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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगद्वार अनुपेक्षया वर्तमानः साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी भवति? उत्तरयति-अणुवओगो दवमितिकटु' अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । अनुपयोगो हि द्रव्यं भवति, अतोऽनु. पेक्षयाऽवर्तमानः साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी भवति । नेगमादि भेदेन द्रव्यानुपूर्वी भेदास्त्वेवं विज्ञेयाः नैगमस्य खलु एकोऽनुपयुक्त भागमत एका द्रव्यानुपूर्वी, यावत् यावच्छन्दात् द्वावनुपयुक्तौ आगमतो द्वे आनु. पूज्यौं । त्रयोऽनुपयुक्ता आगमतस्तिस्रो द्रव्यानुपूर्व्यः । एवमेव व्यवहारस्यापि । सम्यक् प्रकार से जान लिया है-सीख लिया है-वह उसका पूर्णरूप से ज्ञाता बन चुका है, अतः वह साधु उस आनुपूर्वी में वाचना पृच्छना आदि से वर्तमान होने पर भी उसमें उपयोग से रहित होने के कारण वह आगम से द्रव्यानुपूर्वी कहलाता है। (णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एमा दवाणुपुव्वी, जाव कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवह, जइ अणुवउत्ते जाणए न भवइ, तम्हा णस्थि आगमओ दव्वाणुपुत्वी से तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी) अब सूत्रकार नैगमनय आदि के भेद से द्रव्यानुपूर्वी के भेदों को कहते है-इन में नैगमनय की दृष्टि से एक अनुपयुक्त आत्मा-साधु आगम से एक द्रव्यानुपूर्वी है। यहां यावत् शब्द से ऐसा जानना चाहिये-कि दो अनुपयुक्त साधु आगम से दो द्रव्यानुपूर्वी हैं। तीन अनुपयुक्त साधु, आगम से तीन द्रव्यापूर्वी हैं। इस प्रकार जितने अनु. पयुक्त साधु हैं आगम से उतनी ही द्रव्यानुपूर्वीयां हैं। इसी प्रकार से व्यवहारनय की दृष्टि से द्रव्यानुपूर्वी में एकत्व अनेकत्व का कथन સાધુ આનુપૂરમાં વાચન, પૃચ્છના, આદિ વડે વર્તમાન હોવા છતાં પણ તેમાં ઉપયોગથી રહિત હોવાને કારણે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂરી કહેવાય છે. (णेगमस्स ण एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दवाणुपुवी जाव कम्हा ? जइ जाणए अनुवउत्ते न भवइ, जइ अनुवउत्ते जाणए न भवइ, तम्हा गस्थि भागमो दव्वानुपुवी-सेतं आगमओ दव्वानुपुव्वी) હવે સૂત્રકાર નૈગમનય આદિના ભેદથી દ્રવ્યાનુપૂવીના ભેદનું કથન કરે છે–નગમ નયની દષ્ટિએ એક અનુપયુક્ત આત્મા (સાધુ) આગમની અપેક્ષાએ એક દ્રવ્યાનુપૂવી છે. અહીં “યાવત્ ” પહથી નીચેને પૂર્વોત સૂત્રપાઠ ગ્રહણ કરે. નૈગમનયની દૃષ્ટિએ બે અનુપમયુકત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ બે દ્રવ્યાનુપૂવી છે, ત્રણ અનુપયુકત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ ત્રણ દ્રવ્યાનવી છે. એજ પ્રમાણે જેટલા અનુપયુક્ત સાધુ છે એટલાં જ આગમની અપેક્ષાએ ભાનુપૂવી છે. એ જ પ્રમાણે વ્યવહારનયની અપેક્ષાએ પણ દ્રવ્યાનુપૂવીમાં For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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