SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org मानुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूानुपूर्व्यादिमेदत्रयनिरूपणम् ४२५ समुदाये यः पाश्चात्या अन्तिमस्तस्मादारभ्य व्यतिक्रमेण या ऽऽनुपूर्वी निक्षिप्यते सा पथानुपर्छ । अनानुपूर्वी-पूर्वानुपूर्वीपश्चानुपूर्वीभ्यां मिन्नस्वरूपा याऽऽनु पूर्वी साऽनानुपूर्वी ॥ मू०९॥ पूर्वानुपूर्यादिभेदत्रयं निरूपयितुमाह. मूलम्-से किं तं पुव्वानुपुब्बी ? पुवाणुपुवी-धम्मत्थिकाये अधम्मत्थिकाये, आगासत्थिकाये, जीवत्थिकाये, पोग्गलत्थिकाये, अद्धासमथे। से तं पुव्वाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुवी? पच्छाणुपुची-अद्धासमए, पोग्गलस्थिकाए, जीवस्थिकाए, आगासत्यिकाए, अहम्मस्थिकाए, धम्मत्थिकाए। से तं पच्छाणुपुत्वी। से किं तं अगाणुपुवी? अणाणुपुब्धी-एयाए घेव पगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णम्भासो दुरुपूणो । से तं अणाणुपुत्वी ॥सू०९८॥ छाया-अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयः। सैषा पूर्वा की जाती है-रखी जाती है वह पूर्वानुपूर्वी है । तथा उसी द्रव्य विशेष के समुदाय में जो पाश्चोत्य-अतिमद्रव्य है-उससे लेकर व्यक्तिक्रम से जो आनुपूर्वी निक्षिप्त की जाती है वह प्रश्चानुपूर्षी है। पूर्वानुपूर्षी एवं पश्चानुपूर्वी इन दोनों से भिन्न स्वरूप वाली जो आनुपूर्वी है वह भनानुपूर्वी है । ॥ सू० ९७ ॥ पूर्वानुपूर्वी आदि जो तीन भेद हैं उनका स्वरूप क्या है इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं-"से किं तं पुव्वानुपुत्वी" इत्यादि। તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી છે. તથા એજ દ્રવ્યવિશેષના સમુદાયમાં જે પાશ્ચાત્યઅંતિમ દ્રવ્ય છે, ત્યાંથી શરૂ કરીને એટલે કે ઉલટા ક્રમથી જે આનુપૂર્વી રાખવામાં આવે છે તેને પશ્ચાપૂર્વા કહે છે. પૂર્વાનુપૂર્વી પશ્ચાતુપૂર્વી, આ બનેથી ભિન્ન સ્વરૂપવાળી જે આનુપૂવી છે તેને અનાનુપૂર્વી કહે છે. સુત્રા હવે સૂત્રકાર પૂર્વાનુપૂવ આદિ ત્રણ ભેદના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે"से किं त पुव्वानुपुव्वी" त्याहिम. ५४ For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy