SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 731
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१४ अनुयोगद्वारसूत्रे शुभसुभगसुस्वरादेययशाकीर्त्यादिकं यस्य स तथा। क्षीणाशुभनामा-क्षीणम् अशुभनाम-नरकगत्यशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशाकीर्त्यादिकं यस्य स तथा। अनामा निनामा क्षीणनामा इति त्रयोऽपि शब्दाः 'अभोहः' इत्यादिवद् भावनीयाः। उपसंहरनाह-शुभाशुभनामकर्मविषमुक्त इति। गोत्रम्-उच्चनीचभेदेन द्विविधं भवति । सम्पति तत्क्षयसंभवोनि नामान्याह-क्षीणोच्चगोत्रः' इत्यारभ्य भिन्नता जाननी चाहिये । (खीण सुभणामे) नामकर्म के नष्ट होने पर तीर्थकर, शुभ, सुगम, सुस्वर, आदेय और यशाकीर्ति आदि-जो शुभ नाम हैं ये सब विनष्ट हो जाते हैं इसलिये "क्षीणशुभनामा" यह नाम निष्पन्न होता है । (खीण असुभणामे) इसी प्रकार नामकर्म के नष्ट होने पर नरकगति, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर अनादेय, और अयशः कीर्ति आदिक अशुभ नाम नष्ट हो जाते हैं । इसलिये ' क्षीणाशुभनामा" यह नाम निष्पन्न हो जाता है। (अणामे, निष्णामे, खीणनामे) अनाम, निर्नाम और क्षीणनाम ये तीनों शब्द भी अमोह आदि शब्दों के जैसे समझना चाहिये। (सुभासुभणामकम्मविप्पमुक्के) इस प्रकार गति विप्रमुक्त से लेकर क्षीणनाम तक के ये नाम इस शुभाशुभनामकर्म से सर्वथा रहित हो जाने पर निष्पन्न होते हैं। (खीण उच्चागोए खीण नीयागो) अय सूत्रकार गोत्रकर्म से विप्रमुक्त सारे तेमनी १२ये भिन्नता सभापी नसे. (खीणसुभणामे) नाममना નાશ થતાં જ તીર્થકર, શુભ, સુભગ, સુસ્વર, અદેય, યશ કીર્તિ યુકત આદિ જે શુભ નામે હોય છે તેમને પણ નાશ થઈ જાય છે, તેથી એવા જીવનું "क्षी शुभनामा" मा नाम निष्पन्न याय छे. (खीण असुमणामे) से प्रभारी नाममना नाश थतi २४गति, अशुभ, हु, १२, मनाय, અયશકીતિક આદિ અશુભ નામે પણ નાશ થઈ જાય છે તેથી એવા पनु “क्षाशुलनामा" नाम नि0पन्न थाय छे. (अणामे, निण्णामे, खीण. णामे) 4जी नाम:म निभूण 25 थी ना " मनाम, निनाम, सने ક્ષીણુનામ” આ નામો પણ નિષ્પન્ન થાય છે. આ ત્રણે શબ્દોનો ભેદ અમેહ, निड भने क्षीमाना व समन्व. (सुभासुभणामकम्मविषमुक्के) જ્યારે આત્મા શુભાશુભ નામકર્મથી સર્વથા રહિત થઈ જાય છે ત્યારે તેના ગતિવિપ્રમુક્તથી ક્ષીણનામ પર્યન્તના ઉપર્યુકત નામે નિષ્પન્ન થાય છે. - હવે સૂત્રકાર ગાત્રકને ક્ષય થઈ જવાથી આત્માના જે જે નામો નિષ્પન્ન થાય છે, તેમનું નિરૂપણ કરે છે– For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy