जितने समय में समाप्त होता है उतना ही समय गीत के ग्राहंसभ उच्छ्वास होय छे. ( गीयरस तिणि आगारा) गीतना शुभांर होय छे. (आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मझगारंमि अवस्राणे तज्जविंतो तिन्निय गीयरस आगारा) सर्व प्रथम गीत भृहुध्वनि युक्त होय छे. मध्यભાગમાં તે તીવ્રધ્વનિ યુક્ત હાય છે અને છેવટે મન્દ્રધ્વનિ યુક્ત હોય છે.
भावार्थ-सूत्रअरे या सूत्र वडे " षड्ज " वगेरे सांत स्त्ररे। ज्यांथी ઉત્પન્ન થયા છે ? ગીતના ઉત્પત્તિ સ્થાનેા કયા છે ? ગીતના ઉચ્છ્વાસાનુ’ પ્રમાણુ उटलु છે ? અને ગીતના આકાર કંઈ જાતના છે? એ પ્રશ્નોના જવામા આપવામાં આવ્યા છે આમાં
ચાર
તેમણે
૫૪
સાત રા
કર્યુ છે કે પૂર્વોક્ત ષડ્રેજ વગેરે નાભિસ્થાનમાંથી ઉત્પન્ન થયા છે ગીતની જ્ઞાતિ રુદન જેવી હાય છે, અહી ચેાનિ શબ્દને
For Private and Personal Use Only
Page #823
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८०८
अनुयोगद्वारसूत्र तावत्समया गीते उच्छ्वासा भवन्तीत्यर्थः । तथा-गीतस्य आकाराश्च प्रयो भवन्ति । ताने वाह-श्रादिमृदुम् आदौ प्रारम्भे मृदुं गीतध्वनिमारभमाणाः, मध्यकारे मध्यभागे समुद्वहन्तः महती गीतध्वनि कुर्वन्तः, च-पुनः अवसाने अन्ते क्षपयन्तः गीतध्वनि मन्द्रोकुर्वन्तश्च गायका गीतं गायन्ति । अतो गाने स्वरः आदौ मृदुः, मध्ये तारः, अन्ते च मन्द्रो भवति । ततश्च मृदुतारमन्द्रध्वनिरूपास्त्रय आकारा गीतस्य विज्ञेयाः ॥०॥१६॥ सम्पति गोते हेयोपादेयादिकं प्रवक्तुमुपक्रमते
मूलम्-छद्दोसे अटगुणे, तिण्णि य वित्ताइं दो य भणिईओ। जाणाहिइ सोगाहिइ, सुसिक्खिओ रंगमॉमि॥१॥ भीयं दुयं रहस्सं, गायंतो माय गाहि उत्तालं । काकस्सरमणुणासं, च होति गीयस्स छदोसा॥२॥ पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहा अविघुटुं। महुरं समं सुललियं अट्टगुणा होति गीयस्स॥३॥ उरकंठसिरपसत्थं, गिज्जइ मउयरिभियपदबद्धं । समतालपडुक्खेवं, सत्तस्सरसीभरं गीय॥४॥ निदोसंसारमंतंच, हेउजुत्तमलंकियं। उवणीयं सोवयारंच, मियं महुरमेव य॥५॥ समं अद्धउच्छ्वासों का है। गानेवाले सबसे पहिले गीत को मृदुध्वनि से प्रारंभ करते हैं, फिर बीच में उसे जोर की आवाज से गाते हैं बाद में अन्त में मन्द्रध्वनि से उसे समाप्त करते हैं। इसलिये गाने में स्वर आदि में मृदु, मध्य में तार, और अन्त में मंद होता है-अतः मृदू, तार, और मन्द्र इन तीन ध्वनिरूप आकार गाने के जानने चाहिये । सू० १६६ ॥ અર્થ જાતિ છે. છન્દને પાદ (ચરણ) જેટલા સમયમાં સમાપ્ત થાય છે તેટલે જ સમય ગીતના ઉછૂવાને છે ગાયકો સૌ પહેલાં ગીતને મૃદુધ્વનિથી પ્રારંભ કરે છે. પછી મધ્યમાં મોટા સ્વરે તેને ગાય છે ત્યાર પછી અંતે મંદ્રવૃનિમાં તેને સમાપ્ત કરે છે. એટલા માટે ગાતી વખતે પ્રારંભમાં સ્વર મૃદુ મધ્યમાં વર તાર અને અંતમાં વર મંદ હોય છે એથી મૃદુ, તાર, અને મન્દ્ર આ ત્રણ દિવનિ રૂપ આકાર ગીતને સમજવો જોઈએ, સૂ૦૧૬૬
For Private and Personal Use Only
Page #824
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् ८०९ समं चेव, सम्वत्थ विसमं च जं। तिणि वित्तपयाराई, चउत्थं नोवलब्भइ ॥६॥ सकया पायया चेव, दुहा भणिईओ आहिया। सरमंडलंमि गिजंते, पसत्था इसिभासिया॥७॥ केसी गायइ महुरं केसी गायइ खरं च रुक्खं च । केसी गायइ चउरं, केसी य विलंबियं दुतं केसी?॥८॥ विस्तरं पुण केरिसी-सामा गायब महुरं, काली गायइ खरं च रुक्खं च । गोरी गायइ चउरं, काणाविलम्ब दुतं च अंधा ॥९॥ विस्सरं पुण पिंगला, तंतिसमं तालसमं, पायसमं लयसमं गहसमं च। नीससिऊससियसमं, संचारसमं सरा सत्त ॥१०॥ सत्तसरा तओ गामा मुच्छणा एकवीसई। ताणा एगूणपण्णासं, सम्मत्तं सरमंडलं ॥११॥ से तं सत्तनामे सू०१६७॥
छाया- षडदोषान् अष्टगुणान् त्रीणि च वृत्तानि द्वेच भणिती । ज्ञास्यति स गास्यति सुशिक्षितो रङ्गमध्ये॥१॥ भीतं द्रुतं ह्रस्वं गायन् मा च गाय उत्तालम् । काकस्वरमनुनासं च भवन्ति. गेयस्य षड्दोषाः॥२॥ पूर्ण रक्तं च अलंकृतं च व्यक्तं तथा अविघुष्टम् । मधुरं समं मुललितम् अष्टगुणा भवन्ति गेयस्य ॥३॥ उरः कण्ठशिरः प्रशस्तं च गीयते मृदुक-रिभित-पदबद्धम् । समताल प्रत्युत्क्षेपं सप्तस्वरसीभरं गीतम् ॥४॥ निर्दोष सारवच्च, हेतुयुक्तमलंकृतम् । उपनीतं सोपचारंच, मितं मधुरमेव च ॥५॥ समम् अर्धसमं चैव, सर्वत्र विषमं च यत् । त्रयो वृत्तप्रकाराः, चतुर्थः नोपलभ्यते ॥६॥ संस्कृताः प्राकृताश्चैव द्विविधा भणितय आख्याताः । स्वरमण्डले गीयन्ते प्रशस्ता ऋषिभाषिताः॥७॥ कीदृशी गायति मधुरं? कीदृशी गायति खरं च रूक्षं च १ ॥ कीदृशी गायति चतुरं ?कीदृशी च विलम्बित द्रुत कीदृशी? ॥८॥ विस्वरं पुनः कीदृशी ? श्यामा गायति मधुरं काली गायति खरं च रूक्षं च । गौरी गायति चतुरं काणा विलम्ब द्रुतं च अन्धा ॥९॥ विस्वरं पुनः पिङ्गला । तन्त्रीसमं तालसमं पादसमं लयसमं ग्रहसमं च । निःश्वसितोच्छवसितसमं संचारसमं स्वराः सप्त॥१०॥सप्तस्वराः त्रयो ग्रामा मूर्च्छनाः एकविंशति। ताना: एकोनपञ्चाशत्, समाप्तं स्वरमण्डम् ॥११॥ तदेतत् सप्तनाम ।। सू०१६७॥
अ० १०२
For Private and Personal Use Only
Page #825
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे टीका-'छद्दोसे' इत्यादि
गीते हि षड् दोपाः, अष्टगुणाः, त्रीणि वृत्तानि, द्वे भणिती च भवन्ति । यो जन एतान् यथावद् ज्ञास्यति स एव सुशिक्षितः सन् रङ्गमध्ये-नाटयशालायां मास्यति ॥संप्रति तानाह 'भीय' इत्यादिना । हे गायक ! गीतं गाय च त्वं भीतंभयपूर्वकं च मा गाय-गानं मा कुरु, द्रुतं-त्वरितं च मा गाय, इस्वम् अल्पस्वरेण च मा गाय, ॥३॥ उत्तालम्-उद्गत =औचित्याइव गतस्तालो यत्र तत् उत्तालम्अतितालमस्थानतालं चेत्यर्थः, तथा मा गाय। तालस्तु कांस्यादिशब्दो बोध्यः।
अब सूत्रकार गीत में हेय और उपादेय आदि को कहते हैं"छद्दोसे अट्ठगुणे" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(छदोसे अट्टगुणे तिणिय वित्ताई दो य भणिईओ) छह दोषों को, आठगुणों को, तीन वृत्तों को और दो भणितियों को (जाणाहिद) जो यथावत् जानेगा (लो) वही (सुसिक्खिओ) सुशिक्षित-गान कला में निपुण हुआ व्यक्ति (रंगममि) रंगशाला में (गाहिह) गावेगा- गीत के छहदोष-इस प्रकार से हैं (भीयं दुयं रहस्सं गायतो मा य गाहि उत्तालं, कागस्सरमणुगासंच हों ति गीयस्स छद्दोसा) जब गायक गाना गाने को तैयार होने लगता है, तब उससे कहा जाता है कि-'हे गायक ! तुम गीत गाओ तो सही-परन्तु भीत-भयभीत होकर मत गाना, गाने में उतावली मत करना, अर्थात् जल्दी २ से मत गाना, अल्प स्वर से मत गाना-उत्ताल मत गाना-अर्थात् अतितोल होकर
હવે સૂત્રકાર ગીતમાં હેય અને ઉપાદેય વગેરેનું કથન કરે છે"छहोसे अद्गुणे" त्याह
शाय-(छदोसे अद्वगुणे तिण्णिय वित्ताई दो य भणिईओ) छ होषाने, मान, वृत्तीने भने में माहितियान (जाणाहिइ) २ सारीरीत तरी (सो) ते (सुसिस्खिओ) सुशिक्षित-भानसभा निपुण थयेस ४३२ (रंगममि) २५i (गाहिइ) आशे भीतमा छ होषी मा प्रमाणे छ. (भीयं दुयं रहस्सं गायंतो माय गाहि उत्तालं कागस्सरमणुणासं च होति गीयस्त्र छहोसा) જ્યારે ગાયક ગાવા માટે પ્રસ્તુત થાય છે ત્યારે તેને કહેવામાં આવે છે કે હે ગાયક! તમે ગીત ગાવે તે બરાબર છે પણ તમે બીતા બીતા ગાશે નહિ ગાવામાં ખોટી ઉતાવળ કરશો નહિ એટલે કે જલદી જલ્દી ગાશે નહિ, અ૫ સ્વરમાં ગાશે નહિ, ઉત્તલ (તાલવગર) ગાશે નહિ, એટલે કે અતિતાલ થઈને કે અસ્થાનતાલ થઈને ગાશે નહિ. કાગડાના સ્વર જેવા સ્વરથી ગીત
For Private and Personal Use Only
Page #826
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् ८११ तथा-काकस्वरम्-काकस्य स्वरइव स्वरो यस्मिन् गीते तत्, श्लक्ष्णाश्रयस्वरमित्यर्थः, तथा मा गाय । अनुनासम्-सानुनासिकं च मा माय । यत एते भीतादयः षट् गेयस्य दोषा भवन्तीति । इत्थं दोषानुक्त्वा सम्पति गुणानाह-'पुण' इत्या. दिना । पूर्णम्-यत्र गीते सर्गः स्वरकलाः गायकैः प्रदर्श्यन्ते तत्र 'पूर्ण'-नामा गुणो भवति ॥१॥ रक्तम्-गायको गीतरागेण रक्ताम्भावितः सन् यद् गीतं गायति तत्र 'रक्त' नामा गुणो भवति॥२॥ अलङ्कृतम्-यत्र गाने गायकोऽन्यान्यस्फुटशुभस्वरविशेषैर्गीतमलङ्करोति तन्न 'अलङ्कृत'-नामको गुणः॥३॥ व्यक्तम्यत्र गाने गायकोऽक्षरान् स्वरांश्च स्फुटतयोच्चारयति तत्र 'व्यक्त'-नामा गुणः॥४॥ अविघुष्टम्-विक्रोशनभिव यद्विस्वरं भवति तद् विघुष्ट-मुच्यते, यत्र विघुष्टं न या अस्थानताल होकर नहीं गाना, काक के स्वर के समान स्वर वाले होकर गान को मत गाना, सानुनासिक मत गाना । क्योंकि ये भीत आदि छ गान के दोष हैं।
इस प्रकार दोष को कहकर अप गुणों को सूत्रकार कहते हैं(पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वतं तहा अविघुटं, महुरं समं सुललियं, अट्टगुणा होंति गीयस्म) जिस गीत में समस्त स्वर कलाएँ गीतकार गायन कला को दिख लाते हैं, वहां पूर्ण नानका गुम होता है। गायक गीतराग. से भावित होता हुआ जिस गीत को गाता है वहां 'रक्त' नामका गुण होता है । जिस गान में गायक अन्य अन्य स्फुटस्वर विशेषों द्वारा गीत को सजाता है, वहां 'अलंकृत' नाम का गुण होता है ।जिस गान में गायक अक्षरों एवं स्वरों को स्कुटरूप से उच्चारित करता है, वहां 'व्यक्त' नाम का गुण होता है। विक्रोशन-गुस्से में आये हुए व्यक्ति के स्वर के जैसा अथवा चिल्लाते हुए व्यक्ति के स्वर के जैसा ગાશે નહિનાકમાં ગાશે નહિ કેમકે આ ભીત વગેરે છ ગીતના દે છે. આ પ્રમાણે ગીતના દેનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે સૂત્રકાર ગુ વિષે કહે છે કે (पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहा अविघुटुं, महुरं समं सुललियं अट्ठ गुणा: होति गीयस्स) २ गीतमा गीत २ समरत गायन जानु प्राशन ४२ में તે પૂર્ણ નામે ગુણ કહેવાય છે. ગાયક ગીત રાગથી ભાવિત થઈને જે ગીત ગાય છે, તે રક્ત નામે ગુરુ કહેવાય છે. જે ગીતમાં ગાયક બીજા વિશેષ કુટે સ્વરેથી ગીતને અલંકૃત કરે છે. તે અલંકૃત ગુણ કહેવાય છે. જે ગીતમાં ગાયક અક્ષરો અને અને ફુટ રૂપમાં ૩યારે છે તે વ્યક્તિ નામે ગુણ કહેવાય છે વિકેશન-ગુસ્સામાં ભરેલી વ્યકિતની જેમ અથવા તે ઘાંટા પાડતી વ્યક્તિના સ્વરની જેમ જે ગાનારને સ્વર હોય તે ગાન “વિઘુણ” કહેવાય છે. જે ગાનમાં વિઘુ ને
For Private and Personal Use Only
Page #827
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२
अनुयोगद्वारसूत्रे भवति तत्र 'अविघुष्ट' नामा गुणो बोध्यः॥५॥ मधुरम्-मधुमत्त कोकिलकल काकलीवत् यत्र गाने गायकस्य मधुरः स्वरो भवति तत्र 'मधुरम्वर'-नामा गुणः॥६॥ समम्-तालवंशस्वरादिसमनुगतो यत्र स्वरो भवति, तत्र 'सम'-नामको गुणः॥७॥ मुललितम् -स्वरघोलनाप्रकारेण शुद्धातिशयेन शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखो. त्पादनाद वा, ललतीव यत् तत् सुललितम्-सुकुमारमित्यर्थः, अयं गेयस्याष्टमो गुणः॥८॥ एते अष्ट गुणा गीतस्य भवन्ति । एतद्विरहितं गीतं तु गोतमेव न भवति । तत्तु गीताभासं विज्ञेयम् ॥ इतोऽन्येऽपि गीतगुणाः सन्ति, तान् प्रदर्शयितुमाह-'उरकंठ' इत्यादि । च-पुनः उरकण्ठशिरःप्रशस्तम्-उरकण्ठसिरसा द्वन्द्वः, ततः प्रशस्तेन सह तृतीयातत्पुरुषः। एवं च-उरः प्रशस्तं कण्ठपशस्तं शिरः प्रशस्तमिति शुद्धमिति पदत्रयं लभ्यते । तत्र-उरसि यदा विशालः स्वरो भवति, जो गान स्वर विहीन होता है, वह 'विघुष्ट' गान कहलाता है। जिस गान में विघुष्ट नहीं होता वहां, 'अविघुष्ट' नाम का यह गुण होता है। वसन्त में मत्त कोकिलाकी कलकाकली के जैसा जिस गान में गायकका स्वर मधुर होता है, उस गान में 'मधुर' स्वर नाम का गुण होता है। जिस गान में ताल, वंश-स्वर आदि से समनुगत स्वर होता है उस गान में 'सम' नामका गुण होता है । स्वर घोलना प्रकार से शुद्धाति. शय से अथवा शब्दस्पर्शन से जो श्रोत्रेन्द्रिय को सुखोत्पादक होता है
और इसी कारण जो विशेष प्रिय लगता है वह सुललित है-यह गान काअष्टमगुण है। इस प्रकार ये गीत के ८ गुण हैं। इन गुणों से रहित हुआ गीत (गान) गीत ही नहीं कहलाता है। वह तो गीताभास है। इन गुणों से अन्य और भी गीत के गुण हैं, जो इस प्रकार से हैं (उरकंठसिरपसत्थं) उर प्रशस्त कंठप्रशस्त और शिरःप्रशस्त, गान का હોય ત્યાં “અવિઘુષ્ટ' નામક ગુણ કહેવાય છે. વસન્તમાં મત્ત કેયલની કલકાકલીની જેમ જે ગીતમાં ગાયકને સ્વર મધુર હોય છે, તે ગીતમાં મધુર સ્વર નામે ગુણ હોય છે જે ગીતમાં તાલ, વંશ, સ્વર વગેરેથી સમગત સ્વર હોય છે તે ગીતમાં “સમ” નામક ગુણ હોય છે. સ્વરલના પ્રકારથી, શ્રદ્ધાતિશયથી અથવા શબ્દ સ્પર્શનથી જે શ્રોત્રેન્દ્રિયને સુખ આપે છે અને એથી જે વિશેષ પ્રિય લાગે છે તે સુલલિત છે. આ ગીતને આઠમે ગુણ છે આ પ્રમાણે આ ગીતના આઠ ગુણે છે. આ ગુણેથી હીન ગીત ગીત કહી શકાય જ નહીં તે તે ગીતાભાસ છે. આ ગુણની સાથે સાથે બીજા પણ
टमा तना गुथे। छ त म प्रमाणे छे-(उरकंठसिरपनत्थं) 6:प्रशस्त, કંઠપ્રશસ્ત અને શિરપ્રશસ્ત ગીતનો વિશાળ સ્વર જ્યારે વક્ષસ્થળમાં પૂરિત
For Private and Personal Use Only
Page #828
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् तदा-उरःप्रशस्तं विज्ञेयम् । यदा च कण्ठे स्वरो वर्तितोऽतिस्फुटितश्च तदा कण्ठ प्रशस्तम् । यदाच शिरसि प्राप्तः स्वरः स चेदानुनासिक्यरहितस्तदा शिरःप्रशस्तम् । यद्वा-उरकण्ठशिरस्तु कफरहितेषु सत्सु यत् प्रशस्तं गीतं भवति तत्-उरः कण्ठशिरःप्रशस्तम् । तथा-मृदुकरिभितपदबद्धम्-मृदुना-कोमलेन स्वरेण यद् गीयते तद् मृदुकम् , यत्र अक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गतीव तद् घोलनाबहुलं रिभितम् , पदैः गेयपदैः बद्धम् विशिष्टरचनया रचितं-पदबद्धम् । पदत्रयस्य कर्मधारयः । तथा च-समतालपत्युत्क्षेपम्-ताला-हस्ततालसमुत्थः शब्दः, प्रत्यु. विशालस्वर जब वक्षःस्थल में भर जाता है तब वह उरःप्रशस्त गान कहलाता है, गान का यह उरःप्रशस्त गुण है। गान का स्वर जब कंठ में भर जाता है और वह अतिस्फुट होता है तथ वह कण्ठ प्रशस्त गान कहलाता है। गान का यह कण्ठप्रशस्त गुण है। जब गान का स्वर शिर में जाकर यदि अनुनासिक से वह रहित हो जाता है तब वह गान शिरःप्रशस्त कहलाता है। गान का यह शिर:प्रशस्त गुण है। अथवा-कफ रहित होने पर उर, कंठ और शिर ये सब प्रशस्त रहते हैं, उस समय गाया गया गीत भी प्रशस्त होता है। ऐसा गीत उरः कंठ शिरःप्रशस्त कहलाता है। (मउयरिभियपदबढ़) तथा मृदुक रिभित और पदपद्ध, भी गान के ३ तीन गुण हैं-जो गान कोमल स्वर से गाया जाता है, 'मृदुक' गुणवाला गाना है। जहां अक्षरों में घोलना से संचार करता हुआ स्वर चलता रहता है ऐसा वह घोलना बहुल गान 'रिभित' गुणवाला गान कहा जाता है। जिस गान થઈ જાય છે ત્યારે તે ઉર પ્રશસ્ત ગીત કહેવાય છે. ગીતને આ ઉર પ્રશસ્ત ગુણ છે ગાનને સ્વર જ્યારે કંઠપ્રદેશમાં ભરાઈ જાય છે અને તે અતિશ્લેટ હોય છે ત્યારે તે કંઠપ્રશસ્ત ગીત કહેવાય છે ગાન ને આ કંઠપ્રશસ્ત ગુણ છે. જ્યારે ગાનને વર મસ્તકમાં જઈને તે અનુનાસિક વિનાને થઈ જાય છે ત્યારે તે ગાન શિપ્રશસ્ત કહેવાય છે ગાનને આ શિરપ્રશસ્ત ગુણ છે. અથવા કફ રહિત હોવા બાદ ઉર, કંઠ, અને શિર આ બધા પ્રશસ્ત રહે છે તે વખતે ગવાયેલ ગીત પણ પ્રશસ્ત હોય છે એવું ગીત ઉર કંઠ, शि२:प्रशस्त उपाय छे. (मउयरिभियपदबद्धं) मा भृ मत भने પદ બદ્ધ આ પ્રમાણે પણ ગીતના ત્રણ ગુણ છે જે ગાન કેમળ સ્વરમાં ગવાય છે તે મૃદુક ગુણ યુક્ત ગાન કહેવાય છે જ્યાં અક્ષરોમાં ઘેલનાથી સંચરણ કરતે વર ચાલતું રહે છે એવું તે ઘોલન બહુલ ગીત “રિભિત ગુણ સક્ત ગીત કહેવાય છે જે ગીતમાં પદની રચના વિશિષ્ટ હોય છે, તે “પદ
For Private and Personal Use Only
Page #829
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
.. अनुयोगद्वारसूत्रे रक्षेपः-मुरजकास्यादीनां गीतोपकारकाणां ध्वनिः, नर्तकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा, समौ तालमत्युक्षेपौ यत्र तत् । तथा-सप्तस्वरसीभरम्-सप्त स्वगः सीभरन्ति अक्षरादिभिः सह समा यत्र भवन्ति तत् । एवं विषं यद् गीतं गीयते तदेव सुगीतं भवति । इत्थं च उरकण्ठ शिरःप्रशस्तत्वादयोऽपि गीतगुणा बोध्या: 'सप्तस्वरसीभरम्' इत्युक्त, तत्र ये सप्त स्वरास्ते क्वचित् एवमुक्ताः
"अक्खरसमं पदसमं तालसमं च लयसमें गहममं ।
नीससिओससियसमं संचारसमं सरा सत्त ।। छाया-अक्षरसमं पदसमं तालसमं च लयसमें ग्रहसमम् ।
निःश्वसितोच्छ्वसितसमं सञ्चारसमं स्वराः सप्त । इति।। अयमर्थः-अक्षरसमम्-यत्र दोघेऽक्षरे दीर्थों गीतस्वरः क्रियते, ह्रस्वे हस्वः, प्लुते प्लुता, सानुनासिके सानुनासिका, तदक्षरसमम् ॥१॥ पदसमम्-यत् पदं गीतमें पदों की रचना विशिष्ट होती है, वह ' पदयद्ध' गान है । (समताल. पडु खेव) जिस गान में ताल-हस्तताल से उत्पन्न हुआ शद और प्रत्यक्ष-मृदंग कांस्य आदि का जो कि गीत के उपकारक होते है उनकी ध्वनि अथवा नतेकीजन का पादप्रक्षेप ये दोनों जिसमें एक साथ होते है वह समताल प्रत्युत्क्षेप गान है। यह गान का गुण है। (सत्तस्सरसीभरंगीयं) जिस गान में सात स्वर अक्षरों के साथ समान होते हैं वह गान 'सप्तस्वरसीभर' कहलाता है। इस प्रकार का जो गाना गाया जाता है वही सुगीत (गीत) कहलाता है । सप्तस्वर सीभर में जो सात स्वर कहे गये हैं, वे कहीं२ पर इस प्रकार से कहे गये हैं-अक्षरसम१, पदसम२, तालसम३, लयसम४, ग्रहसम५, निाश्वसितोच्छवसित. सम६, और संचारसम ७, जिस गाने में दीर्घ अक्षर पर दीर्घस्वर, हस्व अक्षर पर हस्व स्वर प्लुत अक्षर पर प्लुत स्वर और सानुनासिक मद्ध' गीत छ. (समताल पडुक खेवं) रे गीतwi da-तताथी 64-i થયેલ શખ અને પ્રત્યક્ષેપ-મૃદંગ કાંસ્ય વગેરેને કે જે ગીતના માટે ઉપકારક હોય છે તેમને દવનિ અથવા નર્તકીઓનું પાદપ્રક્ષેપણ એ બને જેમાં એકી સાથે હોય છે તે સમતાલ પ્રત્યક્ષેપ ગીત છે. આ ગીતને ગુણ છે. (सत्तस्सरसीभर गीय) २ गीतमा सात-१२ अक्षशनी साये समान जय छ તે ગીત “સમસ્વર સીભર કહેવાય છે. આ પ્રમાણે જે ગીત ગવાય છે તે સુગીત (ગીત) કહેવાય છે. “સમસ્વર સીભરમાં જે સાત સ્વરે કહેલા છે તેઓ કઈક સ્થાને આ પ્રમાણે પણ કહેવામાં આવ્યા છે–૧ અક્ષરસમ, ૨ पढ़सम, 3 सम, ४ सयसम, ५ असम, ६ निवासतरासतसम, અને ૭ સંચારસમ, જે ગીતમાં દીર્ઘ અક્ષર પર દીર્ઘ સ્વર, હરવઅક્ષર પર હસ્વવર, ડુત અક્ષર પર કુતસ્વર અને સાનુનાસિક પર સાનુનાસિક સ્વર
For Private and Personal Use Only
Page #830
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् पदम् यत्र स्वरे अनुगति भवति तत्तत्रैव यदा गीयते तदा पदसमं भवति॥२॥ तालसमम्-यत् परस्पराभिहतहस्ततालस्वानुसारिणा स्वरेण गीयते तत्ताल. समम् ॥३।। लयसमं शृङ्ग-दाधिन्यतमवस्तुमयेनाजुलीकोशेन समाहते तन्न्यादी यस्तत्स्वरप्रकारः स लयः, तमनुसरता स्वरेण यद् गोश्ते तद्लयसमम् ॥४॥ ग्रहसमम्-प्रथमतो वंशतव्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतः स ग्रहः, तत्समेन स्वरेण यदू गीयते तद् ग्रहसमम् ॥६॥ निःश्वसितोच्छ्वसितप्तमम्-निःश्वसितोच्छ्वसितमानमनतिक्रमतो यद् गेयं तद् निःश्वसितोच्छसितसमम् ॥६॥ संचारसमम्-वंशतन्त्र्यादिष्वेव अङ्गुलीसंचारसमं यद् गीयते तत् संचारसमम् । एवमेते सप्तस्वरा भवन्ति । पर सानुनासिक स्वर होता है यह अक्षरसम है । जिस स्वर में जो गीतपद अनुपाती होता है, वह गीत पद जब वहीं पर गाया जाता है तय पदसमस्वरवाला गीत होता है। जो गाना परस्पराभिहत हस्ततल के तालस्वर के अनुमारवाले स्वर से गाया जाता है वह गाना तालप्सम स्वरवाला कहलाता है। शृंग अथवा दारु काष्ठ आदि किसी एक वस्तु के बने हुए अंगुली कोश से तंत्री आदि के बजाने पर जो ध्वनि निकलती है, उसका नाम लय है । उस लय का अनुसरण करनेवाले स्वर से जो गाना गाया जाता है वह लयममस्वरवाला गाना कहलाता है। वंशतंत्री आदिकों द्वारा जो स्वर पहिले से गृहीत कर लिया जाता है उसका नाम ग्रह है। इस ग्रह के समान स्वर से जो गीत गाया जाता है वह ग्रहसम स्वरवाला गीत कहलाता है। निःश्वास उच्छ्वास के प्रमाणानुमार जो गानागाया जाता है वह निश्वसितोच्चमित सम है। वंशनंत्री आदि कों હેય છે તે અક્ષરસમ છે. જે સ્વરમાં જે ગીત પર અનુપડતી હોય છે, તે ગીત પદ જયારે ત્યાંજ ગાવામાં આવે છે, ત્યારે પદ સમસ્વરવાળું ગીત કહેવાય છે. જે ગીત પર સ્વરહિત હસ્તતલના તાલસ્વર ને અનુસરતા સ્વરથી ગવાય છે. તે ગીત તાલસમ સ્વરવાળું કહેવાય છે શૃંગ અથવા દારુ-કાષ્ટ વગેરે કઈ પણ એક વસ્તુના બનેલા અંગુલી કેશથી તંત્રી વગેરે વગાડવાથી જે ધ્વનિ નીકળે છે તેનું નામ લય છે તે લયને અનુસરનાર સ્વરથી જે ગીત ગવાય છે તે લયસમસ્વરંવાળું ગીત કહેવાય છે. વંશ તંત્રી વગેરે વડે જે સ્વર પહેલાથી જ ગૃહીત કરવામાં આવે છે તેનું નામ ગ્રહ છે. આ ગ્રહના સમાન સ્વરથી જે ગીત ગવાય છે તે ગ્રહ સમ સ્વર યુક્ત ગીત કહેવાય છે. નિઃશ્વાસ ઉચલ્ડ્રવાસના પ્રમાણ મુજબ જે ગીત ગવાય છે તે નિઃશ્વસિતેચ્છુ
For Private and Personal Use Only
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे अत्रेदं बोध्यम्-एकोऽपि गीतस्वरोऽक्षरपदादिभिः सप्तभिः स्थानैः सह समत्वं प्रतिपद्यमानः सप्तधात्वं भजते, अतोऽक्षरसमादयः सप्तस्वरा भवन्तीति । अत्र तु सूत्रोपान्ते ' तंतिसमं तालसमं' इति गाथया सप्तस्वरा उच्यन्ते इति बोध्यम् । तथा गीते यः सूत्रबन्धः सोऽष्टगुण एव कर्तव्य इति तानाह-'निदोसं' इत्यादि। निर्दोषम् 'अलियमुवघायजणयं' इत्यादि द्वात्रिंशदोषरहितम् १, सारवत्-विशिष्टा र्थयुक्तम् २ हेतुयुक्तम्-गोतानामर्थबोधोऽनायासेन श्रोतॄणां भवत्विति हेतुमुपलक्ष्य यद् रचितं गीतं तत् , प्रासादगुणयुक्तमित्यर्थः३, अलङ्कृतम्-उपमाचलङ्कारयुक्तम्४, के ऊपर ही जो अंगुली के संचार के साथ २ गाना गाया जाता है, वह संचारसम है। इस प्रकार ये सात स्वर होते हैं । यहां पर ऐसा जानना चाहिये कि-एक ही गीत स्वर अक्षर पद आदि सात स्थानों के साथ उनकी समानता को पाता हुआ सात प्रकार का हो जाता है । इसलिये अक्षरसम आदि सात स्वर होते हैं । यहां तो सूत्र के उपान्त में "तं. तिसमं, तालसमं" इस गाथा द्वारा सातस्थर कहे गये हैं। तथा गीत में जो सूत्रबंध-किया जावे वह आठ गुणवाला ही किया जाना चाहिये। आठ गुण इस प्रकार से हैं-(निहोसं सारमंतंच हेउजुत्तमलंकियं उव. णीयं सोश्यारंच मियं महुरमेव य) निर्दोष-अलीक, उपघात जनक इत्यादि ३२ दोषों से रहित होना इसका नाम 'निर्दोष' है। सारवत्विशिष्ट अर्थ से युक्त होना इसका नाम 'सारवान्' है। श्रोताजनों को अनायास ही गीत के अर्थ का बोध हो जावे, इस हेतु को ध्यान में रख कर जो गीत रचा गया हो वह हेतुयुक्त' है । तात्पर्य यह है कि સિત સમ છે વશ તંત્રી વગેરેની ઉપર જ જે આંગળીના સંચારની સાથે ' સાથે ગવાય છે તે “સંચારસમ છે. આ પ્રમાણે આ બધા સાત થાય છે. અહીં એમ સમજવું જોઈએ કે દરેક ગીત ૨વર અક્ષર પદ વગેરે સાત સ્થાનની સાથે સાથે તેમની સમાનતા મેળવતું સાત પ્રકારનું થઈ જાય છે. અહીં सूत्रता पन्तम " तंतिसम तालसमं" या गाथा १ सात १२ अपामा આવ્યા છે, તેમજ ગીતમાં જે સૂત્રબંધ કરવામાં આવે તે આઠ ગુણ યુક્ત
डावन मा शुर। मा प्रभारी छ-(निहोसं सारमंतं च हेड जुत्तमलं. कियं उवणीय सोवयारच मिय' महुरमेवयं) निषि-मसी, Bातन વગેરે બત્રીશ દોષ રહિત થવું તે નિર્દોષ છે. સારવત-વિશિષ્ટ અર્થથી યુક્ત હેય તે સારવત છે. સાંભળનારાઓને અનાયાસ જ ગીતના અર્થનું જ્ઞાન થાય એ વાતને ધ્યાનમાં રાખીને જે ગીતની રચના કરવામાં આવે છે તે હેતુયુક્ત” કહેવાય છે. મતલબ એ છે કે ગીત પ્રાસાદ ગુણ યુક્ત હોવું જોઈએ
For Private and Personal Use Only
Page #832
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् ८१७ उपनीतम्-उपनयनिगमनयुक्तम्-उपसंहारयुक्तमित्यर्थः५, सोपचारम्-क्लिष्टविरुद्धलज्जास्पदार्थावाचकं सानुपासं वा गीतम् ६, मितम्-अतिवचनविस्तररहितं, संक्षिप्ताक्षरमित्यर्थः७, तथा-मधुरम्-माधुर्यगुणसमन्वितं-सुश्रव्यशब्दार्थयुक्तमित्यर्थः८, एतादृशं यत् गीतं तदेव गानयोग्यं भवति । अथ यदुक्तं त्रीणि वृत्तानौति तान्याह-'समं' इत्यादि । यत्र वृत्ते चतुर्वपि चरणेषु समानि अक्षराणि भवन्ति, तद् वृत्तं समम् । यत्र प्रथम तृतीययोद्वितीयचतुर्थयोश्च चरणयोः सामान्याक्षराणि भवन्ति तदर्धसमम् । तथा-यत्रवृसे सर्वत्र चतुर्षपि चरणेषु अक्षराणां गीत को प्रासाद गुण युक्त होना चाहिये । उपमा आदि अलंकारों से जो गीत सजा हुआ होता है वह गीत 'अलंकृत गुण वाला कहलाता है जो गीत उपसंहार से युक्त हो जाता है वह उपनीत गुण युक्त गीत माना जाता है। जो गीत क्लिष्ट विरुद्ध एवं लज्जास्पद पदार्थ का वाचक नहीं होता अथवा अनुप्रास युक्त होता है वह 'सोपचार' गीत कहलाता है। जिस गीत में वचनों का विस्तार अधिक नहीं होता है अर्थात् जो गीत संक्षिप्त अक्षरों वाला होता है, वह 'मित' गुण वाला गान है। जो गान सुश्राव्य शब्द और अर्थ वाला होता, है वह मधुर गुण युक्त गान कह लाता है । ऐसा जो गान - होता है वही गान योग्य होता है। गीत की तीन भणितियां इस प्रकार से हैं-(समं अद्धसमं चेव सव्वत्थविसमं च यं, तिण्णि वित्तपयाराई चउत्थं नोवलन्भइ) जिस वृत्त में चारों चरणों में समान अक्षर होते हैं, वह 'समवृत्त' है। जिस वृत्त में प्रथम तृतीय पादों में और हि. तीय चतुर्थ पादों में समान अक्षर होते हैं वह अर्द्ध समवृत्त है । तथा ઉપમા વગેરે અલંકારેથી જે ગીત અલંકૃત હોય છે તે ગીત અલંકૃત ગુણવાળું કહેવાય છે. જે ગીત ઉપસંહારથી યુક્ત હોય છે તે ઉપનીત ગુણ યુક્ત ગીત કહેવાય છે જે ગીત ફિલષ્ટ, વિરૂદ્ધ, અને લજજાસ્પદ પદાર્થ વાચક ન હોય અને અનુપ્રાસ યુક્ત હોય છે તે સોપચાર' ગીત કહેવાય છે. જે ગીતમાં વચનવિસ્તાર વધારે ન હોય એટલે કે જે ગીત સંક્ષિપ્ત અક્ષરે યુક્ત હોય, છે, તે “મિત” ગુણયુક્ત ગીત છે. જે ગીત સુશ્રાવ્ય શબ્દ અને અર્થવાળું હોય છે તે મધુર ગુગ યુક્ત ગીત કહેવાય છે. એવું જે ગીત હોય છે તેજ गीत पसाय डाय के जीतनी ३ मलिती मा प्रभारी छ-(समं अद्धसम चेव सम्वत्थ विसमं च यं, तिण्णि वित्तपयाराई चउत्थं नोवलगभइ) જે વૃત્તમાં ચારે ચરણમાં સમ અક્ષરે હોય છે તે “સમવૃત' છે જે વૃતમાં પ્રથમ-તૃતીય પાદમાં અને દ્વિતીય ચતુર્થ પામાં સમાન અક્ષર હોય છે તે
अ० १०३
For Private and Personal Use Only
Page #833
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ર
अनुयोगद्वारसूत्रे
वैषम्यं तद्द्वृत्तं विषमम् । एते त्रय एव वृत्तप्रकारा भवन्ति, चतुर्थ वृत्तं तु नोपलभ्यते । तथा - भणितयः भाषाः संस्कृताः प्राकृताश्च द्विविधा द्विप्रकारका एव आख्याताः= उक्ताः । एता ऋषिभाषिता अतएव प्रशस्ता भाषा बोध्याः । अत एव एताः स्वर मण्डले = षड्जादि स्वरसमूहे गीयन्ते ।। अत्र गीतविचारः प्रस्तुतः, अतः 'कीशी स्त्री कथं गायति ?' इति पृच्छति - 'केसी गाय' इत्यादिना - कीदृशी श्री मधुरं = मधुरस्वरेण गायति ? च= पुनः कीदृशी स्त्री खरं = खरस्वरेण रूक्षं= रूक्षस्वरेण च गायति ? कीदृशी स्त्री चतुरं चातुर्येण - गीतशास्त्रोक्तयथाविधि
-
जिस वृत्त में चारों ही पादों में अक्षरों की विषमता रहती है, वह 'विषमवृत्त ' है । ये तीन वृत्तों के प्रकार हैं और चतुर्थ प्रकार वृत्त का कोई नहीं है। (सक्कया पापया चैव दुहा भणिईओ आहिया । सरमंडलंमि गिज्जेते पसत्था इसि भासिया) तथा भणिति - भाषा-संस्कृत और प्राकृत के भेद से दो प्रकार की ही कही गई है। ये ऋषिजनों द्वारा भाषित हुई हैं, इसलिये इन्हें प्रशस्त भाषा जानना चाहिये । प्रशस्त भाषा होने के कारण ही ये दोनों प्रकार की भाषाएँ षड्ज आदि स्वर समूह में गाई जाती हैं। यहां पर गीत का विचार चल रहा है इसलिये पूंछा जा रहा है कि कैसी स्त्री किस प्रकार से गाती है ? इसी बात को सूत्रकार- अव प्रकट कर रहे हैं - (केसी गायइ महुरं) कैसी स्त्री गीत को मधुर स्वर से गाती है ? (केसी गायइ खरं च रुक्खं च) कैसी स्त्री गीत को स्वर स्वर से गाती है ? कैसी स्त्री गीत को रूक्षस्वर से गाती है ? (केसी गायइ चउरं ? केसी य विलंबियं दुतं केसी ?) कैसी स्त्री चतुराई અદ્ધ-સમવૃત્ત' છે તેમજ જે વૃત્તમાં ચારચાર ચરણેામાં અક્ષરાની વિષમતા રહે છે તે ‘ વિષમવૃત્ત' છે આ ત્રણે વૃત્તોના પ્રકાર છે એ શિવાય वृत्तनो थोथे। अार नथी (सक्कया पायया चेव दुहा भणिईओ आहिया । सरमंडलम गिज्जेते पसत्था इसिमासिया) तेमन अस्थिति-भाषा-संस्कृत મને પ્રાકૃતના લેટ્ઠથી એ પ્રકારની કહેવામાં આવી છે એ ઋષિએ વડે ભાષિત થયેલી છે એથી તેને પ્રશસ્ત ભાષા જાણવી જોઈએ એ પ્રશસ્ત ભાષા હોવા બદલ જ આ બન્ને જાતની ભાષાએ ષડ્જ વગેરે સ્વર સમૂહમાં ગવાય છે. અહી ગીત સંખ ́ધી પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે એથી આ પ્રમાણે પૂછવામાં આવી રહ્યું છે કે કઇ સ્ત્રી કેવી રીતે ગાય છે? એજ વાતને સૂત્ર२ वे अउट पुरे छे. (केसी गायइ महुर) देवी स्त्री मधुर स्वरे गीत गाय 9 ? (केसी गाय खरं च रुक्खं च ) ४४ श्री गीतने पर स्वरथी गाय छे ? दुध स्त्री रुक्षस्वरथी गीत गाय छे ? (केसी गायइ चउर ? केसी विलंबिय
For Private and Personal Use Only
Page #834
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् १९ स्वरविधानेन गायति ? कीदृशी च स्त्री विलम्बित-मन्थर (मन्द) स्वरेण गायति? कीदृशी स्त्री द्रुतं द्रुतस्वरेण गायति ? तथा-कीदृशी च स्त्री विस्वर-विकृतं स्वरं कृत्वा गायति ? उत्तरयति-'सामा' इत्यादिना । व्याख्या स्पष्टा । नवरं-पिङ्गलाकपिला । 'सप्तसीभरम्' इति यदुक्तम् , तत्र सप्त स्राः के ? इति दर्शयति'तंतीसम' इत्यादि-तन्त्रीसमम्-तन्त्री-वीणा, तस्याः शन्देन समतुल्यं मिलितं से अर्थात् गीत शास्त्र में कथित विधि के अनुसार स्वरविधान से गाती है ? कैसी स्त्री विलम्बित-मन्धर स्वर-से गाती है ? कैसी स्त्री दुतस्वर से गाती है ? (विस्सरं पुण केरिसी) और कैसी स्त्री विकृत स्वर से गाती है अर्थात् स्वर को विकृत कर गाती है ?
उत्तर-(सामा गायइ महुरं) श्यामा-पोडशवार्षिकी स्त्री मधुरस्वर से गाती है (काली गाय खरं च रुक्खंच) काली कृष्णरूपवाली स्त्री गीत को खर से और रूक्ष स्वर से गाती है । (गोरी गायह चउरं) गौरवर्णसंपन्नास्त्री गीत को चतुराई से गाती है । (काणा विलम्ब दुतंच अंधा) काणी स्त्री-एकाक्षी नारी गीत को मंद स्वर से गाती है। अंधी स्त्री गीत को द्रुतस्वर से गाती है । (विस्सरं पुण पिंगला) और जो कपिला-कपिल वर्ण वाली स्त्री होती है वह गीत को विकृत स्वर से गाती है । (तंतिसमं, तालसमं, पायसमं, लयसमं, गहसमंचनीससिऊस. सियसमं संचारसमं सरा सत्त) तंत्रीसम-तंत्री-वीणा के समान दत' केसी १) श्री यतुरताथी सट गीत थित विधि भुग સ્વરવિધાનથી ગાય છે? કઈ સ્ત્રી વિલંબિત-મસ્થર-સ્વરથી ગીત ગાય છે?
श्री द्रुततर २१२थी गीत आय छ ? (विस्सर पुण केरिसी) भने श्री વિકૃત સ્વરથી ગીત ગાય છે એટલે કે સવારને વિકૃત કરીને ગાય છે?
उत्तर-(सामा गायइ महुर) श्यामा-२७२० पाीि मेट है स नी श्री मधु२ २१२थी गीत गाय छे. (काली गायइ खरं च रुक्खं च) जी gu ३५वाणी-पानी -श्री १२ भने ३० २१२थी गाय छे. (गोरी गायइ चउर) गौरव सपना थेट भारी श्री चतुराया गीत गाय छे. (काणा विलम्ब दुतं च अंधा) stel sी-13 मinquil-श्री भई २५२थी गीत ॥4 छ मांधणी स्त्री त१२थी-Squथी-oila |य छे. (विस्सरं पुण पिंगला) અને જે કપિલા કપિલવવાળી સ્ત્રી હોય છે તે વિકૃત સ્વરથી ગીત ગાય છે. (तंतिसमं तालसमं, पायसम, लयसमं गहसमं च नीससिउससियसमं संचार सम' सरा सत्त)-तत्री सम-त्री वीए-श व भय ना स्वनी
For Private and Personal Use Only
Page #835
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८२०
अनुयोगद्वारसूत्र वा गेयम् । एवमग्रेऽपि गेयमिति संबन्धनीयम् । 'तालसमम्' इत्यारभ्य संचारसमम्' इत्यन्तं पदषट्कं पूर्व व्याख्यातम् । गेयस्वरयोरनर्थान्तरत्वादाह-'सत्त सरा' इति । इत्थं स्वरा बोध्या इति भावः। सम्पति समस्तं स्वरमण्डलं संक्षेपेणाहपहजादयः सप्त स्वरा विज्ञेयाः, ग्रामाश्च त्रयः, मूर्च्छनाश्च एकविंशतिः तता, तन्त्री, तान इति पर्यायाः भण्यन्ते, तत्र षडूजादिषु स्वरेषु प्रत्येकं सप्तभिस्तानमीयते इत्यतः सप्त तन्त्रिकायां वीणायामेकोनपश्चाशत्ताना भवन्ति । एवमेव एकतन्त्रिकायां त्रितन्त्रिकायां वा वीणायां कण्ठेनापि वा गीयमाना एकोनपश्चाशअथवा उसके साथ मिला हुआ जो स्वर आता है , वह तंत्री समस्वर है। इसी प्रकार से ताल सम आदि के साथ भी "गेय" इसका संबंध कर लेना चाहिये । गेय और स्वर में अर्थ भेद नहीं है । इसलिये गेय से यहां स्वर लेना चाहिये । इस प्रकार ये सात स्वर हैं । तालसम से लेकर संचारसम तक के ६ पदों की व्याख्या पहिले करदी गई है। (सत्तसरा तओ गामा मुच्छणा एकवीसई, ताणा एगूणपण्णासं सम्मत्तं सरमंडलं) इस प्रकार संक्षेपसे समस्तस्वर मंडल सातस्वर, तीन ग्राम इक्कीस मूर्च्छना और ४९ तान इस प्रकार से हैं । तता, तंत्री, तान, ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । षड्ज आदि सात स्वरों में से प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है। इसलिये सप्त तंत्रिका वाली वीणा में ४९ ताने होती हैं । इसी प्रकार एक तंत्रिका वाली अथवा त्रितंत्रिकावाली वीणा में कंठ से भी गाई गई ताने ४९ ही होती हैं । इस प्रकार सातસાથે મિશ્રિત થયેલે જે સ્વર છે તે “તંત્રીસમ સ્વર' છે આ પ્રમાણે तla-सम वगैरे भाट ५ 'गेय' शहना स सम य गेय અને સ્વરમાં અર્થભેદ નથી એટલા માટે ગેયથી અહી સ્વર લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે સ્વરો સાત છે “તાલ સમ”થી લઈને “સંચાર સમ” સુધીના છ पहानी व्याभ्या ५७मा ४२वाम मावी छे. (सत्तसरा तओ गामा मुच्छणा एकबीसई, ताणा एगूणपण्णासं सम्मत्तं सरमंडल) मा प्रमाणे मां समस्त १२. મંડળ-સાતસ્વર, ત્રણગામ, એકવીશ મૂન અને ૪૯ તાન-આ પ્રમાણે છે તતા તંત્રી, તાન, આ બધા પર્યાયવાચી શબ્દ છે ષડૂજ વગેરે સાત વમાંથી દરેકે દરેક સાત તાનથી ગવાય છે. એથી સસ તંત્રિકા યુક્ત વીણમાં ૪૯ તને હોય છે આમ એક તંત્રિકા યુક્ત વીણા અથવા ત્રિતંત્રિકાવાળી વીણામાં કંઠથી ગવાયેલ તાને પણ ૪ હોય છે આ પ્રમાણે સાત
For Private and Personal Use Only
Page #836
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
D
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम्
રં? देव ताना भवन्ति । इत्थं षड्जादिभिः सप्तभि नामभिः सर्वस्यापि स्वरमण्डलस्य ग्रहणादिदं सप्तनामेत्युच्यते । इदमेवोपसंहरन्नाह-'तदेतत् सप्तनामे वि।सु. १६७॥
अथाष्टनाम निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं अटुनामे ? अटुनामे अट्टविहा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहा-निद्देसे पढमा होइ, बिइया उवएसणे। तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे॥१॥ पंचमी य अवायाणे, छट्री सस्सामिवायणे। सत्तमी सपिणहाणत्थे, अट्ठमाऽऽमंतणी भव॥२॥ तत्थ पढमा विभत्ती, निदेसे सो इमो अहं वत्ति । बिइया पुण उवएसे भण कुणसु इमं व तंवत्ति ॥३॥ तइया करणंमि कया, भणियं च कयं च तेण व मए वा। हंदि णमो साहाए, हवइ चउत्थी पयामि॥४॥ अवणय गिण्ह य एत्तो, इउत्ति वा पंचमी अवायाणे। छटी तस्स इमस्त व गयस्स वा सामिसंबंधे॥५॥ हवइ पुण सत्तमी तं, इमंमि आहारकालभावे य । आमंतणे भवे अट्ठमी उ जहा हे जुवाणत्ति॥६॥ से तं अट्ठणामे सू०१६॥
छाया-अथ किं तत् अष्टनाम ? अष्टनाम-अष्टविधा वचनविभक्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निर्देशे प्रथमा भवति, द्वितीया उपदेशने । तृतीया करणे कृता, चतुर्थी नामों से समस्त भी स्वरमंडल का ग्रहण हो जाता है। इसलिये यह सतनाम ऐसा कहा जाता है। (सेत्तं सत्तनामे) इस प्रकार से यह सतनाम है । ॥सू० १६७ ॥
अब सूत्रकार अष्ट नाम का निरूपण करते हैं
"से कि तं अट्ठनामे" इत्यादि । નામેથી આખા સ્વરમંડળનું ગ્રહણ સમજવું જોઈએ એથી “સતનામ આમ उपाय छे. (सेत सत्तनामे) मा प्रभार मा सानाभा छे. ॥सू०१६७॥
હવે સૂત્રકાર અષ્ટ નામનું નિરૂપણ કરે છે– " से किं तं अटुनामे" त्याल
For Private and Personal Use Only
Page #837
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
રૂ
अनुयोगद्वारसूत्रे संपदापने॥१॥ पञ्चमी च अपादाने, षष्ठी स्वस्वामिवाचने । सप्तमी सन्निधानार्थे, अष्टमी आमन्त्रणी भवेत् ॥२॥ तत्र प्रथमाविभक्तिः, निर्देशे सः अयम् अहं वा इति। द्वितीया पुनरुपदेशे भण कुरु इदम् वा तत् वा इति ॥३॥ तृतीया करणे कृता
शब्दार्थ-(से कि त अनामे) हे भदन्त ! वह अष्ट नाम क्या है ? (अट्ट बिहा वयणविभत्ती पण्णत्ता)
उत्तर-आठ प्रकार की जो वचनविभक्ति है वह अष्ट नाम है। जो कहे जाते हैं, वे 'वचन' हैं। तथा कर्ता, कर्म आदिरूप अर्थ जिसके द्वारा प्रकट किया जाता है वह 'विभक्ति' है। वचनों-पदों, की जो विभक्ति है वह 'वचनविभक्ति' है। ऐसा तीर्थंकर एवं गणधरों मे कहा है । वचनविभक्ति से यहां पर सुषन्त रूप प्रथमा आदि विमक्तियों को कहनेवाली वचनविभक्ति गृहीत हुई है। तिङ्गन्तरूप आख्यात विभक्ति नहीं। (तंजहा) वचनविभक्ति के आठ प्रकार ये हैं-(निद्देसे पढमा होइ) (प्रातिपदिक अर्थमात्र का प्रतिपादन करना इसका नाम निर्देश है । इस निर्देश में "सु औ, जन" यह प्रथमा विभक्ति होती है। (उवएसणे पिइया) किसी एक क्रिया में प्रवर्तन होने के लिये इच्छा के उत्पादन करने में “अम् औटू शखू" यह द्वितीया विभक्ति होती है। " उवएसण" यह पद उपलक्षण है। इससे "ग्रामं गच्छति" इत्यादि पद में इसके विना भी द्वितीया विभक्ति होती है। (करणम्मि
शा-(से किं तं अटुनामे) BRT! An मटनाम शु.छ? (अट्ट विहा वयणविभत्ती पण्णत्ता.)
ઉત્તર-આઠ પ્રકારની જે વચન વિભક્તિ છે તે અણનામ છે. જે કહેવામાં આવે છે, તે “વચન છે તેમજ કર્તા, કર્મ વગેરે ૫ અર્થ જેના વડે પ્રકા કરવામાં આવે છે તે “વિભક્તિ છે. વચને-પદેની જે વિભકિત છે તે વચનવિભકિત છે. આમ તીર્થકરેએ અને ગણુધરેએ કહ્યું છે વચનવિભકિતથી અહીં સુબખ્ત રૂપ પ્રથમ વિભક્તિઓને પ્રકટ કરનારી વચન વિભકિત ગૃહીત થયેલી છે તિન્ત રૂપ આખ્યાત વિભકિત નથી (ગા) વચન વિભકિતના band | प्रभा छ. (निदेसे पढमा होइ) प्रातिप6ि3 2 भात्रनु
प्रतिपादन ४२ तेनु नाम निश छे. मानिसमा 'सु औ जसू' मा प्रथम वित य छे. (उत्रएसणे बिइया) १४ मे या पतित था भाटे ७२छ। उत्पन्न ४२१ामा 'अम्, औद् शस्' 1 द्वितीय nिlsdय छे. "अवएसण" ५६ Gaa छ अनाथी "मामं गच्छति" वगैरे पहीमा
For Private and Personal Use Only
Page #838
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम् भणितं च कृतं च तेन वा मया वा। हन्दि नमः स्वाहायै भवति चतुर्थीपदाने॥४॥ अपनय गृहाण च अस्मात् इतः इति वा पञ्चमी अपादाने । षष्ठी तस्य अस्य व गतस्य वा स्वामिसम्बन्धे॥५॥ भवति पुनः सप्तमी सा अस्मिन् आधारकालभावे च । आमन्त्रणे भवेत् अष्टमी तु यथा हे युवन् इति॥६॥ तदेतद् अष्टनामा|म.१६८॥ टीका-'से किं तं' इत्यादि--
अथ किं तत् अष्टनाम ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-अष्टनाम-अष्टविध नाम-अष्टनाम, तथाहि-अष्टविधा अष्टमकारा वचनविभक्तिः-उच्यन्ते इति - वचनानि-पदानि, विभज्यतेप्रकटी क्रियते कर्तृकर्मादिरूपोऽर्थोऽनयेति विभक्तिः, वचनानां विभक्तिः-वचनविभक्तिः प्रज्ञप्ता कथिता तीर्थकरगणधरैः। वचनविभतस्या कया) करण में "टा, भ्याम् भिस्" यह तृतीया विभक्ति होती है। (संपयावणे चउरथी) संपदान में चतुर्थी के, भ्याम् भ्यम्-यह विभक्ति होती है। (अवायाणे पंचमीच) अपादान में उसि भ्याम्, भ्यस, "यह पंचमी विभक्ति होती है। (सस्सामिवायणे छट्ठी) स्व स्वामी संबंध प्रतिपादन करने में " उम् ओस् आम्" यह षष्ठी विभक्ति होती है। (सण्णिहाणत्थे सत्समी) सन्निधान अर्थ में " डि ओम् सुप्" यह सप्तमी विभक्ति होती है। (आमंतणी अट्ठमा भवे) सन्मुख करने के अर्थ में संबोधनरूप आठवीं विभक्ति होती है। तात्पर्य कहने का यह है कि-'यहां पर सूत्रकार ने अष्ट नाम क्या है ? यह कहा है। नाम के विचार का प्रस्ताव होने से प्रथमादि विभक्त्यन्त नाम का ही ग्रहण किया गया है। यह नाम विभक्ति के भेद से आठ
-
सेना १५२ ५५ द्वितीय विमत डाय छे. (करणम्मि तइया कया) ४२९मां "टा, भ्याम्, मिस्" . तृतीय nिlsd डाय छ (संपयावणे चउत्थी)
हानमा यतुर्थी “के, भ्याम्, भ्यस् " मा विमति डाय छे. (अवायाणे पंचमी च) पाहानमा " कसि, भ्याम् भ्यसू," An पांयमी nिlsd डेय (सस्वामिवायणे छट्ठी) २१ स्वामी समय प्रतिपान ४२वामी उस ओस
आम्' मा पठी विन डाय छे. (मण्णिहाणत्थे मत्तमी) सन्निधान सभा 'किओस. सर' मा सभी nिlsd डाय छ (आमंतणी अमामवे) અભિમુખ કરવાના અર્થમાં સંબોધન રૂપ આઠમી વિભકિત હોય છે મતલબ આ છે કે “અહી સૂત્રકારે અણનામ એટલે શું? આ કહ્યું છે નામવિચાર વિષે જ પ્રસ્તાવ હવા બદલ પ્રથમા વગેરે વિભક્ત્યંત નામનું જ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે આ નામ વિભકિત ભેદથી આઠ પ્રકારના હોય છે. પ્રથમ
For Private and Personal Use Only
Page #839
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८२४
अनुयोगद्वार क्तिस्तु नामविभक्तिः सुबन्तरूपा प्रथमादिका बोध्या, न तु तिङन्तरूपा-आख्यातविभक्तिः। अष्टप्रकारां वचनविभक्तिमेवाह-तद्यथा-निर्देशे-प्रातिपदिकार्थमात्रस्य प्रतिपादनं निर्देशस्तस्मिन् 'सु औ जस्' इति प्रथमा विभक्तिर्भवति । उपदेशनेअन्यतरक्रियायां प्रवर्तनेच्छोत्पादने 'अम् औट् शस्' इति द्वितीया विभक्ति भवति । उपदेशनमित्युपलक्षणम् , तेन ग्राम गच्छतीत्यादौ तदन्तरेणापि भवति । करणे 'टा भ्यां भिम्' इतिवृतीया विभक्ति भवति । अत्र करण शब्दस्तन्त्रेण निर्दिष्टः। तेनात्र कर्तरि-क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितेऽर्थे देवदत्तादौ करणेक्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारके च तृतीयाविभक्ति भवति । करोतीति करणः, 'कृत्य. ल्युटो बहुल' मिति बाहुलकात् कर्तरि ल्युट्। क्रियतेऽनेनेति करणम् , करणे प्रकार का होता है । प्रथमा विभक्ति द्वितीया विभक्ति आदि के भेद से विभक्तियां आठ हैं। इनमें प्रातिपादिकार्थ मात्र के प्रतिपादन में प्रथमा विभक्ति होती है। संस्कृत में कारक विभक्तियों को प्रकट करने के लिये सु औ जस् आदि २१ विभक्तियां-प्रत्यय, हैं। ये सुपर प्रत्यय कह लाते हैं । ये सुप्प्रत्यय जिन शब्दों में जुड़ते हैं उन्हें 'पातिपदिक' कहते हैं। सुप्प्रत्यय जुड़ने पर ही प्रातिपादिक शब्दों का वाक्य में प्रयोग हो सकता है। करण में तृतीया विभक्ति होती है। ऐसा जो कहा है वह तंत्र ( १ ) से कहा है। इसलिये तृतीया विभिक्तिकर्ता मेंक्रिया में स्वतंत्ररूप से विवक्षित देवदत्त आदि रूप अर्थ में-एवं करण में-क्रिया की सिद्धि में प्रकृष्टतम उपकारक में-होती है । "कृत्यल्युटो बहुलम्" इस सूत्र के अनुसार कृत्य और ल्युट्प्रत्यय कर्ता और વિભક્તિ દ્વિતીયા વિભક્તિ વગેરેના ભેદથી વિભકિતઓ આઠ છે આમાં ફકત પ્રાતિ પદિકાર્થના પ્રતિપાદનમાં પ્રથમ વિભક્તિ હોય છેસંસ્કૃતમાં કારક વિભકિતઓને પ્રકટ કરવામાં માટે સુ, ઔ, જસ વગેરે ૨૧ વિભકિતના પ્રત્ય છે.છે એ સુપ પ્રત્ય કહેવાય છે એ સુપ પ્રત્યે જે શબ્દમાં ઉમેરાય છે તે પ્રાતિપદિક કહેવાય છે સુપ પ્રત્યય ઉમેરાયા પછી જ પ્રાતિપદિક શબ્દને વાક્યમાં પ્રવેગ થઈ શકે છે. કરણમાં તૃતીયા વિભક્તિ હોય છે, એવું જે કહેવામાં આવ્યું છે તે તંત્ર (સિધ્ધાંત)થી કહેવામાં આવ્યું છે એટલા માટે તૃતીયા વિભકિત કર્તામાં, ક્રિયામાં સ્વતંત્ર રૂપથી વિવક્ષિત દેવદત્ત વગેરે રૂપ અર્થમાં અને કરણમાં ક્રિયાની સિદ્ધિમાં પ્રકૃષ્ટતમ ઉપકારક હોય છે. 'कृत्यल्युटो बहुलम्' मा सूत्र भुराम 'कृत्य' भने 'यु' प्रत्यय ४il मन १२६१ सन्नमा हाय छ । प्रमाणे 'करोति इति करणम्, क्रियते
For Private and Personal Use Only
Page #840
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम् ल्युट् । संप्रदापने-संपदाने-दानस्य कर्मणा योऽभिप्रेतस्तस्मिन् ‘डे भ्याम् भ्यस् । इति चतुर्थी विभक्ति भाति । अपादाने-अपायावधिभूते 'उसि भ्याम् भ्यस्' इति पश्चमी विभक्ति भवति । स्वस्वामिवाचने-स्वम्-भृत्यादि, स्वामी-राजादिस्तयो"वाचने-तत्सम्बन्धप्रतिपादने 'डाम् ओम आम्' इति षष्ठी विभक्ति मवति । सन्निधानार्थे वाच्ये 'डि ओस् सुप्' इति सप्तमी विभक्ति भवति। तथा-अष्टमी संबोधनविभक्तिः आमन्त्रणी अभिमुखी करणार्या भवति । इत्थं सामान्येनोक्त्वा सम्पति सोदाहरणमाह-निर्देशे प्रथमा, विभक्ति भवति, यथा-स: अयम् अहं वेति। उपदेशे पुनः द्वितीया विभक्ति भवति । यथा-'भण कुरु इदं वा तद्वेति इदं प्रत्यक्ष यत् श्रुतं तद् भण, इदं प्रत्यक्ष कार्य कुरु, तत्-परोक्ष वा यत् श्रुतं तद् करण इन दोनों में होते हैं । इस प्रकार करोति इति करणः क्रियतेऽनेनेति करणम् "यहां दोनो जगह ल्युट प्रत्यय हुआ है । दान रूप क्रिया के कमें का जिसके साथ संबन्धकर्ता को इष्ट हो उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। अपाय की अवधिभूत पदाथे का नाम अपादान है। इसमें पंचमी विभक्ति होती है। स्त्रस्वामी संबंध में सेव्य सेवक आदि भाव लिया गया है। स्व का तात्पर्य सेवक, भृत्यादि से है और स्वामी का सेव्य राजादि से। समिधान और आमन्त्रणी इन शब्दों का अर्थ स्पेंष्ट है। इस प्रकार सामान्य से कह कर अब सत्रकार इस अष्ट नाम को उदाहरण देकर समझाते है-(तस्थ निद्देमे पढमा विभत्ती) निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है-जैसे (सो इमो अहं वत्ति) वह यह अथवा में। (विड्या पुण उवएसे) उपदेश में द्वितीयाविभक्ति होती है जैसे-(भण कुणसु इमं व तं वत्ति) जो तुमने प्रत्यक्ष में सुना है, उसे कहो, इस सामने के काम को करो, जो परोक्ष में तुमने सुना है उसे कहो अथवा उस अनेन इति करणम् ' मी मन्ने स्थाने युट प्रत्यय ये छ. हान३५ ક્રિયાના કર્મને જેની સાથે સંબંધ કર્તાને ઈષ્ટ હોય તેમાં ચતુર્થી વિભક્તિ થાય છે. અપાય (જુદા થવું)ની અવધિભૂત પદાર્થનું નામ અપાદાન છે આમાં પંચમી વિભકિત થાય છે સ્વ સ્વામી સંબંધમાં સેવ્ય સેવક વગેરે ભાવ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે સ્વનું તાત્પર્ય સેવક ભૃત્ય વગેરેથી છે અને સ્વામીનું સે 'રાજા વગેરેથી સન્નિધાન અને આમન્ત્રણ આ સંબોધન શબ્દને અર્થ સ્પષ્ટ છે.
આ પ્રમાણે સૂત્રકાર સામાન્ય રૂપમાં ઉલેખ કરીને હવે આ અષ્ટनाभन साहा २६ सभा छे. (तत्थ निदेसे पढमा विभत्ति) निशमा प्रथम विnlsdय छे. रेभ (सो इमो अहं वत्ति) 'ते,'' ' '' (बिइया पुण उवएसे) उपदेशमा भी विमति डाय छे. २४ (भण कुण इम व तवत्ति) २ तमे प्रत्यक्षमा सामन्यूछे, तर ४, मा सामेनु म
म. १०४
For Private and Personal Use Only
Page #841
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८२६
अनुयोगद्वारसूत्रे
भण, तत्-परोक्ष कार्य वा कुरु इति । तृतीया विभक्तिः करणे - कर्तरिकरणे च भवति । यथा - भणितं च कृतं च तेन वा मया वेति कर्त्तरीदमुदाहरणम् । करणे तु 'रथेन याति' इत्यादिकं स्वबुद्ध्या विभावनीयम् । संप्रदाने चतुर्थी विभक्ति भवति, यथा - मुनये दानं ददाति । नमः शब्दयोगेऽपि चतुर्थी त्रिभक्ति र्भवति, यथा'हन्दि ! नमो जिनेश्वराय' इति । 'इन्दि' इति कोमलामन्त्रणे । अपादाने पंचमी भवति, यथा- 'उपनय गृहाण एतस्मादितो वे 'ति । स्वामिसम्बन्धे = स्वस्वामि भावसंबन्धे वाच्ये षष्ठी भवति, तथा - 'गतस्य तस्य, गतस्य अस्य वा इदमस्ति '
परोक्ष कार्य को करो । ( तइया करणंमि- कया) तृतीया विभक्ति करण कर्ता और करण में होती हैं जैसे - ( भणियं च कथं च तेण मएवा) उसने और मैंने कहा अथवा उसने और मैंने किया । यह उदाहरणकर्त्ता में हैं। करण में उदाहरण "वह रथ से जाता है" आदि हैं। ऐसे उदाहरण अपनी बुद्धी से और भी कल्पित करलेना चाहिये। (चउथी संपघाणंमि हवह) चतुर्थी विभक्ति संप्रदान में होती हैजैसे (हंदि णमो सहाए) हन्दि | जिनेश्वर के लिये नमस्कार हो, अग्नि के लिए स्वाहा हो (यहां पर 'हन्दि ' यह शब्द कोमलामंत्रण में आया है। इसी प्रकार से 'दा' धातु के योग में चतुर्थी होती है - जैसे वह मुनि के लिये दान देता है । (अवायाणे पंचमी) अपादान में पंचमी होती हैंजैसे (अवणय गिव्ह य एतो इ उत्तिवा) इससे दूर करो अथवा इससे खेलो (सामि संबंधे) जहां स्व-स्वामी संबन्ध वाक्य होता है यहां पर 'पछी विभक्ति होती है, जैसे (गयस्स तस्स गयस्स इमस्स व ) गये
हुए કરા જે પરાક્ષમાં તમે સાંભળ્યું છે તેને કહે! અથવા તે પરાક્ષકામને કરા. ( तइया करणंमि कया) त्रीविभङित १२ उत्ताने ४२मां होय छे प्रेम (भणिय' च कथं तेण मएवा) तेथे अने में उद्धुं अथवा तेथे अने में उयु' मा उठाહેરણુ કોંમાં છે કરણમાં ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે-તે રથથી જાય છે વગેરે છે એવા उढाढरथे। पोतानी शुद्धिथी उल्पित उरी सेवा ले ये (चउत्थि संपयामि हवइ) यतुर्थी विभक्ति सप्रदानभां होय छेम 3 (हंदि णमो सहाए) उन्हि ! જિનેશ્વર માટે મારા નમસ્કાર અગ્નિ માટે સ્વધા અહીં હૅન્કિં' આ શબ્દ કામલામ ત્રણ માટે આવે છે આ પ્રમાણે ‘હૈં' ધાતુના ચેગમાં ચતુર્થાં होय हे प्रेम है ते भुनि भाटे हान माये छे. (अवायाणे पंचमी) अपाहानभां पंचमी होय प्रेम है (अवणय गिव्ह य एत्तो इ उत्तिवा) याने दूर ४२ अथवा मेनाथी सर्व सेो. (सामि सबंधे) ज्यां स्वस्वाभि संबंध वाय्य होय त्यां षष्ठी विलति थाय छे प्रेम (गयरस तस्स गयरस इमस्सव ) गयेक्ष
For Private and Personal Use Only
Page #842
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम्
I
इति | आधारकालभावे = आधारे काले भावे च सप्तमी भवति, यथा- 'तत् अस्मि' न्निति, अस्मिन् कुण्डादौ तद् वदरादिकं तिष्ठति इत्यर्थः । अत्राधारे सप्तमी बोध्या । काले यथा - 'मधौ रमते' भावे तु - ' चारित्रेऽवतिष्ठते' इति । आमन्त्रणे तु अष्टमी विभक्ति भवति । यथा - 'हे युव' - न्निति । अत्र च नामविचारप्रस्तावाद प्रथमादि विभक्त्यन्तं नामैत्र गृह्यते । तथा चाष्ट विभक्ति भेदादष्टविधमिदं भवति । न च प्रथमादि विभक्तयन्तनामाष्टकमन्तरेणाऽपरं नामास्ति, अतोऽनेन नामाष्टकेन सर्वस्य वस्तुनोऽभिधानद्वारेण सङ्ग्रहादष्टनामेत्युच्यते इति भावार्थः । एतदुष संहर माह व देवदष्टनामेति ।। ० १६८ ॥
For Private and Personal Use Only
فران
उसको अथवा गये हुए इसकी यह वस्तु है । (आहारकालभावे य सत्तमी पुण हव) आधार में, काल में और भाव में सप्तमी विभक्ति होती है । जैसे - तं इमम्मि ) इस कुण्ड आदि में बदरादि फल हैं। यह आधार में सप्तमी विभक्ति को दृष्टांत है । काल में सप्तमी विभक्ति का हृष्टान्त " मधौ रमते " कोयल वसन्त में आनंद पाती है, यह है । भाव में सप्तमी विभक्ति का दृष्टान्त - " चारित्रेऽवतिष्ठते " यह साधु अपने चारित्र में उहरा हुआ है - यह है । (आमंतणे अट्ठमी भवे) आमंत्रण अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है। (जहा) - जैसे- (हे जुवाणन्ति) ये युवन्तरुण ! यहां पर नाम के विचार का प्रस्ताव होने से प्रथमादि विभक्त्यन्त नाम ही ग्रहण किया गया है। इस प्रकार आठ प्रकार की विभ कियों के भेद से नाम आठ प्रकार का होता है । प्रथमादि विभक्त्यन्त नामाष्टक के विना और दूसरा नाम नहीं है । इसलिये इस नामाष्टक तेनी अथवा गयेस यानी भावस्तु छे. (आहार कालभावे य सत्तमी पुण हवइ) આધારમાં, કાળમાં અને ભાવમાં સપ્તમી વિભકિત હાય છે જેમ કે-(R' इमम्मि ) या झुंड वगेरेमां हर वगेरे इणेो छे मा आधारमा सप्तमी विभ तिनुं उदाहरणु छे हासभां सप्तभी विलतिनु उदाहरण " मधौ रमते " ક્રાયલ વસતમાં આનંદ માણે છે ભાવમાં સપ્તમી વિભકિતનું ઉદાહરણ “ चारित्रेऽवतिष्ठते " मा साधु पोताना यारित्रमां ४ स्थिर छे. (आमंतणे अट्टमी) आमंत्रथु अर्थभां भी विलति होय छे. (जहा) प्रेम (हे जुवागत्ति ! ) हे युवन् ! तरु ! हीं नाभवियार प्रस्तावने सीधे प्रथमा कोरे વિભર્યંત નામ જ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે આ પ્રમાણે આઠ પ્રકારની વિભકિતઓના ભેદથી નામ આઠ પ્રકારના હાય છે પ્રથમા વગેરે વિભત્સત
Page #843
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२८.
अनुयोगद्वारसूत्र अथ नवनाम निर्दिशति
मूलम्-से किं तं नरनामे ?, नवनामे-णव कचरसा पण्णत्ता, तं जहा-वीरो सिंगारो अब्भुओ य रोदो य होइ बोद्धव्यो। वेलणओ बीभच्छो, हासो कलुणो पसंतो य॥१॥सू०१६९॥ : छाया-अथ किं तत् नव नाम ? नवनाम-नव काव्यरसाः प्रज्ञप्ताः,
पथा-चीरः शृङ्गारः अद्भुतश्च रौद्रश्च भवति बोद्धव्यः। वीडनको बीभत्सो हास्यः; करुणः प्रशान्तश्च ॥ १॥मू० १६९॥ से समस्तवस्तुओं के कथन का संग्रह हो जाता है-अतः यह अष्ठनाम ऐसा कहा गया है। (सेतं अट्ठणामे) इस प्रकार यह अष्ट नीम है।॥ सू० १६८ ॥
अब सूत्रकार नव नामका कथन करते हैं
"से कि तं नवनामे ?" इत्यादि । . शब्दार्थ-(से किं तं नव नामे ? ) हे भदन्त ! वह नव प्रकार का नाम क्या है ? प.उत्तर-(नव नामे) नव नाम इस प्रकार से है-(णव कव्वरसा पण्णत्ता) काव्य के जो नौ रस हैं, वे ही नव नाम रूप से प्रज्ञप्त हुए हैं। (तं जहा) वे नौरस ये हैं-(वीरो सिंगारो, अब्भुओ य रोदो य होई बोद्धव्यो। बेलजो बीभच्छो हासो कलुणो पसंतोय) वीररस, शृंगाररस, अद्भुतरस रौद्ररस, वीडनकरस, बीभत्सरस, हास्यरस, करुणरस, और प्रशान्तरस। રામાષ્ટક સિવાય બીજું નામ નથી એટલા માટે આ નામાષ્ટકથી બધી વસ્તુઓને सड य य छे. मेथी | मटनाम माम अपामा भाव्यु छ (से त भदृणामे) माम मा भानामे छे. सू०११८॥
હવે સૂત્રકાર નવ નામનું કથન કરે છે–“से कि त नवनामे ?" त्याशहाथ-(से किं तनवनामे ) 3 महन्त ! तेनानु नाम शुछ?
उत्तर-(नवनामे) नर नाम मा प्रमाणे छे. (णव कबरसा पण्णत्ता) ४०यना २ न१ २से छे ते न नामथा प्रज्ञा ये छ. (तंजहा) ते नव नामी मा प्रभार छ. (वीरो सिंगारो, अब्भुओ य रोदो य होइ बोद्धव्यो। वेलण) बीभन्छो हासो कलुणो पसंतो य) वी२२स, शृ॥२२स, मसुतरस, रौद्ररस, ત્રાડનકરસ, બીભત્સરસ, હાસ્યરસ, કરુણરસ અને પ્રશાન્તરય.
For Private and Personal Use Only
Page #844
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६९ नवनामनिरूपणम् , टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ किं तत् नव नाम ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-नवनाम-नवविधं नवनाम-नवसंख्यकाः काव्यरसा:-कवेः कर्म काव्यम्, रस्यन्ते-अन्तरात्मनाऽनु. भूयन्ते इति रसाः, तत्तत्सहकारि कारणसामीप्यात्समुद्भूताश्चित्तोत्कर्षविशेषा इत्यर्थः, उक्तं च--
"बाह्यार्थालम्बनो यस्तु, मल्लसो मानसो भवेत् ।
स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षों रसः स्मृतः॥" इति। -काव्ये समुपनिबद्धा रसाः काव्यरसाः प्रज्ञप्ताः कथिताः। तानेवाह-वीरः शृङ्गारः' इत्यादिना-वीरयति-विक्रमयुक्तं करोति त्यागतपः-कर्म शत्रनिग्रहेषु प्रेरयति जनमिति वीर:-उत्तम प्रकृति पुरुष-चरितश्रवणादि हेतु समुद्भूतो दाना. _ कवि के कर्मका नाम 'काव्य' है । अन्तरात्मा से जिनका अनुभव किया जाता है उनका नाम रस है । ये रस तत्तत्सहकारी कारणों की समीपता से चित्तमें जो उत्कर्ष विशेष उत्पन्न होते हैं उनरूप होते हैं। कही भी है-“बाह्यार्थ इत्यादि-बाह्यार्थ के अवलम्बन से जो मानसिक उल्लास होता है वह 'भाव' है। इस भाव का उत्कर्ष रस है। काव्य मे उपनिषद्ध हुए रस काव्यरस शब्द के वाच्यार्थ हैं । जो रस मनुष्य को विक्रम युक्त करता है-अर्थात् त्याग में शत्रुओं के निग्रह करने में प्रेरित करता है-वह वीररस है । तात्पर्य कहने का यह है कि-रस का जो वीर यह वी शेषण है वह अन्यरसों की अपेक्षा इसमें यही विशेषता प्रकट करता है, कि इसरस के सद्भाव में त्याग में तपश्चरण में, और कर्मरूप शत्र के निग्रह करने में विक्रमयुक्त आत्मपारिणाम होता કવિકર્મ કાવ્ય કહેવાય છે. અન્તરાત્માથી જે અનુભવાય છે તે રસ કહેવાય છે એ રસે તત્તત્સહકારી કારણોની સમીપતાથી ચિત્તમાં જે ઉત્કર્ષ વિશેષ ઉત્પન્ન કરે छ. ते अनु३५ सय छे ४धु ५५ छे - " बाह्यार्थ इत्यादि-" माहाना અવલંબનથી જે. માનસિક ઉલ્લાસ હોય છે તે “ભાવ” છે. તે ભાવને ઉત્કર્ષ રસ છે કાવ્યમાં ઉપનિબદ્ધ થયેલ રસ કાવ્ય રસ શબ્દોને વાચ્યાર્થ છે જે રસ માણસને વીરત્વપૂર્ણ કરે છે એટલે કે ત્યાગમાં, તપમાં અને કર્મરૂપ શત્રુઓના નિગ્રહ કાર્યમાં પ્રેરિત કરે છે તે વીર રસ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે રસનું જે વીર વિશેષણ છે તે બીજા રસ કરતાં આમાં એજ વિશેષતા પ્રકટ કરે છે કે આ રસના સદૂભાવમાં, ત્યાગમાં, તપશ્ચર૭માં અને કર્મરૂપ શત્રુનિગ્રહમાં વીરત્વપૂર્ણ આત્મપરિણામ હોય છે. અને
For Private and Personal Use Only
Page #845
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८३०
अनुयोगद्वारसूत्र उत्साहप्रकर्षात्मको रसः । रस इति सर्वत्र योजनीयः ॥२॥ शृङ्गारः शृ-आधान्यम् इति-गच्छतीति-शृङ्गारः । अतएव
"शृङ्गार-हास्यकरुण,-रौद्र-वीर भयानकाः ।
बीभत्साऽद्भुतशान्ताच, नव नाटये रसाः स्मृताः" । इत्यत्र शृङ्गारस्यैव प्रथममुपादानं कृतम्। अत्र तु वीररसस्य प्रथमत उपादानम् । अत्रायं हेतुः-त्यागतपःकर्मनिग्रहगुणो वीररसे भवति । अतोऽस्य सर्वरसप्रधानत्वम् । उक्तं च-"त्यागेन कर्ममलमेति लयं समस्तं, त्यागेन निर्मलतरत्वमुपैति जीवः । त्यागेन केवलमवाप्य समेति सिद्धिं, त्यागो गुणो गुणशतादधिको मतो मे"॥१॥ है। और वह परिणाम उस मनुष्य को उस ओर बढने के लिये प्रेरणा देता है। इस प्रकार के परिणाम की-उद्भूति के कारण उत्तम प्रकृतिवाले सत्पुरुषों के चरित्र श्रवण वगैरह हैं। इसलिये यह रस दानादिको में उत्साह का प्रकर्ष होने रूप है 'रस शब्द का संबन्ध सर्वत्र वीर, शृंगार आदि के साथ लगा लेना चाहिये " शृंगप्राधान्यं इर्यति गच्छति इति शृंगारः " जो रस प्रधान रूप से विषयों की ओर प्रेरित करता है वह रस शृंगार है। इसलिये-"श्रृंगार हास्य-करुण" इत्यादि श्लोक में इस शृंगार रसका प्रथम उपादान किया गया है। परन्तु यहां सूत्र में वीररस का प्रथम पाठ रखा है सो उसका कारण यह है कि लोग में, तप में एवं कर्मनिग्रह करने में प्रेरणा देना रूप जो गुग है वह एक इस वीररस में है। इसलिये इसमें सर्व रसों की अपेक्षा प्रधानता है कहा भी है " त्यागेन इत्यादि ". તે પરિણામ તે માણસને તે તરફ આગળ વધવામાં પ્રેરણા આપે છે આ જાતના પરિણામની ઉદ્બતિમાં ઉત્તમ પ્રકૃતિ (સ્વભાવવાળા) સંતના ચરિત્ર શ્રવણ વગેરે જ કારણ છે. એટલા માટે આ રસ દાન વગેરેમાં ઉત્સાહના...' માટે છે વીર, શગાર વગેરે રસની સાથે પણ રસ શબ્દને સંબંધ બધે
न(भंग-प्राधान्यं इयति गच्छति इति शृंगार:-रे २ प्रधानता विषय त२३ वाणे ते २५ ॥२ छ. मेथी . “शृंगारहास्यकरण'
વગેરે કકમાં આ શૃંગાર રસનું સૌથી પહેલા ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. પણ અહી સૂત્રમાં વીરરસને પાઠ પહેલાં રાખવામાં આવ્યો છે. તેનું કારણ એ છે કે લોકોને તપ અને કમનિગ્રહ કરવામાં જે પ્રેરણાત્મક ગુણ હોય છે તે આ ફક્ત વીરરસમાં જ હોય છે. એટલા માટે આમાં બધાં सनी मपेक्षा धान्य छे. युं ५५ ३ " त्यागेन इत्यादि " त्यायी
For Private and Personal Use Only
Page #846
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६९ नवनामनिरूपणम् इति, 'परलोकातिगं धाम तपः श्रुतम्' इति च । तपः श्रुतं चे त्यपि मोक्षमापकार त्यर्थः मोऽत्र वीररसस्य प्रथममुगदानम् ॥२॥ अद्भुतः-श्रुतं शिल्पं त्यागतप शौर्यकर्मादि वा यस्य सकल ननातिगमस्ति, तदेवंविधमपूर्व किमपि वस्तु अद्भुतमि त्युच्यते । तदर्शनश्रवणजो रसोऽप्युपचाराद विस्मयरूपोऽदभुतः॥३॥ रौद्रः रोद यति-अतिदारुणतया अणि मोचयतीति रौद्रम्-शत्रुजन-महारण्य-गाढतिमि रादि, तदर्शनाशुद्भवो विकृताध्यवसायरूपो रसोऽपि रौद्रः ॥४॥ ब्रीडयतिस्याग से कर्मरूप मैल विलय-विनाश-को प्राप्त होता है, त्याग से जीर निर्मलता को प्राप्त करता है, त्याग से ही केवलज्ञान को पाकर के आत्म सिद्धि को पाता है। इसलिये सैंकडों गुणो से अधिक एक त्याग गुण माना गया है। तथा-"परलोकातिगं धाम तपः श्रुतम् " अर्थात् ता
और श्रुत ये भी मोक्ष को प्राप्त करानेवाले हैं" इसलिये यहां सूत्र धीर रस का सर्व प्रथम उपादान किया गया है। श्रुत, शिल्प, अथव स्याग, तप, शौर्य कर्म आदि जिसके सकल जनों की अपेक्षा अधिक इस प्रकार की वह कोई भी अपूर्व वस्तु अद्भुत कहलाती है। उस अपूर्ववस्तु के दर्शन से या श्रवण से जो रस उत्पन्न होता है, वह रस भी उपचार से 'अद्भुत रस' कहलाता है। यह विस्मय रूप होता जो अतिदारुण होने के कारण रुलाता है-अर्थात् अश्रुओं को निकल पाता है वह 'रौद्र' है। शत्रु, जन, महाअरण्य गाढतिमिर आदि रो है। इनके दर्शन आदि से अद्भुत हुआ विकृत अध्यवसाय-परिणा કર્મરૂપ માલિન્ય વિલય-વિનાશ–ને પામે છે. ત્યાગથી છવ નિર્મળ થાય છે. ફકત ત્યાગથી જ કેવળજ્ઞાનને મેળવીને આત્મા સિદ્ધિ પામે છે. એટલા માટે હજાર ગુણ કરતાં પણ વધારે પડતે ત્યાગગુણ મનાય છે. તેમજ " परलोकातिगं धाम तपःश्रुतम् " भेटले त५ भने श्रुत पY मोक्ष मापનારા છે એથી અહી સૂત્રમાં વીરરસનું સર્વપ્રથમ ઉપાદાન કરવામાં આવ્યું છે શ્રત. શિલ્પ. અથવા ત્યાગ, તપ શૌર્ય કમ વગેરે જેને સૌ કરતાં વધારે છે, એવી ગમે તે વસ્તુ હેય-તે તે પણ અદ્ભુત કહેવામાં આવશે જ એ પૂર્વ વિસ્તના દર્શનથી કે શ્રવણથી જે રસ ઉદ્ભવે છે તે રસ પણ ઉપચારથી અદ્દભુત રસ કહેવાય છે. આ વિસ્મય રૂપ હોય છે. જે અતિદારણ રાવા મા રડાવે છે એટલે કે અશ્ર વહેવડાવે છે તે રૌદ્ર છે. શત્રુઓ. મહારશ્ય, ગાઢતિમિર, વગેરે રૌદ્ર છે. એમના દર્શન વગેરેથી ઉદ્ભવેલ વિકૃત અધ્યવસાય-પરિણામ રૂપ રસ પણ રૌદ્ર છે જે લજજાજનક છે તે
For Private and Personal Use Only
Page #847
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८३२
अनुयोगद्वारसूत्रे लज्जामुत्पादयतीति वीडनकः-लज्जास्पदवस्तुदर्शनादि-जन्यो मनोग्लानादि स्वरूपोऽयं रसः । अस्य स्थानेऽन्यत्र भयानको रसः प्रोक्तः । अयं हि-भयजनक संग्रामादि दर्शनेन जायते । अस्य रौद्ररसेऽन्तर्भावनादत्र नायं पृथगुक्तः ॥ ५ ॥ बीभत्सः-शुकशोगितोच्चारप्रस्रवणायनिष्टोद्वेगजनकवस्तुदर्शनश्रवणादिजो जुगु. सापकों रसो बीभत्सः ॥६॥ हास्यः-हास्यास्पदविकृताऽसम्बद्धपरवचनवेषाल. ङ्कारादिश्रवणदर्शनजो मनःप्रकर्षादि चेष्टात्मको रसो हास्यरसः॥७॥ करुणःप्रियविप्रयोगादि दुःखहेतुसमुद्भवः शोकप्रकर्षस्वरूपो रसः करुणरसः । कुत्सितं रूप रस भी रौद्र है । जो लज्जा को उत्पन्न करता है वह 'वीडनक' है। यह रस लज्जास्पद वस्तु के देखने आदि से उत्पन्न मनोग्लानि आदि रूप होता है । इसके स्थान में दूसरी जगह भयानक रस कहा गया है । यह भय जनक संग्राम आदि के देखने से उत्पन्न होता है। इसका अन्तर्भाव रौद्र रस में करलिया है, इसलिये उसे यहां पृथक नहीं कहा गया है। शुक्र, शोणित, उच्चार-विष्टा, प्रस्रवण-पेशाष, मूत्र, आदि जो अनिष्ट एवं उद्वेग जनक वस्तुएँ हैं, उनके देखने से, सुनने आदि से जो जुगुप्सा का प्रकर्ष होता है वही जुगुजुप्ता प्रकर्ष विभत्स रस कहलाता है। हास्यास्पद, विकृत एवं असंबद्ध ऐसे दूसरों के वचन सुनने से, वेष अलंकार आदि के देखने से जो मनप्रकर्ष आदि केचेष्टात्मक रस होता है वह 'हास्य रस है । प्रिय पदार्थ के वियोग से जन्य दुःख आदि हेतु से उद्भूत हुआ शोक प्रकर्ष स्वरूप जो रस है वह 'करुणरस' है । जीससे प्राणी बुरी तरह से रोता है अथवा जिसके વીડનક છે. આ રસ લજજાજનક વસ્તુ જેવા વગેરેથી ઉત્પન્ન થયેલ મને ગ્લાનિ વગેરે રૂપ હોય છે. એના સ્થાને બીજી જગ્યાએ ભયાનક રસ કહેવામાં આવ્યું છે. આ ભયાનક રસ સંગ્રામ વગેરે જેવાથી ઉત્પન્ન થાય છે એને અન્તર્ભાવ રૌદ્ર રસમાં જ કરવામાં આવ્યું છે. એથી અહીં પૃથક્ કથન કર્યું નથી शु, शाशित, यार-भविष्टा, प्रसप-भूत्र परे २ मलिट मन Ga. ગજનક વસ્તુઓ છે એમને જેવાથી, સાંભળવા વગેરેથી જે જુગુપ્સાત્મક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તેજ જુગુપ્સાપ્રકર્ષ રસ બીભત્સ રસ કહેવાય છે. હાસ્યજનક, વિકૃત અને અસંબદ્ધ એવા બીજા માણસેના વચને સાંભળવાથી વેષ અલ. કાર વગેરે જેવાથી જે મન:પ્રકર્ષ વગેરે ચેષ્ટાત્મક રસ હોય છે તે હાસ્ય રસ છે. પ્રિયપદાર્થને વિયેગથી જન્ય દુખ વગેરે હેતુથી ઉદ્ભૂત થયેલ શોક પ્રકર્ષ સ્વરૂપ જ રસ છે તે કરૂણ રસ છે જેનાથી પ્રાણી ભયંકર રીતે રડે છે અથવા
For Private and Personal Use Only
Page #848
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७० सलक्षणवीररसनिरूपणम् रौत्यनेनेति करुणास्पदत्वाद् वा करुणः, इत्युभयविधाऽपि करुणशब्दव्युत्पत्तिबोध्या ॥८॥ प्रशान्तःपरमगुरुवचाश्रवणादि हेतुसमुद्भव उपशमप्रकर्षात्मको रसः प्रशान्त रसः। प्रशाम्यति-क्रोधादिजनितचित्तविक्षेपादिरहितो भवत्यनेनेति प्रशान्तशब्दव्युत्पत्तिर्बोध्या ॥९॥ मू० १६९ ॥ ___ एतानेव रसान् लक्षणादि द्वारेण विवक्षुः प्रथमं तावद् वीररसं लक्षणनिर्देशपुरस्सरं निरूपयति
मूलम्-तत्थ परिच्चायमि य, तवचरणसत्तुजणविणासे य। अणणुसंयधिइपरकम-लिंगो वीरो रसो होइ ॥१॥ वीरोरसो जहा-सो नाम महावीरो, जो रजं पयहिऊणपव्वइओ। कामकोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ॥२॥सू०१७०॥ ___ छाया-तत्र-परित्यागे च तपश्चरणे शत्रुजनविनाशेच। अननुशयधृतिपराक्रमकारण प्राणी करुणा का आस्पद (स्थान) बनता है, वह रस 'करुणरस' है। करुणशब्द की दोनों प्रकार की यह व्युत्पत्ति संगत जाननी चाहिये। परमगुरूओं के वचन श्रवणादिरूप हेतु से उद्भूत जो उपशम की प्रक
तारूपरस है, वह 'प्रशान्तरस है । जिसके द्वारा प्राणी क्रोध आदिसे जनित-चित्त विक्षेप आदि से विहीन बन जाता है ऐसी यह प्रशान्त शब्द की व्युत्पत्ति है । ॥ सू० १६९ ॥ ____ अब सूत्रकार इन्हीं रसों को लक्षणोदि द्वारा कहने की इच्छा से सर्व प्रथम लक्षण निर्देश पुरस्सर वीररस का कथन करते हैं।
"तत्थ परिच्चायमि" इत्यादि।
शब्दार्थ-(तत्थ) इन नवरसों के बीच में (परिच्चायमि य तव चरणજેનાથી પ્રાણી કરૂણા પૂર્ણ થઈ જાય છે તે રસ કરુણ રસ છે. કરૂણ શબ્દની આ બન્ને પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ યોગ્ય જ કહેવાય પરમગુરૂજાના વચન શ્રવણ વગેરે રૂપ હેતુથી ઉદ્ભૂત જે ઉપશમની પ્રકર્ષતા રૂપ રસ છે તે પ્રશાન્ત રસ છે. જેના વડે પ્રાણુ ક્રોધ વગેરેથી ઉદ્ભવેલ ચિત્તવિક્ષેપાદિથી વિહીન થઈ જાય છે પ્રશાન્ત શબ્દની આ વ્યક્તિ છે. સૂ૦૧૬ - હવે સૂત્રકાર એજ રસને લક્ષણે વગેરે દ્વારા સ્પષ્ટ કરવાની અપેક્ષાથી અહીં સર્વ પ્રથમ વીર રસનું કથન લક્ષણ નિર્દેશ પુરસ્સર કરે છે–
" तत्थ परिच्चायमि" त्याह. शाथ-(तत्थ) मा नप सोमा (परिचायमि य तवचरणमत्तुजण
अ० १०५
For Private and Personal Use Only
Page #849
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे लिङ्गो वीरो रसो भवति ॥१॥ वीरो रसो यथा-स नाम महावीरो यो राज्यं प्रहाय पवजितः। कामक्रोधमहाशत्रुपक्षनिर्घातनं करोति ॥रा मु० ॥१७० ॥
टीका-'तत्थ' इत्यादि
तत्र तेषु नव रसेषु मध्ये परित्यागे च तपश्चरणे च शत्रुजनविनाशे अननुशयधृतिपराक्रमलिङ्गो वीरो रसो भवति । अयं भावः-परित्यागे-दाने अननुशय. लिङ्ग:-अनुशयः-गर्वः पश्चात्तापो वा, स लिङ्गंलक्षणं यस्य सोऽनुशयलिङ्गः, न
अनुशयलिङ्गः अननुशयलिङ्ग:-दानं दत्वाऽहकारं पश्चात्तापं वा न करोति तदा वीरो रसो बोध्यः । तपश्चरणे =तपसि धृतलिङ्गा धैर्य चिह्न तपश्चर्यायां धैर्यमेव करोति न पचात्तापं तदा वीरो रसो भवति । शत्रुविनाशे शणामुन्मूलने पराक्रमलिङ्गा सत्तुजणविणासेय) परित्याग करने में, तपश्चरण करने में और शत्रुजन के विनाश करने में अणणुसयधिइपरकम-लिंगो वीररसो होइ) अननुशय धृति, पराक्रम इन चिन्हों वाला वीररस होता है । अनुशय शब्द का अर्थ गर्व अथवा पश्चात्ताप है। यह जिसका लक्षण है, वह अनुशयलिङ्ग है यह लिङ्ग जिसमें नहीं होता वह अननुशय लिङ्ग है दान देकर के जो अहंकार या पश्चात्ताप नहीं करता है, उससमय धीररस होता है । तपश्चर्या करने में जो धैर्यरखता है-पश्चात्ताप नहीं करता है वह वीररस का काम है। "शत्रुजन के विनाश करने में जो पराकमका अबलम्बन करता है वैलव्य-विकलता कमजोरी हृदय में नहीं लाता है, यह सब वीररस के द्वारा होता है। इन अननुशय, धैर्य और पराक्रम लक्षणों से यह जाना जाता है कि 'यह मनुष्य वीररस में वर्तमान है। इसीप्रकार से अन्यत्र भी समझना विणासे य) परित्याग ४२वामी, तपश्व२५ ४२१॥मा, अने शत्रुभोना विनाश ४२वामा (अणणुपयधिइपरक्कमलिंगो वीररसो होइ) अननुशय, ति, ५२१કેમ આ લક્ષણોવાળે રસ વીરરસ કહેવાય છે. અનુશય શબ્દને અર્થ ગર્વ-અથવા પશ્ચાત્તાપ છે. આ જેનું લક્ષણ છે, તે અનુશય લિંગ છે. એ જેમાં હેત નથી. તે અનનુશય લિંગ છે. દાન આપીને જે અહંકાર કે પશ્ચાત્તાપ કરતું નથી તે વીરરસ કહેવાય છે. તપશ્ચર્યામાં જે ધર્ય રાખે છે–પશ્ચાત્તાપ કરતું નથી તે વીરરસને લીધે જ શત્રુજનના વિનાશાથે જે પરાક્રમ બતાવે છે વૈકૂલવ્ય-વિકલતા-નબળાપણું બતાવતું નથી તે વીર રસને લીધે જ આ સર્વે અનrશય, ધૈર્ય અને પરાક્રમના લક્ષણેથી એમ જણાય છે કે “આ માણસ વીરરસ યુક્ત છે. આ પ્રમાણે બીજે પણ સમજવું જોઈએ,
For Private and Personal Use Only
Page #850
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७० सलक्षणवीररसनिरूपणम् ८३५ पराक्रमचिह्नः परक्रमते न तु वैक्लव्यमवलम्बते तदा च वीरो रसो भवति । एतैत्रिभिलक्षणे ज्ञाते यदयं जनो वीरे रसे वर्तते इति। एवमन्यत्रापि बोध्यम् । सम्पति उदाहरणं दर्शयितुमाह -वीरो रसो यथा यथा येन प्रकारेण वीरो रसो ज्ञायते. तथोच्यतेऽनुपदवक्ष्यमाणया गाथया 'सो नाम' इत्यादि रूपया।यो राज्यं परित्यज्य प्रजितः सन् कामक्रोधरूपमहाशत्रु पक्षस्य निर्धातनं विनाशं करोति स नाम-निश्चयेन महावीरो भवति । वीररसे यथा पुरुषचेष्टापतिपाद्यते तथैवैवंविधेषु काव्येषु पुरुषचेष्टापतिपादनात् वीरो रसो बोध्यः । तथा चात्र मोक्षप्रतिपादके प्रस्तुतशास्त्रे महापुरुषविजेतव्यकामक्रोधादिमावशत्रुजयेनैव वीररसोदाहरणम् । माचाहिये । अब सूत्रकार (वोरो रसो जहा) वीररस जिस प्रकार के दृष्टान्त से जाना जाता है, उस प्रकार के दृष्टान्त को इस गाथा द्वारा प्रकट करते हैं-(सो नाम महावीरो जो रज्ज पयहिऊण पवहओ, काम कोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणह) 'जो राज्य का परित्याग करके दीक्षित होता है और दीक्षित होकर जो-कोम क्रोध रूप महाशत्रु के पक्षका विनाश करता है वह निश्चय से महावीर होता है। वीररस में जैसी पुरुष चेष्टा कही जाती है वैसी ही पुरुष चेष्टा इस प्रकार के काव्यों में प्रकट की जाती है अर्थात् वर्णित की जाती है-इसलिये वहां वीररस जानना चाहिये । यह प्रस्तुत शास्त्र मोक्ष का प्रति पादन करने वाला है। इसलिये इसमें महा पुरुष द्वारा विजेतव्य जो कोम क्रोध आदि भावशत्रु हैं, उनके जीतने से ही वीररस का उदा. हरण कहा गया है। साधारण मनुष्यद्वारा साध्य-ऐसे संसार का कारण
वे सूत्रा२ मा (वीरो रसो जहा) वा२२४ २ २ter. તથી જાણવામાં આવે છે તે પ્રકારના દૃષ્ટાન્તને આ ગાથા વંક २५ट 3रे छ-(सो नाम महावीरो जो रज्जं पयहिऊण पव्वइओ, कामकोह महासत्तपक्खनिग्धायणं कुणइ) २ शयन पेपन त्यने दीक्षा असा કરે છે અને દીક્ષિત થઈને જે કામ-ક્રોધ રૂ૫ મહાશત્રુનાં પક્ષને વિનષ્ટ કરે છે. તે ચોક્કસ મહાવીર હોય છે. વીરરસમાં જેવી પુરૂષ–ચેષ્ટા કહેવામાં આવે છે તેવી પુરૂષચેષ્ટા આ જાતના કાવ્યોમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે એટલે કે વર્ણવવામાં આવે છે. એથી ત્યાં વીરરસ જાણવું જોઈએ આ પ્રસ્તુતશાસ મોક્ષપ્રતિપાદક છે. એટલા માટે આ શાસ્ત્રમાં મહાપુરૂષ વડે વિજેતવ્ય કામ, ક્રોધ વગેરે શત્રુભાવે છે, તેમને જીતવાના જ વીરરસના ઉદાહરણે પ્રસ્તુત માનવામાં આવ્યાં છે. સામાન્ય માણસે વડે સાથ એવા સંસારના કારણભૂત
For Private and Personal Use Only
Page #851
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
कृतमनुजसाध्य संसारकारणद्रव्यशत्रु निग्रहस्यामस्तुतत्यान दत्तम् । एवमन्यत्रापि बोध्यम् ॥ ० १७० ॥
अथ द्वितीयं शृङ्गाररसं लक्षणं निरूपयति
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूलम् - सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलाससंजणणो । मंडणविलासविद्यो यहा सलीलारमणलिंगो ॥४॥ सिंगारो रसो जहा महुरविलाससलियं हियउन्मादणकरं जुत्राणाणं । सामा सद्दुद्दामं दापती मेहलादामं ॥ ५ ॥ धी धीमं सिंगारे, साहूणं जो उवज्जियहो य । मोक्खगिहअग्गला सो, नायरियवो य मुणिहि इमो ॥६॥ सू० १७१ ॥
छाया - शृङ्गारो नामरसो रतिसंयोगाभिलाषसंजननः । मण्डनविलास वि aate हास्यकलारमण लिङ्गोः || ४ || शृङ्गारो रसो यथा- मधुरविलासमुललितं हृदयोन्मादनकरं यूनाम् । श्यामा शब्दोद्दामं दर्शयति मेखलादाम || ५ | धिग्धिम् इमं शृङ्गारं साधूनां यस्तु वर्जितव्यश्च । मोक्षगृहार्गला सः, नाचरितव्यच मुनिभिरर्यम् ||६|| सू० १७१ ॥
1
1
-
अनुयोगद्वारसूत्रे
तथाविधोदाहरणमत्र
टीका – 'सिंगारी' इत्यादि
शङ्गारो नाम रसो हि रतिसंयोगाभिलाषसंजजनः - रतिः रतिकारणानि ललनादीनि गृह्यन्ते कार्ये कारणोपचारात्, तत्संयोगाभिलाषस्य - ललनाभिः सह भुत जो द्रव्य शत्रु का निग्रह करना है वह यहां अप्रस्तुत है । इसलिये सूत्रकारने इस प्रकार का उदाहरण यहां नहीं दिया है इसी प्रकार से अन्यत्र भी जानना चाहिये ॥ सू० १७० ॥
अब सूत्रकार लक्षण सहित शृंगार रस का निरूपण करते हैं"सिंगारो नाम रसो" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलास - संजणणो ) शृङ्गार नामक रस रतिसंयोगाभिलाष जनक होता है। रति से
જે દ્રવ્યશત્રુનુ ક્રમન કરવું તે અહીં અપ્રસ્તુત છે. એથી જ સૂત્રકારે આ જાતનુ ઉદાહરણુ અહી' આપ્યું નથી આ પ્રમાણે ખીજે પણ જાણવુ જોઇએ. વાસ્॰૧૭૦ના હવે સૂત્રકાર લક્ષણસહિત શ્રૃંગારરસનું નિરૂપણ કરે છે " सिंगारो नाम रसो " त्याहि
For Private and Personal Use Only
शब्दार्थ - (सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलास संजणणो ) शृंगार २स તિસ ચેાગાભિલાષજનક હાય છે. અહીં રતિથી કાર્ય માં કારણના ઉપચારથી
Page #852
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७१ सलक्षणशृङ्गाररसनिरूपणम् ८३७ सङ्गमेच्छायाः संजननः समुत्पादकः, तथाच मण्डनविलासविब्बोकहास्यरमणलिङ्गः-मण्डनम्-अलङ्कारैर्गात्रालङ्करणम् , विलासः-प्रियसमीपगमने यः स्थानासनगमनविलोकितेषु विकारोऽकस्माच्च क्रोधस्मितचमत्कारमुखविलयनं स विलासः, विब्बोका=अभिमतमाप्तोवपि गर्वादनादरः, सापराधस्य सकचन्दनादिना संयमनं ताडनं च, हास्यम्=प्रतीतार्थम्, लीलासकामगमनमाषितादि रमणीयचेष्टा, अलब्धपियसमागमया स्त्रिया स्वचित्तविनोदार्थ पियस्य या वेषगतिदृष्टिहसितमः णितैरनुकृतिः क्रियते सा वा लीला, रमणं-क्रीडनम्, एतानि लिङ्ग-चिहं यस्य स तथाविधो भवति । उदाहरणमाह-शृङ्गारो रसो यथा-श्यामा-षोडशवर्षदे
यहां पर कार्य में कारण के उपचार से रति के कारणभूत जो ललना आदि पदार्थ हैं, वे ग्रहण किये गये हैं। उनके साथ संगम की इच्छा का जनक यह शृङ्गार रस होता है। (मंडणाविलासविछोय, हास, लीलारमणलिंगो) अलंकारों से शरीर को सज्जित अलंकृत, करना इसका नाम 'मण्डन' है । प्रिय के समीप जाने में जो स्थान, आसन , गमन , एवं विलोकन में विकार और अकस्मात क्रोध , स्मित, चमत्कार ,मुख विक्लवन होता है, वह विलास है। अभिमत को प्राप्ति में भी गर्व (अहंकार ) से अनादर , करना और अपराधसहित का स्रक-माला चंदन आदि से संयमन करना, ताडन करना, यह विधोक है।हास्य-हँसना। सकाम गमन एवं भाषित आदि जो रमणीय चेष्टाएँ हैं, वै 'लीला' हैं। अथवा जिस स्त्री को प्रिय का समागम अलमय हो रहा है, वह जो अपने चित्त को विनोदित करने के लिये प्रिय के वेष અરતિના કારણે જે લલના વગેરે પદાર્થો છે તેમનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. तेमनी साथे मनी ४२छान मा१४ २ ॥२ २४ डाय छे. (मंडणविलामविब्बोय, हास, लीला रमणलिंगो) मरोथी शशश्न असतिઅલંકૃત-કરવું તેનું નામ “મંડન” છે. પ્રિયની પાસે જતાં જે સ્થાન આસન, ગમન અને વિલેકનમાં વિકાર તેમજ ઓચિંતા-ક્રોધ, મિત. ચમકાર, મુખવિલન હોય છે, તે વિભાસ છે અભિમતની પ્રાપ્તિમાં પણ ગવ' (અહંકાર)થી અનાદર કર, તેમજ અપરાધીનું અક-માળા-ચંદન વગેરેથી સંયમન કરવું, તાડન કરવું વિક છે હાસ્ય-હસવું સકામ ગમન અને ભાવિત જે રમણીય ચેષ્ટાઓ છે, તે “લીલા” છે. અથવા જે સ્ત્રી પ્રિયસમાગમ મેળવી શકી નહીં તેવી સ્ત્રી પિતાના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવા માટે પ્રિયના वेषनु गतिनु रन, यनु, पातुं अनु४२५ रे छ, ते 'elat' .
For Private and Personal Use Only
Page #853
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
રૂટ
अनुयोगद्वारसूत्रे
"
शीपा - स्त्री, 'इपामा षोडशवार्षिकी' इत्यभिधानात् शब्दोद्दाम - शब्द उद्दामा= प्रचुरो यत्र तत् किङ्किणी स्वनमुखरम् 'उद्दाम' शब्दस्य परनिपात आर्षत्वात्, अतएव यूनां = वरुणानां हृदयोन्मादकरम् पबलस्मरप्रकटीकरणात् हृदयोन्मत्तता विधा यकं स्वकीयं मेखलादाम-कटिसूत्रं मधुरविलासमूललितम् - मधुरैः = कामिजनहृदया ह्रादकतया माधुर्यमुपगतैः विलासैः सकामचेष्टाविशेषैः सुललितम् = अतिशयमनोहारि यथास्यात्तथा दर्शयति । शृङ्गारप्रधानचेष्टाप्रतिपादनादयं शृङ्गारो रसः, का, गति का, दृष्टि का, हास्य का, बोली का अनुकरण करती है, वह 'लीला' है । क्रीडा करना इसका नाम रमण है । इस श्रृङ्गार रस के मंडन, विलास, विन्चोक, हास्य, लीला और रमण ये चिह्न हैं । अब सूत्रकार (सिंगारो रसो जहा) यह शृङ्गार रस जिस प्रकार से जाना जाता है, उस प्रकार को इस गाथा द्वारा प्रकट करते हैं - (सामी) "इयामा षोडशवार्षिकी। इस कथनानुसार कोई षोडशवर्षदेशीयासोलह वर्ष की अवस्था वाली तरुण वयस्का - स्त्री (सद्दुद्दामं ) क्षुद्रघंटिकाओं के शब्द से मुखरित अतएव ( जुवाणाणं) युवा पुरुषों के (हियउम्मादणकरं) हृदय को प्रबलस्मरकी पीड़ा उत्पन्न करने से उन्मत्त करने वाले ऐसे ( मेहलादामं ) अपने कटिसूत्र को (महुरविलाससुललियं) कामिजनों के हृदय को आहादक होने के कारण मधुर लगने बाले विलासों - सकाम चेष्ठा विशेषों से अतिशय मनोहारो जैसे वह होता है उस प्रकार से (दापती) दिखलाते है इस श्रृंगाररस में शृंगारप्रधान चेष्टाओं का प्रतिपादन होता है इसलिये इसे 'श्रृंगाररस'
ક્રીડા કરવી તે રમણુ કહેવાય છે મ`ડન, વિલાસ, વિખ્ખાક, હાસ્ય, લીલા તેમજ રમણુ આ સવે શૃંગાર રસના ચિહ્નો છે.
वे सूत्रार (सिंगारो रसो जहा) शृंगाररस नेनाथी भाशाय हे तेर्नु गाथा वडे उथन उरे छे. (सामा ) " श्यामा षोडशवार्षिकी " આ થન मुख्य है। सोण वर्षांनी अवस्थावाजी तरुथुत्रयस्था- स्त्री (सकुँद्दामं) क्षुद्रध टिभोथी भुमरित तेथी ( जुवाणाणं) युवाना (हियउम्मादणकरं) याने अम सतम स्भर थी. थी युक्त रीने उन्मत्त १२नार ( मेहला दाम ) पोताना टिसूत्र (महुरविलाससुललियं) अभुना हृहयने माहूसा डोबा महत भधुर લાગે તેવા વિલાસેા–સકામ ચેષ્ટા વિશેષાથી અતિશય મનેહારી લાગે તેમ (दापती) तेने मतावे छे. आ शृंगार रसभां शृगार प्रधान श्रेष्टाशीतुं મતિપાદન થાય છે એથી આને શૃંગાર રસ કહેવામાં આવે છે. (धी धीमं
For Private and Personal Use Only
Page #854
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७२ सलक्षणमद्भुतरसनिरूपणम् ८३९ इति बोध्यम् ॥इमं =पूर्वोक्तस्वरूपं शृङ्गारं-शृङ्गाररसं धिर धिग्-धिगस्तु यस्तु साधूनां सर्वविरतिमतां मुनीनां वर्जितव्यः । स शृङ्गारः मोक्षगृहागला-मोक्षद्वारस्यार्गलाभूतोऽतोऽसौ शङ्गाररसः मुनिभिर्ना चरितव्या=न सेवनीयः॥६॥सू०१७१॥ __ अथ तृतीयमद्भुतरसं सलक्षणाह
मूलम्-विम्हयकरो अपुवो, अनुभूयपुवो य जो रसो होइ। हरिसविसा उप्पत्ति,-लक्खणो अब्भुओ नाम ॥६॥ अब्भुओ रसो जहा-अब्भुयतरमिहएत्तो अन्नं कि अस्थि जीवलोगंमि। जं जिणवयणे अत्था तिकालजुत्ता मुणिजति ? ॥७॥सू०१७॥ - छोया-विस्मयकरः अपूर्वः अनुभूतपूर्वश्व यो रसो भवति । हर्षविषादोत्पतिलक्षणः अद्भुतो नाम ॥ अद्भुतो रसो यथा-अद्भुततरमिह एतस्मात् अन्यत् किमस्ति जीवलोके । यत् निनवचने अर्थाः त्रिकालयुक्ता ज्ञायन्ते ॥५० १७२।।
टीका-'विम्हयकरो' इत्यादि
अपूर्व अननुभूतपूर्वः, अनुभूतपूर्वः-पूर्वमनुभूतो वा विस्मयकर:-कस्मिविदभुते पदार्थ दृष्टे यदाश्चर्य जायते , अतः स पदारे विस्मयकर उच्यते, कहा है। (धी धीमंशृंगारं) इसपूर्वोक्त स्वरूपवाले शृंगारस-को धिक्कार हो धिक्कार हो (जो उ) क्योंकि यह (साहूणं) साधुजनों को (वज्जियम्वो) छोड़ने योग्य कहा गया है । कारण इसका यह है कि यह (मोक्खगिह अग्गलाओ) मोक्ष रूपी घरकी अर्गला रूप है । अतः (मुणिहिमो नाय. रियन्यो ) मुनि जनों को इसका सेवन नहीं करना चाहिये । सू० १७१॥
- अब सूत्रकार लक्षणनिर्देश पुरस्सर तीसरे अद्भुत रस का कथम करते हैं।-"विम्हय करो अपुल्यो अनुभूयपुवो" इत्यादि।
शब्दार्थ-(अपुव्व) पूर्व में कभी अनुभव मे नहीं आये अथवा(अनुसिंगार') मा उपरीत २१३५१॥ श्रृ॥२ २सने घि२ , बिसार छ. जोमस (साहणं) साधु सनाने सर्व वि२ति संपन्न मुनिजनाना भाट (विवज्जियव्वो) त्यानय ४ामा मा०ये। . भ भ (मोक्खगिहबमालाओ) माक्ष३५ ५२नी . मेथी (मुणिहि इमो नायरियबो) ફૅનિજને આ રસનું સેવન કરે નહીં. સૂ૦૧૭૧
હવે સૂત્રકાર લક્ષણ સહિત ત્રીજા અદ્ભુત રસનું કથન કરે છે– " विम्हयकरो अपुव्वो अनुभूयपुव्वो" त्यादिA+हाथ-(अपुव्व) पूर्व 15 ५५ हिसे न अनुभव अया तो
For Private and Personal Use Only
Page #855
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८४०
अनुयोगद्वारसू
तद्दर्शनोद्भवो रसोऽपि विस्मयकरो बोध्यः एतादृशो यो रसो भवति स हर्षविषा दोत्पत्तिलक्षणः आश्चर्यमये शुभे वस्तुनि दृष्टे हर्षोत्पत्तिः तथैवाशुभे वस्तुनि विषादोत्पत्तिः, एतदुभयचिह्नः अद्भुतो नाम रसो बोध्यः । उदाहरणमाह- अद्भुतं रसो यथा - इह = अस्मिन् जीवलोके= संसारे इतोऽन्यत् = अस्मात्परम् अद्भुततरम्ः आश्चर्यतरम् किमस्ति ?=न किंचिदप्यस्ति । कुतो न ? इत्याह-यत् = यस्मात् कारणात जिनवचने त्रिकालयुक्ताः = अतीतानागतवर्तमानरूपत्रिकालयुक्ता अपि अर्था:= जीवादयः सूक्ष्मव्यवहिततिरोहितातीन्द्रिया मूर्त्तादिस्वरूपा ज्ञायन्ते इति। ०१७२॥ भूयपुण्वो) अनुभव में भी आये हुए ऐसे (विम्हयकरो) किसी अदभूत पदार्थ के देखने पर जो आश्चर्य होता है, उस आश्चर्य का जनक वा पदार्थ विस्मय कर कहलाता है तथा उससे जो रस उत्पन्न होता हैं वह रस भी विस्मयकर कहा जाता है। इस अद्भूत रस का लक्षण हर्ष और विषाद की उत्पत्ति होना है। आश्चर्य जनक किसी शुभवस्तु के देखने पर हर्षोत्पति होती है, और अशुभवस्तु देखने पर विषादो त्पत्ति होती है । अतः यह अद्भूत रस इन दोनों चिह्न वाला होता है. ऐसा जानना चाहिये | अब सूत्रकार इस रस को जानने के लिये उदा हरण कहते हैं । वे कहते हैं कि (अब्भुओ रसो) ' यह अद्भूत रस इसप्रकार से है (जहा) जैसे- (अन्भुयतरमिह एत्तो अन्नं किं अस्थिजीव. लोगंमि ) इस - जीवलोक में इससे अधिक और दूसरा आश्चर्यक्या है ? (जं जिणवयणे तिकालजुत्ता अत्था मुणिज्जंति) जो जिन वचन में स्थित त्रिकाल - अतीत अनागत और वर्तमान कालवर्ती समस्त (अनुभूयपुत्रो ) अनुभवेस (विम्हयकरो ) अ पशु अद्दभुत पहार्थ ने लेने જે આશ્ચય થાય છે, તે આશ્ચર્યને ઉત્પન્ન કરનાર તે પદાર્થ વિસ્મયકારી કહેવાય છે. તેમજ તેના વડે જે રસ ઉત્પન્ન થાય છે, તે રસ પણ વિસ્મય. કર કહેવાય છે આ અદ્ભુત રસનું લક્ષણુ હષ અને વિષાદની ઉત્પત્તિ થવી તે છે આશ્ચાત્પાદક કેાઈ શુભ વસ્તુને જોવાથી હષ ઉત્પન્ન થાય છે. થાય છે. એથી અને અશુભ વસ્તુને જોવાથી વિષાદની ઉત્પત્તી આ અદ્ભુત રસ આ અન્તે ચિહ્નો યુક્ત હોય છે. હવે સૂત્રકાર આ રસને लायुत्रा भाटे उहाहर। प्रस्तुत रे . तेथे उ छे हैं (अन्भुओ रम्रो) या अहूलुत रस आ प्रमाणे छे - (जहा) प्रेम ( अब्भुयतरमिह पत्तो अन्नं किं अस्थि जीवलोगंमि) भा જીવલેાકમાં એના કરતાં ખીજી કઈ નવાઈ
-
भाडेतेवी वात छेडे (जं जिणत्रयणे तिकाल जुत्ता अत्था मुणिज्जंति) भे જિન વચનમાં સ્થિત ત્રિકાલ–અતીત-અનાગત અને વર્તમાનકાલીન સર્વ
For Private and Personal Use Only
Page #856
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
%3
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७३ सलक्षणरौनरसनिरूपणम् .. अथ चतुर्थ रौद्ररसं सलक्षणमाह
मलम्-भयजणणरूवसइंधयारचिंताकहासमुप्पण्णो । समाह संभमविसायमरणलिंगो रसो रोदो॥८॥ रोदो रसो जहा-भिउडी विडंबियमुहोसंदट्ठोड इयरुहिरमाकिण्णो। हणसि पसुं अमरणिभो भीमरसिय अइरोह ! रोहोऽसि ॥९॥सू०१७३॥
छाया-भयजननरूपशब्दान्धकारचिन्ताकथासमुत्पन्नः। सम्मोहसंचमान षादमरणलिङ्गो रसो रौद्रः॥ रौद्रो रसो यथा-भृकुटिविडम्बितमुख: संद इति रुधिरमाकीर्णः। हंसि पशुम् असुरनिभो भीमरसित अतिसा रौद्रोऽसि । सू० १७३॥
टीका-'भयजणण' इत्यादिभयजननरूपशब्दान्धकारचिन्ताकथासमुत्पन्नः-रूप-शत्रुपिशाचादीनामाकृति, सूक्ष्म व्यवहित एवं तिरोहित पदार्थ जान लिये जाते हैं। स्वभाव विज कृष्ट परमाणु आदि पदार्थ सूक्ष्म हैं। काल विप्रकृष्ट-राम-रावण आणि
आदि पदार्थ व्यवहित हैं देश विप्रकृष्ट-सुमेरु पर्वत आदि पदार्थ तिरोहित हैं। इस प्रकार अतीन्द्रिय एवं अमूर्त स्वरूप जितने भी आग कथित त्रिकालवर्ति जीवादिक पदार्थ हैं, वे सब जिनवचन के प्रभार से प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से जानलिये जाते हैं। सू० १७२॥.... .. अब सूत्रकार चौथा रौद्र रस का लक्षण निर्देशक बना करते हैं-"भयजणणरूव" इत्यादि
शब्दार्थ-(भयजणणस्वसइंधयारचिंताकहासमुप्पण्णो) भय, સૂક્ષમ વ્યવહિત અને તિરહિત પદાર્થો જાણી લેવાય છે સ્વભાવ વિપ્રકૃષ્ટ પરમાણુ વગેરે પદાર્થો સૂક્ષમ છે. કાલવિપ્રકૃષ્ટ રામ-રાવણ વગેરે પાપ વ્યવહિત છે, દેશવિપ્રકૃષ્ટ સુમેરુપર્વત વગેરે પદાર્થો તિરહિત છે. આ પ્રમાણે જેટલાં આગમ કથિત ત્રિકાલવ અતીન્દ્રિય અને અમૂર્ત સ્વરૂપ છે પદાર્થો છે, તે સર્વે જિન વચનના પ્રભાવથી પ્રત્યક્ષ તેમજ પરોક્ષ રીતે જાણું લેવાય છે. સૂ૦૧૭૨ા.
હવે સરકાર ચતુર્થ રૌદ્ર રસનું લક્ષણ સહિત કથન કરે છે " " भयजणणस्व" क्या6िशहाथ-(भयजगणरूवमधयारचिंता कहा समुप्पण्णो) भोपाई. अ० १०६
For Private and Personal Use Only
Page #857
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्र शब्दः तेषामेव शत्रुपिशाचादीनां शब्दः, अन्धकारः-निविडतमः, एतेषां द्वन्द्वः, मसामयोत्पादका ये रूपशब्दान्धकाराः-तेषां चिन्ता-तत्स्वरूपपर्यालो. जनरूपा स्मृतिः, कथा-स्वरूपप्रकथनं च, उपलक्षणत्वाद दर्शनमपि बोध्यम् , ततः समुत्पन्नः संजातः, तथा-संमोहसंभ्रमविषादमरणलिङ्गः-संमोहः विवेकराहित्यम्, समा-याकुलता, विषादः ममाऽत्रपदेशे समागमनमशोभनमित्येवं शोका, मरणं भयोद्विग्नस्य गंजसुकुमालहन्तुः सोमिलब्राह्मणस्येव झटिति प्राणोत्क्रमणम्, वाशि निमावि चिह्नानि यस्य स तथाभूतो रौद्रो रसो भवति । नन्वयं भयजन
मादि स्मरणकथनदर्शनसमुत्पन्नः सम्मोहादिलक्षणो भयानक एव भवति, परमस्य रौद्ररसत्वमभिहितम् ? इति चेदाह-यद्यप्रयं भवत्कथनानुसारेण भयानक जनक रूप, शब्द और अंधकार की स्वरूपपर्यालोचनारूप स्मृति से स्वाप कथनरूप कथा से' दर्शन से उत्पन्न हुआ (संमोहसंभमविसा
मरणलिंगो) तथा विवेकरहितपना रूप समोह व्याकुलतारूप संभ्रम शाक र विषाद और प्राणविसर्जन रूप मरण इन-लिङ्गों चिह्नों वाला
सदी रसी) रौद्र रस होता है । तात्पर्य कहने का यह है कि यह रौद्र रस भयानक रूपादिकों के स्मरण आदि से उत्पन्न होता है और समी विहीं से जाना जाता है मेरा इस प्रदेश में समागमन
है, इस प्रकार से शोक करने का नाम विषाद है । गज सुकुमाल'को मारने वाले सोमिल ब्राह्मण की तरह भयोद्विग्न व्यक्ति हैजा जल्दी से प्राणों का उत्क्रमण है वह मरण है।
शंका-भयजनक रूपादिकों के स्मरण से,कथन से एवं दर्शन से,શબ્દ અને અધિકારની સ્વરૂપ પર્યાલચના રૂપ સ્મૃતિથી, સ્વરૂપ કથન રૂપ
RE: नयी उत्पन्न थये (संमोहसंभमविसायमरणलिंगो) तर વિરાહિમ-રૂપ સમોહ, વ્યાકુલતા રૂપ સંભ્રમ, શેકરૂપ વિષાદ અને
नि ३५ भ२५ मा विही युक्त (रोदो रसो) शैद्र २स हाय . તાપસ આ પ્રમાણે છે કે આ રૌદ્ર રસ ભત્પાદક રૂપ વગેરેના સ્મરણથી ઉજન થાય છે. આ સંમોહન ચિહ્નોથી જાણવામાં આવે છે મારું આ પ્રદેશમાં સમાગમન ઉચિત નથી, આ પ્રમાણે ચિંતા કરવી તે વિષાદ છે. ગજસુકમાલને મારનાર સંમિલ બ્રાહ્મણની જેમ ભદ્વિગ્ન વ્યક્તિના પ્રાણને જે જલદી ઉત્ક્રમણ છે, તે મરણ છે.
શંકા- ત્પાદક રૂપાદિકને સ્મરણથી, કથનથી અને દર્શનથી ઉત્પન્ન
For Private and Personal Use Only
Page #858
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
H
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७३ सलक्षणरौद्ररसनिरूपणम् एव, तथाऽपि पिशाचादिरौद्रवस्तुसंजातत्वादस्य रौद्रत्वं विवक्षितमाः मोर कश्चिद् दोषः। किं च शत्रुजनादिदर्शने तच्छिरच्छेदने समुद्युक्तानां छागकर कुता वधादिपवृत्तानां च यो रौद्राध्यवसायात्मको भृकुटीभङ्गादिलिङ्गो. रौद्रो रसोऽ पलक्षणत्वादत्रैव बोध्यः । अन्यथा स निरास्पद एवं स्यात् । अत एवात्र, रौद्रपूर णामवत्पुरुषचेष्टाप्रतिपादकमेवोदाहरणं वक्ष्यति । भयत्रस्तचेष्टापतिप्राक्कामासा उत्पन्न हुआ संमोहादिलक्षणोंवाला भयानक रसही होता है। फिर रौद्ररस रूप कैसे कहा ? ___ उत्तर-यद्यपि यह आपके कथनानुसार भयानक रस होतो मी पिशाच आदि रौद्र वस्तु के देखने आदि से यह उत्पन्न होता लिये इसमें रौद्रेता विवक्षित हुई है। किंच-शत्रुजन आदि के दर्शन होनेपर उनके शिरच्छेद करने में कटिबद्ध हुए व्यक्तियों के और पकता शूकर एवं कुरंग-हिरण-आदि जानवरों की हिंसा करने में प्रवृत्ती हुए व्यक्तियों के जो रौद्र परिणाम होते हैं, कि जो भ्रुकुटी भंग आदि चिह्नो से जाने जाते हैं. वे भी रौद्ररस स्वरूप ही होते हैं। प्रताप क्षण से रौद्ररस यहां पर जानना चाहिये । नहीं तो रोग्राम्यवसापर रूप-रौद्ररस निराश्रय मानना पड़ेगा। इसीलिये रौद्रपरिणाम सुतार पुरुष की चेष्टाओं का प्रतिपादक ही उदाहरण यहां सूत्रकार ने कहाती भय से त्रस्त हुए व्यक्तियों की चेष्टाओं का प्रतिपादन करने वाला सदा થયેલ હાદિ લક્ષણવાળો ભયાનક રસ જ હોય છે, ત્યારે એને શા રસ રૂપ શા માટે કહેવામાં આવ્યું છે ? उत्तर- भा२१ भुरा त सा भयान २
a i પિશાચ વગેરે રૌદ્ર વસ્તુને જોવા વગેરેથી તે ઉત્પન્ન થાય છે, એથી આમાં. રૌદ્રવ વિવક્ષિત છે. કિચ શત્રુજન વગેરેના દર્શનથી, તેમનું શિરે કરવા માટે તત્પર થયેલ વ્યક્તિઓને અને બકરા, સૂકર તેમજ રંગ-હિલા વગેરે જાનવરની હિંસા કરવા માટે પ્રવૃત્ત થયેલ વ્યક્તિઓના જે ઇવીએ પરિણામ હોય છે અને જે ભ્રકુટી-ભંગ વગેરે ચિહેથી જાણવામાં આવે છે તે પણ આ રૌદ્રરસ સ્વરૂપ જ હોય છે. માટે ઉપલક્ષણથી રૌદ્રરસ અલી જ જાણ જોઈએ નહિંતર, રૌદ્રધ્યવસાય રૂપ રૌદ્રરસ નિરાશય માન પડશે એથી રૌદ્ર પરિણામ યુક્ત પુરૂષની ચેષ્ટાઓનું પ્રતિપાદક ઉદાહરણ જ અહી' સૂત્રકારે કહ્યું છે. ભય સત્રસ્ત વ્યક્તિની ચેષ્ટાઓનું પ્રતિપાદન કણા
--
For Private and Personal Use Only
Page #859
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगद्वारसूत्रे 'सत्यमेवाभ्यूवम् । अतोदाहरणमाह-रौद्रो रसो यथा-भुकुटीविडम्बितमुखः-भ्रुकुटिः
धादिना बलाटसंकोचनं तया विडम्बित=विकृती-भूतं मुखं यस्य स तथा, नियं-सन्दष्टौष्ठ:-सन्दष्टा-दन्तै-दष्ट ओष्ठो येन स तथाभूतः, इति-अतश्चसाराकीर्ण:-रुधिरैः आकीर्णः-शोणितसंकुलो हे भीमरसिता-भीमं भयंकर रसित यस्य तत्संबुद्धौं, हे भयजनकशब्दकारिन् ! त्वम् असुरनिभा-दैत्य इव पशुं हास, भतो है अतिरौद्र-अतिशयरौद्ररूपधारिन् ! त्वं रौद्रोऽसि-ौद्रपरिणामयुक्तो. भीति नरकनिगोदादिदुःखं भोक्ष्यसे ॥सू० १७३॥ हरण तो अपने आप जान लेना चाहिये । रौद्ररस का ज्ञान जिसप्रकार सेहोसकता है सूत्रकार (रोहो रसो जहा) इन पदोंद्वारा उसी प्रकार के उभारणारा प्रकट करते हैं-जैसे-(भिउडी विडंम्बियमुहो संदहोइय सामाकिण्णो) पशुहिंसा में निरत बने हुए किसी हत्यारे मनुष्य से कोई धर्मातम मनुष्य यह कह रहा है कि अरे ! यह तेरा मुख इस समय भुकुटी से विकरालबना हुआ है। क्रोधादिक के आवेग से तेरे ये दांत-अधरोष्ठ को डस रहे हैं । खून से तेरा शरीर लथ पथ हो रहा है. भीमरसिय) जो तेरे मुख से शब्द निकल रहे हैं, बड़े भयावने हैं । मा महाभयजनक शब्द बोलने वाले तुम (असुरनिभो) असुर जैसे पक्रेर हो भोर (पस्तुंहणसि) पशुकी हत्या कर रहे हो । अतः (अइरोष प्रशिक्षय रौद्ररूपधारी तुम (रोहोऽसि) रौद्रपरिणामों से युक्त होने केसरण सैद्ररस रूप हो-सो याद रखो, नरकनिगोद आदि के दुःखों को भोगोंगे ॥ सू० १७३ ॥ ઉચરણ તે પિતાની મેળે જ જાણી લેવું જોઈએ. જે રીતે રૌદ્ર सजान य श छे वे सूत्रा२ (रोहोरसो जहा) ते प्रमाण मा ५४ RTHER प्रस्तुत श२ १५०४ रे छ. म -(भिउडी विडंबियमुहो संदरोड्यरुहिरमाकिण्णो) ५४ सा भाटे त५२ ये धात: માણસને કોઈ ધર્માત્મા પુરૂષ આ પ્રમાણે કહે કે અરે! આ તારૂં મેં હમણાં કુટીએથી વિકરાલ બની રહ્યું છે-ક્રોધ વગેરેના આવેગથી તારા દાંત पठान लीसी २हा छ त शरी२ सालीथी ५२७७ रघु छ. (भीमरसिय) ता॥ क्यनी मती भयोत्पाई छ. मेथी महासयन शहा यासनातु, (असुरनिभो) असुर । थ६ गये। छ। भने (पसुं हणसि) पशुनी त्यो श रही है. मेथी (अइरोह) भतिशय शैद्र ३५ धारीतु (रोदोऽसि) -પરિણામથી યુક્ત હેવા બદલ રૌદ્રરસ રૂપ છે તે તું યાદ રાખ કે કિર્દી વગેરેના ખો ભેગવવા પડશે. સૂ૦૧૭૩
-
For Private and Personal Use Only
Page #860
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १७४ सलक्षणवीडनकरसंनिरूपणम् ' अथ पश्चमं ब्रीडनकरसं सलक्षणं निरूपयति
- मूलम्-विणओवयारगुज्झगुरुदारमेरावइवइक्कमुप्पण्णो। वेलणओ नाम रसो, लज्जासंकाकरणलिंगो॥१०॥ वेलपाओ रसो जहा-कि लोइयकरणीओ लजणी अतरंति लजयामुत्ति । पारि जम्मि गुरुयणो परिवंदइ जं वहुप्पोत्तं ॥११॥सू०१७॥ .
- छाया-बिनयोपचारगुह्यगुरुदारमर्यादाव्यतिक्रमोत्पन्नः। डिनको ना। रसो लज्जाशकाकरणलिङ्गः। वीडनको रसो यथा-किं लौकिककरण्यासाननीय तर लज्जयामीति । वारिज्जे गुरुजनः परिवन्दते यत् वधूपोतम् ॥सू० १७४॥ . - टीका-विर्णो' इत्यादिf विनयापचारगुबगुरुद्वारमर्यादाव्यतिक्रमोत्पन्न:-विनयोपचार:-विनय यो मातापित्रादिगुरुजने विनयकरणम् , गुह्यं रहस्यम्, गुरुद्वारमयांदा-पिद
लावावादि गुरुजनभार्याभिः सह औचित्येन वर्तनम् , एतेषां इन्द्रा, तेषा मंतिकमा विपर्ययस्तस्मादुत्पन्नः-संजातः, तथा लज्जाशङ्काकरणलिक:-बजाय . भवासूबका चिये ब्रीडनक रस का लक्षण को कहते कान करते-पिणओवधार गुज्झ" इत्यादि।
शार्थ-विभोषयामगुरुदार मेरायहक्कमुप्पण्णी) पित करने के योग्य माता पिता आदि गुरु जनों की विनय के व्यक्तिमा उसंघन-से मिचारिजनों की गुप्त बातो आदि रूप रहस्य को मापनको के प्रकट करने से तथा पितृष्य-वाचा, एवं कलाबारी आदि मापजनों की धर्मपत्नियों के साथ औचित्यपूर्ण व्यवहार का प्रतिक्रम को सीडनक रस उत्पन्न होता है। (लज्जासंकाकरणतिगो)
હવે સરકાર પાંચમા વીડનક રસનું લક્ષણસહિત કથન કરે છે“विणभोवयारगुज्झ" त्याह
शहाथ-(विणक्यारगुज्झगुरुदारमेरावइक्कमुप्पण्णो) विना યોગ્ય માતાપિતા વગેરે ગુરુઓની સાથે અવિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરવાથી, મિત્ર વગેરેની ગુપ્ત વાત વગેરે રૂ૫ રહસ્યને બીજાઓની સામે પ્રકટ કરવાથી તેમજ પિતૃ (કાકા) અને કલાચાર્ય વગેરે માન્યજનેની ધર્મપત્ની સી
ચિત્યપૂર્ણ વ્યવહારના અતિક્રમ કરવાથી આ વીડનક રસ ઉત્પન્ન થાય छ. (लज्जा संका करणलिंगो) loron अने श प-1 पी ते भा २५
.
.
For Private and Personal Use Only
Page #861
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Santosdudayichar
A
-twanothinetv
.. अनयोगारमा शिरोऽधोऽवनमनादिरूपा, शङ्का-मां न कश्चित् किश्चिद् वदे १ दिविरूपा, त्यो करणं-विधानं लिङ्ग-लक्षणं यस्य स तथाभूतो ब्रीडनको नाम रसो भवति । अर भाषा-विनर्ययोग्यानां मातापित्रादिपूज्यजनानां विनयोपचारव्यतिक्रमे सरि सरजनस्य पश्चाद् ब्रीडा प्रादुर्भवति-अहो ! मया कथं मातापित्रादीनामपमान कृती इति, तथा-सुहृदां रहस्यस्य अन्यजनसन्निधौ कथने पश्चाद् सज्जन पीडा भवति-कथं मया सुहृदो रहस्यमन्यजनसन्निधौ निवेदितम् ? इति, तथासंबा-पितव्यकलाचार्यादिगुरुजनानां भार्याणां शीलभने कृते सति पश्चाद् ब्रीड़ समुत्पधते-अहो ! मया दुरात्मना किमिदं दुष्कृतं कृतम् ? इति इत्येवं रूपेप मीडनको रसः समुत्पद्यते। तथा च-शिरोऽधोऽवमनगात्रसंकोचस्मा लज्जा, म छज्जा और शंकाकरना ये इस रस के चिह्न होते हैं । ऐसा (वेलणभं माम रसो.) यह वीडनक नाम का रस होता है । तात्पर्य इसका या
क-विनय योग्य पूज्य माता पिता आदि गुरुजनों का यथायोस विनयोपचार जब उल्लंधित हो जाता है, तब सज्जन पुरुषों को बाद । लज्जा. आती है । वे विचारते हैं कि अरे ! हमने क्यों माता पित आदि जनों का अपमान किया है ? तथा अपने मित्रजनों का रहस्य जब दूसरे व्यक्तियों के पास प्रगट करता है, तब बाद में उस जबाटसकर्ता सज्जन को लज्जा आती है और वह सोचता है कि कमाने दूसरों के समक्ष अपने मित्र के रहस्य का उद्घाटन किया पिलव्य, कलाचार्य आदि गुरुजनों की भार्याओं का शीलमंग के
र मनुष्य को बाद में ब्रीडा उत्पन्न होती है। वह सोचता है। सत्मा ने यह दुष्कृत क्यों किया? इस प्रकार से यह नीडनक र अप होता है। शिर को नीचा नमाना शरीर को संकुचित करना हर ચિહ્યું છે. એ ગ્રીડના નામે રસ હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે વિનય પાગ્ય પૂજ્ય માતાપિતા વગેરે ગુરૂજને સાથે ઉચિત વિનોપચાર જ્યારે ઘરજને વડે ઉલંબિત થાય છે ત્યારે તેમને લજજાની અનુભૂતિ થાય છે, તેઓ વિચાર કરે છે, કે “અરે ! અમે માતાપિતા વગેરેનું અપમાન કર્યું છે તેમજ માણસ પોતાના મિત્રોની ગુપ્ત વાત જ્યારે બીજાને કહે છે ત્યારે તેને ગુપ્ત વાત કહ્યા બાદ લજજાની અનુભૂતિ થાય છે અને તે વિચાર કરે છેઅરે ! મેં દુરાત્માએ આ કામ શું કામ કર્યું?' આ પ્રમાણે તે વીડનેક રસ ઉત્પન્ન થાય છે લજજામાં મસ્તક નીચે થવું અને શરીર સંકુચિત
.
3
For Private and Personal Use Only
Page #862
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
.
अनयोगवादका टीका सूत्र १७४ सलक्षणवीडनकरसनिरूपणम् --- कचित् कंचित किमपि कथयिष्यति तु न ? इत्येवं सर्वत्र या मनसोऽभिशङ्कना शङ्का, तयोः करण निष्पादनमेवास्य लक्षणमिति। अस्योदाहरणमाइ-बीड़न रसो यथा-लौकिककरण्याः कौकिकक्रियायाः परं लज्जनीयतरम् अतिशयलजा स्पदं किमस्ति ? नातः परं किमपि लज्जास्पदमस्तीत्यर्थः, इत्यतोऽहं लेखो। लज्जायां हेतुमाह-यत्-यस्मात् कारणात् वारिज्जम्मि देशी शब्दोऽयम् विवाहे वधूवस्योः प्रथमसंगमे जाते 'पारिजमि विवाहे इत्यर्थः गुरुजनाः श्वश्रूश्वशुरादिः वधूपोत-स्नुषापरिधानवस्त्रं परिवन्दते-नमस्करोति । अस्य गाथाया अवतरणमेवं बोध्यम्-कस्मिंश्चिद् देशेऽयं व्यवहारडोस्ति, यत् वधूवरयोः भवन संप 'लज्जा' होती है । 'मुझसे कोई कुछ कहेगा तो नहीं प्रकार सर्वत्र जो मन में आशंका बन जाती है उसका नाम का है। लज्जा और शंका इनका उत्पन्न करना ही इस वीडनक रस के सक्षण हैं। इसको ज्ञान जिस प्रकार से होता है , सूत्रकार उस प्रवेश की (वेलणको रसो जहाँ) इन पदों द्वारा प्रकट करने की सूचना है। वे कहते हैं कि-'यह वीडनक रस इस प्रकार से है। जैसेलोइयकरणीओ लज्जणीअतरं ति लज्जया मुत्ति) इस लौकिककि से अधिक और लज्जास्पद बात क्या हो सकती है? मैं इससे बहुत लजाती हूँ। (वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदह ज बहुप्पोती वधूवर के प्रथम संगम होनेपर गुरुजन-सास ससुर आदि-जो वधपोत को-पहारा परिघृत वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। इस गाथा का तरंण सिप्रकार से है-किसी देश में ऐसे चाल है-कि 'जब वधूवर का કરવું થાય છે “મને કઈ કંઈ કહેશે તે નહીં?' આ પ્રમાણે મનમાં જે આશકાઓ ઉત્પન્ન થાય છે તે “શંકા છે લજજા અને જો ઉત્પન્ન થવી તેજ ગ્રીડનક રસનું લક્ષણ છે. આ રસનું જ્ઞાન , હોય છે, સૂત્રકાર તે વિષયમાં કહે છે કે “આ બ્રીડનાકરસ આ પ્રમ छ.२ ( लोइयकरणीओ लज्जणीअतरंति लज्जया मुत्ति) ae વ્યવહારથી વધારે કઈ લજજાસ્પદ વાત થઈ શકે છે? “મને તે એનાથી महुल शरभ भाव छ.' (वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं बहुप्पोत) भने त मानायी महुल शरम आवे छे (वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंद जं वह વ-વની પ્રથમ-સમાગમ પછી ગુરૂજને-સાસુસસરા વગેરે-વહુએ પહેરેલા વસના વખાણ કરે છે. આ ગાથાનું અવતરણ આ પ્રમાણે છે-કોઈ એક
For Private and Personal Use Only
Page #863
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
:: मनुबोगशाम - जन यदि पवा निवसनं शोणिताभिषिक्त भवति, तदा सा संमतसंगमान सती पर्वते इति लोका मन्यन्ते । तस्यास्तद्रक्तारुणितं वसनं. तत्सतीत्वख्यापना विहे प्राम्यते । तस्याः श्वशुरादयो गुरुजना बहुमानपुरस्सर तवं वन्दते संदेशचारमनुसृत्य कस्याश्चिद्वध्वास्तथाविधं निवसनं प्रतिगृहं नीयते गुरुजनैः मान्यते। तदृष्ट्वा वधूः स्वस वीं वदति -'कि लोइयकरणीओ' इत्यादि ।.१७४ प्रविधी विश्वविख्यात जगदल्लमादिपदभूषित बालब्रह्मचारी 'जैनाचार्य' पूल्या पाखीलालबतिविरपिया "अनुयोगद्वारसूत्रस्य" अनुयोगचन्द्रिकाख्यायां टीम
प्रथमो भागः समाप्तः .... मात्रि में प्रथम संगम होता-है-तब उस संगम में यदि वधूप
सभा वस-खून से युक्त होता तो, उससे वह ऐसी जानी जान FR-'यह पहिले अकृतसंगमा रही है अतः सती है। ऐसा लो मानते हैं। उसके उस रुधिररक्त-वस्त्र को हर एक घर में उसके सतीर
पन के लिये घुमाया जाता है। उसके श्वशुर आदि गुरुजन बगान पुरस्सर उस वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। इसी देशाचार के पर किसी वधू के उस प्रकार के वस्त्र को गुरुजनों द्वारा वंदित होत मा देल-कर किसी वधू ने अपनी सखी से ऐसा कहा है-कि" fi नदपकरणीओ इत्यादि । ॥ सू० १७४ ॥ जैनाचार्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'अनुयोगहार' सूत्रः
- अनुयोगचन्द्रिकाटीका का प्रथम भाग समाप्त .. માં એવી પ્રથા છે કે જ્યારે સુહાગરાત્રિમાં વધુવરને પ્રથમ સમાગમ અ ત્યારે તે સંગમમાં જે વધૂએ પહેરેલું વસ્ત્ર લેહીવાળું થઈ જાય છે તેથી એમ માનવામાં આવે છે કે તે આ પહેલા અમૃતસંગમાં રહી છે.
છે તે સતી છે. એવું કે માને છે તેથી વધુના તે લેહીથી ખરડાયેલા અને તેના સતીત્વની પ્રસિદ્ધિ માટે દરેકે દરેક ઘરમાં બતાવવામાં આવે છે
સુર વગેરે ગુરૂજને ભારે સન્માનપૂર્વક તે વસ્ત્રોના અબજ વખાણ કી છે. આ જાતના કાચારને અનુલક્ષીને કોઈ એક વધુના વાને ગુરૂજને જ પ્રસિત થતું જોઈને તે વધૂએ પિતાની સખીને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે" बोइयकरणीमो इत्यादि " ॥२०१७४॥ પાપ શી વાસીલાલજીમહારાજકૃત “અનુગદ્વાર સૂત્ર' ની અનુગ
यन्द्रिोटीन प3 समारत. .. ..
For Private and Personal Use Only
Page #864
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 610' ye qoyupuvut 2C9LZO ESTYSM, SUUS For Private and Personal Use Only