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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मालकागाना - - - - अनुयोगचन्द्रिका टीका.५० ४७ द्रव्यस्कन्ध निरूपणम् भणितम् । नवरं स्कन्धाभिलामो यावत्-अथ कोऽसौ नायकशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः ? ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यम्कन्धविविधा प्राप्ता, तद्यथा-सचित्तः अचित्तो मिश्रकः ॥४७॥ टीका-'से किं तं' इत्यादि । व्याख्या निगढसिद्धा ॥० ४ा" विक्वियं सेसं जहा दव्वावस्सए तहा भाणियब्ब) उत्तर-आगम से-आगम को आश्रित करके- द्रव्यस्कंध का स्वरूप इस प्रकार से है, जिस साधु आदि ने. कंध इस पदके अर्थ को गुरु के मुख से सीख लिया है यहां से लेकर "ठियजिय" आदि शेष पदों को यहां कहना चाहिये और उनका अर्थ जिस प्रकार से द्रव्यावश्यक के वर्णन में कहा गया है वैसा ही अर्थ यहाँ पर उस पाठ का लगा लेना चाहिये। इस तरह स्कंध संघन्धी आलाप "अथ कोsil मायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कंधः" यहां तक समझलेना चाहिये। (जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण्णत्ते) ज्ञायकशरीर भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कंध तीन प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) वे प्रकार ये हैं (सचिन अचित्ते भीसए) सचित्त, अचित्त और मिश्र। .. भावार्थ:-शिष्य ने गुरुमहाराज से पूछा है कि है भदन्त ! द्रव्य स्कंध का स्या स्वरूप है ? तब गुरु महाराज ने उसे समझाने के लिये ऐसा कहा कि हे शिष्य । द्रव्य स्कंध को स्वरूप दो प्रकार से निर्धारित किया गया है-१ દ્રવ્યસ્કન્વનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-“જે સાધુએ “રક, આ પદના અર્થને ગુરુની सभी शीभी सीधे। छ,' महीथी २३ ४शन "ठियं जिय" माहिद्र०यावश्य। સુત્રમાં આવેલા પદેને અહીં પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. તે પદોને જે પ્રકારને અર્થે દ્રવ્યાવશ્યક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યો છે, તે પ્રકારને અર્થ અહીં પણ As थो नये. या रे २४.५ मी. "अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः" मी सुधीनु अ य नय. (जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण्णत्ते) शायरी અને ભવ્ય શરીર ૦૧તિરિત (થી ભિન્ન) દ્રવ્યકન્ય ત્રણ પ્રકારને કહ્યો છે. (तं जहा) ते मारे। मा प्रभाछ (सचिते अचित्त मीसए) (१) सथित्त (२) अयित्त भने (3) मिश्र.. ભાવાર્થ-શિષ્ય ગુરુ મહારાજને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન ! દ્રવ્યસ્ક શ્વનું સ્વરૂપ કેવું છે?” ત્યારે ગુરુ તેને તે સમજાવવા માટે ભેદ પ્રભેદપૂર્વક તેના સ્વરૂપનું નીચે પ્રમાણે નિરૂપણ કરે છે. તેઓ તેને કહે છે કે દ્રવ્યકત્વનું સ્વરૂપ બે પ્રકારે નિર્ધારિત કરી શકાય છે २८ . 16 For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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