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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगटारसने शावकाः, कुक्कुटकाः कुक्कुटकशावकाः-तद्भूताः तत्सदृशा । 'सिंहकुक्कुट' शब्दौ अत्र तत्तच्छावकपरौ । तज्जना हरिणशिशुसिंहशिशुकुक्कुटशिशव इव अत्यन्त सरल इत्यर्थः। तथा-रत्नमिव असंस्थापिता-सहजरत्नमिवासंस्कृता भवति । सा परिषत् सुखसंज्ञाप्या अनायासबोधनीया गुणसमृद्धा-गुणगणयुता च भवति । किं च "जा खलु अभावियाकुस्सुइहिं न य ससमए गहियसारा । अकिले सकरा सा खलु, वहरं छक्कोडिसुद्धं व ॥" छोया-या खलु अभाविता कुश्रुतिभिः, न च स्वसमये गृहीतसारा । अक्लेशकारी सा खलु वज्र षट्कोटिशुद्धमिव ॥२॥ अयं भावः-या परिपत् कुश्रुतिभारभाविता भवति, न च स्वसमये गृहीत सारा स्वसिद्धान्ताभिज्ञा च न भवति, अक्लेशकारी-क्लेशोत्पादिका न भवति, या च षटकोटिशुद्धं सर्वथा शुद्ध वज्रमिव हीरक इव विशुद्धा भवति, सा खल्व ज्ञायकपरिषदुच्यते । इति ॥ सम्प्रति दुर्विदग्धपरिषदुच्यते"न य कत्थ वि निम्माओ, न य पुच्छड् परिभवस्स दोसेणं । बत्थिव वायपुष्णो, फुट्टइ गामेल्लग वियत ॥१॥ किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य । दुवियटुंगा उ एसा, भणिया तिविहा इमा परिसा" ॥२॥ रत्न के समान असंस्कृत होते हैं। और इसी से जिन्हें समझाना बहुत सरल होता है-अर्थात् जो थोड़े से कहने में ही सन्मार्ग पर आ जाते हैं। ये सव गुणगण से युक्त रहा करते हैं। "जा खलु अभाविता" इत्यादि--यह परिषत् कुतियों के बहकावे में नही आती है और अपने सिद्धान्त के पीछे यह लहना झगडना नहीं जानती है। षट्कोटि शुद्ध हीरे के समान यह परिपत् विशुद्ध होती है। दुर्विदग्ध परिषत् का स्वरूप इस प्रकार से है-"नय कत्थ वि" इत्यादि-जो पुरुष किसी भी विषय में निष्णात न हो और जो पुरुष શિશુ સમાન સરલભાવથી યુકત હોય છે. અને ખાણામાંથી નીકળેલા રત્ન સમાન જે અસંસ્કૃત હોય છે. જે પરિષદાને ધર્મતત્વ સમજાવવાનું કાર્ય ઘણું જ સરલ હોય छ. मेवा शुशथी युत परिवहन अज्ञाय परिषद ४१ छ. "जा खलु अभावित्ता" કુશાસ્ત્રો આ પરિષદને બહેકાવી શકતાં નથી અને તે પરિષદ સ્વ સિદ્ધાંતથી અભિન્ન પણ હોતી નથી. સિદ્ધાન્તને નામે તને ઝગડા કરતા પણ આવડતા નથી. ષટ્રટિ શુદ્ધ હીરા સમાન વિશુદ્ધ આ પરીષદ હોય છે. For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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