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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . अनयोगवादका टीका सूत्र १७४ सलक्षणवीडनकरसनिरूपणम् --- कचित् कंचित किमपि कथयिष्यति तु न ? इत्येवं सर्वत्र या मनसोऽभिशङ्कना शङ्का, तयोः करण निष्पादनमेवास्य लक्षणमिति। अस्योदाहरणमाइ-बीड़न रसो यथा-लौकिककरण्याः कौकिकक्रियायाः परं लज्जनीयतरम् अतिशयलजा स्पदं किमस्ति ? नातः परं किमपि लज्जास्पदमस्तीत्यर्थः, इत्यतोऽहं लेखो। लज्जायां हेतुमाह-यत्-यस्मात् कारणात् वारिज्जम्मि देशी शब्दोऽयम् विवाहे वधूवस्योः प्रथमसंगमे जाते 'पारिजमि विवाहे इत्यर्थः गुरुजनाः श्वश्रूश्वशुरादिः वधूपोत-स्नुषापरिधानवस्त्रं परिवन्दते-नमस्करोति । अस्य गाथाया अवतरणमेवं बोध्यम्-कस्मिंश्चिद् देशेऽयं व्यवहारडोस्ति, यत् वधूवरयोः भवन संप 'लज्जा' होती है । 'मुझसे कोई कुछ कहेगा तो नहीं प्रकार सर्वत्र जो मन में आशंका बन जाती है उसका नाम का है। लज्जा और शंका इनका उत्पन्न करना ही इस वीडनक रस के सक्षण हैं। इसको ज्ञान जिस प्रकार से होता है , सूत्रकार उस प्रवेश की (वेलणको रसो जहाँ) इन पदों द्वारा प्रकट करने की सूचना है। वे कहते हैं कि-'यह वीडनक रस इस प्रकार से है। जैसेलोइयकरणीओ लज्जणीअतरं ति लज्जया मुत्ति) इस लौकिककि से अधिक और लज्जास्पद बात क्या हो सकती है? मैं इससे बहुत लजाती हूँ। (वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदह ज बहुप्पोती वधूवर के प्रथम संगम होनेपर गुरुजन-सास ससुर आदि-जो वधपोत को-पहारा परिघृत वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। इस गाथा का तरंण सिप्रकार से है-किसी देश में ऐसे चाल है-कि 'जब वधूवर का કરવું થાય છે “મને કઈ કંઈ કહેશે તે નહીં?' આ પ્રમાણે મનમાં જે આશકાઓ ઉત્પન્ન થાય છે તે “શંકા છે લજજા અને જો ઉત્પન્ન થવી તેજ ગ્રીડનક રસનું લક્ષણ છે. આ રસનું જ્ઞાન , હોય છે, સૂત્રકાર તે વિષયમાં કહે છે કે “આ બ્રીડનાકરસ આ પ્રમ छ.२ ( लोइयकरणीओ लज्जणीअतरंति लज्जया मुत्ति) ae વ્યવહારથી વધારે કઈ લજજાસ્પદ વાત થઈ શકે છે? “મને તે એનાથી महुल शरभ भाव छ.' (वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं बहुप्पोत) भने त मानायी महुल शरम आवे छे (वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंद जं वह વ-વની પ્રથમ-સમાગમ પછી ગુરૂજને-સાસુસસરા વગેરે-વહુએ પહેરેલા વસના વખાણ કરે છે. આ ગાથાનું અવતરણ આ પ્રમાણે છે-કોઈ એક For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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