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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ अनुयोगबारसने - छाया--अथ किं तद् ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतम् ? ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतंश्रुतेति पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं तदेव पूर्वभणित भणितव्यं यावत, तदेतत् ज्ञायकश्रीरद्रव्यश्रुतम् ॥सू० ३६॥ टीका-से कि त जाणयसरीरदकसुयं' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ।।सू० ३६॥ ज्ञायकशरीर द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है-इस बात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-"से किं तं जाणयसरीरदब्बसुयं” इत्यादि ॥१० ३६॥ . शब्दार्थ-(से कि तं जाणयसरीरव्वसुय) हे भदन्त (ज्ञायाशरीर द्रव्य श्रत का क्या स्वरूप है ? उत्तर--(सुयत्तिपयत्थाहिगारजाणयस्स) श्रुत शब्द वाच्य आगम के अर्थ रूप अधिकार के ज्ञाता का ऐसा (सरीरय) शरीर (जं) जो (ववगयचुय चावियचत्तदेह) व्यपगत-चैतन्य पर्याय से रहित हो चुका है, च्युत-दश प्रकार के प्राणों से परिवर्जित हा गया है, च्यावित-बलिष्ठ आयुक्षय के कारणों से प्राण रहित हो गया है। त्यक्तदेह आहार परिणत जनित वृद्धि जिससे सर्वथा निकल चुकी है (जाणयसरीरदव्वसुयं) ज्ञायकशरीर द्रव्यश्रुत है। (तं घेव पुन्चभणियं) यहां पर १७ में मृत्र कथित इस विषय संबन्धी इस व्यपगत आदि पाठ से आगे (जाव से त जाण सरीरदव्वसुय) ज्ञायकशरीर द्रत्यश्रुत का पाठ (भाणियध्वं) ग्रहग करलेना चाहिये। इसकी (व्याख्या १७ वे सूत्र में कही गई हैं। ॥ सूत्र ३६ ॥ હવે સૂત્રકાર જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યકૃતના સ્વરૂપનું નિરૂ પણ કરે છે–. "से किं तं जाणयसरीरद सुय" त्या शा-(से किं तं जाणयसरीरदव्वसुय?) शिष्य गुरुने मेवो न પૂછે છે કે હે ભગવન ! જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યશ્રતનું સ્વરૂપ કેવું છે? उत्तर-(सुयत्ति पयत्थाहिगारजाणयस्स) श्रत २०४ना वाय: मेवा मारभना अथ३५ मधिना . ज्ञातानु (सरीत्य) शरी२ (ज) ३ रे (वरगयचुय चावियचत्तदेह) व्यपात थ युयु छ थैतन्य पर्यायथी सहित ५४ युयु छ, ચુત થઈ ચુક્યું છે દસ પ્રકારના પ્રાણથી રહિત થઈ ચુકયું છે, યાવિત થઈ ચુકયું છે, બલિષ્ઠ આયુક્ષયના કારણેથી પ્રાણરહિત થઈ ચુક્યું છે, ત્યકતદેહ થઈ ચુકયું છે આહાર પરિણતિ જનિત વૃદ્ધિ જેમાંથી સર્વથા નીકળી ચુકી છે (जाणयसरीरदध्वसुर्थ) i शरी२ने 'शाय शरीर द्रव्यश्रुत' ३५ अपामा भावे छ. (त चेव पुवं भणिय) मही १७भा सत्रमा थित मा विषय समधी मा ०५५nd All vथी २३ ४रीने (जाव से त जाणयसरीरदध्वसुर्य) शाय. शरीर द्रव्यात पर्यन्तन पार (भाणियबं) अY ४२वे नये. तेनी ०याच्या ૧૭માં સુત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. સ. ૩૬ છે For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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