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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२० भनुयोगद्वार कायमस्य त्रिधा परिकल्पनया सम्पद्यन्ते । तत्रास्यां रत्नप्रभायां बहुसमभूभागे मेरुमध्ये नमःम देशद्वयेऽष्टमदेशो रुचकोऽस्ति । तस्य प्रतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादस्तनतरादारभ्याधोऽभिमुखं नव योजनशतानि परिहृत्य परतः सातिरेकसप्तरज्ज्वायतोऽधोलोकः । अथवा - अधः शब्दोऽशुभार्थकः तत्र च क्षेत्रप्रभावाद बाहुल्येनाशुमएव द्रव्याणां परिणामो भवति । अशुभपरिणामिद्रव्यवश्वादेव स लोकः अधोलोक इत्युच्यते । उक्तं च 'अव अहोपरिणामो खेत्ताणुभावेण जेण भोसण्णं प्रायः । सुभो अहोति भणिओ दव्वाणं तेणऽहोलोगो ॥ " छाया - अथवा अधः परिणामः क्षेत्रानुभावेन येनोत्सन्नम् । अमोध इति मणिवो द्रव्याणां तेनाधोलोकः ॥ इति । 44 कायों से व्याप्त है लोक के अधः मध्य और ऊर्ध्व इस प्रकार से ये तीन विभाग हैं। इस रत्नप्रभा पृथिवीपर बहु समभूभागवाले मेरु पर्वत के मध्य में आकाश के दोप्रतरों में अर्थात् दो दो प्रदेशों के वर्ग में आठ रुचक प्रदेश हैं । उस प्रतरद्वय में से एक अधस्तन प्रतर से ले कर नीचे की नौ सौ योजन की गहराई को छोड़कर उसके आगे नीचे कुछ अधिक सात राजू विस्तारवाला अधोलोक है। अथवा अधः शब्द अशुभ अर्थ का वाचक है। उस अधोलोक में क्षेत्र के प्रभाव से अधि कतर अशुभ ही द्रव्यों का परिणाम होता है। इसलिये अशुभ परि णामवाले द्रव्यों से युक्त होने से कहा जाता है यही बात उत्कंच करके अहव अहो परिणामो " इत्यादि गाथा द्वारा निर्दिष्ट की गई है। तथा उसी प्रकार द्रव्यमें से एक उपरितन प्रतर से लेकर ऊंचे नौ सौ व्याप्त छे. बोडना श्रायु विभाग नीचे प्रभावे छे - (१) अषः (२) भभ्य भने (૩) વ* આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી પર બહુસમભૂભાગવાળા મેરુ પવતના મધ્યમાં આકાશના એ પ્રતરામાં એટલે કે બન્ને પ્રદેશેાના વર્ગમાં આઠ રુચક્રપ્રદેશ છે. તે એ પ્રતરમાંના એક અપસ્તન પ્રતથી લઇને નીચે ૨૦૦ ચેાજનની ઊંડાઈને પાર કરવાથી સાત રાજ્ કરતાં અધિક વિસ્તારવાળા ખીલાક આવે છે અથવા પ૪ અશુભ અર્થનું વાચક છે. તે અધાલાકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવને લીધે અધિકતર અશુભ દ્રવ્યપરિણામ જ હોય છે. આ રીતે અશુભ પરિણામવાળાં દ્રવ્યેાથી યુક્ત હાવાને કારણે તે લેાકને અપેાલેાકને નામે भोभवामां आवे मे बात सूत्रारे " अहब अहो परिणामो " ઇત્યાદિ ગાથા દ્વારા પ્રાટ મી છે, " < अधः For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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