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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५० पञ्चनामनिरूपणम् अथ पश्चनाम निरूपयितुमाह मलम् से किं तं पंचनामे? पंचनामे-पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-नामियं णेवाइयं अक्खाइयं ओवसग्गियं मिस्सं। आसे दण्ड भग्गं दण्ड+अग्रम् सा आगया, दहि+इणं, नई+ईह महु+उदगं, बह ऊहो, इन विकार निष्पन्न नामों में सर्वत्र दीर्घरूप विकार हुआ है। वर्ण के स्थान में दूसरे वर्ण का होना इसका नाम विकार है तथा उस उस रूप से परिणमन होनो इसका नाम नाम है। विकार होने पर इनका "दंडग्गं साऽऽगया, दहीणं, नईह महूदगं, वहूहो" ऐसा रूप हो जाता है। लोक में जितने भी शब्द हैं वे आगम आदि किसी एक से निष्पन्न हुए ही होते हैं । तथा "डिस्थ डवित्थ आदि जो शब्द अव्युत्पन्न किन्हीं के द्वारा माने हुए हैं वे भी शाकटायन के मत में व्युत्पन्न ही माने गये हैं। उक्तंच-नाम च धातुजमाह निरूक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदह्यम्" इस प्रकार समस्त शब्दों का इन आगमादि चारों से संग्रह हो जाता है इसलिये आगमादिक चतुर्नाम कहे जाते हैं ।सू० १४९॥ "दंड+अग्गं सा+आगया दहि+इणं, नई+इह, महु+उदगं, मने बहू+ऊहो" मा मां पहोमा सन्धि ३५ वि७२ ७२ "श्रम, सागया, दहीणं, नईह, महूदगं, बहहो" त्या विनि०५-न नामा मयां छ. ४ વર્ણને સ્થાને બીજા વર્ણને પ્રયાગ થશે તેનું નામ વિકાર છે. જે નામમાં આ પ્રકારનું પરિણમન થયું હોય છે, તે નામને વિકારનિષ્પના નામે કહે है. “ दंड+अग्गं " ALE G५युत पहीमा सन्धिन र वि२ पाथी " दण्डान, साऽऽगया, दहीणं, नईह, महूदगं वहहो पा रन ३॥ जना ગયાં છે. લેકમાં જેટલાં શબ્દો છે, તેઓ આગમ આદિ પૂર્વોક્ત ચાર अाशमान ४२ नि०५- येai हाय छे. तथा "डित्थ डवित्थ" આદિ જે શબ્દને કે કઈ લોકે દ્વારા અગ્રુપન માનવામાં આવે છે, પરન્તુ શાકટાયનના મત અનુસાર તેમને પણ બુન જ માનવામાં આવેલ ७. ४थु ५५ है-" नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम् यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम्" मा प्रारे સમસ્ત પદનો આ આગમ આદિ ચારેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી આગમાદિ રૂપ ચતુર્નામ રૂપે અહીં તેમને પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. સૂ૦૧૪ For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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