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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - अनुयोगदारमत्रे पञ्चविधेषु ज्ञानेषु श्रुतज्ञानस्यैव उद्देशसमुदेशाद्यवसरेऽधिकारो स्ति, नेतरेपामिति बोधयितुमाह मूलग--तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइं ठवणिजाई गो उद्दिसति, जो समुदिसंति, णो अणुषणविजंति । सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ॥ सू० २ ॥ छा। तत्र चत्वारि ज्ञानानि स्थाप्यानि स्थापनीयानि नो उद्दिश्यन्ते, नो समुद्दिश्यन्ते, नो अनुज्ञाप्यन्ते । श्रुतज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते।सू०२॥ टीका-'तत्थ चत्तारि' इत्यादि- .. तत्र-तेषु पञ्चविधेषु ज्ञानेषु चत्वारि-चतुःसंख्यकानि ज्ञानानि आमिनिबोविकाऽवधिमनःपर्यवकेवलरूपाणि असंपवहार्याणि-न व्यवहाराहा॑णि 'ठप्पाई' स्थाप्यानि उद्देशसमुद्देशाधवसरे अत एव 'ठवणिज्जाइ' स्थापनी शनि-अनधिकृतानि । न तेषामुद्देशादयः नियन्ते इति भावः । ___ अव सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पांच प्रकार के जो ये ज्ञान हैंइनमें श्रुज्ञिान का ही उद्देश, समुदेश आदि के अवसर में अधिकार है दूसरे चार ज्ञानो का नहीं-- "तत्थ चत्तारि"-इत्यादि । ॥ २॥ शब्दार्थ:-(तत्य) इन पूर्वोक्त पांच प्रकार के ज्ञानों में (चत्तारि नाणाई) चार प्रकार के ज्ञान-मति-अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान-(ठप्पाइ) उद्देश, समुद्देश आदि के अवसर में व्यवहारयोग्य नहीं हैं । कों कि ये गुरु के उपदेश की अपेक्षावाले नहीं हैं। इसलिये (ठवणिज्जाई) ये स्थापनीय हैंअर्थात् इनके उद्देश आदि नहीं-किये गये हैं । इस विषय में ऐसा जानना चाहिये कि श्रुतज्ञान ही वाचना आदि द्वारा अपने विषः भूत पदार्थों में હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે પાંચ પ્રકારના જે જ્ઞાન છે તેમાંથી શ્રતજ્ઞાનને જ ઉદ્દેશ, સમુદેશ આદિને અવસરે અધિકાર છે- અન્ય ચાર જ્ઞાનેને નથી. "तत्थ चारि" त्या २०४ाय-(तत्थ) हित पांय ४२i शानामांथी (चत्तारि नाणाई) यार પ્રકારનાં જ્ઞાન એટલે કે મતિજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન (ठप्पाई) हेय, समुदेश माहिना भयसरे व्यवहारयोग्य नथी. २६५ ॐ य.रे ज्ञानमा गुरुना उपदेशनी अपेक्षा रडती नथी, तेथी (ठवणिज्जाइ) ते थारे ज्ञान સ્થાપનીય છે. એટલે કે તેમના ઉદ્દેશ આદિ કરવામાં આવેલ નથી આ વિષયને અનુલક્ષીને એવું સમજવું જોઈએ કે શ્રતજ્ઞાન જ વાચન આદિ દ્વારા પિતાના For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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